दिनांक 7 फरवरी,1977;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
पहला प्रश्न :
मैं कभी जीवन के शिखर पर अनुभव करता हूं। ऐसा लगता है कि सब कुछ, जीवन का सब रहस्य पाया हुआ ही है। लेकिन फिर किन्हीं क्षणों में बहुत घनी उदासी और असहायता भी अनुभव करता हूं —मेरी वास्तविक समस्या क्या है, यह मेरी पकड़ में नहीं आता है।
शिखर जब तक है, तब तक घाटियां भी होंगी। शिखर की आकांक्षा जब तक है, तब तक घाटियों का विषाद भी झेलना होगा। सुख को जिसने मांगा, उसने दुख को भी साथ में ही मांग लिया। और सुख जब आया तो उसकी छाया की तरह दुख भी भीतर आ गया।
हम सुख के नाम तो बदल लेते हैं, लेकिन सुख से हमारी मुक्ति नहीं हो पाती। और जो सुख से मुक्त नहीं, वह दुख से मुक्त नहीं होगा। अष्टावक्र की पूरी उपदेशना एक ही बात की है. द्वंद्व से मुक्त हो जाओ।
जो निर्द्वंद्व हुआ, वही पहुंचा। जिस शिखर को तुम सोचते हो पहुंच गये, वह पहुंचने की भ्रांति है। क्योंकि पहुंचने का कोई शिखर नहीं होता। पहुंचना तो बड़ी समभूमि है। न ऊंचाई है वहा, न नीचाई है वहा। पहुंचना तो ऐसे ही है जैसे तराजू तुल गया। दोनों पलड़े ठीक समतुल हो गये। बीच का काटा ठहर गया। या जैसे घड़ी का पेंडुलम बाएं गया, दाएं गया, तो चलता रहेगा। लेकिन बीच में रुक गया, न बाएं, न दाएं, ठीक मध्य में, तो घड़ी रुक गयी।
जहां न सुख है, न दुख, दोनों के बीच में ठहर गये, वहीं छुटकारा है, वहीं मुक्ति है। अन्यथा मन नये—नये खेल रच लेता है। धन पाना, ध्यान पाना, संसार में सफलता पानी, कि धर्म में सफलता पानी। लेकिन जब तक सफलता का मन है और जब तक सुख की खोज है तब तक तुम दुख पाते ही रहोगे। क्योंकि हर दिन में रात सम्मिलित है। और फूलों के साथ काटे उग आते हैं। फूल काटो से अलग नहीं और रात दिन से अलग नहीं।
छोड़ना हो तो दोनों छोड़ना। एक को तुम न छोड़ पाओगे। एक को हम सब छोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी सब की चेष्टा यही है कि रात समाप्त हो जाए, दिन ही दिन हो। ऐसा नहीं होगा। संसार द्वंद्व से बना है। ही, अगर तुम द्वंद्व के बाहर सरक जाओ, अतिक्रमण हो जाए, तुम दोनों के साक्षी हो जाओ। अब समझो फर्क।
तुम कहते हो, 'कभी—कभी शिखर पर होता हूं।’
जब तुम शिखर पर होते हो, कुछ शांति मिलती है, कुछ आनंद मिलता, कुछ पुलक समाती, कुछ उत्सव होता भीतर, तब तुम उस उत्सव के साथ तादात्म्य कर लेते हो। तब तुम सोचते हो, मैं
उत्सव। तब तुम सोचते हो, मैं आनंद। बस वहीं चूक हो गयी। साक्षी बने रही। होने दो शिखर, उठने दो शिखर, गौरीशंकर बनने दो, उड़ा ऊंचाई आ जाए, लेकिन तुम देखते रहो दूर खड़े, जुड़ मत जाओ, यह मत कहो कि मैं आनंद। इतना ही कहो, आनंद को देख रहा हूं, आनंद हो रहा है, मैं देखनेवाला, मैं आनंद नहीं। फिर थोड़ी देर में तुम पाओगे कि शिखर गया और घाटी आयी। दिन गया, रात आयी। तब भी जानते रहो कि मैं विषाद नहीं। देखता हूं विषाद है, दुख है, पीड़ा है, मैं दूर खड़ा द्रष्टामात्र। सुख को भी देखो, दुख को भी देखो। जब तुम देखनेवाले हो जाओगे तो कैसा शिखर, कैसी घाटी! फिर कैसी विजय और कैसी हार!
नहीं तो मन नयी—नयी चालें चलता है।
नाशाद किसे कहते हैं और शाद किसे
मजबूर किसे कहते हैं आजाद किसे
एक दिल है कि सौ भेष बदलता है 'फिराक'
बरबाद किसे कहते हैं आबाद किसे
एक दिल है कि सौ भेष बदलता है 'फिराक'—स्व ही मन है, नयी—नयी भंगिमाओं में प्रगट होता है। कभी शिखर पर, कभी घाटी में। जो शिखर पर, वही घाटी में। वह कुछ भिन्न नहीं है। तुम जब शिखर पर अपने को अनुभव करते हो तब बड़े प्रभावित हो जाते हो कि अहा, पहुंच गये! बस जहां तुमने कहा अहा, पहुंच गये, वहीं से उतार शुरू हो गया, गिनती शुरू हो गयी। कहो ही मत कि अहा, पहुंच गये। तो फिर तुम कभी चूक न सकोगे। पकड़ो मत, तो कुछ छुड़ाया न जाएगा। दूर खड़े तटस्थ देखते रहो।
अब दुबारा जब सुख की यह घड़ी आए—और ध्यान रखना, शुरू करना सुख की घड़ी से। दुख की घड़ी से शुरू मत करना। दुख की घड़ी से तो तुम शुरू करना चाहोगे। तुम कहोगे, तो फिर ठीक, अब जब घाटी आएगी और विषाद घेरेगा और अंधेरी रात पकड़ लेगी, तब मैं कहूंगा—मैं द्रष्टा। मैं दूर खड़ा। दुख में तो सभी दूर खड़े होना चाहते हैं, वह कोई बड़ी कुशलता की बात नहीं। दुख में कौन जुड़ना चाहता है! दुख में तो तुम्हारा मन ही तुमसे कहता है कि हट जाओ। नहीं, दुख से शुरू मत करना। दुख में तो शुरू किया तो कोई सार न होगा। जब सुख की घड़ी आए और सब तरफ कमल खिल जाएं और चांद ऊपर खिला हो और सब तरफ रस ही रस बहता हो, तब एक छलांग लगाकर बाहर हो जाना—कहना, मैं सुख नहीं, मैं सिर्फ द्रष्टा हूं।
अगर तुम सुख में जीते, तो दुख में भी जीत जाओगे। अगर तुमने दुख से कोशिश शुरू की, तो तुम कभी न जीतोगे। क्योंकि दुख से तो सहज ही मन अलग होना चाहता है। उसमें कुछ साधना नहीं है। उसमें कुछ जतन नहीं है। कोई गुणवत्ता नहीं है। कांटे से कौन नहीं छूटना चाहता! कांटा चुभ जाता है तो सभी काटे को फेंकना चाहते हैं। मजा तो तब है जब तुम फूल को फेंक दो। और जिसने फूल को फेंक दिया, उसके जीवन से कांटे समाप्त हो जाते हैं।
नहीं तो तुम उलझे ही रहोगे। जब घाटी में रहोगे, तब शिखर की आकांक्षा सताएगी। जब शिखर पर रहोगे, तब घाटी का भय पकड़ेगा कि फिर आती होगी घाटी, फिर होगी रात। यह सूरज ऊगा, यह दोपहरी हो गयी, यह सांझ होने लगी, रात आती ही होगी। न तुम शिखर पर शांत हो सकते हो, क्योंकि
शिखर पर तुम्हें याद आती ही रहेगी घाटी की। सफल आदमी कहां आनंदित हो पाता है! ड़रा रहता है—अब विफलता लगी, अब विफलता लगी, कितनी देर और सफल रह पाऊंगा? ड़रा रहता है, कहीं खो तो न जाएगा। और जिसका भय है कि खो तो न जाएगा, उसका सुख कैसे हो सकता है? वह सुख धोखा— धोखा है।
हिर्स और हवसे—हयाते—फानी न गयी
इस दिल से हवाए—कामरानी न गयी
है संगे—मजार पर तिरा नाम रवी
मरकर भी उमीद—ए—जिदगानी न गयी
नश्वर जीवन की लालसा नहीं गयी—
हिर्स और हवसे—हयाते—फानी न गयी
जो छिन जाता है क्षण भर में, फिर हम उसे मांगने लगते हैं। कभी यह नहीं सोचते कि जो क्षण में छिन गया, फिर भी मिल जाएगा तो फिर क्षण में छिन जाएगा। उसका होना ही क्षणभंगुर है।
हिर्स और हवसे—हयाते—फानी न गयी
इस दिल से हवाए—कामरानी न गयी
और कितनी हारे तुमने उठायीं, फिर भी विजय की आकांक्षा नहीं जाती। विजय की उत्कंठा मन को पकड़े ही हुए है। फिर जीत लें। न जीत पाए संसार में, तो परमात्मा के जगत में जीत लें। नहीं बना पाए यहां स्वर्ग, तो वहा स्वर्ग मिल जाए। धन नहीं का, पुण्य जुड़ा लें। धन नहीं जुड़ा, ध्यान जुड़ा लें। मगर जीत कर दिखला दें।
इस दिल से हवाए—कामरानी न गयी
यह उत्कंठा विजय की, यह मरते दम तक नहीं छोड़ती है।
है संगे—मजार पर तेरा नाम रवी
अब तो कब पर नाम भी लिख गया। कब में दब गये।
मरकर भी उमीद—ए—जिदगानी न गयी
लेकिन कब में दबे —दबे भी तुम फिर जिंदगी की उम्मीद करते रहोगे, फिर मिले जीवन, फिर हो जन्म। मरे तो जीवन की आकांक्षा, और जीए तुम कब ठीक से। जीए तो मौत का ड़र तो पकड़े ही रहा। कदम—कदम पर मौत घबडाती रही कि अब होगी, कि तब होगी। कि जरूर होनेवाली है, यह आज एक मर गया, कल दूसरा मर गया, क्यू में खड़े हैं, क्यू छोटा होता जाता, हम आगे सरकते जाते, रोज मौत करीब आती जाती। जिंदा हैं, तो मरने का भय। मर गये, तो फिर जीवन की आकांक्षा। ऐसा यह द्वंद्व का चक्कर है। इसको इस देश के लोगों ने संसार—चक्र कहा है। संसार—चक्र का अर्थ होता है, जो है उससे विपरीत पकड़े रहता है। तुम जो है उसे देखने लगो, तो धीरे — धीरे वह भी छूटेगा, विपरीत भी छूट जाता है।
अब दुबारा जब तुम्हें सुख का क्षण आए, हिम्मत करना—बड़ी हिम्मत की जरूरत है। सुख के क्षण में जागने के लिए बड़ी हिम्मत की जरूरत है। क्योंकि सुख के क्षण में तो आदमी सोना चाहता है। सुख के क्षण में तो सोचता है, बमुश्किल से तो सुख मिला और अब यहां साक्षी बनकर और नष्ट
करना! किसी तरह मिला, भोग लो। पुरानी आदत, पुराना संस्कार तादात्म्य कर लेने का फिर तुम्हें पकड़ेगा, हिम्मत रखना।
रक्खा है किसी की आस रहने ही में क्या
रक्खा है किसी के पास रहने ही में क्या
आदत—सी पड़ गयी है शायद वरना
रक्खा है 'फिराक' उदास रहने ही में क्या
एक आदत, एक संस्कार, अन्यथा रक्खा क्या है उदास रहने में! और रक्खा क्या है प्रफुल्ल होने में! न उदासी में कुछ है, न प्रफुल्लता में कुछ है। दोनों ही स्थिति में तुम अपने को गंवाते हो। और दोनों ही स्थिति में तुम रिक्त होते, चुकते। हर घड़ी, चाहे सुख हो चाहे दुख, एक ही चीज पाने योग्य है और वह है साक्षीभाव। जागो और देखो। जोड़ो मत अपने को। अगर तुमने बाहर की चीजों से अपने को न जोड़ा, तो तुम भीतर के जगत में जुड़ जाओगे, उसी का नाम योग है। बाहर से जोड़ा, भीतर से टूट जाओगे, उसी का नाम विरह है। अपने से टूट गये, विरह; अपने से जुड़ गये, योग।
दूसरा प्रश्न :
परमात्मा की परिभाषा क्या है? परमात्मा की प्रतिमा कैसी है?
