रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)
ओशो
आठवां-प्रवचन
आदमी की एकमात्र कमजोरी--अहंकार
सत्य की खोज या स्वयं की खोज या परमात्मा की खोज न तो ज्ञान से होती
है, न भक्ति से; क्योंकि ज्ञान भी हमारे अहंकार के
केंद्र पर इकट्ठा हो जाता है और भक्ति भी। मनुष्य का अहंकार जहां है, वहां कोई संभावना सत्य के द्वार खुलने की नहीं है। और मनुष्य जो कुछ भी
करेगा, वह सभी उसके अहंकार का पोषण बन जाता है। मनुष्य जो
कुछ भी करेगा उस सबके पीछे, मैं कर रहा हूं, इस भावना को छोड़ना असंभव है। वह चाहे समर्पण कर दे, तो
भी मैंने किया है समर्पण, यह बोध पीछे खड़ा रह जाएगा। वह चाहे
सेवा करे, वह चाहे प्रेम करे, वह चाहे
प्रार्थना करे, वह चाहे शास्त्रों से ज्ञान को अर्जित करे,
लेकिन मैं का भाव, ईगो, अहंकार
पीछे खड़ा रहेगा। और जो कुछ भी किया जाएगा उस सबसे वह अहंकार और भी बलिष्ठ हो जाता
है।
अहंकार के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है, अहंकार के अतिरिक्त और कोई अवरोध नहीं है, अहंकार के
अतिरिक्त और कोई बंद द्वार नहीं है। इसलिए मनुष्य कुछ भी करे--चाहे ज्ञान, चाहे भक्ति, चाहे त्याग--जो भी मनुष्य करेगा,
उसके द्वारा नहीं पहुंचा जा सकता है। इसलिए मैंने पहली रात आपको कहा
था: जो दौड़ेगा वह खो देगा, जो रुक जाएगा वह पा लेता है;
जो कुछ करेगा वह नहीं पा सकेगा, लेकिन जो न
करने की स्थिति में ठहर जाएगा वह निश्चित ही उपलब्ध कर लेता है।
तो आज की सुबह एक छोटी सी घटना से मैं चर्चा को शुरू करना चाहता हूं।
एक बिलकुल ही काल्पनिक घटना है, स्वप्न में उसे देखा
था। कोई दो हजार वर्ष पहले यूनान में एक फकीर था डायोजनीज। वह आदमियों के साथ नहीं
रहता था, उसने दो-चार कुत्ते पाल रखे थे, उन्हीं के साथ रहता था। एक छोटी सी गुहा में कुत्ते ही उसके संगी-साथी थे।
दो हजार वर्ष पहले की बात है, उसकी गुहा में मैं उससे मिलने
गया। तो मैंने उससे पूछा कि यहां कोई मनुष्य दिखाई नहीं पड़ता है! तुम अकेले हो और
ये सारे कुत्ते हैं। क्या आदमियों के साथ रहना छोड़ दिया?
तो उस फकीर डायोजनीज ने कहा, कहां आदमी, कहां कुत्ता! कुत्ते से आदमी की तुलना करना भी अभद्र है! आदमी के साथ
मैंने रहने योग्य नहीं पाया इसलिए कुत्तों के साथ रहने लगा हूं। और कुत्ता बहुत
बुद्धिमान प्राणी है। और डायोजनीज ने कहा कि एक वक्त आएगा कि कोई भी आदमी किसी
आदमी के साथ रहना पसंद नहीं करेगा। उसकी बजाय तो एक आदमी कुत्ता पाल लेगा और उसके
साथ ही रहेगा। आदमी कुत्ते से बहुत बदतर है, वह कहने लगा।
मैं बहुत हैरान हुआ और मैंने पूछा, किस कारण से ऐसा है?
लेकिन डायोजनीज तो नहीं हंसा, उसने तो कुछ नहीं कहा,
उसके कुत्ते हंसने लगे। यह देख कर मैं बहुत हैरान हुआ, क्योंकि आदमी के सिवाय कोई भी जानवर हंसता नहीं है। हंसना आदमी के ही जीवन
की बात है, और कोई पशु-पक्षी हंसता नहीं है। वे कुत्ते हंसने
लगे तो मैंने कहा, यह क्या मामला है? ये
कुत्ते हंसते भी हैं?
तो उन कुत्तों में से एक बोला और उसने कहा, न केवल हम हंसते हैं, बल्कि हम बोलते भी हैं। आदमी
के साथ रहने से यह बिगाड़ हम में आ गया। ये डायोजनीज के साथ रहते-रहते बिगड़ गए।
हंसने भी लगे हैं हम, बोलने भी लगे हैं। कई आदमी जैसी बातें
करने लगे हैं। और उस कुत्ते ने मुझसे कहा कि डायोजनीज सोचता है कि कुत्ते बहुत भले
हैं, इनके साथ रहें; और हो सकता है एक
वक्त आए कि और आदमी भी ऐसा सोचने लगें। लेकिन असली रहस्य न डायोजनीज को पता है और
न किसी दूसरे आदमी को। असली रहस्य तो हम कुत्तों को पता है कि बात क्या है। हम
कुत्तों ने आदमी की कमजोरी पहचान ली है। हम पूंछ हिलाते हैं और आदमी खुश हो जाता
है। सिर्फ कुत्ते ही आदमी की कमजोरी अब तक समझ पाए हैं, और
कोई पशु-पक्षी नहीं समझ पाया। इसलिए आदमी हम से खुश रहता है। हम पूंछ हिलाते हैं,
वह प्रसन्न हो जाता है। इतना कमजोर है आदमी कि हमारी पूंछ हिलाने से
भी प्रसन्न होता है। अहंकार उसकी कमजोरी है।
मेरा सपना टूट गया यह सुन कर। लेकिन फिर बहुत सोचता रहा और पाया कि उन
कुत्तों ने जो कहा था, ठीक कहा था। अहंकार आदमी की कमजोरी है। और इसी कमजोरी
के केंद्र पर उसका सारा जीवन निर्मित होता है। और इसी कमजोरी के लिए वह जीता है,
मरता है। इसी कमजोरी पर सारा जीवन व्यतीत कर देता है। कौन सी बात के
लिए? एक खयाल है: मैं कुछ हूं! मैं कुछ हूं! और जिस बात से
इस खयाल को पुष्टि मिलती है, जिस बात से इस खयाल को बल मिलता
है, वह उसी बात को करने में जीवन को व्यतीत कर देता है। और
क्या पाता है आखिर में? आखिर में मौत आती है और सब बहा ले
जाती है। सारा अहंकार, सारे जीवन में जिसे इकट्ठा किया था और
मजबूत किया था, वह बिखर जाता है और टूट जाता है।
मनुष्य मृत्यु से इसलिए नहीं डरता है कि पता नहीं मृत्यु में क्या
होगा। नहीं, यह असली भय नहीं है, असली फियर
यह नहीं है। असली भय यह है कि उसने जिस अहंकार को जीवन भर निर्मित किया है वह बिखर
जाएगा, टूट जाएगा। इसलिए मौत से डरता है। मौत से इसलिए नहीं
डरता है कि मौत भयावनी है। क्योंकि मौत को तो किसी ने देखा नहीं है, उसके भय का कोई भी कारण नहीं है। जिसे हम जानते नहीं हैं उससे भयभीत कैसे
होंगे? भयभीत होने के लिए तो जानना जरूरी है, पहचानना जरूरी है। मृत्यु तो है अपरिचित और अज्ञात, उससे
भय का क्या कारण है? कौन कह सकता है कि वह जीवन से बेहतर
नहीं होगी? कौन कह सकता है कि वह और परम जीवन नहीं होगी?
कौन कह सकता है कि वह नये जीवन की शुरुआत नहीं होगी? मृत्यु को तो हम जानते नहीं इसलिए उससे तो भय का कोई भी कारण नहीं। भय किस
बात का है?
भय है इस बात का कि जिसे जीवन भर हमने खड़ा किया और श्रम किया, मौत उसे बिखरा देती है और बहा ले जाती है।
लेकिन हम जीते हैं इसी केंद्र के इर्द-गिर्द। साधारण संसार में जीने
वाला भी और जिसको हम कहते हैं त्यागी और संन्यासी वह भी, सभी इस अहंकार के केंद्र पर जीते हैं। कोई इस जीवन में बड़े भवन बनाना
चाहता है, कोई परलोक में। कोई इस जीवन में सुरक्षा कर लेना
चाहता है, कोई आने वाले जीवन में। कोई धन पाना चाहता है,
यश पाना चाहता है, कोई परमात्मा को पाना चाहता
है। लेकिन सारी दौड़ अहंकार की है, क्योंकि जहां पाने की दौड़
है वहां अहंकार की दौड़ है। कौन पाना चाहता है? क्यों पाना
चाहता है? कौन है यह पाने वाला? बहुत
कमजोर है मन उस बिंदु पर।
एक फकीर था नसरुद्दीन। वह जब फकीर नहीं हुआ था तो किसी गांव में किसी
जंगल के पास एक छोटी सी दुकान करता था, एक होटल चलाता था। उस
देश का राजा एक बार जंगल में शिकार करने को निकला, भटक गया
और भूल से रात उस गांव में पहुंच गया। छोटा सा दो-चार झोपड़ों का गांव था जहां नसरुद्दीन की दुकान थी। रात वहीं ठहरना पड़ा।
सुबह उठ कर उसने दो-चार अंडे उस दुकान से खरीदे और पीछे पूछा कि कितने दाम हैं?
