मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

एस धम्मो संनतनो-(प्रवचन-047)



प्रवचन—47 (अकेलेपन की गहन प्रतीति है मुक्ति)

पहला प्रश्‍न:

हम तो जीते—जी और सोते—जागते भय और अपराध—भाव के द्वारा आशेष नारकीय पीड़ा से गुजर चकते हैं। क्या यह काफी नहीं है? कि मरने के बाद फिरे हमें नर्क भेजा जाए!



पहली बात, कोई भेजने वाल नहीं है, कोई भेजता नहीं है। तुम जाते हो इसे बहुत ठीक से समझ लो। अन्‍यथा बुद्ध के दृष्‍टिोण को पकड़ न पाओगे।
बुद्ध के दृष्टिकोण में जो अत्यंत आधारभूत बात है, वह यह है—धर्म, ईश्वर से शून्य। अगर तुम किसी भांति ईश्वर को पकड़े रहे, तो बुद्ध के धर्म को समझ न पाओगे। ईश्वर के बहाने तुमने किसी दूसरे पर दायित्व छोड़ा है।
तुम कहते हो, दुख तो हम भोग चुके बहुत, अब हमें नर्क न भेजा जाए—जैसे तुम्हें कोई भेजने वाला है! कि प्रार्थना और पूजा हमने इतनी की, अब हमें स्वर्ग भैजा जाए—जैसे कि कोई पुरस्कार बांट रहा है। वहां कोई भी नहीं है।

बुद्ध कहते हैं, तुम अकेले हो। और तुम्हें इस अपने अकेलेपन को इसकी समग्रता में स्वीकार कर लेना है। इस अकेलेपन की गहरी प्रतीति से ही मुक्ति होगी। क्योंकि जब तक दूसरा है और दूसरे पर टालने की सुविधा है, तब तक तुम बंधे ही रहोगे। कभी संसार तुम्हें बांधेगा और कभी धर्म तुम्हें बाध लेगा। लेकिन बांधने का सूत्र है कि कोई दूसरे पर तुम जिम्मेवारी टालते हो। भगवान है। वही करवा रहा है तो तुम कर रहे हो। वही जहा भेजेगा, वहीं तुम जाओगे। वह सुख देगा तो सुख, दुख देगा तो दुख। तुम अपने ऊपर दायित्व नहीं लेना चाहते। तुम उस जिम्मेदारी से घबड़ाते हो, जो स्वतंत्रता लाती है।
बुद्ध मनुष्य को अंतिम महिमा मानते है। उसके ऊपर कोई महिमा नहीं है। और मनुष्य की स्वतंत्रता ही उसके परमात्मा होने का उपाय है।
इसे ऐसा समझो, बहुत विरोधाभासी लगेगा, बुद्ध यह कह रहे हैं कि अगर परमात्मा को माना तो कभी परमात्मा न हो सकोगे। तुम्हारी मान्यता ही बाधा बन जाएगी।
हटाओ दूसरे को। अकेले होने को राजी हो जाओ। अगर दुख है, तो जानो कि तुम्हीं कारण हो। कोई और कारण नहीं। अगर सुख चाहते' हो, तो प्रार्थना से न मिलेगा, पूजा से न मिलेगा, सृजन करना होगा। फसल काटनी है, बीज बोने होंगे। स्वादिष्ट आमों की अपेक्षा है, तो आम के बीज बोने होंगे। तुम नीम के बीज बोए चले जाओ और आम पाने की आकांक्षा किए जाओ और बीच में परमात्मा का बहाना बनाए रखो, यह न चलेगा।
तो पहली तो बात यह समझ लो कि कोई है नहीं जो तुम्हें भेजता है। शायद यह किसी की धारणा के कारण ही तुम अब तक सम्हल न पाए और तुमने अपने पैरों पर ध्यान न दिया और न अपनी दिशा का चिंतन किया, न अपने को जगाया। तुम गाफिल से रहे, मूर्च्छित से चले। तुमने सदा यह सोचा कि जो करवा रहा है, हो रहा है। और प्रार्थना कर लेंगे, समझा लेंगे, बुझा लेंगे, रो लेंगे, मना लेंगे, परमात्मा करुणावान है। यह करुणा की धारणा भी तुम्हारी धारणा है। परमात्मा महा—उद्धारक है, यह भी तुम्हारी धारणा है। तुमने पाप किया है, वह पतित पावन है, ऐसे तुम किसको धोखा दे रहे हो? ऐसे तुम अपने ही कल्पनाओं के जाल बुनते चले जाते हो। फिर उन्हीं में तुम उलझते चले जाते हो।
बुद्ध कहते हैं, कल्पना के जालों को तोड़ो। तुम अकेले हो। तुम्हारे संसार में, तुम्हारे मनोजगत में तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी नहीं। संसार में भी तुम दूसरे को खोजते हो और धर्म में भी दूसरे को खोजते हो। संसार में खोजते हो पत्नी को, पति को, बेटे को, भाई को, बहन को—कोई दूसरा। अकेले होने की वहां भी तुम्हारी तैयारी नहीं है। अकेले होने में डर लगता है। अकेले घर में छूट जाते हो, भय पकड़ लेता है, कंपने लगते हो। कोई चाहिए।
अगर बिलकुल अकेले छोड़ दिए जाओ और कोई न तुम खोज सको, तो तुम कल्पना करने लगते हो। एकांत में बैठकर भी तुम दूसरे का ही सपना देखते हो। तुम्हें गुहा में गुफा में बंद कर दिया जाए तो भी तुम बैठकर भीड़ को मौजूद कर लोगे। पत्नी से बातें करोगे पति से बातें करोगे, मित्रों से बातें करोगे, झगड़े करोगे। अकेले तुम रह नहीं सकते।
किसी तरह संसार से घबड़ा जाते हो एक दिन, तो फिर तुम दूसरा संसार बना लेते हो, जिसको तुम धर्म कहते। फिर तुम मंदिर चले जाते हो, तुम पत्थर की मूर्ति से बातें करते हो। हइ का धोखा है!
पहले भी तुमने शतइrयां चुनी थीं। कम से कम जीवित थीं। कम से कम धोखे में भी थोड़ी सचाई थी। तुम्हारी पत्नी तुम्हारे परमात्मा से कम से कम ज्यादा जीवित थी। उसके जीवित होने के कारण ही अड़चन पड़ी। तुमने जो चाहा, उसने न किया। तुमने जैसा चाहा, वैसी वह सिद्ध न हुई। उसके यथार्थ ने तुम्हारी कल्पना को ठहरने न दिया, तोड़—तोड़ डाला।
तुमने तो सीता—सावित्री चाही थी। वे सब तुम्हारी कल्पनाएं हैं सीता और सावित्रिया। वे तुम्हारी पुराण—कथाएं हैं। पुरुष ने जैसी पत्नियां चाही हैं, उनके केवल सपने हैं। सीता साबित न हो सकी, क्योंकि उस तरफ भी एक जीवित स्त्री थी, किसी कथा का पात्र नहीं। तुमने तो सब तरह से अपने को भुलाने की कोशिश की, लेकिन उसके यथार्थ ने तुम्हारी कल्पना को तोड़—तोड़ दिया, झकझोर—झकझोर दिया।
आखिर तुम घबड़ा गए। अब तुम मंदिर आ गए। अब तुमने एक पत्थर की मूर्ति से अपना संबंध जोड़ा। यह मूर्ति तुम्हारी कल्पना को तोड़ भी न सकेगी। यह मूर्ति बिलकुल ही नहीं है। तुम इस पर बांसुरी रख दोगे इसके ओंठों पर, तो यह उतारकर नीचे न रख सकेगी। तुम इसे नचाओगे तो स्तुतइr नाचेगी। तुम बिठाओगे तो बैठेगी। तुम राम बनाओगे तो राम बनेगी, तुम कृष्ण बनाओगे तो कृष्ण बनेगी। यह केवल तुम्हारा ही जाल है। अब यह मूर्ति तुमने खोज ली, यह तुम्हारा ही, जैसा मदारी का बंदर होता है, ऐसे तुम्हारा यह बंदर है। तुम जैसा नचाओ यह नचेगी।
और मजा यह है कि तुम इस बंदर से प्रार्थना करोगे और तुम कहोगे कि मुझे ठीक से नचा। यह बंदर तुम्हारा, यह कल्पना तुम्हारी, यह सपना तुम्हारा, अब तुमने बड़ा गहरा धोखा देने की आयोजना की। तुमने पाप किया तो तुम इसको कहते हो, तुम पतितपावन हो। तुमने अपराध किया, तो तुम महा करुणावान हो। तुम अंधेरे में भटक रहे हो, तो परमात्मा प्रकाश है। तुम जो हो, ठीक तुम उससे विपरीत परमात्मा बनाते हो। तुम जो चाहते हो, वह तुम परमात्मा में आरोपित कर लेते हो। यह परमात्मा तुम्हारी कल्पना का विस्तार, प्रक्षेपण है।
बुद्ध कहते हैं, संसार में भी तुम दूसरे को पकड़े रहे, अब फिर तुमने दूसरे को पकड़ लिया। तुम स्व कब होओगे? तुम स्वयं कब बनोगे? अप्प दीपो भव! तुम अपने दीए खुद कब बनोगे? तुम कब कहोगे कि दूसरा नहीं है, मैं ही हूं; और मुझे जो भी करना है इस मैं से ही करना है—नर्क बनाना है तो भी स्व से ही बनाना है, स्वर्ग बनाना है तो भी स्व से ही बनाना है। दुख पाना है तो भी मुझे ही नियंता होना पड़ेगा, आनंद पाना है तो भी मुझे ही यात्रा करनी होगी। मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं है।
इसलिए तो बुद्ध का धर्म भारत में बहुत दिन टिक न सका। क्योंकि यह सत्य पर इतना जोर देते हैं और हम कल्पनाशील लोग सत्य पर इतने जोर के लिए राजी नहीं। यह सत्य तो हमें खतरनाक मालूम होता है। हम बिना स्वप्न के जी ही नहीं सकते।
सिर्ग्मड फ्रायड ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में कहा है कि जीवनभर हजारों लोगों का मनोविश्लेषण करके एक नतीजे पर मैं पहुंचा हूं कि मनुष्य सत्य के साथ जी नहीं सकता। असत्य जरूरी है, झूठ जरूरी है, धोखा जरूरी है।
यह वक्तव्य दूसरे महान जर्मन विचारक नीत्से के वक्तव्य से बड़ा मेल खाता है। नीत्से ने फ्रायड के पहले भी कहा था कि लोग सोचते हैं, सत्य और जीवन एक है। गलत सोचते हैं। सत्य जीवन—विरोधी है। झूठ जीवन का सहारा है। लोग भ्रम के सहारे जीते हैं। सत्य तो सब सहारे छीन लेता है। सत्य तो तुम्हें निपट नग्न कर जाता है। सत्य तो तुम्हें बचने की जगह ही नहीं छोड़ता। सत्य तो तुम्हें भरी बाजार की भीड़ में नग्न खड़ा कर देता हे। तुम्हें बहाने चाहिए। परमात्मा तुम्हारा सबसे बड़ा बहाना है।
बुद्ध यह नहीं कह रहे हैं कि परमात्मा नहीं है, इसे तुम खयाल रखना। बुद्ध इतना ही कह रहे हैं कि तुम जो भी परमात्मा गढ़ोगे, वह नहीं है। तुम जो भी गढ़ सकते हो, वह नहीं है। तुम्हारा गढ़ा हुआ परमात्मा नहीं है। तुम अपनी सब मूर्तियां खंडित कर डालो।
बुद्ध से बड़ा मूर्तिभंजक कोई भी नहीं हुआ। मुसलमानों ने बहुत मूर्तिया तोड़ी हैं, लेकिन फिर भी मोहम्मद इतने बड़े मूर्तिभंजक नहीं हैं, जितने बुद्ध। क्योंकि परमात्मा को स्वीकार तो किया! मत बनाओ ख्तइr, मत ढांचा रखो, लेकिन हाथ किसी दिशा में तो जोड़ोगे। मुसलमान भी काबे की तरफ हाथ जोड़कर झुकता है। जो निराकार है, उसकी भी दिशा तो बना ही लोगे। आकार निर्मित हो जाएगा। मत बनाओ चित्र, इससे क्या होता है? मन में तो चित्र बनेगा हो। बुद्ध से बड़ा कोई मूर्तिभंजक नहीं हुआ।
अब मैं तुम्हें याद दिला दूं कि बुद्ध परमात्मा—विरोधी नहीं हैं, परमात्मा के पक्ष में हैं इसीलिए विरोध है। वे चाहते यह हैं कि तुम्हारी सब कल्पनाएं ट्ट जाएं। तुम इतने नितांत अकेले छूट जाओ कि कुछ उपाय भागने का न रहे, कहीं और जाने का न रहे; कोई रास्ता न रह जाए अपने से दूर जाने का, तो तुम अपनी ही गहनता में, अपने ही स्वभाव में पाओगे उसे जिसे तुम अभी परमात्मा कहकर कल्पित करते हो। परमात्मा कल्पना नहीं है, आत्म—अनुभव है।
