पिव पिव लागी प्यास-(दादू दयाल)
सबदै ही सब उपजै
दिनांक १५. ७. १९७५, प्रातःकाल,
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र-
भगवान श्री, संत श्रेष्ठ दादू की कुछ
साखियां हैं--
सबद बंध्या सब रहै, सबदै सब ही जाए।
सबदै ही सब उपजै, सबदै सबै समाय।।
दादू सबदै ही सचु पाइये, सबदै ही संतोष।
सबदै ही स्थिर भया, सबदै ही भागा सोक।।
दादू सबदै ही मुक्ता भया, सबदै समझै प्राण।
सबदै ही सूझै सबै, सबदै सुरझै जाण।।
पहली किया आप थैं उतपत्ती ओंकार।
ओंकार थैं उपजैं, पंच तत्त आकार।।
दादू सब बाण गुरु साध के, दूरि दिसंतर जाइ।
जेहि लागै सो ऊबरै, सूते लिए जगाइ।।
सबद सरोवर सूभर भरया, हरिजल निर्मल नीर।
दादू पीधै प्रीति सौं, तिनकै अखिल सरीर।।
भगवान, हमें इनका मर्म समझाने की
अनुकंपा करें।
नानक
ने कहा है: एक ओंकार सतनाम।
सत्य
का एक ही नाम है,
वह है
ओंकार। ओंकार में भारत की सारी खोज समा जाती है। इस एक छोटे से शब्द में भारत की
अनंत-अनंत काल की खोज का सारा रस समाया हुआ है। जिसने इस एक शब्द को समझ लिया, उसने सब समझ लिया। जो इस एक
शब्द से वंचित रह गया, वह कुछ
और समझ ले,
उस
समझने का कोई भी मूल्य नहीं। इसलिए इस एक शब्द को बहुत ध्यान से समझने की कोशिश
करना।
पहले
कुछ प्राथमिक बातें।
पहली
तो बात: ओंकार को शब्द कहना ठीक नहीं, मजबूरी है। कुछ कहना पड़ेगा, इसलिए शब्द कहते हैं; लेकिन ओंकार शब्द नहीं है।
जैसे और सब शब्द हैं, वैसा
ओंकार शब्द नहीं है। क्योंकि, सभी
शब्दों का कुछ अर्थ है, ओंकार
का कोई भी अर्थ नहीं है, ओंकार
अर्थातीत है। शब्द में तो अर्थ होता है; ओंकार में कोई अर्थ नहीं है, ओंकार शुद्ध ध्वनि है। लेकिन
उसे ध्वनि कहना भी मजबूरी है। कुछ कहना पड़ेगा, इसलिए कहना पड़ता है।
बहुत
ध्वनियां हैं जगत में, लेकिन
सभी ध्वनियां दो वस्तुओं के आघात से पैदा होती हैं। उनके लिए पारिभाषिक शब्द है:
आहत-नाद। दो हाथ को टकराओ, ताली
बजती है। दो पत्थरों को टकराओ, आवाज
होती है। ओंकार अनाहत नाद हैं। वह दो वस्तुओं के टकराव से पैदा नहीं होता। वह एक
हाथ की ताली है। शब्द नहीं कह सकते, क्योंकि अर्थातीत है; शब्द में तो अर्थ होना चाहिए।
ध्वनि नहीं कह सकते, क्योंकि
सभी ध्वनियां आघात से पैदा होती हैं। ओंकार अनाहत है। वह आघात से पैदा नहीं होता।
तीसरी
बात, तुम जिस ओंकार का पाठ करते हो, जिस ओंकार की रटन लगाते हो, जिस ओंकार का जाप करते हो, नानक या दादू उस ओंकार की बात
नहीं कर रहे हैं। क्योंकि तुम तो जिसकी रटन लगाओगे, वह भी आहत नाद हो जाएगा, वह भी कंठ की टकराहट होगी। तो
ओंकार का जाप कोई कर नहीं सकता। ओंकार के जाप के लिए तैयार हो जाओ तुम, एक दिन जाप उतरता है। इसलिए
ओंकार को जाप नहीं कह सकते हैं।
ज्ञानियों
ने उसे अजपा कहा है। उसका जाप नहीं किया जा सकता। क्योंकि जाप तो तुम कर सकते
हो--ओंकार ओंकार,
ओंकार; लेकिन वह तो तुम्हारी कंठ की
टकराहट है। वह तो तुम्हारा ही पैदा हुआ ओंकार है। वह तो तुमसे पैदा हुआ, तुम्हारी संतान है। और जिस
ओंकार की चर्चा हो रही है, वह तो
वह ओंकार है,
जिसकी
हम सब संतान हैं। तुम अपने पिता के पिता नहीं बन सकते। जब तुम ओंकार को जपते हो, तब तुम पिता को पैदा करने की
कोशिश कर रहे हो;
तब तुम
पिता के पिता बनने की चेष्टा में लगे हो।
नहीं, साधक ओंकार को जप नहीं सकता; जपने के द्वारा केवल अपने
भीतर उस व्यवस्था को निर्मित करता है जिसमें अजपा उतर आए। सारी साधनाएं सिर्फ
निमंत्रण हैं;
चेष्टाएं
हैं तुम्हें तैयार करने की, ताकि
तुम्हारी तैयारी में वह संबंध, वह साज
बैठ जाए जहां अनाहत बजने लगता है।
ओंकार
जपा नहीं जाता;
ओंकार
सुना जाता है। ओंकार जपा नहीं जाता, ओंकार हुआ जाता है। जब ओंकार उतरता है तब
तुम नहीं बचते,
ओंकार
ही रहता है। ओंकार महामृत्यु है, इसलिए
वह महामंत्र है। बाकी सब मंत्र मंत्र हैं; ओंकार महामंत्र है।
एक
बहुत आश्चर्य की बात है कि भारत में तीन बड़े धर्म पैदा हुए--हिंदू, जैन, बौद्ध। तीनों में बड़ा विभेद
है, सिद्धांतों की बड़ी टकराहट है।
तीनों की मान्यताएं ऐसी अलग-अलग हैं कि उनमें कोई तालमेल बिठालना संभव नहीं है।
कोई लाख समन्वय बिठाए, इन तीन
में समन्वय बैठ नहीं सकता। वे तो त्रिकोण के तीन कोण हैं; उनको तुम पास नहीं ला सकते।
लेकिन एक मत पर वे सब राजी हैं, वह है
ओंकार। बौद्ध,
जैन, हिंदू इस एक अनूठे शब्द पर
राजी हैं। इस संबंध में कोई विरोध नहीं है। इस संबंध में एकदम मतैक्य है।
तो, ऐसा लगता है कि ईश्वर भी गौण
है। उस पर भी विवाद हो सकता है कि है या नहीं; आत्मा भी गौण है--उस पर भी चर्चा चलने की
सुविधा है कि है या नहीं। जैन ईश्वर को नहीं मानते। बौद्ध तो आत्मा को भी नहीं
मानते। लेकिन ओंकार को तीनों ही मानते हैं। ओंकार लगता है, आत्मा और परमात्मा से भी बड़ा
है। निर्विवाद वही एक मालूम होता है।
और ऐसा
केवल भारत के धर्मों के संबंध में ही सच नहीं है, भारत के बाहर पैदा हुए धर्म
भी ओंकार को अनजाने रूप से मानते हैं। उनकी व्याख्या में थोड़ी भूल हो गई है।
व्याख्या में भूल का कारण है।
जब
ओंकार की ध्वनि सुनी जाती है तो अगर तुम ठीक-ठीक सजग न हुए, अगर तुम बिलकुल ही न मिट गए
और तुम्हारे मन की कहीं किसी कोने-कातर में कोई छाया छिपी रही तो तुम शुद्ध ध्वनि
को न पकड़ पाओगे। तुम्हारा मन ध्वनि को उतना तोड़ देगा।
भारत
के तो सभी धर्मों ने मन को मिटाने की चेष्टा की है। इसलिए जब मन मिट जाता है तो
ओंकार की शुद्ध ध्वनि सुनाई पड़ती है। भारत के बाहर जो धर्म पैदा हुआ--ज्यू, इस्लाम, ईसाइयत--उन तीनों ने मन को मिटाने
की चेष्टा नहीं की है, बल्कि
मन को शुद्ध करने की चेष्टा की है। शुद्ध होकर भी मन बचता है, पूरा नहीं मिट जाता। बिलकुल
शुद्ध हो जाता है,
पारदर्शी
हो जाता है,
हवा की
तरह हो जाता है;
तुम छू
भी नहीं सकते;
पता भी
नहीं चलता कि है,
लेकिन
होता है।
मन के
न हो जाने पर जो ओंकार सुनाई पड़ा था, तब तो हमने ओंकार को सीधा पकड़ लिया। मन के
होने पर;
शुद्ध
मन के होने पर जो सुनाई पड़ा तो रूप थोड़ा बदल गया। मन ने थोड़ी सी झंझट थोड़ी सी
विकृति पैदा की। इसलिए मुसलमान, यहूदी
और ईसाइयत अपनी प्रार्थनाओं के अंत में जिस शब्द में पूर्ण करते हैं प्रार्थना
को--ओमीन या अमीन--वह ओम का ही रूप है। और उनके पास भी उसका कोई उत्तर नहीं है कि
अमीन का क्या अर्थ होता है। वह ओम का ही रूप है--ओम, ओमन, अमीन।
अंग्रेजी
में तीन शब्द है--ओमनीप्रेजेंट, ओमनीपोटेंट, ओमनीसाइंट। अंग्रेजी भाषाविद
बड़ी कठिनाई में पड़ते हैं, क्योंकि
वे इन शब्दों का मूल नहीं खोज पाते। ये आते कहां से हैं? ये शब्द बड़े अनूठे हैं।
ओमनीसाइंट का अर्थ होता है, जिसने
सब देख लिया। लेकिन ओन कहां से आता है? वह ओम का ही रूप है। जिसने ओम देख लिया, उसने सब देख लिया।
ओमनीप्रेजेंट
का अर्थ है,
जो सब
जगह मौजूद है। लेकिन वह ओमन कहां से आता है? वह ओम का ही रूप है। ओमनीप्रेजेंट का अर्थ
है, जो ओम के साथ एक हो गया, वह सब जगह मौजूद हो गया। तुम
एक जगह हो। जिस दिन तुम ओम के साथ एकरूप हो जाओगे, तुम सब जगह हो जाओगे। ऐसी कोई
जगह न होगी जगत में जहां तुम न होओगे। तुम अस्तित्व के साथ एक हो जाओगे।
ओमनीपोटेंट
का अर्थ होता है,
जिसके
पास सारी शक्ति है। लेकिन मतलब इतना ही होता है कि जिसके पास ओम की शक्ति है।
जिसने ओम को पा लिया, सब पा
लिया। जो ओम के साथ एक हो गया, वह सब
हो गया। जो ओम में डूब गया, वह
सर्वशक्तिशाली हो गया।
यह ओम
बड़ा अनूठा शब्द है!
