बुधवार, 19 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनों-(ओशो)-प्रवचन-112



मंजिल है स्वयं में—प्रवचन—112

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्‍न:

भगवान बुद्ध कहते हैं कि संतों का धर्म कभी जराजीर्ण नहीं होता है; फिर कृष्ण, महावीर, स्वयं बुद्ध और जीसस के धर्म इतने जराजीर्ण कैसे हो चले? इस प्रसंग पर कुछ प्रकाश डालने की अनकंपा करें।
संतो का धर्म निश्चित ही कभी जराजीर्ण नहीं होता है। और जो जराजीर्ण हो जाता है, वह संतों का धर्म नहीं है।
ईसाइयत का कोई संबंध ईसा से नहीं है। और बौद्धों का कोई संबंध बुद्ध से नहीं है। जैनों को महावीर से क्या लेना—देना है?
जो महावीर ने कहा था, वह तो अब भी उतना ही उज्ज्वल है। लेकिन जो सुनने वालों ने सुना था, वह जराजीर्ण हो गया।
जो कहा जाता है, वही थोड़े ही सुना जाता है। जब बुद्ध बोलते हैं, तो बुद्ध तो अपनी ही भावदशा से बोलते हैं। तुम जब सुनते हो, अपनी भावदशा से सुनते हो। इन दोनों के बीच में बड़ा अंतर है। बुद्ध पर्वत के शिखर पर खड़े हैं; तुम अपनी अंधेरी खाइयों में पड़े हो। बुद्ध प्रकाश के उच्चल शिखरों से बोल रहे हैं; तुम अपने गहन अंधेरे में सुन रहे हो।

प्रकाश से जो जन्मा है, अंधेरे मन तक पहुंचते —पहुंचते कुछ का कुछ हो जाता है। फिर जो तुम सुनते हो, उसी से शास्त्र निर्मित होते हैं। फिर तुम जो सुनते हो, उसी से संप्रदाय बनते हैं। तुम्हारे सुने हुए को तुम बुद्धों का कहा हुआ मत समझना। इसी कारण प्रश्न उठ गया।
जैन धर्म का अर्थ, महावीर ने जो कहा, वह नहीं; क्योंकि महावीर को तो समझने के लिए महावीर होना पड़े। अपनी चेतना के तल से ऊपर की बात तब तक नहीं समझी जा सकती, जब तक चेतना का तल न उठ जाए।
एक छोटा बच्चा भी सुन लेता है। संभव है कि कोई आदमी प्रेम की महिमा गा रहा हो। एक छोटा सा बच्चा भी सुन लेता है। लेकिन छोटा बच्चा प्रेम को कैसे समझे? अभी तो उसकी वासना के स्रोत जगे नहीं, सोए हैं। तुम एक छोटे बच्चे को ले जा सकते हो खजुराहो के मंदिर में। वह देखेगा नग्न स्त्री—पुरुषों की मूर्तियां। देखेगा जरूर, लेकिन उसके भीतर कोई भाव इससे पैदा नहीं होगा। शायद पूछेगा कि यह क्या है! लेकिन तुम काम को या संभोग को उसे समझा न सकोगे। वह तो जवान होगा, तभी समझ पाएगा। जब प्रौढ़ होगा, तभी समझ पाएगा।
जो काम के संबंध में सच है, वही धर्म के संबंध में भी सच है। धर्म को समझने के लिए भी एक प्रौढ़ता चाहिए— ध्यान की प्रौढ़ता। जब ध्यान का रस पक जाता है, तो ही समझ पाते हो।
महावीर को जिन्होंने सुना, उन्होंने अपने ढंग से समझा। उस ढंग के आधार पर जैन — धर्म निर्मित हुआ। यह जैन— धर्म जराजीर्ण उसी दिन होना शुरू हो गया, जिस दिन बनना शुरू हुआ। इसकी मौत तो उसी दिन शुरू हो गयी, जिस दिन यह जन्मा। हालांकि जैन सोचता है इसका संबंध महावीर से है। बौद्ध सोचता है इसका संबंध बुद्ध से है। ईसाई सोचता है इसका संबंध जीसस से है। कोई संबंध नहीं है। जरा भी संबंध नहीं है।
अफवाहें हैं, लोगों ने जो सुनी हैं। जो मूल है, खो गया। खो ही जाएगा। उस मूल को सुनने के लिए एक और तरह की प्रतिभा, एक और तरह की प्रज्ञा चाहिए। ध्यान से उज्ज्वल बुद्धि चाहिए। ध्यान में नहाया हुआ चैतन्य चाहिए। बुद्ध को समझने के लिए बुद्ध होना पड़े। कृष्ण को समझने के लिए कृष्ण होना पड़े।
इसलिए बुद्ध ठीक ही कहते हैं कि संतों का धर्म कभी जराजीर्ण नहीं होता। और दो संतों का धर्म अलग थोड़े ही होता है, जो जराजीर्ण हो जाए। जो कृष्ण ने कहा है— भाषा अलग है, वही बुद्ध ने कहा है— भाषा अलग है। वही मोहम्मद ने कहा है— भाषा अलग है। स्वभावत:, मोहम्मद अरबी बोलते हैं और बुद्ध पाली बोलते हैं और कृष्ण संस्कृत बोलते हैं। भाषाएं अलग हैं। अलग—अलग समयों में, अलग— अलग प्रतीकों के प्रवाह में, अलग— अलग संकेतों का उपयोग किया है। लेकिन जो कहा है......।
ऐसा समझो कि बहुत लोगों ने अंगुलियां उठायीं चांद की तरफ। अंगुलियां अलग— अलग, चांद एक है। अंगुलियों पर जोर दोगे, तो भ्रांति खड़ी होगी। उसी भ्रांति से संप्रदाय पैदा होते हैं—हिंदू मुसलमान, जैन, बौद्ध। अगर चांद को देखोगे, अंगुलियों को भूल जाओगे। अंगुलियां भूल ही जानी चाहिए। अंगुलियों का चांद से क्या लेना—देना! इतना काफी है कि उन्होंने इशारा कर दिया चांद की तरफ। अब अंगुलियों को भूल जाओ, चांद को देखो। चांद एक है। अंगुलियां बनेंगी, मिटेगी—चांद सदा है। एस धम्मो सनंतनो।
इसलिए बुद्ध कहते हैं संतों का धर्म कभी जराजीर्ण नहीं होता है। और जब भी कोई संत पैदा होता है, तब पुनरुज्जीवित हो जाता दै। वही धर्म फिर साकार हो जाता है, फिर अवतरित हो जाता है।
अवतार का और क्या अर्थ है? अवतार का अर्थ यह नहीं होता कि भगवान उतरता है। अवतार का इतना ही अर्थ होता है कि जो शाश्वत धर्म है, वह फिर से रूप लेता है।
बुद्ध में वही धर्म फिर से बोलता है जो कृष्ण में नाचा था। वही धर्म फिर रमण में मौन होकर बैठ जाता। वही धर्म अलग — अलग रूप लेता, अलग — अलग फूलों में खिलता है। लेकिन धर्म एक है। और जिनके पास देखने की आंखें हैं, वे उस एक को देख लेंगे। उन्हें अनेक के कारण भ्रांति पैदा न होगी।
लेकिन जिन धर्मों को हम जानते हैं, वे निश्चित जराजीर्ण होते हैं; सड़ते हैं। उनकी ही दुर्गंध से तो मनुष्य की आत्मा दुर्गंधपूर्ण हो गयी है। सारी पृथ्वी दुर्गंध से भरी है। क्योंकि तीन सौ धर्मों की लाशें सड़ रही हैं। और मोह के कारण उन लाशों को हम जाकर मरघट पर जलाते भी नहीं हैं। बाप—दादों का धर्म है—कैसे जला आएं!
