रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)
ओशो
नौवां प्रवचन
मन के मंदिर में ध्यान का दीया
आज अंतिम चर्चा है। बहुत से प्रश्न मेरे पास इकट्ठे रह गए हैं। बहुत
से आज व्यक्तिगत मिलन में पूछे गए हैं। उन सभी प्रश्नों के उत्तर देना संभव नहीं
होगा और जरूरी भी नहीं है। जरूरी इसलिए नहीं है कि मैंने इन तीन दिनों में जो थोड़ी
सी बातें आपसे की हैं, जिसको वे बातें समझ में पड़ी होंगी, उसे मेरा जीवन को देखने का कोण, जीवन को देखने की
दृष्टि समझ में आ गई होगी। जो प्रश्न नहीं मैं उत्तर दे पाऊंगा समय के अभाव के
कारण, अगर मेरी दृष्टि खयाल में आ गई है, तो उन प्रश्नों के उत्तर खुद भी समझे जा सकते हैं। इसलिए जरूरी नहीं है।
और इसलिए भी सभी प्रश्नों के उत्तर देना जरूरी नहीं है कि प्रश्न है आपका, मेरे उत्तर क्या करेंगे? मेरे उत्तर चिंतन की एक
दिशा की ओर इंगित कर सकते हैं। लेकिन मेरे उत्तर आपके प्रश्नों के उत्तर नहीं बन
सकते। अपना उत्तर तो आपको खोजना पड़ेगा। इसलिए जरूरी नहीं है। किस दिशा में चिंतन
करें? चिंतन की प्रक्रिया क्या हो?
...आथेंटिक रहते हैं दूसरों की तरफ, दूसरों के उत्तर के लिए प्रतीक्षा करते रहते हैं, वे
अपने खुद के उत्तर को कभी नहीं खोज पाते। प्रश्न है आपका वह तोड़ेगा...और सत्य की
खोज में चाहिए ऐसा मन, जिसके पास प्रश्न तो हो, लेकिन उत्तर न हो। प्रश्न बड़ी अदभुत बात है। लेकिन हम प्रश्न के साथ कभी
जीते ही नहीं। हम तो जल्दी से उत्तर खोजने लगते हैं। प्रश्न उठता है भीतर, उत्तर बाहर खोज कर तृप्ति कर लेते हैं। लेकिन अगर कोई व्यक्ति बाहर उत्तर
न खोजे और अपने प्राणों में उठे हुए प्रश्नों के साथ रहने को राजी हो जाए और उन
प्रश्नों में ही खोजे, तो वह हैरान हो जाएगा: जहां से प्रश्न
उठते हैं, उसी के नीचे उत्तर भी मौजूद है। जो प्राण प्रश्नों
को उठाता है, वह उत्तर भी अपने में छिपाए हुए है। अन्यथा
उसने प्रश्न भी कभी न उठाए होते। लेकिन हम बाहर खोजने लगते हैं, इसलिए भीतर का उत्तर कभी ऊपर नहीं आ पाता। अगर हम प्रश्न के साथ जीना सीख
जाएं तो अपने उत्तर भी उपलब्ध किए जा सकते हैं। प्रश्न के साथ कैसे जीया जाए?
जैसे अनेक प्रश्न हैं--कि क्या मेरे भीतर आत्मा है? क्या मेरे भीतर परमात्मा है? मेरे भीतर कौन है?
उसकी मृत्यु होगी या नहीं होगी? ऐसे बहुत से
प्रश्न पूछे हैं। मैं शरीर ही हूं? या कि शरीर के अतिरिक्त
भी कुछ मेरे भीतर है? जो मेरे भीतर है उसके कितने जन्म हो
चुके हैं? कितने होंगे? पुनर्जन्म होगा
या नहीं होगा? ये सारी बातें पूछी हैं।
क्या आप सोचते हैं, कभी इन प्रश्नों के साथ आप थोड़ी
देर जीए हैं? मन में ये प्रश्न हों, पूरी
प्रगाढ़ता में पूछे जाएं, और हम किसी बाहर के उत्तर को न
खोजें, तो क्या होगा? कभी पूछा है--मैं
कौन हूं? कभी पूछा है पूरे प्यास, पूरे
प्राणों की अभीप्सा से भर कर कि मैं कौन हूं? तो पूछें! सब
भांति शांत और मौन हो जाएं और पूछें कि मैं कौन हूं? और कोई
भी उत्तर दिखाई पड़े, कोई भी उत्तर बाहर से आता हुआ मालूम पड़े,
तो उसे विदा कर दें कि मैं अब बाहर के उत्तर को लेने को राजी नहीं
हूं। अब तो मैं अपने भीतर ही उत्तर खोजूंगा। तो फिर पूछते चले जाएं कि मैं कौन हूं?
मन हो जाए शांत और शून्य और पूछते चले जाएं कि मैं कौन हूं? तो हैरान हो जाएंगे, हैरान हो जाएंगे। जैसे कोई जमीन
को खोदना शुरू करे तो पहले तो कंकड़-पत्थर हाथ लगते हैं, मिट्टी
हाथ लगती है। कोई एकदम से जल के स्रोत नहीं आ जाते। लेकिन खोदता ही चला जाए,
खोदता ही चला जाए, तो धीरे-धीरे मिट्टी और
कंकड़-पत्थर तो अलग हो जाते हैं और जल-स्रोत, जो कि निरंतर
भीतर मौजूद थे, वे फूट पड़ते हैं। ऐसे ही कोई अपने भीतर पूछता
ही चला जाए कि मैं कौन हूं, मैं कौन हूं, और जितने कंकड़-पत्थर भी बीच में आएं--दूसरों के उत्तर कंकड़-पत्थर की तरह
हैं, किताबों और शास्त्रों से लिए गए उत्तर कंकड़-पत्थर की
तरह हैं--उनको हटाता चला जाए, हटाता चला जाए, तो एक क्षण आएगा कि भीतर से जल-स्रोत फूट पड़ेंगे, भीतर
ही उत्तर की धारा, ज्ञान की धारा उपलब्ध हो जाएगी।
लेकिन हम सारे लोगों ने अपने जीवन की खोज को एक कुएं की भांति नहीं
खोदा है। हमने तो जीवन को हौज की तरह बनाया हुआ है। हौज और कुएं में भी पानी होता
है। हौज में भी पानी होता है। लेकिन दोनों के पानी में बड़ा फर्क होता है। दोनों के
पानी की प्रक्रिया भी बड़ी उलटी है। कुआं खोदना पड़ता है तो मिट्टी निकाल कर, पत्थर निकाल कर बाहर फेंक देने पड़ते हैं, तब पानी
आता है। पानी कुएं के भीतर से आता है। हौज बनानी पड़ती है तो उलटा काम करना पड़ता
है। मिट्टी-पत्थर जोड़ कर दीवाल बनानी पड़ती है पहले, और फिर
पानी बाहर से लाकर भर देना पड़ता है। एक में मिट्टी-पत्थर निकाल देने पड़ते हैं कुएं
में और हौज में मिट्टी-पत्थर जोड़ कर दीवाल बनानी पड़ती है। कुएं में पानी अपने आप
आता है और हौज में पानी लाकर भरना पड़ता है। हौज का पानी बासा होता है। हौज के पानी
का कोई प्राण नहीं होता, उसके कोई स्रोत नहीं होते। कुएं के
पानी के अनंत स्रोत होते हैं। वह पृथ्वी के गर्भ में छिपे सागरों से जुड़ा होता है।
और हौज? हौज कटी होती है सारी दुनिया से अलग, सारे जल-स्रोतों से अलग, दीवालों से बंद; और जो पानी भरा होता है वह बाहर का। वह पानी फिर सड़ने लगता है, क्योंकि वह पानी फिर जीवित नहीं होता, मृत हो जाता
है। उसमें जीवन की धारा नहीं होती। फिर वह पानी सड़ता है, सड़ता
है, गंदगी फैलाता है। लेकिन कुएं का पानी होता है जीवित,
जीवंत, सागरों से उसके संबंध होते हैं।
जो लोग बाहर से ज्ञान को अपने मस्तिष्क में भर लेते हैं वे हौज की
भांति हो जाते हैं। पंडित का मस्तिष्क हौज की भांति होता है। इसलिए पंडित का
मस्तिष्क धीरे-धीरे सड़ जाता है, सड़ान देने लगता है। और यही तो
कारण है कि दुनिया में जो पंडित हैं वे मनुष्य-जाति को लड़ाने में, मनुष्य-जाति को कटवाने में, भेद करवाने में, दीवाल खड़ी करवाने में सहयोगी हो गए। उनके मस्तिष्क में ताजगी नहीं है वह
जो सागरों से जुड़े होने पर होती है। उनके जीवन की धारा भीतर से संयुक्त नहीं,
बाहर की किताबों से संगृहीत हैं।
लेकिन वे लोग जो अपने भीतर कुआं खोदते हैं, और सारे कचरे को, मिट्टी-पत्थर को, जो सदियों ने हमारे ऊपर इकट्ठा कर दिया है, उसे अलग
कर देते हैं, तो वे एक ऐसी आत्म-धारा को, ऐसी ज्ञान-धारा को पहुंच जाते हैं जो अनंत है और जो दूर-दूर तक ज्ञान के
सागर से जुड़ी है जिसका नाम परमात्मा है।
तो दो तरह का ज्ञान है। एक जो बाहर से भर लिया जाता है हौज की भांति, और एक जो भीतर खोजा जाता है कुएं की भांति। तो मेरे उत्तर क्या करिएगा?
