सातवां प्रवचन
घाटकोपर,
बंबई,
दिनांक 9 अप्रैल 1966
अगर आप
पुरुष हैं और आपको किसी स्त्री का आकर्षण है, तो यह आकर्षण बहुत गहरे में आपके भीतर ही जो आधी स्त्री बैठी है, उसके प्रति है। और जब तक यह स्त्री भीतर नष्ट न हो जाये, तब तक आप बाहर कितनी पत्नियां छोडते रहें, भागते
रहें, कोई परिणाम नहीं होगा। आपके मन में स्त्री का आकर्षण
बना ही रहेगा। वह घूम—फिर कर आता ही रहेगा। फिर आप नयी—नयी कल्पनाओं में उसका ही
रस लेते रहेंगे।
संन्यास
बच्चों जैसी बात नहीं है कि एक लड़के को साधु—संन्यासियों की बात सुनकर या किसी लड़की
को भावावेश आ गया और उसने कपड़े बदल लिए और कुछ उलटा—सीधा कर लिया, तो वह कोई संन्यासी हो गया! भीतर उसकी साइक कैसी
बनेगी! उसका पूरा का पूरा अंतःकरण और मन कैसे बनेगा? उस मन
में तो, उसके अनकांशस में विपरीत लिंग बैठा हुआ है।
अगर वह
पुरुष है, तो उसके अनकांशस में स्त्री है; और अगर वह स्त्री है, तो उसके बहुत गहरे में पुरुष
बैठा हुआ है। और उसी का आकर्षण है भीतर। बाहर उसी की खोज चलती है।
इसलिए आप
हैरान होंगे कि एक पत्नी से आप विवाह कर लेते हैं, थोडे दिन बाद पाते हैं कि यह तो मेरे मन की स्त्री नहीं मिली! मन की
स्त्री कौन? मन की स्त्री, आपके भीतर
एक मन में रूप बैठा हुआ है, आप उसकी खोज में हैं और वह
स्त्री जब किसी स्त्री के बिलकुल निकट, निकट मिलेगी, तो आपको ज्यादा प्रेम मालूम होगा और अगर नहीं मिलेगी, तो अप्रेम मालूम होगा। और उसकी खोज बडी कठिन है कि वह स्त्री पूरे जमीन पर
कौन—सी होगी, जो आपके मन में एक प्रतिछवि स्त्री बैठी है,
उसके ठीक प्रतिरूप हो, उसके ठीक सामानांतर हो,
तो आपको तृप्ति होगी, नहीं तो आपको तृप्ति
नहीं होगी। वह जो भीतर बैठी हुई स्त्री है और जो भीतर बैठा पुरुष है, उसका विलीनीकरण कैसे हो जाये और वहा एक ही चेतना हो जाये, कोई भेद न हो, तब व्यक्ति संन्यास को उपलब्ध होता है।
यह
बच्चों जैसी बात नहीं है, जिसको हम संन्यास समझते
हैं। कोई पत्नी को, घर को छोड्कर भाग जाने की बात नहीं है।
इधर घर छोड़ेंगे, दूसरी जगह घर बनाना शुरू कर देंगे। उसका नाम
आश्रम होगा, कुछ और होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; इससे कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ता। इधर परिवार छोड़ेंगे, उधर भी परिवार बनाना शुरू कर देंगे जो शिष्यों का, शिष्याओं
का होगा। वही आपका परिवार होगा। उससे भी आपके मोह होंगे, दुख
होंगे, सुख होंगे, खुशी होगी। आपका
परिवार—यह सारा का सारा! आपका शिष्य आपके साथ होगा। यह कोई मेरी दृष्टि नहीं है।
जिनको आप
संन्यासी कहते हैं, उनको मैं नहीं कहता।
जिनको आप गृहस्थ कहते हैं, उनको गृहस्थ नहीं कहता। मैं तो
सारी दुनिया को ही गृहस्थ मानता हूं। उन गृहस्थों में से कुछ लोग रूपांतरण को
उपलब्ध होकर संन्यास को पाते हैं। लेकिन
वह संन्यास कोई वस्त्रों से संबंधित है? इसका आप स्मरण रखें।
वस्त्र बदलने की बात ही इतनी बचकानी और इम्मैव्योर है कि कोई बहुत सोच—विचार का
आदमी यह नहीं करेगा।
मैं अभी
गया; जहा मैं ठहरा राजस्थान
में, वहा के डिप्टी कलेक्टर आये। वे मुझसे बोले, ' अकेले में मुझे बात करनी है। ' अकेले में मैंने उनको
मिलने को वक्त दिया। मुझसे बोले, 'मैं यह पूछना चाहता हूं कि
आपके जैसे ही वस्त्र पहनने से कुछ होगा?' तो हम इस पर हंसते
हैं। हम कहेंगे, 'कैसी बचपने की बात है! वस्त्र पहनने से
क्या होगा?' लेकिन सारे संन्यासियों को आप पूज रहे हैं।
क्यों पूज रहे हैं आप? इस पर हमें हंसी आती है कि यह डिप्टी
कलेक्टर है कैसा नासमझ! मैंने उनसे कहा, 'वस्त्र से क्या
वास्ता है? अगर बदलने का भी खयाल आया, तो
कुछ वस्त्र बदलने का खयाल आया!'
और थोड़ा
खयाल आयेगा, तो इस वक्त खायें कि न
खायें, कि इस समय खायें कि न खायें, कितना
खायें कि क्या खायें? यह खयाल आयेगा। ये भी वस्त्र ही हैं।
ये कोई बहुत गहरे में आपके प्राण नहीं बदल देंगे। इनसे कोई आपकी आत्मा परिवर्तित
नहीं हो जायेगी कि आपने सांझ को खाया कि रात को खाया। इससे कोई आत्मा नहीं बदल
जायेगी आपकी। यह ' अच्छा', 'बुरा'
बहुत सामान्य तल पर, वस्त्र बदलने जैसा है। आप
सुबह कब उठे—पांच बजे उठे कि सात बजे; कि आपने रोज स्नान
किया कि नहीं किया—ये सारे के सारे वस्त्र हैं, और इनसे कोई
आपके प्राण नहीं बदलते हैं। प्राण बदलना बड़ी वैज्ञानिक साधना की बात है। और उसको
बदलने के लिए इन छोटी बातों में पड़ने का कोई सवाल नहीं है। उस तरफ जो उत्सुक हैं,
उनको इनसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या वस्त्र हैं और क्या नहीं हैं।
ये बहुत गौण और बच्चों जैसी बातें हैं।
लेकिन, जिसको हम कहें ईडिऑटिक माइंड, जड़
बुद्धि उसका एक लक्षण होता है : अनुकरण। बंदरों में देखा होगा। एक बंदर जो करेगा,
दूसरा बंदर भी उसका अनुकरण करेगा। हम सब मनुष्यों में भी इमीटेट,
नकल करने वाला मन है, जो अनुकरण करना चाहता है।
एक आदमी ने ऐसा कपड़ा पहना, दूसरा आदमी भी वैसा पहन लेगा।
विनोबा के साथ जायें, तो दस—पच्चीस विनोबा दिखाई पड़ते हैं!