परिभाषा जिसकी हो सके, वह परमात्मा नहीं। इसे तुम परमात्मा की परिभाषा समझो। जिसकी परिभाषा हो सके, डेफिनिशन हो सके, वह परमात्मा नहीं। क्योंकि परिभाषा का अर्थ ही होता है, जिसके चारों तरफ हमने रेखा खींच दी। तो परिभाषा सीमित की हो सकती है, परिभाषा असीम की नहीं हो सकती। तो जो भी हम कहेंगे, छोटा होगा। जो भी हम कहेंगे, झूठ होगा।
इसलिए लाओत्सु ने कहा है, सत्य के संबंध में कुछ कहा कि सत्य असत्य हो जाता है। कहते से ही असत्य हो जाता है। क्योंकि शब्द बड़े सीमित हैं, सत्य बड़ा विराट है। जैसे मुट्ठी में कोई आकाश बांधने को कहे। मुट्ठी में भी आकाश हो सकता है, मुट्ठी अगर खुली हो। मुट्ठी अगर बंद हो तो आकाश खो जाता है।
परिभाषा तो बंद मुट्ठी है। इसलिए परिभाषा तो नहीं हो सकती, इशारे हो सकते हैं। इशारा खुली
मुट्ठी है। कुछ बंधा हुआ नहीं है, सिर्फ इशारा है। इंगित हो सकते हैं, परिभाषा नहीं हो सकती।
और परमात्मा की प्रतिमा पूछते हो कैसी है? सब प्रतिमाएं उसकी हैं। जो भी तुमने देखा है, उसी की प्रतिमा है। उसके अतिरिक्त कोई और है नहीं। अनंत— अनंत उसकी प्रतिमाएं हैं। फिर भी किसी प्रतिमा में वह चुक नहीं गया है। सब रूप उसके हैं। और सब रूप उसके इसीलिए हो सकते हैं कि वह स्वयं अरूप है। अरूप के ही सब रूप हो सकते हैं। कितनी लहरें सागर में उठती हैं। सभी लहरें सागर की हैं। छोटी लहर, बड़ी लहर, झागवाली लहर, गैरझागवाली लहर, प्रचंड़ तूफान की तरह आती हुई लहर कि डुबा दे नौकाओं को, सभी लहरें उसकी हैं, सभी रूप उसके हैं, एक ही सागर के। लेकिन सागर अरूप है।
जिसने पूछा है, वह भी परमात्मा का एक रूप है, वह भी एक प्रतिमा है। जब तुम दर्पण के सामने सुबह खड़े होकर दर्पण देखते हो, तो जिसको तुम देखते हो वह भी परमात्मा है। मंदिर में रखी ग्रतइrयां ही परमात्मा नहीं हैं, राह के किनारे अनगढ़ जो पत्थर पड़े हैं, वे भी परमात्मा हैं। क्योंकि परमात्मा के सिवा कुछ और है नहीं। परमात्मा शब्द का एक ही अर्थ होता है, अस्तित्व। परमात्मा शब्द के कारण धोखे में मत पड़ जाना, इसका मतलब व्यक्ति नहीं होता। इसका मतलब होता है, यह जो विराट ऊर्जा है जगत की, यह जो अस्तित्ववान ऊर्जा है, यही।
सोचता हूं जब कभी संसार यह आया कहां से
चकित मेरी बुद्धि कुछ भी न कह पाती
और तब कहता हृदय अनुमान तो होता यही है
घट अगर है तो कहीं घटकार भी होगा
लेकिन जिसने भी यह पंक्तियां लिखीं उसे परमात्मा का कोई पता नहीं है। परमात्मा का अनुमान नहीं होता, परमात्मा कोई इनफरेंस नहीं है। अधिकतर तुमने यही बातें सुनी होंगी, ये बातें बचकानी हैं। लोग कहते हैं
और तब कहता हृदय अनुमान तो होता यही है
घट अगर है तो कहीं घटकार भी होगा
अगर घड़ा है, तो घड़े को बनानेवाला भी कोई होगा। लेकिन तब तो बड़ी झंझट खड़ी होगी। फिर घटकार है, तो घटकार को बनानेवाला कौन होगा! यह बात कुछ ज्यादा दूर न जाएगी। दूर जाती नहीं। अनुमान से परमात्मा का कोई संबंध नहीं है। अनुभव से। अनुमान तो सब कल्पित है। अनुमान तो हमारी मजबूरी है, क्योंकि हमें लगता है, इतना बड़ा विराट है तो कोई चलानेवाला होगा! मगर यह हमारी बुद्धि का अनुमान है। और बुद्धि का अनुमान क्या! क्या खबर लाएगा परमात्मा की। यह तो ऐसा है जैसे कोई चम्मच से सागर को उलीचने चला।
परमात्मा अनुमान नहीं है, तर्क नहीं है, सिद्धात नहीं है, अनुभव है। अनुभव का अर्थ होता है, जो अपने को पिघलाका। और तब ऐसा पता नहीं चलेगा कि घट है तो घटकार भी होगा, तब तो तुम जानोगे कि घट और घटकार दो नहीं हैं, एक ही हैं। परमात्मा और उसकी कृति दो नहीं हैं। स्रष्टा और सृष्टि दो नहीं हैं।'
तुम्हारे मन में परमात्मा के संबंध में जो धारणा बना दी गयी है वह ऐसी है कि दूर कहीं आकाश
में कोई बैठा स्वर्ग के सिंहासन पर। इसलिए तुम पास नहीं देखते, तुम दूर देखते हो। तुम इन पास खड़े वृक्षों में नहीं देखते, चट्टानों में नहीं देखते, तुम दूर खोजते हो चांद—तारों के पार। और परमात्मा पास है। पास से भी पास है।
तुम अपनी पत्नी में नहीं देखते, तुम अपने पति में नहीं देखते, न अपने बेटे में देखते हो। तुम देखते हो राम में, कृष्ण में, बुद्ध में, महावीर में—बड़े दूर। वेद में, कुरान में, गीता में, बाइबिल में। तुम अपने हस्ताक्षरों में नहीं देखते। तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें जो प्रेम—पत्र लिखा है उसमें नहीं देखते, वेद में। तुम्हारे बेटे ने तुतलाकर तुमसे जो कहा है, उसमें नहीं, कृष्ण के वचनों में। तुम दूर देखते हो, इसलिए चूकते हो। और परमात्मा पास है। परमात्मा तुम्हारे बेटे में तुतला रहा है। तुम्हारे बेटे में चलने की कोशिश कर रहा है। वृक्षों में हरा है, पक्षियों में गुनगुना रहा है। हवा के झोंकों में अदृश्य है। जो तुम्हारे चारों तरफ घिरा हुआ है, वह परमात्मा के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। तुम कहीं भी झुको, उसी के चरणों पर तुम्हारे हाथ पड़ते हैं। तुम कहीं भी आंख उठाओ, उसी का दर्शन।
इसलिए तुम इस तरह मत पूछो, अन्यथा तुम्हारी जिंदगी ऐसे ही गुजर जाएगी। कहीं प्रश्न में भूल है।
अफसोस हमारी उम्र रोते गुजरी
नित दिल से गुबारे—गम ही धोते गुजरी
देखा न कभी ख्वाब में अपना यूसुफ
हर चंद तमाम उम्र सोते गुजरी
अगर तुमने पास नहीं देखा तो तुम सोते—सोते ही जिंदगी गुजार दोगे, यूसुफ तुम्हें दिखायी न पड़ेगा, वह प्यारा तुम्हें दिखायी न पड़ेगा। वह प्यारा तुम्हें छू रहा है। जब तुम श्वास भीतर लेते हो तब वही प्यारा तुम्हारे भीतर गया। जब तुमने पानी पीया तो वही प्यारा तुम्हारे कंठ में गया। और तुम्हारे कंठ में जो तृप्ति का भाव जगा, वह भी उसी प्यारे के कंठ में जग रहा है। उसके अतिरिक्त कोई भी नहीं है। परिभाषा मत पूछो, इशारे पूछो। ऐसा मत कहो कि मैं बता दूं कहां है परमात्मा, क्या है उसकी प्रतिमा? मस्जिद में है कि मंदिर में कि गुरुद्वारे में? सब जगह है।
और जिसने देखने की कोशिश की एक ही जगह, वह चूक गया। जिसने कहा मंदिर में ही है, वह आदमी नास्तिक। जिसने कहा मस्जिद में ही है, वह आदमी नास्तिक। और जिसने कहा चर्च में ही है, वह आदमी नास्तिक। जिसने कहा जीसस के सिवाय किसी में नहीं, वह आदमी नास्तिक। और जिसने कहा कृष्ण के सिवाय किसी में नहीं, वह आदमी भी नास्तिक। जिसने भी परमात्मा को सीमा दी, वह परमात्मा का दुश्मन। जिसने परमात्मा को मुक्ति दी... तुम मुक्त होना चाहते हो, कम से कम परमात्मा को तो मुक्त करो। तुम तो मुक्त हो ही नहीं; परमात्मा तक को बंधनों में डाला है।
जाना जाता है परमात्मा निकट में और निकट को पहचानने का मार्ग प्रेम है। अनुमान नहीं, तर्क नहीं। जब तुम्हारा हृदय गीत गुनगुनाता है, जब तुम्हारा हृदय गदगद होता है प्रेम के भाव में, तब तुम परमात्मा का अनुभव करते हो। परमात्मा अनुमान नहीं, प्रेम की प्रतीति है।
टेर रही प्रिया—
तुम कहां?
किसकी यह छाह
और किसके ये गीत रे
सिहर रहा जिया—
तुम कहां?
किसके ये कांटे हैं
किसके ये पात रे
बिहर रहा हिया—
तुम कहा गुम
बिरम गये पिया
तुम कहां?
जब तुम प्रेमी की तरह पुकारोगे। परिभाषा, परमात्मा की! परिभाषाएं गणित में होती हैं। यूक्लिड़ से पूछो तो ज्यामिती की सब परिभाषाएं बता देता है। परिभाषाएं आदमी की बनायी हुई हैं। तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा है जो तुम्हारा बनाया हुआ नहीं, उससे ही परमात्मा को खोजो। तुम्हारे भीतर प्रेम है जो तुम्हारा बनाया हुआ नहीं।
तुमने एक बात देखी? आदमी सब बना ले, प्रेम नहीं बना पाता। मंदिर बना लो, मस्जिद बना लो, बड़े मंदिर बनाओ, बड़ी मस्जिद बनाओ, लेकिन अगर कोई तुमसे कहे कि प्रेम बनाओ, तो तुम कहते हो, बड़ी मुश्किल, हो तो हो, नहीं हो तो नहीं हो। लाख कोई कहे कि इसी आदमी से प्रेम करो, तुम कहोगे, मगर करें कैसे! हो तो हो, न हो तो न हो। होता है तो होता है, नहीं होता तो नहीं होता। आदमी के हाथ में कहां?
