क्षण है द्वार प्रभु का—प्रवचन—83
प्रश्न
सार:
संन्यास लेना चाहता हूं; कब लूं?
कब पूछा तो कभी न
ले सकोगे। कब में कभी नहीं छिपा है। कब का अर्थ ही है, टालना
चाहते हो, स्थगित करना चाहते हो। कल है नहीं, आज ही है। जो भी करना हो, अभी कर लो। अगर टालने की
ही बहुत आदत हो तो बुरे को टालना, भले को मत टालना। क्रोध
करना हो तो पूछना, कब? प्रेम करना हो
तो मत पूछना। लोभ करना हो तो पूछना, कब? दान करना हो तो मत पूछना। शुभ को तत्क्षण कर लेना।
शुभ
के संबंध में इतना ध्यान रखना, क्षणभर भी बीत गया तो शायद तुम चैतन्य की उस
ऊंचाई पर न रह जाओ, जहां शुभ घटित हो सकता था। तुम सदा ही तो
उस अवस्था में नहीं होते जहां प्रेम कर सको। कभी—कभी होते हो। कभी—कभी खिड़की खुलती
है। फिर भटक जाते हो। कभी—कभी तारा दिखायी पड़ता है, फिर
अंधेरा हो जाता है। तो जब तारा दिखायी पड़े, तभी कर लेना।
इसे
खयाल रखो, यह सूत्र जीवन में क्रांतिकारी हो सकता है—बुरे को टालना, कहना, कल कर लेंगे, जल्दी क्या
है, भले को अभी कर लेना, कल पर मत
टालना, क्योंकि कौन जाने कल हो, न हो।
कल का इतना भरोसा नहीं। और अगर बुरा न भी हुआ तो अच्छा ही है, कल पर टाला था, टल गया। लेकिन भला अगर न हुआ,
तो जीवन की संपदा से वंचित रह जाओगे।
और
संन्यास जीवन की गहनतम बात है। तुम्हें संन्यास का अर्थ भी समझ में नहीं आया होगा, इसलिए
पूछते हो, कब? संन्यास का अर्थ ही होता
है, वर्तमान में जीने की कला। अभी और यहां जीने की कला। यह
क्षण बिना जीआ न निकल जाए, इतना ही संन्यास है। इस क्षण को
हम किसी और क्षण के लिए निछावर न करें, यह क्षण किसी और क्षण
की बलि—वेदी पर न चढ़ाया जाए, इस क्षण को हम पूरा का पूरा
समग्र भाव से जी लें। इस क्षण से ही द्वार खुलता परमात्मा का।
न
तो भविष्य में परमात्मा है,
न अतीत में। अतीत में तो राख है, स्मृतियां
हैं, पदचिह्न हैं समय की रेत पर छूटे हुए; और भविष्य में कल्पनाएं हैं, आकांक्षाएं हैं,
वासनाएं हैं। न तो परमात्मा अतीत में हो सकता है, क्योंकि परमात्मा इतना मुर्दा नहीं है कि अतीत में हो। जो बीत गया कल,
उसमें परमात्मा नहीं है। वह कल परमात्मा से छूट गया, अलग हो गया, वह सूख गया पत्ता, वृक्ष से गिर गया, अब उसका वृक्ष से कोई संबंध नहीं
है। अब उस सूखे पत्ते में वृक्ष की रसधार मत खोजना। रसधार ही होती तो वह टूटता
नहीं, सूखता नहीं, गिरता नहीं। अतीत का
अर्थ है, सूखे पत्ते, जो गिर गए। अब
उनमें जीवन नहीं रहा। उन्होंने जीवन को छोड़ दिया, ऐसा नहीं,
जीवन ने उन्हें छोड़ दिया। जीवन उनसे सरक गया। जीवन नए पत्तों में आ
गया। जो बीत गए दिन, वे मृत हो गए।
अतीत
में परमात्मा को मत खोजना। बहुत से लोग अतीत में खोजते हैं। जब उन्हें परमात्मा की
सुध आती है तो वेद,
कुरान, बाइबिल में खोजते हैं। वहा न मिलेगा।
अभी खोजना होगा, यहीं खोजना होगा, इसी
क्षण का पर्दा उठाना होगा। और कुछ लोग हैं जो भविष्य में खोजते हैं, कहते हैं, कल खोजेंगे, परसों
खोजेंगे, बूढ़े हो. जाएंगे तब खोजेंगे। अभी तो जीवन है,
अभी तो जवान हैं, अभी तो बहुत कुछ और करना है।
या होगा, तो देखेंगे फिर कभी। अभी और जरूरी बातें द्वार पर
खडी हैं।
परमात्मा, अगर कभी
कोई सोचता भी है उसके लिए, तो क्यू में अंत में खड़ा कर देता
है। क्यू का अंत कभी आता नहीं, परमात्मा वहीं खड़ा—खड़ा थक
जाता है। तुम्हारा क्यू बढ़ता जाता है। संसार में हजार काम करने हैं। परमात्मा हजार
के बाद है। ये हजार कभी चुकते नहीं, एक काम से दस काम निकलते
हैं, दस काम से फिर सौ काम निकलते हैं—पत्ते में पत्ते,
शाखाओं में प्रज्ञाखाएं और ससार फैलता चला जाता है। और परमात्मा
जहां खड़ा है वहीं खडा रहता है। और—और दूर होता जाता है। बच्चों के परमात्मा ज्यादा
पास है, को से और भी ज्यादा दूर हो जाता है।
इसलिए
तो समस्त ज्ञानियों ने कहा है, जब तक तुम बालक की भांति निर्दोष न हो जाओ,
तब तक तुम उसे न पा सकोगे।
भविष्य
में नहीं है परमात्मा,
भविष्य में तो तुम्हारी वासनाएं हैं। वासनाओं की दुर्गंध में
परमात्मा का मंदिर कैसे बनेगा? भविष्य है ही कहा सिवाय
तुम्हारी आकांक्षा के? अतीत वह, जो
नहीं हो गया। भविष्य वह, जो अभी हुआ नहीं। इन दोनों के मध्य
में है, अतीत और भविष्य के मध्य में है, वह जो छोटा सा द्वार है वर्तमान का, वहीं है। वहीं
से सरकना होगा। संकरा है द्वार, होश न रखा तो चूक जाओगे। अति
जागरूकता रही तो ही प्रवेश कर सकोगे।
और
तुम पूछते हो,
'संन्यास लेना चाहता हूं? कब लूं?'
कब
पूछो ही मत। तुमसे एक छोटी कहानी कहूं—
दक्षिण
भारत में एक अपूर्व संन्यासी हुआ। उसका नाम था, सदाशिव स्वामी। अपने गुरु के घर था,
युवा था, तब संन्यस्त न हुआ था। तब तो गुरु के
पास ज्ञान सीखने गया था। अक्सर ऐसा होता है, जाते हो ज्ञान
सीखने, संन्यास सीखकर लौट आते हो। गुरु का अर्थ ही यही है,
कि तुम गए किसी कारण से और गुरु ने कुछ और तुम्हें पकड़ा दिया। लोग
जाते हैं प्रश्न हल करने और गुरु उन्हें ही हल कर देता है। लोग जाते हैं कि थोड़ी
जानकारी बढ़ाकर लौट आएंगे, थोड़े और पंडित होकर लौट आएंगे,
और गुरु की कीमिया से गुजरते वक्त वे वही नहीं रह जाते जो आए थे,
कुछ नए होकर लौट जाते हैं।
संन्यास
का इतना ही अर्थ है—पुनर्जन्म, नया जन्म। मर गया पुराना और तुम अचानक नए हो गए,
पुराने से श्रृंखला टूट गयी। न तुम्हारा पुराना नाम रहा, न तुम्हारा पुराना घर रहा, न पुराना तुम्हारा ठिकाना
रहा, पता रहा। तुमने फिर अ) ब, स,
से जिंदगी शुरू की। तुम्हें एक बात समझ मे आ गयी कि अब तक जिस ढंग
और शैली से जीए, उससे कहीं पहुंचे नहीं, अब फिर से शुरू करें। तुमने नया मकान बनाना शुरू किया।
संन्यास
पुराने मकान में लीपा—पोती नहीं है, संन्यास पुराने मकान का
जीर्णोद्धार नहीं है, संन्यास तो नए मकान की बुनियाद है और
बुनियाद से ही शुरू करना होता है। और ध्यान रखना, पुराने
मकान को तुम लाख लीपा —पोती करो, टेके लगाओ, सहारे लगाओ, पुराना मकान पुराना ही रहता है। पलस्तर
बदल दिए, फनीचेर बदल दिया, सब टीमटाम
ऊपर की होगी—मकान पुराना है और पुराना ही रहेगा। नया मकान बनाना हो तो नया ही
बनाना होता है।
तो
गया था सदाशिव—तब वह स्वामी नहीं था, युवा था, ज्ञान
की तलाश में था, जिज्ञासु था, दार्शनिक
होने की सुन शी उसे—तो गुरु के पास रहा, खूब सीखा। असली बात
न सीखी। सब व्यर्थ सीख लिया। गुरु जो कहता था, उसके शब्द सीख
लिए। गुरु को जो—जो मालूम था, वह सब उसने कंठस्थ कर लिया। वह
गुरु को धोखा दे रहा था और खुद भी धोखा खा रहा था। क्योंकि गुरु जो कहता है,
उस पर गुरु समाप्त नहीं है। गुरु जो कहता है, उसे
सुनना, लेकिन गुरु जो है, वह बनने की
कोशिश करना। गुरु की कही बात को ही बस सब कुछ मत मान लेना, वह
तो कूड़ा—करकट है। वह तो उच्छिष्ट है। जहां से आती हैं वे बातें, जिस अंतरतम से आती हैं, उस अंतरतम को पहचानना,
तो तुम्हारे जीवन में क्रांति होगी।
तो
वह बड़ा पंडित हो गया। सदाशिव का नाम फैलने लगा। लोग उससे शास्त्रार्थ करने आने लगे।
एक दिन एक बहुत बड़ा प्रसिद्ध पंडित आया, जिसकी जगत में ख्याति थी और सदाशिव
ने उससे ऐसा विवाद किया कि उस पंडित के छक्के छुड़ा दिए। गुरु बैठा सुन रहा है,
देख रहा है। एक—एक तर्क उस पंडित का सदाशिव ने खंडित कर दिया। सुबह
थी, सर्दी की सुबह थी, लेकिन पंडित को
पसीना आ गया। ऐसी पराजय उसने कभी जानी न थी।
लेकिन
सदाशिव हैरान था,
गुरु बैठे देख रहे हैं, न तो उत्सुक हैं,
न प्रभावित हैं। न एक दफे उन्होंने आंख से इशारा किया कि खूब,
ठीक, अच्छा किया।
और
जब पंडित चला गया पराजित होकर, तो गुरु ने जो कहा, इतना
ही था—युवक, अपनी वाणी को कब जीतोगे? ज्ञान
से कब छुटकारा पाओगे? तर्क से कब मुक्ति होगी?
सदाशिव
ने सुना। बड़ी बहुमूल्य घड़ी रही होगी। वह तो कुछ और आशा लिए बैठा था। वह तो सोचता
था, गुरु पीठ ठोकेंगे। कहेंगे कि बेटा, अब तू योग्य हो
गया, ठीक मेरे पद का अधिकारी हो गया। लेकिन गुरु ने कहा,
कब तू अपनी वाणी को जीतेगा? कब ज्ञान से तेरा
छुटकारा होगा? कब तर्कजाल के बाहर आएगा? सदाशिव, कब?
कुछ
सोचा था, कुछ हो गया। बड़ी आकांक्षा से बैठा होगा, एक बड़े
महापंडित को पराजित किया था, प्रशंसा की आकांक्षा रही होगी,
पीठ ठोकेंगे गुरु, पुरस्कार देंगे गुरु,
बात कुछ और हो गयी! लेकिन बात चोट कर गयी।
अक्सर
ऐसा होता है कि जब लोहा गर्म होता है, तभी चोट करनी होती है। गुरु को
प्रतीक्षा करनी होती है कि कब चोट करे। यह मौका गुरु ने खूब चुना। प्रशंसा के लिए
दरवाजा खुला था सदाशिव के हृदय का, इस मौके को छोड़ा नहीं
उन्होंने। पूछा—कब, सदाशिव? सदाशिव ने
सुना, गुरु की तरफ आंखें उठायीं, एक
क्षण में बात समझ आ गयी।
समझनी
हो तो एक क्षण में समझ आ जाती है। समझनी हो तो समझनी नहीं पड़ती, समझनी हो
तो दिखायी पड़ जाती है, दर्शन होता है। उसे बात दिखायी पड़ गयी
कि बात तो ठीक ही है। मैंने व्यर्थ वाणी का जाल फैलाया, मुझे
कुछ पता नहीं, मुझे कुछ अनुभव नहीं। मैंने तर्क किया,
पंडित को हरा भी दिया, न उसे पता है न मुझे
पता है। कल कोई और आएगा, मुझे भी हरा दे सकता है। अपने जीवन
का कोई आधार तो नहीं है। यह शब्दजाल में मैं उलझा, इतना समय
मैंने व्यर्थ गंवाया।
एक बिजली की तरह कौंध
गयी होगी उसके भीतर। ऐसा नहीं कि उसने ऐसा सोचा होगा, ऐसी
तर्कसरणी फैलायी होगी। नहीं, जैसे अंधेरे में बिजली कौंध जाए
और सब दिखायी पड़ जाए, क्षण में, एक
क्षण में सब साफ हो जाए।
उसने
गुरु के चरणों में सिर रखा और कहा—पूछते हैं, कब? करने का
क्षण तो अभी है। तो अभी हो गया! कहा—पूछते हैं, कब? आशीर्वाद दें, अभी हो गया। और उस दिन से सदाशिव मौन
हो गया, फिर जीवनभर नहीं बोला। बोला ही नहीं! बात ही खतम हो
गयी! उस दिन से सदाशिव मुनि हो गया। उस दिन संन्यस्त हो गया। गुरु के चरणों में जो
झुका सो झुका। वहीं चरणों में वाणी छोड़ दी। तर्क छोड़ दिए, ज्ञान
छोड़ दिया, सब छोड़ दिया। अपूर्व आनंद में मस्त रहने लगा।
औरों
ने तो समझा कि पागल हो गया। पहले इतना बोलता था, इतना समझाता था, इतना तर्क —विवाद करता था। गुरु के शिष्यों में सबसे ज्यादा प्रखर और
तेजस्वी वही था। लोग सोचने लगे, पागल हो गया? इसे क्या हो गया बेचारे को?
गुरु
के पास खबरें आने लगीं,
लोग कहते कि क्या हो गया सदाशिव को? मालूम
होता है, सदाशिव पागल हो गया है। और गुरु ने कहा, काश, ऐसे ही और भी पागल होते! सदाशिव मुनि हो गया है,
पागल नहीं। पागल था, विक्षिप्त था, अब विमुक्त हो गया है। सदाशिव संन्यस्त हो गया है।
तुम
पूछते हो, 'संन्यास कब लें?'
लेना
हो तो—अब। न लेना हो तो—कब। कब तो आडू है। कब तो तरकीब है। कब तो सोचने का एक ढंग
है, उपाय है और बड़ा चालबाज उपाय है। कब का मतलब यह होता है कि तुम लेना नहीं
चाहते और अपने को यह भी समझाना चाहते हो कि मैं लेना चाहता हूं। घर में आग लगी हो,
तो तुम पूछते हो, कब बाहर निकलूं? घर में आग लगी हो तो तुम छलांग लगाकर बाहर निकल जाते हो। साप रास्ते पर पड़
जाए, फन उठाए खड़ा हो, तो तुम पूछते
नहीं कि कब छलांग लगाकर निकलूं तुम छलांग लगाकर निकल जाते हो।
अगर
तुम्हें जीवन के सत्य दिखायी पड़ जाएं, तो तुम कब तो पूछोगे ही नहीं। क्या
है तुम्हारे जीवन में जिसके लिए तुम कल के लिए रुको? क्या है
जो अटकाता है? ऐसा मूल्यवान कुछ भी तो नहीं। भ्रांति और
भ्रांति के अतिरिक्त तुम्हारे हाथों में क्या है! मुट्ठी खाली है, तुम खाली हो।
कब
मन की पुरानी तरकीब है। जब मन को कोई बात टालनी होती है, तो वह
कहता है, कल कर लेंगे।
मार्क
ट्वेन ने एक संस्मरण लिखा है कि वह एक चर्च में प्रवचन सुनने गया। जब वह प्रवचन
सुन रहा था तो बड़ा प्रभावित हुआ। कोई पांच —सात—दस मिनिट ही बीते थे, वह जो
चर्च में बोल रहा था धर्मगुरु बड़ा प्रभावशाली था, मार्क
ट्वेन ने सोचा कि आज सौ डालर दान कर दूंगा। फिर दस मिनिट और बीते, अब तो उसे सुनने की याद ही नहीं रही, अब वह सौ डालर
की सोचने लगा। फिर उसने सोचा कि सौ डालर जरा ज्यादा होते हैं, पचास से ही काम चल जाएगा। फिर और दस मिनिट बीते, फिर
वह सोचने लगा, पचास डालर भी, पचास डालर
के लायक बात नहीं जंचती, पच्चीस से चल जाएगा। ऐसे सरकता रहा,
सरकता रहा। फिर तो एक डालर पर आ गया। जब आखिरी प्रवचन होने के करीब
था तो एक डालर पर आ गया।
फिर
उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि तब मुझे खयाल आया और तब मैं एकदम निकल भागा चर्च
से। क्योंकि मुझे डर लगा कि जब चंदा मांगने वाला व्यक्ति थाली लेकर घूमेगा, तो अब
मेरी हालत ऐसी हो गयी थी कि मैं थाली में से कुछ लेकर अपनो जेब में न रख लूं। सौ
देने चला था! इस डर से जल्दी से चर्च के बाहर निकल आया कि कहीं थाली में से कुछ
उठाकर अपनी जेब में न रख लूं।
तुम
सोचते हो, कल संन्यास लोगे! कल तक तुम्हारी संसार की आदतें और मजबूत हो जाएंगी। कल
तक तुम और अपने बंधनों को पानी से सींच दोगे। चौबीस घंटे और बीत जाएंगे! चौबीस
घंटे तुम और पागल रह चुके होओगे। चौबीस घंटे तुमने और जाल फैला लिए होंगे, और वासनाएं, और आकांक्षाएं और उपद्रव बना लिए होंगे।
अभी नहीं छूट सकते हो तो कल कैसे छूटोगे? परसों तो और
मुश्किल हो जाएगा। बात रोज—रोज मुश्किल होती जाएगी। ऐसे ही बहुत देर हो चुकी है।
इसलिए मैं तुमसे सिर्फ इतना ही कहूंगा, जो भी करना हो,
उसे क्षण में कर लेना। क्योंकि वर्तमान की ही केवल सत्ता है,
वही है। यह शाश्वत अब, .यह इटर्नल नाउ,
बस यही काल का स्वभाव है।
मैंने
सुनी है एक अदभुत कहानी। फाचांग नाम का एक अदभुत सदगुरु हुआ। उसका इतना ही उपदेश
था—अभी, यहीं। बस दो शब्दों का ही उपदेश था। सम्राट ने उसे बुलाया था जापान के प्रवचन
करने, तो वह मंच पर खड़ा हुआ—सम्राट बैठा, उसके दरबारी बैठे, बड़ा आयोजन किया था, फाचांग बडा प्रसिद्ध गुरु था—वह खड़ा हुआ, उसने जोर
से टेबल पीटी और कहा, अभी, यहीं। नीचे
उतरा और वापस चला गया। सम्राट तो बहुत चौंका। उसने अपने वजीरों से पूछा, यह क्या मामला है? यह कैसा प्रवचन? यह टेबल पीटना और कहना, अभी और यहीं। यह बात क्या है?
उसके
वजीरों ने कहा कि महाराज,
इतना ही उनका उपदेश है। और इसमें उन्होंने सब कह दिया जो समस्त
कालों में बुद्धों ने कहा है।
शुभ
करना हो तो अभी और यहीं।
फिर
फाचांग मरता था,
उसके मरने के समय की घटना है। बिस्तर पर मरणासन्न पड़ा है। अंतिम
घड़ियां हैं, शिष्य इकट्ठे हुए हैं। शिष्यों ने सोचा कि
जिंदगीभर यह अभी और यहीं कहता रहा, अब तो मौत आ गयी, पूछ लें, शायद कुछ और कह दे। तो किसी ने पूछा,
वर्तमान में जागरूक होने के सिद्धांत को आप हमें एक बार क्षण है
द्वार प्रभु का और समझा दें। फाचांग ने आंख खोली, उसी समय
झोपड़ी के छप्पर पर एक गिलहरी दौड़ी और उसने चीं—चीं, किट—किट
की, फाचांग बोला, यही—यही, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। इट इज जस्ट दिस, एंड
नथिंग एल्म। मुस्कुराया, आंखें बंद कर लीं और मर गया।
गिलहरी
की ची—चीं, किट—किट, और उसने कहा—यही।. यह कोयल को सुनते हो?
कोयल इसी क्षण में कुहू—कुहू कर रही है। एक क्षण पहले इसकी योजना
नहीं बनायी थी उसने, और एक क्षण बाद इसकी याद भी नहीं रखेगी।
ऐसा नहीं है कि उसके पास कोई ब्दप्रिंट तैयार है कि कब करना! कि आठ बजकर पच्चीस
मिनिट पर कुहू—कुहू करना! और जब एक दफे कर ली कुहू—कुहू तो फिर पीछे लौटकर भी नहीं
देखती कि कुहू—कुहू की। जो हो गया, हो गया। ऐसे निसर्ग में
जीने का नाम ही संन्यास है।
संन्यास
कोई चीज थोडे ही है जो तुम ले लोगे, संन्यास कोई ढंग थोड़े हो है,
संन्यास कोई व्यवस्था थोड़े ही है, संन्यास बोध
है, जीवन को पल—पल जीने की जो चेतना है, जो जागरूकता है, वही संन्यास है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान बुद्ध का मज्झिम निकाय, मध्य
मार्ग क्या है, हमें समझाने की अनकंपा करें।
प्रश्न महत्वपूर्ण है।
बुद्ध की देशना को समझने के लिए अति आधारभूत है। बुद्ध का उपदेश इस एक छोटे से
शब्द में समाहित है— निकाय। मज्झिम निकाय का अर्थ होता है, मध्य
मार्ग, द मिडिल वे, बीच का रास्ता।
शब्द
तो सीधे —साधे हैं,
पर इनकी निष्पत्ति बहुत गहरी है। इनमें बहुत कुछ समाहित है। यही वह क्रांति
है जो बुद्ध जगत में लाए—मध्य मार्ग।
समझने
की कोशिश करो।
मनुष्य
का मन अतियों में डोलता है। मन अतियों के साथ बड़ा कुशल है। तुम धन के पीछे पागल हो, पद के
पीछे पागल हो, बस तुम्हारे भीतर एक ही धुन चलती है, दिल्ली चलो। अगर तुम पद के पीछे या धन के पीछे पागल हो, तो किसी न किसी दिन ऐसा होगा, थक जाओगे धन की दौड़ से,
पद की दौड़ से, तब तुम इसके विपरीत चलने लगोगे।
तुम कहोगे, धन को छूना पाप है। जहां धन होगा, वहां से भागने लगोगे। पहले धन के लिए भागते थे, अब
जहां धन होगा वहां से भागने लगोगे। पहले पद के दीवाने थे, अब
भी दीवानगी वही है, सिर्फ दिशा बदल गयी।
अब
जहां—जहां पद होगा,
वहां से भागोगे। मगर तुम्हारी चित्त की दशा नहीं बदली। एक दिन
स्त्री के लिए दीवाने थे, अब स्त्री से डरकर भाग रहे हो,
हिमालय जा रहे हो। जहां स्त्री न हो, वहां चले
जाना है। स्त्री से तुम अब भी बंधे हो, पहले भी बंधे थे—पहले
स्त्री की तरफ रुख था, अब स्त्री की तरफ पीठ है; लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है! स्त्री से तुम मुक्त नहीं हो। विपरीत हो गए,
लेकिन मुक्त न हुए। एक अति से दूसरी अति पर चले गए, लेकिन मुक्त न हुए।
इसलिए
अक्सर होता है कि जो लोग बहुत भोजन करते हैं, वे किसी न किसी दिन उरलीकांचन जाकर
उपचार करने लगते हैं। उरलीकांचन जाते ही वे लोग हैं, जिन्होंने
ज्यादा भोजन कर लिया है। अतिशय भोजन कर लिया, फिर उपवास।
तुमने
यह देखा, जो बहुत समृद्ध धर्म हैं, उन्हीं में उपवास की
प्रतिष्ठा है। जैसे, हिंदुस्तान में जैनों में उपवास की
प्रतिष्ठा है। मुसलमानों में नहीं है। मुसलमान इतना गरीब है, उपवास की क्या प्रतिष्ठा, वैसे ही उपवास चल रहा है!
मुसलमान का तो जब उत्सव का दिन आता है, ईद आती है, तो देखा, नए कपड़े पहनता, हलुवा—पूड़ी
तैयार करवाता, इत्र इत्यादि छिड़क लेता—सस्ता ही—महंगा तो वह
लाए भी कहा से! यही तो मौका है जब वह अपने कपड़े बदलता है, सालभर
तो वह उन्हीं कपड़ों से चलाता रहा है। फिर ईद आएगी, फिर बदल
लेगा। यही तो दिन है जिस दिन वह उत्सव मनाता है। तो मुसलमान का धर्म गरीब का धर्म है।
स्वभावत:, उपवास की प्रतिष्ठा नहीं है, उत्सव की प्रतिष्ठा है। जैन का धर्म अमीर का धर्म है। स्वभावत:, फ्री और हलुवा खा—खाकर तो लोग परेशान हैं, तो
पर्युषण—व्रत, तो दस दिन का उपवास। खयाल रखना, आदमी विपरीत पर जाता है। जब भारत बहुत अमीर था, तब
इस देश में बड़े से बड़े त्यागी हुए; क्योंकि अति। जब देश गरीब
हो गया तो त्याग की कहानियां रह गयीं, त्याग का कोई अर्थ न
रहा। त्याग के लिए अमीरी चाहिए। देखते हैं, अमरीका में घट
रहा है। अमीर घरों के लड़के हैं, हिप्पी हो गए हैं। जिन्हें
सब उपलब्ध था, वे सब छोड्कर काबुल और काठमांडू में भटक रहे
हैं। जिनके पास सब सुविधाएं थीं, उनको छोड्कर जंगल—जंगल,
गांव—गांव! क्या हो गया इन्हें? एक अति थी,
दूसरी अति पर चले आए। भोग की अति आदमी को त्याग की अति पर ले जाती
है।
और
बुद्ध कहते हैं,
मध्य में मार्ग है, अति पर मत जाना। नहीं तो
तुम घड़ी के पेंडुलम की तरह एक कोने से दूसरे कोने पर भटकते रहोगे। मध्य में मार्ग
है।
तुमने
देखा, जब घड़ी का पेंडुलम बाएं से दाएं तरफ जाता है, तो वह
दाएं तरफ जा रहा है, लेकिन बाएं तरफ फिर जाने की ऊर्जा
इकट्ठी कर रहा है, मोमेंटम इकट्ठा कर रहा है। वह तुम्हें
दिखायी नहीं पड़ता ऊपर से, पेंडुलम तो जा रहा है दायीं तरफ—तो
तुम सोचते हो, दायीं तरफ जा रहा है—लेकिन दायीं तरफ जाते समय
बायीं तरफ जाने की ऊर्जा इकट्ठी कर रहा है। फिर बायीं तरफ जाएगा। जब बायीं तरफ जाएगा, तब दायीं तरफ
जाने की ऊर्जा इकट्ठी करेगा।
मन
बड़ा अदभुत है,
बड़ा विरोधाभासी है। घड़ी इससे चलती रहती है, रुकती
नहीं। बाएं से दाएं पेंडुलम घूमता रहता है, घड़ी चलती रहती है।
मन चलता रहता है विपरीत के बीच डोलकर।
बुद्ध
कहते हैं, पेंडुलम को बीच में रोक दो—न बाएं, न दाएं—फिर घड़ी
रुक जाएगी। बीच में रोका कि मन गया। न भोग, न त्याग, मज्झिम निकाय। न तो भोगी बनो, न त्यागी बनो। न
संसार, न मोक्ष। न धन के दीवाने रहो और न धन को छोड़ने की
दीवानगी को पकड़ लो। दोनों के बीच रुक जाओ। धन से कुछ लेना—देना नहीं है। पद से कुछ
लेना—देना नहीं है। साक्षी भाव को जगाओ। जागरूक बनकर देखो जो हो रहा है। तुम बीच
में रहो। इस बीच में रहने की कला का नाम मष्यिम निकाय है। और जो व्यक्ति बीच में
रह जाता है, मुक्त हो जाता है।
अब
तुम देखना, तुम अपने जीवन में परख करना, अवलोकन करना, रोज यह होता है—एक अति से दूसरी अति। ज्यादा भोजन कर लिया, उपवास की सोचने लगते। फिर उपवास किया, और उपवास में
फिर भोजन की ही सोचते हो—क्या सोचोगे और! पेंडुलम बाएं गया, दाएं
की सोचने लगा, दाएं गया, बाएं की सोचने
लगा। उपवास से फिर भोजन में रस आ जाता है। तो उपवास और भोजन विपरीत दिखायी पड़ते
हैं, लेकिन एक—दूसरे के साथ सहयोग है, षड्यंत्र
है, साझीदार हैं, पार्टनर हैं, एक ही दुकान चलाते हैं।
स्त्री
को भोगने में रस है,
फिर स्त्री को भोगते— भोगते या पुरुष को भोगते— भोगते विरस पैदा हो
जाता है। जिस चीज को भी भोगोगे, उसमें विरस हो जाता है।
क्योंकि भोग से कुछ मिलता तो नहीं। तो विषाद पैदा होता है। वैराग्य की बातें उठने
लगती हैं—छोड़ दो सब! छोड्कर भागो, बैठोगे जंगल में, आंख बंद करोगे और स्त्री खड़ी है, पुरुष खड़ा है।
जिसको छोड़ आए, वही फिर आकर्षित करने लगा। फिर नए लुभावने
सपने पैदा होने लगे। यह बड़े मजे की बात है, जंगल में जो बैठा
है, वह स्त्री के बाबत सोच रहा है; और
स्त्री के पास जो बैठा है, वह जंगल की सोच रहा है। मैं बंबई
के कुछ मित्रों को लेकर कश्मीर गया था। जिस नाव में हम ठहरे थे, उस नाव का जो मांझी था, वह रोज मुझसे कहता—बाबा,
बंबई दिखला दो! तू क्या करेगा? ये बंबई के सब
लोग मेरे साथ आए हुए हैं! वह कहता, क्या रखा है यहां?
वह मुझसे कहता, रखा क्या है यहां? मैं तो कभी सोचता हूं कि लोग किसलिए आते हैं यहां, रखा
क्या है यहां! बस, आप तो इतना करो कि बंबई दिखला दो। चलते —चलते
भी, आखिरी विदा देते भी वह मुझसे कह गया कि बाबा, बस ऐसा आशीर्वाद दो, एक दफा बंबई देख लूं।
जो
कश्मीर में बैठा है,
वह बंबई देखना चाहता है। जो बंबई में बैठा है, वह कश्मीर जा रहा है। जो जहां है, वहा से विपरीत
जाने की आकांक्षा से भरा हुआ है।
यह
मन की प्रक्रिया है। धनी सोचता है, गरीब बड़े मजे में है। शहर में जो
रहता है वह सोचता है, गांव के लोग बड़े आनंद में हैं। अक्सर
तुम जो कविताएं देखते हो, जो शहर में रहने वाले कवि लिखते
हैं गांवों के संबंध में, कि गांवों में स्वर्ग है, वे रहते शहर में हैं! स्वर्ग है तो तुम्हें कौन रोक रहा है? गांव का कवि नहीं लिखता कि स्वर्ग है वहां, वह तो
लिखता है, नरक है। वह तो कह रहा है, किस
तरह मेरे गांव में बिजली आ जाए, सिनेमाघर खुले; किस तरह बस चले, ट्रेन निकले; किस
तरह हवाई जहांज उड़े, किस तरह यूनिवर्सिटी खुल जाए; वह तो कोशिश में लगा है कि किस तरह यह गांव शहर हो जाए।
शहर
में जो बैठा है,
बंद कबूतर के पिंजड़ों में, किसी मकान की
पच्चीसवीं मंजिल पर कैद है, वहां बैठा—बैठा सोच रहा है—अहा!
गांव में कैसा स्वर्ग है! खुले खेत, हरियाली, स्वच्छ हवा, ताजा सूरज! उसको याद नहीं आता कि और भी
चीजें हैं गांव में—बरसात की कीचड़ और गोबर से भरे रास्ते, और
गंदगी, और धूप—ताप, और गांव के हजार
उपद्रव, और बीमारियां और गरीबी और मच्छर, वह सब। मगर उसकी उसे याद नहीं, वह वहां बैठा सोच रहा
है—हरियाली, झीलें, चांद—तारे! गांव
में जो बैठा है, वह सोच रहा है शहर के मजे—कैसे मजे हैं!
बैठा है अपने छप्पर के नीचे, जिसमें से पानी चू रहा है,
वह सोचता है—कैसे मजे हैं, शहर के भवनों में
लोग मजा कर रहे हैं। गर्मी है, पसीने से चू रहा है, तो सोचता है—कैसे मजे हैं। शहरों मैं बिजली है और पंखे चल रहे हैं।
गांव
में जो मन है,
वही मन शहर में है। विपरीत में आकर्षण बना रहता है। क्योंकि जिसे
हमने नहीं जीआ है, हम सोचते हैं, शायद
उसे जीने में मजा हो।
मैं
वर्षों तक बहुत तरह के संन्यासियों, मुनियों और साधुओं के संपर्क में
आता रहा। और मैं चकित हुआ जानकर कि उन सबके मन में एक विषाद है कि पता नहीं,
सासारिक लोग मजा न कर रहे हों, सच में मजा न
कर रहे हों! उनके भीतर एक भय है कि हम तो छोड़ बैठे—यहां तो कुछ मिला भी नहीं उनको
छोड्कर, मिल जाता तो बात खतम हो जाती, मिला
नहीं यहां कुछ, जो था वह छोड़ बैठे—पता नहीं वहां लोगों को
मिल ही रहा हो! इसी कारण वे रोज दूसरों को भी समझाए चले जाते हैं कि तुम भी भागो,
छोड़ो। यह जो भागने और छोड़ने की उनकी शिक्षा है, यह बहुत गहरे में ईर्ष्या से उठ रही है। इसका जन्म जलन में है।
तुमने
सुनी है न उस आदमी की कहानी, जिसकी किसी कारण नाक कट गयी थी। किसी की पत्नी
के प्रेम में पड़ गया और पति गुस्से में आ गया और उसने जाकर उसकी नाक कांट दी। अब
बड़ी मुसीबत खड़ी हुई।
मगर
वह आदमी होशियार था;
तार्किक था। उसने गांव में खबर फैला दी कि नाक कटने से बड़ा आनंद हो
रहा है। प्रभु के दर्शन हो गए नाक ही बाधा थी। उसने कहा, यह
नाक ही बाधा थी, जिस दिन से नाक कटी उस दिन से प्रभु के
दर्शन हो क्षण है द्वार प्रभु का रहे हैं। सब जगह परमात्मा दिखायी पड़ता है।
पहले
तो लोगों को शक हुआ कि नाक कटने से कभी किसी ने सुना नहीं! लेकिन जब वह रोज—रोज
कहने लगा रोज—रोज कहने लगा,
और जो भी जाता उसी को कहने लगा, और वह बड़ा
मस्त भी दिखायी पड़ने लगा, तो आखिर एक पगला गांव का राजी हुआ,
उसने कहा कि फिर मेरी भी कांट दें।
उसने
उसकी नाक कांट दी,
नाक कटते ही से दर्द तो बहुत हुआ, खून भी बहा,
और कोई ईश्वर वगैरह दिखायी नहीं पड़ा। तो पहले नककटे ने दूसरे से कहा—सुन;
कोई ईश्वर वगैरह दिखायी पड़ता भी नहीं, मगर अब
तेरी भी कट गयी, अब सार इसी में है कि तू भी यही कह। नहीं तो
लोग समझेंगे तू बुद्ध है। अब तो तू जोर से खबर कर कि दिखता है! सो गुरु को शिष्य
भी मिल गया।
फिर
तो गांव में और दो —चार पगले मिले—पगलों की कोई कमी है! धीरे— धीरे गांव में लोगों
की नाके कटने लगीं और जिन—जिनकी कटने लगीं, वे परम आनंद की बातें करने लगे।
बात यहां तक पहुंची कि सम्राट तक पहुंच गयी। सम्राट भी उत्सुक हो गया कि इतने
लोगों को परमात्मा के दर्शन हो रहे हैं और हम सम्राट होकर खाली हैं। आखिर उसने
अपने वजीरों से कहा कि चलना पड़ेगा। अरे, नाक ही जाती है,
जाने दो, नाक का करना क्या है! वजीर ने कहा कि
प्रभु, जरा मुझे खोजबीन कर लेने दो, मुझे
इसमें शक मालूम पड़ता है। पर उसने कहा, शक एक आदमी पर कर सकते
हो, पचासों आदमियों की कट गयी और जिसकी कटती है, बाहर निकलते ही से नाचता हुआ निकलता है!
सम्राट
अपने वजीर को लेकर पहुंचा। फिर भी वजीर ने कहा, आप जरा रुके। उसने एक नाक कटे आदमी
को पकड़वाकर उसको अच्छी मार दिलवायी और उससे कहा, तू सच—सच
बता दे कि बात क्या है? जब उसको मार काफी पड़ी, तो उसने कहा, अब सच बात यह है कि हमारी तो कट ही गयी,
अब जुड्ने से रहो—उन दिनों कोइ प्लास्टिक सर्जरी होती भी नहीं थी—अब
सार इसी में है कि जो गुरु कहता है, वही हम भी कहें।
अक्सर
ऐसा होता है,
अक्सर ऐसा होता रहा है कि जब एक आदमी जीवन से कुछ भाग जाता है—पली
छोड़ दी। अब न नाक कटने से कोई परमात्मा के दर्शन होते, न
पत्नी को छोड़ने से कोई परमात्मा के दर्शन होते हैं! दोनों बातें एक सी मूढ़तापूर्ण
हैं, न तो नाक बाधा बनी है, न पत्नी
बाधा बनी है। और शायद नाक तो बाधा बन भी जाए, क्योंकि बिलकुल
आंख के पास है, पत्नी तो बहुत दूर है।
कोई
धन को छोड्कर भाग गया है,
वह सोचता है, धन बाधा थी, इसके कारण प्रभु—मिलन नहीं हो रहा था। धन के कारण! धन ठीकरे हैं। चादी—सोना
तुम्हारे लिए मूल्यवान है, परमात्मा के लिए तो मूल्यवान नहीं।
यह तो आदमी की भाषा है। पशु—पक्षियों तक को इसकी फिकर नहीं है! तुम रख दो कोहनूर
हीरा भैंस के सामने, वह बिलकुल फिकर न करेगी। तुम गधे के गले
में लटका दो, वह अकड़कर न चलेगा। उसके लिए आदमी जैसा मूरख कोई
चाहिए।
तो
परमात्मा को तो कुछ पता ही नहीं है कि तुम्हारा धन क्या है, बाधा कैसे
पड़ेगी! लेकिन जिसने छोड़ दिया, उसको एक बेचैनी पकड़ती है—उसने
तो छोड़ दिया, उसकी तो नाक कट गयी, अब
तो इसी में सार है कि औरों की भी कट जाए। इसलिए बड़ी मूढ़तापूर्ण बातें भी सदियों तक
चलती रहती हैं। उनकी परंपरा बन जाती है।
तो
बुद्ध कहते हैं,
अतिशय से बचना। अति वर्जित है। फिर अति चाहे भोग और त्याग की हो,
चाहे जीवन और मृत्यु की हो, चाहे संसार और
मोक्ष की हो, अति तो अति ही है।
मुक्त
कौन है? बुद्ध की परिभाषा में मुक्त वह है, जो ठीक मध्य में
खड़ा हो गया। जिसे न तो अब धन की आकांक्षा है और न धन को छोड़ने की आकांक्षा है। यह
बड़ा क्रांतिकारी विचार है। जिसे न तो संसार में अब लगाव है, न
संसार से विराग है। न राग, न विराग। जो कहता है, संसार अपनी जगह, मैं अपनी जगह। जिसने राग—विराग के
सारे संबंध छोड़ दिए।
ध्यान
रखना, राग भी संबंध है, विराग भी संबंध है। मित्रता से भी
संबंध बनता है, शत्रुता से भी संबंध बनता है। तुम मित्रों की
ही थोड़े याद करते हो, शत्रुओं की भी याद करते हो, वे भी तुम्हारे सपनों में आते हैं। और मित्र तो कभी भूल भी जाएं, शत्रु कभी नहीं भूलते।
तो
इस संसार में न तो मित्रता बनाना, न शत्रुता बनाना। इस संसार में न तो किसी चीज
को कहना, इसके बिना न जी सकूंगा, और न
यह कहना कि इसके साथ न जी सकूंगा। यह बड़ी क्रांति है।
यह
धर्म के जगत में बुद्ध ने पहली दफे मनोविज्ञान का एक मौलिक आधार स्थापित किया। मन
का स्वरूप समझाया कि मन अतियों में डोलता है, यह मन की प्रक्रिया है। अगर मन से
मुक्त होना है, तो अति से मुक्त हो जाना, तो मन से मुक्त हो जाओगे। अति यानी मन, मन यानी अति।
और अति से जो मुक्त है, वही मुक्त है, क्योंकि
वही मन से मुक्त है।
तीसरा प्रश्न
संसार से मुक्ति कैसे हो? संसार के
बंधन बहुत मजबूत हैं।
संसार में बधंन है
ही नहीं। संसार क्या बांधेगा! संसार कैसे बांधेगा! जड़ कैसे बाँध सकता है?
यह तो ऐसा ही है कि तुम एक खंभे को पकड़कर खड़े हो
जाओ और जोर से खंभे को पकड़े रहो और चिल्लाओ कि खंभे ने मुझे पकड़ लिया है। खंभा
तुम्हें कैसे पकड़ेगा! तुम्हें पकड़े रहना हो तो मुझे कोई एतराज भी नहीं है, तुम पकड़े
रहो, मगर झूठ तो न बोलो! तुम मजे से पकड़े रहो, तुम्हारी मौज! तुम्हारी जिंदगी है, अगर तुम्हें खंभे
पकड़ने में मजा आ रहा है, तुम खंभे पकड़कर मजा लो। किसी को
इसमें एतराज होना भी नहीं चाहिए।
लेकिन
तुम यह तो मत कहो कि खंभे ने मुझे पकड़ लिया है! यह तो तुम बड़ी तरकीब की बात कर रहे
हो। यह तो ऐसा हुआ कि अब तुम यह कह रहे हो कि मैं करूं भी क्या, मेरे छोड़े
तो छूटने वाला नहीं, खंभे ने मुझे पकड़ा है!
संसार
तुम्हें पकड़े हुए नहीं है। तुम जब जाओगे तो संसार नहीं रोका। तुम जब जाओगे, तुम्हारी
अर्थी निकलेगी, तो तुम्हारे मकान से आंसू न गिरेंगे। मकान को पता ही न चलेगा कि कब आप आए
और कब आप गए!
मैंने
सुना है, एक हाथी अपनी मस्त चाल से एक पुल पर से गुजरता था और एक मक्खी उसके ऊपर
बैठी थी। जब पुल हिलने लगा हाथी के वजन में, तो मक्खी ने कहा,
बेटा, हमारा वजन काफी ज्यादा मालूम पड़ता है।
हमारा! हाथी थोड़ा चौंका कि यह कौन बोल रहा है? उसने कहा,
कौन है तू? उसने कहा, अरे,
तुझे पता नहीं! मैं तेरे ऊपर बैठी हूं मैं तेरी सवारी कर रही हूं।
हाथी ने कहा, जब तक तू बोली न थी, मुझे
पता ही न था कि तू बैठी भी है। अभी भी मैं देख नहीं पा रहा कि तू कहा है और तू कौन
है?
तुम
जब जाओगे तब तुम्हारी तिजोड़ी रोएगी तुम्हारे लिए? तुम्हारे हाथ से रुपया
गिरेगा, तो तुम सोचते हो कि रुपया तडूफेगा कि वे प्यारे हाथ
छूट गए!
नहीं, रुपए को
पता भी नहीं है कि आप उसे पकड़े थे। और मकान को पता भी नहीं है कि आप उसमें रह रहे
हैं और मालिक बन बैठे हैं। तुम्हीं बन बैठे हो, यह तुम्हारा
ही मन का जाल है। संसार ने किसी को भी न पकड़ा है, न संसार
किसी को पकड़ सकता है। हम पकड़े हुए हैं।
यह
बहुत बुनियादी है समझ लेना कि हमने पकड़ा है। क्योंकि अगर यह हमारी समझ में आ जाए
कि हमने पकड़ा है,
तो छोड़ना न छोड़ना हमारी मौज की बात है। और मैं तुमसे कहता भी नहीं
कि छोड़ो। मैं तो कहता हूं इतना जान लेना ही पर्याप्त है कि हमने पकड़ा है, बात छूट गयी, खतम हो गयी। बचा क्या?
मुट्ठी
में रुपया है,
तुम्हें समझ में आ गया कि मैंने पकड़ा है, अब
मुट्ठी में रुपया रहे भी तो भी मुट्ठी में नहीं है। तुमने जान लिया कि पकड़ मेरी है।
रुपए को क्या लेना—देना! रुपए की तरफ से कोई संबंध मुझसे नहीं है। रुपया तो असंग
है। मैं नहीं था तब भी था, मैं चला जाऊंगा तब भी रहेगा। यहीं
पड़ा रहेगा। तो थोड़ी सी देर के लिए मैंने ही भ्रम खा लिया है कि मेरा है। कितना
मेरा—तेरा हम मचा देते हैं!
बुद्ध
ने कहा है कि एक सांझ वे एक नदी के किनारे घूमने गए थे, उन्होंने
कुछ बच्चों को रेत के घर बनाते देखा। रेत के घर! लेकिन बच्चे बड़ा मेरा—तेरा कर रहे
थे। कोई कह रहा था कि मेरा तुझसे ऊंचा है, कोई कह रहा था,
तेरे में क्या रखा है! सब रेत के घर—पूले बनाए हुए थे। और कभी किसी
बच्चे के धक्के से किसी का रेत का घर गिर जाए—अब रेत के ही घर हैं, कोई गिरने में देर लगती नहीं है, कभी तो बिना ही
धक्के के भी गिर जाते हैं—किसी के धक्के से किसी का रेत का घर गिर गया तो वह बच्चा
उसकी छाती पर चढ़ बैठा, और उसने कहा कि देखते नहीं, होश से नहीं चलते! मेरा घर मिटा दिया, मेरी मेहनत
बरबाद कर दी! मारपीट भी हो गयी।
बुद्ध
खड़े देखते किनारे पर कि यह भी खूब मजा है, रेत के घर हैं, गिर ही जाएंगे। रेत के घर हैं, उन पर भी दावेदार खड़े
हो गए हैं कि मेरा है, तेरा है। लकीरें खींच ली हैं उन्होंने
अपने घरों के चारों तरफ कि इस सीमा के भीतर मत घुसना, सावधान,
इसके भीतर कोई आया तो ठीक नहीं होगा! और कोई भीतर आ गया है तो झगड़े
भी हो गए हैं।
फिर
एक नौकरानी आयी और उसने जोर से आवाज दी बच्चों को कि बच्चों, अब घर चलो;
सांझ हो गयी है, सूरज ढलने लगा है, तुम्हारी माताएं तुम्हारी याद कर रही हैं। वह सब बच्चे उछले—कूदे ढ़ू
उन्होंने अपने ही बनाए हुए घरों पर कूद—कूदकर सब मिटा दिए, रेत
पड़ी रह गयी, बच्चे नाचते—कूदते वापस चले गए।
बुद्ध
ने दूसरे दिन अपने भिक्षुओं से कहा, भिक्षुओ, इस
घटना में बड़ा संदेश है। मान लिया था जब तक तो अपने घर थे, कोई
दूसरा भी गिराता था तो झगड़ा खड़ा होता था। जब बच्चों ने जान लिया कि अब घर जाने का
वक्त आ गया है, सांझ हो गयी, अपने ही
घरों पर कूद—फादकर मिटाकर उनको, नाचते—कूदते सब घर चले गए,
सब झगड़े—झांसे बंद हो गए, बात ही भूल गए।
जिनसे लड़े थे उन्हीं के हाथ में हाथ डाले हुए, गले में हाथ
डाले हुए घर की तरफ लौट गए।
ऐसी
ही जिंदगी है,
भिक्षुओ, बुद्ध ने कहा, ऐसा
ही संसार है। जिसे साफ दिखायी पड़ने लगा कि यहां मरना है, यहां
संध्या होने के ही करीब है, कभी भी हो सकती है, उसको कैसा रस रह जाएगा। कैसा बंधन रह जाएगा!
तुम
पूछते हो, 'संसार से मुक्ति कैसे हो?'
संसार
से तुम मुक्त ही हो। सिर्फ तुम्हारी मान्यता है, एक सपना है जो तुमने मान
रखा है, कि मेरा है। फिर सपनों को मजबूत करने के लिए हम बड़ी
व्यवस्थाएं जुटाते हैं। एक स्त्री के साथ विवाह कर लेते हैं, एक सपना है। फिर पंडित आता, बैड—बाजे बजते, बरात उठती, मंत्र पढ़े जाते, आग
जलती, सात चक्कर लगाए जाते। यह व्यवस्था है, जिससे हम सपने को सच बनाने की कोशिश कर रहे हैं। फिर सात चक्कर लग गए,
घेरे हो गए, फिर सबने उत्साह मनाया, बड़े धन्यवाद दिए, बड़ी बधाइयां दीं। यह सब व्यवस्था
है, जिससे हम चेष्टा कर रहे हैं कि जो सपना है वह सपना न
मालूम पड़े, वह यथार्थ हो जाए। इतने लोगों का बल मिल जाए
उसको तो यथार्थ हो जाए, सग्रिहक सम्मोहन के आधार पर यथार्थ
हो जाए। तो घोड़े पर बिठाते दूल्हे को, गांव में फेरी निकालते।
वह सब इस बात के उपाय हैं कि उसको यह भरोसा आ जाए कि यह बात कुछ ऐसी ही नहीं है,
कोई छोटी—मोटी बात नहीं है।
अब
एक मेरे मित्र हैं,
पत्नी से परेशान हैं, कई साल से परेशान हैं।
तो मैंने उनसे कहा, जब इतने परेशान हो और वह भी परेशान है और
दोनों को कोई शांति नहीं है तो अलग क्यों नहीं हो जाते? वह
बोले, कैसे अलग हो जाएं? सात फेरे पड़े
हैं। तो मैंने कहा, तुम ले आओ पत्नी को, मैं उलटे फेरे डलवा देता हूं; और क्या इससे ज्यादा!
घोड़े पर बैठना है, उलटे घोड़े पर बिठाकर घुमा देंगे, और क्या! बैंड—बाजा चाहिए, बैंड—बाजा बजवा देंगे।
भीड़— भाड़ चाहिए, काफी है। तुम चाहते क्या हो? एक सम्मोहन है, उसको तोड्ने के लिए और सम्मोहन चाहते
हो, तो वह भी किया जा सकता है। मगर इससे क्या फर्क पड़ता है!
बोध
की जरूरत है। कौन पत्नी तुम्हारी है? कौन पति तुम्हारा है? कौन बेटा तुम्हारा है?
बुद्ध
ने अपने पिता से कहा था कि मैं आपसे जरूर आया, लेकिन आपका नहीं हूं। आप माध्यम
बने हैं, आप से मैं गुजरा, लेकिन आपकी
कोई मालकियत नहीं है। जैसे कोई रास्ते से गुजरता है, तो
रास्ते का थोड़े ही हो जाता है! तो एक बेटा मां के गर्भ से गुजरा, यह तो रास्ता हुआ, इसमें तुम्हारा क्या हो जाएगा।
मगर
नहीं, रास्ता खड़ा हो जाता है, कहता है कि मेरा है। फिर
अड़चन शुरू हो जाती है। हम मेरे—तेरे के जंजाल खड़े कर लेते हैं, हम मेरे—तेरे की सीमाएं खींच लेते हैं। फिर हम जोर से उनको पकड़ लेते हैं,
उनमें हमारा बड़ा स्वार्थ निहित हो जाता है, उनमें
हमारे प्राण अटक जाते हैं। संसार किसी को बांधे हुए नहीं है।
तुम
पूछते हो, 'संसार से मुक्ति कैसे हो?'
संसार
में है क्या!
चांद चुक गया
रात रह गयी बाकी
पतझड़ के
अंजुरियाभर छंद
केसर महका
माधव से चलकर
जो आया सो बहका
हर छाया लहक उठी
हर एक साया लहका
चांदनिया राख हुई
तिल—तिल सूरज दहका,
बात चुक गयी
याद रह गयी बाकी।
है क्या संसार में!
बात चुक गयी
याद रह गयी बाकी।
एक
दिन तुम अचानक पाओगे,
सब चुक गया, कुछ भी न बचा। जैसे कोई उपन्यास
पढ़ा हो, ऐसी हो जाएगी यह जिंदगी।
अभी
भी देखो न, तुम पचास साल जी लिए, कि चालीस साल जी लिए, पीछे लौटकर देखो। वे चालीस साल अब क्या हैं! जैसे कहीं फिल्म के पर्दे पर
कोई कहानी चलते देखी हो। और ज्यादा क्या है! सपना रह गया है एक भीतर, एक याददाश्त रह गयी है, और क्या है? जिस दिन तुम मरोगे, उस दिन क्या होगा तुम्हारे हाथ
में संसार के नाम पर? कुछ छोटी सी स्मृतियों की एक पोटली।
इस
संसार में बांधने जैसा कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम इसे जोर से पकड़े हुए हो। तो यह
मत पूछो कि संसार से मुक्ति कैसे हो? यह पूछो कि मैं अपनी पकड़ कैसे ढीली
करूं? ये प्रश्न अलग— अलग हैं। और प्रश्न का ठीक—ठीक पूछ
लेना, ठीक—ठीक उत्तर को पाने की अनिवार्य शर्त है। यह मत
पूछो कि संसार से कैसे मुक्ति हो? यही तो तुम्हारे तथाकथित
परंपरागत साधु—संन्यासी पूछ—पूछकर झंझट में पड गए हैं। संसार से कैसे मुक्ति हो?
तो वे कहते हैं, छोड़ो दुकान, छोड़ो पत्नी, छोड़ो बच्चे। पहले तो माना था कि ये मेरे
हैं, अब छोड़ो! मानने में ही भ्रांति थी, तो छोड़ने को क्या है, तुम छोड़ोगे कैसे? पत्नी तुम्हारी है नहीं, तुम छोड़ोगे कैसे? यह छोड़ने का दावा भी उसी भ्रांति पर खड़ा है कि मेरी थी।
मेरे
एक मित्र हैं,
संन्यासी हो गए—पुराने ढंग के संन्यासी हैं। बार—बार जब भी मिलते
हैं, वे कहते हैं कि लाखों पर लात मार दी। तो मैंने उनसे
पूछा, वर्षों हो गए छोड़े हुए, लगता है
लात ठीक से लगी नहीं; नहीं तो याद क्यों बाकी है! लग गयी लात,
खतम हो गयी। और लाख वगैरह भी नहीं थे, मैंने
उनसे कहा, क्योंकि तुम मुझसे ही, मेरे
ही सामने कहते हो कि लाख थे! मुझे पक्का पता है कि तुम्हारे पोस्ट आफिस की किताब
में कितने रुपए जमा थे। वह थोड़े डरे, उनके दो—चार शिष्य भी
बैठे हुए थे। कहने लगे, फिर पीछे बात करेंगे। मैंने कहा,
पीछे नहीं, अभी ही बात होगी।
लाख—वाख
कुछ थे नहीं,
होमियोपैथी के डाक्टर थे। अब होमियोपैथी के डाक्टरों के पास कहीं
लाख होते हैं, लाख ही हों तो होमियोपैथी की कोई डाक्टरी करता
है! मैंने कहा, मक्खी उड़ाते थे बैठकर दवाखाने में, कभी मरीज तो मैंने देखे नहीं, हमीं लोग गपशप करने
आते थे, तो बस वही थे जो कुछ! कितने रुपए थे तुम ठीक—ठीक बोल
दो, मुझे मालूम है, मैंने उनसे कहा। और
तुम धीरे — धीरे, पहले हजारों कहते थे, फिर अब तुम लाखों कहने लगे कि लाखों पर लात मार दी!
पहली
तो बात लाखों थे नहीं। दूसरी बात, यह लात मारने का जो भाव है, इसका मतलब है, अभी भी तुम्हारे मन में मालकियत कायम
है। अब भी तुम कहते हो कि मेरे थे, लाखों थे, और देखो मैंने छोड़ दिए। छोड़ना तो उसी का हो सकता है जो मेरा हो। जागने में
तो सिर्फ इतना ही होता है कि पता चलता है—मेरा कुछ भी नहीं, छोड़ना
क्या है!
इस
भेद को खयाल में ले लेना। जागा हुआ आदमी भागता नहीं, न कुछ छोड़ता है। सिर्फ इतना
ही समझ में आ जाता है, मेरा नहीं है। फिर करने को कुछ बचता
नहीं, छोड़ने को क्या है! इतना ही समझ में आ गया, पत्नी मेरी नहीं, बेटे मेरे नहीं, सब मान्यता है, ठीक है। इसको कुछ कहने की भी जरूरत
नहीं किसी से। इसकी कोई घोषणा करने की भी जरूरत नहीं। इसको कोई छाती पीटकर बताने
की भी जरूरत नहीं। यह तो समझ की बात है।
तुम
दो और दो पांच जोड़ रहे थे। फिर तुम मुझे मिल गए, मैंने तुमसे कहा कि सुनो भई,
दो और दो पांच नहीं होते, दो और दो चार होते
हैं। तुम्हें बात जंची, तो क्या तुम यह कहोगे कि मैंने
पुराना हिसाब छोड़ दिया, दो और दो पांच होते हैं, वह मैंने छोड़ दिया? तुम कहोगे कि छोड़ने को तो कुछ था
ही नहीं, बात ही गलत थी, बुनियाद ही
गलत थी। जब तुम दो और दो पांच कर रहे थे, तब भी पांच थोड़े ही
हो रहे थे, सिर्फ तुम कर रहे थे, हो
थोड़े ही रहे थे; यथार्थ में तो दो और दो चार ही हैं, चाहे तुम पांच जोड़ो, चाहे सात जोड़ो, तुम्हें जो जोड़ना हो जोड़ते रहो। दो और दो तो चार ही हैं। जिस दिन तुम्हें
दिखायी पड़ गया, दो और दो चार हैं, समझ
में आ गया, दो और दो चार हो गए—चार थे ही, सिर्फ तुम्हारी भ्रांति मिटी।
तुम्हारा
कुछ भी नहीं है। ऐसा जिस दिन समझ में आ जाता है, उस दिन जीवन का गणित एकष्ट
हो गया—मेरा कुछ भी नहीं है। छोड़ने को कुछ नहीं है, भागने को
कहीं नहीं है, भागकर जाओगे कहा? जहां
भी जाओगे वहीं संसार है। गुफा में बैठोगे? वहा संसार है।
मैंने
सुना, एक आदमी भाग गया था परेशान होकर। संसार में बडा उपद्रव है, भाग गया, बैठा जंगल में एक वृक्ष के नीचे ध्यान करता
था, एक कौवे ने बीट कर दी! सिर पर बीट गिरी तो बहुत नाराज
हुआ, उसने कहा, हइ हो गयी! हम संसार
छोड्कर चले आए, इसी के लिए उपद्रव है, और
यहां वृक्ष के नीचे बैठे, कौवे ने बीट कर दी! वह बहुत दुखी
हो गया, उसने कहा, इस जीवन में कोई सार
नहीं है।
वह
पास की नदी पर गया,
उसने सोचा कि यहीं अर्थी जलाकर मर जाना चाहिए। उसने लकड़ियां इकट्ठी
कीं, एक आदमी बैठा देख रहा था, उसने कहा,
भई, क्या कर रहे हो? उसने
कहा कि मैं लकड़ियां इकट्ठी कर रहा हूं, जीवन असार है,
और मैंने मरने की सोच रखी है, अब मैं इस पर
बैठकर जलकर मर जाऊंगा। उसने कहा, भई, कहीं
और मरो, इधर हमारे मोहल्ले—पड़ोस में बदबू फैलेगी और झंझट खड़ी
होगी, तुम कहीं और जाओ जहां मरना हो। उसने कहा, हद्द हो गयी! जीने भी नहीं देते, मरने भी नहीं देते।
तुम
जाओगे कहा? जहां भी तुम होओगे, वहां ही संसार है। संसार तो सब
तरफ फैला हुआ है। इसलिए कहीं जाने की भी बात नहीं है, सिर्फ
भीतर जागने की बात है, फिर तुम जहां हो वहीं मुक्त हो।
तुम
कहते हो, 'संसार के बंधन बहुत मजबूत हैं। '
बंधन
हैं ही नहीं,
मजबूत तो होंगे कैसे। मैंने रुपए और तुम्हारे बीच बंधन कभी देखा
नहीं, कोई हथकड़ी थोड़े ही डाल रखी है रुपए ने तुम्हें!
एक
सूफी फकीर था बायजीद। अपने शिष्यों को लेकर एक गांव से गुजर रहा था। और उसकी आदत
थी ऐसी कि कोई अवसर बन जाए,
तो वह जल्दी शिष्यों को खड़ा करके उनको कुछ समझा देता था। मौके पर
समझा देता था,' वैसे कोई उपदेश नहीं देता था।
देखा
एक आदमी एक गाय को लिए जा रहा है। रस्सी बांध रखी है गाय के गले में और चला जा रहा
है। उसने उस आदमी से कहा,
रुक भाई! जरा मेरे शिष्यों को उपदेश देने दे। घेरकर वे खड़े हो गए
गाय को और आदमी को। और बायजीद ने अपने शिष्यों से पूछा कि तुम मुझे यह बताओ कि गाय
ने आदमी को बांधा है कि आदमी ने गाय को बांधा है? कौन किसका
गुलाम है? गाय आदमी से बंधी है कि आदमी गाय से बंधा है?
कौन किसका मालिक है?
स्वभावत:, शिष्यों
ने कहा, बात जाहिर है कि आदमी मालिक है। और आदमी ने गाय को
गुलाम बनाया हुआ है।
तो
बायजीद ने कहा कि देखो,
मैं यह गाय की रस्सी कांट देता हूं—उसने बीच से रस्सी कांट दी,
गाय तो भाग खड़ी हुई और वह आदमी गाय के पीछे भागा कि भई, यह किस तरह की गड़बड़ है! तो बायजीद ने कहा, देखते हो,
अब कौन किसके पीछे भाग रहा है! अगर यह आदमी मालिक था, तो गाय इसके पीछे जाती, यह मालिक नहीं है। गाय मालिक
है और यह आदमी गुलाम है। इस आदमी को भी यही भ्राति है कि मैं मालिक हूं। मगर अब
असलियत खुल गयी, रस्सी कांटकर देख ली। गाय तो अपने रास्ते पर
चली गयी, गाय लौटकर कभी इस आदमी की तरफ देखेगी ही नहीं। भूल—चूककर
इसके पास न आएगी। अब यह आदमी उसके पीछे भाग रहा है।
तुम
धन के पीछे भाग रहे हो कि धन तुम्हारे पीछे भाग रहा है? तुम पद के
पीछे भाग रहे हो कि पद तुम्हारे पीछे भाग रहा है?
बंधन
मजबूत नहीं है,
तुम्हारी वासना मजबूत है। बंधन मजबूत नहीं है, तुम्हारा अज्ञान मजबूत है। बंधन मजबूत नहीं है, तुम्हारी
तृष्णा मजबूत है। उसी तृष्णा से तुम बंधे हो।
तो
बुद्ध ने कहा है,
जो तृष्णा से छूट गया, वह संसार से मुक्त हो
गया। संसार मे मुक्त नहीं होना है, तृष्णा से मुक्त होना है।
एक
बड़ी महत्वपूर्ण झेन कथा—
साऊ
सिन को समाधि उपलब्ध हो गयी थी। वह अपने गुरु हाऊ नान से मिलने।। या। और जैसे ही
वह चरणएकर्श करने को था कि उसके गुरु ने कहा, रुको! रुको! उ।ब तुम मेरे ही कक्ष
में आ गए हो। स्टाप, नाव यू हैव कम इनटू माइ रूम। साऊ सिन ने
कहा, मगर अगर यह शांति और सरलता ही सत्य—उपलब्धि थी, तो फिर आपने वे सारे व्यर्थ प्रयत्न और प्रयास करने को मुझे क्यों कहा था?
हाऊ नान हंसने त्नगा —गुरु हंसने लगा—उसने कहा, ताकि तुम थक जाओ और प्रयास छोड़ दो। कुछ पाना थोड़े ही है, जो तुम सदा से थे, प्रयास, दौड़
और अशांति के जाते ही वही तुम्हारा शाश्वत रूप प्रगट हो जाता है।
पहला
बात, संसार छोड़ना नहीं है। दूसरी बात, कुछ पाना नहीं है।
सिर्फ संसार कै पीछे तुम्हारे दौड़ने की जो पुरानी आदत, जो
आपाधापी है, वह जो तृष्णा का तुमने एक बड़ा धुआ पैदा कर रखा
है, वह धुआ भर शांत हो जाए, तुम अचानक
पाओगे—तुम मुक्त थे ही, तुम मुक्त हो ही।
मुक्ति
तुम्हारा स्वभाव है। मुक्त होना तुम्हारी निजता है, तुम्हारा स्वधर्म है। संसार
ने बाधा नहीं है और तुम्हें मुक्त नहीं होना है। यह बड़ी जटिल बात है। तुम मुक्त हो
और तुम संसार की तरफ आंखें लगाए बैठे हो और अपनी तरफ देखते नहीं, इसलिए मुक्ति से चूकते चले जा रहे हो।
यह
घटना प्यारी है कि जब शिष्य समाधि को उपलब्ध हो गया और गुरु के चरण छूने को झुका, तो गुरु
ने कहा, रुक! रुक! अब तो तू मेरे ही कक्ष में आ गया, अब तो तू मेरे ही जैसा हो गया, अब पैर छूने की कोई
जरूरत नहीं। शिष्य बहुत हैरान हुआ, क्योंकि उसे तो पता ही
नहीं है कि समाधि लग गयी है। उसे तो इतना ही पता है कि चित्त शांत हो गया, उसे तो इतना ही पता है कि चित्त निर्मल हो गया, उसे
तो इतना ही पता है कि एक मौन घना हो गया, लेकिन वह कैसे कहे
कि समाधि लग गयी! उसे पहले तो समाधि लगी नहीं थी कभी, इसलिए
पहचाने कैसे? प्रत्यभिज्ञा कैसे हो?
तो
उसने कहा, अगर यही समाधि है, अगर यही मुक्ति है कि मैं तुम्हारे
जैसा हो गया, कि मुझे भी निर्वाण उपलब्ध हो गया, तो पहले क्यों न कहा? क्योंकि मुझे तो कोई नयी बात
नहीं हुई, थोड़ी अशांति जरूर चली गयी, तरंगें
थोड़ी शांत हो गयीं, लेकिन मैं तो वही का वही हूं; झील अब पुरानी जैसी तरंगित नहीं है, मौन है, मगर हूं तो मैं वही का वही, नया कुछ भी नहीं हुआ है।
माना कि सरल हो गया, थोडा निर्दोष हो गया, लेकिन कोई ऐसी बड़ी बात नहीं घटी कि कुछ नया हो गया हो! ऐसा ही समझो कि
थोड़ी अशुद्धि थी, थोड़ी धूल जम गयी थी दर्पण पर, धूल हट गयी। क्या यही है निर्वाण? यही है मुक्ति?
तो फिर मुझे इतने उपाय और इतने प्रयास और इतनी साधनाएं करने को
क्यों कहा था? गुरु हंसने लगा। गुरु ने कहा, इसलिए ही कहा था कि तुम थक जाओ। तुम्हें खूब दौड़ाया, ताकि तुम थककर बैठ जाओ।
सारा
योगशास्त्र सिर्फ इसीलिए है कि तुम थक जाओ। संसार तुम्हें नहीं थका पाया। अगर
समझदार होते तो संसार ही काफी था। संसार नहीं थका पाया तो फिर पतंजलि की, बुद्ध की,
महावीर की जरूरत है। अगर जरा भी समझदार होते तो संसार ने ही काफी
थका दिया है, तुम रुक जाते, तुम बैठ
जाते। तुम कहते, बहुत हो गया, अब यहां
कुछ पाने को नहीं है, कुछ खोजने को नहीं है, कुछ छोड़ने को नहीं है, तुमने आंख बंद कर ली होतीं। आंख
बंद करते ही तुम पाते कि तुम तो वहा विराजमान ही हो। जिसकी तुम खोज करते थे,
तुम वहा बैठे ही हो।
एक
और झेन—कथा। झेन—कथाएं बुद्ध धर्म की ही शाखाएं हैं, बुद्ध की ही प्रज्ञाखाएं
हैं।
एक
नया भिक्षु आया था। सदगुरु हुई ची ने उससे पूछा, तुम्हारा नाम क्या है बंधु?
उस भिक्षु ने कहा, लिंग तुंग। लिंग तुंग का
अर्थ होता है, आध्यात्मिक व्याप्ति या सर्वव्यापक आत्मा।
इसको आधार बनाकर हुई ची ने एक बढ़िया प्रश्न उठाया। अतिथि भिक्षु से उन्होंने कहा,
यह लालटेन देख रहे, लिंग तुंग, सर्वव्यापक आत्मा, यह लालटेन देख रहे? लालटेन जलती थी। अब कृपा करके लिंग तुंग महोदय इसमें प्रवेश कर जावें,
क्योंकि आप तो सर्वव्यापी हैं।
झेन
फकीर ऐसे प्रश्न उठा देते हैं। बड़े बहुमूल्य प्रश्न हैं, समझ में आ
जाएं तो। न समझ में आएं तो बड़े बेबूझ हैं, पागलपन के मालूम
पड़ते हैं। अब यह भी कोई बात हुई। उस आदमी ने कहा, लिंग तुंग
मेरा नाम है—सर्वव्यापक आत्मा—और यह हुई ची ने एक सवाल उठा दिया कि तब बिलकुल ठीक,
मान लिया कि आप लिंग तुंग हैं, सर्वव्यापी हैं,
जरा इस लालटेन में प्रवेश कर जाइए। रात्रि थी और कमरे में लालटेन जल
रही थी, हुई ची ने खूब अदभुत प्रश्न पूछा। लेकिन जो उत्तर
मिला उस अतिथि भिक्षु से, वह और भी अदभुत था। लिंग तुंग ने कहा,
मैं तो पूर्व से ही वहां बैठा हुआ हूं। आई एम आलरेडी इनसाइड इट।
सर्वव्यापक का मतलब ही यह होता है कि जो सब जगह मौजूद है, अब
इसमें और कैसे घुस जाऊं? बैठा ही हुआ हूं पहले ही से यहां
मौजूद हूं!
मोक्ष
तुम्हारा स्वभाव है,
पहले से ही घट गया है। घटा ही हुआ है। परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद
है। परमात्मा को पाना नहीं है, संसार को छोड़ना नहीं है। यह
अदभुत बात खयाल में रखना। तुमसे सदा यही कहा गया है, संसार
को छोड़ना है और परमात्मा को पाना है। मैं तुमसे कहता हूं परमात्मा को पाना नहीं है
और संसार को छोड़ना नहीं है। क्योंकि संसार में कुछ छोड़ने जैसा है नहीं, छूटा ही हुआ है। और परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा ही हुआ है, पाओगे क्या! जागना है, बस जागना है। होश सम्हालना है।
चौथा प्रश्न :
कल आपने न्याय और करुणा की चर्चा की और कहा कि
प्रज्ञावान पुरुष ही न्याय के साथ करुणा भी कर सकता है। क्या न्याय और करुणा का
समन्वय संभव है?
तर्क के आधार पर तो नहीं। तर्क के तल पर तो नहीं।
न्याय और करुणा का समन्वय तर्क के हिसाब से नहीं हो सकता, क्योंकि
वे दो अलग तलों की बातें हैं।
समझो।
न्याय का अर्थ ही यह होता है कि जो उचित हो, वही हो। न्याय में करुणा समाविष्ट
नहीं है। न्याय का तो इतना ही अर्थ है, जो नियम उपयुक्त हो,
वही हो। करुणा में हृदय है, न्याय में सिर्फ
बुद्धि है। करुणा बड़ी बात है। करुणा का अर्थ है, जो होना
चाहिए वही हो। नियम की बात नहीं है, नियम से बड़ी बात है।
जैसे
समझो, तुम अदालत में गए, तुमने चोरी की है, तो न्यायाधीश देखता है अपनी किताबों में, उलटता—पलटता
है, कानून खोजता है, तुमने पचास रुपए
की चोरी की, दंड खोजता है, दंड किताब
में लिखा है, हिसाब से तुम्हें दंड दे देता है। तुमसे दूर
रहता है, तुमसे कोई मानवीय संबंध नहीं जोड़ता। यह नहीं सोचता
कि तुम्हारे भीतर भी मनुष्य का धड़कता हुआ हृदय है। यह नहीं सोचता कि तुम्हारी
पत्नी है, तुम्हारे बच्चे हैं; यह नहीं
सोचता कि तुम भूखे रहे होओगे, शायद तुमने चोरी कर ली,
शायद चोरी करनी पड़ी; शायद मजबूरी थी, शायद न्यायाधीश भी तुम्हारी स्थिति में होता तो चोरी करता, शायद कोई भी तुम्हारी स्थिति में होता तो चोरी करता, यह नहीं सोचता, ये बातें विचार में नहीं लाता। वह तो
सिर्फ देखता है, तुमने चोरी की, चोरी
का यह दंड है। वह बिलकुल अमानवीय ढंग से, यंत्रवत निर्णय
देता है। तो न्याय तो हो गया, लेकिन करुणा न हुई। करुणा जरा
बड़ी बात है।
मैंने
सुना है, एक चीनी फकीर न्यायाधीश था—फकीर होने के पहले। मगर फकीरी की कुछ धुन तो
रही होगी तब भी। जब वह न्यायाधीश हुआ और उसके सामने पहला मुकदमा आया—बस पहला ही
मुकदमा आया, दूसरा तो आने का मौका ही न रहा, क्योंकि सम्राट ने उसे निकाल बाहर कर दिया।
उसके
सामने पहला मुकदमा आया—स्व गरीब आदमी ने एक अमीर आदमी की चोरी कर ली थी। कोई बड़ी
चोरी भी न थी,
होगी कोई दो—चार सौ रुपए की।
कानून
था कि उसे छह महीने की सजा होनी चाहिए। उसने कहा कि ठीक है, छह महीने
की सजा इस आदमी को जिसने चोरी की और छह महाने की सजा इस आदमी को जिसकी चोरी की। वह
अमीर तो हंसने लगा, उसने कहा, आपका
दिमाग ठीक है? एक तो मेरी चोरी हुई और छह महीने की सजा भी!
आप कह क्या रहे हैं, होश में हैं? उसने
कहा, मैं होश में हूं। और छह महीने की सजा कम है, यह भी मुझे पता है। तुम्हें सजा मिलनी चाहिए कम से कम छह साल की।
बात
सम्राट तक पहुंची। पहुंचनी ही थी, अमीर ने तो बड़ा गुहार मचाया, उसने कहा, यह किस तरह का न्याय है! सम्राट भी हैरान
हुआ कि यह किस तरह का न्याय है! फकीर को बुलाया और कहा कि यह किस तरह का न्याय है?
उसने
कहा, यह न्याय है। ठीक तो नहीं है, क्योंकि छह महीने की
सजा कम है। इस आदमी ने सारे गांव का धन इकट्ठा कर लिया है, अब
चोरी न होगी तो क्या होगा! यह आदमी चोर से भी पहले चोरी के लिए जिम्मेवार है। चोर
तो नंबर दो का जुर्मी है, यह नंबर एक का जुर्मी है। इसने
सारा धन इकट्ठा कर लिया गांव का। पूरा गांव भूखा मर रहा है और सब इसके पास है।
सम्राट
ने कहा, बात तो ठीक है, लेकिन खतरनाक है। इसका तो मतलब हुआ
कि मैं भी, कल नहीं परसों, तुम्हारी
अदालत में फंस जाऊंगा। तुम छुट्टी लो, तुम विदा हो जाओ।
इसमें
करुणा है। एक महत्वपूर्ण सत्य यह फकीर सामने ले आया। इसने हार्दिक ढंग से सोचा।
न्याय
में और करुणा में समन्वय तो नहीं हो सकता, क्योंकि न्याय बहुत नीचे तल की बात
है, करुणा बहुत ऊपर तल की बात है, लेकिन
न्याय की परिपूर्णता करुणा में है। न्याय वह, जो आवश्यक है,
करुणा वह, जो होनी चाहिए। न्याय, बस अनिवार्य है, करुणा, न्याय
की परिपूर्णता है। करुणा में न्याय अपनी प्रखर ज्योति को उपलब्ध होता है।
इसे
ऐसा समझो, कठोरता से अन्याय पैदा होता है। तो कठोरता में बीज है अन्याय का। कठोर
आदमी अन्यायी हो ही जाएगा। कठोरता में बीज है, अन्याय के फल
लगेंगे। फिर न्याय में बीज छिपा है करुणा का। न्यायी आदमी एक न एक दिन करुणावान हो
ही जाएगा—हों ही जाना चाहिए, नहीं तो बीज बीज रह गया,
वृक्ष न बन पाया। बीज और वृक्ष में कोई समन्वय नहीं है, क्योंकि बीज एक तल की बात है, वृक्ष बिलकुल दूसरे तल
की बात है। बीज अनभिव्यक्त और वृक्ष अभिव्यक्त। दोनों में बडा फर्क है।
तुम्हारे
सामने कोई बीज रख दे एक—और सामने ही यह गुलमोहर का फूलों से लदा हुआ वृक्ष है, और
गुलमोहर का बीज तुम्हारे सामने रख दे और तुमसे कहे कि इस बीज में और इस वृक्ष में
क्या संबंध है? कोई संबंध नहीं दिखायी पड़ता।
बीज
में एक भी फूल नहीं खिला है, और यह गुलमोहर दुल्हन की तरह सजा है। और बीज
जरा सा, काला—कलूटा! कुछ दिखता नहीं इसमें, इसमें से कुछ हो भी सकता है इसकी भी संभावना नहीं मालूम पड़ती, कंकड—पत्थर जैसा मालूम पड़ता है। लेकिन यह वृक्ष उसी से हुआ है। बीज और
वृक्ष में एक यात्रा है।
न्याय
बीज है, करुणा उस बीज का पूरा का पूरा प्रस्फुटित हो जाना है, पूरा प्रफुल्ल हो जाना है, पूरा खिल जाना है।
दुनिया
में अन्याय है,
अभी तो न्याय ही नहीं, इसलिए करुणा की तो बात
ही करनी असंभव है। दुनिया की हालत अन्याय की है, अभी तो
न्याय ही हो जाए तो बहुत। लेकिन जब न्याय होने लगेगा तो तत्क्षण हमें करुणा की
बात सोचनी पड़ेगी। करुणा मनुष्य—जीवन का अंतिम लक्ष्य है। वहां तक पहुंचना ही चाहिए।
उस ऊंचाई तक जब तक हम न पहुंचें, हमारे जीवन में फूल नहीं
लगते हैं, कमल नहीं खिलते।
करुणा
में न्याय समाविष्ट है। लेकिन न्याय में करुणा अनिवार्य रूप से समाविष्ट नहीं है।
न्याय तो शुरुआत है,
न्याय तो अन्याय से छुटकारे का उपाय है। फिर जब अन्याय से कोई छूट
जाए, तो उतने से ही राजी मत हो जाना।
इसको
ऐसा समझो। एक आदमी बीमार है। इस बीमार आदमी की बीमारी अलग हो जाए, इतना ही
काफी नहीं है। स्वास्थ्य का आविर्भाव भी होना चाहिए। सिर्फ बीमारी का अलग हो जाना
स्वस्थ हो जाना नहीं है। स्वास्थ्य की एक विधायकता है। स्वास्थ्य का एक झरना है,
जो भीतर बहना चाहिए।
तुम्हें
भी पता होगा। कई बार तुम कह सकते हो कि मैं बीमार नहीं हूं लेकिन स्वस्थ हूं, यह भी
नहीं कह सकता। कई बार तुम कह सकते हो, मैं दुखी नहीं हूं
लेकिन आनंदित हूं यह भी नहीं कह सकता। वह कौन सी घड़ी होती है जब तुम कहते हो कि
मैं दुखी नहीं हूं, और आनंदित हूं यह भी नहीं कह सकता?
दुख
तो नहीं है, दुख तो नहीं होना चाहिए, लेकिन यही थोड़े ही काफी है।
दुनिया में इतना ही थोड़े काफी है कि लोग दुखी न हों। दुनिया में इतना पर्याप्त
नहीं है। यह तो होना ही चाहिए कि लोग दुखी न हों, यह शर्त तो
पूरी होनी ही चाहिए, लेकिन फिर एक और बडी शर्त है कि सुखी भी
हों। सुख और बड़ो शर्त है। उसके लिए दुख का मिट जाना रास्ता बनेगा।
करुणा
के लिए न्याय रास्ता बनाता है। वह न्याय के द्वारा करुणा के आगमन की संभावना खुल
जाती है। अन्यायी आदमी तो कभी करुणावान नहीं हो सकता। न्यायी आदमी कभी हो सकता है।
लेकिन न्याय पर ही रुक नहीं जाना है। यह मत सोचना कि बस मंजिल आ गयी।
बुद्ध
ने कहा है, करुणा परम मंजिल है। जब तक जीवन में सतत करुणा प्रवाहित न होने लगे,
तब तक समझना, अभी कहीं कुछ कमी है। तब तक
समझना, अभी कहीं कुछ कठोर है। तब तक समझना, कहीं कुछ अवरोध है।
पांचवां
प्रश्न:
मेरे
पति को तमाखू खाने की आदत है। वे उसे कैसे छोड़े?
पूछा
है गीता ने।
पहली
तो बात, किसी दूसरे की आदतें छुड़ाना कोई सज्जनता नहीं। दूसरे को समझने दो।
तुम्हारे पति में बुद्धि है, इतना तो मानो। पूछना हो तो पति
को पूछने दो। दूसरे को बदलने की चेष्टा में थोड़ी कठोरता है। दूसरे को बदलने की
चेष्टा में थोड़ी तरकीब है, थोड़ी राजनीति है। दूसरे को बदलने
के आधार पर हम दूसरे पर मालकियत करना शुरू कर देते हैं।
तो
पहली तो बात,
दूसरे को बदलने की कोशिश कोई अच्छे आदमी का लक्षण नहीं है। इसलिए
तुम्हारे महात्माओं को मैं कोई अच्छे आदमी नहीं कहता। तुम्हारे महात्मा आमतौर से
दुष्ट प्रकृति के लोग होते हैं, जिन्होंने तरकीबें खोज ली
हैं दूसरों को सताने की—छोटी—छोटी तरकीबें, निर्दोष बातें।
अब
कोई आदमी तमाखू खा रहा हूं, इसके कारण उसको नरक भेजने का उपाय करने वाले लोग बैठे हैं। कुछ तो—करुणा
न करो, कम से कम न्याय तो करो! एक आदमी ने तमाखू खा ली,
उनको नरक भेज दिया। इसका मतलब तरु नरक जाएगी! तमाखू खाने से कोई नरक
नहीं जाता।
और
अक्सर ऐसा होता है कि तमाखू नहीं खायी तुमने और बड़े अकड़ गए कि देखो, मैं तमाखू
नहीं खाता, तो शायद नरक चले जाओ। क्योंकि अकड़ नरक ले जाती है।
तमाखू खाने वाला तो थोड़ा— थोड़ा झुका रहता है कि तमाखू खाते हैं, क्या करें! ज्यादा अकड़कर चल भी नहीं सकते, पता है कि
तमाखू खाते हैं, कि सिगरेट पीते हैं, कि
चाय पीते हैं, कि काफी में भी लगाव है, कि कभी—कभी कोकाकोला में भी रस आ जाता है। तो वह तो जरा झुका—झुका चलता है,
वह तो विनम्र होता है, वह कहता है, अब हम तो अधार्मिक आदमी! जो कोकाकोला नहीं पीता, तमाखू
नहीं खाता, सिगरेट नहीं पीता, पान नहीं
खाता, उसकी अकड़!
मगर
जरा देखो भी तो,
अकड़ में है क्या! पान नहीं खाया, यह अकड़ है,
तमाखू नहीं खायी, यह अकड़ है। अरे, अकड़ना ही था तो कुछ तो मतलब की बात चुनते! कुछ तो सोचकर चुनते! यह कोई गुण
है!
दूसरे
को बदलने की चेष्टा एक साजिश है। इसके माध्यम से तुम अपने को ऊपर मान लेते हो, दूसरे को
नीचे मान लेते हो। और छोटी—छोटी बातें खोजकर, छोटे—छोटे
निमित्त निकालकर तुम दूसरे को क्षुद्र बताने लगते हो।
अब
यह गीता पूछती है कि 'मेरे पति को तमाखू खाने की आदत है, वे उसे कैसे छोडे?
अब
यह समझ रही है कि पति कोई बड़ा भारी अपराध कर रहे हैं। और निश्चित ही इसकी नजर में
यह होगा कि मैं कुछ ऊंची हूं साध्वी हूं—तमाखू नहीं खाती।
तुम्हें
पता है, हिटलर तमाखू नहीं खाता था, सिगरेट नहीं पीता था,
मांसाहार नहीं करता था—पक्का जैनी था—शराब नहीं पीता था, और भले आदमी में क्या चाहिए! तुम सोचते हो कि हिटलर स्वर्ग में गया है?
अगर हिटलर स्वर्ग में गया है, तो फिर कोई भला
आदमी स्वर्ग जाना पसंद न करेगा। और क्या कमी होती है आदमी में? ब्रह्ममुहूर्त में उठता था। सब तरह सच्चरित्र था। लेकिन यह सच्चरित्रता
बड़ी कठोर साबित हुई।
तो
पहली तो बात,
दूसरे को बदलने की इस तरह चेष्टा मत करना। यह नियत ही खराब है। और
फिर दूसरा जब तुम्हारा पति हो, तब तो थोडी और दया चाहिए। पति
को तो बदलने की चेष्टा करना ही मत, पत्नी को बदलने की चेष्टा
करना ही मत। क्योंकि जहां प्रेम का संबंध हो, वहा बदलने की
चेष्टा, प्रेम को बहुत बड़ा व्याघात बन जाती है। प्रेम का
संबंध मैत्री का संबंध है, यह तो दुश्मनी शुरू हो गयी।
और
मैं देखता हूं अक्सर स्त्रियां इस कोशिश में लगी रहती हैं। उसके पीछे कारण है, जिम्मेवारी
पुरुष की भी है। उसके पीछे कारण है। पुरुष ने सब तरह से स्त्री को दबा रखा है। धन
उसके हाथ में नहीं है, पद उसके हाथ में नहीं है, प्रतिष्ठा उसके हाथ में नहीं है—उसको सब तरह से दासी बना रखा है। उसकी
हालत नौकरानी की कर रखी है। स्वभावत:, स्त्री इससे बदला लेगी।
कोई रास्ता निकालती बदला लेने का। उसको कोई सूक्ष्म रास्ता खोजना पड़ता है। वह कहती
है, सिगरेट मत पीओ। यह देखकर मुझे एकदम घृणा होती है,
मुझे बास आती है। तमाखू मत खाओ। वह कुछ ऐसी तरकीबें खोजती है,
जिनको तुम यह भी नहीं कह सकते कि गलत कह रही है—गलत कह भी नहीं रही
है।
कमजोर
हमेशा ऐसी तरकीब खोजता है जो ठीक मालूम पड़े। क्योंकि कमजोर है, तो कमजोर
को ऐसी राजनीति करनी पडती है कि ठीक भी मालूम पड़े, तुम उसको
इनकार भी न कर सको। अब क्या कहोगे तुम! पत्नी बुरा तो नहीं कहती। वह कहती है,
फेफड़े खराब हो जाएंगे, सिगरेट पीओगे टी. बी हो
जाएगी। तो तुम्हारे हित में ही कह रही है। कमजोर हमेशा तुम्हारे हित में ही तुमको
सताने के उपाय खोजता है। और गलत तो वह कह ही नहीं रही है, इसलिए
तुम विवाद तो कर ही नहीं सकते। तो पति घरों में डरते हुए घुसते हैं। घर से भय लगने
लगता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक दिन शराबखाने में बैठा था। उसके पास एक और आदमी बैठा था, दोनों
गपशप कर रहे थे। मुल्ला नसरुद्दीन ने उससे पूछा कि तुम्हारा विवाह हुए कितने दिन
हुए? उसने कहा, विवाह! हुआ ही नहीं! मुल्ला
ने कहा, बड़ी हैरानी, तो फिर यहां क्या
कर रहे हो? उसने कहा, मतलब? उसने कहा कि हम तो पत्नी से बचने के लिए यहां आते हैं, मगर तुम यहं। क्या कर रहे हो? इसीलिए मैंने पूछा। यह
तो मैंने मान ही लिया कि विवाह हो गया होगा, नहीं तो यहां
क्या कर रहे हो?
पति
घबड़ाते हैं घर आने से। घर तो एक ऐसा लगता है, जैसे छोटे बच्चों को स्कूल,
ऐसा पतियों को घर स्कूल—पाठशाला। जहां हर तरह का शिक्षण दिया जाएगा
कि जूते कहा उतारो, कपड़े कहा डालो, सिगरेट
मत पीओ, रेडियो इतने जोर से मत बजाओ—हजार शिक्षण दिए जाएंगे।
धीरे — धीरे पत्नी जो है वह शिक्षिका हो जाती है और अपने हाथ से अपने प्रेम के
तंतुओं को तोड़ डालती है।
प्रेम
के तंतु बहुत कोमल हैं। यह शिक्षक होने का, यह गुरु होने का जो उपाय है,
यह घातक हो जाता है। लेकिन पत्नी के पास इसके सिवाय कोई उपाय नहीं
रहा है कि वह कैसे अपने अहंकार को स्थापित करे। पत्रों में तो वह लिखती है जब भी
कि प्रियतम, आपकी दासी, इत्यादि। मगर
वह तो पत्रों की बात है, पत्रों पर जाना ही मत। पत्रों में
तो लोग लिखते ही वे बातें हैं जो होती नहीं। पत्रों में तो वह लिखते हैं जो होना
चाहिए था और हो नहीं रहा है। लेकिन बदला लेती है। बदला लेगी ही। तुमने सब तरह से
स्त्री को परेशान कर रखा है। तुमने स्त्री को आत्मा तक देने का बड़े मुश्किल से तय
किया।
मैंने
सुना है, छठवीं शताब्दी में ईसाइयों की एक बड़ी कैथोलिक काफ्रेंस हुई, जिसमें उन्होंने यह विचार किया कि स्त्री में आत्मा होती है या नहीं?
वह तो संयोग की बात कहो—वोटिंग हुई इस पर, मत
पड़ा; अब स्त्री की आत्मा होती कि नहीं इस पर वोट पड़ा—और एक
वोट से जीत गयीं स्त्रियां, नहीं तो उनमें आत्मा नहीं मानी
जाती। एक वोट से! यह कोई जीत हुई! पचास खिलाफ पड़ी, इक्यावन
पक्ष में पडी समझो, कि स्त्री में आत्मा होती है। एक वोट के
आधार पर आत्मा है स्त्री में।
और
पूरब के देशों ने तो इतना भी फिकर नहीं किया, वे तो स्त्री को कहते ही हैं—स्त्री—
धन। संपत्ति! जर, जोरू, जमीन। वहां
जोड़ते हैं। संपत्ति है।
चीन
में तो अपनी पत्नी को मार डालने पर कोई कानून नहीं लगता था। अपनी पत्नी है, मार डाला,
किसी को क्या? थोड़े दूर तक यह नियम अभी भी
चलता है।
मैं
रायपुर में रहता था। एक रात—आधी रात—मैंने पड़ोसी को देखा, वह अपनी
पत्नी को मार रहा है। तो मैं अंदर चला गया, मैंने कहा,
यह क्या कर रहे हो? उसने कहा कि आप यहां क्यों
आए? वह मेरी पत्नी है! मैंने कहा, तुम्हारी
पत्नी है, मैं कुछ कहता भी नहीं। तुम प्रेम करो तो मुझे कोई
एतराज भी नहीं। अगर तुम प्रेम करो और मैं आऊं तो एतराज हो सकता है, लेकिन तुम उसके सिर में मार दिए, खून बह रहा है!
लेकिन उसकी बात तो ठीक है, वह कह रहा है, वह मेरी पत्नी है, आप बीच में कौन हैं बोलने वाले?
वही पुरानी दलील है, पुराना तर्क है कि मेरी
पत्नी है, मैं मार डालूं!
अदालतों
में मुकदमा नहीं चलता था चीन में अपनी पत्नी को मार डालने से। इस देश में भी हालत
बड़ी बुरी रही है।
स्वभावत:, स्त्रियों
ने सूक्ष्म रास्ते निकाल लिए बदला लेने के। तो आदमी में कमजोरियां पकड़ती हैं। अब
कमजोरियां सभी में होती हैं। ऐसा आदमी पाना मुश्किल है जिसमें कमजोरी न हो।
क्योंकि जिसमें कमजोरी नहीं होती, वह फिर पैदा नहीं होता। वह
तो गया मोक्ष। वह तो आएगा कैसे? न सिगरेट पीता, न तमाखू खाता, न जुआ खेलता, न
ताश खेलता, न अखबार पढ़ता, वह तो गया
मोक्ष! यहां तो जो आता है, उसमें कमी तो होगी ही। इसलिए बड़ी
होशियार तरकीब है। तुम ऐसा पति पा सकते हो जिसमें कोई कमी न हो?
मैंने
सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। जब भी मुझे मिलता तो वह कहता
कि बड़ी गजब की स्त्री है, देवी है देवी! बिलकुल संतोषी मां
का अवतार है!
उसने
मेरी शराब छुड़ा दी,
एक दिन मुझसे बोला। अभी विवाह नहीं हुआ है और उसने उनकी शराब छुड़ा
दी। कुछ दिन बाद मिला, मैंने पूछा कि क्या कर रही है?
देवी अब क्या कर रही है? उन्होंने कहा,
उसने मेरा मांसाहार छुडा दिया, बडी अदभुत
महिला है! फिर एक दिन मिला तो कहा कि मेरा जुआ भी छुड़ा दिया। वह मुझे बदले डाल रही
है, मेरा सारा जीवन रूपांतरित कर दिया। फिर एक .दिन मिला,
कहा, मेरी सिगरेट भी छुड़ा दी, मेरे पान भी छुड़ा दिए। फिर एक दिन मिला, मैंने पूछा
कि अब यह तो ठीक हो रहा है छुडाने का काम, विवाह कब करोगे?
उसने कहा, अब मैं उससे विवाह करने वाला नहीं।
अब मेरा चरित्र इतना बेहतर है कि उससे बेहतर स्त्री मिल सकती है।
मतलब
समझे?
अब
यह गीता कहती है,
मेरे पति को तमाखू खाना छुड़ा दो। फिर मुझसे मत कहना! अब यह तमाखू
खाना छोड़ दें, चरित्रवान हो जाएं, बेहतर
पत्नी मिल सकती हे, फिर?
जैसे
हैं, स्वीकार करो। ऐसे भले हैं। तमाखू न खाते होते तो तुमको चुनते कैसे! जैसे
हैं, उसी कारण तो तुम्हें चुना है।
अक्सर
ऐसा होता है कि तुम इतना ज्यादा सुधार कर दो कि वह बिलकुल साधु हो जाएं। फिर साधु
हो जाएं तो वह चले! फिर पछताओगी, फिर कहोगी कि भगवान, कोई
तरह इनको तमाखू खिलाना शुरू करवा दें। अब यह घर ही से चले! क्योंकि जो आदमी तमाखू
की आदत छोड़ सकता है, वह पत्नी की आदत भी छोड़ सकता है। पत्नी
भी एक आदत है, और पति भी एक आदत है। ये सब आदतें हैं।
खयाल
रखना, यह मानवीय नहीं है। ऐसा प्रश्न उठाना अशिष्ट है। तुमने जिस व्यक्ति को
प्रेम किया है, वह जैसा है उसको प्रेम किया है, उसमें उसकी तमाखू खाने की आदत भी सम्मिलित है। और खयाल रहे कि मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि वह तमाखू खाते रहें। पहली तो बात मैं यह कह रहा हूं कि यह पत्नी को
यह बात नहीं उठानी चाहिए, यह अशोभन है।
अगर
सच में तुम्हें पति से प्रेम है, तो मुझे लगता है, धीरे—धीरे
आदत अपने आप छूट जाएगी, तुम्हारे कहने की जरूरत नहीं है।
क्योंकि आदमी तमाखू खाता, सिगरेट पीता, इसके कारण हैं। जो आदमी सिगरेट पीता है, वह तनाव के
कारण पीता है; तमाखू खाता है, तनाव के
कारण खाता है। कुछ चबाता है। नहीं तो उसकी चिंता उसको चबाती है। यह तरकीब है।
तुम
मनोवैज्ञानिक से पूछो,
तो वह कहेगा, जो आदमी सिगरेट पीता है, वह बहुत तनाव से भरा है। कुछ करता है, रेस्टलेसनेस
है। सिगरेट पी लेता है, धुआ भीतर ले गया, बाहर ले गया— थोड़ा प्राणायाम हो गया— थोड़ी सी बेचैनी कम हो गयी। कुछ कर
गुजरे।
तुमने
यह खयाल किया,
अगर तुम सिगरेट पीते हो, तो जब तुम पर तनाव के
दिन होते हैं तब तुम ज्यादा पीते हो, जब तनाव के दिन नहीं
होते तो तुम कम पीते हो। कभी—कभी ऐसा भी हो जाता है, अगर तुम
खुश हो, तो पीते ही नहीं; दिन निकल
जाता है, याद भी नहीं आती। जितनी चिंता होती है, उतना ही ज्यादा पी लेते हो। तमाखू भी जिस दिन चिंता पकड़ती है, ज्यादा खा लोगे। कुछ चबाने को मुंह में पड़ा रहे, तो
तुम्हारा चित्त थोड़ा बंटा रहे।
अब
यह गीता के पति तमाखू खाते हैं। जरूर चिंता होगी। तमाखू की फिकर मत करो, तमाखू तो
मूल नहीं है, चिंता होगी कुछ। इनको इतना प्रेम दो, इनके जीवन के आसपास इतना नृत्य और संगीत बसाओ कि चिंता कम हो जाए। चिंता
कम हो जाए तो तमाखू खाना अपने आप बंद हो जाएगा। और न भी हो, तो
तमाखू ही खाते हैं, कोई और बड़ी, कोई
बड़ा भारी उपद्रव नहीं कर रहे हैं। चलेगा। इतनी कुछ बेचैनी की बात नहीं है। दो कौड़ी
की बातें हैं। दो कौड़ियों की बातों पर बहुत बल मत लगाओ। नहीं तो अक्सर होता है कि
छोटी बातों पर बड़ी चीज चूक जाती है।
मैं
देखता हूं पति—पत्नियों में बहुत छोटे—छोटे झगड़े हैं, और सारा
जीवन नष्ट हो गया! उन्हीं छोटे —छोटे झगड़ों में। कुछ बड़ी बात भी न थी। अगर उनसे
पूछो कि क्या झगड़े का कारण है? तो वे भी संकोच करते हैं,
कहते हैं कि यह तो कुछ खास बड़ी बात.। जब बड़ी बात नहीं है तो तुम
जिंदगीभर लड़ते कैसे रहे?
अब
तमाखू कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। कोई हत्या तो नहीं करते किसी की, कोई जुआ
नहीं खेलते, कोई शराब नहीं पी रहे हैं, कोई ऐसा कोई बड़ा भारी काम नहीं है, तमाखू चबा रहे
हैं। चिंता होगी। चिंता पर थोड़ा फिकर करो। अगर पत्नी में थोड़ी समझ हो तो वह फिकर
करेगी कि पति चिंतित हुए, यह तमाखू का चबाना सिर्फ खबर दे
रहा है। अब तुम अगर इनके पीछे पड़ गए कि तमाखू छोड़ो, यह और
चबाने लगेंगे, क्योंकि तुम चिंता इनकी बढा रहे। कम नहीं कर
रहे। इनकी चिंता और बढ़ी कि अब यह और एक मुसीबत आ गयी कि अब तमाखू छोड़ो। यही तो एक
सहारा था इनका। मूढ़तापूर्ण सहारा है, कोई बड़ी बुद्धिमत्ता की
बात नहीं है तमाखू खाना, मगर यह इन्हीं को समझने दो। यह बोध
इन्हीं को आने दो।
सदा
ध्यान रखो, दूसरे व्यक्ति के जीवन में बहुत हस्तक्षेप करना सदव्यवहार नहीं है। और उन
लोगों के जीवन में हस्तक्षेप करना जो तुम्हारे प्रेमपात्र हैं, एकदम गलत है। उनको स्वतंत्रता दो। उनको स्वयं होने का हक दो। और तुम्हारे
और तुम्हारे पति के बीच ऐसा कोई तनाव न बने, किसी छोटी बात
का तनाव न बने, तो तुम्हारे द्वार खुले रहेंगे। प्रेम बढ़ेगा,
प्रेम सघन होगा, तुम दोनों एक—दूसरे के प्रति
आनदभाव से मग्न होओगे, तो शायद तमाखू छूट जाएगी। छूट जानी चाहिए।
और अगर न छूटे तो कुछ परेशान होने का कारण नहीं है। मेरी दृष्टि को समझना!
फिर
दूसरी बात मैं कहना चाहूंगा, यह तुम्हारे पति को पता चलना चाहिए कि उसकी
तकलीफ क्या है, वह मुझसे पूछे। उसके पास जबान है, उसके पास बुद्धि है। उसे पूछने दो। प्रत्येक को मुझसे सीधा जुड्ने दो,
बीच के मध्यस्थ कोई न बनें। अगर शरमाता है पूछने में, तो छोड़ो। जब उसकी शरम मिटेगी, पूछेगा। यहां मेरे
होने का उपयोग ही यही है कि तुम अपने जीवन की समस्याओं को मुझसे सीधा—सीधा रख लो,
शायद मैं कुछ सलाह दूं वह काम पड़ जाए।
और
ध्यान रखना, मैं सिर्फ सलाह देता हूं मैं आदेश नहीं देता। मैं ऐसा नहीं कहता कि ऐसा
करो ही। और मैं ऐसा भी नहीं कहता कि ऐसा न किया तो कोई बहुत बड़ी दुर्घटना हो जाने
वाली है। कुछ नहीं हो जाने वाला है। आदमी के पाप इतने साधारण हैं कि नरक की तो तुम
फिकर छोड़ दो, नरक तो तुम जाने वाले नहीं। क्योंकि मैं मानता
हूं कि परमात्मा, अस्तित्व की करुणा इतनी अपार है कि तुमने
छोटे—मोटे उपद्रव किए कोई आदमी ताश खेलकर पैसा दाव पर लगा दिया—नरक में पड़े हैं!
तुमने कुछ ऐसा किया नहीं खास। तुम्हारे जीवन के छोटे—मोटे कृत्य क्षम्य हैं।
इसका
यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि तुम इनको करते जाओ। मैं सिर्फ इतना ही कह
रहा हूं कि इनके कारण बहुत चिंता न लो, समझ आए। ये छोटे—मोटे कृत्य हैं,
लेकिन ये तुम्हारे जीवन के आनंद को कम कर रहे हैं।
अब
जैसे एक आदमी को चिंता पकडती है, बेचैनी पकड़ती है और वह सिगरेट पीने लगता है;
तो सिगरेट पीने से बेचैनी तो मिटेगी नहीं, सिर्फ
बेचैनी भूल जाएगी थोडी देर के लिए। यह कोई बुद्धिमानी न हुई। अगर बेचैनी है तो
बेचैनी को समझने की कोशिश करो—क्यों है? उसके कारण में उतरो।
उसका निदान करो। बिना बेचैनी के जीने की संभावना है, ध्यान
करो। जितनी देर सिगरेट पीते हो, उतनी ही देर अगर ध्यान कर लो
तो तुम्हारा जीवन रूपांतरित हो जाए। जितनी देर तुम तमाखू चबाते हो, उतनी देर अगर साक्षीभाव रख लो, तो तुम्हारे तनाव
विसर्जित हो जाएं, सदा के लिए विसर्जित हो जाएं। फिर ये छोटे—मोटे,
बच्चों जैसे उपाय करने की जरूरत न रहे। ये उपाय करने पड़ रहे हैं,
उससे पता चलता है कि तुम्हारी चेतना का तल बड़ा नीचा है। नरक तुम
जाओगे, यह मैं नहीं कहता, लेकिन
तुम्हारी चेतना का तल इतना नीचा है कि तुम इस जीवन में निरानद जीओगे। तुम्हारे
जीवन में आनंद न हो सकेगा।
तो
मैं यह नहीं कहता कि तमाखू खाना पाप है। मैं कहता हूं, तमाखू
खाना मूढ़ता है, बुद्धिहीनता है, बोध की
कमी है। पाप तो मैं कहता ही नहीं। पाप में तो निंदा हो गयी। पाप में तो दंड हो गया।
आखिरी प्रश्न
जिसे
सनाने को अति आतुर
आकुल यग—यग से
मेरा उर
एक गीत सपनों का,
आ, तेरी
पलकों पर गाऊं
आ, तेरे उर
में छिप जाऊं!
फिर न पड़े जगती
में गाना
फिर न पड़े जगती
में आना
एक बार तेरी गोदी
में
सोकर फिर मैं जाग
न पाऊं,
आ, तेरे उर
में छिप जाऊं!
ठीक है आकांक्षा। ऐसा हो सकता है। लेकिन बुद्ध के
मार्ग पर प्रार्थना करने से कुछ भी नहीं होता। बुद्ध के मार्ग पर तो ध्यान करना
होगा। तुम्हारे गीत का स्वर प्रार्थना का है। तुम कहते हो—
'जिसे
सुनाने को अति आतुर
आकुल युग—युग से
मेरा उर
एक गीत सपनों का
आ, तेरी
पलकों पर गाऊं
आ, तेरे उर
में छिप जाऊं !'
बुद्ध
के मार्ग पर प्रार्थना से कुछ द्वार नहीं खुलता। प्रार्थना करने से बुद्ध कहते हैं, कुछ भी न
होगा। प्रार्थना तो वासना का ही छिपा रूप है।
इसलिए
तुम कहते हो
'फिर न पड़े
जगती में गाना
फिर न पड़े जगती
में आना'
—यह भी आकांक्षा ही है। बुद्ध कहते हैं, जब तक
तुम्हारे मन में यह आकांक्षा है कि फिर न पड़े जगती में आना, तब तक तुम आते रहोगे। तब तक आना ही पड़ेगा। यह वासना भी जाने दो। तुम
निर्वासना होकर जीओ, तुम यहां इस क्षण जीओ—शांत, प्रसन्न, आनंदित—नहीं आओगे। लेकिन इसको जीवन का
लक्ष्य मत बना लो कि फिर न आना पड़े। क्योंकि अगर फिर न आना पड़े, यह तुम्हारे जीवन का लक्ष्य हो गया, तो इसी से चिंता
पैदा होगी, इसी से तनाव पैदा होगा, इसी
से घबड़ाहट पैदा होगी कि सफल हो पाऊंगा कि असफल हो जाऊंगा, ऐसा
होगा कि नहीं होगा; कैसे होगा, कैसे न
होगा। तुम फिर चक्कर में पड़ गए, फिर संसार शुरू हो गया।
मोक्ष के नाम पर भी संसार शुरू हो जाता है। धन के कारण ही लोग दीवाने नहीं हैं,
धर्म के कारण भी दीवाने हैं।
बुद्ध
की तो बात बड़ी साफ—सुथरी है, गणित जैसी, विज्ञान जैसी।
बुद्ध कहते हैं, वासना भटकाती है। समस्त वासना भटकाती है।
निरपवाद रूप से हर एक वासना भटकाती है, यह भी वासना है—फिर न
पड़े जगती में आना। यह भी वासना है। क्यों? क्यों फिर न आना
पड़े? यह आग्रह क्यों? यह जिद्द क्यों?
बुद्ध
कहते हैं, कोई भी वासना हो, वह संसार बना देती है। तुम वासना
के प्रति जाग जाओ और समझो कि हर वासना से पीड़ा पैदा होती है, चिंता पैदा होती है, तनाव पैदा होता है, संताप पैदा होता है, तो फिर ऐसे जीओ कि बिना किसी
वासना के। क्षण— क्षण जीओ, क्षण के आगे की मांग मत करो। एक—एक
पल गुजरने दो, उस पल से ज्यादा मांगो ही मत। कुछ मांगो ही मत,
जी लो, साक्षीभाव से, द्रष्टा
बनो। और तुम पाओगे, धीरे— धीरे यही द्रष्टा का भाव इतना सघन
हो गया कि इसी द्रष्टा के भाव में तुम संसार के पार हो गए। फिर न आना पड़ेगा।
संसार
में रहते हुए संसार से मुक्त हो जाने का उपाय है। यहां रहते हुए यहां से बाहर हो
जाने का उपाय है। जैसे जल में कमल अलग हो जाता है, ऐसे ही साक्षीभाव है।
बुद्ध
का सारा उपदेश जागरूकता,
चैतन्य, साक्षीभाव के लिए है। प्रार्थना की
वहा कोई गुंजाइश नहीं है। ध्यान और समाधि उनके वचनों का सार है।
आज इतना ही।
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