चेत सके तो चेत-(विविध)
ओशो
दिनांक 07 जून सन् 1969
बडौदा-अहमदाबार, गुजरात।
प्रवचन-पहला-(चिंतन की स्वतंत्रता)
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात कहूंगा।
एक बहुत पुराना गांव था। और उस गांव से भी ज्यादा पुराना एक चर्च था
उस गांव में। उस चर्च की सारी दीवालें गिरने के करीब हो गई थीं। न तो कोई उपासक उस
चर्च के भीतर प्रार्थना करने जाता था, न कोई कभी उस चर्च के
भीतर...चर्च के भीतर जाना तो दूर, उसके पास से निकलने में भी
लोग डरते थे। वह चर्च कभी भी गिर सकता था। हवाएं चलती थीं, तो
गांव के लोग सोचते थे, आज चर्च गिर जाएगा। आकाश में बादल
गरजते थे, तो गांव के लोग बाहर निकल कर देखते थे, चर्च गिर तो नहीं गया! बिजली चमकती थी, तो डर होता
था, चर्च गिर जाएगा। ऐसे चर्च में कौन प्रार्थना करने जाता?
चर्च बिलकुल मरा हुआ था, लेकिन फिर भी खड़ा हुआ
था।
कुछ मरी हुई चीजें भी खड़ी रह जाती हैं। और जब मरी हुई चीजें खड़ी रह
जाती हैं, तो अत्यंत खतरनाक हो जाती हैं। मरे का मर जाना ही
जरूरी है। मरे का खड़ा रहना बहुत खतरनाक है।
अगर हम सारे मुर्दों को खड़ा कर लें और कब्रों में न गड़ाएं और मरघटों
में न जलाएं, तो दुनिया में जीने वाले लोगों की जो कठिनाई होगी,
उसकी कल्पना करनी मुश्किल है। अगर सारे मुर्दे जो इस जमीन पर कभी रहे
हैं और मर गए, अगर जगह-जगह खड़े कर दिए जाएं, तो जिंदा आदमी उनको देख कर ही पागल हो जाएंगे। उनको गड़ा देना और जला देना
जरूरी है।
मरे का मर जाना ही जरूरी है; लेकिन वह चर्च मर गया
था और खड़ा था। फिर चर्च के संरक्षक, कमेटी मिली, ट्रस्टी मिले और उन्होंने कहा, हम क्या करें कि लोग
चर्च में आ सकें? क्योंकि ट्रस्टियों का हित इसी में था कि
उस मरे चर्च में भी लोग आते ही रहें। उस चर्च से ही उनकी आजीविका चलती थी। चर्च का
पादरी घर-घर जाकर समझाता था कि चर्च की तरफ आओ। हालांकि चर्च का पादरी भी चर्च से
दूर-दूर ही रहता था, क्योंकि वह कभी भी गिर सकता था। अंततः
चर्च की कमेटी मिली। कमेटी भी चर्च के भीतर नहीं मिली, वह भी
चर्च से दूर उन्होंने बैठक की; और उन्होंने चार प्रस्ताव
स्वीकार किए।
उन्होंने पहला प्रस्ताव स्वीकार किया कि हम बहुत दुख से यह स्वीकार
करते हैं कि पुराने चर्च को गिरा दिया जाना चाहिए। और तत्काल दूसरा प्रस्ताव
स्वीकार करते हैं कि पुराने चर्च की जगह हम एक नया चर्च बनाएं। और उन्होंने तीसरा
प्रस्ताव यह भी किया कि पुराने चर्च की ईंटें ही नये चर्च में लगाएंगे। पुराने
चर्च के द्वार-दरवाजे ही नये चर्च में लगाएंगे। पुराने चर्च की नींव पर ही नये
चर्च को उठाएंगे। पुराना चर्च जैसा ही नया चर्च होगा। यह भी उन्होंने सर्वसम्मति
से स्वीकार किया।
तीन प्रस्ताव पास किए। एक, कि पुराने चर्च को
गिरा देना है। दो, कि एक नया चर्च बनाना है। और तीसरा,
कि पुराने चर्च की बुनियाद पर ही नये चर्च की नींव रखनी है। पुराने
चर्च की ईंटों का ही नये चर्च में उपयोग करना है। पुराने द्वार-दरवाजे ही लगाने
हैं। नये चर्च में कोई नई चीज नहीं लगानी है, सब पुराना
लगाना है।
यहां तक भी गनीमत थी। उन्होंने चौथा एक प्रस्ताव और स्वीकार किया, कि जब तक नया चर्च न बन जाए, तब तक पुराने को गिराना
नहीं है।
वह चर्च अब भी खड़ा होगा और नया चर्च कभी नहीं बनेगा।
इस देश की हालत भी ऐसी ही है। इस देश का मंदिर बहुत पुराना हो गया है।
वह इतना पुराना हो गया है कि उसका पीछे का पूरा इतिहास खोजना भी बहुत मुश्किल है।
उसकी सब दीवालें सड़ गई हैं। उसकी सब बुनियादें खराब हो गई हैं। उसका सब कुछ अतीत
में नष्ट-भ्रष्ट, जरा-जीर्ण हो गया है। और हम उसमें ही रहे चले जा रहे
हैं! और इस देश के विचारशील लोग समझाते हैं कि हमारा बड़ा सौभाग्य है, क्योंकि हमारे पास सबसे ज्यादा पुराना समाज है।
यह दुर्भाग्य है, सौभाग्य नहीं। समाज नया होना
चाहिए निरंतर। और जो समाज नये होने की क्षमता खो देता है, उस
समाज से रौनक भी चली जाती है, खुशी भी चली जाती है, आनंद भी चला जाता है--जीवन का सब रस चला जाता है।
हिंदुस्तान की पूरी सामाजिक व्यवस्था, सारा ढांचा इतना
पुराना हो गया है कि अब उसके भीतर न तो जीना संभव है, न मरना
संभव है। उसके भीतर सिर्फ दुखी होना, पीड़ित होना और परेशान
होना संभव है। और इसीलिए हम इतने आदी हो गए हैं दुख के कि दुख को मिटाने की कोई
कल्पना भी हम में पैदा नहीं होती। न तो कोई देश इतनी गरीबी झेल सकता है जितनी हम
झेलते हैं; न कोई देश इतनी बीमारी झेल सकता है जितनी हम
झेलते हैं; न कोई देश इतनी बेईमानी झेल सकता है जितनी हम
झेलते हैं। और झेलने का कुल एक कारण है कि हम इतने हजारों वर्षों से यह सब झेल रहे
हैं कि हम धीरे-धीरे उसके आदी हो गए हैं। और हमें यह खयाल ही नहीं आता कि इसमें
कुछ गलत हो रहा है। यही होता रहा है, यही जीवन है--यह हमारी
धारणा हो गई है।
मैंने सुना है, एक गांव में एक मछुआ मछलियां बेचने आया था। वह
मछलियां बेच कर जब लौटने लगा, तो सोचा कि राजधानी है,
देख लूं घूम कर। वह गांव की बड़ी-बड़ी सड़कों पर गया। वह उस सड़क पर भी
गया जहां सुगंधियों की दुकानें थीं, परफ्यूम्स की दुकानें
थीं। लेकिन मछुआ एक ही सुगंध जानता था, मछली की, और कोई सुगंध नहीं जानता था। उसे जब वहां सुगंधियों की दुकानों से
सुगंधियां उड़ती हुई हवा में आने लगीं, तो उसने सोचा, इस गांव के लोग बड़े पागल हैं! ये दुर्गंध की दुकानें किसलिए खोल रखी हैं?
उसने अपना रूमाल अपनी नाक पर लगा लिया।
लेकिन जैसे-जैसे भीतर घुसा, और बड़ी दुकानें थीं।
वह भागने लगा। और भागा तो और भीतर और बड़ी दुकानें थीं, वह
दुनिया का सबसे बड़ा सुगंधियों का बाजार था, सुगंध के कारण वह
बेहोश होकर गिर पड़ा।
सुना है कभी, कोई सुगंध के कारण बेहोश होकर गिर पड़े? लेकिन वह एक सुगंध जानता था--मछली की। और बाकी सब दुर्गंध थीं। वह बेहोश
होकर गिर पड़ा, तो बड़ी सुगंधियों के दुकानदार अपनी तिजोरियां
खोल कर वे बहुमूल्य सुगंधियां उसे सुंघाने लाए जिनसे आदमी होश में आ जाता है।
लेकिन वे उसे सुगंध सुंघाने लगे, वह बेहोशी में हाथ-पैर
तड़फड़ाने लगा, हाथ-पैर पटकने लगा। भीड़ इकट्ठी हो गई। सुगंधि
के दुकानदार बड़े हैरान हुए कि इन सुगंधियों से तो कोई भी बेहोश आदमी होश में आ जाए,
यह हो क्या रहा है! उन्हें क्या पता कि जिसे वे सुगंध समझते हैं,
उसे वह बेहोश आदमी दुर्गंध समझता है! क्योंकि वह बेहोश आदमी दुर्गंध
को सुगंध समझने का आदी हो चुका है।
इस भीड़ में एक दूसरे मछुए ने यह हालत देखी, उसने कहा, ठहरो! तुम जान ले लोगे। सेवको, तुम रुक जाओ।
सेवक अक्सर जान लेने वाले सिद्ध होते हैं! अगर उन्हें पता न हो कि बीमारी
क्या है, तो सेवक जान लेने वाले सिद्ध होते हैं। और इस देश में
तो हम जानते हैं अच्छी तरह से कि सेवक किस तरह से जान ले रहे हैं। देश की बीमारी
का उन्हें कोई पता नहीं है।
उस मछुए ने कहा, दूर हटो! वह मर जाएगा आदमी। जहां
तक मैं समझता हूं, तुम ही उसको बेहोश करने के कारण हो। उसने
सुगंधियों को दूर फिंकवा दिया। और उस गिरे हुए मछुए की टोकरी पड़ी थी, गंदा कपड़ा पड़ा था, हाथ से गिर गया था, जिसमें वह मछलियां लाया था, उस दूसरे मछुए ने उस पर
पानी छिड़का और वह गंदी टोकरी उसके मुंह पर रख दी। उस बेहोश मछुए ने गहरी श्वास ली और
कहा, दिस इज़ रियल परफ्यूम! यह है असली सुगंध! ये दुष्ट मेरी
जान लिए लेते थे। ये कहां-कहां की दुर्गंधें इकट्ठी किए हुए हैं!
