दिनांक 30 जनवरी, 1977;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
पहला प्रश्न :
एक ही प्रश्न उठ रहा है हृदय में और वह भी पहली बार कि कौन है तू? क्या है, कहां पर है? अपने से पूरी—पूरी पहचान हो जाये ताकि एक जान हो जायें। तू तू न रहे, मैं मैं न रहूं। एक दूजे में खो जायें। और जब तक पहचान नहीं होती तब तक एक कैसे हो जायें? और उचित भी यही है कि तभी मैं आपके दरबार में आऊं। आने का मजा भी तभी रहेगा।
ऐसे अपने मन को धोखे मत देना। निरंतर आदमी बचने की नई—नई तरकीबें खोज लेता है। परमात्मा के द्वार में भी तुम तब जाओगे जब अपने को जान लोगे तो परमात्मा के द्वार में जाने की जरूरत क्या रह जायेगी? और यह अकड़ छोड़ो कि अपने को जानकर पहुंचेंगे, कुछ पात्रता लेकर पहुंचेंगे, कुछ योग्य बनकर पहुंचेंगे।
यह तुम्हारी योग्यता और तुम्हारी पात्रता का रोग ही तो तुम्हें भटका रहा है। कुछ होकर पहुंचेंगे। ऐसे कैसे चले जायें नंग—धड़ंग? कुछ साज—सामान से पहुंचेंगे। परमात्मा के दरबार में भी तुम जैसे हो वैसे ही नहीं जाओगे? आयोजन करोगे? पहले और तरह के आयोजन थे सिंहासनों के, अब यह नया सिंहासन खोजा—आत्मज्ञानी होकर पहुंचेंगे।
'तभी तो मजा रहेगा।’
तुम परमात्मा के सामने भी निरीह, अकिंचन बनकर खड़े न हो सकोगे? तुम परमात्मा के सामने भी अज्ञानी बनकर खड़े न हो सकोगे? वहां भी अहंकार को ले जाओगे? अपने को जानकर जाओगे? बात बड़ी ऊंची तुमने कही ऐसा लगता, लेकिन ऊंची बातों में हम बड़ी नीची बातें छिपा लेते हैं। आदमी की कुशलता अपार है। वह रोगों के ऊपर बड़ी सुगंधिया छिड़क लेता है। भ्रांतियों को भी अच्छे—अच्छे नाम दे देता है। यह आत्मज्ञान भी अहंकार की ही सूक्ष्म घोषणा है।
वहां तो तुम ऐसे ही चले जाओ, जैसे हो। तैयार मत होओ। सजी मत। मजा इसमें ही है कि तुम जैसे हो ऐसे ही चले जाओ। तुम जैसे हो ऐसे ही वहां स्वीकार हो। जरा भी अन्यथा होने की जरूरत नहीं है। परमात्मा की कोई भी शर्त नहीं है तुम पर कि तुम ऐसे होओ, तब आ सकोगे। अगर किन्हीं ने शर्तें लगाई हैं तो परमात्मा ने नहीं, तुम्हारे महात्माओं ने लगाई हैं। कि पहले साधु बनो, पहले तपस्वी बनो, त्यागी बनो, आचरण, पुण्य—और इतनी शर्तें लगा दी हैं कि तुम जन्मों—जन्मों तक भी बनोगे तो बन न पाओगे।
मैं तुमसे कहता हूं तुम जैसे हो ऐसे ही—सब घावों से भरे, धूलि— धूसरित, गंदे, कुरूप, अज्ञानी, ऐसे ही पुकार उठो। ऐसे ही चल पड़ो। तुम अंगीकार हो। उसने तुम्हें अंगीकार किया ही है। तुम चोर हो तो भी अंगीकार हो। तुम बेईमान हो तो भी अंगीकार हो। क्योंकि तुम कैसे हो यह कोई शर्त ही नहीं है, तुम हो इतना काफी है। सच तो यह है, अगर उसने तुम्हें अंगीकार न किया होता तो तुम हो ही न सकते थे। उसके बिना सहारे के तुम कुछ भी न हो सकते। चोर भी न हो सकते।
मैं तुमसे कहता हूं,जब तुम चोरी करने जा रहे हो तब भी वही तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है। जब तुम पाप करने गये हो तब भी उसके ही सहारे गये हो। अपने सहारे तो तुम कहीं भी नहीं जा सकते। तुम अपंग हो। तुम सदा उसके ही धनुष पर तीर बनकर चढ़े हो। तुमने कोई भी लक्ष्य भेदे हों, सभी लक्ष्यों में उसकी ही ऊर्जा है।
ऐसा जिस दिन जानोगे, उस दिन फिर ये बातें न करोगे। फिर आदमी का तर्क! आदमी सोचता है, पहले कुछ इंतजाम तो कर लूं। व्यवस्था जुटा लूं। सब भांति योग्य हो जाऊं। इसलिए तो तुम दरबार कह रहे हो। यह दरबार नहीं है परमात्मा का। दरबार! तो तुम फिर राजाओं की, सम्राटों की बातें भीतर ले आये। वहां तैयारी चाहिए। वहां तुम्हें स्थान नहीं मिलता, तैयारी को स्थान मिलता है।
मिर्जा गालिब के जीवन में उल्लेख है। बहादुरशाह ने निमंत्रण दिया है। और भी नगर के प्रतिष्ठित लोग आमंत्रित हुए हैं। गालिब को भी निमंत्रित किया है। लेकिन गरीब है गालिब। उधारी में दबा है। कपड़े —लत्ते पास नहीं। बड़ा संकोच से भरा है। फिर सोचने लगा मन ही मन कि मुझे निमंत्रण दिया है तो अब जैसा हूं वैसा जाऊंगा। मित्रों ने कहा कि नहीं, ऐसे मत जाओ। मित्र कोट—कमीज मांग लाये, जूते माग लाये, सब सामान इकट्ठा कर दिया कि यह पहनकर चले जाओ। गालिब का मन सोच में पड़ गया, ये कपड़े पहनूं न पहनूं? अपने कपड़े अपने हैं, दूसरे के दूसरे के हैं। कितने ही सुंदर हों, उधार हैं। यह झूठ क्यों आरोपण करूं?
हिम्मत करके अपने ही मैले —कुचैले पुराने कपड़े पहने चला गया। पर वही हुआ जो मित्रों ने कहा था। द्वारपाल ने भीतर प्रविष्ट ही न होने दिया। उसने कहा, भाग यहां से। द्वारपाल तो उसके हाथ में जो निमंत्रण—पत्र था वह भी छुड़ाने लगा। उसने कहा, तू किसी का चुरा लाया होगा। ऐसे आदमियों को सम्राट का कहीं निमंत्रण मिलता है? तू किसका निमंत्रण चुरा लाया? भाग यहां से। दुबारा लौटकर यहां मत आना।
गालिब तो बहुत परेशान और अपमानित हुआ, लेकिन समझ भी खूब आई। खूब हंसा भी मन ही मन। घर गया, वह जो उधार कपड़े थे, पहनकर टीम—टाम करके वापिस आ गया। वही द्वारपाल झुक—झुककर नमस्कार किया। कहा, मीर साहब, आइये। वह बड़ा हैरान हुआ कि क्या यह आदमी इतना भी नहीं देख सकता. कि मैं वही हूं। लेकिन आदमी तो मुखौटे देखते हैं। आदमी आत्मायें थोड़े ही देखते हैं। आदमी तो पशुओं से भी गये—बीते हैं।
ईसप की कहानी है एक, कि एक लोमड़ी को एक मुखौटा मिल गया। किसी नाटक कंपनी के पास घूम रही होगी, एक मुखौटा मिल गया। तो उसने उल्टा—पलटा, खूब उल्टा—पलटा। उसको कुछ समझ में न आये कि पीछे तो कोई है ही नहीं। उल्टती—पलटती गई, आखिर उसने कहा, हद हो गई। इतना बड़ा चेहरा और भेजा बिलकुल नहीं! भीतर कुछ है ही नहीं? यह जो ईसप की लोमड़ी है, यह भी ज्यादा समझदार रही होगी उस बहादुरशाह के द्वारपाल से।
और जब गालिब गया तो बहादुरशाह ने उसे बड़े सम्मान से अपने पास ही बिठाया। और भी मेहमान थे। बहादुरशाह के मन में बड़ी कद्र थी कविता की। खुद भी कवि था। कोई बहुत बड़ा कवि तो नहीं लेकिन फिर भी कवि था। और कविता का बड़ा आदर था मन में। लेकिन बड़ा हैरान हुआ जब भोजन परोसा गया और गालिब उठा—उठाकर मालपुण्न्दू, बर्फियां अपने कोट को छुलाने लगा पगड़ी को छुलाने लगा तो वह जरा चौंका। ऐसे तो कवि झक्की होते हैं मगर यह क्या कर रहा है? और न केवल इतना, गालिब कहने लगा, ले कोट, खा। ले पगड़ी, खा। खूब मन भरकर खा।
बहादुरशाह ने कहा, आप क्या कह रहे हैं? ज्यादा तो नहीं पी गये हैं? पियक्कड़ तो था। सोचा ज्यादा पी गया हो। वह यह क्या कर रहा है? गालिब ने कहा, नहीं, पीया बिलकुल नहीं हूं,लेकिन मैं आया ही नहीं हूं। ये कपड़े ही आये हैं। ये ही भोजन करें। निमंत्रण आप) भला मुझे भेजा हो द्वारपाल ने मुझे प्रविष्ट नहीं होने दिया है। ये कपड़े ही भीतर आये हैं। मैं तो आया ही नहीं। मैं तो अपमानित बाहर से घर लौटा दिया गया हूं।
ये आदमियों के दरबार हैं। तुम ईश्वर के दरबार को भी आदमियों का दरबार समझते हो? वहां तुम जैसे भी जाओगे वैसे ही स्वीकार हो जाओगे। यह अकड़ छोड़ो। यह बात ही व्यर्थ है कि पहले मैं अपने को जान लूं र फिर मजा रहेगा।
और दूसरी बात खयाल रखो कि तुम बिना उससे मिले अपने को जान न पाओगे। अब और थोड़ी अड़चन है। क्योंकि उससे मिलने का अर्थ क्या है? उससे मिलने का अर्थ ही यही है, स्वयं की आत्यंतिक सत्ता से मिलना। परमात्मा कुछ अलग थोड़े ही बैठा है। कि कहीं बैठा है, तुम चले गये द्वार पर दस्तक दे दी, भीतर बुला लिये गये। परमात्मा भीतर बैठा है। जब तुम स्वयं में जाओगे तभी उसमें जाओगे। वहीं उसका दरबार है —तुम्हारे स्वभाव में।
तो तुम स्वयं को जान लो और फिर परमात्मा के पास जाओ, यह तो बात हो ही नहीं सकती। स्वयं को जाना कि परमात्मा को जान लिया। परमात्मा को जान लिया कि स्वयं को जान लिया। स्वयं को जान लेना और परमात्मा को जान लेना दो बातें नहीं हैं, एक ही घटना है। एक ही घटना को कहने के दो ढंग हैं।
तो यह तो तुम बांधना ही मत खयाल अपने मन में कि पहले स्वयं को जान लेंगे, फिर जायेंगे। तो तुम स्वयं को भी न जान सकोगे और अभी तुमने स्वयं को जो समझा है कि यह मैं हूं, वह तो तुम हो ही नहीं। किसी ने समझा है मैं देह हूं,किसी ने समझा है मैं मन हूं,किसी ने समझा है कि हिंदू मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध। किसी ने समझा कि ब्राह्मण, शूद्र; किसी ने समझा गोरा, काला, किसी ने समझा जवान, का। यह तुम कुछ भी नहीं हो। यह तो मन और शरीर का ही सब जोड़ है। इनके पार तुम हो, साक्षी तुम हो। उस साक्षी में प्रवेश ही परमात्मा में प्रवेश है।
फिर एक बात और—इस जगत में जैसे नियम हैं, ठीक उससे विपरीत नियम हैं अंतर्जगत के। यहां अगर तुम्हें कुछ पाना हो — धन ., पद, प्रतिष्ठा, तो लड़ना पड़े, जूझना पड़े, छीन—झपट मचानी पड़े। गलाघोंट प्रतियोगिता है। और भी छीन रहे हैं; तुम्हें भी छीनना पड़े। क्योंकि बाहर की दुनिया में जो धन है उसे तुमने पा लिया तो दूसरा वंचित रह जायेगा। दूसरे ने पा लिया तो तुम वंचित रह जाओगे। यहां तो दो ही उपाय हैं, या तुम छीन लो या दूसरे को छीन लेने दो।
भीतर की दुनिया के नियम बिलकुल ही भिन्न हैं। वहां तुम ज्ञानी बन जाओ तो दूसरे को अज्ञानी नहीं बनना पड़ता। दूसरा ज्ञानी बन जाये तो तुम्हारा कुछ छिनता नहीं। वहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वहां तो जो छीन—झपट करेगा, चूक जायेगा। वहां तो बिना छीन—झपट मिलता है। वहां तो बिना प्रयास मिलता है। बाहर जो बैठा रहा, चूकेगा। भीतर जो चलता रहा, चूकेगा। बाहर जो चलता रहा, पायेगा। भीतर जो बैठ गया, पायेगा।
ध्यान क्या है? बैठ जाना। ऐसी बैठक मार लेनी भीतर—यही तो आसन शब्द का अर्थ है। आसन का अर्थ है, ऐसी बैठक मार ली कि हिलते ही नहीं। चलना—जाना तो दूर रहा, कंपन भी नहीं होता। अकंप होकर भीतर बैठ गये, बस वहीं मिलना है।
बाहर की तो कोई भी मंजिल तुम्हें दिल्ली जाना तो यात्रा करनी पड़े। और तुम्हें स्वयं में आना तो सब यात्रा छोड़नी पड़े। बाहर खोजना, आंख खोलनी पड़े। भीतर खोजना, आंख बिलकुल बंद कर लेनी पड़े। बाहर कुछ करना है, शरीर का माध्यम लेना पड़ेगा। भीतर कुछ करना है, शरीर का माध्यम छोड़ देना पड़ेगा। उतरो घोड़े से। बाहर जाना है तो घोड़े की सवारी है। शरीर पर चढ़कर ही जाओगे और कोई उपाय नहीं है। भीतर जाना है तो शरीर की कोई आवश्यकता ही नहीं है। इस घोड़े को भीतर मत लिये चले जाना, नहीं तो भीतर जा न पाओगे। बाहर जाना है तो सोच—विचार। भीतर जाना है तो निर्विचार। ये बड़ी विपरीत बातें हैं।
इसका एक सूत्र मैं तुमसे निवेदन कर दूं। बाहर विज्ञान कहता है, कारण—कार्य का नियम; काज—इफेक्ट। पहले कारण फिर कार्य। पहले मां फिर बेटा। पहले बीज फिर वृक्ष। कारण पहले, कार्य पीछे। इससे अन्यथा बाहर नहीं होता।
भीतर की दुनिया में मामला उल्टा है। यहां कार्य पहले, कारण पीछे। पहले बेटा फिर मां। इसीलिए तो कबीर ने उलटबासियां लिखी हैं।
पानी लग गई आगी मछली चढ़ गई रूख
अब मछलियों को तुमने कभी झाडू पर चढ़ते देखा? मछली चढ़ गई रूख? पानी में कभी आग लगती देखी? पानी तो आग बुझाता है। पानी लग गई आगी?