किसी के भी उत्तर किस काम के हैं? वे तो जाकर
और इकट्ठे हो जाएंगे भीतर तो खुद के स्रोत को अवरुद्ध कर देंगे।
तो अंत में इस शिविर से जाते वक्त एक तो पहली, पहली प्रार्थना यही है कि मैंने जो भी कहा हो उसे कृपा करके यहीं छोड़
जाइएगा, उसे साथ मत ले जाइएगा। उसे बिलकुल छोड़ जाइए, उसे साथ ले जाने की जरा भी जरूरत नहीं है। वह आपके मन पर बोझ बन जाए,
ऐसा मैं न चाहूंगा। वह आपके मन में भार की तरह बैठ जाए, मेरे उत्तर आपके उत्तर बन जाएं, यह मैं न चाहूंगा।
पूछा जा सकता है कि फिर मैंने क्यों उत्तर दिए? फिर मैंने क्यों ये बातें कहीं? ये बातें इसलिए नहीं
कही हैं कि ये आपके मन पर बोझ बन जाएं, बल्कि इसलिए कही हैं
कि आपके मन को हलका और निर्भार कर सकें। आपके भीतर जो बोझ है उसे छीन सकूं,
इसलिए कहा है। इसलिए नहीं कि इस बोझ में और थोड़ा सहयोग हो जाए मेरा।
और थोड़ा वह बोझ ज्यादा हो जाए।
तो इसलिए बहुत जरूरी भी नहीं है कि मैं आपके सब प्रश्नों के उत्तर
दूं। क्योंकि जो उत्तर मैंने दिए हैं वे भी मैं प्रार्थना करता हूं कि उनको भी
यहीं छोड़ जाना। उनको साथ ले जाने की जरूरत नहीं है।
लेकिन अगर उनको छोड़ने का साहस किया, और और भी जो मन में
बैठी हुई--बहुत-बहुत धूल है, बहुत सदियों की, हजारों वर्षों की, अगर उसको भी छोड़ने का साहस किया,
तो मन एक निर्मल दर्पण की भांति हो जाएगा। मन एक निर्दोष दर्पण की
भांति हो जाएगा। और उस दर्पण में देखा जाता है सत्य। उस दर्पण में होती है स्वयं
की प्रतीति। उस दर्पण में झलक आता है सब कुछ, जो जीवन का सार
है, सारभूत है। यह तो सबसे पहली बात कही।
फिर दोपहर एक मित्र ने कहा कि आप तो कहते हैं कि
हम कुछ भी न करें। फिर हम क्या करें? ज्ञान इकट्ठा न करें,
भक्ति-पूजा न करें, मंत्र-माला न फेरें। फिर
हम क्या करें?
निश्चित ही, जब ये सब बातें हम करते रहे हैं तो हमें एकदम से
वैक्यूम मालूम होता है, खालीपन मालूम होता है, अगर हम ये सब बातें छोड़ दें। यद्यपि इन बातों का कोई भी मूल्य नहीं है,
लेकिन हम इनको करने के इतने आदी हो गए हैं कि हमें ऐसा लगता है कि
अगर ये छूट गईं तो हम तो बिलकुल खाली हो जाएंगे, कुछ करने को
न बचेगा।
लेकिन मैं आपसे कहूंगा, इसके पहले कि आपसे
कुछ सार्थक हो सके, आपका कुछ खाली हो जाना बहुत जरूरी है।
क्योंकि जो आदमी व्यर्थ की चीजों से भरा है, वह जो भी करेगा
उससे दुनिया में उपद्रव बढ़ता है, कम नहीं होता। जिसका खुद का
मस्तिष्क अशांत, पीड़ित और परेशान है, और
फिर भी कुछ किए जा रहा है, तो उसके करने का कोई मंगलदायी
परिणाम नहीं हो सकता। वह जो भी करेगा उससे दुष्परिणाम आएंगे। इसलिए इसके पहले कि
कुछ सम्यक रूप से आपके भीतर से हो सके, आपका खाली हो जाना
बहुत-बहुत अपरिहार्य है, बहुत जरूरी है। अत्यंत आवश्यक है कि
खाली हो जाएं।
जैसे कोई किसी बगीचे में, नया बगीचा बनाता हो
किसी भूमि पर, तो सबसे पहले घास-पात को उखाड़ कर फेंक देता है,
कांस को उखाड़ कर फेंक देता है, पुराने वृक्षों
की गड़ी हुई जड़ों को निकाल कर फेंक देता है। जमीन को कर लेता है साफ, जमीन को कर लेता है खाली। क्यों? ताकि नये बीज बोए
जा सकें, ताकि नई फसल काटी जा सके, ताकि
नये फूलों तक जमीन को पहुंचाया जा सके। इसके पहले कि नये बीज बोए जाएं, पुराने घास-पात से मन का भी मुक्त हो जाना बहुत जरूरी है, खाली हो जाना बहुत जरूरी है। क्योंकि उसी खालीपन में नये बीज अंकुरित हो
सकेंगे और फूलों तक पहुंच सकेंगे।
एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ हुआ, वेजनर। एक युवक एक
दूसरे संगीतज्ञ के पास कोई पांच वर्षों तक संगीत सीख कर वेजनर के पास गया। उस युवक
ने अपने गुरु के पास, करीब-करीब जो भी गुरु जानता था,
सब सीख लिया था। और उस गुरु के शिष्यों में सबसे श्रेष्ठ था वह युवक,
सबसे कुशल था, सबसे प्रतिभाशाली था। फिर उसने
सोचा कि इसके पहले कि मैं जीवन की यात्रा पर निकलूं। वेजनर का नाम भी बहुत
प्रसिद्ध हुआ जा रहा था। तो वह वेजनर के पास गया कि शायद दो-चार महीने वेजनर के
पास रह कर भी मैं उसका संगीत भी सीख लूं। सोचा था दो-चार महीने में ही यह बात हो
जाएगी। और मुझ जैसा सीखा हुआ व्यक्ति पाकर वेजनर होगा खुश। उसने वेजनर से जाकर
पूछा कि कितने दिनों में मैं सीख सकूंगा? वेजनर ने क्या कहा?
कितनी मेरी फीस लगेगी? वेजनर ने क्या कहा?
वेजनर ने कहा कि कम से कम दस वर्ष लगेंगे तुम्हें सीखने में। और फीस
पूछते हो, तो जितनी सामान्य विद्यार्थियों से मैं लेता हूं उससे
दुगनी तुमसे लूंगा।
वह बहुत युवक हैरान हुआ, उसने कहा, दस वर्ष? पांच वर्ष तो मैं सीख कर आ रहा हूं!
