रविवार, 16 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-082



धर्म तुम हो—प्रवचन—82


सूत्र:


न तने होति धम्‍मट्ठो येनत्‍थं सहसा नये।
यो च अत्‍थं अनत्‍थज्‍च उभो निच्‍छेय्य पंडितो ।।213।।

असाहसेन धम्‍मेन समेन नयती परे।
ध्‍म्‍मस्‍स गुत्‍तो मेधावी धम्‍मट्ठोति पवुच्‍चति ।।214।।

न तेन पंडितो होति होति यावता बहु भासति।
खेमी अवेरी अभयो पंडितोति पवुच्‍चति ।।215।।

न तेन थेरो होति येनस्‍स पलितं सिरो।
परिपक्‍को वयो तस्‍स मोधजिण्‍णोति वुच्‍चति ।।216।।

यम्‍हि सच्‍चज्‍च धम्‍मो च अहिंसा सज्‍जमो दमो।
से वे वंतमलो धीरो थेरो इति पवुच्‍चति ।।217।।




गौतम बुद्ध के संबंध में सात बातें।
पहली, गौतम दार्शनिक नहीं, हैं नहीं द्रष्‍टा है।
दार्शनिक वह, जो सोचे। द्रष्टा वह, जो देखे। सोचने से दृष्टि नहीं मिलती। सोचना अज्ञात का हो भी नहीं सकता। जो ज्ञात नहीं है, उसे हम सोचेंगे भी कैसे? सोचना तो शांत के भीतर ही परिभ्रमण है। सोचना तो ज्ञात की ही धूल में लोटना है। सत्य अज्ञात है। ऐसे ही अशांत है जैसे अंधे को प्रकाश अज्ञात है। अंधा लाख सोचे, लाख सिर मारे, तो भी प्रकाश के संबंध में सोचकर क्या जान पाएगा! आंख की चिकित्सा होनी चाहिए। आंख खुलनी चाहिए। अंधा जब तक द्रष्टा न बने, तब तक सार हाथ नहीं लगेगा।
तो पहली बात बुद्ध के संबंध में स्मरण रखना, उनका जोर द्रष्टा बनने पर है। वे स्वयं द्रष्टा हैं। और वे नहीं चाहते कि लोग दर्शन के ऊहापोह में उलझे।
दार्शनिक ऊहापोह के कारण ही करोड़ों लोग दृष्टि को उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। प्रकाश की मुफ्त धारणाएं मिल जाएं, तो आंख का महंगा इलाज कौन करे! सस्ते में सिद्धांत मिल जाएं, तो सत्य को कौन खोजे! मुफ्त, उधार सब उपलब्ध हो, तो आंख की चिकित्सा की पीड़ा से कौन गुजरे! और चिकित्सा कठिन है। और चिकित्सा में पीड़ा भी है।
बुद्ध ने बार—बार कहा है कि मैं चिकित्सक हूं। उनके सूत्रों को समझने में इसे याद रखना। बुद्ध किसी सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं कर रहे हैं। वे किसी दर्शन का सूत्रपात नहीं कर रहे हैं। वे केवल उन लोगों को बुला रहे हैं जो अंधे हैं और जिनके भीतर प्रकाश को देखने की प्यास है। और जब लोग बुद्ध के पास गए, तो बुद्ध ने उन्हें कुछ शब्द नहीं पकडाए बुद्ध ने उन्हें ध्यान की तरफ इंगित और इशारा किया। क्योंकि ध्यान से खुलती है आंख, ध्यान से खुलती है भीतर की आंख।
विचारों से तो पर्त की पर्त तुम इकट्ठी कर लो, आंख खुली भी हो तो बंद हो जाएगी। विचारों के बोझ से आदमी की दृष्टि खो जाती है। जितने विचार के पक्षपात गहन हो जाते हैं, उतना ही देखना असंभव हो जाता है। फिर तुम वही देखने लगते हो जो तुम्हारी दृष्टि होती है। फिर तुम वह नहीं देखते, जो है। जो है, उसे देखना हो तो सब दृष्टियों से मुक्त हो जाना जरूरी है।
इस विरोधाभास को खयाल में लेना, दृष्टि पाने के लिए सब दृष्टियों से मुक्त हो जाना जरूरी है। जिसकी कोई भी दृष्टि नहीं, जिसका कोई दर्शनशास्त्र नहीं, वही सत्य को देखने में समर्थ हो पाता है।
दूसरी बात, गौतम बुद्ध पारंपरिक नहीं, मौलिक हैं। गौतम बुद्ध किसी परंपरा, किसी लीक को नहीं पीटते हैं। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि अतीत के ऋषियों ने ऐसा कहा था, इसलिए मान लो। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि वेद में ऐसा लिखा है, इसलिए मान लो। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि मैं कहता हूं इसलिए मान लो। वे कहते हैं, जब तक तुम न जान लो, मानना मत। उधार श्रद्धा दो कौड़ी की है। विश्वास मत करना, खोजना। अपने जीवन को खोज में लगाना, मानने में जरा भी शक्ति व्यय मत करना। अन्यथा मानने में ही फांसी लग जाएगी। मान—मानकर ही लोग भटक गए हैं।
तो बुद्ध न तो परंपरा की दुहाई देते, न वेद की। न वे कहते हैं कि हम जो कहते हैं, वह ठीक होना ही चाहिए। वे इतना ही कहते हैं, ऐसा मैंने देखा। इसे मानने की जरूरत नहीं है। इसको अगर परिकल्पना की तरह ही स्वीकार कर लो, तो काफी है।
परिकल्पना का अर्थ होता है, हाइपोथीसिस। जैसे कि मैंने तुमसे कहा कि भीतर आओ, भवन में दीया जल रहा है। तो मैं तुमसे कहता हूं कि यह मानने की जरूरत नहीं है कि भवन में दीया जल रहा है। इसको विश्वास करने की जरूरत नहीं। इस पर किसी तरह की श्रद्धा लाने की जरूरत नहीं है। तुम मेरे साथ आओ और दीए को जलता देख लो। दीया जल रहा है तो तुम मानो या न मानो, दीया जल रहा है। और दीया जल रहा है तो तुम मानते हुए आओ कि न मानते हुए आओ, दीया जलता ही रहेगा। तुम्हारे न मानने से दीया बुझेगा नहीं, तुम्हारे मानने से जलेगा नहीं।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, तुम सिर्फ मेरा निमंत्रण स्वीकार करो। इस भवन में दीया जला है, तुम भीतर आओ। और यह भवन तुम्हारा ही है, यह तुम्हारी ही अंतरात्मा का भवन है। तुम भीतर आओ और दीए को जलता देख लो। देख लो, फिर मानना।
और खयाल रहे, जब देख ही लिया तो मानने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है। हम जो देख लेते हैं, उसे थोड़े ही मानते हैं। हम तो जो नहीं देखते, उसी को मानते हैं। तुम पत्थर—पहाड़ को तो नहीं मानते, परमात्मा को मानते हो। तुम सूरज—चांद—तारों को तो नहीं मानते, वे तो हैं। तुम स्वर्गलोक, मोक्ष, नर्क को मानते हो। जो नहीं दिखायी पड़ता, उसको हम मानते हैं। जो दिखायी पड़ता है, उसको तो मानने की जरूरत ही नहीं रह जाती है, उसका यथार्थ तो प्रगट है।
तो बुद्ध कहते हैं, मेरी बात पर भरोसा लाने की जरूरत नहीं, इतना ही काफी है कि तुम मेरा निमंत्रण स्वीकार कर लो। इतना पर्याप्त है। इसको वैज्ञानिक कहते हैं, हाइपोथीसिस, परिकल्पना। एक वैज्ञानिक कहता है, सौ डिग्री तक पानी गर्म करने से पानी भाप बन जाता है। मानने की कोई जरूरत नहीं, चूल्हा तुम्हारे घर में है, जल उपलब्ध है, आग उपलब्ध है, चढ़ा दो चूल्हे पर जल को, परीक्षण कर लो। परीक्षण करने के लिए जो बात मानी गयी है, वह परिकल्पना। अभी स्वीकार नहीं कर ली है कि यह सत्य है, लेकिन एक आदमी कहता है, शायद सत्य हो, शायद असत्य हो, प्रयोग करके देख लें, प्रयोग ही सिद्ध करेगा—सत्य है या नहीं?
तो बुद्ध पारंपरिक नहीं हैं, मौलिक हैं। विचार की परंपरा होती है, दृष्टि की मौलिकता होती है। विचार अतीत के होते हैं, दृष्टि वर्तमान में होती है। विचार दूसरों के होते हैं, दृष्टि अपनी होती है।
तीसरी बात, गौतम बुद्ध शास्त्रीय नहीं हैं। पंडित नहीं हैं, वैज्ञानिक हैं। बुद्ध ने धर्म को पहली दफे वैज्ञानिक प्रतिष्ठा दी। बुद्ध ने धर्म को पहली दफे विज्ञान के सिंहासन पर विराजमान किया। इसके पहले तक धर्म अंधविश्वास था। बुद्ध ने उसे बड़ी गरिमा दी। बुद्ध ने कहा, अंधविश्वास की जरूरत ही नहीं है। धर्म तो जीवन का परम सत्य है। एस धम्मो सनंतनो। यह धर्म तो शाश्वत और सनातन है। तुम जब आंख खोलोगे तब इसे देख लोगे।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा कि नरक के भय के कारण मानो, और यह भी नहीं कहा कि स्वर्ग के लोभ के कारण मानो। और इसलिए यह भी नहीं कहा कि परमात्मा सताएगा अगर न माना, और परमात्मा पुरस्कार देगा अगर माना। नहीं, ये सब व्यर्थ की बातें बुद्ध ने नहीं कहीं।
बुद्ध ने तो सारसूत्र कहा। बुद्ध ने तो कहा, यह धर्म तुम्हारा स्वभाव है। यह तुम्हारे भीतर बह रहा है, अहर्निश बह रहा है। इसे खोजने के लिए आकाश में आंखें उठाने की जरूरत नहीं है, इसे खोजने के लिए भीतर जरा सी तलाश करने की जरूरत है। यह तुम हो, यह तुम्हारी नियति है, यह तुम्हारा स्वभाव है। एक क्षण को भी तुमने इसे खोया नहीं, सिर्फ विस्मरण हुआ है।
तो बुद्ध ने चैतन्य की सीढ़ियां कैसे पार की जाएं, मूर्च्छा से कैसे आदमी अमूर्च्छा में जाए, बेहोशी कैसे टूटे और होश कैसे जगे, इसका विज्ञान थिर किया। और जो उनके साथ भीतर गए, उन्हें निरपवाद रूप से मान लेना पड़ा कि बुद्ध जो कहते हैं, ठीक कहते हैं।
यह अपूर्व क्रांति थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। बुद्ध मील के पत्थर हैं मनुष्य—जाति के इतिहास में। संत तो बहुत हुए, मील के पत्थर बहुत थोड़े लोग होते हैं। महावीर भी मील के पत्थर नहीं हैं। क्योंकि महावीर ने जो कहा, वह तेईस तीर्थंकर पहले कह चुके थे। कृष्ण भी मील के पत्थर नहीं हैं। क्योंकि कृष्ण ने जो कहा, वह उपनिषद और वेद सदा से कहते रहे थे। बुद्ध मील के पत्थर हैं, जैसे लाओत्सु मील का पत्थर है। कभी—कभार, करोड़ों लोगों में एकाध संत होता है, करोड़ों संतों में एकाध मील का पत्थर होता है। मील के पत्थर का अर्थ होता है, उसके बाद फिर मनुष्य—जाति वही नहीं रह जाती। सब बदल जाता है, सब रूपांतरित हो जाता है। एक नयी दृष्टि और एक नया आयाम और एक नया आकाश बुद्ध ने खोल दिया।
बुद्ध के साथ धर्म अंधविश्वास न रहा, अंतखोंज बना। बुद्ध के साथ धर्म ने बड़ी छलांग ली। आस्तिक को ही धर्म में जाने की सुविधा न रही, नास्तिक को भी सुविधा हो गयी। ईश्वर को नहीं मानते, कोई हर्ज नहीं, बुद्ध कहते ही नहीं कि मानना जरूरी है। कुछ भी नहीं मानते, बुद्ध कहते हैं, तो भी कोई चिंता की बात नहीं। कुछ मानने की जरूरत ही नहीं है। बिना कुछ माने अपने भीतर तो जा सकते हो। भीतर जाने के लिए मानने की आवश्यकता क्या है! न तो ईश्वर को मानना है, न आत्मा
को मानना है, न स्वर्ग —नर्क को मानना है। इसे तो नास्तिक भी इनकार न कर सकेगा कि मेरा भीतर है। इसे तो नास्तिकों ने भी नहीं कहा है कि भीतर नहीं है। भीतर तो है ही। नास्तिक कहते हैं, यह भीतर शाश्वत नहीं है। बुद्ध कहते हैं, फिकर छोड़ो, पहले यह जितना है उसे जान लो, उसी जानने से अगर शाश्वत का दर्शन हो जाए तो फिर मानने की जरूरत न होगी, तुम मान ही लोगे।
बुद्ध ने नास्तिकों को धार्मिक बनाने का महत कार्य पूरा किया। इसलिए बुद्ध के पास जो लोग आकर्षित हुए, बड़े बुद्धिमान लोग थे। आमतौर से धार्मिक साधु—संतों के पास बुद्धिहीन लोग इकट्ठे होते हैं। जड़, मूर्च्छित, मुर्दा। बुद्ध ने मनुष्य—जाति की जो श्रेष्ठतम संभावनाएं हैं, उनको आकर्षित किया। बुद्ध के पास नवनीत इकट्ठा हुआ चैतन्य का। ऐसे लोग इकट्ठे हुए जो और किसी तरह तो धर्म को मान ही नहीं सकते थे, उनके पास प्रज्वलित तर्क था। इसलिए बुद्ध दार्शनिक नहीं हैं, लेकिन बुद्ध के पास इस देश के सबसे बड़े से बड़े दार्शनिक इकट्ठे हो गए। बुद्ध अकेले एक व्यक्ति के पीछे इतना दर्शनशास्त्र पैदा हुआ, जितना मनुष्य—जाति के इतिहास में किसी दूसरे व्यक्ति के पीछे नहीं हुआ। और बुद्ध के पीछे इतने महत्वपूर्ण विचारक हुए कि जिनकी तुलना सारी पृथ्वी पर कहीं भी खोजनी मुश्किल है।
कैसे यह घटित हुआ? बुद्ध ने महानास्तिकों को आकर्षित किया। आस्तिक को बुला लेना मंदिर में तो कोई खास बात नहीं, नास्तिक को बुला लेने में कुछ खास बात है। बुद्ध वैज्ञानिक हैं, इसलिए नास्तिक भी उत्सुक हुआ। विज्ञान को तो नास्तिक ठुकरा न सकेगा। बुद्ध ने कहा, संदेह है, चलो, संदेह की ही सीढ़ी बनाएंगे। संदेह से और शुभ क्या हो सकता है! संदेह के पत्थर को सीढ़ी बना लेंगे। संदेह से ही तो खोज होती है। इसलिए संदेह को फेंको मत।
इस बात को समझना। जिसके पास जितनी विराट दृष्टि होती है, उतना ही वह हर चीज का उपयोग कर लेना चाहता है। सिर्फ क्षुद्र दृष्टि के लोग कांटते हैं। क्षुद्र दृष्टि का आदमी कहेगा, संदेह नहीं चाहिए, श्रद्धा चाहिए। काटो संदेह को। लेकिन संदेह तुम्हारा जीवंत अंग है, काटोगे तो तुम अपंग हो जाओगे। संदेह का रूपांतरण होना चाहिए, खंडन नहीं। संदेह ही श्रद्धा बन जाए, ऐसी कोई प्रक्रिया होनी चाहिए।
कोई कहता है, काटो कामवासना को। लेकिन कांटने से तो तुम अपंग हो जाओगे। कुछ ऐसा होना चाहिए कि कामवासना राम की वासना बन जाए। ऊर्जा का अधोगमन ऊर्ध्वगमन बन जाए। तुम ऊध्वेरतस बन जाओ। कुछ ऐसा होना चाहिए कि तुम्हारे कंकड़—पत्थर भी हीरों में रूपांतरित हो जाएं। कुछ ऐसा होना चाहिए कि तुम्हारे जीवन की कीचड़ कमल बन सके।
बुद्ध ने वह कीमिया दी।
चौथी बात, गौतम बुद्ध वायवी, एब्सट्रेक्ट नहीं, अत्यंत व्यावहारिक हैं। ऊंचे से ऊंची छलांग ली है उन्होंने, लेकिन पृथ्वी को कभी नहीं छोड़ा। जड़ें जमीन में जमाए रखीं। वह सिर्फ हवा में ही पंख नहीं मारते रहे।
एक बहुत प्राचीन कथा है कि ब्रह्मा ने जब सृष्टि बनायी और सब चीजें बनायीं, तभी उसने यथार्थ और स्वप्न भी बनाया। बनते ही झगड़ा शुरू हो गया। यथार्थ और स्वप्न का झगड़ा तो प्राचीन है। पहले दिन ही झगड़ा शुरू हो गया। यथार्थ ने कहा, मैं श्रेष्ठ हूं; स्वप्न ने कहा, मैं श्रेष्ठ हूं तुझमें रखा क्या है! झगड़ा यहां तक बढ़ गया कि कौन महत्वपूर्ण है दोनों में कि दोनों झगड़ते हुए ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा हंसे और उन्होंने कहा, ऐसा करो, सिद्ध हो जाएगा प्रयोग से। तुममें से जो भी जमीन पर पैर गड़ाए रहे और आकाश को छूने में समर्थ हो जाए, वही श्रेष्ठ है।
दोनों लग गए। स्वप्न ने तो तत्‍क्षण आकाश छू लिया, देर न लगी, लेकिन पैर उसके जमीन तक न पहुंच सके। टैग गया आकाश में। हाथ तो लग गए आकाश से, लेकिन पैर जमीन से न लगे—स्‍वप्‍न के पैर होते ही नहीं। यथार्थ जमीन में पैर गड़ाकर खड़ा हो गया, जैसे कि कोई वृक्ष हो, लेकिन ठूंठ की तरह, आकाश तक उसके हाथ न पहुंचे।
ब्रह्मा ने कहा, समझे कुछ? स्वप्न अकेला आकाश में अटक जाता है, यथार्थ अकेला जमीन पर भटक जाता है। कुछ ऐसा चाहिए कि स्‍वप्‍न और यथार्थ का मेल हो जाए।
तो बुद्ध वायवी नहीं हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्होंने आकाश नहीं छुआ। उन्होंने आकाश छुआ, लेकिन यथार्थ के आधार पर छुआ।
इस फर्क को समझना।
बुद्ध ने अपने पैर तो जमीन पर रोके, बुद्ध ने यथार्थ को तो जरा भी नहीं भुलाया, यथार्थ में बुनियाद रखी; भवन उठा, मंदिर ऊंचा उठा, मंदिर पर स्वर्णकलश चढ़े। लेकिन मंदिर के स्वर्णकलश टिकते तो जमीन में छिपे हुए पत्थरों पर हैं, भूमि के भीतर छिपे हुए बुनियाद के पत्थरों पर टिकते हैं। बुद्ध ने एक मंदिर बनाया, जिसमें बुनियाद भी है और शिखर भी।
बहुत लोग हैं, जिनको हम नास्तिक कहते हैं, वे जमीन पर अटके रह जाते हैं। वे ठूंठ की तरह हैं। यथार्थ का ठूंठ। मार्क्सवादी हैं या चार्वाकवादी हैं, वे यथार्थ का ठूंठ। वे जमीन में तो पैर गड़ा लेते हैं, लेकिन उनके भीतर आकाश तक उठने की कोई अभीप्सा नहीं है, आकाश तक उठने की कोई क्षमता नहीं है। और चूंकि वे सपने को कांट डालते हैं बिलकुल और कह देते हैं, आदर्श है ही नहीं जगत में। बस यही सब कुछ है, मिट्टी ही सब कुछ है। उनके जीवन में कमल नहीं फूलता, कमल नहीं उठता। कमल का उपाय ही नहीं रह जाता। जिसको इनकार कर दिया आग्रहपूर्वक, उसका जन्म नहीं होता।
और फिर दूसरी तरफ सिद्धांतवादी हैं; एब्सट्रेक्ट, वायवी विचारक हैं; वे आकाश में ही पर मारते रहते हैं, वे कभी जमीन पर पैर नहीं रोकते हैं। वे आदर्श धर्म तुम हो में जीते हैं, यथार्थ से उनका कभी कोई मिलन ही नहीं होता। उनकी आंखों में आकाश—कुसुम खिलते हैं, असली कुसुम नहीं।
बुद्ध स्‍वप्‍नवादी नहीं हैं, परम व्यावहारिक हैं। लेकिन चार्वाक जैसे व्यवहारवादी भी नहीं हैं। उनका व्यवहारवाद अपने भीतर परम आदर्श की संभावना छिपाए हुए है। लेकिन वे कहते हैं, शुरू तो करना होगा जमीन पर पैर टेकने से। जिसके पैर जमीन में जितनी मजबूती से टिके हैं, वह उतनी ही आसानी से आकाश को छूने में समर्थ हो पाएगा। मगर यात्रा तो शुरू करनी पड़ेगी जमीन में पैर टेकने से।
इसलिए जब कोई बुद्ध के पास आता है और ईश्वर की बात पूछता है, वे कहते हैं, व्यर्थ की बातें मत पूछो। अनेकों को तो लगा कि बुद्ध अनीश्वरवादी हैं, इसलिए ईश्वर के बाबत जवाब नहीं देते। यह बात सच नहीं है। बुद्ध कहते हैं, पहले जमीन में तो पैर गड़ा लो, पहले ध्यान में तो उतरो, पहले अंतस चेतना में तो जड़ें फैला लो, पहले तुम जो हो उसको तो पहचान लो, फिर यह पीछे हो लेगा। यह अपने से हो लेगा। यह एक दिन अचानक हो जाता है। जब जमीन में वृक्ष की जड़ें खूब मजबूती से रुक जाती हैं, तो वृक्ष अपने आप आकाश की तरफ उठने लगता है। एक दिन आकाश में उठे वृक्ष में फूल भी खिलते हैं, वसंत भी आता है। मगर वह अपने से होता है। असली बात जड़ की है।
तो बुद्ध बहुत गहरे में यथार्थवादी हैं, लेकिन उनका यथार्थ आदर्श को समाहित किए हुए है। वह आदर्श समन्वित है यथार्थ में।
पांचवीं बात, गौतम बुद्ध विधिवादी नहीं, मानवीय हैं। एक तो विधिवादी होता है, जैसे मनु। सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं, मनुष्य महत्वपूर्ण नहीं है। ऐसा लगता है मनु में, जैसे मनुष्य सिद्धांत के लिए बना है। मनुष्य की आहुति चढ़ायी जा सकती है सिद्धांत के लिए लेकिन सिद्धांत में फेर—बदल नहीं की जा सकती।
बुद्ध अति मानवीय हैं, झ्यूमनिस्ट। मानववादी हैं। वे कहते हैं, सिद्धांत का उपयोग है मनुष्य की सेवा में तत्पर हो जाना। सिद्धांत मनुष्य के लिए है, मनुष्य सिद्धांत के लिए नहीं। इसलिए बुद्ध के वक्तव्यों में बड़े विरोधाभास हैं। क्योंकि बुद्ध एक—एक व्यक्ति की मनुष्यता को इतना मूल्य देते, इतना चरम मूल्य देते हैं कि अगर उन्हें लगता है इस आदमी को इस सिद्धांत से ठीक नहीं पड़ेगा, तो वे सिद्धांत बदल देते हैं। अगर उन्हें लगता है कि थोड़े से सिद्धांत में फर्क करने से इस आदमी को लाभ होगा, तो उन्हें फर्क करने में जरा भी झिझक नहीं होती। लेकिन मौलिक रूप से ध्यान उनका व्यक्ति पर है, मनुष्य पर है। मनुष्य परम है। मनुष्य चरम है। मनुष्य मापदंड है। सब चीजें मनुष्य पर कसी जानी चाहिए।
इसलिए बुद्ध वर्ण—व्यवस्था को न मान सके। इसलिए बुद्ध आश्रम—व्यवस्था को भी न मान सके। क्योंकि ये जड़ सिद्धांत हैं। बुद्ध ने कहा, ब्राह्मण वही जो ब्रह्म को जाने। ब्राह्मण —घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। और शूद्र वही जो ब्रह्म
को न जाने। शुद्र—घर में पैदा होने से कोई शूद्र नहीं होता। तो अनेक ब्राह्मण शूद्र हो गए, बुद्ध के हिसाब से, और अनेक शूद्र ब्राह्मण हो गए। सब अस्तव्यस्त हो गया। मनु के पूरे शास्त्र को बुद्ध ने उखाड़ फेंका।
हिंदू अब तक भी बुद्ध से नाराजगी भूले नहीं हैं। वर्ण—व्यवस्था को इस बुरी तरह बुद्ध ने तोड़ा। यह कुछ आकस्मिक बात नहीं थी कि डाक्टर अंबेडकर ने ढाई हजार साल बाद फिर शूद्रों को बौद्ध होने का निमंत्रण दिया। इसके पीछे कारण है। अंबेडकर ने बहुत बातें सोची थीं। पहले उसने सोचा कि ईसाई हो जाएं, क्योंकि हिंदुओं ने तो सता डाला है, तो ईसाई हो जाएं। फिर सोचा कि मुसलमान हो जाएं। लेकिन यह कोई बात जमी नहीं, क्योंकि मुसलमानों में भी वही उपद्रव है। वर्ण के नाम से न होगा तो शिया—सुन्नी का है।
अंततः अंबेडकर की दृष्टि बुद्ध पर पड़ी और तब बात जंच गयी अंबेडकर को कि शूद्र को सिवाय बुद्ध के साथ और कोई उपाय नहीं है। क्योंकि शूद्र के लिए भी अपने सिद्धांत बदलने को अगर कोई आदमी राजी हो सकता है तो वह गौतम बुद्ध हैं—और कोई राजी नहीं हो सकता—जिसके जीवन में सिद्धांत का मूल्य ही नहीं, मनुष्य का चरम मूल्य है।
यह आकस्मिक नहीं है कि अंबेडकर बौद्ध हुए। यह पच्चीस सौ साल के बाद शूद्रों का फिर बौद्धत्व की तरफ जाना, या बौद्धत्व के मार्ग की तरफ जाना, बौद्ध होने की आकांक्षा, बड़ी सूचक है। इससे बुद्ध के संबंध में खबर मिलती है।
बुद्ध ने वर्ण की व्यवस्था तोड़ दी और आश्रम की व्यवस्था भी तोड़ दी। जवान, युवकों को संन्यास दे दिया। हिंदू नाराज हुए। संन्यस्त तो आदमी होता है आखिरी अवस्था में, मरने के करीब। अगर बचा रहा, तो पचहत्तर साल के बाद उसे संन्यस्त होना चाहिए। तो पहले तो पचहत्तर साल तक लोग बचते नहीं। अगर बच गए, तो पचहत्तर साल के बाद ऊर्जा नहीं बचती जीवन में। तो हिंदुओं का संन्यास एक तरह का मुर्दा संन्यास है, जो आखिरी घड़ी में कर लेना है। मगर इसका जीवन से कोई बहुत गहरा संबंध नहीं है।
बुद्ध ने युवकों को संन्यास दे दिया, बच्चों को संन्यास दे दिया और कहा कि यह बात मूल्यवान नहीं है, लकीर के फकीर होकर चलने से कुछ भी न चलेगा। अगर किसी व्यक्ति को युवावस्था में भी परमात्मा को खोजने की, सत्य को खोजने की, जीवन के यथार्थ को खोजने की प्रबल आकांक्षा जगी है, तो मनु महाराज का नियम मानकर रुकने की कोई जरूरत नहीं है। वह अपनी आकांक्षा को सुने, वह अपनी आकांक्षा से जाए। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आकांक्षा को सुने। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आकांक्षा से जीए। उन्होंने सब सिद्धांत एक अर्थ में गौण कर दिए, मनुष्य प्रमुख हो गया।
तो वे सैद्धांतिक नहीं हैं, विधिवादी नहीं हैं। लीगल नहीं है उनकी पकड़, उनकी धर्म तुम हो पकड़ मानवीय है। कानून इतना मूल्यवान नहीं है, जितना मनुष्य मूल्यवान है। और हम कानून बनाते ही इसीलिए हैं कि मनुष्य के काम आए। मनुष्य कानून के काम आने के लिए नहीं है। इसलिए जब जरूरत हो, कानून बदला जा सकता है। जब मनुष्य के हित में हो, ठीक है, जब अहित में हो जाए तो तोड़ा जा सकता है। जो—जो मनुष्य के अहित में हो जाए, तोड़ देना है। कोई कानून शाश्वत नहीं है, सब कानून उपयोग के लिए हैं।
और छठवीं बात, गौतम बुद्ध नियमवादी नहीं हैं, बोधवादी हैं।
अगर बुद्ध से पूछो, क्या अच्छा है, क्या बुरा है, तो बुद्ध उत्तर नहीं देते। बुद्ध यह नहीं कहते कि यह काम बुरा है और यह काम अच्छा है। बुद्ध कहते हैं, जो बोधपूर्वक किया जाए, वह अच्छा, जो बोधहीनता से किया जाए, बुरा।
इस फर्क को खयाल में लेना। बुद्ध यह नहीं कहते कि हर काम हर स्थिति में भला हो सकता है। या कोई काम हर स्थिति में बुरा हो सकता है। कभी कोई बात पुण्य हो सकती है, और कभी कोई बात पाप हो सकती है—वही बात पाप हो सकती है, भिन्न परिस्थिति में वही बात पाप हो सकती है। इसलिए पाप और पुण्य कर्मों के ऊपर लगे हुए लेबिल नहीं हैं। अभी जो तुमने किया, पुण्य है, और सांझ को दोहराओ तो शायद पाप हो जाए। भिन्न परिस्थिति।
तो फिर हमारे पास शाश्वत आधार क्या होगा निर्णय का? बुद्ध ने एक नया आधार दिया। बुद्ध ने आधार दिया—बोध, जागरूकता। इसे खयाल में लेना। जो मनुष्य जागरूकतापूर्वक कर पाए, जो भी जागरूकता में ही किया जा सके, वही पुण्य है। और जो बात केवल मूर्च्छा में ही की जा सके, वही पाप है। जैसे, तुम पूछो, क्रोध पाप है या पुण्य? तो बुद्ध कहते हैं, अगर तुम क्रोध जागरूकतापूर्वक कर सको, तो पुण्य है। अगर क्रोध तुम मूर्च्छित होकर ही कर सको, तो पाप है।
अब फर्क समझना। इसका मतलब यह हुआ कि हर क्रोध पाप नहीं होता और हर क्रोध पुण्य नहीं होता। कभी मां जब अपने बेटे पर क्रोध करती है, तो जरूरी नहीं है कि पाप हो। शायद पुण्य भी हो, पुण्य हो सकता है। शायद बिना क्रोध के बेटा भटक जाता। लेकिन इतना ही बुद्ध का कहना है, होशपूर्वक किया जाए।
मैंने एक झेन कहानी सुनी है। एक समुराई, एक क्षत्रिय के गुरु को किसी ने मार दिया। और जापान में ऐसी व्यवस्था है, अगर किसी का गुरु मार डाला जाए, तो शिष्य का यह कर्तव्य है कि बदला ले। और जब तक वह मारने वाले को न मार दे, तब तक चैन न ले। ये समुराई तो बड़े भयानक योद्धा होते हैं। गुरु को किसी ने मार डाला, तो उसका जो शिष्य था, वह तो सब कुछ छोड्कर बस इसी में लग गया। दो साल बाद उसका पीछा करते —करते एक जंगल में, एक गुफा में उसको पकड़ लिया। बस उसकी छाती में छुरा भोंकने को था ही कि उस आदमी ने उस समुराई के ऊपर यूक दिया। जैसे ही उसने यूका, उसने छुरा वापस रख लिया अपनी म्यान में और वापस गुफा के बाहर निकल आया।
उस आदमी ने कहा, क्यों भाई, क्या हो गया? दो साल से मेरे पीछे पड़े हो, बमुश्किल तुम मुझे खोज पाए, मैं जंगल—जंगल भागता रहा, आज तुम्हें मिल गया, आज क्या बात हो गयी कि छुरा निकाला हुआ वापस रख लिया?
उसने कहा कि मुझे क्रोध आ गया। तुमने यूक दिया, मुझे क्रोध आ गया। मेरे गुरु का उपदेश था, मारो भी अगर किसी को, तो मूर्च्छा में मत मारना। तो मारने में भी कोई पाप नहीं है। लेकिन तुमने जो यूक दिया, दो साल तक मैंने होश रखा—यह तो सिर्फ एक व्यवस्था की बात थी कि गुरु को मेरे तुमने मारा तो मैं तुम्हें मीर रहा था, मेरा इसमें कुछ वैयक्तिक लेना—देना नहीं था—लेकिन तुमने यूक क्या दिया मुझ पर, मैं भूल ही गया गुरु को और मेरे मन में भाव उठा कि मार डालूं इस आदमी को, इसने मेरे ऊपर थूका! मैं बीच में आ गया, मूर्च्छा आ गयी। अहंकार बीच में आ गया, मूर्च्छा आ गयी। इसलिए अब जाता हूं। अब फिर जब यह मूर्च्छा हट जाएगी तब सोचूंगा। लेकिन मूर्च्छा में कुछ किया नहीं जा सकता।
बुद्ध ने कहा है, जो तुम मूर्च्छा में करो, वही पाप; जो तुम जागरूकता में करो, वही पुण्य है। यह पाप और पुण्य की बड़ी नयी व्यवस्था थी। और इसमें व्यक्ति को परम स्वतंत्रता है। कोई दूसरा तय नहीं कर सकता कि क्या पाप है, क्या पुण्य है। तुमको ही तय करना है। बुद्ध ने व्यक्ति को परम गरिमा दी।
और सातवीं बात, गौतम बुद्ध असहज के पक्षपाती नहीं, सहज के उपदेष्टा हैं। गौतम बुद्ध कहते हैं, कठिन के ही कारण आकर्षित मत होओ। क्योंकि कठिन में अहंकार का लगाव है।
इसे तुमने देखा कभी? जितनी कठिन बात हो, लोग करने को उसमें उतने ही उत्सुक होते हैं। क्योंकि कठिन बात में अहंकार को रस आता है, मजा आता है—करके दिखा दूं। अब जैसे पूना की पहाड़ी पर कोई चढ़ जाए तो इसमें कुछ मजा नहीं है, एवरेस्ट पर चढ़ जाऊं तो कुछ बात है। पूना की पहाड़ी पर चढ़कर कौन तुम्हारी फिकर करेगा, तुम वहां लगाए रहो झंडा, खड़े रहो चढ़कर! न अखबार खबर छापेंगे, न कोई वहां तुम्हारा चित्र लेने आएगा। तुम बड़े हैरान होओगे कि फिर यह हिलेरी पर और तेनसिंग पर इतना शोरगुल क्यों मचाया गया! आखिर इन ने भी कौन सी बड़ी बात की थी, जाकर हिमालय पर झंडा गाड़ दिया था, मैंने भी झंडा गाड़ दिया! लेकिन तुम्हारी पहाड़ी छोटी है। इस पर कोई भी चढ़ सकता है। जिस पहाड़ी पर कोई भी चढ़ सकता है, उसमें अहंकार को तृप्ति का उपाय नहीं है।
तो बुद्ध ने कहा कि अहंकार अक्सर ही कठिन में और दुर्गम में उत्सुक होता है। इसलिए कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि जो सहज और सुगम है, जो हाथ के पास है, वह चूक जाता है और दूर के तारों पर हम चलते जाते हैं।
देखते हैं, आदमी चांद पर पहुंच गया। अभी अपने पर नहीं पहुंचा! तुमने कभी देखा, सोचा इस पर? चांद पर पहुंचना तकनीक की अदभुत विजय है। गणित की अदभुत विजय है। विज्ञान की अदभुत विजय है। जो आदमी चांद पर पहुंच गया, यह अभी छोटी—छोटी चीजें करने में सफल नहीं हो पाया है। अभी एक ऐसा फाउंटेनपेन भी नहीं बना पाया जो लीकता न हो। और चांद पर पहुंच गए! छोटी सी बात भी, अभी सर्दी—जुखाम का इलाज नहीं खोज पाए, चांद पर पहुंच गए! अब ऐसे फाउंटेनपेन को बनाने में उत्सुक भी कौन है जो लीके न! छोटी—मोटी बात है, इसमें रखा क्या है!
फाउंटेनपेन सदा लीकेंगे। कोई आशा नहीं दिखती कि कभी ऐसे फाउंटेनपेन बनेंगे जो लीकें न। और सर्दी—जुखाम सदा रहेगी, इससे छुटकारे का उपाय नहीं है। क्योंकि चिकित्सक कैंसर में उत्सुक हैं, सर्दी—जुखाम में नहीं। बड़ी चीज अहंकार को चुनौती बनती है। आदमी अपने भीतर नहीं पहुंचा जो निकटतम है और चांद पर पहुंच गया। मंगल पर भी पहुंचेगा, किसी दिन और तारों पर भी पहुंचेगा, बस, अपने को छोड्कर और सब जगह पहुंचेगा।
तो बुद्ध असहजवादी नहीं हैं। बुद्ध कहते हैं, सहज पर ध्यान दो। जो सरल है, सुगम है, उसको जीओ। जो सुगम है, वही साधना है। इसको खयाल में लेना। तो बुद्ध ने जीवनचर्या को अत्यंत सुगम बनाने के लिए उपदेश दिया है। छोटे बच्चे की भांति सरल जीओ। साधु होने का अर्थ बहुत कठिन और जटिल हो जाना नहीं, कि सिर के बल खड़े हैं, कि खड़े हैं तो खड़े ही हैं, बैठते नहीं, कि भूखों मर रहे हैं, कि लंबे उपवास कर रहे हैं, कि काटो की शथ्या बिछाकर उस पर लेट गए हैं, कि धूप में खड़े हैं, कि शीत में खड़े हैं, कि नग्न खड़े हैं। बुद्ध ने इन सारी बातों पर कहा कि ये सब अहंकार की ही दौड़ हैं। जीवन तो सुगम है, सरल है। सत्य सुगम और सरल ही होगा। तुम नैसर्गिक बनो और अहंकार के आकर्षणों में मत उलझो।
ये सात बातें ध्यान में रहें, फिर आज के सूत्र—

प्रथम दृश्य :

 श्रावस्ती नगर उन दिनों की प्रसिद्ध राजधानी। कुछ भिक्षु भिक्षाटन करके भगवान के पास वापस लौट रहे थे कि अचानक बादल उठा और वर्षा होने लगी। भिक्षु सामने वाली विनिश्चयशाला (अदालत) में पानी से बचने के लिए गए उन्होंने वहां जो दृश्य देखा वह उनकी समझ में ही न आया। कोई न्यायाधीश पक्षपाती था कोई न्यायाधीश बहरा था— सुनता नहीं थ( ऐसा नहीं कान तो ठीक थे मगर उसने पहले ही से कुछ मान रखा थ( इसलिए सुनता नहीं था इसलिए बहरा था और कोई आंखों के रहते ही अंधा था। किसी ने रिश्वत ले ली थी कोई वादी— प्रतिवादी को सुनते समय झपकी खा रहा था, कोई धन के दबाव में था, कोई पद के कोई जाति— वंश के कोई धर्म के। और उन्होंने वहां देखा कि सत्य झूठ बनाया जा रहा है और झूठ सच बनाया जा रहा है। न्याय से किसी को भी कोई प्रयोजन नहीं  और जहां न्याय तक न हो वहां करुणा तो हो ही कैसे सकती थी। उन भिक्षुओं ने लौटकर यह बात भगवान को कही। भगवान ने कहा ऐसा ही है भिक्षुओ। जैसा नहीं होना चाहिए वैसा ही हो रहा है इसका नाम ही तो संसार है।

और तब उन्होंने ये दो गाथाएं कहीं—

 न तने होति धम्‍मट्ठो येनत्‍थं सहसा नये।
यो च अत्‍थं अनत्‍थज्‍च उभो निच्‍छेय्य पंडितो ।।
असाहसेन धम्‍मेन समेन नयती परे।
ध्‍म्‍मस्‍स गुत्‍तो मेधावी धम्‍मट्ठोति पवुच्‍चति ।।

'बिना विचार किए यदि कोई धर्म —निर्णय (न्याय) करता है, तो वह धर्मस्थ (न्यायाधीश) नहीं है। '
'जो पंडित अर्थ और अनर्थ—न्याय और अन्याय—दोनों का निर्णय कर विचार, धर्म और समत्व के साथ न्याय करता है, वही धर्म से रक्षित मेधावी पुरुष न्यायाधीश है। '
गाथाएं तो सीधी—साफ हैं, फिर भी गहरी हैं। अक्सर ऐसा होता है कि सीधे और सरल सत्य ही गहरे होते हैं। जटिल सत्य तो सिर्फ उथलेपन को छिपाने के लिए कहे जाते हैं। सीधी—सादी बात में जितनी गहराई होती है, उतनी और किसी बात में नहीं होती। बुद्ध के वचन सीधे—सादे हैं। इन्हें समझने के लिए किसी बहुत बड़े पांडित्य की जरूरत नहीं है। अगर न समझने की जिद्द ही न कर रखी हो तो समझ लेना घट जाएगा।
सूत्र के पहले इस छोटी सी कहानी को भी समझ लेना चाहिए। ये कहानियां बड़ी सारगर्भित हैं।
श्रावस्ती नगर। राजधानी थी उस समय की, बड़ी राजधानी थी।
राजधानी सदा से ही पागलों का आवास रही है। राजधानी का अर्थ ही होता है, जहां सब तरह के चोर, बेईमान, लुच्चे—लफंगे इकट्ठे हो गए हों। राजधानी का अर्थ ही होता है, जहां सब तरह के चालाक, चार सौ बीस इकट्ठे हो गए हों। राजधानी में सब तरह के उपद्रवियों का अपने आप आगमन हो जाता है।
अंग्रेजी में राजधानी के लिए शब्द है, कैपिटल। वह शब्द बड़ा अच्छा है। कैपिटल बनता है कैपिटा से। कैपिटा का अर्थ होता है, सिर। कहते हैं न—पर कैपिटा। कैपिटल बनता है कैपिटा से। उसका अर्थ होता है, जहां सिर ही सिर इकट्ठे हो गए हैं। इसका अर्थ हुआ कि जहां पागल ही पागल इकट्ठे हो गए हैं। जहां हृदय बिलकुल नहीं है। जहां हृदय सूख गया है। जहां हृदय से कुछ भी नहीं घटता है।
जहां हर चीज गणित से चलती है, तर्क से चलती, खोपड़ी से चलती। जहां करुणा के कोई फूल नहीं खिलते। बुद्धि बडी कठोर है, गणित में कोई दया नहीं होती। गणित जहरीला है। और जहां तर्क से ही सब चलने लगता है, वहां हम परमात्मा के बिलकुल विपरीत हो जाते हैं। क्योंकि परमात्मा के जीवन की जो धारा है, वह भाव से बहती है। हृदय में उसकी तरंगें उठतीं।
तो श्रावस्ती थी राजधानी। बहुत बार यह सवाल भी उठा है बौद्धों को कि बुद्ध बहुत बार श्रावस्ती गए; इतनी बार श्रावस्ती क्यों गए? इन्हीं पागलों की वजह से गए होंगे। चिकित्सक वहीं जाता है न, जहां ज्यादा बीमार हों। चिकित्सक की वहां जरूरत भी ज्यादा होती है।
श्रावस्ती नगर, कुछ भिक्षु भिक्षाटन करके भगवान के पास वापस लौट रहे थे। बुद्ध ने संन्यास में एक क्रांति घटित की। बुद्ध के पहले संन्यासी को कहते थे, स्वामी। स्वामी शब्द प्यारा है, उसका अर्थ होता है, अपना मालिक। लेकिन मूर्च्छित लोगों को कितना ही प्यारा शब्द दो, उसमें से गड़बड़ कर लेंगे। स्वामी लोग समझने लगे कि हम दूसरों के मालिक। नाम तो दिया था अपने मालिक के लिए, लेकिन स्वामी समझने लगे, हम दूसरों के मालिक।
हिंदू स्वामी अभी भी वैसा ही समझता है, कि और सबका काम यही है कि चरण छुओ। जैन—मुनि भी वैसा ही समझता है, और सबका काम यही है कि आओ, सेवा करो। अपनी मालकियत की तो बात भूल गयी, दूसरों की मालकियत, दूसरों पर कब्जा, दूसरों के ऊपर होने का भाव प्रगाढ़ हो गया।
बुद्ध ने वह शब्द बदल दिया। बुद्ध ने नया शब्द गढ़ा—भिक्षु। ठीक उलटा शब्द। कहा स्वामी कहां भिक्षु! ठीक दूसरी तरफ बात को बदल दिया। बुद्ध ने कहा कि नहीं, यह शब्द खतरनाक हो गया है। शब्द के अर्थ तो ठीक थे, लेकिन गलत लोगों के हाथ में ठीक शब्द भी पड़ जाएं तो खराब हो जाते हैं। गलत पात्र में अमृत भी पड़ जाए तो जहर हो जाता है।
तो बुद्ध ने भिक्षु शब्द चुना। बुद्ध ने कहा कि तुम यही खयाल रखना कि तुम भिखारी से ज्यादा नहीं हो। और तुम मांगकर ही जीना। ताकि प्रतिदिन तुम्हें याद आती रहे कि अहंकार को बसाने की कोई गुंजाइश नहीं है। भिखारी को क्या अहंकार की गुंजाइश! मांगकर जो खाए, कोई दे दे तो ले, कोई न दे तो हट जाए द्वार से—और अधिक द्वारों पर तो खबर यही मिले कि आगे जाओ।
बुद्ध के जो भिक्षु थे, साधारण घरों से न आए थे। क्षत्रिय घरों से आए थे, राजघरों से आए थे, अनेक तो उनमें राजाओं के बेटे थे, उनको भिखारी बना दिया। और उनको कहा कि यह प्रतिपल तुम्हें याद दिलाएगा, यह तुम्हारी साधना है। द्वार—द्वार तुम जाओगे, द्वार—द्वार दुतकारे जाओगे, कोई देगा दो रोटी, कोई न भी देगा। जो दे, उसे भी धन्यवाद देना है, जो न दे, उसे भी धन्यवाद देना है। क्योंकि तुम्हारा कोई आग्रह नहीं है कि कोई दे ही, तुम्हारा कोई बल नहीं है, तुम कोई स्वामी नहीं हो कि जिसने न दिया तो नाराज हो गए। देना किसी का कर्तव्य नहीं है। कोई प्रेम से दे देगा, ठीक है, तो धन्यवाद दे देना; जो न दे, उसे भी धन्यवाद दे देना।
भिक्षु में एक खूबी है, लेकिन वह भी खराब हो गयी। आदमी के हाथ में जो भी शब्द पड़ जाते हैं, खराब हो जाते हैं। समझना। यह भिक्षु शब्द बड़ा प्यारा था, उतना ही प्यारा था जितना कि स्वामी शब्द था। लेकिन तब क्या हुआ? अहंकार को मिटाने की तो बात धीरे— धीरे भूल गयी और भिक्षु शोषक हो गया। वह पर—निर्भर हो गया। लोग इसीलिए बौद्ध भिक्षु होने लगे कि न कमाना, न धमाना! श्रम की कोई जरूरत न रही, शोषण की सुविधा मिल गयी। बड़ा समूह समाज के ऊपर जीने लगा, शोषक होकर जीने लगा। स्वामी खराब हो गया था, भिक्षु भी खराब हो गया।
इसलिए हमें बदलते रहना होता है। फिर नए शब्द गढ़ने होते हैं, या पुराने शब्दों को फिर नया अर्थ देना होता है। मैंने फिर स्वामी शब्द का प्रयोग शुरू किया है। क्योंकि बौद्ध का भिक्षु पर—निर्भर हो गया। और उन दिनों तो संपन्न दुनिया थी, कोई अड़चन न थी। गांव में आसानी से दस—पचास लोग भिक्षु हो जाएं तो पल सकते थे। उन दिनों ऐसी दुनिया थी कि एक आदमी कमाता था और घर में बीस आदमी खाते थे। कोई अड़चन न थी, एक और आदमी भीख मांग ले गया तो कोई अड़चन न थी। अब वैसी दुनिया भी न रही। अब तो बीस आदमी कमाए तो भी सबका पेट नहीं भर पाता। तब एक कमाता था, बीस का पेट भर जाता था, देना बहुत सुगम था। अब देना बहुत कठिन है। और अब भिक्षु बोझ हैं।
इसलिए मैंने स्वामी की एक नयी धारणा को जन्म दिया है। स्वामी तो तुम बनना, लेकिन हिंदू जैसे स्वामी नहीं। और तुम किसी पर निर्भर मत हो जाना। स्वामी तो तुम बनना, लेकिन जैसे हो वैसे ही रहे बनना। दुकान करते हो तो दुकान जारी रहे, दफ्तर जाते हो तो दफ्तर जारी रहे, मजदूरी करते हो तो मजदूरी जारी रहे। तुम्हारा आर्थिक भार समाज पर किसी तरह से न पड़े।
स्वामी मालिक हो गया था, हिंदुओं का। मालिक होकर भी खतरा है। क्योंकि जिनके तुम मालिक हो जाते हो उन पर निर्भर हो जाते हो। फिर उनकी तरफ तुम्हें ध्यान रखना पड़ता है। क्योंकि तुम्हारी कुर्सी वे ही सम्हाले हुए हैं, अगर वे नाराज हो जाएं तो कुर्सी गिर जाएगी। तो वे जैसा कहते हैं, वैसा ही मानकर चलना पड़ता है। भिक्षु भी निर्भर हो गया। जिनसे तुम भोजन खाते हो, जिनसे तुम भोजन लेते हो, उनके विपरीत नहीं जा सकते। तो बुद्ध की बड़ी जो क्रांति थी, वह भिक्षुओं के कारण समाप्त हो गयी। भिक्षु क्रांतिकारी नहीं हो सकता है। क्रांतिकारी तो वही हो सकता है जो अपने पर निर्भर है। पर—निर्भर क्रांतिकारी नहीं हो सकता। अगर तुम किसी पर निर्भर हो तो क्रांति मर जाएगी।
इसलिए फिर मैं संन्यासी के लिए स्वामी शब्द लौटाया हूं क्योंकि स्वामी शब्द बहुमूल्य है। स्वयं की मालकियत। और इस बार स्वामी को किसी पर निर्भर नहीं होना है, स्व—निर्भर रहना है। उस अर्थ में भी उसे अपना मालिक रहना है। उस अर्थ में भी उसे अपनी मालकियत नहीं खोनी है।
तो बुद्ध के भिक्षु भिक्षाटन करके लौटे हैं। रोज भिक्षाटन के लिए जाते थे, यह उनकी साधना थी, यह उनका ध्यान था। यह ध्यान का अनिवार्य अंग था कि रोज भिक्षा मांगने जाओ और देखो, कैसे तुम्हारा मन जरा—जरा सी बात से चोट खाता है। किसी ने भिक्षा दे दी तो तुम प्रसन्न हो जाते हो। किसी ने न दी तो नाराज हो जाते हो। किसी ने अच्छा भोजन दे दिया तो तुम खूब—खूब धन्यवाद देते हो और बड़ा लंबा उपदेश करके आते। और अगर किसी ने अच्छा भोजन न दिया, तुम्हारा उपदेश छोटा होता है, फिर तुम ठीक से धन्यवाद भी नहीं देते। बेमन से धन्यवाद देते हो। जिस घर से अच्छा भोजन मिला, वहा तुम दुबारा पहुंच जाते हो। जिस घर अच्छा भोजन नहीं मिला, वहां तुम दुबारा नहीं जाते। जिस घर से इनकार मिला, वहां फिर दुबारा तुम दस्तक नहीं देते.।
बुद्ध ने इस सबको ध्यान की प्रक्रिया बताया था। चुनाव मत करना, जो आज हुआ, आज हुआ। कल का क्या पता! आज जिसने इनकार कर दिया, कल शायद दे। और आज जिसने दिया, कल शायद इनकार कर दे। इसलिए आज से कल का कोई निर्णय मत लेना। रोज—रोज नए—नए जाना। और कल की धारणा को बीच में अवरोध मत बनने देना। और रोज—रोज देखना कि जब कोई हलुवा और पूड़ी तुम्हारे पात्र में डाल देता है, तो तुम्हारे मन में विशेष धन्यवाद का भाव उठता है। और जब कोई रूखी—सूखी रोटी डाल देता है, तो विशेष धन्यवाद का. भाव नहीं उठता। तब तुम धन्यवाद कहते भी हो तो औपचारिक। इस सब बात पर ध्यान रखना, इस पर जागना और धीरे—धीरे ऐसी घड़ी आ जाए कि सब समत्व हो जाए, सब समान हो जाए। कोई अच्छा दे तो ठीक, कोई बुरा दे तो ठीक; न दे तो ठीक, दे तो ठीक। और हर हालत में तुम्हारा तराजू कंपे नहीं।
तो भिक्षु इस ध्यान की प्रक्रिया को करके, गांव से भिक्षाटन करके वापस लौट रहे थे। अचानक बादल उठा और वर्षा होने लगी।
तो कहीं शरण लेने को पास के ही मकान में वे चले गए होंगे। वह थी राजधानी की बड़ी अदालत—विनिश्चयशाला। उन्होंने वहा जो दृश्य देखा, उनकी समझ में ही न आया।
ये भिक्षु ध्यान में लगे थे, ये भिक्षु साधना में तत्पर थे, इनकी आंखें खुली थीं, साफ थीं, इसीलिए इन्हें दिखायी पड़ा। कोई संसारी गया होता तो दृश्य दिखायी ही नहीं पड़ता। हमें वही दिखायी पड़ता है जो हम देख सकते हैं। इन भिक्षुओं के पास बड़ी एकष्ट आंख रही होगी। इन्होंने वहां क्या देखा, ये बड़े हैरान हुए। देखा कि कोई न्यायाधीश झपकी खा रहा है। वादी—प्रतिवादी दलील कर रहे हैं और न्यायाधीश झपकी खा रहा है। यह कैसे निर्णय करेगा! शायद इसने पहले ही निर्णय कर रखा है। यह सुनने की फिकर में ही नहीं पड़ा है। या शायद इसी नींद में यह निर्णय कर देगा। इसे इतनी भी चिंता नहीं है कि दूसरों के जीवन का सवाल है। और यह झपकी ले रहा है। शायद रात देर तक ताश खेलता रहा होगा, या शराब पी होगी, या वेश्या के घर गया होगा। और यह निर्णय करने बैठा है, लोगों के जीवन का निर्णय!
किसी को देखा कि उसकी आंख से साफ पक्षपात दिखायी पड़ रहा है। साफ दिखायी पड़ रहा है कि उसने निर्णय पहले ही कर लिया है, अब तो वह कामचलाऊ सुन रहा है। शायद उसने रिश्वत ले ली है,  शायद उसका कोई संबंध है, शायद उसकी कोई नाते—रिश्तेदारी है, कोई भाई— भतीजावाद है।
देखा कि कोई बिलकुल बहरे की तरह सुन रहा है। आंखें तो खुली हैं, कान भी खुले हैं, मगर कहीं और है। कोई और विचार में पड़ा होगा। किसी स्त्री के प्रेम में पडा होगा, उसकी तस्वीर चल रही है। या कुछ और धन कमाना होगा, उसकी योजना बन रही है। तो बहरे की तरह सुन रहा है कोई।
कोई अंधे की तरह देख रहा है। आंखें तो खुली हैं, लेकिन देख नहीं रहा है। कहीं और देख रहा होगा, कोई दूर के दृश्य में उलझा होगा।
यह भिक्षुओं को दिखायी पड़ा। यह तुम गए होते तो तुम्हें दिखायी न पड़ता। क्योंकि तुम उसी दुनिया के हिस्से हो, जिस दुनिया में ये अदालतें चलती हैं। तुम्हें कुछ भी अड़चन न मालूम पड़ती।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को लेकर एक बार तीन महीने के लिए जंगल में रहा। और तीन महीने पूर्ण मौन में अपने शिष्यों को रखा। पूर्ण —मौन, बेशर्त मौन था, उसमें कोई समझौते की गुंजाइश न थी। मौन का अर्थ था, न तो बोलना, न दूसरे की तरफ देखना, न आंख से कोई इशारा करना, न हाथ से कोई इशारा करना—क्योंकि वह सब बोलना है। अगर दो मौन में मिलने वाले रास्ते पर मिले और उन्होंने ऐसे सिर झुका दिया तो बात खतम हो गयी। गुरजिएफ ने तो यह भी कहा कि अगर तुम्हारे चलते किसी के पैर पर पैर पड़ जाए तो भी तुम इस तरह का भाव प्रगट मत करना कि तुमने दूसरे के पैर पर पैर रख दिया, क्षमा करो। सरक भी मत जाना इस तरह, नहीं तो वक्तव्य हो गया। बोले न बोले, यह सवाल नहीं है।
एक छोटे से बंगले में तीस आदमियों को रख दिया, बडी मुश्किल हो गयी। एक—एक कमरे में चार—चार, छह—छह लोग थे। अब चार—चार, छह—छह लोगों के साथ कैसे बिलकुल बिना इशारा किए भी बैठे रहो! अनजाने इशारे होने लगे, गुरजिएफ लोगों को निकालने लगा। तीन महीने पूरे होते —होते तीस में से केवल तीन व्यक्ति बचे। जिसको भी उसने देखा कि जरा भी उसकी भाव— भंगिमा बोलने की है, उसको उसने बाहर कर दिया। मगर उन तीन व्यक्तियों पर अपूर्व घटना घटी।
तीन महीने के बाद उन तीन व्यक्तियों को लेकर गुरजिएफ ने कहा, आओ, अब तुम्हें मैं नगर ले चलूं। अब तुम पहली दफे देखोगे कि आदमी कैसा है। तो वह तीनों शिष्यों को लेकर नगर में आया। उनमें से एक शिष्य आस्पेंस्की ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि हमने पहली दफे देखा कि आदमी कैसा है! उसके पहले तो हमने देखा ही नहीं था। रहते आदमी में थे!
तिफलिस नगर में आकर पहली दफे देखा कि लाशें चल रही हैं। कोई जिंदा .। ही मालूम होता। कोई होश में नहीं है। मुर्दे बातें कर रहे हैं। सोए—सोए लोग चले जा रहे हैं रास्तों पर, भागे चले जा रहे हैं। लोग बात भी कर रहे हैं, लेकिन एक—दूसरे को सुन ही नहीं रहे हैं। कोई कुछ कह रहा है, कोई कुछ जवाब दे रहा है। कोई जमीन की कह रहा है, कोई आकाश की मार रहा है। तीन महीने का सन्नाटा ऐसी स्वच्छता दे गया, दर्पण ऐसा साफ हो गया कि दूसरों के हृदय के बिंब बनने लगे, दूसरों के चित्त के बिंब उतरने लगे।
आस्पेंस्की ने अपने गुरु को कहा, वापस चलें, बहुत घबडाहट होती है, यह तो मुर्दों का गांव है, कहा ले आए? यह वही गांव, जहां वर्षों रहे। लेकिन कभी इन आदमियों को देखा नहीं, क्योंकि हम भी वैसे ही थे, तो कैसे देखते! अंधों के बीच अंधे थे, तो अंधों का पता कैसे चलता। अंधों के बीच अगर तुम एक बार आंखें तुम्हारी ठीक हो जाएं और लौटो, तब तुम देखोगे कि सब टटोल रहे हैं! सब भटक रहे हैं। कोई गड्डे में गिर गया है, कोई नाली में गिर गया है, कोई कुएं में गिर गया है, सब गिरे हुए हैं। अजीब हालत चल रही है, किसी के पास आंखें नहीं हैं और सबको भरोसा है कि सब जो कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं। ऐसा ही भरोसा तुम्हें भी था।
तुम अगर इस अदालत में गए होते तो तुम्हें ऐसा कुछ भी न दिखायी पड़ता। लेकिन उन भिक्षुओं को दिखायी पड़ा।
कोई धन के दबाव में था, कोई पद के दबाव में था, कोई जाति—वंश के दबाव में था।
कोई किसी, कोई किसी, लेकिन वहा न्याय की स्थिति में कोई भी नहीं था। न्याय तो वही कर सकता है जिसके भीतर का तराजू समतुल हो गया हो। अपना ही तराजू समतुल न हो तो न्याय कैसे होगा! जो भीतर सम्यकत्व को उपलब्ध हो गया हो, वही तो न्याय कर सकता है। जिसके भीतर ही अभी समता नहीं. समझो कि तुम ब्राह्मण हो और ब्राह्मण पर मुकदमा चल रहा है, तो अनजाने ही तुम कम सजा दोगे। अनजाने ही! नहीं कि तुम जानकर कम सजा दोगे, यह भी नहीं कहा जा रहा है। तुम्हें पता ही न चलेगा, यह अचेतन हो जाएगा। तुम अगर हिंदू हो और हिंदू पर मुकदमा चल रहा है, तो तुम थोड़ी कम सजा दोगे। वही जुर्म अगर मुसलमान ने किया हो तो थोड़ी ज्यादा सजा हो जाएगी।
अब कुछ बहुत नाप—तौल के उपाय तो नहीं हैं, उसी जुर्म के लिए साल की सजा दी जा सकती है, उसी जुर्म के लिए डेढ़ साल की सजा दी जा सकती है। उसी जुर्म के लिए माफ भी किया जा सकता है। तुम तरकीबें खोज लोगे। तुम उपाय खोज लोगे। और ऐसा नहीं कि तुम जानकर यह कर रहे हो, खयाल रखना, यह सब अनजाने हो रहा है। तुम्हें पता ही न चलेगा, यह चुपचाप अचेतन का खेल है जो तुमसे करवा लेगा। लोग जब तक होश में न हों तब तक अचेतन की बड़ी शक्ति होती है। सहज ही हो जाता है।
समझो कि एक सुंदर स्त्री अदालत में खड़ी है, उस पर मुकदमा चल रहा है, तुम्हारा मन सहज ही उसे कम सजा देने का होगा। नहीं कि तुम सोच रहे हो ऐसा। लेकिन सुंदर स्त्री अगर तुम्हें आकर्षित करती है, तो स्वभावत: तुम कम सजा दोगे।
इस बात को सारी दुनिया समझ गयी है। इसलिए पश्चिम के देशों में दुकानों पर चीजें बेचने के लिए आदमी हटा लिए गए हैं, औरतें आ गयी हैं। यह बात समझ में आ गयी।
समझो कि तुम एक जूते की दुकान पर जूता खरीदने गए हो और एक सुंदर स्त्री अपने सुकोमल हाथों से तुम्हें जूता पहनाती है—तुम्हारा पैर साफ करती, जूता पहनाती—जूता गौण हो गया, उसके सुंदर हाथ, उसका सुंदर चेहरा, उसकी सुगंध महत्वपूर्ण हो गयी। और जब वह जूता पहनाकर तुमसे कहती है, कितना सुंदर लगता है! तो मुश्किल हों जाता है तुम्हें कहना कि नहीं—नहीं, कांट रहा है। तुम भी कहते हो, ही, बहुत सुंदर। और जब वह दूर खड़े होकर तुम्हारे पैर को देखती है, निहारती है, जैसे इससे सुंदर पैर कभी उसने देखा ही नहीं, तब तुम जल्दी से खीसे में अपना हाथ डालकर पैसा देकर रास्ता पकड़ लेते हो। फिर अगर वह बीस रुपए के बाईस रुपए भी दाम बताती है, तो भी चलता है। इसलिए पश्चिम में दुकानों से आदमी हट गए, स्त्रियां आ गयीं। पाया गया है कि स्त्रियां सुगमता से चीजें बेच लेती हैं। जल्दी बिक जाती हैं चीजें।
इसकी जगह समझो कि एक आदमी होता और वह भी बदशकल होता, तो जूता कांटने लगता। तुम पच्चीस जोड़ियां बदलते और जब वह बाईस रुपए कहता तो तुम कहते कि दुगुने दाम बता रहे हो, बारह रुपए से ज्यादा का नहीं है, दस रुपए से ज्यादा का नहीं है।
आदमी अचेतन से जी रहा है।
तो उन भिक्षुओं ने जो देखा, ठीक ही देखा। वहां बहुत कुछ हो रहा था, जो न्याय के नाम पर हो रहा था और न्याय नहीं था। उन्होंने वहा देखा कि सत्य झूठ बताया जा रहा है, झूठ सच बताया जा रहा है—सच झूठ बनाया जा रहा है, झूठ सच बनाया जा रहा है।
अदालतों का काम ही यही है। वकालत का पूरा धंधा यही है। वकील की जरूरत इसीलिए है कि वह कैसे सच को झूठ बनाए, कैसे झूठ को सच बनाए। उसकी सारी कुशलता इसमें है। जो सच को ही सच कहे, जो झूठ को झूठ कहे, वह वकील तो नहीं हो सकता। वह कुछ और हो जाए मगर वकील नहीं हो सकता। वकील का तो मतलब ही यही है कि उसमें ऐसी कुशलता हो कि झूठ को सच की तरह स्थापित करे, सच को झूठ की तरह स्थापित करे। इसमें जितनी कुशलता होगी, उतना बड़ा वकील। फिर यही बड़े वकील न्यायाधीश बन जाते हैं। एक अजीब जाल है।
वकील की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए। जब तक वकील है, तब तक दुनिया में न्याय नहीं हो सकता। न्याय के लिए वकील की क्या जरूरत है! एक आदमी ने कसूर किया है, वह आदमी खड़ा हो, जिसके साथ कसूर किया है, वह आदमी खड़ा हो, इन दोनों के बीच वकील की क्या जरूरत है! वकील जब तक बीच में खड़ा है, तब तक बात साफ नहीं हो सकती। वह जाल निकालेगा, तरकीब निकालेगा, उपाय निकालेगा, वह बातों को घुमाएगा, फिराएगा, वह उनको नया रंग देगा, नया ढंग देगा, वह सारी चीज को ऐसा उलझा देगा कि सुलझाना मुश्किल हो जाए।
न्यायाधीश कैसे न्याय करेगा जब तक उसे ध्यान की किसी प्रक्रिया से गुजरने का मौका न मिला हो। और कहीं दुनिया की किसी कानून की किताब में नहीं लिखा है कि न्यायाधीश पहले ध्यान करे। लिखा ही नहीं है! ध्यान से न्यायाधीश का क्या संबंध!
न्यायाधीश पहले ध्यान करे, पहले चित्त की उस अवस्था को उपलब्ध हो, जहां उस पर अचेतन के प्रभाव नहीं पड़ते। नहीं तो बलशाली आदमी खड़ा है अदालत में, मुश्किल हो जाता है। धनी आदमी खड़ा है अदालत में, मुश्किल हो जाता है। अचेतन बलपूर्वक काम करवा लेता है। पद वाला आदमी खड़ा है, मुश्किल हो जाता है।
तुम देखते हो, अभी इस देश में थोड़े दिन पहले जो लोग पद पर थे, तब तक एक बात थी। तब तक अदालतें उनके पक्ष में थीं, न्यायाधीश उनके पक्ष में थे, कानून उनके पक्ष में था। अब सब उनके विपक्ष में हैं। अब हजार भूलें खोजी जा रही हैं। यह सब भूलें तब हुई थीं, अब नहीं हो रही हैं। जब हुई थीं, तब किसी ने न खोजी, अब खोजी जा रही हैं।
यह कैसे होता है? जिनके पास ताकत है, जिनके पास पद है, प्रतिष्ठा है, उनकी भूलें कोई खोजता ही नहीं। और तुम यह मत सोचना कि अब जो भूलें खोजी जा रही हैं, वे सभी सच होंगी। यह भी मत सोचना। अब जो भूलें खोजी जा रही हैं, वे नए सत्ताधिकारियो को प्रसन्न करने के लिए खोजी जा रही हैं, उसमें पचास प्रतिशत झूठ होंगी। उससे भी ज्यादा झूठ हो सकती हैं। जैसे पहले भूलें न खोजने का झूठ चला, अब भूलें खोजने का झूठ चलेगा।
और तुम यह मत सोचना कि पहले जो लोग चुप रहे, वे बेईमान थे; और अब जो लोग बोल रहे हैं, वे ईमानदार हैं। अब इनके बोलने में उतनी ही बेईमानी है, जितनी कि न बोलने वालों के न बोलने में बेईमानी थी।
मनुष्य का चित्त इतना उलझा हुआ है! अब तुम यह मत सोचना कि ये बड़े क्रांतिकारी लोग हैं, जो सारी बातें निकालकर रख रहे हैं। ये ठीक वही के वही बेईमान हैं। कल जब सत्ता फिर बदल जाएगी तब तुम फिर पाओगे, इन्होंने फिर चेहरे बदल लिए। ये मुखौटे बदलते रहते हैं। जिसकी लाठी उसकी भैंस। भैंस से कोई संबंध ही नहीं है किसी को। किसकी है, इससे भी कोई संबंध नहीं है, जिसकी लाठी! लाठी तुम्हारे हाथ में नहीं, तुम्हारी भैंस भी गयी। कहते हैं न गाव में—गरीब की औरत सबकी भौजाई। सब उससे भौजाई का नाता—रिश्ता बना लेते हैं। कोई भी मजाक करे, ठिठोली करे, कोई भी कुछ कह दे, कोई अड़चन नहीं—गरीब की औरत!
आदमी जब तक ध्यानस्थ न हो, तब तक उसके जीवन से न्याय तो हो ही नहीं सकता। इस छोटी सी कहानी में बुद्ध न्याय की आधारशिला रख रहे हैं।
न्याय से वहां किसी को प्रयोजन न था। और जहां न्याय ही न हो, वहां करुणा तो कैसे हो सकती है!
यह भी खयाल रखना कि करुणा न्याय से भी बड़ा सिद्धांत है। न्याय तो मानवीय है, करुणा ईश्वरीय है। न्याय का तो मतलब ऐसा है, जैसा जीसस ने कहा कि पुरानी किताब कहती है, इंजील कहती है कि जो तुम्हारी एक आंख फोड़े, उसकी दोनों आंख फोड़ देना, यह तो न्याय है। जो तुम्हें ईंट मारे, उसे पत्थर मार देना, यह तो न्याय है। लेकिन यह करुणा तो नहीं है।
एक आदमी ने चोरी की, वह किसी के पचास रुपए जेब से कांट लिए। न्याय यह है कि वह पचास रुपए वापस लौटाए और पचास रुपए चुराने के जुर्म में कुछ महीने दो महीने की सजा काटे। न्याय यह है। यह ठीक है। न्याय ही नहीं हो रहा है दुनिया में। यह भी नहीं हो रहा है। इस पर भी हजार बातें निर्णायक होंगी कि इस आदमी को सजा मिलेगी कि पुरस्कार मिलेगा। कोई कुछ जानता नहीं।
लेकिन करुणा और बड़ी बात है। करुणा तो यहां तक सोचेगी कि इस आदमी को पचास रुपए चुराने क्यों पड़े? क्या इसकी पत्नी बीमार थी? क्योंकि कोई भी चीज संदर्भ के बाहर तो नहीं हो सकती, इस आदमी ने ऐसे ही आकस्मिक तो पचास रुपए नहीं चुरा लिए। इसका बच्चा मर रहा था? इसकी पत्नी बीमार थी, दवा के लिए पैसे न थे? अगर पत्नी मर रही हो और कोई पचास रुपए चुरा ले, तो क्या यह इतना बड़ा जुर्म है! पत्नी को बचाने की आकांक्षा को अगर हम ध्यान में रखें तो पचास रुपए चुरा लेना क्या इतना बड़ा जुर्म है! और फिर जिससे इसने पचास रुपए चुराए हैं, उसके पास करोड़ों हैं। वह भी संदर्भ में ध्यान रखने की जरूरत है। उससे चुराए पचास, कुछ भी न चुराए। और इसकी पत्नी बच गयी!
इसको दंड मिलना चाहिए? कितना दंड मिलना चाहिए? इससे पचास रुपए छीने जाने चाहिए? इसको दो महीने की सजा देनी चाहिए? क्योंकि इससे पचास रुपए छीनने का मतलब होगा कि इसकी पत्नी न बचेगी। और दो महीने इसे जेल भेजने का मतलब होगा, इसके बच्चे भी मरेंगे। और इसकी पत्नी बीमार रहेगी, पत्नी शायद न बचे, बच्चे बीमार हो जाएं, बच्चे आवारा हो जाएं, दो महीने बाद जब यह वापस लौटेगा, तो इसकी हालत दो महीने पहले से भी ज्यादा बुरी होगी। जब उस हालत में इसने पचास रुपए चुराए थे, तो दो महीने बाद यह सौ रुपए चुराने की स्थिति में आ गया। यह तो अदालत ने कुछ काम नहीं किया! यह तो बात और गलत हो गयी।
तो न्याय तो छोटा सिद्धांत है। न्याय ही नहीं हो रहा है। होनी तो करुणा चाहिए करुणा तो बहुत बड़ी बात है। करुणा का तो मतलब है, हम सारा संदर्भ सोचें। क्योंकि जो बात एक संदर्भ में ठीक है, दूसरे में गलत हो सकती है। संदर्भ तो सोचो, किसके चुरा लिए हैं? किससे ले लिए किसलिए लिए, किस अवस्था में लिए? उस अवस्था में न्यायाधीश अगर होता, तो वह भी ये पचास रुपए चुराता या नहीं चुराता?
पुरानी एक कहानी है। एक युवक ने अपने गुरु को कहा कि मैं ध्यान में उतरना चाहता हूं। और ऐसे ध्यान में उतरना चाहता हूं जहां कोई चीज शेष न रह जाए, बस ब्रह्म ही शेष हो। गुरु ने कहा, तू ध्यान कर। उसके लिए सब सुविधा जुटा दी। वह शांत सारी सुविधाओं के रहते ध्यान करने लगा। कुछ दिन बाद वह उदघोष करने लगा उपनिषद के महावाक्य का—अहं ब्रह्मास्मि! और शिष्यों ने कहा कि वह ती ज्ञान को उपलब्ध हो गया, मालूम होता है। अब तो वह जब भी बात करता है तो अहं ब्रह्मास्मि, इसकी ही बात करता है। बैठे—बैठे ध्यान में अहं ब्रह्मास्मि का उच्चार होने लगता है।
गुरु ने उसे बुलाया, उसकी तरफ देखा और कहा, ठीक! अब तू इक्कीस दिन भोजन बंद कर दे। इक्कीस दिन तो दूर, पाच—सात दिन के बाद ही अहं ब्रह्मास्मि का उदघोष बंद हो गया। दो सप्ताह बीतते—बीतते तो वह गाली—गलौज बकने लगा। यह क्या बदतमीजी है! मुझे भूखा मारा जा रहा है! तीन सप्ताह होते—होते तो— उसकी हालत विक्षिप्त की हो गयी।
गुरु ने उसे बुलाया और कहा, क्या विचार है—अहं ब्रह्मास्मि? उसने कहा, छोड़ो जी बकवास, भोजन! अन्न ब्रह्म! बस इन तीन सप्ताह तो सिर्फ एक ही बात याद रही कि अन्न ही ब्रह्म है। और: कोई ब्रह्मास्मि वगैरह सब व्यर्थ की बातें हैं। तो गुरु ने कहा, अब तू ठीक समझा। इतना सस्ता नहीं है!
न्यायाधीश भी तो अपने को जरा रखकर देखे उस परिस्थिति में, जहां एक आदमी ने चोरी की! उस परिस्थिति में रखकर सोचे जहां उसे चोरी के लिए मजबूर होना पड़ा। तो करुणा होगी।
लेकिन करुणा तो बहुत दूर है, न्याय ही नहीं हो रहा है। उन भिक्षुओं ने देखा कि न्याय कैसे संभव है? और भगवान, आप तो कहते हैं कि करुणा होनी चाहिए जगत में, यहां न्याय ही नहीं हो रहा है! न्याय तो बिलकुल गणित की बात है, उसमें हृदय की कोई गुंजाइश नहीं है। करुणा तो हृदय की बात है, वह तो गणित से बहुत ऊपर है।
तो उन भिक्षुओं ने लौटकर यह सारी बात भगवान को कही। भगवान ने कहा, ऐसा ही है भिक्षुओ! जैसा नहीं होना चाहिए वैसा ही हो रहा है। इसका नाम ही तो संसार है।
जैसा होना चाहिए वैसा ही हो, इसका नाम निर्वाण। वही तो परमदशा है। जैसा होना चाहिए वैसा ही हो। और जैसा नहीं होना चाहिए वैसा जहां होता रहे, उसी का नाम संसार है। यह एक मूर्च्छित जगत, यह एक निद्रा में डूबी हुई अवस्था है। यह एक दुख—स्‍वप्‍न है।
और तब उन्होंने ये दो गाथाएं कहीं।
'विचार किए बिना यदि कोई धर्म—निर्णय (न्याय) करता है, तो वह धर्मस्थ नहीं, न्यायाधीश नहीं।'
तो पहले तो विवेक उपलब्ध हो, विचार उपलब्ध हो; पहले तो ध्यान की शांति जगे, देखने की क्षमता आए, दृष्टि हो, निष्पक्ष देखने की दृष्टि हो, तभी कोई धर्मस्थ। तो पहले तो कोई धर्मस्थ हो, तब धर्म कर सकेगा। पहले तो स्वयं न्याय में ठहरे, तब न्यायाधीश हो सकेगा।
'जो पंडित अर्थ और अनर्थ—न्याय और अन्याय—दोनों का निर्णय कर विचार, धर्म और समत्व के साथ न्याय करता है।'
जिसे पता है, क्या सार, क्या असार; जिसे पता है, क्या न्याय, क्या अन्याय; और जो अपने भीतर समत्व को धारण किए हुए है, वही केवल न्याय कर सकता है। तो न्याय के लिए तो समत्व अनिवार्य शर्त है। और समत्व समाधि का लक्षण है। कभी शायद मनुष्य—जाति उस ऊंचाई पर आएगी, जब न्यायाधीश होने के लिए समाधि अनिवार्य होगी। और जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक कभी न्याय संभव नहीं है। तब तक न्याय के नाम पर अन्याय ही चलता है। बलशाली का अन्याय न्याय कहलाता है। बलशाली मारता है तो रोने भी नहीं देता। रोओ तो जुर्म। बलशाली मारे तो हंसो, प्रसन्न होओ।
जर्मनी का एक सम्राट था, फ्रेडरिक। उससे लोग बहुत डरते थे। क्योंकि वह किसी को भी मारने—पीटने लगता था। हाथ में कोड़ा रखे रहता था, जरा सी बात से कोड़े फटकार देता था। अजीब आदमी था। बलशाली तो बहुत था ही। सड़क पर घूमने निकलता, किसी को गलती कोई काम करते देख लेता तो वहीं मारपीट कर देता। अब सम्राट से तो कोई क्या कहे! लोग डरते थे, उसको देखकर लोग दरवाजा बंद कर लेते। कोई आ रहा होता रास्ते पर, जल्दी से बगल की गली से निकल जाते कि कोई भूलचूक हो जाए! कुछ कहो मत, नमस्कार करने ही में कुछ भूलचूक हो जाए!
एक आदमी को उसने देखा—एक सांझ वह घूमने निकला है—उसने देखा, एक आदमी चला आ रहा था, फिर जल्दी से गली में चला गया। वह भागा, उसने पकड़ा कि तू गली में क्यों गया? तू पहले तो सीधा चला जा रहा था! उसने कहा, आपके डर के कारण—सत्य निकल गया उसके मुंह सें—कहा, आपके डर के कारण। उसने कहा, यह बात ही गलत है! प्रजा को प्रेम करना चाहिए राजा को, डरना नहीं चाहिए। और उसने कोड़े फटकारे और कोड़े फटकारकर वह बोला कि बोल, अब प्रेम करता है कि नहीं? उसने कहा, महाराज, करता हूं, प्रेम तो पहले ही से करता हूं।
अब यह प्रेम कोड़ों के बल पर अगर उपलब्ध होता हो, तो कैसे प्रेम हो सकेगा? लेकिन अब तक न्याय के नाम पर बलशाली का न्याय चल रहा है। अन्याय का अर्थ ही यह है कि तुम कमजोर हो, तो तुमने जो किया, वह अन्याय है। तुम अगर बलशाली हो तो तुमने जो किया, वह न्याय।
समत्व के आधार पर न्याय होना चाहिए। समता को उपलब्ध व्यक्ति के द्वारा न्याय होना चाहिए। सिर्फ संन्यासी ही न्यायाधीश होने चाहिए।
'जो समत्व के साथ न्याय करता है, वही धर्म से रक्षित मेधावी पुरुष न्यायाधीश कहलाता है।'
दूसरा सूत्र और दूसरा दृश्य:

 कुदान नामक एक छीनास्रव— आस्रव क्षीण हो गए हैं जिनके— ऐसे अर्हत थे भिक्षु थे। वे जंगल में अकेले रहते थे। उन्हें एक ही उपदेश आता था— बस एक ही उपदेश जैसा मुझे आता है— बस रोज उसी को कहते रहते थे। वे उसे ही रोज देते उपदेश को। स्वभावत: उनका कोई शिष्य नहीं था
हो भी कैसे! कोई आता भी तो भाग जाता, वही उपदेश रोज। शब्दशः वही। उसमें कभी भेद ही नहीं पड़ता था। उन्हें कुछ और इसके अलावा आता ही नहीं था। लेकिन वे देते रोज थे।
कोई आदमी तो उनके पास टिकता नहीं था लेकिन जंगल के देवता उनका उपदेश सुनते थे। और जब वे उपदेश पूरा करते तो जंगल के देवता साधुकार देकर स्वागत करते थे— साधु! साधु! सारा जंगल गुंजायमान हो जाता था— साधु। साधु! धन्यवाद! धन्यवाद!
एक दिन पांच— पांच सौ शिष्यों के साथ दो त्रिपटकधारी साधु आए भिक्षु आए। एकुदान ने उनका हार्दिक स्वागत किया और प्रसन्न होते हुए बोले भंते आप भले पधारे। मैं एक ही उपदेश जानता हूं बेचारे जंगल के देवता उसे ही बार— बार सुनकर थक गए होंगे। आज आप लोग उपदेश दें। हम भी सुनेने और देवतागण भी आनंदित होंगे दयावश वे इस बूढ़े के एक ही उपदेश का भी साधु— साधु कहकर स्वागत करते हैं आप दोनों ज्ञानी हैं त्रिपटकधारी हैं आपके पांच— पांच सौ शिष्य है? देखें मेरा तो एक भी शिष्य नहीं है— एक ही उपदेश देना हो तो शिष्य कोई बनेगा ही क्यों? बनेगा ही कोई कैसे?


तो उस के ने कहा कि मुझ के का भी उपदेश वे सुनते हैं, देवता हैं, भले लोग हैं, तो धन्यवाद भी देते हैं, हालांकि मैं जानता हूं ऊब गए होंगे।
ये त्रिपटकधारी महापंडित इस बूढ़े पागल की बात सुनकर एक— दूसरे की तरफ अर्थगर्भित दृष्टियों से देखते हुए मुस्कुराए। अकेले रहते— रहते यह एकुदान विक्षिप्त हो गया है उन्होने सोचा। अन्यथा कोई एक ही उपदेश रोज— रोज देता है! फिर कहा के देवता! आह बेचारा! इस बूढ़ी अवस्था में मन इसका कपोल— कल्पनाओं से भर गया है। यह यथार्थ से स्तुत हो गया है
फिर उन दोनों ने बारी— बारी से उपदेश दिया वे बड़े पंडित थे त्रिपटक के ज्ञाता थे बुद्ध के सारे वचन उन्हें कंठस्थ थे पांच— पांच सौ उनके शिष्य थे  उन्होंने बारी— बारी से उपदेश दिया— शास्त्र— सम्मत पांडित्य से भरपूर तर्क से प्रतिष्ठित। उनके शिष्यों ने हर्षध्वनि की— साधु। साधु! बूढ़ा एकुदान भी परम आनंदित हुआ। बस एक ही बात उसे खटक रही थी कि जंगल के देवता कुछ भी न बोले। जंगल के देवता चुप थे सो चुप ही रहे! उसने यह बात पंडितों को भी कही कि बात क्या है? आज जंगल के देवता चुप ही क्यों हैं? इनको क्या हो गया? आज ये कहा चले गए? ये रोज मेरा उपदेश सुनते हैं और साधुवाद से पूरा जंगल भर जाता है। और आज ऐसा परम उपदेश हुआ ऐसा ज्ञान से भरा!
वे फिर वे पंडित फिर इस बूढ़े पागल की बात पर हैंसे। मजाक में ही उन्होने इस बूढ़े को भी उपदेश देने को कहा उन्होंने सोचा कि चलो इसका एक उपदेश भी सुन लें।
बूढ़ा बड़े संकोच से धर्मासन पर गया और उसने और भी संकोच और झिझक से अपना वह एक ही संक्षिप्त सा उपदेश दिया। उपदेश के पूरे होते ही जंगल साधु! साधु! साधु ?? के अपूर्व निनाद से गूंज उठा। जैसे वृक्ष— वृक्ष से आवाज उठी पत्थर— पत्थर से आवाज उठी— सारे जंगल के देवता!
पंडित तो बड़े हैरान हुए। तो यह बूढ़ा पागल नहीं था। देवता थे। और अब पंडितों ने सोचा मालूम होता है देवता पागल हैं। क्योंकि इसके उपदेश में कुछ खास बात ही नहीं साधारण सा उपदेश है जो कोई भी दे दे।
अब ऐसा उन पंडितों ने सोचा कि ये जंगल के देवता पागल हैं। पहले सोचते थे, यह का पागल है, देवता कहीं होते! अब उन्होंने सोचा कि देवता तो जरूर हैं और का पागल भी नहीं है, मगर देवता पागल हैं। क्योंकि हमने इतने पांडित्य की बातें कहीं और इनकी समझ में न आयीं, और इस बूढ़े का वही उपदेश!
वे दोनों तो इस संबंध में चुप ही रहे लेकिन उनके शिष्यों ने भगवान से जाकर यह अपूर्व चमत्कार की बात कही। भगवान ने उनसे कहा सत्य शास्त्र में नहीं है सत्य शब्द में भी नहीं है सत्य तथाकथित बौद्धिक ज्ञान में भी नहीं है सत्य है अनुभव। और अनुभव शून्य में प्रगट होता है मौन और आंतरिक  एकांत में प्रगट

होता है। और वैसे जीवंत अनुभव की अभिव्यक्ति पर सारा अस्तित्व आह्लादित हो उठे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।

और तब उन्होंने यह गाथा कही—

            न तेन पंडितो होति होति यावता बहु भासति।
खेमी अवेरी अभसो पंडितोति पवुच्‍चति ।।

'बहुत भाषण करने से कोई पंडित नहीं होता, बल्कि जो क्षेमवान, अवैरी और निर्भय होता है, वही पंडित है'
यह कथा बड़ी प्यारी है। पहले तो यह का एकुदान क्षीणासव था। क्षीणासव बौद्धों का पारिभाषिक शब्द है, इसका अर्थ होता है, जिसके आसव क्षीण हो गये। चार आसव हैं। पहला आसव है—कामास्रव। जिसके मन में अब कामना नहीं उठती, जिसके मन में वासना नहीं उठती, महत्वाकांक्षा  नहीं उठती; जो अब ऐसा नहीं सोचता, यह कर लूं वह कर लूं। जिसके मन में करने का रोग चला गया, तो पहला आसव क्षीण हो गया। जो अब बस है, करने की सुन नहीं है।
तुम देखते हो अपने को, जब भी बैठे, करने की धुन रहती—यह कर लें, वह कर लें। .कुछ तो करके दिखा दें, इतिहास में नाम छोड़ जाएं। ऐसे ही आए, ऐसे ही न चले जाएं। हम तो चले जाएंगे लेकिन नाम रह जाएगा, कुछ कर लें, कहीं पत्थरों पर खोद जाएं नाम। हम तो मिट जाएंगे, लेकिन नाम रह जाए। इसका नाम है, कामासव।
दूसरा आसव है—भवासव। भवों के लिए कामना। स्वर्ग मिल जाए, मोक्ष मिल जाए, अच्छी योनि मिल जाए कम से कम। जीवन मिले, लंबा जीवन मिले, आयु मिले, मैं होता ही रहूं सदा होता रहूं यह हो जाऊं, वह हो जाऊं, इसका नाम भवासव। कुछ होते हैं जो करने की धुन में लगे रहते हैं—यह कर लूं वह कर लूं। कुछ होते हैं जो होने की धुन में लगे रहते हैं कि यह हो जाऊं, वह हो जाऊं। यह दूसरा आसव है। जिनका भवासव गिर गया, जिनकी होने की धुन गिर गयी, जो कहते है—अब जो हूं हूं; जैसा हूं हूं जिनकी जीवेषणा गिर गयी, वे क्षीणासव। तीसरा आसव है—दृष्टास्रव। दृष्टिराग, शास्त्रराग, सिद्धांतराग। मैं हिंदू हूं? मैं मुसलमान हूं मैं ईसाई हूं मैं जैन हूं मैं बौद्ध हूं ऐसे जिनके राग पैदा हो जाते हैं। ऐसे राग को बुद्ध कहते हैं, दृष्टासव। इनकी बुद्धि निर्मल नहीं रहती। इनकी आंखों पर पर्तें पड़ जाती हैं। फिर अपने ही चश्मे से ये दुनिया को देखते हैं। अगर उन्होंने लाल चश्मा लगा लिया तो सारी दुनिया लाल दिखायी पड़ती है, ये सोचते हैं कि दुनिया लाल है। जिनका दृष्टासव भी गिर गया, वे क्षीणासव।
और चौथा आसव है—अविद्यास्रव। मैं हूं मैं आत्मा हूं यह है अविद्यासव। यह बड़ी अनूठी बात है। बुद्ध कहते हैं, यह मानना कि मैं हूं अविद्या के कारण है। सर्व है, मैं कहा? सागर है, लहर कहा? अलग—अलग हम हैं ही नहीं, बस एक ही है। अलग—अलग होने का जो दावा है—मेरी सीमा, मेरी परिभाषा, मैं यह, मैं वह—यह दावा अविद्या है।
जिनके ये चारों आसव गिर गए हैं, उनके लिए पारिभाषिक शब्द है, क्षीणासव। तो यह एकुदान नाम का बूढ़ा भिक्षु क्षीणासव था। इसके सब आसव गिर गए थे। यह परमदशा है। अर्हत की दशा है।
अर्हत शब्द भी महत्वपूर्ण है। उसका अर्थ होता है, जिसके सब शत्रु गिर गए। अरि का अर्थ होता है शत्रु, और जिसके सब शत्रु हत हो गए अब बचे नहीं। यही चार शत्रु हैं। ये शत्रु गिर गए तो आदमी अर्हत हो गया।
जैनों में इसी के लिए शब्द है, अरिहंत। अर्हत के लिए ही पर्यायवाची है।
ऐसे यह के भिक्षु थे, यह जंगल में अकेले रहते। अब दूसरे की कोई आकांक्षा भी न थी। कोई आ जाता कभी, रुक जाता, ठीक। कोई न आता, ठीक। न यह कहीं जाते, न आते। लेकिन नियम से रोज उपदेश देते थे। अकेले होते तो भी। कोई न होता तो भी।
यह भी बड़ी महत्व की बात है। ऐसे ही समझो कि एकांत में फूल खिला तो सुगंध तो बहेगी ही न, चाहे कोई सुगंध लेने वाला हो या न हो, चाहे कोई राहगीर पास से गुजरे कि न गुजरे। कि अंधेरे में दीया जला, रोशनी तो फैलेगी ही न, कोई हो आंख वाला या न हो आंख वाला। मंदिर खाली ही क्यों न हो, लेकिन दीया जलेगा तो रोशनी तो फैलेगी ही न। इसलिए उपदेश फैलता था। यह उपदेश सुगंध जैसा था। यह किसी के लिए दिया गया, ऐसा नहीं। यह हो रहा था। जैसे झरने बहते हैं, फूल खिलते हैं, दीया जलता है, चांद—तारे चलते हैं, ऐसी यह सहज घटना थी। इसका मतलब तुम यह मत समझना कि इसमें कोई मजबूरी थी, कि देना पड़ता था। नहीं, एकुदान अपने को पाते होंगे कि उनसे कुछ बहा जा रहा है। जो मिला है, वह बहता है। जो जाना है, वह बटता है।
महावीर को जब पहली दफा ज्ञान हुआ, तो उनसे ज्ञान झरा। बड़ी प्यारी कथा है। आदमी वहां कोई भी न था, देवता ही थे, तो देवताओं ने सुना। उन्होंने बड़ा निनाद किया, उदघोष किया धन्यवाद का। बस बात खतम हो गयी।
देवताओं के साथ एक खराबी है। वे केवल धन्यवाद कर सकते हैं, कुछ कर नहीं सकते। देवता एक अर्थ में नपुंसक हैं। इसलिए सारे भारत के मनीषियों ने कहा है, मुक्ति का द्वार मनुष्य से जाता है, देवताओं से नहीं। देवताओं को भी फिर मनुष्य होना पड़ता है, तभी मुक्त हो सकते हैं। देवता कुछ कर नहीं सकते, बातचीत कर सकते हैं। करने के लिए तो देह चाहिए, उनके पास देह नहीं है।
तुम ऐसा ही समझो कि तुम्हारा मन ही तैर रहा है आकाश में, बस वही देवता है। मन ही बचा। कर कुछ नहीं सकते। सोच बहुत सकते हो, बोल बहुत सकते हो, लेकिन करोगे कैसे? करने के लिए देह का उपकरण चाहिए।
पशु नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उनके पास मन नहीं है। और देवता नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उनके पास देह नहीं है। केवल मनुष्य कर सकता है कुछ, क्योंकि उसके पास मन, देह, दोनों हैं। देवता ऐसे हैं— भाप ही भाप, इंजिन नहीं है। पशु—पक्षी ऐसे हैं—इंजिन तो है, भाप नहीं है। आदमी भर ऐसा है कि इंजिन भी है, भाप भी है। चल सकता है, कुछ हो सकता है।
तो महावीर की बात देवताओं ने सुनी, खूब साधुवाद किया, लेकिन बस सन्नाटा हो गया। तब महावीर को चलना पड़ा बस्तियों की तरफ, आदमी खोजने पड़े। क्योंकि देवता सुनते रहेंगे, साधुवाद करते रहेंगे, और तो कुछ होगा नहीं।
यह एकुदान जंगल में रहते थे, इनसे उपदेश झरता होगा। किया उपदेश, ऐसा कहना ठीक नहीं, झरा उपदेश, ऐसा ही कहना ठीक है। जैन ठीक कहते हैं, वे कहते हैं, महावीर से वाणी झरी। बोले, ऐसा कहना ठीक नहीं, बोलने में तो वासना आ जाती है, झरी, घटी।
और वही उपदेश रोज—रोज था। अब बेला खिलेगा तो बेले की ही गंध निकलेगी न, और गुलाब खिलेगा तो गुलाब की ही गंध निकलेगी। अब तुम यह थोड़े ही कहोगे कि रोज—रोज गुलाब गुलाब की ही गंध दिए जा रहा है, और बेला रोज—रोज बेले का ही संचरण किए जा रहा है। वही तो होगा न जो घटा है। तो एक ही तो सार था, वही सार निनादित होता रहता था। वे रोज वही कहते थे और जंगल पूरा गुंजित हो जाता था। देवता साधुवाद देते थे। देवता कहते, साधु—साधु! सुंदर! श्रेष्ठ! सत्य!
फिर आए ये दो पंडित, जिन्हें बुद्ध के सारे वचन याद थे। बड़े पंडित थे, इनके पांच—पांच सौ शिष्य थे। वे तो समझे कि यह का पागल हो गए है। पंडित तो सदा से यही समझा है कि समाधिस्थ जो है वह पागल हो गया है। पंडित को तो समझ में ही नहीं आती है बात हृदय की। पंडित को तो केवल शब्द ही समझ में आते हैं, शांति समझ में नहीं आती। पंडित को सिद्धांत समझ में आते हैं, समाधि समझ में नहीं आती। तो वे हंसे, एक—दूसरे की तरफ देखकर मुस्कुराए कि यह का, इसका दिमाग गडबड़ हो गया है। एक तो अकेले में ही रहता है और कहता है, मैं उपदेश करता हूं अकेले में किसको उपदेश! दूसरी बात, कह रहा है कि देवता साधुवाद करते हैं, कहा के देवता! सब बातचीत है। निश्चित ही यह बेचारा विक्षिप्त हो गया, अकेले में रहते—रहते पगला गया है।
लेकिन उस के ने कहा, आप आ गए तो भला हुआ। मेरा एक ही उपदेश सुनते—सुनते देवता थक भी गए होंगे। आप कुछ उपदेश करें, मैं भी सुन लूंगा, देवता भी सुन लेंगे। उन्होंने उपदेश किया भी, शास्त्र—सम्मत, ठीक—ठीक जैसा होना चाहिए। लेकिन ठीक—ठीक पर्याप्त थोड़े ही है। तुम बिलकुल दोहरा दो मशीन की तरह बुद्ध के वचन, लेकिन अगर बुद्धत्व तुम्हारे भीतर फलित न हुआ हो, तो तुम्हारी वाणी निर्वीर्य होगी, निष्प्राण होगी।
देवता चुप रहे। कोई निनाद न हुआ, कोई उदघोषणा न हुई। तब उस के ने उपदेश किया, झिझकते—झिझकते, संकोच से भरे हुए। बड़ा परेशान हुआ होगा का कि क्या हुआ? मुझ अज्ञानी की बात सुनकर देवता साधुवाद करते हैं, इन ज्ञानियों की बात सुनकर साधुवाद न किया! तो झिझका होगा। लेकिन जब उसने अपना वही संक्षिप्त सा उपदेश दोहराया, तो साधुवाद का झंकार उठा। सारा जंगल मन—प्राण से साधुवाद कर उठा।
पंडित की भांति देखो। पहले सोचा, यह का पागल। अब बात तो बदल दी, अब तो यह बात समझ में आ गयी कि देवता भी हैं, तो अब देवता पागल! क्योंकि इस के की बात में क्या रखा है। फिर भी पंडितों को न दिखायी पड़ा—पंडित का अंधापन बड़ा गहरा होता है—फिर भी उन्हें न दिखायी पड़ा कि जब इतना विराट उदघोष उठा है, तो जरूर इस बात में कुछ होगा, जो हमारी समझ में नहीं आ रहा है। बात सीधी—सादी थी। कुछ बड़ी गहरी न थी। लेकिन बात की गहराई बात में थोड़े ही होती है, बात की गहराई अनुभव में होती है।
वे दोनों तो चुप ही रहे। लौटकर उन्होंने बुद्ध को यह बात भी न बतायी, क्योंकि यह तो उनके अहंकार का खंडन होता। लेकिन उनके शिष्यों ने बुद्ध को कहा।
तो बुद्ध ने कहा, सत्य शास्त्र में नहीं, सत्य शब्द में नहीं, सत्य तथाकथित बौद्धिक ज्ञान में नहीं; सत्य है अनुभव, अनुभूति। जिसने समाधि जानी, उसने सत्य जाना। और समाधि से जो सुगंध उठती है, उस सुगंध में अगर जगत आंदोलित हो उठे, उत्सव से भर जाए, तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है।
वही उपदेश था, एकुदान ने जो उपदेश किया, वही उपदेश था। इन पंडितों ने जो कहा, वह तो व्यर्थ की बकवास थी।
इसे स्मरण रखना। जब तक तुम्हारी समाधि न पके तब तक तुम जो भी कहोगे, वह बातचीत ही बातचीत है। इसलिए सारी शक्ति समाधि के पकने में लगाना। सारी शक्ति, सारी ऊर्जा एक ही बात पर दाव पर लगा देनी है कि तुम्हारे भीतर अनुभव घटित हो जाए। ईश्वर—ईश्वर की गुहार न मचाओ, आत्मा—आत्मा के शब्द मत दोहराओ, कुछ जीओ, कुछ जानो। किसी दिन ऐसा हो सके कि तुम क्षीणासव हो जाओ और तुम्हारे भीतर से सत्य का सहज उदघोष उठे।
तब बुद्ध ने कहा, बहुत भाषण करने से कोई पंडित नहीं, बल्कि जो क्षेमवान है, जिसके भीतर अवैर है, निर्भय है जो, और जिसके भीतर क्षमा है, और जिसके भीतर धैर्य है।
ये सब समाधि की छायाएं हैं। समाधि के आते ही धैर्य आ जाता है, अनंत धैर्य धर्म तुम हो आ जाता है, कोई तडूफन नहीं रह जाती। कुछ हो, ऐसी वासना नहीं रह जाती। जो होता है, ठीक होता है; और जो होता, समय पर होता है। कोई चीज गैर—समय पर नहीं होती। सब चीजें अपने समय पर होती हैं। जब बसंत आता, फूल खिल जाते हैं, जब ऋतु पकती, वृक्ष फलों से लद जाते। सब समय पर होता है। अधेर्य क्या है? अधैर्य करने की जरूरत क्या है? समय के अन्यथा कभी कुछ होता नहीं। सब अपने समय पर होता है। सब जैसा हो रहा है, ठीक ही हो रहा है, ऐसी प्रतीति का नाम धैर्य है। तो ऐसे व्यक्ति में बड़ी क्षमता पैदा हो जाती है। अपूर्व झील बन जाता है ऐसा व्यक्ति। उसमें लहर नहीं उठती तनाव की।
और अवैर। किससे वैर? यहां सब एक ही का वास है। यहां एक ही का निवास है। ये एक ही की तरंगें हैं। तो किससे वैर, कोई दूसरा नहीं है। और निर्भय। जब वैर नहीं और दूसरा नहीं, तो फिर भय कैसा! ऐसी दशा में ही कोई व्यक्ति पंडित कहलाता है।
यह बुद्ध की पंडित की नयी परिभाषा। इसमें न तो वेद के जानने से पांडित्य को कहा, न ब्राह्मण के घर में पैदा होने से पांडित्य को कहा, समाधिस्थ होने से पांडित्य को कहा। पंडित शब्द का मौलिक अर्थ यही है, प्रज्ञावान। जिसकी प्रज्ञा जाग गयी हो। समाधि में ही जगती है प्रज्ञा।

तीसरा दृश्य:

 कुंटक भद्दीय स्थविर नाटे थे—अति नाटे एक दिन अरण्य से तीस भिक्षु भगवान का दर्शन करने के लिए जेतवन आए। जिस समय वे शास्ता की वंदना करने जा रहे थे उसी समय लकुंटक भद्दीय स्थविर भगवान को वंदना करके लौटे थे। उन भिक्षुओं के आने पर भगवान ने पूछा क्या तुम लोगों ने जाते हुए एक स्थविर को देखा है? भंते हम लोगों ने स्थविर को तो नहीं देखा केवल एक श्रामणेर जा रहा था भगवान ने कहा भिक्षुओ वह श्रामणेर नहीं स्थविर है। भिक्षु बोले भंते अत्यंत छोटा है इतना छोटा, कैसे कोई स्थविर होगा। भगवान ने कहा भिक्षुको वृद्ध होने और स्थविर के आसन पर बैठने मात्र से कोई स्थविर नहीं होता। किंतु जो आर्य— सत्यों का ज्ञान प्राप्त कर महा जनसमूह के लिए अहिंसक हो गया है वही स्थविर है। स्थविर का संबंध उम्र या देह से नहीं बोध से है। बोध न तो समय में और न स्थान में ही सीमित है। बोध समस्त सीमाओं का अतिक्रमण है। बोध तादाक्य से मुक्ति है

और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं—

न तने थेरो होति येनस्‍स पलितं सिरो।
परिपक्‍को वयो तस्‍स मोधजिण्‍णोति वुच्‍चति ।।

यम्‍हि सच्‍चज्‍च धम्‍मो च अहिंसा सज्‍जमोदमो।
स वे वंतमलो धीरो हति पवुच्‍चति।।

'सिर के बाल के पकने से कोई स्थविर नहीं होता, केवल उसकी आयु पक गयी है। वह तो वृथा वृद्ध कहलाता है।'
'जिसमें सत्य, धर्म, अहिंसा, संयम और दम हैं, वही विगतमल और धीरपुरुष स्थविर कहलाता है।'
पहले तो स्थविर शब्द को समझना।
स्थविर शब्द के दो अर्थ हैं। एक तो वही जो कृष्ण का गीता में स्थितप्रज्ञ का है। जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गयी है। जिसके भीतर चंचलता नहीं रही। जो भीतर अचंचल हो गया है। जैसे दीया जलता हो अकंप। कोई चीज उसे कंपा न पाती हो। पहला। दूसरा, स्थविर का अर्थ होता है—प्रौढ़, वृद्ध। जिसने जीवन के अनुभव से सार निचोड़ लिया। जिसने जीवन को देखा, जाना, पहचाना और जीवन के रहस्य को समझ गया। अब जीवन में उसे भ्रम नहीं होते। जीवन में सपने नहीं उठते। जीवन के यथार्थ में जीता है। स्थविर का दूसरा अर्थ, प्रौढ़, मैच्योर।

अब यह छोटी सी कहानी—
यह लकुंटक भद्दीय स्थविर नाटे थे, बहुत छोटे थे, लंबाई उनकी कम। और कोई उन्हें देखे तो यही समझे कि कोई छोकरा है। एक दिन कुछ भिक्षु बुद्ध को मिलने आए तो उन्होंने पूछा कि अभी—अभी लकुंटक स्थविर गए हैं, तुम्हें राह में मिले? तो उन्होंने कहा कि नहीं प्रभु, स्थविर तो हमने कोई नहीं देखा, एक श्रामणेर श्रामणेर का अर्थ होता है, उम्मीदवार भिक्षु। अभी भिक्षु हुआ नहीं, सिर्फ उम्मीदवार है, सिक्सडू। श्रामणेर का अर्थ होता है, एप्रेंटिस। उन्होंने देखा, एक छोटा सा, एक लडका सा जाता था, श्रामणेर होगा ज्यादा से ज्यादा, स्थविर तो का आदमी होता है। बाल पक गए होते हैं, उम्र हो गयी होती है। तो उन्होंने कहा कि नहीं प्रभु, स्थविर को तो नहीं देखा, केवल एक श्रामणेर जाता था। भगवान ने कहा, भिक्षुओ, वह श्रामणेर नहीं, स्थविर है। भिक्षु बोले, भंते, अत्यंत छोटा है। इतनी छोटी उमर में कहीं कोई स्थविर होता है!
हमारी सदा यह धारणा होती है कि ज्ञान का कोई संबंध उम्र से है। उम्र से ज्ञान का कोई संबंध नहीं। अज्ञानी की अज्ञानता ही बढ़ती जाती है उम्र के साथ—साथ और कुछ नहीं। ज्ञान का कोई संबंध उम्र से नहीं है। ज्ञान कभी भी घट सकता है। इसलिए ज्ञान के लिए प्रतीक्षा मत करना कि जब के हो जाओगे तब घटेगा। अक्सर तो बाल धूप में ही पकते हैं, प्रौढ़ता के कारण नहीं।
बुद्ध का जन्म हुआ, तो जब बुद्ध का जन्म हुआ तो हिमालय से एक का ऋषि, जिसकी उम्र सौ साल थी, भागा हुआ बुद्ध के पिता के महल में आया। उस वृद्ध ऋषि को देखकर बुद्ध के पिता तो उसके चरणों में झुक गए। उन्होंने कहा, आपका कैसा आगमन हुआ? वह बड़ा ख्यातिनाम था। उन्होंने कहा, मैं समाधि में बैठा था और मैंने देखा कि तुम्हारे घर एक बच्चा उत्पन्न हुआ है जो भविष्य में बुद्ध होगा, मैं उसके दर्शन करने आया हूं।
पिता तो चौंके। पिता ने कहा, अभी वह चार दिन का बच्चा है, आप उसका दर्शन करने आए! लेकिन आए तो ठीक। बेटे को लाकर उनकी गोद में रख दिया। वह चार दिन का बच्चा है, अभी आंख भी मुश्किल से खुली है। वह वृद्ध तपस्वी छोटे से बच्चे के चरणों में सिर रखकर लेट गया साष्टाग और उसकी आंखों से आंसू की धारा बहने लगी। बुद्ध के पिता थोड़े चिंतित हुए। उन्होंने कहा कि यह बात क्या है? एक तो यह शोभन नहीं कि आप एक चार दिन के बच्चे के चरणों में झुकें। आप जगत—प्रसिद्ध, लाखों आपके भक्त, आप यह क्या कर रहे हैं! आपका मन तो कुछ गड़बड़ नहीं हो गया? आप यह कैसा पागलों जैसा कृत्य कर रहे हैं! और फिर आप रो क्यों रहे हैं?
तो उस वृद्ध तपस्वी ने कहा कि मैं रो रहा हूं इसलिए कि मेरे तो दिन समाप्त हुए। यह तुम्हारा बेटा जब बुद्ध होगा, तब मैं इस पृथ्वी पर नहीं होऊंगा। नहीं तो इसके चरणों में बैठता, इसकी वाणी सुनता, इसकी तरंगों में डोलता। वे धन्यभागी हैं जो, जब यह बुद्धत्व को उपलब्ध होगा, तब यहां पृथ्वी पर होंगे। मैं अभागा हूं मैं तो चला, मेरे तो जाने के दिन करीब आ गए। इसलिए मैं भागा आया हूं कि चलो कुछ हर्ज नहीं, वृक्ष तो नहीं देखेंगे तो बीज को ही नमस्कार कर आएं, बीज में भी फूल तो छिपा ही है।
उम्र से कोई संबंध नहीं है। बुद्ध ने यह जो कहा, भिक्षुओं, वृद्ध होने और स्थविर के आसन पर बैठने मात्र से कोई स्थविर नहीं होता।
यह कोई पदवी नहीं है कि के हो गए तो स्थविर हो गए। यह तो बोध की एक दशा है कि प्रौढ़ हो गए, कि तुमने जीवन को जागकर जीना शुरू कर दिया, कि तुम्हारे भीतर समाधि का फल लग गया, कि तुम्हारी प्रज्ञा ठहर गयी—अब तुम्हारे भीतर चंचल लहरें नहीं उठतीं, अब तुम्हारा दर्पण निर्मल है।
जिसने आर्य—सत्यों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
चार आर्य —सत्य हैं, बुद्ध ने कहे। एक, कि जीवन दुख है। दूसरा, कि जीवन के दुख से पार होने का उपाय है। तीसरा, कि पार होने की दशा है, पार होने की व्यवस्था है। और चौथा, दुख के पार निर्वाण है। ये चार आर्य—सत्य हैं। दुख है, दुख को मिटाने का मार्ग है, दुख को मिटाने के साधन हैं, दुख के मिटने के बाद एक चित्त की दशा है, चैतन्य की दशा है। जिसने इन चार आर्य —सत्यों को अनुभव कर लिया है, वही स्थविर है।
जो अहिंसक हो गया है।
हिंसा तभी तक उठती है जब तक हमारे भीतर तरंगें हैं, जब तक यह कर लूं तो फिर जो भी मार्ग में पड़ जाता है उसे मिटा दूं। फिर यह बन जाऊं और जो भी प्रतिएकर्धा करता है, उससे दुश्मनी हो जाती है। जिसे न कुछ बनना है, न कुछ होना है, न कुछ पाना है, जो अपने होने से राजी हो गया, जो अपने भीतर राजी हो गया, जिसकी तथाता फल गयी, फिर उसकी कैसी हिंसा! उसका किसी से कोई वैमनस्य नहीं है, स्‍पर्धा नहीं है, प्रतियोगिता नहीं है, वह अहिंसक हो जाता है। अहिंसा यानी महत्वाकांक्षा  से मुक्ति।
स्थविर का संबंध उम्र या देह से नहीं, बोध से है।
जिसके भीतर चैतन्य का अनुभव जिसे होने लगा कि मैं देह नहीं, चेतना हूं। यह देह तो मेरा मकान है, मैं उसके भीतर निवास कर रहा हूं। मैं मिट्टी का दीया नहीं, दीए के भीतर जलती ज्योति हूं। जिसे ऐसा अनुभव होने लगा, वही व्यक्ति स्थविर है। बोध न तो समय में और न स्थान में सीमित है। बोध समस्त सीमाओं का अतिक्रमण है, बोध तादात्म्य से मुक्ति है।
ये तीन छोटी—छोटी कथाएं हैं, इनके साथ बंधी हुई ये छोटी—छोटी गाथाएं हैं, ये तुम्हारे जीवन के बहुत से पृष्ठों को उघाड़ दे सकती हैं। ये तुम्हारे जीवन में नए अध्याय की शुरुआत बन सकती हैं।
ऐसे ही हम बुद्ध के और सूत्रों पर विचार करेंगे। और मैं इन गाथाओं को उनकी कहानियों के साथ रख रहा हूं ताकि तुम्हें पूरा संदर्भ समझ में आ जाए, पूरी परिस्थिति समझ में आ जाए। क्यों, किस स्थिति में बुद्ध ने कोई वचन कहा है। ये वचन अपूर्व हैं। सीधे —सरल, पर बहुत गहरे। तुम्हारे मन पर इनकी चोट पड जाए तो कोई कारण नहीं है कि तुम भी किसी दिन बुद्धत्व को क्यों न उपलब्ध हो जाओ!
बुद्धत्व सबका जन्मसिद्ध अधिकार है।

 आज इतना ही।

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