जो आदमी के हाथ में नहीं है, उसी पर सवारी करो, तो परमात्मा तक पहुंच जाओगे।
मंदिर तुमने बना लिये, वह आदमी के हाथ में है। सुंदर मंदिर बना लिये। प्रतिमाएं तुमने बना लीं, वह आदमी के हाथ में हैं। सुंदर प्रतिमाएं बना लीं। लेकिन जो भी आदमी के द्वारा निर्मित है उससे परमात्मा की कोई पहचान न हो सकेगी। तुम अपने भीतर उसको खोजो जो तुम्हारे बनाने में नहीं आता। उसी सूत्र को पकड़ो।
देखो, तर्क सिखाया जा सकता है, प्रेम सिखाया नहीं जा सकता। तर्क के स्कूल हैं, कालेज हैं, विश्वविद्यालय हैं, तुम जाकर तर्क पढ़ सकते हो। तर्क न आता हो तो अभ्यास कर सकते हो। लेकिन प्रेम का कोई विद्यालय नहीं है, कोई विद्यापीठ नहीं है। प्रेम को कोई सिखा नहीं सकता।
एक आदमी ने रामानुज से जाकर कहा कि मुझे परमात्मा का मार्ग बता दें। बस मेरे जीवन में एक ही चीज पाने की है, वह परमात्मा पाना है, सब कुछ दाव पर लगाने को तैयार हूं। रामानुज ने कहा, मेरे भाई, एक बात पूछता हूं तुमने कभी किसी को प्रेम किया? उस आदमी ने कहा, इस झंझट में मैं कभी पड़ा ही नहीं, मैं धार्मिक आदमी हूं, मैं बचपन से ही धार्मिक हूं। मुझे पहले ही से परमात्मा को पाना है। प्रेम इत्यादि के चक्कर में मैं पड़ा नहीं। रामानुज बहुत उदास हो गये। और रामानुज ने कहा कि फिर भी तुम खोजो, शायद किसी मित्र से किया हो। किसी से तो किया होगा! मां से किया हो, पिता से किया हो, भाई—बहन से किया हो, कभी तुम्हारे जीवन में प्रेम की पुलक उठी कि नहीं? वह आदमी बड़ा नाराज हो गया। उसने कहा, मैं परमात्मा की पूछता हूं, तुम प्रेम की बातें उठाते हो। मैं परमात्मा का खोजी हूं, प्रेम से क्या लेना—देना! प्रेम का चक्कर ही तो परमात्मा तक नहीं जाने देता।
तो रामानुज की आंखों में, कहते हैं, आंसू आ गये। और उन्होंने कहा, फिर मैं तुम्हारा कुछ भी सहयोग न कर पाऊंगा। फिर मैं असमर्थ हूं। वह आदमी कहने लगा, लेकिन तुम्हारी असमर्थता क्या है? इतने तुम्हारे शिष्य हैं, इतने लोग तुम्हारे द्वारा प्रभु की तरफ जा रहे हैं, मुझे ही क्यों तुम छोड़ते हो? मुझमें ऐसी कौन—सी अपात्रता है। मैं ब्रह्मचर्य का पालन किया हूं सात्विक भोजन करता हूं, किसी तरह की सासारिक झंझट में नहीं पड़ा हूं तुम मुझे छोड़ क्यों रहे हो, मेरी अपात्रता कहां है, बताओ। रामानुज ने कहा, तुमने सब किया होगा, उससे पात्रता नहीं बनती, वह तुम्हारा किया हुआ है। सिर्फ एक चीज से पात्रता बनती है, प्रेम। और तुम कहते हो तुमने प्रेम जाना ही नहीं, अब जिसने प्रेम नहीं जाना उसको मैं मार्ग कैसे बताऊं? क्योंकि प्रेम ही मार्ग है। तुमने थोड़ा—सा जाना होता, तो रास्ता खुलता था। चाहे किसी के, स्त्री के प्रेम में पड़ गये होते, कोई हर्जा नहीं, है तो भनक उसी बड़े प्रेम की। छुद्र में उठी है, लेकिन है तो विराट की ही।
जब तुम किसी स्त्री को सच में ही प्रेम करते हो, तो स्त्री स्त्री नहीं रह जाती। उसके भीतर कुछ दिव्यता का आविर्भाव हो जाता है। जब तुम किसी पुरुष को प्रेम करते हो तो वह पुरुष पुरुषोत्तम हो जाता है। कम से कम तुम्हारे प्रेम के क्षणों में तो पुरुषोत्तम हो जाता है। उन क्षणों में तो तुम उसे साधारण व्यक्ति नहीं मानते, वह असाधारण हो जाता है। देदीप्यमान। उसके भीतर एक प्रभा प्रगट हो जाती है। माना कि यह परमात्मा को पाने का बडे दूर का रास्ता हुआ, लेकिन बस यही रास्ता है। यह प्रेम अभी प्रार्थना नहीं है, लेकिन संभावना है। हीरा हो तो निखारा जा सकता है, तराशा जा सकता है। हीरा हो ही नहीं तो क्या तराशिएगा? क्या निखारिएगा? सोना हो, कितना ही मिट्टी में दबा हो, कितना ही कूड़े —करकट से मिला हो, शुद्ध किया जा सकता है। जब तुम्हारा अशुद्ध प्रेम शुद्ध हो जाता है तो प्रार्थना बन जाता है। प्रार्थना में ही परिभाषा है।
तेरे जमाल की तस्वीर खींच दूं लेकिन
जबां में आंख नहीं आंख मे जबाँ नहीं
होता है राजे—इश्क,— ओ—मुहब्बत इन्हीं से फाश
आंखें जबां नहीं हैं मगर बेजबा नहीं
समझो—
तेरे जमाल की तस्वीर खींच दूं लेकिन
जबां में आंख नहीं आंख में जबां नहीं
तेरी प्रतिमा तो बना दूं र तेरी आकृति तो निर्मित कर दूं र तेरी परिभाषा तो कर दूं र लेकिन विराट है तेरा यह रूप। आंख से देख लेता हूं, जबान से कहना चाहता हूं, बस मुश्किल हो जाती है—आंख में जबान नहीं। आंख से देख लेता हूं तुझे, लेकिन आंख के पास कहने की जबान नहीं है। जबान से कहना चाहता हूं —जबां में आंख नही—और जबान ने देखा नहीं है। आंख ने देखा है और जबान कहना चाहती है, मुश्किल हो जाती है। कैसे कहूं?
इसलिए तुम मुझसे पूछते हो, परिभाषा? मैं कहता हूं, मेरी आंख में देख लेना। आंख ने देखा है उसे, जबान ने उसे देखा नहीं। जबान कह सकती है, लेकिन जो भी कहेगी वह अनुमान होगा।
होता है राजे —इश्क— ओ —मुहब्बत इन्हीं से फाश
आंख के द्वारा ही प्रेम के रहस्य का पर्दा उठता है। अगर तुम्हें प्रेमी को पहचानना है, जरा उसकी आंख में झांकना। उसकी आंख में तुम्हें एक खुमार मिलेगा। उसकी आंख मेँ एक मस्ती मिलेगी। उस मस्ती से ही तुम्हें उसके प्रेम का दर्शन होगा।
होता है राजे —इश्क— ओ —मुहब्बत इन्हीं से फाश
आंखें जबां नहीं हैं मगर बेजबां नहीं
बड़ी मधुर बात है। आंखों के पास जबान तो नहीं है, यह बात सच है, लेकिन यह कहना भी ठीक नहीं कि आंखें बेजबां हैं। अगर कोई देखनेवाला हो तो आंखों से संदेश मिल जाता है।
परिभाषा शाब्दिक होगी। कितनी तो परिभाषाएं की गयी हैं परमात्मा की, तुम उन्हें कंठस्थ कर ले सकते हो, पर कुछ हल न होगा। जाना पड़े, अनुभव में जाना पड़े। और जिस दिन तुम अनुभव में जाना शुरू करोगे, उस दिन तुम पाओगे कि उसके अतिरिक्त और कोई मिलता ही नहीं।
गुलशन में फिरूं कि सैर सहरा देखूं
या मादनो —कोहो —दस्तो —दरिया देखूं
हर जी तेरी कुदरत के हैं लाखों जल्ये
हेरां हूं कि दो आंखों से क्या—क्या देखूं
जिस दिन थोड़ा अनुभव होगा उस दिन तुम पाओगे, हर तरफ उसी के हजारों —हजार उत्सव हो हैं
हर जां तेरी कुदरत के हैं लाखों जल्वे
हैरां हूं कि दो आंखों से क्या—क्या देखूं
तब तो हजार आंखें भी हों तो भी तृप्ति न होगी। क्योंकि परमात्मा इतना विराट है। सब तरफ उसी का नृत्य चल रहा है। और तुम पूछते हो, परमात्मा की परिभाषा क्या है? और परमात्मा ही है सब तरफ। और तुम पूछते हो, परमात्मा की प्रतिमा क्या है? और उसके अतिरिक्त और किसी की प्रतिमा नहीं है। एक का ही खेल है।
लेकिन तुम्हारे प्रश्न को मैं समझा। तुम्हारा प्रश्न न तो परमात्मा की परिभाषा से संबंधित है, न परमात्मा की प्रतिमा से। तुम्हारा प्रश्न असल में यह कह रहा है कि तुम्हारे पास आंखें नहीं हैं, तुम अंधे हो, तुम्हारी आंखें बंद हैं, या तुम सोए हो। अगर कोई आदमी पूछने लगे कि सूरज की परिभाषा क्या है, तो क्या समझोगे? और कोई आदमी पूछने लगे कि सूरज कहां है? और सूरज निकला है चारों तरफ उसकी रोशनी बरसती है! और कोई आदमी धूप में खड़ा है और पूछने लगे कि सूरज की परिभाषा, सूरज कहां है, कोई मुझे परिभाषा दे दे, तो हम क्या समझेंगे? हम समझेंगे, या तो इस आदमी की आंखें बंद हैं, या अंधा है। सूरज अनुभव है, परिभाषा तो नहीं। प्रकाश की कोई परिभाषा नहीं है, जाना हो तो जाना, नहीं जाना तो नहीं जाना।
तो अभी एक बात जानना कि परमात्मा अभी जाना नहीं है। और परिभाषाओं को पकड़कर मत सोच लेना कि जान लिया, या जानना हो गया। जानना हो तो प्रेम में चलना पड़े। परिभाषा मत पूछो प्रेम का पता पूछो। परिभाषा पंडित बना देगी और सदा—सदा के लिए भटक जाओगे। मैं तुमसे फिर—फिर कहता हूं, पापी भी पहुंच जाते हैं लेकिन पंडित नहीं पहुंचते।
इससे संबंधित एक प्रश्न और है—
आप प्रेम को प्रार्थना कहते हैं, प्रेम को ही परमात्मा कहते हैं, क्यों?
