धर्म और आनंद-(प्रशनोंत्तर-विविध)-ओशो
चौथा प्रवचन
मेरे
प्रिय आत्मन्!
सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।
एक मित्र ने पूछा है: मंदिर, मस्जिद,
गिरजे, पूजा-पाठ, ये सब
तो सत्य तक पहुंचने के साधन हैं, साधनों का विरोध आप क्यों
करते हैं? साधन को साध्य न समझा जाए यह तो ठीक है, लेकिन साधन का ही विरोध क्यों करते हैं?
मैं
उन्हें साधन मानता तो विरोध नहीं करता। मैं उन्हें साधन नहीं मानता हूं। वे साधन
नहीं हैं, झूठे साधन हैं। और झूठे साधन जिन्हें पकड़ जाएं वे सच्चे साधन खोजने में
असमर्थ हो जाते हैं। झूठा साधन साधन के अभाव से भी बदतर और खतरनाक है।
एक
आदमी बीमार है,
और किसी झूठे डाक्टर से और झूठी दवाई ले लेता है, यह दवाई बीमारी तो ठीक नहीं करेगी, बल्कि उस मरीज को
इस भ्रम में डालेगी कि मैं दवा ले रहा हूं और बीमारी ठीक हो जाएगी। अगर वह कोई भी
दवा न लेता तो भी ठीक था, क्योंकि तब वह दवा की खोज करता,
अब वह दवा की खोज भी नहीं करेगा। इसलिए झूठा डाक्टर डाक्टर के अभाव
से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध होता है।
ये
साधन नहीं हैं,
ये शूडो मिंस हैं, मिथ्या साधन हैं। जिनसे यह
भ्रम पैदा हो जाता है कि हम धर्म कर भी रहे हैं और हम धार्मिक भी नहीं हो पाते
हैं। धार्मिक होना एक क्रांति है, मंदिर जाना बच्चों का एक
खेल है। धार्मिक होना एक तपश्चर्या है, माला फेर लेना एक
बिलकुल ही मजाक है। धार्मिक होना सारी चेतना का आमूल परिवर्तन है, और तिलक लगा लेना और यज्ञोपवीत पहन लेना अपने को धोखा देना है, आत्मप्रवंचना है।
लेकिन
आदमी धोखा देने में बहुत कुशल है। जिनके पास सोना नहीं है वे नकली सोने के आभूषण
पहने लेते हैं। नकली आभूषण सोने का भ्रम देने लगते हैं, सस्ते मिल
जाते हैं और सोने का भ्रम देने लगते हैं। जिनके पास हीरे नहीं हैं वे बनावटी हीरे
पहन लेते हैं। जिनके जीवन में धर्म नहीं है अधर्म है वे झूठा धर्म पालन करना शुरू
कर देते हैं। और उस भांति वे अपने को यह विश्वास और दूसरों को यह विश्वास दिलाने
की चेष्टा करते हैं कि हमारे जीवन में भी धर्म है। असत्य को भी खड़ा होना हो तो
सत्य के कपड़े पहनने पड़ते हैं। कुरूपता को बाजार में आना हो तो सौंदर्य का शृंगार
करना पड़ता है। और अधर्म को भी जगत में प्रचारित होना हो तो धर्म की रूपरेखा पकड़नी
पड़ती है। शैतान को भी अगर पूजा चाहिए हो तो उसे भगवान के ही रूप में खड़ा होना पड़ता
है। इसलिए जिन्हें आज तक धर्म के साधन कहा जाता है, वे धर्म
के साधन तो कतई नहीं हैं, उनके कारण ही पृथ्वी अधार्मिक बनी
हुई है। क्योंकि मनुष्य-जाति को एक झूठा भ्रम उन्होंने पैदा कर दिया है कि हम
धार्मिक हो गए हैं।
हमारा
ही देश है, हमको यह भ्रम है कि हम धार्मिक लोग हैं। और धर्म से हमारे जीवन का कोई भी संबंध
नहीं है। न जीवन में कोई करुणा है, न जीवन में कोई प्रेम है,
न जीवन में कोई प्रकाश है, न जीवन में
परमात्मा की कोई झलक है। लेकिन चूंकि हम रोज सुबह पांच मिनट प्रार्थना करते हैं,
और चूंकि हम नियमित मंदिर जाते हैं, और चूंकि
हम रोज गीता का, समयसार का, या कुरान
का, या बाइबिल का पाठ करते हैं, इसलिए
हमें यह हक मिल गया है कि हम अपने को धार्मिक कहें।
आश्चर्य
की बात है, एक आदमी माला फेरता है और सोचता है कि मैं धर्म कर रहा हूं। हाथ में घूमते
हुए गुरियों से धर्म का क्या संबंध हो सकता है? कोई दूर का
भी संबंध हो सकता है?
तिब्बत
में उन्होंने प्रेयर व्हील बना रखा है। वे हाथ से भी माला नहीं फेरते, वे हमसे
ज्यादा धार्मिक लोग हैं। उन्होंने एक चरखे की तरह का एक चाक बना रखा है। और चाक की
डंडियों पर, स्पोक्स पर मंत्र लिख दिए हैं। हाथ से वे एक
धक्का मार देते हैं, वह चक्का चक्कर लगा लेता है। जितने
चक्कर लगा लेता उतनी बार जो मंत्र लिखे हैं उनको पढ़ने का लाभ उनको उपलब्ध हो जाता
है। उन्होंने और भी अच्छा साधन निकाला। और अब तो जरूरत नहीं कि हाथ से धक्के दिए
जाएं, हम बिजली से जोड़ सकते हैं उस चक्के को, वह दिन भर चक्कर लगाता रहेगा। और जितने चक्कर वह लगा लेगा उतने हम धार्मिक
हो जाएंगे।
एक
आदमी कागज पर राम-राम लिखता रहता है। एक घर में मैं ठहरा था, उन्होंने
कहा कि मेरी मां ने करोड़ों बार अब तक नाम लिखा है राम का। वे बड़े जोरों से कह रहे
थे। उन्होंने वह कमरा जाकर दिखाया जहां हजारों कापियों में राम-राम लिखा हुआ था।
मैंने उनसे कहा: तुम्हारी मां ने धर्म तो नहीं किया, लेकिन
इतने गरीब बच्चों को अगर ये कापियां मिल जातीं तो थोड़ा धर्म हो भी सकता था। ये
कापियां फिजूल हो गईं, यह कागज फिजूल हो गया। इन पर राम-राम
लिख देने से धर्म का क्या संबंध हो सकता है? तुम्हारी मां
धार्मिक तो नहीं हैं लेकिन पागल हो सकती है; क्योंकि इतने
कागजों पर जो राम-राम लिख कर कागज खराब कर दे, उसके मस्तिष्क
के संतुलित होने की संभावना नहीं है।
कागज
पर राम-राम कितनी बार आपने लिखा है इससे कोई भी संबंध हो सकता है धर्म का? लेकिन
नहीं, समझाने वाले लोग कहते हैं, ये
साधन हैं।
ये
साधन होंगे नरक जाने के। इनका धर्म तक पहुंचने से क्या संबंध है? धार्मिक
होना इतनी सस्ती बात है, धार्मिक होना इतनी सस्ती बात है कि
आप कभी तीर्थ हो आएं, कभी गंगा का स्नान कर आएं या कभी मंदिर
में सिर टेक आएं, कोई आदमी इस सस्ते ढंग से कभी वैज्ञानिक
होते देखा है? कभी किसी आदमी को वैज्ञानिक होते देखा है ऐसे
सस्ते ढंगों से कि वह माला फेरता और कहता मैं वैज्ञानिक हो जाऊंगा? या आइंस्टीन के सूत्र को किताबों पर लाखों दफे लिखता है और वैज्ञानिक हो
जाएगा? कि कोई सा रे ग म प ध नी लिखता है और संगीतज्ञ हो
जाएगा? कि कोई वीणा की पूजा करता है और वीणावादक हो जाएगा?
