बुधवार, 12 अप्रैल 2017

साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)-प्रवचन-11



साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)
ओशो
ग्यारहवां प्रवचन
वह शांति का अनुभव आपके भीतर सत्य की प्यास बन जाए, तो ठीक, अगर आप समझ लें कि वही सत्य है, तो आप भूल में पड़ गए हैं और भ्रांति में पड़ गए हैं। वह सत्य नहीं है। उससे केवल प्यास पैदा होनी चाहिए कि जो इस व्यक्ति के भीतर उपलब्ध हुआ है, वह मेरे भीतर कैसे पैदा हो जाए? वह व्यक्ति जो आपके भीतर इस भांति की प्यास, असंतोष पैदा कर देता है, ठीक अर्थों में आपका सहयोगी है। और जो व्यक्ति इस भ्रांति को पैदा करता है कि आपको मैं सत्य दे दूंगा। उससे बड़ा शत्रु इस जमीन पर आपका दूसरा नहीं हो सकता है।
मेरी दृष्टि में जो दिखाई पड़ता है, सीखने का मूल्य है। डिसाइपलशीप का, शिष्य होने का मूल्य है। लेकिन गुरु बनाने का कोई मूल्य नहीं है। और गुरु होना तो बहुत मूर्खतापूर्ण बात है। बहुत ईडियाटिक है।

कोई आदमी इस खयाल में हो कि मैं किसी का गुरु बन जाऊं, यह आदमी तो बहुत इम्मैच्योर है, इसकी तो अभी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई, अभी यह बहुत बच्चे जैसा है। किसी को नीचे बिठालने का, पैर छुलाने का मजा लेना चाहता है, और इसे कोई अर्थ नहीं। इसकी बातों का कोई बहुत मूल्य नहीं हो सकता।
इसलिए मैंने कहा: आध्यात्मिक जीवन में कोई गुरु नहीं होता। शिष्य होते हैं। वे भी गुरु से नहीं बनते, ज्ञान की खोज करते हैं और जहां से मिल जाए--अज्ञात श्रोतों से, अज्ञात लोगों से, अज्ञात घटनाओं से, उनका हृदय खुला होता है और वे लेने को राजी होते हैं।

और प्रश्न पूछा है: मेरे खयाल से साधकों की भिन्न-भिन्न प्रकृति होती है। ज्ञान, भक्ति या कर्म से स्व-चेतन में जागरण का होता है, क्या आप स्वीकारते हैं? क्योंकि भक्ति की अनन्य उपासना से भी साधक स्व-चेतन पूर्णरूपेण जाग्रत होता है।

मेरी दृष्टि में कोई ज्ञान, भक्ति और कर्म अलग बातें नहीं हैं। ऐसा समझा जाता रहा है कि तीनों अलग बातें हैं। मेरी दृष्टि में तीनों बातें अलग नहीं हैं।
अगर ज्ञान न हो, तो भक्ति अंधी होगी। और अंधी भक्ति कहीं भी नहीं ले जा सकती है। अगर भक्ति न हो, तो ज्ञान बिलकुल रूखा और मानसिक होगा, उसमें कोई गहराई नहीं हो सकती, हार्दिक उसके भीतर कोई जड़ें नहीं हो सकतीं। अगर अकेला कर्म हो, भक्ति न हो, ज्ञान न हो, तो कर्म अंधा होगा, रस-शून्य होगा, हृदय-रिक्त होगा, वैसा कर्म भी कहीं नहीं ले जाता है।
अगर अकेला ज्ञान हो, कर्म न हो, तो वैसा कर्म, वैसा ज्ञान वंध्वा होगा, उससे कोई सृजनात्मकता, कोई क्रिएटिविटी पैदा नहीं होती। वह केवल मानसिक खयाल होगा। जीवंत नहीं होगा, लिविंग नहीं होगा। कर्म उसे जीवंत गुण देता है।
ये तीनों अलग हैं, यह बात ही बड़ी गलत है। ये तीनों बिलकुल संयुक्त और इकट्ठे हैं।
ऐसा कोई मनुष्य देखा है जो केवल हृदय हो? ऐसा मनुष्य नहीं हो सकता। हां, कहीं किसी यंत्र में हृदय को निकाल कर रखा जा सकता है और कृत्रिम रूप से चलाया जा सकता है, लेकिन अकेला हृदय हो ऐसा कोई मनुष्य नहीं हो सकता।
ऐसा कोई मनुष्य देखा है जो अकेला मस्तिष्क हो? या ऐसा कोई मनुष्य देखा है जो अकेला कर्म हो? ऐसा कोई मनुष्य नहीं होता।
मनुष्य तीनों का जोड़ है, संयुक्त समन्वय है।
आप कहेंगे, किसी में कर्म की प्रभावना होती है, किसी में ज्ञान की, किसी में हृदय की, भाव की। मैं कहूंगा, अगर एक भी अंग इनमें से प्रधान है, तो वह मनुष्य अभी ठीक से संयम को, संतुलन को उपलब्ध नहीं हुआ। अभी वह आदमी बीमार है। जैसे एक बच्चे का सिर बहुत बड़ा हो जाए और हाथ-पैर बिलकुल छोटे रह जाएं, जैसे हमारे पंडित हैं। उनका सिर तो बहुत बड़ा हो जाता और सब छोटा रह जाता। जैसे किसी के हाथ-पैर तो बहुत बड़े-बड़े हो जाएं और सिर बिलकुल छोटा रह जाए, ऐसे हमारे कर्मयोगी हैं। वे जो कर्मनिष्ठ मालूम होते हैं, वे हैं। और जैसे किसी में केवल भाव ही भाव रह जाएं, रोता हो, गाता हो, कविता करता हो और जीवन में कुछ भी न हो। भजन करता हो, चिल्लाता हो, कूदता-फांदता हो, ऐसे हमारे तथाकथित भक्त हैं, कवि। ये जीवन के अपंग जीवन के उदाहरण हैं। ये कोई भी ठीक-ठीक संयम को, संतुलन को, बैलेंस को, जीवन की सिंथिसिस को उपलब्ध हुए लोग नहीं हैं। ये सब अधूरे विकास हैं।
मेरी दृष्टि में संपूर्ण रूप से मनुष्य का व्यक्तित्व तभी विकसित होता है, जब ये तीनों एक समवेत स्वर को उपलब्ध हो जाते हैं। जब एक हार्मनी को, एक संगीत को, इन तीनों के भीतर उपलब्ध हो जाता है। लेकिन उस संगीत का प्रारंभ, न तो मैं मानता हूं ज्ञान है, न मैं मानता हूं भक्ति है, न मैं मानता हूं कर्म है। मैं तो ध्यान को मानता हूं। ध्यान तीनों का प्राण है। अगर कर्म में ध्यान हो, तो कर्म करने योग्य हो जाता है। अगर प्रेम ध्यानयुक्त हो, तो प्रेम भक्ति हो जाता है। अगर ज्ञान ध्यानपूर्ण हो, तो ज्ञान ज्ञानयोग हो जाता है। ध्यान इन तीनों को जोड़ने वाला सेतु, इन तीनों के भीतर प्रवाहित होने वाला आंतरिक हृदय है।
ध्यान न तो ज्ञान है, क्योंकि कोई ग्रंथ पढ़ने से ध्यान नहीं उपलब्ध होता। और न ध्यान भक्ति है। क्योंकि गिड़गिड़ाने से और प्रार्थना करने से, नाचने से, कूदने से और संगीत में अपने को भुलाने से कोई ध्यान उपलब्ध नहीं होता। वरन क्या होता है, वह मैं कहूंगा। और न ही ध्यान मात्र कर्म है कि कोई कर्मठ हो, सेवा करे या कुछ करे, तो ध्यान उपलब्ध हो जाता है। ध्यान तो एक अलग बिंदु है, वह तो जीवन में साक्षीभाव को स्थापित करने से उपलब्ध होता है। अगर कोई अपने कर्म के जीवन में साक्षीभाव को उपलब्ध हो जाए, जो भी करे, उसका साक्षी भी हो, तो कर्म ही धर्म का अंग हो जाएंगे। तब सेवा धर्म हो जाएगी। तब जो किया जा रहा है वह धर्म हो जाएगा। जापान में एक साधु था, लिंची। किसी ने उससे पूछा कि तुम क्या करते हो? क्या है तुम्हारी साधना? क्या है तुम्हारा योग?