भारत
ने जो भी खोजा है अंतर्जगत में, वह इस
एक छोटे से सूत्र में समाहित है। जैसे आइंस्टीन की सापेक्षतावाद की सारी खोजना एक
छोटे से सिद्धांत में समा जाती है, ऐसे ही ओम के छोटे से सूत्र में, छोटे से सिद्धांत में भारत की
सारी अंतर्खोज समा गई है। बाहर की खोज में तो अभी बहुत कुछ बाकी है। इसलिए
आइंस्टीन जल्दी ही तिथिबाह्य, आउट आफ
डेट हो जाएंगे। कोई दूसरा उनकी जगह ले लेगा; ले ही ली है जगह। लेकिन ओम के आगे भीतर की
कोई खोज बाकी नहीं बची। वह यात्रा पूरी हो गई है। वहां हम मंजिल पर पहुंच गए हैं। इसलिए
ओम को कभी भी विस्थापित नहीं किया जा सकता। वह सिंहासन पर रहेगा ही। तुम उससे दूर
भटक सकते हो। तुम उसे भूल सकते हो। लेकिन उसे तुम सिंहासन से नहीं उतार सकते। जब
भी तुम घर आओगे,
तुम ओम
को सिंहासन पर विराजमान पाओगे।
यह जो
ओम है,
इसके
संबंध में कुछ और बात खयाल ले लें।
विज्ञान
कहता है कि सारा जगत विद्युतत्तरंगों से बना है--पत्थर भी, सोना भी। सारा अस्तित्व, सारी वस्तुएं, सारा पदार्थ-पदार्थ नहीं
है--विद्युतत्तरंगों का घनीभूत रूप है।
हमने
कुछ ओर जाना है। हमने यह जाना है इधर पूर्व में; भीतर प्रवेश करते-करते कि सारा
जगत ध्वनियों का ही संगृहीभूत रूप है और विद्युत ध्वनि का एक प्रकार है। वैज्ञानिक
कहते हैं,
ध्वनि
विद्युत का एक प्रकार है और सारा जगत विद्युत की तरंगों का जाल है। हम कहते हैं, सारा जगत ध्वनि का जाल है और
विद्युत भी ध्वनि का एक प्रकार है। तुमने कहानियां सुनी होंगी कि तानसेन ने दीपक
राग से दीपक जला दिए। इसकी संभावना है। ध्वनि का आघात अग्नि को पैदा कर सकता है।
इसकी संभावना है। इस पर बहुत प्रयोग चलते हैं।
और इस
बात को इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि
आघात ही से तो विद्युत पैदा होती है। पहाड? से जल गिरता है, उसकी चोट से विद्युत पैदा
होती है। दो चकमक पत्थरों को तुम टकरा दो, आग पैदा हो जाती है। तुम दो हाथों को रगड़ो, हाथ गरम हो जाते हैं। रगड़ से
गरमी पैदा होती है, विद्युत
पैदा होती है।
दो
ध्वनियों की रगड़ से भी विद्युत पैदा होती है, लेकिन बड़ी सूक्ष्म कला है। शायद शास्त्र भूल
गया हो,
हमें
याद न रहा हो,
कैसे
हम दो ध्वनियों को टकराएं। लेकिन कभी किसी ने तानसेन ने या किसी ने भी, दो ध्वनियों को टकराना सीख
लिया हो तो दीए जल सकते हैं। जब दो पत्थरों के टकराने से आग पैदा हो सकती है तो दो
ध्वनियों के टकराने से क्यों पैदा नहीं हो सकती? टकराहट उष्मा पैदा करती है, गरमी पैदा करती है।
और अब
तो विज्ञान भी धीरे-धीरे शिथिल हुआ है। उसकी पुरानी जिद नहीं रही, पुरानी अकड़ नहीं रही। रस्सी
तो जल गई है। पर जली हुई रस्सी में पुरानी अकड़ तो रह ही जाती है, बस उतनी ही अकड़ विज्ञान में
बची है।
हजारों
प्रयोग चल रहे हैं सारी पृथ्वी पर, जो विज्ञान को जड़ों से उखाड़े डाल रहे हैं।
ध्वनि पर बहुत प्रयोग हुए हैं।
इंग्लैंड
में एक बहुत प्रसिद्ध प्रयोगशाला है--दिलाबार। वहां उन्होंने बड़े प्रयोग किए हैं।
विशेष संगीत के प्रभाव में बे-मौसम में वृक्षों में फल आ जाते हैं। विशेष संगीत के
प्रभाव में वृक्ष दुगनी गति से बढ़ते हैं। विशेष संगीत के प्रभाव में मां के गर्भ
का बच्चा बहुत तीव्रता से परिपुष्ट होने लगता है। जो पौधा बिना संगीत के सालभर में
बड़ा होता,
वह दो
महीने में उतना बड़ा हो जाता है संगीत के साथ।
पौधे
सुनते हैं।
कनाडा
में एक छोटा सा प्रयोग किया गया। जहां रविशंकर पंद्रह दिन तक सितार बजाता था। उसके
दोनों तरफ बीज बोए गए थे। जो पौधे पैदा हुए वे सब रविशंकर की तरफ झुके थे, दोनों तरफ से, जैसे की बहरा आदमी कान झुका
लेता है। वे सब पौधे झुके हुए पैदा हुए। एक भी पौधा नहीं था जो संगीत सुनने को
उत्सुक न हो। भवन के बाहर दूसरे बीज बोए गए थे, वे सब सीधे पैदा हुए थे। क्या हुआ? पौधे सुनने को आतुर थे। और
बाहर जो पौधे थे वे आधे ही बढ़े। पंद्रह दिन के प्रयोग में भीतर के पौधे दुगने बढ़
गए। उनकी शान और थी।
ध्वनि
में भोजन है,
जीवन
है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है जो संगीत से आंदोलित न होता हो, जिसके पैर न थिरकने लगते हों, जिसके हाथ ताल न देने लगते
हों, जिसके भीतर कोई धुन न बजने
लगती हो।
और अब
तो वैज्ञानिक कहते हैं कि धातुएं भी--पौधे तो ठीक, धातुएं भी--संगीत से प्रभावित
होती हैं। अगर कोई धातु को संगीत सुनाया जाए, तो उसमें जंग लगना मुश्किल हो जाता है। इस
बात की बहुत संभावना है कि अशोक की लाट जो दिल्ली में खड़ी है--जिसको वैज्ञानिक
नहीं समझ पाए अब तक कि उस पर जंग क्यों नहीं लगती, क्योंकि सदियों से खड़ी है, वर्षा, धूप, सब मौसम आते हैं, जाते हैं, अभी तक वैज्ञानिक ऐसा कोई
स्टेनलेस स्टील पैदा नहीं कर सके जो सदियों तक धूप में, वर्षा में बाहर पड़ा रहे और
जिस पर जंग का एक दाग न आया हो। मेरी अपनी समझ यह है, कि बहुत गहन संगीत में उस लाट
को तैयार किया गया है, बड़े
मंत्रोच्चारों के बीच उस लाट को तैयार किया गया है। मंत्र उसे अब भी सुरक्षित किए
हैं। वे अब भी उसकी रक्षा कर रहे हैं।
इजिप्त
के पिरामिड हैं। वे पिरामिड इतने बड़े पत्थरों से बने हैं कि हमारे पास अभी जो
क्रेनें हैं,
विकसिततम, वे भी उन पत्थरों को उठाने
में समर्थ नहीं हैं। और आज से पांच हजार या चार हजार साल पहले उन पत्थरों को ले
जाने का कोई उपाय नहीं मालूम पड़ता। और जहां वे पिरामिड बने हैं, वहां पास पत्थरों का कोई खदान
नहीं है;
सैकड़ों
मील दूर खदानें हैं। रेगिस्तान में खड़े हैं पिरामिड। तो पत्थरों को सैकड़ों मील दूर
से लाया गया है। उन दिनों क्रेनों का कोई सवाल नहीं उठता, क्योंकि कोई प्रमाण नहीं
मिलता कि एक भी क्रेन थी या कोई यंत्र था। निहत्थे आदमियों ने उनको ढोया है। यह
बिलकुल असंभव है। यह हो कैसे सकता है? लेकिन ध्वनि का शास्त्र कहता है कि एक विशेष
ध्वनि की अवस्था में वस्तुएं निर्भार हो जाती हैं।
तुमने
भी शायद कभी गौर किया होगा कि जब तुम नाचते हो, प्रसन्न होते हो, गीत तुम्हारे हृदय में गूंजता
है तो तुम्हें बोझ नहीं मालूम पड़ता, तुम एकदम हलके हो जाते हो। जब पैर जमे होते
हैं और नाच पैदा नहीं होता, जब
हृदय बंद होता है और गीत नहीं फूटता और कहीं चारों तरफ कोई नृत्य की पुकार नहीं
आती, तब तुम अपने को पाते हो जैसे
पत्थर हो गए और वजनी हो गए।
तुमने
खयाल किया होगा,
साधारण
मजदूर आज भी जब किसी बड़े पत्थर को उठाते हैं तो बड़ा हो हल्ला मचाते हैं। लेकिन उस
हो-हल्ले में एक संगीत होता है--हैय्या हे! यह ध्वनि अगर बार-बार दोहराई जाए तो मजदूर
बड़े से बड़े पत्थर को उठा लाता है।
तुमने
नाविकों को मझधार में नदी को पार करते देखा हो पूर की, तो हैय्या-हे। जब नदी बहुत
टक्कर देने लगती है और आदमी की ताकत कमजोर पड़ने लगती है, तब स्वर को पुकारा जाता है।
स्वर तत्क्षण बचा लेता है। बड़ी ताकत दौड़ जाती है भीतर।
स्वर
में छिपी हुई ऊर्जा है। ओंकार का अर्थ है: मूल स्वर, जिससे फिर सब स्वर पैदा हुए, मूल स्रोत। आज उससे हमारे
संबंध छूट गए हैं,
नाता
नहीं रहा। हम भूल ही गए उन शिखरों को जो छू लिए गए थे।
हम
सोचते हैं,
दुनिया
जैसे पहली बार सभ्य हो रही है। भ्रांति है। दुनिया बहुत बार सभ्य हो चुकी है। और
दुनिया ने बहुत बार बड़ी उत्तुंग ऊंचाईयां पा ली हैं। और फिर उत्तुंग ऊंचाईयां खो
जाती हैं।
अब आज
प्रार्थना कोरा शब्द है, पूजा
एक औपचारिकता है।
मैं एक
घर में मेहमान था। इकलौता बेटा घर का देर तक सोकर नहीं उठा था, तो मां उससे कह रही थी कि
बेटा उठो,
तुम
ऋषि-मुनियों के देश में पैदा हुए हो, ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। उस बेटे ने
बिस्तर में ही पड़े-पड़े करवट लेकर कहा, "मां, तुमको पता नहीं, ऋषि कपूर नौ बजे के पहले कभी
नहीं उठता और दादा मुनि अशोक कुमार तो दो बजे तक सोते हैं।'
ऋषि-मुनि
खो गए;
ऋषि
कपूर, अशोक कुमार रह गए!
