बुधवार, 12 अप्रैल 2017

साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)-प्रवचन-01



साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)

ओशो
पहला-प्रवचन

हम ध्यान के लिए बैठे थे। ध्यान से मेरा प्रयोजन है एक चित्त की ऐसी स्थिति जहां कोई संताप, जहां कोई प्रश्न, जहां कोई जिज्ञासा शेष न रह जाए। हम निरंतर जीवन-सत्य के संबंध में कुछ न कुछ पूछ रहे हैं। ऐसा मनुष्य खोजना कठिन है जो जीवन के सत्य के संबंध में किसी जिज्ञासा को न लिए हो। न तो हमें इस बात का कोई ज्ञान है कि हम कौन हैं, न हमें इस बात का कोई ज्ञान है कि हमारे चारों ओर जो जगत फैला है, वह क्या है। हम जीवन के बीच में अपने को पाते हैं बिना किसी उत्तर के, बिना किसी समाधान के। चारों तरफ प्रश्न हैं और उनके बीच में मनुष्य अपने को घिरा हुआ पाता है।

इन प्रश्नों में कुछ तो अत्यंत जीवन की बुनियाद से संबंधित हैं। जैसे मैं क्यों हूं? मेरी सत्ता क्यों है? मेरे होने की क्या आवश्यकता है? क्या अनिवार्यता है? और फिर मैं कौन हूं? और यह जन्म और यह मृत्यु? और जीवन का यह सारा व्यापार क्यों है? यह जिज्ञासा, ये प्रश्न प्रत्येक व्यक्ति के मन में--चाहे वह किसी धर्म में पैदा हो, चाहे किसी देश में पैदा हो, उठता है।
इस जिज्ञासा के हल करने के दो रास्ते हो सकते हैं। एक रास्ता है, फिलासफी का, तत्व ज्ञान का--कि हम सोचें और विचार करें कि हम कौन हैं? किसलिए हैं? और जीवन की पहेली के संबंध में चिंतन के माध्यम से कोई समाधान खोजें। इस भांति जो समाधान खोजा जाएगा, वह बौद्धिक होगा। विचार करके हम निर्णय करेंगे। पश्चिम ने वैसा रास्ता पकड़ा। पश्चिम में जो फिलासफी का जन्म हुआ, वह चिंतन के माध्यम से, विचार के माध्यम से, सत्य को जानने की चेष्टा से हुआ। भारत में फिलासफी जैसी कोई चीज पैदा नहीं हुई। जो लोग भारतीय दर्शन को भी फिलासफी कहते हैं, वे नितांत भूल की बात करते हैं। वह शब्द पर्यायवाची नहीं है। फिलासफी और दर्शन पर्यायवाची शब्द नहीं हैं।
पश्चिम में उन्होंने सोचा कि विचार के द्वारा हम सत्य के किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाएंगे। पिछले ढाई हजार वर्षों में वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे। एक चिंतक दूसरे चिंतक से सहमत नहीं होता। एक चिंतक युवा अवस्था में जो कहता है स्वयं ही बुढ़ापे में उसे बदल देता है। आज जो कहता है कल परिवर्तित हो जाता है। शाश्वत और नित्य सत्य पर चिंतन नहीं ले जा सका। असल में विचार ले भी नहीं जा सकता है।
विचार का अर्थ है: हम उन बातों के संबंध में सोच रहे हैं जो अननोन हैं, अज्ञात हैं, जिन्हें हम जानते नहीं। जैसे मुझे प्रीतिकर लगता है कि मैं कहूं, जैसे अंधा प्रकाश के संबंध में विचार करे, तो विचार करेगा क्या? आंख जिसके पास नहीं है; प्रकाश के संबंध में विचार करने का कोई उपाय भी उसके पास नहीं है। कोई धारणा, कोई कंफेक्शन वह प्रकाश का नहीं बना सकता है। उसका चिंतन सब अंधेरे में टटोलना हो जाएगा।
शायद आपको यह खयाल हो कि अंधे को कम से कम अंधेरा तो दिखता होगा? सोच सकता है कि अंधेरे के विपरीत जो है वह सत्य होगा। लेकिन मैं आपको स्मरण दिलाऊं, अंधे को अंधेरा भी दिखता नहीं। अंधे को अंधेरा भी नहीं दिखता है, क्योंकि अंधेरे को दिखने के लिए भी आंख चाहिए। न अंधे को अंधेरे का पता है और न प्रकाश का पता है। उसे विपरीत का भी पता नहीं है, इसलिए प्रकाश के संबंध में कोई धारणा बनाने की सुविधा उसे नहीं है।