इनसे पूछो कि 'इनको क्या हो गया?' उन्होंने
देखा कि विनोबा दाढ़ी बढ़ाते हैं, विनोबा ऐसा रहते हैं। विनोबा
ऐसा कपड़ा बांधते हैं, तो वे भी वैसे ही बांधे हुए खड़े हैं,
इस भ्रम में कि ऐसा करने से विनोबा हो जायेंगे! ऐसा करने से जो
विनोबा के भीतर घटित हुआ है, इनके भीतर घटित हो जायेगा! यह
इन्होंने काम किया है इमीटेशन का। यही आंतरिक भाव इनके जीवन में कभी नहीं हो सकता।
यानी यह इतनी अबुद्धि की सूचना हो गयी शुरू से ही! यह शुरू से ही जो मांइड है,
यह मूर्खतापूर्ण हो गया। अब इससे कोई आशा नहीं रही। अगर विनोबा को
थोड़ा खयाल हो, तो इन सबको विदा करना चाहिए। इनकी यहां कोई
जरूरत नहीं है।
मेरे पास
लोग पहुंच जाते हैं। वे मेरे पास रहेंगे, तो मेरी जैसी दाढ़ी बना लेंगे; यह करेंगे। मैं उनको
कहूंगा, तुम जाओ, तुम्हारी यहां कोई
जरूरत नहीं है। क्योंकि जिस माइंड को मैं मूर्खतापूर्ण कह रहा हूं? उसी को लेकर तुम यहां आये हुए हो, तो उसका कोई मतलब
नहीं है। यह जो अनुकरण करने वाला, किसी दूसरे के ढंग को करने
वाला यह जो मन है, यह बहुत निम्न कोटि का मन है। मगर यह मन
बड़ा सफल हो जाता है। इसमें एक खूबी होती है। जितना मूड आदमी हो, उतना किसी भी काम को सख्ती के साथ कर सकता है। जितना विचारशील आदमी हो,
उतना कठिन हो जाता है। विचारशील आदमी में लिक्यिडिटि होती है,
लोच होता है।
मूड आदमी
में लोच नहीं होता है। उसने तय कर लिया कि जीवन भर विवाह नहीं करेंगे, तो वह जीवन भर विवाह नहीं करेगा, चाहे कुछ भी हो जाये! चाहे उसके चित्त में कितने कष्ट आयें, परेशानियां आयें, वह डटा ही रहेगा। हम कहेंगे,
'कैसा संकल्पवान है!' विचारवान सोचेगा,
कि यह संकल्प योग्य भी है या नहीं। बहुत विचारवान आदमी कल के लिए
संकल्प ही नहीं करता, आज में जीता है। क्योंकि कल मेरे पास
विवेक रहेगा; जो ठीक लगेगा, वह करूंगा।
मृदुला
बेन ने मुझे पूछा, 'फलां जगह जाने का मन
नहीं होता, तो आप मुझे कहें कि मैं जाऊं कि नहीं। क्या मैं
बिलकुल तय कर लूं? नक्की कर लूं कि वहा नहीं जाना है?'
मैंने कहा, 'नक्की करने वाली बात ही गलत है।
कल मन हो तो जाना; आज मन नहीं है तो मत जाओ। तुम्हारे पास
विवेक है, अपने विवेक को हमेशा मुक्त रखो। तुम्हें ठीक लगता
है कहीं जाना—जाओ। कल ठीक न लगे, मत जाना। परसों ठीक लगे,
जाना। तुम्हारे पास विवेक रहेगा, तो आज से कल
की स्थिति को बांधते क्यों हो! और सिर्फ जड़ आदमी बांध सकता है। जो बहुत विकासशील
चेतनाएं हैं, वे बांध नहीं सकतीं।'
पीछे
बट्रेंन्ड रसेल को किसी ने पूछा कि ' आपकी चालीस साल की किताबें हम पढ़ते हैं, तो हमें ऐसा
लगता है कि जो आपने सन उन्नीस सौ तीस में कहा था, उन्नीस सौ
पैंतीस में उससे भिन्न बात कही है!' बट्रेंन्ड रसेल ने कहा,
'मैं जिंदा आदमी हूं। मैं कुछ मर नहीं गया हूं। मैं जिंदा आदमी हूं;
मैं विकास कर रहा हूं। मेरा चित्त रोज आगे बढ़ रहा है। उन्नीस सौ तीस
का जो बट्रेंन्ड रसेल है, उसको मैं गलत कहता हूं। उन्नीस सौ
पैंसठ वाला रसेल उन्नीस सौ तीस वाले रसेल को कैसे माने! वह मुर्दा आदमी हो गया;
उन्नीस सौ तीस में मर गया उससे मुझे क्या लेना—देना है? मैं क्यों हौ कर दूं! मैं मरा हुआ आदमी होता तो उन्नीस सौ तीस में मैंने
जो किताब लिखी थी, उन्नीस सौ पैंसठ में भी कहता कि वही ठीक
है। '
यह जो
पकड़ है हमारे दिमाग की...! अब एक आदमी है, अभी कल ही बात हुई—निरंतर उनसे बात होती है। तय कर लें! क्या तय कर लें?
तय करने वाला क्या तय कर रहा है? यह तो तय
करना ही गलत बात है। जीयो, और विवेक को जगाओ और विवेक के
प्रकाश में जो ठीक लगे वह करो। अगर ठीक—ठीक विवेक जगता रहे, तो
यह निश्चित है कि एक दिन आप संन्यस्त हो जाओगे। संन्यस्त का मतलब? आप घर छोड्कर नहीं भाग जाओगे, बल्कि आप जहा भी जाओगे,
वहा आपकी वृत्तियां ऐसी परिवर्तित हो जायेंगी कि घर अपना न मालूम
होगा, पुत्र अपना न मालूम होगा, धन कोई
आकर्षण न रखेगा। भीतर वृत्ति का परिवर्तन होगा और बाहर की दुनिया बाहर रह जायेगी
और आप भीतर रह जाओगे और वे दोनों को जोड़ने वाले जो राग और द्वेष के नाते हैं,
वे शिथिल हो जाते हैं।
विवेक के
जगने से राग और द्वेष शिथिल हो जाता है। लेकिन अगर हम राग—द्वेष के साथ जबरदस्ती
करें बिना विवेक को जगाये, तो यह दुनिया पैदा होती
है। राग वाले की दुनिया को हम कहते हैं कि ये गृहस्थ हैं। और इस दुनिया को द्वेष
करने वाले लोगों को हम कहते हैं कि ये संन्यस्त हैं। राग और द्वेष मन की दो
बीमारियां हैं। किसी को राग करने की बीमारी है और किसी को द्वेष करने की बीमारी है।
द्वेष
क्या है? उलटा हुआ राग है। मैं
आपको राग करता हूं तो सोचता हूं कि आप रोज—रोज मेरे पास आयें। अगर द्वेष करने लगू?
