धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-ओशो
तीसरा प्रवचन
मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं एक बड़े अंधकार में था, जैसे कि सारी
मनुष्यता है, जैसा कि आप हैं, जैसे कि
जन्म के साथ प्रत्येक मनुष्य होता है। अंधकार के साथ अंधकार का दुख भी है, पीड़ा भी है, चिंता भी है; अंधकार
के साथ भय भी है, मृत्यु भी है, अज्ञान
भी है। आदमी अंधकार में पैदा होता है, लेकिन अंधकार में जीने
के लिए नहीं और न अंधकार में मरने के लिए। आदमी अंधकार में पैदा होता है लेकिन
प्रकाश में जी सकता है; और प्रकाश में मृत्यु को भी उपलब्ध
हो सकता है। और बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जो प्रकाश में जीता है, वह जानता है कि मृत्यु जैसी कोई घटना ही नहीं है। अंधकार में जो मृत्यु थी,
प्रकाश में वही अमृत का द्वार हो जाता है।
मैं भी वैसे ही अंधकार में था; और इसलिए हो सकता है
कि मैं जो बातें आपसे करूं, वे आपके काम पड़ जाएं। दुर्भाग्य
की बात है कि हमने अपने सारे महापुरुषों को प्रकाश में ही पैदा हुआ मान लिया है।
वे जन्म से ही प्रकाश में पैदा होते हैं। और इसीलिए हमारे और उनके बीच कोई भी
संबंध नहीं रह जाता है। वे जन्म से ही तीर्थंकर हैं, ईश्वर
के अवतार हैं, ईश्वर के पुत्र हैं, या
कुछ और हैं। वे जन्म के साथ ही प्रकाश में पैदा होते हैं, और
हम जन्म के साथ अंधकार में पैदा होते हैं। हमारे और उनके बीच कोई संबंध नहीं है।
इसलिए दुनिया में महापुरुष बहुत हुए, लेकिन महान मनुष्यता
का जन्म नहीं हो सका, और नहीं हो सकेगा। जब तक हम यह स्वीकार
न कर लें कि महापुरुष और हमारे बीच भी कोई अंतर्संबंध है। कम से कम जन्म के संबंध
में हम समान हैं। बड़ा से बड़ा व्यक्ति भी अंधकार में ही पैदा होता है। और इस कारण
उसका बड़प्पन छोटा नहीं हो जाता, बल्कि और बड़ा हो जाता है,
क्योंकि वह अंधकार से प्रकाश तक की यात्रा करने में समर्थ है।
प्रकाश में ही पैदा होना और प्रकाश में ही जीना कोई बहुत गुण की बात नहीं है।
अंधकार में पैदा होना और प्रकाश को उपलब्ध हो जाना; मृत्यु
में पैदा होना और अमृत को अनुभव कर लेना; कांटों में पैदा
होना और फूलों को पा लेना, जरूर कोई सार्थकता की बात हो सकती
है।
अंधकार से प्रकाश तक की यात्रा कैसे पूरी होती है, इन तीनों में उसी की ही मैं बात करने को हूं।
मैंने कहा कि मैं भी अंधकार में ही खड़ा था; उस अंधकार से प्रकाश की शुरुआत कैसे हुई? आकाश से
अचानक प्रकाश नहीं उतर आता है; न किसी परमात्मा की कृपा से,
न किसी परमात्मा के प्रसाद से। अगर परमात्मा की कृपा से प्रकाश
मिलता होता, तो उसका मतलब यह है कि परमात्मा इतने अधिक लोगों
पर कृपावान नहीं है, क्योंकि वे अंधकार में जी रहे हैं। अगर
परमात्मा के प्रसाद से जीवन का सत्य मिलता होता, तो उसका
मतलब यह है कि परमात्मा का प्रसाद भी किन्हीं खास लोगों को उपलब्ध होता है,
सभी को नहीं।
परमात्मा अगर है तो उसकी कृपा अनंत है; और वह किसी आदमी पर
भी अकृपालु नहीं हो सकता है। और इसीलिए मैं कहता हूं कि वह किसी पर कृपालु भी नहीं
हो सकता है। क्योंकि जो कृपालु हो सकते हैं, वे वे ही लोग
हैं जो अकृपालु भी हो सकते हैं। उसका प्रसाद वैसे ही बंट रहा है जैसे सूरज की
रोशनी; लेकिन जो आंख बंद किए हुए खड़े हैं उन्हें वह प्रकाश
नहीं मिल सकता है।
जीवन का प्रकाश चारों तरफ है, लेकिन हमारी आंखें
बंद हैं। प्रकाश को कहीं खोजने नहीं जाना है; प्रकाश है,
हमें अपनी आंखें खोज लेनी हैं। लेकिन आज तक मनुष्य को जो भी सिखाया
गया है वह आंख बंद करने की तरकीब है, आंख खोल लेने की नहीं।
उससे आंखें बंद होती चली गई हैं, खुली नहीं। और इसीलिए आदमी
रोज ज्यादा से ज्यादा अधार्मिक होता हुआ मालूम पड़ता है। होना उलटा चाहिए था। होना
यह चाहिए था कि हर पीढ़ी बीती पीढ़ी से ज्यादा धार्मिक होती। होना यह चाहिए था कि हर
बेटा बाप से ज्यादा आध्यात्मिक होता। होना यह चाहिए था कि हर आने वाला दिन बीते
दिन से और ज्यादा प्रकाशपूर्ण होता। लेकिन नहीं, ऐसा होता
हुआ मालूम नहीं पड़ता है। मालूम ऐसा पड़ता है कि हर आने वाला दिन बीते दिन से ज्यादा
अंधकारपूर्ण होता चला गया। हर आने वाली पीढ़ी बीती पीढ़ी से और भी ज्यादा पतित मालूम
होती है। यह आश्चर्यजनक है। विकास, यह कैसा विकास है?
प्रगति, यह कैसी प्रगति है? लेकिन कौन है जिम्मेवार इसके लिए?
मनुष्य-जाति को आज तक जो शिक्षा दी गई है वह बुनियादी रूप से भ्रांत
है। अन्यथा ऐसा नहीं हो सकता था।
जिन बातों को धर्म कहा गया है, वे धर्म नहीं हैं। और
जिन बातों को अध्यात्म की तरफ जाने की सीढ़ियां बताया गया है, वे सीढ़ियां नहीं हैं। जिसको हम स्वर्ग का रास्ता समझते थे, वह नरक का रास्ता सिद्ध हुआ है; अन्यथा आदमी रोज अंधकार
में, और अंधकार में कैसे जाता। जिन बातों को हमने परमात्मा
का द्वार समझा था, उनसे परमात्मा का द्वार नहीं खुला,
शैतान के घर के पास हम रोज-रोज पहुंचते चले गए हैं।
कौन सी सीढ़ियां होंगी, क्या चरण होंगे
आध्यात्मिक जीवन, आध्यात्मिक क्रांति को पा लेने के लिए?
पहली बात, अंधकार से ही हम शुरू करें तो ठीक होगा, वह हमारी स्थिति है। अगर इस भवन में अंधकार छाया हो और हम सबकी आंखें
खुलें और हम पाएं कि अंधकार है, तो सबसे पहला प्रश्न क्या
होगा हमारे मन में? हम किस बात की खोज में लग जाएंगे?
अंधकार की मौजूदगी हमारे मनों में बड़ी जिज्ञासा, बड़ी इंक्वायरी पैदा कर देगी। हम पूछने लगेंगे, अंधकार
क्यों है? हम पूछने लगेंगे कि प्रकाश कैसे मिलेगा? हम खोजने लगेंगे कि द्वार कहां है? हर बच्चा जन्म के
साथ ही पूछना शुरू करता है प्रकाश कहां है? सत्य कहां है?
जीवन कहां है? प्रेम कहां है? सौंदर्य कहां है? हर बच्चा जन्म के साथ ही इंक्वायरी,
जिज्ञासा लेकर पैदा होता है। शायद हमने खयाल न किया हो, हर बच्चे के साथ जिज्ञासा जुड़ी हुई है। लेकिन बच्चा इसके पहले कि जिज्ञासा
करे, बूढ़े उसकी जिज्ञासा को नष्ट करने के सब उपाय करते हैं।
वे उसकी जिज्ञासा की वृत्ति को नष्ट कर देने की सारी चेष्टाएं करते हैं। बच्चे तो
जिज्ञासा लेकर पैदा होते हैं, लेकिन समाज, शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता उनकी
जिज्ञासा को तोड़ने का सारा उपाय करती है। और जिज्ञासा अगर टूट गई, तो आध्यात्मिक जीवन की पहली सीढ़ी ही टूट गई, आगे
बढ़ने का फिर कोई उपाय नहीं रह जाता है। क्योंकि फिर आदमी पूछता ही नहीं, फिर आदमी विचारता ही नहीं, फिर आदमी खोजता ही नहीं,
हम सबकी खोज बंद हो गई उसी दिन जिस दिन हमारी जिज्ञासा बंद हो गई।
जीसस एक गांव में ठहरे हुए थे, और कुछ लोग उनसे
पूछने लगे कि आप ईश्वर की बातें करते हैं, आप ईश्वर के राज्य
की चर्चा करते हैं, कौन आदमी ईश्वर के राज्य को पाने में
समर्थ होगा? कौन है पात्र? तो जीसस ने
चारों तरफ आंख दौड़ाई उस भीड़ में, उस बाजार में, और एक छोटे से खेलते हुए बच्चे को हाथों में उठा कर ऊपर कर लिया और कहा:
जो इस बच्चे की भांति होंगे वे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं।
बच्चे में क्या है जो बूढ़े में नहीं है? बच्चे में क्या है
खूबी, जो बाद में नष्ट हो जाती है? शायद
आप सोचते होंगे कि बच्चा बहुत शांत है, तो आप गलती में हैं,
बच्चे बहुत अशांत हैं, और उनकी अशांति उनकी
चंचलता में प्रकट होती है। और आप सोचते होंगे कि बच्चे में क्रोध नहीं है, तो आप गलती में हैं, बच्चों में इतना क्रोध है जितना
आपमें कभी भी नहीं है। और अगर आप सोचते होंगे कि बच्चों में हिंसा नहीं है,
तो आप नितांत भूल में हैं, बच्चे इतने हिंसक
हैं जिसका कोई हिसाब नहीं है। सरलता और प्रेम और निर्दोषता, ये
सिर्फ कल्पित बातें हैं, बच्चों में ये कुछ भी नहीं हैं।
लेकिन एक बात बच्चों में है जो आपमें नहीं है, वह है
जिज्ञासा, वह है इंक्वायरी की अदम्य प्रवृत्ति, जान लेने का, खोज लेने का एक पागल मोह उनके पीछे है।
वे हर बात को जान लेना चाहते हैं कि वह क्यों है? क्या है?
कैसे है? वे हर बात को पूछना चाहते हैं,
वे हर बात के संबंध में प्रश्न खड़ा करना चाहते हैं।
और हम और हमारा समाज और हमारी शिक्षा और हमारी संस्कृति उनकी जिज्ञासा
को विकसित नहीं करती, नष्ट करती है। और आत्मिक जीवन की पहली सीढ़ी टूट जाती
है। क्योंकि जिस व्यक्ति ने पूछना बंद कर दिया उसकी यात्रा समाप्त हो गई। जीवन के
सत्य को हम तभी जान सकेंगे, जब हम पूछेंगे, जब हम खोजेंगे, और जब हम चुपचाप मान लेने को राजी
नहीं हो जाएंगे। लेकिन प्रत्येक बच्चे को हम यही सिखा रहे हैं कि मान लो--जो पिता
कहते हैं मान लो; जो गुरु कहते हैं मान लो; जो शास्त्र कहता है मान लो। हम सिखा रहे हैं विश्वास, हम सिखा रहे हैं बिलीफ, हम सिखा रहे हैं कि तुम पूछो
मत स्वीकार कर लो। और पांच हजार वर्षों में इसी शिक्षा के कारण मनुष्य के जीवन से
अध्यात्म के सारे संबंध टूट गए हों तो आश्चर्य नहीं है। क्योंकि जिज्ञासा थी सेतु,
जिज्ञासा थी मार्ग, जिज्ञासा थी द्वार जहां से
हम ऊपर उठते थे, खोजते थे, वह द्वार ही
हमने बंद कर दिया। और उसकी जगह हमने एक दीवाल खड़ी की, वह
दीवाल है विश्वास की, मान्यता की, बिलीफ
की।
एक बच्चा छोटी-छोटी चीजें पूछना चाहता है कि ये क्यों हैं? ऐसा क्या है? किसलिए है? प्रत्येक
व्यक्ति के जीवन में पहले दिन से ही तीन प्रश्न खड़े हो जाते हैं--क्या? कैसे? क्यों? हाउ? व्हाई? वॉट? और इन तीन
प्रश्नों के साथ ही जीवन की तीन गतियां और तीन दिशाओं में विकास होता है। जो पूछता
है कैसे? हाउ? अगर उसकी जिज्ञासा बढ़ती
चली जाए, जो वह विज्ञान के जगत में प्रवेश कर जाएगा। क्योंकि
वे ज्ञान की बुनियादी खोज है, कैसे? कोई
खोज कैसे काम करती है? कोई चीज कैसे संचालित होती है?
कोई चीज कैसे सक्रिय होती है? कैसे निर्मित
होती है? कैसे विसर्जित होती है? पानी कैसे
बनता है? बिजली कैसे बनती है? सूरज
कैसे जलता है? पृथ्वी कैसे चलती है?
विज्ञान का बुनियादी प्रश्न है, हाउ? जिस बच्चे की, जिस व्यक्ति की जीवन-दिशा में प्रश्न
पैदा हो जाता है--व्हाई? जो पूछता है, क्यों?
कैसे नहीं? उसके जीवन में दर्शन का और फिलासफी
का विकास शुरू हो जाता है। वह पूछता है क्यों बना जगत? क्यों
है जीवन? क्यों है मनुष्य? हम क्यों
हैं? मृत्यु क्यों है? और जो व्यक्ति
"क्यों' की दिशा में पूछता ही चला जाता है वह एक दिन
दर्शन के तत्वज्ञान के जगत में प्रवेश कर जाता है।
एक और प्रश्न है, वह है, वॉट?
क्या? जीवन क्या है? नहीं,
जीवन क्यों है? नहीं, जीवन
कैसे है? बल्कि जीवन क्या है? अस्तित्व
क्या है? मैं क्या हूं? जब कोई व्यक्ति
"क्या' की दिशा में पूछना शुरू करता है, वॉट? तब उसके जीवन में अध्यात्म की यात्रा शुरू होती
है। तब उसके जीवन में धर्म की यात्रा शुरू होती है। जब कोई पूछता है, क्या है जीवन? तो जीवन की खोज शुरू होती है। और ये
तीन ही दिशाएं हैं। और इन तीनों दिशाओं में सबसे गहरी दिशा धर्म की दिशा है। हम यह
भी जान लें कि क्यों चीजें काम करती हैं, तो भी हमारे ज्ञान
की तृप्ति नहीं होती, हमारा अंधकार मिटता नहीं है। हम यह भी
जान लें कि चीजें कैसे काम करती हैं, तो भी हमारा अज्ञान
मिटता नहीं है। हम जाने लेते हैं कैसे काम करती हैं, हम जान
लेते हैं क्यों हैं, लेकिन फिर भी "क्या' खड़ा रह जाता है। वह अल्टीमेट, वह चरम प्रश्न है।
और दुनिया में विज्ञान विकसित हो सका, क्यों? क्योंकि हमने "कैसे' इस प्रश्न की हत्या करने
की कोशिश नहीं की। और दुनिया में फिलासफी भी विकसित हुई, क्योंकि
हमने "क्यों' इस प्रश्न की भी हत्या नहीं की। लेकिन
दुनिया में अध्यात्म विकसित नहीं हुआ क्योंकि हमने "क्या' इस प्रश्न को बचपन में ही गला घोंट कर मार डाला। हमने किस भांति मार डाला
गला घोंट कर? एक-एक व्यक्ति के भीतर क्या की बात ही टूट गई
है, वह पूछता ही नहीं है कि जीवन क्या है? प्रेम क्या है? सत्य क्या है? वह
हम पूछते ही नहीं है।
क्यों? एक बहुत अदभुत तरकीब काम में लाई गई। इसके पहले की हम
पूछते, हमें बंधे-बंधाए उत्तर सिखा दिए गए कि जीवन क्या है,
परमात्मा क्या है, मोक्ष क्या है। वह सब हमें
बचपन में ही बता दिया गया। हमने पूछा भी नहीं था और हमें उत्तर दे दिए गए। जो
उत्तर प्रश्नों के पहले दे दिए जाते हैं वे उत्तर प्रश्नों की हत्या बन जाते हैं।
और जो उत्तर दूसरे हमें दे देते हैं, वे हमारे भीतर प्रश्नों
को पैदा नहीं होने देते, प्रश्नों के ऊपर पत्थर बन कर बैठ
जाते हैं। प्रश्न का झरना फूट नहीं पाता और उत्तर के पत्थर ऊपर से रख दिए जाते
हैं। हम सबकी चेतनाओं में उत्तर के पत्थर रख दिए गए हैं। उनके नीचे हमारी जिज्ञासा
दबी है, वह प्रकट नहीं हो पाती। हम पूछते हैं और रेडीमेड
उत्तर हमें मिल जाते हैं। हम पूछते हैं, ईश्वर क्या है?
और हमें बंधी-बधाई किताबें हैं, शास्त्र हैं,
ऑथेरिटीज हैं, उनके उत्तर हमें दे दिए जाते
हैं। हमें बता दिया जाता है कि गीता में यह कहा है, बाइबिल में
यह कहा है; कृष्ण यह कहते हैं, कनफ्यूशियस
यह कहते हैं, महावीर यह कहते हैं। और हमें कहा जाता है कि वे
जो कहते हैं सत्य कहते हैं उसे मान लेना चाहिए।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, सत्य किसी की भी बात
के मानने से कभी उपलब्ध नहीं होता। और जो दूसरों की बातें मानने को राजी हो जाता
है वह हमेशा असत्य में ही जीता है, वह कभी सत्य तक नहीं
पहुंच पाता है। सत्य तक पहुंचने के लिए ऑथेरिटी और प्रमाण और शास्त्र कोई मार्ग
नहीं है। ठीक कहा होगा कृष्ण ने और ठीक कहा होगा क्राइस्ट ने, सत्य कहा होगा उन्होंने, लेकिन वह सत्य उनका था,
वह सत्य मेरा और आपका नहीं है और नहीं हो सकता है। सत्य कोई ऐसी चीज
नहीं कि हम उसे बाहर से भीतर ले आएं, वह तो प्राणों के भीतर
से बाहर लाना पड़ता है, बाहर से भीतर नहीं। उसकी यात्रा बाहर
से भीतर की तरफ नहीं है, भीतर से बाहर की तरफ है।
प्रेम कोई ऐसी चीज नहीं है कि हम बाहर से भीतर ले आएं, प्रेम की यात्रा भीतर से बाहर की तरफ है, उसे भीतर
से बाहर लाना पड़ता है।
सत्य की यात्रा भी भीतर से बाहर की तरफ है। और पांच हजार वर्षों में
मनुष्य को यही सिखाया गया है कि सत्य बाहर से लाया जा सकता है। हम किसी से मांग
सकते हैं, सीख सकते हैं, उधार ला सकते
हैं। और हम चुपचाप उधार सत्यों को बारोड, बासे सत्यों को
लेकर बैठ गए हैं और उन्हीं के साथ जी रहे हैं। उनके कारण हमारी जिज्ञासा भी नष्ट
हो गई, और उनके कारण हम जो अपनी खोज कर सकते थे वह भी बंद हो
गई, और वे सत्य जो उधार लिए गए हैं वे हमारे जीवन को सत्य भी
नहीं बना पाते हैं, क्योंकि वे सत्य बना नहीं सकते हैं। वे
कभी भी सत्य नहीं बना सकते हैं। उधार मांगा गया सत्य किसी के व्यक्तित्व को ज्योति
नहीं दे सकता।
एक फकीर अपने एक मित्र के घर से विदा हो रहा था। अंधेरी रात थी और
उसके मित्र ने कहा: रात अंधेरी है और उचित होगा कि मैं एक दीया जला दूं और तुम
दीया ले जाओ। वह फकीर हंसने लगा और उसने कहा कि तुम जानते हुए भी ऐसी बात कहते हो।
लेकिन उसका मित्र नहीं समझ पाया कि वह क्या कह रहा है। वह दीया जला कर ले आया। वह
उसे दीया देने लगा। फिर भी उसके मित्र ने कहा कि नहीं तुम जानते कि तुम क्या कर
रहे हो। उसके मित्र ने यह बात सुनी दुबारा, अचानक उसे खयाल आया,
उसने हाथ में दीया लिया हुआ था, उसे फूंक कर
बुझा दिया और वह हंसने लगा और दीया फेंक दिया। साथी फकीर ने कहा कि शायद तुम्हें
खयाल आ गया। दूसरों के दीये किस भांति हमारे काम आ सकते हैं? दूसरों की ज्योति किस भांति हमारे अंधकार को मिटा सकती है? अंधकार मेरा है और ज्योति आपकी है, उन दोनों का कहीं
कोई मिलन ही नहीं होगा। अज्ञान मेरा है और ज्ञान आपका है, उन
दोनों का कहीं भी कोई मिलन नहीं होगा। घृणा मेरी है और प्रेम आपका है, तो मेरी घृणा को आपका प्रेम नहीं काट सकेगा।
बाहर की दुनिया में दूसरे के दीये को लेकर भी हम यात्रा कर सकते हैं, भीतर की दुनिया में अपना ही दीया चाहिए, किसी का
दीया काम नहीं कर सकता है। लेकिन हमें आज तक यही बताया गया। मुझे भी बचपन में यही
बताया गया था कि मैं स्वीकार कर लूं जो कहा जा रहा है। लेकिन यह बात मेरी कभी समझ
में नहीं आ सकी, यह मैंने कहा कि ठीक, क्राइस्ट
ठीक कहते होंगे, बुद्ध ठीक कहते होंगे, वे सत्य ही कहते होंगे, लेकिन वे जो कहते हैं वह
उनका ज्ञान है, उनका ज्ञान मेरा ज्ञान कैसे हो सकता है?
मैं मैं हूं, वे वे हैं। उनका ज्ञान उनका
ज्ञान है, उनका ज्ञान मेरा ज्ञान कैसे हो सकता है?
मैंने पूछा, बुद्ध को, बुद्ध के पहले भी
ज्ञानी हो चुके थे, बुद्ध ने उनके ज्ञान को नहीं मान लिया।
बुद्ध पागल थे? महावीर के पहले ज्ञानी हो चुके थे। महावीर ने
खुद खोज क्यों की, उनके ज्ञान को मान लेते? हम ज्यादा समझदार हैं महावीर बड़े नासमझ थे। क्राइस्ट के पहले दुनिया में
जागे हुए पुरुष नहीं हुए थे? क्राइस्ट फिजूल ही परेशान हुए
और श्रम उठाया, उनकी बात मान लेते और समाप्त हो जाती बात।
लेकिन आज तक दुनिया में जिन्होंने भी सत्य को खोजा है उन्हें स्वयं ही खोजना पड़ा
है, किसी के उधार सत्य को मान कर कभी भी नहीं चल सका है। और
हम सारे लोग उधार सत्यों को मान कर बैठे हैं। यह बात मेरी कभी समझ में नहीं आ सकी
कि दूसरे का ज्ञान मेरा ज्ञान कैसे हो सकता है? दूसरे की
आत्मा मेरी आत्मा कैसे बन सकती है? दूसरे का जानना मेरा
जानना कैसे हो सकता है?
एक कवि के पास हम खड़े हों एक सुबह, फूल खिले हों,
आकाश में सूरज निकला हो, पक्षी गीत गा रहे हों,
और वह कवि कहे कि देखते हो, सौंदर्य देखते हो,
हम भी देखेंगे, हमें भी दिखाई पड़ेंगे कि फूल
खिले हैं, ठीक है, पक्षी गीत गा रहे हैं,
ठीक है, लेकिन सौंदर्य, कहां
है सौंदर्य? वह जो सौंदर्य उसे दिखाई पड़ रहा है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ रहा कहीं भी। वह पागल हुआ जा रहा है, वह नाचने को तैयार हो गया है, वह नाचने लगा है,
उसकी आंखों से आंसू बहे चले जा रहे हैं। और हम सोच रहे हैं यह आदमी
पागल मालूम होता है। ऐसा कुछ क्या है, ठीक है, पक्षी शोरगुल कर रहे हैं; सूरज निकला है, सो रोज निकलता है; फूल खिले हैं, सो खिले हैं। इसमें बात क्या है? वह जो कवि देख रहा
है, वह हम कैसे देख सकते हैं? उसे
देखने के लिए हमारा भी कवि हो जाना जरूरी है, अन्यथा देखने
का कोई उपाय नहीं।
मजनू पागल था लैला के लिए, और मैंने सुना है कि
उसके गांव के सम्राट ने मजनू को बुलाया और कहा: तू पागल हो गया! अरे पागल, इस गांव में बहुत लड़कियां हैं जो लैला से बहुत सुंदर हैं। लैला में कुछ भी
नहीं है, तू क्यों दीवाना हुआ जा रहा है? तू क्यों सिर फोड़ रहा है पत्थरों से अपना? एक
साधारणसी लड़की! वह मजनू हंसने लगा और उसने कहा: मैं कैसे समझाऊं? काश, तुम मजनू होते, तो तुम
समझ सकते थे! यह मैं कैसे समझाऊं? तुम किसके संबंध में बातें
कर रहे हो? तुम किस लैला की बातें कर रहे हो? क्योंकि जिस लैला को मैंने देखा है वैसी लड़की न तो कभी थी और न कभी हो
सकती है। लेकिन नहीं, तुम नहीं समझ सकोगे, क्योंकि तुम मजनू नहीं हो। और मेरी जगह खड़े होकर तुम देख कैसे सकते हो?
कोई आदमी किसी दूसरे आदमी की जगह खड़ा नहीं हो सकता। यह असंभव है। जहां
आप खड़े हुए हैं वहां कोई भी दूसरा कैसे खड़ा हो सकता है? जहां से आप देख रहे हैं वहां से कोई भी दूसरा कैसे देख सकता है? आपकी जगह कोई प्रेम नहीं कर सकता, आपकी जगह कोई गीत
नहीं गा सकता, आपकी जगह कोई मर भी नहीं सकता है। जीवन में जो
भी महत्वपूर्ण है वह अदल-बदल नहीं किया जा सकता, वह
ट्रांसफेरेबल नहीं है, वह एक-दूसरे के हाथ से लिया-दिया नहीं
जा सकता। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह स्वयं ही जीना पड़ता है। और सत्य तो
सर्वाधिक महत्वपूर्ण है; परमात्मा तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण
है। लेकिन कैसे आश्चर्य की बात है कि हम परमात्मा को उधार ढंग से जीने की कोशिश कर
रहे हैं।
हम कहते हैं कि राम ने कहा है, इसलिए ठीक ही कहा
होगा। और इसलिए हम मान लेते हैं। लेकिन राम ने जहां से खड़े होकर देखा है वहां आप
खड़े हुए हैं? आपको कुछ दिखाई पड़ा है? अगर
आपको खुद दिखाई नहीं पड़ा, तो आप एक झूठ के साथ अपने को बांध
रहे हैं। और आप अपने सारे जीवन को नष्ट कर लेंगे। सिर्फ इस उपाय से एक काम पूरा
होगा, जिज्ञासा मर जाएगी, सत्य का कोई
उदय नहीं होगा। जिज्ञासा मर जाएगी, खोज मर जाएगी। क्योंकि यह
खयाल पैदा हो जाएगा कि मुझे तो मालूम है। शास्त्रों के आधिक्य ने, और इस बात के जोर ने कि ऑथेरिटी है, धर्म के जगत में
भी कोई प्रमाणिक पुरुष हैं, जिनकी बात मान लेने से यात्रा
शुरू हो जाती है, मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन में जितनी बाधा
डाली है उतनी किसी और बात ने नहीं डाली।
विज्ञान के जगत में यह हो सकता है कि आप न्यूटन को मान लें, आइंस्टीन को मान लें। विज्ञान के जगत में ट्रेडीशन हो सकती है, परंपरा हो सकती है, क्योंकि विज्ञान बाहर की बात है।
धर्म के जगत में कोई परंपरा नहीं हो सकती। धर्म भीतर की बात है। धर्म के जगत में
कोई परंपरा, कोई ट्रेडीशन नहीं हो सकती। धर्म के जगत में
प्रत्येक आदमी को फिर से नया प्रारंभ करना होता है। जैसा प्रेम के जगत में। प्रेम
के जगत में प्रत्येक व्यक्ति को नया प्रारंभ करना होता है, यह
हम जानते हैं। दुनिया में करोड़-करोड़ लोग प्रेम कर चुके हैं, जब
पहली दफा आप प्रेम करते हैं तो आपको पता चलता है। और ऐसा लगता है कि शायद ऐसा
प्रेम कभी किसी ने नहीं किया होगा। लगता है कि शायद यह घटना दुनिया में पहली बार
घट रही। लगता है कि शायद यह अनहोनी, आश्चर्यजनक, आकस्मिक घटना है, अभूतपूर्व है।
प्रेम करोड़ों लोगों ने किया है, करोड़ों लोग करेंगे,
लेकिन जब आप करते हैं तब आप जानते हैं कि प्रेम क्या है। प्रेम भीतर
की घटना है। सत्य तो और भी भीतर की घटना है। सत्य तो और भी आंतरिक है, और भी इनरमोस्ट है। उससे ज्यादा गहरा तो कुछ भी नहीं है। उस गहराई में कोई
दूसरे का प्रवेश संभव नहीं है। लेकिन आज तक यही सिखाया गया है। मुझे भी बचपन से
वही सिखाया गया था। लेकिन मेरे मन को कभी यह बात समझ में नहीं आ सकी कि दूसरे का
ज्ञान मेरा ज्ञान कैसे हो सकता है? इसलिए मैं पूछता ही चला
गया, पूछता ही चला गया, पूछता ही चला
गया, लोग आस-पास के नाराज होने लगे, क्योंकि
लोग पूछने से और जिज्ञासा से बहुत नाराज होते हैं। आपके बच्चे भी आपसे पूछेंगे तो
आप नाराज होंगे। और अगर आपके उत्तर को नहीं मानेंगे और पूछते ही चले जाएंगे,
तो आप बहुत नाराज होंगे। क्यों? क्योंकि जब
कोई हमसे पूछता ही चला जाता है, तो बहुत जल्दी हमारे ज्ञान
की सीमा आ जाती है और हमारे अज्ञान पर चोट शुरू हो जाती है। एक प्रश्न किसी ने
पूछा, हमने उत्तर दिया, उसने फिर पूछा,
तो हमारा अज्ञान आ गया। हमारा अज्ञान भीतर है, उत्तर हमारे ऊपर-ऊपर चिपके हुए हैं, जरा में अज्ञान
आ जाता है। और अज्ञान किसी का भी छूना उसे क्रोधित कर देना है। यह उसे खयाल आ जाना
कि उसे मालूम नहीं है, वह क्रोध से भर जाएगा। और इसी वजह से
सारी पुरानी पीढ़ियां नये बच्चों की जिज्ञासा को नष्ट करती हैं। क्योंकि उनकी
बच्चों की जिज्ञासा बूढ़ों के अज्ञान को प्रकट करती है। बच्चे ऐसे प्रश्न पूछते हैं
बूढ़ों के पास कोई उत्तर नहीं हैं। और बंधे हुए उत्तर कोई भी कारगर नहीं होते। और
हर बंधे हुए उत्तर के पीछे यह भय होता है कि और एक प्रश्न और मेरा ज्ञान गया।
मैंने वह पीड़ा बहुत अनुभव की। मैं पूछता ही चला गया। जो भी निकटतम थे
वे सभी नाराज हो गए। गुरु नाराज हो गए, शिक्षक नाराज हो गए।
मैं बहुत हैरान हुआ, कि जो जानते हैं इतना वे इतने जल्दी
नाराज हो जाते हैं! जिनका इतना ज्ञान है उनका इतना क्रोध भी हो सकता है! और
उन्होंने गाली देनी शुरू कर दी, जो हम अपने बच्चों को सारी
दुनिया में देते हैं। वे कहने लगे, यह आदमी नास्तिक है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं, और इसे अनुभव से कहता
हूं कि जो आदमी कभी नास्तिकता से नहीं गुजरा, वह आदमी कभी आस्तिक
नहीं हो सकता है। नास्तिकता से गुजर जाना आस्तिकता की अनिवार्य सीढ़ी, अनिवार्य मार्ग है। और जो आदमी कभी भी नास्तिकता की पीड़ा से नहीं गुजरा,
वह कभी आस्तिकता के आनंद को नहीं पा सकेगा। क्योंकि जिस आदमी ने न
कहने की, नहीं कहने की भी हिम्मत नहीं जुटाई, जो नो नहीं कह सका, उस आदमी के हां कहने में,
यस कहने में कोई भी बल नहीं हो सकता है। उसका हां इंपोटेंट होगा,
नपुंसक होगा। उसकी आस्तिकता थोथी, मुर्दा
होगी। उसकी आस्तिकता के पीछे प्राणों का स्वीकार और बल नहीं होगा।
अगर जिज्ञासा को हम पूछते ही चले जाएं, और किसी भी उत्तर को
चुपचाप मान लेने को राजी न हो जाएं, क्योंकि वह उत्तर
ज्ञानियों ने दिया है, शास्त्रों में लिखा है, परंपरा से स्वीकृत है, भीड़ उसको मान्यता देती है।
अगर इन कारणों से हम अपनी जिज्ञासा को तोड़ने को राजी न हों तो जिज्ञासा आपको
नास्तिकता में ले ही जाएगी। नास्तिकता से बचना मुश्किल है। बचने की कोई जरूरत भी
नहीं है। क्योंकि नास्तिकता एक अदभुत रूप से व्यक्ति को पवित्र करती है। नास्तिकता
की आग से गुजर कर कचरा जल जाता है सिर्फ सोना शेष रह जाता है।
यह दुनिया आध्यात्मिक नहीं हो सकी, क्योंकि नास्तिकता से
गुजरने का साहस हम अब तक नहीं जुटा पाए। अब तक मनुष्य-जाति इतनी हिम्मत नहीं जुटा
पाई कि वह नास्तिकता से गुजर जाए। और वह अनिवार्य चरण है। वह इनइविटेबल, वह अपरिहार्य मार्ग है। अगर उससे ही हम भयभीत हो गए तो आगे हम बढ़ नहीं
सकते, क्योंकि उससे गुजरना ही पड़ेगा। उससे गुजरे बिना कोई
रास्ता नहीं जाता है।
जैसे मां अगर प्रसव की पीड़ा न झेलना चाहे तो मां नहीं बन सकती। प्रसव
की पीड़ा से गुजरना ही पड़ेगा मां बनने के लिए। और मैं कहता हूं, नास्तिकता की पीड़ा से गुजरना ही पड़ता है आस्तिक बनने के लिए। लेकिन अब तक
ऐसा समझा गया है कि नास्तिक और आस्तिक दुश्मन हैं, यह बात
सरासर गलत है। आस्तिकता और नास्तिकता में दुश्मनी का संबंध नहीं, नास्तिकता सीढ़ी है आस्तिकता में प्रवेश की। क्योंकि जो आदमी पूछता है,
प्रश्न उठाता है, जिज्ञासा करता है, वह आदमी तब तक राजी नहीं होगा जब तक खुद न जान ले। इसलिए दूसरों के दिए गए
सारे उत्तरों को अस्वीकार करना ही पड़ेगा उसे। उसे कहना ही पड़ेगा कि नहीं, नहीं, यह मैं मानने को राजी नहीं हूं। और यह
अस्वीकार, ध्यान रहे, ईश्वर का
अस्वीकार नहीं है, यह अस्वीकार ईश्वर के लिए दिए गए
सिद्धांतों का अस्वीकार है। ध्यान रहे कि इस अस्वीकार में ईश्वर को कभी भी इनकार
नहीं किया जा रहा है। क्योंकि नास्तिक तो ईश्वर को मानता ही नहीं, इसलिए इनकार कैसे कर सकता है? इनकार करने के लिए भी
मान लेना जरूरी है। जो है ही नहीं उसको इनकार कैसे किया जा सकता है? जिसे माना ही नहीं उसको इनकार कैसे किया जा सकता है? नास्तिक इनकार कर रहा है केवल आस्तिक के तर्कों को, आस्तिक
के आर्ग्युमेंटस को, नास्तिक कभी भी ईश्वर को इनकार नहीं कर
रहा है। दुनिया में आज तक किसी नास्तिक ने ईश्वर को इनकार नहीं किया है। ईश्वर के
तर्कों को ईश्वर को सिद्ध करने वाले लोगों को इनकार किया है, ईश्वर के सिद्धांतों को इनकार किया है। उसने असल में यह बात इनकार की है
कि तुम्हारे कोई भी तर्क ईश्वर को सिद्ध नहीं करते हैं। तुम्हारे सारे तर्क
तुम्हारे भीतर जिज्ञासा को नष्ट करते हैं ईश्वर को सिद्ध नहीं करते।
मेरे एक वृद्ध व्यक्ति ने जिनसे निकट संबंध था उन्होंने मुझसे कहा कि
ईश्वर का प्रमाण तो बहुत स्पष्ट है। वस्तुएं हैं, तो उनका बनाने वाला
होना चाहिए। हर बूढ़ा आदमी बच्चों से यही कह रहा है। वह कह रहा है, इतना बड़ा संसार है, तो बिना किसी के बनाए कैसे हो
सकता है? कोई बनाने वाला चाहिए। मैंने उन वृद्धजन को निवेदन
किया कि क्या आप सोचते हैं, जो भी चीज है उसका बनाने वाला
होना ही चाहिए? उन्होंने कहा: निश्चित ही। जो भी है उसका
बनाने वाला होना चाहिए।
मैंने उनसे पूछा कि आप नाराज तो नहीं होंगे, ईश्वर है? और नाराजगी उनकी आंखों में दिखाई पड़ने
लगी। क्योंकि उन्हें दिखाई पड़ गया कि मामला कठिन हो गया। अगर ईश्वर है तो उसका
बनाने वाला होना चाहिए। और तब इस बात का कहां अंत होगा? तब
ईश्वर का बनाने वाला और उसका बनाने वाला और उसका बनाने वाला, और आखिर में हम थक जाएंगे, इनफिनिट रिग्रेस होगी,
यह तो इसका कोई अंत नहीं होगा। यह तो मूर्खतापूर्ण चर्चा हो जाएगी।
तो मैंने उनसे कहा: इस भांति आप सिद्ध नहीं कर सकते कि ईश्वर है, क्योंकि जिस तर्क से आप सिद्ध कर रहे हैं वह तर्क तो नास्तिक के हाथों में
जाकर ईश्वर को असिद्ध करने वाला हो जाएगा। नास्तिक ने आज तक ईश्वर को इनकार नहीं
किया है, उसके इनकार का एक ही निष्पत्ति है, और यह है कि आप जो तर्क देते हैं ईश्वर के लिए वह तर्क कुछ भी ईश्वर को
सिद्ध नहीं करते। और यह बात बड़ी अदभुत है, कोई तर्क ईश्वर को
सिद्ध नहीं कर सकता है। और इसीलिए मैं कहता हूं कि कोई तर्क ईश्वर को असिद्ध भी
नहीं कर सकता है। जिस बात को तर्क से सिद्ध किया जा सकता उस बात को तर्क से असिद्ध
भी किया जा सकता है।
नास्तिकों ने एक अदभुत काम किया है, उन्होंने यह काम किया
है, उन्होंने कहा कि अगर ईश्वर है तो अतक्र्य है, बियांड लॉजिक है। हालांकि आस्तिक कहते रहे हैं आज तक दुनिया में कि ईश्वर
तर्क के ऊपर है, बुद्धि के ऊपर है। लेकिन उनकी सारी किताबें
जो तर्क देती हैं और जो बुद्धि की बातें करती हैं उनसे सिद्ध होता है कि अपनी बात
को भी वे मानते हुए मालूम नहीं पड़ते हैं। वे तब तक तो तर्क देते हैं ईश्वर के लिए
जब तक ईश्वर सिद्ध होता हो। और जहां ईश्वर असिद्ध होने लगे वहां भी कहते हैं बस
तर्क की सीमा आ गई। यह बड़ी बेईमानी की और डिसआनेस्टी की बात है। अगर ईश्वर को
सिद्ध करने के लिए तर्क कारगर है, तो फिर तर्क तो आगे भी
जाएगा और असिद्ध भी करेगा, फिर उससे बचना मुश्किल है।
यूनान में एक सुफिस्ट था, तर्कशास्त्री था,
वह तो तर्क ही सिखाता था। और फीस लेता था तर्क सिखाने की। वह अदभुत
आदमी था। वह जिन लोगों को तर्क सिखाता था, उनसे आधी फीस तो
पहले ले लेता था। छह महीने की शिक्षा के बाद वह कहता था, जब
तुम तर्क में पहली दफे विजय पा लोगे, तो आधी फीस तब ले
लूंगा। वह इतना निश्चित था कि उसके विद्यार्थी तो तर्क में विजय पा ही लेते हैं,
इसलिए वह आधी फीस बाद में ले लेता था। लेकिन एक युवक उसकी अकेडेमी
में भरती हुआ, उसने आधी फीस चुका दी, वह
छह महीने के बाद तर्क सीख कर बाहर चला गया। लेकिन उसने बाहर जाकर किसी से तर्क ही
नहीं किया, जिसमें हार-जीत का सवाल उठे। वह आधी फीस अटकी रह
गई। वह गुरु बार-बार उसे कहा कि भई, उसने कहा: लेकिन मैं
किसी से विवाद ही नहीं करता। आधी फीस आप मुझसे नहीं ले सकेंगे, क्योंकि मैं विवाद ही नहीं करता हूं। वर्ष बीत गए, दो
वर्ष बीत गए, गुरु बहुत परेशान। यह पहला मौका था कि एक विद्यार्थी
उसे धोखा दे गया था। आमतौर से तर्क सीख कर जो निकलते थे, वे
जाकर जूझ जाते थे किसे से। लेकिन, लेकिन गुरु तो
तर्कशास्त्री था, उसने अदालत में मुकाबला चलाया। उसने मुकदमा
चलाया कि इस युवक ने मेरी आधी फीस नहीं चुकाई। मुझे आधी फीस दिलवा दी जाए। और उसने
सोचा कि अगर अदालत यह कहेगी कि उसने आधी फीस इसलिए नहीं चुकाई है क्योंकि उसने कोई
तर्क नहीं किया, विवाद नहीं किया, शर्त
के बाहर है। शर्त यह थी कि जब वह जीतेगा तब आधी फीस चुकाएगा। तो आप हारते हैं तो
मैं विद्यार्थी से कहूंगा कि तुम्हारी पहली जीत हो गई, मैं
हार गया, फीस चुका दो। और अगर अदालत कहेगी कि ठीक है,
आधी फीस चुका दी जाए, तुम जीतते हो, तो मैं अदालत से कहूंगा, मेरी फीस दिलवा दी जाए।
लेकिन उसे पता नहीं था कि जिस तर्क को वह उपयोग में लाएगा उसका विद्यार्थी भी उसे
सीख चुका है।
विद्यार्थी ने सोचा, कोई घबड़ाहट की बात नहीं है। अगर
अदालत में मैं हार जाऊंगा, अदालत कह देगी कि तुम हार गए,
फीस चुका दो, तो मैं गुरु को कहूंगा कि पहला
ही विवाद हार गया, फीस कैसी? और अगर
जीत गया, अदालत ने कहा कि फीस नहीं चुकाई जा सकती, क्योंकि अभी यह पहला विवाद ही नहीं जीता है, तो मैं
गुरु से कहूंगा कि फीस चुका कर क्या मैं अदालत का कोपभाजन बनूंगा, कानून के खिलाफ जाऊंगा, मैं कैसे फीस चुका सकता हूं?
आस्तिकों और नास्तिकों के बीच तर्कों की स्थिति ऐसी ही है। उन तर्कों
में न कोई जीतता है, न कोई हारता है। क्योंकि दोनों जिस तर्क का उपयोग कर
रहे हैं उस तर्क के दो पहलू हैं। जिस चीज को भी सिद्ध किया जा सकता है उसको असिद्ध
भी किया जा सकता है। जब तक न पूछा जाए तब तक खयाल में नहीं आता।
एक छोटे से बच्चे से उसका पिता कह रहा था कि तुम्हें सबकी सेवा करनी
चाहिए। क्योंकि भगवान ने हमें इसीलिए बनाया है कि हम सबकी सेवा करें। यह कितनी
सीधी और सच्ची और साफ बात है। लेकिन उस बच्चे ने पूछा कि यह तो मैं समझ गया कि
भगवान ने हमें इसलिए बनाया है कि हम सबकी सेवा करें। लेकिन मैं यह पूछना चाहता हूं
कि भगवान ने दूसरों को किसलिए बनाया है? मुझे इसलिए बनाया कि
मैं दूसरों की सेवा करूं, दूसरों को किसलिए बनाया? जब तक यह बात न पूछी जाए तब तक पहली बात बिलकुल ठीक मालूम पड़ती है। जैसे
ही यह बात पूछ ली जाए पता चल जाता है पहली बात अधूरी थी, उसका
दूसरा हिस्सा भी था। हर तर्क का दूसरा हिस्सा है।
नास्तिक ईश्वर को विरोध नहीं करता, सिर्फ उस तर्क के
दूसरे हिस्से को सामने लाता है। और इसका परिणाम, इसका परिणाम
यह नहीं है कि नास्तिक सत्य के और ईश्वर के विरोध में चला जाता है, इसका परिणाम यह है कि नास्तिक इस नतीजे पर पहुंचता है कि तर्क व्यर्थ है,
और किसी तर्क से कुछ भी सिद्ध नहीं होता। और मैं आपको कहता हूं कि
जब तक आप नास्तिकता की पीड़ा से नहीं गुजरेंगे तब तक आपको यह दिखाई नहीं पड़ेगा कि
तर्क व्यर्थ है। तर्क करके ही पता चलता है कि तर्क व्यर्थ है, जिसने तर्क किया ही नहीं उसे तर्क की व्यर्थता का कभी पता नहीं चलता है।
जिन रास्तों से हम गुजरे नहीं, वे रास्ते बेकार हैं यह हमें
कभी पता नहीं चलता है। और सारी दुनिया में आस्तिकता बचपन से ही थोप दी जाती है,
नास्तिक होने का मौका ही नहीं मिल पाता। एक-एक बच्चे को नास्तिक
होने का मौका मिलना चाहिए। आस्तिकता थोपी नहीं जानी चाहिए, नास्तिकता
से गुजर कर उसका सहज आविर्भाव होना चाहिए, तब वह आस्तिकता
सच्ची होगी, तब वह आस्तिकता परमात्मा के मंदिर तक ले जाने
वाली हो जाती है।
लेकिन आस्तिक बहुत भयभीत हैं नास्तिकता से। वे बहुत भयभीत हैं। अब यह
बड़े आश्चर्य की बात, नास्तिक आस्तिकता से बिलकुल भयभीत नहीं है और आस्तिक
नास्तिकता से बहुत भयभीत है। इसमें कमजोर कौन है? इसमें
भयभीत जो है वह कमजोर है। और कितनी हैरानी की बात है कि आस्तिक कमजोर हो! आस्तिक
कैसे कमजोर हो सकता है? आस्तिक तो सबसे बड़ी शक्ति बन जाएगा।
इसका मतलब है कि जिसे हम आस्तिकता कहते हैं वह शूडो, वह झूठी
और मिथ्या आस्तिकता है, इसलिए कमजोर है। यह झूठी आस्तिकता
नास्तिकता के सामने रोज हार जाती है। फिर भी हमें खयाल नहीं आता कि यह आस्तिकता
झूठी है।
नास्तिकता का अर्थ है: जो मैं नहीं जानता हूं मैं तब तक स्वीकार नहीं
करूंगा जब तक मैं न जान लूं। नास्तिकता का अर्थ है कि मेरी जिज्ञासा अदम्य है। नास्तिकता
का अर्थ है कि यह जो इंक्वायरिंग माइंड है, यह जो खोज करने वाला
मन है किसी भी तल पर समझौता करने को राजी नहीं होगा, कंप्रोमाइज
के लिए राजी नहीं होगा। यह आखिरी क्षण तक खोजता ही रहेगा जब तक पा न ले। अगर नहीं
पाएगा तो कहेगा कि मैंने नहीं पाया है और मुझे पता नहीं है। लेकिन बीच में बिना
जाने कहने को राजी नहीं होगा कि मैंने पा लिया है और मुझे पता है।
अध्यात्म के नाम पर बड़ा झूठ चल रहा है। सबसे बड़ा झूठ यह चल रहा है कि
जो हमें पता ही नहीं है उसके गवाही और विटनेस बने हुए हैं कि वह है। हम सारे लोग
गवाही हैं कि भगवान है, और हमें भगवान का कोई पता नहीं। और हम गवाही हैं कि
आत्मा है, और आत्मा का हमें कोई पता नहीं। और हम गवाही हैं
कि मोक्ष है, और मोक्ष का हमें कोई पता नहीं। हम उन बातों की
गवाह दे रहे हैं जिनका हमें कोई पता नहीं। झूठ इससे बड़ा भी कुछ हो सकता है?
अदालत में आप गवाही दे रहे हैं कि मैंने एक आदमी को देखा, जिसका आपको कोई पता नहीं, और जिंदगी में आप गवाही दे
रहे हैं कि ईश्वर है, और ईश्वर का आपको कोई पता नहीं।
एक चर्च में एक फकीर को बोलने के लिए निमंत्रित किया था। और उस चर्च
के लोगों ने कहा कि हमारी प्रार्थना है कि आप सत्य के संबंध में कुछ बोलो। वह फकीर
खड़ा हुआ और उसने कहा कि बड़ी कठिन बात तुमने उठा दी है, क्योंकि मेरे जीवन भर का अनुभव यह है कि सत्य बोलने वाले लोग चर्चों और
मंदिरों में आते ही नहीं। यह बड़ी हैरानी की बात है कि तुम यहां आ गए हो और सत्य के
संबंध में जानना चाहते हो। क्योंकि सत्य की जिसे खोज है वह अभी किसी मकान को मंदिर
मानने को राजी नहीं हो सकता, क्योंकि उस मकान के ऊपर आपने एक
तख्ती लगा दी है कि वह भगवान का मंदिर है। वह तो भगवान के मंदिर को खोजेगा,
आदमियों के बनाए हुए मंदिरों से धोखे में नहीं आ सकता। जिस आदमी को
सत्य की खोज है वह एक मूर्ति को हाथ जोड़ कर नहीं बैठ जाएगा। क्योंकि उसे दिखाई पड़
रहा है कि पत्थर है और लोग कह रहे हैं कि मूर्ति है। वह अपने को झुठलाएगा नहीं,
वह कहेगा कि पत्थर मुझे दिखाई पड़ता है, भगवान
मुझे कहीं दिखाई नहीं पड़ते।
तो उस फकीर ने कहा: लेकिन तुम कहते हो सत्य के संबंध में, तो ठीक है, अब तुम खुद ही कहते हो, तो मैं जरूर बोलूंगा। लेकिन बोलने के पहले मैं एक प्रश्न पूछ लेना चाहता
हूं। वे सब ईसाई थे, वह ईसाई मंदिर था। उस फकीर ने कहा कि
इसके पहले कि मैं कुछ कहूं, एक छोटा सा प्रश्न मुझे पूछना है,
आप सब लोगों ने बाइबिल पढ़ी है? उन सारे लोगों
ने हाथ उठाए कि हां, हमने बाइबिल पढ़ी है। तो उसने कहा कि संत
ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय तुममें से किसी ने पढ़ा है? जिसने
पढ़ा हो वह हाथ ऊपर उठा दे। क्योंकि जो मैं बोलने जा रहा हूं उससे बहुत गहरा संबंध
संत ल्यूक के उनहत्तरवें अध्याय से है। सारे हाथ ऊपर उठ गए सिर्फ एक आदमी को छोड़
कर। उस फकीर ने कहा: शाबाश, धन्यवाद, परमात्मा
को धन्यवाद, मैं गलती में था। मैं तुम्हें बता दूं कि संत
ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय जैसा कोई अध्याय बाइबिल में है ही नहीं। और आप सबने
उसे पढ़ा है! अब ठीक मैं समझ गया कि कैसे लोग यहां इकट्ठे हैं, अब बात शुरू की जा सकती है। लेकिन उसने कहा कि एक आश्चर्य फिर भी शेष रह
गया, एक आदमी ने हाथ नहीं उठाया है। एक आदमी ने हाथ नहीं
उठाया, यह एक आश्चर्य! एक आदमी भी इतना सत्यवादी आ गया है
यहां! तो मेरे भाई मैं तुमसे पूछना चाहता हूं कि तुमने हाथ क्यों नहीं उठाया?
उस आदमी क्या कहा? आप जरा जोर से बोलिए,
मैं जरा कम सुनता हूं। मैं समझ नहीं पाया कि आप क्या पूछते थे?
क्या उनहत्तरवां अध्याय के संबंध में पूछते हैं? रोज पाठ करता हूं।
मंदिरों, चर्चों और गिरजाघरों में और मस्जिदों में इकट्ठे
लोगों की स्थिति इससे भिन्न नहीं है। क्योंकि बुनियादी रूप से वे गलत गवाही दे रहे
हैं। जिस परमात्मा का उन्हें स्वप्न में भी कोई पता नहीं वे उसके विटनेस और गवाह
होकर मंदिर में खड़े हुए हैं। जिसकी तरफ हाथ जोड़ कर वे प्रार्थना कर रहे हैं,
उन्हें भलीभांति पता है कि पता नहीं वह है भी या नहीं। जिसकी तरफ वे
आंखें उठा कर देख रहे हैं, उसका उन्हें कुछ भी पता नहीं।
विवेकानंद कहते थे कि अमेरिका में एक गांव में एक बुढ़िया उनकी सभा को
सुनने आई। और विवेकानंद उस दिन बाइबिल के एक वचन पर बोल रहे थे। वह वचन है: फेथ कैन
मूव माउंटेंस। विश्वास से पहाड़ भी हिल सकते हैं। वह बुढ़िया बहुत गौर से रीढ़ ऊंचा
करके सुन रही थी। और बड़ी खुश और बड़ी तेजी से घर वापस लौटी। लेकिन दूसरे दिन आकर
उसने विवेकानंद को कहा कि सब गड़बड़ बातें हैं। मेरे घर के पीछे ही पहाड़ है, और उस पहाड़ की वजह से मुझे हवा आने में हमेशा तकलीफ होती है, घर पर हवा नहीं आती। तो मैंने कहा कि अगर यह सच है, तो
मैं आज ही जाकर पहले पहाड़ को हटा देती हूं। तो मैं घर गई, आंख
बंद करके मैंने कहा: हे परमात्मा! पहाड़ को हटा दे। मैंने तीन बार कहा और फिर मैंने
खिड़की खोल कर देखी, पहाड़ वहीं का वहीं था। मैंने कहा: अरे,
मैं पहले से ही समझती थी कि कहीं कोई पहाड़ हटने वाला है, या कहीं कोई परमात्मा है जो हटा देगा। सब फिजूल की बातें हैं।
तो विवेकानंद ने कहा कि तू पहले से ही यह समझती थी कि न कोई परमात्मा
है, न पहाड़ हिल सकता, तो फिर तूने यह फिजूल की प्रार्थना
तीन बार क्यों की? यह प्रार्थना झूठी हो गई। यह प्रार्थना
झूठी हो गई, क्योंकि बुनियादी रूप से तू जानती है कि न कोई
ईश्वर है और न कोई पहाड़ हिलने वाला है। वह तेरे भीतर तुझे पता है।
मैंने सुना है, एक गांव में पानी नहीं गिरा था। और सारे गांव के लोग
गांव के बाहर इकट्ठे हुए थे कि भगवान से प्रार्थना करें--पानी गिरा दे। सारा गांव,
एक-एक बच्चा इकट्ठा हो, ऐसी प्रार्थना की गई
थी ताकि एक भी आदमी गांव में ऐसा न रह जाए जिसने प्रार्थना नहीं की। सारे लोग गांव
के बाहर मैदान में संध्या को इकट्ठे हो रहे थे, एक छोटा सा
बच्चा भी बगल में एक छाता दबाए हुए चला जा रहा। जो भी उसे मिला उसने कहा कि मूरख
छाता किसलिए ले जा रहा? अगर पानी ही गिरता होता तो हम
प्रार्थना करने जाते? उस बच्चे ने कहा: जब इतने लोग
प्रार्थना करेंगे तो पानी नहीं गिरेगा?
लेकिन वह अकेला बच्चा छाता लेकर पहुंचा था, पांच हजार गांव के आदमी एक भी छाता नहीं ले गए थे। उनकी प्रार्थना का मतलब
साफ है। उनको पता है कहां का भगवान, कहां का पानी।
अगर उनको पता होता कि पानी गिरेगा तो वे छाते लेकर आए होते। उनके आचरण
से पता चलता कि उनकी कितनी, कितनी धारणा थी, कितनी गहरी थी,
कितनी सच थी।
हमारी प्रार्थनाएं झूठी, हमारा परमात्मा झूठा,
हमारे मंदिर झूठे। और यह झूठ इसलिए पैदा हुआ है कि हमने नास्तिकता
को दबाने की कोशिश की है, नास्तिकता के विकास करने की कोशिश
नहीं की। हमने दबा ली है नास्तिकता। हर आदमी ऊपर से आस्तिक है, भीतर से नास्तिक है। हर आदमी ऊपर से विश्वास कर रहा है, भीतर से संदेह से भरा हुआ है। हर आदमी ऊपर अच्छी बातें कर रहा है, भीतर ठीक उलटी बातें मौजूद हैं। इस तरह एक पाखंड पैदा हुआ, अध्यात्म पैदा नहीं हुआ। मैं आपसे दोहरा कर कहना चाहता हूं, पांच हजार साल की शिक्षा और संस्कृति का कुल फल एक हिपोक्रेट आदमी है,
एक पाखंडी आदमी है, आध्यात्मिक मनुष्य नहीं।
अध्यात्म कैसे पैदा होगा इस झूठ से? इस बुनियादी असत्य से
अध्यात्म कैसे पैदा होगा?
अध्यात्म पैदा होगा जीवन की सीधी और सच्ची खोज से। उस सच्ची खोज में
नास्तिकता का पड़ाव आता है, उससे बचा नहीं जा सकता। बचने की जरूरत नहीं है।
मंगलदायी है वह पड़ाव, शुभ है। उससे गुजर जाना एक अदभुत अनुभव
है।
जिज्ञासा गहरी होगी तो आप नास्तिक बने बिना कैसे रुक सकते हैं? नास्तिक होना धार्मिक होने की शुरुआत है। जो आदमी नास्तिक हो गया उसने
धर्म को अल्टीमेट कनसर्न बना लिया। वह यह कहने लगा कि धर्म का अर्थ है, मैं कुछ पहलू लेता हूं।
इमर्सन ने एक पत्र में अपने एक मित्र को लिखा है कि अब मुझे दुनिया के
धार्मिक होने की कोई संभावना नहीं दिखाई देती, अब लोग नास्तिक तक
होने को उत्सुक नहीं है। इमर्सन ने यह लिखा है अपने मित्र को किसी पत्र में कि अब
मुझे दुनिया के धार्मिक होने की कोई उम्मीद नहीं दिखाई देती, अब लोग नास्तिक तक होने को उत्सुक नहीं है। आज अगर किसी से हम कहें ईश्वर
के संबंध में कुछ विचार करने को, वह कहता है, छोड़ें भी, होगा, होगा; नहीं होगा, नहीं होगा।
आज एक इनडिफरेंस है, एक उपेक्षा है। नास्तिक यह कह
रहा कि मैं उपेक्षा में नहीं छोड़ सकता। वह यह कह रहा है कि यह मेरा अंतर्संबंध है,
मैं जानना चाहता हूं, है। और मैं सब कसौटियों
पर कसूंगा कि है या नहीं। और अगर नहीं है तो मैं कहना चाहूंगा कि वह नहीं है।
क्या आपको इस बात का कुछ भी पता है कि आज तक पृथ्वी पर थोड़े ही
नास्तिक हुए हैं। और उन नास्तिकों में से अधिक लोग धीरे-धीरे विकसित होकर आस्तिक
हो गए हैं। लेकिन जो विकसित होकर आस्तिक नहीं भी हो पाए, उन नास्तिकों का चरित्र भी जिनको आप आस्तिक कहते हैं उनसे हमेशा ऊंचा रहा
है।
क्या आप कह सकते हैं कि आज तक नास्तिकों के ऊपर उस तरह के अपराध और
पाप और खून और हत्या का जुर्म है जिस तरह का आस्तिकों के ऊपर? मस्जिद और मंदिर जाने वाले लोगों ने जितना खून किया है दुनिया में,
जितना बलात्कार किया है, जितने बच्चे काटे हैं,
जितनी औरतें मारी हैं, जितने आदमियों की हत्या
की है, उतनी हत्या दुनिया में और न डाकुओं ने की है, न बदमाशों ने की है, न गुंडों न की है। नास्तिकों के
ऊपर इस तरह का कोई जुर्म नहीं है।
और व्यक्तित्व में भी नास्तिक अगर विकसित होकर आस्तिक हो जाए तब तो
परम जीवन के द्वार खुल जाते हैं। लेकिन अगर वह आस्तिक न भी हो पाए, तो भी वह आदमी पाखंडी नहीं होता, तो भी आदमी ईमानदार
और सच्चा होता है। आपको शायद कल्पना भी नहीं होगी कि आज पृथ्वी पर भारत से ज्यादा
पाखंडी समाज खोजना कठिन है। और उसका कारण क्या है? उसका कारण
कुल यह है कि हम सब तथाकथित धार्मिक लोग हैं, हम सब आस्तिक
हैं, हम सब मानने वाले बिलीवर्स हैं। उसकी वजह से हमारे
व्यक्तित्व में जो एक नुकीलापन चाहिए, जो खोज के लिए गति
चाहिए, जो दांव पर लगाने की हिम्मत चाहिए, जो अंधेरे को अंधेरा और प्रकाश को प्रकाश कहने का साहस चाहिए, वह भी हमने खो दिया है। जो हमें नहीं दिखाई पड़ता, हम
कहते हैं, है। जो हमें बिलकुल दिखाई पड़ता है, हम कहते हैं, माया है। इस सारे उपद्रव में मनुष्य की
यात्रा कभी भी नहीं हो सकती है।
इसलिए पहला आध्यात्मिक क्रांति और आध्यात्मिक जीवन की ओर पहला चरण है:
अदम्य जिज्ञासा। इतनी जिज्ञासा जो समझौता करने को राजी नहीं होगी, जो कंप्रोमाइजिंग नहीं होगी। जो न शास्त्र को स्वीकार करेगी, इसलिए कि शास्त्र में सत्य लिखा है। जो न तीर्थंकर को, अवतार को स्वीकार करेगी, क्योंकि उन्हें सत्य मिल
चुका है इसलिए वे जो कहते हैं वह हमारे लिए भी सत्य है। जो इसलिए पिता को और गुरु
को स्वीकार नहीं करेगी कि उनकी उम्र ज्यादा है और वे जो कहते हैं वह ठीक होगा। जो
एक ही कसौटी मानेगी कि मैं जिस दिन साक्षात कर लूंगा उस दिन के पहले मेरा कोई
कमिटमेंट नहीं हो सकता। उस दिन के पहले मैं स्वीकार नहीं कर सकता हूं कि सत्य क्या
है।
इतनी जिस व्यक्ति के भीतर जिज्ञासा जागती है, वह व्यक्ति यात्रा शुरू करता है। इतनी प्यास, इतनी
अभीप्सा, इतनी गहरी आकांक्षा जिस व्यक्ति के भीतर जागती है,
वह गतिमान होता है जीवन की तरफ। और कोई रुकावट नहीं है जगत में कि
आप क्यों न पहुंच जाएं। लेकिन जिज्ञासा ही न हो तो कैसे पहुंच सकते हैं? जिज्ञासा ही न हो तो खोज कैसे होगी? इंक्वायरी ही न
हो तो आप पैर कैसे उठाएंगे एक भी? सीढ़ी कैसे चढ़ेंगे एक भी?
हम सब मान कर बैठ गए हैं कि हमें पता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
अरब के एक छोटे से गांव में एक परिव्राजक संन्यासी, एक फकीर आकर ठहरा हुआ है। गांव के लोगों ने उससे कहा है कि आप चलें हमारी
मस्जिद में, हमें ईश्वर के संबंध में कुछ समझाएं। उस फकीर ने
कहा: ईश्वर के संबंध में? ईश्वर के संबंध में कोई समझना ही
नहीं चाहता तो फिजूल की बातें करने की जरूरत क्या है? लेकिन
नहीं, वे गांव के लोग कहने लगे कि नहीं, हम समझना चाहते हैं, हम ईश्वर को जानना चाहते हैं।
आप जरूर चलें।
वह फकीर गया, वह मस्जिद में जाकर मंच पर खड़ा हो गया और उसने कहा कि
इसके पहले कि मैं कुछ बोलूं, एक प्रश्न मेरी पूछने की आदत
है। ईश्वर के संबंध में तुम जानना चाहते हो, लेकिन तुम्हें
पता है कि ईश्वर है या नहीं? तो उन सारे लोगों ने हाथ उठाए
और कहा कि हां, ईश्वर है। तो उस फकीर ने कहा: क्षमा करो,
अब मेरा और तुम्हारा समय खराब करने की कोई जरूरत नहीं, मैं जाता हूं। क्योंकि जिसे यह ही पता हो गया कि ईश्वर है अब उसे आगे पता
करने को कुछ शेष नहीं रहा। यह आखिरी बात हो गई। यह तो जिंदगी में तब पता चलता है
जब और कुछ पाने को फिर शेष नहीं रह जाता। यह तो आखिरी चरम उपलब्धि है आदमी की। और
यह तुम सारे लोगों को पता है, अब इसके आगे तो कुछ है नहीं।
ईश्वर के आगे कुछ भी नहीं है। अब मैं जाता हूं। क्योंकि अब बात करनी फिजूल है। बात
बेकार हो गई। जिस बात को पता होने के लिए मैं चर्चा करता अब उसकी कोई जरूरत नहीं,
वह तुम्हें पता है।
गांव के लोग दिक्कत में पड़ गए। पता तो उन्हें कुछ भी न था। लेकिन कह
चुके थे, और अब इस आदमी से विवाद करना भी फिजूल था। क्योंकि वह
जो कह रहा था वह भी ठीक था। ईश्वर का जब पता ही हो गया तो अब शेष क्या रह गया
जानने को और? वह फकीर चला गया।
गांव के लोगों ने कहा: अब क्या करें? यह आदमी तो अदभुत है।
लेकिन इससे सुनना जरूर है। तो उन्होंने कहा: अब फिर अगले शुक्रवार को चलें। अगले
शुक्रवार को वे गए, उन्होंने कहा कि चलें आप मस्जिद में। पर
उसने कहा: मैं अगली बार गया था, उस फकीर ने कहा: वहां तो सब
लोगों को पता है। उन्होंने कहा: हम दूसरे लोग हैं।
धार्मिक आदमी के बदल जाने में जरा भी देर नहीं लगती। धार्मिक आदमी के
चेहरे का कोई भरोसा नहीं है। अभी वह प्रार्थना कर रहा, कब छुरा निकाल लेगा। बहुत मुश्किल है उसका पक्का कि वह क्या कर रहा है।
फकीर तो पहचान गया, ये लोग तो वही थे। लेकिन ठीक है। उसने
कहा: अगर तुम्हीं कहते हो कि तुम वह नहीं हो, तो मैं फिर
चलता हूं।
वह फिर गया, उसने कहा कि दोस्तो, मैंने सुना
कि तुम दूसरे लोग हो, तो मैं फिर आ गया हूं। अब मुझे यह
पूछना है पहले कि ईश्वर है, तुम्हें पता है ईश्वर के होने का?
उन्होंने कहा: ईश्वर है ही नहीं, हमें कुछ भी
पता नहीं। सारे लोगों ने कहा: हमें पता ही नहीं। उन्होंने सबने तय कर रखा था।
हमारा ज्ञान सब तय किया हुआ है। हम आपस में तय कर लेते हैं कि क्या है
और क्या नहीं है। उन्होंने तय किया हुआ था कि अब कि बार दूसरा उत्तर दे देंगे। अब
देखें। उन्होंने कहा: ईश्वर है ही नहीं, पता का क्या सवाल है,
हमको कुछ भी पता नहीं।
उस फकीर ने कहा: बात खतम। जो है ही नहीं उसके संबंध में बात करना
बेकार है। होता थोड़ा-बहुत तो कुछ बात भी करते। जो है ही नहीं वह प्रॉब्लम ही न रहा, वह समस्या ही न रही। अब जो समस्या नहीं है उसको समाधान करने का मैं पागल
नहीं हूं कि कोशिश करूं। मैं अपने रास्ते पर जा रहा हूं, आप
अपना मजा करिए। बात खतम हो गई है।
लोगों ने कहा: यह तो धोखा हो गया। यह आदमी तो! क्या करना चाहिए? उन्होंने कहा: लेकिन इसे सुनना जरूरी है।
उन्होंने फिर तीसरी व्यवस्था की। फिर तीसरी बार फिर पहुंच गए। उसने
कहा कि भई, क्या करूंगा मैं, पिछली बार गया
था। उन्होंने कहा: हम तो तीसरे तरह के लोग हैं। हम वे लोग नहीं हैं जो पहले दो बार
थे। हम तो तीसरे तरह के लोग हैं, आप चलिए।
फकीर आ गया...बात खतम। जिनको पता है वे उनको बता दें जिनको पता नहीं
है। मैं जाता हूं। मेरी यहां क्या जरूरत थी? जब दोनों तरह के लोग
मौजूद हैं--जिन्हें पता है और जिन्हें पता नहीं; तुम अपने
आपस में निपट लो।
गांव के लोग फिर बहुत परेशान हुए। क्योंकि चौथा कोई रास्ता नहीं खोज
पाए वे।
उस गांव में मैं ठहरा था, तो मैंने गांव के
लोगों से कहा: तुमने चौथी बार जाकर नहीं कहा फकीर को कि चलो। उन्होंने कहा: हमने
बहुत सोचा लेकिन चौथा कोई रास्ता नहीं निकला। ये तीन ही ऑल्टरनेटिव थे, ये तीन ही विकल्प थे। वह हम पूरे कर चुके थे। तो मैंने उनसे कहा: पागलो,
अगर तुम चौथी बार उस फकीर को ले आए होते तो उसे बोलना ही पड़ता। तो
उन्होंने कहा: वह क्या रास्ता था? एक ही रास्ता था, वह फकीर की उसी की प्रतीक्षा करता था। कि वह तुमसे प्रश्न पूछता और तुम
चुप रह जाते, कोई भी उत्तर न देते। क्योंकि कोई भी उत्तर गलत
है। कोई भी उत्तर गलत है। न तुम्हें पता है कि ईश्वर है, न
तुम्हें पता है कि नहीं है। तुम्हें सिर्फ इतना पता है कि हमें कुछ भी पता नहीं
है। अगर तुम चुप रह गए होते, और एक शब्द भी न बोले होते,
तो तुम ईमानदार आदमी साबित होते, तो तुम
आनेस्ट, तो पता चलता कि ईमानदार आदमी यहां इकट्ठे हैं जो वही
कहेंगे जो उन्हें पता है, नहीं तो चुप रह जाएंगे। तो उस फकीर
को बोलना ही पड़ता। तुम्हारा मौन, तुम्हारा साइलेंस इस बात की
गवाही होता कि तुम खोज करने वाले लोग हो, मान लेने वाले लोग
नहीं। उस फकीर ने इसीलिए प्रश्न पूछा। और तीन बार वह आया और तीन ही बार असफल हो
गया, क्योंकि तुमने तीन ही बार उत्तर देने की कोशिश की।
उत्तर से तुमने यह बताने की कोशिश की कि हम जानते हैं, जो कि
सरासर झूठ था।
आध्यात्मिक जीवन में यात्रा करने वाले को पहली बात तो यह जान लेनी
चाहिए कि हम नहीं जानते हैं। हम जिज्ञासा कर सकते हैं लेकिन विश्वास नहीं बना
सकते। हम प्रश्न उठा सकते हैं लेकिन उत्तर हमारे पास नहीं हैं। हम अज्ञान में खड़े
हैं; ज्ञान हमें खोजना है, वह हमें
मिल नहीं गया है। यह जिज्ञासा जितनी बढ़ती चली जाएगी स्वभावतः लोगों को प्रतीत होगा
कि आप नास्तिक हो गए हैं। जिज्ञासा जब पूरी गहरी होगी तो नास्तिकता प्रतीत होगी।
वह नास्तिकता प्रतीत हो रही, वह नास्तिकता आस्तिकता की तरफ
कदम है। क्योंकि यह आदमी जिस दिन पूछ-पूछ कर सारे उत्तरों को गलत पाएगा उस दिन
इसकी बाहर से पूछने की इच्छा समाप्त हो जाएगी क्योंकि बाहर कोई भी नहीं जहां से
उत्तर मिल सके, उस दिन यह भीतर मुड़ेगा और वहां पूछेगा जहां
से उत्तर मिल सकता है।
कल दूसरे चरण की मैं आपसे बात करूंगा और परसों तीसरे चरण की।
मेरी बातों को इतनी शांति और इतने प्रेम से सुना
उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम
करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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