जीवन-सत्य के प्रति लगभग हम अंधे हैं। हम जो भी सोचेंगे, जो भी विचार करेंगे, वह हमें किसी समाधान पर ले जाने वाला नहीं है। इसलिए भारत ने एक बिलकुल नया दृष्टिकोण, एक बिलकुल नया द्वार खोलने की कोशिश की। वह द्वार चिंतन का न होकर दर्शन का है। वह फिलासफी का न होकर दर्शन का है।
दर्शन का अर्थ है: हम सत्य को विचारना नहीं चाहते, हम सत्य को देखना चाहते हैं। विचारना और देखना, ये दोनों बहुत अलग बातें हैं। हम सत्य को विचारना नहीं चाहते, हम विचार भी नहीं सकते, हम सत्य को देखना चाहते हैं। अगर देखना चाहते हैं, तो प्रश्न की भूमिका बदल जाएगी। तब तर्क सहयोगी न होगा। चिंतन का सहयोगी है तर्क, लॉजिक। और अगर दर्शन, देखना है, तो तर्क सहयोगी न होगा, तब सहयोगी योग होगा। इसलिए पूरब में दर्शन के साथ योग विकसित हुआ, पश्चिम में फिलासफी के साथ तर्क विकसित हुआ। तर्क पृष्ठभूमि है चिंतन की, योग पृष्ठभूमि है दर्शन की। देखने पर अगर प्रश्न अटक गया, तो सवाल यह नहीं है कि वहां ईश्वर या आत्मा जैसा कोई है, सवाल यह है कि मेरे पास उसके प्रति संवेदित होने को आंख है या नहीं? असली सवाल तब सत्य का न होकर आंख का हो जाएगा। अगर मेरे पास आंख है, तो जो भी है, उसे मैं देख सकूंगा। और अगर मेरे पास आंख नहीं है, तो जो भी हो, वह मेरे लिए अज्ञात हो जाएगा। इसलिए भारतीय दर्शन केंद्रित हो गया मनुष्य के भीतर अंतःचक्षु के विकास पर।
बुद्ध के जीवन में उल्लेख है। मौलुंकपुत्त नाम के एक युवक ने बुद्ध से जाकर ग्यारह प्रश्न पूछे थे। उन ग्यारह प्रश्नों में जीवन के सारे प्रश्न आ जाते हैं। उन ग्यारह प्रश्नों में तत्व-चिंतन जिन्हें सोचता है वे सारी समस्याएं आ जाती हैं। बहुत मीठा संवाद हुआ। मौलुंकपुत्त ने अपने प्रश्न पूछे। बुद्ध ने कहा: मेरी एक बात सुनोगे; छह महीने, साल भर रुक सकते हो? साल भर प्रतीक्षा कर सकते हो? अच्छा हो कि साल भर मेरे पास रुक जाओ। साल भर बाद मुझसे पूछ लेना। मैं तुम्हें उत्तर दे दूंगा।
मौलुंकपुत्त ने कहा: अगर उत्तर आपको ज्ञात है, तो अभी दे दें और अगर ज्ञात नहीं है, तो स्पष्ट अपने अज्ञान को स्वीकार लें, मैं लौट जाऊं। क्या साल भर आपको चिंतन करना पड़ेगा, तब आप उत्तर देंगे?

बुद्ध ने कहा: मुझसे पहले भी तुमने ये प्रश्न किसी से पूछे थे?
मौलुंकपुत्त ने कहा: अनेकों से। लेकिन उन सभी ने तत्काल उत्तर दे दिए, किसी ने भी यह नहीं कहा कि इतने दिन रुक जाओ।
बुद्ध ने कहा: अगर वे उत्तर उत्तर थे तो तुम अब भी उन्हीं प्रश्नों को क्यों पूछते चले जाते हो? अगर वे उत्तर वस्तुतः उत्तर बन गए होते तो अब तुम्हें दुबारा उन्हीं प्रश्नों को पूछने की जरूरत न रह जाती? इतना तो निश्चित है कि तुम फिर उन्हीं को पूछ रहे हो। वे उत्तर जो तुम्हें दिए गए उत्तर साबित नहीं हुए हैं। मैं भी तुम्हें तत्काल उत्तर दे सकता हूं, लेकिन वे उत्तर व्यर्थ होंगे। असल में किसी भी दूसरे के दिए गए उत्तर व्यर्थ होंगे, उत्तर तुममें पैदा होने चाहिए। इसलिए मैं कह रहा हूं कि वर्ष भर रुक जाओ। और अगर तुम वर्ष भर के बाद पूछोगे, तो मैं उत्तर दूंगा।
बुद्ध का एक शिष्य था, आनंद, वह यह बात सुन कर हंसने लगा। उसने मौलुंकपुत्त से कहा कि तुम इनकी बातों में मत आना। मैं कोई बीस वर्षों से इनके निकट हूं। अनेक लोग आए और उन अनेक लोगों ने अनेक-अनेक प्रश्न पूछे। बुद्ध सबसे यही कहते हैं: वर्ष रुक जाओ, दो वर्ष रुक जाओ। मैं प्रतीक्षा करता रहा कि वर्ष भर बाद, दो वर्ष बाद वे पूछेंगे और हमें बुद्ध के उत्तर ज्ञात हो सकेंगे। लेकिन न मालूम क्या होता है, वर्ष भर बाद, दो वर्ष बाद वे पूछते नहीं, और बुद्ध के क्या उत्तर हैं आज तक पता नहीं चल पाया। इसलिए अगर पूछना है तो अभी पूछ लो, यह तो तय है कि वर्ष भर बाद तुम पूछोगे नहीं।
बुद्ध ने कहा: मैं अपने वचन पर निर्भर रहूंगा, तुमने पूछे तो उत्तर दूंगा, तुम पूछो ही न, तो बात अलग है।
मौलुंकपुत्त वर्ष भर रुका। वर्ष भर बाद बुद्ध ने कहा कि पूछते हो? वह हंसने लगा, वह बोला, पूछने की कोई जरूरत नहीं है।
भारत की पूरी की पूरी जो पकड़ है, जो एप्रोच है सत्य के प्रति, वह बाहर से उत्तर उपलब्ध करने की नहीं, भीतर एक द्वार खोलने की है। उस द्वार के खुलने पर प्रश्नों के पर्टीकुलर उत्तर मिलते हैं ऐसा नहीं, असल में प्रश्न गिर जाते हैं। प्रश्नों का उत्तर मिलना एक बात है, प्रश्नों का गिर जाना बिलकुल दूसरी भूमिका की बात है। महत्वपूर्ण उत्तर का मिलना नहीं है, महत्वपूर्ण प्रश्न का गिर जाना है।
हमारे मुल्क के लंबे योगिक प्रयोगों ने कुछ निष्कर्ष दिए हैं। उनमें निष्कर्ष एक यह है: प्रश्न हमारे अशांत चित्त की उत्पत्ति है। चित्त शांत हो जाए, प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है। समस्त प्रश्न हमारे अशांत, उद्विग्न चित्त की उत्पत्ति हैं। ईश्वर के संबंध में, जन्म के संबंध में, मृत्यु के संबंध में, समस्त प्रश्न मात्र अशांत चित्त की उत्पत्ति हैं। चित्त शांत हो जाए, वे विसर्जित हो जाते हैं।
निष्प्रश्न हो जाना ज्ञान को उपलब्ध हो जाना है। प्रश्नों के उत्तर पा लेना पांडित्य को उपलब्ध होना है, निष्प्रश्न हो जाना ज्ञान को उत्पन्न हो जाना है। प्रश्नों के बहुत उत्तर याद कर लेना बौद्धिक है, प्रश्नों का विसर्जन आत्मिक है।
जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं, उससे कोई विशेष प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलेगा, क्रमशः धीरे-धीरे प्रश्न विसर्जित हो जाएंगे। एक निष्प्रश्न चित्त की स्थिति बनेगी, वही समाधान है, वही समाधि है। जहां कोई प्रश्न खोजे से न उठे, जहां जीवन के प्रति कोई जिज्ञासा जाग्रत न हो, जहां कोई उद्विग्नता, जहां कुछ अज्ञात सा प्रतीत न हो, जहां कुछ भी मुझे जानना है ऐसी उत्तेजना शेष न रह जाए, उसी क्षण इस प्रश्नों के गिर जाने की निःशंक, निःसंदिग्ध हो जाने की स्थिति में व्यक्ति को सत्य का साक्षात होता है। प्रश्नों के होने पर सत्य खोजा नहीं जा सकता, प्रश्नों के गिर जाने पर सत्य प्रकट हो जाता है।
इसीलिए हम समाधि को समाधान कहते हैं। समाधि का अर्थ ही समाधान है। यह समाधान कोई दूसरा व्यक्ति किसी को दे सकता है? अगर कोई ऐसा कहता हो, तो वह वंचक है, वंचना कर रहा है। यह समाधान कोई दूसरा व्यक्ति आपको दे सकता है? ऐसा कोई दावा करता हो, वह आपके अज्ञान का शोषण कर रहा है। कोई भी दावा करता हो--कोई पैगंबर, कोई तीर्थंकर, कोई अवतार अगर यह दावा करे कि यह ज्ञान मैं आपको दे सकता हूं, तो वह धोखे की बात कह रहा। वह केवल आपके अज्ञान का शोषण कर रहा है, उसे सत्य का ज्ञान नहीं है। इसलिए कोई तीर्थंकर, कोई अवतार, कोई पैगंबर यह दावा नहीं करता कि मैं आपको ज्ञान दे सकता हूं। वह केवल इतना कह सकता है कि मुझे ज्ञान कैसे उपलब्ध हुआ, उसकी विधि की मैं चर्चा कर सकता हूं, किसी को ठीक प्रतीत हो, उसका उपयोग कर ले। ज्ञान नहीं दिया जा सकता; मैं कैसे ज्ञान तक पहुंचा, इसकी विधि के बाबत चर्चा की जा सकती है। सत्य नहीं दिया जा सकता; सत्य का अंतःसाक्षात कैसे हुआ, उस "कैसे' का उत्तर दिया जा सकता है। सत्य क्या है इसका उत्तर नहीं; सत्य कैसे साक्षात हुआ, इसका उत्तर दिया जा सकता है। जो "क्या' का उत्तर देते हैं, वे फिलासफर, वे चिंतक हैं। जो "कैसे' का उत्तर देते हैं, वे योगी हैं।