तो सोचूंगा कि कभी मेरे घर न आयें। राग उलट गया। रागी सोचता है कि
धन बहुत मेरे पास हो। विरागी सोचता है कि धन को छोड्कर भागूं। वह धन का द्वेषी है।
एक धन का रागी है। धन के रागी को हम गृहस्थ कहते हैं। स्त्री के रागी को हम गृहस्थ
कहते हैं। पत्नी, बच्चों और परिवार के रागी को हम गृहस्थ
कहते हैं और द्वेषी को हम संन्यासी कहते हैं।
जिसको
मैं संन्यास कहता हूं वहा राग—द्वेष दोनों नहीं रह सकते हैं, तो संन्यास फलित होगा। जिसमें राग—द्वेष है, वह गृहस्थ है और जिसमें राग—द्वेष नहीं है, वह
संन्यासी है। लेकिन अगर मन को पकड़ेंगे और वहा गहरे में पकड़ेंगे, तो राग—द्वेष से शून्य हो जाना संन्यास है, राग—द्वेष
से भरे रहना गृहस्थ है।
तो
गृहस्थों के दो रूप हैं—घर में रहने वाले और घर को छोड्कर भागने वाले। ये दो
गृहस्थों के रूप हैं। ये दोनों ही गृहस्थ हैं। इसलिए दुनिया में संन्यासियों ने
गृहस्थियां बना ली हैं, दुकानें बना ली हैं। अगर
संन्यासी ठीक—ठीक हो तो वह किसी गृहस्थी का हिस्सा नहीं रह जायेगा।
अब एक
आदमी कहता है, मैं जैन संन्यासी हूं। एक
आदमी कहता है, मैं हिंदू संन्यासी हूं। कोई कहता है, मैं मुसलमान संन्यासी हूं। मैं उनसे पूछता हूं कि तुम संन्यासी होकर जैन
कैसे हो गये? यह गृहस्थी तुम्हें कैसे पकड़े हुए है जैन वाली!
तुम संन्यासी होकर हिंदू कैसे रह गये? संन्यासी तो बस
संन्यासी हो जायेगा। हिंदू—जैन की गृहस्थियों से उसे क्या लेना—देना है? लेकिन नहीं। उसमें और छोटी...। वह जैन जो संन्यासी है, वह सिर्फ जैन संन्यासी नहीं है। दिगंबर का है या श्वेतांबर का है। वह
श्वेतांबर का भी पूरा नहीं है। उसमें भी और वर्ग हैं, वह
तेरापंथी है या फला है या डिमका है!
ये बच्चों
जैसी बातें हैं और ये गृहस्थियों के सब सूक्ष्म रूप हैं। लेकिन हम उनको आदर देते
रहे हैं। और ट्रेडीशनली, परंपरा से जिस चीज को हम
पकड़े रहते हैं, उसे पकड़े चले जाते हैं। हमारी कभी बुद्धि
इतनी सजग नहीं होती कि कोई बात केवल चलते रहने से सत्य नहीं होती है। कोई बात हजार
वर्ष भी चले, तो भी सत्य नहीं हो जाती। कोई बात लाख वर्ष भी
चले, तो सत्य नहीं हो जाती। सत्य होना बड़ी और बात है। परंपरा
होने से कोई बात सत्य नहीं होती।
सोच
विचार करें, देखें, समझें कि ये सब गृहस्थी के रूप हैं या क्या हैं? आपको
दिखायी पड़ेगा : गृहस्थियों के रूप हैं। इनमें लडाइयां हैं, जैसे
गृहस्थियों में होती हैं। जैसे एक परिवार से दूसरे परिवार के पुश्त—दर—पुश्त झगड़े
होते हैं। इनके भी झगड़े हैं पुश्त— दर—पुश्त। पीढियां बदल जाती हैं, ये गृहस्थियों के झगड़े जारी रहते हैं कि वह फलां—फलां...! इनके झगड़े
जारी रहते हैं! इनके सब राग हैं, द्वेष हैं। यह हमारा मोटा
विभाजन चल रहा है ऐसा। तो आपको लगता है... मुझसे ही पूछें कि मैं कौन हूं? मेरी बडी कठिनाई है। मैं अपने को क्या कहूं? मैं किस
गृहस्थी में रखूं र आप वाली कि संन्यासी वाली? मुझे दोनों ही
गृहस्थियां दिखायी पड़ती हैं। मुझे लगता है चित्त धीरे— धीरे राग और द्वेष दोनों
से परे चला जाये, तो एक स्थिति होगी और उस स्थिति में आपको
कोई भय नहीं होगा कि आप घर में हैं कि पहाड पर। भय तो तभी तक है, जब तक भीतर राग—द्वेष है। जब राग—द्वेष न रहा, तब एक
मंदिर में आप सोये हैं कि वेश्यालय में सो गये हैं, क्या
फर्क पडता है?
विवेकानंद
ने लिखा कि जब मैंने रामकृष्ण के पास जाना शुरू किया, तो मैं पाप—पुण्य की भावनाओं से भरा हुआ था। घर से
जाते और रामकृष्ण के दक्षिणेश्वर तक पहुंचने के बीच वेश्याओं का मुहल्ला पडता था।
तो मैं वहां से नहीं निकलता था, करीब के रास्ते से। मैं कोई
डेढ मील का चक्कर लगाकर जाता था कि वेश्याओं के मुहल्ले से मैं कैसे निकलूं! मैं
हूं संन्यासी, वेश्याओं के मुहल्ले से मैं कैसे निकलूं?
फिर
हिंदुस्तान से बाहर जाते थे विवेकानंद, तो राजस्थान में वे खेतडी महाराज के यहां रुके। तो वह राजा तो राजा था;
विदा कर रहा था; विवेकानंद अमरीका जाते थे;
तो उसने एक वेश्या को बुला लिया था विदा—समारोह में नाचने के लिए!
