साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)
ओशो
बारहवां प्रवचन
पूछा है: सत्य के खोजने की आवश्यकता ही क्या है? साधना की जरूरत क्या है? ध्यान को करने से क्या
प्रयोजन? जो-जो हमारी वासनाएं हैं, इच्छाएं
हैं, उनको पूरा करें, वही जीवन है,
सत्य को खोजने इत्यादि की क्या आवश्यकता है?
बहुत महत्वपूर्ण है। पहले दिन मैंने यह कहा: सामान्यतया हमारा मन सुख
चाहता है, लेकिन जो भी हम उपलब्ध करते हैं उससे सुख मिलता नहीं।
सामान्यतया हमारा मन पद चाहता है, लेकिन जिस पद पर भी हम
पहुंच जाएं, चाह का अंत नहीं आता, चाह
आगे बढ़ जाती है। सामान्यतया हमारा मन जो भी चाहता है वह मिल जाए, तो भी चाह समाप्त नहीं होती, चाह आगे बढ़ जाती है।
सत्य को खोजने की कोई जरूरत नहीं है। यदि चाहें पूरी हो जातीं, तो सत्य को कोई भी नहीं खोजता। अगर संतुष्टि मिल जाती, सुख मिल जाता, सत्य को कोई भी नहीं खोजता। लेकिन जो
हमारी सहज चाह है वह कितनी ही पूरी हो, तो भी जीवन को अर्थ
और संतोष नहीं मिलता।
इसी पीड़ा, इसी दर्द, इसी परेशानी से ऊब कर मनुष्य संतुष्टि से हटता है और सत्य की खोज में लगता
है। किसी के कहने से कोई सत्य की खोज में नहीं लगता, उसके
जीवन का अनुभव ही उसे उस तरफ ले जाता है।
और हम विचार करेंगे तो हैरान होंगे, हमारा मन सहज रूप से
इसमें सहयोगी है, सत्य की खोज में हमारा मन सहज रूप से
सहयोगी है। सामान्यतया आपने सुना होगा, मन बड़ा चंचल है,
और मन की चंचलता को बहुत गालियां भी दी जाती हैं, बहुत बुरा भी कहा जाता है। मैं नहीं कहता हूं, मैं
मन की चंचलता को बहुत बुरा नहीं कहता। क्योंकि मन अगर चंचल न हो, तो सत्य की खोज संभव ही नहीं होगी। अगर मन चंचल न हो, तो जिस चीज में भी इच्छा लगेगी मन वहीं अटका रह जाएगा। लेकिन मन कहीं भी
नहीं अटकता, सब चीजों को व्यर्थ कर देता है और फिर आगे
मांगने लगता है कि और आगे ले चलो। मन कहीं टिकता नहीं; नहीं
तो आपने न मालूम किस गंदगी के ढेर पर उसे लगाया दिया होता और मन वहीं टिक जाता अगर
वह चंचल न होता।
आपने धन में लगाया होता, मन धन में ही टिक
जाता। फिर वह धन से कभी हटता ही नहीं। लेकिन आप कितने ही धन में लगाएं, मन और ज्यादा धन की मांग करने लगता है। उतना धन मिल जाए, तो और ज्यादा की मांग करने लगता है। मन की मांग और ज्यादा के लिए है। और
और ज्यादा का कोई अंत नहीं आता। आप कितने ही पा जाएं, तो और
ज्यादा चाहिए।
मन कहीं रुकता नहीं आपको और आगे बढ़ाता है। एक सीमा आती है मन की इस
दौड़ की कि आप घबड़ा कर सजग, जाग जाते हैं कि यह क्या है? यह
और ज्यादा की दौड़ क्या है? यह कहां अंत होगी?
यह कहीं अंत नहीं हो सकती। और तब आपको लगता है कि यह दौड़ तो कुछ अंधी
है, इसका कोई अंत नहीं। जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं यह कहीं भी नहीं
पहुंचेगा।
बच्चों की एक छोटी से किताब है: अलाइस एंड वंडरलैंड। छोटी सी किताब है, और बच्चों की किताब है, लेकिन बूढ़े भी उसे समझ ले,
तो कठिन है। बात बहुत सरल सी है उसमें। कहानियां हैं छोटी-छोटी।
उसमें एक छोटी सी कहानी है।
अलाइस नाम की लड़की है, वह परियों के मुल्क
में चली गई। तो जमीन से परियों के मुल्क तक की यात्रा बड़ी लंबी। बहुत थक गई,
बहुत परेशान हो गई, क्लांत हो गई, भूख लग आई। जब वह परियों के देश में पहुंची, तो बड़ा
सुंदर देश था, दूर तक हरियाली थी, पहाड़ी
झरने थे, सुंदर रास्ते थे, उसमें एक
झाड़ के नीचे परियों की रानी को खड़े देखा। उसके हाथ में बड़े थाल हैं, उनमें बड़ी मिठाइयां हैं, फल हैं, फूल हैं। उसे भूख लग रही। थोड़ी ही दूर पर झाड़ के नीचे एक छाया में रानी
खड़ी है और वह रानी उसे बुला रही है कि आओ।
अलाइस ने दौड़ना शुरू किया, सुबह थी, सूरज ऊग रहा था, अलाइस दौड़ने लगी। पास का ही झाड़ था,
काफी दौड़ी, फिर उसने खड़े होकर देखा, झाड़ उतना ही दूर है जितना पहले था। उसने चिल्ला कर पूछा--ज्यादा दूर नहीं
था, चिल्ला कर पूछ सकती थी, इतना ही
फासला था--उसने चिल्ला कर पूछा, मामला क्या है?
रानी ने कहा: मामला मत पूछो, दौड़ी आओ।
उसने फिर दौड़ना शुरू कर दिया। दोपहर हो गई, सूरज ऊपर आ गया, पीसना चूने लगा, उसने खड़े होकर देखा, वह झाड़ उतने के उतने दूर है। वह
रानी वहीं खड़ी है और कहती है, आ जाओ।
उसने फिर पूछा, यह मामला क्या है? मैं दौड़ती
हूं, पहुंचती नहीं।
रानी ने कहा: यह मत फिकर करो, तुम तो दौड़ो।
वह दौड़ने लगी, सांझ हो गई, सूरज ढलने लगा,
अंधेरा होने लगा। उसने चिल्ला कर पूछा, अब तो
यह बिलकुल पागलपन हो गया। मैं दौड़ी जा रही हूं और सूरज भी डूबने लगा, अंधेरा भी आने लगा, झाड़ उतने ही दूर है। उसने उस
रानी से पूछा, क्या तुम्हारे मुल्क में रास्ते कहीं पहुंचाते
नहीं?
उस रानी ने कहा: किसी मुल्क में रास्ते कहीं नहीं पहुंचाते। तुम्हारी
जमीन पर भी नहीं पहुंचाते।
रास्ते कहीं नहीं पहुंचाते, इससे घबड़ा कर सत्य की
खोज शुरू होती है। यह किसी के सीखने सिखाने की बात नहीं है। जब आपको यह दिखाई पड़ता
है कि कोई रास्ता कहीं नहीं पहुंचाता, जब सब रास्ते व्यर्थ
हो जाते हैं, तो फिर एक ही रास्ता और खुला रह जाता है जो
भीतर जाता है। सब रास्तों से ऊबा और असंतुष्ट हो गया व्यक्ति एक रास्ते में और
खोजता है जो भीतर जाता है, शायद वहां कुछ मिल जाए।
भीतर की खोज सत्य की खोज है, बाहर की खोज संतुष्टि
की खोज है। और यह जो चंचल मन है, यह सहयोगी है, यह कहीं रुकने नहीं देता, यह कहीं ठहरने नहीं देता।
मैंने कहना शुरू किया है, मन की चंचलता तभी
समाप्त होती है जब हम वहां पहुंच जाते हैं जहां पहुंचने में जीवन का अर्थ उपलब्ध
होता है, उसके पहले मन की चंचलता नष्ट नहीं होती। उसके पहले
जिसकी मन की चंचलता नष्ट हो गई, वह जड़ हो जाएगा, उसके जीवन में गति विलीन हो जाएगी।
एक राजा हुआ मिश्र में। एक फकीर था। उसे आदर करता था, तो कभी-कभी फकीर के पास मिलने जाता था। एक दिन दोपहर में राजा फकीर से
मिलने गया। फकीर का छोटा सा खेत था, बगिया थी, वहीं फकीर काम करता था, ऊब जाता था मेहनत से।
जब राजा पहुंचा, तो फकीर तो नहीं था, एक और छोटा युवा शिष्य बैठा हुआ था। राजा ने कहा कि जाओ अपने गुरु को ढूंढ़
लाओ, बुला लाओ। तो उस शिष्य ने कहा कि आप बैठ जाएं, मैं बुला लाता हूं। खेत की मेंड़ थी, मिट्टी थी,
इस पर बैठ जाएं झाड़ के नीचे मैं बुला लाता हूं। राजा ने कहा: तुम
बुला लाओ, मैं यहीं टहलूंगा। वह उस मिट्टी पर टहलने लगा।
युवा ने सोचा, शायद मिट्टी पर बैठना उसे पसंद नहीं, उसने राजा से कहा, आप झोपड़े के भीतर आ जाएं। झोपड़े
के भीतर राजा चला गया। उसने एक चटाई डाल दी और कहा कि बैठ जाएं। राजा ने कहा कि
तुम जाओ, बुला लाओ, मैं टहलूंगा। वह उस
झोपड़ी की दहलान में घूमने लगा।
वह युवा बहुत हैरान हुआ। या तो राजा का दिमाग गड़बड़ है। वहां बैठ जाओ, नहीं बैठा; झोपड़े में भीतर लाया, कहा, बैठ जाओ, उसने कहा कि तुम
जाओ, मैं यहीं टहलता हूं। वह उस छोटी सी दहलान में टहलने
लगा।
युवा दौड़ा हुआ गया, पीछे खेत से, बगीचे से फकीर को बुला कर लाया। रास्ते में उसने कहा: यह राजा का दिमाग
कुछ ठीक नहीं मालूम होता। मैंने कई दफे कहा, बैठ जाओ,
वह कहता है, तुम जाओ, बुला
लाओ और टहलने लगता है, बैठता नहीं है। वह फकीर हंसने लगा,
उसने कहा: राजा का दिमाग खराब नहीं, हमारे
झोपड़े में उसके बैठने लायक कोई स्थान ही नहीं है। सिंहासन चाहिए उसे। वह होता,
तो वह बैठ जाता। मिट्टी पर, मेंड़ पर नहीं
बैठता, झोपड़े में गंदी चटाई है उस पर नहीं बैठता, असल में उसके बैठने लायक कोई जगह नहीं है। और उस फकीर ने कहा: स्मरण रखो,
ऐसा ही मन है। मन भी कहीं नहीं बैठता, सिवाय
परमात्मा के। कहीं भी बिठाओ, वह नहीं बैठेगा। सत्य के सिवाय
मन और कहीं नहीं बैठेगा, उसके पहले उसका चलना चलता ही रहेगा,
वह चंचल बना रहेगा, यहां से वहां डोलेगा,
वहां से यहां डोलेगा।
मन वहीं बैठता है जहां परम तृप्ति का बिंदु आ जाता है। और उस परम
तृप्ति के बिंदु को ही मैं सत्य कह रहा हूं। हां, मैं कहूं इसलिए कोई
सत्य की खोज नहीं करता, न कोई और आपसे कहे तो सत्य की खोज
होती है। सत्य की खोज की तरफ आप निरंतर अपनी ही वासनाओं के कारण पहुंचते हैं। आपकी
ही इच्छाएं, वासनाएं, आपके ही
फ्रस्ट्रेशंस, आपकी ही अतृप्तियां, असंतोष,
आपकी ही असफलताएं, वासना के जगत में कोई
रास्ता कहीं नहीं पहुंचाता यह अनुभव, आपको निर्वासना के जगत
में ले जाना शुरू कर देता है।
बाहर की सारी दौड़ व्यर्थ हो जाती है, तो अंतस में जाने का
प्रश्न और विचार और जिज्ञासा खड़ी होती है। कोई दूसरा आपको यह नहीं सिखा सकता।
कितना ही कोई शास्त्र पढ़ाए, कितना ही कोई समझाए, कितने ही उपदेश करे, नहीं समझा सकता। जीवन का अनुभव।
इसलिए मैंने कहा: सत्य की खोज के लिए खुली हुई आंखें होनी चाहिए। खुली
हुई आंखों से मतलब है: जीवन के अनुभव को देखने की क्षमता होनी चाहिए। चारों तरफ
यदि हम देखेंगे, तो वह अनुभव अपने जीवन में देखेंगे, तो वह अनुभव, सारे अनुभव इकट्ठे होकर मनुष्य को सत्य
की खोज में अग्रसर करते हैं।
फिर आप पूछते हैं: हम सत्य को क्यों खोजें?
मैं नहीं कहता कि आप खोजें। मैं नहीं कहता कि आप खोजें। लेकिन फिर आप
क्या खोजेंगे? आप कहते हैं हम सत्य को क्यों खोजें? मैं नहीं कहता आप खोजें। लेकिन फिर आप क्या खोजेंगे? संतुष्टि खोजेंगे; संतुष्टि को खोज-खोज कर पाएंगे कि
नहीं मिलती, फिर क्या करेंगे? फिर सत्य
को खोजेंगे।
संतुष्टि जहां असफल हो जाती है वहीं सत्य की खोज शुरू हो जाती है। सुख
की खोज जहां असफल हो जाती है, पूर्णतया असफल हो जाती है,
वहीं सत्य की खोज शुरू हो जाती है। इसमें कोई किसी के सिखाने की बात
नहीं। मैं किसी से नहीं कहता कि सत्य खोजें। मैं तो यही कहता हूं कि जो आपको ठीक
लगे, उसी को खोजें। लेकिन आंखें खुली रखें, अंधे होकर न खोजें। जो आपको ठीक लगे--वासना ठीक लगे, वासना खोजें; सुख ठीक लगे, सुख
खोजें, लेकिन आंख खुली रखें। अगर आंख खुली रही, तो बहुत दिन तक सुख नहीं खोज सकते हैं।
रामकृष्ण परमहंस के जीवन में एक अदभुत घटना है। केशवचंद्र, बंगाल के एक बड़े विचारक थे, तार्किक थे, बड़े बुद्धिमान आदमी थे। बंगाल में या इस भारत में कम ही ऐसे लोग पैदा किए
जिनकी ऐसी प्रतिभा और विचार थे। बड़े तर्ककुशल थे, जिस बात
में लग जाएं, जिस बात का समर्थक करें, उसका,
उसका विरोध करने की सामर्थ्य किसी में बंगाल में नहीं थी। बड़ा अदभुत
पैना तर्क था। लोगों ने केशवचंद्र को कहा कि कभी रामकृष्ण के पास चलें, वे बड़ी ईश्वर की, बड़ी आत्मा की बातें करते हैं,
जरा उनका खंडन करें तो मजा आ जाए। केशव ने कहा: चलो।
सारे कलकत्ते में खबर फैल गई। जो भी विचारशील उत्सुक लोग थे वे
दक्षिणेश्वर में जाकर इकट्ठे हो गए, फजीहत देखने को। और
रामकृष्ण बेपढ़े-लिखे, रामकृष्ण गांव के गंवार थे। केशव
प्रतिभा का धनी था, तर्ककुशल था। लोगों ने कहा: बहुत आनंद
आएगा; रामकृष्ण की क्या-क्या फजीहत होगी, देखेंगे।
बहुत लोग इकट्ठे हो गए। रामकृष्ण को लोगों ने कहा कि बड़ी मुश्किल होने
वाली है, केशव आते हैं विवाद करने को। और बहुत लोग देखने को
आते हैं।
रामकृष्ण खूब हंसने लगे, उन्होंने कहा: हम भी
देखेंगे। फजीहत होगी तो मजा हमको भी आएगा। जब इतने लोगों को फजीहत में मजा आएगा,
तो हमको क्यों नहीं आएगा, हमको भी बहुत मजा
आएगा। उन लोगों ने कहा: ये तो हैं पागल, ये समझते नहीं कि
मतलब क्या है।
केशव आए, बड़ी भीड़ साथ आई। कलकत्ते के बड़े विचारशील, तार्किक, सारे लोग इकट्ठे थे। रामकृष्ण के भक्त बड़े
घबड़ाए हुए। रामकृष्ण बड़े प्रसन्न थे कि जब इतने लोग आ रहे हैं, तो जरूर कोई मजे की बात होगी ही। फिर केशव ने विवाद शुरू किया। केशव ने
कहा: ईश्वर-वगैरह कुछ भी नहीं है। और बड़े तर्क दिए। जब केशव तर्क देते थे, तर्क पूरा होता था, रामकृष्ण खड़े होकर केशव को गले
लगा लेते थे कि कितना अदभुत, कितनी अदभुत बात कही। एक-दो दफे
हुआ, केशव हतप्रभ हो गए कि यह तो बड़ा मुश्किल मामला है। यह
आदमी विरोध करता नहीं, उलटा हमको गले लगाता है। और लोग जो
देखने आए थे मजा, वे भी निराश हो गए कि इसमें तो कोई मतलब ही
नहीं, यहां एक ही पार्टी है, दूसरी
पार्टी तो मौजूद नहीं है। वह बड़ी उदासी फैल गई। प्रसन्न अकेले रामकृष्ण थे। जो सब
प्रसन्न होने आए थे, सब दुखी हो गए। वे जो सब प्रसन्न होने
आए थे, वे सब दुखी हो गए। प्रसन्न अकेला एक ही आदमी था,
वह रामकृष्ण था। केशवचंद्र विरोध का तर्क देते, वे खड़े होकर गले लगाते और कहते, कैसा, कैसा अदभुत! जब सारी बातें पूरी हो गईं, केशव को कुछ
कहने को भी न सूझा कि अब क्या करें क्या न करें? दूसरा आदमी
विरोध करे, तो बात आगे बढ़े। बात आगे बढ़े कैसे? तो रामकृष्ण ने कहा: क्यों, क्या बात पूरी हो गई?
केशव ने कहा: हां, जो मुझे कहना था, मैंने कह दिया।
रामकृष्ण खड़े हुए, बोले, अब
मैं कुछ कहूं: हाथ जोड़े भगवान के और कहा: कैसा अदभुत है परमात्मा! ऐसी बुद्धि भी
तू पैदा करता है! और केशव को कहा: विश्वास मान केशव, तू
ज्यादा दिन नास्तिक नहीं रह सकेगा। ऐसी बुद्धि जहां है, वहां
नास्तिकता कितनी देर टिकेगी? तू ज्यादा दिन नास्तिक नहीं रह
सकेगा। ऐसी बुद्धि जहां है, ऐसा विवेक जहां है, वहां तू ज्यादा देर तक नास्तिक नहीं रह सकेगा। अदभुत है, मैं तो खूब प्रसन्न हो गया। परमात्मा के गुण मैंने बहुत देखे--फूलों में
देखे, वृक्षों में देखे, पहाड़ों में
देखे, नदियों में देखे; आज मनुष्य में
देखा है। ऐसी प्रतिभा, बिना परमात्मा के ऐसी प्रतिभा हो ही
कैसे सकती है?
रामकृष्ण ने कहा: ऐसी प्रतिभा हो तो बहुत दिन नास्तिक नहीं रह सकते।
मैं भी आपसे कहता हूं, विवेक हो, तो बहुत दिन संतुष्टि
की खोज नहीं कर सकते। सत्य की खोज अनिवार्य है। तो मैं नहीं कहता कि सत्य की खोज
करें। मैं तो इतना ही कहता हूं, विवेक जाग्रत हो, होश जाग्रत हो। फिर जो आपको करना है करें। जहां जाना है जाएं। जो आपका मन
हो करें। कोई अंतर नहीं पड़ता कि आप कहां जाते हैं। मैं आपसे नहीं कहता कि मंदिर
जाएं, मैं नहीं कहता कि कोई सत्य की खोज मैं कोई विशेष काम
करें। मैं इतना ही कहता हूं, होश जाग्रत रखें।
होश जाग्रत होगा, तो आज नहीं कल, आपकी जो संतोष की, सुख की, वासना
की खोज है वह व्यर्थ हो जाएगी और उसकी जगह स्थापित हो जाएगी सत्य की खोज। वह आपके
अनुभव से स्थापित होती है किसी की शिक्षा और उपदेश से नहीं।
बहुत महत्वपूर्ण है। पूछा है कि मनुष्य का मन तो
विचारों का प्रवाह है। विचारों के इस प्रवाह को क्या जप के द्वारा रोका जा सकता है? बहुत लोगों का अनुभव है कि जप के द्वारा विचार का प्रवाह रुकता है और
प्रबुद्ध चेतना की स्थिति उपलब्ध हो जाती है।
यह पूछा है, महत्वपूर्ण है। समझना चाहिए। मैंने कल कहा: मनुष्य के
मन में सिवाय साक्षीभाव के और सारी क्रियाएं मानसिक हैं। सिवाय साक्षीभाव को छोड़
कर बाकी मन की सारी क्रियाएं मानसिक हैं, मेंटल हैं। यदि
उनमें से कोई भी क्रिया की गई, तो मन के बाहर नहीं जाया जा
सकता है। वह कल विस्तार में मैंने आपको समझाया। मन के बाहर जाना हो, तो मन की किसी क्रिया का सहारा नहीं लिया जा सकता। जप मन की क्रिया है।
एक आदमी राम-राम या ओम या नमोकार या कोई और का जप करे, निरंतर एक बात को दोहराए, जरूर परिणाम होंगे,
लेकिन परिणाम में ध्यान नहीं आएगा, परिणाम में
आएगी मर्च्छा; परिणाम में आएगा, आत्म-सम्मोहन,
ऑटो-हिप्नोसिस, आप मर्ूच्छित हो जाएंगे। तो
मर्ूच्छित होने का नियम समझ लें, तो जप को भी आप समझ लेंगे।
और जितने लोगों को यह खयाल है कि जप से कोई सत्य के दर्शन होते हैं, गलती में हैं। जप से दर्शन सत्य के नहीं होते, केवल
गहरी प्रसुप्ति के दर्शन होते हैं, गहरी नींद के दर्शन होते
हैं। उस गहरी मर्च्छा के बाद आपको लगता है कि बड़ा सुख मिला। सुख मिलता नहीं,
मात्र चिंता, दुख का बोध विलीन हो जाता है।
एक आदमी के पैर में फोड़ा हो, अगर वह किसी भांति यह
भूल जाए कि मेरे पैर में फोड़ा है तो उसे बड़ा सुख मिलेगा, लेकिन
इस सुख में और फोड़े के मिट जाने में बड़ा भेद है।
तो ऐसी तरकीबें हैं कि हम जीवन के दुख को भूल जाएं। जीवन के दुख को
भूल जाना और जीवन के दुख के मिट जाने में बहुत भेद है। जप उसी तरह की तरकीब है मर्च्छा
की। कैसे जप से मर्च्छा आती है, वह मैं आपको समझाना चाहूंगा।
एक छोटा सा बच्चा रात में न सोता हो, तो उसकी मां लोरी
गाकर उसे सुला देती है। एक गीत गाकर सुला देती है। गीत में एक कड़ी होती है या दो
कड़ी होती है। एक ही कड़ी को बार-बार दोहराने से शायद मां यह सोचती हो कि संगीत के
प्रभाव में बच्चा सो रहा है, तो गलती में है। एक ही कड़ी को
बार-बार दोहराने से बोर्डम पैदा होती है, ऊब पैदा होती है,
घबड़ाहट पैदा होती है। ऊब के कारण नींद आ जाती है। चित्त की जो सजगता
है वह क्षीण हो जाती है। तो बच्चे को जब एक ही एक कड़ी दोहराई जाती है तो वह सोने
लगता है। जिन सभाओं में कोई व्यक्ति एक ही एक ही बात को बार-बार एक ही टोन में
बोलता जाए, वहां बहुत से लोग सोने लगते हैं। फिर वह बोलने
वाला आदमी उनको दोष देगा कि आप सो रहे हैं, मैं बड़ी ऊंची
बातें कह रहा हूं। जब कि दोष बोलने वाले का ही होगा, सोने
वालों का नहीं। कोई इस ढंग से बोल रहा है कि एक ही बात को बार-बार दोहरा रहा है,
उस दोहराने का, रिपीटीशन का परिणाम होता है कि
सुनने वाले का मस्तिष्क सजगता खो देता है, डल हो जाता है,
सोने लगता है।
सारी दुनिया में हिप्नोटिस्टों ने, सम्मोहकों ने,
मैस्मेरिजम वालों ने, किसी भी चीज को बार-बार
दोहरा कर लोगों को मर्ूच्छित करने के उपाय निकाले हैं। आप किसी भी चीज को बार-बार
दोहराए जाएं, आप मर्ूच्छित हो जाएंगे। राम-राम बार-बार
दोहराए जाएं, आप मर्ूच्छित हो जाएंगे। क्योंकि चित्त की
सजगता नवीन के कारण होती है। जब कोई नवीन चीज सामने खड़ी हो, चित्त
सजग होता है। और जब वही-वही चीज बार-बार सामने खड़ी हो, चित्त
उसमें अर्थ खो देता है, रस खो देता है, इंट्रेस्ट खो देता है। इंट्रेस्ट के खोने की वजह से नींद आ जाती है।
जो जप आपके मस्तिष्क को विकसित नहीं करता, डल करता है, नींद में ले जाता है।
आपने कभी जप करने वाले व्यक्ति के भीतर किसी बड़ी अलौकिक प्रतिभा के
कोई दर्शन कभी नहीं किए होंगे। असल में अगर आदमी मूढ़ न हो, तो एक ही बात को बहुत बार-बार दोहरा नहीं सकता। ये स्टुपिडिटी के लक्षण
हैं। एक आदमी बैठा है और एक ही बात को बार-बार दोहराए चला जा रहा है, एक आदमी बैठा है और माला को फेरे चला जा रहा है, ये किसी
न किसी रूप में बुद्धिमत्ता के नहीं, बुद्धि के अभाव के
लक्षण हैं। इनसे कोई मनुष्य के भीतर बुद्धि का विकास नहीं होता। इसलिए आप देखेंगे,
जपत्तप करने वाली कौमें उन कौमों से पीछे पिछड़ गई हैं समस्त
प्रतिभाओं में जिन कौमों ने कोई जपत्तप नहीं किया।
आप अपने ही मुल्क को ले लें, आपका मुल्क आज इस समय
दुनिया में प्रतिभा की कमी का नमूना है। पिछड़े हैं हर बात में। पिछड़े होने का कारण
है। जीवन की समस्याओं को जीना नहीं चाहते, भुलाना चाहते हैं।
कोई तरकीब मिल जाए, कोई एस्केप मिल जाए, किसी भांति हम भूल जाएं कि जिंदगी में कोई समस्या है। यह हमारी प्रवृत्ति
है। इससे बचने के लिए कोई न कोई इंटाक्सिकेशन, कोई मर्च्छा
की दवा, कोई नींद की दवा हम खोजते हैं। यह जप भी नींद की दवा
है। नींद न आती हो, बड़ा सहयोगी है। होश बना हो, उसको मिटाने के लिए बड़ा सहयोगी है। बुद्धि तकलीफ देती है, क्योंकि बुद्धि हो तो चिंता होती है, विचार होते
हैं। बुद्धि ही न हो, तो न चिंता होगी, न विचार होंगे।
तो आपने जो कहा है कि विचार-प्रवाह को मिटाने में जप सहयोगी है।
निश्चित सहयोगी है। क्योंकि अगर बुद्धिहीन हो, तो विचार कहां होंगे। लेकिन मैं जो कह रहा हूं कि विचार से मुक्त होना
चाहिए, वह विचार का, प्रवाह का इस
भांति नष्ट होना नहीं है कि आप जड़बुद्धि हो जाएं। विचार शून्य होने चाहिए, चेतना जाग्रत होनी चाहिए। विचार दो तरह से शून्य होते हैं: चेतना जड़ हो
जाए, तो भी विचार शून्य हो जाते हैं और चेतना मुक्त हो जाए,
तो भी विचार शून्य हो जाते हैं। चेतना को जड़ करके विचार शून्य नहीं
होना है, विचार मुक्त होना है। तो किसी तरह का रिपीटीशन,
पुनरुक्ति मस्तिष्क को विकसित नहीं करती, न कर
सकती, न कोई कारण है।
कभी सोचिए थोड़ा सा, एक आदमी बैठा है--एक एक एक
दोहराए जा रहा है या राम-राम दोहराए जा रहा है, इस दोहराने
से मस्तिष्क का विकास कैसे हो जाएगा? इस दोहराने से कैसे
प्रतिभा जग जाएगी? इस दोहराने से क्या होगा? इस दोहराने से केवल इतना होगा कि चूंकि अब वह एक ही बात दोहराए जाएगा।
अभी मैं एक जगह था, और एक व्यक्ति को मेरे पास लाया
गया। किसी साधु के, किसी गुरु के चक्कर से उसका जीवन बर्बाद
हुआ। बहुत लोगों का बर्बाद हुआ है। बहुत लोगों का बर्बाद हो रहा है और आगे भी होता
रहेगा। क्योंकि यह परंपरा इतनी ज्यादा गहरी हमारे मन को पकड़े हुए है, उसे किसी ने कहा होगा कि राम का जप करो, इससे सत्य
मिल जाएगा। लोभ मन को पकड़ लेता है कि जब राम ही के जप करने से सत्य मिल जाएगा,
तो कौन पागल छोड़े, काम ही कौन बढ़ाए। लोभ मन
में है, सोचा, ठीक है, राम का जप करो। उसने कहा कि सतत, अखंड जप करो। कोई
भी काम करते रहो, मन में राम-राम करते रहो।
मन में राम-राम उसने शुरू कर दी। कोई भी काम करता, भीतर मन में राम-राम चलाए रखता। स्वाभाविक था, एब्सेंट
माइंडेडनेस पैदा हो गई। क्योंकि बाहर एक काम करेगा और भीतर राम-राम जपेगा। मन का
जो बोध है वह एक ही तरफ रह सकता है। तो बाहर उससे भूल-चूक होने लगी। मिलिटरी में
लेफ्टिनेंट था। बड़ी परेशानी हो गई। उसके आफिसरों ने भी कहा कि क्या मामला है?
कुछ तुम्हारा, कुछ मन ठीक नहीं है। पर उसने
सोचा, अपने गुरु को कहा। उसने कहा: अड़चनें तो आती हैं भगवान
के मार्ग में, बड़ी अड़चनें आती हैं। तो इससे तुम डरो मत,
हिम्मत से लगे रहो।
वह पागल था, हिम्मत से लगा रहा। हिम्मत से लगा रहा। छह महीने के
बाद उसकी नींद उचट गई। क्योंकि अगर चौबीस घंटे कोई टेंशन मन में हो, यह बड़ा टेंशन है कि राम-राम, राम-राम जपता रहे कोई
आदमी चौबीस घंटे। तो इतना भीतर तनाव हो, तो चित्त का विश्राम
खो गया। विश्राम खोने से वह उदास हो गया, अस्वस्थ हो गया,
मन में न मालूम क्या-क्या परेशानियां पैदा हो लगीं। लेकिन गुरु ने
कहा: यह सब तो होगा। यह सब तो होता है। तो तुम जारी रखो। तो उसने और भी जारी रखा।
सामान्य आदमी होता, लौट आता। उसने और जारी रखा, मिलिटरी का आदमी था, लौटना जानता नहीं था। और
मिलिटरी के आदमी धीरे-धीरे बुद्धिहीन हो ही जाते हैं। क्योंकि मिलिटरी में सब
रिपीटीशन करवाया जाता है। ऐसे ही जब जैसे ही रिपीटीशन मिलिटरी करवाती है--एक आदमी
को कहता है, बाएं घूमो, दाएं घूमो;
आगे जाओ, पीछे जाओ। तीन-चार साल तक किसी आदमी
से ऐसा मूर्खतापूर्ण काम करवाया जाए, उसकी बुद्धि क्षीण हो जाती
है। और मिलिटरी चाहती कि बुद्धि क्षीण हो जाए। नहीं तो दुनिया में हिंसा नहीं
करवाई जा सकती।
दुनिया में मैं मिलिटरी के विरोध में इसलिए नहीं हूं कि वह हिंसा करती
है, इसलिए विरोध में हूं कि लाखों लोग बुद्धिहीन हो जाते हैं, उनकी बुद्धि खो जाती है। वे सिर्फ आज्ञा पाल सकते हैं। उनमें विचार नहीं
रह जाता।
तो वह मिलिटरी का आदमी था, लेफ्ट-राइट करने की
आदत थी, उसी तरह वह राम-राम भी जपने लगा भीतर। वह करते ही
चला गया। वर्ष पूरा होते-होते उसके मन ने एक रट पकड़ ली, एक
यांत्रिक दोहराने का भाव पकड़ लिया, तब खतरा शुरू हुआ,
तब कोई उसे मेरे पास लाया।
खतरा यह हुआ कि राम-राम दोहराने से इतना मन विचारहीन हो गया; विचारमुक्त नहीं, विचारहीन। विवेक जाग्रत नहीं हुआ,
विवेक सो ही गया। और मन ने एक मेकेनिकल रिपीटीशन पकड़ लिया, यांत्रिक पुनरुक्ति पकड़ ली। फिर यह दिक्कत शुरू हो गई, अगर वह रास्ते से जा रहा है और उसे दिखाई पड़ गया, कुत्ता,
दो उसका मन दोहराने लगेगा, कुत्ता कुत्ता
कुत्ता। साइकिल जा रही, तो उसका मन दोहराने लगेगा, साइकिल साइकिल। अब उसको निकालना भी चाहता है, तो
नहीं निकाल सकता। क्योंकि वर्षों का अभ्यास हो गया। और उस अभ्यास ने मन को जड़ता दे
दी।
मन को जड़ता नहीं देनी है, मन को उन्मुक्त करना
है। उसके चैतन्य के प्रवाह को जगाना है। यानी केवल विचारहीन हो जाने से कुछ न होगा,
नहीं तो अनेक जड़बुद्धि लोग हैं, वे परमात्मा
को उपलब्ध हो जाएंगे। पशु-पक्षी हैं, वे परमात्मा को उपलब्ध
हो जाएंगे, विचारहीन हैं।
विचारहीन नहीं होना है, विचारमुक्त होना है।
विचारहीनता में और विचारमुक्ति में बड़ा फर्क है। इस भांति की चेष्टाएं आपके विचार
को जड़ कर देंगी। आपका बोध क्षीण हो जाएगा। इसलिए आपने देखा होगा, इस तरह के लोग, जप करने वाले या किसी मंत्र को
बार-बार दोहराने वाले बेहोश होते देखे जाएंगे। जब वे बेहोश हो जाएंगे, लोग कहेंगे, समाधि में चले गए। वे केवल बेहोश हैं,
आप समझ रहे हैं समाधि में चले गए। समाधि में कोई बेहोशी में नहीं
जाता, समाधि में तो परिपूर्ण होश पैदा हो जाता है।
बुद्ध के जीवन में सुना कभी बेहोश हो गए? क्राइस्ट के जीवन में सुना कभी बेहोश हो गए? बेहोश
होना, मर्ूच्छित हो जाना, और आप समझते
हैं कि यह ध्यान है? आप राम-राम जपेंगे, थोड़ी देर में आपको बाहर का बोध खो जाएगा।
मेरे पास लोग आते हैं, अभी एक प्रश्न भी आया,
पीछे किसी ने आकर भी पूछा कि आपका जो ध्यान है, हम करते रहते हैं, लेकिन हमें पक्षियों की आवाज
सुनाई पड़ती है, हमें आस-पास का पता चलता है। तो मैंने कहा:
पता तो बढ़ना चाहिए, क्योंकि भीतर हम बोध को जगाने की कोशिश
कर रहे हैं, बोध को सुलाने की नहीं।
लोग सोचते हैं, ध्यान का अर्थ है, कुछ भी पता न
चले। वह तो मर्च्छा है। कुछ भी पता न चले वह मर्च्छा है। सब कुछ पता चले, लेकिन भीतर रिएक्शन न हो। सब कुछ पता चले, लेकिन
भीतर प्रतिक्रिया न हो।
एक कौवे की आवाज आए, सुनाई पड़नी चाहिए। जो आदमी ध्यान
में है, उसे आपकी बजाय ज्यादा स्पष्ट सुनाई पड़नी चाहिए। उसकी
सेंसेटिविटी बढ़ जाएगी। उसकी संवेदनशीलता बढ़ जाएगी। क्योंकि वह इतना शांत बैठा है,
उसके भीतर कोई विचार नहीं चल रहा है, होश में
बैठा है, एक सुई भी गिरेगी तो उसे उसकी आवाज मालूम पड़नी
चाहिए। आप विचार में उलझे हुए हैं, आपको पता नहीं चलेगा। अभी
मैं बोल रहा हूं, आप मुझमें उलझे हुए हैं; यह इतनी बड़ी मशीन चल रही है, हो सकता है वह आपको
सुनाई न पड़े, जब मैं कहूंगा, तब सुनाई
पड़ेगी, नहीं तो आपका पता नहीं चल रही थी कि वह है। चल रही
है। एक कौआ बोलेगा, आपको सुनाई नहीं पड़ेगा। आप मुझमें उलझे
हुए हैं, उलझे होने की वजह से कौआ सुनाई नहीं पड़ रहा। लेकिन
जब आप बिलकुल नहीं उलझे हुए हैं, बिलकुल शांत हैं, तो धीमी सी आवाज भी सुनाई पड़ेगी। फर्क क्या पड़ेगा? आवाज
तो सुनाई पड़ेगी, लेकिन आपके भीतर कोई प्रतिध्वनि पैदा नहीं
होगी। आप यह नहीं सोचेंगे, कौआ बोल रहा है। कैसा कौआ है,
काला है कि किसका है कि किसका नहीं है, या
क्यों बोल रहा है या नहीं बोलना था, यह मुझे क्यों सुनाई पड़
गया, इस तरह की कोई प्रतिक्रिया आपके भीतर नहीं होगी। बोध
होगा, प्रतिक्रिया नहीं होगी।
बोध नहीं मर जाना चाहिए। अगर बोध मर गया, तो आप मर्ूच्छित हो रहे हैं। मर्ूच्छित नहीं होना है। लेकिन जप जैसी क्रियाएं
मर्ूच्छित करती है मन को। मर्च्छा में सुख आता है। निश्चित सुख आता है। असल में
दुनिया में जब भी सुख आता है, समझ लेना किसी न किसी भांति की
मर्च्छा काम कर रही है। मर्च्छा में ही सुख आता है। और अमर्च्छा में आनंद आता है। मर्च्छा
में सुख, अमर्च्छा में आनंद। मर्च्छा में संतुष्टि, अमर्च्छा सत्य। वह जो मैंने पहले आपसे पहले दिन कहा था, एक खोज संतुष्टि की है, संतुष्टि की खोज का अर्थ है,
मर्च्छा की खोज, किसी भांति हम मर्ूच्छित हो
जाएं। हमें अपना पता न रहे। हम किसी भांति अपने को भूल जाएं। फिर चाहे शराब में
भूलें, चाहे संगीत में भूलें, चाहे
सेक्स में भूलें और चाहे भजन-कीर्तन में भूलें, जपत्तप में
भूलें, भूल जाएं किसी तरह अपने को, तो
बड़ा अच्छा रहे। ये सब आत्मघाती प्रवृत्तियां हैं, स्युसाइडल
प्रवृत्तियां हैं, अपने को मारने की प्रवृत्तियां हैं,
अपने को, अपने को जीवन को जगाने की
प्रवृत्तियां नहीं हैं।
मेरी दृष्टि में किसी भांति की पुनरुक्ति चित्त के तल पर जीवन के बोध
को ऊपर नहीं ले जाती, न ले जा सकती है। कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है ले जाने
का। पुनरुक्ति नहीं; होश, सजगता। उसकी
में कल चर्चा करूंगा कि सजगता क्या है, विधायक अंग में कि
सजगता कैसे जगे और कैसे वह सत्य की ओर और चैतन्य जीवन की ओर, परमात्मा की ओर, आत्मा के परिपूर्ण विकास की ओर ले
जाने में सहयोगी हो जाए।
इसमें पूछे गए हैं, जो इस बात से संबंधित हैं कि मैंने कहा कि धर्म की शिक्षा नहीं देनी
चाहिए।
तो पूछा है: हम बच्चों को क्या शिक्षा दें? धर्म की शिक्षा न दें, तो फिर उन्हें क्या शिक्षा
दें?
मजा यह है कि शिक्षा देने में बड़ा रस आता है। उपदेश करने में बड़ा मजा
आता है। जरा उम्र बड़ी हुई, तो छोटी उम्र के आदमी को उपदेश देने में बड़ा रस आता
है। जरा पद बड़ा हुआ, तो छोटे पद वाले को जरा उपदेश देने में
रस आता है।
उपदेश और शिक्षा में जो रस है वह अहंकार का रस है। आप उनके जीवन को
बदलने के लिए उतने उत्सुक नहीं; न इस बात में उत्सुक हैं उनका
जीवन शुद्ध और पवित्र हो जाए; न इस बात में उत्सुक हैं कि वे
सत्य की और उत्सुक हो जाएं। आप इस बात में उत्सुक हैं कि किसी भांति हम शिक्षा
दें।
औरंगजेब ने जब अपने बाप को बंद कर दिया, जेल में बंद कर दिया,
तो बादशाह था, सारी शक्ति थी, उसने कहा कि बंद करने के बाद उसने औरंगजेब को कहा: एक काम कम से कम करो,
मुझे तीस बच्चे दे दो, तो मैं उनको पढ़ाता-लिखाता
रहूंगा। औरंगजेब ने किसी से कहा: उसकी बादशाहत नहीं जाती। जेल में बंद है, तीस बच्चों के ऊपर मालिक हो जाएगा। उनको समझाएगा, बुझाएगा,
ज्ञान देगा, वहां वह फिर केंद्र हो जाएगा।
जब आप किसी को शिक्षा देना चाहते हैं तो सच में आपकी उत्सुकता क्या है? अगर आप अपने बच्चे को ही शिक्षा देना चाहते हैं, आपकी
उत्सुकता क्या है? क्या आप इस बात में उत्सुक हैं कि वह जीवन
को, श्रेष्ठतर जीवन को उपलब्ध हो? अगर
आप इस बात में उत्सुक हैं कि उसे जीवन को समझने की योग्यता दें, शिक्षा नहीं। जीवन को देखने की क्षमता दें, संस्कार
नहीं। जीवन को पहचाने और जानने की प्रतिभा दें, विचार नहीं।
अपना प्रेम दें, लेकिन अपनी समझ नहीं, उपदेश
नहीं। आपके उपदेश, आपकी शिक्षाएं, उसे
जड़बद्ध करेंगी, उसके चित्त को परतंत्र करेंगी, वह स्वयं जानने में असमर्थ हो जाएगा। आप उसके बोध को जगाएं।
पूछा है दूसरा प्रश्न, बोध हम कैसे जगाएंगे उसमें?
सबसे पहली बात होगी, अपने में बोध को जगाएं। क्योंकि
कितनी हैरानी होगी कि आपमें बोध नहीं है और आप दूसरे में बोध के जगाने का विचार कर
रहे हैं। अपना दीया बुझा हुआ है, पूछते हैं, दूसरे का दीया कैसे जलाएं?
पहली जरूरत होगी अपने बोध को जगाने की। जब आपका बोध जगेगा तो आप
जानेंगे कि क्या नियम है बोध के जगने के।
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