हम
जानते हैं कि वीणा की पूजा से कोई वीणावादक नहीं होता। मंदिर की पूजा से भी कोई
धार्मिक नहीं हो सकता है। और आइंस्टीन के गणित के सूत्रों को कागज पर बार-बार
दोहरा कर लिखने से कोई गणितज्ञ नहीं हो जाता है। हम जानते हैं कि वीणा की कुशलता
वर्षों की साधना का फल है। हम जानते हैं कि गणितज्ञ होना गणित के जगत में तीव्र
तपश्चर्या करने का फल है। लेकिन धार्मिक होना भर एक सस्ती चीज है जिसके लिए कोई
साधना और कोई तपश्चर्या जरूरी नहीं होती। तो धर्म क्या संगीत और गणित से भी सस्ती
बात है? इसीलिए तो वैज्ञानिक कुछ लोग हो पाते हैं, संगीतज्ञ
कुछ लोग, धार्मिक सभी लोग हो जाते हैं! नहीं, लेकिन मुझे दिखाई पड़ता है संगीत की साधना कुछ भी नहीं है, और गणित की साधना भी कुछ नहीं है, धर्म की साधना से
बड़ी कोई साधना नहीं। संगीतज्ञ हो जाना आसान है, क्योंकि
संगीतज्ञ होने के लिए सिर्फ कुशलता चाहिए एक तरह की। और गणितज्ञ हो जाना भी आसान
है, क्योंकि गणित के लिए सिर्फ बुद्धि का एक विशेष प्रकार का
अभ्यास चाहिए। लेकिन धार्मिक होना कठिन है, क्योंकि धार्मिक
होने के लिए समग्र व्यक्तित्व का रूपांतरण चाहिए। न अकेली बुद्धि का, न अकेले हाथों का, न अकेले शरीर का, न अकेले हृदय का, समस्त व्यक्तित्व का आमूल रूपांतरण,
टोटल ट्रांसफार्मेशन चाहिए। रत्ती-रत्ती व्यक्तित्व बदल जाए तो कोई
व्यक्ति धार्मिक होता है।
जीवन
की सारी दिशाएं अधूरी हैं,
खंड-खंड की हैं। एक आदमी को संगीतज्ञ होने के लिए पूरा जीवन नहीं
बदलना पड़ता है। और किसी संगीतज्ञ से हम यह नहीं कह सकते कि तू संगीत तो जानता है
लेकिन तेरा आचरण ठीक नहीं है, इसलिए तेरे संगीत का क्या कोई
मूल्य नहीं है। हम जानते हैं कि आचरण से संगीत का कोई संबंध नहीं है। हम एक
गणितज्ञ से यह नहीं कह सकते कि तेरा गणित गलत है, तेरा थीसिस
गलत है, क्योंकि तू शराब पीता है। क्योंकि थीसिस के ठीक और
सही होने से किसी के शराब पीने और न पीने का कोई नाता नहीं है। हम किसी वैज्ञानिक
को चरित्रहीनता के आधार पर नोबलप्राइज मिलने से नहीं रोक सकते। वे खंड-खंड दिशाएं
हैं, व्यक्तित्व को हिस्से के एक वह पूरा करता है, शेष सारा हिस्सा व्यक्तित्व का कैसा भी हो। लेकिन धर्म अकेली दिशा है जहां
हम पूरे व्यक्तित्व की क्रांति मांगते हैं। वहां छोटी सी बात भी क्षमा नहीं की जा
सकती। वहां हम आमूल व्यक्ति की खोज-बीन करते हैं कि उसका सारा व्यक्तित्व, उसका रोआं-रोआं परिवर्तित हुआ की नहीं। उसकी सारी आत्मा नये आकाश में
प्रविष्ट हुई की नहीं। वह अकेली बुद्धि की बात नहीं, वह
अकेले शरीर की नहीं, अकेले हृदय की नहीं, वह जीवन की सारी की सारी संवर्धा का इकट्ठा परिवर्तन है। वह इतना सस्ता
कैसे हो सकता है। वह बहुत दुरूह है इस अर्थों में कि उस पूरे व्यक्तित्व को बदलना
पड़ेगा। और शायद इसीलिए चूंकि मनुष्य अपने पूरे व्यक्तित्व को बदलने को राजी नहीं,
उसने सूडो-मीन्स ईजाद कर लिए हैं, उसने झूठी
तरकीबें ईजाद कर ली हैं। जिनसे वह धोखा देता है। जिनसे वह धोखा देता है और विश्वास
पैदा कर लेता है कि हो गया मैं धार्मिक।
एक
आदमी को संन्यासी होना है,
वह वस्त्र रंग लेता है और संन्यासी हो जाता है। अभिनेता होने के लिए
वस्त्र रंग लेना काफी हो सकता था, संन्यासी होने के लिए कैसे
हो सकता है? संन्यास कोई अभिनय है? कोई
एक्टिंग है? संन्यास का वस्त्रों के रंगने से क्या नाता है?
और जो संन्यासी होने चला है वस्त्र रंगने का विचार करेगा? लेकिन नहीं, संन्यासी जितना वस्त्रों का विचार करते
मालूम पड़ते हैं उतने गृहस्थ भी मालूम नहीं पड़ते हैं। स्त्रियां भी वस्त्रों का
उतना विचार करती हुई नहीं दिखाई पड़तीं जितने संन्यासी विचार करते हुए दिखाई पड़ते
हैं। वस्त्रों पर इतना आग्रह और मोह एक ही बात का सबूत है, आत्मा
को रंगने से बचने की एक ही तरकीब हो सकती थी कि वस्त्रों को रंग लिया जाए और समझ
लिया जाए कि सब हो गया।
नहीं, आत्मा का
रंग बदल लेना पड़ेगा, वस्त्रों के रंग से क्या होता है। और
कोई सोचता हो कि आत्मा का रंग बदलने के लिए वस्त्रों का रंग बदलना पहली सीढ़ी है तो
वह पागल है। वस्त्रों का कोई भी रंग हो उससे आत्मा का कोई भी संबंध नहीं है,
किसी भी भांति का संबंध नहीं है। सफेद वस्त्रों में आत्मा रूपांतरित
हो सकती है, काले वस्त्रों में हो सकती है, नंगे आदमी की हो सकती है, दरिद्र के वस्त्रों में हो
सकती है, अमीर के वस्त्रों में हो सकती है, पश्चिम के वस्त्रों में हो सकती है, पूरब के
वस्त्रों में हो सकती है, वस्त्रों से आत्मा का कोई भी संबंध
नहीं है। इसलिए वस्त्रों से कोई साधन वहां तक नहीं पहुंचता है।
जिनको
हम साधन कहते हैं वे साधन ही नहीं हैं। तो मैं यह नहीं कहता कि आप साधन को साध्य
समझ लेते हैं इसलिए मैं उनका विरोध कर रहा हूं। मैं इसलिए विरोध कर रहा हूं कि वे
साधन ही नहीं हैं। लेकिन हमारे मन को इस बात से बड़ा धक्का लगता है। क्योंकि हमें
यह धक्का लगता है कि उन साधनों के कारण हम थोड़ा-बहुत मजा लेते हैं धार्मिक होने का, आप वे भी
छीने लिए लेते हैं। फिर हम अधार्मिक हो गए।
एक
आदमी कभी वर्ष में दो-चार दिन उपवास कर लेता है और फिर अकड़ कर चलता है कि वह
धार्मिक है। उसकी अकड़ छीने ले रहे हैं आप। एक आदमी एक ही बार भोजन करता है और अकड़
कर चलता है कि वह त्यागी है, उसकी अकड़ लिए ले रहे हैं आप। उसको क्रोध आएगा,
वह मुझ पर नाराज होगा यह बिलकुल स्वाभाविक है। मैं उसकी संपदा छीने
ले रहा हूं। लेकिन अगर वह संपदा होती तो मैं छीनता भी नहीं। वह संपदा नहीं है। और
मैं निवेदन करना चाहता हूं कि मैं उसका मित्र हूं। क्योंकि अगर वह कंकड़-पत्थर को
संपदा समझ रहा है, तो जितनी देर संपदा समझ रहा है उतनी देर
तक ही असली संपदा पाने की दिशा में उसकी यात्रा शुरू नहीं होगी। जितने जल्दी उसे
दिखाई पड़ जाए कि मैंने कंकड़-पत्थरों को हीरे समझ रखा है, उतने
ही जल्दी उसके हाथ पत्थरों से मुक्त हो सकते हैं और हीरों की खोज हो सकती है। हीरे
हैं, साधन हैं, जिनकी खोज की जा सकती
है, जिन पर चला जा सकता है। लेकिन वे साधन इस भांति के नहीं
हैं। सच तो यह है कि धर्म का कोई भी साधन वाह्य साधन नहीं हो सकता। जाना है भीतर
तो बाहर का साधन कैसे साथ दे सकता है? यह तो उलटा और
कंट्राडिक्ट्री हो गया। एक आदमी को जाना है भीतर वह बाहर के मंदिर की खोज में चला
जा रहा है। मंदिर उतना ही बाहर है जितने और मकान। और जिस आदमी की आंख मंदिर पर
टिकी है अभी उसने अंतर में जाने का उसे खयाल भी पैदा नहीं हुआ।
एक
फकीर था, वह कोई सत्तर वर्ष की उम्र तक निरंतर, जब से उसने
होश सम्हाला, मस्जिद पांच बार जाता था, हर नमाज में जाता था। गांव के लोगों को पता था कि कोई मस्जिद में पहुंचे
या न पहुंचे वह फकीर तो पहुंचता है। बीमार हो तो भी पहुंचता है, अड़चन में हो तो भी पहुंचता है, तकलीफ में हो तो भी
पहुंचता है। उसने कभी गांव नहीं छोड़ा इसी वजह से कहीं दूसरे गांव में जाए और वहां
मस्जिद न हो तो फिर क्या करे। इसलिए वह चालीस वर्षों से अपने ही गांव में बना हुआ
था।
एक
सुबह गांव के लोग मस्जिद में गए और उन्होंने देखा, वह फकीर आज नहीं आया,
तो उन्होंने समझा, इसका एक ही अर्थ हो सकता है
कि रात उसका देहावसान हो गया हो। और तो कोई कारण नहीं हो सकता। जिंदा रहते तो वह
आता ही। मस्जिद के बाद, नमाज के बाद वे सारे लोग उस फकीर के
झोपड़े की तरफ गए दुख से भरे हुए। लेकिन वहां जाकर वे बहुत हैरान हुए। वह फकीर अपनी
खंजड़ी लिए हुए झोपड़े के बाहर वृक्ष के नीचे बैठा गीत गा रहा था। उन लोगों ने जाकर
कहा कि क्या बुढ़ापे में तुम्हारा दिमाग खराब हुआ है अब? आज
तुम मस्जिद नहीं आए? सुबह की प्रार्थना चूक गए?