प्रार्थना
कोरा शब्द है। पूजा एक ढौंग है। जाप निरर्थक मालूम होता है। भगवान का नाम लोग
जानते ही नहीं,
कैसे
लें, कब लें।
मैं एक
मित्र के बेटे से पूछ रहा था कि तुम्हारे पिता कभी प्रार्थना करते हैं? उसने कहा: "कल ही कर रहे
थे।' मैं थोड़ा चौंका, क्योंकि उनके पिता से
प्रार्थना का कोई संबंध जुड़ेगा, इसकी
आशा भी नहीं की जा सकती। मैंने पूछा: "बताओ, क्या प्रार्थना की?' उसने कहा: "शाम को ही
भोजन के वक्त प्रार्थना कर रहे थे। बोले--हे भगवान! फिर वही मूंग की खिचड़ी?'
बस
प्रार्थना इतनी हो गई है! प्रार्थना एक शिकायत है।
एक
मित्र कल सांझ को ही मुझे मिलने आए थे। वे कहते हैं कि परमात्मा से वे नाराज हो
गए। प्रार्थना करते थे, पूजा
करते थे,
ध्यान
करते थे,
और
बच्चा पैदा नहीं हुआ, तो वे
नाराज हो गए!--"हे भगवान! फिर मूंग की खिचड़ी!' तो अब वे प्रार्थना नहीं
करेंगे,
पूजा
नहीं करेंगे--नाराज हैं।
यह
प्रार्थना कैसी,
यह
पूजा कैसी,
यह
अर्चना कैसी?
यह कोई
सौदा है?
तुम
परमात्मा पर कोई एहसान कर रहे थे? कहने
लगे: "मैंने कभी कुछ मांगा नहीं; इतनी पूजा-प्रार्थना की, फिर भी बच्चा पैदा नहीं हुआ।'
अगर
मांगा ही न था,
तो यह
सवाल ही क्यों उठता है कि फिर बच्चा पैदा न हुआ? मांग तो रही ही होगी।
तुम्हारी पूजा झूठी है। तुम्हारी पूजा रिश्वत से ज्यादा नहीं। तुम परमात्मा की
रिश्वत कर रहे हो। तुम कोशिश कर रहे हो फुसलाने की उसे, ताकि तुम्हारे भीतर छिपी हुई
जो वासना है,
उसे वह
पूरा कर दे। तुम परमात्मा को अपनी वासना का चाकर बनाना चाहते हो।
भक्त
तो कहते हैं: "म्हाने चाकर राखो जी!' प्रार्थना जो करते हैं, तो मीरा कहती है, "गिरधर! मुझे अपना नौकर बना
लो!' तुम परमात्मा को नौकर बनाने
की कोशिश में लगे हो। बस, वहीं
चूक हो जाती है। अगर कुछ भी मांगा तो प्रार्थना खो गई। अगर कुछ भी चाहा तो पूजा
पूजा न रही,
भ्रष्ट
हो गई,
कुरूप
हो गई। और ओंकार तो तब उबरता है जब तुम मंदिर की तरह शुद्ध, पवित्र हो जाते हो, निर्दोष हो जाते हो; जब तुम एक छोटे बच्चे की तरह
कुंआरे हो जाते हो।
इजरायल
में एक बहुत अनूठा आदमी है, उसका
नाम है यूरी गैलर। वह सिर्फ इशारे से बिना वस्तुओं को छुए, उनको तोड़-मरोड़ देता है। चाकू
उसके सामने करो,
बस वह
सिर्फ हाथ का इशारा करेगा, चाकू
मुड़कर गोल हो जाएगा। सीखचे मजबूत उसके सामने करो, वह दस फीट, बीस फीट की दूरी से उनको झुका
देगा, सिर्फ इशारे से, जिनको तुम ताकत लगा के नहीं
झुका सकते।
पिछले
वर्ष एक बहुत अनूठी घटना घटी। इंग्लैंड में बी.बी.सी. टेलीविजन पर उसने अपना
प्रयोग दिखलाया और सिर्फ उत्सुकता, सिर्फ एक अनहोनी घटना की संभावना के कारण
उसने टी.वी. पर प्रयोग बतलाते समय कहा कि जो लोग भी टी.वी. देख रहे हैं, वे भी अपने घरों में प्रयोग
करें, मेरे साथ, कौन जाने उनमें से कुछ लोग
(क्योंकि करीब लाखों लोग टी.वी. देख रहे थे, यूरी गैलर टी.वी. पर था), शायद कुछ लोगों के पास ऐसी
क्षमता हो जिनका उन्हें भी पता नहीं है। तो हजारों लोगों ने प्रयोग किए। दूसरे दिन
जो रिपोर्ट आई,
उसमें
पंद्रह सौ लोग सफल हो गए थे, जिन्होंने
यूरी गैलर के साथ ही टी.वी. पर देखते वक्त चीजों को आज्ञा दी, वे मुड़ गईं। मगर एक बड़ी
आश्चर्य की बात थी कि वह जो पंद्रह सौ लोग सफल हुए थे, वे सब बच्चे थे। उनकी कोई की
भी उम्र चौदह साल से ज्यादा नहीं थी और किसी की भी उम्र सात साल से कम नहीं थी।
सात और चौदह के बीच में थे, वे सभी
बच्चे थे। सात और चौदह के बीच कुंआरापन होता है। वीर्य की ऊर्जा अपनी परिपूर्ण
शुद्धता में होती है। शक्ति होती है और एक भोलापन होता है। जहां शक्ति और भोलेपन
का मिलन हो जाता है, वहीं
परम की घटना घटती है।
यूरी
गैलर भी भरोसा न कर सका कि यह कैसे हुआ? और बड़ी तो बात यह थी कि सात और चौदह के बीच
क्यों हुआ?
