रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)
ओशो
चौथा प्रवचन
झूठे धर्मों की विदाई--सच्चे धर्म का जन्म
एक मित्र ने पूछा है कि क्या सभी धर्मों के
समन्वय से वास्तविक धर्म का जन्म नहीं हो सकता है? क्या हिंदू, मुसलमान, ईसाई,
जैन, बौद्ध, पारसी,
सिक्ख, और सभी धर्म इकट्ठे हो जाएं और इन सब
धर्मों के बीच कोई समन्वय, कोई सिंथीसिस खोजी जा सके?
तो क्या वह सच्चा धर्म नहीं होगा?
एक छोटी सी कहानी कहूं और फिर इस संबंध में कुछ कहूंगा।
डार्विन का नाम तो सुना ही होगा। डार्विन ने पशुओं-पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों के बाबत सारे जीवन अध्ययन किया था। और उसी अध्ययन से वह इस
नतीजे पर भी पहुंच गया था कि मनुष्य भी पशुओं की ही एक जाति है और पशुओं से ही
विकसित हुई है। उसकी जानकारी इतनी अदभुत थी कीड़े-मकोड़ों, पशुओं
और पक्षियों के संबंध में कि वह किसी भी कीड़े और मकोड़े की जाति बता सकता था,
उसके संबंध में सब कुछ बता सकता था।
कुछ वनस्पतिशास्त्री मित्रों के घर वह एक दफा मेहमान था। उन्हें मजाक
सूझी, उन्होंने पांच-छह छोटे-छोटे कीड़े-पतंगे पकड़ कर उनके
टुकड़े-टुकड़े काट लिए और एक नया कीड़ा बना लिया। पंख हैं दूसरे कीड़े के, धड़ दूसरे कीड़े का, पैर दूसरे कीड़े के, सब टुकड़े अलग-अलग कीड़ों से काट कर एक नया कीड़ा जोड़ कर बना लिया। वे सभी
विशेषज्ञ थे, सभी वैज्ञानिक थे। डार्विन को धोखा देने के लिए
उन्होंने एक नया कीड़ा बना लिया कि जब डार्विन आएगा तो पूछेंगे, यह किस कोटि का कीड़ा है? हो सकता है डार्विन भी धोखे
में आ जाए और कोई कोटि बता दे तो बड़ा मजाक होगा।
डार्विन आया, तो उन्होंने भोजन और विश्राम के बाद उसे वे अपनी
प्रयोगशाला में ले गए और उन्होंने कहा, हमने एक ऐसा कीड़ा
पकड़ा है, जिसकी जाति तय करनी कठिन है। वह इतना अनूठा है कि
उस जैसा कीड़ा अब तक देखा नहीं गया। डार्विन गया। उन्होंने उससे पूछा कि बताएं यह किस
स्पेशीज़, किस जाति का कीड़ा है?
डार्विन ने उसे गौर से देखा और कहा, दिस इज़ हम्बग,
सर। डार्विन ने कहा, यह कोई कीड़ा नहीं है,
यह एक खिचड़ी है।
अगर सारे धर्मों को मिला कर, जिसको लोग समन्वय
कहते हैं, कोई धर्म बने, तो कहना
पड़ेगा--दिस इज़ हम्बग रिलीजन, सर। यह कोई धर्म नहीं है,
यह खिचड़ी है।
और एक बीमारी ही जब खतरनाक होती है, दस-पंद्रह बीमारी
इकट्ठी मिल जाएं तो और मुश्किल हो जाएगी। अगर ये सारे धर्मों के बीच कोई समन्वय
बना लिया जाए तो वह और भी खतरनाक सिद्ध होगा। वह रोग नहीं होगा, महारोग होगा।
सच्चे धर्म का कोई संबंध इन प्रचलित सारे धर्मों को जोड़ लेने से नहीं
है, वरन सच्चे धर्म का संबंध तो स्वयं की सत्ता और विश्वसत्ता के बीच संबंध को
खोज लेने से है। सच्चा धर्म किसी आर्गनाइजेशन, किसी संगठन और
संप्रदाय में नहीं है और न सभी संप्रदाय और सभी संगठनों के मेल और उनके इकट्ठा कर
लेने में है।
सच्चे धर्म की खोज तो अत्यंत निजी और वैयक्तिक है, एकदम इंडिविजुअल है, समूह से और संगठन से उसका कोई
भी नाता नहीं। समूह और संगठन जैसे ही खड़ा होता है, वैसे ही
धर्म की ज्योति तो विलीन हो जाती है और धुआं शेष रह जाता है।
ऐसा होगा ही। क्यों? क्योंकि धर्म की...आज तक हमने
कभी प्रेम के कोई संगठन देखे हैं? प्रेम वैयक्तिक अनुभव है,
एक-एक व्यक्ति का अपना निजी अनुभव है। कोई समूह का, सामूहिक रूप से, प्रेम का कोई अनुभव नहीं होता।
हम इतने लोग यहां बैठे हैं। दिखाई तो पड़ता है कि हम समूह में बैठे हुए
हैं। लेकिन अगर हम सारे लोग शांत हो जाएं और ध्यान में चले जाएं तो समूह बचेगा? नहीं; एक-एक आदमी अकेला रह जाएगा, बाकी भीड़ विलीन हो जाएगी। जब भी हम शांत होंगे, हम
अकेले रह जाएंगे।
यही तो कारण है कि मनुष्य-जाति के इतिहास में जो भी श्रेष्ठ और जो भी
सुंदर है, वह भीड़ ने नहीं, एक-एक व्यक्ति
ने अपने अकेलेपन में और एकांत में जाना है। जो भी सुंदर है, जो
भी शिव है, जो भी श्रेष्ठ है, जो भी
सत्य है, वह व्यक्तियों ने जाना है अकेले-अकेले। समूह ने आज
तक कोई सौंदर्य और कोई सत्य नहीं जाना है। जान भी नहीं सकेगा।
वैयक्तिक प्राणों का अनुभव है धर्म भी। एक व्यक्ति अपनी निजी शांति
में, मौन में अनुभव करता है। और जब भी हम संगठन और समूह
बना लेते हैं, तो इस अनुभूति से तो कोई वास्ता नहीं रह जाता,
कुछ शब्द होते हैं, जो नारे बन जाते हैं,
झंडे बन जाते हैं और उनके आसपास लोग इकट्ठे हो जाते हैं। ये लोग भी
कोई एक-दूसरे के प्रति प्रेम से इकट्ठे होते हों तो गलती है। ये दूसरे भी किसी और
के प्रति घृणा के कारण इकट्ठे होते हैं। दुनिया में जितने संगठन हैं, सब घृणा पर खड़े हुए हैं।
हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है: अगर किसी को संगठित होना हो, तो या तो सचमुच किसी शत्रु को खोज लो या कोई झूठा शत्रु पैदा कर लो। बिना
उसके इकट्ठे नहीं हो सकोगे।
मुसलमानों को इकट्ठा होना होता है तो वे कहते हैं: इस्लाम खतरे में है, हिंदू इस्लाम को नष्ट करना चाहते हैं। तो मुसलमान इकट्ठे हो जाते हैं।
हिंदुओं को इकट्ठा होना हो तो वे कहते हैं: हिंदू खतरे में हैं, हिंदू धर्म खतरे में है, मुसलमान हमें दबाना चाहते
हैं, ईसाई हमें लूट लेना चाहते हैं। वे इकट्ठे हो जाते हैं।
अभी हिंदुस्तान पर हमला हो गया चीन का या पाकिस्तान का, तो
सारे मुल्क में एक एकता पैदा हो गई और लोग कहने लगे कि मुल्क यह तो, मुल्क इकट्ठा हो गया, यूनिटी पैदा हो गई, हम इकट्ठे हो गए।
यह कोई यूनिटी नहीं है। यह सिर्फ सामने खड़े हुए दुश्मन के प्रति घृणा
है, जिसमें कोई भी इकट्ठा हो जाता है। घृणा में इकट्ठा हो जाना एकदम आसान है,
कॉमन एनिमी। हम सब का एक दुश्मन हो, उसको नष्ट
करने को हम इकट्ठे हो जाते हैं। ये घृणा के संगठन हैं सब। संगठन मात्र के केंद्र
में कहीं घृणा होती है, कहीं शत्रुता होती है और इसलिए हम
इकट्ठे हो जाते हैं। धर्मों के जो संगठन हैं वे भी, चाहे वे
कितनी ही प्रेम की बात करते हों, लेकिन उनका केंद्र घृणा है।
और यही तो कारण है कि प्रेम की बात चलती है और धर्मों के संगठन एक-दूसरे की हत्या
में संलग्न होते हैं, एक-दूसरे से लड़ते हैं।
संगठन खड़ा होता है घृणा पर। संगठन का प्रेम से क्या संबंध? संगठन का धर्म से क्या संबंध? संगठन का सत्य से क्या
संबंध? और क्या भीड़ की ताकत से कभी किसी ने सत्य को जाना है?
सत्य कोई ऐसी बात तो नहीं है कि हम फौजें ले जाएं, मिलिटरी ले जाएं और हमला करें। सत्य कोई ऐसी बात तो नहीं है कि अकेले से
नहीं होगा तो हम दस-पांच लोगों को लाठियां लेकर साथ ले जाएंगे, तब होगा।
सत्य का अनुभव तो अकेले में होता है। इतने अकेले में कि न केवल भीड़
बाहर न हो, बल्कि चित्त के भीतर से भी सब मित्र विदा ले लें,
सारी भीड़ चली जाए, भीतर कोई न रह जाए, सन्नाटा रह जाए, अकेले रह जाएं। उस टोटल लोनलीनेस
में, उस एकदम भीतर के अकेलेपन में जानता है व्यक्ति अपनी
आत्मा को, जानता है सत्य को, और उसी
एकांत में, उसी तनहाई में, उसी अकेलेपन
में जुड़ जाता है सारे विश्व की सत्ता से।
तो वहां तो धर्म जाना जाता है। हिंदू और मुसलमान कोई धर्म नहीं हैं।
धर्म का तो कोई नाम भी नहीं हो सकता। धर्म तो एक अनुभव है, एक संगठना नहीं। इसलिए अगर इन सबको हम इकट्ठा भी कर लें, तो यह एक खिचड़ी होगी, यह एक हम्बग रिलीजन होगा। यह
कोई, इससे कोई सच्चे धर्म के जन्म का कोई संबंध नहीं है।
लेकिन इधर सारी दुनिया में धर्मों के बीच झगड़ा देख कर कुछ
समाज-सुधारकों ने यह कहना शुरू किया कि इनको हम इकट्ठा कर लें। उन समाज-सुधारकों
को धर्म से कोई संबंध नहीं है, उनका संबंध केवल इतना है कि किसी
भांति इनके आपस के झगड़े कम हो जाएं। तो हम इनको किसी भांति इकट्ठा कर लें। तो चार
ईंटें इस मकान की, चार ईंटें उस मकान की, कुछ कुरान से, कुछ बाइबिल से, कुछ
गीता से इकट्ठा कर लें और उसको जोड़-जाड़ कर...
कोई अर्थ नहीं है उस जोड़ने में, कोई भी अर्थ नहीं है।
वस्तुतः अगर मनुष्य-जाति को जोड़ना है, तो हिंदू-मुसलमान और
जैन को जोड़ने की जरूरत नहीं है। तीनों को विदा कर देने की जरूरत है। ये सब विदा कर
दिए जाएं तो मनुष्य-जाति जुड़ेगी, और किसी भांति नहीं जुड़
सकती है, लाख उपाय किए जाएं। जब हम यह स्वीकार कर लेते हैं
कि हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई, इन सबको जोड़ें, तो हम
इनकी सच्चाई को स्वीकार कर लेते हैं और फिर उसको जोड़ना शुरू कर देते हैं।
यह हमने बीमारी को तो स्वीकार कर लिया, हमने मान लिया,
और फिर उसको जोड़ने की कोशिश में लगते हैं। नहीं, जरूरत तो इस बात की है कि सारी दीवालों को अस्वीकार कर दिया जाए जो मनुष्य
को मनुष्य से विभाजित करती हैं। उन्हें जोड़ने की कोई जरूरत नहीं है, उनके जोड़ से कोई हित होने वाला नहीं है।
और जो मनुष्य ठीक-ठीक अर्थों में धार्मिक है, वह तो निश्चित ही न हिंदू हो सकता है, न मुसलमान हो
सकता है, न जैन हो सकता है। जो आदमी धार्मिक है उसे हिंदू,
जैन, मुसलमान होने की कहां सुविधा है? उसे किसी खंड के साथ एक होने की कहां सुविधा है? उसे
किसी के विरोध में खड़े होने की कहां सुविधा है? उसका चित्त
तो अविरोध को उपलब्ध होगा, उसके चित्त में तो प्रेम की धारा
बहेगी, उसके लिए तो कोई पराया नहीं रह जाएगा, कोई अपना नहीं रह जाएगा, कोई दूसरा नहीं रह जाएगा।
उसके लिए तो दो व्यक्तियों के बीच किसी तरह के शब्दों की, शास्त्रों
की दीवाल नहीं रह जाएगी। उसके लिए तो कोई मंदिर और मस्जिद नहीं रह जाएगा। क्योंकि
उसके लिए तो सारी पृथ्वी ही परमात्मा का मंदिर हो जाएगी। क्योंकि उसके लिए तो सभी
के हृदय में उसी की ज्योति जलती दिखाई पड़ने लगेगी।
ये जो धर्मों में बंटे हुए लोग हैं, इन्होंने ही धर्म के
जन्म में बाधा दी है। नास्तिकों ने नहीं धर्म को जगत में विकसित होने से रोका है।
नास्तिकों ने कुछ भी नहीं किया आज तक। नास्तिकों का कोई संगठन भी नहीं है, यह भी आपको पता होना चाहिए। नास्तिकों का कोई आर्गनाइजेशन भी नहीं है,
उनका कोई चर्च और मंदिर भी नहीं है, उनका कोई
शास्त्र भी नहीं है, उनका कोई झंडा भी नहीं है। वे इकट्ठे
होकर कुछ भी नहीं किए हैं आज तक। नास्तिकों के ऊपर आज तक कोई अपराध भी नहीं है कि
उन्होंने आग लगाई हो, मकान जलाए हों, लोगों
की हत्या की हो, लोगों को जलाया हो, यह
कुछ भी नहीं है। नास्तिकों ने धर्म को नहीं कोई नुकसान पहुंचाया। नुकसान पहुंचाया
है उन धार्मिकों ने जो हिंदू हैं, जो मुसलमान हैं, जो जैन हैं, जो ईसाई हैं। क्यों? उन्होंने ये विभाजन करके उस धर्म को आने से रोक दिया, जिसका कभी कोई विभाजन नहीं हो सकता है।
क्या आप सोचते हैं सत्य भी बहुत प्रकार के हो सकते हैं? क्या आप सोचते हैं आत्मा के संबंध में भी बहुत सत्य हो सकते हैं? परमात्मा के संबंध में भी बहुत सत्य हो सकते है? क्या
आप सोचते हैं कि हिंदुओं का गणित अलग, मुसलमानों का गणित अलग
होगा? होता था पहले, यहीं हिंदुस्तान
में जैनियों का गणित अलग होता था, हिंदुओं का अलग होता था।
कैसे पागलपन के दिन रहे होंगे! गणित भी अलग-अलग हो सकता है? केमिस्ट्री
या फिजिक्स अलग-अलग हो सकती है? ईसाइयों की अलग, मुसलमानों की अलग।
नहीं; जब पदार्थ के संबंध में सत्य अलग-अलग नहीं हो सकते,
तो परमात्मा के संबंध में कैसे हो सकते हैं? जब
पदार्थ तक के संबंध में सत्य अलग नहीं हो सकते, तो परमात्मा
के संबंध में कैसे अलग हो सकते हैं?
निश्चित ही हम पदार्थ के संबंध में तो सत्य की खोज को उपलब्ध हो गए
हैं, लेकिन परमात्मा के संबंध में हम केवल विश्वास पर रुके
हुए हैं, सत्य की खोज तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। इसलिए यह
विभाजन है, इसलिए यह भेद है, इसलिए ये
संगठन हैं, इसलिए ये संप्रदाय हैं, इसलिए
ये बंटे हुए मंदिर हैं। इन सबको जोड़ नहीं लेना है, इन सबको
एक साथ ही विदा देनी है। और जिस दिन ये जमीन से चले जाएंगे, उस
दिन धर्म के लिए सबसे बड़ा सूर्य उदय होगा। क्योंकि ये जब तक हैं, तब तक सत्य की निष्पक्ष खोज नहीं हो सकती। इन सबके पक्ष हैं, इन सबकी प्रिज्युडिस है। ये सभी चाहते हैं कि हमारा जो पक्ष है वही सत्य
सिद्ध हो। और जब तक कोई यह चाहता है कि मेरा पक्ष सत्य सिद्ध हो, तब तक उसे सत्य से कोई प्रेम नहीं है। सत्य से तो प्रेम करने वाला यह कहता
है कि मैं अपने पक्ष को छोड़ने को राजी हूं। सत्य कैसा भी हो, मैं अपने पक्ष को छोड़ने को राजी हूं और सत्य को अंगीकार करने को। लेकिन
पक्षपाती आदमी कहता है: मेरा पक्ष ही सत्य है। सत्य हो तो इसी रूप में हो, सत्य हो तो इसी भाषा में हो, सत्य हो तो इन्हीं
शास्त्रों के ढांचे में हो।
पिछले महायुद्ध में, दूसरे महायुद्ध में फ्रांस हार
रहा था जर्मनी से। तो फ्रांस के एक बहुत बड़े जनरल ने इंग्लैंड के एक बहुत बड़े जनरल
से सलाह ली कि क्या मामला है? क्या भूलचूक हो रही है?
उस जनरल ने कहा कि मालूम होता है तुम युद्ध पर तो जाते हो, लेकिन भगवान से प्रार्थना नहीं करते हो। फ्रांसीसी जनरल ने कहा, प्रार्थना तो हम करते हैं, पता नहीं क्या भूल हो रही
है कि हमारी प्रार्थना नहीं सुनी जाती, हम हारते चले जा रहे
हैं। उस अंग्रेज जनरल ने कहा, किस भाषा में प्रार्थना करते
हो? अंग्रेजी में कि फ्रेंच में? क्योंकि
हम तो अंग्रेजी में करते हैं। और जहां तक हमारी समझ है, भगवान
अंग्रेजी भाषा ही समझता है। तुम फ्रांसीसी में करते होओगे, इसीलिए
हारते जा रहे हो।
इन संप्रदायों ने ढांचे बांध रखे हैं भगवान पर भी: वह कौन सी भाषा
समझता है; किन शास्त्रों को समझता है, किन
शास्त्रों को लिखता है, किनको नहीं लिखता; किस कौम के ऊपर उसकी विशेष कृपा है।
इधर भारत के लोग कहते हैं कि उसकी यहीं विशेष कृपा है, और बाकी दुनिया पर उसकी कोई दृष्टि नहीं है। वह इसी भूमि में बार-बार
अवतार लेता है, और कहीं अवतार नहीं लेता, यह बड़ी पवित्र भूमि है।
यह पागलपन, कोई भी दुनिया में कहीं भी रहता है, सभी को है कि जिस जमीन पर वह है वह बड़ी पवित्र है। और इसका जमीन की
पवित्रता से कोई संबंध नहीं, हमारे अहंकार की अपवित्रता से
संबंध है इस बात का। क्योंकि जहां मैं पैदा हुआ हूं, वह जमीन
कहीं अपवित्र हो सकती है? वह तो बिलकुल पवित्र है, भगवान की विशिष्ट जमीन वही है।
बर्नार्ड शा ने एक बार कहा कि यह बात गलत है कि जमीन सूरज का चक्कर
लगाती हो।
यह तो विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है। पहले तो लोग मानते थे कि सूरज
जमीन का चक्कर लगाता है। लेकिन फिर विज्ञान ने सिद्ध कर दिया कि सूरज नहीं लगता, जमीन ही चक्कर लगाती है। लेकिन बर्नार्ड शा ने घोषणा कर दी कि यह बात गलत
है। जमीन चक्कर नहीं लगाती सूरज का, सूरज ही लगाता होगा।
किसी ने पूछा कि इसका कारण क्या है? वजह क्या है जो आप यह
घोषणा करते हैं?
बर्नार्ड शा ने क्या कहा, पता है? उसने बड़ी गहरी मजाक की। उसने कहा कि इसलिए मैं यह कहता हूं कि जमीन सूरज
का चक्कर नहीं लगाती होगी, क्योंकि मैं, बर्नार्ड शा, जमीन पर हूं। इसलिए सूरज को ही चक्कर
लगाना चाहिए। यह असंभव है कि जमीन चक्कर लगाए! क्योंकि मैं, बर्नार्ड
शा, जमीन पर हूं! बर्नार्ड शा जमीन पर है इसलिए कैसे जमीन
सूरज का चक्कर लगा सकती है!
तो मैं जिस जमीन पर पैदा हुआ हूं, वह कहीं अपवित्र हो
सकती है? नहीं; वह पवित्र भूमि है।
वहीं भगवान अवतार लेते रहे हैं, वही भूमि जगतगुरु है,
वही भूमि सब कुछ है। बाकी सारी दुनिया कुछ भी नहीं है। ये सारे के
सारे पागलपन अहंकार से पैदा होते हैं, किसी समझ से पैदा नहीं
होते। यह हमारा अहंकार है। और इन धर्मों के नाम पर भी विभिन्न जातियों के अहंकार
केंद्रित हो गए हैं। ये तो विदा होने चाहिए। धर्म का अहंकार से क्या संबंध है?
कोई भी तो नहीं। और अगर कोई भी है तो वही जो एक शत्रु का संबंध होता
है।
जरूर धर्म का जन्म हो सकता है, लेकिन उसके लिए जाना
पड़ेगा धर्मों को। रिलीजन आ सकता है, अगर रिलीजंस चले जाएं।
और जो भी आदमी धार्मिक है, उसे सहायता करनी चाहिए कि ये चले
जाएं, ये विदा हो जाएं, इनका जमीन पर
कोई चिह्न न रह जाए। इनके चिह्न भी, इनके निशान भी दुखद हैं,
दुर्भाग्यपूर्ण हैं।
इसलिए मैं तो नहीं कहता कि इनको जोड़-जाड़ लें। जोड़ने से तो कुछ हल नहीं
होता, कोई हल नहीं होता। सत्य को देखें, खोजें; ये विलीन हो जाएंगे, ये
विलीन हो जाने ही चाहिए।
पूछा है कि मैं ऐसा तो नहीं कहना चाहता हूं कि
हमें उपनिषद या गीता नहीं पढ़नी चाहिए?
मैं क्यों कहूंगा कि गीता और उपनिषद नहीं पढ़नी चाहिए! मैं तो यह भी न
कहूंगा कि जो ऐसी किताबें हैं जो वर्जित हैं, वे भी न पढ़नी चाहिए।
मैं तो कहूंगा, वे भी पढ़नी चाहिए। पढ़ने से मेरा क्या विरोध
हो सकता है? सीखने से मेरा क्या विरोध हो सकता है?
मेरा कहना तो केवल इतना है कि किताब की भांति पढ़नी चाहिए, ग्रंथ और शास्त्र की भांति नहीं। कोई सैक्रेड ग्रंथ, कोई पवित्र ग्रंथ की भांति नहीं पढ़नी चाहिए; किताब
की भांति पढ़नी चाहिए। अनुभव हैं लोगों के, समझने चाहिए।
लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि उनका अनुभव आपका अनुभव नहीं बन जाता है पढ़ने से।
उनकी प्रतीति, उनका ज्ञान आपका ज्ञान नहीं बन जाता है पढ़ने
से। यह ध्यान रहे तो पढ़ने में क्या बुराई है? जरूर पढ़नी
चाहिए। हित है। मनुष्य-जाति की स्मृतियां हैं, उन्हें जरूर
देखनी चाहिए। लेकिन अत्यंत निष्पक्ष भाव से।
एक हिंदू कुरान को थोड़े ही ठीक से पढ़ पाता है। एक मुसलमान गीता को
थोड़े ही ठीक से पढ़ पाता है। नहीं पढ़ सकता! जब तक एक किताब किसी की नजर में पवित्र
है, तब तक वह दूसरी किताबों को ठीक से कैसे पढ़ेगा? वे
अपवित्र हो गईं।
एक मुसलमान खलीफा ने अलेक्जेंडेरिया पर हमला किया। वहां उस जमाने की
सबसे बड़ी लाइब्रेरी थी। इतनी बड़ी लाइब्रेरी जमीन पर और कहीं नहीं थी। शायद उसके
बाद भी इतनी बड़ी लाइब्रेरी फिर कोई नहीं बन सकी। बड़ी इतनी थी कि उसमें आग लगा दी
तो छह महीने तक आग नहीं बुझाई जा सकी थी। छह महीने तक आग जली। उसमें करोड़ों ग्रंथ
थे हस्तलिखित। सारी दुनिया से ग्रंथ इकट्ठे किए थे, अदभुत था वह
संग्रहालय। लेकिन खलीफा उमर ने अलेक्जेंडेरिया जीता तो उसने पहला काम यह किया कि
एक हाथ में मशाल लेकर और एक हाथ में कुरान लेकर वह लाइब्रेरी के दरवाजे पर पहुंच
गया। और उसने लाइब्रेरी के अध्यक्ष को कहा कि मित्र, एक
प्रश्न का उत्तर दे दो। यहां जो इतनी किताबें हैं, इन
किताबों में क्या वही बात लिखी है जो कुरान में लिखी है? अगर
वही बात लिखी है तो इतनी किताबों की कोई भी जरूरत नहीं है, कुरान
काफी है। और यह भी हो सकता है कि तुम कहो कि इनमें ऐसी बातें हैं इन किताबों में
जो कुरान में नहीं हैं, तब मैं कहूंगा कि तब तो इनकी कोई भी
जरूरत नहीं है, क्योंकि ये किताबें जरूर ही गलत होंगी।
क्योंकि जो भी जानने जैसा है, उपयोगी है, वह कुरान में सब है। उसके अतिरिक्त कुछ भी और हितकर नहीं है। दोनों हालत
में मैं इस लाइब्रेरी को जलाने के लिए आ गया हूं।
दो ही उत्तर हो सकते थे। दो ही उत्तर हो सकते थे कि या तो इन किताबों
में वही है जो कुरान में है या इन किताबों में वह भी है जो कुरान में नहीं है।
दोनों हालत में वह जलाने को तैयार हो गया और उसने आग लगा दी। यह आदमी कुरान को
पवित्र मानता था, इसके लिए सारी किताबें अपवित्र हो गई थीं।
और मेरा कहना यह है कि ऐसा अंधा आदमी कुरान को भी क्या समझ पाया होगा? ऐसा अंधा आदमी कुरान को भी नहीं समझ पाया होगा। अंधा आदमी तो कुछ भी नहीं
समझ सकता।
तो जब भी किसी ग्रंथ के प्रति तुम अंधे हो, मैं अंधा हूं, तो फिर मैं उसे नहीं समझ पाऊंगा।
अंधापन दो प्रकार का हो सकता है: या तो तुम अंधी श्रद्धा से किसी ग्रंथ के पास जाओ
और समझो कि यह भगवान की किताब है और इसमें जो कुछ लिखा है वह सत्य है; या अंधापन हो सकता है नास्तिक का, कि तुम किताब के
प्रति घृणा से और द्वेष से भरे हुए जाओ।
नहीं; किताब के प्रति भी वैसे ही निष्पक्ष जाना चाहिए जैसे
हम जीवन के प्रति जाते हैं। समझना चाहिए। जो मेरा कहना है वह यह नहीं है कि
किताबें मत पढ़ो। मेरा कहना यह है कि किसी भी किताब से जो पढ़ लिया है, वह मेरे लिए सत्य नहीं हो सकता, आपके लिए सत्य नहीं
हो सकता। सत्य की खोज तो स्वयं करनी होगी। और किताब के आधार पर जो सत्य की खोज
करता है वह भी भटक जाएगा। वह भटक जाएगा इसलिए कि किताब जिसने लिखी है, जब तक ठीक उसके जैसी मेरी चेतना न हो, तब तक उस
किताब को भी पूरी तरह समझा नहीं जा सकता।
कृष्ण की गीता पर कोई एक हजार टीकाएं लिखी गई हैं। अब या तो कृष्ण का
दिमाग खराब रहा होगा कि उनका एक हजार अर्थ रहा हो गीता के कहने में, एक हजार अर्थ रहे हों, या तो उनका दिमाग खराब रहा हो
और या फिर ये अर्थ लिखने वालों के दिमाग से निकले हैं, कृष्ण
के नहीं होंगे। एक हजार टीकाएं हैं! और टीकाएं बढ़ती ही चली जाती हैं। क्योंकि
जिसके दिमाग में भी धर्म का फितूर सवार होता है वह गीता पर जरूर एक टीका लिख देता
है, वे टीकाएं बढ़ती चली जाती हैं। ये टीकाएं किसके अर्थ हैं?
ये कृष्ण के अर्थ हो सकते हैं? हजार अर्थ! ये
लिखने वालों के अर्थ हैं।
तो जब आप गीता पढ़ेंगे तो इस खयाल में मत रहना कि आपने कृष्ण की गीता
पढ़ी, आप अपनी ही गीता पढ़ रहे हैं। अर्थ आपका होगा। शब्द
कृष्ण के होंगे, अर्थ आपका होगा। और उस अर्थ को लेकर जब आप
खोज में चले जाएंगे, आप कहीं भी नहीं पहुंचेंगे, अपने ही इर्द-गिर्द चक्कर काटेंगे, कहीं भी जा नहीं
सकते हैं। क्योंकि अर्थ तो हमेशा अपना होता है।
मैं यहां बोल रहा हूं। तो मैं इस भ्रम में थोड़े ही हूं कि मैं जो बोल
रहा हूं वही सब लोग सुन रहे होंगे। यहां जितने लोग हैं उतनी बातें सुनी जा रही
हैं। बोलने वाला एक है, सुनने वाले बहुत हैं। जो सुनने वाले हैं वे अपने-अपने
ढंग से सुन रहे हैं। यहां कोई हिंदू होगा तो एक ढंग से सुन रहा है, मुसलमान होगा तो दूसरे ढंग से सुन रहा है, ईसाई होगा
तो तीसरे ढंग से सुन रहा है। बूढ़ा आदमी और ढंग से सुन रहा है, जवान आदमी और, बच्चा और, सब
लोग अपने ढंग से सुन रहे हैं।
जब हम सुनते हैं तो हमारा अर्थ संयुक्त हो जाता है; जब हम पढ़ते हैं तो हमारा अर्थ संयुक्त हो जाता है। लेकिन हम कहते हैं कि
यह कृष्ण का अर्थ है, यह राम का, यह
बुद्ध का, यह महावीर का। और फिर इस अर्थ को, अपने ही अर्थ को, उनके ऊपर थोप कर हम खोज में लग
जाते हैं। वह खोज बिलकुल अंधी हो गई। समझने की शांति से, मौन
से कोशिश करने की जरूरत तो है, लेकिन पकड़ लेने की जरूरत
बिलकुल भी नहीं है। जो पकड़ लेता है उसकी खोज बंद हो जाती है।
तो मैंने जो कहा, गीता को पकड़ना मत, कुरान को पकड़ना मत। पढ़ने के लिए किसने मना किया है? लेकिन
पाठ करने को मैं जरूर मना करता हूं। पढ़ने तक तो मुझे लगता है कि कोई बात है। लेकिन
पाठ करने को जरूर मना करता हूं। क्योंकि जो मस्तिष्क किसी चीज को रिपीट करना सीख
जाता है बार-बार, वह जड़ हो जाता है। उसकी चेतना खो जाती है,
उसकी संवेदनशीलता, सेंसिटिविटी खो जाती है।
क्योंकि एक ही बात को बार-बार दोहराने से मस्तिष्क में बोर्डम पैदा होती है,
ऊब पैदा होती है। और धीरे-धीरे आदत का हिस्सा हो जाती है पुनरुक्ति।
फिर उसमें कोई अर्थ भी नहीं रह जाता, फिर मशीन की तरह आदमी
उसे रोज-रोज दोहराए चला जाता है।
तो पाठ जरूर खतरनाक है। तोतों के लिए तो ठीक है, मनुष्यों के लिए खतरनाक है। तोते पाठ करें, यह तो
ठीक है; लेकिन आदमी पाठ करें, यह
बिलकुल ठीक नहीं है। किसी चीज को समझें, समझ लें, पूरी चेतना से समझें, समग्र ध्यान से समझें, ठीक है। लेकिन उसका रोज-रोज पाठ करने लगें, रटे हुए
मशीन की तरह, यह खतरनाक है, इससे
मस्तिष्क पर तो नुकसान पहुंचता है। कोई भी चीज को आप बार-बार दोहराएंगे तो
मस्तिष्क की जो सचेतना है वह क्षीण होती है और एक तरह की तंद्रा उत्पन्न हो जाती
है।
एक मां को अपने बच्चे को सुलाना होता है, वह कहने लगती है: मुन्ना सो जा, मुन्ना सो जा,
मुन्ना सो जा। वह दस-पांच दफा यह दोहराने लगती है, मुन्ना थोड़ी देर में सो जाता है। मां सोचती होगी कि उनके बहुत मधुर संगीत
के कारण सो गया है, तो गलती है। एक ही चीज को बार-बार
दोहराने से बोर्डम पैदा हो गई, मुन्ना जो हैं बोर हो गए,
घबड़ा गए, ऊब गए। उस ऊब की वजह से वे सो गए,
उनको जगने का कोई कारण नहीं रहा। जागने के लिए कुछ वजह होनी चाहिए।
कोई वजह न रही, आपने बोर्डम पैदा कर दी, ऊब पैदा कर दी, घबड़ाहट पैदा कर दी। छोटा सा बच्चा है,
वह घबड़ा कर सो गया। लेकिन मां यही सोचती होगी कि बहुत मधुर संगीत के
कारण मुन्ना सो गए हैं।
कोई भी आदमी सो सकता है। धार्मिक सभाओं में लोग सोए रहते हैं, उसका कुल कारण इतना है, उन्हीं बातों को वे हजार दफे
सुन लिए हैं, इसलिए नींद आनी स्वाभाविक है। इसमें कोई का
कसूर नहीं है, धार्मिक सभाओं में सोने वाले लोगों का जरा भी
कसूर नहीं है। वे बातें वे बहुत दफे सुन चुके हैं, राम की
कथा बहुत दफे सुन चुके हैं, अब उनको पूरी तरह पता है।
एक फिल्म को आप एक दफा देखें, समझ में आता है।
दूसरी दफा देखें, तीसरी दफा देखें, दस
दफा देखें, फिर क्या होगा? आप बराबर
पूरी नींद लेंगे उसी फिल्म में जिसे आप बहुत मजे से देखे थे पहली दफा, दसवीं दफा देखने पर आप नींद लेंगे। और अगर आपको हजार, पांच सौ दफा एक ही फिल्म दिखाई जाए, तो फिर आपको
पागलखाने में भर्ती करना पड़ेगा, आपका इलाज करवाना पड़ेगा।
इलाज करवाना पड़ेगा, दिमाग खराब हो जाएगा, क्योंकि मस्तिष्क इतनी ज्यादा ऊब नहीं सह सकता।
तो यह जो पाठ करने की वृत्ति है--कि रोज उठे हैं सुबह से और किसी
किताब का पाठ किए चले जा रहे हैं एक मुर्दा मशीन की भांति--यह खतरनाक है, यह मस्तिष्क के लिए हितकर नहीं है। पढ़िए, समझिए,
लेकिन यह पाठ करने की बात बिलकुल ही हितकर नहीं है। इससे आपके
मस्तिष्क की चेतना खो जाएगी।
जो-जो कौमें चीजों को दोहराने की आदी हो जाती हैं, उनके जीवन में मौलिक चिंतन का जन्म असंभव हो जाता है, ओरिजिनल थिंकिंग बंद हो जाती है।
आज दोत्तीन हजार वर्ष से हम अपने मुल्क में कुछ भी मौलिक रूप से नहीं
सोच पाए। हम टीका करते हैं पुरानी किताबों पर, पुरानी किताबों को
बार-बार पढ़ते हैं। लेकिन हमारे मस्तिष्क ने वह ऊर्जा खो दी है, जिससे नवीन का जन्म होता है, मौलिक का जन्म होता है।
वह हमने खो दिया, वह हमने खो दिया इस पाठ की वृत्ति के कारण।
और अभी भी यह पाठ की वृत्ति जारी है।
तो मैं कहता हूं, पढ़ें, जरूर
गीता पढ़ें, कुरान पढ़ें। और वही क्यों, दुनिया
में और बहुत साहित्य है, वे सब पढ़ें। कहानियां हैं, उपन्यास हैं, वे भी पढ़ें। उन सब में भी मनुष्य-जाति
की बहुत सी, बहुत सी अनुभूतियां और अनुभव इकट्ठे हैं। लेकिन
पढ़ कर उनको याद करके इस भूल में न पड़ जाएं कि वे आपके अनुभव हैं। एक बात, वह इनफार्मेशन है, नॉलेज नहीं, इस बात को जानें। सूचना है, ज्ञान नहीं। और दूसरी
बात, उसको पुनरुक्त करने की प्रवृत्ति में न पड़ जाएं,
अन्यथा आपका मस्तिष्क खुद के सोच-विचार को हमेशा के लिए खो देगा,
हमेशा के लिए खो देगा। रिपीटीटिव माइंड जो है क्रिएटिव नहीं रह जाता,
दोहराने वाला मन सृजनात्मक नहीं रह जाता, वह
सारी सृजन की शक्ति खो देता है। किसी भी आदमी को कोई बात दोहराने के लिए कहो,
उसकी सृजनात्मकता खत्म हो जाती है, उसकी
क्रिएटिविटी खत्म हो जाती है।
चीन में वे आदमियों को सजाएं देते थे। तो चीन के लोग बड़े होशियार हैं, बहुत खतरनाक जघन्य अपराधी को वे फांसी की सजा नहीं देते थे आज से हजार साल
पहले। क्योंकि वे कहते थे कि किसी को मार डालना कोई बहुत बड़ा कष्ट देना नहीं है।
मर गया, एक सेकेंड में मर जाता है आदमी, तो यह कोई बड़ा कष्ट देना नहीं है। तो उसको जिंदा रखते थे और नई-नई तरकीबें
निकालते थे उसको कष्ट देने की। उसमें एक तरकीब यह भी थी कि उस आदमी के पास एक ही
बात को बार-बार दोहराना। कष्ट देने की तरकीब थी! एक ही बात को बार-बार दोहराना,
सुबह से शाम तक एक ही बात उसके बार-बार दोहराना। तो घबड़ाहट पैदा हो
जाएगी। कोई भी ऐसी स्थिति पैदा करना जिसमें एक ही क्रम बार-बार दोहरता जाए।
उसे एक कोठरी में खड़ा कर देते थे, ऊपर से छेद कर देते
थे, उस छेद में से पानी टपकाते थे उसकी कोठरी में--टप,
टप, टप। अब यह मोनोटोनस चौबीस घंटे टप-टप उसकी
खोपड़ी पर होता रहता था। तीन-चार दिन में आदमी पागल हो जाता था, चिल्लाने लगता था, हाथ-पैर ठोकने लगता था, दीवाल से सिर फोड़ने लगता था कि यह क्या कर रहे हैं? क्योंकि
वह टप-टप जारी है चौबीस घंटे। राम-राम-राम-राम जैसा जपते हैं वैसे ही टप-टप-टप-टप
जारी है।
वह सिर को खोखला कर देगा, वह मस्तिष्क को क्षीण
कर देगा, वह मस्तिष्क की सारी सोचने की क्षमता क्षीण कर देगा,
वह मस्तिष्क को जड़ कर देगा। और जितना मस्तिष्क जड़ हो जाएगा उतना ही
आपको लगेगा कि बड़ी शांति है, जैसे मरघट पर शांति होती है
वैसी शांति लगेगी। क्योंकि बोध चाहिए अशांत होने के लिए भी, चिंतित
होने के लिए भी मस्तिष्क चाहिए, अशांत होने के लिए भी
मस्तिष्क चाहिए। अगर जड़ हो जाए मन तो न चिंतित होता है न अशांत। लेकिन जड़ता कोई
शांति नहीं है, जड़ता तो मृत्यु है।
तो ये पाठ, पुनरुक्ति, एक-एक जाप, ये सारे रिपीटीटिव हैं, ये सब पुनर्वृत्यात्मक हैं,
दोहराने वाली प्रक्रियाएं हैं। इनसे मस्तिष्क का कोई विकास नहीं
होता और न चेतना जागती है और न नये आरोहण करती है और न जीवन के नये शिखरों को
जानने में समर्थ होती है, बस जड़ हो जाती है। जड़ता अगर शांति
हो तो ये सब उपयोग किए जा सकते हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि क्या परमात्मा और सत्य
सभी को मिल सकता है? क्योंकि सभी में तो बुद्धि अलग-अलग है। और एक दूसरा
प्रश्न किसी ने पूछा है कि कुछ लोगों में तो बुद्धि बिलकुल ही नहीं है, उनको भी परमात्मा मिल सकता है? और लोग साधारण हैं,
कुछ लोग असाधारण हैं, कुछ बुद्धिमान हैं,
कुछ कम बुद्धिमान हैं, तो क्या सभी को
परमात्मा मिल सकता है?
निश्चित ही, सभी को परमात्मा मिल सकता है। क्यों? परमात्मा कोई ऐसी बात नहीं है जैसे काव्य, गणित,
पेंटिंग या कुछ और। एक आदमी टेलेंटेड है, प्रतिभाशाली
है, चित्र बनाता है; दूसरा आदमी
प्रतिभाशाली है गणित में; तीसरा आदमी प्रतिभाशाली है काव्य
में; चौथा आदमी विज्ञान में; पांचवां
आदमी इंजीनियरिंग में; कोई और किसी दिशा में। ये सारी हमारी
विशिष्ट-विशिष्ट प्रतिभाएं हैं। लेकिन परमात्मा कोई प्रतिभा की बात नहीं है,
परमात्मा तो वैसा है--हमारा स्वरूप। जैसे हम सब श्वास लेते हैं और
कोई यह नहीं कहता कि क्या सभी लोगों को श्वास लेना संभव है? बुद्धिमान
भी, गैर-बुद्धिमान भी श्वास ले रहे हैं और बुद्धिमान भी
श्वास ले रहे हैं, यह कैसे संभव है? और
बुद्धिमान भी प्रेम कर रहे हैं और गैर-बुद्धिमान भी प्रेम कर रहे हैं, यह कैसे संभव है?
जैसे प्रेम सबके प्राणों का स्वर है, जैसे श्वास सबके जीवन
का अंग है, तो ये तो ऊपरी चीजें हैं, परमात्मा
तो सबके जीवन का केंद्र है। हम उसे जानें या न जानें, लेकिन
वह है। हम सबके भीतर जो जीवन है वही तो परमात्मा है। तो वह तो सबको उपलब्ध है,
पहली बात। सवाल रह गया: क्या उसे सभी जान सकते हैं?
मैं कहता हूं, उसे जान सकते हैं। कम से कम एक बात तो ऐसी रहने दें जिसमें
कोई वर्ग न हो, जिसमें शूद्र और ब्राह्मण न हों, जिसमें चूजन फ्यू, कुछ चुने हुए लोग और कुछ दरिद्र न
हों, कुछ संपत्तिशाली न हों और कोई गरीब न हों। कम से कम एक
चीज तो क्लासलेस रहने दें। और सब जगह तो वर्ग हैं, क्लासेस
हैं, कम से कम परमात्मा को तो वर्ग-विहीन, उसको तो कम से कम वर्ग-विहीन रहने दें। और मुझे ऐसा लगता है, कम से कम वही तो एक सत्य है जो वर्ग-विहीन है; जिसमें
प्रतिभा का सवाल नहीं है बहुत; जिसमें आप बड़े इंजीनियर हैं,
यह सवाल नहीं है; कि आप बड़े गणितज्ञ हैं;
यह सवाल है। नहीं, आप जीवित हैं और इस जीवन में
डूबने को उत्सुक हैं, इस जीवन को जानने की प्यास है, इतना काफी है, इतना काफी है।
परमात्मा तो उपलब्ध है, प्यास चाहिए, तो अभी, इसी क्षण किसी को भी मिल जाए। परमात्मा कोई
विशिष्ट प्रतिभा की बात नहीं है; सभी को उपलब्ध हो सकता है।
बल्कि अक्सर तो, जो लोग किसी भांति की प्रतिभा के धनी होते
हैं, उनको परमात्मा पाने में कठिनाई हो जाती है। क्योंकि वे
अपनी प्रतिभा को ही अपना परमात्मा बना लेते हैं, क्योंकि वे
अपनी प्रतिभा के इर्द-गिर्द ही जीने लगते हैं और उनके अहंकार की तुष्टि उस प्रतिभा
के कारण ही होने लगती है। इसलिए अक्सर उनकी तो प्यास ही जीवन के मूल को खोजने की
नहीं हो पाती; या होती भी है तो बहुत धीमी हो पाती है।
परमात्मा कोई विशिष्ट दिशा नहीं है, जीवन का आधार है;
कोई विशिष्ट डायरेक्शन नहीं है, समस्त जीवन का
आधार है। हम सब उसमें खड़े हैं। छोटी मछलियां हैं सागर में और बड़ी मछलियां हैं;
और बीमार और स्वस्थ; और हो सकता है बुद्धिमान
मछलियां होंगी और ईडियट मछलियां होंगी। सब तरह की मछलियां हैं, लेकिन सब सागर में हैं। सब उस सागर के पानी में जी रही हैं और सब उस सागर
के पानी में जीने की अधिकारी हैं।
ऐसे ही हम सब जिसमें जी रहे हैं वही परमात्मा है। हम उसमें ही श्वास
लेते, उसमें ही उठते-बैठते, सोते और
जागते, उसमें ही जन्मते और उसमें ही मरते हैं। हम उसमें हैं।
परमात्मा मेरे लिए कोई आकाश में बैठा हुआ व्यक्ति नहीं है, परमात्मा
है टोटल एक्झिस्टेंस। यह जो सारा का सारा सब कुछ है, यह सब
कुछ का इकट्ठा जोड़ ही परमात्मा है, उसमें हम सब हैं। अब इस
परमात्मा को हम क्या अनुभव कर सकते हैं सभी?
सभी अनुभव कर सकते हैं, प्रत्येक अनुभव कर
सकता है। प्यास चाहिए! खोज की दृष्टि चाहिए! और प्यास भी थोड़ी-बहुत मात्रा में
सबके भीतर है। जीवन में इतना दुख है, इतनी अशांति है,
इतनी पीड़ा है, क्यों? इसीलिए
कि जीवन में हम जो पाने को हैं, वह हमें नहीं उपलब्ध होता
है। और जो हमें उपलब्ध होता है, वह उपलब्ध होते से ही व्यर्थ
हो जाता है, उससे कुछ उपलब्ध नहीं हो पाता।
परमात्मा की खोज चल रही है जाने-अनजाने। परमात्मा का अर्थ है: वह
तृप्ति का बिंदु जिसके आगे खोज बंद हो जाती है, जिसके आगे कोई खोज
नहीं रह जाती, जिसके आगे कोई चाह नहीं रह जाती। वह चाह की
अंतिम स्थिति जहां चाह समाप्त हो जाती है। उसकी तो हम सभी लोग खोज में हैं। उसको
कोई परमात्मा कहता है, कोई कुछ और कहता होगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, नाम देने से कोई भेद नहीं
पड़ता है। कोई आनंद कहता होगा, कोई मोक्ष कहता होगा, कोई जीवन कहता होगा, कोई सत्य कहता होगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन हम एक ऐसी स्थिति
की खोज में हैं, जहां फिर और कोई खोज न रह जाए। एक ऐसे बिंदु
पर पहुंच जाते हैं, पहुंच जाना चाहते हैं, जहां फिर आगे कोई चाह न रह जाए। वही बिंदु तो परमात्मा है।
सबके भीतर खोज भी है, चाह भी है। अगर जीवन पर थोड़े से
भी ठीक प्रयोग करने को कोई राजी हो, जीवन को समझने को,
तो निश्चित ही कोई भी पहुंच सकता है, कोई भी!
किसी मनुष्य में ऐसी अपात्रता नहीं है कि वह परमात्मा को न पा सके और कोई मनुष्य
विशेष रूप से पात्र नहीं है कि वह पा ले।
तिब्बत में एक फकीर था, कोई नब्बे वर्ष का हो
गया था। अनेक बार लोग आए और उन्होंने प्रार्थना की कि अब तुम्हारा अंतिम समय आया
जा रहा है जीवन का, तुमने जो जाना हो वह बता दो। लेकिन वह
फकीर कहता था कि कोई पात्र मिले तो मैं बताऊं, कोई पात्र हो
तो लाओ! और जिस आदमी को भी लाते थे उसी को वह अपात्र कह देता था कि यह तो अपात्र
है। कोई कारण बता देता था, कुछ बात पूछता था और कह देता था
कि यह अपात्र है। वह मरने को हुआ, उसने नीचे गांव में खबर
भेजी कि जिसको भी अब जानना हो वह जल्दी आ जाए, क्योंकि अब
मैं बहुत जल्दी मरने को हूं।
एक आदमी ने गांव में जाकर खबर की, कोई बीस-पच्चीस लोग आ
गए। वे डरे हुए थे मन में, क्योंकि वह तो अपात्र कह देगा।
उसने आते से ही पहले व्यक्ति से पूछा कि तुम किसलिए परमात्मा को खोजना चाहते हो?
उसने कहा कि मेरी स्त्री मर गई है, मैं बहुत
दुखी हूं, सोचता हूं शायद परमात्मा के मिलने से थोड़ी शांति
मिल जाए। दूसरे लोगों ने सोचा कि यह तो निश्चित अपात्र है, इसको
परमात्मा से क्या मतलब? दूसरे से पूछा, उसने कहा कि मेरी नौकरी चली गई है और मैं बहुत परेशान हूं, तो सोचता हूं कि परमात्मा की दिशा में थोड़ा मन लगे तो चिंता कम हो जाए।
ऐसा एक-एक आदमी उत्तर देता गया और बाकी लोग सोचते गए कि यह तो अपात्र है, यह क्या बातें कह रहा है! आखिरी व्यक्ति ने कहा कि मुझे तो, न तो मेरी स्त्री मरी है, क्योंकि मेरा अभी विवाह ही
नहीं हुआ। और न मेरी नौकरी छूटी है, क्योंकि मेरी नौकरी ही
नहीं लगी। तो तुम किसलिए आए हो? तो उसने कहा कि मैं तो,
ये बीस-पच्चीस लोग जा रहे हैं तो किसलिए जा रहे हैं, इसी खयाल से आ गया हूं।
यहां भी इसी तरह के सब लोग इकट्ठे हुए होंगे। कोई इतने लोग जा रहे हैं
तो उसने कहा कि मैंने सोचा कि चलो, मैं भी चला चलूं,
क्या होता है वहां? क्या मामला है यह?
वे सभी अपात्र मालूम होते थे, लेकिन उस बूढ़े साधु
ने कहा कि मित्रो, मैं तुम सबको स्वीकार करता हूं, और जो मुझे कहना है वह मैं तुमसे कहूंगा। पर वे सभी बोले कि हम अपात्र तो
नहीं हैं? उस फकीर ने कहा कि असल में मैं खुद अपात्र था इतने
दिन तक, इसलिए अपने को बचाने के लिए मैं कह देता था कि कोई
पात्र नहीं है। मैं खुद ही नहीं जानता था। अब जब कि मुझे दिखाई पड़ा है, अब जब कि मैंने जाना है, अब जब कि मुझे प्रतीत हुआ
है, अब जब कि मेरे सामने कोई अनुभव प्रकट हो गया है, तो अब मैं सभी से कह देना चाहता हूं। और तुम्हारी कोई कमजोरी बाधा न
बनेगी। आदमी कमजोर है, अपात्र नहीं। तुम्हारी कोई कमजोरी
बाधा न बनेगी; आदमी कमजोर है, अपात्र
नहीं। अब मैं तुमसे कहूंगा। अब मैं तुम्हें बताऊंगा। अब मैं तुम्हें वह दे जाना
चाहता हूं, छोड़ जाना चाहता हूं, जो
मुझे अहसास हुआ है। हो सकता है, हो सकता है तुम में से किसी
की बंद आंख के लिए खुलने का सहारा बने, तुम्हारी बंद आंख पर
चोट पड़ जाए, आघात हो जाए। हो सकता है, वह
मुझे पता नहीं, लेकिन अब मैं कह देना चाहता हूं, ये जो लोग मनुष्य में विभाजन करते रहे हैं कि यह पात्र है, यह अपात्र है, असल में वे खुद ही पात्र न रहे होंगे।
कोई विभाजन नहीं है। आदमी कमजोर जरूर है, हजार तरह की कमजोरियां हैं। लेकिन कितनी ही कमजोरियां हों, हर आदमी के भीतर चिंगारी मौजूद है। कमजोरियों ने राख ऊपर से ढांक दी होगी,
लेकिन हवा का एक झोंका राख को ले जाएगा और चिंगारी वापस निकल आ सकती
है। ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जिसके भीतर राख इतनी इकट्ठी हो गई हो कि चिंगारी
बिलकुल समाप्त हो जाए। ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो परमात्मा को पाने के लिए बिलकुल
ही अक्षम हो, अपात्र हो। प्रत्येक के भीतर वह ज्योति है,
खोज हो सकती है।
और यह कौन पूछा है कि जिसके
पास बुद्धि नहीं है क्या वह भी परमात्मा को पा सकता है? अगर वे खुद अपने ही संबंध में पूछ रहे हैं, तब तो
उनके पास काफी बुद्धि है। इतना पूछ सकते हैं, तो खोज भी हो
सकती है। रह गई दूसरे के संबंध में पूछने की बात, तो दूसरे
के संबंध में कभी नहीं पूछना चाहिए; क्योंकि दूसरे में किसी
को भी कभी बुद्धि नहीं दिखाई पड़ती, अपने में ही दिखाई पड़ती
है। हम सब कुछ इस भांति के बने हैं कि अपने में ही दिखाई पड़ती है।
एक अंतिम छोटी सी बात इस संबंध में कहूं, फिर हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
गांधी इंग्लैंड में थे। उनके साथ के अंतेवासियों में से कोई एक
बर्नार्ड शा को मिलने गया और बर्नार्ड शा को उसने पूछा, गांधी हैं महात्मा, आप भी उनको महात्मा मानते हैं या
नहीं? बर्नार्ड शा ने कहा, महात्मा
जरूर मानता हूं, लेकिन नंबर दो। नंबर एक तो मैं हूं! और दो
ही महात्मा हैं जमीन पर, एक मैं और एक यह गांधी। लेकिन गांधी
हैं नंबर दो और मैं हूं नंबर एक! बस इतना ही फर्क है, और तो
कोई ज्यादा फर्क नहीं है।
वे मित्र बहुत चिंतित हुए होंगे। उन्होंने गांधी को लौट कर कहा कि
बर्नार्ड शा तो बहुत अहंकारी मालूम होता है। यह तो हद की बात कही, जो कि कोई भी नहीं कहता। कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि इस तरह की बात
कहेगा। उसने कहा कि नंबर दो आप हैं और नंबर एक मैं हूं।
गांधी ने कहा, अहंकारी कहना कठिन है, आदमी
सीधा और सरल मालूम होता है। जो सच्ची-सच्ची बात उसके मन को लगी उसने कह दी है। सभी
को ऐसा लगता है कि नंबर एक हम हैं, बाकी सब नंबर दो हैं। सभी
को लगता है।
अरब में ऐसी कहावत है कि भगवान जब लोगों को बना कर दुनिया में भेजता
है, एक आदमी को गढ़ कर जब धक्का देता है कि जाओ दुनिया में, तो जाते वक्त हाथ पकड़ लेता है और कान में कहता है कि एक बात तुम्हें बता
दूं: मैंने बहुत लोग बनाए, लेकिन तुमसे अच्छा आदमी कोई भी
नहीं बनाया। सभी से कह देता है। एक मजाक है जो चल रहा है और भगवान मजाक किए जा रहा
है और आदमी समझ नहीं रहा है। वह हरेक से कह देता है कि तुमसे अच्छा आदमी मैंने
बनाया ही नहीं।
तो अपने संबंध में पूछा हो तब तो ठीक, किसी दूसरे के संबंध
में भूल कर मत पूछना। क्योंकि हो सकता है दूसरा भी आपके संबंध में पूछना चाहता हो।
न पूछ पा रहा हो, यह दूसरी बात है। यह कोई सवाल नहीं है,
यह कोई भी सवाल नहीं है। जिसके मन में भी इतना सा भी प्रश्न उठता है
कि मैं दुखी हूं, जिसके मन में इतना सा भी बोध होता है कि
मुझे दुख से ऊपर उठना है, जिसके मन में इतना भी प्रश्न उठता
है कि यह जीवन क्या है, उसके भीतर काफी बुद्धि है, वह काफी खोज सकता है, काफी यात्रा कर सकता है।
बुद्धि हम सब के भीतर सोई हुई भी है, थोड़ा श्रम करें,
संकल्प करें तो वह जग भी सकती है, विकसित भी
हो सकती है।
अब कुछ और प्रश्न बच गए हैं, वह मैं कल दोपहर
चर्चा करूंगा। अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे, तो दो
बातें रात्रि के ध्यान के संबंध में समझ लें। रात्रि के ध्यान के संबंध में,
रात्रि का ध्यान सोते समय करने के लिए है। सुबह का ध्यान जागने के
बाद करने के लिए है। तो रात्रि का ध्यान ऐसा है कि उसे करें और करते-करते ही
चुपचाप बाद में सो जाएं। बड़ी उपादेयता है उसकी कि अगर ठीक शांत और मौन स्थिति में
सो जाएं तो जिस स्थिति में हम सोते हैं, रात भर उसकी
प्रतिध्वनि निद्रा में हमारे साथ बनी रहती है। जब हम क्रोध में सो जाते हैं तो रात
भर क्रोध हमारा पीछा करता है; और जब हम किसी वेग को दबा कर
सो जाते हैं तो रात भर सपने में उस वेग को देखते हैं। दिन में कोई आदमी उपवास करके
सो जाता है, तो खाने का चिंतन करते-करते सो जाता है तो रात
भर भोजन ही भोजन और न मालूम कहां-कहां आमंत्रण और न मालूम क्या-क्या होता है।
सोते क्षण हमारी चेतना जिस बिंदु पर होती है, करीब-करीब रात भर उसी बिंदु के आसपास भ्रमण करती है। और सुबह जब हम उठते
हैं, तो उठते से जो पहला खयाल होता है वह वही होता है
अनिवार्यतः, जो रात को सोते वक्त अंतिम था। जो रात को सोते
वक्त अंतिम होती है भावना, धारणा, स्थिति,
करीब-करीब सोते वक्त की वह स्थिति जागते वक्त पहली स्थिति होती है।
क्योंकि वहीं से चेतना अचेतना में खो जाती है, फिर जब वापस
जागते वक्त चेतना लौटती है, तो उसी स्थिति को वापस पहली दफा
पा लेती है जिसको उसने रात में अंतिम छोड़ा था।
तो रात को सोते वक्त, अगर हम ध्यान की स्थिति में ही
धीरे-धीरे डूबते हुए सो जाएं, तो उसके व्यापक परिणाम होंगे।
रात्रि पूरी की पूरी, निद्रा पूरी की पूरी ध्यान में
परिवर्तित हो सकती है, हो जाती है।
तो ऐसे तो यह जब आप अपने बिस्तर पर सोएं, तब बिस्तर पर सोकर ही करने को है।
सबसे पहले तो शरीर को पूरी तरह शिथिल छोड़ देना है, रिलैक्स कर देना है। और शरीर के साथ एक बहुत मजा है, हम जो भी आज्ञा उसे दें, वह हमेशा मानने को तैयार
है। हम हाथ से कहते हैं: उठो, तो हाथ उठ आता है। हम पैरों से
कहते हैं: चलो, पैर चलने लगते हैं। हम पैरों से कहते हैं:
खतरा है, दौड़ो, तो पैर दौड़ने लगते हैं।
जब शरीर दौड़ने के लिए आज्ञा मानता है, चलने के लिए आज्ञा
मानता है, तो क्या शरीर सोने के लिए आज्ञा नहीं मानेगा?
जरूर मानेगा। हमने कभी आज्ञा दी नहीं है, इसलिए
हमें पता नहीं। शरीर यह भी मान लेता है कि बिलकुल शिथिल हो जाओ, तो शरीर बिलकुल शिथिल भी हो जाता है। और शरीर इतना शिथिल हो सकता है कि
जैसे बिलकुल मिट गया, शून्य हो गया।
शरीर जब पूरी तरह शिथिल हो जाता है, तो शरीर की शिथिलता
का परिणाम होता है कि श्वास अपने आप धीमी हो जाती है। जब हम दौड़ते हैं तो श्वास
तेज हो जाती है, जब हम क्रोध में होते हैं तब भी श्वास तेज
हो जाती है; जब कोई तीव्र वासना से भरता है तब भी श्वास तेज
हो जाती है; जब शरीर को हम बिलकुल शिथिल छोड़ देते हैं तो
श्वास भी शिथिल होकर एकदम शांत हो जाती है, बहुत धीमी हो
जाती है।
एक तरफ तो श्वास शरीर से जुड़ी है और दूसरी तरफ श्वास विचार से जुड़ी
है। जब आपके विचार बहुत तीव्र चलते हैं, क्रोध में या वासना
की किसी भी चित्त-स्थिति में, तो श्वास तेज हो जाती है। तो
जब श्वास शांत होती है तो अपने आप विचार भी भीतर शांत हो जाते हैं। तो सबसे पहले
तो शरीर को एकदम शिथिल छोड़ देना है, आज्ञा देनी है कि शिथिल
हो जाओ, शिथिल हो जाओ। एक दो-चार-आठ दिन के प्रयोग से आप
पाएंगे कि शरीर को इतना शिथिल किया जा सकता है कि कोई आपरेशन भी करे तो भी पता न
चले, इतना शिथिल हो सकता है शरीर।
फिर दूसरे तल पर अपने आप श्वास शिथिल हो जाएगी, लेकिन फिर श्वास को भी शिथिल होने की आज्ञा देनी है। और जब श्वास को भी
शिथिल होने की आज्ञा देंगे तो धीरे-धीरे पाएंगे कि श्वास भी इतनी शांत हो जाती है
कि कुछ दिनों के प्रयोग के बाद यह समझ में नहीं आता कि श्वास चल रही है या नहीं चल
रही है। चलती है, बहुत धीमी हो जाती है, जब श्वास बिलकुल धीमी हो जाती है। तो विचार एकदम विरल हो जाते हैं,
दूर-दूर हो जाते हैं; कभी आता है विचार,
कभी नहीं आता, एकदम ठहरे से रह जाते हैं।
फिर तीसरे तल पर विचारों को भी आज्ञा देनी है कि शांत हो जाओ, शिथिल हो जाओ, मौन हो जाओ। जब शरीर पर सफलता मिलती
है तो आपका आत्मविश्वास बढ़ जाता है। जब श्वास पर सफलता मिलती है तो और बढ़ जाता है।
फिर आप विचार को भी आज्ञा देने में समर्थ हो जाते हैं कि ठहर जाओ, रुक जाओ, शांत हो जाओ।
शरीर शिथिल हो जाए, श्वास शांत हो जाए और विचार
शून्य हो जाएं, तब क्या रह जाता है? तब
रह जाते हैं आप स्वयं। तब रह जाती है अकेली चेतना, अकेला बोध,
अकेली अवेयरनेस। तो उस बोध को शांति से जगाए रखना है, सोने नहीं देना है। अक्सर संभावना होती है, हमारा
शरीर शिथिल हुआ कि हम नींद में गए। क्योंकि हमारा शरीर कभी नींद में ही शिथिल नहीं
होता। असल में नींद भी हम भूल गए हैं, करीब-करीब भूल गए हैं।
मुश्किल से कोई आदमी ठीक से सोता है। नींद बिलकुल खत्म हो गई है। सभ्यता ने जिन
चीजों को नष्ट किया है उनमें नींद सबसे बहुमूल्य थी, उसको
नष्ट कर दिया है सभ्यता ने।
अमरीका जैसे मुल्कों में तो तीन आदमियों में से एक आदमी बिना दवा के
नहीं सो रहा है। अमरीका सबसे सभ्य मुल्क है इस वजह से। अमरीका में और सभ्यता आएगी
तो फिर तीन में से तीन ही दवा लेकर सोएंगे। अभी हम बहुत असभ्य हैं, अभी हम में से कई लोग बिना दवा के सो जाते हैं। लेकिन सभ्यता की दौड़ में
हम भी हैं, भगवान ने चाहा तो हम भी जल्दी सभ्य हो जाएंगे और
हम भी दवा लेकर सोया करेंगे।
नींद खत्म हो गई है। इसलिए आपकी नींद तो पूरी होती नहीं है, तो जैसे ही शरीर शिथिल होता है, नींद में डूबने की
संभावना है। इसलिए थोड़ा सचेत रहना है। तो सुबह मैंने जो आपसे कहा था, वह सचेतना का प्रयोग है, उसको जारी रखना है। शरीर को
सुझाव देना है: शिथिल हो जाओ; मन को, विचार
को, सबको शिथिल कर देना है; लेकिन भीतर
कोई भी आवाज सुनाई पड़ रही हो, उसके प्रति सचेत बने रहना है।
वह सचेतना के लिए मेजरमेंट होगा, नाप होगा कि मैं अभी जागा
हुआ हूं। भीतर जागते रहना है और सबको सुला देना है, शरीर को
सुला देना है, प्राण को सुला देना है, विचार
को सुला देना है, और खुद जागते रहना है।
थोड़ी ही देर में जब ये सब सो जाते हैं तो एक अपूर्व शांति का और आनंद
का बोध होना शुरू होता है, एक अपूर्व जागरण अनुभव होता है। तो कोई पंद्रह-बीस
मिनट, आधा घंटा, जितनी देर सुखद हो,
उस प्रयोग को करें, फिर चुपचाप सो जाएं बिस्तर
पर ही। तो उसी शांत-मौन स्थिति में रात बीत जाएगी। और अगर एक थोड़े दिन गहरा प्रयोग
चला, तो आप नींद में भी जानेंगे कि कोई जागा हुआ है, सब सो जाएगा और कोई जागा रहेगा, कोई भीतर जागा रहेगा,
कोई भीतर परिपूर्ण होश से भरा रहेगा। जब भीतर कोई जागा रहेगा तो
स्वप्न विलीन हो जाएंगे, कोई स्वप्न मन पर नहीं रह जाएगा। और
अगर रात पूरी की पूरी स्वप्न-शून्य हो जाए, तो दिन में इतनी
शांति अनुभव होगी जिसकी कल्पना भी नहीं है। रात के स्वप्न चित्त को कितना उद्विग्न
कर जाते हैं, उनका परिणाम पूरे दिन भर साथ रहता है। दिन भर
एक भीतर कोई शीतल और कोई शांत केंद्र बना रहेगा, सब चलता
रहेगा और भीतर कुछ शांत रहेगा।
तो इधर भी इस प्रयोग को अभी हम प्रयोग के लिए करेंगे। फिर तो आप लौट
कर जहां सोने जाएंगे अभी, वहां उसको करेंगे।
यहां क्या सोना संभव हो सकेगा?
अगर लोग थोड़ी-थोड़ी दूर फैल जाएंगे तब तो आप लेट कर कर सकते हैं, अन्यथा फिर बैठ कर ही करना पड़ेगा। बैठ कर करने पर भी काफी दूर हो जाना
जरूरी है, क्योंकि कुछ लोग बैठेंगे तो भी गिर जाएंगे। तो
इसलिए काफी दूर-दूर हो जाएं। जो सो सकते हों वे तो दूर हट कर कहीं सो जाएं। सबसे
सुखद तो यह होगा कि वे सोकर ही करें, ताकि जब वे कमरे पर
करेंगे तो उन्हें ठीक-ठीक अनुभव हो जाए कि क्या करना है। लेकिन जिन लोगों को सोने
में थोड़ी अड़चन हो, बैठने में थोड़ा अच्छा लगता हो, तो वे बैठें, लेकिन वे भी इतनी दूर बैठें, क्योंकि उनमें से कुछ लोग गिरेंगे, वे किसी के ऊपर
गिर जाएंगे तो तकलीफ होगी। दूर-दूर हट जाएं!
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