अगर कोई आदमी दुर्गंध में रहा हो, तो दुर्गंध का आदी हो
जाता है।
यह देश बीमारी का आदी हो गया है, गरीबी का आदी हो गया
है, बेईमानी का आदी हो गया है, सब
चीजों का आदी हो गया है। और यह आदत इतनी पुरानी हो गई है कि इसे हम खून में लेकर
पैदा होते हैं। सड़क पर चलते वक्त अगर कोई भीख मांगता हमें दिखाई पड़ता है, तो हमें कोई बेचैनी नहीं होती। ज्यादा से ज्यादा यह होता है कि दो पैसे दे
दो। लेकिन यह कोई बेचैनी नहीं है। यह सिर्फ बेचैनी से बचने की तरकीब है। यह दो
पैसे देकर जैसे हम झंझट से छुटकारा पा गए! लेकिन गांव में कोई भीख मांगता है,
यह पूरे गांव का अपराध है; देश में कोई भूखा
मरता है, यह पूरे देश का अपराध है; यह
हमारे खयाल में नहीं आता। यह हमारे खयाल में ही नहीं आता कि बच्चे पैदा होते हैं
और मर जाते हैं, हमारी उम्र बहुत कम, हमारा
शरीर कृश, हमारा सारा जीवन बीमारी से भरा हुआ।
हम कहते हैं, यह सब भाग्य है! हमने हर चीज की व्याख्या खोज ली है।
इसलिए नहीं कि हम बदल दें जिंदगी को। हमने हर चीज की ऐसी व्याख्या खोजी है कि
जिंदगी जैसी है वैसी ही सही साबित हो जाए और हमें कोई तकलीफ न मालूम पड़े।
अगर कोई गरीब है, तो हम कहते हैं, पिछले जन्मों के पाप के कारण वह गरीब है। बात खतम हो गई। एक्सप्लेनेशन मिल
गया, व्याख्या मिल गई। अब कुछ करने की जरूरत नहीं। क्योंकि
पिछले जन्म के साथ कुछ किया भी तो नहीं जा सकता! जो हो गया है वह हो गया है। और हम
कहते हैं कि वह गरीब है तो अपने पापों के कारण गरीब है। जब कि सच्चाई उलटी है,
अगर कोई गरीब है तो हम सबके पापों के कारण गरीब है। लेकिन हम एक
व्यक्ति पर थोप कर, एक व्याख्या लेकर बैठ गए हैं। और ये
व्याख्याएं इतनी पुरानी हो गई हैं कि जब तक हमें पुराने पर शक न हो जाए, तब तक इन व्याख्याओं से मुक्ति नहीं हो सकती।
एक फकीर एक मस्जिद के नीचे से गुजर रहा था। मस्जिद के ऊपर अजान देने
कोई चढ़ा होगा, वह गिर पड़ा। फकीर की गर्दन पर गिरा, फकीर की गर्दन टूट गई। उस आदमी को तो कोई चोट न पहुंची, क्योंकि फकीर की गर्दन पर वह सम्हल गया था। फकीर की गर्दन टूट गई, वह अस्पताल में भर्ती हुआ। फकीर के शिष्यों को पता था कि वह फकीर हर चीज
में से कुछ न कुछ रहस्य और राज खोज लेता है। उन्होंने सोचा कि अब हम जाकर पूछें कि
क्या हालत है? इस गर्दन टूट जाने में कौन सा रहस्य है?
वे गए उस फकीर के पास। उस फकीर से पूछा, इससे तुमने क्या सीखा?
उसने कहा, इससे मैंने एक बात सीखी कि वह सिद्धांत गलत है कि जो
गिरे उसी की गर्दन टूटे। गिरे कोई और, गर्दन किसी और की भी
टूट सकती है। वह सिद्धांत गलत है। क्योंकि हम न गिरे, न हमें
गिरने से कोई मतलब था, न हम मीनार पर चढ़े। चढ़ा कोई और,
गिरा कोई और, वह तो बच गया, गर्दन हमारी टूट गई!
जिंदगी एक अंतर्संबंध है, एक इंटर-रिलेशनशिप
है। उसमें कोई गिरे, कोई की गर्दन टूट सकती है। लेकिन इस
मुल्क ने एक व्याख्या खोजी हुई है कि अगर तुम्हारी गर्दन टूटी है, तो तुम्हीं गिरे होओगे। और कभी गिरे होओगे पिछले जन्मों में, इसलिए अब गर्दन टूटी है। अब उसका पता लगाना मुश्किल है कि किस पिछले जन्म
में आप गिरे थे! गिरे थे भी या नहीं गिरे थे! पिछला जन्म था भी या नहीं था!
लेकिन उन सारी व्याख्याओं के आधार पर आपकी गरीबी को समझा दिया गया है।
अब गरीबी को बदलने की कोई भी जरूरत न रही। अब गरीबी स्वीकार करनी पड़ेगी, भिखमंगापन स्वीकार करना पड़ेगा, बीमारी स्वीकार करनी
पड़ेगी।
हमने एक जीवन-दर्शन विकसित किया है, जिसमें हम सब कुछ
जैसा भी है--गंदा, बेहूदा, कुरूप,
रुग्ण, विक्षिप्त--सबको स्वीकार कर लेते हैं।
और यह स्वीकृति इतनी पुरानी हो गई है कि हमें पता भी नहीं कि कब हमने यह स्वीकृति
दी थी! यह बहुत लंबा समय बीत गया, तब से हम स्वीकार करते चले
आ रहे हैं। और जब तक हमें पुराने पर शक न हो जाए, तब तक इस
स्वीकृति से भी नहीं छूटा जा सकता। और जब तक ये स्वीकृति की जड़ें नहीं टूट जाती
हैं, तब तक एक नये समाज का जन्म भी असंभव है। और नये समाज का
जन्म न हो, तो हम इसको ही समाज कहते रहेंगे--यह जो करीब-करीब
एक पागलखाना हो गया है। करीब-करीब देश एक पागलखाना है।
मैंने सुना है कि जब हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटे, तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान की सीमा पर एक पागलखाना था। और पागलखाने का भी
सवाल उठा कि पागलखाना कहां जाए? हिंदुस्तान में जाए कि
पाकिस्तान में जाए? और पागलखाने को लेने को कोई भी राजी नहीं
था। किसी को फिक्र भी नहीं थी कि पागलखाना कहां जाए। तो पागलखाने के अधिकारियों ने
सोचा, पागलों से ही पूछ लें कि तुम जाना कहां चाहते हो?
तो उन पागलों से पूछा कि तुम्हें कहां जाना है? हालांकि तुम कहीं जाओगे नहीं, रहोगे यहीं! लेकिन फिर
भी तुम हिंदुस्तान में जाना चाहते हो कि पाकिस्तान में?
उन पागलों ने कहा, बड़ी अजीब बात है! हम तो समझते थे
हम पागल ही अजीब बातें करते हैं, आप भी अजीब बातें करते हैं!
जब जाएंगे कहीं भी नहीं, रहेंगे यहीं, तो
हिंदुस्तान या पाकिस्तान में जाने का सवाल कहां उठता है? आप
भी बड़े मजे की बात करते हैं। रहेंगे यहीं, और फिर पूछते हैं,
जाना कहां है?
फिर भी उन लोगों ने कहा, तुम समझोगे नहीं,
ये जरा बहुत टेढ़ी राजनीति की बातें हैं। तुम तो साफ-साफ यह कहो,
तुम कहां जाना चाहते हो?
उन्होंने कहा, हम कहीं नहीं जाना चाहते, हम
यहीं अच्छे हैं।
उन्होंने कहा, यह सवाल ही नहीं है, रहोगे तुम
यहीं।
उन पागलों ने कहा, जब हम यहीं अच्छे हैं, हम कहीं क्यों जाएं?
बड़ी मुश्किल हो गई। फिर सोचा कि पूछ लो कौन हिंदू है, कौन मुसलमान। जो हिंदू हो उसको हिंदुस्तान भेज दो, जो
मुसलमान हो उसको पाकिस्तान भेज दो। उनसे पूछा, तुममें हिंदू
कौन है, मुसलमान कौन है?
