धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो
सातवां प्रवचन
आंतरिक परिवर्तन का विज्ञान
मेरे
प्रिय आत्मन्!
मैं
एक छोटी सी कहानी से अपनी आज की बात को प्रारंभ करूंगा।
एक
बहुत काल्पनिक कहानी आपसे कहूं और उसके बाद आज की बात आपसे कहूंगा। एक अत्यंत
काल्पनिक कहानी से प्रारंभ करने का मन है। कहानी तो काल्पनिक है लेकिन मनुष्य की
आज की स्थिति के संबंध में,
मनुष्य की आज की भाव-दशा के संबंध में उससे ज्यादा सत्य भी कुछ और
नहीं हो सकता।
मैंने
सुना है कि परमात्मा ने यह देख कर कि मनुष्य रोज विकृत से विकृत होता जा रहा है, उसकी संस्कृति
और संस्कार नष्ट हो रहे हैं, उसके पास शक्ति तो बढ़ रही है
लेकिन शांति विलीन हो रही है, उसके पास बाहर की समृद्धि तो
रोज बढ़ती जाती है लेकिन साथ ही भीतर की दरिद्रता भी बढ़ती जा रही है। और यह देख कर
कि मनुष्य इन सारे घातक स्थिति में उलझ कर कहीं स्वयं का नाश न कर ले। दुनिया के
तीन बड़े राष्ट्रों को अपने पास बुलाया।
यह
मैंने कहा: बिलकुल काल्पनिक कहानी है, कोई परमात्मा इस भांति बुलाने को
नहीं, लेकिन फिर भी इस कहानी में कुछ है, जिसकी वजह से आपसे कहना चाहता हूं।
उसने
अमेरिका, रूस और इंग्लैंड के प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाया और उनको कहा कि
तुम्हारे पास इतनी समृद्धि है और इतनी शक्ति है कि यदि चाहो तो जमीन स्वर्ग बन
सकती है, लेकिन मैं देख रहा हूं कि जमीन रोज नरक से नरक बनती
जा रही है और यह भी संभावना है, यह भी भय है कि कहीं
तुम्हारी इस युद्ध की, घृणा की और हिंसा की दौड़ में सारी
मनुष्यता नष्ट न हो जाए। इसलिए मैंने आज तुम्हें बुलाया है इस खयाल से कि मैं
एक-एक वरदान तुम्हें दे दूं, तुम मांग लो, जो भी तुम्हें मांगना हो, जो भी तुम्हारी कामना हो।
और उस वरदान को मांग कर, उस वरदान को लेकर तुम तृप्त हो जाओ
और शांत हो जाओ, ताकि युद्ध की संभावना समाप्त हो जाए।
उसने
अमेरिका के प्रतिनिधि की तरफ देखा, उस प्रतिनिधि ने कहा: हे परमात्मा!
हमारी एक ही आकांक्षा है, अगर वह पूरी जाए, तो फिर हमें कुछ भी नहीं चाहिए, हमारी सारी दौड़
समाप्त हो जाएगी। ईश्वर ने बहुत प्रसन्नता से देखा और कहा: मांगो, मैं उसे पूरा कर दूंगा। उस अमेरिकी प्रतिनिधि ने कहा: एक ही हमारी
आकांक्षा है, जमीन तो रहे लेकिन जमीन पर रूस का कोई निशान न
रह जाए।
परमात्मा
ने पीछे इतिहास में,
पुराणों में बहुत से वरदान दिए हैं, ऐसा वरदान
कभी उससे मांगा नहीं गया था। उसने बड़ी हैरानी से रूस के प्रतिनिधि की तरफ देखा,
उस प्रतिनिधि ने कहा: महानुभाव! एक तो हमारा कोई विश्वास नहीं कि
आपकी कोई सत्ता है, हम मानते नहीं कि आपका कोई होना है,
और कोई चालीस वर्ष हुए हमने अपने मंदिरों से, अपने
गिरजों से आपको निकाल कर बाहर कर दिया है, लेकिन हम आपकी
पुनः प्रतिष्ठा कर देंगे, फिर मंदिर में आपकी पूजा होगी और
दीये जलाए जाएंगे, अगर एक छोटी सी बात पूरी हो जाए तो हम
स्वीकार कर लेंगे कि परमात्मा है और उसकी पूजा भी प्रारंभ कर देंगे।
ईश्वर
ने कहा: वह कौन सी बात है?
रूस
के प्रतिनिधि ने कहा: एक ही हमारी धारणा, एक ही हमारी आशा, एक ही कामना है, एक ही हमारी इच्छा है जो पूरी हो
जाए और वह यह है कि जमीन का नक्शा तो हो लेकिन नक्शे पर अमेरिका के लिए कोई रंग,
कोई रेखा न बचे।
ईश्वर
ने बहुत हैरानी से ब्रिटेन की तरफ देखा, और ब्रिटेन ने जो कहा वह मन में रख
लेने जैसा है। ब्रिटेन कहा: हे प्रभु! हमारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं, इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ पूरी हो जाएं, तो
हमारी आकांक्षा पूरी हो जाती है।
यह
कहानी मैंने देश के कोने-कोने में कही। सभी जगह लोग इसको सुन कर हंसते हैं। अभी
मुझे ऐसे लोग नहीं मिले जो इसे सुन कर रोने लगें। लेकिन यह हंसने की बात नहीं है।
इसमें हंसने जैसा क्या है?
यह तो मनुष्य के ऊपर रोने की बात है। और यह कहानी झूठी है, मैंने कहा: यह कहानी झूठी नहीं है, हमारे मन की ऐसी
ही स्थिति है। हम सब जैसे यही चाह रहे हैं कि दूसरे विनष्ट हो जाएं और जो समाज,
जो सभ्यता इस भांति विनाश की, दूसरे की मृत्यु
की कामना से भर गई हो उसे हम स्वस्थ नहीं कह सकते। उसे कहना होगा, वह विक्षिप्त हो गई है, वह पागल हो गई है। कुछ
मनुष्य के भीतर अनिवार्य अंग टूट गया है, उसके बोध का कोई
हिस्सा टूट गया है, उसके भीतर समझ की कोई बात समाप्त हो गई
है। कोई न कोई दीया मनुष्य के भीतर बुझ गया है, तभी विनाश की
ऐसी तीव्र आकांक्षा मनुष्य में प्रकट हो रही है।
विनाश
या विनाश की आकांक्षा स्वस्थ मन का प्रतीक नहीं है। तो यह बात रोने जैसी है। और यह
जो मैंने कहा कि ब्रिटेन की मनःस्थिति ऐसी है, ऐसा नहीं है, हम सबकी मनःस्थिति भी वैसी ही है। प्रत्येक व्यक्ति आज ऐसी ही घातक और
विषाक्त धारणाओं से भर गया है। और इसके परिणाम हो रहे हैं। इसके परिणाम ये हो रहे
हैं कि जमीन पर कोई तीन अरब लोग हैं, और अगर ये तीन अरब लोग
एक-दूसरे की विनाश की कामना से भरे हों, अगर इन तीन अरब
लोगों से ऐसे भाव उठते हों जो दूसरे के लिए घातक हैं, जो
दूसरे के प्रति हिंसा में हैं, जो दूसरे के प्रति क्रोध और
प्रतिशोध से भरे हैं, और जिनकी सारी चेष्टा यह है कि वे
दूसरे लोगों को दुख पहुंचाने में सफल हो जाएं, तो यह कैसे
संभव है कि मनुष्य का समाज सुख और शांति को अनुभव कर सके! यह कैसे संभव है कि जमीन
पर हम एक बेहतर मानवता की सृष्टि कर सकें! यह संभव नहीं होगा। इन धारणाओं और इन
भावनाओं के साथ यह संभव नहीं होगा।
यह
विचारणीय है और यह चिंतनीय है, और इस पर आंसू आने चाहिए, हंसी आने का तो कोई भी कारण नहीं है कि यह मनुष्य को क्या हो गया है। ऐसा
इसके पूर्व कभी हुआ था ऐसा ज्ञात नहीं होता, ऐसा प्रतीत नहीं
होता कि इतनी तीव्र हिंसा ने पूर्णता पाई हो। मनुष्य ने युद्ध किए हैं, मनुष्य लड़ा है, मनुष्य ने हिंसा की है, लेकिन हमारी युग की हिंसा पूर्ण हिंसा है। और हम जिस युद्ध की तैयारी में
हैं वह कोई साधारण युद्ध नहीं होगा, वह तो टोटल वार होगी,
वह तो समग्र युद्ध होगा। समग्र युद्ध का अर्थ होता है कि उसमें
युद्ध करने वाले कोई भी पक्ष शेष नहीं रह जाएंगे। आंशिक युद्ध का अर्थ होता है,
एक जीतेगा और एक हार जाएगा। पूर्ण युद्ध का अर्थ होता है, कोई जीतेगा नहीं, कोई हारेगा नहीं, दोनों समाप्त हो जाएंगे।
पिछले
दस-पंद्रह वर्षों में हिरोशिमा और नागासाकी के ऊपर अणु बम को गिराने के बाद हमारी
विनाश की शक्तियों ने आकाश छू लिया है। अगर उनकी गणना मैं आपको दूं तो आप हैरान
होंगे कि ये किन बातों की सूचनाएं हैं। नागासाकी और हिरोशिमा में जो अणु बम गिराया, वह आज
हमारे पास जो अणु बम और उदजन बम हैं उनकी दृष्टि से वह बिलकुल बच्चों का खिलौना
था। लेकिन उस खिलौने ने भी एक लाख लोगों की बस्ती को थोड़ी ही देर में समाप्त कर
दिया। नागासाकी और हिरोशिमा एक ही रात में समाप्त हो गए। और जब रात्रि को ग्यारह
बजे, उन दिनों अमेरिका के प्रेसिडेंट ट्रूमैन थे, उनको खबर मिली कि नागासाकी, हिरोशिमा ध्वस्त हो गए
हैं, उनमें कोई भी प्राण शेष नहीं रहा, तो पत्रकारों ने उनसे सुबह दूसरे दिन आकर पूछा, क्या
आप रात को ठीक से सोए? ट्रूमैन ने कहा: पिछले तीन-चार वर्षों
के बाद कल ही मैं ठीक से सो पाया। ट्रूमैन ने कहा कि कल जब मुझे खबर मिल गई कि
नागासाकी और हिरोशिमा नष्ट हो गए और जापान की रीढ़ टूट गई और जापान आज नहीं कल
समर्पण कर देगा तो मैं परिपूर्ण शांति से सो पाया।
एक
पत्रकार ने ट्रूमैन को कहा: बड़ी हैरानी की बात है! एक लाख लोग मर गए हों आपकी
आज्ञा से और आप शांति से सो पाए?