राजा तो राजा। बुद्धि ऐसी थी कि जब विदा—समारोह हो रहा है, तो
कुछ नाच—गाना होना चाहिए। यह फिक्र ही नहीं कि संन्यासी है। और उसने एक बहुत बडी
वेश्या को काशी से बुलवा लिया। विवेकानंद को पता चला, तो
घबडा गए। उन्होंने कहा कि 'मैं संन्यासी और मेरी विदा में
वेश्या नाचेगी! कैसा मामला है?' ठीक ऐन वक्त पर राजा बुलाने
आया। विवेकानंद ने कहा, 'मैं नहीं जाता। मैं हूं संन्यासी। '
वेश्या
को पता चल गया। विवेकानंद, एक संन्यासी, भारत के बाहर जाता है, उसके स्वागत में जा रही हूं।
वह बेचारी बड़े अदभुत भजन इकट्ठे करके
लायी थी। ऐसा भजन इकट्ठा करके लायी थी कि संन्यासी का स्वागत हो, उसके योग्य कुछ हो। वह बड़े पवित्र भाव से भर कर आयी थी। फिर उसको पता चला,
विवेकानंद नहीं आये। राजा ने कहा, 'नहीं आता
संन्यासी, तो समारोह तो होने ही दो। वेश्या आयी है, तो वह नाचे। ' तो उसने नरसी मेहता का एक गीत गाया।
उसने गाया : 'एक लोहा पूजा में राखत...। 'यह भजन गाया। उसने गीत गाया कि 'एक तो लोहा हम रखते
हैं भगवान के घर में और एक रहता है कसाई के घर। लेकिन अगर पारस पत्थर के पास ले
जाओ, तो वह यह न कहेगा कि यह कसाई का लोहा है, इसको हम सोना नहीं कर सकते! उसको तो कोई भी लोहा छुये, तो सोना हो जायेगा। ' तो संन्यासी को क्या भेद है कि
कौन वेश्या है और कौन वेश्या नहीं है? उसके पास तो कोई भी
आये, सोना हो जाना चाहिए।
विवेकानंद
पास के ही छोटे से झोपड़े में बैठे थे।
बडा प्राण घबडाया और गीत सुना तो बडा बोध हुआ। रोने लगे। लेकिन फिर भी हिम्मत नहीं
पड़ी जाने की उसके पास। अमरीका से लौटकर उन्होंने कहा, ' अब मैं सोचता हूं कि कैसी बच्चों जैसी बात है! अगर
मुझे वेश्या के घर भी सोने को मिल जाये, तो वैसे ही आनंद से
सोऊंगा, जैसे मंदिर में सोता हूं। आज मैं जानता हूं वह मेरी
मूर्खता थी और मेरी ही कमजोरी थी। वेश्या से कोई वास्ता नहीं था उस बात का। वह
मेरी ही कमजोरी थी, मेरा ही भय था, डर
था वही मुझे परेशान किये था। '
आपके भय
आपको परेशान करते हैं, आपके राग आपको परेशान
करते हैं। इनको तो बदलिए मत और परिस्थितियों को छोड्कर भाग जाइए, तो इसको हम समझते हैं, संन्यास है। यह बिलकुल
संन्यास नहीं है। मेरी दृष्टि में इनमें आधे से ज्यादा लोग तो जिनको हम कहें,
न्यूरोसिस के शिकार हैं, थोड़े पागलपन के शिकार
हैं—आधे से ज्यादा लोग! आधे से ज्यादा लोग जीवन से ऊबे और परेशान लोग हैं। यानी
संन्यास लेने का मौका न मिलता, तो ये आत्मघात कर लेते।
आपको
शायद खयाल न हो, जिन मुल्कों में संन्यासी
होने की व्यवस्था है, उन मुल्कों में आत्मघात की संख्या कम
होने का और कोई कारण नहीं है। उन मुल्कों में आत्मघात की संख्या कम है। और जिन
मुल्कों में संन्यासी की व्यवस्था नहीं है, वहा आत्मघात की
संख्या ज्यादा है। पागलों की भी संख्या वहा ज्यादा है, जहा
संन्यासी की व्यवस्था नहीं है। और जहा व्यवस्था है, वहा
संख्याएं बहुत कम हैं। वह स्वाभाविक है। इनमें से बहुत से सुसाइडल माइंड के लोग
हैं; वे जिंदगी को नष्ट कर देना चाहते हैं कि हम नहीं जीना
चाहते हैं।
ऐसी जब
स्थिति बनती है, तब हिंदुस्तान में कोई
विकास नहीं होता है। एक रास्ता यह है कि मर जायें; एक रास्ता
यह है कि जाकर संन्यासी हो जायें। ये दो मार्ग हैं। अगर कभी इनके चित्त का ठीक—ठीक
विश्लेषण हुआ, जो कभी हुआ नहीं है...। और न हमने कभी
ईमानदारी से कुछ समझने की कोशिश की है, न वैशानिक ढंग से
जांचने की कोशिश की कि मामला क्या है! इनमें आधे से ज्यादा लोग तो मानसिक
रुग्णताओं के शिकार निकलेंगे। आधे से ज्यादा लोग आत्मघाती प्रवृत्तियों से
प्रभावित लोग निकलेंगे। इनमें से एक दो व्यक्ति मुश्किल से हो सकते हैं, जिनके जीवन में संन्यास फलित हुआ है। और ऐसे व्यक्तियों को कभी आप न पहचान
पायेंगे, क्योंकि वह कभी आपके किसी ढाचे में खड़ा नहीं होता
है। आप कहें उसको कि ' ऐसा कपड़ा पहनो, ऐसा
सिर घोंट दो!' ऐसा बुद्ध नहीं है वह आदमी, जिसके जीवन में संन्यास फलित हुआ हो। संन्यासी तो रिबेलियस, विद्रोही होता है। आपको मानेगा वह? कि कहोगे जैसा,
वह वैसा करेगा?