तो वेजनर ने कहा, पांच वर्ष तो उसी को भुलाने में
लग जाएंगे जो तुम सीख कर आए हो। क्योंकि तुम जिसे संगीत समझते हो वह संगीत ही नहीं
है। क्योंकि तुम जिसे संगीत समझते हो वह केवल ध्वनियों का जमाव है। वह केवल बहुत
सी ध्वनियों के बीच एक हार्मनी का खोज लेना है। तुम जिसे संगीत समझते हो वह
ध्वनियों के ऊपर नहीं जाता। और मैं जिसे संगीत समझता हूं वह संगीत बहुत और है,
वहां ध्वनियां तो समाप्त हो जाती हैं और शून्य का प्रारंभ होता है।
तो तुम्हारा संगीत जहां समाप्त होता है वहां हमारा प्रारंभ होता है, वेजनर ने कहा। तो तुम, नहीं, पहले
तुम्हें पांच वर्ष तो भूलने में लग जाएंगे। और भुलाने में इतनी मेहनत करनी पड़ती है
जितनी सिखाने में नहीं करनी पड़ती। इसलिए दुगनी फीस लूंगा तुमसे।
और यही स्थिति जीवन के संगीत के संबंध में भी है। इधर तीन दिन मैंने
कौन सी मेहनत की है आपके साथ? कुछ सिखाने की नहीं, कुछ भुलाने की। कुछ हम सीखे हुए बैठे हैं। अगर वह सीखा हुआ ही ठीक होता तो
हमारा जीवन कुछ और हो गया होता। लेकिन हजारों वर्षों से हम उसे सीखे बैठे हैं,
और जीवन मनुष्य का नीचे से नीचे गिरता जा रहा है, और उसके प्राणों की सरिता सूखती जा रही है, और उसकी
सारी सुगंध दुर्गंध में परिणत होती जा रही है। फिर भी हम उस सीखे हुए को पकड़े बैठे
हैं।
जरूरत है कि कोई उस सबको तोड़ दे और मिटा दे और मनुष्य के मन की भूमि
साफ कर दे, ताकि फिर से नये बीज उसमें बोए जा सकें और नये फूलों
की प्रतीक्षा की जा सके। लेकिन अभी तो बड़ा है काम वही कि सफाई हो जाए। बड़ा है काम
यही कि जो इकट्ठा है मन पर, उसे जला दिया जाए। एक अग्नि से
गुजरे बिना नये मनुष्य का जन्म नहीं हो सकेगा। उस नये मनुष्य के जन्म की दिशा में
बड़ा विध्वंस करना जरूरी है, ताकि नया सृजन हो सके। जो कोई भी
बनाने को निकलता है उसे मिटाना पड़ता है। मिटाने में कोई खुशी नहीं होती, न मिटाने में कोई रस है। मिटाना एक मजबूरी है। मिटाना बहुत जरूरी है। नहीं
तो फिर नये को जन्म नहीं मिल पाता और नये का विकास नहीं हो पाता।
तो यह जो सब मन पर इकट्ठा है, इस सब को हटा देना
बहुत जरूरी है। लेकिन मैं कहता हूं इसलिए हटा देना जरूरी नहीं है। मैंने तो अपनी
बात कह दी है, उसे आप विचार करेंगे। मेरी बात मान कर हटाने
में मत लग जाना। क्योंकि जो मेरी बात मान कर हटाने में लगेगा, वह हो सकता है कि उसको हटा दे, लेकिन मैंने जो कहा
है उसकी जगह जरूर उसे रख लेगा। इसलिए उसका मन, हो सकता है
बोझ बदल जाए, लेकिन बोझ से मुक्त नहीं होगा।
मेरी बात मान कर नहीं हटाना। मैं कौन हूं? मेरी बात का क्या मूल्य है? कोई भी नहीं। मेरी बात
को विचार करना। खुद की दृष्टि में यह दिखाई पड़ जाए कि हां, चित्त
का निर्भार होना जरूरी है। बोझिल हो गया है चित्त, शब्दों से
भर गया है, सिद्धांतों से भर गया है। और ऐसे सिद्धांतों से
जिनसे जीवन का अब कोई संबंध, कोई नाता नहीं रहा; और जीवन उनसे गतिमान नहीं होता, बल्कि रुकता है,
अटकता है। सब सीखे हुए उत्तर, जीवन में
समस्याओं को नष्ट नहीं करते, खड?ा करते
हैं। जीवन में खुद ही बहुत समस्याएं हैं और ये सीखे हुए उत्तर और नई समस्याएं खड़ी
कर देते हैं। क्योंकि कोई भी सीखा हुआ उत्तर जीवन की किसी समस्या के साथ तालमेल
नहीं उपलब्ध कर पाता। उत्तर है बहुत पुराना, जीवन रोज बदल
जाता है, रोज बदल जाता है। जीवन रोज नया हो जाता है, समस्याएं नई हो जाती हैं। उत्तर--उत्तर हैं पुराने। बल्कि हम ऐसे पागल लोग
हैं कि जितना पुराना उत्तर होता है, समझते हैं कि वह उतना ही
ठीक है। पुराना होना ठीक होने का भी सबूत है अनेक लोगों के मनों में। इसलिए सभी
धर्म के लोग अपने-अपने ग्रंथ को पुराना सिद्ध करने की न मालूम किस-किस प्रकार की
चेष्टाएं किया करते हैं। जैसे पुराना होना सत्य होने के लिए कोई जरूरी बात है।
जब कि सचाई यह है कि जीवन तो है रोज नया। तो ऐसा मस्तिष्क चाहिए जो
रोज नया हो। तो ही जीवन की समस्याओं का हल हो सकेगा। मस्तिष्क हो पुराना और जीवन
नया, तो उलझन तो खड़ी हो ही जाएगी।
जापान के एक गांव में, क्योटो में, दो मंदिर थे। एक दक्षिण का मंदिर था, एक उत्तर का।
दोनों एक-दूसरे के विरोधी थे, जैसे कि सभी मंदिर एक-दूसरे के
विरोधी होते हैं। एक उत्तर का मंदिर कहलाता, एक दक्षिण का
मंदिर कहलाता। उन मंदिर के पुरोहितों में वर्षों से कोई बातचीत भी न थी, जैसी कि किन्हीं भी मंदिरों के पुरोहितों में कभी नहीं रही है। वे कभी आपस
में मिलते भी न थे, बोलते भी न थे।र् ईष्या बहुत थी। एक अपने
मंदिर को ऊंचा करता था, तो दूसरा और नये कलश चढ़ा कर और ऊंचा
कर देता था। वह पूरा गांव परेशान हो गया था उस मंदिर के झगड़ों में, क्योंकि मंदिर तो बड़े होते थे और गांव के लोगों के मकान छोटे होते चले
जाते थे। क्योंकि कौन उन मंदिरों को बड़ा करेगा? जब मंदिर बड़े
होंगे तो मकान छोटे होते चले जाएंगे। गांव के लोग तो गरीब होते जाते थे और मंदिर
के पुजारी धनी होते चले जाते थे। गांव के गरीबों पर तो रोटी नहीं थी खाने को,
मंदिर के पुजारियों ने मंदिर में जो भगवान बनाए थे वे सोने के बना
लिए थे। और दोनों की प्रतियोगिता थी, आधा गांव एक तरफ,
आधा गांव दूसरी तरफ। गांव मरा जाता था, मंदिर
बड़े होते चले जाते थे। झगड़ा बड़ा पुराना था। उस झगड़े में रस भी था, आनंद भी था और रहस्य भी था। अगर दोनों मंदिर न लड़ते तो गांव का शोषण असंभव
होता। इसलिए दोनों मंदिरों के लड़ने के कारण गांव का शोषण भी आसान था।
इस सारी दुनिया में इतने मंदिर और मस्जिद खड़े हैं, अगर ये आपस में न लड़ें तो ये आदमी का शोषण ही न कर सकेंगे। इनकी लड़ाई के
रस में, इनके लड़ाई के दौर में, इनके
लड़ाई के पागलपन में ही तो सारा शोषण हो पाता है। जब दूसरा मंदिर बड़ा बना लेता है
तो इधर का पुजारी कहता है: हमारा मंदिर भी बड़ा होना चाहिए। हम हीन हुए जा रहे हैं,
छोटे हुए जा रहे हैं। देखो, यह मुसलमान की
मस्जिद बड़ी हो गई, यह हिंदू का मंदिर छोटा हो गया, यह जैन का मंदिर बड़ा हो गया। इससे पागलपन पैदा होता है, लोगों के अहंकारों को नशा चढ़ता है। वे अपने मंदिर को बड़ा करने में लग जाते
हैं। मंदिर लड़ते हैं ताकि पुरोहित जी सकें। अगर मंदिर न लड़ें तो पुरोहित जी नहीं
सकता। इसलिए दुनिया में जब तक मंदिर हैं तब तक लड़ाई रहेगी, लड़ाई
खत्म नहीं हो सकती। क्योंकि लड़ाई अगर खत्म हो गई तो मंदिर अपने आप गिर जाएंगे।
उनके प्राण भी नहीं टिकने वाले हैं फिर।
वह गांव के मंदिर भी दोनों लड़ते थे। लड़ाई पुरानी थी, इतना ज्यादा उनका विरोध था। दोनों मंदिरों के दो बड़े पुजारियों के पास
एक-एक छोटा लड़का था काम-काज के लिए। वह उन लड़कों को भी कह रखा था कि कभी एक-दूसरे
के मंदिर में झांक कर मत देखना। कभी एक-दूसरे के मंदिर के लड़के से मिलना भी मत।
लेकिन लड़के तो लड़के हैं। और बूढ़े उनको कितना ही बिगाड़ें, आखिर बिगाड़ने में भी वक्त लग जाता है, एकदम से
बिगाड़ना भी आसान नहीं होता। बच्चे तो बच्चे हैं, वे कभी-कभी
मिल भी लेते थे रास्तों पर। एक दिन वे दोनों रास्तों पर मिले। उत्तर के मंदिर के
लड़के ने दक्षिण के मंदिर के लड़के से पूछा, मित्र, कहां जा रहे हो?