और
ट्रूमैन अगर शांति से सो सके हैं तो यह न सोचें कि वे बुरे मनुष्य हैं। वे सब
हमारे प्रतीक हैं,
हमारी सबकी दशा भी, हमारी सबकी मनःस्थिति भी
वैसी ही है, उससे भिन्न नहीं है। इन बीस वर्षों में पैंतालीस
के बाद विनाश की साधना और भी तीव्र हुई है। और अब हमारे पास, मैं सुनता हूं, कोई पचास हजार उदजन बम तैयार हैं। जब
कि पचास हजार उदजन बम इस छोटी सी जमीन को मिटाने के लिए जरूरत से बहुत ज्यादा हैं।
वैज्ञानिकों का खयाल है कि अगर इस तरह की जमीनें सात हों, तो
ये पचास हजार उदजन बम उन सात भूमियों को नष्ट कर देंगे। या हम ऐसा भी सोच सकते हैं,
मनुष्यों की संख्या तीन अरब हैं, अगर इक्कीस
अरब मनुष्य हों तो हमारे पास इतने साधन हैं कि इक्कीस अरब मनुष्य नष्ट हो सकेंगे।
इसे वैज्ञानिक यूं भी कहना पसंद करते हैं कि अगर हम एक आदमी को सात-सात बार मारना
चाहें, तो भी मार सकते हैं। हालांकि कोई आदमी को दुबारा
मारने की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि एक बार जो मर गया उसे
दुबारा मारने का प्रश्न नहीं उठता। तब यह पूछा जा सकता है कि यह विनाश की इतनी
तीव्रता से बढ़ती हुई साधना, यह विनाश के लिए इतना आयोजन कौन
कर रहा है और किसलिए कर रहा है?
इस
जमीन को मिटाने के लिए बहुत ज्यादा हो गया, लेकिन फिर भी दौड़ आगे है। यह दौड़
अंधी है और इस दौड़ के पीछे राजनैतिक या सामाजिक या आर्थिक कारण नहीं हैं, इस दौड़ के पीछे मूलतः आध्यात्मिक कारण हैं। जो मनुष्य, जो मनुष्यों का समाज, धर्म से और अध्यात्म से टूट
जाएगा, जिसकी जड़ें परमात्मा में और आत्मा में अपना स्थान खो
देंगी, जिन समाजों की, जिन लोगों की
आंखें जमीन से ऊपर आकाश की तरफ देखना बंद कर देंगी, जो लोग
अपने शरीर के अतिरिक्त स्वयं के भीतर और कुछ भी नहीं पा सकेंगे, उन लोगों का, उन लोगों के जीवन का, उनकी चर्या का, उनके मस्तिष्क का यह अनिवार्य परिणाम
होगा। यह हमारे भीतर धर्म के साथ संबंध टूट जाने का परिणाम है।
नीत्शे
ने कोई डेढ़ सौ वर्ष पहले कहा था कि दुनिया के कोने-कोने में यह खबर कर दी जाए कि
ईश्वर मर गया है। गॉड इज़ नाउ डेड। उसने कहा था, कोने-कोने में दुनिया के खबर कर दो
कि ईश्वर अब मर गया है। डेढ़ सौ वर्षों में ईश्वर तो नहीं मरा, लेकिन यह खबर हमारे सामने आ गई है सबके कि आदमी बहुत दिन जिंदा नहीं रह
सकेगा। ईश्वर मरा या नहीं, पता नहीं, लेकिन
आदमी निरंतर मरने से मरने की तरफ चला जा रहा है।
मैंने
कहना शुरू किया है,
जो कौम, जो समाज ईश्वर से संबंध को तोड़ लेगी
वह बहुत ज्यादा दिन जी नहीं सकती। उसका जीवन गुलदस्तों में लगे फूलों की तरह हो
जाएगा, उसका जीवन जमीन पर उगे हुए पौधों के फूलों की भांति
नहीं होगा। उसकी जड़ें खो जाएंगी और उसे जबरदस्ती सम्हाल कर रखना होगा। कितनी देर
सम्हाल कर रखा जा सकता है।
यह
मैं बहुत जोर से आपसे कहना चाहूंगा कि मनुष्य के भीतर यदि दुख हो तो वह मनुष्य
दूसरों को दुख देना शुरू कर देता है। जो मनुष्य भीतर पीड़ित और परेशान हो वह मनुष्य
किसी दूसरे आदमी को सुखी और संपन्न नहीं देखना चाहता। दुखी मनुष्य की एक आकांक्षा
होती है, एक ही आकांक्षा कि शेष सारे लोग भी दुखी हो जाएं।
जो
लोग धर्म से संबंध छोड़ देंगे उनके भीतर दुख के सिवाय कुछ भी नहीं रह जाएगा।
क्योंकि धर्म का कोई संबंध परलोक से उतना नहीं है, स्वर्ग और नरक की धारणाओं
से उतना नहीं है, ईश्वर के विश्वास अविश्वास से उतना नहीं है
जितना मनुष्य के भीतर एक संगीतपूर्ण शांति को उत्पन्न करने से है। धर्म एक
वैज्ञानिक पद्धति है जिसके द्वारा व्यक्ति आंतरिक स्वास्थ्य को उपलब्ध हो सकता है।
जब मैं धर्म का उपयोग कर रहा हूं, तो जैन, हिंदू, मुसलमान या ईसाई शब्दों से मेरा कोई प्रयोजन
नहीं है। और इन शब्दों ने बहुत नुकसान पहुंचाया है, इन
शब्दों के कारण धर्म से हमारी दृष्टि हट गई।
मैंने
सुना है, एक और काल्पनिक कहानी आपको कहूं। मैंने सुना है, एक
फकीर हुआ, उस फकीर से किसी व्यक्ति ने पूछा कि आप तो अक्सर
जाकर स्वर्ग के दर्शन करते होंगे, वहां के संबंध में कुछ खबर
सुनाएं।
उस
फकीर ने उससे कहा: एक दफा स्वर्ग के स्वप्न में दर्शन हुए थे, तब से फिर
मैंने वापस स्वर्ग जाने की हिम्मत नहीं की।
उस
आदमी ने पूछा,
आप यह क्या कहते हैं?
उसने
कहा: उस घटना को हुए बीस वर्ष हो गए, और बीस वर्षों से मैं रो रहा हूं
कि वह मैंने क्यों स्वर्ग को जाकर देख लिया।
वह
आदमी और भी हैरान हुआ। उसने कहा: स्वर्ग में क्या देखा?
उसने
कहा कि एक रात्रि मैं सोया और मैंने देखा कि स्वर्ग में खड़ा हूं, बहुत,
बहुत बड़ा जुलूस निकल रहा है, करोड़ों लोग मालूम
होते हैं। मैंने पूछा, यह क्या है? तो
लोगों ने कहा: यह परमात्मा का जन्म-दिवस मनाया जा रहा है। यह भीड़ में ऊपर घोड़े पर
एक व्यक्ति सवार है, मैंने पूछा, यह
कौन है? तो पता चला, ये ईसामसीह हैं और
ये उनके साथ उनके भक्त जा रहे हैं। करोड़ों लोगों के जुलूस के बाद दूसरा जुलूस आता
था और उसने पूछा, ये कौन हैं? तो पता
चला, ये मोहम्मद हैं। करोड़ों लोग उनके साथ भी थे। फिर महावीर
थे, फिर बुद्ध थे, ऐसा जुलूस चलता गया।
और सारा जुलूस जब निकल गया तो बिलकुल आखिर में एक अत्यंत वृद्ध घोड़े पर एक वृद्ध
आदमी सवार था, जिसके साथ कोई भी नहीं था। उसने पूछा, ये कौन हैं? तो पता चला ये परमात्मा हैं। मोहम्मद के
साथ हैं लोग, ईसा के साथ हैं, महावीर
के साथ हैं, बुद्ध के साथ हैं, परमात्मा
के साथ कोई भी नहीं है।
नामों
ने, धर्मों के संप्रदायों ने धर्म को सबसे बड़ा नुकसान पहुंचाया है। परिणाम यह
हुआ है कि लोग ईसाई हो सकते हैं, हिंदू हो सकते हैं, जैन हो सकते हैं, धार्मिक होने की सुविधा किसी को भी
नहीं रह गई है। और एक गलतफहमी पैदा होती है कि जो आदमी जैन हो जाए, हिंदू हो जाए, ईसाई हो जाए, उसे
जैसे यह विश्वास आ जाता है कि इतना होने से वह धार्मिक हो गया। इन शब्दों के नाम
जन्म के साथ मिल जाते हैं और तब हमें बड़े भ्रम पैदा हो जाते हैं।
कोई
व्यक्ति जन्म से धार्मिक नहीं होता, धार्मिक होना उपलब्धि है, अर्जन है, अचीवमेंट है, वह
पैदाइशी बात नहीं है कि मैं एक हिंदू घर में पैदा हो गया तो मैं हिंदू हो जाऊंगा,
या मुसलमान घर में पैदा हो गया तो मुसलमान हो जाऊंगा। पैदाइश से
किसी के धार्मिक होने का क्या संबंध हो सकता है? पैदाइश से
कोई संबंध नहीं हो सकता। एक डाक्टर का लड़का डाक्टर नहीं होता, इंजीनियर का लड़का इंजीनियर नहीं होता। खून में बाप का ज्ञान नहीं आता,
न खून में बाप की अनुभूतियां आती हैं। तो कोई व्यक्ति पैदाइश से
धार्मिक नहीं हो सकता। सारी दुनिया में यह भ्रम है कि हम पैदाइश से धर्मों में बंट
गए और धार्मिक हो गए। इससे बड़ी घातक बात पैदा हुई है। धर्म एक व्यक्तिगत उपलब्धि
है, जिसे मां-बाप से नहीं पाया जाता, जिसे
खुद साधना होता है। इन नामों के कारण, इस बंटाव के कारण धर्म
के प्रति हमारा ध्यान नहीं रहा है और तब ईसा, मोहम्मद और
गांधी, बुद्ध, महावीर इनके साथ लोग
बंटते जाएंगे लेकिन सीधा परमात्मा के पक्ष में कोई नहीं रह जाता।
यह
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि मैं जिस धर्म की बात कह रहा हूं वह किसी विशेषण वाले
धर्म की नहीं,
बल्कि उस धर्म की बात कह रहा हूं जिसके साथ किसी विशेषण की कोई
जरूरत नहीं है। और वह धर्म, वैसा धर्म मनुष्य के भीतर एक
आंतरिक परिवर्तन के विज्ञान से ज्यादा कुछ भी नहीं है। आंतरिक परिवर्तन का विज्ञान,
जब मैं आपसे कहता हूं, तो मेरा प्रयोजन यह है
कि हम मनुष्य को जैसा पाते हैं जन्म के बाद वैसा मनुष्य पर्याप्त नहीं है। मनुष्य
जैसा पैदा होता है वह मनुष्य की पूर्णता नहीं है। मनुष्य जैसा जन्मता है वह मनुष्य
की अंतिम परिणति नहीं है, वह केवल प्रारंभ है।
और
यह बात विचारणीय है,
सारे प्रकृति में मनुष्य को छोड़ कर सारे जानवर पूरे के पूरे पैदा
होते हैं। कोई जानवर अधूरा पैदा नहीं होता। अधूरा पैदा होने वाला मनुष्य अकेला
प्राणी है। किसी कुत्ते को आप यह नहीं कह सकते कि तुम कम कुत्ते हो, लेकिन किसी आदमी से आप कह सकते हैं कि तुम कम आदमी हो। किसी और जानवर को
आप नहीं कह सकते कि तुम अधूरे हो। वे सब पैदाइश के साथ पूरे हैं, मनुष्य पूरा नहीं है। और यह दुर्भाग्य नहीं है, यह
सौभाग्य है, क्योंकि जो पूरा पैदा होता है उसे विकास की कोई
गुंजाइश नहीं होती। मनुष्य अधूरा है। मनुष्य बीज की भांति पैदा होता है, विकास उसे स्वयं करना होता है।
धर्म
की स्वीकृति इस बात से प्रारंभ होती है कि हम यह बात इस तथ्य को विचार कर लें कि
मनुष्य पैदाइश के साथ पूरा नहीं है, अत्यंत अधूरा है। उसकी सारी
संभावनाएं मात्र हैं, वास्तविक कुछ भी नहीं है, पोटेंशियलिटीज हैं। उन सारी बीजरूप संभावनाओं को परिवर्तित करना होगा।
व्यक्ति को स्वयं अपनी सारी संभावनाओं को विकसित करना होगा। और तब यह हो सकता है
कि ठीक अर्थों में उसके भीतर मनुष्य का जन्म हो सके। एक जन्म मां-बाप से मिलता है,
दूसरा जन्म धर्म से मिलता है। जो पहले जन्म पर रुक जाते हैं वे
वास्तविक जन्म से वंचित रह जाते हैं।
ईसा
से एक अंधेरी रात में एक युवक ने जाकर पूछा था, मैं क्या करूं, सत्य को पाने के लिए मैं क्या करूं, आनंद को पाने के
लिए क्या करूं? तो क्राइस्ट ने कहा था, तुझे फिर से जन्म लेना होगा। वह व्यक्ति बहुत हैरान हुआ, उसने कहा: फिर से जन्म लेने का अर्थ क्या है? क्राइस्ट
ने कहा: फिर से जन्म लेने का अर्थ है: एक जन्म मां-बाप के पेट से मिल जाता है,
वह जन्म प्रारंभ है; दूसरा जन्म स्वयं की
साधना, स्वयं के अर्जन से उपलब्ध होता है, स्वयं की चेष्टा से उपलब्ध होता है। जो उस दूसरे जन्म को नहीं पाता वह ठीक
अर्थों में मनुष्य नहीं हो पाता है। वह मनुष्य हो सकता था लेकिन हो नहीं पाया।
धर्म
के विचार की शुरुआत इस भावना, इस धारणा, इस दृष्टि से
होती है कि हम यह समझें कि हम जैसे हैं उस पर ही तृप्त हो जाना काफी नहीं है। जो
लोग अपने प्राकृतिक होने से तृप्त हो जाते हैं वे लोग विकास नहीं कर पाते। धर्म
बड़ी गहरी अतृप्ति है। एक बहुत डिवाइन डिस्कंटेंट जिसे हम कहें, एक बहुत दिव्य प्यास, अतृप्ति, असंतोष है। दूसरे लोग आपसे कहेंगे, धर्म संतोष
सिखाता है, मैं आपसे कहूंगा, ऐसा नहीं
है, धर्म बहुत असंतोष सिखाता है। जो संतुष्ट हैं वे धार्मिक
हो ही नहीं सकेंगे। जिनकी बड़ी गहरी असंतुष्टि है, जो अपने
होने से असंतुष्ट हैं, जैसा अपने को पाते हैं उसमें कुछ भी
ऐसा नहीं पाते कि उससे तृप्त हो जाएं। ऐसे लोग ही केवल धार्मिक हो सकते हैं।
धर्म
की शुरुआत एक आंतरिक असंतोष से होती है। और वह आंतरिक असंतोष इस तथ्य के स्वीकार
से पैदा होता है कि हम जैसे हैं वही होना हमारी नियति और भाग्य नहीं है उससे बहुत
भिन्न, उससे बहुत ऊपर मनुष्य को अतिक्रमण किया जा सकता है। मनुष्य अपना अतिक्रमण
कर सकता है। अशांत है तो शांत हो सकता है, दुखी है तो आनंद
को उपलब्ध हो सकता है, अंधकार में है तो प्रकाश को पा सकता
है।
कैसे
दुख आनंद में परिणित होगा?
कैसे अशांति शांति बनेगी? कैसे विसंगीत,
अराजकता संगीत में पैदा होगी? इसके विज्ञान का
नाम ही धर्म है।
ऐसे
धर्म के संबंध में थोड़ी सी बातें आज की संध्या मैं आपसे कहना चाहूंगा। स्वाभाविक
है कि ऐसे धर्म का कोई संबंध अंधविश्वास से नहीं होगा। आपसे मैं नहीं चाहूंगा कि
कुछ बातों पर विश्वास करें। जो लोग आपसे कहते हैं कि कुछ बातों पर विश्वास कर
लें--परमात्मा पर,
आत्मा पर, स्वर्ग पर या नरक पर, वे लोग आपसे गलत बात कहते हैं। विश्वास का कोई सवाल नहीं है। किसी अंधे
आदमी को यह कहना कि प्रकाश पर विश्वास कर लो, अत्यंत गलत बात
है। प्रकाश पर विश्वास नहीं किया जाता। या तो प्रकाश को जाना जाता है या नहीं जाना
जाता। धर्म का संबंध भी अंधविश्वासों से नहीं है। कोई संबंध नहीं है इस बात से कि
आप विश्वास करें, संबंध है इस बात से कि आप विवेक के लिए
चेष्टा करें।
मैंने
आपको कहा कि धर्म का संबंध अंधविश्वासों से नहीं है। और जो लोग धर्म के नाम से
अंधविश्वासों का प्रचार कर रहे हैं या करते हैं या किया है, उन सारे
लोगों ने धर्म को नुकसान पहुंचाया है। दुनिया में जो नास्तिकता पैदा हुई है,
वह धर्म के विरोध में नहीं, अंधविश्वासों के
विरोध में पैदा हुई है। दुनिया में जो अधार्मिक लोगों को बल मिला है, वह विज्ञान से नहीं मिला, न विज्ञान की खोजों से
मिला, बल्कि धर्म के नाम पर चलते हुए अंधविश्वासों की
प्रतिक्रिया से मिल रहा है। और जब तक धर्म के नाम पर अंधविश्वास होंगे तब तक
विचारशील लोग धर्म के पक्ष में खड़े नहीं हो सकते हैं। धर्म के पक्ष में
अनिवार्यतया तब अविचारशील लोग रह जाएंगे। और आज ऐसा हुआ है, यह
दुखद घटना घटी है कि जितने विचारशील लोग हैं वे धर्म के विरोध में खड़े होते जा रहे
हैं और जितने विचारहीन लोग हैं वे धर्म के पक्ष में रहते जा रहे हैं। यह खतरनाक है
स्थिति। और जहां विचारहीन लोग रह जाएंगे, वह पक्ष जीत नहीं
सकता, उसकी हार तो निश्चित है। और इसके पीछे धर्म की कोई
कमजोरी नहीं है।
दुनिया
में बढ़ती हुई नास्तिकता धर्म का मुकाबला नहीं कर सकती, लेकिन
अंधविश्वासों का मुकाबला निश्चित कर सकती है और अंधविश्वासों का खंडन कर सकती है।
इसलिए मैं आपसे कहूं, और यह कहना चाहता हूं कि इस वैज्ञानिक
युग में आए दिन रोज-रोज विज्ञान का विकास होगा और केवल वही शुद्ध धर्म टिक सकेगा
और रह सकेगा जिसकी आधारशिला विवेक पर और ज्ञान पर रखी हो, अंधविश्वासों
और अंधश्रद्धाओं पर नहीं।
फिर
मैंने आपसे कहा कि कोई मनुष्य बिना जाने कैसे विश्वास कर सकता है। मैंने आपसे कहा:
किसी अंधे को हम प्रकाश पर विश्वास करने को कहें तो वह गलत बात होगी।
एक
दफा बुद्ध एक गांव से निकलते थे और कुछ लोग एक अंधे आदमी को लेकर उनके पास गए और
उन्होंने बुद्ध से कहा: हम इस आदमी को बहुत समझाते हैं कि प्रकाश है लेकिन यह आदमी
मानने को तैयार नहीं है। विपरीत यह ऐसी दलीलें देता है और यह सिद्ध करने की कोशिश
करता है कि प्रकाश है ही नहीं, तुम ही झूठ बोलते हो।
बुद्ध
ने कहा: इसकी क्या दलीलें हैं?
उन
लोगों ने कहा: यह हमारा अंधा मित्र कहता है, अगर प्रकाश है, तो उसे मैं छूकर देखना चाहता हूं, क्योंकि जो भी चीज
है वह छूकर देखी जा सकती है। फिर यह कहता है, अगर प्रकाश है,
तो उसे ठोको, बजाओ, कुछ
आवाज पैदा हो, क्योंकि जिसकी भी सत्ता है उसे ठोका और बजाया
जा सकता है। फिर यह अंधा आदमी कहता है, यह भी न सही, मैं थोड़ा उसका स्वाद लेकर देखूं, यह भी न हो सके तो
प्रकाश की गंध लेकर देखूं। ये चार इंद्रियां उसके पास हैं, ये
चार ही उसके लिए प्रमाण हैं और वह इन चार के भीतर प्रकाश के प्रमाण चाहता है।
बुद्ध
ने कहा: इसमें गलती उसकी नहीं, जो समझाते हैं उनकी है। वह तो ठीक ही कहता है।
गलती तुम्हारी है, जो उसे तुम प्रकाश को समझाते हो। प्रकाश
को समझाने की जरूरत नहीं है, उसके आंख के उपचार आवश्यकता है।
बुद्ध ने कहा: इसे किसी विचारक के पास नहीं, किसी वैद्य के
पास ले जाओ। इसे किसी विचार की, उपदेश की नहीं, उपचार की जरूरत है। आंख ठीक हो तो प्रकाश है, आंख
ठीक न हो तो प्रकाश नहीं है। प्रकाश के होने का सिवाय आंख के और कोई प्रमाण नहीं
है।
उसे
चिकित्सक के पास ले जाया गया और संयोग की बात, कुछ ही दिनों के प्रयोग से उसकी
आंख की जाली थी वह कट गई। एक दिन आकर बुद्ध के चरणों में वह गिर पड़ा और उसने कहा
कि धन्य हैं आप! प्रकाश तो है, मैं ही अंधा था।
और
यही सत्य धर्म के संबंध में भी है। वह समझाने की बात नहीं है, उपचार की
बात है। यदि हमारे भीतर आंख खुल सके विवेक की और ज्ञान की, तो
हम अनुभव करेंगे कि धर्म के सत्य हैं। वे हमें नहीं मालूम होते थे, क्योंकि हमारे पास उन्हें ग्रहण करने की क्षमता, रिसेप्टिविटी,
ग्राहकता नहीं थी। वह आंख नहीं थी जो उन्हें देखे।
तो
जब मुझसे कोई पूछता है,
ईश्वर है, तब मैं उससे ईश्वर की बात नहीं करता,
क्योंकि यह तो फिजूल है। जब मुझसे कोई पूछता है, आत्मा है, तो मैं उससे आत्मा की बात नहीं करता,
यह तो फिजूल है। इसका कोई अर्थ नहीं है। मैं तो उससे यही बात करता
हूं कि क्या उसके पास इन दो आंखों के अलावा कोई तीसरी आंख भी है। अगर इन दो आंखों
के अलावा कोई तीसरी आंख नहीं है, तो न आत्मा है, न परमात्मा है, कुछ भी नहीं है। हम सब दो ही आंखों
पर समाप्त हो जाते हैं। वे लोग जो तीसरी आंख को उपलब्ध होते हैं, वे ही लोग केवल ठीक अर्थों में धार्मिक हो पाते हैं।
वह
तीसरी आंख कैसे खुले,
वह शांति की अंतर्दृष्टि कैसे उपलब्ध हो, उसके
संबंध में थोड़ी सी बात आपसे कहूंगा।
तीन
तो भूमिका के सूत्र हैं,
इन तीन सूत्रों को स्मरण रखने जैसा है। अगर इन तीन सूत्रों को कोई
साधे, तो भूमि साफ हो जाएगी। और फिर चौथा सूत्र है, उसे कोई साधे, तो उसकी आंख खुलेगी। और तब वह जानेगा
कि जिस जगत को हम देखते थे वही पूरा नहीं है जगत, और बहुत है
जो इसके पीछे छिपा है। और जिन लोगों को हम देखते थे, उनकी
देहें सब कुछ नहीं हैं, देहों के पीछे और बहुत कुछ है। और तब
उसे दिखाई पड़ेगा कि जो दिखाई पड़ता है वह ना-कुछ है, जो नहीं
दिखाई पड़ता वह सब कुछ है। दृश्य तब ना-कुछ और अदृश्य सब कुछ हो जाता है। तब आंख और
हाथ से जो पकड़ में आता है वह अत्यंत क्षुद्र मालूम होता है और जो नहीं पकड़ में आता
वह विराट और अनंत मालूम होता है।
हम
जो दो आंखों के ही केवल मालिक हैं, पुदगल पर, पदार्थ
पर, प्रकृति पर समाप्त हो जाएंगे। जो तीसरी आंख के मालिक
होते हैं वे परमात्मा को अनुभव कर पाते हैं। वह तीसरी आंख कैसे खुल सकती है,
उसके तीन तो भूमिका के सूत्र मैं आपसे कहूं और एक केंद्रीय सूत्र,
ऐसे चार बातों पर हम विचार करेंगे। पहली बात, जैसा
मैंने कहा: मनुष्य जितना भीतर शांत हो जाए, उसके भीतर जितना
कोलाहल विलीन हो जाए, उसके भीतर अराजकता, स्वरों की भीड़ जितनी कम हो जाए, उसके भीतर जितनी
संगीतमयता हार्मनी पैदा हो, जितनी एकरागता पैदा हो, जितनी तल्लीनता उपलब्ध हो, उतनी ही ज्यादा संभावना
उसके भीतर आंखों के अंतर की आंखों के खुलने की होगी।
यह
संगीत की स्थिति तीन बातों से पैदा होती है। हम अपने हाथ से विसंगीत पैदा करते हैं, अपने हाथ
से टेंशन और तनाव पैदा करते हैं, अपने हाथ से कलह और विग्रह
पैदा करते हैं। जब मैं क्रोध करता हूं तो अपने भीतर विसंगीत पैदा करता हूं,
और जब मैं किसी को प्रेम करता हूं तो अपने भीतर संगीत पैदा करता
हूं। मैं जो भी कर रहा हूं उसका परिणाम मेरे भीतर होगा। हर कर्म के दोहरे परिणाम
हैं। एक परिणाम तो है जो जगत में दिखाई पड़ेगा और एक परिणाम है जो मेरे भीतर होगा।
चूंकि मैं कर रहा हूं इसलिए यह असंभव है कि मेरा कोई कर्म मुझे न छुए, मेरा प्रत्येक कर्म मुझे छुएगा। जब मैं किसी को गाली दे रहा हूं तब मेरे
भीतर जरूर कुछ होगा।
एक
फकीर एक गांव से निकलता था,
कुछ लोगों ने उसे गालियां दीं, बीच बाजार में
रोका और अपशब्द कहे। उस फकीर ने कहा कि मुझे जल्दी है और दूसरे गांव जाना है,
अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं।
उन
लोगों ने कहा: यह कोई बात न थी, हमने बहुत गालियां दी हैं, तुम्हारा अपमान किया है, इसका उत्तर चाहिए।
वह
फकीर हंसने लगा और वह बोला,
हम केवल उन बातों का उत्तर देते हैं जो बातें हमारे भीतर संगीत लाती
हों; हम उन बातों का उत्तर नहीं देते जो हमारे भीतर विसंगीत
पैदा करें। उस फकीर ने कहा: पिछले गांव में कुछ लोग मुझे भोजन भेंट करने आए थे,
बहुत फल और मिष्ठान्न लाए थे, मैंने कहा: मेरा
पेट भरा है, वे उन्हें वापस ले गए। तुम गालियां लाए हो,
मैं अगर कहूंगा मैं नहीं लेता, फिर क्या करोगे?