उस
आदमी ने कहा: जब तक मुझे सब तरफ भगवान का मंदिर नहीं दिखाई पड़ा था तब तक मैं सोचता
था कि वह जो तुम्हारी मस्जिद है वह भगवान का मंदिर है। और उस मस्जिद को भगवान का
मंदिर समझने की वजह मैंने कभी चारों तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखा कि भगवान का
मंदिर क्या है। मुझे खयाल था कि वह भगवान का मंदिर है, मैं समझता
था बात खतम हो गई। लेकिन कल रात मुझे खयाल आया कि जिस भगवान के मंदिर में मैं
चालीस वर्षों से जा रहा हूं और अब तक मेरी जिंदगी में तो कुछ भी नहीं हुआ, मैं आदमी तो वही का वही हूं, जो पहले दिन गया था वही
आदमी आज भी हूं। न मेरा दुख मिटा, न मेरा अंधकार मिटा;
न शांति आई, न सत्य आया। और मौत करीब आ गई है।
तो रात भर मैं सो नहीं सका और मुझे खयाल आया कि इसमें दो ही बातें हो सकती हैं। एक
बात तो यह हो सकती है कि भगवान का मंदिर कहीं है ही नहीं और मैं धोखे में था। और
दूसरी बात यह हो सकती है कि जिसे मैंने भगवान का मंदिर समझ रखा था कहीं वह समझ ही
उसके असली मंदिर को देखने में बाधा तो नहीं बन गई। और आज सुबह मैंने कहा कि आज,
आज मैं उसके मंदिर की ही तलाश करूं। और सुबह से मैं बैठ कर गीत गा
रहा हूं। और आज पहली बार उसके मंदिर की मुझे झलक मिली है। पक्षियों के गीतों में
वह है, वृक्षों की पत्तियों में वह है, आकाश की हवाओं में वह है, बादलों में वह है, ऊगते हुए सूरज में वह है, तुम्हारी आंखों में वह है,
सबमें वह है। और अब इसलिए किस मंदिर में मैं जाऊं? और कहां जाऊं? जहां हूं वहीं उसका मंदिर है।
तो
मैं यह नहीं कहता हूं कि धार्मिक आदमी परमात्मा के मंदिर की खोज करता है, धार्मिक
आदमी वह है वह जहां खड़ा होता है वहीं परमात्मा के मंदिर को अनुभव करता है। इस
अनुभव को रोकने में वह जो मंदिर हमने बना लिया है, वह बाधा
बन गया है। क्योंकि उससे खयाल पैदा हुआ है कि वह है मंदिर और शेष सारा जगत?
वह है तीर्थ और शेष सारा जगत? राम हैं भगवान,
कृष्ण हैं भगवान, महावीर हैं भगवान और ये सारे
लोग और ये आंखें और यह जीवन, फिर यह क्या है? जो आदमी कहता है राम भगवान हैं वह इसी आधार पर कह रहा होगा कि और शेष सारे
लोग भगवान नहीं हैं। अगर उसको यह खयाल आ जाए कि सभी भगवान हैं तो राम को विशेष रूप
से भगवान कहने का कोई कारण नहीं रह जाता। जो आदमी कहता है यह मंदिर भगवान का मंदिर
है, फिर वह यही तो कह रहा है कि बाकी सारे जो स्थान दिखाई पड़
रहे हैं वे भगवान के मंदिर नहीं हैं, अन्यथा विशेष रूप से
कहने का कोई कारण नहीं रह जाता है।
जरूर
भगवान का मंदिर खोजना है लेकिन बनाना नहीं है। भगवान का मंदिर है, और आदमी
ने बना लिए मंदिर, वे आदमी के बनाए हुए हैं, वे भगवान के मंदिर नहीं हैं। भगवान का यह मंदिर है जो आदमी का बनाया हुआ
नहीं है। यह चारों तरफ फैला हुआ विराट, अनंत, यह मंदिर नहीं है? और अगर इतने बड़े विराट, अनंत में मंदिर नहीं दिखाई पड़ता, जहां सूरज रोशनी
देता हो और चांदत्तारे ठंडक बरसाते हों, जहां आकाश ने छप्पर
बनाया हो, यह इतना बड़ा मंदिर भी जिन्हें नहीं दिखाई पड़ता,
जो इतने अंधे हैं, वे एक छोटी-छोटी कोठरियां
बना कर वहां भगवान के मंदिर को खोज लेंगे यह मानने का मेरा मन नहीं होता है।
जिन्हें इतने विराट सूरज के नीचे भगवान की रोशनी नहीं दिखाई पड़ती वे एक छोटा सा
दिया जला कर मंदिर में बैठ कर और रोशनी देख लेंगे उसकी मुझे विश्वास नहीं पड़ता है।
जिन्हें सूरज में नहीं दिखाई पड़ता उन्हें एक छोटी से घर के जलाए हुए दीये में कैसे
दिखाई पड़ेगा? और जिन्हें सूरज में दिखाई पड़ जाएगा उन्हें
दीये में भी दिखाई पड़ सकता है। लेकिन तब अलग से दीया जलाने की जरूरत नहीं रह जाती,
क्योंकि उसके दीये तो चारों तरफ जले हुए हैं।
साधन
जिन्हें हम समझ रहे हैं वे साधन नहीं हैं, बाधक, हिंडरेंसेस,
बाधाएं हैं। साधन वह है जो पहुंचा दे। बाधक वह है जो रोक दे। और
धर्म के नाम पर जिन्हें आज तक साधन कहा गया है उन्होंने आदमी को रोका है पहुंचाया
नहीं। न वे कभी पहुंचा सकते हैं। न पहुंचाने के लिए वे बने हैं। उनके बनाने के
पीछे भी हमारी तरकीब काम कर रही है, हम अपने को धोखा देना
चाहते हैं।
रामकृष्ण
ने किसी से पूछा कि मैं गंगा जा रहा हूं। मैंने सुना है कि गंगा में स्नान करने से
पाप से मुक्ति हो जाती है। मुझे आशीर्वाद दें कि मेरी पाप से मुक्ति हो जाए।
रामकृष्ण ने कहा कि तूने जब पाप किया तब मुझसे आशीर्वाद लेने तू नहीं आया था। जब
तूने पाप किया तब तूने खुद ही कर लिया था। तब तू गंगा से भी पूछने नहीं गया था। अब
पाप को धोने के लिए गंगा जाता है? पाप करेगा तू तो गंगा कैसे धो सकेगी? लेकिन फिर भी जा रहा है तो जा, लेकिन एक बात मैं कह
देता हूं, गंगा बड़ी पवित्र है। क्योंकि सभी कुछ पवित्र है।
जहां परमात्मा का वास है वहां सभी कुछ पवित्र है। गंगा में तू स्नान करेगा,
तो जरूर पाप निकल जाएंगे, तुझे छोड़ देंगे,
लेकिन गंगा के किनारे जो बड़े-बड़े दरख्त हैं, उन
पर पाप बैठ जाएंगे तेरी प्रतीक्षा करेंगे कि तू निकल आए, तो
फिर तेरे ऊपर सवार हो जाएं। तू कितनी देर गंगा में डूबा रहेगा? अगर तू बिलकुल ही डूब जाए तो तो एक बात है, लेकिन
अगर तू निकला, तो तू बाहर आएगा, गंगा
के संपर्क के कारण जो पाप तुझे छोड़ दिए थे, गंगा का संपर्क
छूटते ही फिर तेरे ऊपर सवार हो जाएंगे।
रामकृष्ण
चोट नहीं पहुंचाना चाहते होंगे उस आदमी को यह कह कर कि गंगा के पानी से पाप नहीं
धूल सकते हैं। लेकिन आदमी बहुत होशियार है, पाप खुद करता है और गंगा को पवित्र
मानता है। इसलिए नहीं कि गंगा पवित्र है, बल्कि इसलिए कि पाप
धोने के लिए कोई स्थान, कोई गुंजाइश, कोई
जगह होनी चाहिए। पाप हम करेंगे, धोने के लिए कोई उपाय होना
चाहिए। और फिर हम कहेंगे, तीर्थयात्रा, गंगा-स्नान, ये तो साधन हैं।
ये
साधन नहीं हैं,
ये पापियों की ईजादें हैं, जो चाहते हैं कि
पाप भी करते रहें और पाप से बचने की तरकीबें भी सस्ती निकालते रहें। एक तरफ पाप
करें, दूसरी तरफ दान दें, और कहें कि
दान जो है साधन है। पाप करें एक तरफ, दूसरी तरफ दान दें। एक
तरफ हत्याएं करें, दूसरी तरफ मंदिर बनाएं। एक तरफ चोरी,
बेईमानी, सब कुछ करें, फिर
गंगा-स्नान करें। अजीब आदमी हैं! अगर इतना ही पाप का बोध है तो पाप से छूट जाना
चाहिए, वह होगा धर्म। अगर इतना ही गलत का बोध है तो गलत से
मुक्त हो जाना चाहिए, वह होगी धार्मिक क्रांति। लेकिन गलत से
हम मुक्त नहीं होना चाहते, बल्कि हम गलत से जो पीड़ा और जो
गिल्ट, जो अपराध मालूम पड़ता है उससे छूट जाना चाहते हैं।
एक
आदमी पाप करता है,
एक गाय दान कर देता है। गाय दान करने से पाप कैसे छूट सकता है?
लेकिन गिल्ट, वह जो अपराध मालूम हो रहा था कि
मैंने पाप किया, गाय दान देने से वह अपराध का भाव छूट जाता
है, वह आदमी पाप करने को फिर ताजा हो जाता है। अब वह फिर पाप
कर सकता है। फिर गाय दान कर देगा।
पाप
करने के लिए हम पुनर्शक्ति इकट्ठी करना चाहते हैं। और उस पुनर्शक्ति को इकट्ठा
करने में ये तथाकथित साधन हमें सहयोगी बनते हैं। अपराध, गिल्ट
फीलिंग से हमें मुक्त करते हैं। गिल्ट से नहीं, अपराध से
नहीं, अपराध के भाव से। और जिस अपराधी का अपराधभाव मुक्त हो
जाए, वह अपराधी सामान्य अपराधी से ज्यादा खतरनाक हो जाता है,
यह ध्यान में होना चाहिए। क्योंकि सामान्य अपराधी को उसका अपराध
पीड़ा देता है, वह कभी चेष्टा करेगा उससे मुक्त होने की।
लेकिन जिसको यह खयाल आ गया कि मैं मुक्त हो गया दे कर, वह
फिर पाप करने के लिए उतना ही समर्थ हो गया। मैं इन्हें साधन नहीं कहता हूं।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि शास्त्रों में तो सत्य है, शास्त्रों
ने सत्य कहा है। अगर लोग नहीं जान पाते, समझ पाते, तो वह उनकी भूल है, शास्त्रों की नहीं।
मैंने
यह नहीं कहा कि शास्त्रों में सत्य नहीं है। और मैं यह भी नहीं कहता हूं कि लोगों
की भूल की वजह से वह शास्त्रों के सत्य को नहीं जान पाते हैं। मैं यह कहता हूं कि
जो शास्त्रों को पकड़ लेते हैं, वे सत्य को नहीं जान पाते है। पकड़ लेना ही
एकमात्र भूल है और कोई भूल नहीं। क्योंकि दूसरे के अनुभव को पकड़ते ही एक भूल हो
जाती है। और वह भूल यह होती है कि दूसरे के अनुभव को पकड़ लेने के बाद थोड़े ही
दिनों में ऐसा खयाल होने लगता है, ऐसा ऑटो-हिप्नोटिक,
ऐसा आत्मसम्मोहन हो जाता है कि यह अनुभव मेरा है। यह अनुभव मेरा है
यह भ्रम पैदा हो जाता है।
अमेरिका
में एक आदमी ने अब्राहम लिंकन का पार्ट किया एक अभिनय में, एक ड्रामा
में। एक ड्रामा था, अब्राहम लिंकन की कोई सेरेमनी बनाई जाती
थी। और एक आदमी को खोजा गया जिसका चेहरा लिंकन से मिलता-जुलता था। उसने लिंकन का
अभिनय किया। उसने इतनी तल्लीनता से अभिनय किया, वह इतना एक
हो गया अभिनय के साथ। उसके अभिनय की प्रशंसा भी बहुत हुई। लगभग ऐसा लगा कि जैसे
लिंकन मौजूद हो गया है। इतना जीवंत उसका अभिनय था। लेकिन लोगों को पता नहीं था कि
वह जीवंत अभिनय उस आदमी के लिए बहुत महंगा पड़ गया। ड्रामा समाप्त हो गया, वह आदमी घर आ गया, लेकिन लिंकन उसका नहीं मिटा। घर
आकर वह अब्राहम लिंकन की भाषा में खड़ा हो गया और बोलने लगा। उसकी पत्नी ने कहा:
मजाक छोड़ो। अब घर आ गए, अब तुम अब्राहम लिंकन नहीं हो। उसने
कहा: कौन कहता है कि मैं अब्राहम लिंकन नहीं, मैं अब्राहम
लिंकन हूं। और वे जो कपड़े उसने पहन रखे थे लिंकन के, वे उसने
उतारने से इनकार कर दिया। थोड़ी देर तो लोग समझे मजाक है। फिर शक गहरा हुआ। और जब
दूसरे दिन वह बाजार में लिंकन के ही कपड़े पहन कर निकला लिंकन की ही चाल से,
तब शक हुआ कि वह आदमी पागल हो गया।
वह
आदमी पंद्रह साल तक जीया,
लेकिन इसी खयाल में की मैं अब्राहम लिंकन हूं। उस आदमी को क्या हो
गया? उस आदमी ने इतनी तीव्रता से लिंकन के उधार व्यक्तित्व
को अपने ऊपर ओढ़ लिया, इतना आइडेंटिटी हो गई, इतना तादात्म हो गया कि उसे यह भ्रम पैदा हो गया कि मैं अब्राहम लिंकन
हूं। घर के लोगों ने बहुत इलाज की कोशिश की, बहुत
मनोवैज्ञानिकों को दिखलाया, लेकिन वह आदमी को तो शक भी नहीं
था, जरा भी डाउट नहीं था।
खतरनाक
आदमियों को संदेह कभी होते ही नहीं। उनको डाउट जैसी चीज कभी नहीं पकड़ती। पागल और
स्वस्थ आदमी में यही फर्क है। स्वस्थ आदमी में संदेह होता है, पागल में
संदेह होता ही नहीं। वह बिलकुल निःसंदिग्ध भाव से मानता है जो भी मानता है। और
इसीलिए दुनिया में जो पागल ढंग के लोग हैं वे फेनेटिक रिलीजस बन जाते हैं, वे पागल धार्मिक हो जाते हैं। वे कहते हैं: इसलाम ही सत्य है। और वे इसके
इतने प्राणों से कहते हैं। बुद्धिमान आदमी हेजिटेट करता है, बुद्धिमान
आदमी झिझकता है। मूढ़ आदमी झिझकता ही नहीं, हेजिटेशन को मूढ़ता
जानती ही नहीं। झिझक जैसी चीज को मूढ़ता कभी नहीं जानती, उससे
कोई संबंध ही नहीं है। बहुत लोगों ने समझाया। वह इतना घबड़ा गया, आखिर एक लाइ-डिटेक्टर, एक मशीन उन्होंने अमेरिका में
बनाई हुई है झूठ को पकड़ने के लिए। यह आदमी कहीं ऊपर से ही झूठ तो नहीं बोल रहा है,
भीतर तो यह जानता होगा गहरे में कि मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं। तो
उन्होंने उस मशीन पर उसे खड़ा किया। उस मशीन को वे चोरों और बेईमानों को पकड़ने के
लिए अदालतों में उपयोग ला रहे हैं। उस मशीन के ऊपर खड़े करके आदमी से कुछ प्रश्न
पूछते हैं। जैसे दो और दो कितने होते हैं, तो वह आदमी कहता
है, चार। इसमें कुछ झूठ बोलने की जरूरत नहीं है। तो उसके
हृदय की गति एक ढंग से चलती है। ऐसे दस-पांच प्रश्न पूछते हैं जिनमें गलत होने का
कोई सवाल नहीं। उससे पूछते हैं अभी दिन है या रात? वह कहता,
रात। तो उसके हृदय की गति सम चलती है। फिर एकदम उससे पूछते हैं कि
तुमने चोरी की? तो भीतर तो वह जानता है कि मैंने चोरी की। तो
उसका भीतर तो उत्तर आता है कि मैंने चोरी की, लेकिन वह उस
उत्तर को दबाता है और कहता, नहीं, मैंने
चोरी नहीं की। तो यह दुविधा के कारण हृदय की गति बदल जाती है और वह नीचे मशीन जो
है हृदय की बदली हुई गति को पकड़ती है कि दुविधा पैदा हो गई। जहां दुविधा पैदा हो
गई वहां आदमी झूठ बोल रहा है।
तो
उन लोगों ने सोचा कि अब्राहम लिंकन ऊपर से अपने को समझता है भीतर तो नहीं समझता
होगा। उसे लाइ-डिटेक्टर मशीन पर खड़ा किया। वह आदमी इतना घबड़ा गया था पूछताछ से कि
आज उसने तय कर लिया था कि आज मैं कह दूंगा कि मैं अब्राहम लिंकन नहीं हूं।
मशीन
पर खड़ा हुआ और उससे कई प्रश्न पूछे गए, और फिर उससे पूछा गया क्या आप
अब्राहम लिंकन हैं? उसने कहा कि नहीं, मैं
अब्राहम लिंकन नहीं हूं। लेकिन मशीन ने बताया कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। वह भीतर
से जानता है कि मैं अब्राहम लिंकन हूं। मशीन ने नीचे नोट किया कि इस आदमी को
दुविधा पैदा हो गई है, यह भीतर तो समझ रहा है कि मैं अब्राहम
लिंकन हूं, ऊपर से कह रहा है कि अब्राहम लिंकन नहीं हूं।
क्या
इतनी आइडेंटिटी हो सकती है?
क्या इतना एकात्म हो सकता है?
हो
सकता है। आदमी का मन बहुत अदभुत है। आदमी जो भी मान लेना चाहे वही मान ले सकता है।
लेकिन यह सत्य नहीं हुआ,
यह पागलपन हुआ। यह मुक्ति न हुई, यह
विक्षिप्तता हुई।
तो
एक आदमी अगर बैठ कर यह मानता रहे, मानता रहे, मानता रहे कि
मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं, मैं
ब्रह्म हूं, अहं ब्रह्मास्मि, इस पाठ
को दोहराता रहे शास्त्रों के, तो यह हो सकता है कि एक क्षण आ
जाए और उसके पूरे मनोदशा में यह बात व्याप्त हो जाए कि मैं ब्रह्म हूं। लेकिन तब
भी यह प्रोजेक्शन है। यह उसके मन की धारणा है, यह सत्य नहीं
है। इस बात को दोहराने से नहीं कि मैं ब्रह्म हूं वह ब्रह्म हो जाएगा, शांत होने से, शून्य होने से और आंख खोलने से और यह
पूछने से कि मैं क्या हूं, किसी दिन यह उसे अनुभव होगा कि
मैं ब्रह्म हूं, यह दोहराना नहीं पड़ेगा, यह वह जानेगा, यह डिस्कवरी होगी, तब यह बात दूसरी होगी। जिस दिन यह उदघाटन होगा कि मैं ब्रह्म हूं, उस दिन बात दूसरी है। और जब तक उपनिषद के वचन को याद करके, कंठस्थ करके, दोहरा-दोहरा कर वह अपने को विश्वास
दिला लेगा कि मैं ब्रह्म हूं। ये दोनों बातों में जमीन-आसमान का फर्क है। पहली
स्थिति में दोहरा कर अनुभव की गई स्थिति में वह पागल है, दूसरी
स्थिति में वह विमुक्त हो जाएगा। पहली स्थिति में विक्षिप्त है। लेकिन दोनों
स्थितियां बाहर से एक सी दिखाई पड़ सकती हैं। दोनों एक सी। क्योंकि दोनों ही यही
कहेंगे, अहं ब्रह्मास्मि। आदमी अपने को डिसिव करने की आखिरी
सीमा तक जा सकता है। शास्त्रों को पढ़-पढ़ कर वह आत्मवंचना में पड़ता है। उनको कंठस्थ
कर लेता है, याद कर लेता है। जो उनमें कहा है वही मानता है,
मानने लगता है, मानता ही चला जाता है, दोहराता चला जाता है, सजेशंस देता चला जाता है कि
मैं यह हूं, मैं यह हूं, मैं यह हूं।
जगत ऐसा है, जगत ऐसा है, जगत ऐसा है,
वह सारी बातें दोहरा कर एक स्थिति में पहुंच जाता है। जहां उसे लग
सकता है कि मैं यह हूं। यह लगता बिलकुल झूठ होगा। यह उदघाटन नहीं, यह डिस्कवरी नहीं, यह प्रोजेक्शन है, यह इनवेंशन है। यह उसी आदमी ने पकड़ कर बना ली है चीज, इस बात को उसने उघाड़ा नहीं है, जाना नहीं है। शायद
आत्मसम्मोहन की कितनी शक्ति है वह हमें कुछ पता नहीं है।
आदमी
अपने को सुझाव दे-दे कर क्या नहीं बना सकता है, इसका हमें कोई अंदाज नहीं है।
सिद्धांतों और शास्त्रों को पकड़ कर ऑटो-हिप्नोसिस, आत्मसम्मोहन
में ही आदमी पड़ता है और कहीं जाता नहीं। जो पढ़ लेता है वह उसे अच्छा लगता है।
शास्त्र में पढ़ लेता है, आत्मा अमर है। बहुत अच्छा लगता है
यह मन को, क्योंकि कोई भी मरना नहीं चाहता है। मरने से भय
लगता है। शास्त्र बिलकुल सत्य मालूम होते हैं जो कहते हैं, आत्मा
अमर है, उसको बैठ कर आदमी रोज सुबह-सांझ पाठ करता है--आत्मा
अमर है, आत्मा अमर है। वह अपने को विश्वास दिलाता है कि
नहीं-नहीं, मैं नहीं मरूंगा--आत्मा अमर है। और वर्षों तक
दोहराने से वह कहने लगेगा, आत्मा अमर है, यह मैं जानता हूं। यह दूसरी बात मैं मानता हूं कि आत्मा अमर है। कब नया
रूप ले लेगी कि मैं जानता हूं, आत्मा अमर है, कहना कठिन है। और यह खतरनाक कदम हो गया।
शास्त्र
को पकड़ लेने से भूल पैदा होती है, क्योंकि पकड़ लेने के बाद फिर हम उसके साथ
आत्मसात होने शुरू हो जाते हैं। फिर जो हमें ठीक लगता है उसको हम मानना शुरू करते
हैं, उसके साथ एक होना शुरू करते हैं, धीरे-धीरे
हम एक हो जा सकते हैं। वह एक हो जाना कोई आध्यात्मिक उपलब्धि न हुई, जीवन का अवसर खो गया उसमें।
मैंने
सुना है, एक पागलखाने में एक पागल स्वस्थ हो गया था, उसका
इलाज ठीक हो गया था, और वह मुक्त होने वाला था। पंडित नेहरू
उस पागलखाने को देखने गए थे। और देखते समय उन्होंने पूछा कि कभी कोई पागल यहां से
ठीक होकर निकलते हैं? तो उस सुपरिनटेंडेंट ने उस पागलखाने के
कहा कि निश्चित ही। और एक व्यक्ति आज हम रोके हुए हैं, इसीलिए
की आपके हाथ से ही हम उसे मुक्ति दिलाना चाहते हैं। वह स्वस्थ हो गया, तीन साल पहले वह आया था तब पागल था बिलकुल, अब
बिलकुल ठीक हो गया है।
नेहरू
ने उत्सुकता दिखाई उससे मिलने की। वह आदमी मिला और उसने कहा कि मैं बिलकुल ठीक हो
गया हूं, मैं बिलकुल स्वस्थ हो गया हूं, इस पागलखाने के लिए
बहुत-बहुत धन्यवाद। फिर उसने पूछा कि लेकिन महाशय! मैंने पूछा नहीं कि आप कौन हैं।
नेहरू से उसने पूछा कि आप कौन हैं? लेकिन मैं पूछ नहीं पाया।
आप मेरे संबंध में पूछते रहे, मैंने कुछ भी नहीं पूछा,
आप कौन हैं आखिर? तो उन्होंने कहा: मैं?
मैं जवाहरलाल नेहरू! वह आदमी हंसने लगा और उसने कहा: आप घबड़ाइए मत,
आप भी अगर यहां दोत्तीन साल रह जाएंगे तो दिमाग ठीक हो जाएगा।
क्योंकि तीन साल पहले जब मैं आया तो मुझे भी यही भ्रम था कि मैं जवाहरलाल नेहरू
हूं। आप भी यहां रुक जाइए, बिलकुल ठीक हो जाएंगे, आप बिलकुल भयभीत मत होइए, आप घबड़ाइए मत, मैं ठीक हो गया हूं, मुझे भी यही खयाल था कि मैं
जवाहरलाल नेहरू हूं।
यह
इस आदमी को खयाल कैसे पैदा हो गया था कि मैं जवाहरलाल नेहरू हूं? एक आदमी
दूसरा आदमी होने की कल्पना कैसे कर लेता है?
बेचारे
भगवान क्या कर सकते हैं;
आप नचाना चाहोगे, नाचने लगेंगे। लेकिन भगवान
वहां बिलकुल नहीं है, आपकी कल्पना ही नाच रही है। और अगर
पागलपन बढ़ता चला जाएगा तो बातचीत भी शुरू हो जाएगी दोनों तरफ से, आप ही उत्तर दोगे। और आस-पड़ोस के लोग कहेंगे कि हमें तो नहीं दिखाई पड़ते,
तो आप कहोगे, तुम नास्तिक हो, विश्वास की कमी है, तुम्हें नहीं दिखाई पड़ते। हमारी
आस्तिकता घनी है। और अहंकार फूल कर बड़ा हो जाएगा कि मैं विशेष व्यक्ति हूं मुझे
भगवान नाचते हुए दिखाई पड़ते हैं।
जिस
दिन दुनिया अच्छी होगी ऐसे लोगों का हम इलाज करने की व्यवस्था करेंगे। ये धार्मिक
लोग नहीं हैं। ये विक्षिप्त लोग हैं, ये एबनार्मल हैं। यह सामान्य चित्त
इनका स्वस्थ नहीं रहा, अनबैलेंस्ड हो गया। उसने, मार्ग से च्युत हो गया और गलत रास्ता खोज लिया सपने का। सत्य का रास्ता
नहीं खोजा, सपने में खो गया है। शास्त्र को गलत समझने का
सवाल नहीं है, शास्त्र को बिलकुल ठीक समझने का भी सवाल नहीं
है, समझना है स्वयं को, किसी शास्त्र
को नहीं। जानना है अपने को, किसी शास्त्र को नहीं। और जिस
दिन आप अपने को समझेंगे, और अपने को समझने की व्यवस्था ही और
है।
सुबह
आप उठ कर बैठे हैं और आपकी पत्नी ने कहा है कि क्या आप बैठे हुए सुस्त और अलाल की
तरह, रोज इसी तरह बैठे रहिएगा तो काम चलेगा? यह कायरता
छोड़िए, कुछ काम करिए। यह मौका है स्वयं को जानने का। आप खड़े
होकर लड़ने को राजी हो सकते हैं कि किसने मुझे कायर कहा है, मैं
सिर तोड़ दूंगा, किसने मुझे कामचोर कहा: आप यह भी कर सकते
हैं। आप यह भी कर सकते हैं कि चुपचाप बैठे हुए हंसते रहें कि जैसे बात हवा में उड़ा
दें। आप यह भी कर सकते हैं कि सुनें और समझने की कोशिश करें कि पत्नी ने कायर और
कामचोर कहा है तो क्यों कहा है, क्या मैं कामचोर हूं?
एक सिचुएशन है, सुबह से ही एक परिस्थिति खड़ी
हो गई है, उस परिस्थिति में अपने को पहचाने की जरूरत है कि
मैं क्या हूं? यह घटना में खोजने की जरूरत है कि मैं क्या
हूं? चौबीस घंटे हजार परिस्थितियां खड़ी हो रही हैं जिनमें
पहचानने की जरूरत है कि मैं क्या हूं? सत्य क्या है?
व्यवहार
में उठते-बैठते,
बात करते, रास्ते पर चलते हुए, लोगों को देखते हुए, प्रेम करते हुए, घृणा करते हुए, क्रोध करते हुए, जीवन के सारे-सारे जो अंतर्संबंध हैं, उन सारे
अंतर्संबंधों में जांच करनी है कि मैं क्या हूं? क्योंकि
अंतर्संबंध हैं दर्पण, वह जो इंटररिलेशनशिप है, वे जो अंतर्संबंध हैं हमारे जीवन के, वे हैं दर्पण।
उसमें देखना है अपनी छाप, उसमें पहचानना है अपने चेहरों को
कि मैं कौन हूं? मैं क्या हूं? और वहीं
है धर्म की खोज। धीरे-धीरे अंतर्संबंधों के दर्पण में व्यक्ति को अपनी शक्ल दिखाई
पड़नी शुरू हो जाती है कि मैं कौन हूं? मैं जानवर हूं कि आदमी
हूं? कि देवता हूं? कि ईश्वर हूं?
क्या हूं मैं? और जब अपनी शक्ल दिखाई पड़नी
शुरू होती है, अगर वह अंधेरी है, तो
आदमी उसको बदलना शुरू कर देता है। क्योंकि अंधेरी शक्ल मान रखने को कोई भी राजी
नहीं है। अगर वह कुरूप है और अग्लि है, तो आदमी उसे बदलना
शुरू कर देता है। क्योंकि कुरूप होने के लिए कोई भी राजी नहीं है। ये जो लोग इतने
बन-ठन कर निकलते हुए दिखाई पड़ते हैं, इतने सुंदर तैयार होकर
दिखाई पड़ते हैं, इसके पीछे कोई गहरी कामना काम कर रही है।
कोई भी कुरूप होने को राजी नहीं है। शरीर के तल पर कोई कुरूप होने को राजी नहीं है,
तो आत्मा के तल पर कोई कैसे कुरूप होने को राजी हो सकता है? लेकिन हमें अपनी शक्ल का पता ही नहीं है। हमारा इमेज ही हमें पता नहीं है
कि हम कौन हैं? शास्त्र लेकर बैठे हुए हैं और वहां खोज रहे
हैं कि मैं कौन हूं? जिंदगी भर खोजो वहां कुछ भी नहीं
मिलेगा। शास्त्र में कुछ भी नहीं मिल सकता है। जीवन में मिलेगा। यह जो जीवन है
चारों तरह फैला हुआ--दुकान पर बैठे हुए, ग्राहक से बात करते
हुए, मालिक से बात करते हुए, नौकर से
बात करते हुए, बच्चे पर चिल्लाते हुए, पत्नी
से झगड़ते हुए, इन सबमें मिलेगा वह जो आप हैं। इन सारी झलकों
में उसे पकड़ना होगा। इन सारी चीजों में पकड़ लेनी होगी कि कहां हूं मैं? कौन हूं मैं? और वहां से बोध होगा और वहां से
जीवन-क्रांति शुरू होती है।
लेकिन
हम तो उसे संन्यासी कहते हैं जो जंगल में भाग जाता है। जंगल में भागने वाले को
क्या पता चलेगा?
वह वैसी ही हालत में है, जैसा मैंने सुना है
कि एक औरत थी, उसे यह खयाल था कि मैं बहुत सुंदर हूं,
लेकिन वह आईने के सामने जाने से बहुत डरती थी। क्योंकि कहीं ऐसा न
हो कि आईना कह दे कि तुम सुंदर नहीं हो। आईना थोड़े ही फिक्र करेगा कि आप कौन?
आईना तो वही कह देगा जो आप हो। तो वह औरत आईने के सामने नहीं जाती
थी, इस भय से कि कहीं पता न चल जाए कि मैं कैसी हूं। उसने
कभी अपनी शक्ल नहीं देखी थी। और उसने इतनी घोषणा कर रखी थी कि मैं सुंदर हूं कि अब
वह डरने लगी थी कि मैं शक्ल देखूं या न देखूं? कहीं खुद का
ही खयाल न टूट जाए।
कुछ
मित्रों न चाहा कि कभी एक बार तो उसे आईना दिखा दें। उसे वे एक घर में मेहमान की
तरह उसे निमंत्रण किया भोजन के लिए। और जब वह भोजन के लिए बैठी तो सामने उन्होंने
एक आईना ला कर रख दिया। उस स्त्री ने उठ कर उस आईने को जमीन पर पटक दिया और
चकनाचूर कर दिया और कहा कि आईना गलत मालूम होता है। इसमें मेरी शक्ल सुंदर नहीं
दिखाई पड़ती है। यह आईना गलत है।
एक
पति भागता है पत्नी को छोड़ कर, वह कहता है, यह पत्नी गलत
है, मैं जंगल जा रहा हूं। वह यह कह रहा है कि यह आईना गलत है
इसमें मेरी शक्ल ठीक दिखाई नहीं पड़ती। मगर वह यह नहीं सोचता कि मेरी शक्ल ही गलत
हो सकती है। जंगल में भाग जाने से एक फायदा है, वहां कोई
आईना नहीं है, वहां कुछ भी पता नहीं चलेगा कि आपकी शक्ल कैसी
है। वहां आप मजे से जैसा चाहें विश्वास कर सकते हैं कि मैं ब्रह्म हूं या क्या
हूं। यहां जिंदगी में आप अपनी शक्ल देखते तो पता चलता कि ब्रह्म हैं या क्या हैं।
ईश्वर हैं कि क्या हैं। यहां देखते तो पता चलता कि पशु हैं सौ हिस्से में
निन्यानबे हिस्सा। लेकिन इससे प्राण कंपते हैं। शास्त्र में बैठ कर बड़ा आनंद आता
है कि तुम तो अजर-अमर आत्मा हो, तुम तो शुद्ध-बुद्ध आत्मा हो,
जहां कोई राग नहीं, द्वेष नहीं, कुछ भी नहीं, परम पवित्र आत्मा हो। दिल बड़ा प्रसन्न
होता है पापी का पढ़ कर, पशु का पढ़ कर, उसका
भी मन होता कि हूं तो मैं यही, लेकिन दर्पण सब गलत कहते हैं,
तो दर्पणों को तोड़ दो और भाग जाओ दर्पणों से दूर। बच्चे के पास जाता
हूं तो गलत, पत्नी के पास गलत, नौकर के
पास गलत, दुकान पर गलत, जहां देखो वहीं
गलत मालूम पड़ता हूं। वहां शुद्ध-बुद्ध आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। वहां एक चालाक,
बेईमान, पाखंडी आदमी का दर्शन होता है। जरूरी
ये सब आईने साजिश कर रहे हैं, षडयंत्र कर रहे हैं। इन्हीं की
वजह से सब गड़बड़ हो रहा है। ये आईने गड़बड़ हैं। भाग जाओ यहां से।
समाज
को छोड़ कर भागने वाला आदमी दर्पण को छोड़ कर भाग रहा है। लेकिन आप पक्का समझ लेना, दर्पण को
बेचारे को आपकी शक्ल से कोई भी मतलब नहीं है। दर्पण आपकी शक्ल क्यों बिगाड़ने लगा?
दर्पण को क्या लेना-देना है आपसे? कोई दुश्मनी
नहीं, कोई शत्रुता नहीं।
जिंदगी
एक दर्पण है। जिंदगी है दर्पण जहां हम अपने को पहचान सकते हैं, खोज ले
सकते हैं।
आप
अपने कमरे में अकेले बैठे हुए हैं, अचानक आपको पता लगा कि खिड़की से
कोई झांक रहा है। कभी आपने खयाल किया, जैसे ही आपको पता लगा
कि खिड़की से कोई झांक रहा है, आप तत्काल दूसरे आदमी हो जाते
हैं। वह जो आदमी अकेला बैठा था दूसरी ही शक्ल थी उसकी। जैसे ही पता चला कोई झांक
रहा है, आप अकड़ कर बैठ गए हैं। आप दूसरे आदमी हो गए। बाथरूम
में आप दूसरे आदमी होते हैं, बैठकखाने में दूसरे। बाथरूम में
बूढ़ा आदमी भी बच्चों जैसा कभी कूदता, आईने के सामने कभी जीभ
भी निकालता है, कभी मुंह भी बिचकाता है। लेकिन बैठकखाने में
बिलकुल दूसरा आदमी है। क्या फर्क पड़ता है, ये बाथरूम में आप
दूसरे आदमी कैसे हो जाते हैं? वहां आप अकेले हैं। यहां एक
दर्पण भी बैठा है। यहां एक आदमी बैठा है।
रास्ते
पर आप अकेले चले जा रहे हैं, रास्ता सुनसान है, आप
दूसरे आदमी हैं, और दो आदमी उस तरफ से निकल आएं, और आप तत्काल दूसरे आदमी हो गए, आपका चित्र बदल गया,
आपकी शक्ल बदल गई, आपका व्यक्तित्व बदल गया।
जिंदगी के रोज के क्षणों में आप पाएंगे कि आदमी की शक्ल पारे की भांति है, जरा सा, और बदल जाती है, बिखर
जाती है और नहीं हो जाती है।
इन
सारी शक्लों को पकड़ना पड़ेगा, तो आत्मज्ञान होगा। शास्त्रों से नहीं होगा। इन
सारी शक्लों को पहचानना पड़ेगा, यह जो सारा का सारा
व्यक्तित्व अनेक-अनेक रूपों में प्रकट होता है, इस सब तरफ से
इसकी खोज करनी होगी, पकड़ लेना होगा, पहचानना
होगा, तो धीरे-धीरे झलक मिलेगी कि मैं सच में क्या हूं। और
जिस दिन आपको पता लगेगा कि मैं कुरूप हूं, जिस दिन आपको पता
लगेगा असुंदर हूं, जिस दिन पता लगेगा असत्य हूं, बेईमान हूं, चालाक हूं, पाखंडी
हूं, उसी दिन आप अपने अंतर-भवन को बदलना शुरू कर देंगे।
क्योंकि कोई भी आदमी कुरूप नहीं रहना चाहता, कोई भी आदमी
असुंदर और असत्य नहीं रहना चाहता। लेकिन हमें अपनी शक्ल का ही कोई पता नहीं कि हम
क्या हैं? और मजा यह है कि शास्त्रों में जो शक्ल दी हुई है
उसको हम पढ़ रहे हैं और उसको हम समझ रहे हैं, और उसको याद कर
रहे हैं और शास्त्रों को छाती से लगा रहे हैं। वे शास्त्र बहुत अच्छे लगते हैं।
कृष्ण की किताब बहुत अच्छी लगती है, और महावीर की किताब बहुत
अच्छी लगती है, और बुद्ध की किताब बहुत अच्छी लगती है,
लेकिन फ्रायड की किताब बहुत अच्छी नहीं लगती। और मैं आपसे कहता हूं
कि महावीर की किताब से वह नहीं मिलेगा, बुद्ध की किताब से
नहीं मिलेगा जो फ्रायड की किताब में मिल सकता है। क्योंकि फ्रायड की किताब में
आपके भीतर वह जो जानवर बैठा है उसकी शक्ल पकड़ने की कोशिश की गई। लेकिन फ्रायड
अच्छा नहीं मालूम पड़ता, दुश्मन मालूम पड़ता है कि यह आदमी
गड़बड़ है, ये कैसी बातें करता है? हमारे
भीतर तो परमात्मा है और यह कहता है, सेक्स के अलावा आपके
भीतर कुछ भी नहीं। यह आदमी है कैसा? यह कहता, सिवाय काम के कुछ भी नहीं, राम का तो कोई पता ही
नहीं है भीतर। राम तो सिर्फ जबान पर सीखी गई बात है। ऊपर राम-राम, राम-राम, राम-राम जप रहे हैं और भीतर सिवाय सेक्स के
और कुछ भी नहीं उबल रहा है, फ्रायड यह कहता है। यह तो आदमी
बिलकुल गलती बातें कह रहा है। झूठ बात। बंद करो इस किताब को, यह किताब शास्त्र नहीं है। यह किताब खतरनाक है, इसको
वर्जित कर दो, कानून लगाओ, इसको रोक
दो।
आज
तक जिन किताबों में आदमी की असली शक्ल प्रकट हुई है, उन किताबों पर कानूनन रोक
है दुनिया में अब तक उन किताबों पर, कभी भी मुक्त नहीं हो
सकीं वे किताबें कि उन किताबों को हर आदमी तक पहुंचाया जा सके। और जिन किताबों में
