छठवां प्रवचन
बंबई; दिनांक 15 अप्रैल,
1970
प्रश्न :
आजकल अनेक संत लोग चमत्कार बताते हैं, उसके संबंध में आपका क्या मंतव्य है?
आदमी
बहुत कमजोर है और बहुत तरह की तकलीफों में है। उसकी तकलीफें बिलकुल सांसारिक हैं।
अभी एक, और सामान्य आदमी ही नहीं—सुशिक्षित,
जिनको हम विशेष कहें वे भी...। अभी एक चार—छह दिन पहले कलकत्ते से
एक डाक्टर का पत्र मुझे आया। वह डाक्टर है। तबादला करवाना है, कलकत्ते से बनारस। पत्नी—बच्चे बनारस में हैं। तो मुझे लिखता है कि मैं सब
तरह की पूजा—पाठ करवा चुका हूं। साधु—संतों के सब तरह के दर्शन कर चुका हूं सैकडों
रुपए भी खर्च कर चुका इस पर, लेकिन अभी तक मेरा तबादला नहीं
हो पाया। तब आखिरी आपकी शरण आता हूं। तबादला करवा दें, नहीं
तो मेरा भगवान से भरोसा ही उठ जाएगा।
इधर मैं
देखता हूं सौ मैं नित्यानबे आदमियों की तकलीफें ऐसी हैं। और जितना गरीब मुल्क होगा, उतनी ही तकलीफें ज्यादा होंगी। किसी को नौकरी नहीं,
किसी को बच्चा नहीं, किसी को बीमारी है,
किसी को कोई तकलीफ है। हजार तरह की तकलीफें हैं! यह जो तकलीफों से
भरा हुआ आदमी है, यह चमत्कार की तलाश करता है। अगर कोई
चमत्कार कर रहा है, तो इसे एक आशा बनती है। और तो सब आशा छूट
गई। और यह सब उपाय कर चुका है, कुछ होता दिखाई इसे पडता नहीं।
लेकिन अगर यह देख ले कि कोई आदमी हवा में से भभूत दे रहा है, तो फिर इसे भरोसा आता है कि अभी भी कुछ आशा है। मुझे भी लडका मिल सकता है।
जब हवा से भभूत आ सकती है। तो साधु के चमत्कार से बच्चा भी आ सकता है। और अगर हाथ
से सोना आ जाता है और घडियां आ जाती हैं, तो फिर क्या दिक्कत
कि मेरा तबादला न हो और मुझे नौकरी न मिल जाए!
गरीब
समाज है, दुखी—पीडित समाज है और जब
तक लोग दुखी हैं, तब तक कोई न कोई चमत्कार से शोषण करेगा। सिर्फ
ठीक संपन्न समाज हो, तो चमत्कार का असर कम हो जाएगा। जितनी
तकलीफें होंगी, उतना चमत्कार का परिणाम होगा। फिर चमत्कार
क्या है? एक तरफ तो ये दुखी—पीडित लोग हैं, जिनका शोषण किया जा सकता है आसानी से। ये हाथ फैलाए खड़े हैं कि इनका शोषण
करो! और इनका शोषण एक ही तरह से किया जा सकता है कि इनकी वासनाओं की तृप्ति की कोई
आशा बंधे। तो वह आशा कैसे बंधे!
अगर कोई
बुद्ध, महावीर हो, तो वह तो आशा बंधाता नहीं। वह तो उल्टे इस आदमी को कहता है कि तुम्हारे
दुखों का कारण तुम्हीं हो। तो तुम दुख के बाहर कैसे जाओगे, उसका
मैं रास्ता बता सकता हूं। लेकिन जिन कारणों से तुम दुखी हो, उनकी
पूर्ति करने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है। लेकिन बुद्ध, महावीर
के प्रति ये आदमी आकर्षित नहीं होंगे। इनकी वासना ही वह नहीं है अभी। एक आदमी
ताबीज निकाल देगा, उसके प्रति आकर्षित होंगे, क्योंकि वासना के लिए रास्ता मिलता है। और ताबीज निकालना ऐसा काम है कि
सड़क पर मदारी कर रहा है उसको। जिसको हम दो पैसा देने को भी राजी नहीं हैं! और वही
मदारी कल साधु बनकर खड़ा हो जाए, तो फिर हम उसके चरणों में
सिर रखने को और सब कुछ करने को राजी हैं!
तो गरीबी
है, दुख है, और
मूढ़ता है। और मूढ़ता यह है कि साधु कर रहा है तो चमत्कार और गैर—साधु कर रहा है तो
मदारी। और जो वे कर रहे हैं, वह बिलकुल एक चीज है। इसमें जरा
भी फर्क नहीं है। बल्कि मदारी ईमानदार है और यह साधु बेईमान है। क्योंकि मदारी
बेचारा कह रहा है कि यह खेल है, यही उसकी भूल है। मूढों के
बीच इतना साफ होना ठीक नहीं। इतना सच होना, यही उसकी गलती है।
कह रहा है : यह खेल है, इसमें हाथ की तरकीब है, ताकि आप भी चाहें तो सीख सकते हैं और कर सकते हैं। बात खत्म हो गई। तो फिर
कोई रस नहीं उसमें। हमें खुद में तो कोई रस है ही नहीं। जो हम ही कर सकते हैं,
उसमें कोई बात ही न रह गई।
यह मदारी
बताने को तैयार है कि कैसे हो रहा है। इस मदारी की परीक्षा ली जाए इसके लिए तैयार
है। वह आपका साधु न तो परीक्षा के लिए तैयार है, न किसी तरह की वैज्ञानिक शोध के लिए राजी है। लेकिन फिर कारण क्या है कि
हम उसको इतना मूल्य देते हैं, मदारी को नहीं देते? क्योंकि मदारी से हमारी वासना की कोई पूर्ति की आशा नहीं बनती। ठीक है,
हाथ का खेल है, बात खतम हो गई। अगर मैं हाथ के
ही खेल से ताबीज निकाल रहा हूं तो बात खतम हो गई। ठीक है अब मुझसे क्या आपको
मिलेगा और! कोई हाथ के खेल से बच्चा तो पैदा नहीं हो सकता; न
नौकरी मिल सकती है; न धन आ सकता है : न मुकदमा जीता जा सकता
है; कुछ नहीं हो सकता। न आपकी बीमारी दूर हो सकती है। हाथ का
खेल तो हाथ का खेल है। ठीक है। मनोरंजन है। बात खत्म हो गई।
जब मैं
यह दावा करता हूं कि हाथ का खेल नहीं है, यह चमत्कार है, दिव्य शक्ति है, तब आपकी आशा बंधती है। फिर आपकी आशा का शोषण होता है। तो मैं मानता हूं कि
जो भी साधु चमत्कार करते हैं, उनसे ज्यादा असाधु लोग खोजना
कठिन हैं। क्योंकि असाधुता और क्या होगी इससे, कि लोगों का
शोषण हो। और उनकी मूढ़ता का लाभ और धोखा...! एक भी चमत्कार ऐसा नहीं है जो मदारी
नहीं करते। पर अंधेपन की सीमाएं नहीं हैं!