यह हालत ऐसी ही है जैसे कि तुम्हारे घर में तुम्हारी मां मर जाए और तुम मोह के कारण उसकी लाश को घर में सम्हालकर रखो। आदर ठीक है, लेकिन लाश को तो मरघट पर जलाना ही पड़ेगा। उसको घर में रखोगे, तो मुश्किल में पड़ोगे। सारा घर बदबू से भर जाएगा। और अगर यह मोह जारी रहे, तो तुम्हारे घर में इतनी लाशें इकट्ठी हो जाएंगी कि जिंदा आदमियों को रहने का स्थान नहीं रह जाएगा।
फिर पिता मरेंगे, फिर भाई मरेगा, फिर पत्नी मरेगी। और तुम्हारे ही थोड़े, तुम्हारे पिता के पिता, उनकी लाशें, और लाशों के ढेर लग जाएंगे, अंबार लग जाएंगे। तो तुम्हारा घर में रहना असंभव हो जाएगा। मुर्दे तुम्हें मार डालेंगे।
यही हालत मनुष्य के मन की हो गयी है। सड़ जाता है, गल जाता है, फिर भी हम उसे फेंक नहीं देते। हमारा अतीत से बड़ा पागल मोह है। और अतीत के साथ जिनका पागल मोह है, उनका कोई भविष्य नहीं है। उनका भविष्य अंधकारपूर्ण है। जो अतीत से मुक्त होता है, उसी के भविष्य की शुरुआत होती है। जो गया, गया; जाने दो। ताकि जो सकता है, सके। स्थान बनाओ। सिहासन खाली करो।
बुद्ध तो आते रहे, आते रहेंगे; तुम पुराने बुद्धों को अगर जकड़कर बैठे रहे, तो नए बुद्धों का तुम्हारे द्वार में प्रवेश न हो सकेगा। वे दस्तक भी देंगे, तो भी दस्तक तुम्‍हें सुनायी न पड़ेगी।
इसलिए तुम शाश्वत धर्म से वंचित रह जाते हो। तुम्हारे हाथ में जो लगता है, वह कूडा—करकट है। उसी कूड़ा —करकट की तुम पूजा करते चले जाते हो। तुम्हारे हाथ में जो लगता है, वह रूढियों का समूह है, अंधविश्वास। और सदियों—सदियों में उनका ढंग इतना बदल गया है कि अगर बुद्ध आज लौटें, तो बौद्धों को देखकर पहचान न पाएंगे।
देखो कैसी घटना घटती है! उदाहरण के लिए : बुद्ध नै कहा था अपने भिक्षुओं को कि भिक्षापात्र में जो मिल जाए, जो लोग दान कर दें, उसी को स्वीकार कर लेना। मांग मत करना। कोई रूखी रोटी डाल दे, तो उसे स्वीकार कर लेना। कोई हलुवा दे दे, तो उसे स्वीकार कर लेना। माग मत करना। भिक्षापात्र लेकर खड़े हो जाना, कोई इनकार कर दे, तो बिना किसी क्रोध के, रोष के चुपचाप आगे बढ़ जाना। जो मिल जाए। और भिक्षापात्र जब भर जाए, तो घर लौट आना। कहीं अच्छी चीज मिलती हो, तो इशारा भी मत करना आंख से कि थोड़ी और दे दो। और कहीं रूखा—सूखा मिलता हो, तो मुंह मत सिकोड लेना। जो मिले, वही सौभाग्य। जो मिले, उसके लिए धन्यवाद। और जो मिले, उसी से काम चला लेना।
एक दिन ऐसा हुआ कि एक भिक्षु भिक्षा मांगने गया। एक चील मांस का टुकडा लेकर उड़ती थी। और उस चील का मांस का टुकडा छूट गया, और सयोगवशांत भिक्षु के पात्र में गिर गया। अब भिक्षु को सवाल उठा कि बुद्ध ने कहा है, जो पात्र में मिल जाए, उसका तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। अब आज यह मांस गिर गया पात्र में, अब क्या करना! स्वीकार करना कि नहीं करना?
उसने आकर बुद्ध के सामने सवाल रखा। बुद्ध क्षणभर सोचे। अगर बुद्ध कहते हैं कि नहीं, यह मांस का टुकड़ा स्वीकार मत करो, इसे फेंक दो, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम मांसाहारी हो जाओ..। और यह तो संयोग की बात थी। भूल से गिरा है चील के। कोई डाला नहीं है तुम्हारे पात्र में। अगर मैं यह कहूंगा, तो आज नहीं कल लोग विवेचन करने लगेंगे कि क्या छोड़ना, क्या नहीं छोड़ना; फिर कठिनाई खड़ी होगी। और चीले कोई रोज थोड़े ही मांस डालेंगी। यह तो संयोग है, कभी घट गया। अब शायद कभी न घटे।
इस एक संयोग के लिए अगर मैं नियम बनाऊं कि तुम्हारे ऊपर छोड़ देता हूं कि कभी ऐसी झंझट हो, तो त्याग देना; ऐसी कोई स्थिति बन जाए, और तुम्हें संदेह हो, तो त्याग देना—तो फिर उसी नियम में से तरकीबें निकल आएंगी। फिर रूखा—सूखा लोग छोड़ देंगे, फिर अच्छा स्वीकार कर लेंगे। कुछ उपाय खोज लेंगे। आदमी बड़ा कानूनी है!
तो बुद्ध ने सोचा उचित यही है कि कह दिया जाए कि जो तुम्हारे पात्र में गिर गया, स्वीकार कर लो। अब चील दुबारा तो कोई गिराकी नहीं; बारबार यह सवाल उठेगा नहीं, इसलिए नियम में एक छिद्र छोड़ना ठीक नहीं है। तो बुद्ध ने कहा. स्वीकार कर लो। और इस छोटी सी घटना से सारे बौद्ध मांसाहारी हो गए!
आदमी बड़ा बेईमान है! फिर तो लोगों ने तरकीबें निकाल ली—कि बुद्ध ने मांसाहार का विरोध नहीं किया। मांसाहार के अगर विरोधी होते तो उन्होंने उस भिक्षु को कहा होता कि यह मांस छोड़ दो। बुद्ध ने तो मांसाहार स्वीकार कर लिया!
तो सारी दुनिया के बौद्ध मांसाहारी हो गए हैं। दुनिया के सबसे बड़े अहिंसक के शिष्य मांसाहारी हो जाएंगे, यह अकल्पनीय मालूम पड़ता है। लेकिन तरकीब आदमी निकाल लेता है।
बुद्ध ने कहा है कि कोई किसी पशु को भोजन के लिए मारे। सोचा भी नहीं होगा कि आदमी कितना होशियार है। बुद्ध का वचन है कि कोई किसी पशु को भोजन के लिए मारे। उनको पता नहीं था कि इसका मतलब यह भी हो सकता है कि अगर पशु अपने आप मर जाए, तो फिर उसका भोजन किया जा सकता है! मारा नहीं। तो जो पशु अपने आप मर जाएं, उनका बौद्ध भिक्षु भोजन करने लगे। क्योंकि बुद्ध ने कहा है मारे कोई भोजन के लिए। मगर अपने से जो मर गया हो......!
फिर अब चीन में, और जापान में, और थाईलैंड में—जहां बौद्धों की बड़ी संख्या है—होटलों में तुम इस तरह की तख्तियां लगी देखोगे कि यहां मारे हुए जानवर का मांस नहीं बिकता, यहां अपने से मरे जानवर का मांस बिकता है।
अब अपने से कितने जानवर मर रहे हैं? अब भिक्षु को या बौद्ध को कोई चिंता नहीं है। वह कहता है. हम क्या करें! दुकान पर साफ लिखा है कि यहां तो अपने आप मरे जानवरों का मांस मिलता है।
इतने जानवर अपने आप रोज नहीं मरते कि हर होटल में मांस मिल सके, और हर गांव में मास बिक सके। लेकिन अब बौद्ध मुल्कों में सब मांस इसी तरह बिकता है। तो बूचड़खाने क्यों हैं वहा? लाखों जानवर रोज काटे जाते हैं। लेकिन बौद्ध कहता है : यह उसका पाप है। अगर दुकानदार ने धोखा दिया है, तो हम क्या करें! जैसे अपने यहां लिखा रहता है कि यहां शुद्ध घी बिकता है। अब इसमें हम क्या करें! अगर दुकानदार ने कुछ मिला दिया, तो अब हमारी तो जिम्मेवारी नहीं है। हमने तो भरोसा कर लिया!
ऐसा होशियार है आदमी। अपने को ही नष्ट करने में बड़ा कुशल है। और तरकीबें सदा निकाल लेता है। एक नियम बनाओ, उसमें से दस तरकीबें निकाल लेता है। और जितने ज्यादा नियम बनाओ, उतनी ज्यादा बात उलझती जाती है, सुलझती नहीं। इस तरह से जो धर्म निर्मित होते हैं, उनका धर्म के मूलस्रोतों से कोई संबंध नहीं। बिलकुल असंबंधित हैं।
बुद्ध ने कहा था : मेरी कोई मूर्ति न बनाए। और जितनी मूर्तियां बुद्ध की हैं दुनिया में, किसी और की नहीं। सब से ज्यादा मूर्तियां बुद्ध की बनीं। और अगर बौद्धों से पूछो—क्यों? यह कैसे हुआ? कि बुद्ध कहते रहे, मेरी कोई मूर्ति न बनाओ! तो बौद्ध कहते हैं, जिसने हमें समझाया, इतना महान सिद्धात समझाया कि इसकी हम कोई मूर्ति न बनाएं, उसकी याद में हमने मूर्तियां बनायी हैं। इतनी महान बात को जो कहने आया था, उसकी याद तो रखनी पड़ेगी!
