सूत्र:
भिक्खुवग्गो:
चक्खुना संवरो साधु
साधु सोतेन संवरो।
घाणेन संवरो साधु
साधु जिह्वाय संवरो ।।298।।
कायेन
संवरो सा सा वाचाय संवरो।
मनसा संवरो सा सा
सब्बत्थ संवरो।
सबत्थ संवुतो भिक्खु
सब्बदुक्खा पमुच्चति ।।299।।
हत्थसज्जतोपादसज्जतो
वाचाय सज्जतो सज्जतुत्तमो।
अज्झत्तरतो समाहितो
एको संतुसितो तमाहु भिक्खुं ।।300।।
यो मुखसज्जतो
भिक्खु मंतभाणी अनुद्धतो।
अत्थं धम्मज्च
दीपेति मधुरं तस्स भासितं ।।301।।
धम्मारामो धम्मरतो
धम्मं अनुविचिन्तयं ।
धम्मं अनुस्सरं
भिक्खु सद्धम्मा न परिहायति ।।302।।
प्रथम
दृश्य:
भगवान के जेतवन में
विहरते समय पांच ऐसे भिक्षु थे जो पंचेद्रिय में से एक— एक का संवर करते थे। कोई
आंख का कोई कान का कोई जीभ का। एक दिन उन पांचों में बड़ा विवाद हो गया कि किसका
संवर कठिन है। प्रत्येक अपने संवर को कठिन और फलत: श्रेष्ठ मानता था। विवाद की
निष्पत्ति न होती देख अंतत: वे पांचों भगवान के चरणों में उपस्थित हुए और उन्होंने
भगवान से पूछा : भंते! इन पांच इंद्रियों में से किसका संवर अति कठिन है?
भगवान
हंसे और बोले भिक्षुओ! संवर दुष्कर है। संवर कठिन है। इसका संवर या उसका संवर
नहीं— संवर ही कठिन है। भिक्षुओ। ऐसे व्यर्थ के विवादों में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि
विवाद मात्र के मूल में अहंकार छिपा है। इसलिए विवाद की कोई निष्पत्ति नहीं हो
सकती। विवादों में शक्ति व्यय न करके समग्र शक्ति संवर में लगाओ। सभी द्वारों का
संवर करो। संवर में दुखमुक्ति का उपाय है।
इस
दृश्य को ठीक से समझ लें,
फिर सूत्र समझ में आना आसान हो जाएंगे। पहली बात, संवर शब्द में गहरे जाना जरूरी है। संवर, या संयम,
या समता या सम्यवत्व, या समाधि, या संबोधि, या संबुद्ध—सब एक ही मूल धातु से
निष्पन्न होते हैं—सम।
भारत
ने जितनी श्रेष्ठ दशाएं चित्त की खोजी हैं, सभी को सम से निर्मित शब्दों से
इंगित किया है समाधि, संबोधि, सबुद्ध।
इस सम धातु का क्या अर्थ है?
सम
का अर्थ होता है जहां व्यक्ति ऐसी दशा में आ जाए, जैसे तराजू तब आता हैरअ?
ज३बु काटा बिलकुल मध्य में होता है। दोनों पलड़े समान हो जाते हैं,
समतुल हो मनुष्य के मन में दुख है, सुख है,
असफलता है, सफलता है, अंधेरा
है, उजाला है, जीवन का मोह है, मृत्यु का भय है। ये सारे द्वंद्व जब सम हो जाते हैं, न जीवन का मोह, न मृत्यु का भय; न सफलता की आकांक्षा, न विफलता से बचाव, न सुख की खोज, न दुख से भागना—ऐसी स्थिति सम है।
सम
की अवस्था में शून्य अपने आप निष्पन्न होता है। क्योंकि धन और ऋण जब बराबर हो जाते
हैं, एक —दूसरे को काट देते हैं। सीधा गणित है। धन और ऋण जब बराबर हो गए,
तो एक—दूसरे को काट देते हैं; बचता है शून्य।
वह शून्य ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उस शून्य का नाम ही सम है।
उस
शून्य की दशा में ले जाने वाले सब उपाय, और उस दशा में पहुंचने के बाद की
सब भंगिमाएं सम शब्द से उदघोषित की गयी हैं।
सोचो।
परखो। कभी क्षणभर को तुम भी इस समता में आ सकते हो। कभी क्षणभर को तुम्हारा तराजू
भी थिर हो सकता है,
जब न तुम इस तरफ झुके, न उस तरफ झुके।
रस्सी
पर चलते किसी नट को देखा है! वही कला समता को पाने की कला है। ठीक मध्य में है।
जरा यहां —वहा हुआ कि गिरेगा। अगर जरा बाएं की तरफ झुक जाता है, तो खतरा।
दाएं तरफ झुक जाता है, तो खतरा। अगर बाएं तरफ झुक जाता है नट,
तो तत्क्षण अपने को दाएं तरफ झुका लेता है, ताकि
संतुलन फिर कायम हो जाए। दाएं तरफ झुकने लगता है, तो बाएं
तरफ झुका लेता है, ताकि फिर संतुलन कायम हो जाए। नट प्रतिपल
बाएं —दाएं के बीच अपने को मध्य में सम्हालता है।
बुद्ध
ने कहा है ध्यान की प्रक्रिया रस्सी पर चलने जैसी प्रक्रिया है। ध्यान का अर्थ है
: अभी कुछ—कुछ झुकना हो रहा है, कभी बाएं, कभी दाएं;
कभी दाएं, कभी बाएं। समाधि का अर्थ है?
अब कहीं भी झुकना नहीं हो रहा है। समता थिर हो गयी। ध्यान उपाय है;
समाधि अंतिम फल है। ध्यान के वृक्ष पर समाधि का फूल खिलता है।
यह
जो समता है, इसे कभी—कभी क्षणभर को तुम सम्हाल ले सकते हो। और उसी से तुम्हें धर्म का
द्वार खुलेगा। कभी बैठे हो शांत, उस क्षण में सम्हालो। चलो
रस्सी पर। न सुख से विरोध, न दुख से विरोध। न सुख की आकांक्षा,
न दुख की आकांक्षा।
ध्यान
रखना. अक्सर लोग वही कर लेते हैं, जो नट कर रहा है। जब सुख उन्हें काफी परेशान
करने लगता है, चिंताओं से भरने लगता है, तो वे कहते हैं? सुख तो दुख लाता है। इसलिए सुख से
उनका विरोध हो जाता है। इन्हीं को तुम त्यागी कहते हो, जिनका
सुख से विरोध हो गया है। जिनके मुंह में सुख कड़वा हो गया है।
अब
ये उलटी आकांक्षा करने लगते हैं, ये दुख की आकांक्षा करने लगते हैं। इस दुख की आकांक्षा
से ही तुम्हारी सारी तपश्चर्या निर्मित होती है। पहले ये खोजते थे अच्छी सुख—शय्या।
अब खोजते हैं कंकड़—पत्थर, कांटे भरी भूमि! पहले ये खोजते थे
सुस्वादु भोजन; अब अगर सुस्वादु भोजन भी मिल जाए, तो उसे पानी में, नदी में जाकर डूबाकर खराब करके फिर
स्वीकार करते हैं। पहले खोजते थे रेशमी वस्त्र, अब अगर रेशमी
वस्त्र मिल जाएं, तो उनसे दूर भागते हैं। अब इन्हें खुरदरे,
गड़ने वाले वस्त्र चाहिए!
तुम
जानकर चकित होओगे कि त्याग के नाम पर आदमी ने क्या—क्या किया है! अपने को कोड़े
मारे हैं, लहूलुहान किया है। ईसाइयों में एक संप्रदाय ही रहा है कोड़े मारने वाले
साधुओं का। सुबह उनकी पहली प्रार्थना यही थी कि वे अपने को खड़ा करके नग्न, कोड़े मारें; लहूलुहान कर लें। जो जितने ज्यादा कोड़े
मारे, वह उतना बड़ा साधु। और लोग देखने आते! गावभर की भीड़ लग
जाती। यह प्रार्थना का समय साधु का—जब वह कोड़े मारता है—सब देखते। लोगों के देखने
के कारण कोड़े मारने में और रस आ जाता, प्रतियोगिता छिड़ जाती।
एक—दूसरे को हराने का भाव पैदा हो जाता।
ये
वे ही लोग हैं,
जो संसार में प्रतिरूपर्धा करते थे; अब
संन्यास में प्रतिरूपर्धा कर रहे हैं! जरा भी कुछ बदलाहट नहीं हुई। समता आयी नहीं।
शून्य निर्मित नहीं हुआ। पहले सुख मांगते थे, अब दुख मांगते
हैं, मगर मांग जारी है। और जैसे एक दिन सुख मांग—मांगकर ऊब
गए थे और दुख की तरफ झुक गए, ऐसे ही किसी दिन दुख माग—मांगकर
ऊब जाएंगे और फिर सुख की तरफ झुक जाएंगे।
समता
का अर्थ है. इस सत्य को जानना कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुमने
एक को मांगा,
तो दूसरा भी मांग लिया गया। और जब तक दोनों रहेंगे—द्वंद्व रहेगा—तब
तक तुम डावाडोल रहोगे। जब तक द्वंद्व रहेगा, तब तक तुम शांत
नहीं हो सकोगे।
तुम
इस कोने से उस कोने जा सकते हो, घड़ी के पेंड़लम की तरह डोलते हुए। मगर मध्य में
कब ठहरोगे?
देखा, घड़ी चलती
है, पेंड़लम घूमता है तो। अगर पेंड़लम मध्य में रुक जाए,
तो घड़ी रुक जाती है। ऐसे ही जिस दिन तुम मध्य में रुक जाओगे,
समय रुक जाएगा। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है मन समय है। महावीर ने तो
आत्मा को नाम ही समय का दिया है। महावीर कहते ही आत्मा को समय हैं। इसलिए कुंदकुंद
का प्रसिद्ध शास्त्र है : समय—सार।
मैं
का भाव ही समय से पैदा होता है। मैं का भाव ही समय का मूल है। जिस दिन मैं मिटा, उसी दिन
समय भी मिट गया। और मैं उसी दिन मिटता है, जिस दिन तुम मध्य
में आ जाते हो। जब तुम दोनों में से कहीं नहीं डोलते; जब
तुम्हारा कोई चुनाव नहीं रह जाता—तब समता।
इसलिए
कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं—च्चाइसलेस अवेयरनेस। जब तुम चुनाव ही नहीं करो। जब तुम
नहीं चुनोगे,
तब तुम थिर हो जाओगे।
तो
कभी—कभी शांत बैठकर अचुनाव की दशा में थोड़ी डूबकी लेना, तो
तुम्हें सम शब्द का अर्थ मिलेगा। ये शब्द ऐसे नहीं हैं कि भाषाकोश में इनका अर्थ
तुम खोजने जाओ, तो मिल जाए। भाषाकोश में अर्थ लिखा है,
मगर उससे कुछ खुलेगा नहीं; राज प्रगट नहीं
होगा। ये शब्द इतने बहुमूल्य हैं, अस्तित्वगत हैं, कि इनको तुम जानोगे अनुभव से, तो ही पहचानोगे।
और
सम की अनुभूति हो जाए,
तो धर्म का मूल सूत्र हाथ लग गया। फिर यही सम समता बन जाएगा;
यही सम सम्यक्त्व बन जाएगा; यही सम समाधि बन
जाएगा; यही सम संबोधि बन जाएगा। यही सम संवर—संयम बन जाएगा।
तो
अर्थ हुआ सम का : धन और ऋण,
विपरीत जो एक—दूसरे के हैं, एकदम बराबर वजन के
हो जाएं, ताकि एक—दूसरे को काट दें और हाथ में शून्य बच रहे।
उस रिक्तता का ही नाम समता है। उस निष्पक्षता का नाम ही समता है।
तुमने
अगर संसार छोड़ दिया मोक्ष को पाने के लिए, तो तुम समता को उपलब्ध न हो सकोगे।
फिर झुक गए; फिर चुनाव कर लिया। बाएं झुके थे, अब दाएं झुक गए। तुम अगर स्त्री को छोड़कर जंगल भाग गए...। पहले स्त्रियों
के पीछे भागते थे, अब स्त्रियों से भागने लगे—मगर समता नहीं
आयी। विपरीतता आ गयी। विपरीतता में कहां समता? एक चुना था,
अब उससे उलटा चुन लिया। पहले पैर के बल चलते थे, अब सिर के बल खड़े हो गए! मगर तुममें क्या फर्क आएगा इससे!
तुम
पैर के बल खड़े रहो कि सिर के बल खड़े रहो, तुम तुम हो। इस तरह की क्षुद्र
बातों में चुनाव कर लेने से कुछ फल होने वाला नहीं है। एक क्षुद्रता हटेगी,
दूसरी क्षुद्रता पकड़ लेगी। पहले धन पकड़ते थे, अब
धन को देखकर कंपते हो। इस तरह तो तुम कभी भी द्वंद्व के बाहर न हो सकोगे। नहीं हो
सके हो जन्मों—जन्मों में। और द्वंद्व के बाहर होने का सूत्र है. चुनो मत, समझो। देखो, गहरे देखो। आंख को पैना करो। धार रखो
आंख पर। दृष्टि को निखारो। और तब तुम्हें क्या दिखायी पड़ेगा?