उस दक्षिण के लड़के के, दक्षिण के मंदिर का
जो लड़का था, निरंतर तत्वज्ञान की बातें सुनते-सुनते वह भी
तत्वज्ञान की बातें करने लगा था। आखिर बच्चे बूढ़ों ही से तो तत्वज्ञान सीख लेते
हैं। निरंतर मंदिर में ऊंची-ऊंची बातें चलती थीं। वह भी नीची बातें करना उसने बंद
कर दिया था। उत्तर के लड़के ने पूछा, मित्र, कहां जा रहे हो? उसने कहा, जहां
हवाएं ले जाएं! आदमी का क्या बस है?
उसने बड़ी ऊंची बात कह दी। उसने तो भाग्य की बात कह दी कि जहां हवाएं
ले जाएं! आदमी का क्या बस है?
उत्तर का लड़का ठगा रह गया। कुछ उत्तर उसे सूझा नहीं। वह वापस आया और
उसने अपने मंदिर के पुजारी को कहा। उसके पुजारी ने कहा कि यह तो बड़ी बुरी बात हुई।
हमारे मंदिर का कोई व्यक्ति आज तक उस मंदिर से हारा नहीं है। तुम हार कर आ गए हो!
कल वापस वहीं खड़े होना और पूछना कि कहां जा रहे हो? और जब वह लड़का कहे कि
जहां हवाएं ले जाएं, तो तुम कहना कि अगर हवाएं बंद हों तो
फिर कहां जाओगे? तब वह भी रह जाएगा, उसकी
भी सूझ में नहीं आएगा कि क्या उत्तर दे। बिना हराए वापस मत लौटना, यह बेइज्जती की बात है। हमारा मंदिर, हमारे मंदिर का
नौकर कभी हार जाए किसी दूसरे के मंदिर से!
वह लड़का कल गया। उसी जगह खड़ा हो गया प्रतीक्षा में, उत्तर तैयार रखा उसने। दूसरे मंदिर का लड़का निकला। उसने पूछा, मित्र, कहां जाते हो? सोचा कि
वह कहेगा जहां हवाएं ले जाएं, तो मैं भी अपना बंधा हुआ उत्तर
दूंगा। लेकिन वह लड़का तो बदल गया। उसने कहा, जहां पैर ले
जाएं।
अब बड़ी मुश्किल हो गई, बंधा हुआ उत्तर बेकार
हो गया, वह फिर हार कर वापस आ गया। उसने अपने गुरु को कहा कि
वह लड़का तो बड़ा बेईमान है। कल कुछ कहता था, आज कुछ कहने लगा।
वह लड़का तो बड़ा बदल जाने वाला मालूम होता है। उसको तो अपने वचन पर ठहरने की भी,
मालूम होता है, कोई आदत नहीं है।
पुजारी खुश हुआ। उसने कहा, उस मंदिर के लोगों को
कभी से यह आदत नहीं है। वे हमेशा से बेईमान रहे हैं। बदल गया होगा। लेकिन अब तुम
कल फिर जाना, क्योंकि तुम फिर हार कर लौट आए हो। जब तक उसको
निरुत्तर न करो तब तक समझना कि तुम हार गए। तो कल फिर तुम पूछना, वह कहेगा जहां पैर ले जाएं, तो तुम कहना, ऐसा भी हो सकता है कि पैर पंगु हो जाएं, फिर कहां
जाओगे?
लड़का फिर गया दूसरे दिन प्रसन्न, फिर खड़ा हो गया कि आज
देखें। वह लड़का निकला और उसने पूछा, कहां जाते हो? उस लड़के ने कहा, साग-सब्जी लेने बाजार जाता हूं।
असल में सीखे हुए उत्तर जिंदगी में काम नहीं आ सकते। क्योंकि जिंदगी
रोज बदल जाती है। जिंदगी बड़ी बेईमान है। शास्त्र बड़े ईमानदार हैं, वे कभी नहीं बदलते। जिंदगी बड़ी बेईमान है, वह रोज
बदल जाती है। लेकिन शास्त्र मुर्दा हैं इसलिए नहीं बदलते हैं। जिंदगी जिंदा है,
जीवंत है, इसलिए बदलेगी ही। यह कोई बेईमानी
नहीं है। यह जिंदा होने का लक्षण है, बदलाहट।
तो जिंदगी तो रोज बदल जाती है और उत्तर होते हैं कल के, परसों के, हजार वर्ष पुराने, वे
कभी नहीं बदलते। हम उन्हीं उत्तरों को लिए खड़े रहते हैं। और तब बड़ी मुश्किल हो
जाती है। जिंदगी कुछ ऐसे प्रश्न खड़े कर देती है कि उत्तर बेकार हो जाते हैं। और हम
अपने पुराने उत्तर ही दोहराए चले जाते हैं। तब हम जिंदगी से पिछड़ जाते हैं। हम
सारे लोग जिंदगी से पिछड़ गए हैं। असल में, जिसके पास भी सीखा
हुआ उत्तर है वह हमेशा पिछड़ जाएगा। जिंदगी बड़ी रहस्यपूर्ण है, वह एक दिन भी वापस नहीं आती वही जैसी कल आई थी। कल जो सूरज उगा था,
आज वही नहीं उगा; कल जो सूरज उगेगा वह इसके
पहले कभी नहीं उगा था। आज सुबह जिन पक्षियों ने गीत गाए थे इस बगिया में, कल वे ही पक्षी यहां गीत गाने को नहीं होंगे। और अगर वे ही पक्षी भी होंगे
तो गीत बदल जाएंगे, हवाएं बदल जाएंगी, सुनने
वाले बदल जाएंगे, दरख्त बदल जाएंगे। प्रतिक्षण सब कुछ बदला
जा रहा है।
इस बदलाहट के बड़े चक्कर में हमारे उत्तर बंधे-बंधाए हैं। इन उत्तरों
की जड़ता के कारण हम खुद जड़ हो गए हैं और जीवन से हमारा सारा संबंध टूट गया है। ऐसा
चित्त चाहिए जो जीवन की भांति ही गतिशील, गत्यात्मक, डायनेमिक हो; डेड न हो, मरा
हुआ न हो, जीवंत हो। ऐसा चित्त चाहिए जो दर्पण की भांति,
जीवन जो भी समस्या खड़ी करे, उसे देखने में
ताजा हो, यंग हो, जवान हो।
ऐसा चित्त नहीं है हमारे पास। इसलिए जीवन में इतना दुख, इतनी पीड़ा, इतनी उलझन है। कोई मसला हल नहीं हो सका
पांच हजार साल में, आपको पता है? आदमी
पांच हजार साल के इतिहास में एक भी समस्या हल नहीं कर सका है। एक भी समस्या हल
नहीं कर सका है! और जो उसने हल करने के लिए किया है उससे दस नई समस्याएं खड़ी हो
गईं। पांच हजार साल में पंद्रह हजार युद्ध हुए हैं। क्या पागलपन है? पांच हजार साल में पंद्रह हजार युद्ध किस बात के लक्षण हैं? जब भी समस्या उलझ जाती है तो लड़ने के सिवाय हमारे पास कोई चारा नहीं रह
जाता। और लड़ना कोई हल है? कोई समाधान है? और एक युद्ध से दूसरा युद्ध निकलता है जो पहले से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध
होता है। दूसरे से तीसरा निकलता है जो और भी खतरनाक सिद्ध होता है। पांच हजार साल
में युद्ध ही युद्ध किए हैं, समस्या तो एक नहीं सुलझी।
और किस चीज में हमारी समस्या सुलझ गई है? कितने शास्त्र लिखे गए हैं! अब तो जमीन पर प्रति सप्ताह पांच हजार किताबें
छपती हैं। पांच हजार नई किताबें प्रति सप्ताह! थोड़े ही दिनों में एक हजार किताबें
प्रतिदिन छपने लगेंगी। लेकिन क्या हल हो गया है आदमी के जीवन में? कितने समाधान हैं, लेकिन हल कहां है? कितनी बातें प्रस्तावित की गई हैं, लेकिन आदमी तो
वहीं के वहीं हैं। जहां दस हजार साल पहले थे, हम वहीं खड़े
हैं। कपड़े बदल गए हैं माना, रास्ते बदल गए, मकान बदल गए, लेकिन आदमी? आदमी
क्यों नहीं बदला? यह आदमी को क्या हो गया है? यह क्यों नहीं बदलता? सारी जिंदगी बदलती चली जाती
है। आकाश, तारे बदलते चले जाते हैं, जमीन
बदलती चली जाती है। यह आदमी क्यों जड़ है? आदमी की जड़ता का
कारण है--सीखे हुए उत्तर, सीखा हुआ ज्ञान। वह चित्त की ताजगी
छीन लेता है, चित्त को बासा कर देता है। और बासा चित्त,
बारोड माइंड, उधार चित्त फिर कुछ भी हल करने
में समर्थ नहीं रह जाता। ऐसा चित्त चाहिए जो जीवन के साथ अतीत को बीच में न ले,