आदमी की कल्पित शक्ल की, संभावित शक्ल की और आदर शक्ल की बात
है, आदमी उनको छाती से लगाए बैठा है और कह रहा है, ये धर्मशास्त्र हैं।
सवाल
आपके गलत समझ लेने का नहीं है, सवाल आपके पकड़ लेने का है। और अपनी असली शक्ल
खोजिए। वह जो नो दाई सेल्फ का पूरा नारा है कि अपने को जानो, उसको कोई किताब पढ़ कर आप नहीं जान सकते।
आपको
अपने को जानना है तो अपने दैनंदिन व्यवहार में ही खोज-बीन करनी होगी कि मैं कहां
हूं और क्या हूं। तो आपके भीतर से एक नये व्यक्तित्व का जन्म होगा। तो आप सत्य के
निकट पहुंचने में समर्थ हो सकते हैं। जो आदमी अभी अपने संबंध में भी सत्य को नहीं
जान सका कि मैं क्या हूं,
वह आदमी और किस बात के सत्य को जान सकता है। स्वयं के भीतर जानना है
सत्य।
और
जिस दिन आप जान लेंगे अपने भीतर का सत्य, उस दिन निश्चित ही मैं कहता हूं कि
आपको सभी शास्त्र सत्य मालूम होंगे। लेकिन उस दिन के पहले शास्त्र का कोई अर्थ और
कोई प्रयोजन नहीं है। शास्त्र गवाहियां हैं उन लोगों की जिन्होंने अपने आत्यंतिक
आत्मा को जाना। जिस दिन आप भी जान लेंगे, आप कहेंगे, ठीक कहते हैं कृष्ण; ठीक कहते हैं बुद्ध; ठीक कहते हैं महावीर। उस दिन आप कह सकेंगे यह जिस दिन आप जान लेंगे। लेकिन
जब तक आपने नहीं जाना है तब तक अगर आप कहते हैं ठीक कहते हैं महावीर, ठीक कहते हैं बुद्ध, तो आप धोखे में पड़ेंगे। धोखे
में पड़ेंगे इसलिए कि वह जिस आत्मा की बात कर रहे हैं, उसमें
और आपमें जमीन-आसमान का फर्क है। वे जिस आत्मा की बात कर रहे हैं, वह स्वयं के भीतर आत्यंतिक खोज का अंतिम फल है, वह
अंतिम निष्पत्ति है। अभी आप वहां नहीं हैं। आप कहां हैं? इसे
खोजना है तो कोई शास्त्र सहयोगी नहीं होगा। आप जहां हैं जहां आपकी जिंदगी है,
रोजमर्रा जिंदगी है।
एक
संन्यासी तीस वर्ष तक हिमालय पर जाकर रहा। वह बहुत क्रोधी था, बहुत
अहंकारी था। इसी अहंकार और क्रोध से मुक्त होने के लिए हिमालय पर गया। हिमालय की
शांति, आकाश को छूते हुए हरे दरख्त, पहाड़ों
पर जमी हुई बर्फ, सन्नाटा, मौन,
उस शून्य में तीस वर्ष रहने से उसे ऐसा लगा कि मेरा क्रोध गया,
मेरा अहंकार गया।
उतने
सन्नाटे में कोई कारण नहीं था क्रोध के पैदा होने का। अहंकार के प्रकट होने की कोई
गुंजाइश न थी। अहंकार तभी प्रकट हो सकता है जब दूसरा अहंकार मौजूद हो। अकेले में
कैसे प्रकट होगा?
अकेले में प्रकट होने का मार्ग नहीं है। अहंकार के लिए चुनौती चाहिए
दूसरे अहंकार की, तब वह पैदा होता है। अगर एक गांव में एक ही
महात्मा है, तो उसमें आपको अहंकार पता नहीं चलेगा। दूसरे
महात्मा को गांव में ले आइए, और आपको फौरन पता चल जाएगा कि
अहंकार वहां है। इसलिए तो एक गांव में दो महात्मा बहुत मुश्किल। एक धर्म में दो
महात्मा बहुत मुश्किल। एक समाज में दो महात्मा बहुत मुश्किल। बस एक ही महात्मा जी
सकता है। अहंकार दूसरे के मौजूद होते ही चुनौती लेता है और खड़ा हो जाता है।
वह
अकेले में था,
चुनौती नहीं, कोई चैलेंज नहीं। वहां कोई आया
नहीं कहने को कि तुम कुछ भी नहीं हो। किसी ने इस आंख से नहीं देखा कि दो कौड़ी के
हो। वहां कोई था ही नहीं। दरख्त, दरख्तों को क्या मतलब कि
कौन साधु-महात्मा बैठे हुए हैं। पशु-पक्षी नाचते-गाते थे, उन्हें
क्या पता कि ये कौन बैठे हुए हैं। अकेला आदमी धीरे-धीरे उसे शक पैदा हो गया कि
मेरा अहंकार मर गया है।
एकांत
में ये भ्रम पैदा हो जाते हैं। और इसलिए झूठे धार्मिक आदमी एकांत की खोज करते हैं।
क्रोध विलीन हो गया,
क्रोध की रूप-रेखा न रही। क्रोध आसमान से थोड़े ही उतरता है, वह तो हमारे भीतर है। लेकिन बाहर उसे पुकार देने के लिए कोई चाहिए।
एक
कुएं में पानी भरा हुआ है,
कोई बाल्टी और रस्सी लेकर आए तो पानी बाहर आता है, नहीं तो कुएं के भीतर ही रह जाता है। क्रोध हमारे भीतर भरा है, लेकिन कोई चाहिए कि रस्सी-बाल्टी लेकर आए और खींचे हमारे बाहर, तो निकलेगा, नहीं तो निकलेगा कैसे? कोई रस्सी नहीं, कोई बाल्टी नहीं, कोई निकालने वाला नहीं, अकेले में वह क्रोध निकलेगा
कैसे?
वह
भीतर ही भरा रहा,
भरा रहा, भरा रहा, तीस
साल में वह आदमी भूल गया। फिर उसके मन में आया कि अब तो मैं चलूं वापस, अब तो मैंने जीत लिया क्रोध को, जीत लिया अहंकार को।
वह
नीचे उतरा, वह नीचे पहाड़ से उतरा, तो एक बड़ा मेला गंगा के
किनारे लगा हुआ है। वह उस मेले में भीतर गया। वहां तो उसे कोई भी नहीं पहचानता है।
और आप हैरान होंगे, अगर पहले से प्रचार न किया जाए कि फलां
महात्मा आ रहे हैं, तो किसी महात्मा को आप न पहचान सकोगे।
प्रचार बहुत जरूरी है कि फलां आदमी महात्मा है, सर्वज्ञ है,
ज्ञाता है, ज्ञानी है, इसका
जितना प्रोपेगेशन, इसका जितना विज्ञापन हो, उतना ही वह आदमी महात्मा मालूम पड़ेगा। यह महात्मा में और बिनाका में कोई
बहुत फर्क नहीं है। नहीं तो आदमी साधारण मालूम पड़ेगा।
अभी
आ जाएं महावीर और बैठ जाएं और आपको खबर न हो कि महावीर आ गए, तो कोई
पुलिस को खबर देने चला जाएगा कि नंगा आदमी भीड़ में आकर बैठ गया, पुलिस को खबर कर दें। पता हो कि महावीर आ गए हैं, तो
चरणों पर गिर पड़ेंगे। आपको महावीर से कोई मतलब नहीं है, महावीर
आपको दिखाई नहीं पड़ते, दिखाई सिर्फ प्रोपेगेंडा पड़ता है।
उस
महात्मा की कोई खबर न आई थी। उसके आगे-पीछे कोई बैंडबाजे नहीं आए थे, अकेला आ
गया, भीड़ में घुस गया। भीड़ में लोग उसको धक्के देने लगे। एक
आदमी ने धक्का देकर कहा कि खड़े रहो जी, कहां अंदर घुसते हो,
दिखाई नहीं पड़ता कि धक्का मार रहे हो, और तीस
साल हवा हो गए कि कहां मिट गए। महात्मा ने उसकी गर्दन पकड़ ली और कहा: बदतमीज,
बोलना नहीं आता, और तब उसे एकदम से खयाल आया
कि अरे, वह क्रोध, वह अहंकार जो मैं
सोचता था गया, वह तो तैयार बैठा था और प्रतीक्षा करता था कि
कोई मिल जाए तो निकलूं। उस संन्यासी ने कहा: मुझे क्षमा करना दोस्त! लेकिन तुमने
मेरे ऊपर उतनी कृपा की जितनी हिमालय ने भी नहीं की। और तुम्हारे छोटे से संपर्क से
मुझे वह दिखाई पड़ गया जो बीस साल के सन्नाटे में पता भी नहीं चला था। तीस साल
व्यर्थ हो गए, धोखे में चले गए।
जहां
जिंदगी है वहां सत्य है। वहां आपकी झलक दिखाई पड़ेगी कि आप क्या हैं। वहां पता
चलेगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें