मंगलवार, 14 मार्च 2017

पिव पिव लागी प्‍यास-(दादू दयाल)--प्रवचन-06

पिव पिव लागी प्‍यास—(दादू दयाल)


जिज्ञासा-पूर्ति: तीन –(प्रवचन—छट्ठवां)  
दिनांक १६.७.१९७५, प्रातःकाल,
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार:
1— क्या भय नकारात्मक होते हुए भी सोए को जगाने या होश को बढ़ाने में सहायक है?
2— क्या एक कवि काव्य-सर्जना के साथ-साथ ध्यान की साधना भी आवश्यक है?
3—धैर्य भी असीम हो; क्या ये दोनों स्थितियां असंगत नहीं हैं?
4— सब मन के रोग प्रेम की कमी से पैदा होते हैं।
5— नचिकेता की तरह जीवन के द्वार पर दृढ़ होकर बैठ जाना है।


पहला प्रश्न: क्या भय नकारात्मक होते हुए भी सोए को जगाने या होश को बढ़ाने में सहायक है? बहुत से झेन गुरु, शिष्यों को क्यों हमेशा डंडे से ही भयभीत करते हैं? बहुत बार आपने भी हमें ऐसी कहानियां सुनाई हैं और डंडा भी मारा है।

झेन गुरु डंडे का उपयोग करते हैं लेकिन तुम्हें भयभीत करने को नहीं। गुरु के हाथ में डंडा देखकर तुम्हें भय लग सकता है। यह तुम्हारी व्याख्या है। यह तुम्हारी भूल है।
गुरु के हाथ में डंडा देखकर तुम भयभीत हो जाते हो क्योंकि डंडे में तुमने सदा भय ही देखा है, गुरु का प्रेम नहीं, करुणा नहीं। उस तरफ तुम्हारी आंखें अंधी हैं। और उस तरफ तुम्हारे हृदय में कोई संवेदना नहीं होती।
गुरु डंडा उठाता है करुणावश--तुम्हें भयभीत करने को नहीं, तुम्हें जगाने को। चोट भी करता है। तुम्हें मिटाने को नहीं, तुम्हें बनाने को। मारता भी है ताकि तुम्हें जिला सके। लेकिन तुम्हें तो लगेगा भय। तुम्हें तो हर चीज से भय लगता है। क्योंकि भय तुम्हारे भीतर है। और जब तक तुम्हारे भीतर का भय न मिट जाए तब तक तुम गुरु की करुणा को समझ भी नहीं पाओगे। उसकी करुणा भी तुम्हें भयभीत करती ही मालूम पड़ेगी।
बहुत बार मुझसे लोग पूछते हैं कि झेन गुरुओं ने तो डंडा उठाया है लेकिन ऐसा भारत में जैन गुरु हुए हैं, बौद्ध गुरु हुए हैं, हिंदू गुरु हुए है; उन्होंने तो ऐसा डंडा नहीं उठाया। क्या कारण है?
कारण इतना ही है कि झेन गुरु की करुणा तुम्हारे गुरुओं से ज्यादा है। भारत के गुरुओं की एक धारणा है--वह है, तटस्थ होने की। तुम्हारे प्रति एक तटस्थता को साधने की उनकी दृष्टि है। तुम लाभ ले सको तो ले लो; न ले सको, तुम्हारी मर्जी। लेकिन भारतीय परंपरा, भारतीय गुरु सीमा से बाहर जाकर तुम्हें लाभ पहुंचाने की चेष्टा न करेगा। वह उदासीन रहेगा।
करुणा की कमी है। क्योंकि करुणा उदास नहीं हो सकती। और करुणा उदासीन भी नहीं हो सकती। करुणा तो आएगी तुम्हारे मार्ग में। तुम्हें खींचेगी तुम सोए हो, तो तुम्हें हिलाएगी।
भला तुम्हें अपनी नींद में लगे, कि यह तो मेरा सपना तोड़ दिया। कितना प्यारा सपना था! भला तुम्हें नींद में लगे कि यह आदमी तो दुष्ट है, हिंसक है। मेरी सुखद-सुहावनी नींद थी, नष्ट कर दी, चौंका दिया। सपने में तो प्रकाश से भरा था, जागकर तो रात अंधेरी मालूम पड़ती है। सपने में थोड़ी बहुत रोशनी थी वह भी इस आदमी ने बुझा दी और जगाकर इस महाअंधकारपूर्ण रात्रि में छोड़ दिया।
यह तुम्हारी दृष्टि है क्योंकि तुम्हें जागने का अभी रस ही नहीं है। तुम्हें जागने का अभी पता ही नहीं है। तुम्हें यह भी पता नहीं है, कि सपने के प्रकाश से जागने का अंधकार करोड़ गुना मूल्यवान है, क्योंकि सत्य है। मूल्य तो सत्य का है। तुम्हें डराने को नहीं, तुम्हें जगाने को झेन गुरुओं ने डंडा उठाया है।
और यह भी ठीक है कि मैंने भी तुम्हें बहुत बार डंडे मारे हैं। उतने स्थूल नहीं, कि तुम्हारा सिर तोड़ दें। लेकिन तुम्हारा अहंकार तोड़ सकें, उतने सूक्ष्म जरूर! उतने स्थूल नहीं, कि तुम्हारे शरीर को चोट पहुंचाएं लेकिन उतने सूक्ष्म जरूर, कि तुम्हारे भीतर छिद जाएं और हृदय तक तीर की तरह पहुंच जाएं। निश्चित ही मैंने वे डंडे मारे हैं।
लेकिन अगर तुम्हें लग गए होते तो यह प्रश्न न उठता। वे लगे नहीं। मेरी तरफ से कोशिश जारी रही, तुम्हारी तरफ से बाधा जारी रही। तो ऐसा भी हो सकता है, कोई तुम्हें जगाए, हिलाए, लेकिन तुम न जागो। तुम और जिद में गहरी नींद में सो जाओ। तुम जाग भी जाओ तो आंख न खोलो, और जिद पकड़ लो आंख को बंद ही रखने की। नहीं जागने की जैसे तुमने कसम खा ली है। तो हिलाकर भी तो तुम्हें नहीं जगाया जा सकता। और जो आदमी सोया हो वह तो जगाया भी जा सकता है लेकिन जिसने सोए रहने की जिद कर रखी हो, वह तो जागा ही हुआ है, सिर्फ अहंकार की वजह से सो रहा है, उसे तो उठाना भी बहुत मुश्किल है।
सच है! मैंने भी तुम्हें डंडे मारे हैं, लेकिन तुम्हें लगे नहीं। जिस दिन लग जाएंगे उस दिन डंडे नहीं रह जाएंगे। उसी दिन तुम पाओगे कि डंडा तो खो गया। एक करुणा की वर्षा तुम पर हो जाएगी। उस दिन जो कांटे की तरह लगा था कल तक, अचानक फूल हो जाएगा। उस दिन गुरु का डंडा तुम्हारे ऊपर फूलों की वर्षा मालूम होगी। तो यह प्रश्न न उठता।
तुम भी तैयार होओ, थोड़ा अपने को उघाड़ो, ताकि डंडा तुम्हारे मर्म-स्थल में लग जाए। मैं तुम्हें रोज-रोज डंडे मारता हूं, तुम रोज-रोज मलहम-पट्टी करके वापिस आ जाते हो। तुम फिर वही हो। तुम्हें थोड़ा चौंकाता हूं, तुम करवट लेकर फिर सो जाते हो।
काफी समय ऐसे ही व्यतीत किया। और ज्यादा समय किसी के भी हाथ में नहीं है। कोई भी नहीं जानता, कल होगा, नहीं होगा! इसलिए कल पर बहुत भरोसा मत करो। आज ही उपयोग कर लो। जागना है, आज ही जाग जाओ, कल पर मत टालो।
लेकिन क्षुद्र बातों के लिए आदमी विराट बातों को टाले चला जाता है। दुकान है, बाजार है, परमात्मा को टाल देता है, मोक्ष को टाल देता है। नोनत्तेल, लकड़ी खरीदना है, उसमें निर्वाण को छोड़ देता है।
एक छोटे से स्कूल में ऐसा हुआ, शिक्षक पूछ रहा था बच्चों से, कि तुममें से जो स्वर्ग जाना चाहते हों, हाथ ऊपर कर दें। एक को छोड़कर सबने हाथ ऊपर कर दिए। शिक्षक थोड़ा हैरान हुआ। उसने पूछा, कि अब तुममें से जो नर्क जाना चाहते हों वे हाथ ऊपर कर दें। किसी ने भी हाथ ऊपर न किया, उसने भी नहीं, जो स्वर्ग के समय भी हाथ नीचे रखे बैठा रहा था। शिक्षक ने उससे पूछा, तेरी क्या मर्जी है? न तुझे स्वर्ग जाना है, न तुझे नर्क जाना है, तुझे जाना कहां है? उसने कहा, मेरी मजबूरी यह है, कि मेरी मां ने घर से चलते वक्त कहा, स्कूल से छुट्टी होते ही सीधे घर आना।
स्वर्ग को छोड़ने को राजी हो तुम क्योंकि कुछ छोटी-मोटी बात कहीं इस संसार में अटकी रह गई है जिसे पूरा करना है। छुट्टी होते ही घर लौटकर आना है!
पर ऐसा भी होता, कि तुम बिलकुल ही सोए होते तो भी ठीक था। बिलकुल ही जो सोए हैं वे तो यहां आए ही नहीं। तुम्हारी नींद में थोड़ा सा भान आना शुरू हो गया है। तुम्हारी नींद गहरी नहीं है अब। जरा सी...जरा सी हिम्मत, जरा से साहस और सहयोग की जरूरत है, कि तुम जाग जाओगे।
और सोकर तो कुछ भी किसी ने कभी पाया नहीं है; सिर्फ खोया है। और जागकर सब मिल जाता है। कुछ-कुछ पाने को शेष नहीं रह जाता है।
यह सौदा बड़ा सस्ता है। खोते तुम कुछ भी नहीं, पाते सब हो। फिर भी तुम हिम्मत नहीं जुटा पाते हो। यह गणित बिलकुल सीधा है।
जब मेरा डंडा तुम्हारे सिर पर पड़े तो तुम बचाव मत करना। उसे पड़ ही जाने देना। और जब तुम्हारे हृदय में तीर लगे तो तुम रुकावट मत डालना, तुम उसे छिद ही जाने देना। तुम मलहम-पट्टी बंद करो। तुम मरने को राजी हो जाओ क्योंकि वही पुनर्जन्म है। वही पुनरुज्जीवन का सूत्र है।

दूसरा प्रश्न: क्या एक कवि को भीतर प्रविष्ट होने के लिए काव्य-सर्जना के साथ-साथ ध्यान की साधना भी आवश्यक है? यदि आवश्यक है, तो रवींद्रनाथ और खलील जिब्रान ने अपने जीवन में कौन सी ध्यान-साधना का आश्रय लिया? यदि आवश्यक नहीं, तो बताएं कि काव्य-सृजना ही कैसे जीवन-साधना बन जाए, कि कवि को एक चोर की भांति भीतर न घुसना पड़े। वह भी एक अतिथि की तरह मंदिर में प्रविष्ट होने का आनंद अनुभव कर सके।

