प्रवचन—48 (आज
बनकर जी!)
सारसूत्र:
सब्बे तसन्ति
दण्डस्स सब्बे भायंति मच्चुनो।
अत्तानं उपमं कत्वा
न हन्नेय न घातये ।।115।।
सुखकामानि
भूतानियो दण्डेन विहिंसति।
अत्तनो सुखमेसानो
पेच्च सो न लभते सुखं।।116।।
सुखकामानि भूतानि
यो दण्डेन न हिंसति।
अत्तनो सुखमेसानो
पेच्च सो लभते सुखं।।117।।
मावोच्च फरूसं
कज्जि वुत्ता पटिवदेय्युतं।
दुख्खा हि सारम्भकथा
पटिदण्डा फुस्सेय्यु तं।।118।।
सचंनेरेसि अत्तानं
कंसो उपहतो यथा।
एक पत्तोसि निब्बानं
सारम्भो ते न विज्जति।।119।।
सूत्र
के पूर्व कुछ अत्यंत अनिवार्य बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली, समस्त
बुद्धपुरुष स्वार्थ सिखाते हैं। कठिन होगा। क्योंकि स्वार्थ के हमने बड़े गलत अर्थ
लिए हैं। हम जिसे स्वार्थ कहते हैं, वह तो स्वार्थ है ही
नहीं। हम तो स्वार्थ के नाम पर आत्मघात ही करते हैं। हम तो अमृत के नाम पर जहर ही
पीते हैं। फूलों के नाम पर हमने कीटों के अतिरिक्त और कोई संपदा इकट्ठी नहीं की।
बुद्धपुरुष वही सिखाते हैं जो तुम्हारे हित में है। स्वार्थ सिखाते हैं। स्वार्थ
का अर्थ होता है—स्व की नियति को पहचान लेना, स्वभाव को
पहचान लेना। स्वार्थ का अर्थ होता है—स्वयं के कल्याण को पहचान लेना। ऐसे जीना कि
रोज—रोज सुख महासुख बनता चले।
स्वयं के अनुकूल
जो जीएगा, सुख में जीएगा। स्वयं के प्रतिकूल जो जीएगा, वह दुख
में जीएगा। दुख की तुम इसे परिभाषा समझो। अगर जीवन में दुख हो, तो जानना कि तुम स्वभाव के प्रतिकूल जी रहे हो। दुख केवल सूँचक है। दुख
केवल खबर देता है कि कहीं कुछ भूल हो रही है।
तुम
धर्म के अनुकूल नहीं हो,
वहीं दुख होता है। जहां तुम धर्म के अनुकूल हो, वहीं सुख होता है। एस धम्मो सनंतनो। यही सनातन नियम है।
इसलिए
मैं तुमसे फिर कहता हूं बुद्धपुरुष स्वार्थ सिखाते हैं, स्व का
अर्थ सिखाते हैं, स्व की नियति सिखाते हैं, स्व की पहचान सिखाते हैं। और जिस दिन तुम स्वयं को समझ लेते हो, उस दिन तुमने सबको समझ लिया। क्योंकि जो तुम्हारा स्वभाव है, वही सबका स्वभाव है। रूप—रंग के होंगे भेद, स्वभाव
में भेद नहीं है। जो मेरा स्वभाव है, वही तुम्हारा स्वभाव है।
जो तुम्हारा स्वभाव है, वही आकाश में उड़ते पक्षी का स्वभाव
है। जो तुम्हारा स्वभाव है, वही वृक्ष का, वही चट्टान का स्वभाव है। भेद रंग—रूप के हैं, ऊपर—ऊपर
हैं, आकृति के हैं। लेकिन आकृति में जिसने आवास किया है,
उसका कोई भेद नहीं है।
स्वभाव
एक है, यह दूसरी बात समझ लो। जिसने स्व को पहचाना, उसने
क्तका यह भी पहचाना कि स्वभाव एक है। वहा अपना और पराया नहीं है कोई। जो तुम चाहते
हो, वही तो सभी चाहते हैं। हम कितने अंधे न होंगे कि इतना
प्रगाढ़ सत्य भी दिखायी नहीं पड़ता! तुम सुख चाहते हो, सभी सुख
चाहते हैं। तुम दुख से बचना चाहते हो, सभी दुख से बचना चाहते
हैं।
छोटी
से छोटी कीड़ी भी दुख से बचना चाहती है, उसी तरह जैसे तुम बचना चाहते हो।
जमीन में धंसा हुआ, खड़ा हुआ वृक्ष भी सुख की वैसी ही
आकांक्षा करता है, जैसी तुम करते हो। प्यासा होता है,
भूखा होता है, तडूफता है 1 प्रफुल्लित होता है,
तृप्त होता है, तब गीत गाता है। पक्षी भी
नाचते हैं, पक्षी भी कुम्हलाते हैं। जहां सुख की वर्षा हो
जाती है, नृत्य हो जाता है। जहा सुख छिन जाता है, वहीं दुख और नर्क खड़ा हो जाता है। इतना प्रगाढ़ सत्य भी हमें दिखायी नहीं
पड़ता—हमारा अंधापन बहुत गहरा होगा।
बुद्धपुरुष
इतना ही कहते हैं अपने भीतर ठीक से देखो, तुमने सबके भीतर देख लिया। आत्मा
को पहचान लिया तो परमात्मा को पहचान लिया। स्व को जान लिया तो सब को जान लिया। उस
एक के जान लेने से सब जान लिया जाता है। फिर उस जानने के विपरीत मत चलो।
यहीं
गहरे प्रश्न उठते हैं। यह तो तुम्हें भी पता है, दूसरे भी सुख चाहते हैं
जैसा तुम चाहते हो। लेकिन फिर भी तुम इस नियम के अनुकूल नहीं चलते। तुम सोचने लगते
हो कि मेरे सुख के लिए अगर दूसरे को दुख भी देना पड़े तो दूंगा। दूसरा भी सुख चाहता
है, उतना ही जितना तुम चाहते हो। लेकिन तुम अपने लिए अलग
नियम बनाने लगे। अब तुम कहते हो मेरे सुख में तो चाहे सारे संसार को दुख मिले,
तो भी मैं अपना सुख चाहूंगा।
इसका
अर्थ हुआ कि तुम स्वभाव के प्रतिकूल चलने लगे। तुम दूसरे को दुख दोगे, अपने सुख
के लिए। लेकिन तुम्हारा होना और दूसरे का होना अलग—अलग नहीं है। दूसरे को दुख देने
में तुम अपने ही दुख का इंतजाम कर लोगे। गड्डा किसी और के लिए खोदोगे, एक दिन खुद को गिरा हुआ पाओगे। क्योंकि वह दूसरा तुमसे पार, दूर, भिन्न नहीं है। तुमसे जुड़ा है, संयुका है।
तुमने
दूसरे को चोट पहुंचायी है तो चोट तुम्हीं को लगेगी। तुम छोटे बच्चों की तरह
व्यवहार कर रहे हो। छोटे बच्चे को टेबल का धक्का लग जाता है। वह गुस्से में आकर एक
चांटा टेबल को मार देता है। उसका तर्क साफ है कि इस टेबल ने गड़बड़ की, मारो।
लेकिन जब टेबल को चांटा मारा जाता है, तो अपने ही हाथ को चोट
लगती है। तुम उस चोट को भी झेलने को राजी हो जाते हो, क्योंकि
तुम सोचते हो, दूसरे को मारा, दंडित
किया। जिसने दुख दिया, उसे दुख देंगे। यह तो बिलकुल
तर्कपूर्ण मालूम होता है तुम्हें।
लेकिन
तुम किसी को भी दुख दो,
दुख तुम्हीं पर लौट आएगा। क्योंकि दूसरे और तुम्हारे बीच में कोई
दुर्ग की दीवालें नहीं हैं। एक जगह है जहा हम मिले—जुले हैं। जैसे नदी में तुमने
रंग घोल दिया, तो फैल जाएगा रंग पूरी छाती पर नदी की। लहरें
उसे दूर—दूर के किनारों तक पहुंचा देंगी। ऐसे ही अगर तुमने कहीं भी दुख डाला,
तो दूर—दूर तक फैलने लगेगा। उस में तुम भी सम्मिलित हो। और अगर यही
भूल सभी कर रहे हैं—अपने को सुख देना चाहते हैं, दूसरे को
दुख देना चाहते है—तो फिर अगर संसार नर्क बन जाए तो आश्चर्य क्या! अनंत गुना दुख
हो जाए तो आश्चर्य क्या!
बुद्धपुरुष
यही कहते हैं,
अनंत गुना सुख हो सकता है। यह सनातन नियम तुम्हारी समझ में आ जाए—जो
तुम अपने लिए चाहते हो उससे अन्यथा दूसरे के लिए मत करना। यह स्वर्ण—नियम है।
समस्त वेद, समस्त कुरान और बाइबिल और धम्मपद इस एक नियम में
निचोड़कर रखे जा सकते हैं।
जीसस
से किसी—ने पूछा है,
हम क्या करें? जिसने पूछा है वह जल्दी में था।
और जिसने पूछा था वह बहुत साधारण आदमी था। उसने कहा, मैं
बहुत बुद्धिमान नहीं, शास्त्र का मुझे अनुभव नहीं, बहुत जटिल, उलझी बात मुझे मत कहना। सीधा—सीधा कह दो।
और पूरा—पूरा कह दो। ताकि फिर पूछने की कोई जरूरत न रह जाए। तो जीसस ने कहा,
तुम जो अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए
करना—बस सारा धर्म इतना ही है।
आज
के सारे सूत्र,
इसी बुनियादी सूत्र की ही बुद्ध के द्वारा की गयी प्रतिध्वनिया हैं।
एक बात और। तुम्हें बहुत अड़चन भी होती होगी, क्योंकि
अभिव्यक्तियां बड़ी भिन्न—भिन्न हैं।
अभी
हम, अभी—अभी हम नारद के सूत्र पढ़ते थे। प्रेम की उनमें गहन चर्चा थी। प्रीतम की
तरफ इशारे थे। उस प्यारे का गुणगान था। फिर' अब हम बुद्ध की
चर्चा कर रहे हैं, एक दूसरी ही भूमि पर यात्रा शुरू होती है।
कहीं कोई प्रेम की चर्चा नहीं है। कहीं कोई उस प्यारे का गुणगान नहीं है। भक्ति को
तो तुम खोजकर भी न खोज पाओगे। यहां कुछ सूत्र दूसरे हैं। लेकिन फिर भी मैं तुमसे
कहता हूं सूत्र वही हैं। यह बुद्ध का ढंग है। बुद्ध भक्ति की बात न करेंगे। बुद्ध
भगवान की बात न करेंगे। बुद्ध प्रेम की बात न करेंगे—लेकिन प्रेम की ही बात करेंगे।
दूसरी बात कर कैसे सकते हैं! उपाय कहां?