ऐसा है, इसलिए। क्यों का सवाल नहीं। ऐसा है। सचाई है। तुम्हारे जीवन में जो थोडी—बहुत सुगंध कभी प्रेम की उठी हो, तो जानना वहीं से द्वार मंदिर का खुलेगा। उस दरवाजे को बंद मत कर देना, तुम्हारे साधु —संत चाहे तुमसे कुछ भी कहें। उस दरवाजे को बंद कर दिया तो तुम फिर भटकोगे। भटकते रहोगे। और तुम्हें परमात्मा की कोई खबर न मिलेगी।
परमात्मा की जो पहली पुलक है, उसका नाम ही प्रेम है। परमात्मा का जो पहला अनुभव है—परमात्मा शब्द भी उस अनुभव में नहीं आता—उसी का नाम प्रेम है। फिर प्रेम ही पवित्र होकर प्रार्थना बनता है, फिर प्रार्थना पवित्र होकर परमात्मा बन जाती है। ये प्रेम के ही चरण हैं। यह प्रेम की ही सीडी है। काम इस सीढ़ी का सबसे नीचे का सोपान है और राम इस सीडी का सबसे ऊपर का सोपान है। मगर सीडी एक है —काम से राम। काम उसी का है—धूल— धूसरित। राम भी वही है—सब धूल पोंछ दी गयी, झाड़ दी गयी—स्वच्छ, ताजा।
धर लिये प्यासे अधर पर आह के सागर
प्यास पूरी इस मरुस्थल की नहीं होती
पी लिया इस उम्र ने वह प्रेम—गंगाजल
अब इसे इच्छा किसी जल की' नहीं होती
तुम जो प्रेम के मार्ग से खोज रहे हो, वह परमात्मा को ही खोज रहे हो, नाम तुमने कुछ भी दिया हो। इसीलिए तो साधारणत: प्रेम तृप्त नहीं करता, और अतृप्त कर जाता है। कौन पति किस पत्नी से तृप्त हुआ है! या कौन पत्नी किस पति से तृप्त हुई है! या कौन मां किस बेटे से तृप्त हुई है! कौन मित्र किस मित्र से तृप्त है! कारण पूछो। क्या कारण है? संसार में सभी लोग प्रेम करते हैं और अतृप्ति का ही अनुभव होता है। कहीं तृप्ति नहीं होती। क्योंकि प्रेम की जो खोज है, वह परमात्मा से ही तृप्त हो सकती है।
तुमने किसी को प्रेम किया, प्रेम करते ही तुम्हारी जो आकांक्षा होती है गहरे में वह यह होती है कि यह व्यक्ति परमात्मा जैसा हो। वह सिद्ध नहीं होता परमात्मा जैसा, इसलिए अतृप्ति रह जाती है। बेस्वाद हो जाता है मन, तिक्त हो जाता है। तुम जब किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो तो तुमने देखा कि तुम्हारी आकांक्षा होती है, इससे सुंदर और कोई न हो, इससे श्रेष्ठ कोई और न हो, इससे सत्यतर कोई और न हो। तुमने परमात्मा की मांग कर ली। तुमने सत्यम् शिवम् सौंदर्यम् कों मांग लिया।
और निश्चित ही कोई व्यक्ति इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता, तो धीरे — धीरे प्रेमी हताश हो जाता है। वह कहता है कि नहीं, गलत जगह मांग लिया। अमृत पीने गये थे और जो पीआ तो पता चलता है कि अमृत तो कुछ भी नहीं है, जहर सिद्ध होता है। फिर मन उचाट हो जाता है। फिर भागा— भागा, फिर कहीं और, किसी और जगह, किसी और प्रेम में पड़ जाए, वहां खोज लें—ऐसा जन्मों—जन्मों तक मन का पक्षी उड़ता है। नये —नये स्थानों पर बैठता है।
एक सूफी फकीर को एक सम्राट मिलने आया। सम्राट बहुत दिन से उत्सुक था मिलने को इस फकीर से। और कई बार संदेशा भी भेजा था कि तुम आओ। लेकिन फकीर कहता है कि मिलने को अगर तुम उत्सुक हो तो तुम्हीं आओ। मेरे आने से चूक हो जाएगी। आने को मैं आ सकता हूं लेकिन सार न होगा। क्योंकि जिज्ञासु जब आता है तो उसके आने में ही जिज्ञासा सघन होती है, प्रगट होती है। तुम इतना तो मूल्य चुकाओ। तो अंततः सम्राट को आना पड़ा।
वह जब आया तो फकीर की झोपडी पर फकीर नहीं था, उसकी पत्नी थी। उसने कहा, आप बैठें, आप विराजे, मैं उन्हें बुला लाती हूं, वे पीछे खेत पर काम करने गये हैं। तो सम्राट ने कहा कि ठीक है, तुम बुला लाओ; सम्राट वहीं टहलने लगा। उसकी पत्नी ने फिर कहा कि आप आए, हमारे धन्यभाग! पर बैठें तो। उसने एक फटी—पुरानी दरी बिछा दी कि आप विराजे! लेकिन सम्राट ने कहा कि मैं टहलूंगा, तू बुला ला पति को।
वह बड़ी दुखी होकर पति के पास गयी, उसने पति को रास्ते पर कहा कि सम्राट कुछ अजीब है र मैंने बार—बार कहा कि बैठें, विराजे, दरी भी बिछा दी, मगर वह बैठता नहीं। फकीर हंसने लगा। उसने कहा कि वह दरी उसके बैठने योग्य नहीं। उसके बैठने योग्य जगह होगी तभी बैठेगा।
तुमने बहुत जगह मन के पंछी को बिठाने की कोशिश की, वह बैठ नहीं पाया। प्रेम का पक्षी बहुत स्थानों पर बैठा, बैठ नहीं पाया, उठ—उठ आता है। उसके योग्य जगह नहीं मिलती। उसके योग्य जगह तो परमात्मा ही है। जब भी तुम प्रेम में पड़े तुम परमात्मा के ही प्रेम में पड़े, लेकिन शायद तुमने ज्यादा की मांग कर ली बहुत थोड़े से। अब किसी स्त्री से या किसी पुरुष से तुम परम सौंदर्य की मांग करो तो भूल हो जाएगी। या परम सत्य की, या परम श्रेयस की। परम की मांग तो परमात्मा से ही हो सकती है। तुमने इधर—उधर माग की तो मांग पूरी न होगी तो तुम अतृप्त हो जाओगे। तो बेस्वाद हो जाएगा मन, कडुवा हो जाएगा, तिक्त हो जाएगा। फिर तुम प्रेमपात्र बदलते रहोगे। हम इसीलिए तो कभी प्रेम में तृप्त नहीं हो पाते।
प्रेम तृप्त होता है। प्रेम भी बैठता है सिंहासन पर। पर अपने सिंहासन पर।
धर लिये प्यासे अधर पर आह के सागर
सागर भी तुम पी जाओ—प्यास लगी हो और आदमी सागर में हो, तो जल जैसा ही तो लगता है सागर का जल, लेकिन उसके पीने से प्यास बुझती नहीं, प्यास बढ़ती है। भूलकर सागर का पानी मत पी लेना। सागर का पानी पीने से प्यास बुझती नहीं, बढ़ती है। और सागर के पानी के बिना आदमी जिंदा रह सकता है, सागर का पानी पीआ तो मरेगा, निश्चित मौत हो जाएगी। और सागर का पानी पानी जैसा लगता है। सिर्फ दिखायी पड़ता है पानी जैसा, पानी नहीं है। सागर का पानी भी पानी बन सकता है लेकिन बहुत तरह की शुद्धियों से गुजरेगा तब। अभी जैसा है, अभी तो बहुत खतरनाक है। धर लिये प्यासे अधर पर आह के सागर
प्यास पूरी इस मरुस्थल की नहीं होती
पी लिया इस उम्र ने वह प्रेम—गंगाजल
अब इसे इच्छा किसी जल की नहीं होती
और एक बार तुम्हें प्रेम का वास्तविक अर्थ समझ में आ जाए, अनुभव में आ जाए, एक बार
प्रार्थना का स्वाद आ जाए—
पी लिया इस उम्र ने वह प्रेम—गंगाजल
फिर तुम्हें किसी और पानी की जरूरत न रह जाएगी।
जीसस के जीवन में उल्लेख है, वे एक कुएं के पास गये। थके —मांदे हैं, राह से यात्रा करके आ रहे हैं, दूर से यात्रा करके आ रहे हैं। कुएं पर पानी भरती एक स्त्री को उन्होंने कहा कि मुझे पानी पिला दे। लेकिन उस स्त्री ने कहा कि मैं थोड़ी ओछी जाति की हूं, शायद आप पीछे पछताएं कि मेरा पानी पी लिया। जीसस ने कहा, तू फिकर छोड़, तू मुझे पानी पिला दे। और फिर मैं तुझे ऐसा पानी पिला सकता हूं —मेरा पानी—कि तेरी प्यास सदा—सदा के लिए बुझ जाए। तेरे पानी से तो क्षण भर को मेरी प्यास बुझेगी, लेकिन मेरे पानी से तेरी प्यास सदा को बुझ सकती है।
जीसस जिस पानी की बात कर रहे हैं उसी को मैं प्रेम कहता हूं।
प्राण का यह दीप जलने के लिए है
प्यार से अंतर पिघलने के लिए है
बन अकिंचन पांवड़े पलकें बिछाए
कान अपना ध्यान आहट पर लगाए
पुलकमय हर अंग होने को समर्पण
आप मनभावन करो पावन वचन—मन
जैसे ही तुम थोड़े —से प्रेम की सीढ़ियां उतरे, प्रेम का पाठ पढ़े, ढाई आंखर प्रेम का पढ़े, थोड़े से प्रेम में रसलीन हुए, थोड़े — थोड़े प्रार्थनापूर्ण कदमों से अस्तित्व की तरफ बढ़े, थोड़े प्रार्थनापूर्ण हृदय से अस्तित्व के मंदिर की सांकल खटखटायी, तो तुम पाओगे कि अब तक तुमने जो नहीं पाया था और बहुत द्वार खटखटाए थे, वह मिलने लगा।
यह संसार प्रेम को सीखने का ही एक विद्यालय है। यहां तुम और कुछ भी सीख लो, काम न आएगा। अगर तुमने प्रेम सीख लिया तो बस।
प्रेम से मेरा क्या अर्थ है? प्रेम के तीन रूप समझने चाहिए। एक तो प्रेम का रूप है, काम। काम प्रेम का निम्नतम रूप है। देह से देह की आकांक्षा। शरीर से शरीर का मिलन। है तो मिलन, मगर अत्यंत स्थूल का स्थूल से। पदार्थ का पदार्थ से। इसमें कोई बहुत विराट नहीं घट सकता। फिर प्रेम का दूसरा रूप है, जिसे हम प्रेम कहते हैं। मन से मन का मिलन। ऊपर थोड़ा हुआ। विचार की तरंगों का जिससे मेल खा जाए। तुम्हारी अनुभूति और जिसकी अनुभूति साथ—साथ, संग—संग चलने लगे। दो व्यक्तियों का हृदय साथ—साथ धड़कने लगे। देहें दो हों, हृदय एक हो जाए, तो प्रेम। वह भी अभी अंतिम रूप नहीं है। अंतिम रूप को मैं नाम देता प्रार्थना। वह है आत्मा का आत्मा से मिलन। शरीर से शरीर—काम, मन से मन—प्रेम, आत्मा से आत्मा—प्रार्थना।
काम के तल पर शोषण चलता। तुम दूसरे का शोषण करते, दूसरा तुम्हारा शोषण करता है। काम के तल पर तुम दूसरे का उपयोग साधन की तरह करते। प्रेम के तल पर तुम दूसरे के लिए साधन बन जाते। काम के तल पर तुम दूसरे का उपयोग साधन की तरह करते हो। पति पत्नी का उपयोग कर रहा है एक साधन की तरह। बेटा बाप का उपयोग कर रहा है एक साधन की तरह। तुम्हारे हित में है, इसलिए तुम प्रेम करते हो। प्रेम जैसे रिश्वत है, शोषण की व्यवस्था है। मन के तल पर तुम साधन बन जाते। तुम जिससे प्रेम करते, दुम उसके लिए साधन बन जाते, वह साध्य बन जाता। आत्मा के तल पर न तुम साधन रह जाते, न दूसरा साधन रह जाता। दूरी ही मिट जाती, कौन साधन, कौन साध्य! निश्चित रूप से एक हो जाते।
ऐसा समझो कि दो दीयों को हम करीब रख दें, तो काम। दोनों दीयों के तेल को मिला दें, तो प्रेम। और दोनों दीयों की ज्योति, प्रकाश एक—दूसरे में लीन हो जाए, तो प्रार्थना। दो दीया को कितना ही पास रखो, दूरी रहेगी। सटाकर रख दो फिर भी दूरी रहेगी। उससे एकात्म नहीं हो सकता। लेकिन तुमने देखा, दो दीयों का प्रकाश टकराता भी नहीं— अगर तुम एक कमरे में दो दीये जला दो, तो खटरपटर भी नहीं होती। तुम दो दीयों का तेल एक—दूसरे में मिलाओगे तो थोड़ी आवाज होगी, थोड़ा शोरगुल मचेगा। लेकिन दो दीयों का प्रकाश जब एक—दूसरे में लीन. हो जाता है तो कुछ पता नहीं चलता। दीये दो होंगे लेकिन उनकी रोशनी तो बिलकुल एक हो जाती है। बिलकुल एक हो जाती है।
मैंने सुना है, एक सम्राट के तीन बेटे थे और वह चाहता था कि अपने किसी बेटे को चुन ले जो उसके राज्य का मालिक हो। सम्राट का हो गया था। तो उसने फकीर से सलाह ली। फकीर ने कहा, इनको हजार—हजार रुपये दे दो.. ..तीनों बेटों के तीन महल थे....उसने कहा, यह हजार—हजार रुपये लो और इस तरह से कुछ चीज खरीदो कि तुम्हारा पूरा महल भर जाए। मगर हजार रुपये से ज्यादा खर्च नहीं करना। इससे तुम्हारी कुशलता का पता चलेगा 1 जो जीत जाएगा, वही इस राज्य का मालिक होगा।
पहले बेटे ने बहुत सोचा कि हजार रुपये में इतना बड़ा महल! सिवाय कूडा—करकट के और तो कुछ मिल ही नहीं सकता। हजार रुपया तो ढोने में ही लग जाएगा कूड़ा—करकट जब पूरा महल भरना है। तो वह तो गया, तो उसने जाकर जहां म्मुनिसिपलटी कचरा फेंकती होगी गांव भर का, वहां से सब बैलगाड़ियों में भरवा— भरवा कर महल में पूरा कचरा भर दिया। क्योंकि इससे और तो सस्ती कोई चीज हो नहीं सकती थी—मुफ्त था—सिर्फ ढोने का खर्च था। ढोने में ही हजार रुपये खर्च हो गये। महल भर दिया उसने। भयंकर बदबू उठने लगी। राह से लोगों ने चलना बंद कर दिया। उसके महल के आसपास लोग न जाते। वह भी अपने बाप से प्रार्थना करने लगा कि अब जल्दी ही वह परीक्षा हो जाए, क्योंकि मैं भी मरा जा रहा हूं। तुमने कहां का उपद्रव करवा दिया है!
दूसरे बेटे न बहुत सोचा। उसने कहा कि कूड़ा—करकट से घर को भरना तो अपात्रता का लक्षण होगा। तो क्या करना? कैसे घर को भरें। घर तो भरना चाहिए फूलों से, कूड़े से तो नहीं। तो उसने फूल खरीदे। लेकिन हजार में कितने खरीद सकता था! महल बड़ा था। भरने की तो बात दूर रही, ऐसे छिटका दिये सारे महल में फूल।
तीसरे बेटे ने कुछ भी उपाय न किया। जिस दिन बाप आया तब तक उसने कुछ भी न किया था। और गांव भर में चिंता फैलने लगी कि यह तीसरा बेटा हार जाएगा, कुछ कर क्यों नहीं रहा है? बैठा क्यों है? तीसरे दिन उसने तो दीये जलाए, घी के दीये जलाए सारे महल में।
बाप फकीर को लेकर आया। फकीर ने पहले बेटे को कहा कि इसने बात तो पूरी कर दी, घर तो भर दिया, लेकिन जिस चीज से भर दिया उससे सिर्फ अयोग्यता सिद्ध होती है। इसने गणित तो पूरा कर दिया, लेकिन समझ इसके पास नहीं है। तर्क तो इसने पूरा कर दिया कि घर भर दिया, लेकिन जिस चीज से भरा है इसका इसने कोई विचार न किया। इस व्यक्ति के जीवन में गणित तो है, गुण नहीं है। तर्क तो है, बोध नहीं है। यंत्रवत है इसकी बुद्धि। इसको राज्य देना ठीक नहीं।
वे दूसरे व्यक्ति के पास पहुंचे। उसने महल में फूल रखे थे, लेकिन फूल सब मुरझा गये थे। कई दिन हो गये थे, सड़ने लगे थे। उनसे दुर्गंध उठने लगी थी। और महल भरा भी नहीं था। तो फकीर ने कहा, यह पहले से बेहतर है, इसके पास थोड़ी गुण—बुद्धि है। फूल लाया, लेकिन इसके पास दूरदृष्टि नहीं है कि ये फूल सड़ जाएंगे। फूल तो तभी सुंदर जब ताजे। सच तो यह, फूल तो वृक्ष पर ही सुंदर होते हैं, तोड़े कि मरे, कि उनका सड़ना शुरू हुआ। इसने सोच—विचार तो थोडा किया, लेकिन गणित इसका कमजोर है। दूरदृष्टि नहीं है और गणित भी कमजोर है—मकान पूरा भरा भी नहीं है। पहले का गणित मजबूत है, गुण का कोई बोध नहीं है। इसे गुण का बोध है, गणित कमजोर है और दूरदृष्टि बिलकुल नहीं है। यह खतरनाक है, इसको भविष्य का पता नहीं रहेगा। यह राज्य को खतरे में डाल सकता है।
वे तीसरे बेटे के पास गये। राजा तो थोड़ा चिंतित होने लगा कि अगर ऐसा मामला हुआ, तीनों बैटे कहीं अयोग्य सिद्ध कर दिये इस फकीर ने तो फिर मैं क्या करूंगा! तीसरे बेटे के महल में जाकर राजा तो खड़ा हो गया, उसकी तो समझ में न आया, महल पूरा खाली था, उसने कहा, यह क्या मामला है? तुमने प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया? बेटे ने कहा, मैंने भाग लिया, जरा गौर से देखें। फकीर बोला कि मैं देख लिया हूं, राजा, तुम्हारी समझ में न आएगा। इसने महल भर दिया—रोशनी से भर दिया है। एक—एक कोने —कातर में रोशनी है। कोई जगह खाली नहीं है। महल तो भर ही दिया है, महल के बाहर तक रोशनी पहुंच रही है। बगीचा भी भरा है, राह भी भरी है। इस बेटे के पास गणित भी है, गुणबोध भी है, भविष्य—दृष्टि भी है। इसने पहले से कुछ नहीं किया। अभी हम आए—अभी हम आ ही रहे थे रास्ते पर कि तब इसने दीये जलवा दिये। इसके पास समय की भी समझ है।
हजारों दीये जलाए थे उसने—हजार रुपये में खूब दीये जल गये थे। और घी के जलाए थे। दीये तो बहुत थे, लेकिन रोशनी एक थी। और उस फकीर ने कहा, इस बेटे में थोड़ा अद्वैत का बोध भी है। इतने दीये, लेकिन रोशनी एक। इसने एक से ही भर दिया है पूरे महल को। यह बेटा योग्य है। काम है दो शरीरों का मिलना। और अंत में कचरा ही सिद्ध होता है, दुर्गंध पैदा होती है। काम से कब सुगंध उठी! काम से विषाद होता है। पश्चात्ताप होता है। काम आज नहीं कल सडांध देने लगता है।
प्रेम काम से बेहतर है। थोड़े फूल हैं प्रेम में, कूडा—कचरा नहीं है। लेकिन मन के फूल कितनी देर जीएंगे? मन स्वयं क्षणभंगुर है। मन कोई टिकने वाला तो नहीं। शाश्वत और नित्य से मन का कोई संबंध नहीं है। तो आज फूल, कल मुरझा जाते हैं।
तुमने देखा, पश्चिम में जहां लोग प्रेम को बहुत मूल्य देते हैं—पूरब से ज्यादा मूल्य देते हैं—वहां बड़ी अड़चन है। विवाह मुरझा—मुरझा जाता है। तलाक हो —हो जाते हैं। पूरब में लोग विवाह को मूल्य देते हैं, प्रेम को मूल्य नहीं देते, तो विवाह स्थायी होता है। विवाह पहले तल पर है, वह दो शरीरों का मिलन है। न तो पुरुष से पूछा जाता है, न स्त्री ने पूछा जाता है, मां —बाप तय करते हैं। पंडित, पुरोहित, ज्योतिषी तय करते हैं। धन—पैसा है या नहीं, कुलीन परिवार है या नहीं, स्वास्थ्य ठीक है या नहीं, पढ़ाई—लिखाई ठीक हुई या नहीं, प्रतिष्ठा कैसी है, दुकान कैसी चलती है, सब बातें सोचकर तय करते हैं। प्रेम भर के बाबत नहीं सोचते। ग्रह—नक्षत्र भी सोचते हैं —बड़ी दूर की सोचते हैं, पास की बिलकुल नहीं सोचते। प्रेम के संबंध में कोई मामला, बात ही नहीं उठाते कि इस लड़के को लड़की से प्रेम है? लड़के को लड़की से कि लड़की को लड़के से, किसी से प्रेम है? प्रेम की बात ही नहीं उठाते। क्योंकि पूरब एक बात समझ गया, प्रेम का मामला बड़ा खतरनाक है। क्योंकि फिर विवाह थिर नहीं हो पाता।
प्रेम है मन की बात, मन अथिर है। शरीर कम से कम थोड़ा थिर है, टिकता है—सत्तर साल तो टिकता है! थोड़े —बहुत फर्क होते रहते हैं, लेकिन ऐसे टिकता है। मन तो घड़ी भर में बदल जाता है। अभी जिस स्त्री के लिए जान देने को तैयार थे, क्षण भर बाद बात खतम हो गयी। इसलिए पश्चिम में विवाह अस्तव्यस्त हो गया, परिवार डांवाडोल हो गया। लोगों ने प्रेम को मूल्य दिया है। लोग कहते हैं, प्रेम होगा तो साथ।
पूरब में लोग कहते हैं, अपनी पत्नी के सिवाय किसी स्त्री से कोई संबंध बनाया, तो पाप। पश्चिम में लोग कहने लगे हैं, जिससे प्रेम नहीं उसके साथ कोई संबंध बनाया तो पाप—फिर चाहे वह तुम्हारी पत्नी ही क्यों न हो। अगर उससे प्रेम नहीं है तो उसके साथ सोना पाप है। और जिससे प्रेम है, वह चाहे तुम्हारी पत्नी न भी हो, उसके साथ सोना पुण्य है। यह बड़ी दूसरी नीति है। पूरब की नीति शरीर के तल पर खड़ी है, पश्चिम की नीति मन के तल पर, लेकिन पूरब की नीति ज्यादा चिरस्थायी है।
वह जो पहला आदमी था, जिसने कचरे से भर लिया था महल को, उसका कचरा बहुत चिरस्थायी है। दूसरे ने फूल से भरा था, वे बड़े क्षणभंगुर हैं। असल में जितनी सुंदर चीज हो, उतनी जल्दी कुम्हला जाती है। पत्थर तो वहीं पड़े रहेंगे, फूल सुबह खिले सांझ गिर जाएंगे। विवाह पत्थर जैसा है। प्रेम —विवाह फूल जैसा है। लेकिन खतरा भी है, थिर नहीं हो पाएगा। इसलिए पश्चिम की पूरी व्यवस्था डांवाडोल हो गयी है। पूरब थिर है। सदियां बीत गयीं, मनु महाराज से लेकर अब तक सब थिरता है। पश्चिम में कुछ भी थिर नहीं है, सब डांवाडोल है। जितने लोग विवाह करते हैं, उनमें से आधे लोग तीन साल के भीतर तलाक दे देंगे। अब ऐसा आदमी तो खोजना ही मुश्किल है जो एक ही पत्नी के साथ टिक रहा है। पत्नियां न मालूम कितने पतियों के पास गयी हैं, पति न मालूम कितनी पत्नियों के पास गये हैं, बच्चों की भीड़ बढ़ती जाती है, तय भी करना मुश्किल हो जाता है, कौन किसका बच्चा है?
मैंने सुना, एक पत्नी अपने पति से कह रही थी कि देखो ' रुकावट डालो, तुम्हारे बच्चे और मेरे बच्चे मिलकर हमारे बच्चों को पीट रहे हैं।
कुछ बच्चे पति के हैं जो वह दूसरी पत्नियों से लाया है। कुछ पत्नी के हैं जो वह किन्हीं दूसरे पतियों से लायी है। कुछ इन दोनों के बीच में। तो वह कह रही है, तुम्हारे बच्चे मेरे बच्चों से मिलकर हमारे बच्चों को पीट रहे हैं, इनको रोको। रुकावट डालो।
पश्चिम में सब अस्तव्यस्त हुआ है।
फिर और एक ऊपर की बात है : आत्मा के मिलन की। वहां प्रार्थना पैदा होती है। वैसा प्रेम मीरा ने 'जाना, कि चैतन्य ने, कि राधा ने। वैसा प्रेम भक्तों ने जाना। उठना चाहिए उसी तक प्रेम, जहां दो प्रकाश की तरह मिलन हो जाए, कोई संघर्षण न हो। मिलन शात, सहज हो। और जब तुम किसी एक व्यक्ति से भी आत्मा के तल पर मिल जाओगे, तो तुम्हें पता चलेगा—जब एक से मिलने में इतना आनंद है, तो फिर सर्व से मिल जाने में कितना आनंद न होगा! फिर तो तुम गणित को स्वयं ही फैला लोगे। तुम कहोगे, जब एक व्यक्ति के प्राणों से प्राण मिला लेने में इतने सुख का सौरभ, इतना स्वर्ग, तो फिर का कंजूसी करनी है! फिर क्यों न वृक्षों से, चांद—तारों से, पहाड़—पत्थरों से, नदी—नालों से, सबसे क्यों न मिला लें अपने प्राण को?
तो एक व्यक्ति से भी प्रेम अगर ठीक से हो जाए, तो झरोखा परमात्मा का खुलता है। फिर वहीं से छलांग लग जाती है।
यह किसका तबस्तुम है फिजी में साकी
यह किसकी जवानी है घटा में साकी
यह कौन बजा रहा है शीरीं बरबत
भीगी हुई बारिश की हवा में साकी
फिर प्रेम से भरे हुए आदमी को हर जगह उसकी ही पगध्वनि सुनायी पड़ती है। घटाओं में, बिजलियों में, सब जगह उसके ही अर बजते मालूम होते हैं।
यह किसका तबस्थूम है फिजी में साकी
फिर हवा का झोंका भी आए तो उसी की खबर आती है। उसी के संदेश, उसी की पाती।
यह किसकी जवानी है घटा में साकी
फिर घटा घुमड्कर उठे तो भी वही उठता। सब अंगड़ाइया उसकी। सब फूल उसके, सब पत्ते उसके।
यह कौन बजा रहा है शीरीं बरबत
फिर जो भी संगीत गज रहा है इस अस्तित्व में, उसी का है। वही बजा रहा है। यह बांसुरी उसकी, यह वेणु उसकी।
भीगी हुई बारिश की हवा में साकी
और फिर भीगी हुई हवा है बारिश की तो भी उसके ही स्पर्श का पता चलता, उसके ही होने की गंध आती। पृथ्वी से और आकाश से उसके ही होने की खबर आती। हर घड़ी में, सोते—जागते, उठते —बैठते वही घेरे रहता है।
लेकिन परिभाषा इस तत्व की नहीं हो सकती। प्रेम में अनुभव हो सकता है। परिभाषा मत मांगो, प्रेम मांगो। परिभाषा के कूड़ा—करकट को लेकर क्या करोगे? बोझ बढ़ जाएगा बुद्धि का, निर्भार न हो सकोगे। प्रेम मांगो कि पंख बनें, प्रेम मागो कि उड़ सको।
मेरे साकी शराबे —साफी देना
हो जिससे गुनाह की तलाफी देना
उतरे न खुमार जिंदगी भर जिसका
ऐसी देना और इतनी काफी देना
मांगो, प्रेम की शराब।
उतरे न खुमार जिंदगी भर जिसका
ऐसा नशा मांगो जो फिर उतरे न। चढ़े तो चढ़े, उतरे न।
ऐसी देना और इतनी काफी देना
मांगो प्रेम, मत मांगो परिभाषा। और जिस दिन तुम्हारे पास प्रेम है, उस दिन तुम्हारे पास सब है। जब तक तुम्हारे पास प्रेम नहीं, सब भी हो तो कुछ भी नहीं है।
चाहे बरसे जेठ अंगारे
या पतझर हर फूल उतारे
अगर हवा में प्यार घुला है
हर मौसम सुख का मौसम है
जिसके पास शब्द हैं जितने
उतना उससे अर्थ दूर है
पट घूंघट का नहीं, रूप तो
आत्मा का जलता कपूर है
दुनिया क्या है एक वहम है
शबनम में मोती होने का
और जिंदगानी है जैसे
पीतल पर पानी सोने का
किंतु प्यार यदि साथ सफर में
तो सचमुच इस मृत्यु—नगर में
शाम सुबह की एक कसम है
मरण मद्य का नया जनम है
चाहे बरसे जेठ अंगारे
या पतझर हर फूल उतारे
अगर हवा में प्यार घुला है
हर मौसम सुख का मौसम है
इधर प्यार की वीणा का बजना शुरू हो जाए, फिर वसंत ही वसंत है। उसी वसंत में उस प्रभु की पहचान आती है।
जिसके पास शब्द हैं जितने
इसलिए परिभाषा मत मांगो, सिद्धात—शास्त्र मत मांगो!
जिसके पास शब्द हैं जितने
उतना उससे अर्थ दूर है
शब्दों का बहुत समूह संग्रह मत कर लो। उससे पांडित्य तो बनेगा, प्रतिभा न जगेगी।
पट घूंघट का नहीं, रूप तो
आत्मा का जलता कपूर है
दुनिया क्या है एक वहम है
शबनम में मोती होने का
यही तो मैं तुमसे कह रहा इतनी देर से कि जहां —जहां तुमने अभी प्रेम देखा है, वहा शबनम में मोती देख लिया है। खोज तो परमात्मा की ही चल रही है। खोज तो मोती की ही चल रही है। लेकिन सुबह की धूप में कभी देखा? घास पर फैली हुई ओस की बूंदें मोतियों जैसी मालूम पड़ती हैं। सुबह की धूप में मोतियों को भी झेंपा दें, मोतियों को भी शर्मा दें। दूर से ही लेकिन। पास गये तो ओस की बूंद ओस की बूंद है, मोती नहीं है।
दुनिया क्या है एक वहम है
शबनम में मोती होने का
और जिंदगानी है जैसे
पीतल पर पानी सोने का
जिंदगी को थोड़ा गौर से देखो। तो यह ऊपर—ऊपर जो पीतल के ऊपर चढ़ा हुआ सोने का पानी है, यह उतर जाए। जरा पास आओ। जिंदगी को जरा होश से देखो, तो जो बूंदें शबनम की हैं, वे मोती न मालूम हों। तो तुम्हारी खोज धीरे— धीरे सब तरफ से परमात्मा की तरफ जाने लगेगी। उसकी ही खोज है जो शाश्वत है। उसकी ही खोज है जो सनातन है। उसकी ही खोज है जो अमृत है।
तो परमात्मा क्या है? परमात्मा अमृत की प्यास है। परमात्मा क्या है? परमात्मा तुम्हारे भीतर सनातन की खोज है। शाश्वत की खोज है। परमात्मा की प्रतिमा क्या है? यह जो गवेषणा में आतुर, जिज्ञासा और मुमुक्षा से भरा हुआ खोजी है, इसी में परमात्मा की प्रतिमा है। कहीं और नहीं, पत्थरों में नहीं, मंदिर की मूर्तियों में नहीं। इस पुजारी में, जो परमात्मा की पूजा में लगा है। खोज रहा है जगह—जगह, अर्चना अपनी चढ़ा रहा है। हर जगह से जिसकी चेष्टा चल रही है कि परमात्मा को पहचान लूं। इसमें ही उसकी प्रतिमा है।
कबीर ने कहा है, भक्त में भगवान है। महवीर ने कहा है, अप्पा सो परमप्पा। वह जो आत्मा है, उसी में परमात्मा है।
परमात्मा कोई वस्तु नहीं है जिसे तुम किसी दिन देख लोगे। तुम्हारे ही भीतर जिस दिन प्रेम की ऐसी घटा उठेगी कि बेशर्त तुम इस सारे अस्तित्व को प्रेम कर पाओगे, इस अस्तित्व से तुम्हारे चित्त का कोई विरोध, कोई संघर्ष न रह जाएगा, इस अस्तित्व से जिस दिन तुम्हारा सहयोग परिपूर्णता से सध जाएगा, जिस दिन एक संवाद होगा तुम्हारे और अस्तित्व के बीच, उसी दिन तुम जानोगे परमात्मा क्या है। तुम भी परमात्मा हो और शेष सब भी परमात्मा है।
इस नशे की तरफ चलो। इस प्रेम के सागर में डुबकी लगाओ।
यारो खता मुआफ मेरी मैं नशे में हूं
सागर में मय है मय में नशा मैं नशे में हूं
भक्त तो एक नशे में जीता है। परमात्मा नशा है। पंडित के लिए परमात्मा एक सिद्धात है, बकवास—कोरी बकवास। आस्तिक और नास्तिक के चक्कर में मत पड़ना कि परमात्मा है या नहीं। यह व्यर्थ के लोगों को छोड़ दो, जिनके पास कुछ और करने को नहीं। वे होने न होने का विवाद करते रहें, अनुमान लगाते रहें। अगर तुम्हारे जीवन का ठीक—ठीक सदुपयोग तुम्हें कर लेना है, तो तुम प्रेम में उतरो। अगर तुम पाओ कि प्रेम में उतरना कठिन है, तो ध्यान में उतरो। ध्यान भी एक दूसरा मार्ग है उसी तरफ आने का। जो प्रेम करने में अपने को असमर्थ पाते हैं, उनके लिए ध्यान मार्ग है। जो प्रेम में अपने को समर्थ पाएं, उन्हें फिर किसी चिंता में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है।
चौथा प्रश्न :
मृत्यु का बडा भय है। क्या इससे छूटने का कोई उपाय है?
मत्यु तो उसी दिन हो गयी जिस दिन तुम जन्मे। अब छूटने का कोई उपाय नहीं। जिस दिन पैदा हुए उसी दिन मरना शुरू हो गया। अब एक कदम उठा लिया, अब दूसरा तो उठाना ही पड़ेगा। जैसे कि प्रत्यंचा से तीर निकल गया तो अब लौटाने का क्या उपाय है! जन्म हो गया, तो अब मौत से बचने का कोई उपाय नहीं।
जिस दिन तुम्हारी यह बात समझ में आ जाएगी कि मौत तो होनी ही है, सुनिश्चित होनी है—और सब अनिश्चित है, मौत ही निश्चित है —उसी दिन भय समाप्त हो जाएगा। जो होना ही है, उसका क्या भय! जो होकर ही रहनी है, उसका क्या भय! जिसको टाला ही नहीं जा सकता, उसका क्या भय! जिसको अन्यथा किया ही नहीं जा सकता, उसका क्या भय!
आशंका है तुम्हें
जिस दुर्घटना की
घट चुकी है वह
पहले ही भीतर
केवल आएगा तैरकर
गत आगत की सतह पर
हो चुका है पहले ही काम। मर गये तुम उसी दिन जिस दिन तुम जन्मे। जिस दिन तुमने सांस ली, उसी दिन सास छूटने का उपाय हो गया। अब सांस किसी भी दिन छूटेगी। तुम सदा न रह सकोगे। इसलिए इस भय को समझने की कोशिश करो, बचने की आशा मत करो। बचने को तो कोई नहीं बच पाया। कितने लोगों ने कितने उपाय किये बचने के।
नादिरशाह इतना बड़ा लड़ाका था, खूंख्वार, हजारों लोगों की हत्याएं कीं, मगर खुद की मौत से ड़रता था। भारी ड़र था उसे। दूसरे की मौत तो कोई बात ही न थी। कहते हैं, एक रात एक वेश्या उसके शिविर में नाच करने आयी और जब लौटने लगी तो रात देर हो गयी, दो बज गये और वह ड़रने लगी। उसने कहा, रास्ते में अंधेरा है और मेरा गांव दूर है, मैं कैसे जाऊं? तो नादिरशाह ने कहा कि तू फिक्र मत कर, तू कोई साधारण व्यक्ति के दरबार में नाचने आई है? उसने अपने सैनिकों को कहा कि रास्ते में जितने गांव हैं, सब में आग लगा दो, ताकि यह वेश्या अपने गांव तक रोशनी में जा सके। पांच—सात गांवों में आग लगवा दी, गावों के सोते लोग जल गये। लेकिन रास्ते पर रोशनी करवा दी।
दूसरे की मौत तो जैसे खिलवाड़ थी, लेकिन खुद की मौत की बडी घबड़ाहट थी। इतना घबड़ाया रहता था मौत से कि रात भी ठीक से सो नहीं सकता था। और इसी घबड़ाहट में मौत हुई। जब हिंदुस्तान से वापिस लौट रहा था और एक रात एक शिविर में तंबू के भीतर सोया था, तो रात में एक डाकू घुस गया अंदर। वह किसी की जान लेने को उत्सुक न था, वह तो कुछ सामान चुराने को उत्सुक था। लेकिन उसकी मौजूदगी और घबड़ाहट में घोड़े हिनहिनाने लगे और सैनिक भागने लगे। कुछ घबड़ाहट ऐसी फैल गयी अंधेरी रात में कि लोग समझे कि बहुत दुश्मन हैं, कि नादिरशाह घबड़ाकर बाहर भागा। तंबू की रस्सी से पैर फंस गया, तो वह समझा कि किसी ने पैर पकड़ लिया। और उसी घबड़ाहट में उसकी हृदय की धड़कन बंद हो गयी, वह गिर पड़ा। कोई ने पकड़ा नहीं, किसी ने मारा नहीं, किसी ने कुछ किया नहीं, सिर्फ पैर फंस गया तंबू की रस्सी में, वह समझा कि गये जान से! उसी घबड़ाहट में मरा।
आदमी बचने के कितने उपाय करे!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि दूसरों को मारने की उत्सुकता उन्हीं लोगों में होती है, जो अपने को बचाने के लिए बडे आतुर होते हैं। जिनको यह खयाल होता है कि हम जिंदगी तो नहीं बना सकते, लेकिन कम—से —कम लोगों को मार तो सकते हैं। मृत्यु तो कर सकते हैं दूसरों की। दूसरों को मारने से ऐसा लगता है कि हम शायद मृत्यु के मालिक हो गये। देखो, कितने लोग मार डाले। मृत्यु हमारे कब्जे में है। इससे एक भ्रांति पैदा होती है कि शायद मृत्यु हमें क्षमा कर देगी। नहीं, न धन से जाती है, न पद से जाती है, न शक्ति से जाती है, कोई उपाय मृत्यु से बचने का नहीं है।
तुम पूछते हो, मृत्यु का बड़ा भय है, क्या इससे छूटने का कोई उपाय है?
छूटने का उपाय करते रहोगे, भय बढ़ता जाएगा। तुम छूटने का उपाय करोगे, मौत रोज करीब आ रही है। क्योंकि बुढ़ापा रोज करीब आ रहा है। तुम जितने ही उपाय करोगे उतने ही घबड़ाते जाओगे। मुझसे तुमने पूछा है अगर और मेरी बात अगर समझ सको तो मैं तुमसे कहूंगा. मौत को स्वीकार कर लो, छूटने की बात ही छोड़ो। जो होना है, होना है। उसे तुम स्वीकार कर लो। उसे तुम इतने अंतरतम से स्वीकार कर लो कि उसके प्रति विरोध न रह जाए। वहीं भय समाप्त हो जाएगा।
मृत्यु से तो नहीं छूटा जा सकता, लेकिन मृत्यु के भय से छुटकारा हो सकता है। मृत्यु तो होगी, लेकिन भय आवश्यक नहीं है। भय तुमने पैदा किया है। वृक्ष तो भयभीत नहीं हैं, मौत उनकी भी होगी। क्योंकि उनके पास सोच —विचार की बुद्धि नहीं है। पशु तो चिंता में नहीं बैठे हैं, उदास नहीं बैठे हैं कि मौत हो जाएगी, मौत उनकी भी होगी।
मौत तो स्वाभाविक है। वृक्ष, पशु, पक्षी, आदमी, सभी मरेंगे। लेकिन सिर्फ आदमी भयभीत है। क्योंकि आदमी सोचता कि किसी तरह बचने का उपाय हो जाए। कोई रास्ता निकल आए।
तुम जब तक बचना चाहोगे तब तक भयभीत रहोगे। तुम्हारे बचने की आकांक्षा से ही भय पैदा हो रहा है। स्वीकार कर लो! मौत है, होनी है। तो जब होनी है हो जाएगी। और हर्जा क्या .है? जन्म के पहले तुम नहीं थे, कोई तकलीफ थी? कभी इस तरह सोचो, जन्म के पहले तो तुम नहीं थे, कोई तकलीफ थी? मौत के बाद तुम फिर नहीं हो जाओगे, तकलीफ क्या होनी! जैसे जन्म के पहले थे, वैसे ही मौत के बाद फिर हो जाओगे। जो जन्म के पहले हालत थी, वही मौत के बाद हालत हो जाएगी। जब तक तुमने पहली सांस न ली थी, तब तक का तुम्हें कुछ याद है? कोई परेशानी है? कोई झंझट! ऐसे ही जब आखिरी सांस छूट जाएगी, उसके बाद भी क्या झंझट, क्या परेशानी!
सुकरात मरता था, किसी ने पूछा कि घबड़ा नहीं रहे आप त्र: सुकरात ने कहा, घबड़ाना क्या है? या तो जैसा आस्तिक कहते हैं, आत्मा अमर है, तो घबड़ाने की कोई जरूरत ही नहीं! आत्मा अमर है तो क्या घबड़ाना! या जैसा कि नास्तिक कहते हैं, कि आत्मा मर जाती है, तो भी बात खतम हो गयी। जब खतम ही हो गये तो घबड़ाना किसका! घबडाका कौन? बचे ही नहीं, तो न रहा बांस न बजेगी बांसुरी। तो सुकरात ने कहा दोनों हालत में—दोनों में से कोई ठीक होगा, और तो कोई उपाय नहीं है, या तो आस्तिक ठीक, या नास्तिक ठीक। आस्तिक ठीक, तो अमर हैं, बात खतम हुई, चिंता क्या करनी न: नास्तिक ठीक तो बात खतम ही हो जानी है, चिंता किसको करनी है, किसकी करनी है? सुकरात ने कहा, इसलिए हम निश्चित हैं। जो भी होगा, ठीक है।
तुम बचने की कोशिश न करो। मौत तो होगी। लेकिन तुमसे मैं कहना चाहता हूं, मौत तुम्हारी नहीं होगी। तुम्हारा जन्म ही नहीं हुआ तो तुम्हारी मौत कैसे होगी? शरीर का जन्म हुआ है, शरीर की मौत होगी। तुम्हारा चैतन्य अजन्मा है और अमृतधर्मा है।
तुम्हारी उलझन सारी यह है कि तुमने शरीर को अपना होना समझ लिया है। मौत असली सवाल नहीं है। असली सवाल है कि शरीर को समझ लिया है, यह मैं हूं।
नीरव की अर्चा रव से
जीवन की चर्चा शव से
जैसे कोई शोरगुल से आशा कर रहा है शांति की। ऐसे कोई शव से बातें कर रहा है जीवन की। नीरव की अर्चा रव से
जीवन की चर्चा शव से
इस मुर्दे को तुम जीवित समझे हो, इसीलिए अड़चन हो रही है। मुर्दा तो मुर्दा है। अभी भी मरा हुआ है। रोज मर रहा है। तुम्हें खयाल नहीं है, क्योंकि तुम खयाल देना नहीं चाहते, तुम ड़रते हो। ये तुम्हारे सिर में बाल ऊगते, दाढ़ी में बाल ऊगते, यह कभी तुमने खयाल किया, इनको तुम काटते हो, दर्द नहीं होता। यह तुम्हारे शरीर का मुर्दा हिस्सा है जो शरीर बाहर फेंक रहा है। नाखून काटते हो, दर्द नहीं होता। यह जिंदा हिस्सा नहीं है। मल—मूत्र रोज बाहर जा रहा है, यह सब मरा हुआ हिस्सा है। शरीर में से रोज मर रहा है कुछ, तुम रोज भोजन लेकर नया जीवन थोड़ा—सा डालते हो। थोड़ी देर जीवन सरकता है। फिर रोज मुर्दा कुछ हिस्सा निकल जाता है।
वैज्ञानिक कहते हैं, सात साल में आदमी का पूरा शरीर मर जाता है, फिर दूसरा शरीर। सत्तर साल की उम्र में दस बार शरीर मर जाता है। पूरा—का—पूरा बदल जाता है, एक—एक कण बदल जाता है। कुछ नहीं बचता पुराना, सब नया होता रहता है।
शरीर तो रोज मर रहा है। शरीर की तो प्रक्रिया मृत्यु है। इस शरीर के पार एक चैतन्य की दशा है, मगर उसका तुम्हें कुछ पता नहीं। तुम वही हो और तुम्हें उसका पता नहीं। तुम्हें आत्मस्मरण नहीं। यह मत पूछो कि मौत के लिए हम क्या करें? इतना ही पूछो कि हमारे भीतर शरीर के पार जो है, उसे जानने के लिए क्या करें? मृत्यु से बचने की मत पूछो, ध्यान में जागने की पूछो। अगर तुम्हें इतना पता चल जाए कि मैं भीतर चैतन्य हूं तो फिर शरीर ठीक है, तुम्हारा आवास है। घर को अपना होना मत समझ लो। और जैसे ही तुम्हें यह बात समझ में आनी शुरू हो जाएगी, तुम्हारे भीतर अपूर्व क्रांति घटित होगी।
नर! बन नारायण
स्वर! बन रामायण
और तब तुम अचानक पाओगे, तुम्हारे भीतर जो तुमने नर की तरह जाना था, वह नारायण है। और जो तुमने स्वर की तरह जाना था, वह रामायण है।
शरीर तो मिट्टी है। मिट्टी से बना है, मिट्टी में विदा हो जाएगा।
मिट्टी नीरव
मिट्टी कलरव
मिट्टी कट भव
मिट्टी चिर नव
मिट्टी से बनता है, मिट्टी में गिरता है, फिर उठता है, फिर गिरता है। यह सब सृजन मिट्टी का है। यह सब खेल मिट्टी का है। तुम इस मिट्टी के दीये को अपना होना मत समझ लो। इस मिट्टी के दीये में जो तेल भरा है, वह तुम्हारा मन है। उसे भी तुम अपना होना मत समझ लो। उस तेल में जो बाती पड़ी है, बाती पर जो ज्योति जल रही है, वही ज्योति तुम हो। माना कि दीये और तेल के बिना ज्योति तिरोहित हो जाती है, लेकिन दीया और तेल ही ज्योति नहीं है। ज्योति प्रगट होने के लिए दीये और तेल की जरूरत होती है। तुम्हारे प्रगट होने के लिए शरीर और मन की जरूरत होती है। ये आवश्यक हैं तुम्हारी अभिव्यक्ति के लिए, तुम्हारे अस्तित्व के लिए आवश्यक नहीं हैं। तुम्हारा अस्तित्व इनसे पार है। उस पार का तुम्हें बोध होने लगे, तो मृत्यु से कोई भय न रह जाएगा। तब तुम जानोगे, मृत्यु होती ही नहीं।
शरीर के तल पर मृत्यु सुनिश्चित है, आत्मा के तल पर मृत्यु न कभी हुई है, न हो सकती है। इतना ही तुम पहचान लो कि तुम आत्मा हो।
तिफ्ली देखी शबाब देखा हमने
हस्ती को हवा बेआब देखा हमने
जब आंख हुई बंद तो उकदा यह खुला
जो कुछ भी देखा सो ख्वाब देखा हमने
अभी तुम जिसे जिंदगी समझ रहे हो वह सपने से ज्यादा नहीं।
जब आंख हुई बंद तो उकदा यह खुला
मरते वक्त तुम जानोगे, जब आंख सच में बंद होगी तब यह राज खुलेगा—
जो कुछ भी देखा सो ख्वाब देखा हमने
जिंदगी जिसको समझते थे, वह सपना सिद्ध हुई। और इस जिंदगी के भीतर जो सत्य छिपा था, सपने में इतने उलझे रहे कि सत्य को कभी देखा नहीं।
कुछ पद और नसीहत ने भी तामीर न की
दुनिया के किसी काम में ताखीर न की
दिन रात यहीं के साज और सामी में रहे
जाना है कहां कुछ इसकी तदबीर न की
फिर भटकोगे। मौत से मत घबड़ाओ, अगर तुम्हारे जीवन में सच में ही समझने की कोई आकांक्षा है तो इतनी बात समझ लो कि यह जिसे तुम जिंदगी समझ रहे हो—
दिन रात यहीं के साज और सामी में रहे
यह भ्रांति है, मौत इसी को छीन लेगी। धन छीन लेगी, पद छीन लेगी, नाम छीन लेगी, यश छीन लेगी। अगर तुमने नाम, पद, यश, धन को ही समझा कि मेरा होना है, तो तुम मरे, तो घबड़ाना तुम्हारा स्वाभाविक है। इसके पार भी तुम हो। पद के पार, प्रतिष्ठा के पार, नाम—यश के पार, धन—दौलत के पार तुम्हारा कुछ होना है। उसे थोडा पहचान लो, उसका थोड़ा अनुभव कर लो, मौत उसे नष्ट न कर पाएगी।
जिसने स्वयं को जाना, मौत उसके सामने हार जाती है। और मौत जल्दी आ रही है। तुम कह रहे हो, इससे बचने का कोई उपाय है? मैं तो सारी चेष्टा यह कर रहा हूं कि तुम्हें समझ में आ जाए कि मौत जल्दी—जल्दी कदम बढ़ाए तुम्हारी तरफ चली आ रही है। तुम कह रहे हो कि मुझे रास्ता बता दें कि मौत से बचने का कोई उपाय। तुम सोचते हो, मैं कोई तुम्हें ताबीज—गडा दे दूं कि तुम बच जाओ मौत से।
जब तक कुछ अपनी कहूं सुनूं जग के मन की
तब तक ले डोली द्वार विदा— क्षण आ पहुंचा
फूटे भी तो थे बोल न स्वांस क्वांरी के
गीतों वाला इकतारा गिरकर टूट गया
हो भी न सका था परिचय दृग का दर्पण से
काजल आंसू बनकर छलका और छूट गया
इतनी जल्दी सब हो जाएगा। ज्यादा देर नहीं लगेगी।
जब तक कुछ अपनी कहूं सुनूं जग के मन की
तब तक ले डोली द्वार विदा — क्षण आ पहुंचा
कह भी न पाओगे अपने मन की, सुन भी न पाओगे अपने मन की और पाओगे कि आ गयी डोली। अर्थी उठने लगी, बंधने लगी।
फूटे भी तो थे बोल न स्वांस क्वांरी के
गीतों वाला इकतारा गिरकर टूट गया
इकतारा बज भी कहां पाता और टूट जाता है। कहां कौन कह पाता है जो कहना था! कहां कौन हो पाता है जो होना था!
हो भी न सका था परिचय दृग का दर्पण से
आंख अभी दर्पण से मिल भी न पायी थी
काजल आंसू बनकर छलका और छूट गया
मौत तो जल्दी बढ़ी आती है। और किसी भी क्षण द्वार पर दस्तक दे देगी। क्षण भर पहले भी खबर न देगी कि आती हूं। मौत तो अतिथि है। तारीख, तिथि बता कर न आएगी, बस आ जाएगी। एक क्षण फुरसत न देगी। तुम कहोगे, साज—सामान बांध लूं र मित्र—प्रियजनों से क्षमा मांग लूं र मिल लूं जुल लूं इतना मौका भी न देगी। जल्दी करो, इसके पहले कि मौत आ जाए, तुम अपने भीतर के अमृत को पहचान लो।
तो मैं तो चाहता हूं कि तुम्हें मौत के प्रति और सजग करूं, मैं तो चाहता हूं कि तुम्हें और कंपा दूं—तुम्हारी जड़ें हिल जाएं—तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें नींद में सुला दूं? कोई रास्ता बता दूं? कोई तरकीब दे दूं कि जिससे मौत से बचाव हो जाए। मौत से बचकर करोगे भी क्या? अभी कर क्या रहे हो जिंदा रहकर, यही करोगे न बचकर! इसको कितने दिन तक करते रहने का मन है? सत्तर साल से मन नहीं चुकता? सात सौ साल करोगे, यही? हद हो गयी बात!
मैंने सुना है कि सिकंदर अपनी यात्राओं में एक ऐसी जगह पहुंचा जहां उसे पता चला कि एक झरने के पास एक ऐसा जलधार है कि अगर उसका कोई पानी पी ले तो अमर हो जाता है। तो वह गया, उस जलधार की खोज किया। जब वह पहुंचा जलधार के पास, बड़ा आनंदित हो गया। ऐसा स्फटिक स्वच्छ जल उसने कभी देखा न था। और चुल्ल भरने को ही था कि एक कौवा बैठा था वहां एक शाख पर, उसने कहा, रुक सिकंदर! पीछे पछताएगा। पहले मेरी बात सुन ले। सिकंदर बहुत हैरान हुआ, एक तो यह चमत्कार कि इस पानी को पीकर आदमी अमर हो जाता है। और यह एक चमत्कार कि यह कौवा बोलता है। उसने पूछा कि क्या कहना है तुझे? कौवे ने कहा, कहना मुझे यह है कि मैंने भी यह पानी पीआ—मैं कोई छोटा—मोटा कौवा नहीं हूं जैसा तू सिकंदर है आदमियों में, ऐसा मैं भी एक सिकंदर हूं कौवों में—इसी की खोज मैंने सारे जीवन लगायी और मैंने यह झरना पा लिया और मैं यह पानी पी चुका। अब मैं तड़फ रहा हूं। हजारों साल से जिंदा हूं मरता नहीं। अब मर सकता नहीं। पहाड़ से गिरता हूं, पत्थर पर सिर पटकता हूं, जहर पीता हूं मरता नहीं। और अब जिंदगी में कुछ सार नहीं है—वही—वही कब तक दोहराए चला जाऊं? अब देख लिया सब। इसलिए तुझसे कहता हूं पहले सोच ले। फिर मर न सकेगा। फिर तेरी मर्जी! मैं इसीलिए यहां बैठा हूं कि अब और दूसरे कोई नासमझ यह गलती न कर लें जो मैंने की। और कहते हैं, सिकंदर थोड़ी देर सोचा और फिर चुपचाप सरक आया। उसने फिर उस झरने का पानी पीआ नहीं।
यह कहानी तो कहानी है। लेकिन बात बड़ी सच है। तुम पी सकोगे? अगर उस झरने के पास पहुंच जाओ! यह बात तुम्हें खयाल में न आएगी कि फिर पीकर करोगे क्या? फिर मरना असंभव हो जाएगा।
नहीं, इस जिंदगी का सारा खेल मौत में समाया है। इस जिंदगी का सारा रस ही मौत के कारण है। और मौत जरूरी है। तुम मौत से बचो मत। तुम मौत को झुठलाओ मत, तुम अपने मन को
बहला मत, तुम ' को स्वीकार करो।
आगे पीछे एक दिवस
आना ही होगा तेरे द्वारे
इसीलिए जीवन भर मैंने
नहीं गेह पर दिये किवाडे
लेकर कोई कर्ज सीस
तेरे गोकुल जाना न उचित था
यही सोच सौ—सौ हाथों से
बांटे जग को चांद—सितारे
लेकिन इस संन्यासीपन का
फल यह सिर्फ मिला दुनिया से
आंसू तक सब रेहन हो गये
अर्थी तक नीलाम हो गयी
मैंने तो सोचा था अपनी
सारी उमर तुझे दे दूंगा
इतनी दूर मगर थी मंजिल
चलते —चलते शाम हो गयी
यहां तो सब लुट जाएगा।
आंसू तक सब रेहन हो गये
अर्थी तक नीलाम हो गयी
यहां तो सब चुक जाएगा। यहां तो सब छूट जाएगा।
अर्थी तक नीलाम हो गयी
यहां तो कुछ बचेगा नहीं। इसलिए मैं तुम्हें सांत्वना नहीं देता। मैं तुम्हें झकझोरना चाहता हूं। मैं तो तुम्हारी सांत्वनाएं छीन लेना चाहता हूं। मैं तो तुमसे कहता हूं, मौत निश्चित है। मौत होनेवाली है। मौत कल होगी। आने वाले क्षण में हो सकती है। बचो मत, स्वीकार करो। और जितनी देर क्षण बचे हैं, इनको तुम जीवन की तलाश में लगा दो। अंतस—जीवन की तलाश में। वहा है किरण अमृत की, शाश्वत की। और वह तुम्हारी किरण है। मिल सकती, तुम उसके मालिक हो। तुमने दावा नहीं किया है दावा करो! घोषणा करो। शरीर से अपने को थोड़ा हटाओ, चैतन्य में थोड़े जयों।
हरि ओंम तत्सत्।
आज इतना ही।
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