बीच में उधार बातों को न ले। जीवन को सीधा देखे, जीवन को सीधा समझे। और उस समझ से, उस जिंदगी के सीधे
दर्शन से जो भीतर से उत्तर आते हों उन पर चलने का सामर्थ्य रखे। ऐसा मनुष्य चाहिए,
ऐसा मन चाहिए।
तो मेरे उत्तरों से क्या होगा? मेरे उत्तर तो आप तक
पहुंचते-पहुंचते बासे हो जाएंगे। मैं कहूंगा, कहते-कहते,
आप सुनेंगे, सुनने-सुनते पुराने पड़ जाएंगे।
जिंदगी तब तक बदल गई होगी। तो मेरे उत्तर किस काम के पड़ेंगे? उत्तर का सवाल नहीं है, किसी और के उत्तर का सवाल
नहीं है। सवाल तो ऐसे मन के निर्माण का है, ऐसे मन के सृजन
का है।
तो इधर तीन दिनों में जो कोशिश है वह यह नहीं है कि आपका मैं ज्ञान
थोड़ा सा बढ़ा दूं। नहीं, ज्ञान को बढ़ाने वाले हजारों साल से ज्ञान बढ़ा रहे
हैं। मैं तो आपके ज्ञान को छीन लेना चाहता हूं। तो शायद अगर आप ज्ञान छोड़ कर खड़े
हो जाएं तो ताजे हो जाएं, युवा हो जाएं; चित्त निर्भार हो जाए, देख सके, जान सके, पहचान सके; आंख खुल
जाएं और जिंदगी जो समस्याएं लाए उनके उत्तर हमारे भीतर से उठ सकें। खुला मन हो,
तो तीर की भांति चीजें दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं।
लेकिन हमें तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। रोज आदमी मरते चले जाते हैं और
हमें यह नहीं दिखाई पड़ता कि हमको मरना पड़ेगा। हद्द अंधापन है! या हद्द बेहोशी है!
अजीब बात है! रोज लोग धन को इकट्ठा करते हैं और धन को इकट्ठा करने में करीब-करीब
जीवन गंवा देते हैं; न उनके जीवन में हमें शांति दिखलाई पड़ती है न आनंद।
लेकिन हम भी जब दौड़ते हैं तो हम भी धन कमाने में लग जाते हैं। अजीब बात है! रोज हम
लोगों को पदों पर चढ़ते देखते हैं--छोटी कुर्सी से बड़ी कुर्सी, बड़ी कुर्सी। उनके जीवन में न कोई शांति दिखाई पड़ती है, न कोई आनंद, न कोई संगीत। लेकिन हमारा चित्त भी उसी
दौड़ में लग जाता है। क्या मामला है? क्या हमें कुछ भी दिखाई
नहीं पड़ता? क्या हमारे चित्त में कोई भी जीवन का ठीक-ठीक
दर्शन नहीं बनता?
बहुत सैकड़ों वर्ष पहले की बात है, एक युवक अपने गुरु के
गुरुकुल से शिक्षा पाकर वापस लौटा। बहुत दुखी था। एक रात देश की राजधानी में जाकर अपने
मित्र के घर में ठहरा तो बहुत दुखी था, रात करवटें बदलता था।
उस मित्र ने पूछा, क्या चिंता है?
उसने कहा, चिंतित हूं इसलिए कि गुरु के घर पर पांच वर्षों तक
रहा। मेरा भोजन भी उन्हीं ने दिया, मेरे वस्त्र भी, शिक्षा भी, सब कुछ उन्होंने दिया। मैं बहुत दरिद्र हूं,
अनाथ हूं, आते वक्त सभी विद्यार्थियों ने विदा
लेते समय गुरु को कुछ भेंट दी है, मैं कुछ भी भेंट नहीं दे
पाया। काश, मेरे पास पांच स्वर्ण-मुद्राएं भी होतीं तो मैं
भेंट दे देता।
उसके साथी ने कहा, घबड़ाओ मत! कल सुबह उठ कर जल्दी
चले जाना। इस देश का जो राजा है उसका नियम है, जो भी
सुबह-सुबह जाकर उससे कोई मांग ले तो वह दे देता है।
वह युवक सो गया। जल्दी से उठा, कोई चार ही बजे होंगे,
राजा के महल पर जाकर पहुंच गया। राजा पांच बजे के करीब अपनी बगिया
में घूमने निकला तो उस युवक ने जाकर उसे पकड़ लिया और कहा कि मैंने सुना है कि जो
भी पहला याचक होता है, जो भी मांगता है, आप उसे दे देते हैं।
उस राजा ने कहा, निश्चित ही। लेकिन आज तक कोई आया
ही नहीं। यह मेरा निर्णय रहा है कि जो भी आएगा, दूंगा। लेकिन
लोग इतने सुखी हैं कि कोई कभी आया नहीं। तुम पहले याचक हो, आज
के ही नहीं, मेरे जीवन के। तो तुम जो भी मांगोगे, मैं दूंगा।
युवक ने सुना, जो भी मांगोगे, मैं दूंगा। तो
उसने सोचा कि मैं पागल हूं अपने मन में, कि मैं पांच
स्वर्ण-मुद्राएं मांगूं। पांच सौ क्यों न
मांगूं? पांच हजार क्यों न मांगूं? या
पांच लाख क्यों न मांग लूं? चक्कर बड़ा हो गया। गणित फैल गया।
पांच का खयाल मिट गया और गुरु को देने की बात भी विलीन हो गई, सवाल ही न रहा वह। अब तो सवाल यह था कि कितना मैं मांगूं?
राजा ने कहा कि तुम कुछ चिंतित हो, निर्णय तुमने शायद
किया नहीं कि क्या मांगना है। तो तुम निर्णय कर लो, मैं घूम
आऊं बगिया। जो तुम मांगोगे, मैं दूंगा। इसलिए फिक्र मत करो,
मांगो।
गणित और बड़ा होने लगा। पांच करोड़ मांगूं कि पांच अरब कि पांच खरब? क्या करूं, क्या न करूं? जितना
गणित उसे आता था, संख्या वहां तक पहुंच गई। और तब उसका हृदय
धड़कने लगा कि मैंने गणित और क्यों न सीखा! आज पता चला कि गणित का क्या उपयोग है।
तब तो मैं सोचता था: क्या फिजूल का गणित सीखना, क्या फायदा
है? संख्या अटक गई, उसके आगे संख्या
मालूम नहीं थी। आज पता चला कि गणित का क्या उपयोग है। आज पछताने लगा कि पता नहीं,
मैं तो इतना मांग लूंगा, पीछे न मालूम राजा के
पास कितना शेष रह जाएगा।
भूल गया गुरु को, भूल गया पांच मुद्राओं को। कोई
भी भूल जाता। हम भी भूल जाते उसकी जगह होते तो, कोई भी भूल
जाता। सहज मानवीय है यह। बात ही ओझल हो गई, सवाल ही दूसरा
खड़ा हो गया। जब तक राजा लौट आया तब उसने धड़कते हृदय से सोचा कि गलती हो जाएगी अगर
मैं संख्या में मांगूंगा। तो क्यों न मैं राजा से कहूं कि जो कुछ तुम्हारे पास है
सभी दे दो और तुम द्वार से बाहर निकल जाओ। जैसा मैं भीतर आया, तुम बाहर हो जाओ। ये कपड़े काफी हैं जो तुम पहने हो, और
ज्यादा मैं न दे सकूंगा। जो है सब छोड़ दो। इसमें भूल की गुंजाइश नहीं रहेगी,
संख्या का कोई सवाल न रहेगा। जितना है, मिल
जाएगा, पछतावे का कोई कारण नहीं रहेगा।
राजा आया, और उसने राजा से कहा कि आप द्वार के बाहर हो जाएं। ये
कपड़े जो आप पहने हैं, पर्याप्त हैं। और जो कुछ आपके पास है,
सब छोड़ दें। सभी मैं मांगता हूं, पूरा ही मैं
मांगता हूं।
सोचा था राजा घबड़ा जाएगा। लेकिन बात उलटी हो गई, घबड़ाना पड़ा उस युवक को ही। राजा ने आकाश की तरफ हाथ जोड़े और कहा, हे परमात्मा, वह आदमी आ गया जिसकी मैं प्रतीक्षा
करता था। कितने दिन तूने राह दिखाई, लेकिन आखिर वह आदमी आ
गया। उस युवक को लगा लिया गले और कहा, तू भीतर जा और मैं
बाहर जाता हूं। और ये कपड़े जो पहने हूं, ये भी छोड़े देता
हूं। इनको पहने भी बहुत दिन हो गए, इनसे भी बहुत ऊब गया। अब
तो बिना कपड़े ही रहने का मन है।
युवक घबड़ा गया। उसने कहा कि ठहर जाएं! थोड़ा ठहरें, मुझे थोड़ा और सोच लेने दें। मामला क्या है? आप इतने
उत्सुक भागने को क्यों हैं? इन चीजों को छोड़ जाने की इतनी
आतुरता क्यों है?