मैं
मुल्ला नसरुद्दीन के घर बैठा था। उसके बेटे ने आकर कहा कि पापा, आपने
कुत्ते के ऊपर जो निबंध लिखवाया था, मास्टरजी ने कहा है कि
यही निबध बड़े भैया ने भी पिछले वर्ष लिखा था—हूबहू यही। इसमें विराम, पूर्ण विराम का भी फर्क नहीं है। यह बिलकुल नकल है। मुल्ला थोड़ी देर सोचता
रहा और उसने कहा कि जाकर अपने मास्टरजी को कहना, नकल नहीं है
यह, मजबूरी है। कुत्ता वही है, निबंध
दूसरा लिखें कैसे?
मैं
तुमसे कहता हूं जिस दिन तुम्हारे पास आंखें होंगी, उस दिन तुम बुद्ध और महावीर,
नारद, कृष्ण, क्राइस्ट,
मोहम्मद के वचनों में विराम और पूर्ण विराम का भी फर्क न पा सकोगे।
कुत्ता वही है। सत्य वही है, जिसकी बात हो रही है। अगर फर्क
तुम्हें दिखायी पड़ते हैं, तो समझ की कमी के कारण दिखायी पड़ते
हैं। और अगर फर्क हैं, तो बड़े ऊपरी हैं,
बुद्ध
के कहने का ढंग अपना है—होना भी चाहिए। लेकिन जिस तरफ इशारा है, वह इशारा
एक की ही तरफ है। मेरा तीर मेरे रंग का है, तुम्हारा तीर
तुम्हारे रंग का है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? निशाना, तीर के रंग से निशाने का क्या लेना—देना?
मेरा तीर सोने का होगा, तुम्हारे तीर पर हीरे—जवाहरात
लगे होंगे, किसी का तीर लोहे का होगा—इससे क्या फर्क पड़ता है?
निशाना साधना आ गया हो, तो सभी तीर निशाने पर
पहुंच जाते हैं—निशाना एक है।
तो
इन सूत्रों में तुम थोड़ी झलक लेने की कोशिश करना, अन्यथा तुम बहुत उलझन में
भी पड़ सकते हो कि अब क्या करें, क्या न करें? तुम्हारी उलझन बढ़ाने के लिए ये चर्चाएं नहीं हैं, घटाने
के लिए हैं। ये जो बुद्ध के सूत्र हैं, इनके साथ—साथ तुम
देखने की कोशिश करना कि बुद्ध यद्यपि प्रेम की बात भी नहीं उठाते, लेकिन प्रेम की ही बात करते हैं, उनके कहने का ढंग
और है।
पहला
सूत्र —
'दंड से सभी डरते हैं, मृत्यु से सभी भय खाते हैं।
अत: अपने समान ही सबको जानकर न मारे, न मारने की प्रेरणा करे।
अपने
समान ही सबको जानकर।
यह
तो प्रेम का पूरा शास्त्र हो गया। प्रेम का अर्थ क्या होता है? दूसरे को
अपने समान जान लेना। जिसको तुमने अपने समान जान लिया, उससे
ही तुम्हारा प्रेम है। जिसके साथ तुमने भेद, द्वैत अलग कर
लिया, जिसके साथ तुमने अपना अलग— थलगपन छोड़ दिया, जिसके साथ तुमने अपने जीवन के अपान को मिल जाने दिया; जिसके साथ तुमने कहा, अब दो नहीं हैं, यहां हम एक हैं, यहां हम बीच में कोई सीमा—रेखा न
खड़ी करेंगे, हमारा अब कोई अलग—अलग आगन न होगा; हमारा अस्तित्व जुड़ता है, मिलता है, पिघलता है, एक—दूसरे में, एक—दूसरे
में प्रवेश करता है, वहीं प्रेम है। प्रेम का अर्थ ही होता
है, दूसरे को अपने समान जान लेना। प्रेम का कोई और अर्थ हो
ही नहीं सकता।
लेकिन
बुद्ध प्रेम शब्द का उपयोग नहीं करते। वह उनकी शैली नहीं। वह उनके निबंध का ढंग
नहीं। वह उनकी भाषा नहीं। वे बड़े शुद्ध विचारक हैं। वे भाव की झलक भी नहीं पड़ने
देते। प्रेम की बात करेंगे तो बात जरा भाव की हो जाती है, हृदय की
हो जाती है। बुद्ध की प्रशा शुद्धतम है। उन्होंने विचार की परम शुद्धि पायी है,
वे वहीं से बात करते हैं।
इसीलिए
बुद्ध की बात को समझने में किसी भी वैज्ञानिक को कोई अड़चन न होगी। बुद्ध की बात
समझने में किसी गणितज्ञ को कोई अड़चन न होगी। बुद्ध की बात समझने में किसी बड़े
विचारक को, तर्कनिष्ठ व्यक्ति को, बुद्धिमान को, बुद्धिवादी को कोई अड़चन न होगी।
इसीलिए
तो बुद्ध का प्रभाव है। दुनिया में जितना विचार का प्रभाव बढ़ा है, उतना ही
बुद्ध का प्रभाव बढ़ा है। क्योंकि बुद्ध भाव की बात ही नहीं करते। भाव के साथ ही
कुछ धुंधलापन छा जाता है। भाव के साथ ही सुबह का धुंधलका, अंध
छा जाता है। विचार की खुली धूप है, ताजी धूप है, भरी दुपहर है—चीजें साफ—साफ हैं।
बर्ट्रेंड
रसल ने लिखा है कि यद्यपि मैं ईसाई घर में पैदा हुआ और बचपन से ही मेरे मन में ईसा
के प्रति श्रद्धा के भाव आरोपित किए गए, फिर जब मैंने सोच—विचार किया,
समझा—बूझा, तो जीसस की बातें मुझे ठीक न मालूम
पड़ी। क्योंकि बहुत भाव—प्रवण मालूम पड़ती हैं, तर्क की कमी है।
तो ईसा से तो मैं मुक्त हो गया। लेकिन जैसे ही मैं ईसा से मुक्त हुआ, मुझे बुद्ध की बातें ठीक मालूम पड़ने लगीं।
बर्ट्रेड
रसल का धर्म में कोई भरोसा न था। लेकिन बुद्ध के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। मीरा की
बात तो रसल को बिलकुल समझ में न आती। चैतन्य तो पागल मालूम पड़ते। जीसस पर भी
उन्होंने शक किया है कि थोड़ा दिमाग खराब होना चाहिए। लेकिन बुद्ध पर शक करना असंभव
है। बुद्ध सौ टके साफ—साफ हैं।
प्रेम
शब्द के आते ही काव्य प्रवेश करता है, इसलिए बुद्ध उस शब्द का उपयोग भी
नहीं करेंगे। लेकिन वही कह रहे हैं, अपने ढंग से कह रहे हैं।
'मृत्यु से सभी भय खाते हैं, दुख से सभी बचना चाहते
हैं, दंड से सभी छिपना चाहते हैं। अत: अपने समान ही सबको
जानकर न मारे, न खरने की प्रेरणा करे। यहां खयाल रखना,
प्रेम विधायक होता है, विचार निषेधात्मक होता
है। विचार का ढंग होता है—नहीं। प्रेम का ढंग होता है—हां। तो बुद्ध कहते हैं,
न दूसरे को मारे, न मारने की प्रेरणा करे,
बस।
इसलिए
बुद्ध और महावीर का सारा शास्त्र अहिंसा कहलाता है। अहिंसा बड़ा नकारात्मक शब्द है।
हिंसा नहीं—इतना ही अहिंसा का अर्थ होता है।
जीसस
कहते हैं प्रेम,
नारद कहते हैं भक्ति, मीरा कहती है भाव। बुद्ध
और महावीर कहते हैं हिंसा नहीं। नकारात्मक है। वे कहते हैं, बस,
दूसरे को दुख मत दो। इतना काफी है। अगर तुमने दूसरे को दुख न दिया,
तो सुख का आविर्भाव होगा। उसे लाने की जरूरत नहीं है, उसे खींच—खींचकर आयोजन नहीं करना है।
बुद्ध
कहते हैं, तुम दूसरे को सुख देना भी चाहो तो दे न सकोगे। तुम इतनी ही कृपा करो कि
दुख मत दो। तुम कांटे मत बोओ, फूल अपने से खिलेंगे, उन्हें खिलाने की कोई जरूरत नहीं है। वह मनुष्य का स्वभाव है। तुम अड़चनें
खड़ी मत करो। मारो मत, जीवन अपने से खिलेगा।
इसलिए
बुद्ध नहीं कहते कि जीवन दो, जीवनदान करो। बस इतना ही कहते हैं, मारो मत, मारने की प्रेरणा मत दो। कोई मारता हो तो
सहारा मत दो। हट जाओ। तुम्हारे द्वारा दूसरे को दुख न मिले, काफी
है। क्यों? क्योंकि सुख तो सबका स्वभाव है। तुमने अगर दुख न
दिया, तो बस, तुमने दूसरे को अवसर दिया
कि वह अपने सुख के कमलों को खिला ले।
जब
जीसस, चैतन्य, मीरा या मोहम्मद कहते हैं, दूसरे को प्रेम दो, जीवन दो, तब
एक विधायक स्वर प्रवेश होता है। वे इतना ही नहीं कहते कि सिर्फ दुख मत दो। क्योंकि
उनको लगता है, दुख मत दो, यह बात बड़ी
नकारात्मक है। इससे जीवन के काव्य का कैसे जन्म होगा? कहीं
नहीं से कोई कविता कभी पैदा हुई? कहीं नहीं के आधार पर कोई
मंदिर बना? कहीं नहीं के आधार से पूजा आविर्भूत हुई? नहीं के आसपास कोई कभी नाच पाया है? नहीं को बीच में
रखकर तुम अर्चना—पूजा के थाल सजा पाओगे? नहीं की प्रतिमा
बनाकर, नेति—नेति की प्रतिमा बनाकर तुम कहां पूजा करोगे,
कहां सिर झुकाओगे? न नहीं के कोई पैर हैं,
न नहीं का कोई हृदय है।
इसलिए
भक्त कहते हैं,
नहीं से काम न चलेगा। और उनको एक डर लगता है। वह डर यह है कि कहीं
ऐसा न हो कि तुम्हारी नहीं उपेक्षा बन जाए। और ऐसा हुआ है। अगर तुम जैन—मुनि को
देखो, तो लगता है कि उसके जीवन की साधना नपेक्षा की हो गयी।
उसमें रसधार नहीं बहती। बस, उसकी चेष्टा इतनी ही है कि किसी
को मेरे कारण दुख न हो। बात समाप्त हो गयी। मैं दूसरे के रास्ते से हट जाऊं।
फर्क
तुम समझो।
जैन—मुनि
को तुम किसी मरीज का पैर दाबते हुए नहीं पा सकते। ही, जैन—मुनि
को तुम किसी की खोपड़ी पर लट्ठ मारते नहीं पाओगे, यह सच है।
लेकिन
ईसाई किसी के पैर दाबते मिलेगा। किसी रुग्ण की सेवा करता मिलेगा। किसी भूखे के लिए
रोटी का इंतजाम करता मिलेगा। किसी प्यासे के लिए कुआ खोदता मिलेगा। जैन—मुनि को
तुम कुआ खोदता न पाओगे। किसी के रास्ते में कांटे नहीं बिछाएगा—यह बात सच है।
मगर
सारा जीवन बस,
दूसरे के रास्ते में कांटे न बिछाने पर लगा देना, नहीं की हो गयी। कहीं भूल हो गयी। शायद बुद्ध और महावीर के वचन को वह ठीक
से समझ नहीं पाया, व्याख्या में चूक हो गयी।
बुद्ध
और महावीर जब कहते हैं,
दूसरे को दुख न दो, तो वे यह नहीं कह रहे है
कि तुम्हारा सारा जीवन इस दुख न देने के आसपास, इर्द—गिर्द
ही निर्मित हो व्यए। वे इतना ही कह रहे हैं कि अगर तुमने दूसरे को दुख न दिया,
तो तुम पाओगे कि गीवन में चारों तरफ फूल खिलने शुरू हुए। अगर फूल न
खिलते हों, तो समझना कि तुम्हारी अहिंसा वास्तविक अहिंसा
नहीं है, उपेक्षा है। अगर जीवन में आनंद की रसधार न बहे,
तो समझना कि तुमने सिर्फ जीवन से अपने को हटा लिया है, रू—पातरित नहीं किया। इन दोनों बातों में फर्क है।
तुम
किसी आदमी को दुख न दो। लेकिन इसका कारण यह भी हो सकता है कि तुम उसे इस योग्य भी
नहीं मानते कि दुख दो,
और यह भी हो सकता है कि तुम उसे इतना योग्य मानते हो कि कैसे दुख दो।
किसी ने तुम्हें गाली दी। तुमने कहावत सुनी है : हाथी निकल जाता है, कुत्ते भौंकते रहते हैं। किसी ने तुम्हें गाली दी, तुम
हाथी की तरह निकल गए। तुमने उसे कुत्ता समझा—भौंकते रहने दो। यह धर्म न हुआ,
अधर्म हो गया। इससे तो बेहतर था तुम गाली दे देते। कम से कम आदमी तो
मानते, कुत्ता तो न मानते।
नीत्से
ने कहा है, यह अपमानजनक है। तुम कम से कम मेरे चांटे का उत्तर चाटे
से तो दो। तुम कम
से कम इतना तो मुझे गौरव दो कि मैं भी तुम जैसा आदमी हूं।
नीत्से
की बात में बल है। जीसस ने कहा है जो तुम्हें चांटा मारे, दूसरा गाल
उसके सामने कर देना। नीत्से कहता है, यह भूलकर मत करना,
क्योंकि इससे बड़ा अपमान दूसरे का और क्या होगा? तुमने उसे कीड़ा—मकोड़ा समझा। कम से कम उसे आदमी होने का गौरव तो दो। उसने
चांटा मारा है, तुम भी एक चांटा उसे मारकर यह तो कहौ कि हम
दोनों बराबर हैं। मैं हाथी, और तुम कुत्ता! यह तो बहुत बड़ा
अपमान हो जाएगा।
अब
फर्क को तुम समझ लो। तुम दूसरे को इसलिए भी मारने से रोक सकते हो कि जाने दो, कुत्ते
हैं। तब यह उपेक्षा हुई, अहिंसा न हुई। और तुमने दूसरे को
मारने से इसलिए रोका अपने को कि दूसरा भी तुम्हारा ही स्वरूप है, कैसे मारो? दूसरे ने भूल की है, उसकी भूल का सुधार करना है, दया करनी है, करुणा करनी है, उसकी भूल को बढ़ाना तो नहीं है! दूसरा
गलत है, इहलिए तुम भी गलत हो जाओ, यह
तो कहौ की समझदारी हुई? एक गलती के उत्तर में दूसरी गलती
गलती को दुगना कर देगी।
लेकिन दूसरा
क्षुद्र है, दो कौड़ी का है, कुत्ता है, ऐसा
मानकर अगर तुम खड़े रहे, तो ऊपर से तो दोनों में ही उपेक्षा
साफ—साफ मालूम होगी, एक सी मालूम होगी, भीतर बड़ा फर्क हो गया।
बुद्ध
और महावीर के वचनों को जैन और बौद्ध भी नहीं समझ पाए। क्योंकि यह बिलकुल स्वाभाविक
था, अहिंसा उपेक्षा बन जाए, यह सरल था। करुणा बनने की
बजाय तिरस्कार बन जाए, यह सरल था। तो फिर अहिंसा के नाम पर
हिंसा ही जारी रही।
बुद्ध और महावीर
के वचन भी प्रेम की तरफ ही इशारा करते हैं, यद्यपि उनका इशारा नकारात्मक है।
नकारात्मक इशारे के भी कारण हैं।
क्यों
बुद्ध ने चुना नकारात्मक इशारा? क्या प्रेम कह देने में कुछ अड़चन थी? कोई उनके मुंह पर ताला लगा था? कह देते, प्रेम। जैसे जीसस ने कहा कि प्रेम ही परमात्मा है। क्या अड़चन थी? कौन सी जंजीरें थीं उनकी जबान पर?
कुछ
कारण थे। एक कारण यह था कि अगर तुमसे कहो कि दूसरे को सुख दो, तो तुम
सुख के नाम पर ही दूसरे को दुख देने लगते हो। तुमने बहुतों को दुख दिया है सुख के
नाम पर। और जब तुम सुख के नाम पर देते हो, तब तुम्हें कोई
रोक भी नहीं सकता, क्योंकि तुम ऐसा महान उपकार कर रहे हो।
तुम अपने बच्चे को डाटते हो, डपटते हो, मारते हो। और कहते हो, तेरे सुख के लिए, तेरे सुधार के लिए, तेरे जीवन के उद्धार के लिए।
मनस्विद
कहते हैं कि मां—बाप ने जितना अनाचार बच्चों के साथ किया है, किसी
दूसरे वर्ग ने किसी और के साथ नहीं किया। सबसे बड़ा अनाचार पृथ्वी पर मां—बाप के
द्वारा बच्चों के प्रति हुआ है।
यह
तो हमें मानकर भी भरोसा न होगा। क्योंकि मां—बाप, और अनाचार करें! मा—बाप तो
प्राणपण से चेष्टा कर रहे हैं कि बच्चों का जीवन सुखद हो जाए। लेकिन तुम्हारी आकांक्षाओं
से ही थोड़े ही किसी का जीवन सुखद होता है! कहावत है कि नर्क का रास्ता शुभेच्छाओं
से पटा पड़ा है। बहुत से लोग नर्क में सड़ रहे हैं, क्योंकि
शुभेच्छाओं के रास्ते पर जबर्दस्ती धकाए गए हैं।
तुम
ध्यान रखना। आदमी की हिंसा इतनी गहन है कि वह दूसरे को सुख देने के नाम पर भी सता
सकता है। और यह सताना बड़ा सुगम है, क्योंकि दूसरा रक्षा भी नहीं कर
सकता। जब तुम किसी की गर्दन दबाते हो उसके ही हित में, तो वह
चिल्लाकर यह भी नहीं कह सकता कि मेरी गर्दन छोड़ो। वह जाकर कहीं किसी से तुम्हारा
विरोध भी नहीं कर सकता, शिकायत भी नहीं कर सकता, क्योंकि तुम उसी के लिए गर्दन दबा रहे हो, उसी के
हित में दबा रहे हो। अगर मर भी जाए वह, तो तुम उसके हित के
लिए ही मार रहे थे।
इसलिए
बुद्ध और महावीर ने यह खतरा देखकर कि दूसरे को सुख दो, यह तो
सदियों से समझाया गया है, सुख के नाम पर लोगों ने दुख दिया
है। और फिर उनके दुख को रोकने का उपाय भी नहीं रहा, क्योंकि
सुख का लेबिल लगा था। लोग स्वर्ग के—नाम पर लोगों को नर्क में ढकेलते रहे हैं। तुम
जरा गौर करना अपने जीवन में, तो तुम्हें समझ में आ जाएगा।
आदमी बड़ा चालाक है।
मगर, चाहे तुम
कहो, दूसरे को दुख मत दो, चाहे तुम कहो,
दूसरे को सुख दो आदमी रास्ता निकाल लेता है। आदमी बुद्धपुरुषों को
धोखा देने का उपाय खोज लेता है।
इसलिए
अक्सर ऐसा हुआ है,
जब धर्म का एक पहलू लोग बिलकुल सड़ा चुके होते हैं, तब धर्म का दूसरा पहलू आ जाता है। वेद, उपनिषद
विधायक थे। लोगों ने उस विधायक धर्म को बुरी तरह नष्ट कर दिया। तो बुद्ध और महावीर
का आविर्भाव हुआ—नकारात्मक। फिर लोगों ने उनके नकारात्मक धर्म को नष्ट कर दिया,
तो रामानुज, वल्लभ, चैतन्य,
मीरा— भक्तों का उदय हुआ। उन्होंने फिर विधायक धर्म को स्थापित कर
दिया। दिन और रात की तरह धर्म विधायक से नकार, नकार से
विधायक की तरफ बदलता रहा है। लेकिन आदमी कुछ ऐसा है कि हर जगह से उपाय खोज लेता है।
इससे सावधान रहना।
'दंड से सभी डरते हैं, मृत्यु से सभी भय खाते हैं,
अत: अपने समान ही सबको जानकर न मारे, न मारने
की प्रेरणा करे। '
जीवन
की आकांक्षा सार्वलौकिक है,
सार्वभौम है। तुमने कभी—कभी इसके विपरीत घटना घटते देखी होगी—वह भी
विपरीत नहीं। कोई आदमी आत्मघात कर लेता है। विचार करें। क्योंकि बुद्ध कहते हैं,
न कोई मरना चाहता है, न कोई दंड पाना चाहता है,
न कोई दुखी होना चाहता है, लेकिन कुछ लोग
आत्मघात कर लेते हैं—इनका क्या? और इनकी संख्या थोड़ी नहीं है।
करते तो बहुत लोग हैं, सफल नहीं हो पाते यह दूसरी बात है। दस
में से एक सफल होता है।
इस
पर थोड़ा विचार करें। क्या बुद्ध का वचन आत्मघातियों के लिए लागू नहीं होता?
लागू
नहीं होता, ऐसा लगेगा ऊपर से। भीतर खोजने पर पता चलेगा कि आत्मघात भी लोग जीवन के
विरोध में नहीं करते, जीवन के लिए करते हैं। आत्मघातियों से
पूछो—और कभी—कभी तुम्हारे मन में भी आकांक्षा उठी है आत्मघात करने की। ऐसा आदमी
खोजना कठिन है जिसको न उठी हो। कभी न कभी, किन्हीं क्षणों
में, दुर्दिनों में दुखद घड़ियों में, अंधेरी
रात में, किसी पीड़ा में, किसी संताप
में क्षणभर को एक बात ने मन को पकड़ लिया है कि अब समाप्त ही कर दो। ऐसे जीवन से
क्या लाभ; इस जीवन को छोड़ो।
लेकिन
खयाल करना, उस आकांक्षा में भी जीवन कों बेहतर करने की आकांक्षा छिपी है। यह जीवन
नहीं जंच रहा है, क्योंकि तुम्हारी जीवन की आकांक्षा कुछ और
बड़े जीवन की थी। तुमने चाहा था किसी स्त्री के साथ जीवन हो, वह
न हो सका। तुमने चाहा था किसी पुरुष के साथ जीवन हो, वह न हो
सका। तुमने जीवन के साथ शर्त रखी थी, वह शर्त पूरी न हो सकी,
इसलिए अब तुम जीवन को समाप्त करना चाहते हो। यह क्रोध है। इस जीवन
को विनष्ट करने की आकांक्षा में भीतर जीवन की ही लालसा है।
यह
ऐसे ही है जैसे कि तुमने कभी देखा हो, किसी स्त्री को पड़ोस की कोई पड़ोसिन
आकर उसके बच्चे का विरोध कर देती है, वह बरदाश्त नहीं करती
कि उसके बच्चे ने कोई गलती की, लेकिन वह बच्चे की पिटाई कर
देती है। तुमने कभी बच्चे को देखा, वह किसी खिलौने से बहुत
मोह में पड़ा है, और तुम बहुत ज्यादा उससे मोह छोड़ने को कहते
हो, वह खिलौने को पटककर जमीन पर तोड़ देता है। यह मोह के
विपरीत नहीं है, यह मोह की घोषणा है। तुम चीजों को तोड़ भी
सकते हो, इतनी आसक्ति हो सकती है।
मनस्विद
कहते हैं, आत्मघाती लोग वे हैं जिनकी जीवन के साथ साधारण रूप से ज्यादा आसक्ति है,
और लोगों की बजाय। उनकी जीवन के साथ ऐसी आसक्ति थी कि उन्होंने कहा
कि हम हर किसी तरह न जीएंगे। उन्होंने कहा, हम तो मोती ही
चुनेंगे, कंकड़—पत्थर न चुनेंगे। अगर कंकड़—पत्थर मिलते हैं,
तो हम अपनी मोती की आकांक्षा लिए मर जाना पसंद करेंगे। उन्होंने कहा,
हम घास—पात न खाएंगे, हम सिंह—शावक हैं।
उन्होंने जीवन के साथ शर्तें रखीं, उनकी बड़ी आसक्ति थी। हर
किसी ढंग से रहने को वे राजी न थे, क्योंकि रहने का उनका बड़ा
खयाल था। बड़े सपने थे।
इस
बात को ठीक से समझ लेना। आत्मघात करने वाले लोग यह नहीं बताते कि वह जीवन के प्रति
उनका लगाव नहीं है,
इतना ही बताते हैं कि बहुत लगाव था, जरूरत से
ज्यादा लगाव था 1 इतना ज्यादा लगाव था कि हर तरह के जीवन के साथ वे राजी न हो सके।
अगर जीवन ने उनकी माग पूरी न की तो वे क्रोधित हो उठे। उन्होंने जीवन को तोड़ देना
पसंद किया।
और
इसीलिए एक और महत्वपूर्ण घटना समझ में आ सकती है। दस लोग आत्महत्या का उपाय करते
हैं, एक मरता है। नौ असफल हो जाते हैं। यह जरा सोचने जैसा है। आत्महत्या जैसी
चीज, उसमें लोग असफल क्यों हो जाते हैं? आत्महत्या जैसी चीज में असफल होने का क्या! कोई बाधा भी नहीं डाल रहा।
लेकिन
बहुत गहरी खोजों से पता चला है, लोग असफल होना चाहते हैं। स्त्रियां गोलियां
खाती हैं, लेकिन इतनी ही खाती हैं जिनसे कि अस्पताल तक पहुंच
जाएं और वापस आ जाएं, इससे ज्यादा नहीं खाती हैं। लोग जहर पी
लेते हैं, लेकिन इतना ही पीते हैं जिससे बचाया जा सके—समय
रहते बचाया जा सके। लोग फासी का फंदा भी लगाते हैं तो आशा रखते हैं कि मोहल्ले—पड़ोस
के लोग आते ही होंगे। कोई न कोई आ जाएगा, बचा लेगा।
इसलिए
दस लोग कोशिश करते हैं,
नौ असफल होते हैं। एक सफल होता है। वह भी, ऐसा
लगता है, भूल से सफल हो जाता है। असफल होना चाहा होगा उसने
भी, न हो पाया। जोश—खरोश में कुछ ज्यादा कर गया। इसीलिए तो
लोग मरने की बातें करते रहते हैं।
मेरे
पास बहुत लोग आते हैं,
वे कहते हैं कि मर जाना है। फिर तुम्हें कौन रोक रहा है? मैंने तो नहीं रोका। तुम मुझे कहने क्यों आए हो? मर
जाने वाले को कौन रोक सकता है? कैसे रोक सकता है? कानून रोक सकता है मर जाने वाले को? जिसको मर ही
जाना है, उसको कानून कैसे रोक सकेगा?
कानून
भी बड़ी मजाक है। कानून है कि अगर तुम आत्महत्या करते पकड़े गए तो सजा हो जाएगी, फासी लगा
दी जाएगी। बड़े मजे की बात है। आत्महत्या करते अगर पकड़े गए, तो
फांसी हो जाएगी; तुम अगर बचे, तो सरकार
न बचने देगी।
पर
आत्महत्या जैसी सरल चीज—गए,
पहाड़ से कूद गए; कि ट्रेन के नीचे लेट गए—इतनी
सरल चीज सफल नहीं हो पाती। तुम्हारे भीतर कोई चीज उसे सफल नहीं होने देती। और
जिनकी सफल हो जाती है, अगर उनकी आत्माएं बुलायी जा सकें और
उनसे पूछा जा सके, तो वे कहेंगे, जरा
हम जरूरत से ज्यादा कर गए। बीस गोलिया ले लीं, दस ही लेनी
थीं। कुछ अंदाज न था, पुराना कुछ अनुभव न था। सोचा था,
मोहल्ले—पड़ोस के लोग आ जाएंगे, लेकिन मोहल्ले—पड़ोस
के लोग बाहर गए थे। सोचा था, पति रात होते—होते घर लौट आएगा,
लेकिन वह रातभर घर न लौटा। कुछ आकस्मिक बाधा आ गयी, इसलिए सफल हो गए।
मृत्यु
की घटना भी यह नहीं बताती कि कोई मरना चाहता है। लोग मरने की धमकी देते हैं, वह भी
जीने की आकांक्षा में। लोग जीने के लिए इतने आतुर हैं कि मरने तक को राजी हो जाते
हैं। मगर इससे जीवेषणा में कोई फर्क नहीं पड़ता।
इसीलिए
तो तुम देखो,
राह के किनारे कोई भीख माग रहा है—टागें कटी हैं, हाथ टूटे हैं, आंखें अंधी हैं, शरीर कोढ़ से भरा है, सड़ गया है—कभी—कभी तुम्हारे मन
में विचार उठता होगा, यह आदमी किसलिए जीना चाहता है? ऐसा जीने योग्य क्या है? सिर्फ रोज भीख मांगने के
लिए जीना चाहता है? रोज—रोज दिन खराब होते जाएंगे, असमय और बढ़ेगा, आशा भी तो क्या है? सब तो खो ही चुका है। बस यह रोज घिसटने के लिए सड़क पर, भीख मांगने के लिए जी रहा है? इसके जीवन में क्या
संभावना है अन्यथा होने की न दस साल जी लेगा, तो घिसट—घिसटकर
भीख मांग लेगा। रोज रोका, तडूफेगा, चिल्लाका,
चीखेगा। और रोज हालत खराब होती जाएगी। एक दिन मर जाना है। मौत ही है
भविष्य में। फिर किस आशा में जी रहा है?
लेकिन
तुम भूलकर किसी भिखारी को यह पूछना मत, क्योंकि इससे कोई संबंध ही नहीं है।
आदमी की जीवेषणा इतनी प्रगाढ़ है कि हर हालत में वह राजी हो जाता है। हर हालत में
राजी हो जाता है। हाथ न हों तो बिना हाथ के राजी हो जाता है, आंख न हों तो बिना आंख के राजी हो जाता है, पैर न
हों तो बिना पैर के राजी हो जाता है, प्रेम न हो तो बिना
प्रेम के राजी हो जाता है, मकान न हो तो बिना मकान के,
सड़क तो सड़क सही। आदमी की समायोजित होने की संभावनाएं अनंत हैं। वह
हर हालत में राजी हो जाता है, बस त्उम उसे जीने दो। जैसे
जीना अपने आप में ही लक्ष्य है।
इतनी
प्रगाढ़ जो जीवन की आकांक्षा है—मनुष्यों में ही नहीं, पशुओं में,
पौधों में, सब तरफ जीवन की तलाश चल रही है।
पशु खोज में लगे हैं। पौधे अपनी जड़ों को भेज रहे हैं जमीन में पानी की खोज कर रहे
हैं—कहा भोजन? कहां पानी? सब तरफ जीवन
की आकांक्षा है।
बुद्ध
कहते हैं, जहा इतने जीवन की आकांक्षा है कोई मरना नहीं चाहता, वहा
तुम कम से कम एक काम करो, किसी को मारना मत। वहां कम से कम
तुम इतना काम करो कि किसी को दुख मत देना। इतना तो करो। सुख की बात छोड़ो, तुम दुख मत देना।
और
यह मेरा अनुभव है कि अगर तुम सच में ही लोगों को दुख न दो, तो तुम
सुख देने लगोगे। क्योंकि जीवन कुछ ऐसा है कि जो दुख नहीं देता वह सुख देने लगता है।
देना तो होगा ही, बांटना तो होगा ही। कोई अपनी जीवन संपदा को
भीतर बांधकर थोड़े ही रख सकता है? बंटती है, बिखरती है, फैलती है।
तुम
अगर दुख न दोगे तो सुख दोगे। अगर तुमने गालिया न दीं, तो तुम आज
नहीं कल, गीत गाने
लगोगे। करोगे क्या? वही ऊर्जा जो गाली बनती थी, गीतों में प्रगट होगी। अगर तुमने निंदा न की, तो
तुम्हारे जीवन में कहीं न कहीं से प्रार्थना का स्वर उठने ही लगेगा।
इसलिए
बुद्ध भरोसा करते हैं कि वह तो होगा, उसकी बात भी नहीं उठाते। तुम बस
इतना कर लो। गलत तुमसे न हो, ठीक अपने से होने लगेगा।
क्योंकि वही ऊर्जा जो गलत में नियोजित होती थी, जब मुक्त हो
जाएगी तो शुभ का, सत्य का, सुंदर का
निर्माण करेगी। तुम गलत तरफ मत जाने दो, ठीक तरफ अपने से
जाएगी।
प्रेम
ही मानव जीवन सार
प्रेम, हरि कहता
सर्व समर्थ
प्रेम
के बिना न जीवन—मूल्य
समझता
मन न सृष्टि का अर्थ
बुद्ध
प्रेम शब्द का उपयोग नहीं करते। वे कहते हैं, सबको अपने समान जानकर तुम्हारे
जीवन में सृष्टि का अर्थ प्रगट होगा। लेकिन तुम इसे प्रेम कह सकते हो। तुम्हें
आसानी होगी समझने में। बुद्ध की भाषा पर जिद्द करने की कोई जरूरत नहीं। मेरे साथ
तुम सब तरह की भाषाएं उपयोग करने के लिए मुक्त हो। बस अपनी बेईमानी को भर बीच में
मत लाना, सब भाषाओं का उपयोग करो।
मुहब्बत
से ऊंचा नहीं कोई मजहब
मुहब्बत
से ऊंची नहीं कोई जात
लेकिन
प्रेम का अर्थ ही केवल इतना है कि तुमने जो अपने भीतर देखा है, उसे ही
तुम अपने बाहर भी देखने लगो। तुमने जिससे भीतर पहचान बनायी है, उसी से तुम बाहर भी पहचान बनाओ।
लेकिन
एक बड़ी कठिन शर्त सामने खड़ी हो जाती है—तुम्हारी अपने से पहचान नहीं। तुमने अभी
अपने को ही नहीं जाना।
इसलिए
मैं कहता हूं बुद्धपुरुष स्वार्थ सिखाते हैं। तुम दूसरों को जानते मालूम पड़ते हो, लेकिन
तुमने अभी अपने से भी पहचान नहों बनायी। कैसे तो तुम दूसरों को जानोगे, जो अपने को भी नहीं जानता! जिसे आत्म—अर्थ न खुला, उसे
सृष्टि का अर्थ कैसे खुलेगा? जो मैं के भीतर न उतर सका,
वह तू के भीतर कैसे उतरेगा? अपने ही घर की
सीढ़ियों पर तुम उतरे नहीं, अपनी ही गहराइयों को न छुआ,
अपनी ऊंचाइयों में उड़े नहीं, तो तुम दूसरे की
ऊंचाइयों में कैसे उड़ोगे?
और
मजा यह है कि अगर तुम अपने ही आगन की ऊंचाई पर उड़ो, तो जैसे तुम ऊंचे उठते हो,
तुम्हारा आगन खोता जाता है। आकाश सब का है। उड़ो कहीं से। उड़ने का
प्रारंभ भला आगन से होता हौ, अंत तो आकाश में है।
जैसे—जैसे
तुम प्रेम में ऊपर उठते हो,
जैसे—जैसे तुम आत्म—परिचय में गहरे उतरते हो, वैसे—वैसे
सीमाएं खोती चली जाती हैं। मैं और तू कामचलाऊ शब्द हैं।
जरूरी
हैं, उपयोगी हैं, लेकिन सत्य नहीं।
सत्य
तो दोनों के भीतर कुछ है,
जो जुड़ा है।
समाया
है जब से तू नजरों में मेरी
जिधर
देखता हूं उधर तू ही तू है
एक
बार तुम्हारी पहचान उस स्वभाव से हो जाए, तो तुम जहां भी देखोगे खोज ही लोगे
उसे। हर घूंघट में वही है, हर पर्दे में वही है। खूब उसने
रंग लिए हैं, खूब रूप लिए हैं।
बुद्ध
उसकी बात नहीं करते। क्योंकि परमात्मा के नाम से बुद्ध के समय तक बड़ा उपद्रव हो
चुका था। मजबूरी में उन्हें उस प्यारे शब्द को त्याग देना पड़ा, छोड़ देना
पड़ा। उन्होंने परमात्मा के बिना परमात्मा तक जाने की यात्रा का आयोजन किया।
परमात्मा की तरफ जाने वाली यात्रा, और परमात्मा के शब्द को छोड़कर ले जाना चाहा। क्योंकि उस शब्द के कारण बहुत से
रुके थे, जा नहीं रहे थे। शब्द ही ?
बाधा बन गया था।
'जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से दंड से मारता है,
वह मरकर सुख नहीं पाता।
अगर
तुम अपने सुख के कारण किसी को दुख दे रहे हो, तो तुम अपना दुख इकट्ठा कर रहे हो।
इसे तुम गणित का आखिरी नियम समझो—जीवन के गणित का। इस नियम से बचने का कोई भी उपाय
नहीं है। इसलिए बचने की व्यर्थ कोशिश ही मत करना।
जब
भी तुम किसी को दुख दोगे,
तुम दुख पाओगे। मुझे ऐसा कहने दो तुम जो दोगे, वही तुम पाओगे। संसार प्रतिध्वनि है। तुम गीत गाओगे, चारों तरफ से गीत प्रतिध्वनित होकर तुम पर बरस जाएगा। संसार दर्पण है।
तुम्हारा चेहरा ही तुम्हें बार—बार दिखायी पड़ेगा। अगर सुख चाहते हो, तो दुख तो देना ही मत। अगर सुख चाहते हो, तो सुख
देने की प्रार्थना करना, सुख देने की अभीप्सा करना। अगर लगे
कि यह तो हमसे न हो सकेगा, बहुत दूर है, तो कम से कम दुख तो मत देना।
न्यूनतम
धर्म दूसरे को दुख मत देना।
अधिकतम
धर्म : दूसरे को सुख देना।
यह
बारहखड़ी का प्रारंभ कि दूसरे को दुख मत देना, यह सारी भाषा का अंत कि दूसरे को
सुख देना। जहां बुद्ध शुरू होते हैं, वहीं से शुरू करो,
तो किसी दिन जहां जीसस पूर्ण होते हैं, तुम भी
पूर्ण हो सकोगे। और जिसके जीवन में यह एक नियम साफ—साफ हो जाए, उसके जीवन में फिर किसी और चिराग की, किसी और दीए की
जरूरत नहीं। जिसने इतना ही समझ लिया, उसने सब समझ लिया। और
इसको जिसने साध लिया, उसके जीवन में कोई भूल—चूक न होगी।
दूसरे
को वही देना जो तुम चाहते हो कि तुम्हें मिले। तुमसे कभी भूल न होगी।
और तुम कभी
पछताओगे न।
शब
को चिराग की नहीं खरौ को एहतियाज
हर
जर्रा आफताब है तेरी सबील का
जिसको
यह सूत्र समझ में आ गया,
उसको अंधेरी रात में भी चिराग की कोई जरूरत नहीं। परमात्मा की
यात्रा पर उसे किसी और रोशनी की जरूरत नहीं।
हर
जर्रा आफताब है तेरी सबील का
जिसको
यह नियम समझ में आ गया,
उसके लिए तो उसके रास्ते का हर तिनका, हर
टुकड़ा भी सूरज की तरह प्रकाशवान हो जाता है।
'जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से दंड से नहीं मारता है,
वह मरकर सुख पाता है।
मरकर
क्यों? आज तुम सुख दोगे, मरकर तुम सुख पाओगे, ऐसा बुद्ध कहते हैं। आज तुम दुख दोगे, मरकर तुम दुख
पाओगे, ऐसा बुद्ध कहते हैं। ऐसा क्यों? आज तुम सुख दोगे, आज ही मिलेगा। जीवन नगद है। आज दुख
दोगे, आज ही दुख मिलेगा। जीवन बहुत नगद है। लेकिन फिर बुद्ध
ऐसा क्यों कहते हैं?
कारण
है। क्योंकि बहुत बार बीज तुम आज बोते हो, वर्षों लग जाते हैं, तब फल आता है। तो कहीं ऐसा न हो कि बीज तुम आज बोओ और फल आज न आए, तो तुम अपने को धोखा दे दो कि देखो फल आया ही नहीं। दुख दिया और दुख न
मिला।
जीवन
में यह प्रश्न बहुत बार उठता है। तुम देखते हो किसी आदमी को दुष्ट है, हिंसक है,
कठोर है, और जीवन में सुख, मजे—मौज कर रहा है। कभी तुम देखते हो कोई आदमी सरल है, सीधा है, सादा है, सच्चा है,
और सब तरह के दुख पा रहा है। उलझन खड़ी हो जाती है। लगता है, फिर जीवन का गणित सच है कि झूठ? कहीं यह सब मन का ही
भुलावा तो नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह सीधे—सादे लोगों
को सांत्वना हो कि मिलेगा, और बेईमान मजे कर रहे हैं। कहीं
ऐसा तो नहीं है कि यह भी बेईमानों की ही ईजाद हो, ताकि दूसरे
बेईमानी न करें—प्रतिस्पर्धा कम हो।
ऐसा
सोचने वाले लोग भी हुए हैं। जर्मनी में एक विचारक हुआ। उसने यही लिखा है कि धर्म
बेईमानों की ईजाद है। ताकि लोग सीधे—सादे रहें और उनको खूब धोखा दिया जा सके। ताकि
लोग भोले— भाले रहें और उन्हें खूब भरमाया जा सके। जीवन को देखकर ये प्रश्न उठेंगे
बहुत बार। और सुलझाव करना बड़ा कठिन मालूम होगा। कोई आदमी बेईमानी कर रहा है और सफल
हो रहा है। और कोई आदमी ईमानदार है और असफल होता जा रहा है।
कहीं
तुम उलझन में न पड़ो,
इसलिए बुद्ध कहते हैं, मरने के बाद। मैं तो
तुमसे कहता हूं रोज ही मिल जाते हैं। लेकिन बुद्ध इसलिए कहते हैं, ताकि तुम्हारे लिए कोई तर्क की व्यर्थ उलझन खड़ी न हो जाए। इसलिए वे कहते
हैं, मिलेगा ही। देर हो सकती है थोड़ी। हो सकता है मरने तक
प्रतीक्षा करनी पड़े। लेकिन तुम सदा के लिए धोखा न दे पाओगे नियम को।
ऐसा
ही समझो कि कोई आदमी अगर लड़खड़ाकर शराब पीकर चले आज न गिरे, कल न गिरे,
परसों न गिरे, कब तक न गिरेगा ' आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कभी
न कभी गिरने ही वाला है। गिरना भीतर इकट्ठा होता जा रहा है, संगृहीत
हो रहा है। जिस दिन मात्रा पूरी हो जाएगी उसी दिन गिर जाएगा। कहते हैं, आखिरी तिनके से ऊंट बैठ जाता है। जब मात्रा पूरी हो जाती है, पाप का घड़ा पूरा भर जाता है, तो फूट जाता है। तो
धोखे में मत पड़ना।
बुद्ध
इतना ही कह रहे हैं कि तुम इससे धोखे में मत पड़ना, नहीं तो कहीं तुम अपने को
समझा लो कि देखो यह बेईमान सफल हो रहा है, तो बुद्ध के नियम
का क्या हुआ? यह ईमानदार असफल हुआ, तो
बुद्ध के नियम का क्या हुआ? कहीं ऐसा न हो। क्योंकि मन इस
तरह की तरकीबें खोजता है। मन बेईमानी करने के लिए बड़े तर्क खोजता है। ईमानदारी से
बचने के लिए बड़े तर्क खोजता है।
मन
कहेगा, देखो चारों तरफ, आंख तो खोलो। बुद्धोंकी सुनकर आंख
बंद किए बैठे हो। यहां सफल वही हो रहा जो बेईमान है। यहां ईमानदार असफल होता
दिखायी पड़ रहा है। यहां जिसने दूसरों को दुख दिया वह सुखी मालूम पड़ रहा है,
और जिसने दूसरों को सुख देने की चेष्टा की वह दुखी है, सड़ रहा है। तुम जिंदगी को देखो, शास्त्रों को मत
देखो।
यह
उलझाव खड़ा न हो,
इसलिए अनुकपावश बुद्ध कहते हैं, मरने के बाद।
लेकिन फिर मैं तुम्हें याद दिला दूं आदमी की बेईमानी कुछ ऐसी है कि कुछ भी करो,
कुछ भी कहो, वह उसमें से रास्ता निकाल लेगा।
लोगों
ने इसमें से रास्ता निकाल लिया। उन्होंने कहा, मरने के बाद! तब अभी कोई जल्दी
नड़ीं। मरने के बाद होगा न देख लेंगे। अभी कौन मरे जाते हैं! कोई न कोई रास्ता होगा
ही। हर दफ्तर में लाच—घूंच का उपाय है, तो भगवान के भवन में
भी कोई न कोई इंतजाम होगा। कुछ न कुछ कर लेंगे। और फिर सारी दुनिया कर रही है,
देखेंगे, जो सबका होगा वह अपना होगा।
एक
पादरी एक चर्च में लोगों को समझा रहा था कि कयामत का दिन आएगा, तो सबके
पापों का निर्णय होगा। एक आदमी बीच में खड़ा हो गया, उसने कहा,
मुझे एक बात पूछनी है। सबका निर्णय एक साथ होगा? जितने आदमी अब तक हुए, जितने आदमी अभी हैं, और जितने भविष्य में होंगे कयामत तक? पादरी ने कहा,
सबका होगा। उसने कहा, औरतें भी उसमें होंगी,
आदमी भी होंगे? कहा, औरतें
भी होंगी। तो उसने कहा, फिर एक दिन में निर्णय ज्यादा हो
नहीं सकता, कोई फिकर की बात नहीं। एक दिन में इन सबका निर्णय?
वह निश्चित हो गया। अदालत में तो उपद्रव मच जाएगा, शोरगुल ही होगा, कुछ निर्णय होने वाला नहीं। आदमी
नहीं, औरतें भी होंगी। चीख—पुकार मचेगी, शोरगुल होगा, एक—दूसरे पर लांछन होंगे, मगर निर्णय? निर्णय होना बहुत मुश्किल है। और एक दिन
में!
आदमी
उपाय खोज लेता है। मौत के बाद! तो आदमी सोचता है, पहले तो यह कि मौत के बाद
बचता है कोई ' किसी ने लौटकर कहा, कौन
कब लौटकर आया है? बातें हैं। मिट्टी मिट्टी में गिर जाती है,
हवा हवा में खो जाती है, कौन बचता है 3 आधी
दुनिया तो नास्तिक है, मानती है, शरीर
सब कुछ है। इसके पार कुछ भी नहीं है। फिर कौन जानता है कि बचने पर भी बेईमान कोई
रास्ता न खोज लेंगे ' अगर उन्होंने यहां रास्ता खोज लिया,
तो वहा क्यों न खोजेंगे? फिर कौन जानता है कि
बेईमानों के वकील न होंगे? और फिर जब सभी लोग इस बड़ी नाव में
सम्मिलित हैं—कोई अकेले तो हम बैठे नहीं—जों सबका होगा, वह
हमारा होगा।
तो
मैं तुमसे कहता हू बुद्ध ने कहा कि मरकर, ताकि तुम इस प्रश्न में न उलझो कि
आज तो नहीं हो रहा है! लेकिन तब आदमी ने उपाय खोज लिया कि मरकर होगा, कोई फिकर नहीं, देख लेंगे।
आदमी
की सीमा है सोचने की। इसीलिए तो आदमी मजे से जीए चला जाता है। मौत खड़ी है सकके
द्वार पर, लेकिन कल्पना की सीमा है। अगर तुमसे कोई कहे, कल मर
जाओगे, तो थोड़ा धक्का लगता है। कोई कहे, परसों। धक्का कम हो जाता है। सीमा बड़ी हो गयी। कोई कहता है, दस साल बाद। तुम सोचते हो, दस साल? बड़ा लंबा है। सत्तर साल बाद, बात ही खतम हो गयी। मरे,
न मरे, बराबर मालूम होता है। सत्तर साल! आदमी
की सीमा है।
तुमने
कभो खयाल किया,
आदमी के मन का गणित और मन की परिकल्पना बड़ी सीमित है। तुमसे अगर कोई
कहे कि एक आदमी मर गया, किसी ने गोली मार दी, तुम्हारे मुंह से आह निकल जाती है। फिर कोई आदमी कहता है, हिरोशिमा पर एटम गिरा, एक लाख आदमी मर गए। एक लाख
हनी थोड़े ही आह निकलती है! तुमने सोचा? क्या, मामला क्या है? एक आदमी मर गया। आह निकल जाती है। एक
लाख आदमी! तुम्हारी सीमा के बाहर पड़ गए। तुम्हारी कल्पना से बहुत ज्यादा हो गए। अब
तुम हिसाब नहीं लगा पाते। फिर दस करोड़ आदमी मर गए—बात ही खतम हो गयी। कैसे सोचोगे
दस करोड़ आदमी के मरने का दुख?
एक
आदमी की मौत तुम्हें ज्यादा छूती है, दस करोड़ की कम छूती है। इसीलिए तो
दुनिया में छोटे पाप रुकते जाते हैं, बड़े पाप बढ़ते जाते हैं।
क्योंकि बड़े पाप को समझने की कल्पना नहीं है। उसके लिए उतनी संवेदनशीलता नहीं है।
युद्ध होता है, किसी को
कोई खास अड़चन नहीं होती, लाखों लोग मर जाते हैं। और छोटी—छोटी
बातों पर लोग उलझे रहते हैं। एक भिखमंगा भूखा सड़क पर मरता हो तो तुम्हें दया आ
जाती है। लेकिन कहीं भूकंप होता है और लाखों आदमी मर जाते हैं; अकाल पड़ता है, करोड़ों आदमी मर जाते हैं—तुम खड़े रह
जाते हो। तुम्हें कुछ छूता नहीं, तुम्हारी संवेदनशीलता छोटी
पड़ जाती है। यह दुख इतना बड़ा है कि तुम इसे तौल नहीं पाते।
इसीलिए
दुनिया में बड़े पाप चलते रहते हैं। छोटे पाप से हम बड़े बेचैन हो जाते हैं। बड़ा पाप
हमें इतना चौंका देता है,
लेकिन हमसे इतना बडा होता है कि हम करीब—करीब अपाहिज—लकवा मार गया
हो—ऐसी हालत में रह जाते हैं। हमसे कुछ करते नहीं बनता। छोटे पापी पकड़े जाते हैं,
बड़े पापी सम्मानित होते हैं। किसी आदमी ने किसी की चोरी कर ली,
बस। पकड़ा गया। किसी आदमी ने किसी को मार डाला, पकड़ा गया। लेकिन हिटलर, नेपोलियन, सिकंदर—तुम पूजा करते हो। करोड़ों लोग मार डाले। पर तुम्हारी सीमा के बाहर
हो गया।
हिटलर
ने अपनी आत्मकथा में लिखा है छोटे पाप मत करना, लोग पकड़ लेते हैं। करना हो तो बड़े
करना।
मैं
तुमसे कहता हूं छोटी झूठ मत बोलना, पकड़ जाओगे। बड़ी बोलना। इतनी बड़ी
बोलना कि लोगों की पकड़ के बाहर हो। फिर तुम नहीं पकड़े जाओगे। छोटे पापी कारागृहों
में बंद हैं, बड़े पापी इतिहास की स्वर्ण—जिल्दों में विश्राम
कर रहे हैं। स्वर्ण—अक्षरों में उनके नाम लिखे हैं। आदमी की इस सतत बेईमानी की
प्रवृत्ति के प्रति होश रखना।
'कठोर वचन
मत बोलो, बोलने पर दूसरे भी वैसा ही तुम्हें बोलेंगे। क्रोध—वचन
दुखदायी होता है, उसके बदले में तुझे भी दंड मिलेगा।
'कठोर वचन मत बोलो बोलने पर दूसरे भी वैसा ही तुम्हें बोलेंगे।
इसीलिए
मैं कहता हूं?
बुद्धपुरुष स्वार्थ सिखाते हैं। अब यह बात सीधी स्वार्थ की है। कठोर
वचन मत बोलो, अन्यथा तुम दूसरों को निमंत्रण दे रहे हो कठोर
वचन बोलने के लिए। निंदा मत करो, अन्यथा दूसरे निंदा करेंगे।
गाली मत दो, अन्यथा गाली वजनी होकर वापस लौटेगी। और जहरीली
होकर वापस लौटेगी। बुद्ध इतना ही कह रहे हैं कि तुम थोड़ी तो समझ रखो अपने स्वार्थ
की। तुम वही करो जो तुम चाहते हो तुम पर बरसे। यह बड़े अनुभव से बुद्ध ने कहा है।
यह उनके जीवनभर का सार—अनुभव है। यह तुम्हारा भी अनुभव है, लेकिन
तुमने कभी इसे निचोड़कर सिद्धात नहीं बनाया।
तुमने
कितनी बार गाली दी है,
गाली देकर तुमने कभी प्रत्युतर में फूलमालाएं पायीं? तुमने कितनी बार कठोर वचन बोले हैं, उत्तर में तुम
पर नवनीत बरसा? कितनी बार तुम्हारे जीवन में यह घटा है। अगर
तुम ठीक से समझो तो बुद्धों के जीवन में तुमसे भिन्न कुछ भी नहीं घटता। जो
तुम्हारे जीवन में घटता है, वही उनके जीवन में घटता है। भेद
क्या है? भेद इतना है कि वे अनंत—अनंत घटनाओं से सिद्धात खोज
लेते हैं। तुम अनंत घटनाओं में ही जीते रहते हो, सिद्धात
नहीं खोज पाते। बुद्धपुरुष अपने जीवन के अनुभव की माला गूंथ लेते हैं। बहुत से
मनकों के भीतर सिद्धात का एक धागा पकड़ लेते हैं। तुम्हारे जीवन में भी उतने ही
अनुभव हैं, शायद ज्यादा भी हों, लेकिन
तुम्हारे जीवन में ज्यादा से ज्यादा मनकों का ढेर होता है, माला
नहीं होती। तुम सूत्र नहीं खोज पाते।
इसीलिए
तो हम इन गहरे वचनों को सूत्र कहते हैं। सूत्र का अर्थ है, धागा।
सूत्र का अर्थ है, सार। सूत्र का अर्थ है, हजार अनुभव हों, सूत्र तो जरा सा होता है उनके भीतर।
मीर का बड़ा
प्रसिद्ध वचन है। बुढ़ापे में किसी ने मीर से पूछा कि तुम इतने अदभुत काव्य को कैसे
उपलब्ध हुए, तो मीर ने कहा—
किस
किस तरह से उम्र को काटा है मीर ने
तब
आखिरी जमाने में यह रेख्ता कहा
पूरी
जिंदगी किस—किस तरह से काटी है, तब कहीं यह कविता पैदा हुई।
यह बुद्ध ने जो वचन कहा है, यह
किन्हीं नीतिशास्त्रों से उधार नहीं लिया है, यह उनके अपने
जीवन का निचोड़ है।
मालूम
हैं मुझको तेरे अहवाल,
कि मैं भी
मुद्दत
हुई गुजरा था इसी राहगुजर से
वे
आदमी को समझते हैं,
क्योंकि वे भी आदमी थे। इसी राहगुजर से गुजरे हैं। इसी यात्रा की
धूल खायी है। इसी क्रोध, लोभ, मोह,
दुख, सुख के मेले से गुजरे हैं। इन्हीं सारे
अनुभवों को अनुभव किया है। इनके कांटे उन्हें चुभे हैं।
'कठोर वचन मत बोलो बोलने पर दूसरे भी तुम्हें वैसा ही बोलेंगे। क्रोध—वचन
दुखदायी है, उसके बदले में तुम्हें दुख ही मिलेगा।
वचन
की ही बात नहीं,
समझ की बात है। क्योंकि तुम जो बोलते हो, इतना
ही काफी नहीं है कि तुम न बोलो। अगर तुमने भीतर भी बोल लिया, तो भी तुम दुख पाओगे। क्योंकि जब तुम्हारे भीतर क्रोध से भरी कोई स्थिति
उठती है, तुम्हारे चारों तरफ की तले उससे प्रभावित हो जाती
हैं। जरूरी नहीं है कि तुम वचन बनाओ तभी। क्रोधी आदमी के आसपास की हवा में क्रोध
फैल जाता है। क्रोधी आदमी के पास तुम जाओगे तो अचानक तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर
क्रोध जग रहा है।
यह
तुम्हें कई बार अनुभव होता है, पर तुम खयाल नहीं करते। शांत आदमी के पास जाते
हो, अचानक लगता है, हवा का एक झोंका आ
गया, कोई चीज शीतल हो गयी भीतर। मौन आदमी के पास जाते हो,
तुम्हारे भीतर के विचार भी शिथिल हो जाते हैं, धीमे पड़ जाते हैं, दौड़ कम हो जाती है।
सत्संग
का यही अर्थ है : किसी ऐसे व्यक्ति के पास, जो पहुंच गया हो। उसके पास होना भी
बहुमूल्य है। कुछ करने की बात नहीं है। सिर्फ उसके पास होना भी, उसकी हवा को पीना भी, जो श्वासें उसके हृदय को छूकर
आयी हों, उन श्वासों को अपने भीतर ले लेना भी तरंगों को
बदलता है; तुम्हारी चित्तदशा को बदलता है।
तो
इतना ही नहीं है कि तुम कठोर वचन मत बोलो। बुद्ध तुम्हें कोई कूटनीति
नहीं सिखा रहे हैं।
वे यह नहीं कह रहे हैं कि कठोर वचन मत बोलो दिल ही दिल में जितना आए करो जैसा आए
करो। सोचो खूब,
बोलो मत।
नहीं, सोचा तो
भी बोल ही दिया। जो विचार तुम्हारे भीतर बन गया, वह प्रगट हो
गया। जिस विचार का तुम्हारे भीतर तुम्हें अनुभव हो गया वह दूसरे तक भी पहुंच ही
गया। पता न चले आज साफ न हो, कल साफ होगा। तुमने अगर किसी के
सबंध में क्रोध भरी बातें सोच लीं, फिर तुम कहो या न कहो,
वे बातें किसी अनजान रास्ते से पहुंच ही गयीं। हम सब जुड़े हैं,
हम सब के तार एक—दूसरे से हिलते है। हम अलग—अलग नहीं हैं।
इसलिए
कठोर वचन मत कहो,
कठोर वचन बनाओ भी मत। असल में उस दृष्टि को छोड़ दो जो तुम्हें कठोर
बनाती है। उस जीवन—शैली को त्याग दो जो तुम्हें कठोर बनाती है। विनम्र हो रहो।
विनीत हो रहो। कोमल अपने हृदय को बनाओ। तुम्हारे भीतर से कोमल स्वर ही उठें। उन
स्वरों के आधार सेर तुम्हारे आसपास का सारा जगत रूपांतरित होने लगेगा। तुम स्वर्ग
में यहीं और अभी हो सकते हो, सिर्फ तुम्हारे स्वर कोमल होने
चाहिए।
है
सदाकत के लिए जिस दिल में मरने की तड़प
पहले
अपने पैकरे—खाकी में जी पैदा करे
और
जिसके मन में सदाचरण की अभीप्सा हो, जो चाहता हो फूल खिलें जीवन में
आचरण के सुगंध हो, सुवास हो, तो पहले—
पहले
अपने पैकरे—खाकी में जी पैदा करे
तो
पहले अपनी मिट्टी की देह में आत्मा को जगाए, पैदा करे।
अभी
तो हम साधारणतया मिट्टी के ही शरीर हैं। जब तक तुम्हारी अपनी आत्मा से पहचान नहीं, तब तक
आत्मा है या नहीं, क्या फर्क पड़ता है? ऐसा
समझो कि तुम्हारे घर में खजाना गड़ा है और तुम्हें पता नहीं, तो
तुम गरीब ही हो। खजाने गड़े होने से क्या होगा? अमीर तो तुम न
हो जाओगे। यद्यपि खजाना गड़ा है, होने चाहिए थे अमीर, लेकिन होओगे तो तुम गरीब ही। खजाना खोदना पड़े।
गुरजिएफ
कहता था? जब तक तुमने आत्मा नहीं जानी, तब तक यह मानना फिजूल
है कि आत्मा है। गुरजिएफ कहता था कि आत्मा के सिद्धात ने बहुत लोगों को गलती में
उलझा दिया है। पढ़ लेते हैं उपनिषद में, गीता में कि आत्मा है।
मान लेते हैं कि बस खतम हो गयी, आत्मा है।
खोजना
पड़ेगी। गुरजिएफ कहता था,
ध्यान रखो, आत्मा तभी होगी जब तुमने खोजी।
खजाना दबा पड़ा रहे जमीन में हजारों वर्ष तक, इससे क्या होगा?
उपयोगिता क्या है? खोजो। आत्मा खोज से मिलती
है। निर्माण करो। जगाओ।
'यदि तुमने टूटे हुए कॉसे की भांति अपने को निःशब्द कर लिया तो तुमने
निर्वाण प्राप्त कर लिया क्योंकि तुम्हारे लिए प्रतिवाद नहीं रहा।
बड़ा
प्यारा सूत्र है।
'यदि तुमने टूटे हुए कांसे की भांति अपने को निःशब्द कर लिया।
कांसा, कौसे का
बर्तन तब तक बजता है जब तक टूटा न हो। तो जब बाजार तुम खरीदने जाते हो कासे का
बर्तन, तो बजाकर देखते हो। अगर बजता हो तो साबित है। अगर न
बजता हो तो टूटा है।
बुद्ध
कहते हैं, 'यदि तुमने टूटे हुए कांसे की भांति अपने को निःशब्द कर लिया।
अगर तुम्हारा
अहंकार ऐसे टूट जाए जैसे कौसे का बर्तन टूट जाता है, तो तुम्हारे भीतर फिर शब्द
न उठेंगे।
तो
पहले तो कठोर शब्द मत उठने दो, कोमल शब्द उठाओ, फिर तो
कोमल शब्द भी कठोर मालूम होंगे। पहले तो कीटों से बचो, फूल
उगाओ। फिर तो फूल भी कीटों जैसे चुभेंगे। क्योंकि और भी एक जगत है—शून्य का—जहां
कोई स्वर ही नहीं। निःशब्द का, मौन का। कठोर वचन, कोमल वचन, फिर वचनशून्यता। तो ऐसे हो जाओ कि
तुम्हारे भीतर कोई वचन ही न उठे, शब्द ही न उठे। उठो,
बैठो, चलो—भीतर शांति रहे, मौन, नीरव। आकाश में कोई बादल भी न हो। तुम्हारी
वीणा बिलकुल सो जाए। इसको बुद्ध ने निर्वाण की अवस्था कहा है।
लेकिन
हम तो छोटी—छोटी चीजों से उत्तप्त हो जाते हैं। जरा—जरा सी बातें हमें उबला देती
हैं। हम बड़े पतले ठीकरे हैं। जरा सी आच कि उबल जाते हैं।
बच्चन
का एक गीत है—
इतने
मत उत्तप्त बनो।
मेरे
प्रति अन्याय हुआ है
ज्ञात
हुआ मुझको जिस क्षण
करने
लगा अग्नि—आनन हो
गुरु
गर्जन, गुरुतर तर्जन
शीश
हिलाकर दुनिया बोली पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह
इतने
मत उत्तप्त बनो।
छोटी—छोटी
बातें बहुत हो चुकी हैं। कितने लोगों को कितनी गालियां नहीं दी गयी हैं? तुम्हें
किसी ने दे दी, कुछ नया हो गया?
इतने
मत उत्तप्त बनो।
लोग
गालियां देते ही रहे हैं,
तुम्हारे लिए कुछ नया आयोजन थोड़े ही किया है! लोग निंदा करते ही रहे
हैं, तुम्हारे लिए कोई विशेष व्यवस्था थोड़े ही की है! और
ध्यान रखो, तुम न होते तो भी वे गाली देते, किसी और को देते। तुम तो सिर्फ बहाने थे।
इतने
मत उत्तप्त बनो।
मेरे
प्रति अन्याय हुआ है
ज्ञात
हुआ मुझको जिस क्षण
करने
लगा अग्नि—आनन हो
गुरु
गर्जन, गुरुतर तर्जन
शीश
हिलाकर दुनिया बोली
पृथ्वी
पर हो चुका बहुत यह
इतने
मत उत्तप्त बनो।
यह
सब होता ही रहा है। लोग लड़ते ही रहे, झगड़ते ही रहे, गालियों का आदान—प्रदान करते ही रहे। लोग पागल हैं, और
करेंगे भी क्या? विक्षिप्त है यह पृथ्वी।
कुछ
वैजानिकों को ऐसा संदेह है—वह संदेह रोज—रोज बढता जाता है। रूस के एक बहुत बड़े
वैज्ञानिक बेरिलोवस्की की ऐसी परिकल्पना है कि यह पृथ्वी इस पूरे अस्तित्व का
पागलखाना है। तो जहां—जहां आत्माएं गड़बड़ा जाती हैं, उनको यहां भेज देते हैं।
इस बात में थोड़ी
सचाई मालूम होती है। कल्पना बड़े दूर की है, मगर सचाई मालूम होती है। जैसे हम
भी तो पागलखाना रखते हैं गांव में—कोई पागल हो गया उसे पागलखाने भेज देते हैं।
इस
बात की संभावना है। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, कम से कम पचास हजार
पृथ्वियां हैं, जहां जीवन है—होना चाहिए। तो इतने बड़े विराट
जीवन के विस्तार में एकाध तो पृथ्वी होगी जहा पागलखाना, कारागृह।
अगर कहीं भी होगी, तो यह पृथ्वी बिलकुल ठीक मालूम पड़ती है,
जंचती है। यहां लोग पागल हैं। परेशान मत होओ। एक बड़ा पागलखाना है,
जिसमें तुम हो। जरा जागो। लोगों के पागलपन के कारण तुम पागलपन मत
करो। तुम तो कम से कम पागलपन छोड़ो।
बुद्ध
यही कह रहे हैं,
अगर दूसरे तुम्हें गालियां देते हैं और तुम्हें दुख होता हे,
तो कम से कम तुम तो गालियां देना बंद करो। दूसरे तुम्हें सताते हैं,
तुम्हें दुख होता है, तो तुम तो कम से कम दूसरों
को सताना बंद करो।
धीरे—धीरे एक
अनिर्वचनीय निर्विकार मौन को जन्म देना है। मौन हुआ व्यक्ति ही विक्षिप्तता के
बाहर है। जो शांत हुआ,
वही पागलपन के बाहर गया। जो अशांत है, वह तो
पागलपन की सीमा के भीतर है।
बस
यही सत्य है,
यही सत्य है सिर्फ दोस्त!
हम
सभी लगे हैं अपने—अपने परिचय में
बस
उसको ही हम कहने लगते हैं अपना
जो
भी माध्यम बन जाता इस छल अभिनय में
न
हमें अपना पता है,
न दूसरे का पता है। हमारे उपद्रव में, हमारे
खेल में, हमारे पागलपन में, जो भी
सहयोगी हो जाता है, उसको हम अपना कहने लगते हैं। जो विरोध
में हो जाता है, उसको हम दुश्मन कहने लगते हैं। लेकिन न हमें
ठीक पता है कि हम क्या पाने को चले हैं, न हमें ठीक पता है
कि हम कौन हैं।
यह
पता हो भी नहीं सकता जब तक कि व्यक्ति टूटे हुए कासे के बर्तन जैसा न हो जाए। जहां
कोई विचारों की तरंगें न उठें वहीं आत्म—साक्षात्कार है।
और
बुद्ध कहते है,
निःशब्द हो गया जो पा लिया निर्वाण उसने। फिर उसके लिए कोई प्रतिवाद
न रहा। और जिसके भीतर मौन हो गया, कठोर वचन की तो बात अलग,
उसके भीतर कोई प्रतिवाद भी नहीं है। कोई गाली भी दे, तो उसके भीतर प्रत्युत्तर भी नहीं है।
यहां
बुद्ध ने बड़ी ऊंचाई छुई है। जीसस कहते है, जो तुम्हें चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने कर दो। अगर तुम बुद्ध से पूछोगे, बुद्ध कहेंगे, यह तो प्रतिवाद हुआ। तुमने कुछ किया।
माना कि तुमने गाली के उत्तर में गाली न दी, उसने सिर तोड़ना
चाहा था तो तुमने सिर न तोड़ा। तुम मूसा के नियम से ऊपर उठे। मूसा का नियम था जो
ईंट मारे, उसे तुम पत्थर से मारो। और जो तुम्हारी एक आंख फोड़
दे, तुम उसकी दोनों फोड़ दो। तुम मूसा के नियम से ऊपर उठे।
किसी ने तुम्हें चांटा मारा, तुमने—एक गाल पर मारा था—दूसरा
सामने कर दिया। लेकिन तुमने कुछ अभी भी किया, प्रतिवाद जारी
रहा।
बुद्ध
कहते हैं, निर्वाण की अंतिम दशा में प्रतिवाद ही नहीं। उसने चांटा मारा, जैसे नहीं ही मारा। जैसे तुम्हें कुछ भी न हुआ। हवा आयी और गयी। तुमने कोई
भी प्रतिक्रिया न की।
यह
भी प्रतिक्रिया है,
साधु—प्रतिक्रिया है। किसी की असाधु—प्रतिक्रिया है — चांटा मारा,
वह लट्ठ लेकर खड़ा हो गया। तुम्हें चांटा मारा, तुमने दूसरा गाल सामने कर दिया। लेकिन यह प्रतिक्रिया है। और प्रतिक्रिया
अगर है, तो कितनी देर तक तुम गाल किण्र जाओगे?
मैंने
सुना है, एक ईसाई फकीर ने—किसी ने उसे मारा—तो उसने दूसरा गाल कर दिया, क्योंकि जीसस की शिक्षा का था। लेकिन वह आदमी भी जिद्दी था, उसने दृस्रे गाल पर भी चाटा मारा। इसने न सोचा था। क्योंकि इस शिक्षा में
साधारणतया यह मान लिया गया है कि जब तुम दूसरा गाल करोगे तो दूसरा झुककर चरण छुएगा
और कहेगा : साधु—पुरुष हैं आप, मुझसे बड़ी भूल हो गयी। मगर वह
आदमी जिद्दी था, उसने दूसरे गाल पर भी चांटा मारा।
अब
जरा फकीर मुश्किल में पड़ा कि अब क्या करना। क्योंकि अब कोई गाल भी न बचा बताने को।
एक क्षण तो उसने सोचा,
फिर झपट्टा मारकर उस पर चढ़ बैठा। तो उस आदमी ने कहा, अरे—अरे! वह भी थोड़ा चौंका। उसने कहा, अभी—अभी तुमने
एक गाल का उत्तर दूसरे गाल से दिया, अब यह क्या करते हो?
तो उसने कहा कि जीसस ने इसके आगे कुछ कहा ही नही। अब तो मैं
स्वतंत्र हूं। जो मुझे करना, वह मै करूंगा। एक गाल के उत्तर
में उन्होंने कहा था दूसरा गाल कर देना।
जीसस
से भी उनके शिष्यों ने पूछा है। जीसस ने कहा कोई तुम्हें गाली दे, क्षमा
करना। एक शिष्य ने पूछा, कितनी बार? आदमी
का मन है, वह हिसाब लगाता है, कितनी
बार? आखिर सीमा है। जीसस तो सोचते रहे, दूसरे शिष्य ने कहा, कम से कम सात बार। जीसस ने कहा
कि नहीं, सतहत्तर बार।
मगर
सतहत्तर बार भी चुक जाएंगे। अठहत्तरवीं बार आने में कितनी देर लगेगी। इसलिए बुद्ध
का वचन आत्यंतिक है। वे कहते हैं, प्रतिवाद ही नहीं। अन्यथा संख्या की दौड़ है फिर।
सतहत्तर के बाद क्या करोगे? सात सौ सत्तर भी किया, तो भी क्या करोगे? सीमा आ जाएगी। फिर वापस तुम अपनी
जगह खड़े हो जाओगे। साधु चुक जाएगा। जैसे असाधु और साधु में अंतर जो है, वहं मात्रा का है, गुण का नहीं। बुद्ध कहते हैं,
संत और असाधु में जो अंतर है, वह गुण का है,
वह चुकेगा नहीं। वह सिर्फ शून्य है। उसका कोई प्रतिवाद नहीं है।
और
जिसके मन में कोई प्रतिवाद नहीं है, जिसके पास मन ही नहीं है—निर्वाण
का अर्थ ही यही होता है कि जिसने मन को ही छोड़ दिया, अब
जिसके भीतर कोई उत्तर नहीं उठते, कोई प्रतिक्रिया नहीं होती।
अब जो देखता रहता है खाली, शून्य आंखों से; जो जागा रहता है प्रतिपल, जिसका दीया जलता रहता है
निर्विकार आकाश में, वही निर्वाण को उपलब्ध है।
एक
दिन भी जी मगर तू ताज बनकर जी
अटल
विश्वास बनकर जी
कल
न बन तू जिंदगी का,
आज बनकर जी
ओ
मनुज! मत विहग बन,
आकाश बनकर जी
ओ
मनुज! मत विहग बन,
आकाश बनकर जी
एक
युग से आरती पर तू चढ़ाता निज नयन ही
पर
कभी पाषाण क्या यह पिघल पाए एक क्षण भी
आज
तेरी दीनता पर पड़ रहीं नजरें जगत की
भावना
पर हंस रही प्रतिमा धवल,
दीवार मठ की
मत
पुजारी बन स्वयं भगवान बनकर जी
एक
दिन भी जी मगर तू ताज बनकर जी
निर्वाण
ताज है। उसके पार फिर कुछ भी नहीं। निर्वाण मनुष्य के होने की आखिरी संभावना और
कल्पना है। वह आखिरी आकाश है। उसके आगे फिर और कोई आकाश नहीं। निर्वाण का अर्थ है, तुम हो और
नहीं हो। तुम हो पूरे और बिलकुल नहीं हो। तुम हो, लेकिन होने
की कोई सीमा नहीं। चैतन्य हो, लेकिन विचार नहीं। आकाश हो,
लेकिन बादल नहीं। कोरा, ओर से छोर तक शून्य।
इसे
बुद्ध ने परम अवस्था कहा। इसको ही भगवत्ता कहा है। बुद्ध ने भगवान की बात नहीं की, भगवत्ता
की बात की। अवस्था है।
भगवान
बनकर जी!
आकाश
बनकर जी!
आज
बनकर जी!
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें