साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)
ओशो
तीसरा-प्रवचन
जो दिखाई पड़ जाए उसका जीवन में प्रविष्ट हो जाना, वह भी उतना महत्वपूर्ण नहीं है, उससे भी ज्यादा
महत्वपूर्ण है, जो जीवन में प्रविष्ट हो। वह आरोपित, जबरदस्ती, चेष्टा और प्रयास से न हो, बल्कि ऐसे ही सहज हो जाए--जैसे वृक्षों में फूल खिलते हैं, या सूखे पत्ते हवाओं में उड़ जाते हैं, या छोटे-छोटे
तिनके और लकड़ी के टुकड़े नदी के प्रवाह में बह जाते हैं। उतना ही सहज जीवन में उसका
आगमन हो जाए।
वह तो तीन दिनों में मैं चर्चा करूंगा, उसे आप समझने और
सोचने की दिशा में सहयोगी बनेंगे। अभी आज की रात तो कुछ बहुत थोड़ी सी प्राथमिक
बातें मुझे कहनी हैं। लेकिन इसके पहले कि मैं वे बातें कहूं, यह भी आपसे निवेदन कर दूं, साधारणतः जो लोग भी धर्म
और साधना में उत्सुक होते हैं, वे सोचते हैं कि बहुत बड़ी-बड़ी
बातें महत्वपूर्ण हैं।
मेरी दृष्टि भिन्न है। जीवन बहुत छोटी-छोटी बातों से बनता है, बड़ी बातों से नहीं। और जो व्यक्ति भी बहुत बड़ी-बड़ी बातों की महत्ता के
संबंध में गंभीर हो उठता है, वह इस तथ्य को देखने से वंचित
रह जाता है, अक्सर वंचित रह जाता है। उसे यह बात नहीं दिखाई
पड़ पाती है कि बहुत छोटी-छोटी चीजों से मिल कर जीवन बनता है।
परमात्मा और आत्मा और पुनर्जन्म और इस तरह की सारी बातें धार्मिक लोग
विचार करते हैं। इसमें बहुत छोटे-छोटे जीवन के तथ्य, दृष्टियां और हमारे
सोचने और जीने के ढंग उनके खयाल में नहीं होते, और तब बड़ी
बातें हवा में अटकी रह जाती हैं। और जीवन के पैर जिस भूमि पर खड़े हैं उस भूमि में
कोई परिवर्तन नहीं हो पाता।
कुछ छोटे-छोटे थोड़ी सी बातों के संबंध में आज की रात चर्चा करना
चाहूंगा। अगर उन पर थोड़ा ध्यान देंगे, तो आने वाले तीन
दिनों में कुछ गहरा काम भी हो सकता है।
इसके पहले कि मैं बात शुरू करूं, एक छोटी सी कहानी
कहूं, शायद उस कहानी के आधार पर पूरी चर्चा होती चले।
दो मित्र पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकले। उन्होंने चाहा और आकांक्षा
की कि हम सारी पृथ्वी को घूम डालें और देख डालें, और जीवन के विविध
रूपों को अनुभव करें और जीवन में जो अनुभव की संपदा है उसे बटोरें। लेकिन एक उनमें
से अंधा था। बड़ी दया की दूसरे मित्र ने, वह उसका हाथ पकड़ कर
उसे सारी पृथ्वी घुमाने के लिए राजी हुआ था। अंधा आदमी अपनी लकड़ी टेक कर और मित्र
का सहारा लेकर यात्रा शुरू की। लेकिन थोड़े ही दिनों में अड़चनें आनी शुरू हुईं।
दूर से मित्र बने रहना एक बात है और लंबी यात्रा में सहयोगी और साथी
होना बिलकुल दूसरी। बहुत सी कठिनाइयां आनी शुरू हो गईं। छोटी-छोटी बातों में
उपद्रव और विरोध शुरू हो गया। कटुता आनी शुरू हो गई। पृथ्वी बड़ी थी, परिक्रमा बहुत बड़ी थी। थोड़े ही दिनों में दोनों के बीच मनमुटाव गहरा हो
गया।
एक रात दोनों एक रेगिस्तान में सोए, बहुत सर्द और ठंडी
रात थी। सुबह जैसे ही अंधे मित्र की आंख खुली, उसने टटोल कर
अपनी लकड़ी ढूंढनी चाही, जिसे वह रात रख कर सो गया था। उसके
हाथ में लकड़ी आ भी गई, देख कर वह हैरान हुआ, जो लकड़ी उसके हाथ में आई थी, वह बहुत चिकनी, साफ-सुथरी, बहुत सुंदर मालूम हो रही थी। वह हैरान
हुआ कि यह लकड़ी कहां से आ गई? उसकी लकड़ी तो बहुत साधारण और
खुरदुरी थी। उसी लकड़ी से उसने अपने आंख वाले मित्र को हिलाया और जगाया और कहा कि
उठो, सुबह हो गई है और पक्षी गीत गाने लगे हैं और मुर्गों ने
बाग दे दी है, और अच्छा होगा कि हम जल्दी यात्रा पर निकल
जाएं, इसके पहले की सूरज चढ़े और धूप बढ़ जाए। आंख वाले मित्र
ने आंख खोली, वह घबड़ा कर दूर खड़ा हो गया और उसने अपने अंधे
मित्र से कहा कि मित्र, तुम जो लकड़ी हाथ में लिए हो वह लकड़ी
नहीं है, कृपा करके उसे जल्दी छोड़ दें, वह रात में, सर्दी में ठिठुर गया एक सर्प है और तुम
उसे पकड़े हुए हो। लेकिन उस अंधे आदमी ने कहा: अब तो हद्द हो गई, मेरे पास आंखें नहीं हैं, यह तो मैं समझता हूं,
लेकिन मेरे पास हाथ हैं। तुम तो शायद अब यह भी कहने लगे कि तुम्हारे
पास हाथ भी नहीं हैं। मुझे अनुभव हो रहा है कि लकड़ी है, सर्प
नहीं है। और मैं तुम्हारी चालाकी भी समझ गया। शायद यह सुंदर लकड़ी तुम्हें बहुत मन
को भा गई होगी और तुम चाहते हो कि मैं इसे छोड़ दूं तो तुम उठा लो। लेकिन मुझे धोखा
देना इतना आसान नहीं है। उसके मित्र ने बार-बार प्रार्थना की कि तुम कृपा करो और
इसे छोड़ दो, वह सर्प है और लकड़ी नहीं है। लेकिन जितना वह
मित्र प्रार्थना करता गया, उतना अंधे का आग्रह बढ़ता चला गया।
अंततः बात यहां पहुंच गई कि उस अंधे आदमी ने कहा कि अब हमारा साथ आगे नहीं बन
सकेगा। फिर दोनों मित्र अलग हो गए।
आंख वाले ने बहुत दुख से उस मित्र को विदा किया, लेकिन कोई रास्ता नहीं था। थोड़ी ही दूर चलने पर जब धूप तीखी हो गई,
तो सर्प की सर्दी थोड़ी कम हुई, उसमें प्राण
वापस लौटे। और उस अंधे आदमी का जो होना था वह हुआ। उस सर्प ने उसे काटा और वह अंधा
आदमी मरा। यह कहानी मैं किसी विशेष प्रयोजन से कह रहा हूं।
मनुष्य के जीवन में एक लंबी यात्रा है, हर मनुष्य के जीवन
में, लंबी परिक्रमा है पूरी पृथ्वी की। जन्म से मृत्यु के
बीच लंबी यात्रा है। और हर मनुष्य के भीतर दोनों मित्र मौजूद हैं--आंख वाला भी और
न आंख वाला भी। जो आंख वाली शक्तियां हैं मनुष्य के भीतर, बहुत
कम लोग उन्हें जगा पाते हैं और उन पर...अधिकांश लोग उन्हें ही पकड़ लेते हैं और
उनके ही अनुगामी हो जाते हैं। यहां तक भी कि हम अंधी शक्तियों के साथ होकर आंख
वाली शक्तियों का साथ भी छोड़ देने को तैयार हो जाते हैं। तब फिर जीवन में बहुत
भटकन, एक अंधापन, दुख और पीड़ा शुरू
होती है। और वह पूरा जीवन जीवन न रह कर मृत्यु की ही एक लंबी प्रक्रिया मात्र हो