योग "कैसे' का उत्तर है। अंतःचक्षु कैसे खुल सकते हैं? और जो भी सत्ता है, उसके हम आमने-सामने कैसे खड़े हो सकते हैं? उस सत्ता से एनकाउंटर कैसे हो सकता है? उस सत्ता से साक्षात कैसे हो सकता है? अगर यह बात समझ में आए, तो प्रश्न खोजने और उत्तर खोजने की दिशा व्यर्थ हो जाएगी। तब प्रश्न को विसर्जित करने की दिशा सार्थक होगी।
जिसको मैं ध्यान कह रहा हूं, वह प्रश्नों को विसर्जित करने की दिशा है। प्रश्न हैं क्योंकि विचार हैं; प्रश्न हैं क्योंकि चित्त में विचार हैं; अगर विचार न रह जाएं, प्रश्न भी नहीं रह जाएंगे। निर्विचार चित्त में कौन सा प्रश्न उठेगा? कैसे उठेगा? प्रश्न का ढांचा तो विचार से बंधा है। अगर विचार शून्य हो जाएं चित्त में, तो कोई प्रश्न न उठेगा, कोई जिज्ञासा जाग्रत न होगी। उस शांत क्षण में जहां कोई जिज्ञासा, कोई प्रश्न नहीं उठ रहा, कुछ अनुभव होगा। जहां विचार नहीं रह जाते, वहां अनुभव का प्रारंभ होता है। जहां तक विचार हैं, वहां तक अनुभव का प्रारंभ नहीं होता। जहां विचार निःशेष हो जाते हैं, वहां भाव का जागरण होता है, वहां दर्शन का प्रारंभ होता है।
विचार पर्दे की तरह हमारे चित्त को घेरे हुए हैं। उनमें हम इतने तल्लीन हैं, इतने आक्युपाइड हैं, इतने व्यस्त हैं, विचार में इतने व्यस्त हैं कि विचार के अतिरिक्त जो पीछे खड़ा है उसे देखने का अंतराल, उसे देखने का रिक्त स्थान नहीं मिल पाता। विचार में अत्यंत आक्युपाइड होना, अत्यंत व्यस्त होना, अत्यंत संलग्न होने के कारण पूरा जीवन उन्हीं में चिंतित होते हुए बीत जाता है, उनके पार कौन खड़ा था, उसकी झलक भी नहीं मिल पाती है।
इसलिए ध्यान का अर्थ है: पूरी तरह अनआक्युपाइड हो जाना। ध्यान का अर्थ है: पूरी तरह व्यस्तता से रहित हो जाना।
तो अगर हम अरिहंत-अरिहंत को स्मरण करें, राम-राम को स्मरण करें, तो वह तो आक्युपेशन ही होगा, वह तो फिर एक व्यस्तता हो गई, वह तो फिर एक काम हो गया। अगर हम कृष्ण की मूर्ति या महावीर की मूर्ति का स्मरण करें, उनके रूप का स्मरण करें, तो वह भी व्यस्तता हो गई, वह ध्यान न हुआ। कोई नाम, कोई रूप, कोई प्रतिमा अगर हम चित्त में स्थापित करें, तो भी विचार हो गया। क्योंकि विचार के सिवाय चित्त में कुछ और स्थिर नहीं होता। चाहे वह विचार भगवान का हो, चाहे वह विचार सामान्य काम का हो, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, चित्त विचार से भरता है। चित्त को निर्विचार, चित्त को अनआक्युपाइड छोड़ देना ध्यान है।
मैंने पिछली बार, जब मैं आया था, तो मैंने जापान के साधु के बाबत आपको कहा संभवतः, रिंझाई वहां एक साधु हुआ। उसके आश्रम को देखने जापान का बादशाह एक दफा गया। बड़ा आश्रम था, कोई पांच सौ उसमें भिक्षु थे। वह साधु एक-एक स्थान को दिखाता हुआ घूमा कि यहां साधु भोजन करते हैं, यहां साधु निवास करते है, यहां साधु अध्ययन करते हैं। सारे आश्रम के बीच में एक बहुत बड़ा भवन था, सबसे सुंदर, सबसे शांत, सबसे विशाल। वह राजा बार-बार पूछने लगा, और साधु यहां क्या करते हैं? वह कहने लगा, वहां के बाबत में बाद में बात करेंगे। बगीचा, लाइब्रेरी, अध्ययन-कक्ष, वह सब बताता हुआ घूमा। वह राजा बार-बार पूछने लगा, और साधु यहां क्या करते है? यह जो बीच में भवन है। वह साधु बोला, थोड़ा ठहर जाएं, उसके संबंध में बाद में बात कर लेंगे। जब पूरा आश्रम घूम कर राजा वापस ही होने लगा, तब उसने दुबारा पूछा कि वह बीच का भवन छूट ही गया, वहां साधु क्या करते हैं? उस आश्रम के प्रधान ने कहा: उसको बताने को इसलिए मैं रुका, वहां साधु कुछ करते नहीं, वहां साधु अपने को न करने की स्थिति में छोड़ते हैं। वह ध्यान-कक्ष है, वहां साधु अपने को न करने की स्थिति में छोड़ते हैं, वहां कुछ करते नहीं। बाकी पूरे आश्रम में काम होता है, वहां काम छोड़ा जाता है। बाकी पूरे आश्रम में क्रियाएं होती हैं, वहां क्रिया नहीं की जाती हैं। जब किसी को वहां क्रिया छोड़नी होती है, तो वहां चला जाता है, सारी क्रियाएं छोड़ कर चुप हो जाता है।
ध्यान अक्रिया है। वह कोई क्रिया नहीं है। कि हम सोचें कि वह कोई काम है, कि हम बैठे हैं और एक काम कर रहे हैं। अगर काम कर रहे हैं, तो वह ध्यान नहीं है। ध्यान का अर्थ है कि जो निरंतर काम चल रहा है चित्त में, उसको विराम दे देंगे वे। कोई काम नहीं करना, चित्त को बिलकुल क्रिया-शून्य छोड़ देना। चित्त की क्रिया-शून्य स्थिति में क्या होगा? चित्त की क्रिया-शून्य स्थिति में भी तो कुछ होगा। चित्त की क्रिया-शून्य स्थिति में केवल दर्शन रह जाएगा, केवल देखना रह जाएगा, चित्त की क्रिया-शून्य स्थिति में जो हमारा स्वभाव है, वही केवल रह जाएगा।
दर्शन, ज्ञान हमारा स्वभाव है। हम सब छोड़ सकते हैं, ज्ञान और दर्शन को नहीं छोड़ सकते। सतत चौबीस घंटे ज्ञान हमारे साथ मौजूद है। जब गहरी नींद में सोते हैं, तब भी स्वप्न का हमें पता होता है; जब स्वप्न भी विलीन हो जाते हैं और सुषुप्ति होती है, तब भी हमें इस बात का पता होता है कि बहुत आनंदपूर्ण निद्रा। सुबह उठ कर हम कहते हैं, रात्रि बहुत आनंद से बीती। कोई हमारे भीतर उस समय भी जाग रहा है, उस समय भी जान रहा है। कोई हमारे भीतर उस समय भी चैतन्य है। उठते-बैठते, सोते-जागते, काम करते, न काम करते, हमारे भीतर एक सतत ज्ञान का अविछिन्न प्रवाह बना हुआ है। समस्त क्रियाएं छोड़ देने पर केवल ज्ञान का अविछिन्न प्रवाह मात्र शेष रह जाएगा। सिर्फ जान रहा हूं, सिर्फ हूं, बोधमात्र होने का, सत्ता का बोधमात्र शेष रह जाएगा। उसी बोध में, उसी सत्तामात्र में छलांग लगाना धर्म है। उसी में कूद जाना, उसी अस्तित्व में, धर्म है। और वहां जो अनुभूति होती है--वह जीवन के बंधन से, जीवन की आसक्ति से, जीवन के दुख से मुक्ति दे देती है। क्योंकि वहां जाकर ज्ञात होता है कि वह जो अंतरसत्ता भीतर बैठी हुई है वह निरंतर मुक्त है पाप से, दुख से, पीड़ा से। एक क्षण को भी उस पर कभी कोई पाप का, पीड़ा का, दुख का कोई दाग नहीं लगा। वह चैतन्य नित्य शांत, नित्य मुक्त है। वह चैतन्य नित्य ब्रह्मस्थिति में है। उस चैतन्य में कभी कोई विकार नहीं हुआ, न विकार होने की संभावना है। जैसे ही यह दर्शन होता है, जीवन एक अलौकिक धरातल पर आनंद की अनुभूति के प्रति उन्मुख हो जाता है। इस उन्मुखता को मैं ध्यान और समाधि कहता हूं।
मैंने दो बातें कहीं: अव्यस्त, अनआक्युपाइड और अक्रिया। असल में दोनों का एक अर्थ ही है। दोनों को एक शब्द में कहें, तो परिपूर्ण शून्यता ध्यान है। यह परिपूर्ण शून्यता व्यक्ति अगर लाना चाहे, तो मेरी समझ में, उसे तीन अंगों पर अपने प्रयोग करना होता है। प्राथमिक रूप से उसका शरीर है, अगर उसे अक्रिया में जाना है, निष्क्रियता में जाना है, तो शरीर को अक्रिय छोड़ना होगा। शरीर को बिलकुल निष्क्रिय छोड़ना होगा, जैसे कि मृत्यु में शरीर छूट जाता है। उतना ही निष्क्रिय छोड़ देना होगा, ताकि शरीर पर जितने भी तनाव, जितने भी टेंशंस हैं, वे सब शांत हो जाएं।
यह तो आपने अनुभव किया होगा, शरीर पर अगर कहीं भी तनाव हो; पैर में अगर दर्द हो, तो चित्त बार-बार उसी दर्द की तरफ जाएगा। अगर शरीर में कहीं कोई तनाव न हो, तो चित्त शरीर की तरफ जाता ही नहीं। यह आपको अनुभव हुआ होगा, आपको शरीर में केवल उन्हीं अंगों का पता पड़ता है, जो बीमार होते हैं। जो अंग स्वस्थ होते हैं, उनका पता नहीं पड़ता। अगर आपके सिर में दर्द है, तो आपको पता चलेगा कि सिर है और अगर सिर में दर्द नहीं है, तो सिर का पता नहीं चलेगा। शरीर जहां-जहां तनावग्रस्त होता है, वहीं-वहीं उसका बोध होता है। शरीर अगर बिलकुल तनाव-शून्य हो, तो शरीर का पता नहीं चलेगा।
तो शरीर को इतना शिथिल छोड़ देना है कि उसमें सारे तनाव विलीन हो जाएं, तो थोड़ी देर में देह-बोध विलीन हो जाता है। थोड़ी देर में देह है या नहीं है, यह बात विलीन हो जाती है। थोड़े दिन के ही प्रयोग में देह-बोध विसर्जित हो जाता है। शरीर का परिपूर्ण तनाव-शून्य होना, शरीर से मुक्त हो जाने का उपाय है। इसलिए ध्यान के पहले चरण में हम शरीर को ढीला छोड़ देते हैं।
अभी आज प्रयोग के लिए बैठेंगे, शरीर को बिलकुल उस समय ढीला छोड़ देना है, जैसे मुर्दा हो गया। जैसे उसमें कोई प्राण नहीं है। उसमें कोई कड़ापन, कोई तनाव, कोई अकड़, कोई कायम नहीं रखनी, सब छोड़ देनी है। इतना ढीला छोड़ देना, जैसे यह मिट्टी का लोंदा है, हमारी इसमें कोई पकड़ नहीं, इसमें कोई जान नहीं। अपने ही शरीर को बिलकुल मुर्दा की भांति छोड़ देना है।
जब शरीर को बिलकुल शिथिल छोड़ देंगे, उसके बाद मैं दो मिनट तक आपके सहयोग के लिए सुझाव दूंगा, ये सजेशंस दूंगा कि आपका शरीर शिथिल होता जा रहा है। मेरे दो मिनट तक निरंतर कहने पर कि शरीर शिथिल हो रहा है, आपको भाव करना है कि शरीर शिथिल हो रहा है। सिर्फ यह भाव मात्र करना है कि शरीर शिथिल होता जा रहा है।
आप हैरान होंगे, भाव की इतनी शक्ति है कि अगर आप बहुत संकल्पपूर्वक भाव करें, तो प्राण तक शरीर से छूट जा सकते हैं। जिसको भारत में इच्छा-मृत्यु कहते हैं। वह केवल भाव मात्र है। अगर आप ठीक से भाव करें, शरीर वैसा ही हो जाएगा।
रामकृष्ण के बाबत एक उल्लेख है। रामकृष्ण ने सारे धर्मों की साधना की। इस तरह की साधना करने वाले जगत में वे पहले साधु थे। दूसरे साधु जगत में ढेर हुए हैं, वे अपने धर्म की साधना करके सत्य को पा लेते हैं। रामकृष्ण को लगा कि और धर्मों की साधनाएं भी सत्य तक ले जाती या नहीं? तो उन्होंने सारे धर्मों की साधनाएं कीं और उन्होंने पाया कि हर धर्म की साधना सत्य तक ले जाती है।
बंगाल में एक संप्रदाय प्रचलित है, राधा-संप्रदाय। उसकी भी साधना उन्होंने की। राधा-संप्रदाय की मान्यता है कि केवल परम ब्रह्म ही पुरुष है, शेष सारे लोग नारियां हैं, सारे लोग राधाएं हैं। पुरुष भी उस संप्रदाय का अपने को वह परम चैतन्य, परम ब्रह्म की पत्नी के रूप में ही स्वीकार करता है। वह यही भाव करता है कि वह परम चैतन्य की नारी है।
रामकृष्ण ने उसकी भी साधना की। आप हैरान होंगे, रामकृष्ण ने तीन दिन यह भाव किया कि वे राधा हैं, और उन पर सारे स्त्री के लक्षण प्रकट हो गए। उनकी वाणी बदल गई, उनके बोलने का ढंग बदल गया, उनके अंगों में भी परिवर्तन आया। इसे लाखों लोगों ने आंख से देखा। लोग हैरान हो गए कि यह क्या हुआ? राधा-संप्रदाय के तो ढेर लोग हैं। उनमें दोहराते भी हैं। लेकिन रामकृष्ण में पहली दफा यह लोगों ने साक्षात किया कि उनमें स्त्री के सारे लक्षण आ गए। तीन दिन की निरंतर यह भाव-स्थिति में कि वे राधा हैं, उन्हें राधा की परिणति दे दी। उन लक्षणों को जाने में छह महीने लगे।
अभी पश्चिम में, पूरब के और बहुत से मुल्कों में इस पर ढेर काम हो रहा है। हम जैसा भाव करें शरीर में वैसी परिणतियां हो जाती हैं। अगर ठीक से हम भाव करें कि शरीर शिथिल हो रहा है, परिपूर्ण चित्त से भाव करें, पूरे समग्र चित्त से भाव करें कि शरीर शिथिल हो रहा है, दो मिनट में आप पाएंगे कि शरीर मृत हो गया। उसमें कोई प्राण नहीं है। ऐसी स्थिति में अगर शरीर गिरने लगे, तो उसे रोकना नहीं है। अच्छा हो कि जरा भी उसे न रोकें, जब शरीर गिरने लगे, उसे बिलकुल गिर जाने दें। उसके बाद दो मिनट तक भाव करना है कि श्वास शांत हो रही है। मैं दोहराऊंगा कि श्वास शांत हो रही है, दो मिनट तक आपको भाव करना है कि श्वास शांत हो रही है। अगर हमें परिपूर्ण शून्यता में जाना है, तो शरीर का शिथिल होना अनिवार्य है, श्वास का शांत होना अनिवार्य है। दो मिनट भाव करने पर श्वास शांत हो जाती है। उसके बाद में दो मिनट तक कहूंगा कि चित्त मौन हो रहा है, विचार शून्य हो रहे हैं। दो मिनट तक भाव करने पर विचार शून्य हो जाते हैं। और इन छह मिनट की छोटी सी प्रक्रिया में अचानक आप पाएंगे कि एक रिक्त स्थान में, एक अवकाश में, एक शून्य में प्रवेश हो गया। चित्त मौन हो जाएगा। भीतर वाणी और शब्दों का उठना विलीन हो जाएगा। भीतर एक रिक्त स्थान, खाली जगह रह जाएगी, जहां कुछ भी नहीं है। न कोई विचार है, न कोई रूप है, न कोई आकृति है, न कोई गंध है, न कोई ध्वनि है, जहां कुछ भी नहीं है, केवल अकेले आप रह गए। उस अकेलेपन को, उस लोनलीनेस को, जहां बिलकुल अकेला मैं रह गया चारों तरफ रिक्त आकाश से घिरा हुआ, उस अकेलेपन में ही उस स्व का अनुभव उदभूत होता है, जिसको महावीर ने आत्मा कहा है, जिसको शंकर ने ब्रह्म कहा है, या जिनको और लोगों ने और नाम दिए हैं। उस सत्य का अनुभव उस अत्यंत एकाकीपन में होता है।
एकाकीपन की हम तलाश करते हैं जंगल में जाकर, वनों में भाग कर, पहाड़ों पर भाग कर, लेकिन एकाकीपन का संबंध स्थान से नहीं है, स्थिति से है। अकेलापन जंगल में जाकर नहीं खोजा जा सकता। पशु-पक्षी होंगे, उनसे ही मेल-जोल हो जाएगा, उनसे ही संगी-साथीपन बन जाएगा।
अकेलापन अपने में जाकर पाया जाता है, जहां सब रिक्त हो जाए और मैं बिलकुल अकेला रह जाऊं। उस अकेली स्थिति में, उस नितांत एकांत स्थिति में, जहां केवल होने मात्र की स्पंदना रह गई, वहां कुछ अनुभव होता है जो जीवन में क्रांति ला देता है। उसके लिए बहुत अत्यंत सरल सा छोटा सा प्रयोग है। यह प्रयोग इतना छोटा सा है कि कई दफे लग सकता है कि इतने से प्रयोग से कैसे आंतरिक साक्षात हो सकता है? लेकिन बीज हमेशा छोटे होते हैं, परिणाम में वृक्ष विराट हो जाते हैं।
जो बीज को छोटा समझते हैं; यह भाव कर लें कि इससे क्या वृक्ष होगा, वह वृक्ष से वंचित रह जाएगा। बीच हमेशा छोटे होते हैं, परिणाम में विराट उपलब्ध हो जाता है। अत्यंत सूक्ष्म सा बीज ध्यान का बोने पर, विराट अनुभूति की फसल को काटा जा सकता है।
मेरी बात आप समझ गए होंगे। तीन चरण में हम ध्यान के लिए जाते हैं अभी। सब लोग उस समय दूर बैठेंगे, ताकि गिरने की सुविधा हो। सारे लोग थोड़े फासले पर बैठ जाएं और काफी गौर से देख लें कि गिरने की सुविधा हो। कल कुछ असुविधा हुई।
एक बहुत ही प्राचीन उपाख्यान है, उसे कह कर मैं आज के कार्यक्रम को पूरा करूंगा। एक बिलकुल झूठी सी कथा है, लेकिन मुझे बहुत अर्थपूर्ण मालूम होती है।
कथा है, नारद वैकुंठ जा रहे हैं। मार्ग में उन्हें एक वृद्ध साधु मिला, वृक्ष के नीचे, उसने नारद को कहा कि तुम पूछ लेना प्रभु से कि मेरी मुक्ति को अभी कितनी देर और है? मुझे मोक्ष कब तक मिलेगा?
नारद ने कहा: जरूर लौटते में पूछ लूंगा। पास में उसी दिन दीक्षित हुआ एक फकीर अपना तमूरा लेकर नाच रहा था। नारद ने मजाक में उससे भी कहा कि तुम्हें भी पूछना है क्या? वह फकीर कुछ बोला नहीं। नारद वापस लौटे, उस वृद्ध साधु के पास जाकर उन्होंने कहा: मैंने पूछा था, ईश्वर ने कहा: अभी तीन जन्म और लग जाएंगे। उस साधु ने अपनी माला नीचे फेंक दी और कहा: तीन जन्म और! अन्याय है! कितना धीरज रखूं! नारद तो आगे बढ़ गए। वह वृक्ष के नीचे अभी नया-नया दीक्षित हुआ साधु नाचता था, नारद ने कहा: सुनते हो, तुम्हारे संबंध में भी पूछा था, प्रभु ने कहा: वह जिस वृक्ष के नीचे नाच रहा है, उसमें जितने पत्ते हैं, उतने ही जन्म उसे साधना में लगेंगे, तब मुक्ति उपलब्ध हो सकेगी।
वह फकीर बोला, बस इतने ही पत्ते! तब तो जीत लिया! जगत में कितने पत्ते हैं! इस वृक्ष पर तो बहुत थोड़े से हैं! वह वापस नाचने लगा और कथा कहती है, वह उसी क्षण मुक्त हो गया।
मुझे प्रीतिकर लगती है यह बात। वह उसी क्षण मुक्त हो गया। इतना धैर्य! कि उसने कहा: इतने से पत्ते! इतने से जन्म! तब तो जीत लिया, जगत में तो कितने पत्ते हैं! इतना धैर्य जिसमें है, उसने इसी क्षण पा लिया।
अधैर्य बाधा है। अधैर्य लंबा करता है। अगर अनंत धैर्य के साथ मैं एक क्षण को भी शांत हो जाऊं, उसी क्षण सब हो जाएगा। तो थोड़ा सा अधैर्य छोड़ कर, थोड़े से परिणाम की एकदम नितांत इच्छा और प्रयोजन छोड़ कर अगर प्रयोग किया, तो बहुत सुनिश्चित है कि थोड़े ही दिनों में कुछ दिखना शुरू हो, होना शुरू हो, और अगर वैसा कुछ हो जाए, तो उससे ज्यादा मूल्यवान कुछ भी नहीं है।
मैं आशा करता हूं कि थोड़े से लोग जिनको प्रीतिकर लगेगा वे प्रयोग करेंगे। अगर प्रयोग किया और अगर धीरज रखा, तो परिणाम निश्चित है। क्योंकि सिवाय शांत होने के, सिवाय परिपूर्ण शांत होने के, मनुष्य के लिए जगत-सत्य को और स्वयं के सत्य को जानने का कोई उपाय नहीं। कोई धर्मग्रंथ जो नहीं दे सकेंगे, वह स्व के भीतर उतरने से उपलब्ध हो जाएगा।
अमृत और अनंत और नित्य चैतन्य को पाने की राह एक ही है और वह है किसी भांति जो आंखें बाहर के जगत को देख रही हैं वे भीतर देखने लगें। आंख से भीतर देखने की घटना शून्य में घटित होती है। जैसे ही विचार शून्य हुए, बाहर देखने को कुछ भी नहीं रह जाता। जब बाहर देखने को कुछ भी नहीं रह जाता है, तो जो देखने की शक्ति, जो दर्शन की शक्ति, बाहर उलझी थी, वह बाहर निराधार होने के कारण अनिवार्यतया स्व-आधार हो जाती है। बाहर से आलंबन छूट जाने के कारण स्व-आलंबित हो जाती है। बाहर उस चेतना को स्थान नहीं मिलता ठहरने को, अनिवार्यतया वह स्वयं में ठहर जाती है।

इसलिए शून्य के अतिरिक्त और कोई ध्यान नहीं है। इस पर थोड़ा प्रयोग करेंगे, ऐसी मैं आशा करता हूं।


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