कबीर यह कह रहे हैं, यह उलटबासी है। ये भीतर के सूत्र हैं। बाहर जैसा होता है इससे उल्टा भीतर होता है। इसलिए बाहर के गणित को भीतर मत फैलाना। बाहर तो ऐसा ही लगेगा कि जब अपने को ही नहीं जानते तो परमात्मा को कैसे जानेंगे? बिलकुल तर्कयुक्त है बात। अभी अपना ही पता नहीं कि हम कौन हैं तो परमात्मा को क्या खाक खोजें! कहां खोजें? अभी अपने को ही नहीं पा सके तो और को क्या पा सकेंगे? अपनी ही तो सुध नहीं है और परमात्मा की यात्रा पर चले! पहले होश में तो आ जाओ।
जैसे कोई शराबी आदमी डावांडोल होता चल रहा है और किसी से पूछता है कि परमात्मा को खोजना है, कहां है? तो तुम क्या कहोगे? कि बड़े मियां! पहले जरा होश तो लाओ। हाथ—पैर तो कहां के कहां पड़ रहे हैं। कहीं रखते हो, कहीं जा रहे हैं। और परमात्मा को खोजने निकले इस हालत में? अच्छी— भली हालत में नहीं मिलता, इस हालत में मिलेगा? पहले होश तो सम्हालो थोड़ा। जरा अपने होश में तो आओ, फिर खोजना परमात्मा को।
बाहर की दुनिया में यह जवाब बिलकुल ठीक है, लेकिन भीतर की दुनिया में वे ही पहुंचते हैं जो लड़खड़ाते हैं, शराबी की तरह चलते हैं। पानी लग गई आगी!
एक पांव इधर रखते हैं, दूसरा उधर पड़ता है। जाते उत्तर हैं, पहुंच पूरब जाते हैं। ऐसे लोग पहुंचते हैं। मतवाले पहुंचते हैं, दीवाने पहुंचते हैं, पागल पहुंचते हैं, मस्त पहुंचते हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी रोज—रोज नदी के किनारे जाकर घूमने के लिए जाता था सुबह—सुबह ब्रह्ममुहूर्त में। रोज—रोज आता देखकर जो मछलियों की रानी थी वह उसे पहचानने लगी थी। लेकिन मछली तो पानी में थी, आदमी नदी के किनारे टहलता था। पानी में तो उल्टी छाया बनती है, प्रतिबिंब तो उल्टा बनता है।
तुम जब दर्पण में खडे होते हो तब तुम्हें याद नहीं रहती लेकिन प्रतिबिंब उल्टा बन रहा है। तुम वैसे ही थोड़े दिखाई पड़ रहे हो, जैसे हो; उससे उल्टे बन रहे हो। नहीं हो तो किताब का पन्ना सामने रखकर दर्पण के देखना तब तुमको समझ में आ जायेगा। सब अक्षर उल्टे हो गये। वह तो तुम रोज खडे होते हो तो आदत हो गई है, तो तुमको खयाल में नहीं आता कि बायां दायां दिख रहा है, दायां बांया दिख रहा है। रोज की आदत है। किताब का पन्ना सामने करना दर्पण के, तत्काल समझ में आ जायेगा कि सब उल्टा हो जाता है।
तो मछली तो पानी में से देखती थी प्रतिफलन। तो उसको दिखाई पड़ता था आदमी का सिर नीचे, पैर ऊपर। स्वभावत: मछली की अकल, और मछली का अनुभव भी यही था। पानी के ऊपर तो उसने कभी आकर देखा नहीं था। इस आदमी के डर के मारे आती भी नहीं थी, और नीचे सरक जाती थी। मानती थी कि यही आदमी के होने का ढंग है कि सिर नीचे, पैर ऊपर। और ऐसा ही उसने शास्त्रों में भी पढ़ा था। मछलियों के लिखे शास्त्र! उन्होंने भी ऐसा ही आदमी देखा था।
लेकिन एक दिन इस आदमी को योग का शौक चढ़ा और यह शीर्षासन करने लगा वहीं नदी के किनारे। जब इसने शीर्षासन किया तो मछली बड़ी चिंतित हुई कि इस आदमी को क्या हो गया? क्योंकि नीचे उसने पानी में देखा कि सिर ऊपर और पैर नीचे। यह तो बात गड़बड़ हो गई। क्या यह आदमी शीर्षासन कर रहा है? आज पहली दफा उसे आदमी वैसा दिखाई पड़ा था जैसा वस्तुत: आदमी होता है। मगर उनके हिसाब से तो गड़बड़ हो रही थी सब बात। कि आदमी को हो क्या गया है? दिमाग खराब हो गया है? सदा सिर नीचे होता था, पैर ऊपर होते थे, आज पैर नीचे और सिर ऊपर? उत्सुकतावश मछली पानी के ऊपर आई। और जब उसने देखा तो वह बड़ी मुश्किल में पड़ गई। तबसे मछलियों में खबर है कि आदमियों का कुछ भरोसा नहीं। इनके स्वभाव के संबंध में कुछ निश्चित नहीं किया जा सकता। होते कुछ, दिखाते कुछ। असलियत कुछ, खबर कुछ फैलाते।
हमने अभी जो भी जगत देखा है वह हमने आदमी के दृष्टिकोण से देखा है। आदमी का दृष्टिकोण मछलियों जैसा बंधा दृष्टिकोण है। अभी हमने परमात्मा को सीधा—सीधा नहीं देखा, प्रतिफलन देखा है। प्रतिफलन की खोज ही विज्ञान है। इसलिए विज्ञान में कारण पहले, कार्य पीछे। और धर्म प्रतिफलन की खोज नहीं, सत्य की खोज है। वहां कार्य पहले, कारण पीछे। पानी लग गई आगी! यह उलटबांसी का अर्थ है। उलटबांसी का अर्थ ही यह होता है, कुछ बात जैसी तुम्हें दिखाई पड़ती है इससे उल्टी है।
तुम कहते हो, तर्कयुक्त कहते हो कि पहले अपने को जान लूं फिर परमात्मा को जानने जाऊं। मैं तुमसे कहता हूं तुम परमात्मा को ही जानकर स्वयं को जान पाओगे। तुम कहते हो, लक्ष्य मिल जाये तो स्रोत मिल जायेगा। मैं तुमसे कहता हूं स्रोत मिल जाये तो लक्ष्य मिल जाये। तुम तो परमात्मा को भी खोजने जाते हो तो बाहर जाते हो। आदमी की सारी पकड़ बाहर है।
और अब तुम एक ऐसी झंझट खड़ी कर ले रहे हो अपने मन के लिए कि जब तक अपने को न जान लेंगे. यह एक ऐसी शर्त है जो तुम पूरी न कर सकोगे। न होगी शर्त पूरी, न तुम कभी परमात्मा की खोज को जाओगे। यह तो तुमने ऐसा किया, न रहा बांस न बजी बांसुरी। तुमने तो प्रश्न की जड़ ही तोड़ दी। तुम्हारी खोज अवरुद्ध हो जायेगी।
मैं तुमसे कहता हूं तुम इन बातों में मत पड़ो। तुम परमात्मा को खोज लो। परमात्मा को खोजने से ही तुम स्वयं को जान पाओगे। यहां स्वयं को जानना पहले नहीं होगा, पीछे होगा; छाया की तरह आयेगा। क्यों? क्योंकि परमात्मा तुम्हारा वास्तविक होना है। तुम्हारा होना तो छाया मात्र है। तुम्हारा होना तो भ्रम मात्र है, परमात्मा का होना वास्तविक है, शाश्वत है। तुम्हारा होना तो क्षणभंगुर है। सदा स्मरण रखो, किन्हीं होशियार तरकीबों से अपनी यात्रा को खराब मत कर लेना, अपने पैरों को लंगड़े मत कर लेना। चलो, जैसे हो। इसलिए तो जीसस कहते हैं, वे ही पहुंच पायेंगे मेरे प्रभु के राज्य में जो छोटे बच्चों की भांति हैं। नंग— धडंग, जैसे थे वैसे ही पहुंच गये। साज—संवार की फिक्र ही न की। श्रृंगार ही न किया।
उससे भी क्या छिपाना! श्रृंगार करके भी क्या छिपेगा! जिसने तुम्हें बनाया उससे क्या छिपाना! जिससे तुम आये उससे क्या छिपाना! पाप है तो पाप। बुरा है तो बुरा, भला है तो भला। जैसे हो ऐसे ही चल पड़ो तो ही पहुंच पाओगे। और पहुंच गये तो क्रांति है। पहुंचने के पहले क्रांति की आशा मत रखना। पहुंच गये तो क्रांति है। जो पहुंचे वे बदले। जो बदलने की राह देखते रहे वे बदले तो कभी नहीं, पहुंचे भी नहीं। पहुंचने से भी चूके।
दूसरा प्रश्न :
भवसागर से पार उतरकर परम आत्मा में लीन होने के लिए जड़भक्ति
मूढूभक्ति एवं अंधभक्ति में से किसका सहारा लिया जाये?