इसलिए
संन्यासी को कभी आप नहीं पहचान पाते। आप हमेशा ढोंगी को ही पहचान सकते हैं। ढोंगी
आपकी मानकर चलता है, आपके पीछे चलता है।
संन्यासी को आप कभी नहीं स्वीकार कर पाते। इसलिए जब भी संन्यासी खड़ा होगा, तभी उसका विरोध शुरू हो जायेगा। दुनिया में जब भी संन्यासी होगा, तभी समाज उसका विरोध करेगा। जब भी कोई धार्मिक आदमी पैदा होगा, उसका विरोध शुरू हो जायेगा। लेकिन यह जो ढोंग है धर्म का, इसको आदर मिलेगा। क्योंकि आदर आप उसी को दे सकते हैं, जो आपकी मानता है; आपके नियम, आपकी
व्यवस्था के अनुकूल चलता है।
आप क्या
सोचते हैं? कोई आदमी, जिसका विवेक जाग्रत हुआ हो—आपका कोई विवेक जाग्रत नहीं हुआ है—क्या वह
आपकी मानेगा? हालांकि आप उसको तख्त पर बिठाते हैं और पैर
छूते हैं, लेकिन कुछ करते हैं आप कि वह आपकी माने। तख्त पर
बिठायेंगे! आपकी माने—तो पैर छुयेंगे। यह म्युचुअल लेन—देन है, यह आपका आर्थिक लेन—देन है कि आप इतना आदर देते हैं, इसके बल पर आपकी मानता है।
कोई
संन्यासी आपकी मानेगा? आपके आदर की फिक्र करेगा?
आपके आदर का उसे कोई मतलब है, कोई मूल्य है?
वह तो जैसा जीवन उसे दिखायी पड़ेगा, वह जीयेगा।
संन्यासी
बड़ा निजी जीवन जीता है। लेकिन आप जिसको संन्यासी कहते हैं, उसका बड़ा समूह से निर्धारित जीवन है। आप जैसा कह रहे
हैं, वैसा वह कहता है। आप जैसा कह रहे हैं, वैसा वह कर रहा है। उसमें जरा गड़बड़ हुआ कि फिर वह संन्यासी नहीं है! फिर
आप उसको आदर नहीं दोगे। उसकी आदर पाने की मन में बड़ी भावना है; अहंकार की तृप्ति का बड़ा लोभ है। उसके बल पर वह सब करता है; आपकी मानता है; नाटक करता है, अभिनय
करता है। अगर आपका बोध जग जाये, तो आपको लगेगा—यह कैसा नाटक
हो रहा है! यह कैसा सर्कस है? लेकिन अभी तो आपको वह संन्यासी
दिखायी पड़ रहा है। आपके सामने एक पैटर्न है, एक ढांचा है,
तो आपको वह संन्यासी लगता है।
मुझे इन
सारी बातों में कोई अर्थ नहीं मालूम पड़ता है। ये कोई बहुत अर्थ की बातें नहीं हैं।
यह संन्यासी की व्यवस्था ज्यादा दिन चलेगी नहीं। जैसे—जैसे लोग मनसशास्त्र को
समझेंगे, जैसे—जैसे लोग साइकोलाजी
को समझेंगे, सौ साल के भीतर आपका यह संन्यासी टिकेगा नहीं।
जिसको मैं संन्यासी कह रहा हूं वही टिकेगा। पुराना संन्यासी टिकने वाला नहीं है।
यह अस्तित्व में अब आगे नहीं जायेगी। अतीत में कितनी रही हो, यह आगे नहीं जा सकती। जैसे हम समझेंगे अस्तित्व को, विकारों
को, और पागलपनों को, एस्केप को,
भागने को, सप्रेशन को—हम पायेंगे : सब रुग्ण
लोग हैं। यह आपको दिखायी पड़ने लगेगा कि ये सब रोग है।
कुछ थोड़े
से संन्यासी रह जायेंगे और उन संन्यासियों की कोई वेश— भूषा नहीं होगी। हमेशा थोड़े
से संन्यासी हुये हैं दुनिया में—यह सच है। लेकिन लाखों की संख्या में जो दिखाई पड़
रहे हैं, इनमें संन्यासी नहीं हैं,
न हो सकते हैं। संन्यासी बड़े थोड़े इक्के—दुक्के हैं।
महावीर
के जीवन में ऐसा हुआ कि जब वे अट्ठाइस वर्ष के थे, तभी उनके मन में हुआ कि सब व्यर्थ है। उन्होंने अपनी मां से, अपने पिता से कहा कि 'मैं छोड्कर जाता हूं। '
उनकी मां रोने लगीं और कहा, 'मेरे जीते जी तुम
जाओगे, तो मुझे बहुत दुख होगा। क्या इतनी हिंसा करने को तुम
राजी हो?' तो महावीर ने कहा कि ' ठीक है। रुक जाते हैं। '
अब यह रुकना बड़ा लंबा हो, क्योंकि मां पता
नहीं कितने दिन जिंदा रहे! कोई मरने की तिथि तय तो थी नहीं, अभी
कितने दिन जिंदा रहेगी? यह भी हो सकता है, महावीर पहले मरें, मां—बाप बाद में मरें! लेकिन
महावीर रुक गये। यह आदमी संन्यासी रहा होगा। महावीर रुक गये कि ठीक है।
दो वर्ष
बाद में मां मर गई। दफना के लौटते थे, तो अपने बड़े भाई को कहा कि ' अब मैं संन्यासी हो
जाऊं?' लौटते थे दफना कर! बड़े भाई ने कहा, ' तुम कैसे पागल हो? एक तो आघात है मां के मर जाने का,
और तुम्हें इतनी फुर्सत भी नहीं है कि थोड़े—दो दिन रुक जाते! अभी घर
भी नहीं पहुंच पाए कि कह रहे हो!' बाद में उन्होंने कहा,
' अगर मैं कहूं र तो तुम संन्यासी हो जाना', भाई
ने कहा कि 'जब तक मैं आशा न दूर तब तक अगर हुए तो मुझे बहुत
दुख होगा। ' तो महावीर रुक गए। यह आदमी संन्यासी रहा होगा।
फिर रुक गए।
और
घरवालों को लगा कि अब तो यह आदमी घर में होते हुए भी घर में नहीं है। हवा की तरह
हो गए वे। कोई घर में उनका होना मालूम नहीं पडता कि वे घर में हैं। साथ ही सब
विलीन हो गया, घर से सारा संबंध शून्य
हो गया। हैं—और नहीं हैं।
एक आदमी
ऐसा घर में हो सकता है कि वह घर में है और नहीं है : आपके बीच में नहीं है, आपके किसी काम में नहीं है। आपको कोई बाधा नहीं देता
है। उसका कोई आग्रह नहीं है। जो होता है, होने देता है। जो
नहीं होता है, नहीं होने देता है। इस कमरे में कहें, तो इस कमरे में बैठ जाता है। बाहर निकाल देते हैं, तो
बाहर बैठ जाता है।
जब चार
वर्ष में लोगों को खयाल आया कि महावीर तो घर में नहीं हैं! तो उनके भाई ने कहा, 'अब तुम घर में रहो या न रहो, बराबर
है। अब हमें रोकना व्यर्थ है। तुम तो जा ही चुके। अब हम क्यों अपने ऊपर यह पाप लें
कि हमने तुम्हें रोका था! तुम जा ही चुके अपनी तरफ से। अब तुम्हारी जैसी मौज हो
करो। '
इसको मैं
संन्यास कहूंगा। यह लिया हुआ संन्यास नहीं है; यह विकसित हुआ संन्यास है। मेरी मान्यता है कि अगर महावीर के भाई कहते कि
मत जाओ, तो महावीर वहीं रह जाते, क्योंकि
जाने का क्या सवाल था! जो होना था, वह वहीं हो सकता था। यानी
यह आग्रह ही हमारा कि ऐसे हो जायें, ऐसे भाग जायें; यह करें—वे सब हमारे रुग्ण चित्त के लक्षण हैं। वे किसी स्वस्थ चित्त के
लक्षण नहीं हैं।
जो आप
पूछते हैं न मुझे कि अगर आप गृहस्थ होते...? मेरी मां ने जिस दिन मैं यूनिवर्सिटी से पढ़कर घर आया, तो उसने कहा कि 'तुम शादी करो। ' वे जानते थे सारे घर के लोग कि शायद मैं मना करूंगा। जैसी मेरी धारणा थी,
जैसा मेरा हिसाब था, सबको खयाल था कि मैं फौरन
मना करूंगा। मैंने अपनी मां को कहा,
'अगर तुम आशा दोगी, तो मैं कर लूंगा।
लेकिन आशा देने से पहले खूब सोच लेना। तुम आशा दोगी, तो मैं
कर लूंगा। लेकिन आशा देने के पहले बहुत सोच लेना कि सच में यह हितकर है या अहितकर
है। अगर तुम्हारा निर्णय हो जाए कि हितकर है, तो मुझे कह
देना कि कर लो, मैं कर लूंगा।'
अब वह
चिंता में पड गयी होगी, बहुत चिंता में पड गई
होगी। मैं रोज—रोज पूछने लगा। मैं उससे पूछता कि अगर हो गया हो तय, तो बताओ! जितना ही मैं पूछने लगा, उतना ही वह घबडाने
लगी। और उनको ऐसा लगा कि इस पूरे व्यक्ति के जीवन को बांधने का आदेश मैं कैसे दूं!
और पता नहीं, ठीक हो कि गलत। क्योंकि पूरी जिंदगी शादी करके
वह भी इस नतीजे पर नहीं पहुंच सकती हैं कि ठीक हुआ था कि गलत हुआ था। उन्होंने
मुझसे कहा पंद्रह दिन बाद कि 'मुझसे न पूछो बार—बार। तुम
जानो, तुम्हारा काम जाने। मैं पूरा निर्णय नहीं कर सकती हूं
कि क्या हितकर है, क्या अहितकर है।' ऐसे
बात खत्म हो गयी।
प्रश्न :
आप जो कह रहे हैं, बुद्धि तो उसे मानती है। पर आपने जब वह अनुभव पाया, तो
आपको भी बडी कठिनाइयों से गुजरना पडा होगा!
हां—है।, मैं समझ गया आपकी बात को। यह तो मैं कह रहा हूं
निरंतर—जैसे मैं कह रहा हूं : चित्त को सब भांति से दूसरों के विचारों से स्वतंत्र
कर लें। कह तो रहा हूं ऐसे जैसे यह एक तथ्य हुआ, लेकिन है
मेरा अपना अनुभव।
कभी किसी
विचार में मैंने अपने को बांधा नहीं—किसी के विचार में। अगर मेरे पिता ने मुझसे
कहा कि ये भगवान हैं, तो मैंने कहा, 'मुझे तो पत्थर की मूर्ति दिखाई पड़ती है। आप कहते हो भगवान, आपको होंगे। लेकिन जहां तक मेरी आंख कहती है, मुझे
तो पत्थर की मूर्ति दिखाई पड़ती है। मैं कैसे मान लूं कि ये भगवान हैं! और आप कहते
हैं, हाथ जोडो, तो मुझे मूर्खता मालूम
पड़ती है क्योंकि मुझे पत्थर की मूर्ति दिखाई पड रही है। आपको भगवान दिखता है,
आप जोड़ते हैं, आप जानें। मुझसे मत कहना,
क्योंकि मुझे पत्थर की मूर्ति दिखाई पड़ती है। एक खिलौने को मैं
जाकर हाथ जोडू? तो मुझे लगता है कि मैं गड़बड़ काम कर रहा
हूं।
एक बात
मेरे ध्यान में रही है कि जो मुझे दिखाई पड़े तथ्य की तरह, वही मुझे समझना है। और जब समझाया जाए तथ्य किसी
व्याख्या की तरह, तो बचना है। वह मुझे निरंतर...।
और वह जो
आपसे कह रहा हूं कि तथ्यों को देखें और व्याख्याओं से बचें, क्योंकि व्याख्याएं दूसरे समझा रहे हैं। अपने बच्चे
को आप मंदिर में ले जायें और बतायें कि 'ये भगवान हैं। '
बच्चे के सामने तथ्य क्या है? अगर आप कुछ न
समझायें तो बच्चा जाकर मंदिर में क्या कहेगा? कहेगा,
'ये पत्थर की मूर्तियां रखी हुई हैं। ' यह तो
तथ्य है, और व्याख्या यह है कि ये भगवान हैं। ये व्याख्यायें