दो बातें: पहली, अगर कवि जन्मजात प्रतिभा का है, तब तो किसी साधना की कोई जरूरत नहीं। और अगर कवि केवल तुकबंद है, कोशिश कर करके कविता बना लेता है, व्यवस्था और शास्त्र से भला वह कवि हो, प्राण से और आत्मा से कवि नहीं है, तो ध्यान-साधना की जरूरत पड़ेगी।
प्रतिभा से कवि का अर्थ है, जन्मजात स्फुरण। उसका अर्थ है, अनंत जन्मों में सौंदर्य की जो अभिलाषा, अनंत जन्मों में सौंदर्य का जो अनुभव, अनंत-अनंत जन्मों में अनंत-अनंत प्रकार से सौंदर्य को पीने का जो उपाय उसने किया है, वह अब उस जगह आ गया है, कि उसका घट भर गया है। अब घट इतना भरा हुआ है, कि ऊपर से बह रहा है; वही काव्य है प्रतिभाजन्य कवि में ।
रवींद्रनाथ या खलील जिब्रान प्रतिभाजन्य कवि हैं। वे अगर कविता न भी लिखते तो भी कवि थे। बुद्ध ने कोई कविता नहीं लिखी लेकिन बुद्ध कवि हैं। उनके उठने में काव्य है, उनके बैठने में काव्य है, उनकी मुद्रा-मुद्रा कविता है, उनकी आंख की पलक का हिलना एक महाकाव्य है। उनकी आंख के पलक के सामने कालिदास फीके होंगे। उनके उठने की मधुरिमा में बड़े से बड़े कवि हार जाएंगे। उनका जीवन काव्य है।
जरूरत नहीं है, कि प्रतिभाजन्य कवि कविता लिखे ही। उसके होने में उसके रोएं-रोएं में काव्य सिक्त होता है। वह बोलता है तो कविता बोलता है। चुप होता है, तो उसकी चुप्पी में काव्य होता है।
तो बहुत प्रतिभाजन्य कवियों ने कविता लिखी ही नहीं। जीसस, बुद्ध, जरथुस्त्र, लाओत्से--कोई कविता नहीं लिखी। लेकिन जो भी उन्होंने कहा है, वह सभी काव्य है। नहीं कहा है, वह भी काव्य है। उनसे कुछ और निकल ही नहीं सकता। जैसे गुलाब के पौधे से गुलाब का फूल निकलता है, ऐसे उनसे जो निकलता है वह काव्य है। उनमें से कुछ ने कविता की है। उपनिषद के ऋषियों ने की है, वेद के ऋषियों ने की है। उन्होंने अनूठे छंद गाए। वह गौण बात है, वे गाएं, न गाएं।
लेकिन प्रतिभाजन्य अगर क्षमता हो, तो कोई और साधना की जरूरत नहीं है। काव्य ही तब पर्याप्त साधना है। तब सौंदर्य ही तुम्हारा सत्य है। तब सौंदर्य ही तुम्हारा परमात्मा है; उससे अन्य कोई भी नहीं। तब तुम सौंदर्य को खोजते-खोजते ही सत्य के पास पहुंच जाओगे। तब तुम गीत को साधते-साधते ही पाओगे, कि गीतकार भी सध गया।
इसे थोड़ा समझना। थोड़ा बारीक है। जब गीतकार गीत को साधता है, तो अकेला गीत थोड़े ही साधेगा, गीतकार भी सधेगा। जब चित्रकार चित्र को बनाता है, तो अकेला चित्र थोड़े ही बनेगा, चित्रकार भी साथ-साथ बनेगा। दोनों का जन्म साथ-साथ होगा।
ऐसा समझो, कि एक स्त्री को बच्चा पैदा हुआ; तुमने एक तरफ से देखा है, तो तुम कहते हो, कि बच्चे का जन्म हुआ। दूसरी तरफ से देखो, तो मां का भी जन्म हुआ क्योंकि इसके पहले वह मां न थी। दो जन्म हैं उस दिन। बच्चा तो एक तरफ से देखने पर तुम कहते हो। दूसरी तरफ से मां भी जन्मी हैं। क्योंकि अब तक वह एक साधारण स्त्री थी। मां और स्त्री में बड़ा फर्क है। मां होना एक अलग ही अनुभव है, जो साधारण स्त्री को उपलब्ध न था। मां होना तो ऐसे है, जैसे वृक्ष में फल लगते हैं। मां न होना ऐसा था जैसा वृक्ष बिना फल का रह जाता। एक बांझ दशा थी, जिसमें फूल न लगे, फल न लगे। एक पीड़ा थी। मां तो एक खिलाव है। जिस दिन बच्चा पैदा होता है, उस दिन दो जन्मते हैं। एक तरफ बच्चा, उस तरफ मां।
लेकिन दुनिया एक ही को देखती है क्योंकि मां का जन्म बड़ा सूक्ष्म है। उसके लिए न तो अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत मालूम पड़ती है, न चिकित्सक की जरूरत पड़ती है, न दाई की। वह बड़ी सूक्ष्म भाव-दशा है। भीतर चुपचाप घटित हो जाता है। स्त्री विलीन हो जाती है, मां का आविर्भाव हो जाता है। जहां कल तक एक साधारण स्त्री थी, वहां अब एक मां है--भरी-पूरी!
जब कवि कविता को साधता है, तो कविता ही थोड़ी सधती है! दुनिया कविता को देखेगी। गहरी आंख होगी, तो उसके साथ-साथ कवि भी पैदा हो रहा है, कवि भी सध रहा है। चित्रकार भी पैदा हो रहा है चित्र के साथ। मूर्तिकार मूर्ति के साथ। तुम जो भी करते हो उससे तुम्हारा जीवन निर्मित हो रहा है। तुम जब भी स्रष्टा बनते हो, तब तुम्हारे भीतर परमात्मा करीब आ रहा है। परमात्मा का स्वरूप है स्रष्टा होना। तो जब भी तुमने कुछ सृजन किया तुम परमात्मा के पास पहुंचे। अगर तुम स्रष्टा हो गए, तो तुम परमात्मा हो गए।
परमात्मा को स्रष्टा कहना बड़ी मधुर बात है। इस कारण नहीं, कि उससे कोई दर्शनशास्त्र की पहेली सुलझती है। नहीं, कुछ भी नहीं सुलझता। उलझन और बढ़ जाती है। मेरे लिए परमात्मा को स्रष्टा कहने का अर्थ बिलकुल ही दूसरा है। वह अर्थ यह है, उसमें परमात्मा पर जोर नहीं है, स्रष्टा पर जोर है। वह अर्थ यह है, कि जो भी स्रष्टा हो जाएगा, वह परमात्मा हो जाएगा। स्रष्टा होना परमात्मा का गुणधर्म नहीं है, परमात्मा का स्वभाव है।
जब भी तुम कुछ निर्मित कर पाते हो तब एक पुलक, तब एक आनंद एक अहोभाव तुममें भर जाता है। अभागे हैं वे लोग, जो अपने जीवन में कुछ भी सृजन नहीं कर पाते। जिन्होंने न कभी कुछ बनाया, न कभी बनाने का आनंद जाना। जिन्होंने कभी कुछ सृजन न किया, दो पंक्तियां गीत की पैदा न हुईं, एक मूर्ति न बनी, एक चित्र न उभरा जिनके जीवन में कुछ सृजन जैसी घटना न घटी। ऐसे लोग अभागे हैं।
तो अगर सौंदर्य की दिशा खुली है जन्म के साथ, तब तो किसी और साधना की जरूरत नहीं। तब कला ही ध्यान हो जाएगी। तब तुम कला में डूब-डूबकर ही उसे पा लोगे, जो परम कलाकार है। तब कला ही तुम्हारा मार्ग होगी।
परमात्मा तक पहुंचने के तीन मार्ग हैं। एक मार्ग है, सत्य के खोजी का। ध्यान उसकी प्रक्रिया है। दूसरा मार्ग है, सौंदर्य के खोजी का--कला! इतना लीन हो जाना कला में, कि कलाकार मिट जाए। उसकी प्रक्रिया है। और तीसरा है, शिवम्। सत्यम्, सुंदरम्, शिवम्।
शिवम् का अर्थ है शुभ। वह जीवन को निखारने और पवित्र करने की प्रक्रिया है। उसे योग कहो, तंत्र कहो, वह जीवन को निखारने की प्रक्रिया है शुभ की दिशा में। तुम धीरे-धीरे अपने को पवित्र और कुंआरा करते चले जाते हो। तुम सारी अपवित्रता छोड़ देते हो। तुम ऐसे हो जाते हो, जैसे सद्यस्नात, सदा ही स्नान किए हुए हैं।
अगर नीतिशास्त्र अपनी परम ऊंचाई पर पहुंचे तो वह शिवम् का मार्ग है। तब तुम आचरण को शुद्ध करते हो, परिशुद्ध करते हो, निखारते हो। निखारते-निखारते एक दिन तुम पाते हो, तुम खो गए, सिर्फ आचरण की आभा बची। सिर्फ ज्योति बची, धुआं न रहा।
या सौंदर्य को खोजते हो तुम और सौंदर्य में लीन हो जाते हो। इतने लीन हो जाते हो, कि तुम बचते ही नहीं। तुम्हारी रेखा भी नहीं बचती। या तुम सत्य को खोजते हो तब तुम ध्यान में लीन होते हो।
सार की बात इतनी है, कि हम तीनों मार्गों पर अगर गौर से खोजेंगे तो एक ही सूत्र काम करता है, वह है, लीनता, तल्लीनता, डूब जाना। ये तीन मार्ग तीन नहीं हैं। दुनिया में तीन तरह के लोग हैं, मार्ग तो एक ही है। मगर जब तीन तरह के लोग चलते हैं तो वे तीनों अपने-अपने ढंग से चलते हैं।
बुद्ध भी उसी मार्ग पर चलते हैं, जिस पर रवींद्रनाथ चलते हैं। लेकिन बुद्ध सत्य की धारणा करते हैं, रवींद्रनाथ सौंदर्य की। अगर तुम बुद्ध से पूछोगे, तो वे कहेंगे सौंदर्य तभी सुंदर है, जब वह सत्य हो। अगर तुम रवींद्रनाथ से पूछोगे तो वे कहेंगे, सत्य तभी सत्य है, जब वह सुंदर हो। बस, इतना फर्क होगा। रवींद्रनाथ सौंदर्य के आधार पर सब तौलेंगे; बुद्ध सत्य के आधार पर सब तौलेंगे।
महावीर का मार्ग शिवम् का मार्ग है। वे पवित्र आचरण को निखारते चले जाते हैं। अगर तुम उनसे पूछोगे, तो वे कहेंगे जो शुभ है, वही सत्य है। इसलिए महावीर के मार्ग पर अहिंसा महत्वपूर्ण हो गई, सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गई। क्योंकि हिंसा ही अशुभ है। अहिंसा शुभ है। बुद्ध के मार्ग पर ध्यान सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया। जैन तो धीरे-धीरे भूल ही गए ध्यान करना। क्योंकि उसका कोई संबंध ही न रहा--आचरण...!
रवींद्रनाथ या खलील जिब्रान--सौंदर्य, रस, उसका स्वाद!
ये तीन तरह के लोग हैं दुनिया में। यह त्रिवेणी है। मगर ये तीनों उस तीर्थ पर मिल जाते हैं, जहां परमात्मा है। वहां संगम हो जाता है।
तो जो प्रतिभाजन्य कवि है, प्रतिभा-संपन्न कवि है, उसे तो कुछ साधने का सवाल ही नहीं है। लेकिन अगर कोई तुकबंद है--अब इसे थोड़ा समझ लेना। अगर कोई तकनीकी रूप से कवि है, और ऐसा हो सकता है कि बड़ा कवि हो, सारी दुनिया को धोखा दे दे, अपने को धोखा न दे पाएगा। और अगर दुनिया को धोखा देने के कारण भरोसा कर ले कि मैं कवि हूं, तो बड़ी भ्रांति में पड़ जाएगा।
क्योंकि या तो काव्य बहता है हृदय की रस-धार से, या मस्तिष्क से तुम काव्य का निर्माण करते हो। हृदय से तो होता है सृजन, क्रिएशन; और मस्तिष्क से होता है कंस्ट्रक्शन, निर्माण। इन दोनों में बड़ा फर्क है। क्रिएशन और कंस्ट्रक्शन का फर्क बड़ा भारी है।
सृजन का तो अर्थ होता है, शून्य से लाना अस्तित्व को। जहां कुछ भी न था, वहां अचानक शून्य से कुछ अवतरित होता है। तुम भी नहीं थे और शून्य से कुछ उतरता है, वहां तो काव्य है, असली काव्य है। और दूसरा एक काव्य है, जहां तुम्हारा मस्तिष्क काम करता है। तुम जमाते हो, खोजते हो, सुंदर शब्द बिठाते हो, व्याकरण, छंद का शास्त्र, सब तरह से मात्राएं, संगीत सब व्यवस्थित कर देते हो, कि कोई तुम्हारे गीत को देखे, तुम्हारी कविता को देखे, तो एक भूल न निकाल पाए। लेकिन वह कविता वैसी ही है, जैसे किसी मुर्दे को कोई डाक्टर जांचे और एक भी बीमारी न खोज पाए। माना, कि बीमारी बिलकुल नहीं है, मुर्दा बिलकुल स्वस्थ है, लेकिन मुर्दा है।
दुनिया में सौ कवियों में निन्यानबे तुकबंद होते हैं। उनमें से कई तो बहुत प्रसिद्ध हो जाते हैं क्योंकि तकनीकी ढंग से उनकी कुशलता बड़ी प्रगाढ़ होती है। कभी-कभी तो ऐसा होता है, असली कवि उनके सामने फीका पड़ जाता है। क्योंकि असली कवि व्याकरण और छंद के पूरे नियम पालन नहीं कर पाता। असली कवि पूरी तरह अनुशासनबद्ध नहीं हो पाता। असली कवि के भीतर ऐसी धारा बह रही है बांध तोड़कर बहने लगती है, सीमाएं छोड़ देती है। वह पूर आई नदी है। वह नियम नहीं मानती। इतने जोर से आती है धारा, कि कवि खुद बह जाता है; कौन नियम को सम्हाले!
लेकिन जो नकली कवि है, वह नियम को बांध लेता है। वह एक-एक हिसाब से सारी चीज सजाकर रख देता है। उसके काव्य में तुम्हें भूल न मिलेगी--काव्य भी न मिलेगा। सब नियम पूरा होगा, प्राण न होंगे। लाश सजी हुई रखी हुई होगी--बिलकुल असली का धोखा दे। प्लास्टिक के फूल होंगे, जो कभी न मुर्झाएंगे।
और कभी-कभी ऐसे लोग बहुत लोगों को धोखा दे देते हैं, क्योंकि साधारण आदमी की काव्य की पहचान कहां? साधारण आदमी का काव्य से संबंध क्या? लेकिन ऐसे लोग चाहे कितने ही महत्वपूर्ण हो जाएं, ज्यादा देर तक उनका महत्व टिकता नहीं, खो जाता है। पुच्छल तारों की तरह वे किसी रात में चमकते हैं और विलीन हो जाते हैं। ध्रुव तारा वे नहीं हो पाते, ऐसा अगर तुम्हारा काव्य हो, कि तुम तुकबंदी कर रहे हो, तुम चेष्टा-आयोजन कर रहे हो, तुम अपनी तरफ से निर्माण कर रहे हो, तो फिर तुम्हें ध्यान की जरूरत पड़ेगी। ऐसा काव्य काफी नहीं होगा। ऐसा काव्य वस्तुतः काव्य है ही नहीं। वह एक उपक्रम है, अनायास नहीं है।
अंग्रेजी का महाकवि कूलरिज जब मरा, तो उसके घर में चालीस हजार कविताएं अधूरी पाई गई। उसने जीवन में कुल सात कविताएं पूरी कीं। उसके मित्रों ने सैकड़ों बार उससे कहा, कि तुम सात कविताओं के बल पर महाकवि हो गए हो; अगर तुम्हारी ये सारी कविताएं पूरी हो जाएं तो संसार में तुम्हारा मुकाबला ही न रहेगा किसी भाषा में।
लेकिन कूलरिज कहता, कि पूरा करना मेरे बस में नहीं है। ये सात भी मैंने पूरी नहीं की हैं। नहीं तो मैं तो फिर चालीस हजार पूरी कर देता। ये उतरी हैं। जितनी उतरती है, उतनी मैं लिख देता हूं। मैं तो केवल माध्यम हूं। कभी तीन पंक्तियां उतरती हैं, तो तीन लिख देता हूं। चौथी नहीं उतर रही है, मैं क्या करूं? राह देखता हूं, प्रतीक्षा करता हूं, कभी उतरती है, दो-चार साल बाद अचानक चौथी कड़ी आ जाती है, तब मैं लिख देता हूं। मैं अपनी तरफ से नहीं जोड़ता। चौथी मैं जोड़ सकता हूं। तीन तैयार हैं, चौथी जोड़ दूं, पद पूरा हो जाएगा, लेकिन वह मेरी होगी और वह थेगड़े की तरह अलग मालूम पड़ेगी। वह परमात्मा से नहीं आई है।
ऐसा हुआ, कि रवींद्रनाथ ने जब गीतांजलि का अंग्रेजी में अनुवाद किया, तो वे संदिग्ध थे। क्योंकि कविता मातृ-भाषा में ही पैदा हो सकती है। दूसरे की भाषा में आयोजन करना ही होगा। वह सहज नहीं हो सकता। तो उन्होंने सी. एफ. एंड्रूज़ को अपना अनुवाद दिखलाया। एंड्रूज़ ने कहा, सब ठीक है, सब ठीक है, सिर्फ चार जगह व्याकरण की भूलें हैं। एंड्रूज़ पंडित थे, भाषा के ज्ञाता थे। रवींद्रनाथ ने अहोभाव माना, कि उन्होंने भूलें बता दीं। उन्होंने वे भूलें सुधार लीं।
फिर लंदन में अंग्रेजी के बड़े कवि ईट्स ने एक छोटा सा मित्रों का समूह बुलाया था--कवियों की एक गोष्ठी; रवींद्रनाथ को सुनने के लिए। रवींद्रनाथ ने कविताएं अपनी सुनाईं। ठीक उन्हीं चार जगहों पर अंग्रेज कवि ईट्स ने कहा, और तो सब जगह ठीक है, नदी ठीक बहती है, चार जगह कुछ अड़चन आ गई। चार जगह ऐसा लगता है, चट्टान पड़ गई, कुछ बाधा है।
रवींद्रनाथ तो चौंके क्योंकि वह तो उनके अतिरिक्त किसी को भी पता नहीं है, कि चार जगह सी. एफ. एंड्रूज़ का हाथ है। फिर भी उन्होंने पूछा, वे कौन सी चार जगह हैं? ईट्स ने ठीक वे ही चार स्थान बता दिए, जो एंड्रूज़ ने सुधरवा दिए थे, कि इनमें काव्य नहीं है। भाषा का गणित पूरा बैठ गया, व्याकरण ठीक बैठ गई, लेकिन काव्य की धारा टूट गई। तो रवींद्रनाथ ने अपने शब्द जो उन्होंने पहले रखे थे वे बताए। ईट्स ने कहा, कि ये ठीक हैं। भाषा की भूल है, लेकिन काव्य सरलता से बहता है। चलेगा! काव्य भाषा की फिक्र नहीं करता। काव्य के पीछे भाषा आती है।
तो अगर तुम गणित में कुशल हो काव्य के, उतने से काफी न होगा, क्योंकि तुम उसमें डूब न पाओगे। वह तुम्हारे प्राणों की पूरी पूर्णता न बन पाएगी। तुम्हारे प्राण पूरे-पूरे नाच न सकेंगे उसमें। तुम दूर ही खड़े रहोगे। तुम्हें बिना छुए तुम्हारा काव्य निकल जाएगा। स्नान न हो पाएगा। तो ध्यान कैसे होगा? तो तुम्हें ध्यान अलग से करना होगा।
इसलिए ठीक कवि को अपने भीतर सोच लेना चाहिए, काव्य मेरी चेष्टा तो नहीं है! क्योंकि अक्सर ऐसा होता है। जवानी में सभी कविताएं करते हैं। तुकबंदी कौन नहीं कर सकता है? फिर कुछ तो उससे छुट जाते हैं, झंझट से कुछ उलझ जाते हैं।
मेरे गांव में जब मैं छोटा था तो बहुत कवि थे, एक हवा आ गई थी काव्य की, और घर-घर में कविता होती थी। और हर सात-आठ दिन में एक कवि-सम्मेलन होता। तो जो भी थोड़ी बहुत तुकबंदी कर सकता था, वह भी लिखने लगा। क्योंकि जब सभी कवि हो रहे थे तो कौन पीछे रह जाता! और बड़ी वाहवाही होती थी, क्योंकि गांव के लोग सुनने इकट्ठे होते। उनको कविता का कोई अ ब स तो पता नहीं, तुकबंदी का ही मजा था। तुकबंदी खूब गतिमान थी।
फिर धीरे-धीरे वे सब कवि खो गए। अभी मैं पीछे एक दफा गांव गया तो मैंने पता लगाया, कि वे जो पंद्रह बीस कवि थे गांव में, वे सब कहां हैं? सब नोनत्तेल-लकड़ी में लग गए। उनमें से कोई कवि न बचा। वे कहां गए? उनमें से कोई कवि था भी नहीं। जवानी का एक उभार था।
काव्य भी जवानी का एक उभार है। जब तुम्हारे हृदय में प्रेम के अंकुर आने शुरू होते हैं, तब तुम्हें लगता है, तुम भी कविता कर सकोगे। तब तुम्हें लगता है, बिना कविता किए तुम न रह सकोगे। तब तुम भी गाना चाहते हो।
मगर वह गुनगुनाहट बाथरूम की गुनगुनाहट है, उसे तुम बाहर मत लाना। सभी कवि नहीं हैं, सभी कवि होने को नहीं है। अपने घर गुनगुनाना, कोई स्त्री तुम्हारी कविता सुनने को राजी हो, उसको सुना देना, लेकिन उसको बाहर मत ले आना। वह तुकबंदी है। और बाहर की प्रशंसा कभी-कभी अटका देती है।
मैंने एक कवि के संबंध में सुना है कि वह अपने जीवन के अंत में किसी को कह रहा था, कि मैं बड़ी उलझन में पड़ गया कविताएं करके। जिंदगी मेरी बरबाद हो गई इन कविताओं में। जब शुरू किया था तब तो मैं सोचता था, कि मैं कवि हूं। दस साल लग गए यह बात समझने में, कि मैं कवि नहीं हूं। तो उसके मित्र ने पूछा, अगर समझ गए थे कि कवि नहीं, तो फिर बंद क्यों न कर दिया? उसने कहा, तब तक मैं काफी प्रसिद्ध हो चुका था; फिर बंद करना मुश्किल था। फिर अहंकार दांव पर लग गया। पूरी जिंदगी बरबाद हो गई।
अक्सर ऐसा होता है, जब तुम भूल समझ पाते हो तब तक भूल के कारण ही तुम्हारी इतनी प्रतिष्ठा हो चुकी होती है, कि अब तुम पीछे भी कैसे लौटो? लोग तुम्हें कवि मानने लगे, महाकवि मानने लगे, चित्रकार मानने लगे। कोई तुम्हें साधु मानने लगा, कोई तुम्हें संन्यासी मानने लगा, अब ये लोग तुम्हें झंझट में डाल देते हैं। अब तुम लौट नहीं सकते।
अगर कविता केवल तुकबंदी हो--कोई हर्जा नहीं है शब्दों खेलने में, मजे से खेलो! लेकिन तब ध्यान अतिरिक्त चाहिए। अकेला काव्य काम न दे सकेगा और तुम प्रभु के मंदिर में अतिथि की तरह प्रवेश न कर पाओगे।

तीसरा प्रश्न: आपने उस दिन कहा, कि प्रभु मिलन के लिए प्यास तीव्रतम हो और साथ ही धैर्य भी असीम हो; क्या ये दोनों स्थितियां असंगत नहीं हैं?

असंगत दिखाई पड़ती हैं; है नहीं। उनमें बड़ी गहरी संगति है। थोड़ा समझना पड़े।
ऊपर-ऊपर असंगत मालूम पड़ती हैं, भीतर जुड़ी हैं, भीतर सेतु है। समझे; वस्तुतः अगर प्यास बहुत गहरी हो, तो धैर्य बहुत गहरा होगा ही। क्योंकि बहुत गहरी प्यास का अर्थ ही यही होता है, बहुत गहरा भरोसा। जब तुम बहुत गहरी प्यास से परमात्मा के लिए भरे हो तो गहरी प्यास तभी हो सकती है, जब तुम्हारा भरोसा है, कि परमात्मा है। नहीं तो गहरी प्यास कैसे होगी?
अगर तुम्हें जरा भी संदेह है परमात्मा के होने में, तो प्यास होगी ही नहीं। या ऊपर से चिपकाई गई होगी। असली न होगी, प्राण उससे जुड़े न होंगे। बौद्धिक होगी, समग्र न होगी। एक खंड कहता होगा, ठीक है, खोज लो; शायद हो! लेकिन बाकी हिस्सा कहते रहेगा, व्यर्थ परेशानी में पड़े हो।
तो तुम घड़ीभर भी प्रतीक्षा न कर सकोगे। घड़ीभर भी तुम्हें बैठने को कहा जाए तो वह हिस्सा विरोध में है और जो कहता है मुझे भरोसा नहीं है, वह कहेगा, क्यों समय नष्ट कर रहे हो? एक घंटाभर खराब हुआ। इतनी देर में कितने नोट नहीं बनते, कितना बैंक में बैलेंस जमा नहीं हो जाता, इतनी देर में क्या नहीं कर गुजरते! क्यों बैठे नाहक समय खराब कर रहे हो?
अगर प्यास गहरी है, तो उसका अर्थ ही यह होता है, कि भरोसा परम है। परम भरोसे के बिना प्यास गहरी नहीं हो सकती। "है परमात्मा'--ऐसी बड़ी गहन धारणा है। ऐसी धारणा, धारणा नहीं रह गई है, तुम्हारे प्राणों का उच्छवास हो गया है। सांस लेते हो, श्वास जाती है, आती है और वही परमात्मा का भाव डोलता रहता है।
तब तो तुम कितनी ही प्रतीक्षा कर पाओगे। तब तो तुम कहोगे जन्मों-जन्मों बैठा रहूं तब भी तुम यह कभी न कहोगे, कि बहुत देर हो गई प्रतीक्षा करते। "बहुत देर' में शिकायत है। और "बहुत देर' में यह भाव है कि मैं इतनी देर से प्रतीक्षा कर रहा हूं। तुम इतनी देर प्रतीक्षा करने योग्य हो भी? घड़ीभर ठीक थी, दो घड़ी ठीक थी, दिनों बीत गए, महीनों बीत गए, जन्म बीत गए, तुम इतने योग्य भी हो, कि तुम्हारे लिए इतनी प्रतीक्षा करूं?
अगर परमात्मा पर भरोसा उठ आए तो उसकी योग्यता का ऐसा भाव होता है, कि अनंत काल तक भी प्रतीक्षा करूं और फिर तुम मिलो, तब भी ऐसा ही लगेगा कि मुफ्त मिल गए, बिना कुछ किए मिल गए। क्या, किया क्या था? खाली बैठे रहे थे। हाथ में माला चला ली थी, राम-नाम की चदरिया ओढ़ ली थी; किया क्या था? बैठे-बैठे मिल गए। तब तुम कहोगे, प्रसाद रूप परमात्मा का मिलन हुआ है। अपनी पात्रता न थी और मिलना हुआ है। उसकी महाकरुणा से मिलना हुआ है, अपनी योग्यता से नहीं।
इसलिए ध्यान रखो, तीव्रतम प्यास और असीम ध्यान और असीम धैर्य दोनों में असंगति नहीं है, बड़ी गहरी संगति है। और जिसकी तीव्र प्यास है, वही प्रतीक्षा कर सकता है। अब यह बड़े मजे की बात है। लेकिन तुम्हारे मन में ऐसा नहीं होता, उलटा होता है।
एक और प्रश्न है, जिस प्रश्न में यह पूछा गया है, कि मेरा धैर्य तो असीम है, लेकिन प्यास गहरी नहीं है।
अगर प्यास गहरी नहीं है, तो जिसे तुम धैर्य समझ रहे हो, वह धैर्य नहीं है। तुम असल में मांग ही नहीं रहे हो, तो प्रतीक्षा करने का सवाल ही क्या है? तुमने मांगा ही नहीं है, तुमने चाहा ही नहीं है, अभीप्सा ही नहीं जगी, तो धैर्य का सवाल कहां उठता है? जिस व्यक्ति ने मांगा नहीं, वह कह सकता है, ठीक है, बहुत धैर्य है, हम प्रतीक्षा कर सकते हैं। वस्तुतः उसकी आकांक्षा नहीं है, इसलिए वह तटस्थ है, उदासीन है। वह कहता है, होगा जब हो जाएगा। उसे फिक्र ही नहीं है। वह दो कौड़ी का मानता है इस बात को, कि होगा कि नहीं होगा।
इस उदासीनता को तुम धैर्य मत समझ लेना। धैर्य उदासी नहीं है। धैर्य नकारात्मक अवस्था नहीं है, धैर्य बड़ी पाजिटिव, बड़ी विधायक अवस्था है।
दूसरा एक प्रश्न है, कि प्यास तो बहुत तीव्र है, लेकिन धीरज बिलकुल नहीं है। तो भी प्यास प्यास नहीं है, वासना है। तो भी तुम भूल कर रहे हो। तब वह भी तुम्हारा लोभ है। जैसे तुम संसार की और चीजें पाना चाहते हो, ऐसे ही परमात्मा को भी पाना चाहते हो। जैसे और सब चीजों पर तुमने कब्जा कर लिया है, मुट्ठी बांध ली, तुम दुनिया को दिखाना चाहते हो, मेरी मुट्ठी में बड़ी कार ही नहीं है, परमात्मा भी है। बड़ा मकान ही नहीं है, धन-दौलत ही नहीं है, परमात्मा को भी बांध दिया है खंभे से। ये भी मेरी सेवा में लगे हैं। तब तुम जिसे प्यास कह रहे हो वह प्यास नहीं है, वह लोभ है, वासना है।
क्या फर्क होता है प्यास और लोभ में? प्यास में तुम जलते हो, अहंकार गलता है। एक ऐसी घड़ी आती है, कि प्यास की अग्नि में तुम बिलकुल ही शून्य हो जाते हो। अहंकार बिलकुल ही पिघल जाता है। वासना में अहंकार बढ़ता है। वासना में अहंकार बढ़ता है, मजबूत होता है। जितनी वासना तृप्त होने लगती है, उतना अहंकार मजबूत होने लगता है। प्यास अहंकार की मृत्यु है और वासना अहंकार का भोजन है। उसे तुम गौर से देखना।
तुम परमात्मा को कहीं अहंकार की एक सजावट की तरह ही तो नहीं चाहते हो? कि तुम छाती फैलाकर सड़क पर चल सको, कि देखो, परमात्मा को भी न छोड़ा!
लोग अजीब-अजीब हैं। कोई किसी स्त्री को प्रेम करता है, प्यास होती है किसी की। मगर हो सकता है, किसी की प्यास नहीं होती; सिर्फ सुंदर स्त्री को साथ सड़क पर लेकर चलने का भाव होता है, कि देख लो। सबसे सुंदर स्त्री मेरे पास है। वह स्त्री को भी सिर्फ अहंकार का एक प्रसाधन समझ रहा है।
बहुत लोग हैं, वे स्त्रियों के लिए गहने लाते हैं--स्त्रियां समझती हैं, वे उनके लिए गहने लाते हैं। वे गलती में हैं। वे स्त्रियों पर गहने चढ़ाते हैं, वे भी अपने अहंकार पर चढ़ाते हैं। उनकी स्त्री पर हीरे चढ़े हैं। क्लब में जब वे जाएंगे, तब देख ले सारी दुनिया, कि उनकी स्त्री पर हीरे चढ़े हैं। मैंने चढ़ाए हैं! पुरुष बड़ा अदभुत है। वह खुद हीरे-जवाहरात नहीं पहनता, स्त्री को पहना देता है। स्त्री खूंटी है, जिस पर वह टांगे रखता है। सुंदर स्त्री, हीरे-जवाहरात चढ़े--यह सब अहंकार का ही प्रसाधन है। और स्त्रियां बड़ी मस्ती में उनके साथ चलती हैं। नासमझ हैं। वे समझती हैं, यह हार उन्हीं के लिए लाया गया है। ये हीरे-मोती उन्हीं के लिए जुटाए गए हैं।
जरा भी उनके लिए नहीं जुटाए गए हैं। यह समाज की आंखों के लिए हैं और स्त्री के माध्यम से पुरुष अपने अहंकार को खड़ा कर रहा है।
क्या तुम परमात्मा को भी ऐसा ही चाहते हो, कि वह भी तुम्हारे अहंकार में एक आभूषण बन जाए? अगर तुम ऐसे ही चाहते हो, तो तुम जिसे प्यास समझ रहे हो, वह प्यास नहीं है। और तब धैर्य नहीं हो सकता। वासना में कहां धैर्य? वासना बड़ी अधीर, बड़ी अधीर है। वासना कहती है, अभी, इसी वक्त चाहिए। प्यास बड़ी गंभीर हैं, प्यास बड़ी गहरी है। प्यास कहती है जब भी मिलोगे, तभी जल्दी है। वासना कहती है, जब भी मिलोगे, तभी देरी हो चुकी।
तो इस सब को छांटना जरूरी है तुम्हारे भीतर। अगर तुम मेरी बात समझ लो, तो जब सच्ची प्यास होगी, तो सच्चा धैर्य भी होगा। प्यास के साथ धैर्य होता ही है। इसको तुम कसौटी समझ लो। इन दो में से एक हो, तो कुछ गड़बड़ है। अगर ये दोनों साथ हों, तो ही समझना, कि ठीक-ठीक तार जुड़े; अब वीणा बज सकती है; अब परमात्मा के हाथ इस वीणा से संगीत उठा सकते हैं; अब साज बैठ गया। जैसे वीणा के तार दो तरफ खूंटियों में बंधे होते हैं, ऐसे तुम्हारी वीणा के तार जब दो खूंटियों में बंध जाएं--गहरी प्यास और गहरी प्रतीक्षा; तब समझना कि बस, अब वीणा तैयार है। अब संगीत पैदा हो सकता है।
असंगति जरा भी नहीं हैं। असंगति तुम्हें दिखाई पड़ती है क्योंकि तुम्हें दो में से कोई भी एक को साधना आसान मालूम पड़ता है। या तो तुम साध सकते हो प्यास को, क्योंकि वासना बन जाए प्यास तो कोई दिक्कत नहीं है। या तुम साध सकते हो प्रतीक्षा को। अगर उदासीनता हो, तो तुम्हें मतलब ही नहीं। मिले, न मिले; तुम बड़े प्रतीक्षा कर रहे हो।
यह बड़ा गहरा संगीत है, दो विपरीत के बीच उठनेवाली बड़ी गहरी लयबद्धता है। जहां एक तरफ तुम गहरे प्यास से भरे हो--और प्यास ऐसी, कि एक क्षण खो न जाए; और साथ ही तुम प्रतीक्षा से भरे हो, कि अनंत काल भी अगर प्रतीक्षा करनी पड़े, तो भी मैं राजी हूं।
क्यों, ये दोनों का मेल हो सकता है? प्यास तुम्हारी है, तुम्हारे कारण है; प्रतीक्षा उसके कारण है। प्रतीक्षा उसके कारण है, कि वह इतना विराट है, कि जल्दी की मांग बचकानी होगी। वह इतना महान है, कि यह कहना, कि अभी आ जाओ, नासमझी होगी, मूढ़ता होगी। तैयार होना होगा, अपने पात्र को खाली करना होगा।
प्रतीक्षा उसके स्वभाव के कारण, प्यास अपने स्वभाव के कारण। प्यास अपने अनुभव के कारण, कि जीवन के सब घाटों से पानी पी लिया, प्यास नहीं बुझी। जब सब घाट छान डाले, प्यास नहीं बुझी। सब सरोवर छान डाले प्यास नहीं बुझी। ऐसा कोई जीवन-अनुभव न छोड़ा, जहां प्यास के बुझने की जरा भी आशा दिखाई पड़ी, सपना झलका, वही गए, लेकिन खाली हाथ लौटे। सारा जीवन मृगमरीचिका सिद्ध हुआ, इसलिए प्यास! अब तुझसे ही बुझेगी।
लेकिन अधैर्य नहीं। क्योंकि अधैर्य का मतलब यह होता है, कि मैं पात्र होऊं या न होऊं, तू अभी मिल। धैर्य का अर्थ होता है, कि मेरी पात्रता सधेगी, तब तो तू मिल ही जाएगा। अगर देर होती है, तो तेरे कारण नहीं; देर होती है, तो मेरी पात्रता के कारण। प्यास को जगाऊंगा, पात्रता को संभालूंगा और प्रतीक्षा करूंगा। जिस दिन भी पात्रता हो जाती है, फिर क्षणभर की देर नहीं होती।
कहावत है भारत में--"देर है, अंधेर नहीं!' वह बड़ी बहुमूल्य है। देर है तुम्हारे कारण; और अंधेर नहीं हो सकता क्योंकि वह है। उसके होने के कारण अंधेर नहीं हो सकता। देर हो सकती है तुम्हारे कारण। अगर अंधेर होता, तो उसके कारण होता। लेकिन अस्तित्व सदा राजी है। जिस दिन तुम राजी हो, उसी दिन तार मिल जाता है।
भरो प्यास से और भरो प्रतीक्षा से भी। प्यास और प्रतीक्षा को साथ लो एक साथ, एक लयबद्धता में। जिस दिन भी सब ठीक बैठ जाता है, उसी दिन तुम पाते हो, संसार बिदा हो गया। सब तरफ परमात्मा खड़ा है।

चौथा प्रश्न: मुझे ऐसा समझ में आया, कि आपने परसों कहा कि सब मन के रोग प्रेम की कमी से पैदा होते हैं।

निश्चित ही मन के सभी रोग प्रेम की कमी से पैदा होते हैं। लेकिन इस सत्य को समझना पड़े। जीवन में तीन घटनाएं हैं, जो बहुमूल्य हैं: जन्म, मृत्यु और प्रेम। और जिसने इन तीनों को समझ लिया उसने सब समझ लिया। जन्म है शुरुआत, मृत्यु है अंत, प्रेम है मध्य। जन्म और मृत्यु के बीच जो डोलती लहर है, वह प्रेम है।
इसलिए प्रेम बड़ा खतरनाक भी है। क्योंकि उसका एक हाथ तो जन्म को छूता है और एक हाथ मृत्यु को। इसलिए प्रेम में बड़ा आकर्षण है और बड़ा भय भी। प्रेम में आकर्षण है जीवन का, क्योंकि उससे ऊंची जीवन की कोई और अनुभूति नहीं है।
इसलिए जीसस ने तो परमात्मा को प्रेम कहा। वस्तुतः प्रेम को परमात्मा कहा। बड़ी ऊंची तरंग है उसकी। उससे ऊंची कोई तरंग नहीं। कोई गौरीशंकर प्रेम के गौरीशंकर से ऊपर नहीं जाता। इसलिए बड़ा उद्दाम आकर्षण है प्रेम का। क्योंकि प्रेम जीवन है। लेकिन बड़ा भय भी है प्रेम का, क्योंकि प्रेम मृत्यु भी है।
इसलिए लोग प्रेम करना भी चाहते हैं और बचना भी चाहते हैं। यही मनुष्य की विडंबना है। तुम एक हाथ बढ़ाते हो प्रेम की तरफ और दूसरा खींच लेते हो। क्योंकि तुम्हें जहां जीवन दिखाई पड़ता है उसी के पास लहर लेती मृत्यु भी दिखाई पड़ती है।
जो लोग जीवन और मृत्यु का विरोध छोड़ देते हैं, वे ही लोग प्रेम करने में समर्थ हो पाते हैं; जो यह बात समझ लेते हैं कि जीवन और मृत्यु विरोधी नहीं है। मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, वरन जीवन की ही परिपूर्णता है, परिसमाप्ति है। मृत्यु जीवन की शत्रु नहीं है, वरन जीवन का सार है, निचोड़ है। मृत्यु जीवन को मिटाती नहीं, थके जीवन को विश्राम देती है। जैसे दिनभर के श्रम के बाद रात्रि का विश्राम है, ऐसे जीवनभर के श्रम के बाद मृत्यु का विश्राम है।
मृत्यु के प्रति शत्रुता का भाव अगर तुम्हारे मन में है, तुम कभी प्रेम न कर पाओगे क्योंकि प्रेम में मृत्यु भी जुड़ी है। प्रेम संतुलन है जीवन और मृत्यु का, जन्म और मृत्यु का।
तो आकर्षित तो तुम होओगे लेकिन डरोगे भी। बढ़ोगे भी; बढ़ोगे भी नहीं। चाहोगे भी और इतना भी न चाहोगे, कि कूद पड़ो, छलांग ले लो। हमेशा अटके रहोगे, झिझके रहोगे, खड़े रहोगे किनारे पर। नदी में न उतरोगे प्रेम की।
और जब तुम प्रेम से वंचित रह जाओगे, तो तुम्हारे जीवन में हजार-हजार रोग पैदा हो जाएंगे। क्योंकि जो प्रेम से वंचित रहा, उसका जीवन घृणा से भर जाएगा। वही ऊर्जा जो प्रेम बनती, सड़ेगी, घृणा बनेगी। जो प्रेम से वंचित रहा, उसके जीवन में एक चिड़चिड़ाहट और एक क्रोध की सतत धारा बहने लगेगी। क्योंकि वही ऊर्जा जो बहती है, तो सागर तक पहुंच जाती, बंद हो गई। डबरा बनेगी, सड़ेगी--बहाव चला गया।
जीवन का अर्थ है, बहाव, सतत सातत्य, सिलसिला, बहते ही जाना। जब तक कि सागर ही द्वार पर न आ जाए तब तक रुकना नहीं। जो प्रेम से डरा, वह रुक गया। वह सिकुड़ गया, उसका फैलाव बंद हो गया।
अब ऐसा व्यक्ति जिसने प्रेम नहीं जाना, जीवन को भी नहीं जान पाएगा। क्योंकि प्रेम ही जीवन का मध्य है। ऐसा व्यक्ति सिर्फ घसीटेगा, जीएगा नहीं। उसका जीवन पंगु और लंगड़ाता हुआ होगा। लकवा लग गया जैसे किसी आदमी के प्राण में। सरकता है वैसाखियों के सहारे। अगर तुम गौर से देख सको, तो संसार में सौ में निन्यानबे आदमियों को वैसाखियों पर पाओगे। वैसाखियां सूक्ष्म हैं।
कोई धन की बैसाखी लगाए हुए है। प्रेम से चूक गया, अब वह धन से प्रेम कर रहा है। क्योंकि जीवित प्रेम से तो खतरा था, धन से प्रेम करने में कोई खतरा नहीं है। अगर तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो, तो खतरा है। तुम खतरे में उतर रहे हो, सावधान! क्योंकि व्यक्ति एक जीवित घटना है। तुम बदलोगे, तुम वही न रह जाओगे, जो तुम प्रेम के पहले थे। कोई प्रेमी प्रेम के बाद वहीं नहीं रह सकता, जो प्रेम के पहले थे। प्रेम आमूल बदल देता है; दोनों को बदल देता है, जो भी प्रेम में पड़ते हैं। दोनों के अहंकार को मटियामेट कर देता है। दोनों के अहंकार को तोड़ देता है।
यही तो कलह है सारे प्रेमियों के बीच! क्योंकि दोनों अपने अहंकार को बचाना चाहते हैं। और इसके पहले, कि दूसरा मेरे अहंकार को तोड़ दे मैं चाहता हूं, उसका अहंकार तोड़ दूं। और वह चाहता है मेरा अहंकार तोड़ दे। सारे प्रेमी एक दूसरे पर आधिपत्य करने की कोशिश में लगे रहते हैं। जैसी गहरी राजनीति प्रेमियों में चलती है, कहीं भी नहीं चलती। प्रतिपल चौबीस घंटे उठते-बैठते एक राजनीति--कौन मालिक है?
प्रेयसी कहती है, मैं तुम्हारी चरणों की दासी हूं। उसकी आंखों में यह भाव बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता। शायद यह चरणों की दासी होना उसके ढंग है मालकिन होने का। वह तुमसे कह रही है, कि मैं तुम्हारे चरणों की दासी, ताकि तुम कहो, कि नहीं, नहीं, तू तो मेरे हृदय की मालकिन है! अगर तुमने यह न कहा, तो वह कभी भी इस बात को क्षमा न कर सकेगी। मतलब ही और था। चरणों की दासी अगर तुमने मान ही लिया कि बिलकुल ठीक! बिलकुल ठीक कह रही है, तू चरणों की ही दासी है; तो वह तुम्हें कभी क्षमा न कर पाएगी।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने प्रेयसी से कह रहा था, कि आऊंगा कल सांझ। पूरे चांद की रात है। चाहे आग बरसे, चाहे पहाड़ मेरे रास्ते में खड़े हो जाएं, चाहे सारा संसार विरोध करे, मगर कल आऊंगा। बिना देखे तुझे नहीं रह सकता। जब उतरने लगा सीढ़ियां तो बोला, आऊंगा जरूर, अगर पानी न गिरा!
प्रेमी जो कहते हैं, उसको सीधा-सीधा मत समझ लेना। उनके कहने के प्रयोजन और होते हैं। वे जो कहते हैं, उसका शाब्दिक अर्थ मत लेना। भीतरी आकांक्षा कुछ और होती है। शायद मुल्ला नसरुद्दीन सुनना चाहता था, कि प्रेयसी भी यही कहेगी, पहाड़ रोके, आग की वर्षा रोके तो भी तुम्हें बिना देखे कल न रह सकूंगी। लेकिन वह कुछ न बोली। उसने स्वीकार कर लिया कि बिलकुल ठीक कह रहे हो, मेरे बिना देखे रहोगे कैसे? आना ही पड़ेगा। सब बात उतर गई। अब पानी गिरा तो न आ सकेगा, क्योंकि छाते में भी छेद है और अभी सुधरवाया नहीं है।
जीवन वही नहीं है, जो तुम्हारे शब्दों से झलकता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछती थी, कि तुम मुझे सदा प्रेम करोगे, जब मैं बूढ़ी हो जाऊंगी? शरीर जराजीर्ण हो जाएगा, सौंदर्य जा चुका होगा, वसंत एक स्मृति हो जाएगा और पतझड़ ही बचेगा, तब भी तुम मुझे प्रेम करोगे? मुल्ला ने कहा, सदा करूंगा प्रेम। प्रेम कोई ऐसी चीज थोड़ी है, जो बदल जाए! सिर्फ एक बात पूछना चाहता हूं, कि तू अपनी मां जैसी तो नहीं दिखाई पड़ने लगेगी?
फिर वे बूढ़े हो गए और एक दिन पत्नी कहने लगी, कि तुमने कसम खाई थी मौलवी के सामने कि सुख में या दुख में, हर हालत में तुम मुझे प्रेम करोगे; लेकिन अब तुम्हारा वह प्रेम न रहा। मुल्ला ने कहा, निश्चित कसम खाई थी कि सुख में और दुख में प्रेम करेंगे; लेकिन बुढ़ापे की तो कोई बात ही न उठी थी।
शब्दों पर मत जाना। प्रेमी कह कुछ रहे हैं। उन्हें भी पता नहीं है, क्यों कह रहे हैं। शायद उनके अचेतन में ही डूबी होगी बात, उनके चेतन में भी खबर नहीं आई है। वे ही नहीं समझ पा रहे हैं, कि क्या हो रहा है; लेकिन बड़ी गहरी राजनीति चल रही है। एक दूसरे पर कब्जा करने का भाव चल रहा है। उसी कब्जे में कलह है और संघर्ष है।
तो फिर इस भय से लोग व्यक्तियों को प्रेम करना ही बंद कर देते हैं। वस्तुओं को प्रेम करते हैं। धन को प्रेम करते हैं, मकान को प्रेम करते हैं, कार को प्रेम करते हैं, जानवरों को प्रेम करते हैं, कुत्ता-बिल्ली पाल लेते हैं। आदमी से प्रेम करना कठिन हो गया है। कुत्ता सदा ठीक है। किसी तरह की राजनीतिक दांव-पेंच खड़े नहीं करता। मारो, तो भी पूंछ हिलाता है। डांटो, तो भी पूंछ हिलाता है। कुत्ता बिलकुल कूटनीतिज्ञ है, डिप्लोमैट है।
और कुत्ते सब मन में सोचते होंगे कि आदमी भी कैसा बुद्धू है! सिर्फ पूंछ! और तुम उसे राजी कर लो। सिर्फ पूंछ को हिलाओ और उनका क्रोध नदारद हो जाता है। तुम कितनी ही भूल-चूक करो, सब क्षमा हो जाती है। आदमी भी कैसा बुद्धू है!
लेकिन कुत्ते समझ गए हैं। उन्होंने मेक्यावलि और कौटिल्य सबको समझ लिया है, कि सार कितना है! सार इतना है, खुशामद में सार है। खुशामद करो और मालिक बन जाओ। वे अपनी राजनीति चला रहे हैं। लेकिन आदमी के लिए सुविधापूर्ण मालूम पड़ता है, कोई झंझट तो नहीं। कुत्ता सदा पूंछ हिलाता रहता है। सदा स्वागत के लिए खड़ा रहता है।
मुल्ला नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था, कि सब जमाना बदल गया। वक्त खराब आ गया। पहले मैं घर आता था तो पत्नी चप्पल लेकर हाजिर होती थी, कुत्ता भूंकता था। अब हालत बिलकुल बदल गई है, पत्नी भौंकती है कुत्ता चप्पल लेकर हाजिर होता है। तो मैंने उनसे कहा, तू नाहक परेशान हो रहा है। सेवा तो वही की वही है, चप्पल भी मिल रही है, भौंकना भी मिल रहा है। इसमें इतना परेशान होने की कोई जरूरत नहीं।
लोग डर जाते हैं, व्यक्तियों से प्रेम करने से, सिकुड़ जाते हैं। फिर वस्तुओं से प्रेम करते हैं, जानवरों से प्रेम करते हैं। इसलिए धन बड़ा बहुमूल्य हो जाता है। धन प्रेम है और सुरक्षित प्रेम है। रुपए से ज्यादा सुरक्षित और क्या है? जीवन में सब असुरक्षा है, रुपया सुरक्षा है। तिजोड़ी से ज्यादा स्थिर और कुछ भी नहीं मालूम होता। तिजोड़ी ही सनातन मालूम होती है, शाश्वत मालूम होती है।
पत्नी आज है, कल न हो; पति आज है, कल न हो; बेटा अभी है और कल सांस टूट जाए! नहीं, यह सब धोखा है, इनमें से कोई कभी भी दगा दे जाता है। समझदार आदमी इन झंझटों में नहीं पड़ता। वह सीधा ऐसी चीज को प्रेम करता है, जो सदा रहेगी। वह असली गुलाब की तरह नहीं देखता क्योंकि सुबह तो खिलेगा, सांझ मुर्झाएगा भी। इससे प्रेम करना ठीक नहीं। यह धोखा दे जाएगा सांझ को। तब तुम रोओगे। तो बेहतर है प्लास्टिक के फूल खरीद लाओ। वे सदा तुम्हारे साथ रहेंगे। वे कभी नष्ट न होंगे। तुम मर जाओगे, वे बने रहेंगे।
जब प्रेम जीवन में खो जाता है, या प्रेम की हिम्मत नहीं रह जाती, तो गलत प्रेम पैदा होते हैं, वे बैसाखियां हैं, जिन पर तुम लंगड़े होकर चलते हो। क्रोध, घृणा, झूठे प्रेम तुम्हारे जीवन को घेर लेते हैं; वही नर्क है। और जब तक तुम उसके बाहर न आओ तब तक तुम्हारे जीवन में प्रार्थना तो पैदा ही न हो सकेगी; क्योंकि प्रार्थना तो प्रेम का नवनीत है। जिसने प्रेम जाना है--
अब इसे तुम थोड़ा समझ लो। जिसने प्रेम नहीं जाना, वह मनुष्य के प्रेम से नीचे गिर जाता है। या तो पशुओं के प्रेम में, या वस्तुओं के प्रेम में। और भी नीचे गिर गया तो वस्तुओं के प्रेम में। जिसने प्रेम जाना वह ऊपर उठ जाता है। मनुष्यों से ऊपर, परमात्मा के प्रेम में। और अगर और भी गहरा प्रेम जाना, तो परमात्मा से भी ऊपर उठ जाता है--निर्वाण और मोक्ष; जहां कोई दूसरा व्यक्ति भी शेष नहीं रह जाता।
प्रेम का पतन--तो तुम कुत्ता बिल्ली को प्रेम करोगे। और पतन--तो तुम सामान को, कार को, मकान को, इनको प्रेम करोगे। प्रेम का आरोहण--तो परमात्मा को प्रेम करोगे। और आरोहण--तो परमात्मा भी शून्य हो जाएगा; सिर्फ निर्वाण, मोक्ष, कैवल्य शेष रह जाएगा।
प्रार्थना नवनीत है प्रेम का। इसलिए मैं कहता हूं, कि जिसके जीवन में प्रेम नहीं, हजार रोग पैदा हो जाते हैं। और रोग तो ठीक है, स्वास्थ्य की संभावना खो जाती है। रोग भी आदमी सह ले, अगर स्वास्थ्य की संभावना हो। बस, रोग ही रोग रह जाते हैं। स्वास्थ्य का कोई उपाय, व्यवस्था नहीं रह जाती।
और तुम्हारे सारे धर्म तुम्हें प्रेम के संबंध में उलटा समझाते हैं। तुम्हारे सारे धर्म तुम्हें प्रेम का दुश्मन बनाते हैं। उनका खयाल है, कि अगर तुमने प्रेम किया तो तुम संसार में भटक जाओगे। और मैं तुमसे कहता हूं, कि अगर तुमने प्रेम न किया तो तुम संसार में सदा-सदा भटके रहोगे। तुमने अगर प्रेम किया तो तुम संसार के पार हो जाओगे।
क्यों? क्योंकि प्रेम में एक बड़ी कीमिया है; वह जन्म भी है और मृत्यु भी। तुम जब प्रेम में उतरोगे तो तुम पाओगे, जीवन भी अपनी चरम ऊंचाई पर पहुंच जाता है और मृत्यु भी--एक साथ! क्योंकि प्रेम में तुम इतने प्रफुल्लित होते हो, जितने कभी न थे। ऐसे खिलते हो जैसे कभी न खिले थे। और प्रेम में तुम्हारा अहंकार ऐसा मर जाता है, जैसा कभी न मरा था। तुम ऐसे मिट जाते हो जैसे कभी न मिटे थे।
यह अनूठी घटना, यह जगत का सबसे बड़ा रहस्यपूर्ण राज प्रेम में घटता है। एक तरफ से तुम हो जाते हो, दूसरी तरफ से मिट जाते हो। एक तरफ से तुम विराट हो जाते हो, दूसरी तरफ से राख हो जाते हो। अहंकार तो बिलकुल मिट जाता है। अहंकार के पार जो तुम्हारा सात्विक, शाश्वत, सनातन रूप है, वह अपनी परिपूर्ण प्रखरता में उग आता है।
प्रेम को जिसने जाना, उसने जन्म को भी जाना और मृत्यु को भी जाना। जो प्रेम में जीया और प्रेम में मरा, उसने जीवन के पूरे रहस्य को समझ लिया; तब उसे मृत्यु का कोई भय नहीं रहता क्योंकि उसने मरकर देख लिया। मरकर देख लिया, कि मरना नहीं होता है। उसने मरकर देख लिया, कि मैं तो बचा ही रहता हूं और प्रगाढ़ होकर बच जाता हूं। उसने मरकर देख लिया, कि मैं अमृत हूं।
जिसने प्रेम में यह देख लिया, वह मृत्यु की प्रतीक्षा करता है। क्योंकि जब प्रेम की छोटी सी मृत्यु में इतना अपूर्व अमृत का स्वाद मिला, तो जब मृत्यु पूरी आएगी तब तो कहने ही क्या!
कबीर कहते हैं, "कब मिटिहौं, कब भेटिहों, पूरन परमानंद!' कब मिटूंगा, उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूं। कब मिटूंगा, कब मिलूंगा, पूर्ण परमानंद से!
थोड़े से रस को जाना, अभी बूंद का स्वाद चखा, कब सागर का स्वाद चखूंगा। बूंद से पता तो चल गया सागर के राज का। प्रेम से पता तो चल गया परमात्मा का, लेकिन बूंद एक कण भर! स्वाद मिल गया, अब कब मिटिहौं, कब भेंटिहौं, पूरन परमानंद!
इसलिए मैं कहता हूं, प्रेम से बचना मत; प्रेम का अतिक्रमण करना है। प्रेम को नीचे मत उतारना पायदान पर; प्रेम को ऊपर ले जाना है। प्रेम से भागना मत, क्योंकि जो प्रेम से भागा, वह परमात्मा से भाग गया। प्रेम को जानना, प्रेम में प्रवेश कर जाना, क्योंकि जिसने प्रेम में प्रवेश किया--प्रवेश करते वक्त तो वह प्रेम जैसा मालूम पड़ता था, जब तुम प्रवेश कर जाओगे तब तुम पाओगे, यह तो परमात्मा का द्वार था।
इसलिए जीसस ठीक कहते हैं, "प्रेम परमात्मा है।'
"अप्रेम नर्क है, प्रेम स्वर्ग है।'

पांचवां प्रश्न: आपने कल कहा है कि नचिकेता की तरह जीवन के द्वार पर दृढ़ होकर बैठ जाना है। नचिकेता तो मृत्यु के द्वार पर बैठा था, पर आप हमें जीवन के द्वार पर दृढ़ होकर बैठने को किस भांति कहते हैं?

क्योंकि जीवन का द्वार ही मृत्यु का द्वार है।
जीवन मृत्यु दो हैं, इस भ्रांति को छोड़ो; अलग-अलग हैं, इस भ्रांति को छोड़ो; विपरीत हैं, इस भ्रांति को छोड़ो। जीवन-मृत्यु एक साथ हैं; जैसे पक्षी के दो पंख साथ हैं; तुम्हारा दायां और बायां पैर साथ हैं। दायां और बायां पैर दोनों के होने से तुम चलते हो। मृत्यु और जन्म दोनों से जीवन चलता है; वे दोनों पैर हैं।
यह बात ही छोड़ दो, कि नचिकेता मृत्यु के द्वार पर बैठा था। वह जीवन के ही द्वार पर बैठा था। जीवन का द्वार ही तो मृत्यु का द्वार है। अगर तुम गौर से देखोगे, तो प्रतिपल मृत्यु घटित होती है। ऐसा थोड़ा ही है, कि सत्तर वर्ष बाद अचानक एक दिन मृत्यु आ जाती है! तो तुमने जीवन को समझा ही नहीं।
तुम जिस दिन से पैदा हुए हो, उसी दिन से मर भी रहे हो। प्रतिपल जीते हो, प्रतिपल मरते हो। मृत्यु तो सांस की भांति है।
अगर तुम ठीक से समझो, बच्चा जब पैदा होता है, तो पहला काम करता है, श्वास भीतर लेने का। बाहर तो छोड़ने का कर ही नहीं सकता। क्योंकि श्वास भीतर है ही नहीं। तो पहला कृत्य है श्वास को भीतर लेना। श्वास को भीतर लेना जन्म है। उसके पहले बच्चा जीवित नहीं है।
इसलिए चिकित्सक और परिवार के लोग जल्दी करते हैं, कि बच्चा चीखे, चिल्लाए, श्वास ले ले। अगर जरा देर हो गई और बच्चे ने रोना नहीं शुरू किया और श्वास नहीं ली--क्योंकि रोने के द्वारा ही बच्चा श्वास लेता है। सारा फेफड़ा अभी तो श्लेष्मा से भरा होता है क्योंकि श्वास का द्वार अभी बंद है। घरघराहट होती है छाती में। उसको ही हम रोना जैसा समझते हैं। उस घबड़ाहट और घरघराहट में ही बच्चा श्वास लेता है, जीवित हो उठता है। अगर पांच-सात मिनट तक श्वास न ले, तो गया।
तो जीवन का, जन्म की शुरुआत है श्वास के लेने से। फिर एक आदमी मरता है, यही बच्चा बूढ़ा होकर मरेगा, तो मरने का आखिरी काम क्या होगा? सांस छोड़ना! लेना तो हो ही नहीं सकता आखिरी काम, क्योंकि अगर सांस ले ली, तो मरोगे ही नहीं।
तो जन्म शुरू होता है सांस भीतर लेने से, मृत्यु आती है सांस बाहर जाने से। अगर वह बात तुम्हें समझ में आ जाए तो प्रतिपल तुम जन्म ले रहे हो, प्रतिपल तुम मर रहे हो, क्योंकि सांस भीतर-बाहर आ रही है। जब तुमने सांस भीतर ली तो तुम जीवित होते हो, जब तुमने सांस बाहर छोड़ी तुम मरे।
पर यह इतनी तीव्रता से घट रहा है, कि तुम्हें पता नहीं चलता। इसलिए ज्ञानी कहते हैं कि प्रतिपल जन्म है, प्रतिपल मृत्यु। पल का आधा हिस्सा जन्म है, पल का आधा हिस्सा मृत्यु। तुम एक दिन अचानक थोड़े ही मर जाओगे! रोज-रोज मर रहे हो। रोज-रोज मरते-मरते एक दिन मृत्यु का पलड़ा भारी हो जाएगा। जन्म के समय जन्म का पलड़ा भारी था, मृत्यु के समय मृत्यु का पलड़ा भारी हो जाएगा।
भारी होने का केवल इतना ही अर्थ है, कि जन्म के समय सांस लेने का यंत्र मजबूत था, मृत्यु के समय सांस लेने का यंत्र अब शिथिल हो गया, थक गया। अब सांस और भीतर नहीं ली जा सकती। विश्राम में जाना चाहता है यंत्र। पंचतत्व लौट जाना चाहते हैं अपने पंचतत्वों में, थक गए! सत्तर वर्ष की दौड़धूप--काफी थकान हो गई; अब लौट जाना चाहते हैं। फिर आने के लिए ताजे होंगे।
जन्म और मृत्यु दो नहीं हैं। एक-साथ, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तो जहां भी तुम हो, मृत्यु के द्वार पर बैठे हो। और अगर ठीक समझ में आ जाए, तो तुम जहां बैठे हो, वहीं तुम नचिकेता हो। और वहीं से यम से तुम्हारी चर्चा शुरू हो सकती है।
यम से चर्चा तो प्रतीक है। यम से चर्चा का अर्थ ही यह है कि मृत्यु से संवाद करो। मृत्यु से संबंध जोड़ो। मृत्यु से थोड़ी बातचीत करो। डरो मत, भागो मत। मृत्यु से मुलाकात करो। इतना ही अर्थ है यम का। और मृत्यु तुम्हें कितने ही प्रलोभन दे, राजी मत होना। तुम तो कहना, अमृत से कम पर हम राजी नहीं हैं। मृत्यु से कहना, कि तू हमें कुंजी बता दे अमृत की।
अब यह जरा मजे की बात है, कि नचिकेता को अमृत की कुंजी चाहिए और पूछ रहा है मृत्यु से; क्योंकि मृत्यु के पास कुंजी है। इसमें अचरज कुछ भी नहीं है। मृत्यु में ही प्रगट होता है अमृत।
क्यों ऐसा है? स्कूल में शिक्षक लिखता है काले ब्लैक बोर्ड पर सफेद खड़िया से। सफेद दीवाल पर नहीं लिखता; लिखेगा तो दिखाई ही न पड़ेगा। काला तख्ता चाहिए, सफेद-शुभ्र खड़िया चाहिए, तब लिखावट होती है तुम सफेद कागज पर लिखते हो, तो काली स्याही से लिखते हो। और सफेद रंग से लिखोगे, तो लिखना व्यर्थ ही चला जाएगा। विपरीत में चीजें प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ती है। मृत्यु का जब ब्लैक बोर्ड, काला तख्ता चारों तरफ से घेर लेता है, तभी तुम्हारे भीतर जो अमृत है वह अलग होकर दिखाई पड़ता है; उसके पहले दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई पड़ भी नहीं सकता।
जीवन से घिरे हो--वृक्ष, पक्षी, आकाश, मनुष्य; सब तरफ जीवन लहलहा रहा है, तुम भी जीवन हो; सब तरफ जीवन है। इस जीवन में तुम अपने जीवन को कैसे देख पाओगे? सफेद दीवाल पर सफेद अक्षर लिखे हैं। मृत्यु के क्षण में तुम्हारे चारों तरफ एक कालिमा घिर जाएगी। यम तुम्हें घेर लेगा। देखा है? यम की तस्वीर देखी, काली! भैंसे पर सवार, काले भैंसे पर सवार!
अब यह बड़े मजे की बात है। अगर यह गोरे लोगों ने किया होता, तो ठीक था। नीग्रो भी मृत्यु को काला ही मानते हैं। उनको तो मानना चाहिए बिलकुल शुभ्र, सफेद चमड़ी! वे भी काला ही मानते हैं मृत्यु को। उनको समझ में आ जाएगी, तो वे बदल देंगे।
मैंने सुना है, कि कुछ इस तरह का सिलसिला चलता है, कि ईश्वर को काला चित्रित किया जाए क्योंकि नीग्रो ईश्वर काला होना चाहिए। यह तो सफेद चमड़ी वाले लोगों की करतूत है, कि ईश्वर गोरा; और सफेद चमड़ी वालों की करतूत है, कि शैतान काला। तो कुछ राजनीति चलती है। और कोई आश्चर्य न होगा, कि नीग्रो तय कर लें कि हम तो अब मौत को सफेद रखेंगे; सफेद घोड़े पर सवार, सफेद।
मगर जंचेगी न! क्योंकि इससे कोई संबंध नीग्रो और सफेद चमड़ी का नहीं है। यह तो एक बहुत गहरा प्रतीक है, कि जीवन एक श्वेत तरंग है, एक शुभ्र तरंग है, एक लहर है प्रकाश की।
तुमने कभी खयाल किया? दिया जलता है, दिया बुझता है; अंधेरा सदा है। अंधेरे को न जलाना पड़ता है, न बुझाना पड़ता है। दिया आता है, जाता है, अंधेरा सदा है। जन्म आता है, जाता है, मृत्यु सदा है। जैसे ही तुम थक गए, मृत्यु की गोद तैयार है। वह सदा से तैयार है। अभी तुम चाहो, अभी लौट जाओ। मृत्यु का अंधकार सदा है।
और अंधकार का प्रतीक कीमती है क्योंकि अंधकार विश्राम है। प्रकाश में विश्राम मुश्किल है, इसीलिए तो दिन में नींद मुश्किल है। सूरज आकाश में हो, तो नींद मुश्किल है। रात भी कोई बल्ब जलाकर सोए, तो मुश्किल है। अंधेरे में विश्राम आसान है, अंधेरे में एक विश्राम है, अंधेरा बड़ा शांत है, विरामपूर्ण है।
इसलिए मृत्यु अंधकार है, क्योंकि वह विश्रांति है। सब चहल-पहल खो गई, सब तरंगें जा चुकीं, कुछ दिखाई नहीं पड़ता, महा अंधकार ने घेर लिया। उस महा अंधकार के क्षण में अचानक चौंकते हो तुम, कि मैं तो मरा ही नहीं! मैं तो हूं! और मैं इतना प्रगाढ़ता से हूं, जिनकी प्रगाढ़ता से कभी भी न था। इस अंधेरे में तुम्हारी शुभ्र रेखा चमकती हुई दिखाई पड़ती है।
जैसे जितने काले बादल हों, उतनी ही बिजली चमकदार मालूम पड़ती है। जितनी अंधेरी रात हो, तारे उतने ही शुभ्र मालूम पड़ते हैं। दिन में भी तारे हैं आकाश में। तुम यह मत सोचना, कि कहीं चले गए। जाएंगे कहां? दिन में भी हैं लेकिन दिखाई नहीं पड़ते; चारों तरफ प्रकाश है। अगर तुम किसी गहरे कुएं में चले जाओ तीन सौ फीट नीचे, तो वहां से तुम्हें दिन में भी तारे दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि बीच में तीन सौ फीट की अंधकार की पर्त आ जाएगी।
मृत्यु के ही क्षण में अमृत दिखाई पड़ता है। इसलिए उपनिषद की कथा बड़ी मधुर है। नचिकेता को भेज दिया है मृत्यु के पास, कि वह अमृत को जान ले। मृत्यु के पास भेजा है, पिता ने कहा, तुझे गुरु के पास भेजता हूं। क्योंकि मृत्यु के अतिरिक्त कोई गुरु नहीं हो सकता। मृत्यु गुरु है।
और इससे उलटा भी सही है, कि हर गुरु मृत्यु है। वह तुम्हें मिटाएगा, काटेगा, तोड़ेगा। सिर्फ उतना ही बचने देगा, जिसको मिटाने का कोई उपाय नहीं है; ताकि सब टूटे-फूटे खंडहर के बीच, अहंकार के खंडहर के बीच सपनों के खंडहर के बीच तुम उसे पहचान लो, जो सत्य है; जिसको कोई, तोड़ना चाहे, तोड़ नहीं सकता; छेदना चाहे, छेद नहीं सकता।
कृष्ण ने गीता में कहा है, "नैनं छिंदंति शस्त्राणि'--मुझे शस्त्र छेद नहीं सकते।' "नैनं दहति पावकः'--मुझे आग जला नहीं सकती।
मगर आग में ही पता चलेगा, कि जला सकती है या नहीं! शस्त्र छिदेंगे तभी पता चलेगा, कि छिदते हैं या नहीं! मौत में आग भी जलेगी, शस्त्र भी छिदेंगे, अंधकार सब तरफ से घेर लेगा, उस क्षण अगर होश रहा, तो तुम देख लोगे, कि तुम अमृत हो। इसलिए असली सवाल जीवन में होश को साध लेने का है। अन्यथा मरते तो सभी हैं, अमृत को बिना जाने मर जाते हैं, होश ही नहीं रहता। तो मृत्यु तो बार-बार आती है सिखाने, तुम बार-बार चूक जाते हो।
मृत्यु का गुरु बहुत बार तुम्हें घेरता है लेकिन तुम शिष्यत्व से ही वंचित हो। तुम सीखने से वंचित हो क्योंकि तुम होश में नहीं हो।
प्लैटो मर रहा था--यूनान का सबसे बड़ा विचारक। प्लैटो का विचार और प्लेटो की विचार की क्षमता इतनी प्रगाढ़ थी, कि उसका नाम बुद्धिमानी का प्रतीक हो गया।
मैं छोटा था, मेरे दादा गैर-पढ़े-लिखे आदमी थे। उन्होंने प्लैटो का तो कभी नाम भी नहीं सुना था, लेकिन प्लेटो का जो भारतीय नाम है--अफलातून--वे जब मुझ पर नाराज होते थे तो वे कहते थे, बड़े अफलातून के बेटा बने हो! मैं उनसे पूछता, अफलातून कौन? तो वे कहते, होगा कोई! उनको पता नहीं, कि अफलातून कौन है; लेकिन अफलातून प्लेटो का नाम है। प्लेटून से आया--अफलातून। इतना प्रगाढ़ विचारक था प्लेटो, कि अफलातून प्रतीक ही हो गया, कि बड़े विचारक के बेटे बने हो! वे जब बहुत ही नाराज हो जाते तब वे अफलातून का उपयोग करते थे।
यह प्लेटो मर रहा था, मरण-शय्या पर पड़ा था, मित्र इकट्ठे थे; किसी ने पूछा, कि एक आखिरी सवाल और! तुमने जीवनभर जो कुछ कहा, जो कुछ समझाया, जो कुछ सिखाया, उसे सार में कह दो। क्योंकि तुम्हारे शास्त्र तो बड़े हैं और जटिल हैं और हम समझ पाएं, न समझ पाएं, भूल जाएं, भटक जाएं, तुम हमें सार में कह दो। एक ही वचन में कह दो, दो-चार शब्दों में कह दो, ताकि हम कंठस्थ कर लें और सूत्र को याद रखें।
प्लेटो ने आंख खोली और उसने कहा, सारे जीवन मैंने एक ही बात सिखाई, वह है, मरने की कला: "द आर्ट टू डाइ।' उसने आंख बंद कर ली और मर गया। ये उसके आखिरी वचन थे--"मरने की कला!'
सारा धर्म मरने की कला है, सारा ध्यान मरने की कला है। मरने की कला का मतलब यह है, कि तुम होश से मरना। मगर होश से तुम तभी मर सकोगे, जब तुम होश से जीओ। क्योंकि होश कोई ऐसी चीज नहीं है, कि अचानक मरने लगे और साध लिया।
तुमने मोमिन का प्रसिद्ध वचन सुना होगा:
"उम्र तो गुजरी इश्के बुता में, मोमिन,
अब मरते वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे।'
कि जिंदगीभर तो मूर्तिपूजा में गुजरी उम्र। मोमिन का मतलब है, कि जिंदगीभर तो खूबसूरत स्त्रियों को पूजते रहे, वह मूर्तिपूजा है। सौंदर्य को पूजते रहे। "उम्र तो गुजरी इश्के बुता में मोमिन, अब मरते वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे!' और अब मरते वक्त तुम कहते हो, मूर्तियां छोड़ दो, परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं। न! अब यह न हो सकेगा।
अगर जीवनभर होश को न साधा, तो मरते वक्त तुम न साध सकोगे। अभी साध लो, अभी समय है; तो मौत जब आए, तुम्हें जागा हुआ पाए। और जिसको भी मौत ने जागा हुआ पाया, मौत उससे हार जाती है। जिसको भी मौज ने जागा हुआ पाया, उसकी मौत होती ही नहीं। उस तरह के आदमी के मरण को ही हम मुक्ति कहते हैं, मोक्ष कहते हैं। वह मरता नहीं है, वह मुक्त होता है। उस तरह के आदमी की मृत्यु को हम मृत्यु नहीं कहते, समाधि कहते हैं। उसका तो समाधान हो गया मृत्यु के आने से।
अब तक की जो चिंता थी, कि जीवन क्या है, क्या है रहस्य जीवन का, क्या है लक्ष्य, क्या है गंतव्य, और जीवन बचता है या नहीं, यह क्षणभंगुर है, या शाश्वत है--सारी समस्या मृत्यु के आने से समाधान हो जाती है, उसकी, जो जागा हुआ है। इसलिए जागे हुए की मृत्यु को हम समाधि कहते हैं।
जागा हुआ आदमी जब मर जाता है, तो उसकी कब्र को भी हम समाधि कहते हैं। साधारण आदमी की कब्र को हम समाधि नहीं कहते, वह तो कब्र ही है! ये तो फिर आएंगे। ये तो अभी थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं कब्र में; लौट आएंगे। ये अभी गए नहीं हैं। इनका एक पैर अभी यहीं है। ये जल्दी ही लौटने की तैयारी करेंगे। ये जरा सो गए हैं, थोड़े थक गए थे, फिर वापिस आ जाएंगे।
हम उस व्यक्ति की कब्र को समाधि कहते हैं, जो अब लौटेगा नहीं। क्योंकि जिसने मृत्यु का राज समझ लिया, उसे लौटने की जरूरत ही न रही। जिसने मृत्यु को जान लिया, उसने जन्म को भी जान लिया। जिसने जन्म और मृत्यु को जान लिया, उसको अब कुछ जानने को बाकी न रहा।
तो तीन महत्वपूर्ण घटनाएं हैं; जन्म और मृत्यु, और प्रेम। जन्म तुम्हारे बस में नहीं है। तुम पैदा हो गए। अब लौटकर कुछ किया नहीं जा सकता।
प्रेम तुम्हारे बस में है, कुछ किया जा सकता है। लेकिन शायद संस्कृति, सभ्यता, समाज तुम्हें प्रेम न करने दे, अड़चन डाले, बाधा खड़ी करे। समाज, सभ्यता, संस्कृति विवाह में भरोसा करती है, प्रेम में नहीं। उसके कारण हैं। क्योंकि विवाह ज्यादा सुरक्षित सुविधापूर्ण मालूम पड़ता है।
प्रेम खतरनाक है। प्रेम ऐसा है, जैसे तूफान आए समुद्र में नाव को छोड़ना; अनजाने वन-पथ पर पगडंडियों से यात्रा करना।
विवाह राजपथ पर चलना है। सीमेंट-पटा मार्ग है, करोड़ों लोग साथ चल रहे हैं, कहीं कोई भय नहीं। दोनों तरफ पुलिसवाले भी चल रहे हैं, मजिस्ट्रेट भी साथ है, सब व्यवस्थित है। जरा गड़बड़ हुई तो अदालत है। प्रेम झंझट है, विवाह सुविधा है। सुविधा के कारण लोग प्लास्टिक के फूल खरीद लिए हैं। असुविधा से बचने के लिए असली फूलों से बच गए हैं।
इसलिए जन्म में तो तुम कुछ अब कर नहीं सकते, हो गया! प्रेम भी करने में तुम्हें बड़ी बाधाएं पड़ेंगी, लेकिन कुछ कर सकते हो। बड़ी अड़चनें होगी, लेकिन कुछ कर सकते हो।
पर मृत्यु के संबंध में तो सब कुछ कर सकते हो। कोई अड़चन नहीं, कोई बाधा नहीं। इसलिए जन्म की भी फिक्र छोड़ दो अगर, तो चलेगा। अगर प्रेम में भी पाओ, कि अब बहुत उलझन है, समय जा चुका, अब कुछ करना उलझन ही बढ़ाएगा--जाने दो! मृत्यु को साध लो। होश को साधो। और मरते वक्त एक ही बात अगर तुम बचा लो, कि तुम जागे हुए मर जाओ; मौत आए, तुम्हें बेहोश न पाए, सब हो जाएगा। जागा हुआ जो मरता है, वह मरता ही नहीं। वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन अगर प्रेम की कोई भी संभावना हो--क्योंकि कुछ आश्चर्य नहीं कि तुम्हें अपनी पत्नी से ही प्रेम हो, तुम्हें अपने बच्चे से प्रेम हो; लेकिन तुम उससे भी डर रहे हो।
मैं एक मित्र के घर में रहता था। मैंने उन्हें कभी उनके बच्चों से बात करते नहीं देखा, पत्नी को कभी पास बैठे नहीं देखा। चलते थे तो इतनी तेजी से, नौकरों की तरफ यहां वहां नहीं देखते थे। बड़े धनपति थे। मैंने उनसे पूछा, कि मामला क्या है? उन्होंने कहा, अगर जरा बच्चों से पूछो, क्या हाल है? पैसे के लिए हाथ बढ़ाते हैं। पत्नी से पूछो, क्या हाल है? वह कहती है हार, बाजार में गई थी, बड़ा अच्छा है, लौटते में ले आना। नौकर की तरफ देखा, तनख्वाह फौरन बढ़ाओ! तो मैं सीख ही गया हूं, किसी के तरफ देखना ही नहीं, तेजी से चलना। और किसी के पास बैठना नहीं, हमेशा अखबार पढ़ना। पत्नी वहां है, तो बीच में अखबार! क्योंकि जरा ही कुछ करो, महंगा पड़ता है।
अब यह आदमी मर गया। इस आदमी के जीवन में प्रेम की कोई सुगंध ही न रही। यह सड़ गया, वह लाश है। यह पैसा बचा लेगा, खुद को गंवा देगा।
अगर प्रेम की कोई संभावना है, तो उसे खिलने देना। डरो मत। खोने को कुछ भी नहीं है, सिर्फ पाने को है। और जो खोने का तुम्हें डर है, वह खो जाने दो क्योंकि उसे तुम बचा भी न सकोगे। जो खोने को है, वह खोएगा ही। जो बच सकता है, वही केवल बचेगा। तुम्हारे उपाय कुछ काम नहीं आते।
इस भावदशा को ही मैं समर्पण कहता हूं, तुम जीवन के प्रति समर्पित हो जाओ। और तुम पाओगे कि तुम धन्यभाग से भर गए हो। तुम पर आशीर्वादों की वर्षा हो गई। तुम्हारे प्राण पुलकित हो गए हैं। अब तुम उदास नहीं, थके-मांदे नहीं। जीवन की धार सागर से जुड़ गई। अब तुम उलीचो कितना ही, चुकता नहीं है; बढ़ता है।

आज इतना ही।



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