इसलिए पहली बात, यह तो पूछो ही मत कि हमें नर्क क्यों भेजा जाए! तुम
जाना चाहते हो तो जाओगे। तुम नहीं जाना चाहते, तुम्हें कोई भेज नहीं सकता। यह तुम ईश्वर को दोष देने की बात ही छोड़ दो।
अब यह बड़े मजे की बात है। अगर तुम धन्यवाद दोगे, तो दोष भी दोगे। अगर पूजा करोगे तो निंदा भी करोगे। अगर प्रार्थना पर तुम्हारा भरोसा है, तो कहीं शिकायत भी मौजूद रहेगी। ऐसे तुम कहोगे, हे परमात्मा! तू महान कृपाशाली है, अनुकपावान है, लेकिन नजर के किनारे से तुम देखते रहोगे अनुकंपा हो रही है कि नहीं? कि हम कहे चले जा रहे हों और तुम—कुछ हो रहा ही नहीं है! सिर्फ हमीं दोहराए जा रहे हैं, तुम हमारे अनुसार चल भी रहे कि नहीं न शिकायत भी भीतर खड़ी होती रहेगी। जहा धन्यवाद है, वहां शिकायत रहेगी। शिकायत धन्यवाद का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। या धन्यवाद शिकायत का शीर्षासन करता हुआ रूप है। वे एक ही चीज के दो नाम हैं, दो पहलू हैं।
बुद्ध कहते हैं, न शिकायत, न कोई धन्यवाद। वहा कोई है ही नहीं जिसे धन्यवाद दो। और कोई है नहीं जिसकी शिकायत करो। बुद्ध तुम्हें अपने पर फेंक देते हैं। बुद्ध तुम्हें इस बुरी तरह से अपने पर फेंक देते हैं; रत्तीभर तुम्हें सहारा नहीं देते, हाथ नहीं बढ़ाते। वे कहते हैं, सब हाथ खतरनाक हैं, सब सहारे खतरनाक हैं। उन्हीं सहारों के आसरे तो तुम भटक गए हो। आलंबन मत मांगो। तुम अकेले हो, तुम्हारी नियति अकेली है। इससे तुम राजी हो जाओ।
दरिया को अपनी मौज की तुगयानियों से काम
कश्ती किसी की पार हो या दरमियां रहे
सागर को अपनी लहरों का मजा है। तुम्हारी कश्ती पार हो या न हो, इससे सागर का कोई प्रयोजन नहीं। सागर को अपनी बाढ़ में मौज है। तुम डूबो कि बचो, तुम जानो।
बुद्ध तुम्हें अपना पूरा—पूरा मालिक बना देते हैं। यद्यपि यह मालकियत बड़ा महंगा सौदा है। यह मालकियत बड़ी कठिन है। क्योंकि तुम इतने अकेले छूट जाते हो कि बहाना भी नहीं बचता। फिर तुम यह नहीं कह सकते कि मैं दुखी हूं तो कोई और जिम्मेवार है। तुम ही जिम्मेवार हो। इसे थोड़ा समझें।
मनुष्य का मन सदा यह चाहता है कि जिम्मेवारी किसी पर टल जाए। यह मनुष्य की गहरी से गहरी चाल है। तुम जब दुखी होते हो, तुम तत्कण खोजने लगते हो—कौन मुझे दुखी कर रहा है? तुम कभी यह तो सोचते ही नहीं कि दुख मेरा दृष्टिकोण हो सकता है। पत्नी ने कुछ कहा, पति कुछ बोल गया, बेटे ने कुछ दुर्व्यवहार किया, समाज ने ठीक से साथ न दिया, राज्य दुश्मन है, परिस्थिति प्रतिकूल है, तुम कहीं न कहीं तत्कण बहाना खोजते हो। क्योंकि एक बात तुम मान ही नहीं सकते कि तुम अपने कारण दुखी हो।
तुम यह मानो कैसे! क्योंकि तुम सदा यह कहते हो, दुखी मैं होना नहीं चाहता। जब तुम दुखी होना नहीं चाहते, तो तुम अपने कारण क्यों दुखी होओगे? स्वभावत:, तुम्हारा तर्क कहता है, कोई और दुखी कर रहा है। कोई और कांटे बो रहा है, कोई और जीवन में शूल बो रहा है। मैं तो फूल ही मलता हूं। मैंने तो कभी फूल के अतिरिक्त कुछ चाहा नहीं। इसलिए अगर शूल मिल रहे हैं, तो कोई और जिम्मेवार है।
लेकिन किसको पड़ी है कि तुम्हारे लिए कांटे बोए? किसको फुरसत है? कौन तुम्हें इतना मूल्य देता है कि तुम्हारे रास्ते पर कांटे बोने आए? दूसरे लोग भी अपने जीवन में फूल बोने की बातों में लगे हैं। उनको भी फुरसत नहीं है, जैसे तुमको फुरसत नहीं है। लेकिन वे भी दुखी हो रहे है, तुम भी दुखी हो रहे हो। कुछ ऐसा लगता है, तुम आंख पर पट्टी बांधकर बीज बोए चले जाते हो।
बुद्धों का अनुभव है कि दुख है, तो कारण तुम हो। इसमें कोई अपवाद का उपाय नहीं है। तुमने ही बोया होगा। देर हो गयी होगी बीज बोए, फसल आने में समय लगा होगा, तुम शायद भूल भी गए होओ कब बोए थे ये कडुवे बीज। शायद तुम्हें, तुम्हारे तर्क में संबंध भी न रह गया हो बीजों का और फलों का। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दुख तुम्हारे ही बोए हुए बीजों का फल है।
मगर तुम कहते हो, दुखी मैं होना नहीं चाहता। यह बात भी सच नहीं है। हजारों लोगों से मैं भी संबंधित हुआ हूं ऐसे आदमी को मैं अभी खोज नहीं पाया जो दुखी न होना चाहता हो। कहते सभी हैं, सुख चाहते हैं। सुख चाहते ही आते हैं। लेकिन जब मैं उनको गौर से देखता हूं तो उनको दुख को इतना पकड़े देखता हूं कि यह भरोसा नहीं आता कि इनका सुख चाहने का मतलब क्या है? फिर यह भी गौर से देखने पर पता चलता है कि जिसको ये सुख कहते हैं, वह दुख का ही नाम है। इनकी समझ में कहीं भूल है।
समझो। एक आदमी सम्मान चाहता है। अब सम्मान तो सुख है। लेकिन जिसने सम्मान चाहा, अपमान का क्या करेगा? सम्मान के चाहने में ही अपमान का दुख पैदा होता है। इधर तुमने सम्मान मांगा, उधर अपमान की संभावना बनी। तुम सम्मान चाहते हो। जितना तुम सम्मान चाहोगे, उतना ही दूसरे तुम्हारा अपमान करना चाहेंगे। तुम अपने को बड़ा करके दिखाना चाहते हो, दूसरे तुम्हें छोटा करके दिखाना चाहेंगे। क्योंकि तुम अगर बड़े हो, तो दूसरे छोटे हो जाते हैं। वे भी सम्मान चाहते हैं। तुम अगर छोटे हो, तो ही वे बड़े हो सकते हैं। इसलिए संघर्ष चलता है कि मैं बड़ा हूं तुम छोटे हो। तुम भी यही कर रहे हो। दूसरे भी सम्मान चाहते हैं, तुम भी सम्मान चाहते हो। उनको भी अपमान मिलता है, तुम्हें भी अपमान मिलता है।
थोड़ा सोचो, जमीन पर कोई चार अरब आदमी हैं। एक—एक आदमी चार अरब आदमियों के खिलाफ लड़ रहा है। एक—एक आदमी सिद्ध करने की कोशिश कर रहा है, मैं बड़ा हूं! और चार अरब आदमी उसके खिलाफ सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि हम बड़े! कैसे तुम जीतोगे? तुम्हारे जीतने की कोई संभावना नहीं। तुम पागल हो जाओगे।
थोड़ा सोचो। अपमान से दुख पाओगे और तुम कहोगे, दूसरे दुख दे रहे हैं। क्योंकि फला आदमी ने अपमान कर दिया। गहरे जाओ, तुमने अगर सम्मान न मला होता, तो कोई तुम्हारा अपमान कर सकता था? करता रहे। तुम्हें छूता भी न।
रामकृष्ण कहा करते थे, एक चील एक मरे चूहे को लेकर उड़ रही थी। कोई पच्चीस चीले उसका पीछा कर रही थीं, झपट्टे मार रही थीं। वह चील बड़ी परेशान थी कि ये मेरे पीछे क्यों पड़ी हैं! इसी झगड़े—झांसे में उसके मुंह से मरा चूहा छूट गया। छूटते ही पच्चीसों चीले उसे छोड़कर  मरे चूहे के पीछे चली गयीं। उसे अकेला छोड़ गयीं। वह एक वृक्ष पर बैठ गयी। वह सोचने लगी, इनमें से कोई भी मेरे खिलाफ न था। चूहे को मैंने पकड़ा था और ये भी चूहे को ही पकड़ना चाहती थीं। चूहे के छूटते ही बात खतम हो गयी। कोई दुश्मन न रहा।
अगर सारे लोग तुम्हारे दुश्मन हैं, तो तुमने कोई चूहा मुंह में पकड़ा होगा। उसी चूहे को वे भी पकड़ना चाहते हैं। तुम उन्हें दोष मत दो। जो तुम भूल कर रहे हो, कम से कम उतना अधिकार वही भूल करने का उन्हें भी दो। चूहे कम हैं, चीले ज्यादा हैं। और चूहे कम होंगे ही, अन्यथा उनमें कोई अर्थ न रह जाएगा।
अगर सम्मान मिलने की सभी को सुविधा हो, चार अरब आदमी सभी सम्मानित हो सकें, सभी को राष्ट्रपतियों के पुरस्कार मिल जाएं, भारत— भूषण हो जाएं, भारत—रत्न हो जाएं, महावीर चक्र बांट दिए जाएं——सभी को—तो महावीर चक्र का मतलब क्या रह जाएगा?
सम्मान का मूल्य है न्यूनता में। जितना न्यून हो उतना ही मूल्यवान है। अगर चालीस करोड़ के मुल्क में —एक आदमी को सम्मान मिले तो मूल्य है। चालीस करोड़ को ही बांट दिया जाए—मुक्तहस्त—सभी भारत—रत्न, मूल्य समाप्त हो गया। फिर तो यह भी हो सकता है कि कोई आदमी जिद्द करे कि मुझे भारत—रत्न नहीं होना है 1 मैं अकेला, जो भारत—रत्न नहीं। तो उसमें सम्मान हो जाएगा।
तो जीवन का संघर्ष ऐसा है, न्यून का मूल्य होगा। अगर कोहिनूर हीरे सभी के पास हों, तो उनका कोई मूल्य नहीं रह जाता है। कोहिनूर चूंकि एक है, सभी के पास होने का उपाय नहीं है, वही उसका मूल्य है। रासायनिक—दृष्टि से तो हीरे में और कोयले में फर्क नहीं है। दोनों का रासायनिक संगठन एक जैसा है। कोयला ही दबा—दबा सदियों में हीरा बन जाता है। समय का फासला है। लेकिन कोयले की कौन पूजा करेगा? कोयले का कौन सम्मान करेगा? कोयला बहुतायत से है। न्यून होना चाहिए, तो सम्मान मिल सकता है। सम्मान का अर्थ यह हुआ कि जिसके लिए बहुत लोग संघर्ष कर रहे हों।
परसों रात एक संन्यासिनी ने मुझे आकर कहा—प्यारी संन्यासिनी है—उसने
कहा कि मुझे एक बड़ा अजीब सा खयाल चढ़ता है मन में कि मैं रानी हूं और रानी की तरह चलूं। मैंने कहा, तू मजे से चल। इसमें कोई अड़चन नहीं है। इस आश्रम में कोई अड़चन नहीं है। तू फूल—पत्ती का ताज भी बना ले, तो भी चलेगा। मगर एक ही खयाल रखना, और भी लोग यहां राजा—रानी हैं। उसने कहा, वह तो सब मजा ही खराब हो जाता है। अकेली मैं, तो ही मजा है। मैंने कहा, यह जरा मुश्किल बात है। क्योंकि जो सुविधा मै तुझे देता हूं, वही सबको देता हूं। दूसरों के साथ भी राजा—रानियों जैसा व्यवहार करना, फिर कोई अड़चन नहीं है, रहो, रानी रहो, बनो राजा! बात उसकी समझ में आ गयी।
बड़े होने का मजा दूसरे को छोटा दिखाने में है। तो जहां तुमने सम्मान मांगा, वहां तुमने अपमान की शुरुआत कर दी। अब जद्दोजहद होगी। अपमान से तुम दुखी होओगे।
और मजा यह है, सम्मान से तुम सुखी न हो पाओगे, अपमान से तुम दुखी होओगे। क्यों? क्योंकि सम्मान कितना ही मिल जाए, अंत तो नहीं आता। आगे सदा कुछ शेष तो रह ही जाता है। तृप्ति तो नहीं होती। ऐसा तो हो ही नहीं सकता है कि तुम्हें ऐसी घड़ी आ जाए सम्मान की कि अब इसके आगे कुछ भी नहीं। कुछ न कुछ बाकी रह जाएगा। सिकंदरों को भी बाकी रह जाता है। तुम कहीं भी पहुंच जाओ, किसी भी जगह पहुंच जाओ, वहां से भी तुम्हें आगे मंजिल रहेगी। तो सम्मान तुम्हें तृप्त न करेगा और सम्मान की मांग में जो अपमान की बौछार होगी सब तरफ से, वह तुम्हें बड़े काटो से बींध जाएगी। और तुम कहोगे, दूसरे अपमान कर रहे हैं। तुमने सम्मान की चाह में ही अपमान को निमंत्रण दिया। तुमने सफलता चाही, विफलता मिलेगी। तुमने चाहा, लोग तुम्हें भला कहें, बस भूल हो गयी। तुमने अपने अहंकार को सजाना चाहा कि लोग तुम्हारे अहंकार को नग्न करने पर उतारू हो जाएंगे।
लाओत्से ने कहा है, अगर तुम्हें हार से बचना हो तो जीत की आकांक्षा मत करना। और अगर तुम्हें अपमान से बचना हो तो सम्मान मत मांगना। लाओत्से ने कहा है, मेरा कोई अपमान नहीं कर सकता, क्योंकि मैंने सम्मान नहीं महत। और मैं वहा बैठता हूं जहां लोग जूते उतारते हैं। वहां से मुझे कोई कभी नहीं भगाता। मैंने सिंहासन पर बैठने की कोई चेष्टा नहीं की। इसलिए मुझे कोई हरा नहीं सकता। कैसे हराओगे? लाओत्से यह कहता है, मैं हारा ही हुआ हूं तुम मुझे हराओगे कैसे? मैंने जीत की योजना ही नहीं बनायी, तुम मुझे हराओगे कैसे?
इस बात को खयाल में रखो, कोई तुम्हें दूसरा न तो दुख देता है, न दे सकता है, न देने का कोई उपाय है। हा, तुम अगर अपने को दुख देना चाहो, मजे से दो। ऐसा मेरा अनुभव है कि लोग दुख को पकड़े हुए हैं, दुख को संपत्ति समझा है। दुख को छोड़ने की हिम्मत नहीं होती। क्योंकि दुख के कारण लगता है, कुछ है तो।
अब मैं क्या तुमसे अपना हाल कहूं
बाखुदा याद भी नहीं मुझको
जिंदगानी का आसरा है यही
दर्द मिट जाएगा तो क्या होगा
लोग बीमारियों के सहारे जीने लगते हैं। लोग दुखों की संपदा बना लेते हैं। लोग अपनी पीड़ाओं को तिजोरियों में सम्हालकर रख लेते हैं। निकाल—निकालकर बार—बार अपने घावों को देख लेते हैं। उघाड़—उघाड़कर फिर—फिर सहला लेते हैं। फिर—फिर हरे कर लेते हैं। कुछ है तो। खाली हाथ तो नहीं। रिक्त तो नहीं। सूने तो नहीं। कुछ भराव तो है।
तुम इस पर थोड़ा सोचना। कहीं तुमने अपने दुखों के साथ बहुत ज्यादा रिश्ता तो नहीं बना लिया? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम रुग्ण—रस लेने लगे? अगर द्द्म विचार करोगे, थोड़ा ध्यान करोगे, तुम पाओगे कि तुमने अपनी बीमारी में भी नियोजन कर दिया संपत्ति का। अब तुम बीमारी के कारण भी महत्वपूर्ण हो गए हो।
मैं एक विश्वविद्यालय में शिक्षक था। एक महिला मेरे साथ शिक्षक थी। उनके पति ने एक दिन मुझे फोन किया और कहा कि मैंने सुना है कि मेरी पत्नी आपका सत्संग करती है। आप जरा खयाल रखना, वह बीमारी बढ़ा—चढ़ाकर बताती है। जरा सा फोड़ा हो, तो वह कैंसर बताती है। तो आप फिजूल उसके पीछे परेशान मत होना। क्योंकि मैं बीस साल के अनुभव से कह रहा हूं।
शक तो मुझे भी होता था उस महिला की बातों से। लेकिन वह न केवल दूसरे को ही धोखा देती थी, जैसे खुद भी धोखा खाती थी। छोटी—मोटी बात को, दुख को, खूब बड़ा करके बताती। क्या कारण रहा होगा? उसने जीवन में कभी प्रेम नहीं जाना। तो दुख को बड़ा करके जो थोड़ी सी सहानुभूति मिल जाती, उसी से तृप्ति कर रही थी। पहले पति के साथ यही संबंध रहा होगा—दुख बढ़ा—बढ़ाकर बताया। फिर पति समझ गया। कितने देर चलेगा यह? तो पति से नाता ढीला हो गया। फिर वह इधर—उधर सत्संग करने लगी। जहां भी कोई मिल जाए सहानुभूति देने वाला, वहीं वह अपने दुख!
गौर से देखा तो पता चला कि वह अपने दुख को बड़े सम्हाल—सम्हालकर रखती है। और एक—एक दुख को लुत्फ ले—लेकर कहती। जैसे दुख कोई कविता हो, कि कोई नृत्य हो। अगर उसके दुख को गौर से न सुनो, तो वह नाराज हो जाती। अगर दुख में सहानुशइत न बताओ, तो वह तुम्हारे विपरीत हो जाती। अगर दुख में सहानुभूति बताओ, वह जितना दुख कहे उससे भी बढ़ा—चढ़ाकर मान लो, तो वह चरणों पर झुकने को राजी।
तुम जरा अपने भीतर भी इस महिला को खोजना। सभी के भीतर है।
दुख में रस मत लेना, क्योंकि रस अगर तुम लोगे, तो कौन तुम्हें दुख की तरफ
जाने से रोक सकता है फिर? और दुख का तुम शोरगुल मत मचाना। और दुख को छाती पीटकर दिखलाना मत। दुख का प्रदर्शन मत करना।
तुमने कभी खयाल किया, लोग अपने दुखों की चर्चा करते हैं, सुखों की नहीं करते। लोगों की बातें सुनो, दुख की कथाएं। सुख की तो कोई बात ही नहीं होती। कारण है। क्योंकि अगर तुम सुख की किसी से चर्चा करो, तो सहानुभूति थोड़े ही पा सकोगे, उलटी ईर्ष्या। अगर तुम किसी से कहो, मैं बहुत सुखी हूं, तो वह आदमी नाराज हो जाएगा। वह कहेगा, अच्छा! तो मेरे रहते तुम सुखी हो गए। उसकी आंख में तुम विरोध देखोगे। तुमने एक दुश्मन बना लिया।
तुम कहो कि मैं बहुत दुखी हूं? कंधे झुके जा रहे हैं बोझ से, वह तुम्हारा सिर सहलाका। वह कहेगा कि बिलकुल ठीक। तुमने उसे एक मौका दिया अपनी तुलना में ज्यादा सुख अनुभव करने का। वह कहेगा कि बिलकुल ठीक।
मैं एक घर में रहता था। मकान मालिक की जो पत्नी थी, किसी के घर कोई मर जाए—पास—पड़ोस में, दूर, संबंध हो न हो, पहचान हो न हौ—वह जरूर जाती। मैंने उससे पूछा कि जब भी कोई मरता है तो मैं तुम्हें बड़ा प्रसन्नता से जाते देखता हूं, मामला क्या है? उसकी खुशी जाहिर हुई जाती थी। वह जहां भी दुखी लोगों को देखती, वहां जाने का लोभ संवरण न कर पाती। क्योंकि उनके दुख की तुलना में अपने को थोड़ा सुखी अनुभव करती। चलो, पति किसी और का मरा, अपना तो नहीं मरा। बेटा किसी और का मरा, अपना तो नहीं मरा।
और लोग दूसरे के प्रति सहानुभूति दिखाने में बड़ा मजा लेते हैं। मुफ्त! कुछ खर्च भी नहीं होता और सहानुभूति दिखाने का मजा आ जाता है।
तुम खयाल करो। तुम्हारे घर कोई मर जाए और लोग आएं.? शरतचंद्र के प्रसिद्ध उपन्यास देवदास में वैसी घटना है। देवदास के पिता मर गए और वह दरवाजे पर बैठा है। और लोग आते हैं, बड़ी सहानुभूति करते हैं। वह कहता है कि अंदर जाएं, मेरे बड़े भाई को कहें, उनको काफी मजा आएगा। तो लोगों को बड़ा सदमा लगता है। यह किस तरह का लड़का है! कहता है, अंदर जाएं। आगे बढ़ा देता है, कोई रस नहीं लेता उनकी बातों में। वे बड़ी तैयारी करके आए हैं। लोग जब किसी के घर जाते हैं मरण के अवसर पर तो सब सोचकर जाते हैं, क्या—क्या कहेंगे, कैसे—कैसे कहेंगे। पच्चीस दफे रिहर्सल कर लेते हैं मन में कि इस—इस तरह कहेंगे बात, बात को जमा देंगे। वह सुनता ही नहीं। वह, कोई बात शुरू करता है, वह कहता है कि रुको, अंदर चले जाओ, बड़े भाई बैठे हैं, उनको। लोग नाराज हो गए हैं उस पर। यह बर्दाश्त के बाहर है।
तुम सहानुभूति देना चाहो और कोई न ले, तुम बहुत नाराज हो जाओगे। लोग सहानुभूति मुक्तहस्त बांटते हैं। क्योकि यही तो थोड़े से क्षण हैं जब उन्हें सुखी होने का अवसर मिलता है। किसी को दुखी देखकर लोग सुखी होते हैं।
तुमने खयाल किया, किसी को सुखी देखकर तुम कभी सुखी हुए? कोई बड़ा मकान बना लेता है, तब तुम्हें कोई सुख नहीं होता। लेकिन किसी के मकान में आग लग जाती है, तब तुम बड़े दुखी होते हो।
यह थोड़ा विचारने जैसा है कि जिसको दूसरे का बड़ा मकान देखकर सुख न हुआ था, उसे उसके मकान में आग लगी देखकर दुख होगा क्यों? दुख हो कैसे सकता है? यह तो सारी सरणी गलत हो गयी।
हां, अगर उसके बड़े मकान को बनते देखकर सुख हुआ था, तो आग त्नगी देखकर दुख होगा। लेकिन बड़ा मकान जब बना था, तब तो तुम दुखी हुए थे। सुख नहीं हुआ था। तुम जार—जार हो गए थे, तार—तार हो गए थे। तुम्हारी छाती में गोली लग गयी थी। तुम्हारी कमर झुक गयी थी उस दिन, तुम के हो गए थे उस बड़े मकान को देखकर। एक पराजय साफ लिख गयी थी खुले आकाश में—यह मकान तुम्हारा होना था और नहीं हो पाया और कोई और बना ले गया। बाजी कोई और ले गया। वह पराजय की स्पष्ट कथा थी। फिर जब इस घर में आग लग जाती है तब तुम दुखी कैसे हो सकते हो?
नहीं, तुम दुख दिखाते हो। होते तुम सुखी हो। भीतर बड़ा रस आता है। मन तो यही कहता है कि पाप का फल है। किया था, भोगा! अब कोई ब्लैक—मार्केट करे, चोरी—रिश्वत करे और बड़ा मकान बना ले! देर है, अंधेर थोड़े ही है! अब देख लिया! यह तो भीतर होता है। बाहर से जाकर तुम जार—जार आंसू बहाते हो। यह मौका तुम नहीं छोड़ सकते। बड़ा मकान न बना पाए, लेकिन बड़े मकान बनाने वाले आदमी को नीचा दिखाने का अवसर तो मिला—मकान में आग लग गयी।
ध्यान रखना, धार्मिक आदमी वह नहीं है जो दूसरे के दुख में सहानुभूति बताता है। धार्मिक आदमी वह है जो दूसरे के सुख में सुख अनुभव करता है।
और जिसने दूसरे के सुख में सुख अनुभव किया, उसकी सहानुभूति हीरे जैसी है। उसकी दुख में सहानुभूइत अर्थ रखती है। और जिसने सुख में ईर्ष्या अनुभव की, उसकी सहानुभूति तो ऊपर—ऊपर मलहम—पट्टी है। भीतर— भीतर आग है। सहानुभूति के धोखे में मत पड़ना।
तुमसे लोगों ने कहा है, दूसरों के दुख में दुखी होओ। मैं तुमसे कहता हूं दूसरों के सुख में सुखी होओ। दूसरों के दुख में दुखी होना! तुम वैसे ही दुखी काफी हो, अब और दुखी होना! तुम दूसरों के सुख में सुखी होओ। सुख सीखो। अपने सुख में तो सुखी होओ ही, दूसरे के सुख में भी सुखी होओ। सुख की आदत बनाओ। और जैसे—जैसे आदत घनी होगी, और बड़ा—बड़ा सुख आएगा।
कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था कि एक आदमी अपने मनोवैज्ञानिक के पास गया। वह बड़ा घबड़ाया हुआ, बड़ा बेचैन था। और मनोवैज्ञानिक ने पूछा, क्या परेशानी है, इतने क्यो पसीने से तरबतर, इतने क्यों बेचैन, इतने क्यों हांफ रहे हो? क्या तकलीफ आ गयी है, शांति से बैठकर कहो। उसने कहा, बड़ा बुरा हुआ। रात मैं सोया था, मेरे पेट पर से एक चूहा निकल गया। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, हद्द हो गयी चूहा ही निकला है, कोई हाथी तो नहीं निकला! उसने कहा, वह तो मुझे भी पता है, लेकिन चूहा निकल गया, रास्ता तो बन गया। अब हाथी भी किसी दिन निकल जाएगा। रास्ता बन गया, असली तकलीफ यह है।
यह कहानी मुझे जंची। चूहे को भी मत निकलने देना, रास्ता तो बन गया। हाथी के आने में कितनी देर लगेगी! एक दफा पता हो जाए कि यहां से निकला जाता है। न, वह आदमी ठीक कह रहा था, उसकी घबड़ाहट ठीक थी—सच।
तुम सुख के लिए थोड़ा रास्ता तो बनाओ। पहले चूहे की तरह सही, फिर हाथी की तरह भी निकलेगा। तुम सुख का कोई अवसर मत खोजो। तुम सुख का जो भी अवसर मिल सके चूको ही मत। और अगर तुम ध्यान रखो, तो ऐसी कोई भी घड़ी नहीं है जहां तुम सुख का अवसर न पा सको। गहन से गहन दुख के क्षण में भी सुख की कोई किरण होती है। अंधेरी से अंधेरी रात में भी सुबह बहुत दूर नहीं होती, पास ही होती है। और फिर अंधेरी से अंधेरी रात में भी चमकते तारों का फैलाव होता है। थोड़ी नजर सुख की खोजने वाली चाहिए।
अपने में भी सुख खोजो, दूसरे में भी सुख खोजो, ताकि सुख में तुम्हारी आदत रम जाए। ताकि सुख तुम्हारा सहज स्वभाव बन जाए। सुख पर तुम्हारी अनायास आंख पड़ने लगे। यह तुम्हारा ऐसा अभ्यास हो जाए कि इसके लिए कुछ करने की जरूरत न रहे, यह सहज होने लगे।
अभी तुमने उलटा किया है। अभी तुमने दुख की आदत बनायी है।
एक मनोवैज्ञानिक छोटा सा प्रयोग कर रहा था। उसने अपनी कक्षा में आकर बड़े ब्लैकबोर्ड पर एक छोटा सा सफेद बिंदु रखा—जरा सा—कि मुश्किल से दिखायी पड़े। फिर उसने पूछा विद्यार्थियों को कि क्या दिखायी पड़ता है? किसी को भी उतना बड़ा ब्लैकबोर्ड दिखायी न पड़ा, सभी को वह छोटा सा बिंदु दिखायी पड़ा—जो कि मुश्किल से दिखायी पड़ता था। उसने कहा, यह चकित करने वाली बात है। इतना बड़ा तख्ता कोई नहीं कहता कि दिखायी पड़ रहा है; सभी यह कहते हैं, वह छोटा सा बिंदु दिखायी पड़ रहा है।
तुम जो देखना चाहते हो, वह छोटा हो तो भी दिखायी पड़ता है। तुम जो देखना नहीं चाहते, वह बड़ा हो तो भी दिखायी नहीं पड़ता। तुम्हारी चाह पर सब कुछ निर्भर है। तुम्हारा चुनाव निर्णायक है।
तो मैं तुमसे कहता हूं—इस जीवन में तुम कहते हो दुख पाया बहुत, अब अगले जन्म में और हमें नर्क न भेजा जाए—कोई भेजने वाला नहीं है। लेकिन इस जीवन में अगर तुमने दुख की आदत बनायी, तो तुम नर्क चले जाओगे।
अब तुम्हें लगता है, इसमें बड़ा अन्याय हो रहा है कि हमने जीवनभर दुख
भोगा, फिर नरक भेजा! मैं तुमसे कहता हूं र जीवनभर दुख का अभ्यास किया, तुम
नरक के अतिरिक्त जाओगे भी कहां! तुम्हारा अभ्यास तुम्हें ले जाएगा। रास्‍त बना
लिया, अब तुम उसी रास्ते से चलोगे। तुम्हें अगर कोई स्वर्ग भेजना भी चाहे तो कोई उपाय नहीं है। तुम स्वर्ग में भी नर्क खोज लोगे।
नर्क तुम्हारा जीवन कोण है। यह कोई स्थान नहीं है कहीं। यह तुम्हारे देखने का ढंग है। तुम जहां जाओगे, नर्क खोज लोगे। तुम्हारा नर्क तुम्हारे साथ चलता है। तुम्हारा स्वर्ग भी तुम्हारे साथ चलता है। तुम अभ्यास करना यहीं से शुरू करो। तुम कल की प्रतीक्षा मत करो कि मरने के बाद स्वर्ग जाएंगे। अधिक लोग यही भूल कर रहे है—कि मरे, फिर स्वर्गीय हुए!
अगर जन्म में, जीते—जी नरक में रहे, तो अचानक तुम स्वर्ग में नहीं पहुंच सकते। कोई छलांग थोड़े ही है कि तुमने एकदम से तय कर लिया और तुम स्वर्ग में चले गए। तुम्हारे जिंदगीभर का अभ्यास तुम्हारी दिशा बनेगा।
यही सारा अर्थ है कर्म के सिद्धात का। और बुद्ध ने कर्म के सिद्धात को अपरिसीम महत्ता दी है। और ईश्वर को हटा लिया। क्योंकि बुद्ध को लगा, ईश्वर की मौजूदगी कर्म के सिद्धात को पूरा न होने देगी।
ऐसा समझो कि अगर अदालत में कहीं ऐसी व्यवस्था हो जाए कि हम न्यायाधीश को अलग कर लें, और कानून हो सके, तो कानून ज्यादा पूर्ण होगा। न्यायाधीश की मौजूदगी कानून को गड़बड़ करती है। क्योंकि न्यायाधीश के भी अपने दृष्टिकोण हैं। किसी पर दया खा जाएगा, किसी पर क्रोध से भर जाएगा। न्यायाधीश हिंदू होगा तो हिंदू पर दया कर लेगा, मुसलमान होगा तो मुसलमान पर दया कर लेगा। न्यायाधीश खुद शराबी होगा तो शराबी को थोड़ा कम दंड देगा, अगर शराब के खिलाफ होगा तो शराबी को थोड़ा ज्यादा दंड दे देगा।
आज नहीं कल, भविष्य में कभी न कभी न्यायाधीश की जगह कंप्यूटर होगा। होना चाहिए। क्योंकि कंप्यूटर पक्षपात न करेगा। वह तो सीधा—सीधा हिसाब न्याय का कर देगा। वहां कोई बीच में मनुष्य नहीं है, जो न्याय में किसी तरह की गड़बड़ कर सके।
बुद्ध ने, महावीर ने परमात्मा को अलग कर लिया, वह एक बहुत वैज्ञानिक आधार पर। वह आधार यह है कि परमात्मा की मौजूदगी न तो तुम्हें स्वतंत्र होने देगी, और परमात्मा की मौजूदगी कर्म के सिद्धात को भी पूर्ण न होने देगी।
एडमंड बर्क यूरोप का एक बड़ा विचारक हुआ। वह एक चर्च में सुनने गया था। पादरी के बोलने के बाद प्रश्न पूछे गए, तो उसने चर्च के पादरी से पूछा कि मुझे एक प्रश्न पूछना है : आपने कहा कि मरने के बाद, जो लोग सदाचारी थे और जिनका भगवान में भरोसा था, वे स्वर्ग जाएंगे। मेरे मन में एक सवाल है। वह सवाल यह है कि जो लोग सदाचारी थे लेकिन भगवान में भरोसा नहीं था, वे कहौ जाएंगे? या, जो लोग सदाचारी नहीं थे लेकिन भगवान में भरोसा था, वे कहां जाएंगे?
वह पादरी ईमानदार आदमी रहा होगा। पादरी आमतौर से इतने ईमानदार होते नहीं। धर्मगुरु और ईमानदार, जरा मुश्किल बात है! वह धंधा ही जरा बेईमानी का है। शायद एडमंड बर्क की मौजूदगी ने भी उसे ईमानदार बनने में सहायता दी, क्योंकि यह आदमी बड़ा सदाचारी था, लेकिन इसका ईश्वर पर भरोसा नहीं था। इसका प्रश्न वास्तविक था, किताबी नहीं था। पूछ रहा था अपने बाबत कि ऐसा तो मैंने कोई आचरण नहीं किया है कि नर्क भेजा जाऊं। लेकिन ईश्वर पर मुझे भरोसा नहीं, मजबूरी है, मैं क्या करूं! तो मेरा क्या होगा?
पादरी ने कहा कि मुझे थोड़ा सोचने का मौका दें। उसने सात दिन सोचा। सोचा, कुछ समझ में न आया। क्योंकि मामला बड़ा उलझन का हो गया। कठिनाई यह हो गयी, अगर वह यह कहे कि सदाचारी परमात्मा को न मानने के कारण नर्क भेजा जाएगा, तो सदाचार का सारा मूल्य समाप्त हो गया। अगर वह यह कहे कि परमात्मा को मानने वाला असदाचारी हो तो भी स्वर्ग जाएगा; तो सिर्फ परमात्मा को मान लेना, खुशामद कर लेना, स्तुति कर देना काफी हो गया। सदाचार का क्या मूल्य रहा ' और अगर वह यह कहे कि सदाचारी स्वर्ग जाएगा, परमात्मा को माने या न माने तो भी सवाल उठता है फिर परमात्मा को मानने जरूरत क्या? सदाचार ही निर्णायक है। तो फिर परमात्मा को बीच में क्यों लेना?
विज्ञान का एक नियम है, जितने कम ' काम चल सके उतना उचित। क्योंकि ज्यादा सिद्धात उलझाव खड़ा करते हैं। तो अगर सदाचार से ही स्वर्ग जाया जाता है और असद—आचार से नर्क जाया जाता है, तो बात खतम हो गयी, फिर परमात्मा को बीच में क्यों लेना? अगर परमात्मा को मानने से स्वर्ग जाया जाता है और परमात्मा को न मानने से नर्क जाया जाता है, तो सदाचार की बात समाप्त हो गयी, फिर सदाचार की बात को, बकवास को बीच में मत लाओ। न्यूनतम सिद्धात विज्ञान का आधार है।
इसी आधार पर बुद्ध और महावीर ने परमात्मा को इनकार किया। बड़े वैज्ञानिक चिंतक थे। कर्म का सिद्धात पर्याप्त है। परमात्मा को बीच में लाने से अड़चन होगी। दो सिद्धात हो जाएंगे। विभाजन होगा। निर्णय करना मुश्किल हो जाएगा। एक ही सिद्धात को रहने दो और उसकी सत्ता को सार्वभौम रहने दो।
सात दिन सोचा पादरी ने, कुछ सोच न पाया। जल्दी सातवें दिन चर्च आ गया कि अ?ब क्या करें! लोग अभी आए न थे, जाकर छत पर बैठ गया। रातभर सोचता रहा था, नींद न लगी थी, झपकी लग गयी। उसने एक स्वभ देखा। स्वप्न देखा, सात दिन का जो ऊहापोह था, वही स्वप्न बन गया। स्वप्न देखा कि एक ट्रेन में बैठा है, स्वर्ग पहुंच रहा है। उसने कहा, यह अच्छा हुआ! देख ही लें कि मामला क्या है? पता लगा लें वहीं।
स्वर्ग जाकर उसने पूछा कि सुकरात यहां है? क्योंकि सुकरात ईश्वर को नहीं मानता था, लेकिन सदाचारी था। लोगों ने कहा कि नहीं, सुकरात का तो यहां कुछ पता नहीं है। खबर नहीं सुनी कभी सुकरात की यहं।, कौन सुकरात ' कैसा सुकरात? सदमा लगा उसे। फिर उसने चारों तरफ स्वर्ग में खोजकर देखा और भी खबर पूछी—गौतम बुद्ध यहां हैं? तीर्थंकर महावीर यहां हैं? कोई पता नहीं। लेकिन एक बात और उसे हैरानी की हुई कि स्वर्ग बड़ा बेरौनक मालूम पड़ता है। उदास—उदास है। उसने तो सोचा था उत्सव होगा वहा, लेकिन धूल—धूल सी जमी है। संसार से भी ज्यादा उदास मालूम पड़ता है। थका—हारा सा है। फूल खिले से नहीं लगते। सब तरफ गमगीनी है। बड़ा हैरान हुआ कि स्वर्ग भी स्वर्ग जैसा नहीं मालूम पड़ता। सुकरात भी नहीं, महावीर भी नहीं, बुद्ध भी नहीं, ये गए कहां? नर्क! यह बात ही सोचकर उसके मन को घबड़ाने लगी।
भागा स्टेशन आया। दूसरी ट्रेन तैयार थी, जा रही थी नर्क की तरफ, चढ़ गया। उसने कहा, यह अच्छा हुआ कि वक्त पर आ गए। नर्क पहुंचा, बड़ा चकित हुआ। वहां रौनक कुछ ज्यादा मालूम पड़ती थी। गीत गाए जा रहे थे संगीत था हवा में, फूल खिले थे ताजा—ताजा था। उसने कहा, यह कुछ मामला क्या है? कहीं तख्तिया तो गलत नहीं लगी हैं? यह तो स्वर्ग जैसा मालूम पड़ता है।
वह अंदर गया, उसने लोगों से पूछा कि सुकरात ' तो उसने बताया कि सुकरात वह सामने खेत में काम कर रहा है। सुकरात वहां हल—बक्सर चला रहा था। उसने पूछा, आप नर्क में? आप यहां नर्क में क्या कर रहे हो? इतने सदाचारी व्यक्ति को नर्क में? सुकरात ने कहा, किसने तुमसे कहा यह नर्क है? जहा सदाचारी है वहां स्वर्ग है। हम तो जब से आए, स्वर्ग में ही हैं। उसने लोगों से पूछताछ की।
उन्होंने कहा, यह बात सच है। जब से ये कुछ लोग आए हैं—बुद्ध, महावीर, सुकरात—तब से नर्क का नक्यग़ बदल गया है। इन्होंने स्वर्ग बना दिया है।
उसकी नींद खुली गयी। घबड़ा गया। उसने उत्तर दिया अपने सुबह के प्रवचन में, उसने कहा कि संत स्वर्ग जाते हैं ऐसा नहीं, जहां संत जाते हैं वहां स्वर्ग है। पापी नर्क जाते हैं ऐसा नहीं, पापी जहां जातेर हैं वहां नर्क है।
निर्णायक तुम हो। स्वर्ग और नर्क तुम्हारी हवा है, तुम्हारा वातावरण है। हर आदमी अपने स्वर्ग और नर्क को अपने साथ लेकर चलता है।
इसे स्मरण रखना, तो ही बुद्ध को ठीक से समझ पाओगे। दुख की आदत छोड़ो, नहीं तो दुख की आदत तुम्हें नर्क ले जाएगी। नर्क और स्वर्ग तो कहने की बातें हैं, कहने के ढंग हैं। दुख की आदत नर्क है।
उस तो सारी कटी इश्के—बुतां में मोमिन
आखिरी वक्त में क्या खाक मुसलमा होंगे
जिंदगीभर अगर तुम शतइrयों की पूजा करते रहे, तो मरते वक्त मुसलमान कैसे
हो जाओगे! वही मूर्तियां तुम्हें घेरे रहेंगी मरते वक्त भी। मरने के बाद मृत्यु तुम्हें वही देगी तो तुमने जीवन में अर्जित किया हो। मृत्यु तुम्हें वही सौंप देगी जो तुमने जीवनभर में कमाया हो। मौत तुम्हें नया कुछ नहीं दे सकती। मौत तो जीवनभर का निचोड़ है।
फिर से प्रश्न को हम समझ लें, 'हम तो जीते—जी और सोते—जागते भय और अपराध— भाव के द्वारा अशेष नारकीय पीड़ा से गुजर चुकते हैं, क्या वह काफी नहीं.....?
किससे पूछते हो कि वह काफी नहीं? अगर काफी खै, तो बाहर निकलो। अगर काफी हो चुका है, तो क्यों खड़े हो भीतर?
नहीं, अभी काफी नहीं है। तुम्हारे अनुभव से अभी काफी नहीं है। अभी दिल कहता है, थोड़ा और भोग लें। अभी दिल कहता है, पता नहीं कहीं कोई सुख छिपा हो इस दुख में! अभी दिल कहता है, आज तक नहीं हुआ, कल हो जाए, किसे मालूम! अभी मन भरा नहीं दुख से। अन्यथा कौन तुम्हें रोक रहा है? द्वार—दरवाजे पर किसी ने भी सांकल नहीं चढ़ायी है। दरवाजे खुले हैं। तुम्हौं अटक रहे हो। काफी अभी हुआ नहीं। और अगर तुम्हीं नहीं जानते कि काफी हुआ है, तो अस्तित्व कैसे जानेगा कि काफी हुआ है? अस्तित्व ने तुम्हें मालिक बनाया है, तुम्हें परिपूर्ण स्वतंत्रता दी है। जब तक तुम्हीं अपने नर्क से मुक्त न हो जाओ तब तक कोई तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता।
थोड़ा सोचो, दुख से भी मुक्त होना कितना कठिन मालूम हो रहा है। और बुद्धपुरुष कहते हैँ, सुख से भी मुक्त हो जाना है। और तुम दुख से भी मुक्त नहीं हो पा रहे हो। क्योंकि तुम्हें दुख में सुख छिपा हुआ मालूम पड़ता है। और बुद्धपुरुष कहते हैं, सुख से भी मुक्त हो जाना है, क्योंकि उन्होंने सुख में भी दुख को ही छिपा पाया है।
दोनों की दृष्टि अगर ठीक से समझो तो अलग—अलग दृष्टिकोणों से है, लेकिन एक ही है। तुमने दुख में सुख को छिपा सोचा है। बुद्धपुरुषों ने सुख में दुख को छिपा पाया। बहुत फर्क नहीं है। जरा सा। लेकिन बहुत भी। क्योंकि अगर तुम दुख में सुख को छिपा पा रहे हो, तो तुम दुख को पकड़े रहोगे। और अगर तुम्हें यह दिखायी पड़ जाए कि तुम्हारे सारे सुख दुख का ही आवरण हैं, तो तुम द्ख से तो मुका होओगे ही, तुम सुख से भी मुक्त हो जाओगे। तुम दोनों को  छोड़कर  बाहर आ जाओगे।
उस घड़ी का नाम निष्कलुष निर्वाण की घड़ी है; जब तुम सुख और दुख को पीछे  छोड़कर  आ जाते हो। जब तुम सोने की, लोहे की, सब जंजीरें  छोड़कर  बाहर आ जाते हो। और बाहर आने का एक ही आधार है—काफी का पता चल जाना, पर्याप्त हो चुका!
मैंनै सुना है, एक आदमी ने नब्बे साल की उम्र में अदालत में तलाक के लिए निवेदन किया। खुद नब्बे साल का, पत्नी कोई पचासी साल की। मजिस्ट्रेट भी थोड़ा
चौंका। उसने पूछा कि तुम कब से विवाहित हो? उस नब्बे साल के आदमी ने कहा, कोई सत्तर साल हो चुके विवाहित हुए। तो उस मजिस्ट्रेट ने कहा कि अब सत्तर साल के बाद, मरने की घड़ी करीब आ रही है, अब तुम्हें तलाक की सूझी? उसने कहा, उगखिर काफी काफी है। इनफ इज इनफ। किसी भी दृष्टिकोण से लें उस आदमी ने कहा, काफी काफी है। सत्तर साल अब बहुत हो गया, अब छुटकारा चाहिए। और फिर अब ज्यादा समय भी नहीं बचा है, उस आदमी ने कहा, मौत करीब आ रही है, अब न छूटे तो फिर कब छूटेंगे?
मैं तुमसे कहता हूं? दुख को तलाक दो, काफी काफी है।