इन्हें वापस ले जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। उस फकीर ने कहा:
गाली वही केवल आती है जो ले ली जाए, जो न ली जाए वह वापस लौट
जाती है।
हम
जगत में कुछ भी ले रहे हैं,
और तब वह कुछ भी हमारे भीतर जाकर बहुत विसंगीत पैदा करता है। और हम
जगत में कुछ भी दे रहे हैं, और वह दिया हुआ दूसरों में भी
विसंगीत पैदा करता है और हमारे भीतर भी विसंगीत पैदा करता है।
जिस
व्यक्ति को सत्य की,
शांति की और आलोक की तलाश हो, उसे जानना होगा
कि वह क्या लेता है और क्या देता है? उसे स्मरण रखना होगा
लेते समय कि केवल वे ही स्वर भीतर लिए जाएं जो उसके भीतर कलह को नहीं, विग्रह को नहीं पैदा करेंगे। वे ही स्वर भीतर लिए जाएं जो उसके भीतर के
संगीत में सहयोगी होंगे, उसे और समृद्ध करेंगे। और केवल वे
ही कर्म किए जाएं जो उसकी आंतरिक शांति को, उसकी आंतरिक
समृद्धि को नष्ट करने वाले न हों। ऐसा व्यक्ति यह सम्यक बोध रखेगा। तो क्या हम कर
रहे हैं और क्या हम ले रहे हैं, ये दोनों बातें विचारणीय
हैं। इन दोनों बातों में तीन सूत्र आपको कहूं।
पहला
सूत्र: वे लोग जो प्रेम को नहीं साधते, और हममें से बहुत कम लोग प्रेम को
साधते हैं। हमें याद ही नहीं है कि प्रेम को कैसे साधा जाए, हमें
पता ही नहीं है कि प्रेम भी साधा जा सकता है, हमें स्मरण ही
नहीं है कि प्रेम भी फैलाया जा सकता है। जो व्यक्ति जितने ज्यादा अपने बाहर के जगत
के प्रति प्रेम से भरता है, यह जगत उसके भीतर उतने ही कम
विरोधी स्वर और विसंगीत पैदा करता है। अगर कोई व्यक्ति सारे जगत के प्रति अनंत
प्रेम से भर जाए, तो इस जगत से उसके भीतर कोई भी कांटे नहीं
फेंके जाएंगे। इस जगत से उसके भीतर ऐसे स्वर नहीं फेंके जाएंगे जो वहां जाकर खलल
पैदा करते हों।
मैं
पहाड़ पर था और वहां हम एक चोटी को देखने गए। मेरे साथ कुछ मित्र थे। उस चोटी का नाम
था, इको-पॉइंट। वहां जो भी हम जोर से चिल्लाते थे उस तरफ से पहाड़ दोहरा देते
थे। मेरे मित्रों ने गीत गाए, तो उस तरफ से गीत लौट आए। और
मेरे मित्रों ने जोर से आवाजें कीं, तो वे आवाजें लौट आईं।
जब हम वहां से लौटते थे तो वे सारे लोग कहने लगे, बहुत अदभुत
जगह है। मैंने कहा: यह जगह सारी दुनिया का प्रतीक है। यह सारी दुनिया इको-पॉइंट है,
यह सारी दुनिया प्रतिध्वनि करती है। हम जो बोलते हैं वह हम पर वापस
लौट आता है। हम अगर घृणा फेंकते हैं, घृणा वापस लौट आती है।
हम अगर कांटे फेंकते हैं, कांटे वापस लौट आते हैं। हम अगर प्रेम
फेंकते हैं, प्रेम लौटता है। हम अगर गीत फेंकते हैं, तो गीत लौट आते हैं। वे लोग जो अपने भीतर शांति को पैदा करना चाहते हैं,
इस जगत के किसी भी मनुष्य के जीवन में कोई अशांति पैदा करने की
चेष्टा नहीं करेंगे। क्योंकि अशांति फेंकी जाए तो अशांति वापस लौटने लगती है। यही
शाश्वत नियम है। हम जो देते हैं उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी नहीं मिलेगा। यह असंभव
भी है कि हमें कुछ और मिल जाए। तो जिन्हें प्रेम चाहिए हो वे प्रेम दें और जिन्हें
फूल चाहिए हो वे दूसरों के रास्तों पर फूल बिछा दें।
एक
बहुत पुराना उल्लेख है,
एक आश्रम से तीन विद्यार्थी अपनी अंतिम परीक्षा देकर वापस लौटने को
थे। उनके गुरु ने बहुत बार कहा था, अंतिम परीक्षा भी होगी।
जब वे अंतिम दिन जाने लगे तो गुरु से उन्होंने कहा: अंतिम परीक्षा नहीं हुई?
उस गुरु ने कहा: छोड़ो भी, समय हुआ हो जाएगी।
आखिर अंतिम विदा का दिन भी आ गया, वह परीक्षा नहीं हुई। वे
तीनों विद्यार्थी पैर छूकर, प्रणाम करके गुरु से विदा लेकर
गांव के बाहर जाने लगे। सांझ होने लगी, सूरज ढलने को था,
वे एक पगडंडी रास्ते से गांव के बाहर होते थे, उन्होंने पाया कि रास्ते के किनारे बहुत से कांटे पड़े हुए हैं। राह पर,
किनारे पर कांटे पड़े हुए हैं। एक तो छलांग लगा कर निकल गया, दूसरा किनारे से निकल गया, एक विद्यार्थी रुका,
उसने वे कांटे बीने और झाड़ी में डाले। और जब वह झाड़ी में डालता था
तो उन तीनों ने आश्चर्य से देखा, उनका गुरु झाड़ी के बाहर आया
और उसने कहा: दो विद्यार्थी जो कांटों को छोड़ कर आगे बढ़ गए हैं वे वापस लौट आएं,
उनकी शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई। यह अंतिम परीक्षा थी, जिसने कांटे बीन कर डाल दिए हैं वह जा सकता है।
क्योंकि
उनके गुरु ने कहा: जो व्यक्ति दूसरों के रास्तों पर कांटे देख कर निकल जाए, उन्हें
उठाए नहीं, उस व्यक्ति के जीवन में शांति उपलब्ध नहीं होगी।
क्योंकि जो व्यक्ति दूसरे के रास्तों पर कांटे पड़े देख कर निकल जाता है, वह आज नहीं कल यह भी कर सकता है कि दूसरों के रास्ते पर कांटे डाल दे। और
जो व्यक्ति दूसरे के मार्ग से कांटे उठा लेता है, यह व्यक्ति
हो सकता है कल विकसित हो तो दूसरों के रास्तों पर फूल भी डाल दे। और जो हम दूसरों
के रास्तों पर करेंगे वही हमारे रास्ते पर हो जाता है।
यह
स्मरणीय है कि जिस व्यक्ति को अंतश्चक्षु खोलने हों, उसे प्रेम की विस्तीर्णता
करनी होगी, उसे अपने प्रेम को फैलाना होगा, उसे अपने प्रेम को दूर-दूर के कोने छू सकें इतना विस्तार देना होगा। इस
प्रेम के विस्तार का नाम ही अहिंसा है। या करुणा है, या दया
है, या प्रेम है, ये शब्दों के भेद
होंगे, लेकिन बात यही है कि हमारी दृष्टि में यह हो, हमें यह स्मरण हो प्रतिक्षण कि मेरे द्वारा किसी को भी दुख न पहुंच पाए।
अगर दुख पहुंचता है तो आज नहीं कल दुख मुझ पर वापस लौटेगा। और तब यह असंभव होगा कि
मैं अपने भीतर के अंतश्चक्षु को खोल सकूं।
अहिंसा
या प्रेम का विस्तार,
यह कैसे हम करें? सबसे पहले प्रेम का विस्तार
करना चाहिए प्रकृति पर, चांदत्तारों पर, फूलों पर, आकाश पर। इसलिए सबसे पहले प्रकृति पर
विस्तार साधना चाहिए कि प्रकृति आपका प्रतिरोध नहीं करती, प्रकृति
आपकी शत्रु नहीं होती। लेकिन हम तो ऐसे अंधे लोग हैं कि हममें से शायद ही कुछ लोग
होंगे जो रात को चांदत्तारों को देखते हों। और जो अपने को धार्मिक समझते हैं वे तो
बिलकुल ही नहीं देखते होंगे। जो व्यक्ति चांदत्तारों को देख कर प्रेम से नहीं भरता,
जिसके हृदय में उनका सौंदर्य आंदोलन पैदा नहीं करता, जो व्यक्ति समुद्र के किनारे बैठ कर थोड़ी देर के लिए समुद्र की लहरों के
साथ एक नहीं हो जाता, जो व्यक्ति दरख्तों के पास बैठ कर थोड़ी
देर को भूल नहीं जाता कि मैं भी दरख्त हूं या मनुष्य हूं, वह
व्यक्ति परमात्मा को अनुभव नहीं कर सकता।
एक
साधु के आश्रम में एक युवक ने जाकर ने पूछा था, मैं परमात्मा में कहां से प्रवेश
करूं? उस साधु ने कहा: तुम पास में पहाड़ पर झरने की आवाज
सुनते हो? उस युवक ने सुना--पीछे ही पहाड़ से एक प्रपात गिरता
था, एक जलपात होता था, जोर की आवाज
थी--उसने कहा: सुनाई पड़ती है। उस फकीर ने कहा: यही दरवाजा है, इससे ही प्रवेश कर जाओ। वह बोला, इससे कैसे प्रवेश
करूंगा? उस फकीर ने कहा: उस जल के, धारा
के पास बैठो और इतने शांत और इतने प्रेम से बैठो कि तुम्हें यह भूल जाए कि तुम
धारा हो या धारा से अलग हो। जिस क्षण तुम्हें यह स्मरण न रह जाए कि तुम और धारा
में कोई भेद है, उस क्षण तुम जानना कि तुम प्रभु के बहुत
निकट हो।
सबसे
पहले प्रेम का विस्तार प्रकृति पर करने की जरूरत है। चारों तरफ जो अनंत प्रकृति है, जो अनंत
रहस्यमय प्रकृति है उस पर प्रेम को फैलाने की बात है। जब प्रेम उस पर फैलेगा,
जब उसका स्पंदन अनुभव होगा, जब हम अपने को
आत्मसात कर सकेंगे उसके साथ, जब हमें प्रतीत होगा कि हम उसके
साथ एक हैं। और यह मैं आपसे कहूं, अगर आप चौबीस घंटे में घड़ी
दो घड़ी के लिए प्रकृति के पास बैठ कर अपनी अहमता को भूल जाएं, थोड़ी देर के लिए पहाड़ों की चट्टानों के साथ एक हो जाएं, थोड़ी देर के लिए चांदत्तारों के साथ एक हो जाएं, पानी
के झरने के साथ एक हो जाएं, तो आपके जीवन में बड़ी गहरी शांति
का अवतरण होना शुरू होगा। जो व्यक्ति घंटे भर को भी चौबीस घंटे में प्रकृति के
सान्निध्य को अनुभव करता है, उसके तेईस घंटे बदलने शुरू हो
जाएंगे। मनुष्य प्रकृति से रोज टूटता जा रहा है। हमारी सारी-सारी संबंध मनुष्यकृत
चीजों से होते जा रहे हैं, प्रकृति से हमारे संबंध विच्छिन्न
होते जा रहे हैं।
बहुत
कम लोग हैं जो आंख उठा कर आकाश को देखते हैं। बहुत कम लोग हैं जो सूरज को उगते
देखते हैं। और बहुत कम लोग हैं जो अपने चारों तरफ अनंत रहस्यमय प्रकृति है उससे
कोई संबंध रखते हों। हमारे सब संबंध मनुष्य से हैं, मनुष्य के द्वारा बनाई हुई
चीजों से हैं--मशीनों से, मकानों से, रास्तों
से और आदमियों से हमारे संबंध हैं। यह घातक स्थिति है। जिसे अंतश्चक्षु खोलने हों
उसके लिए सहयोगी नहीं है।
तो
पहली बात है,
प्रेम प्रकृति पर विस्तीर्ण हो। और दूसरी बात है, जिस भांति प्रकृति पर उसे फैलाया उसी भांति मनुष्य-समाज पर उसे फैलाना। हम
सब प्रेम करते हैं, धार्मिक लोग हैं जो आपसे कहेंगे, यह प्रेम बुरा है इसे छोड़ दें, मैं नहीं कहता। मैं
आपसे कहता हूं, आप थोड़े से घेरे में प्रेम करते हैं। घेरे
में प्रेम का होना बुरा है। प्रेम को छोड़े नहीं, घेरे को तोड़
दें। प्रेम के घेरे को इतना बड़ा बनाएं कि उस घेरे के बाहर कोई न रह जाए।
दक्षिण
में आचार्य हुए,
रामानुज। वे एक गांव में गए, एक व्यक्ति ने
उनसे कहा कि मैं परमात्मा को पाना चाहता हूं। रामानुज ने उससे पूछा, तुम किसी को प्रेम करते हो? वह व्यक्ति बोला,
आप कैसी बात करते हैं, मेरा किसी से कोई प्रेम
नहीं है, मैं तो संन्यासी होना चाहता हूं, मुझे परमात्मा को पाना है। रामानुज ने दुबारा पूछा, खोज
कर, सोच कर देखो, किसी को थोड़ा-बहुत
प्रेम करते हो? वह व्यक्ति बोला, बिलकुल
भी प्रेम नहीं करता। रामानुज ने तीसरी बार पूछा, उसने पुनः
कहा: मैं किसी को प्रेम नहीं करता। मुझे तो परमात्मा पाना है।
रामानुज
ने कहा: बहुत मुश्किल है,
अगर तुम किसी को प्रेम करते होते तो परमात्मा पाने का कोई रास्ता हो
सकता था।
क्योंकि
प्रेम को बढ़ाना है,
मिटाना नहीं है। अगर आप अपने मित्र को प्रेम करते हैं, एक पति अपनी पत्नी को प्रेम करता है, एक भाई अपनी
बहन को प्रेम करता है, एक मित्र एक मित्र को प्रेम करता है,
पिता पुत्र को प्रेम करता है, इस प्रेम के
विरोध में परमात्मा नहीं है, इस प्रेम के विस्तार में
परमात्मा है। यह प्रेम जो अभी एक-दो के प्रति मालूम होता है इसे फैलाना है और
बढ़ाना है, इसका घेरा गिरा देना है और प्रेम को बढ़ने देना है।
और जिस दिन प्रेम के बाहर कोई भी नहीं रह जाएगा उस दिन प्रेम का अनुभव ही परमात्मा
का अनुभव हो जाता है। जिन लोगों ने प्रेम के विरोध में धर्म को खड़ा किया उनका धर्म
संसार के विरोध में खड़ा हो गया और जो धर्म संसार के विरोध में खड़ा होगा वह धर्म
जीवित नहीं रह सकता। और संसार में और सत्य में विरोध नहीं है, संसार और सत्य में विकास है। प्रेम और परमात्मा में विरोध नहीं है,
प्रेम का ही विकास परमात्मा है।
जीवन
में जो भी थोड़ा-बहुत शुभ है उस शुभ को विस्तीर्ण करना है, उसे अनंत
की सीमाओं तक ले जाना है। प्रेम को प्रकृति पर विस्तीर्ण करें और प्रेम को मनुष्य
पर फैलने दें। ऐसे अहिंसा का बोध पैदा होता है। और जिस व्यक्ति में अहिंसा का बोध
पैदा हो जाता है वह असमर्थ होता है किसी को दुख देने में, किसी
को पीड़ा पहुंचाने में, किसी के मार्ग पर कांटे गिराने में।
और जो व्यक्ति असमर्थ हो जाता है किसी को दुख पहुंचाने में यह जगत उसे दुख
पहुंचाने में असमर्थ हो जाता है। और तब स्वभावतः उसके भीतर एक शांति की स्थापना
होनी शुरू होती है।
दूसरा
सूत्र है: अपरिग्रह। पहला सूत्र हुआ: अहिंसा। दूसरा सूत्र है: अपरिग्रह। जो
व्यक्ति जितना ज्यादा इकट्ठा करता जाता है उतना बोझ से और भार से भरता जाता है। और
जिस व्यक्ति को ऊंची पहाड़ियां चढ़नी हों उसे निर्भार होना जरूरी है। जो व्यक्ति
अंतश्चक्षु को खोलना चाहता हो, उसके पास जितना कम भार होगा उतना योग्य है। हम
जितना इकट्ठा करते जाते हैं उतने ही हम छोटे होते जाते हैं और दबते जाते हैं। इस
जमीन पर सबसे दरिद्र वे ही हैं जिनके पास सबसे ज्यादा परिग्रह है।
एक
फकीर ने एक दफा कुछ लोगों को कहा था कि मेरे पास कुछ रुपये हैं, ये मैं
गांव के सबसे दरिद्र आदमी को देना चाहता हूं। गांव के सब दरिद्र लोग इकट्ठे हो गए,
उन्होंने कहा: वे रुपये हमें दे दो। वह फकीर बोला, दरिद्रतम आ जाए तो दूंगा। भिखमंगे से भिखमंगे लोग आए, लेकिन वह फकीर यह कहता रहा कि मैं उस दिन की प्रतीक्षा में हूं जिस दिन
अंतिम दरिद्र आदमी आएगा, उसको मैं दूंगा। लोग थक भी गए,
समझ में नहीं आता था वह किस दरिद्र की तलाश में है। फिर एक दिन राजा
की सवारी निकली और उसने वे रुपये राजा के पास फेंक दिए। राजा हाथी पर बैठा था,
उसने रुपये ऊपर फेंक दिए। राजा को भी पता था इस फकीर के इस वचन का
कि वह अपने रुपये दरिद्रतम आदमी को देगा। राजा ने सवारी रोकी और उसने कहा: यह क्या
पागलपन करते हो? कहते थे दरिद्रतम को दोगे और मुझे दे रहे हो?
तो उस फकीर ने कहा: मेरी नजरों में इस गांव में तुमसे ज्यादा दरिद्र
और कोई भी नहीं। वह राजा बोला, मैं समझा नहीं। उस फकीर ने
कहा: जिसकी मांग सबसे बड़ी है वह सबसे बड़ा भिखमंगा है। जो सबसे ज्यादा मांग रहा है
और फिर भी तृप्त नहीं होता और मांगता चला जाता है वह उतना ही बड़ा भिखमंगा है।
जिन्हें
भिखमंगा नहीं होना है,
उन्हें मांग कम करनी होगी। जो जितनी मांग को क्षीण करता है उतना
मालिक होता जाता है। जिसकी कोई मांग नहीं रह जाती वह सम्राट हो जाता है। तो जिसकी
जितनी ज्यादा मांगें होती चली जाती हैं वह उतना क्षुद्र होता जाता है। अंत में
मांगें ही मांगें रह जाती हैं, वह मांगने वाला ही रह जाता है
और तब वह भिखमंगे की हालत में होता है। जिनका परिग्रह ज्यादा है वे भिखमंगे हैं और
जो परिग्रह को बढ़ाने की फिकर में हैं वे भिखमंगे की स्थिति में हैं। जो उसे क्षीण
करते हैं और जिनकी दृष्टि सदा यह कि मैं निर्भार हो जाऊं और मुक्त हो जाऊं। क्यों?
क्योंकि जितनी चीजें आपके पास होंगी, यह मत
सोचें कि आपने उनको बांधा है। यह भी स्मरण रखें, जिसे आप
बांधते हैं वह आपको बांध लेता है।
सुकरात
के संबंध में उल्लेख है,
एक दिन गांव की सड़क पर एथेंस में एक आदमी एक गाय को बांधे हुए जाता
था। सुकरात ने उससे पूछा, मित्र! यह गाय तुम्हें बांधे हुए
है या तुम इस गाय को बांधे हुए हो? यह फिजूल की बात थी। उस
आदमी ने कहा: क्या फिजूल की बातें आप कर रहे हैं? मैं गाय को
बांधे हुए हूं। सुकरात ने कहा: मैं ऐसा नहीं देखता, मैं ऐसा
नहीं देखता कि तुम गाय को बांधे हुए हो। लाओ मैं गाय को छोड़ दूं, फिर देखूं कौन किसके पीछे भागता है। उसने कहा कि लाओ मैं गाय का बंधन छोड़
दूं, सुकरात ने कहा: फिर देखूं गाय तुम्हारे पीछे भागती है
कि तुम गाय के पीछे भागते हो? तो उसने बंधन छोड़ दिया,
गाय भागी और वह आदमी गाय के पीछे भागा। तो सुकरात ने कहा: यह मत
सोचो कि तुम गाय को बांधे हुए हो, तुम भी गाय से बंधे हुए
हो।
जो
जिसे बांधता है उससे बंध भी जाता है। जिसके जितने परिग्रह हैं उसके उतने ही...और
जो बहुत ज्यादा बंधन से घिरा हो वह मुक्ति के आकाश में नहीं उठ सकता। जिसे अपनी
नाव सागर में छोड़नी हो उसे किनारे से नाव की जंजीरें खोल लेनी होंगी। यह दृष्टि
भीतर होनी जरूरी है।
यह
दृष्टि का एक उल्लेख मुझे स्मरण आता है। गांधीजी बंद थे जेल में और सरदार पटेल भी
उनके पास थे। गांधीजी उन दिनों सुबह दस छुहारे फुला कर लेते थे। सुबह का नाश्ता दस
छुहारे लेते थे। वल्लभ भाई ने सोचा कि दस तो बहुत कम होते हैं, दस में
क्या नाश्ता होगा। और गांधीजी का शरीर ऐसा कमजोर है कि कुछ थोड़ा नाश्ता हो ज्यादा
तो अच्छा है। तो उन्होंने दस की जगह पंद्रह छुहारे फुला दिए। गांधीजी ने देखा कि
छुहारे कुछ ज्यादा हैं, तो उन्होंने पूछा, तो वल्लभ भाई ने कहा: कुछ ज्यादा नहीं हैं, दस और
पंद्रह में क्या कोई भेद होता है, जैसे दस वैसे पंद्रह।
गांधीजी ने कहा: वल्लभ भाई, तुमने मेरी आंखें खोल दीं। वल्लभ
भाई समझे कि यह तो बड़ा अच्छा हुआ। लेकिन गांधीजी उस दिन पांच ही छुहारे खाए और वे
बोले, जब दस और पंद्रह में कोई फर्क नहीं, तो पांच और दस में भी कोई फर्क नहीं रह जाता। यह अपरिग्रही की दृष्टि है।
वह जहां बन सके, जितने कम से बने उतना सिकोड़ता चला जाता है।
और यह बड़े आश्चर्य की बात है, जिसके पास परिग्रह की पकड़
ज्यादा होती है उसकी आत्मा उतनी छोटी हो जाती है। और जिसके पास परिग्रह की पकड़
जितनी कम होती है उसकी आत्मा उतनी बड़ी हो जाती है। जो परिपूर्ण अपरिग्रह को उपलब्ध
होता है वह परिपूर्ण आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। जो परिपूर्ण परिग्रह को लाद लेगा
वह पाएगा उसकी आत्मा उसी मात्रा में सिकुड़ कर छोटी होती चली जाती है। यह दूसरा
सूत्र है, जिसे शांति की आंख खोलनी हो उसके लिए कि वह
अपरिग्रह की दृष्टि रखे।
अहिंसा
का भाव हो, अपरिग्रह की दृष्टि हो और तीसरा सूत्र है निर-अहंकारिता, निर-अहंकार का बोध हो।
जो
व्यक्ति जितने अहंकार से भरा है, जिस व्यक्ति को निरंतर जितना मैं-मैं का स्वर
मालूम होता है अपने भीतर, वह उतना ही अंतर्दृष्टि को नहीं
खोल पाएगा। सबसे बड़ा धुआं और सबसे बड़ा अंधकार और सबसे बड़ा ताला मनुष्य के ऊपर
अहंकार का है। हम इतने ज्यादा मैं से भरे हैं कि हम मैं के ऊपर नहीं उठ पाते। जिसे
मैं के ऊपर उठना है और आत्मा को जानना है उसे मैं को क्षीण करना होगा, उसे गलाना होगा, उसे पिघलाना होगा। उठते-बैठते,
सोते-जागते, बोलते, काम
करते यह स्मरण रखना जरूरी है कि मेरी क्रिया अहंकार से तो नहीं निकल रही है?
मैं जो कर रहा हूं वह मेरी अहमता का विस्तार तो नहीं है? अगर यह ध्यान में हो कि मैं जो मंदिर बना रहा हूं वह मेरे अहंकार का मंदिर
तो नहीं है? वह मंदिर मैं इसलिए तो नहीं बना रहा कि लोग जाने
कि मैंने बनाया। और जमीन पर अधिकतम मंदिर ऐसे लोगों ने बनाए हैं। तो उन मंदिरों
में भगवान की प्रतिष्ठा नहीं है, उन मंदिरों में अहंकारों की
प्रतिष्ठा है। वे मंदिर मंदिर नहीं रह जाते। अगर आप किसी को दान करते वक्त यह खयाल
रख रहे हैं कि मैं कैसा दे रहा हूं, मैं देने वाला कैसा
अदभुत हूं, तो आपका दान व्यर्थ हो जाता है, उसमें कोई अर्थ नहीं रह जाता, वह मैं के कारण सब
विनष्ट हो जाता है। आपकी प्रत्येक क्रिया में, राह पर चलते,
उठते-बैठते आपको ध्यान रखने की जरूरत है कि मैं खड़ा न हो, मैं साथ न हो। जो चर्या जितनी मैं शून्य हो जाती है, जो व्यक्ति अपने जीवन व्यवहार में जितना मैं से शून्य हो जाता है, उतना ही अधिक, उतना ही ज्यादा आत्मा की तरफ उसकी गति
हो जाती है।
स्मरण
रखें, मैं की दिशा आत्मा के विपरीत है। जिसे आत्मा की तरफ जाना हो उसे मैं की
तरफ जाने का कोई उपाय नहीं है। उसे मैं के विपरीत जाना होगा। उसे अपने ही हाथों
अपने अहंकार को गिरा और गला देना होगा। उसे अपने ही हाथों चोट करनी होगी और आग लगा
देनी होगी। और जब उसका मैं मर जाएगा तो वह हैरान होगा, वह
देखेगा, कैसा अदभुत! कैसे अदभुत सत्य का दर्शन इस मैं की
मृत्यु में छिपा हुआ है! और आप खयाल रखें, कोई सोचता हो कि
धन को इकट्ठा करने से मैं बढ़ता है, तो हम धन को छोड़ दें,
तो गलती में हैं।
मैं
एक साधु के पास गया,
वे मुझसे रोज बोलते थे, तीन दिन उनके पास था।
वे मुझसे बार-बार कहते, मैंने लाखों रुपये पर लात मार दी है।
जब मैंने बार-बार सुना तो मैंने उनसे पूछा, यह लात आपने कब
मारी? वे बोले, कोई बीस वर्ष हुए।
मैंने उनसे कहा: लात पूरी तरह मार नहीं पाए आप। क्योंकि यह स्मरण कि मैंने लाखों
रुपयों पर लात मार दी है, यह स्मरण इस बात की सूचना है,
लात मारी नहीं गई। यह खयाल वही का वही है, मैंने
उनसे कहा: जब लाखों रुपये आपके पास रहे होंगे तो आप जिस अकड़ से चलते होंगे कि मेरे
पास लाखों रुपये हैं उसी अकड़ से आप उन लाखों रुपयों को छोड़ कर भी चल रहे हैं कि
मैंने लाखों पर लात मारी है। वह मैं वहीं की वहीं खड़ा है।
धन
में भी मैं हो सकता है,
धन के त्याग में भी मैं हो सकता है। अभिमानी में भी अहंकार हो सकता
है, विनीत में भी हो सकता है। अहंकार के रास्ते बहुत सूक्ष्म
हैं। जब आप कहते हैं, मैं तो अत्यंत विनयी हूं, मैं तो बहुत विनीत हूं, मेरा कोई अहंकार नहीं,
तब भी ध्यान करें भीतर, तो आपको अहंकार खड़ा
हुआ मालूम होगा। वह जो कह रहा है मैं बिलकुल विनीत हूं, वह
भी यह कह रहा है कि मैं विनीत हूं। उसकी भी मैं की धारणा प्रबल है। विनीत को तो
पता भी नहीं चलेगा कि मेरे में विनय है। सरल को पता भी नहीं चलेगा कि मुझमें सरलता
है। क्योंकि जब पता चलता है कि मुझमें सरलता है कपट शुरू हो गया, कठिनता शुरू हो गई। वह मैं ही तो कठिनाई है।
इसलिए
सवाल ऊपर से छोड़ने-पकड़ने का नहीं है, सवाल भीतर दृष्टि रखने का है कि
मेरी चर्या में मैं तो नहीं है। और कोई दूसरा यह नहीं कर सकता। प्रत्येक को स्वयं
ही निरीक्षण करना होगा। मैं तो सूक्ष्म घटना है, प्रत्येक के
भीतर वह अहंकार है, वह ईगो हरेक के भीतर है, उस पर ध्यान रखना होगा। अगर उस पर ध्यान हो, अगर उस
पर दृष्टि हो, अगर उसका सतत निरीक्षण हो, अगर सम्यक विवेक हो, तब अहंकार पर सम्यक विवेक की
चोट क्रमशः उसे तोड़ने लगती है। अगर बार-बार उसका ध्यान बना रहे और हम जागरूक रहें
तो अहंकार गलने लगता है। जैसे सूर्य के निकलने पर ओस कण भाप बन कर उड़ जाते हैं,
या सूर्य के निकलने पर बर्फ पिघल कर पानी हो जाती है, वैसा ही सतत विवेक की ज्योति में, सतत विवेक के
उत्ताप में अहंकार गलता है और क्षीण हो जाता है।
तीसरा
सूत्र है: निर-अहंकार चर्या। पहला सूत्र है: अहिंसाभाव। दूसरा सूत्र है: अपरिग्रह
दृष्टि और तीसरा सूत्र है: निर-अहंकार चर्या। ये तीन सूत्र अगर कोई साधे, अगर इन
तीन सूत्रों पर जीवन क्रियमान हो, तो शांति का अवतरण प्रारंभ
होता है तो उसके भीतर अशांति विलीन होने लगती है और शांति उतरने लगती है। और जब
शांति उतरने लगे और जब भीतर एक शांति का घनापन एहसास होने लगे, जब भीतर लगने लगे कि शांति भर रही है, तब आंख बंद कर
लेना जगत के प्रति, बाहर के प्रति आंख बंद कर लेना। बाहर के
प्रति आंख बंद कर लेना। आप मुझे दिखाई पड़ते हैं, आंख बंद कर
लूं तो भीतर आपके चित्र दिखाई पड़ेंगे। उन पर भी आंख बंद कर लेना है। जब शांति घनी
होने लगे और बाहर पूरी आंख बंद कर ली जाए, दृष्टि बाहर न
जाती हो और शांति भीतर हो, तो शांति और दृष्टि के बाहर जाने
का अभाव जहां इन दोनों का मिलन होता है वहीं सत्य का साक्षात है। बाहर दृष्टि न
जाती हो और भीतर शांति हो। शांति के और दृष्टि के अंतर्गमन का जहां मिलन होता है
वहीं सत्य का साक्षात है।
बाहर
से आंख बंद कर लेना आसान है, इसलिए चौथा सूत्र आपसे कहता हूं, भीतर पूरी आंख कैसे बंद हो जाए? मैं जब भी आंख बंद
कर लेता हूं आप मिट जाते हैं, लेकिन दुनिया नहीं मिटती। भीतर
आपके द्वारा पैदा हुआ चित्र, आपकी कल्पनाएं, स्मृतियां, स्वप्न वे सब मेरे भीतर चलते जाते हैं।
भीड़ भीतर भी है, बाहर भी है। बाहर पर तो आंख बंद कर लेना
आसान है, भीतर सवाल है, भीतर भी बंद कर
लेना का उपाय है। भीतर जो विचारों की भीड़ है अगर कोई उसका सम्यक, जागरूक होकर साक्षी बन जाए, मैंने कहा: शांति भीतर आ
जाए, तब उस शांति के बीच में स्थापित होकर अपने विचारों का,
बाहर से आई हुई कल्पनाओं का, बाहर से आए हुए
इमेजिस का चुपचाप मात्र दर्शन, सिर्फ देखना।
जैसे
कोई आदमी नदी के किनारे नदी को बहते देखता हो, या कोई आदमी आकाश में उड़ते हुए
पक्षियों को देखता हो, या मैं यहां बैठा हूं और आपको देख रहा
हूं। तटस्थ भाव से केवल देखना मात्र। शांत मन से, तटस्थ भाव
से विचारों को देखने से विचार शून्य हो जाते हैं, विचार
क्षीण हो जाते हैं, भीड़ भीतर से भी समाप्त हो जाती है। आंख
बाहर बंद हो जाती है और भीतर शांति होती है उसी शांति में आंख अंतस में प्रवेश कर
जाती है, आप स्वयं के सामने खड़े हो जाते हैं। और तब जो आप
जानते हैं वह देह नहीं है, तब जो आप जानते हैं वह पदार्थ
नहीं है, तब जो आप जानते हैं उसकी कोई मृत्यु नहीं है,
कोई जन्म नहीं है। उसे जान कर सब जान लिया जाता है, उसे पाकर सब पा लिया जाता है। वैसा व्यक्ति ही केवल धन्यभागी है, वैसे ही व्यक्ति ने ठीक-ठीक जीवन का उपयोग किया, वैसे
ही व्यक्ति ने जीवन के सत्य को, सौंदर्य को, जीवन के अमृत को जाना। वैसा व्यक्ति इस जगत को परमात्मा में परिणित होता
हुआ देखता है। वैसा व्यक्ति इस जगत को चिन्मय सत्ता में परिवर्तित होते हुए देखता
है। वैसे व्यक्ति की अनुभूति का नाम ईश्वर है। वैसे व्यक्ति की चर्या का नाम धर्म
है। वैसे व्यक्ति की चेतना तक पहुंचने का जो मार्ग है उसका नाम योग है।
ये
चार सूत्र मैंने आपसे कहे। तीन शांति को साधने को, चौथा विचार के प्रवाह को विलीन
करने को। निर्विचार चित्त हो, शांत भाव की दशा हो तो उस संगम
पर सत्य का दर्शन होता है। वहां विवेक मिलता है, वहां ज्ञान
मिलता है। वैसा ज्ञान पाने का प्रत्येक व्यक्ति अधिकारी है। जो इस अधिकार की मांग
नहीं करते, वे स्वयं जिम्मेवार हैं, कोई
दूसरा नहीं। कोई दूसरा आपको उस सत्य को नहीं देगा, किसी की
कृपा और प्रसाद से वह नहीं मिलेगा। स्वयं की चेष्टा, स्वयं
के प्रयत्न, स्वयं की साधना उस फलश्रुति तक ले जाती है,
उस उपलब्धि तक ले जाती है। जिनमें थोड़ा भी पुरुषार्थ हो, जिनमें अपने मनुष्य होने का थोड़ा भी गौरव और गरिमा हो, उन्हें अपने श्रम और संकल्प को, अपनी साधना को सत्य
की इस दिशा में संलग्न करना चाहिए।
पुरुषार्थहीन
ही केवल सत्य से वंचित रह जाते हैं। तामस और आलस्य में घिरे हुए लोग ही केवल संगीत
को उपलब्ध करने से वंचित रह जाते हैं। वे लोग जो जीवन को दिशा नहीं देते, मार्ग
नहीं देते, दृष्टि नहीं देते, वे ही
लोग केवल सत्य को जानने से वंचित रह जाते हैं।
इस
संध्या कुछ सूत्रों की मैंने आपसे बात की है इस आशा में कि शायद किसी के पुरुषार्थ
को चोट लगे, किसी के भीतर सोया हुआ यह महिमा का, मनुष्य की गरिमा
का भाव पैदा हो जाए, किसी को ऐसा लगे कि मुझे सच में मनुष्य
होना है, किसी को यह खयाल पकड़ जाए, यह
भावना भर जाए कि मुझे अपने मनुष्य के जन्म को सिद्ध करना है और मनुष्य जन्म की जो
भी परिपूर्ण संभावना है उसे उपलब्ध करना है तो मैं समझूंगा, मैंने
जो कहा वह सफल हुआ। किसी के मन में ऐसी चुनौती, ऐसा चैलेंज
पैदा हो जाए, यही चाहता हूं। सारी जमीन पर हर आदमी के भीतर
यह चुनौती पैदा हो जाए कि उसे अपने भीतर की प्रत्येक बीज संभावना को अंत तक विकसित
करना है। और जब तक वह विकसित नहीं कर लेगा तब तक वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं
है। ऐसा भाव प्रभु करे सबमें भर जाए। इस आशा से ये थोड़ी सी बातें कही हैं।
इतने प्रेम और इतनी शांति से उनको सुना है, उससे
बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। प्रभु आपको मार्ग दे, प्रकाश दे,
यह कामना करता हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को
प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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