उन्होंने कहा, हमें कुछ पता नहीं, हम सिर्फ
आदमी हैं। हिंदू-मुसलमान? हमें तो इतना ही पता है कि हम
सिर्फ आदमी हैं।
उन पागलों ने कहा कि हमें सिर्फ इतना पता है कि हम आदमी हैं। और
पागलखाने के बाहर जो घूम रहे हैं, उनसे पूछो। उनमें से कोई न कहेगा
हम आदमी हैं। कोई कहेगा, हम हिंदू हैं; कोई कहेगा, हम मुसलमान हैं; कोई
कहेगा, हम ईसाई हैं। और अगर भगवान की दुनिया में कहीं कोई
हिसाब होता होगा, तो उस दिन लिख लिया गया होगा कि इस
पागलखाने में ऐसे आदमी रहते हैं जो पागल नहीं हैं, और
पागलखाने के बाहर ऐसे आदमी रहते हैं जो पागल हैं।
लेकिन कौन सुनता था उनकी! उन्होंने बहुत कहा कि हम सिर्फ आदमी हैं।
अधिकारियों ने कहा, बंद करो यह बकवास! साफ-साफ बताओ
कि तुम हिंदू हो कि मुसलमान? हमें आदमी से कोई मतलब नहीं है,
हम हिंदू-मुसलमान जानना चाहते हैं।
उन पागलों ने कहा, यह तो बड़ी मुश्किल हो गई,
हम कैसे पता लगाएं? ज्यादा से ज्यादा हम यह कह
सकते हैं कि हम पागल हैं। अगर आप आदमी नहीं मानते, तो हम
पागल हैं। मगर हिंदू-मुसलमान, हमें कुछ पता नहीं है।
लेकिन अधिकारी न माने। उन्होंने फिर एक रास्ता खोजा--कि बीच से एक
दीवाल डाल दी; उस तरफ पड़ जाए कमरा जिसका वह पाकिस्तान में चला जाए,
इस तरफ पड़ जाए वह हिंदुस्तान में चला जाए।
पागल बंट गए। आधे पागल हिंदुस्तान में आ गए, आधे पागल पाकिस्तान में चले गए। अब वे पागल दीवाल पर चढ़ कर एक-दूसरे को
गालियां देते हैं। कुछ उनमें होशियार भी हैं, समझदार भी हैं।
वे पूछते हैं कि बड़ी अजीब बात है! बड़ी अजीब बात है, हम वहीं
के वहीं हैं, सिर्फ बीच में एक दीवाल हो गई, तुम हमारे दुश्मन हो गए, हम तुम्हारे दुश्मन हो गए!
और कल तक हम साथ थे और कोई किसी का दुश्मन नहीं था। यह क्या हो गया है?
लेकिन पागलों को कौन समझाए! क्योंकि जब समझाने वाले ही सब पागल हों, तो फिर पागलों को समझाने के लिए कौन मिल सकता है?
यह देश सारे मसलों के संबंध में एक पागलखाना हो गया है! किसी चीज के
संबंध में सूझ-बूझ का कोई सवाल नहीं है--किसी चीज के संबंध में! और क्यों नहीं है? उसके कुछ कारण हैं। सबसे बड़ा कारण मैं आपसे कहना चाहता हूं, वह यह है कि हमने जब से यह मान लिया है कि सूझ-बूझ के ठेकेदार पहले हो
चुके, अब हमको कोई सूझ-बूझ की जरूरत नहीं है, तब से हमने सूझ-बूझ को छुट्टी दे दी है। सब ऋषि-मुनि, जो भी जानने योग्य था, जान गए और लिख गए। और सब सत्य
जो जाने जा सकते थे, वे हमारी गीता में, हमारे वेद में, हमारे उपनिषदों में लिखे हैं। जब से
हमने यह माना कि हमारी किताबें पूर्ण हो गईं; जब से हमने यह
माना कि हमारे ज्ञानी सर्वज्ञ हैं; जब से हमने यह माना कि
जानने योग्य सब जाना जा चुका है--उसी दिन से हिंदुस्तान ने अपनी प्रतिभा नष्ट कर
दी। उसी दिन से हिंदुस्तान में बुद्धि का विकास रुक गया।
जो बेटे अपने बाप पर शक नहीं करते, वे बेटे नालायक हैं,
वे कभी आगे नहीं बढ़ते। जो बेटे अपने बाप को पकड़ कर अंधे की तरह खड़े
हो जाते हैं, वे वहीं ठहर जाते हैं जहां बाप ठहर गया।
निश्चित ही बाप से आगे जाना जरूरी है, नहीं तो कोई भी समाज रुक
जाता है।
हिंदुस्तान रुक गया है। हम कंटेम्प्रेरी नहीं हैं, हम दुनिया के समसामयिक नहीं हैं। यह भूल कर मत कहना कि हम बीसवीं सदी में
रहते हैं। हिंदुस्तान में मुश्किल से एकाध, दो-चार आदमी
मिलेंगे, जो बीसवीं सदी में रहते हैं। हिंदुस्तान में कोई
ईसा से दो हजार साल पहले रहता है, कोई तीन हजार साल पहले
रहता है। हिंदुस्तान में कई सदियों के लोग एक साथ रह रहे हैं। हिंदुस्तान का
मस्तिष्क पुराना हो गया है। और पुराना हो जाने का बुनियादी कारण यह है कि हमने यह
मान लिया कि अब मस्तिष्क के विकास की कोई जरूरत नहीं है, विकास
हो चुका है। हमने यह स्वीकार कर लिया कि सब जो जाना जा सकता था, वह जाना जा चुका है। हमारी किताबों में सब लिखा है। और इसलिए कोई मुसीबत
आए, तो अपनी पुरानी किताब खोलो और उसमें से समाधान निकालो।
समस्याएं नई हैं और समाधान पुराने हैं; देश पागल न होगा तो
और क्या होगा! समस्याएं जब नई हों, तो नये समाधान चाहिए। और
समस्याएं रोज नई हो जाती हैं, पुरानी समस्या कभी लौट कर आती
ही नहीं। समस्या रोज नई है। और हम? हम पीछे खोजते हैं कि
पुराना समाधान क्या है? और तब एक मुसीबत खड़ी हो जाती है।
मैंने एक छोटी सी कहानी सुनी है। आपने भी सुनी होगी, लेकिन आधी सुनी होगी, क्योंकि कुछ बेईमान लोग सब
अच्छे सत्यों को आधा करके बांट-बांट कर बता रहे हैं! और आधा सत्य जो है वह असत्य
से भी खतरनाक होता है। असत्य तो दिखाई पड़ता है कि असत्य है; आधे
सत्य में भ्रम होता है कि सत्य है। और आधा सत्य जैसा कोई सत्य हो ही नहीं सकता।
सत्य या तो होता है तो पूरा या नहीं होता।
एक आधी कहानी आपने भी सुनी होगी, स्कूल में पढ़ी होगी,
बचपन से ही पढ़ाते हैं। एक सौदागर है। टोपियां बेचता है। वह टोपियां
बेचने गया है एक मेले में। एक वृक्ष के नीचे रुका है; थक गया
है, सो गया है। बंदर उतरे, उसकी
टोपियां लगा कर ऊपर चढ़ गए। सौदागर की आंख खुली, वह हंसा।
उसने सोचा कि अच्छा, बंदर बहुत अकड़ रहे हैं टोपियां लगा कर!
बंदर हमेशा टोपियां लगा कर अकड़ते हैं। और टोपियां अगर खादी की हों, तब तो फिर कहना ही क्या! फिर तो अकड़ बहुत बढ़ जाती है। एक तो बंदर, और फिर खादी की टोपी! फिर बहुत मुश्किल हो जाती है। लेकिन सौदागर ने कहा
कि बंदर ही तो ठहरे, इनसे टोपी छीनने में कोई कठिनाई है?
उसने अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। बंदरों ने भी अपनी टोपियां निकाल
कर फेंक दीं। सौदागर ने टोपियां इकट्ठी कीं और घर चला गया। इतनी कहानी सुनी होगी।
यह आधी कहानी है।
सौदागर का बेटा बड़ा हुआ और सौदागर के बेटे ने भी टोपियां बेचनी शुरू
कीं। क्योंकि जो बाप करता है, वही बेटे को करना चाहिए, ऐसा नियम है। और जब बाप ने टोपियां बेचीं, तो बेटा
भी टोपी बेचेगा। बेटा भी उसी झाड़ के नीचे रुका जब मेले में बेचने गया, जहां बाप रुका था। क्योंकि नियम यह है: बाप जहां रुके, वहीं बेटे को रुकना चाहिए। उसी जगह उसने टोपियों की टोकरी रखी, जहां बाप ने रखी थी। ऊपर बंदर थे; वही बंदर तो नहीं
थे, उनके बेटे थे, वे बैठे थे। सौदागर
का बेटा सो गया। बंदर उतरे और टोपियां लगा कर ऊपर चढ़ गए।
बंदर हमेशा तलाश में रहते हैं कि कहीं टोपी मिल जाए, तो लगाएं और चढ़ जाएं। बंदर इसी तलाश में रहते हैं कि कहीं टोपी भर मिल जाए,
और लगा लें और चढ़ जाएं और बैठ जाएं ऊपर वृक्ष के। वह वृक्ष चाहे
दिल्ली का हो और चाहे अहमदाबाद का हो, इससे कोई फर्क नहीं।
छोटे वृक्ष हैं, बड़े वृक्ष हैं, कई तरह
के वृक्ष हैं। अहमदाबाद के वृक्ष हैं, दिल्ली के वृक्ष हैं।
मगर टोपी मिल जाए तो कोई चढ़ जाए। वे बंदर चढ़ गए टोपी लगा कर।
सौदागर का बेटा उठा, उसने कहा, अरे!
पर उसे खयाल आया कि बाप ने कहानी बताई थी। और बाप ने कहा था, टोपी फेंक देना। उसने कहा, ठीक है बंदरो, तुम मत समझो; हमको पता है रास्ता तुमसे टोपी छीनने
का। उसने टोपी निकाल कर फेंक दी। लेकिन एक चमत्कार हुआ, कोई
बंदर ने टोपी न फेंकी, एक बंदर पर टोपी नहीं थी, वह भी उतरा और नीचे की टोपी ले गया।
यह कहानी पूरी हुई। वह टोपी भी जो थी सौदागर के बेटे की, वह भी बंदर ले गया। बंदर अब तक सीख चुके थे, लेकिन
वह सौदागर का बेटा अब तक नहीं सीखा। बंदर सीख गए थे, पुरानी
तरकीब समझ गए थे। और उन्होंने कहा, अब धोखा नहीं दे सकते!
लेकिन सौदागर का बेटा सोच रहा था, पुराना समाधान काम आ
जाएगा।
बंदरों के साथ भी पुराना समाधान काम नहीं आ सकता है, तो जिंदगी के साथ तो कैसे आएगा? जिंदगी रोज बदल जाती
है। वही जिंदगी नहीं है जो कल थी, वही जिंदगी नहीं है जो
परसों थी, जिंदगी रोज बदल जाती है। जो हम आज तय करेंगे,
वह कल बेमानी हो जाएगा।
इसलिए सवाल यह नहीं है कि समाधान चाहिए। सवाल यह है कि समाधान करने
वाला चित्त चाहिए। बंधे हुए समाधान का सवाल नहीं है। एक ऐसा चित्त चाहिए मुल्क के
पास कि उसके सामने कैसी भी समस्या हो, वह उसको एनकाउंटर कर
सके, मुकाबला कर सके और समाधान खोज सके।
हमारी क्या आदत है? हम कहते हैं, समाधान रेडीमेड तैयार रखो। और रेडीमेड समाधान जो आदमी सीख जाता है,
उसको हम ज्ञानी कहते हैं।
उससे ज्यादा अज्ञानी खोजना मुश्किल है, जिसके पास रेडीमेड
समाधान हो। जो कहता है कि ऐसा हुआ था, तो फौरन उठा कर देखो
कि गांधी जी ने इसके उत्तर में क्या किया था, बस वही हम
करेंगे! गांधी जी ने जो किया, वह उनका, समस्या के सामने उनका मुकाबला था। कृष्ण ने क्या किया, उठा कर देखो जल्दी से गीता में, हम भी वही करेंगे!
कृष्ण ने जो किया, वह उनकी समस्या का मुकाबला था। लेकिन
तुम्हारी समस्या का मुकाबला तुम करो। और जो कौम गुरुओं से बंध जाती है, वादों से बंध जाती है, सिद्धांतों से बंध जाती है,
शास्त्रों से बंध जाती है, उसकी जिद यह होती
है कि हम न सोचेंगे। सोचने का काम तो कोई और कर चुके हैं। हम तो बस रेडीमेड हमारे
पास जवाब तैयार हैं, हम उन्हीं को दोहरा देंगे और उन्हीं से
हल कर लेंगे।
हिंदुस्तान इसलिए रोज सड़ता जाता है। बीस साल आजाद हुए मुल्क को हुए, बीस-बाईस सालों में मुल्क ने जरा भी प्रतिभा नहीं दिखलाई, टैलेंट नहीं दिखलाई, जरा भी जीनियस का कोई पता नहीं
चला। ऐसा नहीं चला कि इन बाईस सालों में हमने जिंदगी को जीने का और मुकाबला करने
का कोई भी प्रतिभापूर्ण रास्ता खोजा हो। हम सिर्फ बंधी-बंधाई लीकों को दोहरा रहे
हैं। हम एकदम उधार कौम हैं, जिसके पास अपना कोई दिमाग ही
नहीं। चाहे उधारी पीछे से आती हो, और चाहे अमेरिका से आए,
चाहे रूस से आए, चाहे चीन से आए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारा दिमाग उधार है।
हमारा दिमाग उधार है, हिंदुस्तान का कम्युनिस्ट तक भी
उधार दिमाग का होता है! वह भी खोजेगा फौरन माक्र्स की किताब खोल कर! वह जैसा कृष्ण
की किताब का खोलने वाला है, गांधी की किताब खोलने वाला है,
वैसा ही वह माक्र्स की किताब खोलने वाला है। लेकिन वह जो दिमाग है,
वह दिमाग यह है कि कहीं समाधान तैयार है, हम
उसे निकाल लें। लेकिन हम समाधान को पैदा करें, हम समस्या से
जूझें, हम समस्या को जीएं और पहचानें और खोजें कि क्या
समाधान हो सकता है--वह हमारी दृष्टि नहीं रह गई है, वह हमारे
मन का ढांचा नहीं रह गया है।
इसलिए देश कोई भी हल नहीं कर पाता। उलझनें नई होती चली जाती हैं, सुलझाव पुराने। एक तरफ सुलझाव इकट्ठे होते हैं, एक
तरफ उलझनें इकट्ठी होती हैं और हम बेचैन होते चले जाते हैं। कुछ भी हल नहीं होता।
कुछ भी हल होने की क्षमता ही हमने खो दी है, ऐसा मालूम पड़ता
है।
मैंने सुना है, एक गांव में सम्राट आने वाला था। और गांव के लोगों ने
कहा कि गांव के जितने भी समझदार लोग हैं, सम्राट से मिलें,
सम्राट का स्वागत करें। गांव में एक संन्यासी भी था, एक फकीर भी था। गांव के लोगों ने कहा, हमारे मंडल का
प्रमुख वही होगा। लेकिन राजा के अधिकारियों ने कहा कि फकीर का कोई भरोसा नहीं,
उसकी बातचीत का कुछ ठिकाना नहीं, कुछ भी कह
दे। तो हम उसको तैयार उत्तर सिखाएंगे। वह उत्तर तैयार रखे। वही उत्तर दे, राजा जब पूछे। उसकी बात का कोई ठीक नहीं है। राजा पूछे कि तुम्हारी उम्र
कितनी है? और वह कहे कि मैं अनादि-अनंत आत्मा हूं। तो जरा
भद्द हो जाएगी और अजीब बातें हो जाएंगी। सीधी बात! जब राजा पूछे, उम्र कितनी है? तो कहो कि साठ वर्ष उम्र है। राजा
पूछे, आप कब से साधना कर रहे हो? तो
कहो कि तीस वर्ष से साधना कर रहा हूं। ऐसा नहीं कि जन्मों-जन्मों से साधना चल रही
है।
फकीर ने कहा, तो फिर आप बता दें। जो आप कहेंगे, वही मैं कह दूंगा।
फकीर ने रट लिया कि साठ वर्ष मेरी उम्र है, और तीस वर्ष से मैं साधना कर रहा हूं। इस तरह के उत्तर। राजा आया, फकीर सामने गया। राजा को भी कह दिया गया था कि फकीर से यही पूछना, कुछ और मत पूछ लेना। लेकिन राजा भूल गया। उसने यह सोचा भी न था कि मामला
इतना गड़बड़ होगा। उसने कहा, आप कब से साधना कर रहे हैं?
फकीर ने कहा, साठ वर्ष से।
उत्तर तो तैयार था। फकीर एक क्षण तो सोचा कि यह तो बड़ी गड़बड़ हुई जा
रही है। लेकिन जब उत्तर तय है और बदलना अपने हाथ में नहीं है, तो उसने कहा, साठ वर्ष से।
राजा ने कहा, आश्चर्य! आपकी उम्र कितनी है?
क्योंकि वह साठ वर्ष का तो मालूम ही पड़ता था।
फकीर ने कहा, तीस वर्ष।
राजा ने कहा, या तो मैं पागल हूं या आप!
फकीर ने कहा, दोनों पागल हैं। क्योंकि आप भी सीखे हुए प्रश्न पूछ
रहे हैं और मैं भी सीखे हुए जवाब दे रहा हूं। दोनों पागल हैं! और जब आप गलत सवाल
पूछ रहे हैं, तो हम गलत जवाब देंगे ही, क्योंकि हम तो जवाब देने को स्वतंत्र हैं ही नहीं। हमें तो सिखा दिया है,
वही हम जवाब दे रहे हैं।
इस देश की जिंदगी में ऐसा बहुत जोर से हो रहा है। सब जवाब सीखे हुए
हैं। और सब सवाल नये हैं। उनके बीच कोई तालमेल नहीं बैठता। और हम इतने डरे हुए लोग
हैं कि कहीं पुराने जवाब छूट न जाएं, इसलिए हम कहते हैं,
चाहे सवाल कोई भी हो, हम तो पुराना जवाब ही
देंगे। सीखते भी नहीं, जिंदगी से कोई पाठ भी नहीं सीखते!
हिंदुस्तान एक हजार साल गुलाम रहा। हमने कोई पाठ नहीं सीखा। हमने क्या
पाठ सीखा कि हिंदुस्तान क्यों गुलाम रहा? हिंदुस्तान से पूछो
कि तुमने एक हजार साल की गुलामी से पाठ क्या सीखा? तो आप
हैरान होंगे, जो पाठ सीखना था वह हिंदुस्तान ने सीखा ही
नहीं। क्योंकि वह जो बातें कर रहा है, वे बताती हैं कि वह
उन्हीं बातों को फिर दोहरा रहा है जिनकी वजह से वह एक हजार साल गुलाम रहा।
हिंदुस्तान एक हजार साल क्यों गुलाम रहा? हिंदुस्तान कमजोर था? हिंदुस्तान कम संख्या थी?
हिंदुस्तान में जो दुश्मन आए, वे बहुत बड़ी
तादाद में थे? हिंदुस्तान की जमीन पर आकर दुश्मनों ने हराया।
हम तो कहीं लड़ने नहीं गए। तो हमारे पास तो बड़ी संख्या थी, दुश्मन
कितना आ सकता था! लेकिन बात क्या थी?