तो नसरुद्दीन ने कहा, सौ स्वर्ण अशर्फियां।
राजा तो हैरान हो गया! उसने कहा कि बड़ी आश्चर्य की बात है! आर ऐग्स सो
रेयर हियर? क्या मुर्गी के अंडे इतनी मुश्किल से यहां मिलते हैं
कि चार अंडों के दाम सौ स्वर्ण अशर्फियां? दो-चार पैसे में
मिल जाते हैं राजधानी में तो ये।
नसरुद्दीन ने कहा, ऐग्स आर नॉट रेयर सर, बट किंग्स आर! अंडे तो मुश्किल से यहां नहीं मिलते, लेकिन
राजा-महाराजा मुश्किल से इधर आते हैं।
उस राजा ने फौरन सौ रुपये निकाल कर दे दिए।
वह राजा गया भी नहीं था कि नसरुद्दीन की पत्नी ने पूछा, बड़ी हैरानी की बात है कि उसने फिर कुछ भी नहीं कहा और सौ रुपये निकाल कर दे
दिए!
नसरुद्दीन ने कहा, मैं आदमी की कमजोरी जानता हूं।
राजा बहुत मुश्किल से आते हैं। बस फिर कमजोरी के बिंदु को छू लिया। और नसरुद्दीन
ने कहा कि एक बार और ऐसी घटना घटी थी।
मैं एक राजदरबार में गया था। मैंने एक पगड़ी पहन रखी थी जो बड़ी सस्ती
थी, लेकिन बड़ी रंगीन थी, बड़ी चमकदार थी। अक्सर ऐसा होता
है, सस्ती चीजें रंगीन और चमकदार होती हैं। रंगीन और चमकदार
होने में उनका सस्तापन छिप जाता है। तो एक सस्ती पगड़ी पहन कर मैं राजदरबार में गया
था। चमकदार पगड़ी को देख कर सम्राट ने मुझसे पूछा, कितने की
है? मैंने कहा, एक हजार रुपये की। वह
राजा चकित हो गया! दस-पांच रुपया भी उसका मूल्य नहीं था। राजा के बड़े वजीर ने राजा
के कान में कहा कि यह आदमी बहुत बेईमान मालूम होता है। यह दो-चार रुपये की पगड़ी है,
कहीं इसकी बातों में मत आ जाना। तभी मैंने कहा कि महाराज, मैं जाऊं? मैंने यह पगड़ी खरीदी थी एक हजार रुपये में
और मुझे कहा गया था कि इस जमीन पर एक ऐसा महाराजा भी है जो इसे दो हजार रुपये में
भी खरीद सकता है। तो मैं जाऊं? यह वह दरबार नहीं है, यह वह महाराजा नहीं है। मैं भूल से आ गया। किसी और दरबार में खोजूं,
कोई और महाराजा को ढूंढूं जो इसे दो हजार में खरीद सके। वह आप नहीं
मालूम होते, यह दरबार वह नहीं मालूम होता। उस राजा ने कहा,
दो हजार रुपये दे दो और पगड़ी खरीद लो।
वह पगड़ी खरीद ली गई और दो हजार रुपये दे दिए गए। जब मैं बाहर निकलता
था, उस वजीर ने मुझसे कहा कि तुम बड़े अजीब आदमी हो! मैंने उस वजीर के कान में
कहा कि महानुभाव, आप पगड़ियों के दाम जानते होंगे, मैं आदमियों की कमजोरी जानता हूं।
आदमी बड़ा कमजोर है एक बिंदु पर। अहंकार के बिंदु पर सारी कमजोरी है, सारी वीकनेस है। लेकिन उसको ही हम समझते हैं कि वही है हमारा बल, वही है हमारी स्टें्रग्थ, वही है हमारी शक्ति।
कमजोरी को ही अगर कोई शक्ति समझ बैठा हो तो फिर कमजोरी से छुटकारा होना असंभव है
और बीमारी को किसी ने स्वास्थ्य समझ लिया हो, तब तो बड़ी
कठिनाई है। लेकिन हम सारे लोग कमजोरी को ही बल समझे हुए हैं। और उसको बल मान कर
जीवन भर उसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं, परिभ्रमण करते हैं। और
यह भी नहीं देखते कि उसी परिभ्रमण से सारा दुख, सारी अशांति,
सारी बेचैनी, सारी पीड़ा पैदा होती है।
क्या कभी अपने किसी दुख के पीछे झांक कर देखा है? क्या कभी अपनी पीड़ा, अशांति और चिंता और अपमान के
पीछे कभी खोजा है? क्या मिलेगा वहां?
खोजने पर मिलेगा अहंकार। खोजने पर मिलेगा मैं। सारी चोट, सारे जीवन के आघात लगते हैं मेरे मैं पर। और मैं तिलमिलाता हूं, तिलमिलाता हूं और सुरक्षा की व्यवस्था करता हूं, दीवालें
बनाता हूं कि कोई चोट न पहुंचा सके। और इस भांति जीने की कोशिश करता हूं निरंतर कि
मेरा यह मैं फले और फूले।
लेकिन अहंकार के वृक्ष पर दुख, चिंताओं और पीड़ा के
अतिरिक्त कोई फल नहीं लगते। नहीं लग सकते हैं, कभी नहीं लगे
हैं, कभी नहीं लगेंगे। वह अहंकार के बीज में ही दुख की
संभावनाएं हैं--पीड़ा की, चिंता की, अपमान
की, क्रोध की, युद्ध की, हिंसा की, घृणा की--वहीं सारी संभावनाएं इकट्ठी हैं।
और बड़ा मजा यह है कि हम बिना यह सोचे कि मैं कौन हूं, निरंतर
कहे जाते हैं कि मैं हूं, मैं हूं, मैं
कुछ हूं। बिना यह जाने कि मैं कौन हूं?
दुनिया में दो तरह के मार्ग हैं। एक मार्ग है जिस पर लिखा है: मैं कुछ
हूं। और दूसरा मार्ग है जिस पर लिखा है: मैं कौन हूं? अधार्मिक आदमी वह है जो, मैं कुछ हूं, इस मार्ग पर यात्रा करता है। धार्मिक आदमी वह है, इसके
पहले कि वह कहे कि मैं कुछ हूं, वह जान लेना चाहता है--मैं
कौन हूं? और बड़े रहस्य की बात यह है कि जब वह खोजने निकलता
है कि मैं कौन हूं, तो पाता है कि मैं तो है ही नहीं। और जो
इस खोज पर निकलता है कि मैं कुछ हूं, वह खोजता है, खोजता है, जीवन गंवा देता है। वह कुछ तो हो नहीं
पाता, यह भी जानने से वंचित रह जाता है कि क्या था।
च्वांगत्से नाम का एक चीनी फकीर एक रात अपने गांव लौटता था। बीच में
एक मरघट पड़ता था और मरघट पर एक खोपड़ी पड़ी थी, उसके पैर से टकरा गई।
उसने उस खोपड़ी को उठा लिया, अपने सिर पर रख कर उसे घर आया।
उसके मित्रों ने कहा, यह क्या करते हो?
उसने कहा, बड़ी भूल हो गई है, इस खोपड़ी से
मेरा पैर लग गया। और वह मरघट कोई छोटे लोगों का मरघट नहीं था, बड़े लोगों का मरघट था।
जिंदगी में तो छोटे और बड़े होते ही हैं, मरघट भी छोटे और बड़े
लोगों के अलग-अलग होते हैं। मौत के बाद भी हम फासला रखते हैं कि तुम छोटे आदमी थे
और मैं बड़ा आदमी था।
तो मरघट वह बड़े लोगों का था, खोपड़ी किसी बड़े आदमी
की है और पैर मेरा लग गया है। यह तो संयोग की बात है कि यह आदमी मर गया, नहीं तो आज मेरे सिर का कोई बचाव नहीं हो सकता था। अगर कहीं यह जिंदा होता
और मेरा पैर इसके सिर से लग जाता, तो फिर मेरा कोई बचाव नहीं
हो सकता था। यह तो बिलकुल संयोग की बात है कि यह मर गया। लेकिन इतनी सी संयोग की
बात के लिए मुझे तो भूल नहीं करनी चाहिए, क्षमा तो मुझे
मांगनी होगी। इसलिए इसको सिर पर रख कर आया हूं, घर इससे
प्रार्थना करूंगा कि मुझे माफ कर दो!