प्रश्न ही भक्त का नहीं मालूम होता। भक्ति को गालियां दे रहे हो। कहते हो—जड़भक्ति, मूढ्भक्ति, अंधभक्ति। प्रश्न ही भक्त का नहीं है।
प्रश्न तो ज्ञानी का मालूम पड़ता है।
भक्त तो एक ही भक्ति जानता है। भक्ति के विश्लेषण भी ज्ञानियों ने किये हैं, भक्तों ने नहीं किये हैं। कितने प्रकार की भक्ति है यह भी विश्लेषण ज्ञानियों का है, भक्तों का नहीं। भक्त को क्या पता! भक्त तो विभक्ति जानता ही नहीं, विभाजन जानता ही नहीं। भक्त तो कोटियां जानता ही नहीं। भक्त तो एक को ही जानता है, दो को नहीं जानता। भक्त का हिसाब एक से आगे जाता ही नहीं।
कहते हैं, जीसस को स्कूल में पढ़ने बिठाया गया। ईसाइयों में तो यह कहानी खो गई है लेकिन सूफियों ने बचा रखी है। कुछ कहानियां सूफियों के पास हैं जीसस की, जो ईसाइयों के पास खो गई हैं। और बड़ी अदभुत कहानियां हैं। उनमें एक कहानी यह है कि जीसस को स्कूल पढ़ने भेजा गया। संख्या सिखाने की कोशिश की शिक्षक ने और वे एक पर अटक रहे। और उन्होंने कहा, जब तक तुम एक को न समझा दो तब तक दो पर क्या जाना!
और शिक्षक एक को न समझा सका। अब एक को समझाने के लिए तो कोई बुद्ध, कोई कृष्ण हो तो समझा सके। एक को समझाना तो बड़ी कठिन बात है। दो बिलकुल सरल, तीन और सरल चार और सरल। जैसी संख्या बड़ी होती जाती है वैसे समझाना आसान होता जाता है। मगर एक को कैसे समझाओ?
तुमने देखा, इस जगत में सरल चीजों को समझाना सबसे ज्यादा कठिन है। अगर कोई पूछे, दो क्या? तो तुम कह दो, एक और एक दो। एक और एक मिलकर दो। एकफएक म दो। कुछ तो उत्तर हो सकता है। लेकिन एक क्या? विभाजन नहीं होता तो उत्तर नहीं होता।
कोई तुमसे पूछे, पीला रंग क्या? तो तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे, पीला रंग यानी पीला रंग। अब इसमें और क्या है बताने को? तुमसे कोई पूछे, इंद्रधनुष क्या? तो तुम कहोगे सात रंग। तुम सातों रंगों का नाम ले दो, सिलसिला बता दो, क्रमवार गिनती करवा दो। मगर कोई पूछे पीला रंग? अब पीला रंग बड़ा सरल मामला है। सरल इस जगत में सर्वाधिक कठिन सिद्ध होता है। कठिन का तो विश्लेषण हो सकता है क्योंकि कठिन काफ्लेक्स होता है। कठिन में तो कई चीजें मिली होती हैं तो कुछ उपाय होता है। कुछ कह सकते हो।
जीसस अटक रहे। जीसस ने कहा, एक को तो समझाओ फिर दो पर चलें। क्योंकि तुम कहते हो, दो का मतलब होता है एक+एक, और अभी एक समझे ही नहीं। कहते हैं, शिक्षक बहुत नाराज हो गया। मां —बाप से उसने शिकायत की कि इस बच्चे को अलग करो। यह खुद तो पढ़ेगा नहीं, दूसरों को भी पढ़ने नहीं देगा। यह कहां की फिजूल बकवास लगाता है कि एक का मतलब क्या? अब किसको पता है कि एक का मतलब क्या? जितना पता है वह कामचलाऊ है।
शिक्षक बेचारा शिक्षक! जीसस ने एक ऐसी बात पूछ ली, जो कि आखिरी है। पहले दिन पूछ ली स्कूल में। यह तो विश्वविद्यालय चुक जाते हैं तब भी नहीं चुकती। यह तो जीवन के अंतिम चरण में ही रहस्य खुलता है कि एक यानी क्या!
भक्त का अर्थ होता है, जो एक में जीने लगा। उसके पास तो दो नहीं हैं। उसने तो एक को पहचान लिया।
तो इस प्रश्न में थोड़ी—सी ज्ञान की झलक है। और ज्ञान भक्ति में बाधा है। क्योंकि भक्ति का अर्थ है, प्रेम। इसलिए ज्ञानी भक्त को कहते हैं अंधा। क्योंकि उनको लगता है कि प्रेम तो अंधा होता है। प्रेम अंधा है भी—ज्ञानी के हिसाब से। मगर जानी है कौन प्रेम के संबंध में हिसाब लगानेवाला? जो प्रेम को जानते हों वही कुछ कहें। उन्हीं की बात सुनूं।
ज्ञानी को कोई हक भी नहीं है प्रेम के संबंध में कुछ कहने का। जानते ही नहीं प्रेम को, प्रेम के संबंध में कहोगे क्या? ज्ञान के संबंध में कुछ कहो, ठीक। लेकिन ज्ञानी हर चीज के संबंध में कुछ न कुछ कहता है। वह हर चीज को ज्ञान का विषय बना लेता है, विश्लेषण कर देता है। तो ज्ञानियों ने विश्लेषण कर दिया है कि भक्ति कितने प्रकार की, प्रेम कितने प्रकार का, ऐसी भक्ति, वैसी भक्ति और भक्ति का उन्हें कुछ पता नहीं। भक्ति तो बस एक प्रकार की—एकरस। उसमें दूसरा रस ही नहीं है। उसमें दूजा नहीं है, दूसरा रस कैसे होगा? प्रेमगली अति सीकरी ता में दो न समाय।
तो तुम यह फिक्र छोड़ो कि जड़भक्ति कि मूढ़भक्ति कि अंधभक्ति कि विक्षिप्त भक्ति, यह छोड़ो तुम फिक्र; भक्ति काफी है। और उस भक्ति में ये सब चीजें अपने आप आ जायेंगी। तुम एक दफा भक्त तो हो जाओ, अंधे अपने आप हो जाओगे। सारी दुनिया तुमको अंधा कहेगी, तुम नहीं अंधे हो जाओगे। तुम्हें तो आंखें मिल जायेंगी। तुम्हें तो वह दिखाई पड़ने लगेगा जो साधारण आंखों से दिखाई ही नहीं पड़ता। अदृश्य तुम्हारे लिए दृश्य बनने लगेगा। अगोचर गोचर हो जायेगा। जिसे कभी किसी ने नहीं छुआ उसका स्पर्श अनुभव होने लगेगा। लेकिन दुनिया तुम्हें अंधा कहेगी। दुनिया न मान सकेगी। क्योंकि दुनिया अंधी है। और दुनिया तुम्हें अंधा कहेगी।
एच. जी. वेल्स की एक कहानी है, कहीं मेक्सिको में एक घाटी है जहां बच्चे पैदा होकर तीन महीने के भीतर अंधे हो जाते हैं। कहानी तथ्य पर आधारित है। उस घाटी की जलवायु, भोजन कुछ ऐसाँ है कि आंख खराब हो जाती है। तो वहां एक कबीले में एक आंखवाला आदमी पहुंच गया बाहर की दुनिया से। दूर पहाड़ों में बसी हुई छोटी—सी बस्तियां हैं अंधों की। और कभी कोई आंखवाला वहां हुआ नहीं। सभी अंधे हैं। अब तीन महीने का बच्चा तो कुछ कह नहीं सकता। तीन महीने तक आंख ठीक रहती है फिर धीरे — धीरे खराब हो जाती है। जब तक बच्चा बोलने की उम्र में आता है तब तक तो आंख जा चुकी होती है। इसलिए कभी किसी ने यह कहा ही नहीं, आंख है।
यह आंखवाला आदमी बाहर की दुनिया से यात्रा करता हुआ किसी तरह उन पहाड़ों, दुर्गम पहाड़ों को पार करके पहुंच गया। वे उस कबीले के लोग इसकी बात ही न मानें। इस पर हंसे। तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया? कभी सुना? कैसी बातें कर रहे हो? किसको धोखा दे रहे हो? आंख होती ही नहीं।
और इस आदमी को प्रमाण जुटाना मुश्किल हो गया क्योंकि वहां सब अंधे थे। भीड़ तो उनकी थी। और गांव भर हंसता और कहता, कहां है वह अंधा? इस आदमी के बाबत—वें अंधा मानते इसको। इसका नाम अंधा रख लिया।
उस गाव की एक लड़की इसके प्रेम में पड़ गई। लेकिन गांव ने एक शर्त लगा दी। उन्होंने कहा कि अगर इस लड़की से प्रेम करना है तो एक शर्त है। क्योंकि हमारे यहां कभी भी. तुम कहते हो, तुम्हारे पास आंखें हैं। हमें पक्का पता नहीं, हैं या नहीं। लेकिन एक बात पक्की है कि हमारे इस देश में, हमारे इस समाज में कभी आंखवाले से हमारी किसी लड़की ने शादी नहीं की है। तो इसका शास्त्रों में कोई उल्लेख नहीं है, न परंपरा में कोई उल्लेख है। यह हमारी धारणा के विपरीत है। अगर तुम कहते हो, तुम्हारी आंखें हैं, तो तुम्हें आपरेशन के लिए राजी होना पड़े। हम तुम्हारी आंखें निकाल लेते हैं। तुम अंधे हो जाओ तो ही शादी कर सकते हो।
ठीक है। जब कोई ब्राह्मण से शादी करे तो वह कहता है, ब्राह्मण हो कि नहीं? कोई हिंदू से शादी करे तो वह कहता है, तुम हिंदू हो कि नहीं? कोई ईसाई से शादी करे तो वह कहता है, पहले ईसाई हो जाओ फिर हम शादी कर लेंगे।
उन्होंने भी ठीक कहा। अंधे हो जाओ। हमारे जैसे हो जाओ। हम नहीं मानते कि तुम अंधे हो कि आंखवाले हो, मगर हम जैसे हो जाओ तो ही हमारी लड़की से शादी कर सकते हो।
वह आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ गया। और उसने कहा, रात भर का मुझे मौका दो! इधर प्रेम खींचे, उधर आंखों का आग्रह। लेकिन सुबह होते —होते वह भाग खड़ा हुआ। उसने कहा कि प्रेम तो फिर कहीं हो जायेगा। ये आंखें एक बार गईं तो गईं। और फिर उसे सूरज समझ में आने लगा और रंग और रूप और सारे जगत का यह सौंदर्य, यह सब खो दूं? वह भाग खड़ा हुआ। उसने कहा कि ये लोग कहीं पकड़कर जबर्दस्ती आपरेशन कर ही न दें।
तुम जब भक्त बनोगे तो लोग तुम्हें अंधा कहेंगे यह बात सच है। क्योंकि लोग अंधे हैं। उनके पास भक्ति की आंखें नहीं हैं।
प्रेम की एक आंख है। कुछ चीजें हैं जो प्रेम ही देखता है, और कोई नहीं देखता। इसलिए कहता हूं कि प्रेम की एक अपनी आंख है। अपना देखने का ढंग, अपनी तर्ज, अपनी शैली है। अपना एक अलग ही मार्ग है प्रेम का। कुछ चीजें केवल प्रेम ही देख पाता है और कोई नहीं देख पाता। कुछ चीजों के लिए तर्क बिलकुल अंधा है।
परमात्मा को देखना है? तर्क अंधा है। प्रेम से ही देखा जा सकता है। सौंदर्य को देखना है? तर्क अंधा है। प्रेम से ही देखा जा सकता है। जीवन में जो भी सत्यं—शिवं —सुंदरम् है वह सभी प्रेम से देखा जाता है, तर्क से नहीं देखा जाता। तर्क तो तीनों की गरदन दबाकर मार डालता है।