एक बात थी कि हिंदुस्तान टेक्नॉलॉजी में हमेशा पीछे रहा। इसके सिवाय
हिंदुस्तान की गुलामी का कोई भी कारण नहीं। अगर कोई कहे तो बेईमान है।
जब हिंदुस्तान पर सिकंदर ने हमला किया, तो सिकंदर तो घोड़ों
पर सवार आया और पोरस हाथियों पर लड़ने गया। पोरस सिकंदर से जरा भी कमजोर आदमी नहीं
था। बल्कि अगर दोनों अकेले सामने मैदान में लड़ते, तो सिकंदर
दो कौड़ी का साबित होता। पोरस बहुत अदभुत आदमी था। लेकिन टेक्नॉलॉजी गलत थी और
पिछड़ी हुई थी। हाथी शादी-विवाह में, बारात वगैरह में ठीक है।
बारात निकालनी हो, बड़ा अच्छा है। किसी साधु महाराज का जुलूस
निकालना हो, बहुत अच्छा है। लेकिन हाथी युद्ध के मैदान पर
बेमानी है। हाथी, हारना हो तो युद्ध के मैदान पर ठीक है। और
घोड़ों के सामने! घोड़ा तेज है। टेक्नॉलॉजिकली, युद्ध में घोड़ा
ज्यादा सबल और सक्षम है। थोड़ी जगह घेरता है, तेजी से भागता
है, जल्दी रुख बदलता है, कहीं भी निकल
कर, बच कर भाग सकता है। हाथी बहुत सुस्त है एक अर्थों में।
हाथी पर लड़ा पोरस--ताकत ज्यादा थी। घोड़ों पर लड़ा सिकंदर--ताकत उतनी न थी। लेकिन
सिकंदर जीता और पोरस हारा।
फिर आए मुसलमान। और मुसलमान बारूद लेकर आए। और हिंदुस्तान में बारूद
की कोई ईजाद न थी। और हिंदुस्तान अपना वही तीरत्तरकस और तलवार लिए खड़ा रहा। बारूद
के सामने तीरत्तरकस नहीं जीतते। मुसलमान नहीं जीते, हिंदुस्तान नहीं हारा;
तीरत्तरकस हारे, बारूद जीती। टेक्नॉलॉजी जीतती
है। विकसित टेक्नॉलॉजी हमेशा अविकसित टेक्नॉलॉजी से जीत जाती है।
फिर अंग्रेज आए। वे और बढ़िया तोपें लेकर आए थे। और हम वही पुराना, जैसे चिड़िएं वगैरह भगाने का सामान हो खेत में, उस
तरह की चीजें लिए बैठे थे। अंग्रेज कितनी थोड़ी ताकत लेकर आया था, लेकिन उसके पास तोपें थीं। और तोपों ने हमें मुश्किल में डाल दिया। हमारी
समझ के बाहर हो गया, हम क्या करें।
हिंदुस्तान एक हजार साल गुलाम रहा, क्योंकि हिंदुस्तान
वैज्ञानिक रूप से कम विकसित रहा। और कोई कारण नहीं है। हिंदुस्तान अब भी वैज्ञानिक
रूप से कम विकसित है और कम विकसित ही रहेगा। क्योंकि हिंदुस्तान के समझाने वाले
लोग हिंदुस्तान को एंटी-टेक्नॉलॉजिकल बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं और
एंटी-साइंटिफिक बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं। वे कहते हैं, विज्ञान की क्या जरूरत है? तकनीक की क्या जरूरत है?
हम तो चर्खात्तकली कात लेंगे और हमारा काम हो जाएगा।
तुम कातो चर्खात्तकली, लेकिन दुनिया इसकी
फिक्र नहीं करती कि आप चर्खात्तकली कात रहे हैं, इसलिए आपको
बड़ा आदर दिया जाए, कि आपको स्वतंत्र रखा जाए! यह सब नहीं
होने वाला है।
और इस मुल्क का मस्तिष्क जो है, वह इस तरह ढाला गया
है पांच-छह हजार सालों में कि जब भी हमें कुछ विकसित बात कही जाए, तो हमारी समझ के बाहर होती है; अविकसित बात कही जाए,
तो हमारी समझ में एकदम से आती है। अगर कोई एलोपैथी की बात कहे,
तो हम कहेंगे यह...। अगर कोई आयुर्वेद की बात कहे, तो हम कहेंगे, यह बिलकुल ठीक है, ऋषि-मुनियों का विज्ञान है। सवाल एलोपैथी और आयुर्वेद का नहीं है, सवाल आधुनिक और पुरातन का है। नया जीतेगा, पुराना
हारेगा। और जो पुराने को पकड़े रहेगा, उसके साथ वह भी हारेगा,
वह बच नहीं सकता।
इस जगत में निरंतर नये की जीत है। और नये की जीत स्वाभाविक है।
क्योंकि नये का अनुभव पुराने से ज्यादा है। नये का प्रयोग ज्यादा है। नये की
प्रक्रिया और भी अनुभवों में से गुजर चुकी है। नया जीतता है, पुराना हारता है।
भारत सदा से पुराना है, इसलिए हारता रहा है।
अब भी भारत पुराना है। अब भी भारत के पास नया क्या है? अगर
रूस में जाओ और बच्चों से पूछो, तो वे सपने देख रहे हैं चांद
पर मकान बनाने के। अमेरिका में जाओ, तो वे मंगल की यात्राओं
के ख्वाबों से भरे हैं। और हिंदुस्तान के बच्चों के पास जाओ, वे अभी भी रामलीला देख रहे हैं।
रामलीला देखना इतना बुरा नहीं है, ऐसे रामलीला बहुत
बढ़िया चीज है, लेकिन कभी-कभी देखने के लायक है। उसको ही
देखते रहना बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
हिंदुस्तान का दिमाग पुराने से ग्रसित है। नये का न कोई आमंत्रण है, न कोई स्वीकृति है। और मजे की बात यह है कि अगर हम किसी तरह नये को
स्वीकार भी करते हैं, तो वह ऐसे बेमन से करते हैं, वह ऐसी मजबूरी में करते हैं, वह हमारे लिए नेसेसरी
ईविल की तरह मालूम पड़ता है, एक जरूरी बुराई की तरह स्वीकार
करते हैं कि ठीक है, अब कोई रास्ता नहीं है, तो चलो, इसको स्वीकार कर लेते हैं।
लेकिन जब कोई बेमन से स्वीकार करता है नये को, तो नया ऊपर रह जाता है, पुराना भीतर रह जाता है।
इसलिए हम ऊपर से नये को स्वीकार भी कर लें, तो हमारे
वस्त्रों से ज्यादा कुछ भी नया नहीं हो पा रहा है। हां, नेकटाई
है, वह कंठ-लंगोट, वह नया हो गया है!
जूते नये हो गए हैं, कपड़े नये हो गए हैं, लेकिन भीतर जो आदमी खड़ा हुआ है, एकदम पुराना है!
अब लड़का है, टाई लगाए हुए खड़ा है, उसने
बढ़िया नैरोकट कपड़े पहन रखे हैं, लेकिन हनुमान जी के सामने
हाथ जोड़े खड़े हैं कि परीक्षा में पास करवा देना तो नारियल चढ़ाएंगे। अब यह हद हो
गई! अगर हनुमान जी का भी वश चले तो ऐसा चांटा मारें वे! लेकिन वह ऊपर से कपड़े भर
नये हो गए हैं, दिमाग तो वही का वही है। एम.एससी. लड़कों को
मैं देखता हूं कि जाकर मढ़िया में प्रसाद चढ़ा रहे हैं! एम.एससी. पढ़ रहे हैं!
कलकत्ते में एक घर में मैं मेहमान था एक डाक्टर के घर। एफ.आर.सी.एस.
हैं, बड़े भारी फिजीशियन हैं कलकत्ते के। सांझ को मुझे लेकर
मीटिंग में जाने को थे, गाड़ी में जा ही रहे थे, चढ़ ही रहे थे कि उनकी लड़की को छींक आ गई। मुझसे बोले, एक मिनट रुक जाइए।
मैंने कहा, पागल हो गए हो? डाक्टर हो,
तुम भलीभांति जानते हो कि छींक क्यों आती है। और तुम्हारी लड़की को
छींक किसी भी वजह से आए, मेरे रुकने का क्या संबंध है?
मेरा क्या कसूर है? और तुम्हारी लड़की को छींक
आ गई तो अब सारी दुनिया रुक जाए क्या? मामला क्या है,
तुम्हारी लड़की की छींक में ऐसी विशेषता क्या है?
उन्होंने कहा, नहीं, यह कोई बात नहीं। आप कहां
ले गए! मगर क्या हर्जा है? मैं जानता हूं कि छींक में कुछ
नहीं होता, लेकिन एक मिनट रुकने में हर्जा क्या है?
मैंने उनसे कहा, हर्जा बहुत भारी है। एक मिनट
रुकने का सवाल नहीं है। यह बताता है कि तुम डाक्टरी ऊपर से सीख आए हो, भीतर वह जो ग्रामीण भारतीय है वह बैठा हुआ है, वह
कहीं गया नहीं है। और हर्जा भारी है। क्योंकि आत्मा पुरानी हो और शरीर नया हो जाए,
तो इतना तनाव पैदा होगा देश के भीतर, जिसका
कोई हिसाब नहीं। क्योंकि असली गति आत्मा से आती है, शरीर से
नहीं आती। शरीर तो बोझ बन जाएगा। अगर आत्मा पुरानी है और शरीर नया है, तो शरीर बोझ बन जाएगा, क्योंकि आत्मा रोकेगी पीछे की
तरफ। और शरीर की क्या ताकत है?
अभी मैं जालंधर था। एक इंजीनियर मित्र हैं, उन्होंने एक बड़ा मकान बनाया। पंजाब के बड़े इंजीनियर हैं। जर्मनी में
शिक्षा ली है। मुझसे कहने लगे, उदघाटन कर दें। मैंने कहा,
मैं चलूंगा। उदघाटन करने गया, उनके मकान का
फीता काट रहा हूं, देखता हूं--सामने एक हंडी लटकी हुई है।
हंडी पर बाल लगाए हुए हैं, आदमी का चेहरा बना हुआ है। मैंने
पूछा, यह क्या है? उन्होंने कहा कि नजर
न लग जाए, इसलिए इसे यहां लटकाया हुआ है। मैंने उनसे कहा,
मेरा वश चले तो चोरों-बदमाशों को कारागृह से छोड़ दूं और तुम जैसे
लोगों को कारागृह में बंद कर दूं।
एक इंजीनियर भी सोचता है कि मकान को नजर लगती है! तो फिर इस मुल्क का
सौभाग्य उदय नहीं हो सकता। यह इंजीनियर ऊपर से होकर आ गया, भीतर वही पुराना आदमी बैठा हुआ है, जो हटता नहीं। वह
बैठा है मजबूती से बांध कर। हां, अगर और दूसरी बातचीत करनी
हो, ठीक। लेकिन अपना मकान बनाना हो, तो
वह भीतर का आदमी कहेगा, क्या हर्जा है, हंडी लटका दो! कोई हर्जा तो है ही नहीं। अगर फायदा हुआ तो हो जाएगा,
नहीं तो चार पैसे की हंडी में हर्जा क्या है? वह
भीतर का आदमी ये दलीलें देता है, और हंडी लटका दी जाती है।
भारत बेमन से स्वीकार कर रहा है नये को। और नये की अस्वीकृति के लिए
उसने खूब दलीलें निकाली हुई हैं। एक दलील तो उसने यह निकाली हुई है कि सब नई चीज
को वह कहता है कि यह पश्चिम की है।
यह बात झूठ है। पश्चिम का कहने से मामला हल नहीं होगा। नये का अर्थ है
आधुनिक, मॉडर्न--वेस्टर्न नहीं। नये का अर्थ है आधुनिक। लेकिन
भारत के मन में पुराने की पकड़ तेज है। और अभी हम पश्चिम के गुलाम थे, तो पश्चिम के प्रति घृणा भी तेज है। तो भारत का पुराणपंथी कहता है कि देखो,
सब पश्चिमी हुए जा रहे हैं!