जिसने
सफलता मांगी,
उसने विफलता भी मांग ली। और जिसने न सफलता मांगी, न विफलता, वह शांत हो गया। जिसने धन मांगा, उसने गरीबी भी मांग ली। और जिसने सुख मांगा, उसने
दुख भी मांग लिया। उलटा पीछे ही चला आता है छाया की तरह लगा हुआ। तुमने प्रेम मांगा,
घृणा भी माग ली।
मांगो
ही मत। गैर—माग की चित्त में दशा हो जाए; कोई आधी—अंधड़ न चले, कोई तूफान न उठे; कोई लहर न बने। उस निष्कंप दशा का
नाम है—सम। उसी सम से बनता है शब्द—संवर।
अब
संवर को समझ लेना उचित होगा।
आमतोर
से लोगों ने संवर को समझा नहीं, क्योंकि वे सम को ही नहीं समझ पाए। तो संवर,
नासमझी के कारण, दमन हो गया। संवर का अर्थ दमन
नहीं होता। संयम का अर्थ भी दमन नहीं होता।
संयम
और संवर दमन से बिलकुल भिन्न हैं। दमन का अर्थ होता है—समझे तो नहीं और दबा लिया।
लोगों ने कहा. क्रोध बुरा है, सुना, शास्त्रों में पढ़ा;
संतों की वाणी समझी और बार—बार सुना—क्रोध बुरा है, क्रोध जहर है, क्रोध आग है, और
क्रोधी बुरा आदमी है, अपमानित होता है, अक्रोधी सम्मानित होता है। तुम्हारे मन में भी सम्मानित होने की आकांक्षा
है। और तुम भी नहीं चाहते कि तुम्हें कोई बुरा समझे। और तुम भी नहीं चाहते कि
दुर्जनों में गिने जाओ। तो तुमने कहा. साधेंगे। क्रोध को संयम में ले लेंगे।
लेकिन
तुम अभी समझे ही नहीं हो,
तो तुम क्रोध को साध नहीं पाओगे; संयम में
नहीं ले पाओगे। सिर्फ दबाने में कुशल हो जाओगे। तुम दबा लोगे अपनी छाती में क्रोध
को। तो ऊपर—ऊपर प्रगट न होगा, लेकिन भीतर— भीतर जहर की तरह
तुम्हारी जीवन—रचना में फैल जाएगा; तुम्हारे रग—रेशे में
प्रविष्ट हो जाएगा।
इसलिए
तुम्हारे तथाकथित मुनि,
साधु, त्यागी अत्यंत क्रोधी मालूम होते हैं।
क्रोध चाहे न करें, मगर क्रोधी मालूम होते हैं। तुम दुर्वासा
को हर मंदिर में बैठा हुआ पाओगे। कारण क्या है? क्रोध चाहे न
करें, लेकिन तुम उनकी भाव— भंगिमा क्रोध से भरी पाओगे।
साधारण
आदमी इतना क्रोधी नहीं होता, जितने तुम्हारे महात्मा होते हैं तथाकथित।
साधारण आदमी तो रोज—रोज क्रोध कर लेता है, छुटकारा हो जाता
है। साधारण आदमी का क्रोध तो चुन्नभर होता है। कोई बात हुई, प्रसंग
आया, क्रोध कर लिया। बात खतम हो गयी; क्रोध
भी खतम हो गया।
लेकिन
तुम्हारे महात्मा क्रोध को इकट्ठा करते जाते हैं। चुल्ल—चुल्ल आता है, वे इकट्ठा
करते जाते हैं। और बूंद—बूंद से तो सागर भर जाता है। चुल्ल—चुल्ल इकट्ठा होते—होते
इतना हो जाता है कि महात्मा की पूरी जीवन—चर्या ही क्रोध की हो जाती है। क्रोध
करता नहीं है, मगर क्रोध इकट्ठा होता है। और जो इकट्ठा होता
है, वह ज्यादा खतरनाक है।
मनस्विद
कहते हैं कि छोटा—मोटा क्रोध हो जाए—स्वाभाविक है, मानवीय है! लेकिन जो आदमी
क्रोध को दबाता चला जाएगा, यह खतरनाक है; इससे सावधान रहना। यह किसी दिन किसी की हत्या कर देगा। किसी दिन अगर फूटा
क्रोध, तो छोटी—मोटी घटना नहीं घटेगी। किसी दिन क्रोध फूटा,
तो कुछ बड़ी दुर्घटना होगी। इसके पास काफी जहर है।
दमन
संयम नहीं है। दमन संवर नहीं है। दमन तो अपने को दो हिस्सों में विभाजित करना है, खंड—खंड
कर लेना है। दमन तो एक तरह का रोग है। दमन से तो नैसर्गिक आदमी बेहतर है। लेकिन
दमन से धोखा पैदा होता है कि संयम हो गया। मैंने सुनी है एक कहानी एक आदमी
महाक्रोधी था। ऐसा क्रोधी था कि एक बार क्रोध में अपने बच्चे को खिड़की से बाहर
फेंक दिया; बच्चा मर गया। और एक बार अपनी पत्नी को कुएं में
धक्का दे दिया, तो पत्नी कुएं में गिर गयी।
गांव
में एक जैन मुनि आए थे। तो उन्होंने इस आदमी को बुलाया। समझाया। कि पागल! यह तू
क्या कर रहा है!
उस
दिन उसका भी घाव ताजा था। पत्नी मर गयी थी। सोचा नहीं था कि मार डाले। क्रोध की
ज्वाला में घटना घट गयी थी;
अपने बावजूद घट गयी थी। अब पछता भी रहा था। ऐसा भी नहीं था कि पत्नी
से प्रेम न रहा हो। लगाव भी था। आज अपने ही हाथ से अपने ही प्रेम—पात्र को कुएं
में ढकेल आया था। इस चोट में लोहा गरम था।
मुनि
ने बुलाया और कहा कि बदलो। अब यह कब तक करोगे? बेटा मार डाला! पत्नी मार डाली!
क्या सार है? अब तो तुम्हीं बचे, अब
अपने को ही किसी दिन मार डालोगे! और तो कोई बचा भी नहीं। यह तुम्हारा क्रोध
तुम्हारे परिवार को खा गया; तुम्हें भी खा जाएगा।
उस
दिन लोहा गरम था। चोट लग गयी। उसने कहा क्या करूं? आप कहें। जो आप कहेंगे,
करूंगा। मुनि ने कहा. संन्यस्त हो जाओ।
वह
आदमी क्रोधी था। साधारण आदमी होता, तो कहता घर जाऊं, सोचूं —विचारूं; और झंझटें हैं। वह आदमी तो क्रोधी
था; जिद्दी आदमी था, हठी आदमी था। हठी
आदमी के हठयोगी होने में देर कितनी लगती है! वह तो क्रोधी आदमी था और आज लोहा गरम
भी था। उसने वहीं कपड़े फेंक दिए। वह नग्न हो गया। नग्न मुनि थे। उसने कहा. इसी
वक्त दीक्षा दें। देर की जरूरत नहीं है।
मुनि
तो बहुत प्रसन्न हुए। नासमझ रहे होंगे, इसलिए प्रसन्न हुए। समझदार होते,
तो देखते कि यह कृत्य भी क्रोध से भरा है। इस कृत्य में भी समता
नहीं है, बोध नहीं है। यह कृत्य भी गलत है।
आदमी
गलत हो, तो उसके हाथ में ठीक चीजें भी गलत हो जाती हैं। और आदमी ठीक हो, तो गलत चीजें भी ठीक हो जाती हैं। इस सूत्र को याद रखना। ठीक आदमी के हाथ
में गलत चीजें भी ठीक हो जाती हैं। असली सवाल हाथ का है। और गलत आदमी के हाथ में
ठीक चीजें भी गलत हो जाती हैं। असली सवाल हाथ का है। कुशल आदमी के हाथ में जहर
औषधि बन जाता है। अकुशल आदमी के हाथ में औषधि भी जहर हो जाती है।
मुनि
कुछ बहुत समझदार न रहे होंगे। हो सकता है, खुद भी इसी ढंग के आदमी रहे हों।
बहुत प्रसन्न हुए। आशीर्वाद दिया। और खुशी में उसको नाम दिया—कि आज से तेरे जीवन
की नयी शुरुआत हुई—तेरा नाम शांतिनाथ! वे थे तो क्रोधनाथ, उनका
रूपांतरण हुआ तो शांतिनाथ हो गए।
फिर
वर्षों बीत गए। गुरु चले गए संसार से। अब तो शांतिनाथ गुरु हो गए। और बड़े क्रोधी
आदमी थे, तो जैसे पहले दूसरों को क्रोध से सताया था, अब
दूसरों को तो सता नहीं सकते थे; अब अपने को सताते थे। छाया
में न बैठकर धूप में खड़े होते थे। सीधे रास्ते पर न चलकर, खाई—खड्डों
वाले रास्ते से, ऊबड़—खाबड़ रास्ते से चलते थे। जरूरत के योग्य
भोजन भी नहीं लेते थे। शरीर को सुखा डाला था। और दिगंबर जैन मुनि की दीक्षा में
क्रोध को प्रगट करने के बहुत सुविधापूर्ण उपाय हैं। उनका भी उपाय करते थे।
जैन
मुनि के बाल बढ़ जाते हैं,
तो लोंचता है। तुमने देखा, क्रोध में
स्त्रियां बाल नोचती हैं! जैन मुनि के बाल बढ़ जाते हैं, तो
वह लोंचता है, उखाड़ता है। और इसे देखने सैकड़ों लोग इकट्ठे
होते हैं। और कहते हैं धन्य! धन्य! साधु! साधु!
बाल
उखाड़ता था यह आदमी। यह प्रतीक्षा करता था. कब बाल बढ़ जाएं और उखाड़ने का मजा! अब
अपने को सताता था। अब दूसरे को सताने का तो उपाय नहीं रहा था। वह तो कठिनाई में पड़
गयी थी बात। अब तो अहंकार पर बहुत ज्यादा फूल चढ़ गए थे। और अहंकार को बहुत
प्रतिष्ठा मिल गयी थी। तो किसी को सता तो नहीं सकता था। लेकिन परोक्षरूप से सताता
था। जो आए, उसी को कहता था छोडो संसार, नहीं तो नर्क जाओगे। अब
वह नर्क का भय देकर सता रहा था! नर्क खड़ा तो नहीं कर सकता था, लेकिन कम से कम सपनों में नर्क तो डाल ही सकता था तुम्हारे। तुम्हारे मन
में तो नर्क का भय पैदा कर ही सकता था।
और
जो उसके चक्कर में आ जाता,
उसको तत्क्षण मुनि बना देता, उसको नग्न करवा
देता। उसको बाल उखाड़ना सिखवा देता। उसको सताने की विधि पकड़ा देता। खुद तो नहीं सता
सकता था, लेकिन अब धर्म के नाम पर सताने का प्रचार तो कर
सकता था। वही कर रहा था। उसकी काफी ख्याति हो गयी। ऐसे लोग काफी ख्यातिलब्ध हो
जाते हैं। लोग उनको महात्मा कहते है—कि देखो, कितना त्यागी!
अक्सर सौ में निन्यानबे तुम्हारे महात्मा किन्हीं न किन्हीं मानसिक व्याधियों से
ग्रस्त होते हैं। उनकी चिकित्सा की जरूरत है, सम्मान की
जरूरत नहीं। उनको मनोचिकित्सा की जरूरत है। उन्हें इलाज चाहिए।
मगर
तुम अंधे हो,
तुम कैसे देख पाओ कि उन्हें इलाज चाहिए! तुम भी उन्हीं के सिद्धांतों
में पाले गए हो। उन्हीं ने तुम्हें सिद्धात सदियों से सिखाए हैं। उन्हीं के
सिद्धात हैं, उन्हीं सिद्धांतों के कारण तुम पकड नहीं पाओगे
कि कहीं कुछ भूल हो रही है। सब ठीक लगता है।
अगर
ईसाई फकीर अपने को कोड़े मारता है, तो हिंदू को दिखायी पड़ता है कि भूल हो रही है।
क्योंकि हिंदू उस सिद्धात में नहीं पला है। ईसाई को नहीं दिखायी पड़ता कि भूल हो
रही है। और जब हिंदू संन्यासी भरी दुपहरी में आग जलाकर बैठता है, अपने चारों तरफ धूनी रमाता है, तो हिंदू को नहीं
दिखायी पड़ता कि भूल हो रही है, ईसाई को दिखायी पड़ता है कि यह
क्या जड़ता है! यह तो आत्म—दमन है। यह तो आत्म—पीडन है।
और
जब जैन मुनि बाल उखाड़ता है,
तो हिंदू को दिखायी पड़ता है कि यह क्या पागलपन है! हिंदू ने तो इसको
गाली बना रखी है। तुमने एक शब्द सुना है, नंगे—लुच्चे! वह
शब्द पहली दफे जैन मुनियों के लिए उपयोग में हुआ था। नंगे रहते हैं और लोंचते हैं
बाल, इसलिए नंगे—लुच्चे! वह गाली बन गयी। हिंदू तो उसको गाली
की तरह उपयोग करता है। लेकिन जैन को दिखायी नहीं पड़ता कि इसमें कुछ भूल हो रही है।
यही तो धर्म है!
तुम
जिस धारा में पले हो,
पुसे हो, जो तुम्हारे मन में संस्कार डाल दिए
गए हैं, उन्हीं संस्कारों के आधार पर तुम सोचते हो। इसलिए एक
की भूल दूसरे को दिख जाती है, मगर स्वयं को नहीं दिखायी
पड़ती!
इस
मुनि ने काफी लोग खड़े कर लिए। इसकी प्रतिष्ठा बढ़ती गयी। और जैसे—जैसे इसकी
प्रतिष्ठा बढ़ती,
यह राजधानी की तरफ बढ़ता गया। क्योंकि अंततः तो राजधानी में ही
प्रतिष्ठा है। वह दिल्ली पहुंच गया होगा!
राजनेता
ही दिल्ली नहीं पहुंच जाते;
महात्मा भी वहीं पहुंच जाते हैं। क्योंकि महात्मा के पीछे भी है तो
राजनीति ही।
कोई
तीस साल बीत गए थे इसको मुनि हुए। इसके बचपन का एक साथी दिल्ली आया हुआ था। किसी
काम से आया होगा,
व्यवसाय से। उसने सोचा कि शांतिनाथ के दर्शन कर आऊं। बचपन का साथी।
साथ—साथ पढ़े —लिखे। इसे भरोसा नहीं आता था कि वे क्रोधनाथ शांतिनाथ हो गए होंगे।
मगर हो ही गए होंगे। इतनी ख्याति सुनता है! तो उनके दर्शन करने गया।
शांतिनाथ
अपने सिंहासन पर विराजमान थे। उन्होंने देख तो लिया, पहचान तो लिया इस आदमी को।
मगर अब वे इतने ऊंचे हो गए हैं, इस ऊंचाई पर पहुंच गए
हैं—इसको पहचानें कैसे! स्वीकार कैसे करें कि हम कभी साथ खेले! इतने नीचे कैसे
उतरें? तो उन्होंने आंख फेर ली। पहचान लिया और नहीं पहचाना!
तभी
मित्र को लगा.। क्योंकि मित्र को भी दिखायी पड़ गया कि पहचान लिया है, अब आंख
बचा रहे हैं। तो उसे लगा कि शायद कुछ बदलाहट हुई नहीं। उसने कहा कि आप मुझे पहचाने
नहीं? तो मुनि ने कहा कैसे पहचानूं! आप कोन? कहां से आए? तो मित्र ने अपना परिचय दिया। परिचय सुन
लिया, लेकिन कोई रस नहीं लिया मित्र में। यह भी नहीं स्वीकार
किया कि हां, याद आ गयी, कि कभी
तुम्हें जानता था, कभी हम साथ खेले। साथ नदियों में तेरे।
साथ लड़े—झगड़े। उस क्षुद्रता की बात अब क्या करनी याद? उस
साधारणता की बात अब यह असाधारण महापुरुष कैसे याद करे!
मित्र
यह सब देखता रहा। चेहरे पर वही क्रोध है। जो नहीं समझते, वे कहते.
तेजस्विता है! है वही क्रोध, नाक पर सवार है। सब तरफ से साफ
है। मित्र जानता है बचपन से। ढंग में कहीं कोई फर्क नहीं हुआ है। वही बात है।
सिर्फ रूप बदला है। परीक्षा के लिए मित्र ने पूछा कि क्या आप से पूछ सकता हूं आपका
नाम क्या है? यह बात ही सुनकर मुनि को बहुत क्रोध आ गया।
कहा. अखबार नहीं पढ़ते? रेडियो नहीं सुनते? टेलीविजन नहीं देखते? नाम पूछते हो! तुम्हें मेरा
नाम पता नहीं है? मेरा नाम शांतिनाथ है।
मित्र
कुछ और थोड़ी बात करता रहा,
फिर बोला कि क्षमा करिए! मैं भूल गया। आपका नाम क्या है?
अब
तो मुनि को बहुत क्रोध आ गया। क्रोध तो इस आदमी को देखकर ही आना शुरू हो गया था।
क्योंकि इसका आना ही. सब स्मृतियां उठने लगी थीं। पुराने दिन जाहिर होने लगे, साफ होने
लगे। दबाकर बैठे थे—वह उभरने लगा। क्रोध तो इस आदमी को देखकर ही आ गया था। यह
दुष्ट कहां से आ गया! यह कंकड़ की तरह पड़ा और सब पुरानी तरंगें उठने लगीं। मैं तो
सोचता था, गया सब। और इसको देखकर सब याद आने लगा!
तुमने
कभी—कभी खयाल किया होगा। पुराने परिचित मिल जाएं, तो तत्क्षण तुम पुराने हो
जाते हो। बीस साल पहले का परिचित मिल जाए, तो स्वभावत: उससे
बात वहीं से करनी पड़ती है, जहां बीस साल पहले विदा हुए थे।
तत्क्षण तुम बीस साल पहले लौट जाते हो।
इस
आदमी को देखकर मुनि फिर अपनी पुरानी दुनिया में लौट गया। वह सब भरा तो पड़ा था भीतर, आगार
में—वह सब उभरने लगा। क्रोध तो देखकर ही इस आदमी को आने लगा था। इसके चेहरे को
देखकर ही चांडाली छूट रही थी। यह किसी तरह जाए! और अब यह दुष्ट और चोटें करने लगा!
इसने फिर पूछा कि आपका नाम क्या है महाराज! तो उन्होंने कहा : मैंने एक दफा कह
दिया, समझे नहीं? शांतिनाथ! बहरे हो?
वह
आदमी फिर इधर—उधर की बात करता रहा। फिर उसने तीसरी बार पूछा कि क्षमा करिए! मैं
भूल गया!
उसका
इतना ही कहना था कि मुनि ने अपना डंडा उठा लिया और कहा : सिर तोड़ दूंगा! एक क्षण
को सब भूल गए।
उस
मित्र ने कहा मैं पहचान गया शांतिनाथ जी! आप वही के वही हैं। कहीं कोई फर्क नहीं
हुआ है।
तुम
विपरीत हो सकते हो,
लेकिन विपरीत से फर्क नहीं होता। जब तुम सम होते हो, तब फर्क होता है। सम में क्रांति है।
हमारे
पास अच्छा शब्द है—संक्रांति। वह क्रांति और सम से मिलकर बना है। वह क्रांति से
ज्यादा बहुमूल्य है। क्रांति तो एक कोने से दूसरे कोने पर चला जाना है। अमीर थे, गरीब हो
गए। सुंदर कपड़े पहनते थे, नग्न हो गए। धन के अतिरिक्त और
किसी चीज में रस नहीं था, तो धन को छूना भी बंद कर दिया। यह
क्रांति है। संक्रांति क्या है? संक्रांति है मध्य में हो
जाना। न इस तरफ रहे, न उस तरफ। न त्यागी, न भोगी। जब दोनों न रहे, तब जो घटना घटती है,
वह समता।
दमन
से नहीं घट सकती। दमन कैसे संवर बनेगा? दमन तो संवर कभी नहीं बन सकता।
इसलिए संवर और संयम—दमन का नाम नहीं है।
दमन
तो भोग का ही विपरीत रूप है। यह भोग ही है जो शीर्षासन करने लगा। इसमें जरा अंतर
नहीं है। इसे तुम समझोगे,
तो ये सूत्र तुम्हें साफ होंगे।
भगवान
के जेतवन में विहरते समय पाच ऐसे भिक्षु थे जो पंचेंद्रिय में से एक—एक का संवर
करते थे।
वह
संवर नहीं रहा होगा,
दमन ही रहा होगा। संवर होता, तो विवाद न उठता।
संवर होता, तो दृष्टि खुल गयी होती। विवाद कैसे उठता?
संवर होता, तो अनुभव हो गया होता। संवर होता,
तो बुद्ध के पास जाने की जरूरत न थी। संवर होता, तो बुद्ध स्वयं भीतर आ गए होते; बुद्धत्व पास आ गया
होता। संवर नहीं था।
सुना
होगा बुद्ध को—कि साधो इंद्रियों को। जागो इंद्रियों से। होश को सम्हालो। संवर में
उतरो। संयमी बनो। ऐसा बार—बार सुना होगा। रोज बुद्ध यही कहते थे। क्योंकि इसी से
दुखमुक्ति होने वाली है। समता को उपलब्ध हो जाओ, तो दुख के पार हो जाओगे।
समता के पाते ही संसार के पार हो जाओगे। वही मोक्ष है।
तो
बुद्ध की मोक्ष के संबंध में कही प्यारी बातों ने मन में लोभ जगाया होगा। और बुद्ध
के नर्क के विवेचन ने मन में भय जगाया होगा। बुद्ध की बात सुनकर हेतु पैदा हुआ
होगा, स्वार्थ पैदा हुआ होगा—कि ठीक! यही बात करने जैसी है। मगर समझ न जगी होगी,
बोध न जगा होगा। बुद्ध की बात सुन तो ली होगी, समझ में न आयी होगी।
सुन
लेना एक, समझ लेना बिलकुल और बात है। सुन तो सभी लेते हैं; समझता
कोन है! समझता वही है, जो सुनी गयी बात पर प्रयोग करता है।
और प्रयोग जबर्दस्ती नहीं करता, सहज—स्फूर्तता से करता है।
प्रयोग हेतु से भरे नहीं होते। अगर हेतु से भरे हैं, तो उनको
प्रयोग नहीं कहा जा सकता।
जैसे
तुमने मोक्ष पाने के लिए सोचा कि चलो, भोजन का त्याग कर दें, मोक्ष मिलेगा। तो यह प्रयोग नहीं हुआ। यह लोभ ही हुआ। एक नया लोभ हुआ।
तुमने सोचा कि चलो, नर्क में जाने से बचना है, इसलिए सुंदर स्वाद का त्याग कर दो, कि संगीत का
त्याग कर दो; कि सुख का त्याग कर दो, नहीं
तो नर्क में सड़ना पड़ेगा। यह तो भय हुआ, यह संवर नहीं हुआ।
संवर
न तो लोभ जानता,
न भय जानता; संवर हेतु ही नहीं जानता। संवर
अहेतुक है। जीवन को समझने के लिए किया जाता है। किसी और प्रयोजन से नहीं, निष्प्रयोजन है।
तो
ये भिक्षु एक—एक इंद्रिय को साधते थे। कोई भोजन पर नियंत्रण कर रहा था, कोई रूप
पर, कोई ध्वनि पर। कोई आंख को झुकाकर चलता था, ताकि रूप दिखायी न पड़ जाए।
अब
जो आंख झुकाकर चलता है,
वह रूप पर कभी भी संवर न पा सकेगा। संवर पाने के लिए अगर आंख झुका
ली, तो यह तो भय ही हुआ। संवर तो तब उपलब्ध होता है, जब रूप को कोई पूरी खुली आंख से देखे और भीतर कोई भाव न उठे, भीतर निर्भाव दशा रहे। रूप को गौर से देखे और रूप से मुक्त हो जाए—उसी
देखने में, उसी दर्शन में—तो संवर। सुंदर स्त्री सामने से
गुजरे, स्त्री गुजर जाए, मन में कुछ न
गुजरे। मन जैसा था, वैसा का वैसा रहे, जैसे
कोई गुजरा ही नहीं, तो संवर।
मगर
आमतोर से, तुमने कहानिया सुनी हैं। सूरदास के साथ किन्हीं ने कहानी जोड़ रखी है। अगर
कहानी सच है, तो सूरदास गलत थे। अगर सूरदास सही थे, तो कहानी गलत होनी चाहिए। कि एक सुंदर स्त्री को देखकर वे मोहाविष्ट हो
गए। उन्होंने आंखें फोड़ लीं।
आंखें
फोड़ने से कैसे सुंदर स्त्री से मुक्त हो जाओगे? रात आंखें तो बंद हो जाती हैं,
सपने तो चलते हैं, और प्रगाढ़ होकर चलते हैं!
आंख के जाने से कुछ सपने तो बंद नहीं हो जाएंगे। आंख रहती है, तो कभी—कभी सपने बंद भी हो जाते हैं। क्योंकि जिंदगी में और चीजें भी
देखने को मिलती हैं।
अगर
सूरदास ने किसी सुंदर स्त्री से भयभीत होकर आंखें फोड़ ली थीं, तो फिर
आंखें फूट जाने के बाद सिवाय उस सुंदर स्त्री के कुछ भी नहीं दिखायी पड़ेगा।
वही—वही दिखायी पड़ेगी। और जिस स्त्री के लिए आंखें फोड़ लीं, उस स्त्री से लगाव बड़ा गहरा हो गया। इतना त्याग किया उस स्त्री के लिए! उस
स्त्री के लिए इतनी कुरबानी की! इससे तो गठबंधन गहरा हो जाएगा। इससे तो अब कुछ और
याद ही नहीं आएगा। यही स्त्री, यही स्त्री, याद आएगी।
और
बंद आंखें हैं,
तो स्त्री रोज—रोज सुंदर होती जाएगी। क्योंकि तुम रोज—रोज रंग—तुलिका
लेकर उसे रंगते रहोगे। अगर आंखें खुली होतीं, तो एक न एक दिन
स्त्री की कुरूपता भी दिखायी पड़ती। क्योंकि जहां सौंदर्य है, वहा कुरूपता भी है। और अगर आंखें खुली रहतीं, तो यह
स्त्री जवान थी, किसी दिन की भी होती। जवानी कितनी देर टिकती
है! क्षणभंगुर है।
मगर
एक दफे आंखें फूट गयीं,
तो अब सूरदास ने जिस स्त्री को चाहा था, यह
सदा जवान रहेगी, अब की नहीं हो सकती। अब अटक गए।
सपने
की स्त्रिया कभी की क्यों हों? और अब स्त्री तो की हो चुकी होगी। लेकिन सूरदास
तो उसी स्त्री को याद करेंगे जो जवान थी; जिसे देखकर आंखें
फोड़ ली थीं। जिससे इतने घबड़ा गए थे, जिससे इतने आंदोलित हो
गए थे, जिससे इतने विचलित हो गए थे—उससे तो गठबंधन हो गया।
नहीं
तो मैं कहता हूं, अगर सूरदास सही हैं, तो यह कहानी गलत है। और अगर
कहानी सही है, तो सूरदास गलत हैं। अगर कहानी सही है, तो फिर सूरदास वह जो कृष्ण की महिमा गा रहे हैं, वह
कृष्ण की नहीं, उसी स्त्री की महिमा होगी।
और
अगर सूरदास सही हैं और कृष्ण की महिमा सही है, तो किसी स्त्री के लिए क्या आंख
फोड़ेंगे! उस स्त्री में कृष्ण का ही दर्शन होगा। जहां सौंदर्य होगा, वहीं परमात्मा का दर्शन होगा।
संवर
को उपलब्ध होने वाला आदमी आंख को निखारता है, आंख को खोलता है, ठीक से देखना सीखता है। अंधा नहीं हो जाता। और न आंख को झुकाता है।
प्रसिद्ध झेन कथा है, जो मैंने तुमसे बहुत बार कहीं है। दो
भिक्षु एक नदी के किनारे आए। एक का है, एक जवान है। और नदी
के किनारे उन्होंने खड़ी एक सुंदर युवती देखी। का साधु आगे है, जैसा कि नियम है कि का आगे चले, जवान पीछे चले। उस
के आदमी ने तो जल्दी आंखें झुका लीं। स्त्री अपूर्व सुंदर थी।
शायद
इतनी सुंदर न भी रही हो,
लेकिन बूढ़े संन्यासियों को सभी स्त्रियां सुंदर दिखायी पड़ती हैं! जो
स्त्रियों से भागेगा, उसे सभी स्त्रियां सुंदर दिखायी पड़ने
लगती हैं। तुम जितना भागोगे, उतनी ही सुंदर दिखायी पड़ने लगती
हैं। मगर हो सकता है, सुंदर ही रही हो। वह बहुत विचलित हो
गया।
और
उस स्त्री ने कहा कि मैं डर रही हूं; मुझे नदी के पार जाना है, क्या आप मुझे हाथ में हाथ नहीं देंगे? वह का तो सुना
ही नहीं। वह तो तेजी से भागा। उसने सोचा सुनना खतरनाक है, क्योंकि
उसे अपने मन की हालत दिखायी पड़ रही है। मन कह रहा है ले लो हाथ में हाथ। यह हाथ
प्यारा है। फिर मिले, न मिले! और अपने आप आ रहा है हाथ में,
छोड़ो मत। और जितना मन यह कहने लगा.। तो चालीस साल का नियम—व्रत,
सब मिट्टी में मिल जाएगा; तो घबड़ाहट बढ़ गयी।
वह पसीना—पसीना हो गया होगा उस सांझ। शीतल हवा बहती थी। सूरज ढल गया था। लेकिन वह
पसीना—पसीना हो गया होगा। वह तो नदी तेजी से पार करने लगा। उसने तो लौटकर नहीं
देखा। उसने तो जवाब नहीं दिया। क्योंकि जवाब में खतरा है।
जब
वह नदी पार कर गया,
तब उसे अचानक याद आयी कि मैं तो पार कर आया, लेकिन
मेरा जवान साथी पीछे आ रहा है। कहीं वह झंझट में न पड़ जाए! उसने लौटकर देखा। और
झंझट में जवान साथी पड़ गया था उसे लगा।
जवान
भी आया नदी के तट पर। उस स्त्री ने कहा मुझे पार जाना है, हाथ में
हाथ दे दो। उस जवान ने कहा कि नदी गहरी है, हाथ में हाथ देने
से न चलेगा, तू मेरे कंधे पर बैठ जा। वह उसको कंधे पर बिठाकर
नदी पार कर रहा था।
जब
के ने लौटकर देखा,
तो मध्य नदी में थे वे दोनों। का तो भयंकर क्रोध से और रोष से भर
गया। शायद ईर्ष्या का तत्व भी उसमें सम्मिलित रहा होगा—कि मैं तो हाथ में हाथ न ले
पाया और यह उसे कंधे पर ला रहा है! ऐसी सुंदर स्त्री! सपने जैसी सुंदर! फूलों जैसी
सुंदर! रोष उठा होगा। ईर्ष्या उठी होगी। जलन उठी होगी। मैं चूक गया—इसका
पश्चात्ताप उठा होगा। और इस सब का इकट्ठा रूप यह हुआ कि उसने कहा कि यह बर्दाश्त
के बाहर है। यह भ्रष्ट हो गया। जाकर गुरु को कहूंगा। कहना ही पड़ेगा।
और
जब युवक नदी के इस पार आ गया और दोनों आश्रम की तरफ चलने लगे, तो बूढ़ा
फिर दो मील तक उससे बोला नहीं। भयंकर क्रोध था। जब वे आश्रम की सीढ़ियां चढ़ते थे,
तब बूढे ने कहा कि सुनो! मैं इसे छिपा न सकूंगा। यह जघन्य पाप है,
जो तुमने किया है। मुझे गुरु को कहना ही पड़ेगा। संन्यासी के लिए
स्त्री का रूपर्श वर्जित है। और तुमने रूपर्श ही नहीं किया, तुमने
उस युवती को कंधे पर बिठाया। यह तो हद हो गयी!
पता
है, उस युवक ने उस के को क्या कहा!
उस
युवक ने कहा : आश्चर्य! मैं तो उस स्त्री को नदी के किनारे कंधे से उतार भी आया।
आप उसे अभी भी कंधे पर लिए हुए हैं?
जो
कंधों पर कभी नहीं लेते,
हो सकता है, कंधों पर लिए रहें। जिन्होंने
कंधों पर लिया है, वे कभी न कभी उतार ही देंगे। बोझ भारी हो
जाता है।
सूरदास
ने अगर आंखें फोड़ ली होंगी,
तो जिंदगीभर कंधे पर लिए रहे होंगे। नहीं, वह
कोई उपाय नहीं है। और मैं सूरदास को समझता हूं। इसलिए कहानी को कहता हूं गलत ही
होगी। कहानी सही नहीं हो सकती। किन्हीं मूढ़ों ने रची होगी। उन्हीं मूढ़ों ने,
जिनसे पूरा धर्म विकृत हुआ है।
ये
भिक्षु पांच—आंखें बंद कर रहे होंगे; कान बंद कर रहे होंगे, जबर्दस्ती अपने को किसी तरह बाध रहे होंगे। जब कोई जबर्दस्ती अपने को
बांधता है, तो अहंकार पैदा होता है। अहंकार लक्षण है। अहंकार
तभी पैदा होता है, जब तुम कुछ जबर्दस्ती अपने साथ करते हो और
उसमें सफल हो जाते हो।
जब
कोई आदमी समझपूर्वक जीवन में गहरे उतरता है, तो अहंकार निर्मित नहीं होता।
क्योंकि करने को वहां कुछ है ही नहीं। समझ से ही अपने आप गुत्थियां सुलझ जति हैं।
करना कुछ भी नहीं पड़ता है।
जिसने
जागकर शरीर के रूप को देख लिया, उसे दिखायी पड़ जाएगा, क्षणभंगुर
है; पानी का बबूला है। आज है, कल चला
जाएगा। अब कुछ करना नहीं पड़ता। बात खतम हो गयी।
जिसने
जागकर संगीत को सुन लिया,
उसे साफ हो गया कि केवल ध्वनियों की चोट है। आहत नाद है। इसमें कुछ
खास नहीं है; शोरगुल है। और जिसे यह दिखायी पड़ गया कि बाहर
का संगीत शोरगुल है, उसे भीतर का संगीत सुनायी पड़ने
लगेगा—जिसको हमने अनाहत नाद कहा है। वहां बज ही रही है वीणा। और वहा बजाने वाला
स्वयं परमात्मा है।
लेकिन
बाहर के संगीत में जो उलझा है, उसे भीतर का संगीत सुनायी भी नहीं पड़ता। और
बाहर के स्वाद में जो उलझा है, उसे भीतर के अमृत का स्वाद
नहीं आता। मगर बाहर के स्वाद को दबाओगे, तो भी बाहर के स्वाद
में ही उलझे रहोगे। दबाने से मुक्ति नहीं है 1 बाहर का स्वाद समझो।
इन
पांचों में एक दिन भारी विवाद छिड़ गया।
पाचों
अहंकारी हो गए होंगे। एक आंख झुकाकर चलता था। वह उसका अहंकार हो गया होगा—कि देखो, मैंने रूप
का जैसा संवरण किया है; ऐसा किसी ने भी नहीं किया। और बड़ा
कठिन है रूप का संवरण। क्योंकि आंख पर विजय पाना सबसे बड़ी कठिन बात है। दुष्कर बात
है। क्योंकि रूप का आकर्षण बड़ा प्रबल है।
और
दूसरा कहता होगा : इसमें क्या रखा है! असली बात तो जिह्वा है। जीभ पर नियंत्रण
चाहिए। मुझे देखो! न नमक लेता हूं; न शक्कर लेता हूं; न घी लेता हूं; न यह लेता हूं न वह लेता हूं।
रूखा—सूखा खाता हूं। असली चीज तो जिह्वा है। रूप का स्वाद तो तब पैदा होता है,
जब आदमी चौदह साल का हो जाता है। जीभ का स्वाद तो जन्म के पहले दिन
ही पैदा हो जाता है। रूप का स्वाद तो आदमी का होने लगता है, तो
समाप्त हो जाता है। लेकिन जीभ का स्वाद तो मरते दम तक साथ रहता है।
तो
जो जीभ पर नियंत्रण करता था, वह कहता था कि देखो, पहले
दिन से लेकर आखिरी दिन तक, झूले से लेकर कब्र तक जो चीज चलती
है, वह ज्यादा दुष्कर है। रूप तो आता है और चला जाता है।
कोई
नाक पर नियंत्रण कर रहा था—गंध पर। कोई कान पर नियंत्रण कर रहा था—ध्वनि पर। कोई
शरीर पर नियंत्रण कर रहा था—रूपर्श पर। सब अपनी दलीलें दे रहे होंगे।
जो
रूपर्श की दलील दे रहा था,
वह कह रहा होगा—कि ठीक है, बच्चा पैदा होता है,
तब दूध पीता है। लेकिन बच्चे को रूपर्श का आनंद तो मां के गर्भ में
ही आना शुरू हो जाता है। वहीं दोनों की देहें रूपर्श करती हैं। और यह रूपर्श की आकांक्षा
जीवनभर बनी रहती है। एक शरीर से दूसरे शरीर के रूपर्श में जो ऊष्मा मिलती है,
जो गर्मी मिलती है, उसका रस सदा बना रहता है।
ऐसे
उनमें विवाद चलता होगा। यह विवाद संवर के कारण तो हो ही नहीं सकता। यह विवाद
इसीलिए हो रहा है कि सभी ने नियंत्रण किया है। और जिसने नियंत्रण किया है, वह यह
कहना चाहता है कि मेरा नियंत्रण तुझसे बडा है। और स्वभावत: मेरा नियंत्रण तुझसे
कठिन है, तुझसे बड़ा है, इसलिए मैं
तुझसे बड़ा हूं। यह अहंकार उसमें भीतर होगा।
अगर
त्यागी अहंकारी हो,
तो समझना कि त्यागी नहीं है। अगर त्यागी निरअहंकारी हो, तो ही त्यागी है। और निरअहंकारी त्यागी मिलना ही मुश्किल है। क्योंकि
निरअहंकारी त्यागी नहीं होता है, न भोगी होता है—मध्य में
खड़ा हो जाता है। उसकी घड़ी रुक गयी, उसका पेंड़लम ठहर गया। वह
सम को उपलब्ध हो जाता है।
दुनिया
में तीन तरह के लोग हैं भोगी, त्यागी; और दोनों के मध्य
में मैं रखता हूं संन्यासी को, क्योंकि वह शब्द भी सम से ही
बनता है। संन्यासी को मैं त्यागी नहीं कहता। और संन्यासी को मैं संसारी भी नहीं
कहता।
इसलिए
मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि तुम संसार छोड़ो और त्यागी बन जाओ। मैं उनसे
कहता हूं तुम सम्यक्त्व को उपलब्ध हो जाओ। तुम जहां हो, वहीं रहो।
वहीं तुम्हारी तराजू को सम्हाल लो। उलटे जाने की कोई भी जरूरत नहीं है।
उन
पांचों में बड़ा विवाद हो गया कि किसका संवर दुष्कर है। प्रत्येक अपने संवर को
दुष्कर और फलत: श्रेष्ठ बताता था। विवाद की निष्पत्ति नहीं हुई।
हो
नहीं सकती। किसी विवाद की कभी नहीं होती। पांच हजार साल में कितने विवाद चले, लेकिन एक
विवाद की भी निष्पत्ति नहीं है। निष्पत्ति विवाद की हो ही नहीं सकती।
आदमी
सदियों से सोच रहा है ईश्वर है या नहीं? जो कहते हैं. नहीं है, वे कहे चले जाते हैं, नहीं है। जो कहते हैं. है,
वे कहे चल जाते हैं; है। कोई निष्पत्ति नहीं
है। न तो आस्तिक नास्तिक से राजी हो पाता है, न नास्तिक
आस्तिक से राजी हो पाता है। वेद को मानने वाला वेद की ही दुहाई दिए चला जाता है।
कुरान को मानने वाला कुरान की दुहाई दिए चला जाता है। और सब अपने पक्ष में दलीलें
निकाल लेते हैं। लेकिन न तो किसी को वेद से मतलब है, न किसी
को कुरान से मतलब है। न किसी को ईश्वर से मतलब है, न ईश्वर
के न होने से मतलब है। सबको मतलब है कि मेरी बात ठीक होनी चाहिए, क्योंकि मैं ठीक हूं।
जब
तुम विवाद करते हो,
तुमने खयाल किया, तुम्हें इसकी फिक्र नहीं
होती कि सत्य क्या है। तुम्हें इसकी फिक्र होती है कि जो मैं कहता हूं वह सत्य है
या नहीं।
रस्किन
का एक प्रसिद्ध वचन है कि दुनिया में दो तरह के लोग हैं एक तो वे जो सत्य को अपने
साथ चलाना चाहते हैं,
अपने पीछे। जैसे कोई गाय को बांध ले रस्सी में, और चलाए अपने पीछे। ये ही लोग विवादी हैं। ये सत्य को अपने पीछे चलाना
चाहते हैं। ये सत्य को भी अपना अनुगामी बनाना चाहते हैं। और दूसरे वे लोग हैं,
जो सत्य के पीछे चलना चाहते हैं, सत्य जहां
जाए, वहीं जाने को राजी हैं। सत्य अगर विपरीत विरोधी के
शिविर में ठहरा है, तो वे वहीं जाने को राजी हैं। जहां सत्य
है, वहां वे जाएंगे। वे छाया बन जाते हैं सत्य की। ये ही
सत्य के खोजी हैं। ये ही खोज पाते हैं। विवादी नहीं खोज पाते।
विवादी
का तो कहना यह है कि मैंने पा ही लिया। इसीलिए तो विवाद पैदा हो रहा है। वह तो
कहता है : मैंने जान ही लिया। और मैं सिद्ध कर सकता हूं।
और
ध्यान रखना, तर्क सभी कुछ सिद्ध कर सकता है। तर्क वेश्या जैसा है। उसको कुछ लेना—देना
नहीं है कि कोन ठीक है, कोन गलत है। तुम उपयोग करो, तो तुम्हारे काम आ जाता है, दूसरा उपयोग करे,
तो उसके काम आ जाता है। तर्क वकील है।
एक
बड़े वकील थे—डाक्टर हरि सिंह गौर। सागर विश्वविद्यालय का उन्होंने निर्माण किया।
वे दुनिया के बड़े ख्यातिलब्ध वकीलों में एक थे। लेकिन कभी—कभी ज्यादा पी जाते थे।
प्रीवी
कौंसिल में एक मामला था। किसी भारतीय रियासत का झगड़ा था। बड़ा मामला था। करोड़ों का
मामला था। वे कुछ रात ज्यादा पी गए क्लब में। सुबह गए तो खुमारी कायम थी। वे भूल
गए कि किसके पक्ष में हैं। तो विपरीत की तरफ से बोल गए। और घंटेभर जब बोले। उनका
जो सहयोगी था,
उसने कई बार उनका कोट इत्यादि खींचा। मगर वे पीए ही हुए थे, तो वे उसका हाथ झटक दें। उनको और क्रोध आ रहा था। क्रोध आता तो और उनका
तर्क प्रखर होता जा रहा था। वे रुके नहीं।
दूसरा, विपरीत का
वकील भी हैरान था, कि अब मेरे लिए कुछ बचा ही नहीं!
मजिस्ट्रेट भी हैरान था कि अब होगा क्या! और जो विपरीत पार्टी थी, वह चकित थी। और जो हरि सिंह गौर की पार्टी थी, वह
चकित थी कि मार डाला, अपने ने ही मार डाला। इनको हो क्या
गया! दिमाग खराब हो गया!
जब
घंटेभर बाद वे रुके—सफाया करके बिलकुल, तो उनके सहयोगी ने कहा. आपने मार
डाला! अपने आदमी को मार डाला! आप भूल गए। उन्होंने कहा तू घबडा मत।
उन्होंने
फिर शुरू किया। उन्होंने कहा अभी मैंने वे दलीलें दीं, जो मेरा
विरोधी पक्ष का वकील देगा। अब मैं उनका खंडन शुरू करता हूं। और उन्होंने खंडन भी
उसी कुशलता से किया। और मुकदमा जीते भी।
तर्क
वकील है। तर्क की कोई निष्ठा नहीं है। जो तर्क को अपने साथ ले ले, उसी के
साथ हो जाता है। तो हर चीज के लिए तर्क दिया जा सकता है। और मजा ऐसा है कि जिस
तर्क से बातें सिद्ध होती हैं, उसी से असिद्ध भी होती हैं।
जैसे
कि ईश्वर को मानने वाला कहता है. ईश्वर होना ही चाहिए, क्योंकि
दुनिया है। घड़ा होता है, तो कुम्हार होना चाहिए। बिना बनाए
कैसे बनेगा? इतना विराट सृष्टि का फैलाव! ईश्वर होना ही
चाहिए, बनाने वाला होना ही चाहिए। बिना बनाए कैसे बन सकता है?
यह उसका तर्क है।
नास्तिक
से पूछो।
वह
कहता है. हम मानते हैं। यह तर्क बिलकुल सही है। अब हम पूछते हैं. ईश्वर को किसने
बनाया? अगर हर बनायी गयी चीज का—अगर हर चीज का, जो है—बनाने
वाला होना चाहिए, तो ईश्वर का बनाने वाला कोन है?
आस्तिक
कहता है : यह नहीं पूछा जा सकता। ईश्वर को किसी ने नहीं बनाया। आस्तिक कहता है कि
कभी तो तुम्हें मानना ही पड़ेगा न एक जगह जाकर कि इसको किसी ने नहीं बनाया, नहीं तो
फिर तो यह चलता ही जाएगा अ को ब ने बनाया, ब को स ने बनाया।
चलता ही जाएगा! इसका कोई अंत नहीं होगा। तो आस्तिक कहता है कि एक जगह तो रुकना
होगा न। हम ईश्वर पर रुकते हैं।
नास्तिक
कहता है हम भी राजी हैं। एक जगह रुकना होगा, तो सृष्टि पर ही क्यों न रुक जाएं?
स्रष्टा तक जाने की जरूरत क्या है?
तर्क
एक ही है, दोनों के काम पड़ता है। मगर दोनों में से किसी को भी सत्य की कोई आकांक्षा
नहीं है। मैं ठीक!
अहंकार
विवाद लाता है। जहां अहंकार समाप्त होता है, वहां सत्य से संवाद शुरू होता है।
विवाद
की कोई निष्पत्ति न होती देख वे पांचों भगवान के चरणों में उपस्थित हुए। यह भी बात
प्रतीकात्मक है। जब तुम विवाद की कोई निष्पत्ति न कर सको, तो किसी
ऐसे व्यक्ति के पास जाना चाहिए जो निर्विवाद हो। किसी ऐसे व्यक्ति के पास जाना
चाहिए जो तर्क से न जी रहा हो, जिसने सत्य का अनुभव किया हो।
तुम
तो सत्य के संबंध में सोच रहे हो। सोचने से विवाद हल नहीं होता। अब उसके पास जाओ, जिसने
सत्य को जाना है। उस जानने वाले से ही हल हो सकता है।
मगर
एक और बात समझना। यह तो जाना फिर भी बाहर से होगा। और बुद्ध जो कहेंगे, ये पाचों
उसके अलग—अलग अर्थ भी ले सकते हैं। और विवाद फिर शुरू हो सकता है। अगर विवाद जारी
ही रखना हो, तो कोई उपाय नहीं है उससे छूटने का।
बुद्ध
के पास जाकर भी ये पांचों लौट आएंगे। और एक कहेगा? बुद्ध ने ऐसा कहा। और दूसरा
कहेगा? गलत कह रहे हो। ऐसा कहा ही नहीं। उनका प्रयोजन यह था।
फिर विवाद नयी समस्या को लेकर शुरू हो जाएगा। लेकिन विवाद जारी रहेगा। बुद्ध के
मरते ही बुद्ध के संप्रदाय में छत्तीस खंड हो गए! जो बुद्ध के मरते ही छत्तीस
संप्रदाय पैदा हुए, वे बुद्ध के जीते भी रहे होंगे; एकदम से कैसे पैदा हो जाएंगे! ऐसा थोड़े ही होता है कि आज बुद्ध मरे और
एकदम लोग अलग— अलग हो गए। ये छत्तीस वर्ग रहे ही होंगे, दबे
रहे होंगे। बुद्ध की प्रतिष्ठा, बुद्ध के प्रभाव, बुद्ध की गरमी में, बुद्ध की ऊष्मा में ठहरे रहे
होंगे। बुद्ध के सामने प्रगट न हो सके। इधर बुद्ध मरे, उधर
सब विवाद उठ खड़े हुए। बुद्ध— धर्म छत्तीस खंडों में टूट गया।
महावीर
के जाते ही जैन— धर्म खंडों में टूट गया। ये विवाद रहे होंगे। ये एकदम से आकाश से
पैदा नहीं हो सकते। कुछ तो समय लगता। महावीर जाएं दुनिया से, सौ दो सौ
साल बाद विवाद पैदा हो, समझ में आता है—कि ठीक है, अब दो सौ साल हो गए। अब जिन्होंने महावीर को सुना था, वे नहीं हैं। जिन्होंने देखा था, वे नहीं हैं। अब
विवाद स्वाभाविक है। लेकिन इधर महावीर मरे—इधर लाश पड़ी होती है—उधर विवाद शुरू हो
जाता है!
कबीर
मरे —लाश पर ही विवाद हो गया! कि हिंदू चाहते हैं कि जलाए; और
मुसलमान चाहते हैं कि गड़ाएं। ये किस तरह के भक्त थे? यह कबीर
की मौजूदगी में हिंदू हिंदू था, मुसलमान मुसलमान था। सिर्फ
कबीर की प्रभा में, ज्योति में दबा हुआ पड़ा था। उस ज्योति के
जाते ही सब जुगनू टिमटिमाने लगे। सब विवाद वापस लौट 'आए।
तो
इसका एक और प्रतीक गहरा है और वह यह है कि बाहर के बुद्ध के पास जाकर विवाद हल
शायद हो, शायद न हो। अगर भीतर के बुद्ध के पास जाओगे, तो
निश्चित हल हो जाएगा। तुम्हारा बुद्धत्व ही विवाद की निष्पत्ति बनेगा।
वे
पांचों भगवान के चरणों में उपस्थित हुए और उन्होंने भगवान से पूछा : भंते! इन पांच
इंद्रियों में से किसका संवर कठिन है?
भगवान
हंसे और बोले।
हंसे, क्योंकि
उन पांचों को किसी को भी इससे प्रयोजन नहीं है कि किस इंद्रिय का संवर कठिन है।
उन्हें सत्य से कुछ लेना—देना नहीं है। वे पांचों अपने को सिद्ध करने आए हैं।
पांचों अकडकर खड़े हैं! पांचों चाहते हैं, भगवान उनका समर्थन
करें। इसलिए हंसे। मूढ़ता पर हंसे।
इतने
दिन आंख झुकाकर रखी,
इतने दिन भोजन का त्याग किया, इतने दिन एकांत
में रहे! और फिर उठा आखिर में विवाद! दुर्गंध उठी अंत में, सुगंध
का कुछ पता नहीं। इस दुर्दशा पर हंसे। इस मनुष्य की दयनीयता पर हंसे। इस मनुष्य की
मूढ़ता पर हंसे।
भिक्षुओ!
उन्होंने कहा संवर दुष्कर है। इस इंद्रिय का संवर, उस इंद्रिय का संवर—ऐसा
विवाद व्यर्थ है। संवर दुष्कर है, जागना दुष्कर है। समता की
स्थिति पाना दुष्कर है। और तुममें से किसी ने भी उस स्थिति को पाया नहीं है। तुम
अभी दमन में ही लगे हो।
असली
कठिनाई तो वहां है,
जहां तुम जागो और तुम्हारे जागने के कारण संवर सध जाए; साधना न पड़े। साधु वही जो सध जाए; साधना न पड़े।
कबीर
ने कहा है साधो! सहज समाधि भली। सहज समाधि! उसी को बुद्ध संवर कहते हैं। वही बुद्ध
की भाषा में संवर है। सहज समाधि! क्या अर्थ हुआ? अर्थ होता है जैसे तुम्हारे
घर में आग लगी है, और तुम्हें दिखायी पड़ गया कि आग लगी है,
और तुम निकलकर भागे और बाहर हो गए। यह सहज समाधि। तुम्हें दिखायी
पड़ा कि आग लगी है, अब भीतर रुकोगे कैसे? दिख गया, आग लगी है, बाहर चले
गए।
लेकिन
तुम्हारे घर में आग लगी है और तुम अंधे हो, और कोई आया पड़ोसी और तुमसे कहता है
भई! बाहर निकलो, घर में आग लगी है! तुम कहते हो छोडो भी जी!
कहां की बातें कर रहे हो! कोई घर लूटना है मेरा? कैसी आग?
कहां की आग? मुझे कुछ नहीं दिखायी पड़ता है। और
जब तक मुझे नहीं दिखायी पड़ता, मैं कैसे भागूं?
लेकिन
अगर पड़ोसी बहुत समझदार हो,
और समझाने में कुशल हो और तुम्हें समझा दे, और
राजी कर दे कि घर में आग लगी ही है, तो तुम बेमन से, जबर्दस्ती अपने को घसीटते हुए घर के बाहर निकालो। निकलना नहीं चाहते।
निकलना पड़ रहा है। अब इस पड़ोसी से कैसे झंझट छुडाएं! यह पीछे ही पड़ा है, तो निकलना पड़ रहा है। यह असहज दशा हो गयी। जबर्दस्ती हो गयी। सहज का अर्थ
होता है—स्वस्फूर्त।
बुद्ध
ने कहा : संवर दुष्कर है। इसका संवर या उसका संवर नहीं—संवर ही स्वयं दुष्कर है।
भिक्षुओ! ऐसे व्यर्थ के विवादों में न पड़ो। क्योंकि विवाद मात्र के मूल में अहंकार
है। विवाद की कोई निष्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि अहंकार की कोई निष्पत्ति
नहीं है। अहंकार भरमाता है, भटकाता है—पहुंचाता नहीं। पहुंचा
ही नहीं सकता है।
विवादों
में व्यय न करके शक्ति को भिक्षुओ, समग्र शक्ति को संवर में लगाओ। सारी
शक्ति को उंड़ेल दो अपने भीतर के दीए में, ताकि ज्योति भभककर
उठे। उस ज्योति के जगने में ही सब दिखायी पड़ेगा. क्या व्यर्थ है, क्या सार्थक है। क्या असार है, क्या सार है। और असार
को असार की तरह देख लेना, असार से मुक्त हो जाना है।
सभी
द्वारों का संवर करो भिक्षुओ!
इस
झंझट में मत पड़ो कि आंख का करूं, कि कान का करूं, कि नाक
का करूं। आंख का कर लोगे, तो क्या फर्क पड़ेगा? अगर आंख को किसी तरह दबा लिया, तो जितनी आंख की
वासना थी, वह कान में सरक जाएगी।
यह
रोज होता है। तुमने देखा,
अंधा आदमी संगीत में बहुत कुशल हो जाता है। उसकी ध्वनि की क्षमता बढ़
जाती। क्यों? क्योंकि आंख से जो ऊर्जा बाहर जाती थी, अब आंख से तो मार्ग न रहा, अब वह कान से जाने लगी।
जैसे झरने को एक तरफ से रोक दिया, तो वह दूसरी तरफ से बहने
लगेगा। दूसरी तरफ से रोक दिया, तो तीसरी तरफ से बहने लगेगा।
झरना बहेगा।
इसलिए
अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो लोग किसी एक इंद्रिय को नियंत्रण करने में लग जाते हैं, उनकी कोई
दूसरी इंद्रिय खूब सशक्त होकर प्रगट होने लगती है। और कभी—कभी ऐसा भी हो जाता है
कि दूसरी इंद्रिय ज्यादा भयंकर सिद्ध हो। क्योंकि दो इंद्रियों का बल इकट्ठा मिल
जाएगा उसे।
इसलिए
सवाल यह नहीं है कि इसका करूं संवर या उसका। बुद्ध कहते हैं : संवर करो। जागो।
सारी इंद्रियों के द्वारों के पार हो जाना है। संवर दुखमुक्ति का उपाय है।
तब
उन्होंने ये गाथाएं कहीं :
चक्खुना संवरो
साधु साधु सोतेन संवरो।
घाणेन संवरो साधु
साधु जिह्वाय संवरो ।।
'आंख का संवर शुभ है, साधु है—साधु बनाता व्यक्ति को। कान का संवर भी शुभ है—साधु बनाता व्यक्ति
को। बाण का संवर भी शुभ है, जीभ का संवर भी शुभ है।'
सब
संवर शुभ हैं,
क्योंकि संवर व्यक्ति को सरल बनाते हैं, जटिलता
से मुक्त कराते हैं। संवर व्यक्ति को एकता देते हैं। नहीं तो पांच इंद्रियां पांच
खंडों में तोड़ देती हैं। एक इंद्रिय एक तरफ खींचती है; दूसरी
इंद्रिय दूसरी तरफ खींचती है। जब इंद्रियां खींचती ही नहीं, तो
व्यक्ति जितेंद्रिय हो जाता है। उस जितेंद्रियता में ही साधुता है।
कायेन
संवरो सा सा वाचाय संवरो।
मनसा संवरो सा सा
सब्बत्थ संवरो।
सबत्थ संवुतो भिक्खु
सब्बदुक्खा पमुच्चति ।
'शरीर का संवर शुभ है। वचन का
संवर शुभ है। मन का संवर शुभ है। सवेंन्द्रियों का संवर शुभ है। सर्वत्र संवरयुक्त
भिक्षु सारे दुखों से मुक्त हो जाता है। '
'शरीर का संवर शुभ है। वचन का संवर शुभ है। '
शरीर
के संवर का अर्थ होता है—अकेले होने की क्षमता का आ जाना। यह संवर की पहली परिधि, एकांत में
जीने का मजा।
तुमने
देखा, स्वात काटता है! जब तुम घर में अकेले रह जाते हो, हजार
मन उठने लगते हैं : कहा जाऊं? सिनेमा चला जाऊं, होटल चला जाऊं; किसी क्लब में चला जाऊं, पड़ोसी के घर चला जाऊं—कहां चला जाऊं?
क्या
कारण है? किसलिए सिनेमा जा रहे हो? किसलिए पड़ोसी के घर जा रहे
हो? किसलिए क्लब जा रहे हो? अकेले होने
की क्षमता नहीं है। दूसरे चाहिए। दूसरे रहते हैं, तो तुम
दूसरों में उलझे रहते हो।
शरीर
के संवर का अर्थ है : अकेले होने की क्षमता, एकांत की क्षमता। और इसका यह अर्थ
नहीं कि तुम जाओ, हिमालय की किसी गुफा में बैठो। यहीं,
बाजार में चलते —चलते भी तुम चाहो तो अकेले हो सकते हो। और गुफा में
बैठकर भी चाहो तो भीड़ में हो सकते हो।
गुफा
में बैठकर भी अगर लोगों के संबंध में सोच रहे हो, तो यह शरीर का संवर न हुआ।
और राह में चलते हुए, बाजार में चलते हुए भी अगर किसी के
संबंध में नहीं सोच रहे हो; शांत, मौन
से चल रहे हो; संतुलित अपने भीतर आरूढ़—तो संवर है।
शरीर
का संवर यानी स्वात की क्षमता। वचन का संवर यानी मौन की क्षमता, चुप होने
की क्षमता।
वचन
दूसरे से जोड़ता है। तो वचन सेतु है संबंधों का। अगर वचन से मुक्त होने की क्षमता
हो...। इसका यह अर्थ नहीं कि तुम बोलो ही मत। इसका यही अर्थ
है कि जब जरूरी हो, अत्यंत
जरूरी हो, तो बोलो।
बोलने
में आदमी को वैसा ही संयम होना चाहिए जैसा जब तुम तार करते हो, तो सोचते
हो. यह शब्द काट दूं र यह शब्द काट दूं। यह ज्यादा, यह
ज्यादा। क्योंकि नौ ही शब्द जा सकेंगे; ये दस हो गए, तो एक और काट दूं। और तुमने एक मजा देखा! कि चिट्ठी से तार का परिणाम
ज्यादा होता है! चिट्ठी में तुम्हें जो दिल में आता है, लिखते
हो। दस पन्ने लिख डालते हो। उसी की वजह से जो तुम लिखते हो, उसकी
त्वरा चली जाती है। जो तुम लिखते हो, उसमें बल नहीं रह जाता।
जो तुम लिखते हो, उसकी सघनता और चोट खो जाती है।
तार
के दस शब्दों में बड़ी सघनता, इटेसिटि आ जाती है। शब्द काटते जाते हैं—यह भी
गैर—जरूरी, यह भी गैर—जरूरी। फिर जो जरूरी—जरूरी रह गया,
उसका वजन बढ़ जाता है। इसलिए तार का परिणाम होता है। तार की चोट
होती है। वचन के संवर का अर्थ है. जितना जरूरी हो, उतना
बोलने की क्षमता। क्षमता क्यों कहते हैं इसे? क्योंकि तुम
अकारण बोलते हो; बोलने में अपने को उलझाते हो। बोलना एक तरह
का उलझाव है, व्यस्तता है।
जो
मिला, उसी से बोलते हो! कुछ भी बोलते हो। वह भी कुछ बोल रहा है; तुम भी कुछ बोल रहे हो। कुछ नहीं होता, तो मौसम की
ही बात करते हो! उसको भी पता है; तुमको भी पता है। लेकिन कर
रहे बात! वह भी वही अखबार पढा है, जो तुम पढ़े हो। उसी की बात
कर रहे! लेकिन कुछ न कुछ बात करनी है। और जिन बातों को तुम हजार बार कर चुके हो,
वही बात फिर दोहरा रहे हो।
वचन
की क्षमता का अर्थ है : जरूरी बोलना, गैर—जरूरी नहीं बोलना।
फिर
मन का संवर। मन का संवर है. भीतर का मौन।
एक
तो बाहर का मौन है—व्यर्थ न बोलना। और फिर एक भीतर का मौन है—व्यर्थ न सोचना। ऐसे
धीरे— धीरे स्वात बढ़ता है। पहले बाहर से, भीड़ से मुक्त हो जाओ। फिर शब्दों
से मुक्त। फिर मन की तरंगों से मुक्त। तब सवेंन्द्रियों का संवर सध जाता है। आदमी
जितेंद्रिय हो जाता है।
सर्वत्र
संवरयुक्त भिक्षु सारे दुखों से मुक्त होता है।
हत्थसज्जतोपादसज्जतो
वाचाय सज्जतो सज्जतुत्तमो।
अज्झत्तरतो
समाहितो एको संतुसितो तमाहु भिक्खुं ।।
'जिसके हाथ, पैर और वचन में संयम है, जो उत्तम संयमी है, जो अध्यात्मरत, समाहित, अकेला और संतुष्ट है, उसे
भिक्षु कहते हैं। '
बुद्ध
ने बहुत जोर दिया है इस बात पर कि चलो भी तो संयम रखना। चलने में कैसा संयम? होशपूर्वक
चलना। एक पैर भी उठाओ, तो याद रहे कि मैंने यह पैर उठाया।
मूर्च्छा में मत उठाना।
'जिसके हाथ, पैर और वचन में संयम है...।'
जो
बोलता है, तो जानता है तो ही बोलता है।
तुम
कितनी बातें बोलते हो,
जो तुम जानते भी नहीं! कोई तुमसे पूछता है : ईश्वर है? तुम कहते हो ' ही, है। छाती
ठोंककर कहते हो. है। तुम्हें ईश्वर का कोई पता नहीं है। संसार में झूठ बोलो,
चलेगा। कम से कम परमात्मा को तो छोड़ो! उस संबंध में तो झूठ मत बोलो!
तुमसे
कोई पूछता है. आत्मा है?
तुम कहते हो है। और न तुम कभी भीतर गए, और न
कभी इस आत्मा का दर्शन किया! कोई पूछता है लोग मरने के बाद बचेंगे? तुम कहते हो ही। पुनर्जन्म है। आत्मा अमर है।
तुमने
जीवन तक देखा नहीं;
मृत्यु की तो बात ही छोड़ो। रात नींद में सो जाते हो, तब तुम्हें पता नहीं रहता कि तुम कोन हो! तो मृत्यु की गहरी निद्रा में
उतरोगे, तो तुम्हें कहा पता रहेगा? रात
की नींद तक में रोज—रोज तुम टूट जाते हो अपने तादात्म्य से, भूल
जाते हो, मैं कोन हूं; तो महामृत्यु जब
घटेगी, सब तरह से जब तुम मरोगे, क्या
तुम्हें याद रहेगा?
न
तुम्हें पुनर्जन्मों की कुछ याद है, न तुम्हें आत्मा की शाश्वतता का
कुछ पता है। लेकिन कहे जा रहे हो! कुछ भी कहे जा रहे हो! इन छो से बचो। इन खो से
जो बच जाए, वही सत्य को उपलब्ध हो सकता है।
जिसके
हाथ, पैर और वचन में संयम है, जो उत्तम संयमी है, जो अध्यात्मरत—जो अपने में लीन रहता—समाहित..। फिर एक शब्द आया जो सम से
बना है—समाहित। सब तरह से अपने में ठहरा हुआ; सब तरह से अपने
में थिर, सब तरह से अपने में प्रतिष्ठित; अकेला और संतुष्ट है...। फिर सम आया—संतुष्ट, संतोष।
जो
जैसा है, जहां है—वैसा ही अपने को धन्यभागी जानता है; इससे
अन्यथा की कोई मांग नहीं है।
जिसको
अन्यथा की माग नहीं है,
उसकी जिंदगी में चिंता नहीं है। जिसको अन्यथा की मांग नहीं है,
उसकी जिंदगी में कभी कोई दुख नहीं है। जैसा है, उसी से राजी।
तुम
कहते हो : ऐसा होगा तो मैं राजी होऊंगा। फिर तुम कभी राजी नहीं होने वाले। क्योंकि
कोन तुम्हारी आकांक्षाएं तृप्त करने को है? सब अपनी आकांक्षाएं तृप्त करने में
लगे हैं। और यह विराट अस्तित्व एक—एक की आकांक्षाएं तृप्त करने चले, तो कभी का बिखरकर खंडित हो जाए।
लेकिन
जो कहता है. जो अस्तित्व से मुझे मिले, वही मेरा सुख है; इस आदमी को दुखी नहीं किया जा सकता। जिसने अस्तित्व के साथ अपना गठबंधन बाँध
लिया, जो अस्तित्व की धारा में बहने लगा, वह संतुष्ट है, समाहित है, अकेला
है। बुद्ध कहते हैं. उसे ही भिक्षु कहते हैं।
यो मुखसज्जतो
भिक्खु मंतभाणी अनुद्धतो।
अत्थं धम्मज्च
दीपेति मधुरं तस्स भासितं ।।
'जो मनुष्य मुख में संयम रखता;
मनन करके बोलता; उद्धत नहीं होता; अर्थ और धर्म को प्रगट करता—उसका भाषण मधुर होता है।'
यो मुखसज्जतो
भिक्खु मंतभाणी अनुद्धतो।
जो उतना ही बोलता है, जितना
जानता है; जो उतना ही बोलता है, जितना
जीया है। जो उतना ही बोलता है, जिसका स्वयं गवाह है—उसकी
वाणी स्वभावत: मधुर हो जाती है। सत्य जहां है, वहा माधुर्य
है।
अत्थं
धम्मन्च दीपेति......।
उसके वचनों से धर्म के दीए जलने लगते हैं।
मधुरं
तस्स भासितं।
और उसके व्यक्तित्व से माधुर्य बरसने लगता है।
उसके पास भी जो आएगा,
वह मस्त हो जाएगा। उसके पास जो आएगा, वह
ज्योतिर्मय होने लगेगा। जितने पास आएगा, उतना ज्योतिर्मय
होने लगेगा।
बुझा
दीया जैसे जले दीए के पास आकर जल जाता है, ऐसे ही ऐसे समाहित व्यक्ति के पास,
संतुष्ट व्यक्ति के पास, समाधिस्थ व्यक्ति के
पास, संबुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति के पास बुझे से बुझा आदमी
आकर भी धर्म के दीए से ज्योतिर्मय हो जाता है। जल उठती उसके भीतर सोयी हुई चेतना।
अंधेरा मिट जाता है। और परम माधुर्य की वर्षा होती है।
दूसरा
दृश्य :
भगवान के यह कहने पर कि चार
माह के पश्चात मेरा परिनिर्वाण होगा भिक्षु अपने को रोक नहीं सके— जार— जार रोने
लगे भिक्षुओं के आंसू बहने लगे। भिक्षुओं की तो क्या कही जाए बात अर्हतों के भी
धर्मसंवेग का उदय हुआ। उनकी आंखें तो आंसुओ से नहीं भरी लेकिन हृदय उनका भी
डांवाडोल हो गया
उस
समय धम्माराम नाम के एक स्थविर ने यह सोचकर कि मैं अभी रागरहित नहीं हुआ और शास्ता
का परिनिर्वाण होने जा रहा है इसलिए शास्ता के रहते ही मुझे अर्हत्व प्राप्त कर
लेना चाहिए— ऐसा सोच एकांत में जाकर समग्र संकल्प से साधना में लग गया
धम्माराम
उस दिन से एकांत में रहते मौन रखते ध्यान करते। भिक्षुओं के कुछ पूछने पर भी उत्तर
नहीं देते थे स्वभावत; भिक्षुओं को इससे चोट लगी। धम्माराम अपने को
समझता क्या है? पूछने पर उत्तर नहीं देता। उपेक्षा करता है।
इस तरह चलता है जैसे अकेला है कोई यहां है ही नहीं।
वहा
दस हजार भिक्षु थे बुद्ध के पास। यह धम्माराम भूल ही गया उन दस हजार भिक्षुओं को।
स्वभावत: अनेक को चोटें लगीं। अनेक को बात जंची नहीं। लोग जयरामजी करते, उसका भी
उत्तर नहीं देता था! बात ही छोड़ दी थी यह। जैसे संसार मिट गया।
भिक्षुओं
ने यह शिकायत भगवान से की भगवान ने उन्हें कहा. धम्माराम को बुला लाओ।
धम्माराम
के आने पर पूछा. भिक्षु! तुझे क्या हुआ है? क्या यह सत्य है कि तू अन्य
भिक्षुओं से बातें नहीं करता है?
भंते!
सत्य है धम्माराम ने कहा।
भिक्षु।
तू ऐसा क्यों कर रहा है?
तब
धम्माराम ने अपने सारे विचारों को कह सुनाया उसने कहा. आप जाते हैं चार महीने का
समय बचा आपके रहते अगर मैं मुक्त नहीं हो जाता हूं तो फिर मेरे लिए कोई आशा नहीं
है आपकी मौजूदगी में अगर मेरा दीया नहीं जल सका तो मैं नहीं सोचता हूं कि फिर कभी
जल सकेगा फिर कहां खोला ऐसे बुद्धपुरुष को? फिर जन्मों— जन्मों भटकना पड़ेगा।
इसलिए अब एक रत्तीभर भी शक्ति किसी और बात में नहीं गंवाना चाहता हूं। एक आंसू भी
नहीं गिराना चाहता हूं। एक शब्द भी नहीं बोलना चाहता हूं। ये चार महीने जो भी मेरे
पास है सब दांव पर लगा देना है। अगर इस बार हो जाए तो हो जाए इतने करीब आकर चूक
जाऊं भगवान। तो फिर कितना समय लगेगा! फिर कहां खोज पाऊंगा? फिर
कब कोई किसी बुद्ध से मिलना होगा?
अबुद्धों
की तो भीड़ है। एक खोजो हजार मिलते हैं
लेकिन बुद्धों को कहां खोजूंगा? हजारों जन्म बीत जाएंगे। और शायद
है— भटक जाऊं। आपके रहते न पहुंच पाया तो अकेले तो बिलकुल भटक जाऊंगा यह सोचकर
मैने सारी ऊर्जा को अपने भीतर समाहित कर लिया है।
अब
मेरे पास तीन ही काम हैं : एकांत— एकांत यानी दूसरों को भूल जाना; मौन—
दूसरों से संबंध न जोड़ना वाणी का विचार का; और ध्यान— भीतर
विचार की तरंग को विसर्जित करना।
ये
तीन उपाय हैं समाधि के। दूसरे नहीं हैं जैसे—ऐसे जीना। अपने पास कहने को भी कुछ
नहीं है;
बोलने को भी कुछ नहीं है—ऐसे जीना। और अपने भीतर सोचने को भी क्या
है? सब कूड़ा—करकट है। इस कूड़ा—करकट को क्यों उलटते —पलटते
रहना!
ऐसा
तीन भावों से जो भर जाए—एकांत, मौन और ध्यान—एक दिन उसके जीवन में
समाधि फलित होती है। एक दिन सब शून्य हो जाता है।
खयाल
रखना एकांत में दूसरे मिट जाते हैं। मौन में शब्द मिट जाते हैं। ध्यान में विचार
मिट जाते हैं। और समाधि में स्वयं का मिटना हो जाता है, शून्य हो
जाता है। उसने सारी बात बुद्ध को कही। उसे सुनकर बुद्ध ने उसे साधुवाद दिया और कहा
भिक्षुओ! अन्य भिक्षुओं को भी जिन्हें मुझ पर प्रेम हो धम्माराम के समान ही होना
चाहिए। माला— गंध आदि से मेरी पूजा करने वाले मेरी पूजा नहीं करते। अपने को धोखा
देते हैं। प्रत्युत जो धर्म के अनुसार आचरण करते हैं वे ही मेरी पूजा करते हैं। आंसुओ
के बहाने से कोई सार नहीं है। और फिर जो वैसा करते हैं वे मुझे समझे ही नहीं।
क्योकि कितनी बार तो मैने तुमसे कहा : यहां सभी अथिर है। जो जन्मा है मरेगा। जो
हुआ है मिटेगा। इस अथिर से मोह मत बनाओ। और तुमने मुझसे मोह बना लिया! जो मुझसे
मोह बना लिए हैं वे मुझे समझे नहीं। रोओ नहीं। रोने से कुछ होगा भी नहीं। बहुत रो
लिए। जन्मों— जन्मों रो लिए। अब बंद करो। सोओ भी नहीं। रोना भी जाने दो; सोना भी जाने दो। अब जागो।
और
फिर इस गाथा को कहा:
धम्मारामो
धम्मरतो धम्म अनुविचिन्तयं।
धम्मं अनुस्सरं
भिक्खु सद्धम्मा न परिहायति।।
'धर्म में रमण करने वाला, धर्म में रत, धर्म का चिंतन करते और धर्म का अनुसरण करते भिक्षु सद्धर्म से च्युत नहीं
होता है। '
पहले
दृश्य को खूब हृदयंगम कर लें।
बुद्ध
ने एक दिन घोषणा की कि चार महीने और मेरी नाव इस तट पर रहेगी। फिर मेरे जाने का
समय आ गया। चार महीने और इस देह में मैं टिका हूं। फिर यह पंछी उड़ जाएगा। चार
महीने और तुम चर्म —चक्षुओं से मुझे देख पाओगे। फिर तो वे ही मुझे देख पाएंगे, जिनके
भीतर की आंख खुल गयी है। चार महीने और मैं तुम्हें पुकारूंगा। सुन लो, तो ठीक। चार महीने बाद मेरी पुकार खो जाएगी। हा, जो
मेरी पुकार सुन लेंगे इन चार महीनों में, उन्हें सदा सुनायी
पड़ती रहेगी। चार महीने और मेरा उपयोग कर लो, तो कर लो। यह
औषधि ले लो, तो ले लो। चार महीने और, फिर
मेरे जाने की घड़ी आ .गयी।
अब
यह बिलकुल स्वाभाविक है कि भिक्षु रोने लगे। बुद्ध जैसा व्यक्ति हो, और मोह पैदा
न हो, यह अस्वाभाविक है। बुद्ध जैसा व्यक्ति हो, और लोगों का राग न लग जाए, यह असंभव है। बुद्ध जैसा
व्यक्ति हो, तो साधारण भिक्षुओं की क्या बात, जो अर्हत्व को उपलब्ध हो गए हैं, जो अरिहंत हो गए
हैं, जो स्वयं बुद्ध हो गए हैं, उनकी
भी राग की रेखा शेष रह जाती है। इतने प्यारे व्यक्ति को पाकर खोने की बात ही छाती
को तोड़ देगी।
ठीक
ऐसी ही घटना जीसस के जीवन में है। जिस रात उन्होंने अंतिम भोजन लिया अपने शिष्यों
के साथ, उनसे कहा कि बस, यह आखिरी रात है। कल सुबह मैं
जाऊंगा। घड़ी आ गयी। सूली लगेगी।
वे
रोने लगे। शिष्य रोने लगे। जीसस ने कहा : मत रोओ।
फर्क
समझना। बुद्ध और जीसस के वचनों का!
जीसस
ने कहा मत रोओ। मेरे लिए मत रोओ। अगर रोना है, तो अपने लिएg रोओ। रोना है, तो अपने लिए। मेरे लिए मत रोओ। मेरे
लिए रोने से क्या होगा! जीसस यह कह रहे हैं कि अब तो अपनी तरफ देखो, अपनी तरफ मुड़ो। मेरे जाने की घड़ी आ गयी। मैं तुम्हें पुकारता रहा कि अपनी
तरफ देखो। अब भी तुम मेरे लिए रो रहे हो! मेरे लिए मत रोओ। जो होना है, होकर रहेगा। हो ही चुका है। अब और समय मत गवाओ। और थोड़ी देर तुम्हारे पास
हूं—जाग जाओ। अपने लिए रोओ। इतने दिन गंवाए, इसके लिए रोओ। इतने
जन्म गंवाए, इसके लिए रोओ। आज की रात मत गंवा देना।
और
जीसस ने कहा कि अब हम चलें,
पहाड़ पर प्रार्थना करें। वे गए। और उन्होंने कहा जागे रहना। लेकिन
शिष्य सो —सो जाते हैं! जीसस प्रार्थना करते हैं घडीभर, फिर
उठते हैं और देखते हैं, तो सब झपकी खा रहे हैं!
आखिरी
रात आ गयी! कल इस आदमी से विदा हो जाएगी! फिर जन्मों तक मिलना हो, न हो। फिर
ऐसा भव्य रूप, ऐसा दिन रूप आंखों में आए, न आए! फिर यह शुभ घड़ी कब घटेगी, कहा नहीं जा सकता
है। लेकिन जाग नहीं सकते! निद्रा गहरी है। आखिरी रात भी सो रहे हैं!
ऐसा
ही उस दिन हुआ,
जब बुद्ध ने कहा कि चार माह के पश्चात मेरा परिनिर्वाण होगा,
भिक्षु आंसू नहीं रोक सके। रोने लगे, जोर—जोर
से रोने लगे। एक अर्थ में स्वाभाविक। लेकिन स्वभाव .के ऊपर जाना है, तो असली स्वभाव मिलता है।
इस
जगत में दो तरह के स्वभाव हैं. एक तो प्रकृति का, और एक परमात्मा का। इस जगत
में दो तल हैं —एक पदार्थ का, एक चेतना का। जो पदार्थ के लिए
स्वाभाविक है, उससे ऊपर जाओगे, तो
चेतना का स्वभाव प्रगट होता है।
यह
बिलकुल स्वाभाविक है,
मानवीय है। बुद्ध को इतना चाहा, बुद्ध की चाह
में सारा संसार छोड़ा; घर—द्वार छोड़ा; पत्नी—बच्चे
छोड़े, बुद्ध के प्रेम में सब दाव पर लगा दिया है—और बुद्ध
चले! तो आंसू बिलकुल स्वाभाविक हैं। लेकिन इसके ऊपर एक और स्वभाव है। अगर आंसू रुक
जाएं और जागरण घट जाए, तो बुद्ध से फिर कभी बिछुड़ना न हो।
बुद्ध
से बिछुड़ना तभी तक होता है,
जब तक हम शरीर से बंधे हैं। जिस दिन हमें पता चले कि मैं चैतन्य हूं
उस दिन बुद्ध से कैसा बिछुड़ना! फिर स्वयं बुद्धत्व तुम्हारे भीतर विराजमान हो गया।
फिर यह नाता न टूटने वाला है।
शिष्य
को एक न एक दिन इस दशा में आना चाहिए, जब वह गुरु जैसा हो जाए। शिष्य जिस
दिन गुरु हो जाता है, उसी दिन पहुंचा।
स्वभावत:
भिक्षु रोने लगे। अर्हतों को भी धर्मसंवेग हुआ। जो पहुंच गए थे, उनको भी
संवेग हुआ। रोमांच हो गया। यह कभी सोचा नहीं था कि बुद्ध जाएंगे। सब जाएगा। सब बह
जाएगा। बुद्ध जाएंगे —यह नहीं सोचा था। मान ही लिया था कि बुद्ध तो सदा रहेंगे।
एक
क्षण को वे भी कैप गए,
जिनकी समाधि सम्हल गयी थी।
अब
ध्यान करना, संसार में जो कंप जाते हैं, वे बहुत प्राकृतिक
व्यक्ति हैं —सामान्य। संसार में जिनका कंपन बंद हो गया, वे
अरिहंत हैं। उनका अब संसार से कोई कंपन नहीं होता है। लेकिन अभी एक कंपन उनमें हो
सकता है। वह कंपन है —गुरु का छूटना। इससे भी पार जाना है।
कोई
मोह न रह जाए। अशुभ का मोह तो जाए ही जाए, शुभ का मोह भी जाए। पाप तो छूटे,
पुण्य भी छूटे। संसार तो छूटना ही चाहिए, एक
दिन निर्वाण और मोक्ष की वासना भी छूट जाए—तो परम मुक्ति, तो
परिनिर्वाण।
उस
समय धम्माराम नाम के एक स्थविर ने ऐसा सोचा कि मैं तो अभी रागरहित नहीं हुआ और
बुद्ध के जाने का दिन करीब आ गया। बहुत दिन गंवा दिए। बहुत समय गंवा दिया। अब
गंवाने को क्षण भी मेरे पास नहीं है। और शास्ता का परिनिर्वाण होने जा रहा है!
इसलिए शास्ता के रहते ही मुझे अर्हत्व प्राप्त कर ही लेना है। अब कुछ बचाऊंगा
नहीं। अब पूरा—पूरा ड़बूंगा। अब कोई और किसी तरह के संकल्प —विकल्प में समय न
गंवाऊंगा। अब शक्ति की एक छोटी सी किरण भी मुझसे बाहर न जाने दूंगा; सब समाहित
कर लूंगा।
एकांत
में जाकर उन्होंने संकल्पपूर्वक गहन साधना शुरू कर दी।
बुद्ध
परंपरा में संकल्प का अर्थ होता है कि अब या तो बुद्ध होकर रहूंगा, या मौत
आए। अब दो के बीच कोई और विकल्प नहीं है। जीवन गया। या तो मौत को चुनूंगा, या बुद्धत्व को। मरने को राजी हूं; अब जीने में मेरा
कोई रस नहीं। संकल्प का अर्थ है कि अब यह जो मैंने पाना चाहा है, यह पाकर रहूंगा, या मर जाऊंगा। मृत्यु वरण होगी अब
मुझे, लेकिन बुद्धत्व के बिना जीवन वरण नहीं होगा। यह संकल्प
का अर्थ है।
ऐसे
संकल्प को लेकर धम्माराम एकांत में जाकर मौन रखते, ध्यान करते। भिक्षुओं के
कुछ पूछने पर उत्तर नहीं देते थे। भिक्षुओं को अड़चन हुई—यह भी स्वाभाविक है। पहली
तो अड़चन यह हुई कि धम्माराम की आंख से आंसू न गिरा। और जिस दिन से बुद्ध ने कहा
कि अब बस, चार महीने और—उस दिन से धम्माराम कुछ और ही हो
गया। पत्थर की मूर्ति हो गए। हिले नहीं, डूले नहीं। सारी
बातों में रस छोड़ दिया।
गपशप
चलती होगी। भिक्षु जहां दस हजार इकट्ठे हों, गपशप होती होगी। निंदा —प्रशंसा
होती होगी। कोन गलत कर रहा है, कोन ठीक कर रहा है, कोन क्या कर रहा है! भिक्षु और करेंगे क्या! सब तरह के विवाद चलते होंगे कोन
श्रेष्ठ? कोन अश्रेष्ठ? कोन ऊपर?
कोन नीचे? सब तरह की राजनीति चलती होगी। और
भिक्षु करेंगे क्या!
इसीलिए
तो धम्माराम विशिष्ट है। अब कई सोचने लगे होंगे कि बुद्ध तो अब जाने ही वाले हैं, अब शायद
मैं कब्जा कर लूं संघ पर। मैं मालिक हो जाऊं। अब बुद्ध तो चले। लोग अपने दाव—पेंच
बिठाने में लग गए होंगे।
बुद्ध
के बाद कोन? अब कोन बुद्ध की गद्दी पर बैठेगा? अब कोन शास्ता
होगा? राजनीति चलने लगी होगी। कूटनीति चलने लगी होगी।
एक—दूसरे को गिराने —उठाने के उपाय चलने लगे होंगे। भिक्षु मत—बल इकट्ठा करने लगे
होंगे —कि मेरे पास ज्यादा लोग इकट्ठे हो जाएं; ज्यादा मत
मेरे पास हों, तो कल कब्जा मेरा हो जाएगा।
बुद्ध
तो अब जाते ही हैं,
तो अब ठीक है। जो जाता है, उसको रोका तो जा
नहीं सकता। रो भी लिए होंगे और: फिर इन सब उपद्रवों में भी लग गए होंगे!
लेकिन
धम्माराम ठीक दिशा पकड़ा। यह बुद्ध के जाने की बात इतना बड़ा घातक प्रहार हो गयी
उसके हृदय पर,
जैसे छाती में छुरा चुभ गया। अब कोई जीवन नहीं हो सकता। अब तो बुद्ध
के रहते ही बुद्धत्व पा लेना है। अब यह अवसर नहीं खोना है। अब चौबीस घंटे
सोते—जागते एक ही धुन उसके भीतर बजने लगी, और एक ही स्वर
गूंजने लगा।
तो
एकांत, मौन और ध्यान—समाधि के उपाय हैं। ये तीन चरण हैं।
अपने
को अकेला जानो। अकेले आए हो, अकेले जाओगे, अकेले हो।
संग—साथ सब झूठ है। संग—साथ सब खेल है। संग—साथ सब मान्यता है, मानी हुई बात है। कोन किसका है? न पत्नी, न पति; न भाई, न बहन, न मित्र। कोन किसका है? अकेले आए, अकेले जाओगे, अकेले हो। इस भाव को गहन कर लेने का
नाम एकांत है।
मैं
अकेला हूं; मैं अकेला हूं —ऐसा श्वास—श्वास मैं रम जाए। मैं अकेला हूं —ऐसा हृदय की
धड़कनों में बस जाए। मैं अकेला हूं—यह बात इतनी प्रगाढ़ होकर बैठ जाए कि कभी भूले न,
क्षणभर को न भूले। यही संसार से मुक्ति है।
यह
नहीं कि तुम पत्नी को छोड़कर जाओ। यह जानना कि मैं अकेला हूं। पत्नी है, तो रहे।
बेटे हैं, तो रहें। घर है, तो रहे।
लेकिन मैं अकेला हूं। भरे घर में तुम अकेले हो जाओ। भरी भीड़ में तुम अकेले हो जाओ।
यह सारा संसार चल रहा है और मैं अकेला हूं —यह एकांत की भाव— भंगिमा है।
और
जब अकेला हूं तो बोलना क्या है! किससे बोलना है? क्या बोलना है? तो एक चुप्पी अपने आप उतरने लगे।
और
जब चुप ही होने लगे,
तो भीतर भी क्या सोचना? आदमी को बोलना होता है,
तो सोचता है। बोलना तभी होता है, जब सोचता है
कि दूसरे हैं। ये सब जुड़ी हैं बातें। इन सबकी श्रृंखला है।
आदमी
सोचता है, क्योंकि बोलना है। बोलता है, क्योंकि दूसरों से
जुड़ना है। जब दूसरों से जुड़े ही नहीं हैं हम, और जुड़ सकते ही
नहीं हैं हम, तो बोलना क्या? फिर सोचना
क्या!
और
ये तीन बातें पूरी हो जाए——ख्यात, मौन .और ध्यान—तों फिर जो शेष रह जाती है दशा,
समाधि। तब सम हो गए। शून्य प्रगट हुआ।
इस
शून्य की खोज में लग गया धम्माराम। भिक्षुओं ने शिकायत भगवान से की। भिक्षुओं के
अहंकार को चोट लगी होगी। उनकी जयरामजी का भी जवाब नहीं देता! अकड़ गया!
जो
जैसे होते हैं,
उनको वैसा ही दिखायी पड़ता है। यह बड़ी मुश्किल है। जो अहंकारी हैं,
उनको हर एक में अहंकार दिखायी पड़ता है। जो चोर हैं, उनको हर एक में चोर दिखायी पड़ता है।
अब
यह आदमी ठीक दिशा में चल पड़ा, तो उन गलत दिशा में चलते हुए भिक्षुओं को यह
आदमी अड़चन मालूम होने लगा।
शिकायत
भगवान से की। भगवान ने धम्माराम को बुलाया। पूछा तुझे क्या हुआ? क्या सत्य
है यह कि तू भिक्षुओं से बोलता नहीं?
भंते!
सत्य है। उसने कहा।
ऐसा
क्यों कर रहा है?
तो
धम्माराम ने अपनी सारी मनोदशा कही। उसे सुनकर भगवान ने उसे धन्यवाद दिया। और कहा? तू ठीक कर
रहा है। तू ही ठीक कर रहा है धम्माराम। तू ही कर रहा है वह, जो
करने योग्य है, जो करना चाहिए। अन्य भिक्षुओं को भी, जिन्हें मुझ पर प्रेम हो, धम्माराम के समान ही होना
चाहिए। क्योंकि बुद्धों से प्रेम करना हो, तो यह साधारण ढंग
का प्रेम नहीं है। इस प्रेम की अपनी शैली है। इस प्रेम की अपनी भंगिमा है। इस
प्रेम की अपनी मुद्रा है।
बुद्धों
से प्रेम करना हो,
तो एक ढंग है। सांसारिकों से प्रेम करना हो, तो
एक और ढंग है। सांसारिक से प्रेम करो, तो संसार की भेंटें
उसके पास लाओ हीरे—जवाहरात लाओ, गहने लाओ, साड़ी लाओ; सुंदर वस्त्र लाओ। सांसारिक से प्रेम करो,
तो संसार की भेंट लाओ। बुद्धों से प्रेम करो र तो बुद्धत्व की भेंट
लाओ। और कोई चीज काम नहीं पड़ेगी। बुद्धों से प्रेम करो, तो
एक दिन बुद्ध हो जाओ। एक दिन उनके चरणों में आकर अपने सिर को रखो, ताकि वे तुम्हारे शून्य को देख सकें। ताकि वे कह सकें—कि ठीक, तू धन्यभागी। तू पहुंच गया। एक दिन अपना शून्य उनके चरणों में चढ़ाओ।
तो
बुद्ध ने कहा. माला—गंध आदि से पूजा करने वाले मेरी पूजा नहीं करते, पूजा करने
का ढोंग कर लेते हैं।
सस्ती
पूजा है—माला—गंध—फूल। अपने को नहीं चढ़ाते। कूड़ा—करकट चढ़ाकर सोचते हैं, काम पूरा हां
गया!
पूजा
तो वही कर रहा है,
जो धर्म के अनुसार चल रहा है। जो मैंने कहा है, उसके अनुसार चल रहा है। चाहे कभी मेरे चरणों में न आए। लेकिन जो मेरे
अनुसार चल रहा है, जिसने मेरी बात समझी और पकड़ी, वही मेरी पूजा करता है।
आंसुओ
के बहाने से भी कोई सार नहीं है। मत रोओ। समय मत गंवाओ। और ऐसा करोगे, तो मुझे
समझे ही नहीं। यही तो समझा रहा हूं जीवनभर से कि यहां सब क्षणभंगुर है। यहां कुछ
भी शाश्वत नहीं है। इसलिए किसी से मोह न बांधो। मुझसे भी नहीं। कम से कम मुझसे तो
बिलकुल नहीं।
रोओ
नहीं; सोओ नहीं—जागो।
तब
उन्होंने इस गाथा को कहा।
धम्माराम
का नाम भी प्यारा है। और यह गाथा शुरू होती है:
धम्मारामो धम्मरतो
धम्मं अनुविचिन्तयं ।
धम्मं अनुस्सरं
भिक्खु सद्धम्मा न परिहायति ।
धर्म में रमण करने वाला—धम्माराम। धर्म में रत—
धम्माराम। धर्म का चिंतन करने वाला— हग्म्माराम। धर्म का अनुसरण करने
वाला—धम्माराम। और ऐसा जो धम्माराम है, वही भिक्षु सद्धर्म को उपलब्ध
होगा—चूकेगा नहीं, ष्णुत नहीं होगा। मैं जाता हूं इसकी फिक्र
न करो। मैं तो जाऊंगा। मैं आया, जाऊंगा। धर्म सदा रहता है।
तुम धम्माराम हो जाओ। तुम मुझसे अपने को मत जोड़ो, धर्म से
अपने को जोड़ो। मुझसे जोड़ोगे, तो रोओगे, पछताओगे; क्योंकि मैं तो जाऊंगा। धर्म से जोड़ोगे,
तो कभी नहीं जाता। धर्म मात्र शाश्वत है।
धर्म
का अर्थ, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म नहीं है। धर्म का अर्थ है वह
शाश्वत नियम, जो इस प्रकृति को चला रहा है। धर्म का वही अर्थ
है बुद्ध के वचनों में, जो गीता में भगवान का अर्थ है,
परमात्मा का अर्थ है। धर्म का वही अर्थ है बुद्ध के वचनों में,
जो लाओत्सू के वचनों में ताओ का अर्थ है।
और
बुद्ध की बात आधुनिक वितान को भी बहुत जमती है, क्योंकि बुद्ध व्यक्ति की बात नहीं
करते हैं, नियम की बात करते हैं। धर्म यानी नियम। वितान को
भी जंचती है बात। यह तो वितान को भी मानना पड़ेगा कि कोई नियम अनुस्यूत है, नहीं तो प्रकृति कैसे डोलती। चांद —तारे कैसे चलते? चलाने
वाला कोई नहीं है, लेकिन चलने की प्रक्रिया के पीछे कोई नियम
है। जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम चीजों को अपनी तरफ खींच लेता है, ऐसा कोई नियम है।
एक
महानियम इस सारे जगत को व्याप्त किए है। बुद्ध ने उसे धर्म कहा है।
धम्मारामो धम्मरतो
धम्मं अनुविचिन्तयं ।
धर्म में ही ड़बो। धर्म की ही सोचो। धर्म को
हीखाओ। धर्म को ही पीयो। धर्म की ही श्वास लो। धर्ममय हो जाओ। धम्माराम हो जाओ।
धम्मं अनुस्सरं
भिक्खु सद्धम्मा न परिहायति ।
फिर मैं रहूं न रहूं, तुम कभी
गिरोगे नहीं। मैं उस धर्म की ही एक भंगिमा हूं। मैं उस धर्म की ही एक अभिव्यक्ति
हूं। अभिव्यक्ति तो खो जाएगी, लेकिन जिसकी अभिव्यक्ति है,
वह सदा है।
बुद्ध
यह कह रहे है कि बुद्धपुरुष धर्म की ही एक लहर हैं। धर्म है सागर जैसा, बुद्धपुरुष
हैं लहर जैसे। लहरें उठती हैं, खो जाती हैं, सागर सदा है।
यह
धम्माराम ने ठीक किया भिक्षुओ। ऐसा ही तुम भी करो। ऐसा ही तुम्हारा जीवन भी हो
जाए—एकांत, मौन, ध्यान—ताकि किसी दिन समाधि का फूल खिले।
एस
धम्मों सनंतनो।
आज इतना ही।
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