तुम्हें अगर भक्ति में थोड़ा भी रस है —होगा जरूर, पूछा है—लेकिन तुम्हारे मन में तथाकथित ज्ञानियों ने बहुत जहर भर दिया है, उस जहर को अलग करो। उससे छुटकारा करो अपना। भक्ति तो एक ही तरह की है। भक्ति में कहां दो तरह के प्रकार का प्रश्न? भक्ति में दो की जगह ही नहीं है।
और फिर तुम पूछते हो, 'भवसागर से पार उतरकर......।’
यह भी भक्त का सवाल नहीं है। भवसागर से पार उतरना भी ज्ञानियों का ही सवाल है। भवसागर! वह शब्द भी ज्ञानियों का है। भक्त तो कहता है, हे प्रभु! हजार—हजार बंधनों में मुझे बांधे रखना। वह भवसागर वगैरह से पार उतरने की बात ही नहीं करता। वह कहता है, तेरा. तेरा ही संसार है, पार क्या उतरना! तेरा ही रूप, तेरा सौंदर्य, तेरा ही रंग) तेरा ही रास। जाना कहां है? भक्त तो कहता है, खूब—खूब मुझे उलझाये रखना; जाने मत देना।
भक्त की भाषा तुम्हारे पास नहीं है—जिसने भी प्रश्न पूछा है। भवसागर का तो अर्थ है, कैसे छुटकारा हो? और अगर तुम इस संसार से छुटकारा चाहते हो तो संसार बनानेवाले से तुम्हारा लगाव बहुत गहरा नहीं हो सकता है।
तुमने कभी देखा? तुम कवि को तो प्रेम करते हो, उसकी कविता को घृणा करते हो, यह संभव है? तुम एक चित्रकार को तो प्रेम करते हो लेकिन कहते हो तुम्हारे चित्रकार होने में तो ठीक हो, सब अच्छा है, लेकिन तुम्हारे चित्रों में आग लगा देने का मन होता है। तुम अगर पिकासो से कहोगे कि तुम तो भले हो, तुमसे तो हमारा बड़ा लगाव है, लेकिन तुम्हारी ये सब जितनी पेंटिंग हैं, इनमें आग लगा देने का मन होता है। तो क्या अर्थ हुआ इसका? अगर सब चित्रों में आग लगा देने का मन होता है तो तुमने चित्रकार को मार ही डाला। क्योंकि चित्रकार अपने चित्रों में है। चित्र जल गये तो चित्रकार एक साधारण आदमी है, चित्रकार नहीं है। अगर गीतकार के गीत तुमने नष्ट कर दिये तो गीतकार न रहा। अगर नर्तक का नर्तन छीन लिया तो साधारण हो गया, नृत्यकार न रहा।
तुम परमात्मा से उसकी सृष्टि छीन लो, परमात्मा परमात्मा थोड़े ही रह जाता है। तुमने बड़ा गहरा अपमान कर दिया। भक्त ऐसी भाषा नहीं बोलता। भक्त तो कहता है कि इस योग्य बनूं कि तू मुझे बार—बार बंधनों में बाधे, बार —बार छिपे और छिया —छी का खेल हो। बार—बार मुझे पुकारे और मैं तुझे खोजूं और तू न मिले। दूर —दूर तेरी छाया दिखाई पड़े, दौडूं और फिर तुझे न पाऊं, और फिर दौडूं और फिर तुझे न पाऊं। और यह खेल अनंत काल तक चलता रहे।
भक्त की भाषा अलग है। भक्त की भाषा में मोक्ष के लिए जगह नहीं है। भक्त के लिए तो यही मोक्ष है। यही तो भक्त की क्रांतिकारी दृष्टि है। इसको मैं उसकी आंख कहता हूं। ज्ञानी का मोक्ष कहीं और है। वह कहता है इस भवसागर से छुटकारा हो, तब मोक्ष। उसका मोक्ष जीवन विरोधी है। वह कहता है, जीवन कैसे विनष्ट हो? आवागमन कैसे समाप्त हो? तब मोक्ष।
ज्ञानी का मोक्ष थोड़ा कमजोर है, वह इस संसार को नहीं झेल पाता। भक्त का मोक्ष बड़ा शक्तिशाली है। वह कहता है, रहे, यह संसार रहे, और हजार संसार रहें, मेरी मुक्ति में कोई बाधा नहीं पड़ती। मेरी मुक्ति ऐसी है कुछ कि बंधनों में भी जीवित रहती है।
और स्वतंत्रता तभी समग्र है, जब कारागृह में भी कोई तुम्हें डाल दे और तुम्हारी स्वतंत्रता नष्ट न हौ। हाथों में जंजीरें हों और फिर भी तुम्हारी स्वतंत्रता नष्ट न हो। तुम्हारे प्राण स्वतंत्रता के सौरभ से भरे रहें। विपरीत परिस्थितियों में भी जब स्वतंत्रता बनी रहे तभी तुम स्वतंत्र हो। अगर अनुकूल परिस्थितियों में स्वतंत्र रहे, यह कोई स्वतंत्रता नहीं। समझो इसे।
जब जीवन में सब सुख है तब तुम प्रसन्न दिखाई पड़ते हो, इस प्रसन्नता का कोई बड़ा मूल्य नहीं। जब जीवन में सब दुख हों और तुम्हारे ओठों पर मुस्कुराहट हो तो मुस्कुराहट का कुछ मूल्य है। जब पैरों में कांटे चुभे हों और ओठों पर मुस्कुराहट रहे, गले में फांसी लगी हो और ओठों पर मुस्कुराहट रहे तब तब तुम्हारी मुस्कुराहट तुम्हारी है। अन्यथा सुख — सुविधा में कौन नहीं मुस्कुराने लगता है? उस मुस्कुराहट का कोई मूल्य नहीं है। जीवन में अगर तुम नाचो, यह क्या नाच! मौत आये और तब भी तुम नाचते हुए विदा होओ तो तुमने नाच सीखा, तो तुमने नाच जाना। अनुकूल में राजी हो जाना तो बिलकुल ही स्वाभाविक है, प्रतिकूल में राजी हो जाना क्रांति है।
और सबसे बड़ी प्रतिकूलता जो हो सकती है वह संसार है। हिमालय पर बैठकर मन शांत हो जाये, कोई बडी गुणवत्ता नहीं है। बाजार में बैठे —बैठे, दूकान पर बैठे —बैठे, हाथ में तराजू लिये —लिये मन शांत हो जाये।
शास्त्रों में कथा आती है तुलाधर वैश्य की। एक ज्ञानी बहुत दिन तक ध्यान करता रहा पहाड़ों में। इतना ध्यान किया, इतना तप किया, ऐसा खड़ा रहा पत्थर की मूर्ति बनकर कि उसके बालों में घोंसले बना लिये पक्षियों ने। जटाजूट थे, घोंसले रख लिये, बच्चे दे दिये। वह ज्ञानी बड़ा प्रसन्न हुआ। उसकी दूर—दूर तक ख्याति पहुंच गई। लोगों से वह कहने लगा, मैं वही हूं जिसके सिर में जटाजूट में घोंसले बना लिये, ऐसा मेरा ध्यान है।
लेकिन कोई परिव्राजक उसके पास से गुजरता था। उसने कहा, लेकिन वे पक्षी कहां हैं? उसने कहा, वे तो मैं जरा हिला कि उड़ गये।
'तो उन पक्षियों को बुलाओ।’
उसने कहा कि वे मेरे बुलाये नहीं आते। मैं तो उनके पास भी जाता हूं—वे यहीं रहते हैं, आसपास बैठे रहते हैं—मैं उनके पास जाता हूं तो एकदम भाग जाते हैं।
तो उन्होंने कहा, यह कोई बात न हुई। तुम तुलाधर वैश्य के पास जाओ। उसने कहा, यह कौन है? एक तो वैश्य शब्द से ही उसको बड़ी हैरानी हुई। वह ब्राह्मण था। विप्र! और बड़ा ज्ञानी था और तपस्वी था और कोई बनिया, वैश्य! तुलाधर! और कहां का नाम? क्या करता है यह? उन्होंने कहा वह कुछ नहीं करता, वह तराजू ही तौलता रहता है। इसीलिए तुलाधर नाम है उसका। दूकान पर बैठा तराजू तौलता रहता है। मगर अगर तुम्हें जानना है असली शांति तो उसके पास जाओ। और जो पक्षी तुम्हारे बुलाये नहीं आते, तुलाधर के इशारे पर चले आयेंगे। हजारों मील से।
'कहां रहता है तुलाधर?'
तो उसने कहा, 'वह काशी में रहता है।’
तो इस बेचारे ने यात्रा की, काशी पहुंचा। बड़ा हैरान हुआ। भीडुम— भक्क! काशी की गलियां! निकलना मुश्किल, चलना मुश्किल, जगह—जगह नाराजगी होने लगी। कोई धक्का मार दे, किसी का पैर पैर पर पड़ जाये। संकरी गलियां और भीड़— भाड़। और यह कहने लगा यह कोई जगह है, जहां कोई ज्ञान को उपलब्ध हो? यहां तो अगर ज्ञानी भी आये तो अज्ञानी हो जाये। इधर मुझे तक क्रोध आ रहा है। यह तुलाधर वैश्य यहां कहां ज्ञान को उपलब्ध हो गया? लेकिन ठीक, आ गया तो उसका दर्शन कर लूं।
गया तो वहां तो बड़े ग्राहक खड़े थे। और वह बड़ा हैरान हुआ। तुलाधर के कंधे पर वही पक्षी बैठा था, जो उसके सिर से उड़ गया था क्योंकि वह हिल गया था। उसने कहा, यह बड़ा चमत्कार है। बात कुछ होनी चाहिए इस आदमी में। उसने तुलाधर से पूछा कि तेरा राज क्या?
उसने कहा, मेरा कुछ ज्यादा राज नहीं। मैं कोई पंडित नहीं, कोई ज्ञानी नहीं। यहां तराजू को तौलते —तौलते भीतर भी तौलना सीख गया। इधर तराजू तुलता, उधर भीतर मैं तुलता हूं। इधर जब दोनों पलड़े बराबर हो जाते हैं, काटा ठीक बीच में आ जाता है तब मैं भी अपने कांटे को बीच में ले आता हूं। दोनों पलड़े बराबर कर लेता हूं। सुख—दुख बराबर। सफलता—असफलता बराबर। संसार— मोक्ष बराबर। शांति— अशांति बराबर। मिलना न मिलना बराबर। मिलन—बिछोह बराबर। सब द्वंद्व को तौल लेता हूं। बस तराजू का काटा बीच में है, जैसा बना रहता है, इसी को देखते—देखते. मैं बनिया हूं। और तो मैं कुछ ज्यादा जानता नहीं। ध्यान इत्यादि मैंने किया नहीं। आप महातपस्वी हैं। आप कैसे आये? आपके चरण लग।
तब उस ज्ञानी की आंख खुली। जंगल में खड़े होकर शांत हो जाने में कोई बड़ी शांति नहीं है। जंगल में जो शांत न हो जाये वही थोड़ा विशिष्ट पुरुष है। जंगल में तो कोई भी शांत हो जायेगा। हिमालय पर गये कभी? हिमालय की शीतलता भीतर प्रवेश करने लगती है, छूने लगती है। सब शांत होने लगता है। लेकिन उस शांति में तुम्हारा क्या है? उतरोगे पहाड़ से, जैसे—जैसे तुम उतरोगे वैसे —वैसे शांति उतर जायेगी। वह पहाड़ के साथ ही पीछे छूट जायेगी। शांति तो वहां, जहां शांति का कोई उपाय नहीं है।
भक्त कहता है, यह संसार तेरा है। तेरे हाथ की इसमें छाप है। तेरे हाथ की छाप से मेरा कोई विरोध नहीं। बस तेरे हाथ की छाप में ही तेरे को खोंजूंगा। और जहां तेरे हाथ की छाप है, कहीं तू भी छिपा होगा। कहीं तुझे पकड़ ही लूंगा, खोज ही लूंगा। और फिर जल्दी भी नहीं है। क्योंकि खोज भी इतनी रसपूर्ण है।
भक्त की भाषा अलग है। भवसागर जैसा गंदा शब्द वह उपयोग करता ही नहीं। भवसागर तो विरोधी का शब्द है। उसमें तो छिपा ही है निंदा का भाव। कैसे छुटकारा हो? भवसागर, जाल—जंजाल कैसे मिटे? प्रपंच कैसे छूटे?
'भवसागर से पार उतरकर परम आत्मा में लीन होने के लिए.।’
अब यह परम आत्मा में लीन होना भी भक्त की भाषा नहीं है। भक्त परमात्मा में लीन होना चाहता है, आत्मा में नहीं। आत्मा तो अपनी है—परमात्मा, वह जो विराट है। भक्त तो अपनी बूंद को इस सिंधु में डुबाना चाहता है। भक्त की ऐसी क्षुद्र तलाश नहीं है। वह यह नहीं कहता है कि मैं कौन हूं। वह इतना ही कहता है कि मुझे डुबा ले। बस तुझमें हो जाऊं, काफी है।
तो तुमने पूछ तो लिया है प्रश्न लेकिन तुम्हारे मन में ज्ञानियों ने बहुत कचरा भर दिया है। मैं तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुम भक्त हो जाओ। तुमने पूछा है इसलिए उत्तर दे रहा हूं। अगर भक्त होना है तो यह ज्ञानियों के कचरे को अलग कर दो। अगर यह ज्ञानियों के कचरे में तुम्हें मूल्य मालूम पड़ता है तो भक्ति का भाव छोड़ दो।
मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि ज्ञान के मार्ग से पहुंचना नहीं होता है। ज्ञान के मार्ग से भी पहुंचना होता है। लेकिन तब भक्ति की बात ही भूल जाओ। दो नावों पर सवार मत होओ, अन्यथा डूबोगे, कहीं भी न पहुंचोगे। एक नाव काफी है।
और जब मैं कहता हूं कि ज्ञानी के मार्ग से भी पहुंचना होता है तो खयाल रखना कि मेरे ज्ञानी में और तुम्हारे ज्ञानी में बड़ा फर्क है। तुम ज्ञानी उसको कहते हो, जो शास्त्र का ज्ञाता है। तुम ज्ञानी उसको कहते हो, जो पंडित है, सिद्धांत में कुशल है। तुम ज्ञानी उसको कहते हो जिसके पास बहुत जानकारी है। मैं ज्ञानी उसे कहता हूं जिसने सब जानकारी फेंकी, सब शास्त्र हटाये। जिसने धीरे— धीरे जानकारी से अपनी दृष्टि हटाई और जानने के सूत्र पर लगाई। जो जागने लगा वही ज्ञानी है।
ज्ञान में ज्ञान नहीं है, ध्यान में ज्ञान है।
तो दो मार्ग हैं. ध्यान और प्रेम। प्रेम है भक्ति का मार्ग, ध्यान है शान का मार्ग। यह मैं तुम्हें स्पष्ट कर दूं। क्योंकि ज्ञानी से तुम कहीं यह मत समझ लेना कि कोई पंडित वेद को जाननेवाला है और ज्ञानी हो जाता है। जानकारी से कोई ज्ञान नहीं होता। जानकारी में अज्ञान दब जाता है, मिटता नहीं। और दबा हुआ अज्ञान बना रहता है। सदा बना रहेगा। छिपा रहेगा भीतर। उससे छुटकारा न होगा।
तो बजाय ज्ञानी के ध्यानी कहना ज्यादा अच्छा है। तो ध्यानी और प्रेमी—दों मार्ग हैं। फर्क थोड़ा—सा है। ध्यानी आत्मा की खोज करता. मैं कौन हूं? इस एक सतत प्रश्न में उतरता है। प्रेमी इसकी फिक्र नहीं करता। वह कहता है, जो भी मैं हूं—अ, ब, स, जो भी मैं हूं प्रभु, तेरे चरणों में ले ले। जो भी मैं हूं,अपने में डुबा ले। बुरा— भला जैसा हूं। गंदा नाला सही! अपने सागर में ले ले। तू तो सागर है, गंदा नाला भी उतरेगा तो स्वच्छ हो जायेगा। तू तो सागर है, गंदा नाला भी उतरेगा तो तेरे रूप में डूब जायेगा। मैं क्षुद्र तेरे विराट को तो अपवित्र न कर पाऊंगा, तेरा विराट मेरी क्षुद्रता को पवित्र कर देगा। इसलिए अब मैं कहा पवित्र होने को बैठा रहूं? और मेरे किये क्या होगा?
भक्त कहता, मैं तुझमें डुबकी लगाना चाहता। ज्ञानी कहता है, मैं अपने में डुबकी लगाना चाहता। दोनों ही एक ही जगह पहुंच जाते हैं। क्योंकि अंतिम अर्थों में जो तुम्हारा आतरिक केंद्र है वही परमात्मा है। भाषा का भेद है और विधि का भेद है। यात्रा की दिशा अलग— अलग होती है, मंजिल एक है। तो दो में से तुम कुछ एक काम कर लो। या तो भक्त बनना है तो भक्त बन जाओ, फिर ज्ञानियों की बकवास छोड़ दो। फिर ज्ञानी जो कहते हैं, सब बकवास है। और अगर शनि। के ही मार्ग से चलना हो तो फिर भक्ति की बातों में मत पड़ना, नहीं तो तुम बडी उलझन में पड जाओगे। ज्ञानी कहता है मोक्ष और भक्त कहता है, प्रभु, तेरे बंधन बड़े प्यारे हैं। ज्ञानी कहता है मुक्त होना है और भक्त कहता है तुझसे बंधना है!
इन फर्कों को समझ लेना। ज्ञानी तो एक तरह का तलाक दे रहा है अस्तित्व को, और भक्त एक तरह का विवाह रचा रहा है। हम ब्याह चले अविनाशी! वह तो भक्त जो कहता है कि यह तो विवाह की तैयारी हो गई। अब हम विवाह बना रहे हैं। भक्त कहता है.
मैं तुम्हारे मन—सुमन में प्रीति बन महकूं
चू पडूं अंजलि—सरों में लाजकलित मधुकरों में
आज अपनापन डुबो दूं सुरभिचर्चित निर्झरों में
मैं तुम्हारे दृग्गगन में स्वप्न बन महकूं
प्रीति बन महकूं
गुनगुनाऊं सप्त स्वर में रागरजित मीड़ कर में
कभी आरोह में गमकूं कभी अवरोह के स्वर में
मैं तुम्हारे छंद—वन में गीत बन चहकूं
प्रीति बन महकूं
वचन तोडू संवरण के, मौन के अंतःकरण के
स्पर्श के संकेत से ही बज उठे नूपुर चरण के
मैं तुम्हारे प्रणयप्रण में प्राण बन दहकूं
प्रीति बन महकूं
मैं तुम्हारे मन—सुमन में प्रीति बन महकूं
भक्त तो कहता है, प्रभु में डूब जाऊं! तुम्हारी आंखों में सपना बनकर तैरूं। मुक्ति की यहां कोई बात नहीं है। मुक्ति भक्त की भाषा नहीं है। हजार—हजार नित नूतन बंधन तुम बांधो। तुम मुझे बांधते रहो। मुझे उपेक्षित छोड़ मत देना एक किनारे। भूल मत जाना। विस्मरण मत कर देना। तुम राग के नये—नये जाल मुझ पर फैलाते रहो। तुम प्रीति के नये—नये उन्मेष मुझमें उठाते रहो। ऐसा नहो कि राह के किनारे मुझे भूल जाओ। तुम्हारे लिए बहुत हैं, मेरे लिए तुम एक अकेले हो। मैं तुम्हारे इस आनंद—उत्सव में सम्मिलित रहूं भागीदार रहूं।
यह संसार भक्त के लिए शत्रु नहीं है और जीवन विरोध नहीं है। जीवन के साथ भक्त का अविरोध है, तादात्म्य है। जीवन प्रभु का है। जो उसका है, सब शुभ है, सब सुंदर है। उसने बनाया, उसके हस्ताक्षर हैं, ठीक ही होगा। उसे फिर कोई शिकायत नहीं है।
भक्त की तो नये—नये गीतों के, नये—नये नृत्यों के जन्म में आकांक्षा है। नये विवाह रचाना है।
आओ, फिर से ध्यायें चंद्रमुखी संध्यायें
ओ सूर्यमुख सबेरे!
गोपन व्यापारों को कहा नहीं जाता है
किंतु कहे बिन भी तो रहा नहीं जाता है
आओ, पुन: रचायें संकेत की ऋचायें
ओ सप्तपदी फेरे, ओ सूर्यमुख सबेरे!
रंगरंगी चितवन में ओर—छोर बंध जायें
पर्वत—से मनसूबे बिन साधे सध जायें
आओ फिर पिघलायें अलगाव की शिलायें
ओ अजनबी अंधेरे, ओं सप्तपदी फेरे!
आलिंगित श्वासों में फिर आदिम गंध भरें
दुष्यन्ती रागों में शाकुंतल छंद भरें
आओ पुन: जगायें सोयी स्वर बलगायें
ओं गीत बन घनेरे, ओ सप्तपदी फेरे!
फिर से डालें सात फेरे। फिर से जगायें सोयी ऊर्जा को। फिर से मृत प्राणों में संजीवनी फूंके। फिर नाचे। फिर—फिर नाचे। फिर—फिर हो आना। फिर—फिर हो खोज। भक्त थकता नहीं। प्रेमी कभी नहीं थकता। ज्ञानी पहले से ही थका हुआ है। वह कहता है, कब छुटकारा मिले। अब बैठ जाने दो। अब बहुत चल चुके।
तुम साफ कर लेना अपने मन में। अपने भाव को ठीक से पहचानो। अगर तुममें हृदय प्रबल है तो भक्ति तुम्हारा मार्ग है। अगर हृदय सो गया है या जागा ही नहीं कभी और हृदय में कोई स्वर नहीं उठते तो ध्यान तुम्हारा मार्ग है। या तो निर्विचार बनी या प्रार्थनापूर्ण। मगर दोनों को एक साथ सम्हालने की चेष्टा में संलग्न मत हो जाना। अन्यथा बहुत भटकाव है फिर। और तुम बहुत उपाय करोगे और कुछ परिणाम न होगा। एक हाथ से बनाओगे, एक हाथ से मिटेगा।
इसलिए पहली बात यात्री के लिए, इस अंतर की खोज के लिए पहली बात स्मरण रखने की यही है कि मैं ठीक—ठीक से अपने को पहचान लूं। भावपूर्ण हूं मैं? या भाव से मेरा कोई संबंध नहीं जुड़ता?
तीसरा प्रश्न :
कामना के मूल में नैसर्गिक काम है, ऐसा कहा जाता है। क्या निसर्ग के
अनुकूल बहना जागरण में सहयोगी नहीं है? कृपा करके समझायें।
निसर्ग और निसर्ग का भेद समझो। वृक्ष हैं, पशु—पक्षी हैं, निसर्ग में हैं लेकिन मूर्च्छित हैं। बुद्ध हैं, कृष्ण हैं, अष्टावक्र हैं, मीरा—कबीर हैं, वे भी निसर्ग में हैं लेकिन अमूर्च्छित हैं जागे हुए हैं। पक्षी जो गीत गुनगुना रहे हैं, वह बिलकुल सोया—सोया है। उसका उन्हें कुछ भी पता नहीं। मीरा जो नाची है, जागकर नाची है। फूल खिल रहे वृक्षों में, वे मूर्च्छित हैं। बुद्ध में जो कमल खिला है वह होश में खिला है।
तो एक तो निसर्ग है आदमी से नीचे। और एक निसर्ग है आदमी से ऊपर। दोनों एक ही निसर्ग हैं लेकिन एक बात का फर्क है—मूर्च्छा— अमूर्च्छा, बेहोशी—होश। और आदमी दोनों के बीच में है। एक तरफ पशु—पक्षियों का संसार है, पौधों —पत्थरों का, पहाडों का, चांद—तारों का, वहां भी बड़ी शांति है। निसर्ग है, प्रकृति है। जैसा होना चाहिए वैसा ही हो रहा है। अन्यथा कुछ हो ही नहीं सकता। अन्यथा करने की स्वतंत्रता भी नहीं है। अगर कोई पक्षी प्रकृति के प्रतिकूल भी जाना चाहें तो जा नहीं सकते, क्योंकि प्रतिकूल जाने के लिए बोध चाहिए। इसलिए यह कहना कि प्रकृति के अनुकूल हैं भी बिलकुल ठीक नहीं है। अनुकूल हैं मजबूरी में क्योंकि प्रतिकूल हो नहीं सकते। कोई उपाय ही नहीं है। उन्हें याद भी नहीं है, पता भी नहीं है, होश भी नहीं है। जो हो रहा है, हो रहा है।
जैसे एक आदमी को हम स्ट्रेचर पर रखकर ले आयें—क्लोरोफाम दिया हुआ आदमी, बेहोश पड़ा है—उसको एक बगीचे में से घुमा दें। जब वह इस बगीचे में से घूमेगा तो फूलों की गंध भी उसके नासापुटों को छुएगी। सूरज की किरणें भी उसके चेहरे पर खेलेंगी। हवाओं के शीतल झोंके भी उसको स्पर्श करेंगे। शायद कुछ लाभ भी होगा—अचेतन जो भी लाभ हो सकता है प्रकृति के पास होने का। शायद जब होश में आयेगा तो कहेगा कि बडा सुंदर सपना देखा। बड़ा अच्छा लग रहा था। पता नहीं क्या था। कुछ साफ—साफ नहीं है, धुंधला— धुंधला है।
लेकिन फिर इसी आदमी को हम होश से भरकर इस बगीचे में लायें, तब बगीचा वही है, आदमी वही है। जरा—सा फर्क पड़ा है। अब होश में है, तब बेहोश था। अब यही फूल, यही वृक्ष, यही सूरज की किरणें एक अपूर्व आनंद को जन्म देंगी।
पशु—पक्षी इस संसार में क्लोरोफाम की अवस्था में हैं, बुद्धपुरुष जाग्रत अवस्था में और हम आदमी बीच में—न तो ठीक से जागे हैं, न ठीक से सोये हैं। इसलिए मनुष्य बड़ी चिंता में है। चिंता का एक ही अर्थ होता है, तनाव। एक खिंचाव पीछे की तरफ, एक खिंचाव आगे की तरफ। पीछे पशु —पक्षी पुकार रहे हैं कि लौट आओ। छोड़ दिया घर अपना, बड़ा सुख था यहां। फिर सो जाओ। इसलिए तो आदमी शराब पीता है कि फिर सो जाये।
शराब का आकर्षण इसीलिए है कि शराब एकमात्र उपाय है आदमी के पास कि फिर पशु—पक्षी हो जाये। और तो कोई उपाय नहीं है। कैसे बेहोश हो जायें! इसलिए हम बेहोश होने की कई तरकीबें खोजते हैं। शराब हो, सेक्स हो, सिनेमा हो, जहां भी हम अपने को भूल पाते हैं थोड़ी देर को, हम वहां जाकर बड़ा मनोरंजन अनुभव करते हैं—विस्मरण में। लेकिन सब एक तरह की शराब है।
तो पीछे प्रकृति खींच रही है कि तुम क्यों परेशान हो गये? आदमी, तू व्यर्थ परेशान है, लौट आ। यहां सब सुंदर है। इसीलिए तो तुम कभी जब समुद्र किनारे जाते हो, सुंदर लगता। हिमालय की शुभ्र चोटियों को देखते बर्फ से ढंका हुआ, सुंदर लगता है। वृक्षों की हरियाली भी बड़ी निकट खींचती मालूम पडती है। पशु—पक्षियों का जीवन गहन आकर्षण रखता। लेकिन जा भी नहीं सकते पीछे। शराब पीकर भी कितनी देर भूलोगे? फिर—फिर होश आ जाता है। होश आ चुका है।
फिर एक और आकर्षण है, बुद्धपुरुष आ जाते हैं। महावीर, कृष्ण, कबीर, क्राइस्ट तुम्हारे बीच से गुजर जाते हैं। उनकी मौजूदगी एक और अपूर्व प्यास को जगाती कि ऐसे ही हम कब हो जायें? यह बड़ी दूसरी पुकार है। है प्रकृति की ही पुकार, लेकिन अब मूर्च्छा की तरफ से नहीं, अमूर्च्छा की तरफ से।
और जब तक आदमी बीच में है तब तक संकट में है। तब तक त्रिशंकु की तरह है—न जमीन पर न आकाश में, अटका बीच में। दोनों तरफ खींचा जा रहा, तोड़ा—मरोड़ा जा रहा, खंड—खंड हो रहा, विक्षिप्त हुआ जा रहा, विभक्त। या तो पीछे गिर जाये, जो हो नहीं सकता, या आगे उठ जाये, जो हो सकता है। लेकिन आगे उठना कठिन है। असंभव नहीं, कठिन है। पीछे गिरना सरल है, लेकिन असंभव है। फर्क समझ लेना। फिर से पशु बन जाना सरल है लेकिन असंभव है। सरल इसलिए कि हम पशु रहे हैं पहले र वह हमारी आदतों का हिस्सा है। हमारे अचेतन में वे आदतें अब भी पड़ी हैं। जब तुम क्रोध में आगबबूला हो जाते हो तो पशु बन जाते हो। सरल है क्रोध करना, लेकिन कितनी देर रहोगे? फिर क्रोध के बाहर तो आना ही पड़ेगा। कोई सतत तो क्रोध में नहीं रह सकता। कामवासना में उतर जाना सरल तो है लेकिन कामवासना में जो विस्मरण आता है क्षण भर को, वह कितनी देर का रहेगा? वह क्षणभंगुर है। बबूले की तरह आया, गया, फूटा। फिर तुम वापिस अपने जगह खडे हो पहले से भी जीर्ण —जर्जर, पहले से भी टूटे —फूटे, पहले से भी ज्यादा विषादग्रस्त। ऐसा कौन आदमी होगा जिसको कामसंभोग के बाद पश्चात्ताप नहीं होता है? ऐसा कौन आदमी होगा जिसको क्रोध करने के बाद पश्चात्ताप नहीं होता है कि यह मैंने क्या किया! ऐसा कौन आदमी होगा जो क्रोध करके भी यह समझाने की लोगों को कोशिश नहीं करता है कि मैंने क्रोध नहीं किया।
क्यों? यह कोशिश क्यों है समझाने की? क्योंकि क्रोध का मतलब है कि तुम पशु हुए। यह बात अहंकार को चोट देती है कि मैं और पशु जैसा व्यवहार किया? तो हम लीपापोती करते हैं, समझाने की कोशिश करते हैं कि क्रोध नहीं किया। यह तो ऐसे ही दिखावा था; कि ऐसे ही खेल—खेल में कर लिया, कि यह तो उसके ही हित के लिए किया था। वह मेरा बेटा है, अगर उसको न मारता चांटा तो वह बिगड़ जाता। तुम्हारे बाप भी तुमको मारे, न तुम बचे बिगड़ने से, न तुम्हारा बेटा बचनेवाला है, न तुम्हारे बाप बचे थे। कोई भी नहीं बचता।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने बेटे को बड़े जोर से चांटा मारा। बेटा खड़ा रहा, उसने कहा, 'एक बात पूछनी है पिताजी' —उसकी आंख से आंसू बह रहे हैं—'कि आपके पिता भी आपको इसी तरह मारते थे?' उसने कहा, 'ही, मारते थे।’ ' और उनके पिता भी उनको इसी तरह मारते थे?' उसने कहा, 'हौ उनको भी मारते थे।’ ' और उनके पिता?' तो मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, 'मुझे पता तो नहीं लेकिन मारते रहे होंगे।’
'और उनके पिता?'
तो उसने कहा, 'मतलब क्या है तेरा? अरे सभी पिता मारते रहे हैं।’
तो उस बेटे ने कहा, 'पिताजी, इतनी सदियों से यह क्रूर व्यवहार चल रहा है, अब समय हो गया कि बंद किया जाये। और इससे सार क्या हुआ? सदियों—सदियों से आप कहते हैं कि पिता मारते रहे मारते रहे, बेटे पिटते रहे और बेटे फिर बेटों को पीटते रहे, यह चलता रहा और कुछ फर्क तो हुआ नहीं। सब वैसा का वैसा है। तो अब समय आ गया कि जो सदा से चली आई धारा है, अब तोड़ो।’ बात तो ठीक कह रहा है बेटा। न तुम्हारे पिता तुम्हें रोक सके, न तुम अपने बेटे को रोक सकोगे। न तुम्हारे पिता तुम्हें रोकने के लिए मार रहे थे, न तुम रोकने के लिए मार रहे हो। रोकने के लिए मार रहे हो यह तो व्याख्या है एक पाशविक व्यवहार की, जिसको तुम करने से नहीं रुक पा रहे हो। उस पशुता को छिपाने के लिए यह आवरण है, मुखौटा है। तुम एक सुंदर बात कह रहे हो एक असुंदर बात को छिपा लेने के लिए। तुम कीटों के ऊपर फूल रख रहे ताकि काटे दिखाई न पड़े। यह मलहम—पट्टी है। यह कोई बहुत सार्थक नहीं है।
लेकिन क्रोध हरेक को पछतावे से भरता है। कुछ न कुछ करना पड़ता है क्रोध के बाद। कामवासना भी पछतावे से भरती है। शराबी भी रोज—रोज तो शराब पीकर फिर—फिर कसम खाता है अब न पीयूंगा। पीनी पड़ती है यह दूसरी बात है लेकिन कसम तो खाता है बार—बार। निर्णय तो बहुत बार करता है, बार—बार टूट जाता है यह दूसरी बात है, लेकिन निर्णय नहीं करता ऐसा मत सोचना। बुरे से बुरा आदमी भी निर्णय करता है बाहर आ जाने के।
क्यों? क्योंकि यह पीछे गिरना किसी को भी शोभा नहीं देता। यह अहंकार को कष्टपूर्ण है। सरल तो है लेकिन असंभव है। क्षण भर को हम भुलावा डाल सकते हैं लेकिन फिर भुलावा टूट जाता है। इस स्थिति में हम सदा के लिए वापिस नहीं लौट सकते।
इसलिए मैं कहता हूं एक प्रकृति तुम्हारे पीछे रह गई है, एक प्रकृति तुम्हारे आगे है, तुम मध्य में अटके हो। जो आगे है वह कठिन है लेकिन संभव है। बुद्ध होना कठिन है, दुर्गम है मार्ग, है खड्ग की धार, कृपाण पर चलना, लेकिन संभव है। बुद्ध को हुआ, महावीर को हुआ, कृष्ण, क्राइस्ट को हुआ। मोहम्मद, मूसा को हुआ, तुम्हें हो सकता है। फिर तुम प्रकृति में प्रवेश कर जाओगे। फिर निसर्ग में प्रवेश कर जाओगे।
मनुष्य अकेला एक प्राणी है जो निसर्ग में नहीं है, मध्य में है, अटका है, आधा— आधा है, अधूरा है। तुमने किसी कुत्ते को सोचा, अगर तुम कहो कि यह कुत्ता अधूरा है तो क्या यह बात सार्थक मालूम होगी! सब कुत्ते पूरे हैं। तुम किसी कुत्ते को नहीं कह सकते कि तुम अधूरे हो। सब कुत्ते पूरे कुत्ते हैं। लेकिन किसी आदमी को तो तुम कह देते हो कि तुम बहुत अधूरे आदमी हो। और यह बात सार्थक है। सब कुत्ते पूरे, सब बिल्लियां पूरी, सब शेर, सिंह पूरे, आदमी अधूरा है। आदमी को पूरा होना है। बुद्ध को हम कहते पूर्ण, कृष्ण को कहते पूर्ण, अष्टावक्र को कहते पूर्ण। आदमी को पूर्ण होना है। आदमी को जैसा होना है, अभी है नहीं।
तुम्हारा प्रश्न है कि 'कामना के मूल में नैसर्गिक काम है।’
सच है बात। कामना के मूल में नैसर्गिक काम है लेकिन नैसर्गिक काम पशुओं में भी है। और नैसर्गिक काम ही बुद्धपुरुषों में राम हो गया है। उसने एक नया रूप लिया है, एक नई भाव— भंगिमा ली है। वही ऊर्जा रूपांतरित हो गई है, एक कीमिया से गुजर गई है।
एक तो हीरा है पड़ा हुआ कचरे—पत्थर में, कूड़े में, मिट्टी से भरा, और एक हीरा है फिर किसी जौहरी के द्वारा तराशा गया, सब गलत अलग किया गया। कोहिनूर जब पाया गया था तो आज जितना उसका वजन है उससे तीन गुना वजन था। मगर तब वह एक बदशकल पत्थर था। हजार चूके थीं उसमें। काटते —काटते, छाटते—छाटते, निखारते—निखारते अब केवल एक बटा तीन बचा है, लेकिन अब उसकी बात कुछ और। अब कुछ बात है। अब उसकी एक भाव— भंगिमा है, जो अनूठी है। अब वह पूर्ण हीरा है। अब जो —जो गलत था, जो—जो व्यर्थ था, जो —जो नहीं होना था, वह सब काट दिया गया है, अलग कर दिया है। आज अगर तुम्हारे सामने वह पुराना पत्थर पड़ा हो और यह कोहिनूर रखा हो तो तुम पहचान ही न सकोगे कि इन दोनों के बीच कोई संबंध भी हो सकता है।
तुम अभी एक अनगढ़ पत्थर हो, इस पर निखार आ जाये। यही ऊर्जा काम की अगर पारखी के हाथ में पड जाये, जौहरी के हाथ में पड़ जाये, तो यही ऊर्जा ऐसे अदभुत रूप और सौंदर्य को प्रगट करती है, ऐसी महिमा को प्रगट करती है। इसी महिमा को तो हम बुद्धत्व कहते हैं। कोई मनुष्य आ गया, पूर्ण हुआ। इसी महिमा को तो हम भगवत्ता कहते हैं।
भगवत्ता का इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर जो मूर्च्छित निसर्ग था वह अगच्छइrत निसर्ग हो गया। जो प्रकृति सोयी पड़ी थी, जागकर खड़ी हो गई। राम जब सोये पड़े होते हैं तो काम है। और जब काम जागकर खड़ा हो जाता है तो राम। बस इतना ही फर्क है।
तुमने देखा, रात जब तुम सोते हो तो जमीन पर सो जाते हो। जब तुम सुबह खड़े होते हो तो तुम्हारा कोण बिलकुल बदल जाता है। तुम जमीन से नब्बे का कोण बनाने लगते जब तुम सुबह खड़े होते हो। रात जब तुम सोते हो, तुम जमीन के समानांतर हो जाते हो। तुम्हीं हो रात सोये हुए, तुम्हीं हो सुबह खड़े हुए लेकिन कितना फर्क है! मूर्च्छा में तो तुम बिलकुल पत्थर—मिट्टी हो जाते हो। सुबह जब जागकर खड़े होते हो तो तुम जीवंत होते हो।
और भी एक बड़ी जाग है अभी होने को। अभी तो जाग की तुमने पहली किरणें ही जानी हैं। अभी जाग का पूरा सूरज कहां उगा? अभी तो प्राची लाल ही हुई है। जब पूरा सूरज उगता है और जब बुद्धत्व का प्रकाश भीतर होता है तब तुम जानोगे वस्तुत: निसर्ग क्या है!