उर्दू में, अरबी में मूर्ति के लिए जो शब्द है, वह बुत है। बुत बुद्ध से बना। बुद्ध की इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध शब्द मूर्ति का पर्यायवाची हो गया कुछ भाषाओं में। उन्होंने पहली दफे मूर्ति ही बुद्ध की देखी। तो बुद्ध और मूर्ति एक ही अर्थ के हो गए। इसलिए बुत।
ऐसा रोज हुआ है, ऐसा सदा हुआ है, ऐसा आज भी हो रहा है। और आदमी को देखकर लगता नहीं कि कभी इससे भिन्न कुछ होगा। आदमी के अंधेरे में चीजें आकर भटक जाती हैं। आदमी से बोलना ऐसे है, जैसे पागलों से तुम बोलो। तुम कहोगे कुछ; वे अर्थ लेंगे कुछ। परिणाम कुछ और होगा। बुद्ध ने इसके लिए एक उदाहरण दिया है।
एक दिन बुद्ध से एक शिष्य ने पूछा कि आप कहते हैं कि मैं कुछ बोलता हूं, तुम कुछ समझते हो—इसके लिए कोई उदाहरण दें। बुद्ध ने कहा अच्छा, आज ही उदाहरण दूंगा।
उस रात जब बुद्ध बोले... तो वे नियम से, हर प्रवचन के बाद, रात में कहते थे अब जाओ; रात्रि का अपना अंतिम कार्य पूरा करो, और फिर विश्राम में जाओ।
भिक्षु तो जानते थे कि अंतिम कार्य क्या है। अंतिम कार्य था अंतिम ध्यान। सोने के पहले अंतिम ध्यान करके फिर निद्रा में चले जाओ, ताकि ध्यान की गूंज नींद में भी सरकती रहे। ताकि धीरेधीरे छहआठ घंटे की नींद ध्यान में ही रूपांतरित हो जाए।
और यह बड़ा मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जब तुम सोते हो, उस समय तुम्हारा जो आखिरी विचार होता है, वह तुम्हारी निद्रा में सरकता रहता है। उसका परिणाम होता है। इसलिए सारी दुनिया के धर्मों ने सोने के पहले प्रभु —स्मरण, प्रार्थना या ध्यान—इस तरह की विधियां दी हैं। वे बड़ी मनोवैज्ञानिक हैं।
आखिरी क्षण में, जब तुम नींद में पड़े ही जा रहे हों—पड़े ही जा रहे हो—नींद उतरने ही लगी—पर्दा —पर्दा गिरने लगी तुम्हारे ऊपर—अब तुम कुछ होश में, कुछ बेहोश—तब भी तुम प्रार्थना दोहरा रहे हो या ध्यान कर रहे हो, तो धीरे — धीरे यह ध्यान तुम्हारी निद्रा में प्रविष्ट हो जाएगा।
और निद्रा तुम्हारे भीतर गहरी से गहरी दशा है। इसलिए तो पतंजलि ने योग—सूत्रों में कहा कि सुषुप्ति और समाधि समान हैं। सिर्फ एक भेद है. सुषुप्ति है बेहोश, और समाधि है होश। अन्यथा दोनों समान हैं। एक सी गहराई दोनों की है। सुषुप्ति में ही जब ध्यान का दीया जल जाता है, तो वह समाधि हो जाती है। लेकिन वही विश्राम है, वही गहराई है।
तो नींद में उतरने के पहले—बुद्ध ने कहा था—ध्यान करना। तो अब रोज—रोज क्या कहना कि ध्यान करो! यह प्रतीकात्मक हो गया था कि भिक्षुओ! अब जाओ। अंतिम कार्य करके और सो जाओ।
उस रात एक चोर भी आया था सभा में, और एक वेश्या भी आयी थी। जब बुद्ध ने यह कहा कि भिक्षुओ! अब जाओ। अंतिम कार्य करके सो जाओ। चोर ने समझा कि ठीक! बुद्ध को भी खूब पता चल गया कि मैं भी चोर हूं यहां मौजूद। मुझसे कह रहे हैं कि जाओ; अब अपनी चोरी वगैरह करो। अब रात बहुत हो गयी! और —वेश्या भी चौंकी। उसने कहा हद्द हो गयी! कि बुद्ध को मेरा पता चल गया इतनी भीड़ में! और उन्होंने मुझसे भी कह दिया कि अब जाओ। अपना रात का अंतिम कार्य करो!
दूसरे दिन सुबह जब बुद्ध ने समझाया, तो उन्होंने कहा रात एक चोर भी था। और वह यहां से उठकर सीधा चोरी करने गया। और एक वेश्या थी, यहां से जाकर उसने अपनी दुकान खोली।
भिक्षु ध्यान करने चले गए। चोर चोरी करने चले गए। वेश्याओं ने दुकानें खोल लीं। और बुद्ध ने एक ही वचन कहा था कि अब जाओ; रात्रि का अंतिम कृत्य पूरा करके सो जाओ। इतना ही भेद हो जाता है!
जितने सुनने वाले, उतने अर्थ हो जाते हैं। उन अर्थों पर धर्म बनते हैं। धर्म यानी संप्रदाय। ये धर्म तो जराजीर्ण होते हैं। ये तो सड़ जाते हैं। इनसे बड़ी दुर्गंध उठती है। यह पृथ्वी इन्हीं की दुर्गंध से भरी है।
हिंदू मुसलमान से लड़ रहे हैं, ईसाई हिंदुओं से लड़ रहे हैं, जैन बौद्धों से लड रहे हैं। सब तरफ संघर्ष है। धर्म में कहां संघर्ष हो सकता है?
धर्म दो नहीं हैं, धर्म एक है। जिसको बुद्ध ने कहा है—एस धम्मो सनतनो—वे किसी धर्म को सनातन नहीं कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, धर्म सनातन है।
और सारे धर्म जो धर्म के नाम पर खड़े हो जाते हैं, वे सिर्फ अभिव्यक्तियां हैं, और अभिव्यक्तियां भी विकृत हो गयी हैं, रुग्ण हो गयी हैं। समय की धार ने उन्हें खराब कर दिया है, खूब धूल जम गयी है।
इसीलिए तो जिसे सच में ही धर्म की तलाश करनी हो, उसे बुद्धपुरुष को खोजना चाहिए, शास्त्र नहीं। उसे सदगुरु खोजना चाहिए, शास्त्र नहीं। कहीं कोई जीवंत मिल जाए, जहां अवतरण हो रहा हो धर्म का अभी; जहां गंगा अभी उतर रही हो, कहीं कोई भगीरथ मिल जाए, जहां गंगा अभी उतर रही हो—तो ही तुम्हें आशा रखनी चाहिए कि तुम्हें थोड़ा—बहुत जल मिल जाएगा, जो तुम्हारी प्यास को सदा के लिए तृप्त कर दे।
किताबों में खोजते हो, व्यर्थ खोजते हो। अतीत में खोजते हो, व्यर्थ खोजते हो। मरघटों में खोज रहे हो, कब्रों में खोज रहे हो। वहा हड्डियां मिलेंगी सड़ी—गली। उन हड्डियों से कोई संबंध नहीं है। यही तो हो रहा है।
लंका में एक मंदिर है, जहां बुद्ध का दात पूजा जा रहा है। और वैज्ञानिकों ने खोज की है और वे कहते हैं — यह बुद्ध का दांत ही नहीं है। बुद्ध की तो बात छोड़ो, यह आदमी का ही दात नहीं है। वह किसी जानवर का दात है। मगर बौद्ध मानने को तैयार नहीं हैं। और उनको भी दिखायी पड़ता है कि इतना बड़ा दात आदमी का होता ही नहीं। इस ढंग का दात आदमी का नहीं होता। वैज्ञानिकों ने सब परीक्षण करके तय कर दिया है कि किस तरह के जानवर का दात है। मगर पूजा जारी है!
वे कहते हैं : सदा से चली आयी है; हम छोड़ कैसे सकते हैं! सदियां मूढ़ थीं? पच्चीस सौ साल से हम इसको पूजते हैं! किसी को पता नहीं चला, आपको पहली दफा पता चला! पूजा जारी रहेगी।
अस्थियां पूंजी जाती हैं। राख पूंजी जाती है। लाशें पूंजी जाती हैं। और जीवंत का तिरस्कार होता है! आदमी बहुत अदभुत है।
जब बुद्ध जिंदा होते हैं, तब पत्थर मारे जाते हैं। और जब बुद्ध मर जाते हैं, तब पूजा होती है! जब क्राइस्ट जिंदा थे, तो सूली लगायी। और जब अब मर गए हैं, तो कितने चर्च! लाखों चर्च! कितनी चर्चा! जितनी किताबें जीसस पर लिखी जाती हैं, किसी पर नहीं लिखी जातीं। और जितने पंडित—पुरोहित जीसस के पीछे हैं, उतने किसी के पीछे नहीं। और जितने मंदिर जीसस के लिए खड़े हैं, उतने मंदिर किसी के लिए नहीं हैं। आधी पृथ्वी ईसाई है!
और इस आदमी को सूली लगा दी थी। और इस आदमी को जब सूली लगी थी, तो लोग पत्थर फेंक रहे थे, सड़े—गले छिलके फेंक रहे थे, लोग इसका अपमान कर रहे थे; हंस रहे थे। और जब यह आदमी सूली पर लटका हुआ प्यास से तड़फ रहा था और इसने पानी मांगा, तो किसी ने गंदे डबरे में एक चीथड़े को भिगोकर एक बांस पर लगाकर जीसस की तरफ कर दिया—कि इसे चूस लो।
जीसस जिंदा थे, तो यह व्यवहार। जीसस को खुद अपनी सूली ढोनी पड़ी थी गोलगोथा के पहाड़ पर। गिर पड़े रास्ते में, क्योंकि सूली वजनी थी, बड़ी थी। घुटने टूट गए; लहूलुहान हो गए। और पीछे से कोड़े भी पड़ रहे है—कि उठो और अपनी सूली ढोओ।
यह व्यवहार जीवित जीसस के साथ और अब पूजा चल रही है! और अब वही क्रास सभी मंदिरों में प्रतिष्ठित हो गया है। भजन—कीर्तन हो रहे हैं!
और मैं तुमसे कहता हूं : जीसस अगर वापस आ जाएं, तो फिर सूली लगे।
आदमी वहीं का वहीं है। आदमी कहीं गया नहीं है।
आदमी मुर्दों को पूजता है। क्यों? क्योंकि मुर्दों के द्वारा कोई क्रांति नहीं होती, तुम सुरक्षित रहते हो। जिंदा जीसस तुम्हारे जीवन को बदल डालेंगे। जिंदा जीसस से दोस्ती करोगे, प्रेम लगाओगे, तो बदलाहट होगी। मरे हुए जीसस से बदलाहट नहीं होती। मरे हुए जीसस को तो तुम बदल दोगे। तुम्हें वे क्या बदलेंगे।
इसलिए आदमी अतीत के साथ अपने मोह को बांधकर रखता है। इसी मोह के कारण इतनी सड़न है, इतनी गंदगी है, धर्म के नाम पर इतना अनाचार है। धर्म के नाम पर इतना रक्तपात है, युद्ध, हिंसा।
धर्म के नाम पर जितने लोग मारे गए हैं, और किसी नाम पर नहीं मारे गए हैं। और धर्म प्रेम की बात करता है! और प्रार्थना की बात करता है। और परिणाम में हत्या होती है।
लेकिन फिर भी बुद्ध ठीक कहते हैं कि संतों का धर्म जराजीर्ण नहीं होता है। जो जराजीर्ण हो जाता है, वह संतों का धर्म नहीं है।

दूसरा प्रश्‍न:
            चरण मेरे रूक न जाएं।
आज सूने पंथ पर
बिलकुल अकेली चल रही मैं
रात के नीरव तिमिर में
नवशिखासी जल रही मैं
डर रही हूं मैं कहीं
मुझ पर शलभ मंडरा आएं।
चरण मेरे रूक न जाएं।
मौन का संगीत मुझको
लग रहा है रागिनी—सा
स्नेह मेरा बन गया
इस शून्य की निराजनीसा
प्राण का लधुदीप श्वासों के
अनिल से बुझ न जाए।
चरण मेरे रूक न जाएं।
दूर मंजिल, कोन जाने
कब मिले मुझको किनारा
बांध उर का तोड़ कर
जब बह चली है अश्रुधारा
जल भरे ये मेघ काले
आज मुझ पर झुक आएं।
चरण मेरे रूक न जाएं।

 ब तुम पर निर्भर है। रोकना चाहो, तो रुक जाएंगे। चलाना चाहो, तो इस जगत की कोई शक्ति तुम्हारे चरणों को रोक नहीं सकती। सब तुम पर निर्भर है। तुम्हीं रूकते हो, तुम्हीं चलते हो। न कोई चलाता है, न कोई रोकता है।
अपने उत्तरदायित्व को समझो। यही तो बुद्ध का अंतिम वचन था अप्प दीपों भव, अपने दीए बनो। सहारों की आशाएं छोड़ो। सहारों के ही सहारे तुम अब तक भटके हो। अपने पैरों पर खड़े हो जाओ।
अंधेरा है, तो अंधेरा सही। राह खोजो। राह कठिन है, भटकाव वाली है, तो भटकने की हिम्मत लो, साहस करो। क्योंकि जो भूल—चूक करता है, वही सीखता है। जो भटकता है, वही कभी घर आता है। जो भटकने से डरता है, वह कभी घर नहीं आ पाता।
भय की कोई जरूरत नहीं है। यह सारा अस्तित्व इसीलिए है कि तुम खोजो, भटको, गिरो —उठो और एक दिन पहुंच जाओ। पहुंचने के लिए यह सब जरूरी है। ऐसे बैठे घबड़ाते मत रहना कि कहीं तूफान न आ जाए; कहीं मेरा दीया न बुझ जाए; कहीं अंधेरे में मैं भटक न जाऊं! कहीं यह न हो जाए! कहीं बादल न घिर आएं। ऐसे ही डरे —डरे बैठे रहे, तो ही चूकोगे। जो चलता नहीं, वही चूकता है। इस सूत्र को खयाल में रख लो।
जो चलता है, वह तो एक न एक दिन पहुंच ही जाता है। कितना ही भटके, तो भी पहुंच जाता है। क्योंकि हर भटकाव कुछ न कुछ बोध लाता है। हर भूल से कुछ न कुछ सीख होती है। एक भूल एक बार की, दुबारा करने की फिर जरूरत नहीं है, अगर थोड़ी समझदारी बरतो। नयी भूलें होंगी।
धीरे — धीरे भूलें कम होती जाएंगी। एक दिन ऐसा आएगा कि भूल करने को न बचेगी, उसी दिन पहुंच जाओगे।
'चरण मेरे रुक न जाएं।
आज सूने पंथ पर
बिलकुल अकेली, चल रही हूं। '
अकेला कोई भी नहीं चल रहा है। तुम्हारे साथ परमात्मा चल ही रहा है। तुम्हारे भीतर ही बैठा है, साथ चल रहा है—यह कहना भी ठीक नहीं है। अकेले तो तुम चल भी न सकोगे। अकेले तो तुम्हारा होना भी नहीं है। अकेले तो श्वास भी न ले सकोगे, हृदय भी न धड़केगा। उसके सहारे धड़क रहा है, वही धड़का रहा है। वही धड़कन है। वही श्वास ले रहा है, वही श्वास है। नाम उसे कुछ भी दो। परमात्मा दो, आत्मा दो, या जो चाहो कहना, कहो। लेकिन तुम्हारे भीतर मौजूद है।
इस जगत का जो मूलस्रोत है, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। अकेले हो—ऐसी बात ही छोड़ो। यह अकेले का खयाल तुम्हें डरा देगा।
ऐसा हुआ मोहम्मद भाग रहे हैं, उनके पीछे दुश्मन लगे हैं। उनका एक संगी —साथी भर उनके साथ है। वे जाकर एक गुफा में बैठ जाते हैं। घोड़ों की आवाज आ रही है। दुश्मन करीब आता जाता है। साथी बहुत घबड़ाया हुआ है। अंततः उसने कहा हजरत! आप बड़े शांत दिखायी पड रहे हैं। मुझे बहुत डर लग रहा है। मेरे हाथ —पैर कैप रहे हैं। घोडों की टापें करीब आती जा रही हैं। दुश्मन करीब आ रहा है। और ज्यादा देर नहीं है। मौत हमारी करीब है। आप निश्चित बैठे हैं! हम दो हैं, वे हजार हैं। आप निश्चित क्यों बैठे हैं?