सच तो यह
है कि मदारी जो करते हैं वह आपके कोई साधु नहीं कर सकते। और जो आपके साधु करते हैं, वह दो कौड़ी का कोई भी मदारी करता है। और जो मदारी
करते हैं, वह आपका कोई साधु नहीं कर सकता। फिर भी, इसके पीछे कोई कारण है, यह मैं समझा भी दूर तो मैं
यह मानता नहीं कि मेरे समझाने से कोई चमत्कार में आस्था रखने वाले में कोई फर्क
पड़ने वाला है। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि यह समझाने का सवाल ही नहीं है। उसकी
जो वासना है, वह तकलीफ दे रही है। उसके भीतर जो वासनाएं हैं,
उसका प्रश्न है, कि वह कैसे हल हो।
अब यह जो
आदमी है डाक्टर, जिसने मुझे लिखा, इसको मैं कितना ही समझाऊं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ने
वाला। क्योंकि समझाने में कोई तबादला तो होगा ही नहीं। समझाने का एक ही परिणाम
होगा कि यह मुझे हाथ जोड़कर किसी और की तलाश करे। कोई उपाय नहीं होने वाला है।
क्योंकि इस आदमी को कुछ मालूम नहीं है। बात खत्म हो गई। इतना ही इसका परिणाम होगा
और कोई परिणाम होने वाला नहीं। ये किसी और की तलाश करेंगे। वे चमत्कार के तलाशी हैं।
और हमारे मुल्क में ज्यादा होंगे, क्योंकि बहुत दुखी मुल्क
है। बहुत पीडित मुल्क है, अति कष्ट में है। इतने कष्ट में यह
शोषण आसान है।
मगर मेरा
मानना ऐसा है कि धर्म से चमत्कार का कोई लेना—देना नहीं है। क्योंकि धर्म का
वस्तुत: आपकी वासना से कोई लेना—देना नहीं। धर्म तो इस बात की खोज है कि वह घड़ी
कैसे आए, जब सब वासनाएं शांत हो
जायें। कैसे वह क्षण आए, जब मेरे भीतर कोई चाह न रह जाए।
क्योंकि तभी मैं शांत हो पाऊंगा। जब तक चाह है, तब तक अशांति
रहेगी। चाह ही अशांति है।
तो धर्म
की पूरी चेष्टा यह है कि कैसे आपके भीतर वह भाव बन जाए, जहां कोई चाह नहीं है, कोई मांग
नहीं है। उस घड़ी ही अनुभव होगा जीवन की परम धन्यता का। तो चमत्कार से क्या लेना—देना
है! धर्म का कोई लेना—देना चमत्कार से नहीं है। और सब चमत्कार मदारी के लिए हैं।
जो नासमझ मदारी हैं, वे बेचारे सड्कों पर करते हैं। जो
समझदार हैं, चालाक हैं, होशियार हैं,
बेईमान हैं, वे साधु के वेश में कर रहे हैं।
और इनको तोड़। भी नहीं जा सकता, वह भी मैं समझता हूं। इनके
खिलाफ कुछ भी कहो, उससे कोई परिणाम नहीं होता। परिणाम उस
आदमी पर हो सकता है, जो वासना के पीछे न हो; ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है।
एक
स्त्री मेरे पास आई। उसको बच्चा चाहिए। और उसको मैं समझा रहा हूं कि सब चमत्कार
मदारीगिरी है? वह उदास हो गई बिलकुल। वह
बोली कि सब मदारीगिरी है? उसको दुख हो रहा है मेरी बात सुनकर।
मुझे खुद ही ऐसा अनुभव होने लगा कि मैं पाप कर रहा हूं जो उसको मैं समझा रहा हूं।
हो बच्चा, न हो बच्चा, होने की आशा में
तो वह इतनी दौड— धूप कर रही है। तो मैंने कहा, 'तू मेरी बात
की फिक्र मत कर, और तू वैसे भी नहीं करेगी। तू जा, और खोज कोई न कोई, पता नहीं कोई कर सके चमत्कार!'
उसकी आंखों में ज्योति वापस लौट आई। उसने कहा, 'तो आप कहते हैं कि शायद कोई कर सके। '
ये हमारे
विश फुलफिलमेंट हैं। भीतर हमारी इच्छा है कि ऐसा हो। चमत्कार होने चाहिए, ऐसा हम चाहते हैं। इसलिए फिर कोई तैयार होकर बता देता
है कि देखो, ये हो रहे हैं। और हम चाहते हैं कि वह इच्छा
पूरी हो।
और उन चमत्कारियों
से कोई भी नहीं कहता, जब तुम राख ही निकालते हो,
तो क्यों राख निकालते हो! कुछ और काम की चीजें निकालो, ताकि इस मुल्क में कुछ काम आये! क्या तुम ताबीज निकाल रहे हो! निकाल ही
रहे हो और चमत्कार ही दिखा रहे हो, तो फिर इस मुल्क में कुछ
और, बहुत चीजों की जरूरत है। और इससे क्या फर्क पडता है। जब
राख निकल सकती है, ताबीज निकल सकती है, घड़ी निकल सकती है, तो जब एक तरकीब तुम्हारे हाथ आ
गई—तब कुछ भी निकल सकता है।
अगर एक
बूंद पानी को हम भाप बना सकते हैं, फिर हम पूरे सागर को भाप बना सकते हैं, नियम की बात
है। जब नियम मेरे हाथ में आ गया कि शून्य से राख बन जाती है, तब क्या दिक्कत है, कोई दिक्कत नहीं ये चमत्कार
दिखाने वाले इस मुल्क में दिखा रहे हैं हजारों साल से चमत्कार। और यह मुल्क रोज
बीमारियों, गरीबी और दुख में ढकता जाता है और मरता जाता है—और
ये दिखाते चले जाते हैं। इनके चमत्कार की वजह से गरीबी नहीं मिटती। मेरा मानना है,
गरीबी की वजह से इनके चमत्कार चलते हैं।
थोड़ी
देर को सोचें, यहां इतने लोग बैठे हैं,
अगर अभी यहां बाहर पता चले कि सत्य साइ बाबा मौजूद हैं, तो आपके मन में पहला खयाल क्या आएगा। और अगर यह कह दें कि जो भी आपकी
इच्छा है, उनसे पूरी हो सकती है। फिर आपकी समझने में
उत्सुकता नहीं रह जाएगी। फिर आप चाहेंगे कि कब यहां से छुटकारा हो। जो भी समझूंगा,
वह पीछे भी हो सकता है। आपको तत्काल क्या खयाल आएगा? अगर आपको पता चले कि बाहर साइ बाबा खड़े होकर आपकी इच्छा पूरी कर सकते हैं;
तो आपको पहला खयाल आएगा वह यह नहीं आएगा कि चमत्कार मदारीगिरी है।
पहला खयाल आपको यह आएगा कि आपकी वासना क्या है। फौरन आपको अपनी वासना उठ जाएगी मन
में कि तो फिर ठीक है, चमत्कार है, तो
मैं इतनी मांग कर ही लूं।
आदमी जी
रहा है अपनी वासनाओं से। वासनाग्रस्त आदमी, चमत्कार नहीं होता, ऐसा मान नहीं सकता। यह तकलीफ है।
वह चाहता है कि चमत्कार हों ही। अगर एक साइ बाबा गलत हों, तो
कोई बात नहीं, यह आदमी गलत होगा। लेकिन कहीं कोई न कोई
चमत्कार कर रहा होगा; कोई दूसरा ठीक होगा!
मेरे पास
लोग आते हैं, वे कहते हैं : ये गलत
होंगे, लेकिन कोई तो ठीक होगा। यह सवाल नहीं है। सब गलत
सिद्ध हो जायें, तो भी...। रोज पता चल जाता है कि फलां आदमी
गलत सिद्ध हो गया और कोई फर्क नहीं पडता। चमत्कार जारी रहते हैं। ' अ' गलत होता है, तो 'ब' करता है। 'ब' गलत होता है, तो 'स' करता है। कोई न कोई करता है। कोई न कोई देखने वाला तैयार है। चमत्कार नहीं
रुकते। चमत्कारी गिरते जाते हैं, चमत्कार नहीं रुकते।
क्योंकि कोई बहुत मौलिक वासना की तृप्ति हो रही है। हम हैं दीन और दुखी, बडी चाहो से भरे हैं, और कोई आशा नहीं दिखती कि ये
चाहें पूरी हम कर पायेंगे। कोई पूरी कर दे आकाश से, तो ही एक
मात्र आशा है।
इसलिए
दुनिया में चमत्कार होते रहेंगे, जब
तक दीनता, दुख, पीडा, मूढता सघन है। और मैं नहीं सोचता हूं कि कभी भी ऐसा मौका आएगा कि आदमी
इतना समझदार होगा कि चमत्कार न चलें। मुश्किल दिखता है, बहुत
मुश्किल दिखता है। पांच हजार साल पहले चलते थे, तो हम सोचते
थे विज्ञान विकसित नहीं हुआ है। अभी भी चलते हैं और विज्ञान इतना विकसित है! लेकिन
कोई फर्क नहीं पडता, कोई फर्क नहीं पडता। आदमी जब तक नहीं
बदलता, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आप कुछ भी खोज—बीन करके ले आओ,
सब जाहिर कर दो...।
इधर
मैंने एक प्रयोग किया। मैंने सोचा शायद इसका कुछ परिणाम हो, लेकिन मुझे लगा नहीं होगा। मैंने दो मित्रों को राजी
किया है, कि मैं तुम्हें घुमाऊं सारे मुल्क में और जो—जो
चमत्कार लोग दिखाते हैं, तुम मंच पर खड़े होकर दिखा दो। और
फिर हम लोगों को समझा लें कि यह सब खेल है। मैंने कुछ मित्रों को दिखाए। तो
उन्होंने देखकर कहा कि 'है।, यह होगा
खेल। लेकिन 'सत्य साइ बाबा'—वह खेल
नहीं है। ' तब मैंने कहा, फिजूल है कि
कोई... कोई मतलब नहीं है, इन दो बेचारों को परेशान करना! वे
कहेंगे कि ये हैं मदारी, लेकिन वे थोडे ही मदारी हैं। क्या
किया जा सकता है? इसमें कोई उनकी रक्षा कर रहे हैं, ऐसा भी नहीं है। इनको कोई लेना—देना नहीं है लेकिन इनकी वासना! ये चाहते
हैं कि कहीं तो कोई कर रहा हो चमत्कार जो सच्चा है! बस, इनकी
चाह है।
तो मैं
तो सख्त खिलाफ हूं। क्योंकि मेरा मानना है कि इन क्षुद्र बातों में लोगों को
उलझाना, उनका समय नष्ट करना है।
उनके मनों को लुभाना, व्यर्थ उलझाव में बनाए रखना, कुछ हल तो नहीं होता।
धार्मिक
व्यक्ति का तो कर्तव्य एक है कि कैसे व्यक्ति का दुख शांत हो। इस दिशा में अगर वह
कुछ उनको बता सके, कुछ उनको करवा सके,
कुछ उनके जीवन को बदलने की कीमिया खोज सके...। बुद्ध ने कहा है कि
मैं चिकित्सक हूं—वैद्य। मैं कोई चमत्कार नहीं दिखा सकता, मैं
तो सिर्फ औषधि की प्रक्रिया बता सकता हूं। और तुम बीमार हो, अगर
तुम्हारी बीमारी को मिटाने की इच्छा हो, तो ये औषधि का उपयोग
कर सकते हो। तो मेरा तो औषधि में भरोसा है।
लेकिन इस
तरह की उत्सुकता उन लोगों में होती है, जो कि सच में शांति की खोज में हों। अब जो इस खोज में ही नहीं है, उसके लिए तो...। फिर मैं मानता हूं कि इतनी बडी दुनिया है, उसमें बहुत तरह के लोग हैं, उसमें कोई चमत्कार देखना
चाहता है तो उसको देखने का हक है। और कोई दिखाना चाहता हो तो उसको दिखाने का हक है।
और दोनों मजा ले रहे हैं, तब हम क्यों बीच में बाधा डालें!
उनको लेने—देने दीजिए। कभी समझ आएगी। ठीक है।
इसमें जो
देख रहे हैं, उनका तो जीवन खराब हो रहा
है। जो दिखा रहा है, उसका और बुरी तरह खराब हो रहा है।
क्योंकि देखने वाले तो शायद कभी जाग भी जायें कि छोडो, कहां
के खेल में पड गये। वह जो दिखाने वाला है, उसके अहंकार की
इतनी तृप्ति होती रहती है कि उसे खयाल भी नहीं होता।
तो मेरे
लिए तो साइ बाबा जैसे लोग दया के पात्र हैं, दयनीय हैं। उनका जीवन तो बिलकुल मिट्टी में जा रहा है। धर्म का कोई संबंध
चमत्कार से नहीं है।
प्रश्न :
चमत्कारों से लोग ठीक हो जाते हैं, उसका क्या कारण है?
बहुत से
कारण हो सकते हैं। लेकिन चमत्कार नहीं है। चमत्कारिक भी मालूम हो, चमत्कार नहीं है। आदमी के मन के बहुत से नियम हैं
जिनका हमें होश नहीं है। और उन नियमों के कारण बहुत—सी घटनाएं घटती हैं।
एक युवक
मेरे पास आता था। पहली दफा जब आया तो किसी डाक्टर ने भेजा था। उसके पेट में दर्द
था, वह डाक्टर का इलाज कर—कर के
परेशान हो गया। तो उसने तो सिर्फ अपनी बला टाली, क्योंकि उस
डाक्टर ने मुझे कहा कि यह तो बडी मुश्किल बात हो गई! मैंने तो इसको इसलिए हटाया कि
यह रोज मेरे दवाखाने में बैठ जाता आकर और इसकी वजह से दूसरे मरीजों पर बुरा असर
पडता। क्योंकि यह कहता : साल भर हो गया, अभी तक ठीक नहीं हुआ।
तो मैंने उसके हाथ जोडे और कहा तू उनके पास जा; अब उनसे ही
ठीक होगा। हमसे ठीक नहीं होने वाला। सिर्फ बला टालने के लिए आपके पास भेजा था और
वह ठीक हो गया।
वह मेरे
पास आया और कहा कि 'मुझे अपने हाथ का छुआ पानी
दे दें, वह डाक्टर ने कहा है। ' मैंने
कहा, 'बात क्या है?' उसने कहा कि 'बात कुछ नहीं है। साल भर से मुझे पेट की तकलीफ है। और जिसको डाक्टर ठीक न
कर पाया हो, वह फिर चमत्कार से ठीक होता है। '
डाक्टर
ठीक नहीं कर पाया, तो इसका मतलब यह कि शरीर
में कोई रोग नहीं है। नहीं तो डाक्टर ठीक कर लेता। ऐसी कोई बात नहीं थी। रोग सिर्फ
मन में है। उसका सिर्फ खयाल है कि पेट में दर्द है।
मैंने
उसको इनकार किया। उसको कहा कि 'यह
मैं करूंगा नहीं, क्योंकि कल और लोग आ जायें!' तब उसने मेरे पैर पकड लिए। उसने कहा, ' आप क्या कह
रहे हैं! मैं किसी को बताऊंगा नहीं। ' 'यह बात छिपती नहीं।
साल भर का बीमार है अगर ठीक हो गया, तो तू तो ठीक हुआ हम फंस
गए! फिर कोई और आ जायेंगे!
बारह बजे
रात तक मैं उसे रोके रहा। जब वह बिलकुल छाती पीट रोने लगा, तो मेरी मां मौजूद थीं वहां, उन्होंने
मुझे कहा कि बेचारा सिर्फ पानी ही मांगता है। तीन घंटे से मैं सुन रही हूं
तुम्हारी बातचीत। इसको पानी दे दो। हो ठीक, न हो ठीक,
झंझट मिटाओ और सो जाओ।
पर तीन
घंटे उसे रोकना जरूरी था। क्योंकि जितना मैंने उसे रोका, उतना उसको पक्का होता गया कि पानी में कुछ है। नहीं
तो फिर रोकने की बात भी क्या थी। मजबूरी में मैंने उसे पानी दिया। मैने कहा कि 'तू कसम खा, किसी को बताएगा नहीं घर में। ' जब उसने कसम खाई, तब मैंने उसे पानी दिया। पानी पीते
से वह बोला कि ' अरे! मेरा दर्द तो चला गया। ' और दर्द उसका चला गया।
यह न तो
कोई संयोग है, न कोई चमत्कार है। उसका
एक वहम था। और वहम को निकालने के लिए एक ही उपाय है—किसी पर भरोसा आ जाये। और कोई
उपाय नहीं है।
वहम के
निकालने का एक ही उपाय है कि उससे बडा वहम पैदा हो जाये। उसका वहम था कि पेट में
दर्द है; उसका वहम है कि मैं
चमत्कारी हूं। यह बडा वहम है। और जो झूठा पेट में दर्द पैदा कर ले, वह झूठा चमत्कारी पैदा कर ले, इसमें कठिनाई क्या है!
है उसका ही खेल। मेरा कोई लेना—देना नहीं है। कल तक वह पेट में दर्द पैदा कर रहा
था। डाक्टर को सालभर तक जिसने हराया, वह कोई छोटा—मोटा आदमी
नहीं है! वहम पैदा कर सकता है। और दर्द जैसा वहम पैदा कर लिया, जिसमें दुख ही पाया, तो यह तो बडा सुखद था मामला।
घूंट अंदर नहीं गया कि उसने कहा कि 'गजब! यह तो चमत्कार हो
गया। ' उसने कहा कि 'वह कसम—वसम मैं
नहीं मानूंगा, क्योंकि मेरी मां की तबियत खराब है। '
और आप
जानकर हैरान होंगे कि वह एक बोतल रखने लगा, जिसको मुझसे छुआ कर ले जाता था और मरीजों को ठीक करने लगा। क्योंकि उसको
देखकर मरीज, पूरा मुहल्ला जानता था कि यह तो क्रानिक मरीज था,
वह कोई ठीक होने वाला प्राणी नहीं था। वह ठीक हो गया, तो उससे लोग मायने लगे, कि किस तरकीब से...। और
अनेकों को वह ठीक करने लगा। अब मैं उसको समझाऊं भी तो समझाने का कोई उपाय नहीं
क्योंकि वह ठीक हो गया है। और ठीक होने का एक नियम है।
सौ में
से नब्बे बीमारियां मानसिक हैं। इसलिए नब्बे बीमारियां तो चमत्कार से ठीक हो ही
सकती हैं। वे जो दस बीमारियां हैं, जो मानसिक नहीं हैं, वे भी भुलाई जा सकती हैं। जैसे
कि झूठी बीमारी पैदा हो सकती है, वैसे सच्ची बीमारी भूल सकती
है।
हिप्नोटिज्म
में दो तरह के प्रयोग हैं, अभी किसी को सम्मोहित
किया जाये और एक खाली कुर्सी रख दी जाये। जब वह सम्मोहित हो, तब उसको कहा जाये कि खाली कुर्सी पर उसका कोई परिचित व्यक्ति आकर बैठ गया।
फिर उससे कहा जाये, आंखें
खोलो। वहा कुर्सी खाली है। वह
देखेगा बराबर कि फला आदमी बैठा हुआ है। जो नहीं है, वह दिखाई
पड़ रहा है। इससे उलटा भी हो सकता है। कुर्सी पर बैठा हुआ है आदमी। उसको कहो कुर्सी
खाली है, यहां कोई नहीं है। फिर उसे आंख खोलने को कहो। उसको
आदमी दिखाई नहीं पड़ेगा।
हमारा मन
जो देखना चाहे, वह न हो, तो भी दिखाई पड़ सकता है। और हमारा मन जो देखना न चाहे, तो जो हो वह भी नहीं दिखाई पड़ेगा। अब इसके लिए जरूरी है कि एक बहुत गहरी
आस्था का भाव पैदा हो जाये। चमत्कारी व्यक्ति उतना ही काम कर रहा है कि वह उतना
भरोसा दिलवा रहा है कि ठीक है। अब इसमें कठिनाइयां ये हैं कि अगर चमत्कारी व्यक्ति,
जैसे मैंने यह बात आपसे कह दी। अब आपके पेट में दर्द हो, तो मैं कुछ नहीं कर सकता। अब यह बेकार हो गया; मेरा
चमत्कार काम नहीं करेगा। आपके पेट में दर्द हो तो मैं तभी आपको ठीक कर सकता हूं जब
मेरे आसपास मैं हवा बनाकर रखूं पूरी की पूरी, कि मैं
चमत्कारी हूं। इसमें जरा भी एक्सप्लेनेशन खतरनाक है। इसमें जरा—सी व्याख्या साफ हो
गई आपको, तो फिर फायदा मुझसे नहीं हो सकता।
आपको
फायदा इसी आधार पर हो सकता है कि मैं चमत्कारी हूं मैं फायदा करता हूं। अगर मैं
आपको कहूं कि आपसे, आपको ही फायदा हो गया है,
मैं तो सिर्फ बहाना था। तो हो सकता है, जो
दर्द चला गया हो, वह भी वापिस लौट आये। बिलकुल लौट सकता है।
आपका
अपने पर भरोसा है ही नहीं, यही तो तकलीफ है। इसके
लिए कोई और चाहिए। आत्मविश्वास की कमी आपकी बीमारियों का आधार है। तो कोई आपको
चाहिए, जो आत्मविश्वास दिला दे। वह किसी भी तरह से दिला दे।
तो जितना प्रतिष्ठित हो वह विश्वास, उतना फायदे का है। जैसे अगर आपको मुझे सच में ठीक करना है,
तो मेरे आसपास दस—पच्चीस लोग चाहिए। जो आपके आते ही बताने लगें कि
किसी की टांग ठीक हो गई, किसी का कान ठीक! और ये अपने आप
इकट्ठे हो जाते हैं, इनको इकट्ठा करने की कोई जरूरत नहीं
पड़ती। क्योंकि अगर मेरे पास दस आदमी आयें, उसमें से दो ठीक
हो जायें तो जो आठ ठीक नहीं होंगे, वे किसी दूसरे को
तलाशेंगे। वे यहां काहे के लिए आयेंगे। वे जो दो ठीक हो गए, वे
यहां आयेंगे। मेरे आसपास इस तरह के लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जायेगी, जो मुझसे ठीक हुए। और जब एक नया आदमी आता है बीमारी लिए हुए, तो बीमारी तो वह छोड़ना ही चाहता है। यहां देखता है—इसका यह छूट गया,
उसका वह छूट गया! मेरे आने के पहले ही चमत्कार काफी हो चुका है! और
उसके मेरे पास आने की बात है कि वह ऊंट पर आखिरी तिनका रखना है। वह ठीक हो जायेगा।
यह जो
ठीक होना है, यह सीधे मन के नियम से हो
रहा है। और चूंकि आप अपनी बीमारियां पैदा कर रहे हैं, इसलिए
चमत्कार दिखाए जा रहे हैं। नहीं तो कहीं कोई चमत्कार की जरूरत नहीं है। पर ये
चमत्कार खतरनाक हैं। खतरनाक इसलिए हैं कि आपकी मूल जो बीमारी की आधार—शिला थी,
वह नहीं बदलती। बीमारी बदल जाती है।
इस आदमी
का पेट ठीक हो गया, लेकिन यह आदमी तो वही का
वही है। कल यह सिर दर्द पैदा कर लेगा, फिर इसको किसी चमत्कार
की जरूरत है। परसों यह पैर की तकलीफ पैदा कर लेगा। इसका मन तो वही का वही है।
बीमारी को एक तरफ से हटा दिया कि दूसरी तरफ से पकड़ लेगा। इस आदमी को कोई लाभ नहीं
हो रहा है। क्योंकि लाभ तो इसको तभी हो सकता है, जब यह समझ
ले कि बीमारी मैं पैदा कर रहा हूं और होशपूर्वक उस बीमारी को छोड़ दे। फिर यह आदमी
दुबारा बीमारी पैदा नहीं करेगा।
तो मेरे
सामने दो विकल्प रहे सदा कि क्या मैं आपकी एक बीमारी में सहायता करके छोड़ दूं कि
दूसरी बीमारी आप पैदा करें! मेरे लिए सरल काम वही था कि आपकी एक बीमारी ठीक कर दी।
आपको लगा कि बिलकुल ठीक हो गया; बात
खतम हुई उसमें समझाने—बुझाने की कोई भी जरूरत नहीं है। समझाने—बुझाने का काम ही
नहीं है उसमें बिलकुल। उसमें तो चमत्कारी पुरुष जितना चुप रहे, उतना अच्छा है। क्योंकि आप में बुद्धि डालना ठीक नहीं है। अबुद्धि से ही
आपको फायदा हो रहा है।
दूसरा यह
है कि मैं आपको समझाऊं कि आपकी सारी बीमारी सारे दुख की जड़ क्या है। मगर तब मुझे
चमत्कारी होने का कोई उपाय नहीं है। तब तो मैं आपके साथ संघर्ष करूं। आपकी बुद्धि
को निखारूं, तोडू? मिटाऊं, नया बनाऊं कि किसी दिन ऐसा क्षण आ जाये कि न
तो आप झूठी बीमारी पकड़े, न झूठे चमत्कारों की जरूरत रहे। आप
मुक्त हो जायें भीतर अपनी बीमारी से अपने बल से। उसमें आपकी सहायता करूं।
सच्चा
शिक्षक मैं उसको कहता हूं जो आपकी सहायता करे स्वतंत्र होने के लिए कि एक दिन आप
मुक्त हो जायें और स्वतंत्र हो जायें। अपने पैर पर खड़े हो जायें। और झूठा शिक्षक
मैं उसको कहता हूं जो आपकी बीमारी भी ठीक करे, लेकिन उसी कारण से करे जिस कारण से बीमारी थी।
मैं एक
कहानी कहता रहा हूं। एक घर में एक मेहमान आकर रहा। तो मेहमान जवान था। और बिगड़ न
जाये, तो घर के लोगों ने उसको
डरवा रखा था कि बाजार न जाये रात, सिनेमा न जाये। बीच में एक
मरघट पड़ता था, तो कहा जाता था कि उस मरघट से गुजरना बहुत
खतरनाक है, भूत—प्रेत हैं। तो उसे भूत—प्रेत का डर पैदा हो
गया। तो वह रात तो नहीं जाता था रास्ते की तरफ। लेकिन धीरे— धीरे डर इतना बढ़ा कि
दिन में भी वह अकेला न जाये। तो घर के लोगों ने कहा कि यह तो मुसीबत हो गई। वे भूत—प्रेत,
जिनसे रात में डरवाया था, वे कोई
कम्पार्टमेन्ट तो मानते नहीं; वे दिन में भी डरवायेंगे। डर
ही तो कारण था। डर पकड़ गया अब। तो वह दिन में भी कहे कि कोई साथ चलो! तो वह बस्ती
में जाएगा अंदर। तो उन्होंने कहा, कोई उपाय करना पड़े। तो एक
फकीर के पास ले गये। उस फकीर ने कहा कि 'इसमें कोई दिक्कत
वाली बात नहीं है। यह ताबीज मैं बाधे देता हूं। इस ताबीज की इतनी ताकत है कि कोई
भूत तेरे पास नहीं आ सकता। तू बिलकुल ताबीज पहनकर मरघट से निकल जा। '
ताबीज
पहनकर वह आदमी मरघट से निकला। वहा कोई भूत तो था नहीं। कोई आया भी नहीं। लेकिन वह
समझा कि ताबीज! अब वह ताबीज के बिना एक मिनट न रहे। क्योंकि ताबीज अगर रात छोड्कर
भी रख दे, तो उसे घबड़ाहट लगेगी कि
कहीं भूत—प्रेत पास न आ जायें। अब वह ताबीज की मुसीबत हो गई। वह बीमारी वही की वही
है! भूत—प्रेत से डरता था, अब ताबीज से डरने लगा कि कहीं
ताबीज खो जाये, कोई ताबीज चुरा ले, या
ताबीज गिर जाये या ताबीज के साथ कोई अशिष्टता हो जाये, या
ताबीज अपवित्र हो जाये, या कुछ हो जाये। अब वह चौबीस घंटे
ताबीज से घिर गया है। बीमारी वही की वही है। कल भूत सता रहे थे, अब ताबीज सता रही है! अब उसको ताबीज से छुटकारा करवाना है। हम छुटकारा
करवा सकते हैं दूसरी चीज पकडाकर। मूल आधार वही रहेगा।
मेरी
प्रक्रिया सारी इतनी है कि आपको कोई ताबीज न देनी पड़े। आपकी बीमारी है, तो चाहे थोड़ी देर लगे, मुश्किल
पड़े, कोई फिक्र नहीं, उससे भी प्रौढता
आयेगी। लेकिन बीमारी जाये, नई बीमारी बिना पकडे। इसको ही मैं
कहूंगा कि असली चमत्कार है। बाकी सब धोखा— धडी है। और मन इतनी कुशलता से खड़ा है
कि हमें खयाल ही नहीं है।
खोज कहती
है कि सौ में से केवल तीन सांप में जहर होता है। सत्तानबे सांपों में जहर होता ही
नहीं। लेकिन आदमी तीन परसेन्ट से ज्यादा मरते हैं। और कोई भी सांप काटे और मरने का
डर पैदा हो जाता है। जहर है नहीं, उससे
आप मरते कैसे हैं? सांप में जहर ही नहीं और आदमी को काटा,
आदमी मर गया। आदमी सांप से कब मरता है! 'सांप
ने काटा'—इससे मरता है।
असली जहर
सांप में नहीं है, आदमी के मन में है कि
सांप ने काट खाया। फिर चाहे चूहे ने काटा हो, इससे कोई फर्क
नहीं पडता; आदमी मर जायेगा। इसलिए सांप झाडू। जा सकता है।
क्योंकि कोई जहर तो होता नहीं। सत्तानबे मौके पर सांप झाडूने वाला सफल होगा।
क्योंकि जहर तो होता ही नहीं। कोई वास्तविक कारण नहीं है मरने का; सिर्फ यह खयाल...। तो मेरे एक मित्र जो सांप झाडूने का काम करते हैं,
उन्होंने सांप पाल रखे हैं। यह जरूरी है। जब उनके लड़के को सांप ने
काट खाया, तो वे भागे मेरे पास आये कि आप कुछ करो। मैंने कहा,
'तुम तो न मालूम कितनों को झाडू चुके हो!' उन्होंने
कहा, 'वह इस पर काम नहीं करेगा। लडका जानता है। वह जो तरकीब
है, वह लडका जानता है!' शान के साथ यह खराबी
है। उस लड़के से मैंने क्यों घबडा रहा है? तेरे बाप को कह।
तो कहा, 'मुझे पता है। मुझ पर नहीं पूछा 'तू ' चलेगा उनका काम। क्योंकि मैं खुद ही उनका सांप
छोडता हूं। '
तो सांप
उन्होंने पाल रखे हैं। तो भारी मंत्र पढेंगे, और मुंह से फसूकर गिरेगा। फिर वे चिल्लाएंगे, चीखेंगे।
फिर सांप को आवाज देंगे। फिर जिस सांप ने काटा, वह सांप
आयेगा। बाहर दरवाजे से चलता हुआ अंदर आयेगा। जब वह मरीज देखता है कि काटा हुआ सांप
आ गया, तो वह भी चमत्कृत हो जाता है, क्योंकि
सांप बहुत दूर है। जब वह आये तब...। फिर सांप आता है। वह सांप आकर बिलकुल कैपने
लगता है और सिर पटकने लगता है, झाडूने वाले के सामने। तो
मरीज तो ठीक हो ही जायेगा। कहेगा, 'गजब का चमत्कार है। '
फिर वे सांप को कहते हैं कि 'जहां उसको काटा
है, वहां वापस उसका खून पीयो। ' तो
सांप मुंह लगाकर वहां से...। वे सब ट्रेन्ट सांप हैं। दो—चार बूंद खून को टपकाते
हैं और कहते हैं, बस, जहर उसने वापस ले
लिया।
उनके लड़के
को काट लिया। अब वह लडका कहता है : हम खुद ही छोडते हैं, इसलिए बडी मुसीबत है। और बाप भी कहे कि 'मेरा काम नहीं चलेगा इसमें; आप कुछ करो। '
इस सारे
चमत्कार की दुनिया में आपकी वे बीमारियां दूर हो रही हैं, जो कभी थी ही नहीं। इसका यह मतलब नहीं कि आप तकलीफ
नहीं पा रहे थे। आप तकलीफ पा रहे थे। आप मर भी जाते, यह भी
हो सकता है। और लाभ तो पहुंचाया जा रहा है, इसलिए लाभ पाने
वालों को दोष देने का भी कारण नहीं है। जब तक आप हो, तब तक
किसी को झूठा सांप झाडूना पड़ेगा। यह आपकी वजह से उपद्रव है।
आप जानकर
हैरान होगे कि ऐसी घटनाएं घटती हैं। बहुत प्रसिद्ध घटना है सूफी जुन्नैद के बाबत।
वह निरंतर कहा करता था; उसने एक आदमी को मरते
देखा, वह एक काफी हाऊस में बैठा हुआ था। और गपशप कर रहा था,
कुछ लोग और बैठे हुए थे और एक आदमी आया, तो उस
काफी हाऊस के मालिक ने कहा, ' अरे! तुम अभी जिंदा हो?'
उस आदमी ने कहा, 'तुम क्या बात करते हो!
तुम्हें किस ने कहा कि मैं मर गया?' उसने कहा, 'किसी ने कहा नहीं। हमने सोचा हुआ था। भूल हुई। साल भर पहले जब तुम यहां
रुके थे, तुम्हारे साथ तीन आदमी और रुके थे उस रात यहां।
चारों ने रात जो खाना खाया था यहां, वह विषाक्त हो गया था।
तुम तो आधी रात उठकर चले गए, तुम्हें कहीं जाना था यात्रा पर।
बाकी तीन मर गए थे। तो हम यही सोचते थे कि तुम मर गए होगे!' साल
भर बाद वापस लौटा था। यह सुनकर वह बेहोश होकर गिर पडा।
जुन्नैद
ने लिखा है, जब मैंने उसे बेहोश गिरते
देखा, तो मुझे दुनिया के सब चमत्कार समझ में आ गए। यह जो
आदमी है, यह गिर पडा! तीन मर गए! विषाक्त भोजन! साल भर का
फासला ही मिट गया। उसको खयाल ही न रहा कि साल भर पहले की बात है। उसको होश में लाने
के लिए पडोस से झाडूने—फूकने वाले बुलाने पड़े। बामुश्किल वह होश में आया।
आदमी का
मन और उसके नियम, उनका सारा खेल है।
प्रश्न :
किसी को
भगवान मानने का क्या अर्थ है?
मेरी
दृष्टि में तो भगवान के सिवाय कुछ और है नहीं। कोई जागा हुआ भगवान है, कोई सोया हुआ भगवान है; कोई
अच्छे भगवान, कोई बुरे। बाकी भगवान के सिवाय कुछ नहीं है।
(बुरे भी होते हैं भगवान?) बिलकुल। क्योंकि उसके सिवाय कुछ
भी नहीं है। अगर बुरे को हम काट दें अच्छे से, तो फिर बुरा
होगा कैसे? होना मात्र ही उसका है। तो कोई राम की शक्ल में
भगवान, कोई रावण की शक्ल में भगवान। लेकिन रावण को अगर हम कह
दें कि उसमें भगवान नहीं है, तो फिर रावण के होने का कोई
उपाय नहीं है। होगा कैसे? अस्तित्व ही उसका है।
हमें
कठिन लगता है कि बुरे भगवान कैसे? चोर
भगवान कैसे? बाकी अगर वही है, तो चोर
में भी वही है। उसका ही होना सब कुछ है, तो फिर कोई चीज उसके
बाहर नहीं है।
आमतौर से
हमारी धारणा ऐसी है कि भगवान कहीं कोई सातवें आकाश में बैठा हुआ, कोई व्यक्ति, सारी दुनिया को
चला रहा है। यह बचकानी धारणा है। इसका कोई मूल्य नहीं। भगवान से मेरा अर्थ है :
अस्तित्व, होना मात्र। और जिस दिन भी कोई उस होने को समझ
लेता है, अपनी उपाधियों से हटकर, अपने
रोगों से हटकर उस शुद्ध होने को थोड़ा समझ
लेता है, वही भगवान हो गया।
यह हमारा
मुल्क अकेला मुल्क है, जिसने हिम्मतपूर्वक यह
कहा है कि सभी में भगवान है। और भगवान को अलग न रखकर हमने प्रत्येक के भीतर केंद्र
पर रख दिया है। वह होने का सहज गुण है। न जानो, सोये रहो। मत
पहचानो, यह हो सकता है। मगर वह भी तुम्हारी मरजी! कोई भगवान
अपने को नहीं पहचानना चाहता, तो क्या किया जा सके! वह नहीं
पहचाने। वह जिस दिन भी पहचानेगा, उस दिन खयाल में आ जायेगा।
तो भगवान
कहीं कोई दूर, कोई अलग वस्तु है,
ऐसा नहीं। मेरी धारणा यह है कि तुम्हारा होना ही भगवत्ता है। और
जैसे मछली को पता नहीं चलता कि सागर कहां है...। पता भी कैसे चले! क्योंकि उसी में
पैदा होती है, उसी में जीती है, उसी
में मरती है। मछली को तो पता ही तब चलता है सागर का, जब कोई
उसे खींचकर किनारे पर निकाल लेता है।
हमारी
मुसीबत यह है कि भगवान को छोड्कर कोई किनारा भी नहीं, जहां खींचकर हमको निकाला जा सके। इसलिए हमको पता नहीं
चलता उसके होने का कि वह क्या है, कहां है। मछली तट पर आकर
तड़पती है, तब उसको पता चलता है कि कुछ खो गया है, जो सदा था। लेकिन जब था, तब पता भी नहीं चलता था।
आदमी को
भगवान के बाहर नहीं खींचा जा सकता। यही तकलीफ है। नहीं तो हमको पता चल जाए कि
भगवान क्या है।
लोग कहते
हैं कि भगवान मिलता नहीं। और मैं कहता हूं कि चूंकि तुमने कभी खोया नहीं, यही तकलीफ है। एक दफे भी खो देते तो वह मिल जाता।
मिलने के लिए खोना बिलकुल जरूरी शर्त है। और चूंकि हम उसी में जी रहे हैं, उसका हमें पता नहीं है।
फिर मेरे
मन में, चूंकि मैं देखता हूं कि
बुरा भी वही है, बुराई के प्रति भी मेरे मन में कुछ बुरा भाव
नहीं रह जाता। इसको मैं एक आध्यात्मिक रूपांतरण की कीमिया मानता हूं।
अगर यह
मेरा खयाल हो कि सभी वही है, तो
जिसको हम बुरा कहते हैं, वह भी वही है। तो फिर बुराई के
प्रति भी कोई बुराई का भाव नहीं रह जाता। ठीक है; वह भी ठीक
है। शायद वह भी अनिवार्य हिस्सा है। शायद उसके बिना भी जगत नहीं हो सकता। जैसे
अंधेरे के बिना प्रकाश नहीं हो सकेगा। और मृत्यु के बिना जीवन नहीं हो सकेगा। शायद
इसी तरह रावण के बिना राम भी नहीं हो सकते। शायद परमात्मा के होने के ढंग में ये
दोनों बातें साथ—साथ सम्मिलित हैं कि जब भी वह राम होगा, तब
रावण भी होगा; नहीं तो नहीं हो सकता।
तो यह
द्वंद्व जो हमें इतना विपरीत दिखाई पडता है, कहीं भीतर जुडा हुआ है। थोड़ा रावण को अलग कर लें राम की कथा से। और राम के
प्राण निकल जाते हैं। रावण के बिना क्या बल है कथा में? कथा
में बचेगा क्या? एक रावण को हटा लें, तो
पूरी रामायण व्यर्थ हो जाती है।
तो जब
मैं ऐसा देखता हूं कि बुरा और भला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, तो बुरा भी कुछ बुरा नहीं रह जाता। इसलिए मेरी कोई
चेष्टा ऐसी नहीं है कि बुरे आदमी को अच्छा बनाऊं। मेरी चेष्टा ऐसी है कि बुरा आदमी
ठीक से बुरा हो जाए, और अच्छा आदमी ठीक से अच्छा हो जाये।
मेरा फर्क समझ रहे हैं!
यह बुरा
आदमी अच्छा हो जाये, ऐसी मेरी कोई कोशिश नही—कि
रावण को राम बनाओ। कुछ मतलब हल न होगा। सब खराब हो जाएगा। सब खराब हो जाएगा और कुछ
न कहो कि रावण कोई दिन राम बन जाए, तो राम को बेचारे को
तत्काल रावण बनना पड़ेगा क्योंकि इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है। कोई उपाय नहीं है।
तो रावण
अच्छा रावण हो—शानदार। पूरी तरह प्रकट हो। और राम पूरी तरह प्रकट हो। और राम पूरी
तरह प्रकट हो अपनी प्रतिमा में।
तो यह
खेल का पूरा रूप आ जाए। तो मैं नहीं कहता किसी को कि तुम ऐसे हो जाओ। मैं कहता हूं
: तुम जो हो, वही तुम पूरी तरह हो जाओ।
कोई ढांचा नहीं देता हूं कि ऐसे बनो। किसी को मैं ढांचा देने वाला नहीं हूं। तुम
जो बन सकते हो, वही बनो; उसमें पूरी
तरह संलग्न हो जाओ। और कैसे पूरी तरह संलग्न हो सकते हो, वह
मैं जरूर कहता हूं। और जिस दिन तुम जो हो वही बन जाओगे, उस
दिन तुम्हें परमात्मा की प्रतीति हो जायेगी। क्योंकि जिस दिन तुम पूरे खिलोगे अपने
व्यक्तित्व में वही—वही अनुभव है उसका। व्यक्ति का पूरा खिल जाना ही, उसके भीतर जो छिपा है, उसका पूरा पंखुडियों तक फैल
जाना ही अनुभव है। तो मेरे लिए भगवान तो सभी हैं। अगर इसका खयाल भी पैदा हो जाए कि
मैं भी भगवान हूं तो तुम्हारी जिंदगी बदलनी शुरू हो जाए। क्षुद्र से जोडना ही
क्यों नाता अपना। नाता ही जोडना हो, तो विराट से जोड लेना
चाहिए।
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