लिंची ने कहा: पूछते हैं क्या करता हूं? नहीं; धर्म मेरे लिए कोई विशेषरूप का करना या कर्म नहीं है, वरन जो भी करता हूं उसे बोधपूर्वक करता हूं। सुबह झाडू लगाता हूं, तो उसे भी बोधपूर्वक लगाता हूं। बगीचे में जाकर गङ्ढा खोदता हूं, तो उसे भी बोधपूर्वक खोदता हूं। भोजन करता हूं तो भी और कपड़े पहनता हूं तो भी। चौबीस घंटे जो भी करता हूं उसे बोधपूर्वक करता हूं।
इस बोधपूर्वक करने में ही कर्म ध्यान का हिस्सा हो जाता है। प्रेम हम करते हैं, प्रेम अगर बोधपूर्वक न हो, तो वासना बन जाता है और मोह बन जाता है। प्रेम यदि बोधपूर्वक हो, तो से बड़ी मुक्ति इस जगत में दूसरी नहीं है, प्रेम भक्ति हो जाता है।
और भक्ति के लिए मंदिर जाने की जरूरत नहीं है। भक्ति के लिए प्रेम का ध्यानयुक्त होना जरूरी है। अगर आप अपनी बच्चे को, अपनी पत्नी को, अपनी मां को, अपने मित्र को, किसी को भी प्रेम करते हैं, अगर वही प्रेम ध्यान से संयुक्त हो जाए, अगर उसी प्रेम के आप साक्षी हो जाएं, तो वही प्रेम भक्ति हो जाएगा। प्रेम जब बोधपूर्वक हो, तो भक्ति हो जाता है। प्रेम जब अबोधपूर्वक हो, तो मोह हो जाता है। ज्ञान जब बोधपूर्वक हो, तो मुक्त करने लगता है और ज्ञान जब अंधा हो, मर्ूच्छित हो, तो बांधने लगता है। वैसे ही अगर कोई विचारों को इकट्ठा करता रहे, शास्त्र पढ़ता रहे, व्याख्याएं पढ़ता रहे, विश्लेषण करता रहे, तर्क करता रहे और सोचे कि ज्ञान उपलब्ध हो गया, तो गलती में है। वैसे ज्ञान नहीं उपलब्ध होता, केवल ज्ञान का बोझ बढ़ जाता है। वैसे मस्तिष्क में कोई चैतन्य का संचार नहीं होता, केवल उधार विचार संगृहीत हो जाते हैं। लेकिन अगर ज्ञान के बिंदु पर ध्यान का संयोग हो, साक्षी का संयोग हो, तो फिर विचार तो नहीं इकट्ठे होते, बल्कि विचार-शक्ति जाग्रत होना शुरू हो जाती है। तब फिर बाहर से तो शास्त्र नहीं पढ़ने होते, भीतर से सत्य का उदघाटन शुरू हो जाता है।
मेरी दृष्टि में ध्यान एकमात्र योग है। न तो कर्म कोई योग है, न भक्ति कोई योग है और न ज्ञान कोई योग है। ध्यान योग है। और आपकी प्रकृति कुछ भी हो, ध्यान के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है।
ध्यान को छोड़ कर जो किसी भी मार्ग को पकड़ने के खयाल में हो, वह भूल में पड़ जाएगा। भूल में पड़ना सुनिश्चित है। क्योंकि तब ध्यान से रिक्त होकर, अगर उसने कर्म किया, तो कर्म ही उसके अहंकार को मजबूत करने का साधन हो जाएंगे। हम जो भी कर्म करते हैं, प्रत्येक कर्म की सफलता में हमें रस आता है। और असफलता में विषाद होता है, दुख होता है। यदि ध्यानयुक्त कर्म न हो तो। जैसा मैंने दोपहर को कहा: अगर ध्यान उपलब्ध हो तो कर्म अनासक्त हो जाएंगे। अगर ध्यान उपलब्ध न होगा, तो कर्म किसी न किसी रूप में आसक्त होंगे। और आसक्त कर्म यदि सफल हो, तो सुख मिलता है, असफल हो जाए तो दुख मिलता है। फिर चाहे वह दुकान हो, चाहे आश्रम हो। फिर चाहे वह पैसा कमाना हो, चाहे सेवा करना हो। अगर सफलता में सुख मिलता है, असफलता में दुख मिलता है, तो कर्म हमारा आसक्त है। और आसक्त कर्म मुक्ति नहीं ला सकता। लेकिन ध्यान उपलब्ध हो, तो कर्म अनासक्त हो जाएगा और कर्म मुक्ति लाने का मार्ग हो जाएगा। लेकिन मूलतः मार्ग होगा ध्यान, कर्म नहीं।
अब कोई भक्ति करता हो, प्रार्थना करता हो, भगवान के मंदिर में जाता हो, पूजा करता हो, गीत गाता हो, नाचता हो, संगीत में धुन लगाता हो, वह आदमी मर्ूच्छित हो जाएगा इन सब बातों से। संगीत मर्ूच्छा लाता है, इसलिए सुखद मालूम होता है। जब आप संगीत सुनते हैं, तो उसका रस आपके भीतर मर्ूच्छा लाता है। कभी आपने खयाल नहीं किया। अगर कोई आपसे कहे कि भोजन करने में खूब रस लो और अच्छे-अच्छे भोजन करो, तो भगवान मिल जाएगा, तो आप शायद राजी नहीं होंगे कि ऐसे कैसे मिल जाएगा। अगर कोई कहे कि बहुत अच्छे-अच्छे मखमली वस्त्र पहनो, उनके स्पर्श का आनंद लो, बहुत बढ़िया गद्दों पर सोओ, बहुत बड़े महलों में रहो, तो भगवान मिल जाएगा, तो आपको विश्वास नहीं होगा। क्योंकि आप कहेंगे कि यह तो इंद्रिय सुख है। लेकिन संगीत पर आपने खयाल किया? वह भी कान की इंद्रिय का सुख है और कुछ भी नहीं है। भोजन सुख है वह भी इंद्रिय का है, वस्त्र सुख है वह भी इंद्रिय का है, सेक्स सुख है वह भी इंद्रिय का है, संगीत सुख है वह भी इंद्रिय का है। लेकिन संगीत को आप समझते हैं वह कोई आध्यात्मिक बात हो गई। वह भी आपकी ध्वनि के रस, कान पर पड़ी हुई मधुर ध्वनियों का रस है। उससे आपकी कान की इंद्रिय प्रभावित हो रही है और सुख में जा रही है। फिर जब आप किसी भी चीज में प्रभावित होते हैं, तो तल्लीन हो जाते हैं। तल्लीन होने से भ्रांति पैदा होती है। तल्लीन होने से सारी दिक्कत पैदा होती है। धर्म का संबंध तल्लीनता से नहीं, जागरूकता से है। तल्लीनता तो एक तरह की मर्ूच्छा है। तल्लीनता का अर्थ है: दूसरी किसी बात में अपने को खो देना, भूल जाना। वह एक तरह की फॉरगेटफुलनेस है। और जब भी हम किसी चीज में अपने को भूलते हैं तो सुख मिलता है, क्योंकि दिन-रात अपने से ऊबे हैं और परेशान हैं। चौबीस घंटे की चिंताएं घबड़ाए हुए हैं, परेशान किए हुए हैं।
एक आदमी सिनेमा देखने चला जाता है, तीन घंटे भूल जाता है कि मैं हूं। वह सोचता है कि कहानी बहुत अच्छी थी चित्र की, इसलिए बहुत आनंद आया। असली आनंद यह नहीं है। असली आनंद का कारण यह है कि चौबीस घंटे की ऊब, बेचैनी, अपने से घबड़ाया हुआ पन, वह तीन घंटे को भूल गया, उसे खयाल नहीं रहा कि मैं कौन हूं। मैं कौन हूं उसे खयाल नहीं रहा तीन घंटे। इस तीन घंटे के विस्मरण ने उसे चिंता से मुक्त कर दिया, वह सोचता है बहुत आनंद आया।
इसलिए सारी दुनिया में लोग शराब पीते हैं और नशा करते हैं ताकि अपने को भूल जाएं। अपने को भूल जाने में सुख मिलता है। सेक्स का, कामुकता का इतना आकर्षण है, क्योंकि हम अपने को भूल पाते हैं। जिन-जिन चीजों से हम अपने को भूल जाते हैं, उन्हीं-उन्हीं चीजों में रस है। अगर भक्ति ध्यानपूर्वक न हो, तो भक्ति भुलाने का उपाय है, अपने को भुलाने का उपाय है। आप उतनी देर अपने को भूल जाते हैं। और जितनी देर आप अपने को भूल जाते हैं, उतनी देर इसी खयाल में न रहना कि आप परमात्मा के निकट हैं। क्योंकि जो आदमी अपने को भूल गया, वह अपने ही निकट नहीं, परमात्मा के निकट कैसे होगा? परमात्मा के निकट होने के लिए पहले अपने निकट होना जरूरी है। तो जो भी चीज आपको भुलाती है वह स्वयं से दूर कर रही है, स्वयं के निकट नहीं ला रही।
धर्म का संबंध आत्म-विस्मरण से नहीं, सेल्फ-फॉरगेटफुलनेस से नहीं, बल्कि सेल्फ-रिमेंबरिंग, आत्म-स्मरण से है। जितना आपको स्व-बोध स्मरण में आएगा, उतने ज्यादा आप स्वयं के निकट और परमात्मा के निकट होंगे। जितना ज्यादा आप अपने को भूलेंगे, उतने ही ज्यादा आप स्वयं से दूर होंगे और परमात्मा से दूर होंगे।
परमात्मा के निकट होने का द्वार स्वयं के भीतर है। वह स्व-बोध है। वह कांशसनेस है। वह जो चेतना है आपके भीतर वह है। इस चेतना को डुबाने की कोशिश मत करिए। इस चेतना को डुबाने के सब उपाय इंटाक्सिकेंस हैं, सब नशे हैं। फिर चाहे वह संगीत का हो, चाहे भजन-कीर्तन का हो, चाहे...
जब कोई आदमी गांजा पी ले, भांग पी ले, या मैक्सलीन पी लेता है, या बहुत पुराने दिनों में हम सुनते हैं, सोमरस पी लेते थे, या अभी अमेरिका में नई-नई ईजादें--लिसर्जिक एसीड है, उसको ले लें, या अभी एक नया इंजेक्शन उन्होंने बनाया, मैक्सलीन है, उसका इंजेक्शन लगवा लें, छह घंटे के लिए आप बिलकुल तल्लीन हो जाएंगे।
सारी दुनिया के भक्ति-पंथों ने किसी न किसी रूप में नशे का उपयोग करना शुरू कर दिया। संगीत में भी नशे की तरकीब दिखाई पड़ी, सारे भक्ति-पंथों ने संगीत का उपयोग शुरू कर दिया।
जिस चीज में भी भुलाने का उपाय है, उसका उपयोग शुरू हो गया।
ये, ये कोई आप, मैं एक मंदिर में गया था पीछे, वहां मैंने देखा, सब तरफ से द्वार बंद हैं, अंदर बहुत धूप जल रही है, दीप जल रहे हैं, उनकी गंध तेजी से फैल रही, तेज गंध भी बेहोश करती है। इसलिए सारी दुनिया के भक्ति-पंथ तेज गंध का उपयोग करते हैं। गंध बेहोश करती है, मर्ूच्छा लाती है। अगर बहुत तीव्र गंध हो, आप मर्ूच्छित हो जाएंगे। तो वहां तीव्र गंध है, द्वार सब बंद हैं, दीवालें बड़ी हैं, कहीं से कोई रास्ता नहीं निकलने का, गंध भरी हुई है जोर से, गंध मर्ूच्छित कर रही। फिर जोर से बैंड बजाए जा रहे, संगीत हो रहा, नृत्य हो रहा है एक पुजारी का, और सारे लोग खड़े हैं मंत्रमुग्ध। मैंने वहां चेहरे देखे, वे चेहरे मुझे सब हिप्नोटाइज्ड मालूम हुए, वे सब चेहरे आत्म-सम्मोहित मालूम हुए। वे होश में नहीं हैं। और बेहोशी का सब इंतजाम है।
इसको मैं भक्ति नहीं कहता। इसको कहते रहे होंगे आप, मैं इसको भक्ति नहीं कहता। यह तो सब मर्ूच्छा है। यह तो अपने को भुलाना है।
मैं तो भक्ति कहता हूं उस प्रेम को जो ध्यानयुक्त हो जाए। प्रेम जब ध्यानयुक्त होता है तो भक्ति बन जाता है।
रामानुज एक गांव में गए। एक व्यक्ति ने उनसे आकर कहा कि मुझे ईश्वर को खोजना है, मुझे भक्ति का कोई रास्ता बता दें। रामानुज ने उस व्यक्ति को देखा और कहा: तुम किसी को प्रेम करते हो?
उस आदमी ने सोचा, प्रेम करना तो डिसक्वालिफिकेशन होगी, यह तो एक अयोग्यता होगी। मैं कहूं कि मैं प्रेम करता हूं किसी को, शायद ये कहेंगे, भागो यहां से। अब ये सब प्रेम-वगैरह छोड़ कर आओ, तब भक्ति हो सकती है। भगवान को चाहना हो और प्रेम किए जा रहे हो। तो उसने कहा: मैं तो कभी किसी को प्रेम किया ही नहीं।
तो रामानुज ने कहा: थोड़ा सोचो, किसी को थोड़ा-बहुत कभी किया हो?
उसने कहा: आप बिलकुल सच मानिए, रत्ती भर कभी ये प्रेम के झंझट में मैं पड़ा ही नहीं, मैंने कभी किसी को प्रेम किया ही नहीं।
रामानुज ने कहा: फिर एक मौका देता हूं कि थोड़ा सोचो?
उसने कहा: आप बिलकुल पक्का मानिए। उसने रामानुज के पैर पकड़ लिए कि आप शक क्यों करते हैं, मैंने कभी प्रेम, प्रेम का मुझे पता ही नहीं क्या होता है?
रामानुज ने कहा: मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। जब तुम्हें प्रेम का ही पता नहीं, तो भक्ति का कैसे पता होगा? तुमने अगर किसी को प्रेम किया होता, तो वही प्रेम भक्ति बनाया जा सकता था। वह प्रेम में काफी ताकत थी, उसमें और ध्यान जोड़ देते तो वह भक्ति बन जाता। लेकिन तुम कहते हो, तुमने प्रेम ही नहीं किया, तो अब मैं असमर्थ हूं। अब कुछ भी नहीं किया जा सकता। तुम जाओ, पहले प्रेम करो। पहले प्रेम को अनुभव करो।
मैं नहीं मानता हूं कि आप जो प्रेम करते हैं वह कोई परमात्मा के विरोध में है, वह भी परमात्मा की दिशा में गति है और चरण है। अधूरा चरण है। पूरा नहीं है। उस पर ही रुक जाएंगे तो भूल हो जाएगी। उसके विरोध में चले जाएंगे तो भी भूल हो जाएगी। वह जो प्रेम हमारे भीतर बह रहा है अभी अंधा है, मोहग्रस्त है, उसे ध्यान के द्वारा अंधेपन से और मोह से मुक्त कर लें, वही प्रेम परिशुद्ध होकर भक्ति हो जाता है।
तो जिनको आप प्रेम करते हैं, उनके प्रति अगर प्रेम परिशुद्ध हो जाए, उन्हीं के भीतर भगवान के दर्शन शुरू हो जाते हैं। भगवान के लिए कोई अलग, कोई मंदिर बनाने की और मूर्ति खड़ी करने की जरूरत नहीं है। यह सब जो विभक्तिवादी लोगों की करतूत है कि उन्होंने मंदिर अलग कर दिया है मकान से और भगवान अलग कर दिया है मनुष्य से। यह बड़ी अजीब बात है।
भगवान अगर है, तो सबमें समाहित है। तो मैं जिसको भी प्रेम करूं, उसके भीतर भी भगवान है। अगर भगवान कहीं भी है, तो उसके भीतर भी है। लेकिन मेरा प्रेम अंधा है, इसलिए शरीर से लौट आता है। अगर प्रेम जाग्रत हो जाए, तो उस व्यक्ति के शरीर को पार कर जाएगा और जहां उसकी आत्मा है, जहां परमात्मा है, वहां तक उसके संपर्क शुरू हो जाएंगे।
प्रेम में केवल देह दिखाई पड़ती है, तथाकथित प्रेम में, मोहग्रस्त प्रेम में। और उसी के भीतर भक्ति उत्पन्न हो जाए, तो देह तो विलीन हो जाती और भीतर आत्मा के दर्शन शुरू हो जाते हैं।
प्रेम को गहरा कर लेना भक्ति है। और प्रेम को होशपूर्वक...
पूर्ण मनुष्य का जन्म होता है। बाकी सब अधूरे मनुष्य होते हैं। उन सबके भीतर अपंग स्थितियां होती हैं। मनुष्य पूरा होना चाहिए। धर्म मनुष्य के भीतर परिपूर्णता के विकास का विज्ञान है। कोई अधूरे, अपंग विकास का नहीं। परिपूर्ण विकास का। उसका पूरा व्यक्तित्व अपनी परिपूर्ण गरिमा में प्रकट होना चाहिए। एक फूल की तरह उसका व्यक्तित्व खिल जाए। उसमें जितनी सुगंध है, सब फैले। उसमें जितना ज्ञान है, वह सब प्रकाश बने। उसमें जितनी शक्ति है, वह सब कर्म बन जाए। उसके भीतर कोई शक्ति न रह जाए जो कि सेवा में परिणित न हो। और उसके भीतर कोई ज्ञान की क्षमता न रह जाए, जो कि ज्योति न बन जाए। उसके भीतर कोई भावना न रह जाए, जो कि प्रेम बन कर भक्ति में परिणित न हो। पूरा मनुष्य विकसित हो तो वही मोक्ष है। मोक्ष मेरे लिए कोई भौगोलिक जगह नहीं है कि आप कहीं मरेंगे और चले जाएंगे। कोई ज्याग्रफि में खोजने से मोक्ष नहीं मिलेगा। और मिल गया, तो वे जो भौतिकवादी हैं, वे अपने यान लेकर आपसे पहले वहां पहुंच जाएंगे और आप जो अध्यात्मवादी हैं, अपने मंदिर में घंटियां बजाते रहेंगे।
कोई भौगोलिक जगत में कोई मोक्ष नहीं है। एक आंतरिक विकास की चरम अवस्था है। एक मानसिक, आध्यात्मिक, शारीरिक। जो हम जीवन जानते हैं उसकी परिपूर्ण विकास का एक बिंदु है, जहां जाकर आपके भीतर सब पूरा हो जाता है। पूर्णता मुक्ति है। अपूर्णता बंधन है। जितने आप अपूर्ण हैं, उतने बंधे हुए होंगे, उतनी आपकी सीमा होगी। जितने आप पूर्ण होंगे, उतने आप बंधन के बाहर होंगे। जिस दिन आप परिपूर्ण होंगे कि आपके भीतर अब विकास के लिए कोई कोना नहीं रह जाए, अंधकार के लिए कोई स्थान न रह जाए, अज्ञान के लिए कोई हिस्सा न रह जाए, कोई सीमा न रह जाए आपके भीतर, आपकी संपूर्ण शक्तियां अपनी समग्रता में विकसित हो जाएं, उसी क्षण आप मुक्त हो जाएंगे। पूर्णता मुक्ति है। और पूर्णता के लिए बड़ा इंटिग्रेटिड, बड़ा संयुक्त मार्ग है। कोई ज्ञान, भक्ति और ये कर्म के अलग-अलग मार्ग नहीं हैं। मार्ग तो एक है। और वह है ध्यान का। वह है होश का। वह है जागृति का। वह है आत्म-स्मरण का। वह है अवेयरनेस का। वह है अमर्ूच्छा का। अप्रमत्त जितने आप होते जाएंगे, जितना होश जगता जाएगा, उतना ही आपके जीवन में पूर्णता निकट आती जाती है।
मेरी दृष्टि में जो है वह मैंने आपसे कहा। कोई मेरा किसी भी मामले में यह आग्रह नहीं कि मेरी बात को मान लें, आग्रह कुल इतना: उसे विचार करें, सोचें, उसे समझें।

अंतिम एक प्रश्न और, चर्चा कर लेता हूं, फिर हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
ग्रंथगुरु, शरीर, धन, स्त्री, पुत्र, परिवार, भोजन, मकान और सारी सृष्टि में हम संतुष्टि या लड़ने की, त्यागने की, घृणा या उपलब्धि की वस्तु न मानें, तो उनके प्रति हमारा दर्शन किस तरह का होना चाहिए, जिससे दोनों दोषों से बच जाएं।

मैंने कल कहा: संतुष्टि के लिए, भोग के लिए, सुख के लिए जो आदमी खोज कर रहा है, वह भ्रांति में है। और मैंने साथ में यह भी कहा कि उन्हें छोड़ने के लिए लड़ने में जो लगा है, संघर्ष कर रहा है, संन्यासी बन रहा है, विरागी बन रहा है, वह मनुष्य भी भ्रांति में है। मार्ग इन दोनों के बीच में और मध्य में है। मार्ग न तो भोग है और न त्याग है। मार्ग बोध है। न भोग, न त्याग, वरन बोध की अवस्था है।
यह पूछा है कि उसके लिए इन सबके प्रति क्या दृष्टि रखनी चाहिए?
इन सबके प्रति तो दो ही दृष्टि हो सकती है: या तो भोग की या त्याग की। अगर आप फिर मुझसे पूछते हैं कि धन के प्रति, मकान के प्रति, स्त्री के प्रति क्या दृष्टि रखनी चाहिए, तो आप फिर दो ही दृष्टियों में से एक किसी विकल्प को चुनने की कोशिश में लगे हैं। सवाल इनके प्रति कोई दृष्टि रखने का नहीं, सवाल तो अपने प्रति दृष्टि रखने का है। अगर स्वयं के प्रति दृष्टि का जागरण होगा, तो इनके प्रति जो सम्यक दृष्टि है वह उपलब्धि हो जाएगी। और अगर स्वयं का जागरण नहीं हुआ, तो इनके प्रति कोई भी दृष्टि रखी जाएगी, वह या तो भोग की होगी या त्याग की होगी, दो ही दृष्टियां हो सकती हैं। या तो राग की होगी या विराग की होगी। या तो पकड़ने की होगी या छोड़ने की होगी, ये दो ही विकल्प हैं। अज्ञान में दो ही विकल्प हैं, तीसरा कोई विकल्प अज्ञान में नहीं है। अज्ञान में दो ही विकल्प हैं, या तो पकड़ो या छोड़ो। एक तीसरा विकल्प ज्ञान का है, लेकिन वह अज्ञान में विकल्प नहीं है। अज्ञान न हो, ज्ञान भीतर हो, तो तीसरा विकल्प है। फिर उस स्थिति में इन चीजों के प्रति विचार का भी, क्या दृष्टि रखना इसका भी कोई सवाल नहीं उठता।
एक छोटी सी कहानी कहूं, फिर उसे समझाऊं, तो शायद समझ में आ जाए।
एक बहुत अदभुत व्यक्ति हुआ। बहुत त्यागी था। जीवन भर त्याग किया। जीवन भर दृष्टि को शुद्ध करने की कोशिश की। समस्त परिग्रह छोड़ दिया। घर-द्वार में कुछ भी न रखा। सारी संपत्ति थी बांट दी। फिर लकड़ियां काटने लगा, उन्हीं को बेच कर जीने लगा। उसकी पत्नी भी थी। वे दोनों लकड़ियां काटते, लाते, बाजार में बेच देते। जो मिलता उससे भोजन कर लेते, जो बच जाता, सांझ को उसे बांट देते। रात खाली होकर, उनके पास कोई संपत्ति न होती, वे सो जाते।
एक बार ऐसा हुआ कि अनायास वर्षा आ गई। पांच-सात दिन तक पानी पड़ता रहा, वे लकड़ियां नहीं काट सके। पांच-सात दिन उन्हें भूखा मरना पड़ा। कोई संपत्ति उनके पास न थी। किसी से मांगने का उनका नियम न था। जब पांच-सात के बाद धूप खुली, वे फिर लकड़ियां काटने जंगल में गए। जब वे लकड़ियां काट कर भूखे और थके और सिर पर गठरियां बांधे हुए लौटते थे, तो रास्ते में एक घटना घटी, वह मैं आपसे कहना चाहता हूं। उसे थोड़ा देखने की जरूरत है। क्या उस घटना में घटा। उसके प्रति थोड़ा बोध जगाने की जरूरत है।
जब वे लौटने लगे, पति आगे है, पत्नी थोड़ी दूर पर पीछे है। पति ने राह के किनारे देखा कि किसी राहगीर की स्वर्ण की थैली गिर गई है, उसकी मोहरे छितरी हुई हैं, कुछ उसके भीतर हैं। उसके मन में तत्क्षण खयाल हुआ, मैंने तो स्वर्ण पर विजय पा ली है, मैंने तो स्वर्ण का त्याग कर दिया, लेकिन मेरी पत्नी है, अज्ञानी है, ज्यादा उसे ज्ञान नहीं, ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं, सात दिन की भूखी है, थकीमांदी है, लकड़ियां ढोकर आ रही, कहीं मन में उसके मोह आ जाए कि उठा लें, तो जीवन भर का कष्ट दूर हो जाएगा। कहीं विचार ही आ जाए तो व्यर्थ पाप हो जाएगा। उसने देखा, पत्नी अभी दूर है, जल्दी से उन मोहरों को उठाया, गङ्ढे में डाल कर मिट्टी से ढंक दिया, वह ढंक भी नहीं पाया और पत्नी आ गई। और उसने पूछा, कैसे रुके हो? क्या कर रहे हो?
सत्य बोलने का नियम था, सत्य बोलने का व्रत था, इसलिए अब असत्य भी नहीं बोल सकता था, उसे बताना पड़ा, उसे कहना पड़ा कि यहां ऐसा हुआ, स्वर्ण की मोहरें पड़ी थीं, मेरे मन को हुआ कि मैंने तो स्वर्ण पर विजय पा ली, मैं तो त्यागी हूं, लेकिन तू है अज्ञानी, और तुझे पता नहीं, तुझे यह पता नहीं है कि स्वर्ण का मोह अगर मन में पैदा हो जाए, तो पाप हो जाएगा। तू न भी उठाए लेकिन अगर विचार भी उठाने का आ गया, तो पाप हो गया। भूखी-प्यासी है, दुखी-परेशान है, इसलिए मैंने सोचा, इन्हें ढंक दूं मिट्टी से ताकि तुझे दिखाई न पड़े।
पत्नी ने यह सुना, वह अपनी गठरी लेकर आगे बढ़ गई।
उसके पति ने पूछा, तूने कुछ कहा नहीं?
देखा, तो उसकी आंख में आंसू हैं। वह बहुत हैरान हुआ! उसने कहा: रोने की क्या बात है? क्या तेरे मन में मोह आ रहा है कि वे रुपये मैंने क्यों गड़ा दिए? मिल क्यों न गए? क्या उसकी पीड़ा तुझे हो रही?
उस स्त्री ने कहा कि नहीं, पीड़ा मुझे यह हो रही है, तुम्हें अभी भी स्वर्ण दिखाई पड़ता है? और तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आती? मैं तो हैरान हो गई! तुम मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो और कह रहे हो कि मैं सोने पर मिट्टी डाल रहा हूं! वह स्वर्ण तुम्हें दिखाई पड़ता है, जीत अभी पूरी हुई नहीं।
यह त्यागी दृष्टि है कि सोने पर मिट्टी डाल दो कि दिखाई न पड़े। वह भोगी की दृष्टि है कि मिट्टी पर सोना ढांक लो कि मिट्टी दिखाई न पड़े। त्यागी की दृष्टि है, सोने पर मिट्टी डाल दो कि सोना दिखाई न पड़े। भोगी की दृष्टि है कि जहां मिट्टी है वहां भी सोने से मढ़ दो कि मिट्टी दिखाई न पड़े। सोना सोना दिखाई पड़े, मिट्टी मिट्टी दिखाई पड़े। ऐसी उनकी दृष्टियां हैं। अब यह तीसरी दृष्टि है।
यह तीसरी दृष्टि बिलकुल दूसरी बात है। सोने को छोड़ना नहीं, सोना अर्थहीन हो जाना चाहिए।
एक और छोटी घटना कहूं। एक बहुत बड़े फकीर का लड़का था। बड़ी ख्याति है उनकी, उनका लड़का था। उस लड़के को हमेशा कहते थे, गांव में कोई तुम्हें कुछ भेंट करे, कुछ करे, तो लाना मत, मुझे सोने-पैसे से बड़ा विराग है। लेकिन वह लड़का जाता और कोई उसे भेंट कर देता तो वह ले आता। तो उसके पिता ने उसे अलग कर दिया और कहा कि तुम अलग हो जाओ, तुम मोही हो, परिग्रही हो, तुम चीजों घर ले आते हो। पिता ने अलग कर दिया, तो वह पास में एक झोपड़ा बना कर रहने लगा।
एक नरेश आता था उस फकीर के पास, उसने पूछा कि तुम्हारा लड़का दिखाई नहीं पड़ता? उसने कहा कि मैंने उसे अलग किया, उसके मन में बड़ा परिग्रह भाव है। कोई कुछ दे देता है, तो ले आता है।
उस राजा ने कहा: मैं भी देखूं। वह एक बड़ा बहुमूल्य हीरा लेकर गया। वह युवा फकीर उसी फकीर का लड़का था, वह फकीर ही था, वह उस झोपड़े में बैठा हुआ था, उसके एक-दो भक्त बैठे हुए थे। इस राजा ने जाकर वह हीरा उसके चरणों में रखा। उस युवा फकीर ने कहा कि लाए भी तो एक पत्थर लाए, कुछ और लाते तो काम का भी होता। तो राजा ने सोचा, यह तो कह रहा पत्थर और इसका पिता कहता परिग्रही, कुछ बात समझ में आती नहीं। तो उसने जब लड़के ने इनकार कर दिया, युवा फकीर ने मना कर दिया, तो हीरे को उठा कर रखने लगा, तो उस फकीर ने कहा: लेकिन, अब पत्थर को बोझ यहां तक ढोया, तो लौट कर भी क्यों ढोओगे, छोड़ ही जाओ। जब पत्थर ही है, तो यहां तक एक तो भूल की कि बोझ लेकर आए और अब फिर बोझ लेकर जाओगे। छोड़ दो।
उसने सोचा कि बड़ा होशियार, बड़ा चालाक मालूम होता है। बातें फकीरी की हैं, मन तो भोग वाले का है। फिर भी उसने सोचा, ठीक है, तो उसने कहा: कहां रख दूं? तो वह युवा हंसने लगा, उसने कहा: जब तुम पूछते हो, कहां रख दूं, तो ले ही जाओ, फिर वह पत्थर नहीं है। तुम पूछते हो, कहां रख दूं, तो फिर ले ही जाओ, फिर वह पत्थर नहीं है। वह मेरी तरफ से पत्थर है तुम्हारी तरफ से कुछ और है। लेकिन राजा नहीं माना, सोचा, देखें तो, उसकी झोपड़ी में उसके सामने ही खोंस गया। सनोली की झोपड़ी थी, उसमें रख गया। और कहा: यह मैं रखे जाता हूं।
वह युवा फकीर हंसता बैठा रहा। राजा ने सोचा कि मैं गया कि थोड़ी देर में वह निकाल लेगा, लेकिन छह महीने बाद वह आया और उसने आकर पूछा कि मैं एक भेंट कर गया था, हीरा, वह कहां है? उस युवा ने कहा कि मैं कभी किसी की जीवन में भेंट लिया ही नहीं। लोग डाल जाते हैं वे जाने।
राजा ने सोचा कि मैं समझ गया, यह है तो चालाक पूरा ही। ये सारी बातें लफ्फाजी हैं। हीरा निकाल लिया गया। वह गया उसने सनोइयां हठाईं, हीरा वहीं था।
यह ज्ञानी की दृष्टि है। एक दृष्टि भोगी की है, एक त्यागी की है, एक ज्ञानी की है। ज्ञानी की दृष्टि बड़ी अलग बात है। ज्ञानी की दृष्टि को ही वितरागता कहा है। न वह राग है, न विराग है। वह वितरागता है। वह दोनों के बाहर हो जाना है। लेकिन उसमें कोई दृष्टि नहीं रखनी होती, उसमें तो स्वयं के बोध को जगाना होता है।
संसार के प्रति कोई दृष्टि नहीं बनानी है। संसार के प्रति कोई भाव नहीं बनाना है। कोई भी भाव अज्ञान में आप बनाएंगे वह गलत होगा। अपने भीतर स्वयं के बोध को जगाना है। बोध के जगने पर जो भी होगा, वही ठीक होगा।
यानी ठीक नहीं किया जा सकता अज्ञान में। अज्ञान में कोई भी संबंध ठीक नहीं हो सकता है। असम्यक दृष्टि होगी तो सब संबंध असम्यक होंगे, गलत होंगे, मिथ्या होंगे। दृष्टि भीतर शुद्ध होगी, ठीक होगी, सम्यक होगी, तो जो भी संबंध होंगे, जो भी भाव होंगे, जो भी विचार होंगे जगत के संबंध में, वे ठीक होंगे। सब ठीक होना दृष्टि के ठीक होने पर निर्भर है।
इसलिए मैं यह नहीं कह सकता कि पत्नी के प्रति आप क्या भाव रखें। क्योंकि अगर आप यह भाव रखते हैं कि पत्नी मेरी पत्नी है तो भूल है, अगर आप यह भाव रखते हैं कि पत्नी तो मेरी मां जैसी है, तो भी भूल है, क्योंकि जब आप यह सोचते हैं कि पत्नी को तो मैं मां जैसा मानूं, तब आप उसे पत्नी जैसा ही मान रहे हैं।
अभी मैं एक कालेज में था, एक प्रिंसिपल एक लड़के को समझा रहे थे कि हर लड़की को अपनी बहन जैसा समझो।
तो मैंने उनसे कहा कि अगर यह कोशिश करके समझे भी कि हर लड़की मेरी बहन है, तो इस समझने में ही वह गड़बड़ छिपी हुई है। क्यों जब हम यह कहते हैं कि हर लड़की मेरी बहन है, तो कहते क्यों है अगर वह है? अगर हम यह कहते हैं कि हर स्त्री मेरी बहन है, तो इसे कहने की जरूरत क्या है?
इसके कहने की जरूरत में यह छिपा हुआ है कि हर स्त्री आपकी बहन नहीं है, वह आपको पता है। उसे झुठलाने को, उसे छिपाने को आप यह दूसरा रूप ओढ़ रहे हैं। जब कोई आदमी कहता है कि यह सब संसार असार है, तो समझना की अभी उसके मन में सार छिपा हुआ है। इसे बार-बार दोहराने की कोई जरूरत नहीं है कि संसार असार है। यह अपने को समझाना है। एक आदमी रोज सुबह-सुबह बैठ कर तय करता है कि मैं तो शरीर नहीं हूं मैं तो आत्मा हूं। ऐसे समझाने वाले लोग हैं मुल्क में, जो लोगों को समझाते हैं कि यह विचार करो कि मैं तो आत्मा हूं शरीर नहीं हूं।
एक साधु मेरे पास आए, मैंने उनसे पूछा, आप क्या साधना करते हैं? उन्होंने कहा: मैं तो यही साधना करता हूं कि मैं शरीर नहीं हूं मैं आत्मा हूं। मैंने कहा: अगर यह पता चल गया, तो इसे दोहराते क्यों हैं? और अगर यह पता नहीं चला, तो दोहराने से क्या होगा? और जब आप दोहराते हैं बार-बार कि नहीं, मैं शरीर नहीं, मैं तो आत्मा हूं, तब मैं समझता हूं कि आप जानते हैं कि आप शरीर हैं, वह आपके भीतर छिपी हुई है बात। आप जानते हैं कि मैं शरीर हूं, इसको झुठलाने के लिए आप बार-बार दोहरा कर एक रूप खड़ा कर रहे हैं कि नहीं, मैं तो आत्मा हूं। अगर आपको पता हो, तो मैं तो नहीं कहता कि मैं तो दरख्त नहीं हूं, यह मैं माइक नहीं हूं, यह तो मैं नहीं दोहराता। क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं नहीं हूं।
जिस बात को आप जानते हैं कि आप नहीं हैं, आप कभी कहते नहीं सुने जाते कि यह मैं नहीं हूं। आप यहां आकर यह नहीं कहेंगे कि यह जो पहाड़ है, यह मैं नहीं हूं। कोई कहेगा, आप पागल हो गए, इसे कहने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन आप बार-बार अगर कहते हैं कि मैं शरीर नहीं हूं, तो शक है, आपको शरीर होने का शक है।
जो आदमी कहता है, सब व्यर्थ है, जो आदमी कहता है, यह पैसा-लत्ता सब जंजाल है, अभी इसे अर्थ है। यह दोहराना, यह कहना ही, इस कहने में ही सारी भूल और भ्रांति छिपी हुई है। यह विराग तो है, वितरागता नहीं है। वितरागता अंतर्दृष्टि के जागने से शुरू होती है। संसार के प्रति कोई दृष्टि रखने को नहीं कहता हूं, अपनी अंतर्दृष्टि जगाने को कहता हूं। उस जाग जाने पर जो दृष्टि होगी, वह सम्यक होगी। उस दृष्टि में न तो भोग होगा, न राग होगा, न द्वेष होगा, न विराग होगा। न तो पकड़ होगी, न छोड़ने का आग्रह होगा। जीवन होगा, सरल जीवन होगा।
स्त्री स्त्री है, पत्थर पत्थर है, मकान मकान है, सब अपने अपने में हैं। आपको कोई दृष्टि रखने बड़ी जरूरत नहीं कि वह सार्थक है कि निरर्थक है। उस वक्त एक सहज जीवन, स्पांटेनियस लाइफ शुरू होती है। चीजें जहां हैं वे वहां हैं, हम जहां हैं हम जहां हैं, और जीवन में तब, हम उनके प्रति कोई दृष्टि बांध कर नहीं चलते, बल्कि सहज जीते हैं, क्योंकि दृष्टि हमारी जागी होती है।
एक अंधा आदमी की अगर आंखें ठीक होने लगें, तो वह पूछेगा कि जब मेरी आंखें ठीक हो जाएंगी, तो मैं इस लकड़ी, जिससे मैं अब तक टटोलता था, इसका कैसे उपयोग करूंगा? तो हम उससे कहेंगे, तुम बिलकुल पागल हो, जब आंखें ठीक हो जाएंगी, तो लकड़ी के उपयोग की जरूरत ही नहीं रह जाएगी, तुम चलोगे, तुम सीधे चले जाओगे। वह पूछेगा कि जब मेरी आंखें ठीक हो जाएंगी, तो मैं किससे पूछूंगा कि दरवाजा कहां है? हम उससे कहेंगे, तुम किसी से नहीं पूछोगे, सवाल ही नहीं उठेगा कि दरवाजा कहां है, तुम्हें जाना होगा, तुम्हें दिखेगा, तुम निकल जाओगे।
अभी हम पूछते हैं कि संसार के प्रति क्या दृष्टि रखें?
अगर ज्ञान जग जाएगा, तो सवाल ही नहीं है कि कौनसी दृष्टि रखें, आपको दिखाई पड़ेगा, आप वैसा व्यवहार करोगे। दृष्टि रखने की कोई बात नहीं है, दृष्टि होनी चाहिए। किसी चीज के प्रति कोई भाव बनाने की बात नहीं, भीतर अंतर्दृष्टि जागनी चाहिए। वह जागी हो, फिर कोई सवाल नहीं है, कोई पूछना नहीं है। दरवाजा दिखाई पड़ेगा, आप निकल जाएंगे। हाथ में लकड़ी लेने की कोई जरूरत नहीं है।
ये सब दृष्टियां-वगैरह लकड़ियां लेना जैसा है। इनसे टटोल-टटोल कर चलते हैं, अंधे आदमी हैं, क्या करें, तो इनसे टटोल कर किसी तरह रास्ता बना लेते हैं। किसी तरह रास्ता बना लेते हैं, अपनी पत्नी को अपनी पत्नी समझते हैं, दूसरों की पत्नियों को अपनी बहन समझ कर रास्ता बना लेते हैं। किसी तरह लकड़ी से टटोल लेते हैं, किसी तरह निकल जाते हैं, थोड़ी-बहुत भूल-चूक हुई, फिर ठीक रास्ते पर आ जाते हैं। लेकिन आंखें अंधी हैं, टटोल कर निकलना पड़ता है। अगर आंखें ठीक हों, तो कोई दृष्टि बनाने की जरूरत नहीं। किसी की स्त्री को बहन समझने की जरूरत नहीं। कोई सोने को मिट्टी समझने की जरूरत नहीं। सोने को असार समझने की जरूरत नहीं। संसार को माया और मिथ्या समझने की जरूरत नहीं। दिखाई पड़ेगा और जीवन होगा। दृष्टि होनी चाहिए, तो जीवन सहज हो जाता है। उस पर कोई व्रत और नियम नहीं बांधने होते। फिर तो जीवन सहज होता है। ठीक-ठीक दिखता है, ठीक-ठीक होता है। ठीक-ठीक नहीं दिखता है इसलिए अड़चन है।
मेरा जोर किसी भांति के भाव लेने का नहीं है, अंतर्भाव को जगाने का है।
मैं समझता हूं मेरी बात आपको खयाल में आई होगी। अब हम रात्रि के ध्यान को बैठेंगे।
थोड़ी सी बातें रात्रि के ध्यान के संबंध में दो बातें समझ लें, सुबह का ध्यान जो हमने किया, वह बैठ कर करने के लिए था। सुबह उठ कर जब आप घर पर उस प्रयोग को करेंगे, तो वह बैठ कर करने का है। रात्रि का ध्यान सोने के पहले करने का है जब आप नींद को जाने को हों, अपने बिस्तर पर ही करने का है। तो सामान्यतया रात्रि का ध्यान लेट कर करना उचित है। चूंकि यहां लेटने लायक जगह नहीं होगी, इसलिए हम बैठ कर करेंगे। लेकिन घर पर आप जो प्रयोग करेंगे वह लेट कर ही करना है। यहां जगह होती ज्यादा तो हम सारे लोग लेट कर सकते थे। लेकिन जगह कम है, इतने लोगों के लेटने के लिए बहुत जगह चाहिए। और किसी को छूना नहीं चाहिए। तो करेंगे बैठ कर, लेकिन प्रक्रिया आप समझ लेंगे। अभी रात में जब आप जाकर अपने बिस्तर पर सोएं, तो वहां उसे दोहरा लें। उसे लेट कर ही करना है।
अभी कैसे हम करेंगे, वह आप समझ लें। जैसा सुबह मैंने कहा: रीढ़ को सीधा रखना है, अभी बैठेंगे, इसलिए रीढ़ को सीधा रखेंगे, लेटने में कोई सवाल नहीं है। दूसरी बात मैंने कहा: शरीर को ढीला छोड़ देना है। लेकिन सुबह के ध्यान में शरीर को सामान्यतया ढीला छोड़ा था, रात्रि के ध्यान में चूंकि लेट कर करना है, शरीर को पूरी तरह ढीला छोड़ देना है, उसे पूरा कैसे ढीला छोड़ेंगे, वह प्रक्रिया मैं आपको बता देता हूं।
शरीर को सबसे पहले पूरा ढीला छोड़ देना है। और दो मिनट तक सिर्फ यही भाव करना है कि शरीर बिलकुल शिथिल हो रहा है। भाव की बड़ी क्षमता है। अगर आप दो मिनट तक सिर्फ यही भाव करते रहें कि शरीर बिलकुल शिथिल हो रहा; शरीर के सारे तनाव विलीन हो जाएंगे, शरीर मुर्दे की भांति पड़ा हुआ रह जाएगा। दस-पांच दिन के प्रयोग में आप पाएंगे कि वह बहुत सरल बात है, कठिन बात नहीं है। पूरे भाव से करें तो आज ही सरल होगी, इसी वक्त हो जाएगी। दो मिनट तक यह भाव करेंगे कि शरीर बिलकुल शिथिल हो रहा, मैं दोहरा दूंगा कि आपका शरीर शिथिल हो रहा है, आप मेरे साथ सहयोग करेंगे और भाव करेंगे कि शरीर शिथिल हो रहा, तो शरीर बिलकुल शिथिल हो जाएगा। अभी तो हम बैठ कर करेंगे। तो अगर शरीर आपका आगे झुक जाए, तो फिकर न करें, कड़ा नहीं रखना है, उसे ढीला जाने देना है। दूसरी बात, दो मिनट के बाद यह भाव करेंगे...


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