चौदह
के बाद जीवन में वासना, कामना
घेर लेती है। मन फिर स्वच्छ, नहीं
रह जाता। मंदिर की पूजा में वासना प्रविष्ट हो जाती है। सात के पहले मन तो पवित्र
होता है,
लेकिन
ऊर्जा नहीं होती।
तो सात
और चौदह जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय है और वही बरबाद किया जा रहा है। सारी दुनिया
में बरबाद किया जा रहा है। इसलिए इस देश में तो हम उन सारे क्षणों का बड़ा उपयोग
करते थे। सात वर्ष का होते ही बच्चे को हम गुरुकुल भेज देते थे; वह जंगल चला जाता था। वहां से
हम उसे इक्कीस के पहले नहीं बुलाते थे। चौदह की उम्र के सात वर्ष पहले हम उसे भेज
देते थे और चौदह के बाद सात वर्ष तक और उसे वहां रहने देते थे, ताकि जिस पावनता को उसने
अनुभव किया है,
उसमें
गहन हो जाए,
सुदृढ़
हो जाए। फिर जब वापस लौटे जगत में तो जगत उसे छू भी न सके। वह जगत से गुजर जाए
लेकिन जगत उसे स्पर्श भी न कर सके। फिर वह विवाह भी करेगा, लेकिन उसका ब्रह्मचर्य खंडित
न होगा। उसके बच्चे भी पैदा होंगे लेकिन कामना कभी उसको विकृत न करेगी। यह सब
कर्तव्य होगा। करना है, इसलिए
वह करेगा। लेकिन उसका बिस्तर सदा बंधा रहेगा, कि कब यह पूरा हो जाए और मैं वापस लौट जाऊं।
क्योंकि जो स्वाद उसने चख लिया है उन थोड़े से शक्ति के क्षणों में, वह बुलाए चला जाता है, उसकी पुकार अहर्निश सुनाई
पड़ती है--सोता है,
जागता
है, दुकान पर काम करता है, बच्चों को बड़ा करता है, लेकिन वह पुकार खींचती है, स्वाद एक बार लग जाए परमात्मा
का, तो फिर बात ही और हो जाती है।
तुम
पूजा तो करते हो बिना स्वाद के। प्रार्थना करते हो बिना स्वाद के। और प्रार्थना भी
करते हो,
पूजा
भी करते हो,
कुछ
पाने के लिए। नहीं, तुम
ओंकार को कभी न जान पाओगे। अगर ओंकार को जानना है, सब कामना छोड़ देनी होगी; मांग ही छोड़ देनी होगी; खाली हो जाना होगा।
दादू
इसी महामंत्र के संबंध में बात कर रहे हैं। समझने की कोशिश करें।
सबदै
बंध्या सब रहै,
सबदै
सब ही जाय।
सबदै
ही सब उपजै सबदै सबै समय।।
सबद से
अर्थ है ओंकार--शब्दों का शब्द ओंकार।
"सबदै बंध्या सब रहै'--अगर तुम्हारे भीतर ओंकार की
धुन बजे तो तुम्हारे भीतर एक एकता होगी, तुम बंधे रहोगे। टूट-फूट न जाओगे, खंड-खंड न हो जाओगे, अखंड रहोगे। जैसे माला में
पिरोया हुआ धागा माला के मनकों को बांधे रखता है, ऐसे ओंकार की ध्वनि अगर
तुम्हें सुनाई पड़ने लगे तो तुम्हारे जीवन के सब मनके अनुस्यूत हो जाएंगे, एक माला बन जाएगी। अभी तुम
सिर्फ मनकों का एक ढेर हो, माला
नहीं, क्योंकि धागा नहीं है, जो तुम्हारे सब कृत्यों में, सब भावों में, सब विचारों में समा जाए और
सबको एक एकता में बांध ले।
मनस्विद
कहते हैं कि,
आदमी
एक भीड़ है। वे ठीक कहते हैं। तुम भीड़ हो। तुम्हारे भीतर बहुत आदमी है। आदमी ही
आदमी हैं। तुम एक बाजार हो। तुम्हारे भीतर एक का अभी जन्म नहीं हुआ, क्योंकि एक के जन्म के लिए तो
तुम्हें एक होना पड़ेगा; तुम्हें
भीड़ को समेटना होगा; तुम्हें
खंड-खंड,
जो तुम
बंट गए हो,
उस
सबको जोड़ना होगा।
ओंकार
सीमेंट है,
जोड़ता
है; खंड को खंड से एक कर देता है, अखंड का जन्म होता है। और जिस
दिन तुम अखंड होते हो, उस दिन
कैसी चिंता,
कैसा
तनाव? सारा तनाव, सारी बेचैनी भीड़ की वजह से
है। कोई पश्चिम की तरफ खींच रहा है तुम्हारे भीतर का हिस्सा, कोई पूर्व की तरफ खींच रहा
है। कोई नरक जाना चाहता है, कोई
स्वर्ग जाना चाहता है। कोई पूजा करना चाहता है, कोई वेश्या का विचार कर रहा है। कुछ भी तुम
कर नहीं पाते। एकस्वरता नहीं है। करते भी हो तो अधूरा होता है। प्रार्थना करने भी
बैठे हो तो वहां मन नहीं होता। बस एक छोटा सा हिस्सा गुनगुनाए चला जाता है। वह ऐसी
ही हालत होती है जैसे तुम रेडिओ सुन रहे हो और बैटरी बिलकुल फीकी हो गई, बामुश्किल सुनाई पड़ता है कुछ।
ऐसी ही तुम्हारी प्रार्थना है पूरी ऊर्जा नहीं बहती। ऊर्जा कहीं और जा रही है।
तुम
स्वर्ग भी पहुंच जाओ तो भी तुम पूरे न पहुंचोगे। तुम्हारा एकाध टुकड़ा पहुंचेगा, बाकी तुम नरक में पड़े रहोगे।
और दोनों के बीच जो दूरी होगी, वही
तुम्हारा तनाव है। तनाव का एक ही अर्थ है कि तुम्हारे टुकड़ों के बीच बड़ी दूरी है, बड़ा खिंचाव है। एक हाथ एक तरफ
खींचा जा रहा है,
दूसरा
हाथ दूसरी तरफ खींचा जा रहा है। यही तो बेचैनी है।
एक ही
चैन है दुनिया में, और वह
है जब तुम एक हो जाओ।
दादू
कहते हैं: "सबदै बंध्या सब रहै, सबदै सब ही जाय। सबदै ही सब उपजै, सबदै सब समाया।' उसी से तो बंधन, उसी में तो तुम एक होते हो।
वही तो तुम्हें जोड़ता है। और तुम्हें ही नहीं, सारा अस्तित्व ओंकार से जुड़ा है।
जब तुम
परिपूर्ण शून्य हो जाओगे, तब भी
तुम्हें धुन सुनाई पड़ती रहेगी। वह शून्य की धुन होगी। वही ओंकार है। शून्य का
संगीत है ओंकार।
तुमने
कभी रात का सन्नाटा सुना है? सन्नाटे
का भी एक संगीत है। जब कोई भी आवाज नहीं होती, तब भी एक आवाज बच रहती है। जब सब शोरगुल खो
जाता है तब उस सन्नाटे में भी एक स्वर होता है। ऐसे ही जब तुम्हारे भीतर की सब भीड़, सब शोरगुल खो जाएगा, तब तुम्हारे भीतर तुम्हें एक
स्वर सुनाई पड़ेगा,
वही
ओंकार है। शून्य का संगीत है ओंकार।
और तुम्हें
ही नहीं बांधे हुए है; सारे
अस्तित्व को बांधे हुए है, साधे
हुए है। वही है आधार। उसके बिना सब बिखर जाएगा।
"सबदै बंध्या सब रहै, सबदै सब ही जाय।'
और अगर
वह शब्द तुमसे खो जाए तो तुम एक बिखरी हुई स्थिति में हो जाते हो। तब तुम्हारी
आकृति विकृत हो जाती है; तुम्हारा
रूप कुरूप हो जाता है; तुम्हारे
कंठ में बांसुरी नहीं बजती; तुम्हारी
आंखों में ओज नहीं रह जाता; तुम्हारे
जीवन की धारा जगह-जगह टूट जाती है, जैसे कभी ग्रीष्म के दिनों में नदियां टूट
जाती हैं--एक डबरा भरा है, फिर
रेत आ गई,
फिर
थोड़ा सा डबरा रह गया, फिर
रेत आ गई।
जो
ओंकार से जुड़ा है,
वह पूर
आई नदी की भांति है, अखंड
है। स्रोत से लेकर अंत तक, गंगोत्री
से लेकर गंगासागर तक एक है।
"सबदै ही सब उपजै'--इस ओंकार से ही सबका जन्म हुआ
है और इस ओंकार में ही सबको लीन हो जाना है। क्योंकि, हमारी समझ से, अंतर खोजियों की दृष्टि से, ओंकार की ध्वनि इस जगत का
सारभूत तत्व है। ओंकार के ही संघात से, चोट से सब पैदा हुआ है, और ओंकार की ही पर्त दर पर्त
जमती जाती है और विभिन्न रूप पैदा होते हैं।
इसमें
कुछ आश्चर्य जैसा नहीं है। क्योंकि विज्ञान कहता है, विद्युत से सारी चीजें पैदा हुई
हैं। क्या फर्क पड़ता है, विद्युत
से पैदा हों या ध्वनि से पैदा हों? दोनों ही बातें समझ में आने जैसी हैं। लेकिन
यह भेद क्यों है?
क्योंकि
विज्ञान बाहर से खोजता है। बाहर से जो चीज विद्युत जैसी दिखाई पड़ रही है, वही चीज भीतर से ध्वनि जैसी
दिखाई पड़ती है।
एक तो
है मकान के बाहर से देख जाने वाला आदमी और एक है अतिथि की तरह मकान के भीतर आ जाने
वाला आदमी--धर्म और विज्ञान में यही फर्क है। विज्ञान बाहर-बाहर घूमता है, तो बाहर की रेखा और परिधि को
पहचान लेता है ठीक से। धर्म अंतर्गृह में प्रवेश करता है और भीतर से चीजों को जानता