अगर चित्त में बैठ जायें तो आपका चित्त तथ्य को कभी नहीं जानेगा।
तो बचपन
से मेरे दिमाग में कोई विद्रोह रहा है। हर किसी की बात को मानने को मैं तो बहुत
घातक समझता रहा हूं—चाहे किसी की भी हो। मुझे यह देखना है पहले कि तथ्य इसमें
कितना है। आपको मैं नहीं कहता कि आपको जो दिखाई पडता है, गलत दिखाई पडता होगा। लेकिन मैं कैसे मानूं? मुझे जो तथ्य है, उसको देखता हूं।
एक तो
तथ्य का ध्यान रखना मैंने जरूरी माना है। धीरे— धीरे प्रयोग करने से खयाल में आया
कि तथ्य के सिवाय और सत्य का कोई रास्ता नहीं हो सकता। क्योंकि तथ्य पर दूसरों ने
जो कल्पनाएं थोप दी हैं, अगर उनको हमने पकड लिया,
तो हम भटक गए। कोई हमारे प्रति उनकी जवाबदेही नहीं है कि एक आदमी ने
बता दिया कि यह भगवान की मूर्ति है, अगर मैं इसकी बात को मान
कर चला गया, तो कल मैं बुढ़ापे में जाकर उससे कहूं कि तुमने मेरी जिंदगी खराब
की; तुम जिम्मेवार हो; तुमने ही कहा
था! वह कहेगा कि 'मेरा क्या मतलब? मैंने
तो जो मैं मानता था, मैंने कह दिया था। जिम्मेवारी मेरी मेरे
प्रति है। '
मेरी जिम्मेवारी
मेरे प्रति है, आपकी जिम्मेवारी आपके
प्रति है। मेरी आप बात समझ रहे हैं न! तथ्यों को देखें। इसको मैं साइंटिफिक एप्रोच
कहता हूं आदमी की।
वैज्ञानिक
पकड होनी चाहिए किसी भी बात को देखने की। मुझे धीरे— धीरे यह हुआ। लेकिन मुझे, अगर मेरे पिता ने मुझसे कहा कि 'क्रोध करना बुरा है', तो मैंने कहा, 'ठहर जायें, इतना ही मुझसे कहें कि क्रोध करना मुझे
बुरा मालूम होता है। मुझसे मत कहें कि बुरा है, क्योंकि मैं
अनुभव करूंगा। आप कौन हैं बीच में आने को? आपकी क्या
जिम्मेवारी है मेरे बीच में आने की? मुझे जीवन मिला है। मुझे
जानने दें कि क्रोध बुरा है कि भला है। मैं करूंगा और जानूंगा। आपका अनुभव बता दें
कि मुझे क्रोध बुरा मालूम होता है। क्योंकि मुझे आपके अनुभव पर भी शक है, क्योंकि आप अभी भी क्रोध करते हैं। अगर वह बुरा है, तो
आपमें से चला जाना चाहिए था! मुझे क्रोध करने दें और मुझे देखने दें। यानी मेरी...।
मुझे आग में हाथ डाल लेने दें और मुझे देखने दें कि जल जाता है कि नहीं। मैं भी
समझूंगा!
ऐसी तो
मेरी प्रवृत्ति रही है और प्रवृत्ति के कुछ अदभुत परिणाम हुए हैं। मैं किसी भी, जिसको ढांचा कहें विचार का, वह
मैं नहीं पकड सका। उससे बहुत दिक्कत हो गई। क्योंकि विचार का कोई ढांचा पकड लें,
तो जीवन आसान हो जाता है। एक व्यवस्था हो जाती है। एक मंदिर है,
एक भगवान है, एक किताब है, उसको रोज हाथ जोड लेना है। एक व्यवस्था हो जाती है, जीवन
में एक आकुपेशन हो जाता है।
मैं बहुत
दिक्कत में पड गया। यह भी मैं मानने को राजी नहीं कि क्रोध बुरा है कि भला है। मैं
अनुभव करूंगा। तो मैं दिक्कत में पड गया, कठिनाई में पड गया।
सुविधा
की वजह से आप सत्य से बच जाते हैं। हमेशा सुविधा खोजते हैं कि क्या सुविधापूर्ण है।
सत्य के प्रारंभिक चरण तो बहुत असुविधापूर्ण होंगे। क्योंकि अगर सत्य असुविधापूर्ण
न होता, तो असत्य को इतने लोग
पकडे क्यों बैठे रहते? असत्य सुविधापूर्ण है, अकसर सुविधापूर्ण है। क्योंकि वह प्रचलित है, व्यवस्थापूर्ण
है। आप उसमें फिट हो जाते हैं, ज्यादा झंझट नहीं आती।
मैं तो
दिक्कत में पड गया। दिक्कत में पड गया; बहुत तरह की कठिनाइयों में पड गया; ऐसी कठिनाइयों
में कि जिनकी कल्पना नहीं कर सकते। छोटे—छोटे मुद्दे पर मेरा...। जब मेरे पिता ने
कहा कि 'तुम्हें ब्रह्म—मुहूर्त में उठना है। ' तो मैंने कहा, 'मेरी समझ में नहीं आता। मैं पहले एक
महीना सो कर देखूंगा, एक महीना सुबह चार बजे उठकर देखूंगा
फिर मुझे जो प्रीतिकर लगेगा वह मैं करूंगा। आपको मैं मानने को राजी नहीं हूं। मैं
अपना प्रयोग करके देख लेता हूं। '
मेरा
मतलब यह है कि मेरी वृत्ति प्रयोग करने की, तथ्य को पकड़ने की और किसी को नाहक स्वीकार करने की नहीं थी। तो असुविधा बहुत हुई। असुविधा
चित्त की हुई। चित्त की असुविधा यह हो गई कि मैं बहुत करीब—करीब पागलपन की हालत
में पहुंच गया। कुछ भी चीजें नहीं स्वीकार कीं। कोई शिक्षक, कोई
गुरु, कोई संन्यासी, कोई वैद्य मुझे
स्वीकार नहीं है। मैं तो पागल होने की हालत में पहुंच गया।
प्रश्न :
आपने थोड़ी
किताबें भी पढ़ी होंगी या कहीं से लिया होगा, तो क्या उन बातों की छाप आप पर नहीं पड़ी? क्या समझ
स्वयं से आयी?