जाती है। फिर हम मरते हैं, रोज मरते जाते हैं, और एक दिन मौत आती है और समाप्त हो जाते हैं। लेकिन जीवन के अर्थ को और
आनंद को नहीं जान पाते हैं। जीवन के अर्थ और आनंद को तो वही जान सकता है, जो स्वयं के भीतर आंख वाली शक्तियों का सहारा पकड़े। और जो स्वयं के भीतर
अंधी शक्तियों का सहारा पकड़ता है, वह जीवन से भटक जाता है और
अंधकार में खो जाता है। अंधापन अंधकार में ले जा सकता है, आंखें
प्रकाश में। और प्रकाश के अतिरिक्त न जीवन का अर्थ है कोई और न जीवन में आनंद है
कोई। और प्रकाश के बिना जीवन भटक जाता है।
कौन सी शक्तियां हमारे भीतर अंधी हैं, उनकी मैं बात करूंगा।
कौन सी शक्तियां हमारे भीतर आंख वाली हैं, उनकी मैं बात
करूंगा। उन तत्वों की भी बात करूंगा जो अंधी शक्तियों को प्रबल करते हैं और उनकी भी
जो उन्हें निर्मल करते हैं और आंख वाली शक्तियों को जगाते हैं और चैतन्य करते हैं।
यदि आपके जीवन में दुख, चिंता और पीड़ा हो,
यदि आपने जीवन की कोई थिरक और संगीत और आनंद अनुभव न किया हो,
तो एक बात बहुत स्पष्ट रूप से समझ लेना, जाने-अनजाने
आपने जीवन की अंधी शक्तियों को ही बल दिया होगा, अन्यथा यह
नहीं हो सकता था। अगर रास्ते पर हम चलें और पैर बार-बार गङ्ढे में पड़ जाते हों और
बार-बार किसी से टकराहट हो जाती हो और चोट लग जाती हो, तो हम
समझेंगे कि...या आंख से अंधी हुई। लेकिन जीवन में यह रोज होता है, कि रोज बार-बार उन्हीं-उन्हीं गङ्ढों में हमारे पैर जीवन के पथ पर गिरते
हैं। नये-नये गङ्ढों में भी नहीं; कल जो क्रोध किया था,
वही क्रोध आज भी किया। आज जो क्रोध किया है, कल
वही क्रोध फिर भी होगा। क्रोध के बाद पछताएंगे भी, दुखी भी
होंगे, निर्णय भी करेंगे न करने का, लेकिन
फिर घड़ी दो घड़ी बाद वही भूल सामने आ जाएगी, वही गङ्ढा,
वही आदमी, वही पैर और फिर वही गङ्ढे में गिरना
हो जाएगा।
जीवन निरंतर कुछ थोड़ी सी भूलों को ही दोहराते हैं हम जीवन भर। यह
निरंतर उन्हीं-उन्हीं भूलों का दोहराना, जिनके लिए हम पछताए,
दुखी हुए, पीड़ित हुए, कष्ट
उठाया, निर्णय किया नहीं करने का, फिर
उन्हीं को दोहराते हैं, किस बात की सूचना होगी? इस बात की कि भीतर आंख या तो बंद है या हमने जीवन में जो भी दृष्टि पकड़ी
है वह अत्यंत अंधकारपूर्ण और अंधी है। उन्हीं भूलों को इसके अतिरिक्त दोहराने का
कोई भी कारण नहीं है। और फिर जो कुछ हम जीवन में चाहते हैं, वही-वही
उपलब्ध नहीं हो पाता। हर मनुष्य आनंद चाहता होगा, शांति
चाहता होगा, एक संगीतपूर्ण व्यक्तित्व चाहता होगा, फूल की तरह सुरभित आत्मा चाहता होगा, लेकिन यह हो
नहीं पाता। और जो हम करते हैं, वह सब ठीक हमें, जो हम चाहते हैं उसके विरोध में ले जाता है।
इससे किस बात की सूचना मिलती होगी? एक ही बात की सूचना
मिलती होगी, आकांक्षाएं तो हमारी ठीक हैं, लेकिन आंखें हमारी अंधी हैं। और आंखें अंधी हों, तो
स्मरण रखिए, खुद की आंखें अंधी हों, तो
कोई दुनिया में किसी दूसरे की आंख आपके काम नहीं पड़ सकती हैं। कृष्ण की, या क्राइस्ट की, या बुद्ध की, या
महावीर की, या किसी की भी आंख आपके काम नहीं पड़ेंगी। और आपकी
आंख अंधी हों, तो आपके हाथ में सूरज भी लाकर रख दिया जाए,
तो भी प्रकाश नहीं कर सकेगा, उसमें कोई अर्थ
नहीं होगा।
एक अंधा आदमी, एक मित्र के घर रात विदा ले रहा था। उसके मित्र ने
कहा: अंधेरी रात है, सन्नाटा है, अमावस
है, रास्ते सुनसान हैं, लोगों के घर
बंद हैं, अच्छा होगा कि तुम हाथ में एक दीया लिए जाओ। उस
अंधे ने कहा कि आप बड़ी पागलपन की बातें करते हैं, मैं दीया
भी ले जाऊं, उसका क्या अर्थ? मेरी
आंखें तो नहीं हैं। तो मेरे हाथ में प्रकाश भी होगा, तो मैं
क्या करूंगा? फिर भी मित्र ने बहुत आग्रह किया, उसके आग्रह को मान लेकर वह अंधा आदमी एक कंदील को लेकर रास्ते पर निकला।
लेकिन वह कोई दस कदम ही गया होगा कि कोई दूसरा आदमी आकर उससे टकरा गया। उस अंधे
आदमी ने कहा: मेरे मित्र, मुझे तो लालटेन नहीं दिखाई पड़ती,
लेकिन तुम्हें तो दिखाई पड़ती होगी? क्या मैं
किसी दूसरे अंधे आदमी से मुलाकात कर रहा हूं? उस दूसरे आदमी
ने कहा: नहीं भाई, मुझे तो दिखाई पड़ता है, लेकिन तुम्हारी कंदील की बाती बुझ गई है, तुम बुझी
हुई कंदील लिए हुए हो, इसलिए कैसे दिखाई पड़ता? तो अंधे आदमी को तो यह भी पता नहीं चल सकता कि कंदील बुझी है या जली है।
दुनिया भर के शास्त्र बुझी हुई कंदीलों की भांति हमारे हाथों में हैं।
जिससे कोई अर्थ नहीं है। कोई कुरान को लिए हुए है; कोई गीता को; कोई बाइबिल को, और तीनों टकरा जाते हैं रास्तों पर।
तीनों की कंदीलें बुझ गई हैं। लेकिन कंदील बुझी है या जली है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, जब तक कि खुद के पास आंख न
हो। आंख के बिना प्रकाश का कोई भी अर्थ नहीं है। तो चाहे हम कितने ही प्रकाशवान
लोगों को पूजें, औरों के वचनों को आदर दें, कोई उससे, कोई उससे जीवन में हित होने वाला नहीं है,
कोई मंगल होने वाला नहीं है। मंगल तो तब होगा, जब आंख खुली हो। और मैं स्मरण दिला रहा हूं कि आंख खुली हो, तो अंधकार मैं भी रास्ता मिल सकता है और आंख बंद हो, तो प्रकाश में भी कोई रास्ता नहीं है। मैं फिर दोहराता हूं, आंख बंद हो, तो प्रकाश में भी कोई रास्ता नहीं है और
आंख खुली हो, तो अंधकार में भी रास्ता मिल जाता है।
जीवन में जो हमारे इतनी चिंताएं, इतना संताप, इतनी एंग्ज़ायटी, इतनी अशांति है, क्या कभी सोचा कि ये क्यों हैं? क्या कभी विचारा कि
ये कैसे पैदा हो गई हैं? ये आसमान से नहीं बरसती हैं,
इसे हम पैदा करते हैं। जिस ढंग से हम रोज जीते हैं, उससे हम पैदा करते हैं। हमारे जीने का ढंग गलत है, सोचने