वे लोग हंसने लगे और उन्होंने कहा कि क्या पागलपन की बातें करते हो?
उसने कहा, और इसलिए भी इसे साथ ले आया हूं कि इसे रखे रहूंगा
अपने पास, ताकि मुझे स्मरण रहे कि आज नहीं कल मेरा सिर भी
किसी मरघट में पड़ा रहेगा और लोगों की लातें लगेंगी। और जब लोगों की लातें लगनी ही
हैं और सिर मिट्टी में गिर ही जाना है और लोगों के कदम उस पर से चलेंगे, तो क्या फर्क पड़ता है कि किसी ने जिंदा में भी लात मार दी? क्या फर्क पड़ता है? कितना फर्क पड़ता है? यह मुझे स्मरण रहे, इसलिए इसे साथ ले आया हूं।
जिंदगी भर जिस अहंकार का हम पोषण करते हैं, आखिर में पाते हैं कि वह मिट्टी में पड़ा है और लोगों के पैर उस पर पड़ रहे
हैं। जिस अहंकार को हम जीवन भर सम्हालते हैं, पाते हैं कि वह
कहां है? धूल होकर, राख होकर उड़ गया,
कहीं खोजने से उसका कोई पता नहीं लगता। आग में धुआं हो गया है,
मिट्टी हो गया है। कहां है? कितने लोग इस जमीन
पर रहे हैं! जिस जगह पर भी हम बैठे हैं वहां भी न मालूम कितने लोग दफनाए गए होंगे।
जमीन पर ऐसा कोई हिस्सा नहीं है जहां करोड़ों-करोड़ों लोग न दफना दिए गए हों। जमीन
पर कोई ऐसा हिस्सा नहीं है जो मरघट न हो। और कितने उनके अहंकार रहे होंगे! और उस
अहंकार के पीछे कितने उन्होंने कष्ट झेले होंगे, और संघर्ष
किए होंगे, और हिंसा की होगी, और घृणा
की होगी, और सपने दुख के और पीड़ा के देखे होंगे, और रातें खो दी होंगी, नींद खो दी होगी, और जीवन गंवा दिया होगा। वे सब लोग कहां हैं? वे
सारे अहंकार कहां हैं? और जिन्होंने जीवन भर अहंकार की पीड़ा
झेली हो, क्या उन्हें कोई शांति और आनंद का अनुभव हो पाया
होगा? क्या उन्होंने कोई सत्य जान पाया होगा?
लेकिन हम भी उसी रास्ते पर हैं जिस रास्ते पर वे थे। और हम भी वही
यात्रा कर रहे हैं। और हर आदमी वही यात्रा करता है, वही भूल-भरी, जो उसके पहले न मालूम कितने लोगों ने की है। लेकिन सचेत होकर खोज नहीं
करता कि मैं यह क्या कर रहा हूं? और कोई ऐसा न सोचे कि जो
बड़े भवन बनाते हैं, बड़े महल बनाते हैं, बड़े पदों की खोज करते हैं, वे ही अहंकारी हैं,
कोई ऐसा न सोचे। जो सब छोड़ कर नग्न खड़े हो जाते हैं उनके अहंकार का
भी कोई अंत नहीं है। और जो सब त्याग करके संन्यासी बन जाते हैं उनके भी अहंकार का
कोई अंत नहीं है।
अहंकार बड़ी अदभुत बात है! धन से भी अपने को भर लेता है, धन के त्याग से भी अपने को भर लेता है। पद से भी अपने को भर लेता है,
पद के त्याग से भी अपने को भर लेता है। महलों में भी अपना भोजन खोज
लेता है, झोपड़ों में भी। संसारी में भी और संन्यासी में भी।
जहां भी मैं कुछ करता हूं, वहीं अहंकार उसी करने से अपना
पोषण खोजने लगता है। फिर हम क्या करें? अहंकार को छोड़ें?
छोड़ना तो एक प्रयत्न होगा और छोड़ने से कभी अहंकार छूटेगा नहीं। हां, यह हो सकता है कि विनम्रता ऊपर से ओढ़ ली जाए। और तब विनम्र आदमी कहता है
कि मुझसे ज्यादा विनम्र आदमी और कोई भी नहीं है। और यह घोषणा अहंकार की घोषणा है।
विनम्रता भी अहंकार का भोजन बन सकती है। अहंकार का मतलब है: मैं हूं! और मैं कुछ
हूं जो कोई भी नहीं है। फिर यह कोई भी रूप ले सकता है। एक संन्यासी कह सकता है:
मैं हूं संन्यासी, और कोई नहीं है। और मैं हूं त्यागी,
और बाकी सब झूठे हैं। और तब अहंकार वहां खड़ा हो जाएगा।
अहंकार को छोड़ें कैसे? अहंकार छोड़ा नहीं जा
सकता। फिर क्या हो ? क्या किया जाए? और
यही अहंकार है जो चित्त को भरे हुए है। और इसी अहंकार के कारण चित्त खाली नहीं हो
पाता, शून्य नहीं हो पाता, शांत नहीं
हो पाता, मौन नहीं हो पाता। क्या करें?
पहली बात कुछ करने की नहीं है, पहली बात इस खोजने की
है कि यह अहंकार कहां है? क्या है? इसे
भीतर खोजने की जरूरत है, यह कहां है और क्या है? सच में यह कुछ है या कि कोई छाया मन में बैठ गई है और हम उसके पीछे दौड़
रहे हैं? यह कुछ है या कि जीवन की किसी गतिमयता के कारण एक
पैदा हुआ भ्रम है?
हम एक मशाल को उठा लें और जोर से घुमाने लगें, तो अग्नि का एक वृत्त, एक सर्किल बन जाता है। सर्किल
कहीं होता नहीं, वृत्त कहीं होता नहीं। मशाल इतनी तेजी से
घूमती है कि बीच के अंतराल और गैप्स दिखाई नहीं पड़ते हैं तो पूरा सर्किल मालूम
पड़ता है। मशाल को रोक दें तो हम पाते हैं कि सर्किल कहीं भी नहीं था, केवल मशाल थी।
कहीं यह अहंकार भी जीवन की तीव्र गति, विचार की तीव्र गति
के कारण पैदा हुआ कोई वृत्त तो नहीं है, कोई बिंदु तो नहीं
है? और अगर कहीं ऐसा कोई बिंदु है जो केवल तीव्र गति के कारण
पैदा हो गया है और ठोस मालूम पड़ने लगा है...
क्या आपको पता है, जो चीजें आपको ठोस मालूम पड़ रही
हैं, वे कोई भी ठोस नहीं हैं! इलेक्ट्रांस, विद्युत के कण इतनी तेजी से घूम रहे हैं उन ठोस चीजों में कि उनके बीच की
खाली जगह दिखाई नहीं पड़ती है इसलिए वे ठोस मालूम पड़ रही हैं। इस जगत में कोई चीज
ठोस नहीं है, सारी चीजें तरल हैं। और सारी चीजों के बीच बहुत
खाली जगह है। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक रेल के इंजन को इतना सिकोड़ा जा सकता है कि
वह माचिस की एक डिब्बी में बंद हो जाए, इतनी खाली जगह उस ठोस
लोहे के भीतर है। और वैज्ञानिक तो कहते हैं कि सारी दुनिया को इतना सिकोड़ा जा सकता
है कि वह एक छोटी सी गेंद बन जाए, इतनी खाली जगह उसके भीतर
है। लेकिन अणु दौड़ रहे हैं तीव्र गति से। उनकी तीव्रता, उनकी
जो गति की तीव्रता है, उसके कारण बीच की खाली जगह दिखाई नहीं
पड़ती है।
एक पंखा जोर से घूमता है। तीन पंखुड़ियां होती हैं, बीच में बहुत खाली जगह होती है। लेकिन फिर वह दिखाई नहीं पड़ती। पंखा तेजी
से घूमता है, खाली जगह विलीन हो जाती है।
तेजी से घूमती हुई चीजें ठोसपन का खयाल पैदा कर देती हैं। कहीं ऐसा तो
नहीं है कि भीतर हम खोजने जाएं और पाएं कि यह जो अहंकार बहुत ठोस मालूम होता है, हम पाएं कि यह है ही नहीं, किसी चीज की तीव्र गति का
भ्रम है!
जैसे ही इसकी खोज में लगेंगे, ऐसा ही पाया जाता है।
छोड़ना नहीं पड़ता अहंकार, खोज से पाया जाता है कि वह तो है ही
नहीं। और तब, तब जो शेष स्थिति रह जाती है मन की, वह न तो विनम्रता है, न अहंकार है। वह कुछ बात ही
अलग है जिसका अहंकार से कोई भी संबंध नहीं रहा, क्योंकि पाया
गया कि वहां कोई अहंकार नहीं है।
घर में हम अंधेरे में बैठे हों तो अंधेरा दिखाई पड़ता है, मालूम होता है कि अंधेरा है। लेकिन एक दीया लेकर अंधेरे को खोजने आ जाएं
तो बड़ी मुश्किल हो जाती है, पाया जाता है कि अंधेरा नहीं है।
एक बार अंधेरे ने भगवान की अदालत में शिकायत कर दी थी कि यह सूरज मेरे
बहुत बुरी तरह से पीछे पड़ा है! रोज सुबह से मेरे पीछे पड़ जाता है, मेरे प्राण संकट में ला दिए हैं। तो भगवान ने सूरज को बुलाया और पूछा कि
अंधकार की शिकायत आई है कि तुम बुरी तरह उसके नाहक पीछे पड़े हो! कौन सी शत्रुता है
तुम्हारी उससे?
सूरज ने कहा, अंधकार! आज तक मेरा उससे मिलना नहीं हुआ। वह कहां है?
वह शिकायत करने वाला कहां है? मैं उसे देखूं
तो मैं कुछ बताऊं कि मेरी कोई शत्रुता है या नहीं।
लेकिन भगवान भी थक गए, हजारों साल हो गए इस
शिकायत को हुए, अब तक वे अंधकार को सूरज के सामने नहीं ला
सके। सूरज ने कई दफा जाकर उनसे कह दिया कि क्या मामला है? कहां
है शिकायत करने वाला? तो अब तो भगवान को भी मान लेना पड़ा है
कि बड़ी मुश्किल है, सूरज के सामने अंधकार को नहीं लाया जा
सकता।
असल में अंधकार है ही नहीं। अगर होता तो बराबर उसे लाया जा सकता था।
अगर होता, अगर उसमें कोई एग्झिस्टेंस होता, तो उसे लाया जा सकता था। लेकिन उसका कोई एग्झिस्टेंस ही नहीं है। वह केवल
एब्सेंस है। अंधकार प्रकाश की अनुपस्थिति है, अंधकार का अपना
कोई होना नहीं है, उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं है। वह केवल
प्रकाश की गैर-मौजूदगी का नाम है। इसलिए प्रकाश के सामने उसे कभी नहीं लाया जा
सकता। क्योंकि जहां प्रकाश मौजूद है अब वहां गैर-मौजूदगी कैसे लाई जा सकती है?
अंधकार है एब्सेंस, प्रेजेंस नहीं है किसी चीज
की।
अहंकार भी है एब्सेंस, प्रेजेंस नहीं है
किसी चीज की। हमारे भीतर जागे हुए होने का अभाव है, हम जागे
हुए नहीं है भीतर, इसलिए अहंकार है। अहंकार हमारे जागे हुए न
होने का, हमारी गैर-मौजूदगी का, हमारी
अनुपस्थिति का, हमारी एब्सेंस का परिणाम है। अहंकार की अपनी
कोई सत्ता नहीं है। अहंकार एग्झिस्टेंशियल नहीं है।
दुनिया में दो तरह की चीजें हैं: एक वे जिनकी सत्ता होती है; और एक वे जो किसी सत्ता का अभाव होती हैं, उनकी अपनी
कोई सत्ता नहीं होती। आत्मा की तो सत्ता है, अहंकार की कोई
सत्ता नहीं है। इसलिए जो लोग अहंकार को भरने की कोशिश करते हैं वे तो भूल में हैं
ही, जो लोग अहंकार को छोड़ने की कोशिश करते हैं वे और भी गहरी
भूल में हैं। जो नहीं है उसे छोड़िएगा कैसे?
तो जिसको हम कहते हैं अहंकारी, वह एक भूल है;
जिसको हम कहते हैं विनम्र, वह दूसरी भूल है।
छोड़िएगा कैसे? जो नहीं है उसे छोड़ा जा सकता है? जो नहीं है उसे भरा भी नहीं जा सकता, उसे छोड़ा भी
नहीं जा सकता।
घर में अंधकार भरा है, हम सारे लोग इकट्ठे
होकर अंधकार की पोटलियां बांधें और बाहर फेंकने जाएं, क्या
हम अंधकार को बाहर फेंक सकेंगे? हम पोटलियां बाहर ले जाएंगे,
अंधकार पीछे के पीछे छूट जाएगा, पोटलियां खाली
बाहर पहुंचेंगी। क्या हम बंदूक और तलवार लाएं और अंधकार को डराएं-धमकाएं कि बाहर
निकलो, तो अंधकार बाहर निकलेगा? कि हम
सब संगठित हो जाएं और इकट्ठी ताकत लगाएं तो हम अंधकार को बाहर निकाल सकेंगे?
या कि हम लड़ने लगें अंधकार से तो हम अंधकार को बाहर निकाल सकेंगे?
नहीं; हम पागल हो जाएंगे। क्योंकि हम कितने ही लड़ें,
अंधकार वहीं रहेगा। और कितनी ही हम बंदूकत्तलवारें चलाएं, कुछ भी न होगा, अंधकार जहां का तहां रहेगा। अंधकार
कुछ होता तो तलवार भी काम कर देती, अंधकार कुछ होता तो
गठरियों में बांध कर बाहर भी फेंक आते, लेकिन अंधकार तो कुछ
है नहीं।
तो अंधकार से तो कोई लड़ता नहीं है, लेकिन अहंकार से लोग
लड़ते हैं और यह नहीं जान पाते कि अंधकार और अहंकार बिलकुल एक जैसे हैं। इनमें जरा
भी भेद नहीं है। जरा भी, रंच मात्र भी भेद नहीं है। इसीलिए
तो अहंकार से लड़-लड़ कर मर जाते हैं, लेकिन फिर आखिर में पाते
हैं कि अहंकार वहीं का वहीं खड़ा है, वह कहीं जाता नहीं;
वह वहीं का वहीं खड़ा है, वह कहीं हिलता-डुलता
नहीं। तब सोचने लगते हैं: अहंकार बड़ी शक्ति है, हम हार गए और
यह तो नहीं हारा। तब सोचने लगते हैं: अहंकार तो बड़ा मजबूत है, इससे जीतना असंभव है।
और मैं आपसे कहता हूं, अहंकार है ही नहीं,
मजबूत होने का तो सवाल ही नहीं, शक्ति का तो
सवाल ही नहीं है। अगर मजबूत भी होता तो किसी भांति हम हराने में समर्थ हो जाते।
कोई कितना ही मजबूत हो, उससे भी मजबूत हुआ जा सकता है। लेकिन
जो है ही नहीं उससे कैसे, उससे कैसे जीतिएगा? कैसे उसे हराइएगा? कैसे उसे मिटाइएगा?
अहंकार अंधकार की भांति है। हमारी अनुपस्थिति, भीतर हमारी एब्सेंस है, भीतर हम सोए हुए हैं इसलिए
अहंकार है। अगर भीतर हम जागेंगे, तो जागरण ने आज तक अहंकार
नहीं पाया है। तब न छोड़ना पड़ता है, न भरना पड़ता है। बस
अहंकार पाया ही नहीं जाता है। वह होता ही नहीं, वह है ही
नहीं। इसलिए मैं नहीं कहता हूं, अहंकार छोड़िए। जैसी कि
सामान्य शिक्षा है हजारों साल की कि अहंकार छोड़ो, अहंकार
छोड़ो, अभिमान छोड़ो। मैं कहता हूं, वह
शिक्षा गलत है। क्योंकि जो छोड़ने को कहती है वह मान लेती है कि वह है। और जिसको
हमने मान लिया कि है और जो नहीं है वस्तुतः, उसको छोड़ने में
जीवन नष्ट होगा और कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं होगा।
एक फकीर एक गांव में आने को था। उसकी बड़ी ख्याति थी, दूर-दूर तक नाम था, उसकी तपश्चर्या की खबरें देश के
बाहर तक पहुंच गई थीं। वह निपट नग्न रहता था, बड़ा तपस्वी था,
उपवासी था। आता था राजधानी में। उस राज्य का जो राजा था, बचपन का मित्र था उस फकीर का। सोचा उसने स्वागत का आयोजन करूं। बड़ा आयोजन
किया, सारे रास्तों पर बहुमूल्य कालीन बिछा दिए, सारे नगर में दीये जलवा दिए, सारे गांव में इत्र
छिड़कवा दिया, सुगंध भरवा दी।
फकीर मार्ग में था। लोगों ने उससे कहा कि राजा, जो तुम्हारा बचपन में मित्र था, तुम्हें हतप्रभ करना
चाहता है। उसने राज्य को ऐसा सजाया है, राजधानी को, ताकि तुम फीके पड़ जाओ, ना-कुछ दिखाई पड़ने लगो। ताकि
वह दिखा सके कि वह बड़ा सम्राट है, धन के अटूट अंबार उसके पास
हैं। तुम क्या हो, एक नंगे फकीर! तो अपनी धन-दौलत, अपनी शक्ति दिखाने के लिए राजधानी सजा रहा है।
फकीर ने कहा, कोई फिक्र न करो, देख लेंगे कि
क्या दिखलाना चाहता है!
जिस सांझ फकीर का आगमन हुआ, राजा गांव के बाहर
बड़ा तोरण-द्वार बना कर मौजूद था। उसकी रानियां, उसके वजीर,
सब मौजूद थे। उन्होंने बड़ा शाही स्वागत किया। लेकिन सब देख कर दंग
रह गए। गर्मी के उष्ण दिन थे, लेकिन फकीर, नंगा फकीर घुटनों तक कीचड़ से भरा हुआ था! सब हैरान हुए, इतनी कीचड़ तो कहीं होने की कोई संभावना नहीं थी। रेगिस्तानी देश था वह,
पानी मुश्किल से मिलता था, कीचड़ बनानी तो बहुत
ही कठिन थी। और वर्षा के दिन न थे, रास्ते सूखे पड़े थे और आग
उबल रहा था सूरज। कहां इतने घुटने से कीचड़ में भर गया होगा यह फकीर?
लेकिन एकदम से पूछना भी उचित नहीं था। फकीर उन ईरानी कालीनों पर कीचड़
भरे पैरों से चला। बहुमूल्य महल की सीढ़ियों पर भी कालीन बिछे थे, उन पर भी चला। महल के भीतर पहुंच कर राजा ने पूछा, कोई
संकट आया, कोई तकलीफ हुई है मालूम होता है। पैर इतने कीचड़ से
भरे हैं! क्या हुआ? कोई दुर्घटना हुई है?
उस फकीर ने कहा, नहीं, कोई
दुर्घटना नहीं हुई। तुम क्या समझते हो अपने को कि रास्तों पर ईरानी कालीन बिछा कर
तुम अपनी शान-शौकत दिखाना चाहते हो? तो हम भी फकीर हैं,
हम कीचड़ भरे पैर उन पर चल कर दिखला देंगे!
उस राजा ने उस फकीर को गले लगा लिया और कहा, मेरे मित्र, मैं तो सोचता था कि तुम बदल गए होओगे।
हम दोनों वहीं हैं जहां हमने विदा ली थी। मैं तो सोचता था कि मैं अहंकारी हूं
इसलिए साम्राज्य को बढ़ा रहा हूं। यह मेरी कल्पना में भी नहीं था कि तुम भी अहंकारी
हो इसलिए नंगे हो गए हो।
दुनिया में दो तरह के अहंकारी हैं। एक जो पद को, शक्ति को और धन को खोजते हैं। और एक जो पद का त्याग करते हैं, धन का त्याग करते हैं, शक्ति का त्याग करते हैं। ये
दो अतियां हैं अहंकार की, ये दोनों ही अहंकार हैं। एक तीसरी
भी जीवन-दिशा है और एक तीसरा भी अनुभव है, जो न तो अहंकार को
भरने का है और न छोड़ने का। जो इस सत्य को जानने का है कि अहंकार छाया थी, अनुपस्थिति थी। अहंकार है ही नहीं, था ही नहीं।
चित्त के भीतर जागरण से प्रतीति होगी: अहंकार अंधकार है। जागरण है
शून्य होने का उपाय, अहंकार है भरापन। और जो अहंकार से भरा है, स्मरण रखे, वह परमात्मा से खाली रह जाएगा। क्योंकि
आखिर परमात्मा को आमंत्रण देने जाएं तो भीतर जगह भी तो चाहिए कि वह आ सके, स्पेस तो चाहिए थोड़ी-बहुत, कोई स्थान तो चाहिए कि वह
भीतर आ सके। वह आ भी जाए द्वार पर तो क्या होगा? अगर भीतर हम
भरे हैं तो उसे द्वार से ही वापस लौट जाना होगा। और वह तो निरंतर द्वार पर खड़ा है,
लेकिन हम भीतर भरे हैं। और भीतर हम भरे हैं, क्योंकि
भीतर हम सोए हैं। भीतर सब मूर्च्छित और सोया हुआ है, भीतर
कोई जागरण की किरण नहीं है।
लेकिन कोई अपने सोए होने को स्वीकार नहीं करता। जैसे कोई पागल अपने
पागल होने को स्वीकार नहीं करता है, ऐसे कोई सोने वाला भी
यह स्वीकार नहीं करता है कि मैं सो रहा हूं। लेकिन स्मरण रखें, जिसे नींद तोड़नी हो अपने अंतस की, उसे यह सबसे पहले
जान लेना, स्वीकार कर लेना होगा कि मैं सोया हूं, तो फिर कुछ हो सकता है।
एक फकीर एक गांव में गया था, समझा रहा था लोगों
को। गांव के सब लोग इकट्ठे हुए थे। गांव का एक बहुत बड़ा धनिक भी आया था, वह सामने ही बैठा था। लेकिन दिन भर, दिन भर धन की
खोजबीन, थका-मांदा था। फकीर तो बोलता था, धनिक सो गया था। जैसा कि अक्सर होता है, फकीर बोलते
रहते हैं, धनिक सोए रहते हैं। वह भी सोया हुआ था। उसका नाम
था आसोजी। वह राजस्थान के किसी गांव की घटना है। तो उस फकीर ने देखा कि सो गया है
तो उसने बीच में अपनी बात बंद की और कहा, आसोजी, सोते हो?
उसने जल्दी से आंख खोली, उसने कहा कि नहीं
महाराज, आंख बंद करके सुनता हूं, सोता
नहीं हूं।
फिर थोड़ी देर फकीर ने बात की होगी, आसोजी फिर सो गए।
सोया हुआ आदमी कितनी देर जग सकता है? आंख खोल लेने से कोई
जागना तो होता नहीं, फिर सो गया। फिर उस फकीर ने बीच में
टोका, रुक गया और कहा, आसोजी, सोते हो?
आसोजी को गुस्सा आ गया। सोए हुए आदमी को गुस्सा जल्दी आ जाता है। उसने
कहा कि क्या बार-बार यह लगा रखा है कि सोते हो, सोते हो! मैं आंख बंद
करके ध्यानपूर्ण रीति से सुन रहा हूं और आप समझते हो सोते हो। और यह सारा गांव सुन
लेगा कि आसोजी सोते हैं तो और एक बदनामी होगी। अब दुबारा इसको कहने की जरूरत नहीं
है। आप अपनी बातचीत जारी रखिए। इससे क्या प्रयोजन है कि मैं क्या कर रहा हूं?
फिर बातचीत चली। वह फकीर भी जिद्दी रहा होगा। थोड़ी देर बाद आसोजी फिर
सो गए। फिर तीसरी बार उस व्यक्ति ने बीच में रुक कर कुछ कहा, अब की बार बड़ी नई बात कही। उसने कहा, आसोजी, जीते हो?
आसोजी नींद में समझे कि फिर वही पुराना प्रश्न पूछ लिया है। उन्होंने
कहा कि नहीं-नहीं, कौन कहता है? उन्होंने सोचा कि
शायद फकीर फिर कहता है आसोजी, सोते हो? तो उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, कौन
कहता है?
फकीर ने कहा, अब तो बात पकड़ ही गई है। और तुम ठीक ही कहते हो,
क्योंकि जो सोता है वह जीता नहीं है।
जीवन तो जागरण है, जीवन निद्रा नहीं है। लेकिन हम
सब सोए हुए हैं। बाहर की तरफ तो हम थोड़े-बहुत जागे हुए मालूम पड़ते हैं, लेकिन भीतर की तरफ हम बिलकुल सोए हुए हैं। और बाहर की तरफ भी हमारा जागरण
अत्यंत धीमा और फीका-फीका है। वह भी बहुत तीव्र नहीं है, वह
भी बहुत सतेज नहीं है।
अभी आप यहां बैठे हैं, ऐसा लगता है कि मुझे
सुन रहे हैं। लेकिन मुझे थोड़े ही सुनते होंगे। भीतर एक तरह की नींद चल रही होगी,
सपने चल रहे होंगे, न मालूम क्या-क्या विचार
चल रहे होंगे। उस तंद्रा में मेरी बात क्या सुनाई पड़ती होगी! सुनाई पड़ती होगी तो
ऐसे ही--मैं कहूंगा, जीते हो? आप
समझेंगे, सोते हो। वैसे ही सुनाई पड़ेगा। भीतर एक तंद्रा है,
एक मूर्च्छा है, एक बेहोशी है। रास्ते पर चलते
चले जाते हैं, भीतर बेहोशी चल रही है, चले
जा रहे हैं रास्ते पर। जीवन करीब-करीब सोते-सोते व्यतीत होता है। रोज सुबह उठ आते
हैं, इससे यह मत सोच लेना कि जग गए। बस एक थोड़ा सा, धुंधला सा होश है बाहर का। किसी तरह टटोलते-टटोलते उस धुंधले होश में
जिंदगी गुजार लेते हैं, लेकिन जिंदगी को जान नहीं पाते।
जानने के लिए तो बहुत इंटेंसिटी चाहिए जागरण की, बहुत
तीव्रता चाहिए, बहुत उत्कटता चाहिए।
अब यहां हम बैठे हैं। अगर यहां जमीन पर हम एक लकड़ी की पट्टी रख दें एक
फुट चौड़ी और सौ फीट लंबी और सबसे कहें कि इस पर चलो। सभी लोग चल जाएंगे, छोटे बच्चे, स्त्रियां, बूढ़े,
सभी निकल जाएंगे, कोई गिरेगा नहीं। लेकिन उसी
को हम दो मकानों की छत पर रख दें, उसी पट्टी को--एक फुट चौड़ी,
सौ फीट लंबी वही पट्टी--और लोगों से कहें कि चलो। फिर कोई उस पर
चलने को राजी न होगा। कोई जाएगा भी कदम दो कदम तो पीछे लौट आएगा कि इसमें जान का
खतरा है। क्या बात है? पट्टी तो वही है, जमीन पर तो चल सके थे, फर्क क्या पड़ गया है?
फर्क यह पड़ गया है कि जमीन पर तो मूर्च्छित चल सकते थे, अब मूर्च्छित चल नहीं सकते, अब बहुत होश से चलना
पड़ेगा। होश की कोई आदत नहीं है। जमीन पर तो सोते-सोते चल सकते थे, कोई खतरा नहीं था, इसलिए नींद में भी चल सकते थे।
लेकिन दो छतों पर रुक गई है पट्टी अब, पट्टी वही है, चौड़ाई वही है, लंबाई वही है, आप
भी वही हैं, फर्क क्या पड़ रहा है चलने में? लेकिन अब एक नया खतरा खड़ा हो गया है। और वह खतरा यह है कि होश से चलना
पड़ेगा।
तो जिंदगी में जहां कहीं बहुत डेंजर होता है वहां तो थोड़ा सा होश
हममें पैदा होता है, नहीं तो हम आमतौर से सोए-सोए चलते हैं। और हम बड़े होशियार
लोग हैं। अगर खतरे आते भी हैं तो हम कोई तरह की व्यवस्था कर लेते हैं, ताकि नींद में ही उनमें से भी गुजर जाएं।
कोई खतरा आता है तो एक धक्का लगता है, थोड़ा सा होश मालूम
पड़ता है। लेकिन फिर हम सो जाते हैं। घर में कोई आदमी मर जाता है, जिसको हम प्रेम करते थे वह मर गया, एक धक्का लगता है,
एक सेकेंड को कोई चीज हमारे भीतर जगने लगती है। लेकिन तत्क्षण हम
कहने लगते हैं, अरे आत्मा तो अमर है, क्या
फिकर करनी है, आत्मा तो अमर है। वह जो मरने का धक्का
था--आत्मा अमर है, आत्मा अमर है कह-सुन कर, समझ कर, कोई घबड़ाने की बात नहीं, कर्मों का फल है, ऐसे पच्चीस एक्सप्लेनेशन खोज कर
फिर हम सो जाते हैं। एक मौका मिला था कि एक धक्का लगता मृत्यु का और हमारे भीतर
कोई चोट लगती और हम जग जाते। लेकिन हमने कुछ व्याख्याएं कर लीं, कोई शास्त्र पढ़ लिए, किसी पंडित से जाकर समझ लिया,
दो-चार दिन में थोड़ा रोए-गाए; फिर सब ठीक हो
गया, फिर हम चलने लगे, फिर नींद कायम
हो गई।
जिंदगी में आते हैं कुछ मौके जब कि हमें एकदम से धक्का लगता है और
जागने का मौका आ जाता है, शॉक लगता है और जागने का मौका आ जाता है। लेकिन नहीं,
हम बहुत होशियार लोग हैं। अपनी नींद की बड़ी सुरक्षा करते हैं,
नींद को फिर जमा लेते हैं, फिर इंतजाम कर लेते
हैं। फिर गाड़ी सोई-सोई चलने लगती है। यह हमारा सोया हुआ पन, यह
हमारी भीतर की निद्रा, यही निद्रा ने हमारे भीतर हम क्या हैं,
इसे जानने से वंचित कर दिया है। कौन हूं मैं इसे देखें।
वंचित किया है निद्रा ने हमें स्वयं से। और स्वयं से वंचित होने की
स्थिति में हमने एक काल्पनिक व्यक्तित्व अपना खड़ा कर लिया है, एक अहंकार खड़ा कर लिया है कि मैं यह हूं, मैं यह हूं,
मैं यह हूं। मेरे पास धन है तो मैं यह हूं, मेरे
पास पद है तो मैं यह हूं। मैं राष्ट्रपति हो गया तो मैं यह हूं, मैं यह हो गया तो मैं यह हूं। हमने फिर अपना अहंकार खड़ा कर लिया है
सब्स्टीटयूट की तरह। आत्मा का तो कोई पता नहीं कि कौन हूं मैं, तो फिर हमने वस्त्र ओढ़ लिए हैं और उनके हिसाब से हमने तय कर रखा है कि मैं
यह हूं। इसलिए तो हमें चोट लगती है, अगर कोई हमारा जरा ही
वस्त्र खींचता है तो हमें बहुत चोट लगती है। क्योंकि वस्त्र खींचने पर भीतर पता ही
नहीं चलेगा कि कौन हूं मैं। उसी से तो हमने अपने को सम्हाल रखा है।
एक आदमी को कोई पद से उतारे तो कैसी पीड़ा होती है जैसे प्राण जा रहे
हों। क्यों? क्योंकि पद पर था तो उसे लगता था मैं कुछ हूं। और पद
से उतर जाएगा तो ना-कुछ हो जाएगा, नोबडी हो जाएगा, पता नहीं चलेगा कि कौन है, कौन नहीं है। पद की,
धन की इतनी खोज इसीलिए तो है। इसीलिए है इतनी खोज ताकि मुझे लग सके
कि मैं कुछ हूं, समबडी हूं, कुछ हूं।
जितनी ऊंचाई पर आदमी चढ़ता जाता है पदों के शिखरों पर, उसे
लगता है मैं कुछ हूं।
लेकिन बड़ा मजा है, यह कुछ हूं का भाव मैं पैदा कर
रहा हूं और उस चीज से बचने के लिए एक पूरक खोज रहा हूं, बिना
इस बात को जाने कि मैं कौन हूं और क्या हूं!
मैं कौन हूं? धर्म की सारी खोज का आधार यही जिज्ञासा है। और इसे जानने
के लिए न तो शास्त्रों की जरूरत है न भक्ति की, बल्कि भीतर
जागने की और पहुंचने की जरूरत है। जीवन में जो भी घटित हो रहा है उसे बहुत
होशपूर्वक, बहुत अवेयरनेस में देखें और परखें। जैसे-जैसे
जीवन की प्रत्येक क्रिया के प्रति आप जागे हुए हो जाएंगे...अभी तो किसी क्रिया के
प्रति जागे हुए नहीं हैं।
बुद्ध के सामने एक व्यक्ति आकर बैठा था और पैर का अंगूठा हिलाए जा रहा
था। तो बुद्ध ने कहा, मेरे मित्र, क्या तुम बता सकोगे
यह अंगूठा क्यों हिलता है? उस आदमी ने...जैसे ही बुद्ध ने यह
कहा कि अंगूठा क्यों हिलता है, फौरन वहीं अंगूठा रुक गया।
बुद्ध ने कहा कि बताओ यह अंगूठा क्यों हिलता है?
उसने कहा कि मुझे कुछ पता नहीं कि क्यों हिलता है, पता नहीं कि क्यों हिलता है।
तो बुद्ध ने कहा, तुम्हारा अंगूठा और तुम्हें पता
न हो कि क्यों हिलता है, क्या यह शोभन है? क्या यह शोभा-योग्य है? तुम्हारा अंगूठा और तुम्हें
पता न हो कि क्यों हिलता है! तो अंगूठे के ही बाबत नहीं, फिर
तुम्हें अपनी और चीजों के बाबत भी शायद ही पता हो कि वे क्यों होती हैं!
तुम्हारा चित्त क्यों क्रोध करता है, क्यों घृणा से भरता
है, क्यों प्रेम करता है, यह भी
तुम्हें पता नहीं होगा! क्योंकि जो एक तल पर सोया है वह दूसरे तल पर भी सोया रहता
है। और जो एक तल पर जागता है वह दूसरे तल पर भी जाग जाता है।
तो जागने का प्रत्येक तल पर जो प्रयास है उसको ही मैं साधना कहता हूं।
शरीर के तल पर जागना है कि क्या हो रहा है, जगत के तल पर जागना
है कि वहां क्या हो रहा है। भीतर मन के तल पर जागना है कि वहां क्या हो रहा है और
जो व्यक्ति इन तीनों तलों पर जागने के श्रम में संलग्न होता है, धीरे-धीरे उसके भीतर एक अभिनव होश, एक ज्योति जगनी
शुरू हो जाती है, जो हर चीज को देखती है। और जैसे-जैसे यह
देखने की क्षमता उसके भीतर विकसित होती है, वैसे-वैसे ही
उसके भीतर ट्रांसफार्मेशन और परिवर्तन शुरू हो जाता है। क्योंकि जैसे-जैसे वह
जागता है, वैसे-वैसे सबसे पहले उसका अहंकार विलीन होने लगता
है। उसे दिखाई पड़ता है कि मैं? मैं जैसा तो कुछ भी नहीं है!
अभी तो हम कहते हैं: मेरा जन्म हुआ। वैसे आदमी को दिखाई पड़ता है: मेरा
क्या जन्म हुआ! जन्म हुआ, इतना काफी है कहना। जीवन ने एक रूप लिया, इतना कहना काफी है। मेरा जन्म हुआ, यह कहना तो
बिलकुल नासमझी है। क्योंकि जन्म के पहले न तो मुझसे पूछा गया, न मुझे कोई खबर दी गई, न मेरी कोई राय ली गई। मेरा
जन्म हुआ, यह कैसे कहूं? लेकिन हम कहते
हैं: मैं श्वास लेता हूं। वैसा आदमी जानता है: श्वास आती है और जाती है, मैं कहां लेता हूं! और अगर मैं श्वास लेता हूं, तब
तो फिर मृत्यु आ ही नहीं सकेगी। क्योंकि मौत आकर खड़ी हो जाएगी, मैं श्वास लिए ही चला जाऊंगा, तो फिर क्या होगा,
मौत को वापस लौटना पड़ेगा।
लेकिन नहीं, हम जानते हैं कि जो श्वास बाहर गई, अगर वह भीतर नहीं लौटेगी तो फिर मैं नहीं ले सकूंगा। तो जब मैं नहीं ले
सकूंगा मृत्यु के क्षण में श्वास, तो जीवन में मैंने श्वास
ली थी, यह गलती थी या नहीं?
आप श्वास ले रहे हैं? तो रोक लें श्वास को भीतर ही!
थोड़ी देर में पाएंगे कि श्वास बाहर जाना चाहती है और आपको वहीं छोड़ कर श्वास बाहर
चली जाएगी। श्वास आ रही है और जा रही है। आप ले रहे हैं? तो
जो व्यक्ति भीतर जागता है थोड़ा उसे दिखाई पड़ता है: श्वास आती है और जाती है,
मैं कहां हूं?
कहते हैं: मुझे भूख लगी, मुझे प्यास लगी। वैसा
व्यक्ति जानता है: प्यास लगती है, भूख लगती है, मैं कहां हूं? जीवन में जैसे-जैसे खोजता है, वह पाता है कि घटनाएं घट रही हैं और मैं घटनाओं को अपने मैं से जोड़ता चला
जा रहा हूं व्यर्थ ही। मौत आ जाएगी, जन्म होगा, श्वास चलेगी। बच्चे थे हम, जवान हो गए। हम कहते हैं,
मैं जवान हो गया। बड़े मजे की बात है, जैसे
जवानी को आप लाए हों। जवानी आई है। जवानी आई है, बुढ़ापा आता
है, जन्म होता है, मृत्यु होती है।
लेकिन हम सारी चीजों को मैं से जोड़ते हैं कि मैं! और एक झूठे मैं को खड़ा करने लगते
हैं जो कि कहीं भी नहीं है।
एक छोटी सी कहानी मुझे बड़ी प्रीतिकर है, कि महल के निकट कुछ
बच्चे खेलते थे। उन्होंने खेल ही खेल में पत्थर की ढेरी से एक पत्थर उठाया और
राजमहल की खिड़की की तरफ फेंक दिया। पत्थर जब ऊपर उठने लगा तो उसने नीचे पड़े हुए
पत्थरों से कहा, मित्रो, मैं आकाश की
यात्रा को जा रहा हूं।
नीचे पड़े पत्थर चुपचापर् ईष्या में सुनते रहे। करते भी क्या? निश्चित ही जा रहा था वह पत्थर ऊपर। उन्होंने भी बहुत जाना चाहा था,
लेकिन उनके पास पंख नहीं थे, वे कभी नहीं उड़
सके थे। लेकिन आज उनकी ढेरी का एक पत्थर बिना पंखों के ऊपर जा रहा था, चमत्कार था, मिरेकल था! और स्वाभाविक था कि उस पत्थर
ने यह कहा कि मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं।
फेंका गया था वह पत्थर, लेकिन उसने कहा कि
मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। वह गया ऊपर और महल की खिड़की से टकराया और कांच
चकनाचूर हो गया। तो उसने कहा, मैंने कितनी बार नहीं कहा है
कि मेरे रास्ते में कोई न आए, नहीं तो चकनाचूर हो जाएगा!
कांच चकनाचूर हो गया था जरूर, लेकिन उसने कहा कि
कोई मेरे रास्ते में न आए! कितनी दफा नहीं कहा है कि मेरे रास्ते में जो भी आएगा,
चकनाचूर कर दूंगा! अब देखो चकनाचूर होकर पड़े हो!
कांच टुकड़े हो-हो कर रो रहा था। पत्थर भीतर गया और कालीन पर गिर पड़ा।
गिरते ही उसने कहा, थक गया बहुत, एक शत्रु का नाश
भी किया, लंबी यात्रा भी की, थोड़ा
विश्राम कर लूं। और साथ ही कहा कि कैसा अच्छा है यह भवन का मालिक। लगता है मेरे
आने के पहले ही मेरे आने की खबर पहुंच गई है, कालीन बिछा दिए
हैं, स्वागत का पूरा इंतजाम कर रखा है। कैसे अच्छे लोग हैं,
कैसे अतिथि प्रेमी! पहले से ही सब व्यवस्था, सुव्यवस्था
कर रखी है। शायद पता चल गया कि मैं आने को हूं। आखिर मैं कोई छोटा-मोटा पत्थर तो
नहीं हूं, आखिर उड़ने वाला पत्थर हूं, यात्रा
करने वाला पत्थर हूं। मैं कोई सामान्य, ऑर्डिनरी पत्थर थोड़े
ही हूं, मैं विशिष्ट हूं। साधारण पत्थर जमीन पर पड़े रहते हैं,
जो महापुरुष होते हैं पत्थरों में वे आकाश की यात्रा करते हैं। तो
मेरे स्वागत में इंतजाम किया है तो ठीक ही है।
और तभी महल के नौकर ने सुनी होगी आवाज कांच के टूट जाने और पत्थर के
आगमन की, वह भागा हुआ आया होगा। उसने पत्थर को हाथ में उठाया।
पत्थर ने कहा, कैसे प्यारे लोग हैं! धन्यवाद-धन्यवाद उसके
हृदय में उठा। घर के मालिक कैसे अदभुत हैं! अपने विशेष प्रतिनिधि को भेजा है ताकि
वह मेरा स्वागत करे, ताकि अपने हाथों में मुझे उठाए और प्रेम
करे।
और उस नौकर ने उस पत्थर को वापस खिड़की से नीचे फेंक दिया। तो उस पत्थर
ने लौटते वक्त कहा, अब चलूं घर की ओर, मित्रों की
बहुत याद आती है, होम सिकनेस मालूम होती है।
वह वापस पत्थरों की ढेरी में गिरता था। नीचे दूसरे पत्थर टकटकी लगाए
उसे देख रहे थे। गिरते ही उसने कहा कि मित्रो, तुम्हारी बहुत याद
आती थी। माना कि हम जमीन पर खुले में पड़े रहते हैं और मुझे वहां महलों का स्वागत
मिला। लेकिन मैंने ठोकर मार दी उस महल पर, लात मार दी,
कर दिया त्याग उस महल का। अपना घर अपना ही घर है, पराया घर पराया ही घर है। यह बात ही और है, तुम सब
के साथ जीना और रहना। महल का मालिक तो हाथ में उठा कर प्यार करने लगा था, लेकिन मैं उसके मोह में पड़ा नहीं। मैंने तो कहा, मैं
घर जाऊंगा। बड़ी मुश्किल पड़ी, बड़ी मुश्किल से आने दिया उन
लोगों ने। वह तो हाथ में पकड़े ही हुए था। लेकिन मैं चला आया हूं, तुम्हारी बड़ी याद आती थी।
वे सारे पत्थर उसकी बात गौर से सुनने लगे और उन्होंने कहा, ऐसा कभी नहीं हुआ है हमारे वंशों में, इतिहास में यह
घटना मुश्किल से कभी-कभी घटती है कि हम में से कोई आकाश की यात्रा करता है। तुम हो
बड़े सौभाग्यशाली, ईश्वर की विशेष कृपा तुम पर मालूम पड़ती है।
तुम अपनी आत्मकथा जरूर लिख देना, आटोबायोग्राफी जरूर लिख
देना। आने वाले बच्चों के काम पड़ेगी। वे पढ़ेंगे और गौरवान्वित होंगे कि कैसे-कैसे
महापुरुष अतीत में पैदा हो चुके, कैसे-कैसे ज्ञानी, कैसे-कैसे यात्रा करने वाले।
वह पत्थर आत्मकथा लिख रहा है। बहुत पत्थरों ने पहले लिखी है, वह भी अपनी लिख रहा है। बहुत पत्थरों की आत्मकथा से उनके बच्चे बहुत
आनंदित हो रहे हैं, बहुत आह्लादित हो रहे हैं और अतीत का
गौरवगान कर रहे हैं, उस पत्थर के बच्चे भी करेंगे।
हंसी आती है इस पत्थर पर, लेकिन अपने पर हंसी
नहीं आती! हम क्या कर रहे हैं? इस पत्थर से कोई भिन्न हमारी
जीवन-कथा है? लेकिन उस पत्थर ने सारी घटनाओं को जोड़ लिया मैं
के केंद्र पर। खड़ा कर लिया एक झूठा केंद्र, जोड़ लीं सारी
घटनाएं। हम भी खड़ा कर रहे हैं एक झूठा केंद्र और जोड़ रहे हैं सारी घटनाएं।
मेरा निवेदन है, खोजें अपने भीतर कि यह मैं का
केंद्र कहीं है? और जिसने भी खोजा है उसने कभी नहीं पाया कि
भीतर ऐसा कोई केंद्र है। भीतर ऐसा कोई केंद्र नहीं है। और जब इस केंद्र को नहीं
पाया जाता है, तब जो पाया जाता है वही है--वही कहें आत्मा,
कहें परमात्मा, कोई और नाम दें--जब यह मैं का
केंद्र नहीं पाया जाता है और यह बिखर जाता है और यह छाया की भांति विलीन हो जाता
है और अंधकार की भांति खो जाता है, तब जो शेष रह जाता है वही
है सत्य। अपने भीतर पहले दिखाई पड़ता है वह सत्य, तो उसे हम
आत्मा का नाम देते हैं। लेकिन जैसे-जैसे उस सत्य की प्रतीति और गहरी होती है,
वही सत्य सबके भीतर दिखाई पड़ने लगता है और हम उसे परमात्मा कहते
हैं।
जो मेरे भीतर है वही सबके भीतर भी है। लेकिन जब मुझे मेरे भीतर ही
नहीं दिखाई पड़ता तो सबके भीतर कैसे दिखाई पड़ेगा? ज्ञानी शास्त्रों से
सीख लेता है कि परमात्मा है, वह परमात्मा झूठा है। भक्त
कल्पना करता है कि परमात्मा है, वह परमात्मा झूठा है। लेकिन
जो पाता है कि उसका अहंकार नहीं है और अहंकार के विलीन हो जाने पर जो दिखाई पड़ता
है, वही है सत्य, वही है परमात्मा। न
वह ज्ञान से मिलता, न वह भक्ति से। लेकिन वह मिलता है स्वयं
के अहंकार के न मिलने पर। स्वयं का अहंकार जब नहीं मिलता तब वह मिलता है। जो स्वयं
के अहंकार से भरे हैं वे उससे वंचित रह जाते हैं।
लेकिन मैं नहीं कहता हूं कि छोड़ना अहंकार को। वह भूल भरी शिक्षा है।
उस शिक्षा ने हजारों लोगों को भटकाया है। तो मैं तो कहता हूं, छोड़ना मत, खोजना! अहंकार से भागना मत, जागना! जागते ही वह नहीं पाया जाता है। और तब जीवन में एक क्रांति घटित हो
जाती है। वही है एकमात्र क्रांति जो मनुष्य के जीवन में घटित हो सकती है। और तब
मनुष्य कुछ से कुछ हो जाता है। कोई और ही हो जाता है। तब वह मनुष्य नहीं रह जाता
है, तब वह विश्व सत्ता के साथ एक हो जाता है। तब न कोई दुख
है, न पीड़ा। तब न कोई संताप है, न कोई
घृणा। तब न कोई क्रोध है। तब है आनंद, तब है एक संगीत,
तब है एक प्रेम, तब है एक प्रकाश। और उस सब
में, उस सब में है मोक्ष, उस सब में है
मुक्ति।
अहंकार विलीन हो जाए तो जो मिलता है वह सत्य है और सत्य मुक्त कर देता
है। सारे बंधन, सारे जीवन के बंधन गिर जाते हैं वैसे ही जैसे सूखे
पत्ते वृक्षों से गिर जाते हैं। और क्या पाया जाता है, उसे
शब्दों में कहना कठिन है। उसे आज तक नहीं कहा गया है, उसे
कभी नहीं कहा जा सकेगा। शब्द बहुत छोटे हैं और जो वहां पाया जाता है वह बहुत बड़ा
है। शब्द बहुत क्षुद्र हैं और जो वहां पाया जाता है वह बहुत विराट है। शब्द मनुष्य
के गढ़े हुए हैं और वहां जो पाया जाता है वह स्वयं परमात्मा है। इस शून्य की दिशा
में यात्रा करनी है।
अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे। थोड़ा एक-दूसरे से दूर हो जाएं।
शरीर को जितना शिथिल छोड़ देंगे उतना अच्छा होगा। मन के भीतर किसी तरह का भी विरोध
न रखेंगे। बाहर आवाजें हैं, ध्वनियां हैं, हवाएं वृक्षों को
हिला रही हैं, पक्षी बोलेंगे, कुछ और होगा,
किसी आवाज के प्रति भीतर विरोध न रखेंगे, कोई
रेसिस्टेंस न रखेंगे। एक खाली शून्य की तरह बैठ जाएंगे। हवाएं आवाज लाएंगी,
आपके भीतर गूंजेगी और निकल जाएगी। पक्षी बोलेंगे, उनकी आवाज आपके भीतर आएगी और पार हो जाएगी। जैसे कोई खाली कमरा हो। आवाज
आती है, खाली कमरे में गूंजती है और निकल जाती है, फिर सन्नाटा हो जाता है। फिर आवाज आती है, फिर खाली
कमरे में गूंजती है और निकल जाती है, फिर सन्नाटा हो जाता
है। और हर आवाज के बाद सन्नाटा और गहरा होता जाता है, और
गहरा होता जाता है।
एक खाली शून्य की भांति बैठ जाएंगे, जैसे हैं ही नहीं,
और आवाजें गूंजेंगी और निकल जाएंगी। शांति से उन आवाजों को सुनते
रहेंगे, मौन उन आवाजों के प्रति जागे रहेंगे। लेकिन कोई
विरोध नहीं, कोई रुकाव नहीं। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे
सुनते-सुनते एक गहरी शांति उतरनी शुरू हो जाएगी। उस शांति में ऐसा भी पता नहीं
चलेगा कि हवाएं अलग हैं और मैं अलग हूं, वृक्ष अलग हैं और
मैं अलग हूं, पक्षी अलग हैं और मैं अलग हूं। ऐसा भी नहीं
मालूम पड़ेगा कि मैं पृथक हूं। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे लगेगा कि मैं सबसे जुड़ गया हूं
और इकट्ठा हो गया हूं। वह जो जुड़ जाना है, वह जो सबके साथ
इकट्ठा हो जाना है, वही है ध्यान।
वह जो शांति है, जहां कि मेरी सारी दीवालें गिर
गई हैं जो जगत से मुझे तोड़ रही हैं, अलग कर रही हैं, वहीं, वहीं है मिलन।
सब भांति शरीर को ढीला और शिथिल छोड़ दें; कोई कड़ापन, कोई अकड़ाव, कोई काम
नहीं कर रहे हैं, विश्राम कर रहे हैं। कोई स्ट्रेन न हो,
कोई टेंशन न हो शरीर पर, कोई तनाव न हो,
उसे ढीला छोड़ दें। आंख आहिस्ता से बंद कर लें, बहुत धीरे, आंख पर भी कोई जोर न पड़े, धीरे से पलक बंद कर लें।
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