वह स्वयं
से आयेगी। स्वयं से आने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। मेरे ऊपर किसी की कोई छाप
नहीं पड़ी, बल्कि छाप न पड़े,
इसके लिए हमेशा सजगता रही और छाप के प्रति विरोध रहा। छाप के प्रति
मेरे मन में विरोध रहा। कोई छाप न पड़े—यह सजगता रही। जो मुझे ठीक लगे, चाहे वह सारी दुनिया को गलत लगता हो, उसको ही मुझे
ठीक मानना है। उसको ही मानकर चाहे मैं नर्क में चला जाऊं, तो
मुझे स्वीकार है। और सारी दुनिया ठीक कहती हो और मुझे ठीक न लगता हो और उसे मानकर
मुझे स्वर्ग मिल जाये, तो मुझे स्वीकार्य नहीं है।
तो वैसी
दृष्टि थी और उसकी वजह से चित्त धीरे— धीरे बहुत कठिनाई में पड गया। उसको मैंने
जाना कि वही तपश्चर्या है। मैंने जाना कि वही तपश्चर्या है। इतना चित्त कठिन हो
गया कि मैं कोई वर्ष भर तक सो नहीं सका। मुझे कोई चीज स्वीकार नहीं है। अस्वीकार
इतना गहरा हो गया कि मेरी नींद चली गयी। और घर के लोग समझे कि मैं पागल हो जाऊंगा।
यानी शरीर का मैटाबोलिज्म गिरते—गिरते क्षीण हो गया और सिर्फ आंखें रह गयीं और
पूरा शरीर चला गया—ऐसी हालत हो गयी! और घर के लोग समझे, मैं गया। मैं खुद भी नहीं जान पाया कि क्या होगा,
क्योंकि किसी को मान लेने में कोई रास्ता दिखता नहीं। अड़चन बहुत हो
गयी। किसी को मान लो, तो रास्ता मिल गया कि चलो भाई, यह ठीक है, यह रास्ता होगा। किसी को मान लेने में
मुझे कोई रास्ता मिलता नहीं, तो फिर क्या होगा।
फिर
क्लाइमेक्स पर पहुंच गया यह टैंशन। जैसे कि अगर हम किसी तीर को खींचें, तो उसकी जो प्रत्यंचा है, उसकी
एक सीमा है खिंचने की। एक सीमा आएगी, उसके आगे आप नहीं खींच
सकते। या टूट जायेगी प्रत्यंचा या तीर छूट जायेगा।
दो ही
रास्ते थे—या तो पागल हो जाता, यह
हो सकता था। लेकिन मैं खींचता ही चला गया। उस विकल्प से भी राजी था कि अपनी ही
मानकर पागल हो जाना बेहतर है बजाय किसी और की मानकर स्वस्थ बने रहना। उससे राजी था,
उस विकल्प पर। तो उसे खींचते ही चला गया। इसको मैंने तपश्चर्या जाना।
और बहुत उसकी पीड़ा थी, लेकिन खींचता गया।
एक दिन
अचानक हैरान हुआ, वह खींचते—खींचते एक घड़ी
आयी, एक अंतिम सीमा आ गयी खींचने की और उसके बाद एकदम से
रिलीज हो गई और एकदम से मैंने पाया कि विचार समाप्त हो गए। विचार है ही नहीं मन
में। विचार को खींचते—खींचते वह घड़ी आ गयी कि विचार विलीन हो गए। और तब जो जाना,
वही आपसे कह रहा हूं कि विचार आपके कैसे विलीन हो जायें। आपको तो एक
मैथड की तरह कह रहा हूं।
वह मैंने
मैथड की तरह नहीं जाना था। यानी वह मेरे लिए तो एक आकाश से अकस्मात डिस्कवरी थी।
वह मेरे लिए मैथड नहीं था। मुझे पता नहीं था कि यह क्या हुआ, कैसे हुआ! अब सोचता हूं र तो दिखायी पड़ते हैं स्टैप्स—कि
ऐसे हुआ होगा। वे स्टैप्स आपसे कह रहा हूं कि ऐसे हो सकता है। मेरे लिए वह कोई कांशस
स्टैप्स नहीं थे। मैं तो जैसे चलता गया, चलता गया और एक घड़ी
आयी कि कोई घटना घटी। घटना घटी कि किसी क्षण विचार समाप्त हो गया और कुछ दिखायी
पड़ा—जब विचार नहीं थे उस वक्त। अब जो आपसे कह रहा हूं कि किस भांति आपके विचार चले
जायें, तो शायद वह आपको दिखायी पड़ेगी; उसकी
मैं बात करता हूं। और ऐसा जरूरी नहीं है कि वह ठीक मेरे ही जैसा आपके भीतर हो।
प्रश्न :
सुख भी न हो और आनंद हो, यह कैसे हो सकता है।
तुम्हें
पता नहीं कि तुम क्या कह रही हो? सुख
भी न हो और दुख भी न हो, तब जो रह जाता है, उसी का नाम आनंद है। और अगर आनंद न हो, तो सुख—दुख
होगा। तो सुख—दुख एक बात है और आनंद दूसरी बात है। जब तक सुख—दुख रहता है, तब तक आनंद का अनुभव नहीं होता है। तो जिसको हम आनंद कहते हैं, वह सुख का अनुभव है, आनंद का नहीं। आनंद बड़ी और बात
है। आनंद का अनुभव और आत्मा के अनुभव में भेद ही नहीं है। एक ही बात है, कोई भेद ही नहीं है।
सुख—दुख
का अनुभव हमें होता है। सुख को आनंद कहने का कोई अर्थ नहीं है। अगर सुख—दुख का
अनुभव बिलकुल न हो, तो आनंद का अनुभव हो
जाएगा। तुम्हें अगर ऐसा लगता हो कि तुम्हें सुख—दुख का अनुभव नहीं होता है—यह दुख
की बहुत गहरी अवस्था होगी। एक उदासी पकड गयी, वह भी दुख का
हिस्सा है। एक जड़ता पकड गयी हो, एक इनडिफरेंस आ गया हो—यह
भी दुख की अवस्था है, दुख का हिस्सा है। वह जो सुख—दुख के
बाहर हुआ जा सकता है, तब आनंद का अनुभव होगा।
प्रश्न :
क्या सुख—दुख का इनकार करना होगा बाहर से भी?
उसको
नहीं कहता इनकार करें। लेकिन भीतर बहुत गहरे में तो इनकार करना पड़ेगा, नहीं तो आगे कैसे जायेंगे? जिस
जमीन पर मैं खड़ा हूं उसको इनकार न करूं, तो फिर आगे की जमीन
पर पैर कैसे रखूं? जिस सीढी पर खड़ा हूं उसको इनकार न करूं
तो आगे की सीडी पर पैर कैसे जायेंगे? उसी पर खड़ा रहूं तो खड़ा
रह जाऊंगा।
इनकार तो
करना है किसी तल पर। बहुत तकलीफ होगी, बहुत पीडा होगी, क्योंकि इनकार करने में बडी दिक्कत
है; सब सुविधा छोड़नी पड़ती है। लेकिन सत्य की आकांक्षा हो,
आनंद का थोड़ा खयाल हो,
तो कुछ तो करना होता है। इसको ही मैं त्याग कहता हूं। उसको नहीं कि
कपड़े—लत्ते छोड़ दिए, धन—दौलत छोड़ दिया। वह कोई तकलीफ नहीं
है बडी। बडी पीडा और बडी तपश्चर्या तो यह है कि मन के भीतर जो हमने संतोष और सुख
और सुविधाएं बना रखी हैं और उनमें हम जी रहे हैं, उनको
क्रमश: तोड़े। बिना तोड़े नहीं हो सकता है और धीरे—धीरे अगर उसी में रहते जायें तो
ऐसा होगा कि न सुख मालूम होगा, न दुख; वह
एक तरह की दुख की अवस्था होगी।
ओशो
चल हंसा उस देस
घाटकोपर, बंबई;
दिनांक 9 अप्रैल, 1966
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