का ढंग गलत है; देखने की दृष्टि मंद है, हाथ में, जीवन में कोई प्रकाश नहीं है। जो भी हम
करते हैं, वह गलत ले जाता है। जो भी हम बनाते हैं, वह गलत हो जाता है। जिस भांति भी हम चलते हैं, वही
रास्ता भटका देता है। तो इन सारे तथ्यों को देखने पर एक बात खयाल में आ जानी चाहिए
और वह यह कि हमने अपने जीवन में आंखों वाली शक्तियों को विकसित करने में संकोच
किया होगा और अंधी शक्तियों को सहारा दिया होगा। कोई भी अंधी शक्तियां हों।
श्रद्धा अंधी शक्ति है, विश्वास अंधी शक्ति है। विचार,
विवेक, आंख वाली शक्तियां हैं। लेकिन हमने
श्रद्धा को, विश्वास को, इनको बल दिया
है। विवेक को और विचार को नहीं।
मर्ूच्छा अंधी शक्ति है और हमने हर तरह से मर्ूच्छा खोजी है। हमने
तरहत्तरह से बेहोश होने के उपाय किए हैं। न केवल हमने शराब और अफीम और गांजा, और अभी नई दुनिया में मैक्सलीन और एल एस डी, और इस
तरह की चीजें खोजी हैं, जिनसे हम मर्ूच्छित हो जाएं। बल्कि
हमने भजन, कीर्तन, धूप, नाम-जप, मालाएं और न मालूम ऐसी मानसिक तरकीबें खोजी
हैं, जिनसे मन तंद्रा में चला जाए और सो जाए। हमने मन को
जगाने और चैतन्य करने के उपाय नहीं खोजे, हमने मन को सुलाने
के, तंद्रा में ले जाने के, नींद में
ले जाने के, मर्ूच्छित होने के उपाय खोजे हैं। निश्चित ही
मर्ूच्छा और नींद से एक तरह की शांति मिलती है, लेकिन वह शांति
उसी तरह की है जिस तरह की मुर्दाओं में होती है। जीवंत वह शांति नहीं है, जो मर्ूच्छा से आती हो। जीवंत शांति तो वह है, जो
परम जागरण से उत्पन्न होती हो।
इस सबकी मैं बात करूंगा कि हमने किस भांति मर्ूच्छा को, आंखें बंद करने को बल दिया है, सहारा दिया है। और उसकी
भी बात करूंगा कि कैसे हम उससे मुक्त हो सकें। और जीवन-शक्तियों को, विवेक की और चैतन्य की शक्तियों को जगा सकें। इन दोंनो की इन तीन दिनों
में मैं चर्चा करूंगा।
इसके पहले कि वे तीन दिन की चर्चाएं आपके सामने हों, वे सारी बातें आपसे कहूं, इन तीन दिनों की बातों को
सम्यक रूप से समझने, विचार करने, उस
तरफ आंख उठाने के लिए कुछ छोटी-छोटी बातें आपसे अपेक्षित होंगी। पहली अपेक्षा तो
यह होगी कि इन तीन दिनों में--जो पीछे आप करते आए हैं, सोचते
रहे हैं, विचार करते रहे हैं, उससे
थोड़ा सा दूर हट कर अगर बातों को सुनने की कोशिश करेंगे, तो
शायद कुछ हो सके। उससे थोड़ा तटस्थ होकर अगर सोचेंगे, तो कुछ
हो सकता है। आमतौर से हम उसे भूल ही जाते हैं जो हमारे मन में बैठा हुआ है।
एक फकीर के पास एक नया युवक दीक्षा लेने गया था। उस युवक ने जाकर उस
फकीर के पैर पड़े और कहा कि मैं दीक्षित होने आया हूं।
तो उस फकीर ने पूछा, तुम किस जगह से आते हो?
उसने कहा: मैं पेकिंग से आता हूं।
उस फकीर ने पूछा कि पेकिंग में चावल के क्या भाव हैं?
वह युवक हंसा और उसने कहा: क्षमा करें, पेकिंग को मैं पीछे
छोड़ आया, उसके चावल को भी, उसके भाव को
भी, और जिस रास्ते से मैं गुजर जाता हूं, वह मेरे लिए मिट गया हो जाता है, और जिस पुल पर से
मैं गुजर जाता हूं, उसको मैं तोड़ देता हूं। मुझे कुछ पता
नहीं कि पेकिंग में चावल के क्या भाव हैं।
उस फकीर ने कहा: तब ठीक है, तब मैं तुम्हें
दीक्षा देने को राजी हूं। अगर तुम बताते कि पेकिंग में चावल के क्या भाव हैं,
तो मेरे दरवाजे बंद हो जाते और मैं तुम्हें विदा कर देता। क्योंकि
जो आदमी पेकिंग से चला आया और अब भी वहां के भाव साथ में लिए आया है, वह आदमी सत्य की खोज के लिए शांत नहीं हो सकता।
तो इन तीन दिनों में एक प्रार्थना करूंगा कि पेकिंग में चावल के क्या
भाव हैं, उसको छोड़ देना। पेकिंग हो या अमरावती हो या कुछ और हो,
वहां क्या चावल के भाव हैं, अगर वह तीन दिन
याद रहे, तो बहुत कुछ काम नहीं हो सकता। और जो कठिनाई है,
यह स्मरण रहे कि जो बीत जाता है, उसका कोई भार
चित्त पर नहीं होना चाहिए। यह स्मरण मात्र भीतर से विदा दे देता है।
अभी रात जब आप सोएं, तो स्मरणपूर्वक यह खयाल लेकर
सोएं कि जो बीत गया, वह बीत गया और इन तीन दिनों में मैं
बीते हुए को बार-बार मन पर नहीं लौटने दूंगा। इन तीन दिनों में जो सामने होगा उसको
जीऊंगा और जो बीत गया उसको छोड़ दूंगा। अगर इस विचारपूर्वक स्मरण के साथ आप सोए,
सुबह आप और तरह से उठेंगे, जैसा कि आप रोज
उठते रहे होंगे, उससे बिलकुल भिन्न उठेंगे। क्योंकि एक मन का
बहुत अदभुत नियम है, हम जिस बात को लेकर सो जाते हैं,
ठीक उसी बात पर सुबह जागना होता है। उससे भिन्न बात पर कोई कभी नहीं
जागता। रात जिस चिंता को लेकर आप सो गए हैं, सुबह उसी चिंता
पर आप वापस जाग जाएंगे। रात भर वह चिंता आपके मस्तिष्क के द्वार पर खड़ी प्रतीक्षा
करेगी, जब आप जागेंगे, वह हाजिर हो
जाएगी। रात्रि का अंतिम विचार सुबह का प्रथम विचार होता है। और आज रात्रि का अंतिम
विचार भी यही हो कि मैं जो पीछे है उसे छोड़ता हूं। कम से कम तीन दिन के लिए मैं जो
सतत वर्तमान है उसमें जीऊंगा, अतीत को बीच में नहीं लाऊंगा।
जो व्यक्ति अतीत को बीच में नहीं लाता चित्त के, उसका चित्त बहुत निर्मल और शांत हो जाता है। क्योंकि अशांति सब अतीत से
आती है। तो वर्तमान में कोई भी अशांति नहीं होती। इस तत्व पर अभी हम और विचार
करेंगे, तो समझ में आएगा कि तुम्हें कुछ थोड़े से सुझाव आपको
दे रहा हूं। वर्तमान में वह जो प्रज्वलित मूवमेंट है, उसमें
कोई अशांति नहीं होती। सब अशांति अतीत से संबंधित होती है या भविष्य से संबंधित
होती है, वर्तमान में कभी कोई अशांत नहीं होता। आप खुद ही
अपनी अशांति को देखेंगे, तो समझ जाएंगे। या तो वह बीती हुई
होगी या आने वाली होगी। ठीक क्षण में मौजूद कोई अशांति नहीं होती।
अभी हम यहां बैठे हैं, अगर हमारा चित्त इसी
क्षण में मौजूद हो जाए, कौन सी अशांति है? अगर हम इसी क्षण में जाग जाएं, कौन सी अशांति है?