उस राजा ने कहा, यह मत पूछ, यह मत सोच। जिंदगी पड़ी है, सोचना धीरे-धीरे। आखिर
हमने भी तो जिंदगी भर में यही सोच कर पाया। तो इतनी जल्दी तुझे हम कैसे बताएं और
तू कैसे समझेगा? तू भीतर जा, हम बाहर
जाते हैं। जिंदगी पड़ी है, अभी तू जवान है, सोचना! हमारी उम्र तक आते-आते शायद तू भी सोच लेगा।
लेकिन उस युवक ने कहा कि नहीं, इतना अंधा मैं नहीं
हूं। आप रुक जाएं और एक चक्कर और लगा आएं, तब तक मुझे सोचने
का मौका दें। इतनी कृपा करें!
राजा ने कहा कि देख, जो बहुत सोच-विचार करते हैं वे
दिक्कत में पड़ जाते हैं। तू भीतर जा, सम्हाल सब, सोच-विचार को जीवन पड़ा है, जल्दी क्या है?
लेकिन वह युवक...जितना राजा ने कहा कि जल्दी क्या है, उतनी ही जल्दी तीव्र होती गई...वह युवक बोला, माफ
करें, मैं अपने शब्द वापस लेता हूं। आप एक चक्कर लगा आएं,
मुझे सोचने दें।
राजा चक्कर लगाने गया, लौट कर युवक को वहां
नहीं पाया। वह पांच स्वर्ण-मुद्राएं भी छोड़ गया। वह भाग गया था। घर पहुंचा तो उसके
मित्र ने पूछा, मांग ली पांच मुद्राएं?
उसने कहा कि नहीं। गणित बहुत आगे पहुंच गया था, पांच का कहां सवाल था, सब मांग लिया था। लेकिन उस
राजा ने मुझे दिक्कत में डाल दिया। उसने मेरी आंखें खोल दीं। अब पांच के मांगने का
भी कोई सवाल नहीं है। अब तो मैं समझता हूं जो गणित सीखा, बेकार
सीखा, मांगने का सवाल ही नहीं रह गया। क्योंकि दिखाई पड़ा कि
जो छोड़ कर जा रहा है इतनी खुशी से, उसे सिर्फ अंधा ही
स्वीकार कर सकता है।
लेकिन जीवन में हमें तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हम तो करीब-करीब वही
दोहराते हैं जो हर आदमी ने जिंदगी में दोहराया है और एक अंधे की भांति एक चक्कर
लगाते हैं और समाप्त हो जाते हैं। क्या कारण है इसके दिखाई न पड़ने का? इसके दिखाई न पड़ने का यही कारण है कि हम कभी अपने मन से जीवन को कुछ देखते
ही नहीं हैं। हम सब कुछ, जो हमारी पुरानी पीढ़ी हमें सिखा
देती है, उसी के माध्यम से देखते हैं। पुरानी पीढ़ी अपनी सब
बीमारियां भी हमें सिखा देती है, अपने सब रोग भी सिखा देती
है। अपनी सब भूलें भी सिखा देती है। अपने सब बंधे-बंधाए उत्तर भी सिखा देती है। जो
उसने भी पुरानी पीढ़ी से सीखे थे। और ऐसे एक उधार मस्तिष्क पीढ़ी से पीढ़ी के पास चला
जाता है। हम कभी अपनी ताजगी से जीवन को देखते ही नहीं हैं, हम
अपने पिता की आंखों से देखते हैं, पिता अपने पिता की आंखों
से, वे और अपने पिता की आंखों से। आंखें बहुत पुरानी हो गई
हैं जिनसे हम देखते हैं। अपनी आंखों से कोई देखता ही नहीं है।
अगर जिंदगी की प्रत्येक समस्या को समर्थ हो सकें हम अपनी आंख से देखने
में, तो समस्या विलीन हो जाएगी, क्योंकि
जो समाधान आएगा वह हमारा होगा। वह समाधान जिंदगी की समस्या से टक्कर ले सकता है,
उसे हल कर सकता है, जिंदगी दूसरी हो सकती है।
इसलिए सबसे बड़ा विरोध है मेरा उधार मस्तिष्क से। बारोड माइंड सबसे खतरनाक बात है,
महामारी है, सबसे बड़ी बीमारी है। और उस बीमारी
में हजारों साल से हम पीड़ित हैं। इसलिए किसी के उत्तरों का कोई सवाल नहीं। किसी के
समाधानों का कोई महत्व नहीं। शास्त्रों का, बंधे-बंधाए
सिद्धांतों का कोई अर्थ नहीं। अर्थ है जीवंत मन का, फ्रेश
माइंड का, ताजे मन का। कैसे होगा ताजा मन, उसी दिशा में तीन दिन थोड़ी सी बातें कीं।
एक मित्र ने दोपहर में पूछा कि जब तक हम अपनी
बुराइयों का दमन न करेंगे, सप्रेशन न करेंगे, तब तक तो हम पशु के ऊपर उठ ही नहीं सकते। हम तो पशु हो जाएंगे। अगर हम
आपकी बातें मान लें और दमन न करें अपने मन का, अपने क्रोध को
न दबाएं, अपने सेक्स को न दबाएं, तो हम
तो पशु हो जाएंगे।
लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं, जैसा आदमी आज है उससे
तो पशु बेहतर हैं। बड़ी चोट लगती है इस बात को जान कर, मुझे
भी चोट लगती है। लेकिन आदमी से पशु बहुत बेहतर हैं। हजार-हजार अर्थों में बहुत
बेहतर हैं। आदमी के साथ क्या हो गया है, बड़ी हैरानी की बात
है!
पशु न तो इतने चिंतित मालूम पड़ते हैं, न इतने दुखी। क्या
आपने कभी किसी पशु और पक्षी को आत्महत्या करते सुना है, स्युसाइड
करते? नहीं सुना होगा। मैं समझता हूं ऐसी घटना अभी तक नहीं
घटी है। जिस दिन घटेगी, सारी दुनिया के अखबार पहले पेज पर
बड़े-बड़े अक्षरों में छापेंगे कि एक कुत्ते ने आत्महत्या कर ली। अभी तक तो की नहीं
है। यह घटना अभी तक घटी नहीं है। आदमी भर आत्महत्या करता है। मतलब क्या हुआ?
आदमी भर का जीवन इस हालत में पहुंच गया है कि खुद आदमी उसको समाप्त
करना चाहता है। इतना बदतर जीवन हो गया है क्या कि हम खुद उसे समाप्त करें? इतना अर्थहीन हो गया? इतना दुख और पीड़ा से भर गया?
लेकिन यह हो गया है। और हम निरंतर यही कहे जाते हैं कि हमको पशु से
ऊपर उठना है।
मैं तो कहूंगा, अभी तो हम पशु के बराबर भी हो जाएं तो बहुत है। पशु
के ऊपर उठना तो जरा दूर की बात है। यह क्यों हो गई है इतनी स्थिति अजीब? यह अजीब इसलिए हो गई है कि हमने अपनी प्रकृति को स्वीकार नहीं किया। अगर
हम अपनी प्रकृति को स्वीकार करें, तो उसी स्वीकृति से
प्रकृति संस्कृति बन सकती है। लेकिन हमने कर दिया प्रकृति को अस्वीकार। उससे
संस्कृति पैदा नहीं हुई, उससे विकृति पैदा हुई। प्रकृति के
ही अनुसंधान में संस्कृति विकसित होती है। प्रकृति के विरोध में जो विकसित होता है
वह विकृति है, वह संस्कृति नहीं है। हम संस्कृत नहीं हो पाए,
हम करीब-करीब विकृत हैं।
पशुओं में सेक्स है, काम है; मनुष्य
में सेक्स ही नहीं है, सेक्सुअलिटी भी है, कामुकता भी है, जो और एक नया विकार है। पशुओं में
सिर्फ काम है, मनुष्य में कामुकता है। पशु के जीवन में सेक्स
आता है, चला जाता है--जैसे भोजन है, पानी
है, और सब कुछ है, वैसे ही एक घड़ी है,
विलीन हो जाती है। मनुष्य चौबीस घंटे सोचता है, सोचता है, सोचता है।
अगर मनुष्य चौबीस घंटे सेक्स को नहीं सोच रहा है तो उसकी फिल्मों में, उसकी कहानियों में, उसकी किताबों में यह सारा का
सारा सेक्स क्यों है? खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों में ये
सारी की सारी मिथुन प्रतिमाएं क्यों हैं? यह क्यों सारा जीवन
पूरा का पूरा सेक्स से भरा हुआ दिखाई पड़ता है? पशु तो चिंतित
नहीं मालूम होते इस भांति। न पशु इस भांति पीड़ित मालूम होते हैं। सेक्स तो उनके
जीवन में जरूर है, प्रकृति है, है।
लेकिन ऐसी विकृति नहीं है जैसी मनुष्य के जीवन में है। यह क्या हो गया है?
यह दमन से हुआ है, यह सप्रेशन से हुआ है। हम
प्रकृति को ट्रांसफार्म नहीं कर पाए, हम प्रकृति को विकसित
नहीं कर पाए, परिवर्तित नहीं कर पाए, प्रकृति
को दबाया हमने। जो प्रकृति को दबाएगा वह प्रकृति के तल से भी नीचे गिर जाएगा।
क्योंकि दमन से कोई वेग समाप्त नहीं होते, केवल अचेतन मन में
और गहरे प्रविष्ट हो जाते हैं। और फिर पीड़ित करने लगते हैं भीतर जाकर। और फिर उनका
वेग, उनके अंडरकरेंट्स...मुझे किसी ने कहा कि यहां जमीन के
नीचे बहुत पानी के स्रोत हैं, अंडरकरेंट्स हैं। यहां ऊपर से
तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन किसी ने कहा कि कुएं में मील,
आधा मील भी भीतर जा सकते हैं। जमीन नीचे बहुत सी धाराओं से भरी है
पानी की। ऊपर से तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
ऐसे ही, मनुष्य जिन-जिन चीजों को दबा देता है, उसके अचेतन में जमीन के नीचे अंडरकरेंट्स फैल जाते हैं। ऊपर से कुछ नहीं
दिखाई पड़ता, ऊपर से वह आदमी राम-राम-राम-राम जपते हुए मालूम
पड़ता है, गीता पढ़ते मालूम पड़ता है, रामायण
पढ़ते मालूम पड़ता है। भीतर अंडरकरेंट्स क्या हैं? अंडरकरेंट्स
बड़े दूसरे हैं। यह ऊपर कुछ और है, भीतर कुछ और है। इसके भीतर
सब दब गया है, इकट्ठा हो गया। वह निकलना चाहता है, यह उसको दबाता है। मंत्र पढ़-पढ़ कर दबाता है। सब दबा-दबा कर उसको सम्हाल कर
रखता है।
लेकिन जिसको हमने दबा कर रखा है, वह आज नहीं कल
फूटेगा। वह आज नहीं कल तोड़ देगा जमीन को और बाहर निकल आएगा। और जिसे हमने दबा कर
रखा है, उसे रोज-रोज दबा कर रखना पड़ेगा, क्योंकि जरा ही कमजोरी आई कि वह बाहर निकल आएगा। तो कमजोरी का कोई भी क्षण
उसको बाहर ला सकता है। और अगर जीवन भर बाहर न भी आए तो भी फर्क नहीं पड़ता, ऐसे मनुष्य का जीवन अंतर्द्वंद्व हो जाएगा, कांफ्लिक्ट
हो जाएगा। उसका जीवन अपने से ही लड़ने में व्यतीत हो जाएगा, वह
जीवन के किसी सौंदर्य को नहीं जान पाएगा। दमन करने वाला व्यक्तित्व एकदम कुरूप,
एकदम अग्ली हो जाता है। सारा सौंदर्य, सारी
शांति, सारा संगीत नष्ट हो जाता है।
एक छोटी कहानी मुझे याद आती है।
कोरिया में दो भिक्षु एक नदी को पार करते थे। पहाड़ी नदी है, बूढ़ा भिक्षु आगे है, युवा भिक्षु पीछे था। बूढ़ा जैसे
ही नदी में उतरने को था, देखा कि किनारे पर खड़ी है एक युवती
और नदी पार होना चाहती है। उस बूढ़े के मन में हुआ--सत्तर वर्ष उसकी उम्र होगी--हाथ
का सहारा दे दूं और नदी पार करवा दूं। लेकिन हाथ के सहारे का खयाल ही, युवती का हाथ हाथ में आने का खयाल ही उसके भीतर वर्षों से दबाई गई वासना
का उभार बन गया। छुआ नहीं था अभी युवती को उसने, सिर्फ सोचा
था दयावश कि हाथ का सहारा देकर नदी पार करा दूं। भीतर सोई हुई वासना...हैरान हो
गया वह तो, तीस वर्ष से जिसे दबाया था वह अब तक समाप्त न हुई
थी! और उसने तो माला फेर-फेर कर, रात जाग-जाग कर, उपवास कर-कर के सोचा था कि सब शांत हो गया, सब शांत
हो गया।
अंडरकरेंट्स मौजूद थे। मौका आ गया, वापस खड़े हो गए। भीतर
से उठ आई सारी वासना। ऊपर से देह बूढ़ी हो गई थी, भीतर मन
जवान था। उठ आई वासना और उसने कहा कि बहुत सुखद रस उसे आ गया हाथ के स्पर्श का। वह
बहुत घबड़ा गया, कंप गया, रोआं-रोआं खड़ा
हो गया। ठंडी थी सांझ, लेकिन उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ
गईं। उसने कहा कि उफ! पाप अभी छिपा बैठा है! मैं तो सोचता था बाहर हो गया। वह घबड़ा
कर नदी पार करने लगा। उसने फिर उस युवती से न कहा कि मैं पार करा दूं। मन में सोचा,
मैंने कैसी भूल की कि मैंने यह सोचा! स्त्री के स्पर्श की बात सोची!
एक तरफ तो यह खयाल चलने लगा, जैसे-जैसे नदी में
थोड़ा आगे जाने लगा एक दूसरा खयाल भी मन में आने लगा कि क्या हर्ज था इसमें अगर हाथ
पकड़ कर मैं पार ही करा देता? दोनों बातें मन के भीतर खड़ी हो
गईं। एक तरफ वह धार्मिक मन था साधक का, वह दबाने लगा कि यह
क्या गलती है! भीतर से वासना कहने लगी, इसमें क्या हर्ज था?
हाथ पकड़ कर अगर नदी पार भी करा देते तो क्या हर्ज था? लेकिन एक रस भी भीतर प्रतीत होने लगा। वह बड़े द्वंद्व में पड़ गया।
वह नदी पार हुआ। तब उसे खयाल आया कि मेरा युवा साथी भी पीछे आने को है, कहीं वह भी इसी उपद्रव में न पड़ जाए जिसमें मैं पड़ गया। उसने लौट कर देखा,
देख कर दंग रह गया, वह युवक उस लड़की को कंधे
पर बिठा कर नदी पार कर रहा था। कई तरह की आग उसके मन में लग गई। एक तो यह कि इसे
ठीक करूंगा! इसे शिक्षा देनी होगी! यह तो भटका जा रहा है। मैं तो बूढ़ा हूं,
यह जवान है। अगर मेरी वासना नहीं गई तो इसकी वासना कैसे जाएगी?
एक तरफ उपदेश का मन हुआ, दूसरी तरफर् ईष्या भी
पकड़ी कि मैं चूक गया और यह युवक उसे कंधे पर लिए हुए है। दूसरी तरफर् ईष्या भी मन
में आई। जितनीर् ईष्या आई उतना ही उपदेश देने का और भी तीखा रस मन में उठने लगा।
अक्सर बूढ़े जवानों को जो उपदेश देते हैं, उसमेंर् ईष्या सम्मिलित होती है।र् ईष्या उस जीवन की जो उनका खो गया है और
जवानों के पास है, उस जीवन के प्रति एकर् ईष्या। उपदेश और
तीखे हो जाते हैं। उपदेश और कंडेमनेशन के और निंदा के हो जाते हैं। नरक भेजने की
इच्छा और गहरी हो जाती है कि भेज दो नरक इन सबको।
उसका भी मन हुआ: आज जाकर गुरु को कहूंगा। और आज तो इसे ठीक करना ही
होगा, आश्रम से निकलवा देना होगा। हद्द हो गई, संन्यासी और स्त्री को छुए! कंधे पर बिठा कर आए!
युवक आ गया था, बूढ़ा उससे बोला नहीं। कोई दो मील, तीन मील के फासले पर उनका आश्रम था। जब वे वहां पहुंच गए और सीढ़ियां चढ़ने
लगे तो उस बूढ़े ने कहा, मित्र, बर्दाश्त
के बाहर था जो तुमने किया है! और मजबूरी में मुझे जाकर आश्रम के प्रधान को कहना ही
पड़ेगा कि पाप हुआ है एक भिक्षु के द्वारा। कोई सजा की व्यवस्था करनी जरूरी है।
अन्यथा नियम टूट जाएगा, अनुशासन टूट जाएगा, सारा आश्रम भ्रष्ट हो जाएगा। तुमने क्यों उस लड़की को कंधे पर उठाया?
उस युवक ने कहा, भंते, मैं
तो उसे उठाया था कंधे पर और नदी के किनारे छोड़ भी आया, उस
बात को घटे काफी देर हो चुकी है, लेकिन आप उसे अब भी कंधों
पर उठाए हुए हैं। आप अब भी उसे कंधे पर उठाए हुए हैं!
जो दमन कर लेता है चीजों का, जीवन भर कंधे पर
उठानी पड़ती हैं वे चीजें जिनका दमन कर लेता है। सप्रेशन या दमन मार्ग नहीं है जीवन
के विकास का। जीवन में कुछ भी दमन करने जैसा नहीं है। फिर क्या? तो क्या हम हो जाएं पशु? जैसा मेरे मित्र ने पूछा है
कि फिर तो हम हो जाएं उच्छृंखल?
नहीं, वह मैं नहीं कह रहा हूं। जीवन में जो भी वृत्तियां
हैं, वेग हैं, जो भी इच्छाएं हैं,
वासनाएं हैं, कामनाएं हैं, उनके प्रति जागना है, उनको देखना है, पहचानना है, समझना है। उनकी अंडरस्टैंडिंग, उनके बाबत हमारी जितनी गहरी समझ होगी, वे समझ के
अनुपात में ही परिवर्तित होती चली जाती हैं। किसी भी वृत्ति को देखना शुरू करें,
वह वृत्ति परिवर्तित होने लगेगी। और बड़े रहस्यों का रहस्य यह है कि
जिस वृत्ति से आप घबड़ाते हैं और जिस वृत्ति को आप लाना चाहते हैं, उस वृत्ति का ठीक से जागने पर उसी दिशा में परिवर्तन होना शुरू हो जाता
है। देखें, प्रयोग करें, ध्यान करें
अपनी वृत्तियों पर। जिस वृत्ति को भी परिवर्तित करना हो उस वृत्ति से लड़ें नहीं,
पहली बात। उसके शत्रु न बनें, उसके मित्र बनें,
उसके प्रति जागें और देखें।
जीवन एक सहज स्वीकार है। जीवन को पूरे मन से स्वीकार करें, जीवन की निंदा न करें। जीवन को अंगीकार करें पूरे हृदय से, पूरे द्वार खोल कर। और फिर जीवन
में जो कुछ भी है, उसे समझें, समझने की
कोशिश करें, पहचानने की कोशिश करें। उस वृत्ति के सारे रूप
को देखें। और हैरान हो जाएंगे! जैसे ही उसे देखेंगे, जानेंगे,
पहचानेंगे, उसमें परिवर्तन शुरू हो जाता है।
उसमें एक अभूतपूर्व परिवर्तन शुरू हो जाता है। हमने देखा नहीं है, पहचाना नहीं है, इसलिए हम दमन करते हैं। और दमन,
दमन सुसंस्कृत नहीं करता मनुष्य को, बल्कि और
विकृत करता है।
तो दमन के मैं पक्ष में नहीं हूं; वृत्तियों के ज्ञान
के पक्ष में हूं। जीवन के मैं विरोध में नहीं हूं; जीवन के
समग्र स्वीकार के पक्ष में हूं। अब तक जो धर्म जमीन पर प्रचलित रहे हैं और जो
बातें और शिक्षाएं लोगों को कही गई हैं, वे सब लाइफ निगेटिव
हैं, उन सबसे जीवन का निषेध होता है। जीवन का निषेध जो धर्म
करते हैं वे धर्म कभी मनुष्य को सुखी न कर सकेंगे और आनंदित न कर सकेंगे। चाहिए
जीवन का स्वीकार, लाइफ अफर्मेशन; चाहिए
समग्र जीवन का पूर्ण स्वीकार। जब जीवन पूर्ण स्वीकृत होता है और हम उस जीवन के
प्रति जागते हैं, ज्ञान से भरते हैं, तो
परिवर्तन शुरू हो जाता है। एक दीया जलाएं और अपने भीतर ले जाएं। ध्यान के दीये को
जलाएं और अपने भीतर ले जाएं और खोजें वहां।
बुद्ध ने एक बात कही है, उसे कह कर मैं अपनी
चर्चा पूरी करूंगा।
बुद्ध ने कहा है, जिस घर में अंधेरा होता है उसमें
चोर आते हैं। जिस घर में पहरेदार नहीं होता है उसमें चोर आते हैं। लेकिन जिस घर
में दीया जलता होता है उसमें चोर आने में डरते हैं। और जिस घर के द्वार पर पहरेदार
बैठा होता है उसमें तो चोर कभी नहीं आते। बुद्ध ने कहा, ऐसा
ही मनुष्य का चित्त भी है। जिस चित्त में बोध का दीया जलता है, उस चित्त में वे वृत्तियां नहीं आतीं जो घातक हैं। और जिस चित्त पर सजगता
का, जागरूकता का, अवेयरनेस का पहरेदार
बैठा होता है, उस चित्त में तो कोई भी बुराई, कोई भी बुराई प्रवेश करने में असमर्थ हो जाती है।
मन को बनाएं ऐसा मंदिर कि जहां ध्यान का दीया जलता हो, जहां जागरूकता का पहरेदार बैठा हो। ध्यान का दीया और जागरूकता का पहरा हो
चित्त पर, तो यही सामान्य सा दिखता जीवन अमृत जीवन में
परिवर्तित हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर तो परमात्मा छिपा है, लेकिन हम जागेंगे तो ही उसे पा सकेंगे।
इन तीन दिनों में जो भी मैंने आपसे कहा है, एक शब्द में उसे कह दूं: वह है जागरूकता, जागरूकता,
समग्र रूप से जीवन के प्रति जागरूकता। जो जागता है वह जीवन को
उपलब्ध हो जाता है।
मेरी बातों को तीन दिन तक बहुत शांति से सुना है, बहुत सी ऐसी बातों को भी जिनसे मन में अशांति पैदा हुई होगी। मेरी बातों
को इतने प्रेम से सुना है, बहुत सी ऐसी बातों को भी जिनको
प्रेम से सुनने में बड़ी अड़चन हुई होगी। मेरी बातों को इतने-इतने धैर्य से सुना है,
कई ऐसी बातों को जिनमें धैर्य टूटने लगा होगा। उस सबके लिए
बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में एक ही बात की प्रार्थना करता हूं और वह यह कि
मैंने जो भी कहा है उसे स्वीकार न करना, उसे अस्वीकार न
करना। उसे सोचना, समझना, विचारना।
सोचने, विचारने, समझने से शायद उसमें
से कुछ दिखाई पड़ जाए। और जो दिखाई पड़ जाए कुछ, वह आपका हो
जाएगा, वह मेरा नहीं रह जाता है।
परमात्मा करे उस प्रकाश में, उस ज्ञान में,
उस अमृत-आलोक में सबका जागना हो सके जो सबका जन्मसिद्ध अधिकार है।
और जिसे हम अपने ही हाथों खोए बैठे हैं। कोई और जिम्मेवार नहीं है। परमात्मा करे
सबका जो स्वरूप-सिद्ध अधिकार है वह उसे उपलब्ध हो सके।
पुनः-पुनः बहुत-बहुत धन्यवाद। और अंत में सबके
भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार
करें।
समाप्त
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