सवाल पश्चिमी होने का नहीं है, सवाल आधुनिक होने का
है। और चूंकि पश्चिम में नये का जन्म हो रहा है, इसलिए
अनिवार्य हो गया है कि वह जो नया है वह स्वीकार किया जाए या फिर नये को जन्म दिया
जाए। लेकिन अगर हमने यह डर रखा कि कहीं पश्चिमी प्रभाव में न आ जाएं, तो हम आधुनिक होने से बच जाएंगे।
और हम आधुनिक होने से बचे तो एक सौ वर्षों के भीतर हमारी वह हालत होगी, जो हमारे मुकाबले आदिवासियों की है; उससे भी बदतर हो
सकती है, पश्चिम के मुकाबले। आज भी हो गई है। आज भी कल्पना
के बाहर है कि हमारे और पश्चिम के बीच कितना फासला हो गया है! आज अमेरिका और हमारे
बीच कैसा फासला है, यह कल्पना के बाहर है, एकदम कल्पना के बाहर है! और यह सौ वर्षों में इतनी तेज गति हो जाने वाली
है कि अगर हमने चर्खेत्तकली की बातें जारी रखीं, और कोई भी
बहाने खोज कर हमने शोरगुल मचाया, तो हम जो अंतिम नुकसान
पहुंचा सकते हैं मुल्क को वह यह कि अगर पचास वर्षों तक हिंदुस्तान में तकनीक ने
इतना विकास नहीं किया कि हम पश्चिम के साथ खड़े हो जाएं, तो
हमारे और पश्चिम के बीच ऐसी दरार हो जाएगी कि उस दरार को भरना फिर असंभव हो जाएगा।
आने वाले पचास वर्षों में भारत के युवकों को पांच हजार वर्ष का फासला
पूरा करना है। अन्यथा फिर हम पिछड़ेंगे और हम पूरा नहीं कर पाएंगे। बहुत मुश्किल हो
जाएगा। लेकिन बड़ा डर लगता है कि युवक कैसे पूरा करेगा? क्योंकि वह युवक भी एक अर्थ में युवक नहीं है, उसके
भीतर भी पुराना आदमी बैठा हुआ है। वह भी बूढ़ा है। हिंदुस्तान में जवान आदमी खोजना
बहुत मुश्किल है।
आप कहेंगे, इतने जवान आदमी घूम रहे हैं!
वे सब घूम रहे हैं, बस वे ऊपर से जवान हैं, भीतर उनके बूढ़ा आदमी बैठा है। कितने हिंदुस्तान के लड़के पहाड़ पर चढ़ते हैं?
कितने हिंदुस्तान के लड़के समुद्र्र लांघते हैं? कितने हिंदुस्तान के लड़के नये की खोज पर निकलते हैं? कितने हिंदुस्तान के लड़के अज्ञात में प्रवेश करने की चेष्टा करते हैं?
कितने हिंदुस्तान के लड़के यह कहते हैं कि पुरानी लीक पर चलने से हम
इनकार करते हैं?
जवानी का लक्षण यह है कि वह कहे कि हम पुरानी लीक पर नहीं चलेंगे; हम कुछ नया रास्ता बनाएंगे। हमें भी जिंदगी मिली है, हम भी कुछ नई जिंदगी जीएंगे।
और ध्यान रहे, जिंदगी का रस केवल वे ही लोग उपलब्ध कर पाते हैं,
जो नये होने की और नई तरफ जाने की कोशिश करते हैं।
लेकिन हमारे मुल्क में लोग समझाएंगे--नया? नया कभी हुआ है? आकाश के नीचे सब पुराना है। नया कभी
हुआ ही नहीं। वही सूरज है, वही चांद है, वही वृक्ष हैं, वही मौसम हैं--सब वही है, नया है क्या?
यह मुल्क समझाता है, नया कुछ भी नहीं है, सब पुराना है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं, पुराना कभी भी कुछ
नहीं है; सब नया है। कल जो सूरज निकला था, वह आज नहीं निकला है; आज दूसरा सूरज निकला है। आप एक
घंटे मुझे सुन कर जाएंगे, तो इस खयाल में मत रहना कि आप वही
आदमी जा रहे हैं जो आए थे। इस एक घंटे में बहुत गंगा का पानी बह जाएगा। आपके भीतर
भी बहुत पानी बह जाएगा। आप दूसरे आदमी ही जाने वाले हैं। आप वही आदमी नहीं हैं फिर
यहां से जाते समय जो आए थे। इस एक घंटे में कुछ तो हुआ। आप मरे हुए तो नहीं हैं।
मुर्दा अगर हम लाते इस कमरे में, तो घंटे भर के बाद भी वह
वही होता। जिंदा आदमी--हां, कुछ मुर्दे भी आ गए होंगे,
तो वे वही होंगे--जिंदा आदमी तो बदलेगा। जिंदगी का मतलब बदलाहट है।
और जिंदगी प्रतिपल बदल रही है। और जितनी तेजी से बदलती है जिंदगी, जितनी डायनेमिक होती है, उतनी जिंदगी है।
लेकिन हिंदुस्तान में कुछ नहीं बदलता। और हिंदुस्तान का मन ऐसा पकड़
लिया है कि सब पुराना है, सब वही है, सब सदा से वही है।
मैंने सुनी है एक कहानी, आपने भी सुनी होगी,
कि चूहों ने एक दफा सभा की और बिल्ली के लिए सोचा--क्या करें,
क्या न करें! तो उन्होंने कहा, अपनी पुरानी
किताब खोलो। पुरानी किताब खोली--बिल्लियों के संबंध में क्या लिखा है पुराने चूहों
ने? पुराने चूहों ने लिखा है कि एक दफा और सभा हुई थी,
कई दफे सभा हो चुकी है। बिल्ली के गले में घंटी बांधी जाए, यह ऋषियों ने कहा है--चूहों के ऋषियों ने--कि बिल्ली के गले में घंटी
बांधी जाए। अगर घंटी बंध जाए, तो फिर बिल्ली का कोई डर नहीं
है। यह तो समाधान साफ है। लेकिन फिर किसी बूढ़े चूहे ने कहा, लेकिन
घंटी बंधेगी कैसे? फिर लोगों ने कहा, यह
बात तो सच है, सिद्धांत तो सही है, लेकिन
इसका व्यवहार क्या होगा? घंटी बंधे कैसे? घंटी बांधे कौन? फिर बात वहीं अटक गई। सिद्धांत
बिलकुल सही है, लेकिन घंटी बांधे कौन? दो
नये चूहों ने, कालेज में पढ़ते होंगे, उन्होंने
कहा कि छोड़ो फिक्र, हम कल बिल्ली के गले में घंटी बांध
देंगे।
लेकिन बुङ्ढों ने कहा, यह कभी हुआ ही नहीं।
यह कभी हुआ ही नहीं, कभी हो भी नहीं सकता। क्या तुम पागल हो
गए हो? नये छोकरे हो, दिमाग खराब हो
गया है!
उन्होंने कहा, आप बातचीत मत करिए, जब घंटी बंध
जाए कल तब मुलाकात करिए।
बूढ़े खूब हंसे बैठ कर कि लड़कों का दिमाग खराब हो गया! लड़के हमेशा इस
तरह की बातें करते हैं। कहीं घंटी बंधी है?
लेकिन दूसरे दिन बिल्ली के गले में घंटी बंध गई। बूढ़े बड़ी मुश्किल में
पड़ गए कि यह क्या हुआ? कैसे घंटी बंधी? उन लड़कों से
पूछा।
उन्होंने कहा, इसमें कोई बात ही नहीं है, इतनी
साधारण सी बात है। उन दोनों छोकरों का--चूहों के छोकरों का--एक दवाई की दुकान में
आना-जाना था। एक नींद की गोली ले आए, बस इतना ही राज था। और
जहां बिल्ली दूध पीती थी वहां डाल दी। बिल्ली बेहोश हो गई। उन्होंने घंटी बांध दी।
लेकिन हजारों साल से चूहे सोचते थे कि घंटी कैसे बांधी जाए? और बूढ़े चूहे कहते थे, घंटी बांधी ही नहीं जा सकती।
ऐसी कोई घंटी नहीं है जो न बांधी जा सकती हो। और ऐसा कुछ भी नहीं है
जो न बदला जा सकता हो। और ऐसा कुछ भी नहीं है जो न हो सकता हो। लेकिन जिस देश के
प्राणों ने ऐसा तय कर रखा हो कि पुराने के सिवाय नया कुछ होता ही नहीं, उस देश की पूरी आत्मा सिकुड़ जाती है। और उस देश की पूरी आत्मा शक्ति खो
देती है, सामर्थ्य खो देती है, सपना खो
देती है। और फिर धीरे-धीरे हम आदी हो जाते हैं--जो है, वही
है, इससे अन्यथा कुछ भी नहीं हो सकता। यह इतने जोर से बैठ
गया है हमारे मन में कि अगर यह न तोड़ दिया जाए, तो इस देश
में कोई भी गति संभव नहीं होगी।
इसे तोड़ा जाना जरूरी है। इसे सब तरफ से तोड़ा जाना जरूरी है। और जितनी
कोशिश की जा सके इसे तोड़ने के लिए, जितने तर्क दिए जा
सकें, जितना विचार किया जा सके, उतना
ही सौभाग्य का सिद्ध होगा।
दोत्तीन बातें इस संबंध में कहूंगा और अपनी बात पूरी करूंगा।
एक बात जो पुराना निरंतर कहता है पुराने के पक्ष में, उसे समझ लेना चाहिए। वह यह कहता है कि अतीत में हो चुका है स्वर्णयुग।
गोल्डन एज जो है, वह हो चुकी। स्वर्णयुग हो चुका पहले,
अब तो हम पतन कर रहे हैं। पंचम-काल चल रहा है, कलियुग चल रहा है। न मालूम और कितनी बातें वह कहता है। वह कहता है: आगे?