पशु—पक्षी नैसर्गिक हैं, उन्हें होश नहीं। बुद्धपुरुष भी नैसर्गिक हैं, उन्हें होश है। आदमी दोनों के बीच में उलझा है, न इस तरफ न उस तरफ। इसलिए आदमी बड़ा बेचैन है। जब तक तुम आदमी हो, बेचैनी रहेगी। बेचैनी आदमी का भाग्य है —दुर्भाग्य कहो। इससे पार होना पड़ेगा। पीछे गिरना सरल है लेकिन असंभव। आगे जाना कठिन है लेकिन संभव; इसलिए आगे को चुनो।
जिसे तुमने अब तक जीवन समझा है वह तो क्षणभंगुर है। जिसे तुमने अब तक कामवासना का खेल समझा है वह तो बिलकुल स्वन्नवत है। झूठ में और उसमें बहुत फर्क नहीं है, आभास मात्र है।
क्षणभंगुर जीवन के चार सुमन जीवन के।
आंगन में सूर्य घोल चंदा से बोल—बोल
मोल लिये नटखट ने स्वर के व्यंजन अमोल
चुटकी में बीत गये महंगे क्षण बचपन के
चार सुमन जीवन के।
अर्पित हो मन्मथ में तरुणाई के रथ में
गलबाही डाल चले प्रीत प्यार जनपथ में
झूम—झूम चूम लिये मादक प्रण यौवन के
चार सुमन जीवन के।
अंजुलि भर बीते पल नैनों में गंगाजल
लपटों की बाहों में पिघल गये स्वप्यमहल
माटी में घुले—मिले मेघ सुवन कंचन के
चार सुमन जीवन के।
क्षणभंगुर जीवन के चार सुमन जीवन के।
यह तो जिसे तुम अभी काम कह रहे हो, वासना कह रहे हो, यह कर लूं यह पा लूं ऐसा हो जाऊं, यह भोग लूं? यह न चूक जाये, ये सब तो चार फूल हैं, जो सुबह खिले और सांझ होते—होते मुरझा जायेंगे। कुछ ऐसे भी फूल हैं जो मुरझाते नहीं। उन फूलों को ही पा लेना जीवन का लक्ष्य है। वे फूल केवल अमूर्च्छा में ही उपलब्ध हो सकते हैं। मूर्च्छित आदमी को तो क्षण भर जो सुख मिल जाता है यह भी चमत्कार है। यह भी मिलना नहीं चाहिए। यह भी मिल जाता है, चमत्कार है!
क्षण भर को भ्रांति हो जाती है सुख की, यह भी रहस्यपूर्ण है। इतना भी होना नहीं चाहिए।
जाग्रत पुरुष को क्षण भर को भी दुख नहीं होता। मूर्च्छित व्यक्ति को क्षण भर को सुख होता मालूम होता है; होता कहां है! हुआ नहीं, हुआ नहीं कि गया नहीं। इधर आ भी नहीं पाया कि उधर गया। हाथ बंध कहां पाते हैं? मुट्ठी में आ कहां पाता है? कभी किसी सुख के क्षण पर मुट्ठी बांध पाये हो? कभी थोड़ी देर को भी हाथ में रखकर देख पाये हो? आया नहीं कि गया नहीं। इधर पता चलते—चलते कि आया, कि जा चुका हो जाता है।
पानी पर खींची लकीर जैसे ये सुख के क्षण! इन पर बहुत भरोसा मत कर लेना। क्योंकि इन पर बहुत भरोसा कर लिया तो जीवन की जो ऊर्जा अमूर्च्छा बन सकती थी, जागृति, ध्यान बन सकती थी, समाधि बन सकती थी, वही ऊर्जा इन्हीं क्षणों में व्यतीत हो जायेगी। और जब मौत करीब आयेगी तो तुम खेल—खिलौने अपने आसपास पाओगे, और कुछ भी नहीं। सब टूटे —फूटे खेल—खिलौने, जिन्हें छोड्कर जाना पड़ेगा। आंखों में तुम्हारे आंसू भरे होंगे।
अंजुलि भर बीते पल नैनों में गंगाजल
लपटों की बाहों में पिघल गये स्वप्न—महल
और चिता पर सिर्फ लपटों में ही बांहें होंगी और सब स्वप्न—महल पिघल जायेंगे।
माटी में घुले—मिले मेघ सुवन कंचन के
जिनको सोचा था स्वर्ण जैसा वे सब मिट्टी में घुल—मिल गये।
क्षणभंगुर जीवन के चार सुमन जीवन के
जागो! ताकि जो हो सकता है, हो जाये। जगाओ अपने को। और ऊर्जा को ऐसा व्यर्थ मत खोते फिरो। जो क्षण गया, गया; फिर लौट न सकेगा। जो ऊर्जा हाथ से खो गई, खो गई; फिर तुम उसे वापिस न पा सकोगे। थोड़े बुद्धिमान बनो। बहुत जी लिये मंदबुद्धि की तरह, अब थोड़ी प्रतिभा से जीयो, मेधा से जीयो। थोड़ा— थोड़ा होश सम्हालो। सम्हालते —सम्हालते एक दिन सम्हल जाता है।
चौथा प्रश्न :
राबिया ने कहा है कि ईश्वर यदि तुम्हारी ओर उन्मुख हो तो ही तुम धर्म में
परिवर्तित यानी धार्मिक हो सकते हो। तो क्या आदमी के हाथ में पहल करना भी नहीं है?
क्या पहल भी परमात्मा ही करता है?
आदमी के हाथ ही आदमी के हाथ में कहां हैं? आदमी के हाथ भी परमात्मा के हाथ में हैं। आदमी कुछ अलग— थलग थोड़े ही है! तुम एक क्षण भी तो अलग होकर नहीं हो सकते। यह श्वास बाहर गई, भीतर आई तो तुम हो। यह सूरज की किरण तुम्हारी देह पर पड़ी और इसने उत्तप्त किया तो तुम हो। यह भोजन आज लिया और शरीर में ऊर्जा बनी तो तुम हो।
एक क्षण को तुम बाहर से लेन—देन बंद कर सकते? एक क्षण को तुम तोड़ सकते यह सेतु, जो हजार—हजार तरह से फैले हुए हैं? एक क्षण को तुम अलग— थलग हो सकते हो? एक क्षण को कह सकते कि बिलकुल मैं अलग— थलग, टूटा समस्त से खडा हूं। एक क्षण को भी नहीं हो सकते।
तुम्हारे हाथ भी तुम्हारे हाथ में कहां हैं? तुम्हारे हाथ भी परमात्मा के हाथ में हैं। जिन्होंने जाना है उन्होंने एक बात जानी कि हम थे ही नहीं और नाहक उछलकूद मचा रहे थे। थे जरा भी नहीं और बड़ा शोरगुल मचा रहे थे। जैसे लहरें सागर पर बड़ा शोरगुल मचाती हैं और जरा भी हैं नहीं। है तो सागर, लहर कहां है? लहर का कोई होना होना है? तुम लहर को सागर से अलग कर सकोगे? जब अलग नहीं कर सकते तो है ही नहीं।
हम अलग होकर नहीं हो सकते तो हमारा होना नहीं है। जाननेवालों को एक प्रतीति गहन होती जाती है रोज—रोज कि मैं नहीं हूं, परमात्मा है। एक दिन ऐसी घडी आती है कि मैं बिलकुल शून्य हो जाता है। वही तो अष्टावक्र ने कहा. ' अनिर्वचनीय स्वभाव और स्वभाव से बिलकुल शून्य।’ जिसका निर्वचन न हो सके ऐसे स्वभाव का अनुभव होता है और साथ ही यह भी अनुभव होता है कि मैं तो अब रहा ही नहीं।
होश से तुम इसे छोड़ दो अगर परमात्मा के हाथों में तो चमत्कार घटने शुरू हो जाते हैं। तुमने अगर अपने को ही अपने हाथों में पकडे रखा तो तुम क्षुद्र रह जाओगे। अपने ही कारण व्यर्थ ही छोटे रह गये। जब कि परमात्मा के पूरे हाथ तुम्हारे हाथ हो सकते थे, तब तुमने अपने छोटे —छोटे हाथों पर भरोसा किया। जब तुम निमित्त हो सकते थे, तुम कर्ता बनकर बैठ गये और वहीं तुम सिकुड़ गये।
यों तो मेरा तन माटी है, तुम चाहो कंचन हो जाये
तृषित अधर कितने प्यासे हैं तृष्णा प्रतिपल बढ़ती जाती
छाया भी तो छूट रही है विरह दुपहरी चढ़ती जाती
रोम—रोम से निकल रही है जलती आहों की चिनगारी
यों तो मेरा मन पावक है, तुम चाहो चंदन हो जाये
मेरे जीवन की डाली को भायी कटु शूलों की माया
आज अचानक अरमानों पर सारे जग का पतझड़ छाया
असमय वायु चली कुछ ऐसी पीत हुई चाहो की कलियां
यों तो सूखी मन की बगिया, तुम चाहो नंदन हो जाये
अब तो सांसों का सरगम भी खोया—खोया—सा लगता है
अनगिन यत्न किये मैंने पर राग न कोई भी जगता है
साध मीड़ में खिंचने पर भी स्वरसंधान नहीं हो पाता
यों तो टूटी—सी मनवीणा, तुम चाहो कंपन हो जाये
मेरा क्या है इस धरती पर सिर्फ तुम्हारी ही छाया है
चांद—सितारे तृण तरु—पल्लव सिर्फ तुम्हारी ही माया है
शब्द तुम्हारे, अर्थ तुम्हारे, वाणी पर अधिकार तुम्हारा
यों तो हर अक्षर क्षर मेरा, तुम चाहो वंदन हो जाये
प्रभु के स्पर्श से सब स्वर्ण हो जाता है—मिट्टी भी। सोयी वीणा जाग उठती है। संगीत का आविर्भाव हो जाता है। जहां सब ताप ही ताप था वहां सब चंदन हो जाता है। लेकिन तुम छोड़ो उसके हाथ में।
मनुष्य अपने ही कारण परेशान है। कोई तुम्हें परेशान किये नहीं। तुम व्यर्थ ही सारा बोझ अपने सिर पर लेकर चल रहे हो। जो बोझ उसके सिर पर है वह भी तुम अपने सिर पर लेकर चल रहे हो। उस कारण तुम कितने टूट—फूट गये हो! कितने जराजीर्ण कितने थके —मांदे! पैर उठाये नहीं उठते इतने थक गये हो। फिर भी मगर बोझ को तुम ढोये चले जाते हो।
रखो। बोझ को उतारो। बोझ भी उसका है, तुम भी उसके हो। समग्र से व्यक्ति अलग नहीं है समष्टि का अंग है। ऐसी प्रतीति गहन होती जाये, यही संन्यास है। ऐसा भाव रोज—रोज प्रगाढ होता जाये।
यों तो मेरा तन माटी है, तुम चाहो कंचन हो जाये
यों तो मेरा मन पावक है, तुम चाहो चंदन हो जाये
यों तो सूखी मन की बगिया, तुम चाहो नंदन हो जाये
साध मीड़ में खिंचने पर भी स्वरसंधान नहीं हो पाता
खींच—खींचकर चेष्टा कर—करके भी कहां स्वरसंधान हो पाता है?
यों तो टूटी—सी मनवीणा, तुम चाहो कंपन हो जाये
शब्द तुम्हारे, अर्थ तुम्हारे, वाणी पर अधिकार तुम्हारा
यों तो हर अक्षर क्षर मेरा, तुम चाहो वंदन हो जाये
तुम शून्य से बोलो तो वेदों का जन्म होता है। तुम अहंकार से बोलो तो वेद भी पढ़ो, तोता—रटत हो जाते हैं। तुम उसे बोलने दो तो तुम्हारा हर शब्द उपनिषद है। और यों फिर तुम उपनिषद कंठस्थ कर लो, 'तुम' कंठस्थ कर लो तो उपनिषद भी दो कौड़ी के हो गये।
सारा दारोमदार एक बात पर है—तुम हो या वह है! तुम हटो बीच से। राह दो उसे। खाली करो सिंहासन ताकि वह विराजमान हो सके।
यही अर्थ है राबिया का।
किसी ने राबिया को कहा, मैं अगर अपने जीवन को बदल लूं र पाप को पुण्य में बदल दूं अधर्म को धर्म में बदल दूं दुश्चरित्रता को चरित्र बना लूं र अगर मैं मुस्लिम हो जाऊं, ईमान को पकड़ लूं तो क्या परमात्मा मेरी तरफ झुकेगा? तो राबिया ने कहा, नहीं, बात इससे बिलकुल उल्टी है। अगर परमात्मा तुम्हारी तरफ झुके तो तुम मुस्लिम हो सकते हो, तो तुम ईमान ला सकते हो। उसके बिना तुम्हारी तरफ झुके कुछ भी न होगा। तुम्हारे झुकने से कुछ भी न होगा, वही झुके तो ही कुछ होता है। जो होता है, उससे ही होता है।
राबिया का अर्थ यह है, कर्ता तुम नहीं हो, कर्ता वही है। इसलिए जब कोई व्यक्ति वस्तुत: धर्म के जीवन में प्रवेश करता है तो वह ऐसा नहीं कहता कि देखो, मैं धार्मिक हो रहा हूं। वह यह कहता है, तेरी मर्जी प्रभु कि तूने मुझे धार्मिक बना लिया। मेरे किये तो कुछ न होता। मेरे किये तो जो होता, गलत ही होता। मैंने तो कर—करके देख लिया, मेरा सब किया अनकिया हो गया। तूने पुकारा। तेरी मर्जी। तूने प्यास जगाई। तूने खींच लिया।
इसलिए जब कोई प्रभु को उपलब्ध भी होता है तो वह यह नहीं कहता, अपनी पीठ नहीं ठोंकने लगता खुद कि शाबाश! कर दिखाया। जब कोई प्रभु को उपलब्ध होता, उसके चरणों में झुककर धन्यवाद देता है कि मेरे बावजूद भी तूने मुझे खींच लिया। धन्यवाद! 'मेरे बावजूद भी' —इसे स्मरण रखना।
भक्त तो, प्रेमी तो, खोजी तो सिर्फ पुकार सकता है, प्रार्थना कर सकता है और प्रतीक्षा कर सकता है, और उसके हाथ में कुछ भी नहीं है। इसलिए तो अष्टावक्र इतना जोर देकर कहते हैं कि कर्तव्य, यही चिंता का मूल आधार है। तुमने सोचा कि मुझे कुछ करना है, करना पड़ेगा, मेरे किये न होगा कि तुम चिंतित हुए। चिंतित हुए, उद्विग्न हुए। उद्विग्न हुए, ज्वरग्रस्त हुए। ज्वरग्रस्त हुए, विक्षिप्त हुए, भटके। दूर से दूर निकल गये। इसलिए मूल बात अष्टावक्र कहते हैं, एक बात छूट जाये कि मैं कर्ता हूं। निमित्तमात्र हूं? साक्षी हूं।
पूनम बन उतरो।
भावों की कोमल पाटी पर
शाश्वत रंग भरो।
पूनम बन उतरो।
आतप से झुलसा तन सरवर
झरते ज्वालों के निर्झर
अधरों पर परितोष अधर
धर युग की तृषा हरो।
पूनम बन उतरो।
मुक्त प्राण निष्प्राण नियम—यम
गंध विधुर प्राणों का संभ्रम
निष्फल हों शूलों के श्रम क्रम
साधक सिद्ध करो।
पूनम बन उतरो।
विकसित हों साधों के सब दल
मुकलित परिमल के पाटल दल
जीवन हो सितप्रभ प्रण उज्वल
ज्योतिर्मय विचरो।
पूनम बन उतरो।
पुकारता है खोजी : पूनम बन उतरो। प्यास है, तुम बरसो। ज्यादा से ज्यादा मेरे बस में इतना है कि मैं तुम्हें रोकूं न; कि मैं द्वार खुले रखूं; कि तुम आओ तो इंकार न करूं, कि तुम आओ तो स्वीकार करूं; कि तुम आओ तो मैं द्वार पर प्रतीक्षा करता हुआ मिलूं। बस, इतना मेरे बस में है।
पूनम बन उतरो।
लेकिन तुम आओ। तुम्हारे बिना आये न हो सकेगा।
यहूदियों में एक बहुत महत्वपूर्ण विचार है हसीद फकीरों का, कि आदमी के खोजें थोड़े ही परमात्मा मिल सकता है। परमात्मा जब आदमी को खोजता है तभी मिलन होता है। यह बात महत्वपूर्ण है। आदमी के खोजें भी क्या होगा? एक बूंद सागर को खोजने चले, राह में खो जायेगी कहीं। धूल— धवांस में दब जायेगी कहीं।
और बूंद भी शायद सागर तक पहुंच जाये क्योंकि बूंद और सागर के बीच का फासला बहुत छोटा है। लेकिन आदमी परमात्मा को खोजने चले—कहां खोजेगा? किस दिशा में, कहां जायेगा? किन चांद—तारों पर? और बूंद और सागर के बीच जो अनुपात है, बूंद बहुत छोटी है सागर से लेकिन इतनी छोटी नहीं जितना आदमी छोटा है इस विराट से। यह अनुपात.. बहुत दूर है परमात्मा, बहुत बड़ा है। और हम तो बहुत छोटे हैं। कहां खोज पायेंगे? कैसे खोज पायेंगे?
खलील जिब्रान की एक कहानी है कि एक आदमी सोया है और तीन चींटियां उसके चेहरे पर चल रही हैं। एक चींटी ने दूसरी से कहा कि अजीब पहाड़ी पर आ गये हैं हम भी। न घास—पात ऊगता—होगा कोई क्लीन शेव! —न घास—पात ऊगता, न कोई वृक्ष दृष्टिगोचर होते, न कोई झील— झरने। किस पहाड़ पर आ गये हैं! बिलकुल सूखा। और देखते यह चोटी गौरीशंकर की? —नाक होगी—उठती चली गई है, आकाश को छूती मालूम होती है।
ऐसा वे एक—दूसरे से बात करने लगीं और बड़ी धन्यभागी होने लगीं कि हम चढ़ आये पहाड़ पर। और तीनों धीरे— धीरे नाक पर चढ़ गईं। और इसके पहले कि जैसा हिलेरी ने झंडा गाडा, वे गाड़तीं कि उस आदमी को नींद में थोड़ी—सी भनक पड़ी। उसने अपना हाथ फेरा, वे तीनों चींटियां उसकी नाक पर दबकर मर गईं।
जिब्रान की यह कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है। ऐसा ही आदमी है। शायद आदमी इससे भी छोटा। चींटी और आदमी के बीच फासला है जरूर, लेकिन आदमी और विराट के बीच का फासला तो सोचो! बहुत विराट है फासला। हम कैसे खोज पायेंगे? ये हमारे छोटे—छोटे पैर नहीं पहुंच पायेंगे। यह तो मंदिर ही चलकर आ जाये तो ही हम प्रवेश कर पायेंगे। और मंदिर चलकर आता है। तुम पुकारो भर। तुम्हारे पुकार के ही कच्चे धागों में बंधा आता है। कच्चे धागे में चले आयेंगे सरकार बंधे। पूनम बन उतरो।
भावों की कोमल पाटी पर
शाश्वत रंग भरो।
पूनम बन उतरो।
तुम पुकारते रहो। तुम प्यास जाहिर करते रहो। तुम रोओ। तुम गाओ। तुम नाचो। तुम जाहिर कर दो अपनी बात कि हम तेरी प्रतीक्षा में आतुर हैं। कि हम यहां तुझे बुला रहे हैं। तुम्हारी सारी भाव— भंगिमा, तुम्हारी सारी मुद्रायें पुकार और प्यास की खबर देने लगें। जिस दिन तुम्हारी पुकार और प्यास सौ डिग्री पर आती, उसी क्षण।
कोई भी नहीं कह सकता कि सौ डिग्री कब आती। और हर आदमी की डिग्री अलग— अलग आती। इसलिए तुम पुकारे जाओ। तुम अथक पुकारे जाओ। तुम्हारी पुकार ऐसी हो कि पुकार ही रह जाये, तुम मिट जाओ। प्रश्न ही बचे, प्रश्नकर्ता खो जाये। प्यास ही बचे। कोई भीतर प्यासा अलग न रह जाये। प्यास में ही डूब जाये और लीन हो जाये। उसी क्षण द्वार खुल जाते हैं। द्वार दूर नहीं हैं, द्वार तुम्हारे भीतर हैं। लेकिन उन्हीं के लिए खुलते हैं जो प्राण—प्रण से पुकारते हैं।
नहीं, पहल भी वस्तुत: उसी के हाथ में है। लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना—जैसी कि बहुत संभावना है—कि फिर हमें कुछ भी नहीं करना। अब यह बड़े मजे की बात है कि आदमी ऐसा धोखेबाज है, चालाक है। अगर उससे कहो कि तुम्हें कुछ करना है तो तुम परमात्मा को पा सकोगे तो वह कर्ता बन जाता है। कर्ता के कारण अहंकार सघन हो जाता है, यात्रा बंद हो जाती है। अगर उससे कहो, तुम्हें कुछ नहीं करना है तो वह आलसी बन जाता है। वह फिर पुकारता भी नहीं। वह कहता है, पुकार भी वही पुकारेगा तब होगी। अब हम कर भी क्या सकते हैं? अब कुछ भी नहीं करना है। तो वह अपनी चांदर ओढ़कर सो जाता है।
जब कि दोनों के बीच में कहीं मार्ग है। तुम्हें करना भी है और कर्ता नहीं बनना है। तुम्हें पुकारना भी है और ध्यान रखना है कि तुम्हारी पुकार में उसने ही पुकारा है। तुम्हें झुकना भी है और जानना है कि उसने ही झुकाया होगा; अन्यथा हम झुकते? हम जैसे पत्थर झुकते? हम जैसे पहाड़ झुकते? तुम रोओ तो जानना कि वही तुम्हारे आसुरों में आया। नहीं तो हम जैसे पाषाणों से आंसू बहते?
खयाल रखना, करना है और कर्ता नहीं बनना है। पहल लेनी है और स्मरण रखना है कि पहल भी वही लेता है। जाना है उसकी तरफ, खोजना है उसे और सदा याद रखना है कि वह तुम्हें खोज रहा है। वह खोजता तुम्हारे पास आ रहा है। तुम्हारी खोज में भी उसी ने ही अपने हाथ फैलाये हैं। उसी ने ही अपनी अभीप्सा फैलाई है। तुम्हारी प्रार्थना भी जब उसी के द्वारा की गई प्रार्थना बन जाती है तभी......।
और ये दोनों बातों में—ध्यान रखना, नहीं तो दोनों तरफ खाई—खड्ड हैं और बीच में मार्ग है। या तो तुम कर्ता होने को तैयार हो। तुम कहते हो, फिर हम सब कर लेंगे। कर्ता— धर्ता सब हम। तो तुम अहंकारी हो जाते हो। या तुम कहते हो, हम कुछ भी न करेंगे। अब वह पुकारता भी रहे तो तुम उसकी पुकार में भी स्वर का साथ न दोगे। तुम कहोगे, अब तू पुकार ही रहा है तो हम और बीच में क्यों बाधा डालें? अब तुम पुकारो। अब तुमको गाना ही है तो गाओ। हम अपनी बांसुरी भी तुम्हारे ओंठ पर क्यों रखें? जब गाना ही तुम्हारा है, बांसुरी का तो है नहीं कुछ, पोली है; हमारी क्या जरूरत?
मगर मैं तुमसे कहता हूं तुम्हारी पोली बांसुरी और उसके ओंठ, दोनों के मिलन से घटना घटती है। तुम्हारा निमित्त— भाव और उसका कर्तृत्व, दोनों के मिलन से घटना घटती है।
आज इतना ही।
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