ओशो
पांचवां प्रवचन
आध्यात्मिक विकास में चरित्र का स्थान
किसी
मित्र ने पूछा है: वैयक्तिक आध्यात्मिक विकास में चरित्र का कोई स्थान है या नहीं?
किसी
और ने भी पूछा है कि ज्ञान छोड़ देना पड़ेगा, भक्ति छोड़ देनी पड़ेगी, तब भी नैतिकता को तो पकड़ना होगा, आचरण को तो पकड़ना
होगा!
एक और मित्र ने भी, नीति और धर्म का क्या संबंध है,
इस संबंध में पूछा है।
सबसे
पहले इसी प्रश्न को मैं ले लेता हूं। अब तक ऐसी ही धारणा रही है कि नैतिक हुए बिना
धार्मिक नहीं हुआ जा सकता है। नैतिक जीवन को साधा जाए, मॉरेलिटी
को, तो ही कोई धार्मिक हो सकता है। नीति धर्म की पहली सीढ़ी
है, ऐसी धारणा रही है।
मेरे
देखे, बात बिलकुल उलटी है। नैतिक होने से तो कोई धार्मिक नहीं होता, लेकिन जो धार्मिक हो जाता है वह जरूर नैतिक हो जाता है। आचरण केंद्र नहीं
है जीवन का, केंद्र तो है अंतरात्मा, अंतस।
तो जिसका अंतःकरण परिवर्तित हो जाता है, उसका आचरण तो
निश्चित ही बदल जाता है। लेकिन आचरण कोई बदल ले और सोचे कि इससे अंतःकरण बदल जाएगा,
तो भूल हो जाती है।
आचरण
तो वस्त्रों की भांति है,
जो ऊपर से पहना जा सकता है, उससे आत्मा के
बदलने का कोई संबंध नहीं है। आचरण तो ऊपर से ओढ़ा जा सकता है। नैतिक आचरण ओढ़ा हुआ
आचरण होता है। उसे ओढ़ने की हजार विधियां हैं। लेकिन वस्त्रों से ज्यादा गहरा वह
कभी नहीं हो पाता है। अंतरात्मा तक उसकी कभी पहुंच नहीं हो पाती। बल्कि
जितना-जितना हम ऊपर से आचरण को ओढ़ लेते हैं, अंतस में ठीक
उससे विरोधी वृत्तियों को हम दबाते चले जाते हैं और जीवन में एक सहजता, एकरसता और संगीत पैदा होने की बजाय एक द्वंद्व, एक
कांफ्लिक्ट पैदा हो जाता है। अंतर्द्वंद्व से भर जाता है व्यक्ति। भीतर होती है
हिंसा, आचरण में अहिंसा को ओढ़ लेता है। भीतर होती है घृणा,
ऊपर प्रेम की मुस्कुराहट को सीख लेता है। भीतर होता है क्रोध,
ऊपर से क्षमा के शब्द अभ्यास कर लेता है। ऐसे बाहर से अपने को सजा
लेता है, और भीतर? भीतर होती है ठीक
विपरीत स्थिति। ऊपर होता है ब्रह्मचर्य, भीतर होता है सेक्स,
भीतर होती है कामवासना। क्यों? क्योंकि भीतर
का तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ, आचरण को बदल लिया। आचरण की
बदलाहट का क्या अर्थ होगा? आचरण की बदलाहट का अर्थ होगा: दमन,
सप्रेशन। क्या करेंगे हम?
भीतर
है क्रोध और शिक्षाएं कहती हैं क्रोध करना बुरा है, तो फिर हम क्रोध न करने की
कोशिश करेंगे, यही करेंगे। क्रोध को दबाएंगे, न निकलने देंगे; क्रोध से लड़ेंगे, न उसको अपने ऊपर प्रभावी होने देंगे। तो क्या होगा? क्रोध
की शक्तियां भीतर दमित हो जाएंगी। लेकिन नष्ट नहीं होंगी। और तब क्रोध नये-नये
रास्तों से निकलने की कोशिश करेगा, नये-नये मार्ग खोजेगा। ये
मार्ग पहले मार्ग से भी ज्यादा विकृत होंगे। पहला मार्ग तो फिर भी स्वाभाविक था,
ये मार्ग अप्राकृतिक होंगे। और क्रोध रास्ते खोजेगा निकलने के। अगर
कोई रास्ते न देंगे तो स्वप्न में निकलेगा, जिसे दिन में
दबाएंगे वह फिर रात सपनों में सामने खड़ा हो जाएगा।
अच्छे
लोग बुरे सपने देखते हैं। जिनको हम सच्चरित्र कहते हैं वे दुश्चरित्रता के सपने
देखते हैं। देखेंगे ही! क्योंकि दिन भर जब तक वे जागे हुए हैं, तब तक तो
सम्हाले रखेंगे, दबाए रखेंगे, लेकिन जब
सो जाएंगे तब? तब जो दबाया था वह निकलना शुरू हो जाएगा।
ऋषि-मुनियों
की हम कथाएं पढ़ते हैं,
कि उनको सताने के लिए, डिगाने के लिए अप्सराएं
आकाश से उतरा करती थीं। क्या आप सोचते हैं, भगवान ने कोई ऐसा
डिपार्टमेंट, कोई मिनिस्टरी खोल रखी होगी कि ऋषि-मुनियों को
सताए, अप्सराएं भेजे? क्या पागलपन की
बात है! लेकिन पुरानी नैतिकता कोई और व्याख्या नहीं खोज सकती थी इसलिए उसने कहा कि
ऋषि-मुनियों को सताने के लिए इंद्र अप्सराओं को भेज देता है। लेकिन किसको क्या पड़ी
है किसी ऋषि-मुनि को सताने की? और इंद्र के जिम्मे यह काम,
यह पोर्टफोलियो काहे को सौंपा जाता है कि वह यह धंधा करे? और यह धंधा चल रहा है।
नहीं; कहीं से
कोई अप्सराएं कभी नहीं आई हैं। लेकिन जिनको हम ऋषि-मुनि कहते हैं, उन्होंने अगर अपनी कामवासना को बहुत तीव्रता से दबाया हो, भीतर दमन किया हो, दिन-रात चौबीस घंटे, वर्षों तक उसके ऊपर चढ़ कर बैठे रहे हों अपनी वासना के, तो किन्हीं भी कमजोर क्षणों में वह वासना वापस लौट सकती है। और दबाई हुई
वासना इतनी तीव्र हो जाती है कि अप्सराएं बिलकुल सजीव मालूम पड़ सकती हैं। ये
अप्सराएं कहीं और से नहीं, खुद के अचेतन मन, खुद के अनकांशस माइंड से आती हैं।
अगर
आप उन रास्तों से निकलते होते जहां ऋषि-मुनियों को अप्सराएं सता रही हैं, तो आपको
कोई अप्सराएं दिखाई न पड़तीं। वे सिर्फ उन्हीं को दिखाई पड़ रही थीं। वे कहीं और से
नहीं, भीतर से आई थीं।
आजकल
के ऋषि-मुनियों को अप्सराएं बहुत कम सताती हैं, क्योंकि आजकल के ऋषि-मुनि उतना
सप्रेशन नहीं करते, उतना दमन नहीं करते। उनको अगर कोई सताता
भी होगा तो पास-पड़ोस की स्त्रियां सताती होंगी, कोई आकाश की
अप्सराएं सताने नहीं आतीं। दमन उतना ज्यादा नहीं है अब। जितना दमन होगा उतना वेग
मिल जाता है वासनाओं को।
हम
ऋषि-मुनियों की कथाएं पढ़ते हैं कि वे क्रोध में आ जाते थे तो अभिशाप दे देते थे।
कोई
ऋषि और मुनि अभिशाप देगा?
जन्मों-जन्मों
तक के लिए किसी को दुख पहुंचाना चाहेगा? यह दबाया हुआ क्रोध है जो अभिशाप
बन जाता है। बहुत दिन तक दबाया गया, जब फूटेगा तो पूरी ताकत
से फूटेगा। आप भी किसी पर क्रोधित हो जाते हैं तो जन्मों-जन्मों के लिए उसको कष्ट
नहीं देना चाहेंगे। लेकिन ऋषि-मुनि देना चाहते थे। क्या बात रही होगी?
दबाया
होगा जीवन भर क्रोध को,
क्रोध हो गया होगा इकट्ठा, कनडेंस्ड, सघन हो गया होगा चित्त के भीतर। और जब किसी पर टूट पड़ा होगा तो फिर
छोटा-मोटा कष्ट देने से वह राजी नहीं हो सकता, वह तो
जन्मों-जन्मों तक दुख देने की आकांक्षा करेगा, नरकों में
सड़ाने की आकांक्षा करेगा। यह दबे हुए क्रोध का परिणाम है।
नैतिक
पुरुष करता है दमन। और दमन से मनुष्य टूट जाता है खंड-खंडों में। और जो मनुष्य
जितने खंडों में टूट जाता है उतने ही दुख में पड़ जाता है। स्वाभाविक, जब हम
अपने क्रोध को गाली देने लगते हैं, अपनी वासना का दमन और
निंदा करने लगते हैं, तो हम कर क्या रहे हैं? हम किससे लड़ रहे हैं? हम खुद अपने से लड़ रहे हैं।
मतलब हम अपने को दो हिस्सों में तोड़ रहे हैं, एक हिस्से को
कह रहे हैं बुरा और एक को कह रहे हैं अच्छा। जो अच्छा है उसे बुरे के ऊपर उसकी
छाती पर बिठालने की कोशिश कर रहे हैं। कौन कर रहा है यह कोशिश और किसके लिए कर रहा
है?
जैसे
मैं अपने दोनों हाथों को लड़ाने लगूं, तो कोई जीतेगा? मेरे ही दोनों हाथ हैं, दोनों में मेरी ही शक्ति लग
रही है, तो कैसे कोई हाथ जीत सकता है? हां,
यह हो सकता है, एक हाथ ऊपर हो जाए, दूसरा नीचे हो जाए। और यह भी ज्यादा देर नहीं रह सकता, क्योंकि ताकत तो दोनों के पीछे मेरी है। और कोई हाथ कभी जीत तो सकता नहीं
है, क्योंकि दोनों हाथ मेरे हैं और दोनों के पीछे मेरी ताकत
है। जीतेगा तो कोई भी नहीं, हारेगा कोई भी नहीं। एक बात हो
जाएगी--दोनों को लड़ाने में मैं टूट जाऊंगा, मेरी शक्ति नष्ट
हो जाएगी।
क्रोध
से लड़ रहे हैं,
क्रोध किसकी शक्ति है? सेक्स से लड़ रहे हैं,
सेक्स किसकी शक्ति है? आपकी! लड़ कौन रहा है?
आप! अपनी ही शक्ति को दो तरफ से विभाजित करके लड़ाई चला रहे हैं,
इससे क्या होगा? इससे तो क्षीणता होगी! इससे
आप बलवान थोड़े ही होंगे, कमजोर होंगे! इससे आप विकसित थोड़े
ही होंगे, टूटेंगे और खंडित होंगे।
नैतिकता
तो एक दमन और द्वंद्व पर खड़ी होती है। धर्म बड़ी और बात है। धर्म द्वंद्व और संघर्ष
नहीं है। धर्म तो समस्त जीवन की शक्तियों का सम्यक बोध है। और यह बड़े आश्चर्य की
बात है कि जो व्यक्ति क्रोध को ठीक से समझ लेता है, उसका क्रोध बिना प्रयास किए
क्षमा बन जाता है। और जो व्यक्ति अपनी काम की वासना को सम्यकरूपेण समझ लेता है,
जान लेता है, पहचान लेता है, खोज लेता है, उसकी काम की शक्ति ही ब्रह्मचर्य बन
जाती है। ब्रह्मचर्य काम का विरोध नहीं है, काम का ही
परिवर्तित, काम का ही परिवर्तित रूप है, उसका ही ट्रांसफार्मेशन है।
नैतिकता
सिखाती है: विरोध। धर्म सिखाता है: सम-परिवर्तन। धर्म सिखाता है: ट्रांसफार्मेशन।
धर्म है जीवन की शक्तियों का परिवर्तन। जीवन में धर्म की दृष्टि से कुछ भी बुरा
नहीं है। ठीक से प्रयुक्त शक्तियां हैं और गलत ढंग से प्रयुक्त शक्तियां हैं। कोई
शक्ति बुरी नहीं है,
धर्म की दृष्टि से। पूरे जीवन में जो कुछ भी है, कुछ भी बुरा नहीं है। अगर हम सोए हुए हैं, तो जो
शक्तियां हैं उनका दुरुपयोग होना निश्चित है। और अगर हम जागे हुए हैं, तो जो शक्तियां हैं उनका सदुपयोग होना निश्चित है। सवाल यह नहीं है कि
आपके भीतर कौन सी चीज बुरी है, सवाल केवल इतना है कि आप सोए
हुए आदमी हैं या जागे हुए आदमी हैं।
धर्म
की दृष्टि में प्रश्न सोने और जागने का है। धर्म की दृष्टि में, क्रोध
बुरा है और क्षमा अच्छी है, और सेक्स बुरा है और ब्रह्मचर्य
अच्छा है, ऐसा कोई भाव नहीं है। क्योंकि धर्म तो समग्र
शक्तियों का स्वीकार है। और शक्ति क्या कभी कोई बुरी होती है? शक्ति तो होती है तटस्थ, शक्ति न तो बुरी होती है और
न अच्छी होती है। अगर व्यक्ति सोया हो तो शक्ति खतरनाक हो जाती है, क्योंकि नींद में हम उसका जो भी उपयोग करेंगे वह गलत होगा। जाग जाएं तो
शक्ति साथी हो जाती है, क्योंकि जागने पर जो भी हम उपयोग
करेंगे उसका वह सम्यक होगा, वह ठीक होगा।
तो
मैं आपको कहूंगा,
नैतिकता ने सिखाया है कंडेमनेशन, नैतिकता ने
सिखाई है निंदा कुछ शक्तियों की और कुछ शक्तियों की प्रशंसा; और इन दोनों के बीच द्वंद्व खड़ा कर दिया है और हर मनुष्य को पीड़ित कर दिया
है।
दुनिया
में मनुष्य-जाति के भीतर थोड़े से लोग ही सुगंध को उपलब्ध हो सके, उसका सारा
जिम्मा नैतिकता पर है। क्योंकि जो लोग अंतर्द्वंद्व से भर जाते हैं, उनके जीवन में सुगंध कभी पैदा ही नहीं हो सकती। वे तो अपने भीतर लड़ते हैं,
घुलते हैं, नष्ट होते हैं, दुखी होते हैं, पीड़ित होते हैं, चिंतित होते हैं और टूटते हैं। नैतिकता की इस शिक्षा ने, जो कहती है आचरण को ठीक कर लो, सारे जीवन को विकृत और
विषाक्त कर दिया है। सबसे बड़ा पायजन, सबसे बड़ा जहर नैतिकता
की यह शिक्षा हुई है, जो कहती है आचरण को बदल लो।
धर्म
यह नहीं कहता कि आचरण को बदल लो। धर्म कहता है: अंतस को जगाओ। और अंतस जैसे ही
जागता है, आचरण अपने आप बदलता है, उसे बदलना नहीं पड़ता है।
जैसे बैलगाड़ी चलती है तो उसके चाक के निशान पीछे बन जाते हैं, उनको बनाना नहीं पड़ता है। वैसे ही जब अंतःकरण जागता है तो पीछे से नैतिकता
के चिह्न अपने आप आने शुरू हो जाते हैं। नैतिकता बाइ-प्रोडक्ट है। नैतिकता वैसे ही
है जैसे कोई गेहूं को बोता है तो भूसा अपने आप पैदा हो जाता है। कोई भूसे को पैदा
करने के लिए बोना नहीं पड़ता; गेहूं पैदा होते हैं, उनके साथ भूसा भी पैदा हो जाता है। नैतिकता भूसे की भांति है, धर्म गेहूं की भांति। जब भीतर अंतःकरण जागता है तो नैतिकता अपने आप चली
आती है। नैतिकता तो छाया है।
और
स्मरण रखें, छाया को कभी भी सीधा नहीं लाया जा सकता है। हम आपको तो निमंत्रित कर सकते
हैं, आप आएंगे तो आपकी छाया भी आ जाएगी। लेकिन आपसे कहें कि
तुम्हारी तो हमें कोई फिक्र नहीं, हम आपकी छाया को निमंत्रित
करते हैं। तो अगर आप नहीं आए तो फिर छाया भी नहीं आएगी। छाया तो आपके पीछे आती है।
नीति
है छाया धर्म की,
धर्म आता है तो नीति आती है। लेकिन हजारों साल से हम नीति को लाने
की कोशिश कर रहे हैं। वह नीति अब तक नहीं आ पाई है; कभी नहीं
आएगी। वह बात ही गलत है, निमंत्रण गलत दे दिया गया है। छाया
को निमंत्रण कभी नहीं दिया जाता। उसको निमंत्रण देने का कोई अर्थ ही नहीं है,
वह धोखा है, आत्मवंचना है।
परिणाम
यह हुआ है कि नीति तो नहीं आ पाई--धर्म तो आया ही नहीं, नीति भी
नहीं आ पाई--आया है पाखंड। नीति के नाम से आया है अभिनय, आई
है एक्टिंग। हम किसी भांति कोशिश करके नैतिक दिखाने की कोशिश करते रहते हैं। और यह
कोशिश करने में जो केंद्र है वह कोई बड़ी शुभ स्थिति नहीं है, वह केंद्र है अहंकार। नैतिक मनुष्य के अहंकार को तृप्ति देता है समाज,
इसलिए वह नैतिक होने की कोशिश करता, दिखलाता
रहता है। लोग कहते हैं, बहुत सज्जन हैं, बहुत भले हैं, संत पुरुष हैं, साधु
हैं, फलां हैं, ढिकां हैं। बचपन से ही
उसके अहंकार को हम सजाना शुरू कर देते हैं कि यह आदमी बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है। उसके आस-पास अहंकार के एक बल, पोषण
मिलने लगता है। अब वह बुरा होने का साहस खो देता है, क्योंकि
बुरा होने का मतलब अहंकार को चोट पहुंचेगी। लोग क्या कहेंगे? तो लोग क्या कहेंगे, यह हमारी सारी नीति का आधार बना
हुआ है। यह आधार बिलकुल झूठा है। इसीलिए दुनिया में नीतियां अलग-अलग हैं। धर्म तो
अलग-अलग नहीं हो सकता है। क्योंकि अलग-अलग जगह लोग अलग-अलग बातों की प्रशंसा करते
हैं, इसलिए अलग-अलग जगह के नैतिक लोग अलग-अलग ढंग के होते
हैं। हिंदुस्तान में जिस बात की प्रशंसा की जाती है उस भांति का नैतिक व्यक्ति
होता है, चीन में उस भांति का, तिब्बत
में तीसरी भांति का। यह जो नैतिक पुरुष का भेद है सारी दुनिया में, यह जो सज्जन और अच्छा आदमी है, इसका जो भेद है,
यह क्यों है? लोग क्या कहेंगे, इस पर इसका सब निर्भर है, सारी बात इस पर टिकी हुई
है, आधार इस पर है।
धार्मिक
मनुष्य यह कभी नहीं सोचता कि लोग क्या कहेंगे। धार्मिक मनुष्य तो देखता है कि उसकी
आत्मा क्या कहती है। वह आदमी तो कमजोर है, गुलाम है, जो
यह सोचता है कि लोग क्या कहेंगे। वह आदमी तो परतंत्र है। धार्मिक चित्त तो देखता
है कि मेरे प्राण क्या कहते हैं! यह सारी दुनिया कुछ कहे, इससे
कोई फर्क नहीं पड़ता है।
नैतिक
व्यक्ति जिसको हम कहते हैं वह तो कमजोर आदमी होता है। धार्मिक व्यक्ति बहुत
शक्तिशाली बात है।
यह
जो हमने नैतिकता का एक आवरण खड़ा किया हुआ है, इसकी कुछ उपादेयता समाज को रही है।
समाज के सामने कुछ प्रश्न रहे हैं, समाज के सामने कुछ
समस्याएं रही हैं, उनको उसे हल करना है। उसने तीन तलों पर
उसको हल करने की कोशिश की है। प्राथमिक तल पर उसने अदालतें बिठाई हैं, कानून बनाया है। कोई चोरी न कर सके, झूठ न बोल सके,
कोई किसी की संपत्ति न ले जा सके, कोई किसी की
हत्या न कर सके, उसने अदालतें और कानून बनाए हैं।
लेकिन
थोड़े ही दिन में समाज को यह समझ में आ गया कि जो बहुत होशियार लोग हैं अदालत को
धोखा दे सकते हैं। अदालत के चक्कर में जो कम होशियार लोग हैं, वे फंस
जाते हैं, जो होशियार लोग हैं वे तो खुद मजिस्ट्रेट हो जाते
हैं। तो अदालत क्या करेगी? आखिर अदालत तो आदमी के हाथ में
छोड़नी पड़ेगी! तो जो आदमी होशियार हैं वे चोरों का फैसला करने लगते हैं, जो कम होशियार हैं वे चोरी में फंस जाते हैं और सजा भोगते हैं। दुनिया में
दो तरह के चोर हैं--एक होशियार चोर, वे जेल के बाहर रहते हैं;
और कम होशियार चोर, वे जेल के भीतर रहते हैं।
बहुत जल्दी समाज को पता चल गया होगा कि यह तो कठिन है, यह तो
बात हल नहीं होती दिखती।
तो
फिर एक-एक व्यक्ति के भीतर अंतःकरण, कांशियंस पैदा करने की कोशिश की
गई--कि भीतर एक रुकावट पैदा करो कि उसका हृदय कहने लगे कि तुम यह गलत करते हो,
मत करो। तो छोटे बच्चे के मन में हमने भरने की कोशिश की--चोरी बुरी
है, झूठ बोलना बुरा है, यह बुरा है,
वह बुरा है। उसे भय दिया, सब तरह के प्रलोभन,
भय, उसको हमने सिखाया, उसके
अचेतन मन में हमने कुछ धारणाएं बिठा दीं। जब वह चोरी करने जाए तो उसके भीतर से कोई
कहने लगे कि चोरी करना बुरा है। एक भय उसको भीतर से रोकने के लिए। बाहर अदालत है
रोकने के लिए; भीतर भी हमने एक अंतःकरण की शिक्षा दी है जो
रोके।
लेकिन
इतना भी काफी नहीं है,
क्योंकि अगर अंतःकरण के खिलाफ कोई दो-चार-दस दफा प्रयोग करता चला
जाए तो फिर वह आवाज क्षीण हो जाती है और फिर वह आवाज बोलना बंद हो जाती है। तो
तीसरी व्यवस्था हमने यह की है कि परलोक का भय है और नरक जाने का, और स्वर्ग का प्रलोभन है; और परमात्मा ऊपर बिठाया
हुआ है। नीचे पुलिस का आदमी है, ऊपर परमात्मा। वह सुप्रीम
कांस्टेबल की तरह उसको बिठाया हुआ है। वह ऊपर से सबको देख रहा है, निर्णय करेगा, मरने पर सजा देगा, नरक में भेजेगा, जो अच्छे लोग होंगे उनको पुरस्कार
देगा।
ऐसी
तीन तलों पर हमने व्यवस्था की है, समाज का जीवन किसी भांति चल सके इसलिए। इसका
धर्म से कोई भी संबंध नहीं है। और यह हमें करना इसलिए पड़ा है कि हम मनुष्य को अब
तक धार्मिक बनाने में सफल नहीं हो पाए, इसलिए नीति की
व्यवस्था करनी पड़ी है। नीति की व्यवस्था धार्मिक व्यवस्था नहीं, धर्म के असफल होने के कारण करनी पड़ी है। सब्स्टीटयूट है यह, यह पूरक है, किसी भांति इससे काम चला रहे हैं। जिस
दिन धार्मिक मनुष्य का जन्म हो सकेगा उस दिन नीति की कोई भी जरूरत नहीं रह जाएगी।
नीति की जरूरत है अधार्मिक मनुष्य के लिए, मजबूरी है,
नीति एक मजबूरी है समाज के सामने। उसे किसी तरह व्यवस्था कर ली है।
लेकिन जो उसको ही धर्म समझ लेते होंगे, वे गलती में पड़ जाते
हैं।
नीति
नहीं है धर्म। धर्म तो बात ही और है, दिशा ही और है। नीति है आचरण की
व्यवस्था, धर्म है प्राणों का परिवर्तन। आचरण है वस्त्र की
भांति, ओढ़े जा सकते हैं, बदले जा सकते
हैं। इसलिए आज जो सज्जन है, कल दुर्जन हो सकता है; आज जो संत है, कल पापी हो सकता है। लेकिन जो आज
धार्मिक है वह कल अधार्मिक नहीं हो सकता। यह असंभावना है कि जो धार्मिक है वह
अधार्मिक हो जाए। क्योंकि धर्म में तो बदल जाते हैं प्राण; और
नीति में बदलते हैं केवल वस्त्र, कल फिर बदले जा सकते हैं,
आत्मा नहीं ट्रांसफार्म होती है।
यह
जो खयाल है कि नैतिकता साधे बिना धर्म नहीं सधेगा, गलत है। उचित और सही दृष्टि
तो यह है कि धर्म साधे बिना नैतिकता नहीं सधेगी। धर्म आना चाहिए जीवन में। धर्म की
दृष्टि खंड-खंड करने की दृष्टि नहीं है। धर्म यह नहीं कहता कि यह बुरा है, इसे छोड़ दो। धर्म तो कहता है कि जीवन में जो कुछ है, उस सब में कुछ निहित अभिप्राय है। जीवन की जो भी शक्ति है उसमें कुछ निहित
अभिप्राय है, कोई अर्थ है। उस अर्थ को खोजना है, उस अर्थ को पाना है, उस अर्थ को उघाड़ना है।
जैसे
बीज है, तो बीज तो बिलकुल व्यर्थ मालूम होता है, उसमें तो
कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता कि क्या है। लेकिन उसे हम बो दें, तो
उसमें से अंकुर निकल आता है। और तब हमें पता चलता है कि वह जो ठोस कंकड़ के जैसा
दिखाई पड़ने वाला बीज था, वह भी अपने भीतर प्राणों को और
शक्ति को छिपाए था। उसमें से अंकुर आया, उसमें से पत्ते आए,
वह बड़ा हुआ, आकाश को छूने वाला पौधा बन गया,
वृक्ष बन गया, उसमें फल आए, फूल आए, उसमें सुगंध आई, उसमें
आनंद की थिरक आई, उसमें संगीत आया, उसमें
सब कुछ आया। और एक बीज था, उस बीज में कुछ भी दिखाई नहीं
पड़ता था।
मनुष्य
को बीज की तरह शक्तियां मिली हुई हैं। जो उन पर ठीक से श्रम करता है, जो उनको
समझता है, उनके बोध को उपलब्ध होता है, वह उन बीजों को धीरे-धीरे वृक्षों में परिणत कर लेता है, और वे बीज फूल बन जाते हैं, सुगंध बन जाते हैं। जीवन
में कुछ भी बुरा नहीं है। बीज की तरह जो पड़ा है वह व्यर्थ दिखाई पड़ता है, उससे हम छुटकारा पाना चाहेंगे तो गलती हो जाएगी। अगर किसी आदमी के भीतर से
उसकी सारी शक्तियां, जिनको नैतिकता कहती है कि गलत हैं,
छीन ली जाएं, तो आदमी बिलकुल ही, बिलकुल ही निःसत्व हो जाएगा, इंपोटेंट हो जाएगा,
उसके भीतर कुछ भी नहीं बचेगा।
अगर
हम क्रोध को छीन लें बिलकुल, सेक्स को बिलकुल छीन लें, क्या बचेगा आदमी के पास? आदमी बिलकुल जड़ हो जाएगा,
उसके भीतर कोई गति नहीं रह जाएगी। नहीं; सेक्स
को छीनना नहीं है और न क्रोध को छीन लेना है, परिवर्तित करना
है। क्रोध को विकसित करना है, उसके बीज को वृक्ष तक ले जाना
है। और तब क्रोध के भीतर से ही क्षमा के फूल लगते हैं। और तब सेक्स के बीज से ही
विकसित होता है ब्रह्मचर्य। और तब घृणा की शक्ति ही प्रेम बन जाती है। ये विरोधी
चीजें नहीं हैं, ये एक ही अविकसित चीज का विकसित रूप है।
कोई
आदमी अपने घर में खाद लाकर रख ले, तो दुर्गंध पैदा हो जाएगी, घर में रहना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन उसी खाद को कोई बगिया में डालता है,
तो वही खाद थोड़े दिनों में फूलों की यात्रा बन कर सुगंध से भर उठती
है, सुगंध फैला देती है। खाद की दुर्गंध ही सुगंध बन जाती है
फूलों से यात्रा करके। और कोई खाद को ही रख ले तो जीना मुश्किल हो जाए और कोई
फूलों को घर में उगा ले तो जीने में एक अर्थ आ जाता है।
हमारे
भीतर भी शक्तियां उपलब्ध हैं। कुछ लोग उन्हें खाद की भांति ही रखे रहते हैं और
दुर्गंध से भर जाते हैं। इससे वे नाराज अगर शक्तियों पर होने लगें तो गलती हो
जाएगी, यह नाराजगी शक्तियों पर करनी ठीक नहीं है। जानना चाहिए कि मुझे कुछ मिला
था जिसको मैंने विकसित नहीं किया और खाद की तरह घर में रखे हुए हूं, तो गंदगी तो फैलेगी, दुर्गंध फैलेगी। मुझे उस शक्ति
को बोना चाहिए था, बगिया बनानी चाहिए थी जीवन की, उसमें फूल आते और सुगंध आती।
बहुत
लोग यह सोच लेते हैं कि जीवन जैसा मिला है, बस वहीं बात समाप्त हो गई। नहीं;
जीवन तो मिला है बीज की भांति, वहां से यात्रा
शुरू होती है, समाप्त नहीं। कोई मनुष्य पैदा होने के साथ
पैदा नहीं हो जाता, केवल पैदा होने के साथ पैदा होने की
शुरुआत होती है। हम जिसको जन्मदिन कहते हैं वह जन्म का दिन नहीं है, क्योंकि आदमी तो मरते तक जन्मता रहता है, कांस्टेंट
बर्थ होती रहती है। जिस दिन मर जाता है उसी दिन जन्मना बंद होता है, नहीं तो जन्मता ही रहता है। तो निरंतर पैदा होता रहता है, रोज-रोज पैदा होता रहता है। लेकिन हां, कुछ
दुर्भाग्य ऐसा है कि बहुत से लोग जन्म के साथ ही उनका जन्मना बंद हो जाता है,
वे वहीं रुक जाते हैं, वहीं ठहर जाते हैं,
वे उसको ही जीवन समझ लेते हैं।
वह
जीवन नहीं है,
वह तो केवल बीज-रूप था। अभी उसमें से कुछ होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया, इसलिए सब दुर्गंध हो जाती है। फिर
इस दुर्गंध से हम लड़ते हैं। हम कहते हैं: क्रोध नहीं होना चाहिए। हम कहते हैं:
सेक्स नहीं होना चाहिए। हम कहते हैं: यह नहीं...। और इस लड़ाई में हम और टूटते हैं
और गंदे होते चले जाते हैं।
संघर्ष
इस भांति का नहीं है,
द्वंद्व इस भांति का नहीं है। जीवन की शक्तियों का समग्र स्वीकार
होना चाहिए और एक-एक शक्ति में खोजना चाहिए कि कौन सा रहस्य छिपा है। परमात्मा ने
जो भी दिया है वह व्यर्थ नहीं हो सकता और न बुरा हो सकता है। हम जानने में भूल कर
रहे होंगे, हम पहचानने में भूल कर रहे होंगे, हम चीजों की शक्तियों के अर्थ को न जान पा रहे होंगे, इसलिए सारी गड़बड़ हो रही है। जीवन में तो जो कुछ है सब शुभ और सुंदर को
छिपाए हुए है। हम कुछ भूल कर रहे होंगे। और एक ही हमारी भूल है कि हम सोए हुए हैं।
जागना चाहिए, अपनी जीवन की सारी शक्तियों के प्रति जागना
चाहिए। उस जागरण से वे शक्तियां बदलनी शुरू हो जाएंगी।
कभी
आपने कोई प्रयोग किया है किसी शक्ति के प्रति जागने का? निंदा की
होगी, लड़े होंगे, लेकिन जागे कभी नहीं
होंगे। कभी क्रोध के प्रति जागने का प्रयोग किया है कि यह क्रोध क्या है? लेकिन शत्रु होकर बैठे हैं क्रोध के कि क्रोध के हम शत्रु हैं, क्रोध शत्रु है, इसको मिटाओ।
यह
कैसे संभव है कि शत्रु आपके भीतर दिया गया हो? क्या प्रकृति और परमात्मा आपको
परेशान करना चाहते हैं? नहीं लेकिन, नैतिक
शिक्षा ने बड़ी गड़बड़ कर दी है, उसने सिखा दिया है यह शत्रु
है। मैं आपसे कहता हूं, जीवन में सब कुछ मित्र है, शत्रु कोई भी नहीं। इस क्रोध के प्रति कभी जागे हैं? कभी इसको पहचानने की कोशिश की है--यह क्या है? यह
ऊर्जा, यह शक्ति क्या है? अगर जागे
होते तो हैरान हो जाते।
मेरे
एक मित्र को बहुत क्रोध आता था। वे मुझसे पूछने आए कि इससे मैं कैसे मुक्त होऊं? इससे कैसे
इस झंझट से छुटकारा पाऊं?
मैंने
कहा, तब तुम कहीं और जाओ। क्योंकि मैं तो इसको झंझट मानता नहीं और न शत्रु
मानता हूं, तुम गलत जगह आ गए हो। मैं तो मानता हूं इसे
मित्र। तो मेरे सामने सवाल यह नहीं है कि क्रोध नाम के शत्रु से कैसे मुक्त हो जाओ,
मेरे सामने सवाल यह है कि क्रोध नाम के मित्र के साथ पूरी मैत्री
कैसे बन जाए। तो अगर मैत्री सीखनी हो तो ठीक आ गए और अगर शत्रुता सीखनी हो तो कहीं
और जाओ।
वे
बोले, कैसे इसके प्रति मित्र बनें? क्या करें?
मैंने
उनको कहा, इसके प्रति जागें, जब भी क्रोध आए तो एक मौका समझें
इसको, एक शुभ अवसर समझें कि भीतर एक शक्ति जगी है, मैं इसको देखूं कि यह क्या है? द्वार बंद कर लें,
शांत बैठ जाएं, क्रोध के ऊपर मेडिटेशन करें,
क्रोध के ऊपर ध्यान करें पूरी तरह--जैसे हम सुबह पक्षियों को सुनते
हैं, ध्वनियों को सुनते हैं। शांत बैठ जाएं, क्रोध की पगध्वनियों को सुनें कि यह क्रोध कहां-कहां चित्त के किस-किस
कोने में जा रहा है और क्या कर रहा है? अदभुत शक्ति जगी है
भीतर, यह क्या कर रही है? यह क्या होना
चाहती है?
वे
कुछ दिनों बाद आए और उन्होंने कहा, यह तो बड़ी हैरानी की बात है! जैसे
ही मैं जागता हूं, क्रोध शांत हो जाता है। आंख बंद करता हूं,
क्रोध कहीं मिलता नहीं।
तो
मैंने कहा, ठीक से जागते रहें, धीरे-धीरे पाएंगे कि क्रोध नहीं
है। और जिस दिन पाएंगे कि क्रोध नहीं है, उसी दिन अचानक एक
दूसरी शक्ति का आविर्भाव जीवन में होगा और अचानक पाने लगेंगे कि जगह-जगह क्षमा और
प्रेम प्रकट होने लगा है। जब भीतर परिपूर्ण जागरण से क्रोध शांत और तिरोहित हो
जाता है, तो वह शक्ति जो क्रोध की थी अब कहां जाएगी? अब क्रोध का द्वार बंद हो गया, वह शक्ति अब कहां
जाएगी? वह वापस लौटेगी, क्रोध की वापस
लौटती हुई शक्ति क्षमा बन जाती है।
जीवन
भर हम कामवासना में जीते हैं। लड़ते हैं जरूर उससे, लेकिन समझते शायद ही हों
कभी। उसे भी जानना और समझना है, उसके प्रति भी होश से भरना
है, वह भी मेडिटेशन बन जानी चाहिए, वह
भी ध्यान बन जाना चाहिए। तो जैसे-जैसे जागेंगे वैसे-वैसे पाएंगे कि विरोध का तो
कोई कारण नहीं है, बड़ी सृजन की ऊर्जा छिपी है काम की वासना
में, बड़ी क्रिएटिव फोर्सेस छिपी हैं। नहीं तो परमात्मा सेक्स
को सृजन का केंद्र कैसे बनाता? सारा जीवन तो सेक्स से विकसित
होता है। पौधे, पक्षी, मनुष्य, सब तो उससे पैदा होते हैं। और मूढ़ है वह आदमी जो उससे लड़ रहा है। जिससे
सारा जीवन निकलता है उससे कोई लड़ सकता है? उससे कोई कैसे लड़
सकता है और कैसे कोई जीत सकता है? पागल है वह आदमी, विक्षिप्त हो जाएगा।
दुनिया
के पागलखानों में जितने पागल बंद हैं, उनमें से नब्बे प्रतिशत वे लोग हैं
जो सेक्स से लड़े हैं। और दुनिया में धीरे-धीरे पागल बढ़ते जा रहे हैं, क्योंकि सेक्स के साथ लड़ाई बढ़ती जा रही है। जितना आदमी सभ्य और सुसंस्कृत
होता है उतना सेक्स से लड़ने लगता है। और जितना लड़ने लगता है उतनी विक्षिप्तता और
मैडनेस बढ़ने लगती है। क्योंकि जीवन के केंद्र से कोई लड़ सकता है? जीवन के केंद्र को समझा जा सकता है, लड़ा नहीं जा
सकता। जीवन के केंद्र को शत्रु नहीं बनाया जा सकता; मित्र
बनाया जा सकता है। और जब वह जीवन का केंद्र मित्र बन जाता है तो अदभुत शक्ति मिल
जाती है यात्रा को, जीवन एक पुलक और आनंद से भर जाता है। जिन
तथाकथित संन्यासियों को, ब्रह्मचारियों को हम मानते रहे हैं,
पूजते रहे हैं, उनके जीवन में न संगीत है और न
सौंदर्य है; उनके जीवन में न प्रेम है, न आनंद की पुलक है, न थिरक है। हो नहीं सकती,
क्योंकि जीवन के मूल बिंदु से तो वे विरोध में गए हैं, वे तो मृत्यु की तरफ गए हैं जीवन से।
तो
मैं नहीं कहता कि सेक्स से लड़ें, उसके शत्रु हो जाएं। सबसे बड़ा दुर्भाग्य जो
मनुष्य-जाति के ऊपर पड़ा है वह यही कि सेक्स के संबंध में एक दुर्भावना हजारों साल
से चली आ रही है। उस दुर्भावना ने सारे जीवन को कुरूप कर दिया है, सारे जीवन की नस-नस में जहर पहुंचा दिया है। नहीं, लड़ने
की बात नहीं है; जानने, पहचानने,
समझने, बोध से भरने की बात है। जितने बोध से
भरेंगे उतना ही पाएंगे कि काम की शक्ति, सेक्स की ऊर्जा नई
दिशाओं में गतिमान हो गई है। नये सृजन के उसने शक्तियां ले ली हैं, उससे नया सृजन होने लगेगा, नई क्रिएटिविटी पैदा होने
लगेगी, जीवन सृजनात्मक हो जाएगा। और जो आदमी सेक्स से लड़ेगा
उसका जीवन डिस्ट्रक्टिव हो जाएगा, विध्वंसात्मक हो जाएगा।
यह
दुनिया में जो इतनी लड़ाइयां हो रही हैं, इतने युद्ध हो रहे हैं, इनके पीछे राजनैतिक कारण उतने नहीं हैं, आर्थिक कारण
उतने नहीं हैं। इनके पीछे सबसे बुनियादी कारण यह है कि मनुष्य, जीवन के भीतर जो क्रिएटिव फोर्स है, उसके विरोध में
खड़ा है। ऐसा मनुष्य विध्वंसात्मक हो जाएगा, डिस्ट्रक्टिव हो
जाएगा। ऐसा मनुष्य लड़ाइयां लड़ेगा, ऐसा मनुष्य हत्या करेगा,
ऐसा मनुष्य हिंसा करेगा; क्योंकि उसके भीतर की
सारी सृजनात्मक शक्ति बेकार पड़ी है और वह लड़ने के लिए उत्सुक होता जा रहा है।
जितना सेक्स का सप्रेशन हुआ है, उतने ही युद्ध बढ़ते चले गए
हैं। और यह हो सकता है कि पूरी मनुष्य-जाति एक आने वाले युद्ध में अपने को पूरी
तरह समाप्त कर ले, वह अंतिम चरम स्थिति होगी विनाश की।
इधर
पांच हजार वर्षों में बुनियादी से बुनियादी जो भूल हो गई है आदमी से--और वह नैतिक
सिद्धांतों और चर्चाओं के कारण हो गई है--वह हो गई है सेक्स के संबंध में शत्रुता।
और मैं मानता हूं कि जो सेक्स का शत्रु है, वह परमात्मा का ही शत्रु है।
क्योंकि परमात्मा तो सेक्स के द्वारा सारे जीवन को विकसित कर रहा है। उसने तो
सेक्स को बिंदु चुना है, केंद्र चुना है, जिसके आधार पर सारे जीवन की लीला है।
वह
आदमी कैसे धार्मिक हो सकता है जो सेक्स के विरोध में खड़ा है? वह तो
परमात्मा के ही विरोध में खड़ा है। वह परमात्मा से ज्यादा समझदार अपने को समझ रहा
है। परमात्मा से ज्यादा होशियारी उसके पास है। परमात्मा से ज्यादा पवित्र वह है।
परमात्मा तो पक्का सिनर मालूम होता है उसको, क्योंकि सेक्स
सब उसी का खेल है। परमात्मा तो पापी है, यह पुण्यात्मा है जो
सेक्स के विरोध में खड़ा हो गया है।
नहीं, सेक्स के
प्रति वही भाव होना चाहिए जो जीवन के अत्यंत, अत्यंत
पवित्रतम जो भाव हैं वे सेक्स के प्रति होने चाहिए। जो हमारे भीतर जो भी पवित्रतम
भावनाएं हैं वे सेक्स के प्रति होनी चाहिए, क्योंकि सेक्स है
जीवन का केंद्र, उसी से जीवन बनता, विकसित
होता है।
लेकिन
हम अजीब लोग हैं! हम कहते हैं कि मां-बाप के प्रति तो आदर होना चाहिए। और सेक्स के
प्रति अनादर सिखाते हैं। बड़ी गड़बड़ बात है। यह कैसे हो सकता है? जिन लोगों
का सेक्स के प्रति अनादर है उनका मां-बाप के प्रति आदर कैसे हो सकता है? यह झूठी बात है। सेक्स के प्रति अनादर है तो मां-बाप के प्रति आदर कैसे हो
सकता है? लेकिन हम मां-बाप के प्रति आदर सिखाना चाहते हैं और
सेक्स के प्रति बचपन से अनादर सिखाते हैं। यह मां-बाप के प्रति आदर झूठा होगा,
बिलकुल झूठा होगा, यह टूट जाएगा।
जिस
दिन सेक्स के प्रति आदर का समभाव पैदा होगा, उस दिन ही मां-बाप के प्रति भी आदर
हो सकता है। नहीं तो नहीं हो सकता। कैसे होगा? हो कैसे सकता
है? अगर सेक्स अनादृत है, तो मां-बाप
सेक्स के द्वारा ही तो जन्म दिए, मां-बाप भी अनादृत हो गए।
एक
घर में मैं मेहमान था। उस घर की गृहिणी ने मुझसे कहा कि अपने पति को मैं परमात्मा
की तरह मानना चाहती हूं,
आदर देना चाहती हूं, प्रेम करती हूं उन्हें,
लेकिन दिन-रात कलह हो जाती है। और सब आदर मेरा ऊपर-ऊपर है, भीतर न मालूम किसी गहरे तल पर मेरे मन में मेरे पति के प्रति कोई आदर नहीं
है। क्या कारण है?
मैंने
उसको कहा, यह नहीं हो सकेगा आदर। क्योंकि बचपन से बच्चों को, बच्चियों
को हम सेक्स के विरोध में पालते हैं। उनके मन में निंदा का भाव सेक्स के प्रति
भरते हैं।
एक
बच्ची बीस वर्ष की हो जाएगी और फिर विवाहित होगी। बीस वर्ष तक उसने सेक्स के प्रति
निंदा जानी होगी,
फिर उसका विवाह होगा और यह पति पहला आदमी होगा जो उसे वासना के जीवन
में दीक्षित करेगा। इसके प्रति आदर कैसे हो सकता है? यह आदमी
पाप में ले जाने वाला आदमी है, नरक में ले जाने वाला आदमी
है। इसके प्रति आदर कैसे हो सकता है? और पति का भी आदर पत्नी
के प्रति कैसे हो सकता है?
झूठा
है पति और पत्नी का आदर,
जब तक कि सेक्स के प्रति आदर का भाव न हो। मां-बाप के प्रति आदर
झूठा होगा। असल में सेक्स के प्रति आदर का भाव न हो, तो जीवन
के प्रति हमारे मन में कोई समभाव नहीं हो सकता।
लेकिन
बड़े मजे की बात है,
सेक्स के प्रति जितना अनादर है, उतना ही उसमें
रस पैदा होता जाता है। असल में जिस चीज के हम विरोध में खड़े हो जाते हैं, उसमें आकर्षण पैदा हो जाता है। अगर हम यहां दरवाजे पर एक तख्ती टांग दें
और लिख दें कि यहां झांकना मना है। तो क्या आप समझते हैं आप में से इतने संयमी लोग
होंगे कोई जो बिना झांके निकल जाएं? नहीं; इतना तपस्वी कोई भी नहीं होगा। और अगर कोई किसी तरह हिम्मत करके निकल भी
गया, तो फिर रात भर सपने देखेगा उसी तख्ती के--कि पता नहीं
उसके भीतर क्या था? उसे देख ही लेते!
निषेध
आकर्षण पैदा कर देता है। निंदा निषेध पैदा कर देती है। एक दुष्टचक्र, एक विसियस
सर्कल पैदा हो जाता है। सेक्स की निंदा से, सेक्स के प्रति
रस पैदा हो जाता है। रस से चोरी-छिपे रास्तों से हम उस तरफ जाने लगते हैं। द्वार
सब जगह बंद पाते हैं, तो आंख बंद करके सपनों में वहां जाने
लगते हैं। सारा जीवन उसी केंद्र पर घूमने लगता है।
सेक्स
के प्रति अनादर ने हमारी शक्ति के नब्बे प्रतिशत हिस्से को सेक्स के आस-पास घुमाना
शुरू कर दिया है। हमारे सपने, हमारे विचार, हमारी
कल्पनाएं उसी के इर्द-गिर्द घूमती हैं। और आपकी तो कम घूमती हैं, जिसको आप साधु समझते हैं उसकी और भी ज्यादा घूमती हैं। वह और भी बड़े निषेध
में खड़ा हुआ है। उसने तख्ती पर न झांकने का तय कर लिया है। बस, उसका तो चित्त बहुत निषेध से भर गया, वह बहुत कष्ट
में है। मुझे साधु-संन्यासी एकांत में मिलते हैं। सबके सामने मिलते हैं तो वे
आत्मा-परमात्मा की बातें पूछते हैं, जब अकेले में मिलते हैं
तो वे कहते हैं, यह सेक्स बहुत परेशान कर रहा है। अकेले में
मुझसे आज तक किसी साधु ने आत्मा की बात नहीं की है, आज तक।
अकेले में तो वे सेक्स की ही बात करते हैं। वे कहते हैं, यह
बहुत तकलीफ दे रहा है। वह देगा ही तकलीफ, स्वाभाविक है,
वह तकलीफ देगा। आपकी आत्मा-परमात्मा की बातों से कोई वह तकलीफ मिटना
बंद थोड़े ही हो जाएगी। उससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। जिसकी निंदा की है, जिसके विरोध में लड़ गए हैं, जिसके शत्रु होकर खड़े हो
गए हैं, वह शक्ति कहां जाएगी? वह भीतर
घाव की तरह खड़ी हो जाएगी।
नहीं, जीवन में
किसी शक्ति के विरोध में खड़ा होने वाला आदमी कभी भी जीवन के संगीत को उपलब्ध नहीं
होता, सत्य को उपलब्ध नहीं होता। जीवन की सभी शक्तियों को
जगाना है। जीवन की सभी शक्तियों को जानना है, पहचानना है,
मित्रता साधनी है। उन्हीं मित्रों को तो साथ लेकर बड़ी यात्रा की जा
सकती है परमात्मा की। जो उन्हीं से लड़ जाएगा वह तो यहीं लड़ाई में रुक जाएगा,
वह आगे नहीं जा सकेगा।
जीवन
एक इकाई है, उसमें कोई शत्रु नहीं है भीतर आपका, सब आपके साथी और
मित्र हैं। उन सब के संगीत को खोजना है, उनकी हार्मनी खोजनी
है। धर्म उनकी हार्मनी खोजता है जीवन की शक्तियों की और नीति उनके साथ द्वंद्व
खोजती है, विरोध खोजती है। इसलिए नीति तो सामाजिक सुविधा है,
समाज की जरूरत है। धर्म सामाजिक सुविधा नहीं, धर्म
एक आंतरिक संगीत को उपलब्ध करने की खोज है। इसलिए समाज को धर्म से कोई मतलब नहीं
है, समाज को नीति से मतलब है। आप नैतिक हो जाएं, बस काफी है।
इसलिए
तो सारी दुनिया में सेक्युलर स्टेट खड़े हो रहे हैं। वे कहते हैं, धर्म से
हमें कोई मतलब नहीं, हम धर्मनिरपेक्ष हैं। लेकिन नीति से
हमें मतलब है, बस नीति सध जाए, काफी
है। कोई हमें मतलब नहीं धर्म से। राज्य को, समाज को धर्म से
कोई मतलब नहीं, मतलब है नीति से। बस नीति सध जाए, सब ठीक है।
नीति
समाज की सुविधा है,
धर्म व्यक्ति के प्राणों की प्यास है। लेकिन रहस्यपूर्ण मजा यह है
कि अगर व्यक्ति के जीवन में धर्म आ जाए तो नीति अपने आप आ जाती है। और वही नीति
होती है सच्ची, वही नीति होती है असली फूलों की तरह। और जो
नीति बिना धर्म के आती है वह कागजी फूलों की भांति होती है, जो
बाजार से खरीद लाए गए हैं। बाजार से खरीदे गए फूलों में एक फायदा जरूर होता है,
सस्ते मिल जाते हैं। दूसरा फायदा यह होता है, वे
कभी मुरझाते नहीं, वे हमेशा वैसे के वैसे बने रहते हैं।
असली
फूल श्रम मांगते हैं,
असली फूल कुम्हलाते भी हैं। असली फूलों में लेकिन सुगंध भी होती है,
असली फूलों में जीवन भी होता है। तो असली फूल की खोज तो आंतरिक
परिवर्तन से होती है और नकली फूल तो ऊपर से साध लिए जा सकते हैं।
नहीं, नैतिकता
कोई जीवन का आधार नहीं है और न धर्म का। लेकिन धर्म जरूर नैतिकता का प्राण है।
उससे जो पैदा होता है वह बात ही और है, बात ही और है।
बुद्ध
एक गांव के पास से निकलते थे। कुछ लोग आए और उन्होंने बुद्ध को गालियां दीं, अपमान
किया। बुद्ध ने खड़े होकर सुना और फिर कहा कि मित्रो, तुम्हारी
बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव थोड़े जल्दी
पहुंचना है।
उन
लोगों ने कहा,
हमने कोई क्या ये बातें कही हैं? हमने कोई
आपका स्वागत-समारोह किया है यह? ये तो हमने गालियां दी हैं
और सीधी और स्पष्ट! क्या आपकी समझ में नहीं पड़ीं? क्या इनसे
भी तीखी और साफ गालियां हो सकती हैं जो हमने दी हैं?
बुद्ध
ने कहा, तुमने गालियां दीं, यह तो ठीक, लेकिन मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। इधर कुछ दिनों से, कोई कितनी ही गालियां दे, मैं उनको लेने में असमर्थ
हो गया हूं, मैं उनको ले नहीं पाता। तो तुमने दिया, यह तो ठीक, लेकिन जब तक मैं न लूं तब तक मतलब ही कुछ
हल नहीं होता। पिछले गांव में कुछ लोग फूल लाए थे, मिठाइयां
लाए थे। मेरा पेट भरा था, मैंने उनसे कहा कि नहीं ले सकूंगा,
वे फूल और मिठाइयां वापस ले गए। अब उन्होंने क्या किया होगा?
तो
उनमें से किसी एक आदमी ने कहा, घर में जाकर बच्चों को मिठाइयां बांट दी होंगी।
तो
बुद्ध ने कहा,
अब तुम क्या करोगे? तुम गालियां लेकर आए और
मैं लेता नहीं हूं, अब तुम किसको बांटोगे? कहां ले जाओगे? तुम्हें दस साल पहले आना चाहिए था,
तब मैं गालियां लेता था, अब मैं लेने में
असमर्थ हो गया हूं। और ऐसा नहीं कहता हूं कि मैं नहीं लेना चाहता हूं। नहीं,
मैं लेने में असमर्थ ही हो गया हूं। क्योंकि जैसे-जैसे मैं भीतर के
प्रति जागा, तो मुझे दिखाई पड़ने लगा--क्या लेना चाहिए और
क्या नहीं लेना चाहिए। अब गालियां मैं नहीं लेता हूं। ये सीधे मेरी...मुझे दिखाई
पड़ता है कि इनको लेने का कोई मतलब नहीं, वैसे ही जैसे कोई
आदमी रास्ते पर निकलता है, कांटे पड़े होते हैं तो उन पर पैर
नहीं रखता, दूसरी तरफ पैर रखता है। उसको दिखाई पड़ता है कि
कांटे पड़े हैं, इसलिए उन पर पैर नहीं रखता। तुम गालियां लाए
हो, मुझे दिखाई पड़ता है, ये कांटे हैं,
इसलिए मैं नहीं लेता हूं। मैं अपने रास्ते जाता हूं, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है।
यह
आदमी, जिसको दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है, वह गालियां नहीं
लेता। इसके लिए उसे चेष्टा नहीं करनी पड़ती है कि मैं गालियां नहीं लूंगा या कोई
गालियां देगा तो मैं राम-राम जप कर अपने मन को समझाऊंगा, ऐसी
कोई चेष्टा नहीं करनी होती। बस उसे दिखाई पड़ता है, वह
गालियां नहीं लेता। उसे दिखाई पड़ता है, वह क्रोध नहीं करता।
क्योंकि क्रोध में वह पाता है कि मेरी ही शक्ति क्षीण होती है, मैं ही टूटता और खंडित होता हूं, मैं ही दुखी होता
हूं। और जिसको दिखाई पड़ने लगता है वह अपने को दुखी नहीं करना चाहता। सीधी और सरल
बात है, इसमें कोई बहुत कठिन गणित नहीं है, सीधा गणित है--दो और दो चार जैसा गणित है। कैसे हम अपने भीतर जाग जाएं,
यह सवाल है। कैसे हम अपने आचरण को बदल लें, यह
सवाल नहीं। उसी के लिए हम तीन दिन से प्रयास करते हैं समझने का कि कैसे हमारे भीतर
जागरण आ जाए, उसकी मैं सुबह बात करूंगा।
एकाध
और छोटा प्रश्न है वह ले लेता हूं, फिर रात को प्रश्न को लेंगे।
पूछा
है...ध्यान से संबंधित है,
इसलिए उसको दो मिनट समझ लेना उचित होगा...मित्र ने पूछा है कि मुझे
तो ध्यान में भी ऐसा लगा कि यह भी सजेशन है, ऑटो-सजेशन है,
यह भी एक तरह का आत्म-सम्मोहन है। और मैंने तो सुबह कहा कि
आत्म-सम्मोहन ठीक नहीं है, कल भी कहा था कि आत्म-सम्मोहन में
पड़ जाना ठीक नहीं है। लेकिन ये भी तो सजेशंस हैं, ये भी तो
सुझाव हैं ध्यान के, इस संबंध में पूछा है।
निश्चित
ही ये भी सजेशन हैं। लेकिन सजेशन दो प्रकार के होते हैं, सुझाव दो
प्रकार के होते हैं। एक तो आत्म-सम्मोहन होता है जिसे हम कहें पाजिटिव हिप्नोसिस,
जिसमें हम किसी चीज के लिए कल्पना करना शुरू करते हैं और किसी चीज
का आकार बनाते हैं और किसी आकार के प्रति अपने को मोहित करते हैं। दूसरा होता है
निगेटिव हिप्नोसिस, जिसमें हम कोई आकार नहीं बनाते, बल्कि बने हुए आकारों को गिरा देते हैं, सब आकार
गिरा देते हैं; और जब सब आकार गिर जाते हैं तो हम अकेले ही
बच जाते हैं।
हम
सारे लोग सम्मोहित हैं। इसलिए ध्यान में जिस सम्मोहन का प्रयोग हम करते हैं वह हिप्नोसिस
न होकर डी-हिप्नोसिस है। हम सम्मोहित हैं। हमारा दुख, हमारी
चिंता, हमारी अशांति एक तरह का सम्मोहन ही है जिसमें हमने
अपने आपको डुबा रखा है। इसको तोड़ना है, पीछे लौटना है। तो यह
सम्मोहित जो अवस्था है इसे तोड़ना होगा।
जैसे
एक आदमी को एक कांटा लग जाए, तो उस कांटे को निकालने के लिए वह दूसरा कांटा
ले आए। कोई उससे कहे कि आप यह क्या पागलपन कर रहे हो? एक
कांटा वैसे ही लगा है, अब आप दूसरा और ला रहे हो! यह दूसरा
भी तो कांटा ही है। वह कहेगा, निश्चित ही दूसरा भी कांटा है,
लेकिन पहले को इससे मुझे निकालना है। वह पहले कांटे को दूसरे कांटे
से निकालेगा। गलती तो तब होगी जब दूसरे कांटे को वह पहले कांटे के घाव में रख ले,
तो फिर गलती हो जाएगी। लेकिन अगर वह दूसरे कांटे को भी पहले कांटे
के साथ फेंक दे तो फिर कोई गलती नहीं है।
तो
जब तक आप अशांत हैं,
तब तक ध्यान के प्रयोग का मतलब है। जिस दिन आप शांत हो जाएंगे उस
दिन ध्यान का प्रयोग तो फेंक देना है, उसको कोई ढोए थोड़े ही
फिरना है। ध्यान का प्रयोग तो कांटे की तरह फेंक दिया जाएगा उसी दिन जिस दिन आप
शांत हो जाएंगे, उसकी कोई जरूरत नहीं रह जाती है। तो ध्यान
की पूर्णता मैं कहता हूं उस दिन है जिस दिन ध्यान व्यर्थ हो जाए, उसकी कोई जरूरत न रह जाए। उस दिन चित्त हो गया शांत, कांटा निकल गया। तो दूसरे कांटे को भी फेंक देंगे, उसकी
कोई जरूरत नहीं है।
वह
केवल हमारे चित्त की जो अशांति है...और वह अशांति हमने एक तरह से सुझाव दे-दे कर
अपने भीतर खड़ी कर रखी है,
उसको हम विसर्जित कर देंगे। हम कोई नई कल्पना और भावना खड़ी नहीं कर
रहे हैं ध्यान में। जब सारी अशांति और चित्त के विचार शून्य हो जाएंगे, उस शून्य में जिसे हम जानेंगे वह हमारे सुझाव से आया हुआ कोई रूप नहीं है।
उस शून्य में तो हम उसे जानेंगे जो हमारे भीतर है, जिसके लिए
हम कोई भी कल्पना नहीं कर रहे हैं, कोई भी कामना नहीं कर रहे
हैं, कोई रूप नहीं बना रहे हैं। हम तो, चित्त पर जो लहरें आ गई हैं, उनको विसर्जित कर रहे
हैं। वे लहरें सम्मोहन के द्वारा ही आई हैं, वे लहरें
सम्मोहन के द्वारा ही विसर्जित हो जाएंगी। जो बच रहेगा स्वरूप, स्वयं की सत्ता, वह हमारा अनुभव बनेगी। वह अनुभव
सम्मोहन से नहीं आ रहा है। जैसे मैं आप तक आऊं और फिर मुझे लौटना हो तो उसी रास्ते
से मुझे वापस लौटना पड़ेगा। यह वापस लौटना है, ध्यान अशांति
से वापस लौटना है। ध्यान से आत्मसाक्षात नहीं होगा, ध्यान से
तो केवल अशांति विसर्जित हो जाएगी। तब जो शेष रह जाएगा, उस
शून्य क्षण में जो जाना जाएगा, वह होगा आत्मसाक्षात, वह होगा सत्यसाक्षात।
हम
सत्य के लिए कोई सम्मोहन नहीं कर रहे हैं, सत्य के लिए कोई विचार नहीं कर रहे
हैं, सत्य की कोई कल्पना नहीं कर रहे हैं, सत्य की कोई धारणा नहीं बना रहे हैं। चित्त की जितनी भी धारणाएं बन गई हैं,
उनको डी-कंडीशंड कर रहे हैं, उनको
डी-हिप्नोटाइज कर रहे हैं, उनको विदा कर रहे हैं, उनको शून्य कर रहे हैं। वे जब विदा हो जाएंगी और चित्त शुद्ध और निर्दोष
शेष रह जाएगा, उस समय वह जो जानेगा, वह
कोई हमारी कल्पना, हमारा सुझाव नहीं है, वह तो वही है जो है। उसके संबंध में कल सुबह मैं आपसे बात करूंगा।
कुछ और प्रश्न बच रहे हैं, उनके संबंध में रात और कल
दोपहर आपसे बात करूंगा।
यह बैठक पूरी हुई।
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