सोमवार, 4 जून 2018

सपना यह संसार—(पलटू वाणी)


(पलटू दास पर प्रश्‍नोत्‍तर सहित  11-07-1979 सेे 30-07-1979 तकओशाो आश्रम पुणे में हुई प्रवचनमाला के अंतर्गत ओशो द्वारा दिए गए बीस अमृत प्रवचनों का संकलन)
प्रवेश से पूर्व—

 ये सब दृश्य जो तुम देख रहे हो, माया के, मोह के, लगाव के, आसक्ति के, अपने, पराए, मेरा, तेरा... कैसे लडुलडू पड़ते हो इंच—इंच जमीन पर, तलवारें खिंच जाती हैं, जिंदगी मुकदमों में बीत जाती है— और सब पड़ा रह जाएगा!
और मजा तो देखो
जीवन कहिये झूठ साच है मरन को।
पलटू कहते हैं. यह जीवन तो तुम्हारा बिलकुल झूठ है, इससे तो तुम्हारी मौत कहीं ज्यादा सच है!
मूरख अजहूं चेति गहौ गुरु— सरन को!!

अभी भी जाग जाओ, इसके पहले कि मौत आए, जाग जाओ! यह सपने को सत्य न समझो। इस सपने के प्रति मर जाओ। सपने के प्रति मर जाना संन्यास है। और सपने के प्रति जो मर गया, उसके भीतर एक होश का दीया जलता है।
लेकिन यह संभव है तभी, तुम जब किसी गुरु के साथ जुड जाओ। बुझा दीया जले दीये के पास सरक आए, तो ज्योति से ज्योति जले!...
मिट्टी की देह है, यह दीया है। इसमें प्रेम का रस अगर भरा हो, तो तेल है। इसलिए मैं कहता हूं : रसमय होओ, रासमय होओ। नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ! क्योंकि ऐसे ही तुम्हारे पोर—पोर से रस झरेगा और तुम्हारा दीया तेल से भर जाएगा। और फिर तुमसे कहता हूं कि ध्यान में चकमक को रगडो। होश को जगाओ। जाग कर देखो विचारों को, जाग कर देखो वासनाओं को— छोड़ने को तो मैं कहता ही नहीं। जो तुमसे छोड़ने को कहे, समझना कि तुम जैसा ही अंधा है। अंधेरे को कोई छोड़ने को कहे, तो समझ लेना कि अंधा है। अंधेरा छोड़ा नहीं जाता, बस दीया जल जाए, अंधेरा छूट जाता है।
इसलिए मैं तुमसे त्याग करने को नहीं कहता। त्याग होना चाहिए। अपने से होना चाहिए। होगा ही। अनिवार्य है। अपरिहार्य है। एक बार तुम्हारे भीतर बोध जग जाए, त्याग तो होगा ही। बोध जग जाने पर कौन कंकड़—पत्थरों को पकड़े बैठा रहेगा! बोध जग जाने पर कौन कचरे को इकट्ठा करेगा! बोध जग जाने पर कौन पकडेगा संसार को! रहेगा भी संसार में तो कमलवत। रहेगा पानी में और पानी छुएगा नहीं।
इसलिए मैं तुमसे त्याग करने को नहीं कहता, छोड़ने को नहीं कहता।...
दीया मौजूद है, प्रेम तुम्हारे रोएंरोएं में भरा है, लेकिन सदियों से धर्म तुम्हें प्रेम के विपरीत सिखा रहे हैं। प्रेम का शत्रु बना रहे हैं। सदियों से धर्मों ने जीवन का विरोध किया है, निषेध किया है। उन्होंने तुम्हारे प्रेम के स्रोत अवरुद्ध कर दिए हैं। उन्होने तुम्हारे प्रेम की इतनी निंदा की है कि तुम सूख गए हो। दीया ही रह गया, झरने बंद हैं।
मैं चाहता हूं तुम्हारे झरने फिर खुले।
इसलिए मैं तुमसे फिर प्रेम की बात कर रहा हूं। प्रेम के बिना तुम कहीं भी नहीं पहुंच सकोगे। प्रेम के बिना कोई भक्ति नहीं है और प्रेम के बिना कोई भगवान नहीं है। प्रेम ही प्रार्थना बनेगा और प्रार्थना ही अंतिम अवस्था में परमात्मा का अनुभव बनती है। इसीलिए प्रेम को पोर—पोर, रोएँरोएं से बहने दो; भरने दो तुम्हारे हृदय के दीये को। प्रेम से भर जाओ! इसलिए कहता हूं : रसमय होओ, रासमय होओ। इसलिए निरंतर दोहराता हूं, रसो वै सः। वह परमात्मा रसरूप है, तुम भी रसरूप होओ। इसलिए कहता हूं जीवन से भागो मत, जीवन के अवसर का उपयोग कर लो।
नहीं कहता तुमसे पत्नी को छोडो, बल्कि कहता हूं इतना प्रेम करो कि पत्नी में परमात्मा दिखाई पड़ने लगे। नहीं कहता पति को छोड़ो, इतना प्रेम करो कि पति में परमात्मा दिखाई पड़ने लगे। प्रेम जैसे गहरा होता है, वहीं परमात्मा की झलक आनी शुरू हो जाती है। है ही नहीं परमात्मा कुछ और सिवाय प्रेम की गहरी झलक के, प्रेम की गहरी लपट के। बच्चों को छोड़ कर मत भागो! उनकी आखों में झांको। वहां अभी परमात्मा ज्यादा ताजा है। अभी वहां धूल नहीं जमी। अभी बच्चे सूख नहीं गए हैं; अभी रसपूर्ण हैं। उनसे कुछ सीखो!........
अच्छी दुनिया होगी तो हम बच्चे को सिखाएंगे कम, उससे सीखेंगे ज्यादा। और जो सिखाएंगे, वे उसे सजग करके सिखाएंगे कि ये दो कौड़ी की बातें हैं— कामचलाऊ हैं, उपयोगी हैं तेरी जिंदगी में, रोटी—रोजी कमाने में सहयोगी होंगी, इनसे आजीविका मिल जाएगी, इनसे जीवन नहीं मिलता। और हम बच्चे से सीखेंगे जीवन। उसकी आखों में झलकता हुआ प्रेम, आश्चर्यचकित विमुग्ध भाव। बच्चे की अवाक हो जाने की क्षमता। छोटी—छोटी चीजों से ध्यानमग्न हो जाने की कला। एक तितली के पीछे ही दौड़ पडा तो सारा जगत भूल जाता है, ऐसा उसका चित्त एकाग्र हो जाता है। एक फूल को ही देखता है तो ठिठका रह जाता है। भरोसा नहीं आता। इतना सौदर्य भी इस जगत में हो सकता है! इसीलिए तो बच्चे पूछे जाते हैं, प्रश्नों पर प्रश्न पूछे जाते हैं; थका देंगे तुम्हें, इतने प्रश्न पूछते हैं। उनके प्रश्नों का कोई अंत नहीं। क्योंकि उनकी जिज्ञासा का कोई अंत नहीं। उनकी मुमुक्षा का कोई अंत नहीं। जानने की कैसी अभीप्सा है। अगर हम में समझ हो, तो हम बच्चों से उनकी सरलता सीखेंगे, उनका प्रेम सीखेंगे, उनका निर्दोष— भाव सीखेंगे, उनकी आश्चर्यविमुग्ध होने की क्षमता और पात्रता सीखेगे। तब शायद तुम्हारा हृदय भरने लगे एक नये रस से। तुम भी शायद नाच सको छोटे बच्चों के साथ। तुम भी शायद खेल सको छोटे बच्चों की भांति। तुम्हारे जीवन में भी एक लीला प्रकट हो। परमेश्वर लीलामय है, तुम भी थोड़े लीलामय हो जाओ तो उसकी भाषा समझ में आए, उससे सेतु बने, उससे थोड़ा संबंध जुड़े, उससे थोडी गांठ बंधे।
इसलिए कहता हूं रसमय होओ। रसमय होओ अर्थात प्रेममय होओ, प्रीतिमय होओ। इसलिए कहता हूं : रासमय होओ। चांद—तारे नाच रहे हैं, पशु—पक्षी नाच रहे हैं, पृथ्वी, ग्रह—उपग्रह नाच रहे हैं, सारा अस्तित्व नाच रहा है। एक तुम क्यों खडे हो उदास? क्यों अलग— थलग? क्यों अपने को अजनबी बना रखा है? क्यों तोड़ लिया है अपने को इस विराट अस्तित्व से? किस अहंकार में अकड़े हो? कैसी जड़ता? झुको! अर्पित होओ! अस्तित्व से गलबहियां लो! अस्तित्व को आलिंगन करो! नाचो इसके साथ।
जब मेघ घिरे और मोर नाचने लगें, तब बैठ कर अखबार मत पढ़ते रहो! और जब दूर जंगल में कोई चरवाहा अलगोजा बजाने लगे, तो तुम्हारे भीतर कुछ नहीं बजता? कुछ बजता ही नहीं! तुम जीवित हो या मर गए हो। यह कैसा जीवन है? जब कोई तार छेड़ देता है सितार के, तुम्हारी हृदयतंत्री में कुछ नहीं छिड़ता? तुम वैसे ही खड़े रह जाते हो? रूखे—सूखे; दूर—दूर।
थोड़े काव्यमय होओ, थोडे संगीतमय होओ, थोड़े उत्सवमय होओ। इसे मैं धर्म कहता हूँ। धर्म की मेरी परिभाषा है उत्सव। धर्म की मेरी परिभाषा है आनंद की क्षमता। मैं नहीं कहता कि धर्म की परिभाषा में ईश्वर की मान्यता जरूरी हैँ। नहीं है, बिलकुल जरूरी नहीं है। ईश्वर तो धर्म का अंतिम अनुभव है; उसको हम प्राथमिक जरूरत कैसे बना सकते हैं? वह तो निष्कर्ष है। और लोग ऐसे अजीब हैं कि निष्कर्ष को पहले ही कहते है मानो। कहते हैं, ईश्वर को मान कर चलो तो तुम धार्मिक हो। मैं कहता हूँ : तुम धार्मिक होओ तो एक दिन ईश्वर प्रकट होगा और तुम्हें उसे मानना ही होगा। मैं कहता हूं नास्तिक हो, चलेगा। चल पड़ो!''
ओशो




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