दूसरा प्रश्‍न:

कल आपने कहा कि किए हुए पापों को शांति और तटस्थता के साथ भोग लो। किंतु अनंत जन्मों के पाप क्या अनंत जन्मों तक भोगने पड़ेंगे? फिर ज्ञानाग्नि का आयोजन क्या है? कृपापूर्वक इस पर प्रकाश डालें।


पहली तो बात, पाप करते समय जब अनंत काल की फिकर न की, करते समय जब फिकर न की। तो अब भोगते हुए सयम क्‍यो? और जब करने वाल अनंत काल बीत गया, तो भोगने वाला भी बीत ही जाएगा। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसे तुम अनंत काल कहते हो, वह अनंत है नहीं। अगर अनंत काल तुमने पाप किए, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अब तक जो बीत गया वह अनंत हो कैसे सकता है? उसकी सीमा तो आ गयी। अब तो तुम जागने लगे और तुमने लौटकर देखा कि यह तो बहुत समय से. कहो, बहुत समय तक पाप किया, अनंत मत कहो।
पाप—तुमने किया, पाप का फल कौन भोगेगा? तुम कोई तरकीब चाहते हो कि पाप तो कर लिए, पाप के फल से बच जाओ। कोई मंत्र, कोई चमत्कार, कोई तुम्हें छुटकारा दिला दे।
यहीं बुद्ध के वचन बहुत कठोर हो जाते हैं। क्योंकि बुद्ध कहते हैं, कौन तुम्हें छुटकारा दिलाएगा? और ऐसा भी नहीं है कि जागे हुए पुरुषों ने तुमसे बीच—बीच में हजारों बार न कहा हो कि रोको, बाहर आ जाओ। और ऐसा भी नहीं है कि मैं तुमसे आज कह रहा हूं कि तुम बाहर आ जाओ, तो तुम आज बाहर आ जाओगे। तुम करते ही रहोगे। अगले जन्म में फिर तुम किसी के सामने यही कहोगे कि अनंत जन्मों तक किया हुआ पाप, अब क्या अनंत जन्मों तक फल भोगने पड़ेंगे? करते तुम चले जाते हो।
तुम असंभव की आकांक्षा करते हो। पाप तो तुम करो और फल तुम्हें न मिले। फल किसको मिलेगा फिर? दुख तो तुम बोओ, फसल कौन कांटेगा? और यह तो अन्याय होगा कि फसल किसी और को काटनी पड़े। फसल तुम्हें ही काटनी पड़ेगी।
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं,  फिकर छोड़ो इसकी कि कितना समय बीत चुका, जब जागे तब जागे, तभी सुबह! और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुमने जितने समय दुख बोया है, उतने ही समय तुम्हें भोगना पड़ेगा। मगर तुम्हें राजी तो होना चाहिए भोगने के लिए। भोगना न पड़ेगा। मगर तुम्हें राजी होना चाहिए भोगने के लिए। उस राजीपन में ही छुटकारा है।
तुम्हें कहना तो यही चाहिए कि चाहे कितना ही समय लगे, जो मैंने किया है, उसे भोगने के लिए मैं राजी हूं। चाहे अनंत काल लगे। तुम्हें अपनी तरफ से तैयारी तो यह दिखानी ही चाहिए। वह तुम्हारा सौमनस्य होगा। वह तुम्हारा सदभाव होगा। वह तुम्हारी ईमानदारी होगी, प्रामाणिकता होगी। तुम्हें यह तो कहना ही चाहिए कि जब मैंने फसल बोयी है, तो मैं काटूगा। और जितने समय बोयी है उतने समय काटूंगा। इसमें मैं किसी और पर जिम्मेवारी नहीं देता। और न कोई ऐसा सूक्ष्म रास्ता खोजना चाहता हूं कि किसी तरह बचाव हो जाए—किसी रिश्वत से, किसी खुशामद से, किसी प्रार्थना से—नहीं, कोई बचाव नहीं चाहता। मेरे किए का फल मुझे मिलना ही चाहिए।
तुम तैयारी दिखाओ। तुम्हारी तैयारी अगर साफ हो, तो एक बात समझ लेने जैसी है, दुख का संबंध विस्तार से कम होता है, गहराई से ज्यादा होता है। दुख के दो आयाम हैं। एक तो लंबाई है और एक गहराई है। तुम्हारे पास एक कटोरी भर जल है। तुम उसे एक छोटी सी शीशी में डाल दो, तो जल की गहराई बढ़ जाती है। तुम उसे फर्श पर फैला दो, जल उतना ही है, लेकिन गहराई समाप्त हो जाती है। उथला—उथला फैल जाता है। सतह पर पर्त फैल जाती है।
तुमने जो पाप किए हैं, वह तो समय की बड़ी लंबाई पर किए हैं। लेकिन अगर तुम राजी हो झेलने को, तो तुम समय की गहराई में उनको झेल लोगे। एक सालभर का सिरदर्द एक क्षण में भी झेला जा सकता है, गहराई का सवाल है। पीड़ा इतनी सघन हो सकती है, इतनी प्राणांतक हो सकती है कि तुम्हारे पूरे अस्तित्व को तीर की तरह भेद जाए।
यहां तुम्हें मैं एक बात समझा देना चाहूं, जो कई दफे पूछी जाती है, लेकिन ठीक समय न होने से मैंने कभी उसका उत्तर नहीं दिया। बहुत बार पूछा जाता है कि रामकृष्ण कैंसर से मरे, रमण भी कैंसर से मरे, महावीर बड़ी गहन उदर की बीमारी से मरे, बुद्ध शरीर के विषाक्त होने से मरे! ऐसे महापुरुष, ऐसे पूर्णज्ञान को उपलब्ध लोग, ऐसी संघातक बीमारियों से मरे! कैंसर! शोभा नहीं देता, जंचता नहीं। रमण और कैंसर से मरें! और यहां करोड़ों हैं, महापापी, जो बिना कैंसर के मरेंगे। तो रमण के भाग्य में ऐसा क्या लिखा है?
मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि अक्सर ऐसा हुआ है कि जिस व्यक्ति का आखिरी क्षण आ गया, इसके बाद जिसका जन्म न होगा—रमण या रामकृष्ण, यह उनका आखिरी, यह उनका शरीर से आखिरी संबंध है—उनकी पीड़ा सघन हो जाती है। तो जो तुम वर्षों—वर्षों और जन्मों—जन्मों तक भोगोगे, वे क्षण में भोग लेते हैं।
कैंसर बड़ी सघन पीड़ा है। रामकृष्ण ने तो इलाज के लिए भी तैयारी नहीं दिखायी। क्योंकि उन्होंने कहा, अगर इलाज होगा, तो पीड़ा कौन झेलेगा? कंठ का कैसर था उन्हें। अवरुद्ध हो गया था कंठ बिलकुल। न पानी पी सकते थे, न भोजन ले सकते थे। शरीर सूखता जाता था। और भयंकर पीड़ा थी, न सो सकते थे, न बैठ सकते थे, न लेट सकते थे। कोई स्थिति में चैन न था।
विवेकानंद ने रामकृष्ण को जाकर कहा कि परमहंसदेव। हमें पता है कि अगर आप जरा भी मां को कह दें, काली को कह दें, तो यह दुख ऐसे ही विलीन हो जाएगा जैसे स्वप्न विलीन हो जाता है। कितने दिन हो गए आपने जल नहीं पीया! 'कितने दिन हुए अपने भोजन नहीं किया! आप कहें।
रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, मेरे बिना ही कहे कल रात मैंने काली को देखा और वह कहने लगी, रामकृष्ण! इस कंठ से तो बहुत भोजन कर लिया, अब दूसरे कंठों से भोजन करो। तो रामकृष्ण ने कहा, अब तुम्हारे सब कंठों से भोजन करूंगा। अब यह कंठ थक गया। अब इसके आने का समय भी समाप्त हो गया। अब यह जाने की घड़ी है। इलाज भी नहीं किया। क्योंकि पीड़ा को उसकी पूरी त्वरा में झेल लेना मुक्त हो जाना है।
तो मैं तुमसे यह दूसरी बात कहना चाहता हूं कि जरूरी नहीं है कि तुमने बहुत—बहुत जन्मों तक पाप किए हैं, इसलिए उतने ही जन्मों तक तुम्हें पाप का फल भोगना पड़े। लेकिन अगर तुम्हारी तैयारी हो, तो एक क्षण में भी जन्मों के पाप सघन हो सकते हैं। उनकी पीड़ा बड़ी गहन होगी। और अगर तुम तटस्थ— भाव से देख सको, तो एक क्षण में जन्मों—जन्मों की कथा समाप्त हो जाती है। इसलिए अक्सर बुद्धपुरुष बड़ी संघातक बीमारियों से मरे हैं।
जीसस का सूली पर लटकाया जाना, सोचने जैसा है। क्योकि कर्म का सिद्धात तो यही कहेगा कि यह सूली पर लटकाया जाना, किसी महापाप का फल है। जन्मों—जन्मों के पाप का फल है। ठीक है। एक क्षण में सूली पर जीसस ने वह सारी पीड़ा भोग ली, जो हम जन्मों—जन्मों में भी न भोग सकेंगे।
हम छोटी—छोटी मात्रा में भोगते हैं। होमियोपैथी की मात्रा की तरह चलती है हमारी पीड़ा। छोटी—छोटी पुडिया—दो—दो शक्कर की गोलिया—ले रहे हैं। एलोपैथिक डोज भी लिया जा सकता है। और जो व्यक्ति राजी है, राजी का अर्थ है, जिसने यह कहा कि मैंने ही दुख कमाए, मैंने ही दुख दिए, अब उनके भोगने के लिए? मैं पूरी तरह तैयार हूं। उसी घड़ी एक क्रांति घटित होती है। समय नया रूप लेता है। लंबाई हट जाती है, गहराई बढ़ती है। उस स्वीकार—भाव में ही दुख का तीर प्राणों तक छिद जाता है। एक क्षण में भी सारे जन्मों के पापों से छुटकारा है।
लेकिन तुमसे मैं कहूंगा, इसकी तुम आकांक्षा मत करो। नहीं तो तुम न्याय के विपरीत जा रहे हो, तुम नियम के विपरीत जा रहे हो।
और भी आसान होंगी राह का दुश्वारियां
हर अमीरे—कारवां को राहजन होने भी दे
जिसने एक बार ठीक से समझ लिया कि मैंने जन्मों—जन्मों तक दुख बोए हैं, अब वह कहेगा कि जितने दुख मुझ पर आएं, उतना भला। अगर यात्री—दल के नेता लुटेरे हो जाएं और मुझे सब तरह लूट लें, तो और भी भला।
और भी आसान होंगी राह की दुश्वारियां
राह की कठिनाइयां कम हो जाएंगी।
हर अमीरे—कारवां को सहजन होने भी दे
अगर यात्री—दल का नेता लुटेरा हो जाए, तो और भी अच्छा। अगर यह सारा संसार तुम्हें लूट ही ले, तो और भी अच्छा। उतने ही तुम हल्के हो जाओगे।
यह मुद्दत हस्ती की आखिर यूं भी तो गुजर ही जाएगी
दो दिन के लिए मैं किससे कहूं आसान मेरी मुश्किल कर दे
प्रार्थना मत करना। क्योंकि प्रार्थना में तुम बेईमान आकांक्षा कर रहे हो। तुम यह कह रहे हो कि दुख तो मैंने बनाए, तू क्षमा कर दे। करते वक्त तुमने उसे बुलाया न, भोगते वक्त बुलाते हो! करते वक्त वह अपने तईं से भी आए तो तुमने सुना न। भोगते वक्त तुम चिल्लाते हो!
दो दिन के लिए मैं किससे कहूं आसान मेरी मुश्किल कर दे
ठीक है, ये दो दिन भी गुजर ही जाएंगे। जैसे और दिन गुजर गए, ये दिन भी गुजर जाएंगे।
राह में बैठा हूं मैं तुम संगे—रह समझो मुझे
आदमी बन जाऊंगा कुछ ठोकरें खा जाने के बाद
जैसे राह पर पड़ा एक पत्थर हूं मैं।
राह में बैठा हूं मैं तुम संगे—रह समझो मुझे
आदमी बन जाऊंगा कुछ ठोकरें खा जाने के बाद
मारो ठोकरें, चिंता न करो। ये ठोकरें ही मुझे जगाकी।
दुख जगाता है। दुख निखारता है। दुख सतेज करता है। और अगर तुम्हारा दुख तुम्हें अभी तक सतेज नहीं कर पाया, तो तुमने दुख को दुख की तरह देखा ही नहीं, पहचाना नहीं। तुम अभी भी दुख को अफीम की तरह लिए जा रहे हो। तुम उससे सो रहे हो।
तुझसे भी कुछ बढ़के थीं तेरी तमन्नाएं हसीन
सैकड़ों परियों के झुरमुट में तेरा दीवाना था
छीन ली क्यों आपने मुझसे मताए—सब्रो—होश
क्या सजाए—कैदे—गम के साथ कुछ जुर्माना था
आदमी सोचता है ऐसा, कि एक तो संसार के कारागृह—मैं डाल दिया, दुख में डाल      दिया, और फिर सब्र और होश भी छीन लिया, तो यह क्या सजा के साथ—साथ जुर्माना है?
तुझसे भी कुछ बढ़के थीं तेरी तमन्नाएं हसीन
सैकड़ों परियों के झुरमुट में तेरा दीवाना था
छीन ली क्यों आपने मुझसे मताए—सब्रो—हौश
क्या सजाए—कैदे—गम के साथ कुछ जुर्माना था
लेकिन कोई न तो तुम्हें कारागृह में डाल रहा है, न कोई तुमसे होश छीन रहा है। होश तुम खुद ही खो रहे हो। होश तुम्हें मिला है—जन्म के साथ मिला है——तुम उसे बेच—बेचकर कूड़ा—कचरा खरीद रहे हो। तुम होश को काट—काटकर तिजोड़ी भर रहे हो। तुम होश को काट—काटकर व्यर्थ की संपत्ति डकट्ठी कर रहे हो। होश तुम्हारा स्वभाव है। और जितना होश कम हो जाएगा, उतने तुम कारागृह में गिर रहे हो। कोई तुम्हें गिराता नहीं। बेहोशी कारागृह है। होश मोक्ष है।
बुद्ध से किसी ने पूछा, मोक्ष की परिभाषा क्या है आपकी? तो उन्होंने कहा, अप्रमाद। बेहोशी न हो। तो मोक्ष को कहीं आकाश में न बताया, भीतर बताया तुम्हारे। बेहोशी न हो, मूर्च्छा न हो, जागरण हो।
फिर से प्रश्न को सुन लें, 'कल आपने कहा कि किए हुए पापों को शांति और तटस्थता के साथ भोग लो। '
अगर तुमने शांति और तटस्थता के साथ दुख को भोग लिया, तो उसी शांति और तटस्थता में तुम दुख के पार हो गए। अगर तुमने दुख को गौर से देखा और भोग लिया, तो तुम साक्षी हो गए, द्रष्टा हो गए। दुख दूर हो गया—विषय हो गया। तुम देखने वाले हो गए, दुख दृश्य हो गया। तुम्हारा दुख से तादात्म्य छूट गया। इसे कभी प्रयोग करके देखो। साधारण दुखों में प्रयोग करो पहले। सिर में दर्द है, द्वार—दरवाजे बंद करके शांत बैठ जाओ और भीतर सिर के दर्द को देखने की कोशिश करो। साधारणत:, हम दर्द के साथ अपना तादात्म्य कर लेते हैं। लगता है कि मुझे दर्द है, मैं दर्द हो गया। हम दर्द में डूब जाते हैं।
थोड़ा अपने को निकालो बाहर। थोड़े सिर को दर्द के बाहर उठाओ, ऊपर उठाओ, दर्द को देखो—यह रहा सिरदर्द।
देख सकोगे, क्योंकि सिरदर्द एक घटना है, पीड़ा है। तुम पीछे से खड़े होकर देख सकोगे। और जैसे—जैसे तुम देखने लगोगे, तुम चकित होओगे। जैसे—जैसे तुम देखते हो, फासला बढ़ता है। यहां दृष्टि गहरी होती है, दर्द से फासला बढ़ता है, दर्द दूर होने लगा। नहीं कि मिट जाएगा, दूर होगा, दोनों के बीच बड़ा अंतराल आ जाएगा। जैसे बीच का सेतु टूट गया। वहा दर्द है, यहां तुम हो।
और तब तुम और भी चकित होओगे कि जैसे—जैसे दर्द दूर होगा, दर्द का फैलाव कम होने लगेगा, सिकुडेगा। जैसे छोटे स्थान को घेरने लगा। ज्यादा एकाग्र होने लगेगा। एक ऐसी घड़ी आएगी सिरदर्द की कि जैसे एक सुई की नोक पर टिका रह गया—बड़ा गहन हो जाएगा, तीव्र हो जाएगा, लेकिन सूक्ष्म हो जाएगा, सुई की नोक जैसा हो जाएगा। तुम वहीं गौर से देखते रहना।
तब तुम एक नए अनुभव को उपलब्ध होओगे। कभी—कभी क्षणभर को नोक दिखायी पड़ेगी, क्षणभर को खो जाएगी। क्षणभर को तुम पाओगे दर्द है, क्षणभर को तुम पाओगे कहां गया ' ऐसी झलकें आनी शुरू होंगी। औr अगर तुम देखते ही गए, तो तुम पाओगे कि तुम्हारा जैसा दर्शन स्पष्ट हो जाता है, वैसे ही दर्द शून्य हो जाता है। द्रष्टा जितना जागता है, दर्द उतना ही शून्य हो जाता है। द्रष्टा जब परिपूर्ण जागता है, दर्द परिपूर्ण शून्य हो जाता है।
जानने वालों का अनुभव यही है कि मूर्च्छा में ही दुख है। होश में दुख खो जाता है। अगर तुम चिकित्सक से पूछो, सर्जन से पूछो, उसका भी एक अनुभव है। वह कहता है, जब तुम्हें बेहोश कर देते हैं, तब भी दर्द खो जाता है। इसीलिए तो आपरेशन करना हो तो बेहोश करना पड़ता है। बेहोशी का मतलब क्या है? बेहोशी का कुल इतना मतलब है कि तुम्हारे होश और दर्द का संबंध तोड़ देते हैं। तुम्हारा होश अलग पड़ जाता है, तुम्हारा दर्द अलग पड़ जाता है। दोनों के बीच में जो संबंध जोड़ने वाले स्नायु हैं, उन्हें बेहोश कर देते हैं। फिर आपरेशन होता रहता है—तुम्हारा पेट कटता रहे, हाथ कटता रहे—तुम्हें पता भी नहीं चलता।
ठीक यही घटना परम होश में भी घटती है, बुद्धत्व में भी घटती है। तुम इतने होश से भर जाते हो कि होश से भर जाने के कारण सेतु टूट जाता है। या तो सेतु तोड़ दो, तो होश खो जाता है। या होश पूरा ले आओ, तो सेतु टूट जाता है। जो सर्जन करता है एक तरफ से, वही आत्मसाधको ने किया है दूसरी तरफ से।
तटस्थता और शांति से भोग लो, तो तुम मुक्त हो जाओगे।
पूछा है, 'फिर शानाग्नि का प्रयोजन क्या है?'
ज्ञानाग्नि का प्रयोजन यही है कि वह तुम्हें तटस्थ बनाए, शांत बनाए। शानाग्नि का अर्थ ही है, वह तुम्हें ताता बनाए, द्रष्टा बनाए।


आखिरी प्रश्‍न:

अनाश्रव—पुरुष से क्या अर्थ है?


अनाश्रव जैनों और बौद्धों का विशेष शब्द है। बड़ा बहुमूल्य शब्द है। पारिभाषिक है।
उसका अर्थ होता है, चैतन्य की ऐसी दशा, जहां बाहर से कुछ भीतर नहीं आता। आश्रव का अर्थ होता है, आना। अनाश्रव का अर्थ होता है, जहां बाहर से भीतर कुछ भी नहीं आता। जैसे तुमने द्वार खोला, धूल उड़ी, भीतर आयी, यह आश्रव है। तुमने द्वार खोला, कुछ भी भीतर न आया—धूल न उड़ी, हवा भी न कंपी, कुछ भी भीतर न आया—यह अनाश्रव है।
साधारण आदमी आश्रव की अवस्था में है। कुछ भी करे, चीजें भीतर आ रही हैं। तुम राह से चले जा रहे हो, कोई कार गुजरी, एक क्षण को कार की झलक मिली, गयी, लेकिन आश्रव हो गया। तुम्हारे भीतर एक वासना जग गयी, ऐसी कार मेरे पास होनी चाहिए। कार तो गयी, लेकिन तुमने आश्रव कर लिया, धूल भीतर आ गयी। एक सुंदर स्त्री निकली, धीमा सा मन में एक सपना उठा कि ऐसी पत्नी मेरी होती। तुमने आश्रव कर लिया। तुम इस तरह आश्रव इकट्ठा कर रहे हो। और इस तरह की धूल इकट्ठी होती जाती है भीतर। यही धूल तुम्हारा बोझ है।
अनाश्रव का अर्थ है, कुछ भी भीतर नहीं आता। तुम देखते हो कोरी आंख से। देखते हो, लेकिन भीतर कुछ भी नहीं आता। कार गुजर जाती है, स्त्री गुजर जाती है। ऐसा हुआ। पूर्णिमा की रात थी और बुद्ध एक जंगल में ध्यान करने बैठे थे। कुछ गांव के युवक एक वेश्या को लेकर जंगल में आ गए थे—मौज—मजे के लिए। उन्होंने खूब शराब डटकर पी ली, वेश्या के सब कपड़े छीन लिए, पर वे इतने शराब में धुत्त हो गए कि वेश्या ने मौका देखा और भाग निकली। जब उन्हें सुबह होते—होते भोर होते—होते होश आया, थोड़ी ठंडी हवा लगी, तो उन्होंने देखा, स्त्री तो भाग गयी। तो उसको खोजने निकले।
कोई और तो न मिला, बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठे मिल गए। तो उन्होंने पूछा, इस भिक्षु को जरूर—क्योंकि यहां से ही रास्ता जाता है, स्त्री यहां से गुजरी ही होगी, गुजरना ही पड़ेगा, और कोई रास्ता नहीं है—तो पूछा आकर कि आप रातभर यहां थे? बुद्ध ने कहा, रातभर था। कोई स्त्री यहां से गुजरी? बुद्ध ने कहा, कोई गुजरा। स्त्री थी या पुरुष था, यह कहना मुश्किल है। उन्होंने पूछा, आंखें बंद किए थे कि खोलकर बैठ थे? बुद्ध ने कहा, आंखें खोलकर बैठा था। उन्होंने कहा, हैरानी की बात है। फिर तुम्हें पता न चला कि स्त्री है कि पुरुष? नग्न थी कि वस्त्र पहने थी? उन्होंने कहा, यह भी मुश्किल है। कोई गुजरा। लेकिन, बुद्ध ने कहा, तुम समझ न पाओगे, तुम आश्रव की भाषा समझोगे, तुम अनाश्रव की भाषा न समझोगे—आंखें देखती थीं, लेकिन देखने की अब कोई उत्सुकता नहीं।
तुमने कभी खाली आंखों से देखा? आंखें देखती हैं, लेकिन देखने की कोई वासना नहीं है। आंखें देखती हैं, क्योंकि देखना उनका गुणधर्म है। लेकिन देखने के पीछे कोई खयाल नहीं है। तो चीज गुजर जाती है, भीतर कुछ भी नहीं जाता। दर्पण की तरह तुम रहते हो। चित्र बना, आदमी गुजर गया, दर्पण खाली था खाली हो गया। फिर कुछ और आया, चित्र बना, गया।
अनाश्रव का अर्थ है, दर्पण की भाति। आश्रव का अर्थ है, फोटो की फिल्म की भाति। कैमरे का दरवाजा जरा सा खुलता है— क्षणभर को भी नहीं, क्षणभर के एक हजारवें हिस्से को खुलता है—उतने में ही आश्रव हो जाता है। उतने में ही फिल्म ने चित्र पकड़ लिया। दर्पण खुला 'रहता है—खुला ही रखा रहता है—सदियां बीत जाती हैं, कुछ भी पकड़ता नहीं। चित्त की ऐसी दर्पण जैसी अवस्था क्र नाम अनाश्रव है।
जब तक तुम्हारे मन में वासना है तब तक तुम पकड़ते ही रहोगे। जब तुम वासना को समझोगे, उसकी व्यर्थता को समझोगे, उससे मिले दुख का अनुभव करोगे, तब किवाड़ खुले भी रहें या बंद भी रहें, कोई फर्क नहीं पड़ता।
कल मैं एक गीत पढ़ रहा था—
फिर कोई आया दिले—जार
नहीं, कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात
बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खड़ाने लगे फोनों में
ख्वाबीदा चिराग
सो गयी रास्ता तक—तक के
हर इक राहगुजार
अजनबी खाक ने धुंधला दिए
कदमों के सुराग
गुल करो शम्मएं
बढ़ा दो मय—ओ—मीना—ओ—अयाग
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकक्कल कर लो
अब यहां कोई नहीं आएगा
साधारणत: आदमी ऐसा है। द्वार—दरवाजे पर बैठा है और प्रतीक्षा कर रहा है, कोई आता है—कोई सुख, कोई आनंद, कोई रस, कोई अनुभव, कोई धन, कोई संपदा, कोई यश—कोई आता है। हम चौबीस घंटे चारों दिशाओं में अपने दरवाजे को खोलकर बैठे हैं—कोई आएगा, कोई आएगा। कभी कोई आया नहीं। कभी कोई आने को नहीं है। हमारा होना ही हमारा एकमात्र होना है।
लेकिन दीया जलाया है, राह देखे चले जाते हैं। संसारी मन प्रतीक्षातुर मन है कुछ न कुछ होकर रहेगा। कुछ न कुछ जरूर होगा। जैसे हमारा होना काफी नहीं है, कुछ और हो तभी हमें सुख मिलेगा। लेकिन जब यह सब प्रतीक्षा व्यर्थ हो जाएगी, यह बात व्यर्थ हो जाएगी, तुम समझ लोगे—कोई न कभी आता है, न कभी कोई जाता है, तुम अकेले हो, तुम्हारा होना आत्यंतिक है, आखिरी है; इससे ऊपर होने की कोई जगह भी नहीं है, कोई संभावना भी नहीं है, इससे ऊपर पाने का कोई उपाय भी नहीं है, पाने की जरूरत भी नहीं है, पाने योग्य भी नहीं है; तुम्हारा होना परमसुख है—वैसी हालत में तुम बुझा दोगे दीया, द्वार अटका दोगे, आंख बंद कर लोगे। इसको ही हमने ध्यान कहा है।
फिर कोई आया दिले—जार
नहीं, कोई नहीं
अभी तो ऐसा है कि हम चौंक—चौंक उठते हैं। पता भी खड़के, फिर आंख खोल लेते हैं—कोई आया? राह से कोई गुजरता है, हम जल्दी से दरवाजे पर आ जाते है—कोई आया?
तुमने कभी प्रतीक्षातुर अवस्था का निरीक्षण किया? जब तुम किसी की राह देखते हो, तो हर चीज उसी के आने की खबर देती मालूम होती है। तुम राह देख रहे हो, कोई मित्र आने वाला है; पोस्टमैन आया, भागे—शायद आ गया हो। एक कुत्ता ही राह पर आ गया था, सीढ़ियां चढ़ रहा था, आवाज हुई, भागे—शायद आ गया हो। हवा का झोंका ही चला आया था, कुछ सूखे पत्ते उड़ा लाया था—भागे।

फिर कोई आया दिले—जार
नहीं, कोई नहीं
सहरी होगा, कहीं और चला जाएगा
रास्ते की आवाज है।
ढल चुकी रात
बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में
ख्वाबीदा चिराग
सो गयी रास्ता तक—तक के
हर एक राहगुजार
अजनबी खाक ने धुंधला दिए
कदमों के सुराग
गुल करो शम्मएं
बुझाओ दीए।
गुल करो शम्मएं
बढ़ा दो मय—ओ—मीना—ओ—अयाग
अब हटाओ ये प्यालियां, यह शराब, यह बेहोशी!
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकक्कल कर लो
और अब बंद करो ये दरवाजे!
अब यहां कोई नहीं आएगा
ऐसा ही नहीं है कि अब यहां कोई नहीं आएगा, यहां कोई कभी नहीं आया। आना तुम्हारी कामना है। आए कोई, ऐसी तुम्हारी वासना है। सत्य में न कभी कोई आता, न जाता। सत्य है। गाड इज। सत्य है। आना—जाना कुछ भी नहीं है।
अनाश्रव—चित्त की दशा का अर्थ होता है, तुम भी सिर्फ हो। न किसी की प्रतीक्षा है, न कुछ मांग है, न कोई प्रार्थना है, बस हो। उस होने की दशा में न भीतर कुछ आता, न बाहर कुछ जाता। सब ठहर गया। सब गति अवरुद्ध र्छ। सब कंपन विदा हुआ। निष्कंप हुए।
अनाश्रव बौद्धों और जैनों का शब्द है। ठीक वैसे ही जैसे कृष्प्र का शब्द है, स्थितप्रश। अनाश्रव का वही अर्थ है, जो स्थितप्रज्ञ का। ठहर गयी प्रशा। अब कुछ भी आता—जाता नहीं। शाश्वत हुआ समय। अब क्षण की झंकार बंद हुई, अब स्वर खो गए, शून्य निर्मित हुआ।
इसे तुम थोड़ा प्रयोग करो। घड़ीभर को ही सही, क्षणभर को ही सही। अगर क्षणभर को भी तुमने अनाश्रव का अनुभव किया, तुम महा आनंद से भर जाओगे। तुम जिसे खोज रहे हो, वह दूर नहीं, वह तुम्हारे भीतर है। तुम जिसकी मांग कर रहे हो, वह मांगने से न मिलेगा, वह मिला ही हुआ है। बुझाओ दीए द्वार—दरवाजे बंद करो। डूबो ध्यान में। पहले क्षणभर को कभी—कभी झलक मिलेगी अनाश्रव की—सब ठहरा हुआ; कोई कंपन नहीं। फिर धीरे— धीरे झलक गहरी होगी।
क्षणभर की झलक का नाम ध्यान है। और जब झलक गहरी हो जाती, स्थाई हो जाती, तुम्हारा स्वभाव हो जाती, तब उसका नाम समाधि है।


आज इतना ही।

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