है।
दोनों
के मध्य में कला का जगत है--कवि का, चित्रकार का, मूर्तिकार का। मूर्तिकार
दोनों के बीच है। चित्रकार दोनों के बीच है। कवि दोनों के बीच है। कवि साधारणतः तो
बाहर हो जाता है,
साधारणतः
तो बाहर रहता है;
लेकिन
कभी मौका मिल जाए तो चोर की तरह भीतर प्रविष्ट हो जाता है। कला एक तरह की चोरी है।
कभी-कभी चोर तुम्हारे घर में रात के अंधेरे में घुस आता है। वह अतिथि नहीं है। वह
निमंत्रित भी नहीं है। सामने के द्वार से भी प्रवेश नहीं किया है। वस्तुतः तो जब
मेजवान सोया है,
तब वह
आता है। अगर मेजवान जागा हो तो वह आएगा ही नहीं।
विज्ञान
बाहर घूमता रहता है। कवि कभी-कभी चोरी से भीतर प्रवेश कर जाता है। इसलिए कविता में
कभी-कभी धर्म की धुन सुनाई पड़ती है। काव्य में कभी-कभी परम अनुभूति का थोड़ा सा
प्रकाश मालूम पड़ता है। और अक्सर यह होता है कि अगर किसी कवि की कविता पढ़ो तुम तो तुम्हारे
मन में एक छाया पैदा होती है कवि की, कि कितना सुंदर, कितना भव्य, कितना दिव्य न होगा यह
व्यक्ति।
मगर
भूलकर इस व्यक्ति को मिलने मत जाना, नहीं तो तुम उसे बैठे किसी होटल में चाय
पीते पाओगे,
या
बीड़ी सुलगाते पाओगे। और तुम बड़े हैरान होओगे और बड़े उदास कि इतनी ऊंचाई थी कविता
की और यह यह कवि कहां पड़ा है! और कवि तुम्हें बिलकुल साधारण आदमी मालूम पड़ेगा।
उसका कोई कसूर भी नहीं है। साधारणतः वह बाहर रहता है। मौके-बेमौके, अंधेरे-उजाले, कभी समय पाकर चोरी से भीतर
घुस जाता है।
धर्म
अतिथि की तरह भीतर प्रवेश करता है--आमंत्रित अतिथि की तरह तैयार होकर प्रवेश करता
है। इसलिए हमने इस मुल्क में कवियों को दो शब्द दिए हैं, दोनों का मतलब एक होता है। और
दुनिया की किसी भाषा में कवि के लिए दो शब्द नहीं है, सिर्फ भारत की भाषाओं में है।
एक को हम कवि कहते हैं, दूसरे
को हम ऋषि कहते हैं--दोनों का मतलब एक ही है। दोनों का मतलब है द्रष्टा, जिसने देखा।
लेकिन
दोनों में फर्क क्या है? एक ने
चोर की तरह देखा। घुसा वह भी घर के भीतर, मगर डरा-डरा घुसा। घुसा वह भी, लेकिन बिना तैयारी के घुसा।
घुसा वह भी,
लेकिन
योग्य न था और घुसा। घुसा वह भी, लेकिन
मालिक जब सोया था,
तब
घुसा। थोड़ी खबर ले आता है, जैसा
कि चोर भी घर के भीतर की थोड़ी खबर देगा; लेकिन अंधेरे में बहुत ज्यादा देखा नहीं जा
सकता। और घबड़ाया हुआ, डरा
हुआ, दूसरे के घर में कितना देख
पाएगा;
थोड़ी-बहुत
खबर ले आता है।
धर्म
तैयार होकर भीतर जाता है। साधक तैयारी करता है, अपने को योग्य बनाता है, पात्र बनाता है। प्रतीक्षा
करता है तब तक द्वार पर, जब तक
कि बुला न लिखा जाए। द्वार पर दस्तक भी नहीं देता--क्योंकि जब योग्य हो जाऊंगा, मालिक के योग्य हो जाऊंगा, बुला लिया जाऊंगा--प्रतीक्षा
करता है। तब वह जो देखता है, वह बात
ही और है! वह है ऋषि।
उपनिषद
के कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बड़ी मुश्किल से कभी हजार कवियों में एक कवि ऋषि
होता है। ऋषि का मतलब है: जो उसने जाना है वह सिर्फ जाना ही नहीं, वह उसका जीवन भी है। और कवि
का अर्थ होता है: जिसने जाना है वह अलग, उसका जीवन अलग। तुम उसके जीवन में खोजबीन
करने मत जाना। तुम उसकी कविता को पढ़ना और कविता से कुछ पा सको तो पा लेना; लेकिन कवि को खोजने मत जाना, अन्यथा निराशा हाथ लगेगी।
अगर
कवि को खोज के भी तुम्हें कविता ही दिखाई पड़े कवि में तो वह ऋषि है। ऐसा कभी-कभी
होता है। कोई एक रविंद्रनाथ, कोई एक
खलील जिब्रान,
सिर्फ
कवि नहीं होता,
ऋषि भी
होता है। तब वह सिर्फ गाता ही नहीं; जो गाता है, उसे जीता भी है। उसके शब्द
शब्द ही नहीं होते; उसके
शब्द में उसके प्राण की धड़कन होती है। तब वह अपने को उंडेलता है। और जो जाना है
उसने, जीकर जाना है। चोरी से, खिड़की से, पीछे के द्वार से झलक नहीं ली
है; मेहमान की तरह परमात्मा के
भवन का वासी बना है। और जो वहां मेहमान की तरह रहा है, वह सदा के लिए रूपांतरित हो
जाता है।
"सबदै बंध्या सब रहै, सबदै सब ही जाय।
सबदै
ही सब उपजै,
सबदै
सबै समाय।।'
उसको, जिसको विज्ञान बाहर से देखता
है, और कहता है विद्युत, उसे धर्म भीतर से देखता है और
कहता है शब्द। और दोनों के बीच में कवि है, कला है। वह उसे कहती है रस--रसो वै सः। रस
से ही सब बना है। लेकिन सारा रस झरता है उस ओंकार से और जिसको विज्ञान विद्युत की
तरह जानता है,
वह उसी
ओंकार की उष्मा है, गरमी
है; उसी ओंकार के प्राण का स्पंदन
है।
दादू
सबदै ही सचु पाइए,
सबदै
ही संतोष।
सबदै
ही स्थिर भया,
सबदै
ही भागा सोक।।'
"दादू सबदै ही सचु पाइए'--सच के पाने का और कोई उपाय
नहीं है। सोचने से न पाओगे, विचारने
से न पाओगे। लाख सिर पटको, लाख
पहेलियां सुलझाओ,
तर्क
जमाओ, सिद्धांत बनाओ, शास्त्र निर्मित करो--नहीं, सत्य को ऐसे न पाओगे। सत्य को
पाने का ढंग दर्शनशास्त्र नहीं है। सत्य को पाने का ढंग साधना है, योग है, प्रार्थना है, ध्यान है, समाधि है।
कितना
ही तुम सोचो,
तुम ही
तो सोचोगे! तुम्हारा सोचना तुमसे ऊपर नहीं जा सकता। तुम्हारे सिद्धांत तुमसे बड़े
नहीं हो सकते। तुम्हारे सिद्धांत तुमसे बहुत छोटे होंगे। तुम्हारे हाथ की पकड़ में
जो आ गया,
वह
तुम्हारे हाथ की मुट्ठी से छोटा होगा। अगर तुम्हारे परमात्मा को पकड़ना हो तो
रास्ता और है। तुम्हें उतना ही विराट हो जाना पड़े, तुम्हें उतना ही शून्य हो
जाना पड़े,
तुम्हें
उतना ही विराट हो जाना पड़े, तुम्हें
उतना ही शून्य हो जाना पड़े, तुम्हें
इतना खाली हो जाना पड़े, इतना
खाली कि अगर पूरा परमात्मा भी आए तो जगह मिले, जगह बनानी पड़े।
"दादू सबदै ही सचु पाइए।'
ओंकार
जगह बनाना है। जब तुम ओंकार की धुन से भर जाते हो, तब सब शांत हो जाता है, सब शून्य हो जाता है। वही एक
धुन बजती रह जाती है। जैसे मंदिर के सब यात्री जा चुके और घंटा ही बजता रह गया। हर
मंदिर के द्वार पर हमने घंटा लटका रखा है। कारण है। द्वार के बाहर ही घंटा लटका
रखा है। और हर मंदिर के यात्री को घंटे को बजाकर ही प्रवेश करना है। तुम यह मत
सोचना कि घंटा बजाना कोई कालबैल जैसा मामला है कि दरवाजे पर घंटी लगी है ताकि भीतर
के मालिक को पता चल जाए। वह कोई भगवान झपकी खा रहे हैं, उनको जगाने के लिए नहीं है, कि शायद सो रहे हों, या शायद कोई निजी गुफ्तगूं
में लगे हों,
तो जरा
घंटा बजा के खबर कर दें, जैसा
घर में लोग खांस-खंखार के प्रवेश करते हैं। नहीं, मंदिर के द्वार पर घंटा
प्रतीक है कि ध्वनि उसका द्वार है, ध्वनि से उस तक पहुंचोगे। वह जो घंटनाद है, वह तो सिर्फ सूचना है, इस बात की कि असली द्वार
ध्वनि है। और अगर उसमें प्रवेश करना है तो ध्वनि को साधो, ध्वनि के योग्य बनो।
तुमने
कभी देखा,
शास्त्रीय
संगीतज्ञ बैठता है अपने सितार को लेकर, तो लोग तो ऊब जाते हैं। अभी संगीत शुरू ही
नहीं हुआ,
वह साज
ही बिठा रहा है,
ठोका-ठाकी
कर रहे हैं,
तार
ठीक कर रहे हैं,
तबले
वाला तबले को ठोंक रहा है। लोगों को बड़ी हैरानी होती है कि यह क्या कर रहे हो; यह घर से ही करके आ गए होते!
यह आधा घंटा इसमें खराब करना!
लेकिन
प्रतिपल साज को बिठाना पड़ता है, नहीं
तो बासा हो जाता है। बासे साज पर ताजा संगीत पैदा नहीं होता। घर से बिठाकर वे भी आ
सकते थे,
कोई
अड़चन न थी,
वहीं
ठोक-ठाक कर लेते;
लेकिन
जितनी देर में आते, जितना
समय व्यतीत हो जाता, उतना
ही साज बासा हो जाता। प्रतिपल ही साज को ताजा करना पड़ता है। और ताजे साज पर ही
ताजा संगीत पैदा होगा। जरा भी बासा न हो जाए, इसलिए बेचारा संगीतज्ञ वहीं बैठकर ठोक-पीट
करता है। उसके पीछे राज है। और जब तार ठीक बैठ जाते हैं, तो संगीत पैदा करना बहुत कठिन
नहीं है।
कहावत
है कि संगीत तो कोई भी पैदा कर सकता है, लेकिन साज सिर्फ बड़ा अधिकारी पात्र ही बिठा
सकता है। क्योंकि साज बिठाना बड़ी सूक्ष्म बात है। फिर तार छेड़ देना उतनी बड़ी बात
नहीं है। तार बिठाना बड़ी बात है।
सारा
धर्म तुम्हारी हृदय की वीणा की ठोक-ठाक है, साज बिठाना है। जिस दिन साज बैठ जाएगा, उस दिन तो बच्चा भी तार छेड़
दे तो भी संगीत उत्पन्न होने लगेगा। असली बात साज का बैठ जाना है और उस साज को
बिठाने के लिए ही सारी साधना है। ओंकार के रटन को कहा जाता है। वह सिर्फ साज को
बिठाना है,
वह
संगीत नहीं है। वह सिर्फ हथौड़ी से ठोक रहे हैं तबले को, कस रहे हैं तारों को।
ओंकार
के पाठ को कहा जाता है। मैं भी तुमसे कहूंगा। एक घड़ी चौबीस घड़ी में निकाल ही लेनी
चाहिए जब तुम कुछ भी न करो। खाली बैठ जाओ, ओंठ बंद कर लो, जीभ को तालू से लग जाने दो, रीढ़ सीधी हो और तुम भीतर
ओंकार का नाद करने लगो। ओंकार के नाद को भीतर करने का मतलब है कि तुम ओंठ से आवाज
बाहर मत निकालो। अंदर ही गुंजाओ लेकिन गुंजाओ इतने जोर से कि बाहर लोगों को सुनाई
पड़े। ओंठ से न निकले, सुनाई
जरूर पड़े। तुम्हारे रोएं-रोएं से निकले। तुम एक गूंज बन जाओ।
बड़ा
मीठा अनुभव होता है। भीतर जैसे अमृत झरने लगता है थोड़े ही दिनों में। और यह अभी
असली ओंकार नहीं है। नकली ओंकार इतना कर देता है तो असली की तो बात ही मत करो।
उसकी तो कोई तुलना ही नहीं हो सकती। तुम सिर्फ आंख बंद करके--रीढ़ सीधी इसलिए ताकि
तुम्हारे भीतर सारा शून्य सीधा खड़ा हो जाए और तुम ओंकार को गुंजाने लगो।
जब
श्वास बाहर जाए तो तुम ओंकार की ध्वनि करो--ओम...ओम। जब श्वास भीतर जाएगी तब तो
ध्वनि न कर पाओगे। तो एक रिदिम, एक लय
पैदा हो जाएगी। श्वास बाहर जाएगी। तुम श्वास को ओंकार की ध्वनि से भर दो। फिर
श्वास भीतर जाएगी,
शून्य
रहेगा। फिर श्वास बाहर जाएगी, फिर
ओंकार की ध्वनि करो इतने जोर से कि बाहर कोई गुजरता हो तो सुनाई पड़े। जैसे एक
मधुमक्खियों का जत्था जा रहा हो तो एक गूंज मालूम पड़ती है, ऐसी ही गूंज बाहर मालूम
पड़ेगी। और वह गूंज तुम्हारे शरीर को भी स्वस्थ करेगी, तुम्हारे बिखरे मन को बांधेगी
और तुम्हारे भीतर एक अपूर्व शांति का जन्म होगा और एक मस्ती छा जाएगी।
ध्वनि
की अपनी सुरा है। इसीलिए तो संगीत सुनते-सुनते तुम्हारा सिर हिलने लगता है, जैसे शराबी का हिल रहा हो।
मैंने
सुना है,
लखनऊ
में वाजिद अली के दिनों में ऐसा हुआ, एक बड़ा संगीतज्ञ आया और उसने वाजिद अली से
कहा कि मैं संगीत तो प्रस्तुत करूंगा, लेकिन शर्त है एक--कोई सिर न हिलाए। वाजिद
अली तो पागल था ही। उसने कहा: "तुम फिक्र मत करो। जो सिर हिलाएगा, कटवा देंगे।' गांव में डुंडी पीट दी गई कि
जिसने भी सिर हिलाया, उसका
कट जाएगा। इसलिए अगर सिर हिलाना हो तो आना ही मत।
जहां
सुनने दस हजार लोग आए होते--क्योंकि बड़ा ख्यातिनाम संगीतज्ञ था--वहां मुश्किल से
सौ-पचास आदमी आए और वह भी ऐसे आदमी जिसको अपने पर भरोसा है। हठयोग के साधक होंगे
या इस तरह के लोग,
कसरती, पहलवान, जिनको कि पक्का है भरोसा कि
सिर न हिलने देंगे। क्योंकि खतरा है, वाजिद अली पागल है। मक्खी सिर पर बैठ जाए और
तुम हिला दो तो वह फिर सुनेगा ही नहीं, कि हमने संगीत के लिए नहीं हिलाया था।
तो लोग
बिलकुल सधकर बैठे,
बुद्ध की
प्रतिमाओं की तरह बैठे। संगीत शुरू हुआ। घड़ी भी न बीती होगी। कुछ सिर हिलने लगे, बेतहाशा हिलने लगे। वाजिद अली
तो घबड़ाया खुद भी। उसने सोचा कि वह तो नाहक हत्या हो जाएगी। अब इन नासमझों को
कहलवा दिया,
डुंडी
पिटवा दी,
फिर भी
आ गए हैं,
और
सामने ही बैठे हैं और संगीतज्ञ को भी दिखाई पड़ रहा है।
उसने
नंगी तलवारें लिए आदमी खड़े कर रखे थे। संगीत पूरा हुआ। वे आदमी पकड़ लिए गए। और
वाजिद अली ने कहा संगीतज्ञ को, बोलो, कटवा दूं इनके सिर? उसने कहा कि नहीं, किसी और कारण से मैंने ऐसा
कहा था। बाकी सब को विदा कर दो, अब
इनके साथ रात बिताऊंगा। यही असली हकदार है सुनने के।
क्योंकि
जिनके भीतर संगीत से शराब पैदा न हो जाए, वे भी कोई सुनने वाले हैं? यह तो परीक्षा थी सिर्फ।
क्योंकि अब ये शराब की हालत में हैं, अब ये होश में नहीं हैं। जब तक होश था, तब तक तो ये भी साधे रहे। जब
बेहोशी आ गई,
तब ये
न साध पाए। उन लोगों ने भी कहा, हमने
सिर हिलाए नहीं,
सिर
अपने से हिले। हम तो अपनी तरफ से न हिलाने की ही जिद किए थे। हमने तो कई बार रोकने
की भी कोशिश की,
मगर
परवश! सिर था कि हिले जा रहा है, जैसे
हमारा हिस्सा ही न हो।
तुमने
शराबी को चलते देखा है? वह
काफी संभलकर चलता है। कोई आदमी इतना संभल के नहीं चलता, जितना शराबी संभल के चलता है।
क्योंकि उसको पता है कि वह डांवाडोल हो रहा है। वह बहुत संभल के चलता है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है?
संगीत
की अपनी सुरा है;
वैसी
सूक्ष्म कोई भी सुरा नहीं। और सब शराबें स्थूल हैं।
अगर
तुमने अपने भीतर ओंकार के नाद को गुंजाया--और ध्यान रखना कि यह तुम्हारा नाद है; अभी तुम्हें असली नाद का पता
ही नहीं है--तो भी तुम्हारे भीतर एक मस्ती पैदा होगी; तुम एक मदमस्ती में जीने
लगोगे। तुम चलोगे और ढंग से! स्फूर्ति और होगी!उठोगे और ढंग से! आंखों में एक नशा
छाया रहेगा,
जैसे
जिंदगी में एक पहली दफा उत्सव की घड़ी आई है।
अगर
तुम इस तरह ओंकार की ध्वनि करते रहो, करते रहो, करते रहो, किसी दिन अचानक तुम पाओगे कि
तुम्हारी धुन तो जारी है ही, एक और
धुन तुम्हारे भीतर पैदा हो रही है। यह उसी दिन पैदा होती है जिस दिन तुम्हारी वीणा
पूरी कस जाती है और तैयार होती है; साज राजी होता है। उस दिन तुम पाओगे, एक धुन तो तुम कर रहे हो, जो अब कुछ भी नहीं है; एक फीका स्वर है, कार्बन कापी है। असली धुन अब
पैदा हो रही है। तब तुम अपनी धुन को बंद कर देना। तब तुम सुनने वाले बन जाना। अब
तक तुम कर्ता थे;
अब तुम
सुनने वाले बन जाना; अब तुम
आंखें गड़ा लेना भीतर। अब तुम प्राणों को थाम लेना। क्योंकि भीतर जो घट रहा है, वह अपूर्व है; वह अतुलनीय है; उसकी कोई उपमा नहीं है। भीतर
अमरस की धार बहने लगेगी। रोआं-रोआं किसी अपूर्व प्रकाश से भर जाएगा। अंधकार गया!
दुर्दिन गए;
महासुख
बरसेगा! मिलन का क्षण करीब आ गया।
ओंकार
तुम शुरू करो। मगर तुम खींचे मत जाना और प्रतीक्षा करना उस दिन की जिस दिन भीतर का
ओंकार फूटने लगे। उस दिन तुम जिद्द मत करना अपने ओंकार को थोपने की। उस दिन तुम
बिलकुल चुप हो जाना। तुम्हारा ओंकार तो सिर्फ आयोजन था, ताकि रास्ता बन जाए उस ओंकार
के बहने के लिए;
ताकि
तुम्हारे यंत्र में मार्ग बन जाए उस ओंकार को झेलने के लिए। तुम्हारा ओंकार तो
सिर्फ पूर्वत्तैयारी थी, रिहर्सल
था; असली नाटक तो तब शुरू होता है
जब तुम्हारा ओंकार तो गया और उसका ओंकार शुरू हुआ--एक ओंकार सतनाम!
"दादू सबदै ही सचु पाइए'--और उस घड़ी में ही सत्य से
मिलन है। "सबदै ही संतोष'--और संतोष उस सत्य की छाया है। उसके पहले तुम लाख संतोष की बातें
करों, तुम्हारा संतोष सांत्वना है, संतोष नहीं। और सांत्वना को
भूलकर संतोष मत समझना। वह तो बड़ी नपुंसक स्थिति है। सांत्वना नपुंसक स्थिति है; संतोष महा ऊर्जा से भरी हुई
घड़ी है।
तुम भी
सोचते हो कि संतोष है। तुम भी कहते हो कि जो है, सब ठीक है; लेकिन जैसा तुम कहते हो, जो है सब ठीक है, उसमें भी शिकायत मौजूद है।
जरा भीतर झांककर देखोगे तो पाओगे, कुछ भी
ठीक नहीं हो। कह रहे हैं--मन को समझा रहे हैं। न कहेंगे तो कोई हटने वाला नहीं
हैं। दुख और नाहक फजीहत होगी, और लोग
भी जान लेंगे। तुम किसी तरह झूठी मुस्कुराहट अपने दुख के सरोवर के चारों तरफ बांध
रखते हो। किसी तरह अपने को संभाले रखते हो, कि सब ठीक है।
कुछ भी
ठीक नहीं है। ठीक हो भी नहीं सकता। सत्य के बिना कभी कुछ ठीक हुआ भी नहीं है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि तुम संतोष साधो, मैं तो कहता हूं, तुम ओंकार साधो। ओंकार के
साधने से सत्य आएगा।
सत्य
की छाया है संतोष;
सत्य
के पीछे चला आता है। जिसको सत्य से मिलन हो गया वह संतुष्ट हो जाता है। उसके पहले
संतुष्ट हो भी कैसे सकते हो? और
दुर्भाग्य होगा अगर संतुष्ट हो जाओ। क्योंकि अगर संतुष्ट हो गए तो फिर सत्य को कौन
खोजेगा?
फिर तो
खोज ही बंद हो गई।
इसलिए
परमात्मा की बड़ी कृपा है कि सत्य से पहले वह तुम्हें संतुष्ट नहीं होने देता। अगर
तुम संतुष्ट हो गए हो तो यात्रा ही समाप्त हो गई। धर्म संतोष नहीं है; धर्म महा-असंतोष है, असंतोष की प्रबल ज्वाला है।
अग्नि की भट्टी की तरह तुम जलोगे तुम असंतोष में और तभी कभी यात्रा पूरी हो सकती
है। तुम जल्दी संतोष की करते हो।
मेरे
पास लोग आते हैं,
वे
कहते हैं,
जल्दी
संतोष मिल जाए। संतोष इतनी जल्दी मिल जाए तो दुर्भाग्य होगा। फिर तुम वहीं बैठ
रहोगे जहां हो,
फिर
तुम आगे न बढ़ोगे। तो मैं तुमसे कहता हूं, बाहर की चीजों में चाहे संतोष साध लेना; भीतर के जगत में संतोष मत
साधना।
ठीक है
मकान छोटा है,
समझा
लेना कि ठीक है,
चल
जाएगा काम,
क्योंकि
ऐसे तो बड़े से भी नहीं चलता। बड़ा भी मिल जाएगा तो भी छोटा ही रहेगा। जो भी मिल जाए, वह छोटा हो जाता है। असल में
छोटे की एक ही परिभाषा है--जो तुम्हारे पास है, वह छोटा है। जो दूसरे के पास है, वह बड़ा है। और तो कोई परिभाषा
नहीं है छोटे की। इसलिए जो भी मिलेगा, छोटा हो जाएगा।
ठीक है, बाहर के काम में संतोष साध
लेना; लेकिन भीतर के जगत में जब तक
परमात्मा न मिल जाए, उससे
कम पर राजी मत होना। उससे कम पर अगर तुम राजी हो गए तो चूक जाओगे।
तुमने
पढ़ी है कथा?
नचिकेता
को उसके पिता ने भेज दिया यम के द्वार पर। यम तीन दिन बाद आया। यम की पत्नी ने
बहुत कहा कि तू कुछ भोजन कर ले, विश्राम
कर ले। उसने कहा कि नहीं। पहले तो जिस काम से आया हूं, वह निपटाऊं। अभी कैसा विश्राम? अभी कैसा भोजन? कहीं भोजन, विश्राम में भूल न जाऊं, पहले तो मिलना है।
द्वार
पर ही नचिकेता को यम मिला। इस छोटे से लड़के की ऐसी अदम्य जिज्ञासा देखकर यम का
हृदय भी पसीज गया। वह सबसे कठिन हृदय होना चाहिए, क्योंकि मृत्यु का देवता है
यम। वह भी पसीज गया। उसने कहा, तू
मांग ले--घोड़े-हाथी, धन-दौलत, हीरे-जवाहरात। नचिकेता ने कहा, "इनके मिल जाने से तृप्ति होगी?' यम मुश्किल में पड़ा। उसने
कहा: "तू साम्राज्य मांग ले सारी पृथ्वी का, चक्रवर्ती बन जा।' पर नचिकेता ने कहा:
"मेरे सवाल का जवाब दें। उससे मैं संतुष्ट हो जाऊंगा?'
यम झूठ
न बोल सका। जिज्ञासा प्रबल हो, मृत्यु
भी झूठ नहीं बोल सकती। जिज्ञासा गहन हो तो यम भी धोखा नहीं दे सकता। इस छोटे बच्चे
को धोखा देना मुश्किल था। उसने कहा कि नहीं, यह तो मैं भी न कह सकूंगा। नहीं, इससे संतोष तो न मिलेगा। तू
अनंत काल तक जीवन मांग ले। तुझे जितना जीना हो उतना जीना।
पर वह
नचिकेता अपनी जिद पर अड़ा रहा। उसने कहा कि उससे क्या होगा? एक दिन तो फिर आखिर मैं
मरूंगा क्या इससे अमृत मिल जाएगा--लंबा जीवन? अमृत का मिलन हो जाएगा? संतुष्ट हो जाऊंगा?
यम ने
कहा, तू जिद्दी है। नहीं, उससे भी संतोष न मिलेगा?
तो
नचिकेता ने कहा,
जब आप
दे ही रहे हैं वरदान ऐसे उदार हृदय से, तो मुझे वही रास्ता बता दें जिससे अमृत मिल
जाए, और संतुष्टि हो जाए।
नचिकेता
की तरह बैठे रहना द्वार पर जीवन के, जब तक कि संतुष्टि न मिल जाए। तब तक जीवन
कुछ भी दे--कई भुलावे देगा जीवन--कहना कि ठीक है सब, धन्यवाद! पर अपने भुलावे अपने
पास रखो। मेरे अग्नि मेरे पास, मेरी
प्यास मेरे पास,
मेरी
जलन मेरे पास,
मेरा
विरह मेरे पास,
जलूंगा; लेकिन अब वर्षा तो वही चाहिए
जो आखिरी हो। इन छोटी-मोटी वर्षाओं से क्या होगा? फिर आग पैदा होगी, फिर जलूंगा। आखिरी वर्षा
चाहिए।
इसलिए
मैं कहता हूं,
धर्म
असंतोष है,
महा
असंतोष है,
दिव्य
असंतोष है--डिवाइन डिसकंटेंटमेंट। और जो उस असंतोष से गुजरता है, वही किसी दिन संतोष को उपलब्ध
हो पाता है लेकिन संतोष सीधा नहीं मिलता। वह तुम्हारी चेष्टा से नहीं मिलता।
"दादू सबदै ही सचु पाइए, सबदै ही संतोष।
सबदै
ही स्थिर भया,
सबदै
भागा सोक।।'
उस
ओंकार की ध्वनि में ही सत्य से मिलन होता है, संतोष आ जाता है। उस ओंकार की धुन में ही
स्थिरता आती है,
स्थिर
हो जाता है प्राण,
सारी
चंचलता खो जाती है, सारी
भाग-दौड़,
आपा-धापी
मिट जाती है,
और उसी
क्षण--"सबदै ही भागा सोक'--और सारा दुख तिरोहित हो जाता है।
जानने
वालों की दृष्टि में चंचलता दुख है। जानने वालों की दृष्टि में थिर हो जाना सुख
है। जो थिर है वह सुखी है। जो दौड़ रहा है, भाग रहा है, वह दुखी है। तुम सोचते हो
उलटा। तुम्हारा तर्क यह है कि दुखी हूं, इसलिए भाग रहा हूं। और तुम किसी को बैठे
देखते हो,
किसी
बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे, तुम
कहते हो,
सुखी
है इसलिए बैठा है।
मामला
उलटा है। यह बैठा है इसलिए सुखी है। तुम दौड़ रहे हो इसलिए दुखी हो। तुम भी बैठकर
देखो। तुम कहते हो, बैठूं
कैसे?,
जब तक
सुख न मिलेगा हम बैठेंगे न। तब तो सुख कभी मिलेगा नहीं, क्योंकि वह बैठने से मिलता
है। तुम कहते हो,
अभी
अगर दौड़-धूप बंद कर दी तो क्या होगा? अभी तो बहुत सुख बाकी पड़े हैं। दुख ही दुख
जीवन में पाए हैं;
थोड़ा
तो सुख ले लेने दो; थोड़ा
तो दौड़ लेने दो,
थोड़ा
तो कुछ पा लेने दो-फिर बैठ जाएंगे।
किसी
ने कभी दौड़कर कुछ पाया? इतिहास
में कोई सबूत है,
एकाध
भी? किसी ने कभी दौड़कर कुछ नहीं
पाया। दौड़कर खोया भला, पाया
नहीं। जिन्होंने पाया बैठकर पाया। बैठ जाने की कला ही बड़ी भारी कला है। बस तुम बैठ
जाओ। दौड़ो मत। थिर हो जाओ। उसको कृष्ण ने गीता में स्थितप्रज्ञ कहा है--जिसकी
प्रज्ञा ठहर गई;
ऐसे
ठहर गई जैसे किसी भवन में जिसके द्वार-दरवाजे बंद हों, हवा के झोंके न आते हों और
दीए की ज्योति थिर होकर जलती है, कंपती
नहीं--ऐसी जिसकी प्रज्ञा ठहर गई।
"सबदै ही स्थिर भया, सबदै ही भागा सोक।।'
"दादू सबदै ही मुक्ता भया'--शब्द से ही मुक्त हुआ। सबदै
समझै प्राण--और शब्द से ही जीवन का रहस्य जाना। "सबदै ही सूझै सबै'--शब्द से ही आंख खुली, सूझना शुरू हुआ। "सबदै
सुरझै जाण'--वह बड़ी नाजुक बात है। उसे
इशारे से कहते हैं।
यहूदियों
में एक पुराना रिवाज है कि परमात्मा का नाम मत लो, क्योंकि नाम लेना बहुत सीधा
हो जाता है शोभा नहीं देता। भारत में रिवाज हैं कि पत्नी पति का नाम नहीं लेती।
शोभा नहीं देता। थोड़ा सा बेहूदा लगता है। इतना सीधा? न, प्रेम नाजुक बात है। पत्नी
पति का नाम नहीं लेती। भक्त भगवान का नाम नहीं लेता।
संत
उसको बार-बार शब्द कहते हैं, इशारा
करते हैं।
"सबदै ही सूझै सबै, सबदै सुरझै जाण।'
"पहली किया आप थें, उतपत्ती ओंकार।'
दादू
कहते हैं,
परमात्मा
से जो पहली होने की घटना घटी, वह है
ओंकार,
जो
पहला उदघोष हुआ,
वह है
ओंकार,
जो
पहली सृष्टि हुई,
वह है
ओंकार;
जो
पहली लहर उठी,
वह है
ओंकार।
ध्यान
रखना, परमात्मा में जो पहली लहर है, वही तुममें अंतिम लहर होगी, अगर परमात्मा में जाना है।
ओंकार पहली लहर है परमात्मा की अर्थात, हुआ, परमात्मा संसार में आया; स्रष्टा सृष्टि बना, लहर उठी। अगर तुम्हें वापस
जाना है तो उसी मार्ग से लौटाना होगा। ओंकार अंतिम बात होगी तुम्हारे जीवन में।
