मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

एस धम्मो संनतनो-(प्रवचन-049)



प्रवचन—49 (महोत्सव से परमात्मा, महोत्सव में परमात्मा)

पहला प्रश्‍न:

भगवान, मैं आपको वर्षों से सून रहा हूं, लंबे अर्से से मैं आपके पास हूं। मैंने समय—समय पर आयसे कई भिन्न—भिन्न वक्तव्य और परस्पर विरोधी वक्तव्य सुने, लेकिन उनके संबंध में कहीं कोई प्रश्न गै मन में नहीं उठा। और उनके बावजद आप मेरी दृष्टि में और मेरे हृदय में सदा—सर्वदा एक ओrर अखंड बने रहे। इस पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।


मेरे पास दो ढंग से हो सकते हो। एक तो विचार से, बुद्धि से, और एक हृदय से और भाव से। बुद्धि और विचार से अगर मेरे पास हो, तो बड़ी अड़चन होगी। रोज—रोज विरोधी वक्तव्य होंगे। रोज—रोज तुम्हें सुलझाना पड़ेगा, फिर भी तुम सुलझा न पाओगे।
बुद्धि कभी कुछ सुलझा ही नहीं पाती। जहा सीधी—सीधी बात हो, वहा भी बुद्धिं उलझा लेती है। तो मेरी बातें तो बड़ी उलझी हैं। जहा सब साफ—सुथरा हो, वहा भी बुद्धि समस्याएं खड़ी कर लेती है। तो मैं तो उन रास्तों की बात कर रहा हूं जो बड़े धुंधलके से भरे हैं। एक ही रास्ते की बात हो, तो भी बुद्धि विरोध खोज लेती है। येतो अनंत रास्तों की बातें हैं। विरोध ही विरोध मिलेगा। ऐसा मैंने कोई वक्तव्य ही नहीं दिया है जिसका हजार बार खंडन न किया हो। तो यदि बुद्धि से मेरे पास हो, तो दो ही उपाय हैं। या तो तुम पागल हो जाओगे, बुद्धि को छोड़ दोगे। या भाग जाओगे।

बुद्धि को बचाना है, तो मुझे छोड़ना पड़े। मुझे बचाना है, तो बुद्धि छोड़नी पड़े। और कोई सौदा, और कोई समझौता नहीं हो सकता। इसलिए बहुत से बुद्धिवादी मेरे पास आते हैं, हट जाते हैं। उनको अपनी बुद्धि ज्यादा मूल्यवान मालूम होती है। वह उनका निर्णय।
उन्हें मैं बहुत बुद्धिमान नहीं कहता। क्योंकि वे उसी बुद्धि को पकड़ रहे हैं जिस बुद्धि से कुछ भी नहीं पाया। इधर मैंने एक मौका दिया था निर्बुद्धि होने का। एक द्वार खोला था—अनजान, अपरिचित। हिम्मत होती और दो कदम चल लेते, तो कुछ पा जाते। कोई झलक मिलती, कोई जीवन का स्वाद उतरता। लेकिन घबड़ाकर उन्होंने अपनी बुद्धि की पोटली बांध ली। भाग खड़े हुए। उसी को बचा लिया जिसके सहारे कुछ भी नहीं पाया था। इसलिए मै उन्हें बहुत बुद्धिमान नहीं कहता।
जो सच में बुद्धिमान है, उन्हें मेरी बातों में विरोधाभास दिखायी पड़ेंगे, तो भी मेरी बातों का रस विरोधाभासों के बावजूद उनके हृदय को आंदोलित करता रहेगा। एक न एक दिन हिम्मत करके वे अंधेरे में मेरे साथ कदम उठाकर देखेंगे। उसी दिन उनके भीतर क्रांति हो जाएगी। उनकी चेतना की धारा बुद्धि से छिटककर हृदय के मार्ग पर बहने लगेगी। वही एकमात्र क्रांति है।
तो जो बुद्धि से मेरे पास आए हैं, या तो रुकना है तो बुद्धि खोनी पड़ेगी। वही मूल्य चुकाना पड़ेगा। अपनी बुद्धि बचानी है, तो मुझे खोना पड़ेगा। फिर तुम्हारी मर्जी। दूसरा जो वर्ग है, जो हृदय के कारण मेरे पास आया है। जो मुझे सुनकर नहीं, मुझे सोचकर नहीं, मुझे देखकर, मुझे अनुभव कर मेरे पास आया है; जिसने धीरे—धीरे मेरे साथ एक प्रेम का नाता बनाया है—वह नाता बौद्धिक नहीं है। उस हुनाते में, मैं क्या कहता हूं? कुछ लेना—देना नहीं है। मेरी मान्यताएं क्या हैं, उनका कोई विचार नहीं है। मैं क्या हूं, वही मूल्यवान है—उनके ऊपर मैं कितने ही विरोधी वक्तव्य देता चला जाऊं, कोई अंतर न पड़ेगा। उन्होंने अपने भीतर से जो मेरा साथ जोड़ा है, वह अविरोध का है, हृदय का है।
बुद्धि सोचती है, कौन सी बात ठीक, कौन सी बात गलत। बुद्धि सोचती है, कौन सी बात किस बात के विपरीत पड़ रही है। बुद्धि सोचती है, कल मैंने क्या कहा था, आज मैं क्या कह रहा हूं। बुद्धि हिसाब रखती है। हृदय तो क्षण— क्षण जीता है। अतीत को जोड़कर नहीं चलता। मैंने कल क्या कहा था, उससे प्रयोजन नहीं है। मैं कल क्या था, उससे प्रयोजन है। और जो मैं कल था, वही मैं आज हूं। मेरे वक्तव्य बदलते जाएं, मेरे शब्द बदलते जाएं, मेरा शून्य वही का वही है।
कभी मैंने तुमसे मंदिर में जाकर प्रार्थना करने को कहा है; कभी सब मुर्तियों को छोड़कर , त्यागकर, मस्जिद में नमाज पढ्ने को कहा है, कभी भगवान के रस में डूबकर नाचने को कहा है, मदमस्त होने को कहा है; कभी, भगवान है ही नहीं, सब सहारे छोड़ देने को, आत्मखोज के लिए कहा है।
स्वभावत:, ये वक्तव्य विरोधी हैं। लेकिन इन सब विरोधों के भीतर मैं हूं। जिसने तुमसे पूजा के लिए कहा था, उसी ने तुमसे पूजा छोड़ने को कहा है। और जिस लिए तुमसे पूजा करने को कहा था, उसी लिए तुमको पूजा छोड़ने को कहा है। मैं वही हूं और मेरा प्रयोजन वही है।
अगर तुमने प्रेम से मुझसे संबंध जोड़ा, तो तुम देख पाओगे। तुम्हें यह स्मष्ट होगा। तब तुम जन्मों—जन्मों मेरे साथ रहो और तुम्हारे भीतर कोई प्रश्न 'न उठेगा। यह शुभ है। यह महिमापूर्ण है। प्रेम ने कभी कोई प्रश्न जाना ही नहीं। हा, कभी जिज्ञासा उठ सकती है। जिज्ञासा बड़ी और बात है।
इस फर्क को भी खयाल में ले लेना चाहिए।
प्रश्न तो उठता है तुम्हारी जानकारी से। तुम कुछ जानते हो, उससे प्रश्न खड़ा होता है। जिज्ञासा उठती है अज्ञान से। तुम नहीं जानते, इसलिए प्रश्न खड़ा होता है। तुमने वेद पढ़ा, फिर मैंने कुछ कहा, और अगर तुमने जो वेद में पढ़ा है उसके विपरीत 'हुआ, तो प्रश्न उठेगा। तुमने गीता पढ़ी, और मैंने कुछ कहा, और तुम्हारी पढ़ी हुई गीता से मेल न खाया, तो प्रश्न उठेगा। प्रश्न तुम्हारे ज्ञान से उठता है, तुम्हारी सूचना से, जानकारी से उठता है।
प्रश्न का केवल इतना अर्थ है कि तुम्हारा शान डगमगाया। तुम उसे घिर करना चाहते हो। तुम बेचैनी में पड़ गए, असुरक्षित हो गए। सब साफ—सुथरा मालूम होता था, भ्रम खड़ा हो गया। मैंने कुछ कहा, उसने तुम्हें डावाडोल किया। तुम घिर होना चाहते हो। तुम प्रश्न पूछते हो—इस पार, या उस पार। या तो मैं तुम्हें बिलकुल ही गलत सिद्ध कर दूं ताकि तुम मुझे ठीक मान लो। और या मैं गलत सिद्ध हो जाऊं, ताकि तुम अपने ठीक को ठीक माने चले जाओ। प्रश्न तुम्हारे शान में बाधा पड़ने से उत्पन्न होता है।
जिज्ञासा अज्ञान से पैदा होती है। छोटा बच्चा पूछता है, तब जिज्ञासा है। उसे कुछ पता नहीं। वह पूछता है, संसार को किसने बनाया? एक हिंदू पूछता है, संसार को किसने बनाया? वह जानकर ही पूछ रहा है। वह यह पूछ रहा है कि मैं तो मानता हूं कि ईश्वर ने बनाया, तुम भी मानते हो या नहीं? किसने बनाया संसार को? उसके प्रश्न के पीछे जानकारी खड़ी है। एक छोटा बच्चा पूछता है, किसने बनाया? उसके प्रश्न के पीछे कोई जानकारी नहीं है, विराट जिज्ञासा है। वह कुछ मानकर नहीं पूछ रहा है। इसलिए उसके पूछने में एक निर्दोष भाव है। वह जानना चाहता है, इसलिए पूछ रहा है। तुम जानते ही हो, इसलिए पूछते हो। तो तुम जब भी पूछते हो, तुम्हारा प्रश्न एक तरह का विवाद है।
जिन्होंने मुझसे प्रेम किया है, उनके प्रश्न तो नहीं उठेंगे जिशासाए होंगी। जिज्ञासा सत्य की खोज पर बड़ी जरूरी है। प्रश्न, विवाद करना हो, शास्त्रार्थ करना हो, तो काम के हैं। सत्य को खोजना हो, तो बाधाएं हैं।
पूछा है, 'वर्षों से आपको सुन रहा हूं। लंबे अर्से से आपके पास हूं।
इससे कोई फर्क न पड़ेगा। तुम जितनी ज्यादा देर मेरे पास रह जाओगे उतना ही लगेगा कम रहे। यह कुछ प्रेम ऐसा है कि बढ़ने ही वाला है, घटने वाला नहीं। जो घट जाए, वह भी कोई प्रेम! यह चांद कुछ ऐसा है कि बढ़ता ही चला जाता है। पूर्णिमा कभी आती नहीं, बस आती मालूम होती है। प्रेम के रास्ते की यही खूबी है। पांव बढ़ते हैं, लक्ष्य उनके साथ बढ़ता है।
पांव बढ़ते लक्ष्य उनके साथ बढ़ता
और पल को भी नहीं यह क्रम ठहरता
पांव मंजिल पर नहीं पड़ता किसी का
प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का
जिससे जी भर जाए, वह प्रेम नहीं। जिससे जी भरे ही न, वही प्रेम है। भर—भर कर न भरे। बार—बार तुम लगो कि अब लबालब हुए, अब लबालब हुए, जब झाको, तब पाओ कि अभी और जगह रह गयी, अभी और भरना है। मंजिल सदा पास आती लगती है—हाथ बढ़ाया, मिल जाएगी; पर पांव मंजिल पर कभी नहीं पड़ता।
तुम जितनी ज्यादा देर मेरे पास रह जाओगे, उतना ही लगेगा, कम रहे। समय सिकुड़ता जाएगा। प्रेम के सामने समय छोटा है। समय कैसे बीत जाता है प्रेम की घड़ी में, पता नहीं चलता।
तुमने कभी खयाल किया ' तुम प्रेमी के पास बैठे हो, घंटों बीत जाते हैं, ऐसा लगता है, पल ही बीते। और तुम किसी दुश्मन के पास बैठे हो, पल बीतते हैं और ऐसा लगता है, घड़ी मानो ठहर गयी। घंटों बीत गए। दुख में समय लंबा हो जाता है। सुख में समय छोटा हो जाता है।
इसीलिए तो कहते हैं, नर्क अनंत है। दुख में समय लंबा हो जाता है। इसीलिए तो कहते हैं, स्वर्ग क्षणभंगुर है। सुख में समय छोटा हो जाता है। आया नहीं, गया नहीं। और आनंद में तो समय परिपूर्ण शून्य हो जाता है। इसीलिए आनंद को कालातीत कहा है।
फिर से तुम सोचना, कितने समय तुम मेरे पास रहे? बहुत थोड़ा मालूम पड़ेगा। अगर गौर से देखोगे, तो शायद तिरोहित ही हो जाएगा कि रहे ही कहौ! अभी आए थे. क्षण भी नहीं बीता या क्षण कहना भी ठीक नहीं, कुछ बीतता नहीं मालूम पड़ता; कुछ ठहरा हुआ मालूम पड़ता है। इसलिए तुम जितनी ज्यादा देर रह जाओगे, उतना ही लगेगा, कम रहे, कम रहे, कम रहे। यह जल कुछ ऐसा है कि पीने से प्यास बढ़ती है। जिस प्रेम से प्यास बुझ जाए, वह प्रेम नहीं। जिस प्रेम से प्यास अनंत होकर जलने लगे, प्रखर होकर जलने लगे वही प्रेम प्रेम है। और वही प्रेम प्रार्थना बनेगा। और वही प्रेम तुम्हें एक दिन परमात्मा तक ले जाएगा।
प्यास जब ऐसी हो जाए कि तुम मिट ही जाओ और प्यास ही बचे बस प्यास बचे तुम न बचो, एक व्याकुलता बचे, एक विरह बचे एक उत्तप्त अभीप्सा बचे तुम खो ही जाओ—प्यासा बचे ही न, क्योंकि प्यासे के कारण ही प्यास पूरी नहीं हो पाती। कुछ शक्ति प्यासे को मिलती है, कुछ प्यास को मिलती है, बंट जाती है। जब प्यास ही प्यास होती है और प्यासे के पास अपने को बचाने की शक्ति भी नहीं बचती, तभी प्यास प्रार्थना हो जाती है, तभी प्यास परमात्मा हो जाती है।
यहां तुम्हें मैं प्यास ही सिखा रहा हूं। यहां तुम्हें मैं इस बात के लिए तैयार कर रहा हूं, ताकि तुम अनंत प्यास के मालिक हो जाओ। भरने की जल्दी थोड़ा सोचो, साधारण प्यास को आदमी मिटा लेना चाहता है, क्योंकि प्यास से पीड़ित है। परमात्मा की प्यास को मिटा थोड़े ही देना चाहता है, क्योंकि प्यास से पीड़ित थोड़े ही है। इसलिए नारद कहते हैं, विरहासक्ति। विरह में भी आसक्ति हो जाती है। रस आने लगता है प्यास में भी।
अगर तुम ठीक से समझो, तो ऐसा कहने दो मुझे कि प्यास के कारण थोड़े ही भक्त परमात्मा को मांगता है, परमात्मा को मांगता है, ताकि प्यास बढ़ती जाए। परमात्मा प्यास से गौण हो जाए। भक्ति भगवान से महत्वपूर्ण हो जाए। क्योंकि जब तक भक्ति साधन है, तब तक तो तुम छुटकारा चाहोगे कि जल्दी पूरा हो, रास्ता पूरा हो, मंजिल आए। जब भक्ति साध्य हो जाती है!
यहां तुम्हें मैं ऐसी ही प्यास की तरफ ले चला हूं। तो कितना समय तुम रहे, यह बात बड़ी सोच लेने जैसी है, ज्यादा समय रहे नहीं। यह प्रश्न पूछा है आनंद त्रिवेदी ने। माना बहुत वर्ष हो गए हैं; लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं अभी क्षण भी कहा बीते! अभी—अभी आए थे र अभी बैठे ही हो, अभी ज्यादा देर नहीं हुई, और तुम विचारोगे तो ऐसा ही पाओगे। अगर ज्यादा देर हो गयी, तो उठने का वक्त करीब आ गया। जब ज्यादा देर होने लगी, तो आदमी उठने की तैयारी करने लगता है। तुम और भी बैठे रहना चाहते हो, तुम रुके ही रहना चाहते हो। जब तक उठने की आकांक्षा खड़ी न हो जाए, जब तक यहां से दूर जाने की आकांक्षा न हो जाए, तब तक कहो देर हुई? अभी तुम ऊबे नहीं।
बुद्धि जल्दी ऊब जाती है। बुद्धि बड़ी छिछली है। उसमें कोई गहराई नहीं। शोरगुल बहुत है, जैसा उथली नदियों में होता है। हृदय कभी ऊबता नहीं, बड़ा गहरा है। पता भी नहीं चलता कि बह रहा है कि नहीं बह रहा है। धार बड़ी धीमी सरकती है। पूछा है, 'मैंने समय—समय पर आपसे कई भिन्न—भिन्न वक्तव्य, परस्पर विरोधी वक्तव्य सुने हैं, लेकिन उनके संबंध में कभी कोई प्रश्न मेरे मन में नहीं उठा। '
शुभ है। सौभाग्यशाली हो। बड़ा मंगल—सूचक है। ऐसा ही होना चाहिए। नहीं
होता सभी को, दुर्भाग्य है। जिसको होता है, आनंदित होओ। इसका अर्थ हुआ कि एक बड़ी गहरी उपलब्धि तुम्हें हो रही है, जो वक्तव्यों से नहीं डिगायी जा सकती है। मैं क्या कहता हूं र इसकी तुम्हें अब चिंता नहीं है। तुम्हारे सामने मैं क्या हूं? यह प्रगट होने लगा। मैं किन शब्दों का उपयोग करता हूं, बहुत फर्क नही पड़ता। तुम मेरे शब्दों में झाककर मेरे शून्य को देखने लगे। मैं परमात्मा के संबंध में कुछ कहूं, परमात्मा के खिलाफ कहूं, कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम दोनों के पार मुझे खड़ा हुआ अनुभव कर लेते हो। तुम मेरे गीत की धुन को पहचानने लगे। मैं किस भाषा में गाता हूं, कोई अंतर नहीं पड़ता। तुम्हें भाषा समझ में आती है, नहीं आती, कोई अंतर नहीं पड़ता। तुम मेरे गीत की धुन से राजी होने लगे, तुम्हारी लयबद्धता बंधने लगी।
न फलसफी, न मुल्ला से गरज है मुझको
यह दिल की मौत, वो अंदेशा—ओ—नजर का फसाद
पंडित है, मौलवी है, दार्शनिक है, विचारक है, उससे क्या लेना—देना ' क्योंकि यहां तो मरने की कला सिखायी जा रही है। और वह तो सिर्फ दृष्टि, मत, विचार का उपद्रव है। पंडित तो केवल शब्दों का जाल है।
न फलसफी, न मुल्ला से गरज है मुझको
यह दिल की मौत
धर्म तो दिल की मौत है, यहां तो मिटना है।
वो अदेशा—ओ—नजर का फसाद
और वहा तो केवल दृष्टिकोण, नजरिए के झगड़े हैं।
यहां तुम्हें कोई झगड़ा थोड़े ही सिखा रहा हूं। यहां तो झगडूने वाले को कैसे विसर्जित कर दो, यही सिखा रहा हूं। यहां झगड़ा करने वाला कैसे विसर्जित हो जाए, अहंकार कैसे डूब जाए, बस उतनी ही बात है। और इसीलिए तो सब चिकित्साओं की बात करता हूं। जिससे हो जाए, चलेगा। चिकित्सा से मेरा मोह नहीं, इसे तुम समझ लो। तुम्हारी बीमारी मिटनी चाहिए। ऐसे लोग हैं जिनको बीमारी मिटाने की उतनी चिंता नहीं, चिकित्सा से मोह है।
मेरे एक मित्र हैं। वे होमियोपैथ हैं। होमियोपैथी के दीवाने हैं। एलोपैथी के दुश्मन हैं। उनकी पत्नी ने मुझसे कहा कि इस घर में बीमार होना मुश्किल है। क्योंकि बीमार हुए कि होमियोपैथी। कोई ठीक होता नहीं दिखायी पड़ता, मगर इनकी जिद्द है। और एलोपैथी डाक्टर के पास तो जा नहीं सकते। तो अपने पति से यह कहना भी संभव नहीं है कि सिर में दर्द है, या बुखार है। यह भी चोरी—छिपे छिपाना पड़ता है। नहीं तो होमियोपैथी शुरू! मरीज से मतलब नहीं है, सिद्धात!
कुछ हैं जो नेचरोपैथी के दीवाने हैं। उन्हें कोई फिकर नहीं। मेरे एक रिश्तेदार हैं, उनकी पत्नी मर गयी नेचरोपैथी में। पूरे समय मैं मौजूद था जब यह घटना घटी। उनको कई बार समझाया कि तुम इस पत्नी को मारे डाल रहे हो। उपवास। वह कमजोर, बीमार, उसको वह उपवास करवा रहे हैं। फिर मैंने कहा, उपवास कभी ठीक भी हो सकता है, लेकिन इसकी हालत खराब है। और वे बोले कि हालत इसीलिए खराब है कि शरीर में विषाक्त द्रव्य हो गए हैं। टाक्सिक। उनको निकालना पड़ेगा, उपवास से ही निकल सकते हैं। और एलोपैथी की दवा तो मै दूंगा नहीं, क्योंकि उसमें तो और जहर है।
सिद्धात मजबूत, पत्नी सूखती गयी। इधर मैं उनसे कहता भी कि पत्नी सूखती जा रही है, हालत उसकी खराब होती जा रही है। पर वे कहते कि जरा देखो तो उसके चेहरे पर कैसी काति है! वह पीली पड़ रही, वे उसको काति कहते हैं।
ऐसे ही तो साधु—संन्यासियों के पास लोग जुड़े रहते हैं। उनका चेहरा पीला पड़ता जाता है, और भक्त कहते हैं, कैसी स्वर्ण जैसी तपश्चर्या प्रकट हो रही है। दूसरा देखेगा, तो उनको बीमार पाएगा, इलाज की जरूरत है। भक्त देखता है, तो वह कहता है, अहा! कैसा शुद्ध कुंदन जैसा चेहरा निकला आ रहा है। स्वर्ण प्रगट हो रहा है। नजरों में सिद्धात छाए हों तो पीतल सोना मालूम होता है।
मैंने उनसे कहा, यह पत्नी मर जाएगी। न केवल उसका शरीर कमजोर हुआ, उसकी नींद भी खो गयी। क्योंकि भोजन की थोड़ी मात्रा नींद के लिए जरूरी है। जब शरीर में कुछ पचाने को न हो, तो शरीर को सोने की जरूरत नहीं रह जाती। जब नींद खो गयी, मैंने उनसे कहा, इसकी नींद खो गयी है। वे कहने लगे कि यह. यह तो हो जाता है जब आदमी शांत हो जाता है। तो ऐसा तो गीता में ही कहा है कृष्ण ने, या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यह पत्नी संयम को उपलब्ध हो रही है।
उनको समझाना मुश्किल था। फिर पत्नी पागल भी हुई। मगर वे अपनी बकवास जारी रखे। पत्नी मर भी गयी। लेकिन सवाल सिद्धात का था।
ध्यान रखना, ऐसा ही धर्मों के जगत में चलता है। तुम्हें इसकी फिकर नहीं है कि परमात्मा मिले या न; अगर तुम मुसलमान हो तो कुरान के आसरे ही मिलना चाहिए। कुरान ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर तुम हिंदू हो तो गीता के सहारे ही मिलना चाहिए। गीता ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर परमात्मा तुमसे कहता हो कि आज मैं कुरान के द्वारा मिलने को तैयार हूं तो तुम कहोगे, हम मिलने को तैयार नहीं। हम तो गीता के सहारे ही आएंगे।
कहते हैं, तुलसीदास कृष्ण के मंदिर में गए वृंदावन, तो उन्होंने कहा कि झुकूंगा नहीं, जब तक धनुष—बाण हाथ न लोगे। कृष्ण की मूर्ति थी, बांसुरी लिए। अब तुलसीदास झुक सकते कहीं कृष्ण की स्तुतइr के सामने, बांसुरी लिए! वे तो धनुर्धारी राम के भक्त हैं। जब तक धनुष—बाण हाथ न लोगे, झुकूंगा नहीं।
यह बात कैसी हुई! परमात्मा से कोई प्रयोजन नहीं है। तुम परमात्मा को भी अपने अनुशासन में रखना चाहते हो। तुम्हारे ढंग से आए तो झुकोगे। इसका अर्थ हुआ, तुम अपने ढंग के लिए झुकोगे, परमात्मा से कुछ लेना—देना नहीं। तुम परमात्मा से कवायद करवाने को उत्सुक हो। यह कैसा अहंकार! नहीं, बुद्धि विवादी है। झगड़ैल है।
यहां मैं सभी रास्तों की बातें कर रहा हूं। क्योंकि मैं कहता हूं चलो, गीता से न मिले, छोड़ो भी। गीता से क्या लेना—देना है! आम खाने से मतलब, गुठलिया गिनने से क्या प्रयोजन है! गीता से नहीं मिले, जाने दो, धम्मपद सही। चलो धम्मपद से खोज लें। अगर होमियोपैथी काम न आयी, तो एलोपैथी सही एलोपैथी काम न आयी, तो नेचरोपैथी सही। पैथी से बंधने की जरूरत क्या है ' जो पैथी से बंध गया, वह तो रोगी से भी महारोगी है। एक तो बीमारी पकड़े है, और अब चिकित्सा ने भी पकड़ा।
सभी रास्तों से लोग पहुंचे हैं। मैं तुमसे सभी रास्तों की चर्चा कर रहा हूं। इसलिए नहीं कि तुम सभी रास्तों पर चलो। मैं कहता हूं, जब तुम्हें जो रास्ता जम जाए, तुम उस पर चल पड़ना। जिनके लिए तब तक न जमा होगा, उनके लिए मैं आगे बोलता चला जाऊंगा।
इसलिए तुम्हें मेरे वक्तव्यों में विरोध दिखायी पड़ेगा। क्यीकि मैं इतने विरोधी लोगों पर बोल रहा हूं। उनकी अभिव्यक्तिया इतनी भिन्न है। कहौ बुद्ध, कहौ क्राइस्ट! कहौ कृण, कहां महावीर। कहां पतंजलि, कहां तिलोपा! कहां शिव का विज्ञान भैरव, कहौ लाओत्से का ताओ तेह किंग! इतने भिन्न लोग हैं, इतनी भिन्न सदियां, इतनी भिन्न अभिव्यक्तियां। लेकिन मेरी सारी चेष्टा तुम्हें बताने की यह है कि सबके भीतर एक की तरफ ही इशारे हैं। अंगुलिया अलग—अलग, चांद एक है।
तो जब मैं लाओत्से की अंगुली पकड़कर उठाऊंगा चांद की तरफ, तो स्वभावत: वह अंगुली वैसी ही नहीं होगी जैसी बुद्ध की अंगुली होगी। हो ही नहीं सकती। बुद्ध की अंगुली बुद्ध की अंगुली है। लाओत्से की अंगुली लाओत्से की अंगुली है।
तुम अगर गौर से मुझे देखते रहे, तो तुम धीरे— धीरे पाओगे कि अंगुलियों का प्रयोजन ही नहीं है। अंगुलियां किस तरफ उठायी जा रही हैं—चांद की तरफ—उस तरफ देखो, अंगुलियों को भूलो। अगर तुमने चांद देखा, तो मेरे वक्तव्यों में तुम्हें एक धारा बहती हुई प्रवाहित मालूम होगी। अगर अंगुलियां देखीं, तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। तो मेरे वक्तव्य तुम्हें अलग—अलग मालूम होंगे।
चांद को देखना हो, तो तुम्हें मुझे बडी प्रेम की नजर से देखना होगा। विवाद की नजर लेकर तुम आए, तो शब्द दिखायी पड़ेंगे। क्योंकि विवाद शब्द को भी पकड़ ले, तो बहुत। शब्द भी छूट जाता है। विवादी का मन इतना आतुर होता है विवाद के लिए कि वह शब्दों को भी नहीं पकड़ पाता। उनको पकड़ लेता है जिनको विवाद के काम ला सकता है। उनको छोड़ देता है जो उसके काम के नहीं। जिनसे विवाद खड़ा हो सकता है, उनको पकड़ लेता है। जिनसे खड़ा नहीं हो सकता, उनको भूल ही जाता है।
लेकिन, अगर तुमने प्रेम से मुझे सुना, जो कि जीवन को देखने का अलग ही,
अनूठा ही ढंग है, अगर तुमने प्रेम से मुझे सुना, तो तुम मेरे सारे विरोधों में एक ही संगीत को प्रवाहित होते हुए देखोगे। नदियां चाहे पूरब की तरफ जा रही हों, चाहे पश्चिम की तरफ, सब सागर की तरफ जा रही हैं।
कुछ नजर आता नहीं उसके तसब्यूर के सिवा
हसरते—दीदार ने आंखों को अंधा कर दिया
प्रेम के लिए जो आंख है, बुद्धि के लिए वही अंधापन मालूम होता है। इसलिए बूद्धिमान सदा प्रेम को अंधा कहते रहे हैं। तुम प्रेमी से पूछो। प्रेमी बुद्धिमानों को अंधा मानता है। क्योंकि प्रेमी कुछ ऐसा देख लेता है, जो बुद्धि देख ही नहीं पाती।
कल एक युवा संन्यासी ने मुझसे पूछा कि जब से ध्यान कर रहा हूं, तब से कुछ ऐसी चीजें दिखायी पड़ती हैं, अनुभव आती हैं, कि मुझे डर लगता है कि कहीं मैंने कल्पना तो नहीं कर ली। फूल ज्यादा रंगीन दिखायी पड़ते हैं, कहीं मैं कल्पना तो नहीं कर रहा हूं? वृक्ष ज्यादा हरे मालूम पड़ते हैं, ताजे और नहाए मालूम पड़ते हैं, कहीं मैं कल्पना तो नहीं कर रहा हूं? क्योंकि वृक्ष तो ये वही हैं, न इन्होंने कोई स्नान किया है, न कोई ताजगी आ गयी है।
उस युवक की चिंता स्वाभाविक है। भीतर मन साफ हो रहा है, तो बाहर भी चीजें साफ होने लगीं। मैंने कहा, घबड़ाना मत। अगर डर गए और ऐसा सोच लिया और मान ली बुद्धि की बात कि यह तो कल्पना का जाल है, तुमने सपने देखने शुरू कर दिए, तो जो द्वार खुलता था, जो पर्दा हटता था, रुक जाएगा।
यह तो बुद्धि ने सदा ही कहा है। एक कवि को फूल में उतना दिखायी पड़ता है जितना किसी को दिखायी नहीं पड़ता। एक छोटे बच्चे को सागर के तट पर कंकड़—पत्थर में, सीपी—शंख में इतना दिखायी पड़ता है जितना किसी को दिखायी नहीं पड़ता। कंकड़—पत्थर भर लेता है खीसे में, जो भी रंगीन मिला। मां—बाप कहे चले जाते हैं कि फेंको र बोझ हुआ जा रहा है, यह घर ले जाकर क्या करोगे? बच्चा छोड़ता भी है, तो भी आंख में आंसू आ जाते है।
ये जो बड़े—बूढ़े हैं, इनको अगर हीरे—जवाहरात होते तो ये भी भर लेते। अभी इनको यह पता ही नहीं रहा, ये भूल ही गए भाषा कि इस बच्चे को अभी कंकड़—पत्थरों में भी हीरे दिखायी पड़ते हैं। अभी हर रंगीन पत्थर कोहिनूर है। अभी इसकी आंखें धुधली नहीं पड़ी, अभी साफ हैं। अभी इसे सीपी—शंख में खजाने दिखायी पड़ते हैं। अभी इसकी बुद्धि मंद नहीं हुई। अभी प्रतिभा ताजी—ताजी है, अभी—अभी परमात्मा के घर से आया है। अभी नजर साफ है। अभी धूल नहीं जमी। अभी अनुभव का कचरा इकट्ठा नहीं हुआ।
लेकिन जल्दी ही बड़े—बूढ़े इसे समझा देंगे कि ये कंकड़—पत्थर हैं, छोड़ो। और दूसरे कंकड़—पत्थरों की दौड़ पर लगा देंगे, जिनमें उनको मूल्य दिखायी पड़ता है। जब तुम फिर से प्रेम में पड़ते हो, तो फिर तुम्हें बच्चे की आंख मिलती है। जब तुम प्रेम में पड़ते हो, तो तुम्हें कवि की आंख उपलब्ध होती है। तुम्हें रहस्यवादी संत की आंख उपलब्ध होती है।
तो अगर तुम मेरे प्रेम में हो, तौ ही मेरे पास भी हो, ध्यान रखना। अन्यथा पास आकर भी कोई पास आ पाता है? शारीरिक निकटता किसी को पास थोड़े ही लाती है। एक आत्मिक निकटता। फिर तुम हजारों मील दूर भी रहो, तो भी पास हो। विचार बीच में न हों, तो तुम पास हो। विचार बीच में हों, तो तुम पास होकर भी दूर हो। और विचार बीच में न हों, तो प्रेम बहता है। विचार पत्थर की तरह रोके हुए है प्रेम को। जहां प्रेम बहता है, वहां तुम्हें कुछ चीजें दिखायी पड़ेगी जो प्रेम से खाली आंखों को दिखायी नहीं पड़ेगी। और प्रेम से खाली आंखें तुम्हें अंधा कहेंगी। तुम उससे बेचैन मत होना। उनके लिए यह वक्तव्य स्वाभाविक है। बुद्धिमान तुम्हें पागल कहेंगे। सदा से उन्होंने कहा है।
जब बुद्ध के पास लोग आकर हजारों की संख्या में संन्यस्त होने लगे, तो लोगों ने कहा, पागल हो गए, इस आदमी ने लोगों को पागल किया यिंह क्या है? सम्मोहित हो गए। जब महावीर के पास आकर लोग संन्यस्त हुए, और उन्होंने जीवन का नया ढंग लिया, नयी चाल सीखी, तो लोगों ने फिर कहा कि पागल हुए। यह संसार सदा से ही जो भीड़ का रास्ता है उससे अन्यथा जाने वालों को पागल कहता रहा है।
अगर तुममें हिम्मत हो मेरे साथ चलने की, तो तुम्हें यह भी हिम्मत जुटानी पड़ेगी कि लोग जब पागल कहें, तो हंस लेना। और जब लोग पागल कहें, तो क्रोध मत करना। स्वाभाविक है। वे तुम्हें पागल नहीं कह रहे हैं, वे यह कह रहे हैं कि अगर तुम ठीक हो तो फिर हम पागल हैं? क्या वे सिर्फ आत्मरक्षा कर रहे हैं! तुम उन पर नाराज मत होना। अगर तुम नाराज हुए, तो तुम उनके विचार को मजबूत कर ' कि निश्चित ही तुम पागल हो गए हो। तुम नाराज मत होना। तुम हंसना, तुम डुन्हें बिबूचन में डाल देना। तुम मुस्कुराना। तुम कहना कि ठीक कहते हो, पागल हो गए हैं, लेकिन पहले से भले हो गए हैं। और पहले से ज्यादा मजे में हो गए हैं। मगर पागल हो गए हैं, यह सच है।
तुम्हारे पागलपन को उनके प्रति करुणा बनने देना। क्योंकि वे परेशान हैं अपने क्षोगलपन —से। वे भी चाहते हैं कि छूट निकलें, कहीं कोई द्वार—दरवाजा मिले। वे क्रारागृह में बंद हैं। अगर तुम्हें आनंदित देखा, शांत  देखा, तो तुम उन्हें भी खींच खलाओगे। अगर तुम क्रोधित हुए, अगर तुम अपनी आत्मरक्षा करने लगे, तुमने कहा कि मैं पागल नहीं, अगर तुम विवाद में पड़े, तो तुम उनके लिए द्वार बंद कर दोगे। यही तो वे चाहते थे कि तुम विवाद में उतर आओ।
तुम मुस्कुराना। तुम उन्हें आशीर्वाद दे देना। उनके लिए परमात्मा से प्रार्थना करना। एक फूल उनको भेंट कर आना, और लौट आना। तुम कोई विवाद मत करना। तो तुम उनके लिए भी रास्ता खुला रखोगे। आज नहीं कल वे भी आ सकते हैं। उनकी भी संभावना उतनी ही महान है, जितनी तुम्हारी है।
'समय—समय पर आपसे कई भिन्न—भिन्न वक्तव्य, परस्पर विरोधी वक्तव्य सुने हैं, लेकिन उनके संबंध में कहीं कोई प्रश्न मेरे मन में नहीं उठा। और उनके बावजूद आप मेरी दृष्टि में और हृदय में सदा—सर्वदा एक और अखंड बने रहे।
उन विरोधी वक्तव्यों के बावजूद अगर तुम्हारे हृदय में बना रहा, तो ही बने रहने में कुछ सार है। अगर मै तुम्हें तर्कयुक्त लग? तुम्हारे बंधे—बंधाए तर्क की सीमा में बंधा हुआ लग? फिर तुम मुझसे राजी हो जाओ, तो वह दोस्ती कुछ बहुत गहरी नहीं। वह केवल विचार का नाता है। वह नाता कभी भी टूट सकता है। मेरे विचार बदल जाएं, या तुम्हारे बदल जाएं, वह टूट जाएगा। और विचार तो रोज बदलते रहते हैं। विचार का कोई भरोसा! विचार पर भरोसा तो ऐसे है, जैसे किसी ने सागर की लहरों पर भवन बनाने की आकांक्षा की। विचार तो बड़े चंचल हैं।
मन तो मौसम सा चंचल है
सबका होकर भी न किसी का
अभी सुबह का, अभी शाम का
अभी रुदन का, अभी हंसी का
मन तो मौसम सा चंचल है
मन के सहारे अगर तुम मेरे साथ रहे, तो ज्यादा देर चलना न होगा। यह दोस्ती थोड़ी देर की रहेगी। रास्ते पर दो राहगीर मिल गए, फिर मेरा रास्ता अलग हो गया, फिर तुम्हारा रास्ता अलग हो गया। मिले, थोड़ी दूर को साथ चल लिए, फिर बिछुड़ गए। प्रेम ऐसी कुछ बुनियाद है कि शाश्वत हो सकता है। मृत्यु भी उसे मिटाती नहीं। जीवन तो उसे डगमगा ही नहीं सकता, मौत भी उसे नहीं डगमगा पाती।
बुद्ध की मृत्यु करीब आयी। उन्होंने घोषणा कर दी कि आज वे विदा हो जाएंगे शरीर से। आनंद बहुत रोने—चीखने लगा। लेकिन वह चकित हुआ कि बुद्ध का एक जो दूसरा शिष्य—सुभूति—एक वृक्ष के नीचे शांत  बैठा है। आनंद ने उससे कहा, तुम्हें एक खबर नहीं मिली? किसी ने बताया नहीं? भगवान आज देह छोड़ देंगे! तुम रो नहीं रहे! तुम होश में हो? तुम्हारी आंखें गीली नहीं! फिर कभी मिलन न होगा, फिर कभी उनके ये सदवचन सुनने को न मिलेंगे! फिर कौन सिखाएगा यह सदधर्म? शास्ता खोया जाता है।
सुभूति ने कहा, जिस शास्ता से मेरा संबंध है, उसके खोने का कोई उपाय नहीं। जिससे मेरा संबंध है, उसकी मौत नहीं हो सकती। वह फिकर मैंने पहले ही कर ली है, आनंद। तूने कुछ गलत से संबंध बना लिया। विचार से मेरा कुछ लेना—देना नहीं। मेरा संबंध गहरा है विचार से। हम साथ ही हैं। अब हम अलग नहीं हो सकते। अलग होने का कोई उपाय नहीं।
आनंद ने बुद्ध को आकर कहा। बुद्ध ने कहा, सुभूति ठीक कहता है, आनंद।
आनंद ने कहा, मै चालीस वर्ष आपके पास रहा और मै आपके पास न हो पाया, क्या बाधा है? तो बुद्ध ने कहा, तू ज्यादा सोच—विचार करता है। तेरा मुझसे संबंध विचार का है। तू अभी भी ध्यान में मुझसे न जुड़ा।
यह ध्यान बुद्ध का शब्द है प्रेम के लिए। कहो ध्यान कहो प्रेम।
मेरे सारे विरोधी वक्तव्यों के बावजूद ही अगर तुम मेरे साथ हो, तो ही मेरे साथ हो। इसलिए मै तुम से यह भी कह दूं कि मेरे इतने विरोधी वक्तव्यों के पीछे बहुत—बहुत कारण हैं। उनमें एक यह भी है कि जो इनके बावजूद मेरे पास होंगे, उनको ही मैं चाहूंगा कि मेरे पास हों। जो इनके कारण हट जाएंगे, उनकी बड़ी कृपा! उनके पास होने का कोई मूल्य न था। भीड़ बढ़ाने से तो कोई प्रयोजन नहीं। वे समय ही खोते, अपना भी, मेरा भी। वे जगह ही भरते, अच्छा हुआ हट गए।
दो तरह के लोग हैं। सभी जीवन की घटनाएं दो हिस्सों में बंटी होती है। मेरे करीब हजारों आने वाले लोगों में जब पुरुष मेरे पास आते हैं, तो वे कहते हैं, आपके विचार हमें अच्छे लगते हैं, इसलिए आपसे नाता बनाते हैं। स्त्रिया जब मेरे पास आती हैं, वे कहती हैं, आप हमें अच्छे लगते हैं, इसलिए आपके विचार भी अच्छे लूगते हैं। और ऐसा स्त्री—पुरुष का विभाजन बहुत साफ—सुथरा नहीं है। बहुत से पुरुष हैं जो स्त्रियों जैसे हृदयवान हैं। बहुत सी स्त्रियां हैं जो पुरुषों जैसी बुद्धिमान हैं। बुद्धि कहती है, विचार अच्छे लगते, इससे आपसे लगाव है। हृदय कहता है, आपसे लगाव है, इसलिए विचार भी अच्छे लगते हैं।
अब थोड़ा सोचो जो विचार के कारण मुझसे लगाव बनाया है, कल अगर विचार ठीक न लगे! और ऐसे मैं हजारों मौके लाता हूं जब विचार ठीक नहीं लगते।
मेरे पास बहुत से गांधीवादी लोग थे। फिर मैंने उनसे छुटकारा चाहा। गांधी से कुछ लेना—देना न था। लेकिन गांधीवादियों के कारण गाधी के विपरीत बोला। वे भाग गए। जो उसमें से बच गए, उन्होंने सबूत दिया कि उनका नाता मुझसे है। मेरे पास, जब मैं गांधी के विपरीत बोला, तो सारे मुल्क के समाजवादी, साम्यवादी, उनकी भीड़ बढ़ने लगी। कम्मुनिस्ट, जो मुझे कभी सुनने न आए थे, वे आने लगे। फिर जब मैं समाजवाद के खिलाफ बोला, वे भाग गए। उसमें से कुछ रुक गए। जो रुक गए, वही मूल्यवान थे। निरंतर मैं यह करता रहा हूं, निरंतर मैं यह करता रहूंगा।
मैं चाहता हूं कि तुम मेरे कारण ही मेरे पास होओ। कोई और इतर कारण नहीं है, यह संबंध सीधा है, तो ही तुम्हारा यहां होना उचित है। अन्यथा तुम किसी और की जगह घेर रहे हो, खाली करो। कोई और वहां होगा, कोई और लाभ ले लेगा। तुम द्वार पर भीड़ मत करो।
शुभ है कि मेरे सारे विरोधी वक्तव्यों के बावजूद तुम यहां हो। इसे भूलना मत। इसे सतत स्मरण रखना। क्योंकि कभी—कभी ऐसा होता है—इसे भी तुम समझ लो—कि मैं गाधी के खिलाफ बोला, तुम गांधीवादी थे ही नहीं, इसलिए तुम्हें कोई अड़चन न हुई, और तुमने सोचा कि हमारा तो प्रेम का नाता है। मैं समाजवाद के खिलाफ बोला, तुम समाजवादी कभी थे ही नहीं, तुमने कहा, हमें इन विरोधी वक्तव्यों से कुछ नहीं लेना, हमारा तो प्रेम का नाता है।
थोड़ी प्रतीक्षा करो, कहीं न कहीं से मैं तुम्हारी जड़ पकड़ ही लूंगा। तुम ज्यादा देर न बच पाओगे। कहीं न कहीं से मैं तुम्हारे मत, तुम्हारे शास्त्र पर हमला करूंगा ही। करना ही पड़ेगा। क्योंकि जब तक मैं तुम्हें तुम्हारे शास्त्र से मुक। न करूं, तब तक मै तुम्हें तुम्हारी बुद्धि से मुक्त न कर पाऊंगा। जब तक तुम तुम्हारी बुद्धि से मुक्त न होओ, तब तक अहंकार के नीचे से आधार न हटेगा। तुम्हारा भवन गिर न सकेगा।
तो मै खोजे चला जाता हूं। मेरे साथ आखिरी में जो बच रहेगा—सभी शझावातों को सहकर, सभी आधियों को सहकर—वह परीक्षा में पूरा उतरा। अगर तुम्हें होश हो, तो कोई कारण नहीं है कि तुम भी परीक्षा में क्यों न पूरे उतर जाओ। लेकिन जब तुम्हारे मत पर चोट पड़ती है, तब होश खो जाता है। तब आदमी बेचैन हो जाता है। क्योंकि यह मानना कि तुम कोई गलत चीज मानते थे बड़ा मुश्किल होता है। तुम! इतने बुद्धिमान और किसी गलत चीज को मानते थे! तुम्हें अपनी बूद्धिमानी पर शक नहीं आता।
और धार्मिक व्यक्ति का वह बुनियादी लक्षण है। जिस बुद्धि को अपने पर शक आ गया, वह धार्मिक हो गयी। क्योंकि जिसे अपने पर संदेह आया, उसने ही अपने को बदला। संदेह ही न, तो बदलोगे क्यों? जिसने पहचाना कि मैं रुग्ण हूं, वही चिकित्सा की खोज में चला, औषधि की तलाश की।


दूसरा प्रश्न

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एरिक काम ने कहा है कि मनुष्य के मन में झांककर देखने के बाद मुझे आश्चर्य होता है कि मनुष्य समाज में मैत्री, प्रेम और दया—दान के कृत्य भी होते हैं। कृपापूर्वक बताएं कि मनुष्य की वृत्तियों में कौन ज्यादा बुनियादी और बली है—प्रेम या घृणा, हिंसा या अहिंसा, सुख या दुख?


इस तरह सोचना कि कौन ज्यादा बलवान है, प्रथम से ही गलत प्रश्न उठा लेना है। और अगर गलत प्रश्न पूछ लिया, तो फिर उत्तर गलत होते चले जाते हैं।
कहते हैं, अच्छे होटलों में बैरा यह नहीं पूछता कि आप चाय लेंगे या नहीं?
बैरा पूछता है, आप चाय लेंगे या काफी? फर्क समझे आप? अगर बैरा पूछे, आप चाय लेंगे या नहीं, तो पचास मौके नहीं के हैं, पचास मौके चाय के हैं। बैरा पूछता है, आप चाय लेंगे या काफी? तो पचास मौके चाय के हैं, पचास मौके काफी के हैं। आपको छूटने का मौका नहीं दे रहा है। आपको नहीं कहने का अवसर नहीं दे रहा है।
इसलिए पश्चिम में तो विक्रेताओं को प्रशिक्षित किया जाता है कि ग्राहक से कैसी बात करनी, क्या कहना! क्योंकि तुम्हारे कहने पर उसका उत्तर निर्भर करेगा। अगर तुम खुद ही पचास परसेंट न कहने का अवसर दे रहे हो, तो तुम काहे के विक्रेता? तुमने आधी दुकान तो बरबाद कर दी। आधा काम—धंधा तो तुमने खराब ही कर लिया। यह तुमने गलत जगह से पूछ लिया। नहीं, ऐसा पूछना ठीक नहीं।
मनुष्य जाति बहुत से ऐसे प्रश्नों से पीड़ित रही है जो गलत जगह से पूछे गए। बस एक दफा पूछ लिया कि झंझट खड़ी हो जाती है। और—हमारी आदतें सिखाने की, हमें सिखाया गया है ही और न की आदतें। अंधेरा और उजेला, रात और दिन, मौत और जिंदगी, हम दो हिस्सों में बांटकर देखते हैं।
जिंदगी दो हिस्से में बंटी नहीं है। जिंदगी तो सतरंगी है। इंद्रधनुष जैसी है। तुम पूछो, इंद्रधनुष सफेद कि काला? तो क्या कहें? इंद्रधनुष न काला, न सफेद। इंद्रधनुष सतरंगी है। तुम्हारे काले—सफेद में प्रश्न बनता ही नहीं।
यह तो ऐसा ही है जैसा कोई आदमी तुमसे पूछे, कि हा और न में जवाब दे दें—अपनी पत्नी को अब भी पीटते हैं या नहीं? अगर कहो हौ, तो उसका मतलब हुआ अभी भी पीटते हैं। अगर कहो नहीं, तो उसका मतलब पहले पीटते थे। उसने छोड़ा ही नहीं अवसर। यह भी हो सकता है कि आप पीटते ही न हों।
प्रश्न पूछा जाता है कि अहिंसा या हिंसा, प्रेम या घृणा, क्रोध या करुणा? यह जूविन को बाटने का गलत ढंग है। जीवन सतरंगा है। हौ और नहीं में बंटा हुआ नहीं है। हा और नहीं के बीच बहुत सी सीढ़ियां हैं। सीढ़ी दर सीढ़ी यहां बहुत मात्राएं हैं। यहां ऐसी भी जगह है, जहां न घृणा, न प्रेम—उपेक्षा। उपेक्षा भी है। और यहां ऐसी भी घड़ियां हैं, जहा घृणा भी और प्रेम भी, दोनों साथ—साथ।
मनस्विद कहते हैं, तुम जिसको प्रेम करते हो उसी को साधारणत: घृणा भी करते हो। इसीलिए तो पति—पत्नियों के इतने झगड़े चलते हैं। जिससे प्रेम, उसी से घृणा। अब तुम उनसे कहो, इतना झगड़ा चलता है तो छोड़ ही क्यों नहीं देते? तुम बात ही गलत कर रहे हो, प्रेम भी है। छोड़ तो सकते ही नहीं। न छोड़ सकते हैं, न साथ रह सकते हैं। पति—पत्नी का संबंध ऐसा संबंध है कि बिना भी नहीं रह सकते और साथ भी नहीं रह सकते। पत्नी दूर चली जाती है तो याद आती है, पास चली आती है तो छुटकारे की कामना पैदा होने लगती है।
अगर तुम जीवन को सीधा—सीधा देखो, लेकिन अगर तुमने गणित से बाँध लिया, तुमने कहा कि बात सीधी—साफ करो, अगर पत्नी से लगाव है, तो ठीक, साथ रहो। अगर लगाव नहीं, तो छोड़ दो, बात खतम करो।
काश, जिंदगी इतनी सीधी—सीधी होती! ऐसा अंधेरे—उजेले की तरह जिंदगी बंटी होती! बंटी नहीं है। जिंदगी बड़ी मिश्रित है।
तुम अगर किसी से पूछो, ठीक—ठीक कहो, प्रेम या घृणा? तो वह भी कहेगा, वह कहेगा, पक्का करना मुश्किल है। कभी घृणा भी होती है, कभी प्रेम भी होता है। सुबह घृणा होती है, शाम प्रेम हो जाता है। खोजने से पता चला है कि प्रेम और घृणा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। बदलते रहते हैं।
इसलिए गलत प्रश्न से शुरुआत हम न करें। जीवन में जहां—जहां अति दिखायी पड़ती हो, वहां समझ लेना कि बीच में सेतु भी होगा। रात भी कहीं दिन से अलग है! मौत कहीं जिंदगी से अलग है! मौत कहीं जिंदगी के बाहर थोड़े ही घटती है, जिंदगी के भीतर ही घटती है। मौत आने के पहले मर थोड़े ही जाते हो, जिंदे ही रहते हो। जब मौत आती है, तुम्हें जिंदा ही पाती है। ऐसा थोड़े ही है कि पहले मर गए, फिर मौत आती है। मौत जिंदगी के भीतर है, बाहर नहीं है। और मौत जिंदगी के विपरीत भी नहीं है। क्योंकि तुम हटते हो, तो किसी के लिए जगह खाली करते हो, कोई और जिंदा हो पाता है। बूढ़ा मरता है, तो बच्चा पैदा हो पाता है। पुराने पत्ते गिर जाते हैं, तो नए पत्ते निकल आते हैं। पुराने पत्ते न गिरे, तो नए पत्ते न निकलेंगे। तुम थोड़ा ऐसा सोचो, तुम्हारे बुजुर्ग अगर न मरते, तो तुम नहीं हो सकते थे।
तुम हो, क्योंकि उनकी बड़ी कृपा थी, वे मर गए। अगर वे बने ही रहते और अड्डा जमाए बैठे रहते, तुम कहां होते? वैतानिक कहते हैं, जहा तुम बैठे हो, वहां कम से कम दस आदमियों की लाशें दबी हैं। हर स्थान पर इतने आदमी हो चुके। तुम थोड़ा सोचो, कोई मरता न, तो जिंदगी मरने से बदतर हो जाती। सब बूढ़े, जरा सोचो तो! कौरव—पांडव से लेकर सब ऋषि—मुनि, सब राक्षस, सब बैठे हैं पृथ्वी पर, तुम भी आ गए! वे गला घोंट देते तुम्हारा। तुम्हारे लिए जगह कहौ थी?
तुम हो सके हो, क्योंकि कोई नहीं हो गया है। किसी के नहीं होने से तुम्हारा होना जुड़ा है। अब अगर तुम बहुत जिद्द करोगे कि मैं सदा ही बना रहूं तो तुम दूसरों के होने में बाधा बन जाओगे। जब तुम्हारा मौका आए तुम हट जाओ, ताकि दूसरे हो सकें। जीवन मौत के साथ—साथ चल रहा है। मौत जीवन का ही उपाय है। मौत जीवन का ही हिस्सा है। एक बार तुम्हें यह समझ में आ जाए कि विरोधी जुड़े हैं, फिर जीवन के संबंध में कई बातें सापा हो सकती हैं।
पूछा है कि 'बुनियादी कौन है? बली कौन है?'
कोई भी नहीं। दोनों साथ—साथ हैं। और अगर छोड़ना हो, तो दोनों ही छोड़ने पड़ते हैं। इसीलिए तो भारत के मनीषियों ने कहा कि अगर तुम्हें मौत से बचना हो तो जीवन का त्याग कर देना होगा। इसको तुम थोड़ा सोचो इस तरह से।
बुद्धपुरुषों ने कहा कि अगर तुम चाहते हो कि मौत से छुटकारा हो जाए, तो जीवन से छुटकारा चाहिए। जब तक तुम जीवन को पकड़ोगे, मौत भी आती ही रहेगी। तुम्हारे जीवन को पकड़ने में ही तुमने मौत को निमंत्रण दे दिया। जीवेषणा मौत को लाएगी। और जीवन और मृत्यु का चाक घूमता रहेगा। तुम जीवन को छोड़ो, मौत अपने से छूट जाती है। तुमने सम्मान चाहा तो अपमान आता ही रहेगा। तुम सम्मान छोड़ो, अपमान अपने से छूट जाता है। तुमने कुछ परिग्रह करना चाहा, तो तुम्हारे जीवन में कभी न कभी खोने का दुख झेलना ही बदा है। तुम खुद ही छोड़ दो, फिर तुमसे कुछ भी छूट नहीं सकता। पकड़ोगे तो छूटेगा। न पकड़ोगे तो छूटने की बात ही समाप्त हो गयी।
इसलिए पूरब की सारी मनीषा एक बात कहती है, अगर तुम चाहते हो कि दुख मिट जाए तो सुख का त्याग कर दो। इसमें विरोध का नियम काम कर रहा है। तुम चाहते हो, सुख तो बच जाए और दुख का त्याग हो जाए। तुंमं असंभव की कामना कर रहे हो। इसका यह अर्थ हुआ, अगर तुम जीवन से घृणा के रोग को छोड़ देना चाहते हो, तो जिसे तुम प्रेम कहते हो उसे भी छोड़ दो। तब तुम्हारे जीवन में एक निष्कलुषता आएगी, जिसमें न तो प्रेम होगा—जिसे तुम प्रेम कहते हो, वह नहीं होगा—जिसे तुम घृणा कहते हो, वह भी नहीं होगी। कुछ नयी ही गंध होगी, कुछ नयी ही बात होगी। तुम्हारी भाषा में कहीं भी न आ सके ऐसी कुछ बात होगी। अनिर्वचनीय कुछ होगा। अव्याख्य कुछ होगा। कुछ नए शब्द खोजने पड़ेंगे।
इसलिए हम बुद्ध को प्रेमी नहीं कह सकते, क्योंकि प्रेम तो बिना घृणा के हो नहीं सकता। इसलिए हमने उनको करुणावान कहा। जरा सा शब्द अलग किया। लेकिन करुणावान भी कहना क्या ठीक है? क्योंकि करुणा भी क्रोध के बिना नहीं हो सकती।
मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि बुद्ध के लिए तुम्हारी भाषा का कोई भी शब्द लाग नहीं हो सकता। क्योंकि जो भी शब्द तुम उपयोग करोगे, उससे विपरीत को भी स्वीकार करना पड़ेगा। तुम बुद्ध को त्यागी नहीं कह सकते, क्योंकि त्यागी वे तभी हो सकते हैं जब भोगी हों। तुम उनको ज्ञानी भी नहीं कह सकते, क्योंकि ज्ञानी वे तभी हो सकते हैं जब अज्ञानी भी हों। तुम उन्हें संन्यासी भी नहीं कह सकते, क्योंकि संन्यासी वे तभी हो सकते हैं जब संसारी भी हों।
फिर क्या कहो? इसलिए शास्त्र कहते हैं, उस संबंध में चुप ही रहा जा सकता है। कुछ कहा नहीं जा सकता। उस संबंध में मौन ही वक्तव्य है।
तो पहली तो यह बात कि दोनों साथ—साथ हैं, बराबर वजन के हैं। न तो घृणा ज्यादा है, न प्रेम ज्यादा है। और दूसरी बात, जीवन के प्रतिपल में स्थिति बदलती रहती है। जब तुम जवान होते हो, तब मोह ज्यादा लगता है। लगता है! वह जवानी का भ्रम है। प्रेम ज्यादा लगता है, वह जवानी का भ्रम है। भोग ज्यादा लगता है, वह जवानी का भ्रम है। फिर तुम्हीं के हो जाओगे और त्याग की भाषा बोलने लगोगे। वह बुढ़ापे का भ्रम है।
इसलिए बूढ़े और जवान में बात बड़ी मुश्किल है, वे अलग—अलग भाषा बोलते हैं। बूढ़ा कहता है, यह सब सपना है जो तुम बातें कर रहे हो। जवान कहता है, ये सब पराजय की बातें तुम्हारा हारा—थकापन है। अब तुम के हो गए, अब मौत करीब आ रही है। तुम मौत से घबड़ गए हो।
बूढ़ा आस्तिक हो जाता है। ईश्वर को मानने लगता है। जवानी नास्तिक है। जवानी अपने सिवा किसी को भी मानना नहीं चाहती। जवान कहता है, बूढ़ा मौत से डर गया है इसलिए ईश्वर को मानने लगा है, भयातुर है। यह भगवान सब भय से पैदा हुए हैं। और बूढ़ा कहता है, यह जवान अभी अंधा है। जवानी अंधी है। और अंधे को सब जगह हरा—हरा सूझता है। यह सब उतर जाएगा नशा। यह सब नशा है। तब अकल आएगी।
मगर मैं तुमसे कहता हूं, न तो जवान को अकल है, न बूढ़े को। अकल का इससे कोई संबंध ही नहीं जवानी और बुढ़ापे से। जब तक तुम अपने भीतर ऐसी जगह न खोज लोगे जो न जवान है न की, तब तक तुम्हारे जीवन में कोई बुद्धि की किरण नहीं हो सकती। जवान जवानी से परेशान है और जवानी की भाषा बोल रहा है। का बुढ़ापे से परेशान है, बुढ़ापे की भाषा बोल रहा है। हालाकि बूढ़े को लगता है, मैं ज्यादा समझदार हूं। जवान को भी यही लगता है कि मैं ज्यादा समझदार हूं।
इसीलिए तो पीढ़ियों के बीच एक दरार पड़ जाती है। बाप बेटे को नहीं समझ पाता, बेटा बाप को नहीं समझ पाता। बाप बिलकुल भूल चुका कि वह भी कभी बेटा था और जवान था और इसी तरह की मूढ़ता की बातें उसने भी की थीं। वह भूल ही जाता है। मूढ़ता की बातें लोग याद ही नहीं रखते। और जवान भी यह भूल जाता है कि यह बाप भी कभी जवान था, फिर बूढ़ा हुआ है। मैं आज जवान हूं कल मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा। इसकी बात को ऐसे ही न ठुकराऊं। यह आज नहीं कल मेरे जीवन में भी आने ही वाली है। इसका ऐसा तिरस्कार न करूं। लेकिन नहीं, जवान भी अंधे, के भी अंधे।
आंख तो उसके पास होती है, जो अपने भीतर उस धारा को खोज लेता है जो समय के बाहर है। न जो जवान है, न जो की है।
कल जिस गुलाब की डाली पर बैठी बुलबुल
गाती थी गीत जवानी का पंचम स्वर में
हूं देख रहा अब उसकी आंखों में आंसू
दब गया गीत उसका पतझर की हर—हर में
जिस पाटल की पलकों की छाया के नीचे
थी लगी हाट मदिरा की, मधुपों का मेला
हैं आज पखुडियां बिखरी उसकी धरती पर
है खड़ा हुआ छाती पर मिट्टी का ढेला
यह तो रोज ही होता रहा है। अभी क्षणभर पहले जो फूल आकाश में इतराता था, क्षणभर बाद मिट्टी में दबा है। अभी क्षणभर पहले जवानी गीत गाती थी, क्षणभर बाद बुढ़ापा रो रहा है।
मन तो रोज बदलता चला जाता है। कभी एक स्वर महत्वपूर्ण मालूम होता है, कभी दूसरा स्वर महत्वपूर्ण मालूम होता है। मन के साथ तो यह धोखा, यह लुका—छिपी चलती ही रहती है। मन का नियम यह है कि मन पूर्ण को नहीं देख सकता।
इसे तुम समझने की कोशिश करो।
मन केवल आधे को देख सकता है। जैसे मैं तुम्हारे हाथमें एक सिक्का दे दूं। सिक्का छोटा सा है। क्या तुम दोनों पहलुओं को एक साथ देख सकोगे? जब तुम सिक्के का एक पहलू देखोगे, दूसरा दब जाएगा। जब दूसरा देखोगे, पहला दब जाएगा। आज तक किसी मनुष्य ने पूरा सिक्का नहीं देखा है 1 तुम सोचते हो कि तुमने देखा, क्योंकि तुम दोनों अलग—अलग देखे पहलुओं को कल्पना में जोड़ लेते हो। अन्यथा तुमने पूरा सिक्का नहीं देखा है। अगर तुम बहुत तर्कयुका होओ, तो तुम दूसरे सिक्के के संबंध में, दूसरे पहलू के संबंध में कुछ भी नहीं कह सकते। मैंने सुना है, एक बहुत बड़ा विचारक विट्गिस्टीन ट्रेन से यात्रा कर रहा था। बड़ा तर्कयुक्त मनुष्य था। पास ही एक मित्र बैठा था, खिड़की से उन्होंने झाककर देखा, सर्दी की सुबह, धूप निकली है, और एक खेत में बहुत सी भेड़ें खड़ी हैं। उनके बाल अभी—अभी कांटे गए हैं। वे सर्दी में थरथरा रही हैं। धूप में एक—दूसरे से सिकुड़ी खड़ी हैं।
मित्र ने विट्गिस्टीन को कहा, देखते हैं, मालूम होता है भेड़ों के बाल अभी—अभी कांटे गए हैं। ठंड पड़ रही है और भेड़ें ठंड में सिकुड़ रही हैं। विट्गिस्टीन ने गौर से देखा और कहा, जहा तक इस तरफ दिखायी पड़ने वाले हिस्से का सवाल है, जरूर बाल कांटे गए हैं, उस तरफ की मैं नहीं जानता। भेड़ को पूरा तो कोई देख नहीं रहा, उस तरफ का क्या पता? इस तरफ से भेड़ें ठिठुर रही हैं ठंड में, यह पक्का है। उस तरफ की मैं कुछ भी नहीं कह सकता।
मन एक चीज के एक ही पहलू को देख पाता है एक बार में। जवानी में एक पहलू देखता है, बुढ़ापे तक जब तक सिक्का उलटता है, दूसरा पहलू देख पाता है। तो जवानी में कहता है, यह महत्वपूर्ण है। बुढ़ापे में कहने लगता है, कुछ और महत्वपूर्ण है। जवानी में राग—रग महत्वपूर्ण था, बुढ़ापे में त्याग की भाषा महत्वपूर्ण हो जाती है। जवानी में मदिरालय जाता था, बुढ़ापे में मस्जिद जाने लगता है। जवानी में रस, राग, वैभव, विलास बुढ़ापे में संन्यास की बातें, त्याग, विराग—सारी भाषा बदल जाती है। पर होता कुल इतना ही है कि सिक्के का दूसरा पहलू सामने आता है।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि सिक्के के किसी भी पहलू को जरूरत से ज्यादा मूल्य मत दे देना। दूसरा भी उतना ही मूल्यवान है। दोनों बराबर मूल्य के हैं। और अगर एक साथ तुमने दोनों का बराबर मूल्य औक लिया, दोनों तुल गए तराजू पर बराबर, तो तुम दोनों से मुक्त हो जाओगे।
उस व्यक्ति को ही मैं सम्यक—ज्ञान को उपलब्ध कहता हूं, जिसने मन के सारे विरोधों को साथ रखकर देख लिया। और जिसने चुनाव करना बंद कर दिया। और जिसने कहा, यह पूरा मन ही लुका—छिपी है। एक सामने आता है, दूसरा छिप जाता है। फिर हम धोखे में पड़ जाते हैं।
जो धोखे में नहीं पड़ता, जो दोनों को देखकर, दोनों के विरोध को देखकर, दोनों का अनिवार्य सत्संग देखकर दोनों से छुटकारा पा लेता है. द्वंद्व से जो मुक्त हो जाता है, द्वैत से, दुई से जो मुक्त हो जाता है, वही परम शाश्वतता में ठहरता है। वही स्वभाव को उपलब्ध होता है।


आखिरी प्रश्न:

भगवान होने का आनंद अगर लेना हो, तो इसी क्षण भगवान होकर लो; क्या यही आपकी देशना है?

कल भ्रांति है। आज ही सत्य है। आने वाला क्षण भी आएगा या नहीं, कोई भी कह नहीं सकता। जो आ गया है, बस वही आ गया है।
तो कल पर छोड़ कैसे सकते हो? कल है कहौ?
कल रात यूरोप से एक युवक आया और संन्यस्त हुआ। मैंने उससे पूछा, कब तक रुकोगे? उसने कहा, कल तक रुका हूं। तो मैंने कहा, फिर तुम कभी जा न सकोगे, क्योंकि कल तो कभी आता नहीं। वह थोड़ा घबड़ाया। अगर कल तक रुके हो, तो सदा के लिए रुकना पड़ेगा। क्योंकि कल जब आएगा तो आज हो जाता है। आज होकर ही कुछ आता है।
समय का स्वभाव आज है, अभी है। कल तो मन की कल्पना है। कल तो मन का फैलाव है। कल तो आज से बचने का उपाय है।
तो अगर तुम कहते हो कि कल लेंगे भगवान होने का आनंद, तो तुम कभी न ले पाओगे। भगवान तो अभी है, यहीं है। सब साज—सामान तैयार है। तुम गाना कल पर क्यों छोड़ रहे हो? वीणा सामने रखी है, अंगुलिया वीणा पर पड़ी हैं, तुम तार छेड़ना कल पर क्यों छोड़ रहे हो? क्या तुम्हें पक्का है? यह हो सकता है वीणा कल भी हो, तुम न हो।
कल पर छोड़ने की आदत संसार में खतरनाक से खतरनाक आदत है। आज ही जी लो। लेकिन तुम्हें सदा यही सिखाया गया है, कल पर छोड़ो। क्योंकि तुम्हें यह सिखाया गया है, हर चीज की तैयारी करनी होगी। तैयारी के लिए कल की जरूरत है। आज कैसे भोगोगे? सितार बजानी है? तो पहले सीखनी भी तो पड़ेगी। सीखने के लिए कल तक ठहरना पड़ेगा। गीत गाना है? तो कंठ को साधना भी तो पड़ेगा। आवाज को व्यवस्था तो देनी होगी। तो कल की जरूरत पड़ेगी।
मगर मैं तुमसे कहता हूं, भगवान को भोगने के लिए कुछ भी तैयारी की जरूरत नहीं है। जो बिना तैयारी उपलब्ध है, वही भगवान है। जो तैयारी से मिलता है, उसका नाम ही संसार है। तुम्हें बड़ी उलटी लगेगी मेरी बात।
मैं तुमसे फिर कहूं, जो साधना से मिलता है, उसकॉ नॉम संसार है। जो मिला ही हुआ है, उसका नाम भगवान है। संसार के लिए कल की जरूरत है, समय की जरूरत है, भगवान के लिए कोई जरूरत नहीं। यह गीत कुछ ऐसा है कि कंठ को साधना नही, बस गाना है। यह स्वर कुछ ऐसा है कि कोई प्रशिक्षण नहीं लेना है। ऐसा ही है जैसे कि मोर नाचता है—बिना किसी प्रशिक्षण के, बिना किसी नृत्यशाला में गए। पक्षी गीत गा रहे हैं—बिना कंठ को साधे। तुम जैसे हो भगवान वैसे ही प्रगट होने को तैयार है। तुम जैसे हो वैसा ही भगवान ने तुम्हें स्वीकारा है। कल मैं एक गीत पढ़ता था, मुझे प्रीतिकर लगा—
यह बाविकार मुकक्किर, यह फलसफी शायर
बहुत बुलंद फिजाओं में फड़फड़ाते हैं
चयन के फूल, हवा का खिराम, गुल की चटक
हर एक जिंदा मसर्रत से खौफ खाते हैं
कभी खुदा न करे मुस्कुराए भी ये बुजुर्ग
तो किस कबींद मतानत से मुस्कुराते हैं
रवाबे—जीस्त के आतिश—मिजाज तारों पर
गिलाफ बफैजदा फिक्र के चढ़ाते हैं
है मर्गे—फिक्र वह मुर्दा बुलंद परवाजी
कि जिससे जीस्त के आसाब ऐंठ जाते हैं
दार्शनिक, पंडित, पुरोहित, विचारक, शास्त्रज्ञ बड़ी ऊंची हवाओं की बातें करते है, बड़े ऊंचे आसमानों की बातें करते हैं। लेकिन वे बातें हैं। उन आसमानों में कभी उड़ते नहीं। जिंदगी उनकी जमीन पर सरकती हुई पाओगे। बातें आकाशों की। वे सिर्फ सपने है। और
चमन के फूल, हवा का खिराम, गुल की चटक
हर एक जिंदा मसर्रत से खौफ खाते हैं
और तुम सदा पाओगे कि जहा भी कोई जिंदा सुख हो उससे वे घबड़ाते है। मरे—मराए सुखों की बातें करते हैं। या, कभी होने वाले सुखों की बातें करते हैं। किन्हीं स्वर्गों की जो होंगे। किन्हीं स्वर्गों की, जो कभी थे।
चमन के फूल, हवा का खिराम, गुल की चटक
हर एक जिंदा मसर्रत से खौफ खाते हैं
और जहां भी जिंदगी की खुशी दिखायी पड़ती है, कहीं कोई जिंदा सुख मालूम पड़ता है, उससे घबड़ाते हैं।
मै तुमसे कहता हूं? जो जिंदा सुख से घबडाए वह भगवान का दुश्मन है। क्योंकि फूल उसी के हैं। हवा की लहरें उसी की हैं। पक्षियों के गीत उसी के है। यह जो नाच चल रहा है चारों तरफ, यह जो जीवन का उत्सव चल रहा है चारों तरफ, यह उसी का है। इससे जो घबड़ाया, इससे जो शरमाया, इससे जो बचा, वह आदमी मुर्दा है। उसका भगवान भी मुर्दा होगा। जिंदा भगवान तो यहां है। मुर्दा भगवान कहीं और, सात आसमानों के पार।
कभी खुदा न करे मुस्कुराए भी ये बुजुर्ग
तो किस कबींद मतानत से मुस्कुराते हैं
और ऐसे लोग हंसते तो हैं ही नहीं। और भगवान न करे कि कभी वे हंसें भी! क्योंकि वे हंसते हैं तो उनकी हंसी में भी ऐसी घबड़ाहट, ऐसी गंभीरता, ऐसी निंदा! उनकी हसी में भी हंसी नहीं होती, उनकी हंसी में भी लाश की सड़ांध होती है।
रवाबे—जीस्त के आतिश—मिजाज तारों पर
ये पंक्तियां बड़ी प्यारी हैं। जिंदगी के स्वर बड़े गर्म गर्म हैं। जिदा हैं तो गर्म हैं। रवाबे—जीस्त के आतिश—मिजाज तारों पर
और यह जिंदगी का बाजा है, जिंदगी का साज है। इसके गर्म—गर्म तार है। तैयार हैं कि छेड़ो अभी। नियंत्रण है, बुलावा है कि नाचो अभी गाओ अभी।
रवाबे—जीस्त के आतिश —मिजाज तारों पर
हीलाफ बर्फजदा फिक्र के चढ़ाते हैं
और ये जो पंडित हैं, पुरोहित हैं, मौलवी हैं, ये इन गर्म—गर्म जिंदगी की वीणा के तारों पर फिक्र और चिंता की बर्फ चढाते है। ठंडा कर देते हैं। मार डातो हैं।
है मर्गे—फिक्र वह मुर्दा बुलंद परवाजी
और ये बातचीते और ये विचारों की उड़ाने सब मरी हुई हैं।
कि जिससे जीस्त के आसाब ऐंठ जाते हैं
जिससे जिंदगी ऐंठ जाती है। जीवन के अंग ऐंठ जाते हैं। ये सब बातें हैं। जिंदगी के विपरीत हैं। मौत की पक्षपाती हैं।
तुमने जिन्हें अब तक धर्मों की तरह जाना है—बुद्धों को छोड़ दो, महावीरों, कृष्णों को छोड़ दो, उनके धर्म से तुम्हारी कोई पहचान नहीं, उनका तो धर्म यही है कि भगवान अभी हो जाओ उनका तो सभी का संदेश यही है कि वर्तमान के अतिरिक्त और कोई समय नहीं है, उन्होंने तो सभी ने कहा है कि इसी क्षण को तुम शाश्वत बना लो, इसी में डूब जाओ—लेकिन उनके नाम पर पंडितों—पुरोहितों ने जो संप्रदाय खड़े किए हैं, वे सब तुम्हें कल की तैयारी कहते हैं। वे कहते हैं, आज छोड़ो, कल की तैयारी करो। उनकी वजह से ही तुम उदास हो, उनकी वजह से ही तुम्हारी जिंदगी के अंग ऐंठ गए हैं। उनकी वजह से तुम कुछ भी उत्सव नहीं मना पाते।
गुरजिएफ कहता था कि सभी धर्म भगवान के खिलाफ हैं। बड़ा कठिन वक्तव्य है। क्योंकि हमें तो लगता है, धर्म तो भगवान के पक्षपाती हैं। गुरजिएफ कहता है, सभी धर्म भगवान के खिलाफ हैं। मैं भी कहता हूं।
धार्मिक व्यक्ति भगवान के खिलाफ नहीं होता। धर्म सभी भगवान के खिलाफ हैं। धार्मिक व्यक्ति तो कभी—कभार होता है। जो धर्मों की जमींतें हैं, वे परमात्मा के विपरीत हैं। तुम्हारे महात्मा सभी परमात्मा के विपरीत हैं। महात्मा तुम्हें जिंदगी को छोड़ना सिखाते हैं, और परमात्मा ने तुम्हें जिंदगी दी है। और महात्मा कहते हैं छोड़ो, और परमात्मा कहता है भोगो, जीवन परम भोग है।
अगर तुमने मेरी बातों को ठीक से समझा, तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम अपने परमात्मा को अपने जीवन की ऊंचाई बनाओ। तुम अपने परमात्मा को अपने जीवन के विपरीत मत रखो अन्यथा तुम अड़चन में पड़ोगे। न तुम जिंदगी के हो पाओगे, न परमात्मा के हो पाओगे। तुम दो नावों में सवार हो जाओगे, जो विपरीत जा रही हैं। तुम परमात्मा को जीवन का स्वर समझो, और तुम जीवन के प्रतिपल को प्रार्थना बनाओ। तुम जीवन को इस ढंग से जीओ कि वह धार्मिक हो जाए। धर्म के लिए जीवन में अलग से खंड मत खोजो। धर्म को पूरे जीवन पर फैल जाने दो।
लेकिन दुखी लोग हैं, जो दुख को पकड़ते हैं। वे जीवन में सब तरह के दुख का आयोजन करते हैं। पहले धन के नाम पर दुखी होते हैं, पद के नाम पर दुखी होते हैं, फिर किसी तरह इनसे छुटकारा होता है तो भगवान के नाम पर दुखी होते हैं। लेकिन दुख की आदत उनकी छूटती नहीं।
तुझको मस्जिद है मुझको मयखाना
वाइजा, अपनी—अपनी किस्मत है
कुछ हैं जो जिंदगी को मधुशाला बना लेते हैं। जिनकी जिंदगी एक उत्सव होती है, महोत्सव। एक अहर्निश आनंद।
और कुछ हैं जो जिंदगी को मस्जिद बना लेते हैं, चर्च। उदास, मुर्दा। मरघट का हिस्सा मालूम पड़ता है, जीवन का नहीं। अपनी—अपनी किस्मत!
वाइजा, अपनी—अपनी किस्मत है
हे धर्मगुरु, अपनी—अपनी किस्मत है।
तुम धर्मगुरु बनने की चेष्टा में मत पड़ना। तुम धार्मिक होने की फिकर छोड़ो। तुम परमात्मा के उत्सव को अंगीकार करो। जो जीवन में मिला है, उसे इतनी गहराई से भोगो कि उसकी भोग की गहराई में तुम्हें सब जगह से परमात्मा के दर्शन होने लगें। भोजन भी करो तो ऐसे अहोभाव से कि उपनिषद के वचन सत्य हो जाए—अन्न ब्रह्म। सौंदर्य को भी देखो तो इतने अहोभाव से कि सभी सौंदर्य उसी के सौंदर्य की झलक लाने लगें। उठो तो उसमें, बैठो तो उसमें, चलो तो उसमें। जागो तो उसमें सोओ तो उसमें। परमात्मा ही तुम्हारा लिबास हो जाए। वह तुम्हे घेरे रहे। तो ही मैं कहता हूं, तुम धार्मिक हो पाओगे। धार्मिक होना चौबीस घंटे का काम है, इसमें छुट्टी का उपाय नहीं। इसमें रविवार का दिन भी नहीं आता।
ईसाइयों की कहानी है कि परमात्मा ने छह दिन संसार बनाया, सातवें दिन विश्राम किया। अब पश्चिम में यूनियनवादी लोग है, वे इसके खिलाफ हैं, वे कहते हैं, पांच दिन होना चाहिए काम। छह दिन? मुझे लगता है कि यूनियनवादियो ने ही उसको राजी किया होगा पहले भी कि तू छह ही दिन काम कर, सातवें दिन छुट्टी रख, नहीं तो मामला सब खराब हो जाएगा।
जहां तक मेरे देखे, परमात्मा सातों दिन काम कर रहा है—अहर्निश। छुट्टी तो कोई तब चाहता है जब काम दुख होता है। जब काम ही आनंद हो, तो कोई छुट्टी चाहता है? किसी ने कभी प्रेम से छुट्टी चाही है? काम से लोग छुट्टी चाहते है, क्योंकि काम उनका प्रेम नहीं।
तुम परमात्मा से छुट्टी न चाहो। तब तो एक ही उपाय है कि तुम जो करो, वह परमात्मा को ही निवेदित हो, समर्पित हो। तुम जो करो, उसमें ही प्रार्थना की गंध समाविष्ट होने लगे। प्रार्थना की धूप तुम्हारे जीवन को चारों तरफ से घेर ले, सुवासित कर दे। और अगर तुमने किसी भविष्य के परमात्मा के सामने प्रार्थना की तो वह झूठी रहेगी, क्योंकि परमात्मा सदा वर्तमान का है। भविष्य के परमात्मा तुम्हारी ईजादें हैं। धोखे हैं। और अगर तुमने किसी भविष्य के परमात्मा के सामने प्रार्थना की तो उस प्रार्थना में मस्ती न होगी, मस्ती तो केवल अभी हो सकती है।
तेरा ईमान बेहजूर, तेरी नमाज बेसरूर
ऐसी नमाज से गुजर, ऐसे ईमान से गुजर
न तो तुम्हारी प्रार्थना में मस्ती है, न तुम्हारी प्रार्थना में परमात्मा है।
ऐसी नमाज से गुजर, ऐसे ईमान से गुजर
तेरा ईमान बेहजूर, तेरी नमाज बेसरूर
प्रार्थना को मस्ती बनाओ। अच्छा हो मैं ऐसा कहूं, मस्ती को प्रार्थना बनाउगे। नाचो, गाओ। इसी क्षण यह हो सकता है। परमात्मा कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। और कब तक प्रतीक्षा करवाओगे?
निश्चित ही, यही मेरी देशना है कि अगर भगवान को जीना हो, तो अभी। न जीना हो तो साफ कहो कि हम जीना ही नहीं चाहते, कल पर क्यों टालते हो? कम से कम ईमानदार तो रहो। इतना ही कहो कि हमें लेना—देना नहीं। हमें प्रसन्न नहीं होना, हमें आनंदित नहीं होना। हमें दुखी रहना है। होश से दुखी रहो, कम से कम सच्चे तो रहोगे। और जो होश से दुखी है, ज्यादा दिन दुखी नहीं रह सकता। आज नहीं कल पहचानेगा कि मै यह क्या कर रहा हूं? एक महा अवसर मिला था, गंवाए दे रहा हूं। जहां कमल के फूल ही फूल खिल सकते थे वहा कांटे ही कांटे बनाए ले रहा हूं।
नहीं, तुम्हारी तरकीब यह है कि तुम कहते हो, होना तो है प्रसन्न, लेकिन कल। कल के बहाने आज तुम दुखी हो लोगे। तुम कहोगे, आज तो कैसे खुश हो सकते हैं, कल होंगे। आज तो दुख में हैं, सो बिता लेंगे किसी तरह, गुजार लेंगे किसी तरह। लेकिन आज के ही गुजरने से तो कल निकलेगा। अगर आज दुख में गया, तो कल सुखी नहीं हो सकता। इसी दुख से तो आएगा। इसी दुख पर तो बुनियाद पड़ेगी। इसी दुख पर तो कल का मंदिर खड़ा होगा। यही ईंटें तो कल के मंदिर को बनाएंगी, जिनको तुम आज का क्षण कहकर गंवा रहे हो।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, आज ही मंदिर बना लो। मंदिर बना ही है, तुम आज ही प्रार्थना कर लो। कल को कल पर छोड़ो।
जीसस का बहुत प्रसिद्ध वचन है कल कल की चिंता स्वयं कर लेगा। तुम आज जी लो।
धार्मिक व्यक्ति मैं उसी को कहता हूं, जिसने वर्तमान में जीने को ही एकमात्र जीवन बना लिया। फिर उसे परमात्मा को खोजने नहीं जाना पड़ता।
सूफी फकीर अलहिल्लाज मैसूर ने कहा है कि इसमें भी क्या लुक कि हम परमात्मा को खोजने जाएं। ऐसे भी ढंग हैं कि वह खोजता हुआ आता है।
मैं तुम्हें ऐसा ही ढंग दे रहा हूं कि वह तुम्हें खोजता हुआ आए। यह भी कोई मजे की बात है कि तुम खोजते फिरो उसे! खोजोगे भी कहां, उसका कोई पता ठिकाना भी तो नहीं। तुम अगर उत्सव में जीओ, तो वह तुम्हें खोज लेगा। वह उत्सव का संगी—साथी है। वह उत्सव को प्रेम करता है। इसीलिए तो इतने फूल हैं, इतने गीत हैं, इतने चांद—तारे हैं। वह उत्सव का दीवाना है। तुमने उत्सव मनाया कि तुमने पाती लिख दी। तुमने उत्सव मनाया कि तुम्हारी खबर पहुंच गयी। तुम नाचो, नाच की ही गहराई में तुम अचानक पाओगे उसके हाथ तुम्हारे हाथ में आ गए, वह तुम्हारे साथ नाच रहा है। पर नाच में ही पाया जा सकता है। ऐसी उदास, मुर्दा शकलें बनाकर लोग बैठे हैं। परमात्मा भी झिझकता है।
उसके साथ होने का एक ही ढंग है कि तुम नाचो। नाच की ही एक गति, एक भाव— भंगिमा है, जहा तुम तिरोहित हो जाते हो और वह नाचने लगता है। नाच की

ही एक प्रक्रिया है। जैसे सौ डिग्री पर पानी भाप हो जाता है, ऐसी ही सौ डिग्री नृत्य की एक प्रक्रिया है, जहां तुम तिरोहित हो जाते हो। अचानक तुम पाते हो कहां गया मैं, और यह कौन नाचने लगा! यह कौन आ गया।
निश्चित, यही मेरी देशना है। परमात्मा को जीना है, तो अभी। और कोई उपाय नहीं।
तैयारी की जरूरत नहीं है, साज तैयार है। वीणा उत्सुक है कि तुम छेड़ों तार। गीत प्रतीक्षा कर रहा है कि गाओ। परमात्मा कब से बैठा राह देख रहा है कि तुम नाचो तो मैं नाचूं। बहुत देर ऐसे ही हो चुकी, अब और मत प्रतीक्षा करो और कराओ। तुम जरा करके भी तो देखो मैं क्या कह रहा हूं।
तुम्हारी आदतों के विपरीत है, मैं जानता हूं, लेकिन आदतें तो तोड़नी हैं। आदत तो तुम्हारी दुखी और उदास होने की है। आदत लेकिन तोड़नी है। तोड़े ही टूटेगी। टूटते—टूटते ही टूटेगी। और अगर बात समझ में आ जाए तो इसी क्षण छलांग लगाकर तुम आदत के बाहर हो सकते हो।
थोड़ा मौका दौ, इस दृष्टि को भी थोड़ा मौका दो। इस क्षण से ऐसे जीओ जैसे कि परमात्मा साथ है, भीतर है। एक ढंग से तुम जीकर देख लिए हो, कुछ पाया नहीं। इस ढंग को भी एक मौका दो, अवसर दो, ऐसे भी जीकर देखो। मैंने पाया है, और मैं तुमसे कहता हूं? तुम भी पा सकते हो।


आज इतना ही।

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