आगे तो पतन है, अंधकार है, महाप्रलय है। पीछे, पीछे सतयुग बीत चुका। राम-राज्य
बीत चुका। पीछे हो चुका जो होना था श्रेष्ठ। ऊंचाइयां हमने छू लीं, अब आगे तो पतन के गङ्ढे ही हैं।
हिंदुस्तान हजारों साल से यह बात कह रहा है। हिंदुस्तान के मन ने यह
अंगीकार कर लिया। और जब कोई यह अंगीकार कर ले कि आगे अंधेरा है, गङ्ढा है, प्रलय है, तो फिर
धीरे-धीरे-धीरे-धीरे गङ्ढा पैदा हो जाएगा, अंधकार भी हो
जाएगा, अंधेरा भी हो जाएगा। और जब अंधेरा आएगा, गङ्ढा आएगा, तो वह आदमी कहेगा कि देखो, ऋषि-मुनियों ने जो कहा था, कितना ठीक कहा था!
वह ऋषि-मुनियों के कहने की वजह से, उनकी भविष्यवाणी की
वजह से नहीं आ रहा है अंधकार। भविष्यवाणी को स्वीकार किया गया, इससे आ रहा है। और वह आता चला जा रहा है। सारी दुनिया के लोग सोचते
हैं--भविष्य में है स्वर्णयुग। आएगा, आगे उटोपिया है। और हम
सोचते हैं, पीछे हो गया।
लेकिन वे पीछे का सोचने वाले बताते क्या हैं?
वे कहते हैं, पीछे हो गया। देखो, राम का
जमाना कितना अदभुत था! बुद्ध का जमाना कितना अदभुत था! कृष्ण का जमाना कितना अदभुत
था!
उनकी दलील बड़ी कमजोर है, बिलकुल लचर है,
उसमें कोई बुनियाद नहीं है।
अभी हम हैं सारे लोग। अभी हमारे बीच अदभुत आदमी थे गांधी। दो हजार साल
बाद न मुझे कोई याद रखेगा, न आपको, लेकिन गांधी दो हजार
साल बाद याद रहेंगे। और दो हजार साल बाद लोग कहेंगे कि गांधी के जमाने के लोग
कितने अच्छे रहे होंगे! गांधी जिस जमाने में पैदा हुआ, उस
जमाने के लोग कितने अच्छे रहे होंगे!
और उनकी बात बिलकुल झूठ होगी। क्योंकि गांधी हमारे सबूत नहीं हैं, न हमारे प्रमाण हैं, न हमारे साक्षी हैं। वे हमारे
विटनेस नहीं हैं। गांधी हमसे बिलकुल उलटे हैं। गांधी अपवाद हैं, एक्सेप्शन हैं, वे नियम नहीं हैं। हम उनसे बिलकुल
उलटे हैं। लेकिन हम तो भूल जाएंगे, इतिहास के पन्नों पर कोई
हमारे बाबत कुछ न लिखेगा। और गांधी बच रहेंगे। और गांधी की तस्वीर बड़ी होती चली
जाएगी, बड़ी होती चली जाएगी। और एक दिन लोग गांधी का युग
कहेंगे हमारे युग को। और कहेंगे कि कितने अच्छे लोग रहे होंगे!
यही कहानी बार-बार होती रही है। राम याद रह गए हैं। राम के जमाने का न
मैं याद हूं, न आप याद हैं। राम के जमाने के आम आदमी का कुछ भी पता
नहीं। राम रह गए हैं। राम की तस्वीर बड़ी होती चली गई है। अब हम कहते हैं, राम का युग! अब हम कहते हैं, बुद्ध जब पैदा हुए!
महावीर जहां हुए!
लेकिन ये बातें बेमानी हैं। ये सारे लोग अपवाद हैं। ये असली आदमी नहीं
हैं। यह जो आदमी फिरता है, जीता है, ये वह नहीं हैं। ये
मूर्तियां हैं। ये वे कुछ लोग हैं, जो जीवन भर चेष्टा करके
ऊंचे उठते हैं। लेकिन ये सबके सबूत नहीं हैं।
और मेरा मानना है कि अगर इसी तरह के बहुत लोग होते गांधी जैसे, तो गांधी को कोई याद भी नहीं रखे। अगर राम जैसे बहुत लोग रहे हों, सारा युग अच्छा रहा हो, तो राम कभी याद नहीं रखे जा
सकते। राम याद रहते इसलिए हैं कि चारों तरफ राम से ठीक उलटे लोग घेरे हुए हैं,
नहीं तो राम याद नहीं रहेंगे। एक स्कूल का मास्टर है, वह भी इतनी सी बात जानता है। वह सफेद दीवाल पर नहीं लिखता सफेद खड़िया से।
लिखे तो लिख जाएगा, लेकिन पढ़ा नहीं जा सकता। काले
ब्लैक-बोर्ड पर लिखता है। क्यों? काले ब्लैक-बोर्ड पर सफेद
खड़िया उभर कर दिखाई पड़ती है, पढ़ा जाता है।
जब समाज का ब्लैक-बोर्ड होता है पूरा, तभी महापुरुष दिखाई
पड़ते हैं, नहीं तो दिखाई नहीं पड़ते। जिस दिन सारा समाज अच्छा
होगा, उस दिन महापुरुष तो पैदा होंगे, लेकिन
दिखाई नहीं पड़ेंगे। जिस देश का समाज जितना बुरा होता है, उस
देश में उतने ही ज्यादा महापुरुष दिखाई पड़ते हैं। इस फिक्र में मत पड़ना कि सारे
भगवान यहीं क्यों अवतार लेते हैं? और कोई कारण नहीं है। और
सारे महापुरुष और संत यहीं क्यों पैदा होते हैं? और कोई कारण
नहीं है। वे दिखाई पड़ते हैं। सारे समाज का ब्लैक-बोर्ड बहुत काला है। उस पर एक
आदमी भी सफेद हो जाता है तो बहुत चमकता है। हजारों साल तक चमकता रहता है।
नहीं, पीछे कुछ स्वर्णयुग नहीं हो गए हैं। कुछ अच्छे आदमी
हुए हैं। स्वर्णयुग तो उस दिन होगा, जिस दिन सारे लोग इतने
अच्छे आदमी होंगे। वह भविष्य में हो सकता है। वह पीछे नहीं है, वह पीछे नहीं हुआ है।
फिर उनकी शिक्षाएं भी उठा कर देखें। पुरानी से पुरानी किताब देखें। तो
वह किताब भी यह नहीं कहती है कि आजकल के लोग अच्छे हैं। वह किताब कहती है, पहले के लोग अच्छे थे। पुरानी से पुरानी किताब यह कहती है, पहले के लोग अच्छे थे। छह हजार वर्ष पुरानी किताब भी यही कहती है कि पहले
के लोग अच्छे थे। तब जरा शक होता है कि ये पहले के लोग कब थे? ये थे भी कभी? या कुछ अच्छे लोगों की याद के आधार पर
हमेशा पहले के लोग अच्छे दिखाई पड़ते हैं?
और भी कारण मालूम होते हैं। अगर हम महावीर की शिक्षाएं उठा कर देखें, तो महावीर क्या समझाते हैं सुबह से सांझ तक? सुबह से
सांझ तक समझाते हैं: चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, दूसरे की स्त्री को मत भगाओ, हिंसा मत करो। अगर लोग
अच्छे थे, तो महावीर का दिमाग खराब था, यह किसको समझा रहे हैं? बुद्ध भी यही समझाते हैं।
क्राइस्ट भी यही समझाते हैं। दुनिया के सारे महापुरुष सुबह से शाम तक लेकर एक ही
काम करते हैं--चोरी मत करो, हिंसा मत करो, बेईमानी मत करो, व्यभिचार मत करो। किसको समझाते हैं
ये चौबीस घंटे ये बातें? अगर लोग अच्छे थे, तो समझाने की कोई जरूरत न थी। लेकिन लोग उलटे रहे होंगे। चोरों को ही
समझाना पड़ता है--चोरी मत करो। बेईमानों को समझाना पड़ता है--बेईमानी मत करो। नहीं
तो किसको समझाना पड़ेगा? हत्यारों को समझाना पड़ता है--हिंसा
बुरी है, अहिंसा परम धर्म है। यह सिर्फ हिंसकों को समझाना
पड़ता है कि अहिंसा परम धर्म है। ये सारी शिक्षाएं बताती हैं कि समाज कैसे लोगों से
गठित था! कैसे लोग थे!
वह जो लोग कहते हैं कि ताले नहीं लगते थे हमारे देश में, तो चोरी होती ही नहीं होगी। शक की बात है। क्योंकि जब ताले नहीं लगते हैं,
तभी महावीर दिन-रात समझा रहे हैं, बुद्ध समझा
रहे हैं कि चोरी मत करो। तो इससे यह पता चलता है कि ताले बनाना न आता होगा। और यह
भी हो सकता है कि ताला बनाना भी आता हो, तो ताले में रखने
योग्य कुछ न रहा होगा। यही दो बातें हो सकती हैं, तीसरी बात
नहीं हो सकती। आखिर ताले में रखने को भी तो कुछ चाहिए न! ताला काहे पर लगाइएगा?
ताला लगाने के लिए कुछ चाहिए न! देश इतना गरीब रहा है कि कहां ताला
लगाओगे? किस चीज पर ताला लगाओगे? आज भी
करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनके पास ताला लगाने को कुछ भी तो नहीं है। तो उनके घर पर
ताला न लगे, तो यह मत समझ लेना कि चोरी नहीं होती। चोरी के
लिए भी तो कुछ चाहिए! चोरी किसकी होगी? लेकिन महावीर और
बुद्ध की शिक्षाएं बताती हैं कि चोरी बराबर होती रही होगी। और या फिर यह भी हो
सकता है कि ताला चोरी चला गया हो। आपने लगाया हो और कोई चोर ही ले गया हो। पीछे
आने वाले आदमी ने देखा हो कि अरे ताला नहीं है, इस गांव में
चोरी नहीं होती।
लेकिन आदमी का सबूत मिलता है इस बात से कि जो शिक्षाएं उसे दी गई हैं।
हमारी सारी शिक्षाएं बताती हैं कि समाज अच्छा नहीं रहा है।
लेकिन समाज अच्छा हो सकता है। और तब होगा अच्छा, जब हम यह भ्रम छोड़ दें कि समाज अच्छा था। समाज अच्छा हो सकता है। लेकिन समाज
अच्छा अपने आप नहीं हो जाता है। समाज अगर बुरा है, तो हमारे
कारण है। और समाज अगर अच्छा होगा तो हमारे कारण होगा। हम कुछ करेंगे तो होगा।
लेकिन भारत मानता है कि हमारे किए तो कुछ होता नहीं, सब भगवान करता है। इस बात ने जितना हमें नुकसान पहुंचाया, जितनी पायज़नस है यह बात कि सब भगवान करता है, उतनी
जहरीली और कोई बात नहीं हो सकती। अच्छा था कि हिंदुस्तान की नस-नस में जहर का टीका
लगा दो और सब मर जाएं, मगर इस तरह की बकवास मत सिखाओ कि सब
भगवान करता है। सबको जहर दे दो, वह अच्छा है, लेकिन इस तरह का मानसिक जहर मत दो। क्योंकि जिस आदमी को, जिस समाज को यह खयाल हो जाता है--सब भगवान करता है, वह
समाज सब कुछ करना बंद कर देता है।
और ध्यान रहे, जीवन की जो विकृति है, उसको
करने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता, वह अपने आप आ जाती है। नीचे
उतरना हो, तो आदमी अपने आप चला जाता है। ऊपर जाना हो,
तो कुछ करना पड़ता है। और जो समाज यह मान ले कि सब भगवान करता है,
वह नीचे से नीचे चला जाएगा। क्योंकि नीचे जाने के लिए कुछ भी नहीं
करना पड़ता। ऊपर जाने के लिए खुद कुछ करना पड़ता है। अगर यह भी हम मान लें कि सब
भगवान करता है और हमारा नीचे जाना रुक जाए, तो भी ठीक है।
लेकिन नीचे जाना नहीं रुकता। नीचे जाना एकदम अपने आप होता चला जाता है। एक
ग्रेविटेशन है नीचे का। एक पत्थर को हम ऊपर की तरफ फेंकें। फेंकने के लिए ताकत
लगानी पड़ती है। पत्थर को लौटने के लिए कोई ताकत नहीं लगती, जमीन
खींच लेती है।
जिंदगी का नीचे की तरफ एक गुरुत्वाकर्षण है। तो जो समाज यह मान लेता
है कि सब भगवान करता है, वह ऊपर उठना बंद कर देता है। ऊपर उठने के लिए कुछ
करना जरूरी था। और नीचे गिरना जारी रहता है। और जब कोई समाज ऊपर नहीं उठता,
तो नीचे गिरता ही चला जाता है। और जितना नीचे गिरता चला जाता है,
उतना वह काहिलपन की, नपुंसकता की, इंपोटेंस की बातें पकड़ने लगता है--कि ठीक है, यह तो
भाग्य है, यह तो कर्म है, यह तो यह है,
यह तो वह है--और नीचे गिरता चला जाता है।
सारा मुल्क एक अंधेरे घर की तरह हो गया है, एक पागलखाने की तरह! इसको बदलना है या नहीं बदलना है? इसे नया करना है कि नहीं करना है? और कौन और कैसे
इसे नया करे? तो मैंने तीन-चार बातें कहीं, उन पर सोचना।
एक: पुराने का मोह जब तक है, तब तक नये का जन्म
नहीं हो सकता। पुराने को गिराना पड़ेगा, अगर नये को बनाना है।
विध्वंस की हिम्मत चाहिए, अगर सृजन करना हो। केवल वे ही निर्माण
करते हैं जो मिटाने की ताकत भी जुटा लेते हैं।
और मैंने यह कहा कि सोचना होगा कि हम अतीत में ही मानते चले जाएं अपने
स्वर्णयुग को या भविष्य में बनाएं स्वर्णयुग को? अतीत में स्वर्णयुग
को मानने वाली कौम पतन के रास्ते पर जाती है। भविष्य में स्वर्णयुग को मानने वाली
कौम विकास करना शुरू करती है।
और तीसरी बात मैंने कही कि क्या हम टेक्नॉलॉजी और विज्ञान के विकास
में आगे बढ़ेंगे? या दकियानूसी और पुराणपंथी बातों में पड़ कर देश के
भाग्य को उन्हीं हाथों में छोड़ देंगे अंधेरे, जिनमें देश
हजारों साल से रहा है?
और चौथी बात मैंने कही कि अगर विज्ञान को लाना है, तो आधुनिक, मॉडर्न होने की हिम्मत जुटानी पड़ेगी।
पश्चिम-वश्चिम की बात छोड़ देनी पड़ेगी। न कोई पूरब है, न कोई
पश्चिम है। नया है और पुराना है। यह डिवीजन गलत है पूरब और पश्चिम का। असली डिवीजन
है पुराने और नये का। पुराने के खिलाफ नये की लड़ाई है।
लेकिन पुराना चालाक है। और वह यह कहता है कि नया? अच्छा तो तुम पश्चिमी होना चाहते हो? पश्चिमी नहीं
होना है, हमको अपना भारतीय रहना है।
भारतीय तुम बहुत दिन से हो, बहुत दुख उठा रहे हो।
और भारतीय होने का मतलब पुराना होना नहीं होता, मरा हुआ होना
नहीं होता। हम नये होकर भी भारतीय हो सकते हैं। सच तो यह है कि नये होकर ही हो
सकते हैं। क्योंकि पुराना होकर सिर्फ एक दीनता की लंबी कहानी है, दुख और दारिद्रय की।
और अंतिम बात: यह जो मैंने कहा, ये जो बातें मैंने
कहीं, मेरा कोई आग्रह नहीं है कभी भी कि जो मैं कहूं उसे मान
लेना। क्योंकि यही तो पुरानी उपद्रव की जड़ रही है अब तक--कि आदमी कहता है, मैं जो कहता हूं वह मान लो। क्यों? क्योंकि मैं
तीर्थंकर हूं, मैं महात्मा हूं, मैं
गुरु हूं। ऐसा ऊपर से चाहे न भी कहे, लेकिन सारा आयोजन ऐसा
करता है कि मान लो कि मैं जानता हूं।
यही खतरनाक सिद्ध हुआ है। अब किसी की मत मानना। अब इस मुल्क को गुरु
की जरूरत नहीं है। अब यह मुल्क गुरु-वुरु की बकवास से मुक्त होना चाहिए। अब तो
एक-एक आदमी को सोचना पड़ेगा। जब पूरा मुल्क सोचेगा, तब वह प्रतिभा प्रकट
होगी, वह शक्ति प्रकट होगी, जो जीवन की
समस्याओं को हल कर सकेगी।
यहां कुछ लोग सोचते हैं, सारे लोग चुपचाप
मानते हैं। इसीलिए लिथार्जी, आलस्य पैदा हो गया है, तमस पैदा हो गया है। हम पत्थरों की तरह पड़े रह गए हैं। अंकुरों की तरह ऊपर
नहीं बढ़ते हैं।
तो मैंने जो कहा, सोचना। इससे ज्यादा मेरा कोई
आग्रह नहीं है। इसलिए मुझे बड़ी हैरानी होती है! जब मुझे चारों तरफ से गालियां पड़नी
शुरू होती हैं, तो मुझे हैरानी होती है। क्योंकि मैंने किसी
से कहा नहीं कि मेरी बात मान लो। मैंने यह भी नहीं कहा कि मेरी बात कोई सत्य,
चरम सत्य है, कि उससे भिन्न कुछ नहीं हो सकता।
मैंने तो सिर्फ इतना निवेदन किया कि मेरी बात सोचना। अगर ठीक लगे, ठीक; गैर-ठीक लगे, फेंक देना।
और अगर अपने सोचने से ठीक लग जाए मेरी बात, तो फिर वह मेरी
नहीं रह गई, वह आपकी हो गई। जो खुद के विचार से निकलता है वह
स्वयं का हो जाता है। और स्वयं का सत्य ही एकमात्र सत्य है। और स्वयं का सत्य ही
व्यक्ति को स्वतंत्र करता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, इस तकलीफ में और मुसीबत में, उससे बहुत-बहुत
अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे
प्रणाम स्वीकार करें।
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