उसके आगे परमात्मा है। उसके आगे फिर कुछ भी नहीं है। जिस दिन ओंकार भी शांत हो जाएगा, और महाशून्य रह जाएगा, उस दिन सिर्फ परमात्मा रह
जाएगा;
उस दिन
तुम परमात्मा हो।
"पहली किया आप थे, उतपत्ती ओंकार।
ओंकार
थें उपजे,
पंच
तत्त आकार।।'
और
दादू कहते हैं कि फिर ओंकार से पांच महा तत्व पैदा हुए--पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि इत्यादि। सारा संसार
फिर उसी शब्द की,
अलग-अलग
जोड़ों से निर्मित हुआ।
"दादू सबदै बाण गुरु साध के, दूरि दिसंतर जाइ।
जेहि
लागै सो उबरै,
सुते
लिए जगाइ।।'
"दादू सबदै बाण गुरु साध के'--और उसी ओंकार को गुरु अपनी
प्रत्यंचा पर साधता है। उसी ओंकार को गुरु बाण की तरह अपने जीवन की प्रत्यंचा पर
साधता है,
खींचता
है।
"सबद बाण गुरु साध के'--और फिर कोई भी दिशा, और कितनी ही दूरी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर
शिष्य राजी है तो कहीं भी हो, गुरु
का बाण उसे छेद देता है।
"दूरि दिसंतर जाइ।'--क्योंकि उस ओंकार की ध्वनि के
लिए न तो कोई दिशा है, न कोई
दूरी है। अगर शिष्य खुला है और राजी है, और हृदय के वातायन उसने खोल रखे हैं तो तीर
लग जाएगा। तीर पहले तो पीड़ा देगा, पहले
तो मारेगा,
फिर
जिलाएगा। और फिर ऐसा जिलाएगा कि फिर कोई मरना नहीं होता। तो वह तीर मृत्यु भी है
और पुनर्जीवन भी।
"दादू सबद बाण गुरु साध के, दूरि दिसंतर जाइ।
जेहि
लागै सो उबरै,
सुते
लिए जगाइ।।'
जिसको
लग जाता है बाण वह उबर जाता है।
"सुते लिए जगाइ--' इसे थोड़ा समझें। जो सो रहे
हैं, उन्हें बाण मारकर जगा लिया।
दो
बातें हैं;
अगर
शिष्य राजी न हो और गुरु बाण मारे तो ज्यादा--से ज्यादा सोए को जगा सकता है। अगर
शिष्य राजी हो और गुरु बाण मारे तो उबार ले सकता है, परम मुक्ति घटित हो सकती है।
अगर शिष्य राजी न हो, तो फिर
सो जाएगा। अगर शिष्य राजी हो तो फिर कोई सोने का उपाय न रहा। वही मुक्ति का अर्थ
है। मुक्ति का अर्थ है, ऐसे
जागे ऐसे जागे कि फिर कोई सोना न रहा, फिर सोने का कोई उपाय न रहा!
तो
बहुत बार गुरु तब भी बाण मारता है जब तुम राजी नहीं हो, तब तुम्हें सिर्फ जगाता है।
उतना तो गुरु अपनी तरफ से भी कर सकता है कि तुम्हें थोड़ा हिला दे, कंपा दे और जगा दे। अगर तुम
इस जागने का उपयोग कर लो और राजी हो जाओ तो दूसरी घटना भी घट सकती है। लेकिन वह
तुम पर निर्भर है।
कोई भी
व्यक्ति किसी दूसरे को उसकी इच्छा के खिलाफ मुक्त नहीं कर सकता। और स्वभावतः यह
ठीक भी है। क्योंकि अगर कोई तुम्हें मुक्त भी जबर्दस्ती कर दे तो वह मुक्ति ही
क्या रही! अगर तुम मुक्त भी तुम्हारी इच्छा के खिलाफ किए जा सको तो वह तो गुलामी
हो गई।
तो
मुक्ति की परम घटना तुम्हारे राजी होने से ही घटती है। लेकिन तुम्हें जगाया जा
सकता है,
तुम्हें
हिलाया जा सकता है, तुम्हें
चौंकाया जा सकता है। और अगर तुम थोड़े भी समझदार हो तो उस चौंकाई हुई हालत का तुम
उपयोग कर लोगे। अगर तुम बिलकुल नासमझ हो तो तुम फिर करवट लेकर सो जाओ और शायद गुरु
को एक गाली भी दोगे कि क्यों नाहक नींद खराब कर रहे हो; अपना काम देखो और हमें सोने
दो।
"दादू सबद बाण गुरु साध के, दूरि दिसंतर जाइ।
जेहि
लागै सो ऊबरै,
सुते
हलए जगाई।।'
"सबद सरोवर सुभर भरया, हरि जल निर्मल नीर।'
वह जो
शब्द का सरोवर है,
वह
लबालब भरा है परमात्मा के जल से।
"हरि जल निर्मल नीर'
"दादू पीवै प्रीति सौं, तिनकै अखिल सरीर।' और जो उसे प्रेम से पी लेते
हैं, वे अखिल ब्रह्म के साथ एक हो
जाते हैं।
उस जल
को पीने की कला प्रेम है। तुम उसे अपनी प्यास के कारण भी पी सकते हो; लेकिन तब परमात्मा का तुम
उपयोग कर रहे हो। तुम उसे प्रेम से भी पी सकते हो, तब तुम परमात्मा को समर्पित
हो रहे हो।
इसे
थोड़ा समझ लो। तुम ऐसी भी प्रार्थना कर सकते हो कि तुम चाहो कि परमात्मा तुम्हारे
काम आ जाए। तब तुम्हारी जरूरत महत्वपूर्ण है, परमात्मा गौण है। और जिसने परमात्मा को गौण
रखा, वह नास्तिक है। और तुम इसलिए
भी प्रार्थना कर सकते हो, क्योंकि
परमात्मा की प्रार्थना आनंद है। वह तुम्हारा प्रेम है। तुम इसलिए नहीं कि कुछ
चाहते हो,
इसलिए
नहीं कि कुछ हो जाएं; सिर्फ
इसलिए प्रार्थना करते हो जैसे कि कोई प्रेम करता है।
तुमने
कभी पूछा कि प्रेम किसलिए करते हो? तुम कहोगे, बस प्रेम प्रेम के लिए, प्रार्थना प्रार्थना के लिए, ध्यान ध्यान के लिए।
दादू
कहते हैं: "दादू पीवै प्रीति सौं'--जो प्रेम से पीता है--प्रेम का मतलब ही यह
है कि जो साधन की तरह नहीं पीता, बल्कि
साध्य की तरह पीता है। तिनके अखिल सरीर'--वह ब्रह्मांड के साथ एक हो जाता है। उसकी सब
दूरी मिट जाती है,
फासले
गिर जाते हैं। वह एक बूंद की तरह उस सागर में उतर जाता है। वह सागर पूरा का पूरा
उस बूंद में उतर जाता है।
कहां
से शुरू करो?
यात्रा
की शुरुआत है तुम्हारे ओंकार के नाद से। तुम्हारा ओंकार का नाद सिर्फ तैयारी है, पूर्वत्तैयारी है। फिर जब
असली नाद उठने लगे और तुम्हारी वीणा उस नाद से थिरकने लगे, तब अपने हाथ खींच लेना, तब तुम एक अनूठे अदृश्य अनाहत
संगीत से भर जाओगे। तुम नादब्रह्म से भर जाओगे। उस भरी हुई अवस्था में नशा होगा
एक।
उमर
खय्याम उसी शराब की बात कर रहा है। वह कोई इस संसार की शराब की बात नहीं कर रहा
है। तब तुम मदमाते जीओगे। तब तुम्हारे उठने बैठने में रस छलकेगा। तुम्हारे पास जो
आ जाएगा,
तुम्हारी
गंध जिसको छू जाएगी, वह नशे
में डूब जाएगा और नाचने लगेगा।
उस
मदमस्त दशा को ही जो पा लेता है उसे सत्य की प्रतीति होनी शुरू होती है। उस बेहोशी
में ही मिलता है सत्य, क्योंकि
वह बेहोशी ही सबसे बड़ा जागरण है। और जिसको मिला सत्य--संतोष सत्य की छाया है--उसके
जीवन में परम संतोष छा जाता है।
परमात्मा
को साध्य समझना,
साधन
नहीं। प्रेम से पीना, कारण
से नहीं। लाभ की दृष्टि से मत सोचना, नहीं तो वंचित रह जाओगे। उपयोगिता का भाव ही
मत ले जाना वहां। जो उपयोगिता से चलता है, वह हमेशा बाजार में पहुंच जाएगा, मंदिर कभी नहीं आ सकता।
उपयोगिता के सभी रास्ते बाजार की तरफ जाते हैं। वहां तो प्रेम के दीवानों की बस्ती
है। मंदिर की तरफ आना हो तो पागल प्रेमियों की तरफ आना होता है।
"दादू पीवै प्रीति सौं, तिनकै अखिल सरीर।
सबद
सरोवर सुभर भरया,
हरि जल
निर्मल नीर।।'
वह
सरोवर तुम्हारी प्रतीक्षा करता है। जिस क्षण तुम राजी हो जाओगे, अचानक पाओगे, आंख के सामने ही सरोवर है।
जिस क्षण तुम्हारे भीतर का अनाहत बज उठेगा, अचानक पाओगे, सब तरफ वही सरोवर है। हैरान
होओगे,
इतने
दिन तक कैसे चूकते रहे। मछली सागर में प्यासी!
कबीर
कहते हैं: "एक अचंभा मैंने देखा!' वह अचंभा यह है कि मछली सागर में प्यासी है।
वह अचंभा तुम्हारे संबंध में है। वह अचंभा मैं भी देखता हूं। चारों तरफ सरोवर भरा
है। तुम सरोवर में ही पैदा हुए हो। तुम्हारे रोएं-रोएं में सरोवर की तरंगें हैं।
तुम सरोवर हो और प्यासे!
आज इतना ही।
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