अगर किसी जादू से आपका सब अतीत पोंछ दिया जाए, तो कौन सी अशांति है?
जीवंत क्षण में कोई अशांति नहीं होती है। पिछला भार, अतीत का भार चित्त को अशांति देता है। और आने वाले दिन की कल्पना और योजना
चित्त को अशांति देती है।
यहां तीन दिनों में, समझ लीजिए, न तो कोई अतीत है और न कोई भविष्य है। तीन दिन में बस ये तीन दिन के क्षण
हैं, जो सामने क्षण आता है, वही है। इन
तीन दिनों में इस भांति जीकर देखिए, एक बिलकुल नई दृष्टि
जीवन के प्रति खुल जा सकती है। और एक बार यह खयाल में आ जाए कि जीवन पर जो भार है,
जो टेंशन है, जो तनाव है, वह अतीत और भविष्य का है, तो मनुष्य को एक बिलकुल
नया द्वार मिल जाता है खटखटाने का। और तब फिर वह रोज घड़ी दो घड़ी को सारे अतीत और
सारे भविष्य से मुक्त हो सकता है। और खयाल रखिए, न तो अतीत
की कोई सत्ता है, सिवाय स्मृति के और न भविष्य की कोई सत्ता
है, सिवाय कल्पना के, जो है वह वर्तमान
है। इसलिए कि किसी भी दिन परमात्मा को या सत्य को जानना हो, तो
वर्तमान के सिवाय और कोई द्वार नहीं है। अतीत है नहीं, जा
चुका; भविष्य है नहीं, अभी आया नहीं है,
जो है एग्झिसटेंसियली, जिसकी सत्ता है,
वह है वर्तमान। इसी क्षण में सामने मौजूद क्षण है वही। इस मौजूद
क्षण में अगर मैं पूरी तरह मौजूद हो सकूं, तो शायद सत्ता में
मेरा प्रवेश हो जाए। तो शायद जो सामने दरख्त खड़ा है, ऊपर
तारे हैं, आकाश है, चारों तरफ लोग हैं,
इन सबके प्राणों से मेरा संबंध हो जाए। उसी संबंध में मैं जानूंगा
उसको भी जो मेरे भीतर है और उसको भी जो मेरे बाहर है।
इन तीन दिनों में अगर हमने थोड़ा सा भी समझपूर्वक जीने की कोशिश की--तो
क्षण-क्षण में जीने की कोशिश करेंगे, यह मेरा पहला निवेदन
है। जब भोजन कर रहे हों, तो सिर्फ भोजन करें। भोजन के पहले
की बात भूल जाएं और साथ में भोजन करें। और सारा चित्त और सारे प्राण भोजन करने में
ही तल्लीन हो जाएं। वे यहां-वहां डूबते हुए न हों। अभी तो यह होता है कि हम जब
भोजन करते हैं, तब चित्त कहीं और होता है--घर में होता है,
दुकान में होता है। जब दुकान में होते हैं, तब
वह भोजन कर रहा होता है। जब बाजार में होते हैं, तब चित्त घर
होता है, जब घर में होते हैं, तब बाजार
में होता है। मतलब यह कि जहां हम होते हैं, वहां हम नहीं
होते हैं। तो जीवन में एक विशृंखलता और एक खंडित, और यह
खंडित स्थिति बड़ी खतरनाक है। कि जब हम सोते हैं तब चित्त दिन में जो उसने किया
उसका स्मरण करता है, सपने देखता है। जो हम दिन में काम करते
हैं, तो रात जो सपने अधूरे हैं, चित्त
उन सपनों को पूरा करता है। चित्त पूरे वक्त अनुपस्थित है, एब्सेंट
है जहां हम हैं, तो हमारा जीवन से संबंध कैसे होगा?
जब हम किसी को प्रेम कर रहे हैं, तब चित्त हमारा कहीं
और है, तो जीवन में प्रेम कैसे होगा? और
इसीलिए हम जीवन भर अनुभव करते हैं कि हम प्रेम चाहते हैं कि करें और हम चाहते हैं
कि कोई हमें प्रेम दे, लेकिन न तो हम प्रेम कर पाते हैं और न
कोई हमें प्रेम दे पाता है। प्रेम के लिए जरूरी है कि हम वर्तमान में हों। लेकिन
जब हम प्रेम करते हैं तब चित्त कहीं और होता है। और जहां चित्त प्रेम करते वक्त
होता है, जब हम वहां आ गए, तो चित्त
वहां होता है जहां उसे प्रेम करते वक्त होना चाहिए था। ऐसे जीवन में सारी चीज टूट
गई हैं। हम कहीं हैं, चित्त कहीं है। जब हम प्रार्थना करते
हैं, तब चित्त कहीं और है; जब हम
व्यवसाय करते हैं, तब चित्त कहीं और है। हम किसी काम में भी
ठीक-ठीक मौजूद नहीं हैं।
इन तीन दिनों में एक छोटा सा प्रयोग करें--कि जो भी काम कर रहे हैं
उसमें पूरी तरह मौजूद हो जाएं। अभी रात को यहां से जाकर सोएं, तो पूरी तरह सोएं। पूरी तरह सोने का मतलब यह है कि सोते वक्त इस भांति
सोएं कि सारा काम समाप्त हुआ। अब सिवाय सोने के और कोई भी काम नहीं है। अब मैं
अपने पूरे प्राणों से सोने जा रहा हूं। और मेरे पूरे प्राण सिर्फ सोने भर के काम
को करें और कोई भी काम नहीं है। उसी भांति सोएं। सुबह स्नान करें तो इस भांति
स्नान करें कि स्नान करते वक्त आपका पूरा व्यक्तित्व स्नान कर रहा है, आपका चित्त कहीं और नहीं भागा जा रहा है। थोड़े ही दिन स्मरणपूर्वक अगर हम
चित्त के साथ सजगता बरतें, तो बहुत कठिन नहीं है कि एक दिन
वह घड़ी आ जाए कि हम जो काम कर रहे हों, उसमें हम पूरी तरह
मौजूद हो जाएं। बुहारी लगा रहे हों, तो पूरी तरह मौजूद हो
जाएं। और अगर बुहारी लगाते हुए भी कोई पूरी तरह मौजूद हो जाए, तो उसे बुहारी लगाने में वही आनंद उपलब्ध होगा, जो
किसी बड़े से बड़े योगी को ध्यान करने में उपलब्ध हुआ है। कोई फर्क नहीं रह जाएगा।
ध्यान का एक ही अर्थ है कि हम जो कर रहे हैं, उसमें हमारा
चित्त पूरी तरह मौजूद है, पूरी तरह लीन है, उससे बाहर नहीं है। कोई भी छोटा काम।
अभी यहां से उठ कर आप कमरे की तरफ जाएंगे, तो चलेंगे रास्ते पर, तो इस भांति चलें कि चलने के
सिवाय और कोई क्रिया आपके चित्त में नहीं हो रही, बस सिर्फ
चल रहे हैं, चलना ही रह जाए और आप मिट जाएं। अगर चलना ही रह
जाए और आप मिट जाएं, तो आपके कमरे तक जो सौ कदम उठाए जाएंगे,
वे सौ कदम परमात्मा के निकट ले जाएंगे। और उन सौ कदमों में ही आपको
पता चलेगा कि चित्त तो अपूर्व रूप से शांत हो गया है।
इधर हम तीन दिनों में सतत इस बात की फिकर करेंगे। जो भी काम कर रहे
हों, उसे इतनी पूर्णता से करें, इतने
पूरे, टोटल, इतने समग्ररूप से उसमें
डूब जाएं कि उसके बाहर कुछ भी न रह जाए, आप वही हो जाएं।
एक दफा ऐसा हुआ, तिब्बत में एक बादशाह को अपने
राज्य की एक मोहर बनाने थी। और मोहर पर उसके किसी सलाहकार ने कहा कि एक बोलता हुआ
मुर्गा उस मोहर पर खोदा जाए। उसे बात जंच गई। उसने सारे राज्य के चित्रकारों को
खबर की कि कोई बोलते हुए मुर्गे का चित्र बनाए। राज्य में एक बूढ़ा चित्रकार था,
उसे भी बुलाया, लेकिन उसने कहा कि मैं इतना
बूढ़ा हो गया हूं कि अब मैं नहीं बना सकूंगा। तो राजा ने कहा कि तुम बनाते तो हो,
चित्र तो बनाते हो, यह क्यों नहीं बना सकोगे?
उसने कहा कि कोई और बना सके तो बेहतर।
बहुत से चित्रकार मुर्गों के चित्र बना कर लाए, नमूने के लिए, लेकिन उस बूढ़े चित्रकार ने कहा कि सब
फिजूल हैं, ये कुछ भी नहीं हैं। आखिर राजा परेशान हो गया,
उसने कहा: तुम खुद बनाते नहीं, दूसरों को
बनाने देते नहीं। फिर हम क्या करें? उसने कहा कि मैं बनाऊं
लेकिन मेरा पक्का नहीं है, क्योंकि कम से कम तीन वर्ष लग
जाएंगे।
तो राजा ने कहा: तीन वर्ष! एक मुर्गे के चित्र बनाने में?
उसने कहा: चित्र बनाना तो दो क्षण में हो जाएगा, लेकिन मुर्गा बनने में तीन वर्ष लग जाएंगे।
राजा ने कहा: तुम पागल हुए हो! मुर्गा तुमसे बनने को कह कौन रहा है?
उसने कहा: जब तक मैं मुर्गे को भीतर से न जानूं कि वह कैसा है? और जब वह बांग देता है तो उसके प्राणों में क्या होता है? जब तक यह मैं न जान लूं, जब यह स्फुरणा मेरे प्राणों
में न हो जाए, तब तक मैं कैसे मुर्गे को बोलता हुआ बना
सकूंगा? तीन वर्ष लगेंगे। मैं बूढ़ा आदमी हूं, विश्वास नहीं दिला सकता, बीच में मर भी सकता हूं।
तीन वर्ष राज्य की तरफ से मेरी व्यवस्था करनी पड़ेगी भोजन की, क्योंकि उस वक्त मैं कुछ भी नहीं करूंगा।
राजा ने कहा कि ठीक, हम व्यवस्था करेंगे। तीन वर्ष की
व्यवस्था की गई। वह बूढ़ा कलाकार जंगलों में चला गया, जहां
जंगली मुर्गे रहते थे। दोत्तीन महीने बाद राजा ने आदमी अपने देखने भेजे कि वह आदमी
पागल तो नहीं है? क्योंकि एक मुर्गा बनाने के लिए तीन साल
बहुत होते हैं। और एक निष्णात कलाकार है, जीवन भर उसकी
प्रसिद्धि रही है, उसके हाथ में अदभुत जादू है, तुम जाकर देखो कि वह पागल क्या कर रहा है? वे मित्र
देखने गए, देख कर हैरान हो गए! वह बूढ़ा तो मुर्गों के बीच
छिपा हुआ बैठा है, आस-पास मुर्गे बांग दे रहे हैं। उन्होंने
तो उसे देखा, लेकिन उस बूढ़े ने उन्हें नहीं देखा।
और तीन महीने बाद गए, देखा कि वह तो मुर्गों के साथ
दौड़ रहा है चारों हाथ-पैर पर। वह तो बिलकुल पागल मालूम होता है, यह क्या कर रहा है? तीन वर्ष पूरे हुए, राजा ने खबर भेजी, वह आदमी वापस दरबार में आया। राजा
ने कहा: चित्र बना कर लाए हो?
उसने जोर से जैसे मुर्गा आवाज देता है, वैसी आवाज दी।
राजा ने कहा: हम यह नहीं चाहते हैं, हमें चित्र चाहिए।
तुम मुर्गे की आवाज सीख कर आए, इससे क्या होता है?
उस बूढ़े ने कहा: चित्र तो बना देना अब एक क्षण भर का काम है। सामान
बुला लें, मैं यही बना दूंगा। लेकिन तीन वर्ष मैं मुर्गे के साथ
एक होने की कोशिश किया, वह बात हो गई। उसने चित्र बनाया। जो
कहा जाता है मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास में किसी भी पशु या पक्षी का ऐसा चित्र
कभी नहीं बनाया गया। वह चित्र अदभुत है। उसने राजा से कहा कि अब इस चित्र की
परीक्षा कर लो।
उसने कहा: इसकी क्या परीक्षा है? हम कैसे जानें कि यह
चित्र इतना अदभुत बना?
उसने कहा: चित्र को रख दो और असली मुर्गों को ले आओ। अगर असली मुर्गा
देख कर भाग जाए, तो तुम समझ लेना कि चित्र बना। असली मुर्गे लाए,
वे मुर्गे भाग गए। मुर्गे बाहर से झांक कर देखे उस चित्र को और वापस
लौट गए। वह जो मुर्गा था, तो लड़ने की स्थिति में पूरी बांग
देकर खड़ा हुआ था। उस चित्रकार ने कहा: आदमी नहीं, मुर्गा भी
पहचान लेगा कि मुर्गा है।
यह जो उससे राजा ने पूछा कि कैसे यह तुमने बनाया?
उसने कहा: तीन वर्ष तक मैं मुर्गे के साथ एक होने की कोशिश किया। मैं
अपने को भूल गया और मुर्गा होता चला गया। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे ऐसे क्षण
आए, जब मुझे यह स्मरण भी नहीं रहा कि मैं हूं। एक ही बात
स्मरण रही, मुर्गा है। और उन्हीं क्षणों में मैंने मुर्गे की
आत्मा को जाना।
जीवन में चौबीस घंटे जो भी हम कर रहे हैं, उसके साथ इतनी आत्मलीनता, इतना आत्मसात हो जाना
जरूरी है कि हम मिट जाएं और वही रह जाए जो हम कर रहे हैं। चाहे वह काम कितना ही
छोटा क्यों न हो, बड़ा क्यों न हो। जो भी काम हो, उसमें हम डूब सकें पूरे। यह डूबना इन तीन दिनों में एक छोटा सा प्रयोग
करें। और मैं कह रहा हूं, चौबीस घंटे जो भी आप कर रहे हैं
उसमें उसका ध्यान रखें। इन तीन दिनों में ही एक बुनियादी फर्क अनुभव होगा। एक बात
खयाल में आएगी।
आज रात सोने से ही शुरू कर दें। वह अभी दूर है, जब यहां से उठ कर जाएं, तभी शुरू कर दें। वह भी थोड़ा
दूर है, अभी मुझे सुन रहे हैं, सुनने
में ही शुरू कर दें। सुनते वक्त सिर्फ सुनने की क्रिया रह जाए, आप जिसे सिर्फ सुन रहे हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। मात्र सुन रहे हैं,
कान ही कान रह गए हैं और आप नहीं हैं। जैसे आप सिर्फ कान ही हैं जो
सुन रहे हैं, आंख ही हैं जो सिर्फ देख रही हैं। अगर इस सुनने
की क्रिया को भी इतनी शांति से और इतनी लीनता से सुनें, तो
कुछ और सुनाई पड़ेगा। तब शायद वही सुनाई पड़ जाए जो मैं आपसे कह रहा हूं। लेकिन अगर
इतनी लीनता नहीं है सुनते वक्त, तो आप वह नहीं सुनेंगे जो
मैं कह रहा हूं, आप वही सुनेंगे जो आप सुनना चाहते हैं,
सुन सकते हैं, पहले से सुने हुए हैं, पहले से सोचे हुए हैं। तब आप वही सुनेंगे, तब फिर वह
नहीं सुन पाएंगे जो मैं आपसे कह रहा हूं। तो यहीं से शुरू कर दें और इन तीन दिनों
एक छोटे सूत्र पर काम करें कि जो भी काम कर रहे हैं--उठ रहे हैं; बैठ रहे हैं; सो रहे हैं, उसमें
पूरी तरह लीन हो जाएं।
(बच्चे जाओ। तुम जाओ।)
यह तो पहला सूत्र।
(हां, तुम एकदम से ही चले जाओ।)
दूसरी बात, अगर प्रत्येक कर्म में आत्मलीनता की बात पर थोड़ा खयाल
किया, तो चित्त बहुत गहरी शांति को अपने आप उपलब्ध होता है,
उसके लिए कोई बहुत विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। दूसरी बात, चित्त इसलिए अशांत है कि हम कुछ होना चाहते हैं, कुछ
बनना चाहते हैं, कोई दौड़ है हमारे भीतर, कोई एंबीशन, कोई महत्वाकांक्षा है, कोई धनी होना चाहता है, कोई बड़े पद पर होना चाहता है,
कोई बड़ा त्याग करना चाहता है, कोई बड़ा साधु
होना चाहता है, कोई मोक्ष जाना चाहता है, कोई समाधि उपलब्ध करना चाहता है, कोई सत्य पाना चाहता
है, लेकिन कोई हमारी दौड़ है बड़ी गहरी। उस गहरी दौड़ की वजह से
सारा चित्त अशांत और विकलता से भर जाता है। मैं यह निवेदन करूं, जिस व्यक्ति को सच में ही, सच में ही जीवन के साथ
आत्मलीन होना हो, सच में ही जीवन के साथ एकात्मता साधनी हो,
उसे एक बात खयाल में रखनी चाहिए, उसे अपने
ना-कुछ होने को स्वीकार कर लेना चाहिए। उसे कुछ होने की दौड़ से नहीं, बल्कि ना-कुछ होने के केंद्र को स्वीकार कर लेना चाहिए।
जो व्यक्ति भी अपने नोबडी होने को स्वीकार कर लेता है, ना-कुछ होने को, उसके जीवन में अदभुत बातें होनी
शुरू हो जाती हैं। और वह जो-जो होना चाहता था, वह अनायास
होना शुरू हो जाता है। दो बातें हैं, एक तो जैसे एक आदमी
पानी में तैरता है, हाथ-पैर फेंकता है और एक दूसरा आदमी है
जो पानी में बहता है, हाथ-पैर फेंकता नहीं, पानी की धारा पर अपने को छोड़ देता है और बहा जाता है। इन तीन दिनों में
तैरने की कोशिश न करें, बहने की कोशिश करें। कोई ऐसी बहुत
सचेत चेष्टा न करें कि यह करना है, वह करना है, यह होना है, वह होना है, बल्कि
ऐसे जैसे तीन दिन आएंगे और गुजर जाएंगे और हमें चुपचाप बहे जाना है। यह अदभुत बात
है कि जो व्यक्ति बहने के अर्थ को समझ लेता है, उसके चित्त
से सारा तनाव विलीन हो जाता है। जो करने की कोशिश करता है, तैरने
की, उसका चित्त बहुत तनाव से, बहुत
अशांति से भर जाता है। और जो अशांति से भर जाता है, वह कभी
सत्य को अनुभव नहीं कर सकता और न जीवन के आनंद को उपलब्ध हो सकता है। जीवन के आनंद
की अनुभूति तो अत्यंत सरल चित्त में हो सकती है। और सरल चित्त का पहला लक्षण है:
बहता हुआ चित्त, तैरता हुआ नहीं। तो इन तीन दिनों के लिए कह
रहा हूं फिलहाल अभी तो, फिर तीन दिनों में कुछ अनुभव हो,
तो वह तो अपने आप पूरे जीवन की, अपने आप पूरे
जीवन की विधि बन जाती है। अभी तो तीन दिन की ही कुल बात है, इसलिए
बहुत चिंता में न पड़ें कि अगर हम बहने लगें तो फिर जिंदगी का क्या होगा और अगर
हमने कुछ भी होने की फिकर छोड़ दी तो फिर जिंदगी का क्या होगा, इस चिंता में न पड़ें। मैं केवल तीन दिन की ही बात कर रहा हूं, इसके आगे की कोई बात नहीं कर रहा हूं। तीन दिन कुछ प्रयोग करके देखें,
उसमें से कुछ अगर सार्थक होगा, वह अपने आप बच
जाएगा, आपको बचाने के लिए नहीं कहूंगा उसे। अगर कुछ होगा,
तो वह अपने आप आपको पकड़ लेगा, आप उसे पकड़ें यह
निवेदन नहीं करूंगा।
अभी तो तीन दिन इस छोटी सी तीन दिन की घड़ियों के लिए सारी बात कर रहा
हूं। तो तीन दिन थोड़ी बहने की कोशिश करें। ये जो आमतौर से धर्म में उत्सुक लोग
होते हैं, वे बहुत ज्यादा सीरियसनेस पकड़ लेते हैं, बहुत गंभीर; वे समझते हैं वे कि बहुत भारी गंभीर काम
करने जा रहे हैं।
नहीं, धर्म के इस सत्य को जानने में केवल वे ही लोग सफल हो
सकते हैं, जो बच्चों जैसे गैर-गंभीर हों, नॉन-सीरियस हों, जैसे बच्चे। गंभीर चित्त तनाव से भर
जाता है। तो मैं आपसे निवेदन करूंगा, यहां गंभीरता को धारण
नहीं कर लेंगे। ज्यादा उचित होगा, हंसेंगे, प्रसन्न होंगे। गंभीर और उदास होकर नहीं बैठ जाएंगे। जो कौम भी परमात्मा
के साथ गंभीरता और उदासी को जोड़ लेती है, उसको हमको परमात्मा
तो नहीं मिलता, उसको उनके जीवन का सारा आनंद भी नष्ट हो जाता
है। तो प्रसन्न रहेंगे, हंसेंगे, ऐसे
ही समझेंगे जैसे घूमने चले आए हैं, यहां कोई बहुत बड़ी साधना,
कोई बहुत बड़ी परमात्मा की खोज, कोई बड़ा योग
साधने आए हैं, तो बहुत गंभीर होकर, नहीं,
उस तरह से चीजें नहीं पकड़ लेंगे। उस तरह से चित्त क्षुद्र होता है,
उदास होता है, उस तरह के चित्त की जो भी सरलता
है, वह सब नष्ट हो जाती है। ये साधु और संन्यासी सरल नहीं रह
जाते, जिंदगी को इतनी गंभीरता से पकड़ते हैं। ठीक-ठीक व्यक्ति
वही सरल हो सकता है, जो जिंदगी को एक खेल की भांति पकड़ता हो,
एक गंभीर घटना की भांति नहीं--एक नाटक की भांति, एक खेल की भांति।
तीन फकीर हुए चीन में। अदभुत फकीर थे। उनके बाबत, एक उन तीनों का कोई नाम पता नहीं है। उन्होंने कभी बताया भी नहीं। थ्री
लॉफिंग सेंट्स ही उनको कहा जाता था। तीन हंसते हुए फकीर। वे जिस गांव में जाते,
उनके पहले ही उस गांव में खबर पहुंच जाती कि वे तीनों पागल आ रहे
हैं। वे न तो भाषण करते थे, क्योंकि भाषण कैसे भी हो,
कुछ न कुछ गंभीर पहले ही आता है। न वे कुछ समझाते थे, बस चौराहों पर खड़े होकर हंसना शुरू कर देते थे। एक हंसता था और दूसरा
हंसता था और तीसरा और फिर वे तीनों हंसते थे और फिर भीड़ संक्रामक हो जाती, आस-पास लोग सुनते और वे भी हंसते और वह सारा गांव हंसने लगता। जिस गांव
में वे दो-चार दिन टिक जाते, वह सारा गांव हंसने लगता। जिस
गांव से वे गुजर जाते, वह गांव कहता कि वर्षों का भार,
वे तीन आदमी, तीन दिन रुक गए गांव में आकर
वर्षों का भार चला गया है।
तो मैं इधर कहूंगा कि इस शिविर को कोई गंभीर उपक्रम नहीं समझ लेना आप।
गंभीरता रुग्ण चित्त का लक्षण है। सरलता से हंसते हुए और एक नाटक की भांति जीवन को
लेने में जो समर्थ हो जाता है, उसे जीवन के बहुत से रहस्य खुल
जाते हैं।
तो यह निवेदन करूंगा कि तीन दिन ऐसी सरलता से जीएंगे जैसे हम यहां
प्रकृति के सौंदर्य को देखने इकट्ठे हुए हों। कुछ मित्र इकट्ठे हुए हों, कुछ गपशप करेंगे, कुछ हंसेंगे। मौज से तीन दिन बहें,
इस भांति अपने को ढीला छोड़ देंगे। आक्रामक, एग्रेसिव
माइंड नहीं होना चाहिए। और ये साधक जितने होते हैं, तथाकथित,
वे सब एग्रेसिव होते हैं, आक्रामक होते हैं।
एकदम से आक्रमण करते हैं चीजों को पाने के लिए। जब कि सच्चाई यह है कि सत्य जैसी
चीज आक्रमण करके नहीं पाई जा सकती।
एक महिला मेरे पास आती थीं, वह संस्कृत की बहुत
बड़ी पंडित हैं, उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे ईश्वर को पाना
है। मैंने कहा कि कुछ ध्यान करें, तो शायद कुछ इस दिशा में
गति हो। उन्होंने एक दिन ध्यान किया, लौटते में मुझसे बोली,
लेकिन अभी मुझे कुछ अनुभव नहीं हुआ। मैंने कहा: कल और ईश्वर को एकाध
मौका और दें। आप तो जल्दी में हैं और ईश्वर तो बड़ा सुस्त है, वह तो जल्दी में मालूम नहीं होता, हजारों साल ऐसे ही
गुजरते चले जाते हैं। उधर कोई जल्दी नहीं है। लाखों साल, करोड़ों
साल ऐसे गुजर गए हैं, जैसे कोई वहां जल्दी नहीं मालूम होती।
तो आप तो जल्दी में हैं और वह जो जल्दी में नहीं। एक मौका और दें। कल और आएं। वे
कल आईं। बड़ी गंभीर थीं, भारी गंभीर थीं, गीता उन्हें कंठस्थ थी, बातें करतीं तो उपनिषद आते,
गीता आती, वेद आते, बहुत
गंभीर थीं। फिर आईं, फिर लौट कर मुझसे बोलीं, लेकिन क्षमा करिए, अभी तक मुझे कोई ईश्वर का अनुभव
नहीं हो पा रहा है। मैंने उनको कहा: होगा भी नहीं कभी। और मैंने एक छोटी सी कहानी
कही थी, वह मैं आपको भी कहूं।
उनको मैंने कहा कहा था: एक नदी पर एक बूढ़ा संन्यासी अपने एक युवक
संन्यासी के साथ नाव से उतरा। नाव से उतर कर उसने उस मांझी से पूछा, नाव वाले से पूछा कि यह जो पास का गांव है, क्या मैं
सूरज डूबने के पहले वहां पहुंच जाऊंगा? सूरज डूबने को था और
उस गांव का नियम था, सूरज डूबते ही उस गांव के दरवाजे बंद हो
जाते थे, किले के, फिर कोई प्रवेश नहीं
कर सकता था। फिर रात भर मुझे बाहर रुकना पड़ेगा, क्या मैं
पहुंच जाऊंगा सूरज डूबने के पहले?
उस मांझी ने कहा कि जरूर पहुंच जाएंगे, लेकिन एक बात खयाल
रखना, अगर धीरे-धीरे गए तो पहुंच जाएंगे और अगर जल्दी गए तो
मुश्किल है।
उस संन्यासी ने कहा: यह पागल मालूम होता है, क्योंकि जल्दी जाऊंगा तो पहुंचूंगा, समझ की बात होती
है। यह कहता है, धीरे। इसकी बातों में मत पड़ो। अपने युवा
साथी को कहा कि भागो! सूरज डूबने को है और अगर रात रुक गए, तो
रात जंगल, जंगली जानवर और बाहर दीवाल के पड़े रहना पड़ेगा।
वे दोनों भागे, लेकिन थोड़ी ही दूर जाकर, सूरज
नीचे उतरने लगा, अंधेरा जंगल में घिरने लगा, वे और तेजी से भागे। और वह बूढ़ा संन्यासी पत्थर से चोट खाकर गिर पड़ा। उसके
पैर लहूलुहान हो गए। पीछे से वह मांझी भी अपनी नाव बांध कर अपनी पतवार वगैरह लेकर
आता था, उसने कहा कि देखते हो, मैंने
कहा था, धीरे गए तो पहुंच जाओगे। जल्दी चलने वाला कभी
पहुंचता ही नहीं।
और तब उस संन्यासी को दिखाई पड़ा कि ठीक कहा था, वह आदमी पागल नहीं है। बड़े अनुभव से उसने यह बात कही थी।
मैं भी आपसे कहता हूं, परमात्मा के द्वार
केवल उसी के लिए खुलते हैं जो इतने धीरे जाता है, इतने धीरे
कि उसके धीरज का कोई अंत नहीं। और जो जल्दी करता है, उसके
लिए तो द्वार बंद हो जाते हैं। द्वार इसलिए बंद हो जाते हैं कि जल्दी करने वाला मन
अशांत मन है, धीरे से और अनंत धैर्य से जाने वाला मन शांत मन
है। द्वार इसलिए बंद नहीं हो जाते कि परमात्मा बंद कर देता है उनको, हम बंद कर लेते हैं। वह जो अधैर्य है, वह अशांत है,
वह जो गंभीरता है, वह अशांत है। वह जिंदगी पर
जो आक्रमण है, वह अशांति है। कोई आक्रमण नहीं। एग्रेसिव नहीं,
रिसेप्टिव। आक्रामक नहीं, ग्रहणशील। जैसे सुबह
हम अपना दरवाजा खोलते हैं, हम सूरज पर हमला नहीं करते और रस्सी
बांध कर उसको घर में नहीं लाते, सिर्फ द्वार खोल कर बैठ जाते
हैं, फिर सूरज ऊगता है, उसकी रोशनी घर
में पड़ जाती है। ऐसे ही अपने चित्त के द्वार को खुला छोड़ दें और फिर प्रतीक्षा
करें। सूरज उठेगा और घर रोशनी से भर जाएगा।
आक्रमण नहीं किया जा सकता, केवल मन के द्वार
खोले जा सकते हैं, ग्रहणशील हुआ जा सकता है। और ग्रहणशील
होने के लिए तीन बातें आज की रात मैं आपसे कहता हूं।
पहली बात: प्रतिक्षण में जीने की कोशिश करें सहजता से।
दूसरी बात: अति गंभीरता से जीवन को न लें। बड़ी सरलता से, जैसे खेल को लेते हों, वैसा ही चित्त को लें।
और तीसरी बात: कोई अधैर्य, कोई जल्दी न करें।
जितनी जल्दी करेंगे, उतनी देर हो जाती है।
और जो जितनी धीर से खड़ा हो जाता है, उतनी ही जल्दी हो
जाती है।
एक और कहानी और मैं चर्चा को पूरा करूं, फिर तो तीन दिन हम
बात करेंगे। उस कहानी को अपने साथ ही लेकर सो जाएं। बिलकुल झूठी कहानी है, लेकिन सत्य उसमें बहुत है।
एक संन्यासी वर्षों से, जन्म से प्रार्थना,
पूजा में लगा था, ऊब गया और घबड़ा गया और बेचैन
हो गया। क्योंकि पूरे वक्त जब वह प्रार्थना कर रहा था, तब
दृष्टि तो प्राप्ति पर लगी थी और जिस दिन उसकी प्रार्थना असफल हो गई, उसी दिन दुख और मनोचिंता व्याप्त होती चली गई। एक दिन उसने देखा कि नारद
वहां से निकलते हैं और उस बूढ़े संन्यासी ने कहा कि सुनते हैं, मैंने सुना है कि निरंतर भगवान की तरफ आप जाते हैं, कभी
उनसे पूछें कि मेरी मुक्ति को और कितनी देर है? मेरे पीछे
जिन्होंने शुरू किया था, वे आगे निकल गए और मैं वहीं का वहीं
पड़ा हूं, यह कैसा अन्याय है? और
जन्म-जन्म हो गए उनकी प्रार्थना करते, अब तक फल नहीं मिला?
आखिर कब मुझ पर कृपा होगी?
नारद ने कहा: जरूर पूछ लूंगा। बगल में ही उसी दिन, उसी दरख्त के पीछे, बरगद का बड़ा दरख्त था, एक युवा फकीर अपना एकतारा लेकर नाचता था। नारद ने मजाक में उससे पूछा कि
मित्र, तुम्हें भी तो काफी देर हो गई, तुम
भी तो सुबह से साधु हुए हो, अब सांझ होने को आ रही, तुम्हें भी पूछना है परमात्मा से, तो तुम्हारे लिए
भी पूछ लूंगा?
वह खूब हंसने लगा, और उसने कहा: कृपा करना, मेरा नाम वहां मत उठाना, इस योग्य मेरा नाम नहीं है।
और कृपा करना, कुछ पूछना मत, क्योंकि
जो पूछता है, वह सौदा करता है। और जो यह कहता है, कब तक मिलेगा? उसे करने में कोई आनंद नहीं है,
मिलने में आनंद है। मैं तो जो गीत गा रहा हूं, मुझे सब मिला जा रहा है उसमें ही। और मैं जो नाच रहा हूं, मैंने उसमें पा लिया। लेकिन कुछ पूछना मत, मेरा नाम
मत उठाना, मेरी बात मत उठाना।
लेकिन नारद कुछ दिनों बाद लौटे, और उन्होंने उस बूढ़े
फकीर को कहा कि मैंने पूछा था, उन्होंने कहा: तीन जन्म और लग
जाएंगे।
उस फकीर ने अपनी माला नीचे पटक दी और भगवान की जो मूर्ति रखी थी, तो लात मारी उसमें और कहा: हद हो गई अन्याय की! इसीलिए तो नास्तिक ठीक
कहते हैं कि ऐसा भगवान, वह कुछ शक की ही बात है। मैं नहीं
मानता-करता ये सब बातें, बहुत हद हो गई! इतने दिन हो गए,
अभी तीन जन्म और लगेंगे!
और नारद ने उस फकीर से कहा: जो नाच रहा था उसी दरख्त के पीछे, कि मित्र, अब तुमको बताने में मुझे और भी डर लगता है,
क्योंकि जिसने तीन जन्म की बात ही सुन कर लात मार दी और माला फेंक
दी, तुम पता नहीं क्या करोगे? मैंने
तुम्हारे लिए पूछ लिया था, यज्ञपि तुमने तो मना किया था।
लेकिन उत्सुकतावश मैं नहीं रुक सका। मैंने पूछा, तो परमात्मा
ने कहा कि वह युवक जिस वृक्ष के नीचे नाचता है, उसमें जितने
पत्ते हैं, उतने ही जन्म लग जाएंगे। वह युवक और तेजी से
नाचने लगा, उसके एकतारे पर और भी गीत मधुर हो उठा और उसकी
आंखें ज्योति सी चमक उठीं और उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि तेरा धन्यवाद, जमीन पर कितने वृक्ष हैं और उन वृक्षों में कितने पत्ते हैं, तेरी कृपा अनंत है कि एक ही वृक्ष के पत्तों के बराबर जन्मों में मेरी
मुक्ति हो जाएगी। मैं कहां इस योग्य, लेकिन जरूर तेरी कृपा
होगी बड़ी। इसलिए मुझ पर जो कभी भी पात्र नहीं था, योग्य नहीं
था, तूने इतनी दया की है। और कथा यह है कि वह यह कहते ही उसी
क्षण मुक्त हो गया।
हो ही जाएगा। ऐसा चित्त जो इतनी सरलता से, इतनी कृतज्ञता से, इतनी धन्यता से, इतनी अपनी अपात्रता से और परमात्मा की इतनी अनुकंपा के बोध से भरा हो और
जिसमें इतना धैर्य हो कि वह कह सके कि जमीन पर कितने वृक्ष और कितने पत्ते और इस
छोटे से वृक्ष में पत्ते ही कितने हैं, इतने ही जन्मों में
मैं मुक्त हो जाऊंगा। तो यह तो बड़ी जल्दी हो गई, यह तो बड़ी
शीघ्रता हो गई।
जिसकी इतनी पेशेंस है, इतना धैर्य है,
वह तो उसी क्षण, उसी क्षण मुक्त हो जाएगा।
क्योंकि ऐसे चित्त को रोकने का कोई भी कारण नहीं रह गया, ऐसे
चित्त के द्वार बंद होने की कोई वजह नहीं रह गई।
तो यह कहूंगा अंत में, अधैर्य से नहीं कुछ
होता है इस दिशा में, अनंत धैर्य और प्रतीक्षा में। और वह
केवल उनमें ही हो सकती है जो जीवन को बड़ी सरलता से खेल की तरह लेंगे, गंभीरता से नहीं, हंसते हुए, मौन
में, शांति में, प्रेम में और धैर्य
में जो जीवन को लेंगे, जीवन उनके प्रति अपने सब द्वार अनायास
खोल देता है।
ये तीन छोटी सी बातें कहीं, इन तीन पर थोड़ा खयाल
करेंगे, विचार करेंगे और फिर आने वाले तीन दिनों में इस
भूमिका को लेकर, मन की इस भूमिका को लेकर सुनेंगे, तो शायद कोई बात आपके काम की हो सके और शायद कोई बात आपके मार्ग पर प्रकाश
बन सके। लेकिन निर्भर करता है आप पर, मुझ पर नहीं। वह आपकी
चित्त की भूमिका और तैयारी, उसकी दृष्टि और उसकी विराटता और
उसकी सरलता पर सब कुछ निर्भर करता है।
तो पहले दिन तो परमात्मा से यही प्रार्थना करूंगा कि वह आपके चित्त को
ऐसी भूमिका दे। क्योंकि बीज कुछ भी नहीं कर सकते हैं अगर भूमि तैयार न हो। और अगर
भूमि तैयार हो, तो बीज अंकुरित हो सकते हैं और उनमें कुछ आ सकता है,
उनमें कुछ पैदा हो सकता है और कोई फूल लग सकते हैं। यह प्रार्थना
करूंगा इस पहले दिन की पहली सभा में।
परमात्मा आपके हृदय को ऐसी सरलता, शांति और मौन दे कि
वह भूमि बन सके और उसमें कोई भी बीज जाए तो अंकुरित हो सके और पल्लवित हो सके।
मेरी इन बातों को इतने थके हुए, इतनी यात्रा के बाद, इतने प्रेम से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
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