मोहम्मद हंसे। और मोहम्मद ने कहा हम तीन हैं, दो नहीं। उस आदमी ने चारों तरफ गुफा में देखा कि कोई और भी छिपा है क्या! मोहम्मद ने कहा यहां —वहां मत देखो। आंख बंद करो, भीतर देखो, हम तीन हैं। और वह जो एक है, वह सर्वशक्तिमान है। फिकर न करो। निश्चित रहो। उसकी मर्जी होगी, तो मरेंगे। और उसकी मर्जी से मरने में बड़ा सुख है। उसकी मर्जी होगी, तो बचेंगे। उसकी मर्जी से जीने में सुख है। अपनी मर्जी से, जीने में भी सुख नहीं है। उसकी मर्जी से मरने में भी सुख है। इसलिए मैं निश्चित हूं। कि वह जो करेगा, ठीक ही करेगा। जो होगा, ठीक ही होगा। इसलिए मेरी श्रद्धा नहीं डगमगाती। तूने यह बात ठीक नहीं कही कि हम दो हैं। तीन हैं। और हम दो एक दिन नहीं थे और एक दिन फिर नहीं हो जाएंगे। वह जो तीसरा है, हमसे पहले भी था, हमारे साथ भी है; हमारे बाद भी होगा। वही है। हमारा होना तो सागर में तरंगों की तरह है।
लेकिन उस साथी को भरोसा नहीं आता है। उसने कहा ये दर्शनशास्त्र की बातें हैं। ये धर्मशास्त्र की बातें हैं। आप ठीक कह रहे होंगे। मगर इधर खतरा जान को है। पर वही हुआ, जो मोहम्मद ने कहा था। घोड़ों की टापों की आवाज बढ़ती गयी, बढ़ती गयी, फिर एक क्षण आया—रुकी—और फिर दूर होने लगी। दुश्मन ने यह रास्ता थोड़ी दूर तक तो पार किया, फिर सोचकर कि नहीं; इस रास्ते पर वे नहीं गए हैं, दूसरे रास्ते पर दुश्मन मुड़ गए।
मोहम्मद ने कहा : देखते हो! उसकी मर्जी है, तो जीएंगे। अपनी मर्जी से यहां जीने में सिर्फ जद्दोजहद है। उसकी मर्जी से जीने में बड़ा रस है। और जब मैं तुमसे कहता हूं उसकी मर्जी, तो मैं यही कह रहा हूं कि तुम्हारे अंतर्तम की मर्जी। वह कोई दूर नहीं, दूसरा नहीं।
तो यह तो खयाल छोड़ ही दो कि 'चरण मेरे रुक न जाएं। आज सूने पंथ पर


बिलकुल अकेली चल रही मैं।'
बिलकुल अकेला कोई भी नहीं है। मजा तो ऐसा है कि जब तुम बिलकुल अकेले हो जाओगे, तभी पता चलता है—कि अरे! मैं अकेला नहीं हूं! जिस दिन जानोगे. न पत्नी मेरी, न पति मेरा, न भाई, न मित्र—कोई मेरा नहीं—उस दिन अचानक तुम पाओगे कि एक परम संगी—साथी है, जो भीतर चुपचाप खड़ा था। तुम भीड़ में खोए थे, इसलिए चुपचाप खड़ा था। तुम भीड़ से भीतर लौट आए, तो उससे मिलन हो गया। तुम बाहर संगी—साथी खोज रहे थे, इसलिए भीतर के संगी—साथी का पता नहीं चल रहा था।
'दूर मंजिल, कोन जाने
कब मिले मुझको किनारा।'
यह बात भी गलत है। मंजिल बिलकुल पास है। इतनी पास है, इसीलिए दिखायी नहीं पड़ती। दूर की चीजें तो लोग देखने में बड़े कुशल हैं। पास की चीजें देखने में बड़े अकुशल हैं। दूर के चांद—तारे तो दिखायी पड़ जाते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन पर अदालत में एक मुकदमा था। एक हत्या हो गयी थी उसके पड़ोस में। और उससे पूछा गया कि तुमने यह हत्या देखी? उसने कहा ही, मैंने देखी। पूछा, तुम कितनी दूर थे? उसने कहा. एक फर्लांग के करीब। मजिस्ट्रेट ने कहा, कि रात में, अंधेरे में एक फर्लांग दूर से तुमने यह हत्या देख ली? कोन ने मारा, किसको मारा? तुम्हें कितने दूर तक दिखायी पड़ता है? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा. इसका तो मुझे पता नहीं। अब आप ही देखिए, चांद—तारे भी मुझे दिखायी पड़ते हैं; रात के अंधेरे में भी दिखायी पड़ते हैं!
चांद—तारे दिखायी पड़ते हैं रात के अंधेरे में। तो मुल्ला यह कह रहा है कि मुझे तो बड़े दूर की चीजें दिखायी पड़ती हैं; एक फर्लांग का मामला ही क्या है!
दूर का दिखायी पडना एक बात है; पास का दिखायी पड़ना बहुत कठिन है। क्योंकि तुम अपने से दूर—दूर हो, इसलिए दूर का दिखायी पड़ जाता है। अपने पास—पास कहा?
और परमात्मा पास है—यह कहना भी गलत होगा; क्योंकि पास में भी एक तरह की दूरी है। परमात्मा तुम्हारा भीतर अंतर्तम है। पास ही नहीं है, तुम ही हो। इसलिए देखना बहुत मुश्किल है। देखने वाला ही नहीं है कोई वहां, जो अलग से देख ले।
इसलिए तो जो जानते हैं, उन्होंने कहा : दृश्य की तरह परमात्मा कभी दिखायी नहीं पड़ता। दृश्य तो दूर होता है। परमात्मा का अनुभव होता है, जब तुम द्रष्टा हो जाते हो। परमात्मा मिलता है द्रष्टा को, द्रष्टा की भांति; दृश्य की भाति कभी नहीं। परमात्मा का अनुभव होता है, .दर्शन नहीं।
जो कहते हैं : हमें परमात्मा का दर्शन हुआ है, वे गलत ही बात कहते हैं। दर्शन तो पराए का हो सकता है, स्वयं का कैसे दर्शन होगा! स्वयं के दर्शन का कोई उपाय नहीं है। आत्म—दर्शन शब्द भी गलत है। आत्म—अनुभूति होती है, दर्शन नहीं होता। दर्शन का तो मतलब है दो हो गए—द्रष्टा और दृश्य। और वहां तो एक ही है, वहां कोई द्रष्टा नहीं, कोई दृश्य नहीं। एक पुलक होती है; एक भाव—दशा होती है। जिसको बुद्ध संवेग कहते हैं। एक संवेग होता है। तुम जान लेते हो, बिना जाने। पहचान लेते हो, बिना पहचाने। सामने कोई दिखायी नहीं पड़ता।
असल में तो जब सामने कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता, जब सब दृश्य खो जाते हैं, सब विषय—वस्तु मस्तिष्क से विलीन हो जाती है; जब तुम विराट शून्य में खड़े हो जाते हो, देखने को कुछ भी नहीं होता—तभी देखने की ऊर्जा अपने पर लौटती है। बाहर कोई स्थान नहीं मिलता ठहरने को, तो अपने पर लौट आती है।
तुमने ईसाइयों की कहानी पढ़ी! जब बाढ़ आयी और सारी पृथ्वी ड़बने लगी, तो नोह—बूढ़ा नोह—स्थ नाव बनाकर कुछ लोगों को और कुछ जानवरों को लेकर सुरक्षित —स्थान की तरफ चला। दिनों पर दिन बीतते गए। चालीस दिनों तक भयंकर वर्षा हुई। सब डूबगया; सिर्फ नोह की नाव तैरती रही। अब तो भोजन भी चुकने लगा, जो नोह नाव पर ले आया था। चालीस दिन हो गए थे। अब खोज—बीन करनी जरूरी थी।
वह रोज कबूतरों को छोड़ता अपनी नाव से। लेकिन कबूतर थोड़ी देर यहां—वहां घूमकर फिर वापस नाव पर आ जाते। कबूतरों को कोई बैठने की जगह न मिलती, तो अपने पर लौट आते, वापस नाव पर आ जाते। यह तरकीब थी जानने की कि जमीन करीब है कहीं कि नहीं।
अंतिम दिन कबूतर नहीं लौटे, तो नोह ने कहा. बस, अब घबड़ाओ मत। अब जमीन करीब है। कबूतरों को कोई स्थल मिल गया है बैठने के लिए; अब वे नहीं लौटे हैं। कोई वृक्ष मिल गया है बैठने के लिए। जमीन करीब है। अब निश्चित हो जाओ। अब हम पहुंच जाएंगे।
फिर कबूतर जिस दिशा में गए थे, उसी दिशा में नाव गयी और जल्दी ही किनारा मिल गया।
तुम्हारी चेतना तब तक भटकती रहती है, जब तक उसको ठहरने के लिए कोई जगह मिलती है। कोई विचार, कोई दृश्य, कोई कामना, कोई वासना—तब तक चेतना भटकती रहती है। जब सब विचार, सब वासना, सब कामना विसर्जित कर दी गयी; और चेतना का कबूतर उड़ता है, और उड़ता है, और कहीं बैठने को जगह नहीं मिलती; कोई जगह है ही नहीं बैठने को; तब अपने पर लौट आता है। उस अपने पर लौट आने में ही अनुभव है।
और परमात्मा दूर नहीं है, न मंजिल दूर है। मंजिल मिली ही हुई है। जागो। जागते ही पता होता है कि जिसे कभी खोया नहीं था, उसे व्यर्थ ही खोजने निकल गए थे। जो भीतर ही मौजूद था, उसके लिए बाहर तलाश कर रहे थे। उससे ही कठिनाई हो रही है।

 तीसरा प्रश्न:

 पहले मेरी धारणा थी कि आप भी बुद्ध, नानक, कबीर आदि की प्रतिमूर्ति होंगे। लेकिन जब अपनी आंखों से आपको देखा तो मुझे बहुत धक्का लगा। और फिर आपको देख—सुनकर जैसे ही बाहर निकला कि भीड़ के बीच एक विदेशी युवा जोड़े को मनोहारी प्रेम—पाश में बंधे देखकर मैं ठगा—सा रह गया। और सोचा : क्या यह भी धर्म कहा जा सकता है?

 पूछा है भगवानदास आर्य ने।
उनके पीछे जो पूंछ लगी हैआर्यउसी में से ये प्रश् निकला है।
पहली बात : मैं किसी की प्रतिमूर्ति नहीं हूं। क्योंकि प्रतिमूर्ति तो प्रतिलिपि होगा, कार्बन कापी होगा। प्रतिमूर्ति कोई किसी की नहीं है, न होना है किसी को।
क्या तुम सोचते हो कि नानक बुद्ध की प्रतिमूर्ति थे? या तुम सोचते हो कि बुद्ध कृष्ण की प्रतिमूर्ति थे? या तुम सोचते हो कि कबीर महावीर की प्रतिमूर्ति थे? तो तुम समझे ही नहीं।
अगर तुम कबीर के पास गए होते, तो भी तुम्हें यही अड़चन हुई होती, जो यहां हो गयी। तुम कहते, अरे! हमने तो सोचा था कि कबीर महावीर की प्रतिमूर्ति होंगे! और ये तो कपड़ा पहने बैठे हैं! कपड़ा पहने ही नहीं बैठे, कपड़ा बुन रहे हैं! जुलाहा! और महावीर तो नग्न खड़े हो गए थे। बुनने की तो बात दूर, पहनते भी नहीं थे कपड़ा। छूते भी नहीं थे कपड़ा। ये कैसे महावीर की प्रतिमूर्ति हो सकते हैं?
और रोज कबीर बाजार जाते हैं, बुना हुआ कपडा जो है, उसे बेचने। और कबीर की पत्नी भी है! और कबीर का बेटा भी है। और कबीर का परिवार भी है। और बुद्ध तो सब छोड़कर भाग गए थे।
कबीर ने तो जुलाहापन कभी नहीं छोड़ा। बुद्ध तो राजपाट छोड़ दिए थे। कबीर के पास तो छोड़ने को कुछ ज्यादा नहीं था, फिर भी कभी नहीं छोड़ा। तो कबीर को तुम बुद्ध की प्रतिमूर्ति न कह सकोगे।
और न ही तुम बुद्ध को कृष्ण की प्रतिमूर्ति कह सकोगे। और मैं जानता हूं कि भगवानदास आर्य वहां भी गए होंगे। इस तरह के लोग सदा से रहे हैं। बुद्ध के पास भी गए होंगे और देखा होगा, अरे! तो कृष्ण की प्रतिमूर्ति नहीं हैं आप! मोर—मुकुट कहा? बांसुरी कहां? सखियां कहां? रास क्यों नहीं हो रहा है यहां? ये सिर घुटाए हुए संन्यासी बैठे हैं सब! रास कब होगा?
यही होता रहा है। बुद्ध को मानने वाले महावीर के पास जाते थे और कहते थे कि आप नग्न! और बुद्ध तो कपड़ा पहने हुए हैं! और महावीर के मानने वाले बुद्ध के पास जाते थे और कहते थे आप कपड़ा पहने हुए हैं! महावीर ने तो सब त्याग कर दिया है। उनका त्याग महान है। नग्न खड़े हैं!
यह मूढ़ता बड़ी पुरानी है। तुम प्रतिमूर्तिया खोज रहे हो! इस जगत में परमात्मा दो व्यक्ति एक जैसे बनाता ही नहीं। तुमने देखा : अंगूठे की छाप डालते हो। दो अंगूठों की छाप भी एक जैसी नहीं होती। दो आत्माओं के एक जैसे होने की तो बात ही गलत है।
मैं मेरे जैसा हूं। बुद्ध बुद्ध जैसे थे। कबीर कबीर जैसे थे।
तुम गलत धारणाएं लेकर यहां आ गए। तुम्हारी खोपड़ी में कचरा भरा है। उस कचरे से तुम मुझे तोल रहे हो! तुम पहले से तैयार होकर आए हो कि कैसा होना चाहिए व्यक्ति को—नानक जैसा होना चाहिए; कि बुद्ध जैसा; कि कबीर जैसा—किस जैसा होना चाहिए! तो तुम चूकोगे। तो तुम्हें धक्का लगेगा।
तुम्हें धक्का इसी से लग जाएगा कि मैं कुर्सी पर बैठा हूं। तुम्हारे धक्के भी तो बड़े क्षुद्र हैं! तुम्हें धक्का इसी से लग जाएगा—कि अरे! मैं इस सुंदर मकान में, इस बगीचे में क्यों रहता हूं! ये धक्के तुम्हें सदा लगते रहे हैं, क्योंकि तुम्हारी धारणाओं के कारण लगते हैं।
जैनों ने कृष्ण को नर्क में डाला है—तुम्हें पता है! धक्का लगा बहुत जैनों को कि यह कैसा आदमी है! युद्ध में भी चला! जैन तीर्थंकर तो कहते रहे कि युद्ध महापाप है और यह आदमी युद्ध में चला। धक्का न लगे तो क्या हो? युद्ध में ही नहीं चला, अर्जुन तो संन्यासी होना चाहता था। बिलकुल पक्का जैन था अर्जुन। वह कहता था मुझे युद्ध नहीं करना है। अपनों को मारना, हत्या करनी, इतना खून—खराबा करना—नहीं, मैं तो जंगल जाऊंगा। मैं तो संन्यस्त हो जाऊंगा। मैं सब त्याग दूंगा। इसमें क्या रखा है?
इस भले आदमी को कृष्ण ने भ्रष्ट किया! गीता और क्या है? अर्जुन को भ्रष्ट करने की चेष्टा, जैनियों की दृष्टि में। इसको भ्रष्ट किया। इसको समझाया कि नहीं, यही कर्तव्य है। कि यही परमात्मा की इच्छा है, यही मर्जी है। तू होने दे। तू बीच में मत आ। तू कोन है छोड़ने वाला? तू कोन है मारने वाला? तू है ही नहीं। मारने वाले ने, जिन्हें मारना है, पहले ही मार दिया है। तू तो निमित्त मात्र है।
तो जैन बड़े नाराज हैं। उन्होंने कृष्ण को सातवें नर्क में डाला है। छठवें में भी नहीं, सातवें में डाला है! और थोड़े —बहुत दिन के लिए नहीं डाला है। जब तक यह सृष्टि चलेगी—यह सृष्टि, यह कल्प—तब तक! फिर जब दूसरी सृष्टि बनेगी, तभी वे मुक्त होंगे वहां से। उन्होंने भयंकर अपराध किया है!
मेरे एक जैन मित्र हैं। गांधी के अनुयायी हैं, तो उनको समन्वय की धुन सवार रहती है। तो मुझसे वे बोले कि मैं समन्वय की एक किताब लिख रहा हूं। बुद्ध और महावीर में समन्वय—कि दोनों बिलकुल एक ही बात कहते हैं। मैंने कहा : जब किताब पूरी हो जाए, तो मुझे भेजना।
किताब छपी तो उन्होंने मुझे भेजी। मैं देखकर चौंका। किताब का जो शीर्षक था, वह था— भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध।
मैंने उनको पत्र लिखा। पूछा कि एक को भगवान और एक को महात्मा क्यों कहा? उन्होंने कहा : इतना फर्क तो है ही। महावीर भगवान हैं। बुद्ध महात्मा हैं; ऊंचे पुरुष हैं, मगर अभी आखिरी अवस्था नहीं आयी है। क्योंकि कपड़े पहने हुए हैं। वह कपड़े से बाधा पड़ रही है! कपड़े के पीछे बेचारों को महात्मा रह जाना पड़ रहा है। वे नंगे जब तक न हों, तब तक वे भगवान नहीं हो सकते!
इसलिए तो जैन राम को भगवान नहीं मान सकते। और धनुष लिए हैं, तो बिलकुल नहीं मान सकते।
और जो जीसस को देखा है, जो जीसस को मानता है, वह जब देखता है कृष्ण को बांसुरी बजाते, तो उसे बड़ा सदमा पहुंचता है। वह कहता है : ये किस तरह के भगवान! भगवान तो जीसस हैं। दुनिया के दुख के लिए अपने को सूली पर लटकाया है। और ये सज्जन बांसुरी बजा रहे हैं! और दुनिया इतने दुख में है। तो यह कोई समय बांसुरी बजाने का है! और ये वृंदावन में रास रचा रहे हैं! और दुनिया दुख में सड़ रही है, महापाप में गली जा रही है। जीसस जैसा होना चाहिए—कि अपने को सूली पर चढ़वा दिया, ताकि दुनिया मुक्त हो सके।
अब तुम्हारी धारणा; तुम जो पकड़ लोगे। उस धारणा से तोलने चलोगे, तो बाकी सब गलत हो जाएंगे। तुम्हारी धारणा ने ही तुम्हें धक्का देने का उपाय कर दिया। अब तुम सोचते हो कि मेरे कारण तुम्हें धक्का लगा, तो तुम गलती में हो। मेरे कारण भी धक्का लग सकता है, वह धक्का तो तुम्हारे जीवन में सौभाग्य होगा। उससे तो क्रांति हो जाएगी। मगर वह यह धक्का नहीं है। जो धक्का तुम्हें लगा है, वह तुम्हारी धारणा का है। तुम एक पक्की धारणा लेकर आए थे : ऐसा होना चाहिए। और ऐसा नहीं है।
अब हो सकता है, इन सज्जन को पच्चीस अड़चनें आयी होंगी। इनको पीड़ा हुई होगी। यह इनके अनुकूल नहीं है।
जो तुम्हारे अनुकूल नहीं है, वह गलत होना चाहिए—ऐसी जिद्द मत करो। अभी तुमको सही का पता ही कहां है! सही का पता होता, तो यहां आने की जरूरत क्या होती! अभी आए हो, तो खुले मन से आओ; निष्पक्ष आओ। अपनी जराजीर्ण धारणाओं को बाहर रखकर आओ।

प्रश्‍न:

कल किसी और सज्जन ने एक प्रश्न पूछा था कि आपसे मिलने क्यों नहीं दिया जाता जब हम मिलना चाहते हैं? आपको बंदी क्यों बना लिया गया है? आप अपनी मर्जी से बंदी हैं? कि आपको किसी ने बंदी बना लिया है? उन्होंने पूछा है कि कबीर को तो जब मिलना हो, तब लोग मिल सकते थे! और नानक झाड़ के नीचे बैठे रहते थे! आपसे क्यों नहीं मिलना हो सकता?

 ख्‍याल रखना : मुझे किसी ने बंदी नहीं बना लिया है। लेकिन ही, मैं अपने ढंग से जीता हूं और उसमें मैं कोई दखलंदाजी पसंद नहीं करता। मैं बंदी नहीं हूं तुम्हारी दखलंदाजी पर रोक है। तुम अपनी दखलंदाजी को नहीं देखते।
वर्षों तक मैं भी वैसे ही रहा। मैं थक गया। आधी रात लोग चले आ रहे हैं! दो बजे रात लोग दस्तक दे रहे हैं कि हमें दर्शन करना है! आधी रात लोग कमरे में आ जाएं कि हमें आपके पैर दबाने हैं! मैं उनसे कह रहा हूं कि मुझे सोने दो। वे कहते, नहीं, हम तो सेवा करेंगे। जो भोजन मुझे नहीं करना है, वह मुझे भोजन करना पड़े। क्योंकि हमने बड़े प्रेम से बनाया है! मुझे करना नहीं है। मगर —हमारे भाव भी तो देखिए!
मैं दिल्ली उतरा—आज से कोई पंद्रह साल पहले—ग्यारह बजे रात हवाई जहांज पहुंचा। जो सज्जन मुझे लेने आए थे—वहा से कोई सौ मील दूर जाना था, जनवरी की शीत लहर—खुली जीप लेकर आ गए! मैंने पूछा कि आपको कोई बंद गाड़ी नहीं मिली? बैलगाड़ी ले आते, मगर कम से कम बंद तो लाते!
उन्होंने कहा ऐसा कैसे हो सकता है! जीप नयी आयी है, हमें आपसे उदघाटन करवाना है। कोई और उपाय न देखकर मुझे खुली जीप में रात ग्यारह बजे से सुबह चार बजे तक यात्रा करनी पड़ी। उस दिन से मुझे जो सर्दी पकड़ी, वह आज तक नहीं छूटी। उन्होंने उदघाटन करवा लिया जीप का, उनकी भावना पूरी हो गयी।
मैं थक गया इस तरह की मूढ़ताओं से। मुझ पर कोई बंधन नहीं है। मुझ पर कोन बंधन डालेगा! यह मेरा आयोजन है। कि इस तरह की मूढताओं में मेरा कोई भरोसा नहीं है। और मैं नहीं चाहता: कि तुम हर कभी मुझसे मिलने के लिए स्वतंत्र रहो। तुम्हारी स्वतंत्रता पर बाधा होगी, मेरी स्वतंत्रता पर कोई बाधा नहीं है। मेरी स्वतंत्रता बचाने के लिए तुम्हारी स्वतंत्रता पर बाधा डालनी पड़ी है।
और नहीं तो मैं खाना खाने बैठता, पचास लोग बैठे हैं! सभा चल रही है! लोग उठ—उठकर मुझे खाना खिलाने लगें! जबर्दस्ती मेरे मुंह में भरने लगें।
राजस्थान मैं जाता तो.। एक वर्ष आम का मौसम था। वे एक टोकरी भरकर आम ले आ। उनका भाव! और कोई पचास आदमी! आम मेरे मुंह में लगाएं वे। सारे मेरे कपड़े भी सब .आम के रस से भर दिए। और मैं उसका एक घूंट भी न ले पाऊं—कि वह गया! वह प्रसाद बन गया। वह एक हाथ से दूसरे हाथ में गया। उसको दूसरे ने ले लिया। वे पचास आदमी जो आए थे पूरी टोकरी लेकर, जब तक वह पूरी टोकरी उन्होंने मुझे न चखा ली, और मेरे पूरे शरीर को नहाने योग्य नहीं कर दिया, और मक्खियां नहीं भिनभिनाने लगीं, तब तक उन्होंने सेवा जारी रखी। उनको इससे मतलब ही नहीं है।
यह तुम्हारी मूढताओं के कारण ऐसा करना पड़ता है।
तुम समझते हो, मैं बंधन में हूं! मैं क्यों बंधन में होने लगा? ही, इतना जरूर है कि अब तुम्हें स्वतंत्रता नहीं है कि तुम कुछ भी उपद्रव यहां करना चाहो, तो करो। लोग आते हैं, वे पूछते हैं दरवाजे पर गार्ड क्यों बैठा है? आपकी कृपा से! तो आपके कारण। जब तक आपकी अनुकंपा रहेगी, गार्ड रहेगा। जब आपको बोध होगा, तो ही गार्ड हट सकता है। गार्ड मुझ पर नहीं है; गार्ड आप पर है।
लेकिन जिन सज्जन ने प्रश्न पूछा है, उन्होंने पूछा 'मुझे बड़ा दुख हुआ। क्योंकि बुद्धपुरुषों को तो स्वतंत्र होना चाहिए!'
मैं स्वतंत्र हूं। लेकिन मेरी स्वतंत्रता के चुनाव मेरे हैं। मैं जो खाना चाहता हूं वही खाना चाहता हूं। और जब मैं शांत बैठना चाहता हूं, तब मैं शांत बैठना चाहता हूं। और जब मैं सोना चाहता हूं, तब मैं सोना चाहता हूं। मैं किसी तरह की दखलंदाजी पसंद नहीं करता।
तुम्हें इससे अड़चन होती है। तुम्हें इससे बेचैनी होती है। तो तुम कहीं और खोजो, जहां तुम्हें अड़चन न हो, जहां तुम्हें बेचैनी न हो। मेरे साथ रहना है, तो मेरी शर्तें स्वीकार करनी पड़ेगी। मैं तुम्हारे साथ नहीं हूं; तुम मेरे साथ हो।
मैं तुम्हारे पीछे चलने वाला नहीं हूं। तुम्हें मेरे पीछे चलना हो, तो चल लो। लेकिन तुम्हारी मर्जी यह होती है कि मैं तुम्हारे पीछे चलूं। यही मर्जी होगी इनकी, भगवानदास आर्य की। इनकी धारणा के अनुकूल मुझे होना चाहिए!
मेरा कोई कसूर कि आपकी धारणाएं गलत हैं! मैं आपकी धारणा के अनुकूल क्यों होऊं? मुझे न प्रतिष्ठा चाहिए, न आपका सम्मान चाहिए। मुझे सिर्फ मेरे जैसा होने दो। मैं किसी की प्रतिलिपि नहीं हूं और न किसी की प्रतिमूर्ति हूं।
मुझे क्या लेना बुद्ध से! और क्या लेना कबीर से, नानक से! वे अपने ढंग से जीए; जो उन्हें ठीक लगा, वैसे जीए। जो मुझे ठीक लगता है, वैसा मैं जीता हूं। वहां हमारी समानता है। उसके अतिरिक्त और कोई समानता नहीं है।
महावीर को ठीक लगा—नग्न रहें; वे नग्न रहे। बुद्ध को ठीक लगा—घर—द्वार छोड़कर जंगल जाएं; वे जंगल गए। कबीर को ठीक लगा कि कपड़ा बुनते रहें, वे कपडा बुनते रहे। मोहम्मद को ठीक लगा कि तलवार लेकर लड़ना है, तो वे लड़े। और जीसस को ठीक लगा कि सूली पर चढ़ना है, तो वे सूली पर चढ़े। जो मुझे ठीक लगता है, वह मैं करता हूं। वहा हमारी समानता है, बस। उससे ज्यादा कोई समानता नहीं है।
मैंने एक झेन कहानी पढ़ी है। एक भिक्षु अपने गुरु की बरसी मना रहा था। गुरु चल बसे थे। लोगों ने पूछा कि हमें यह कभी पता ही नहीं था कि वे तुम्हारे गुरु थे! तुमने कभी बताया भी नहीं। और आज तुम उनकी बरसी मना रहे हो!
उस भिक्षु ने कहा कि इसीलिए मना रहा हूं; क्योंकि मैं जीवन में कई बार उनके पास गया कि मुझे अपना शिष्य बना लो। उन्होंने कहा तुझे शिष्य बनने की क्या जरूरत है! तू तू ही रह। मैंने बहुत बार उनसे प्रार्थना की, उन्होंने बहुत बार मुझे ठुकरा दिया। और इसीलिए मैं उनका अनुगृहीत हूं। नहीं तो मैं एक प्रतिलिपि बन गया होता। मैं एक स्वतंत्र व्यक्ति बना—उनकी कृपा से। उन्होंने कभी मुझ पर थोपा नहीं कुछ।
बड़े आश्चर्य की बात है, मैं तुम पर कुछ नहीं थोपता हूं। उलटी हालत हो जाती है, तुम मुझ पर थोपने की आकांक्षा लेकर आ जाते हो! तुम सोचते हो ऐसा होना चाहिए। जैसे कि तुम्हें ठीक का पता है। तुम्हें ठीक का बिलकुल पता नहीं है। जिसे ठीक का पता है, वह इस जगत के वैविध्य को स्वीकार करेगा, क्योंकि विविधता सत्य है।
और लोग एक—दूसरे की प्रतिलिपि हो जाएं, तो जिंदगी बड़ी उबाने वाली हो जाएगी। एक कृष्ण काफी हैं। अनूठे हैं। मगर हजारों कृष्ण हो जाएं, तो सब रस गया। तब सारा रस गया, सारा सौंदर्य गया। एक बुद्ध अदभुत हैं। इसलिए भगवान दुबारा एक जैसे दो व्यक्ति पैदा नहीं करता। दुबारा कोई बुद्ध हुआ? दुबारा कोई कृष्ण हुआ? दुबारा कोई कबीर हुआ? दुबारा कोई नानक हुआ?
दुबारा भगवान पैदा ही नहीं करता। भगवान की कला यही है कि अद्वितीय, बेजोड़ बनाता है। हमेशा नए को निर्मित करता है।
लेकिन तुम अतीत से चलते हो। तुम अपना हिसाब लेकर आ गए हो। तो तुम्हें जरूर चोट लगी होगी, क्योंकि लगा कि मैं किसी की प्रतिलिपि नहीं हूं। मैं नहीं हूं। मुझे क्षमा करो। चोट लग गयी, उसके लिए माफ करो।
और फिर तुमने जाकर देखा बाहर कि ' भीड़ के बीच एक विदेशी युवा .जोड़े को मनोहारी प्रेम —पाश में बंधे देखकर मैं ठगा रह गया। और सोचा क्या यह भी धर्म कहा जा सकता है?'
तुमसे पूछ कोन रहा है? युवा जोड़े नै तुमसे पूछा कि यह धर्म है या नहीं? तुमने कोई ठेका लिया है दूसरे का धर्म तय करने का? तुम हो कोन? कोई पुलिस वाले हो! तुम्हें प्रयोजन क्या है?
युवा जोड़े की अपनी स्वतंत्रता है। तुम दखलंदाजी क्यों करना चाहते हो? उन दो व्यक्तियों की अपनी निजी जीवन— धारा है। उन्हें ठीक लगा, वे प्रेम —पाश में बंधे हैं। तुम्हें अड़चन क्या हो रही है? जरूर तुम भी कहीं गहरे में प्रेम —पाश में बंधना चाहते हो और बंध नहीं पा रहे हो। तुम्हारे भीतर कुछ कुंठा है।
इसीलिए तो तुम कहते हां 'मनोहारी प्रेम—पाश में........।'
तुम्हारे मन को लुभा गया प्रेम—पाश! मनोहारी कह रहे हो। तुम्हारा मन डांवाडोल हुआ होगा। तुम थोड़ी देर यहां—वहा खड़े—खड़े देखते रहे होओगे। तुमने रस लिया होगा। रात सपने में देखा होगा। बार—बार सोचा होगा, कि यह बात क्या है!
लेकिन तुममें यह करने की हिम्मत भी नहीं है। तो फिर निंदा तो कर ही सकता है आदमी! तो यह धर्म नहीं है, यह अधर्म है। तो फिर कृष्ण के पास जो गोपियां नाच रही थीं, वह क्या था? भगवानदास आर्य! उस पर विचार करना। वह अधर्म था? फिर जहां प्रेम है, वहीं अधर्म है!
मेरे देखे, जहां प्रेम है, वहीं धर्म है। और तुम अगर मुझसे पूछते हो तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जब भी कोई युवती गहन प्रेम में होती है, तो राधा हां जाती है। और जब भी कोई युवक गहन प्रेम में होता है, तो कृष्ण हो जाता है। गहन प्रेम राधा और कृष्ण को पैदा करता है। इस पृथ्वी पर प्रेम से ज्यादा धार्मिक और कुछ भी नहीं है। इस पृथ्वी पर प्रेम किरण है परमात्मा की।
लेकिन तुम्हारा होगा दमित मन, कुंठित मन, जैसा कि आमतोर से इस देश के लोगों का है। और फिर तुम्हारा आर्य शब्द जाहिर कर रहा है कि तुम हजार तरह के रोगों से भरे होओगे। हजार तरह की बीमारियां तुम्हारे मन में होंगी। कामवासना को दबाया होगा, समझा नहीं होगा। जीए नहीं होओगे। वहीं से ये विचार उठ रहे हैं।
तुम्हें क्या प्रयोजन है! उस युवा जोड़े ने तुमसे कुछ नहीं पूछा। न उस युवा जोड़े ने प्रश्न पूछा कि हम दोनों प्रेम—पाश में खड़े थे और एक सज्जन खड़े होकर बड़ी मनोहारी आंखों सै, और देख रहे थे! क्या यह धर्म है कि दो आदमी जब प्रेम कर रहे हों, तो तुम वहा बीच में जाकर खड़े होकर देखने लगो?
लेकिन तुम्हारी आदत पुरानी रही होगी। तुम लोगों के स्नानगृह में चाबी के छेद में से देखने के आदी रहे होओगे। कुछ लोग यही काम करते हैं! वे नालियों में कीड़े खोजते फिरते हैं!
क्या प्रयोजन तुम्हें? तुम यहां आए किसलिए? और दूसरे व्यक्ति में इतना ज्यादा हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति हिंसात्मक है। इसलिए यहां कोई हस्तक्षेप नहीं है।
अब यह बड़े आश्चर्य की बात है। अगर रास्ते पर कोई आदमी किसी को मार रहा हो, तो लोग नहीं पूछते कुछ। कोई किसी की हत्या कर दे, तो नहीं पूछते। लेकिन अगर दो व्यक्ति प्रेम—पाश में बंधे हों, तो अड़चन हो जाती है।
तुम देखते हो! हत्यारों को तो महावीर —चक्र प्रदान किए जाते हैं। प्रेमियों को कोई चक्र इत्यादि प्रदान नहीं करता। हत्यारों की तो प्रशंसा होती है, सेनापति! और योद्धा! प्रेमियों की कोई प्रशंसा नहीं होती है। अगर फिल्म में हत्या के दृश्य हों, तो सरकार कोई रोक नहीं लगाती। कोई किसी को मारे, काटे, गोलियां चलाए—कोई हर्जा नहीं है, बिलकुल ठीक है! हिंसा ठीक है। और अगर कोई प्रेम—पाश में बंध जाए, तो गलत है, तो फिल्म पर रोक लगनी चाहिए! छाती में छुरा भोंकना ठीक है, लेकिन किसी का चुंबन लेना ठीक नहीं है।
यह जरा सोचने जैसी बात है कि यह कैसी बेहूदी दुनिया है। छुरा भोंकना ठीक है; कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन कोई किसी का चुंबन लेता हो, तो ऐतराज है।
फिर स्वभावत:, ऐसी मूढ़ दुनिया में अगर छुरेबाजी चलती रहे और चुंबन खो जाए, तो आश्चर्य क्या।
प्रेम इस जगत में परमात्मा की पहली किरण है। सब रूपों में मुझे अंगीकार है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि लोग बस, प्रेम—पाश में ही पड़े रहें। लेकिन प्रेम—पाश में जो पड़ेगा, वही उसके बाहर निकल सकेगा। जो प्रेम का अनुभव करेगा, वही एक दिन पाएगा कि इससे तृप्ति नहीं होती; इससे ऊपर जाना है। ठीक है; इससे गुजरना जरूरी था। बिना गुजरे अनुभव भी नहीं होता।
जो लोग दमन करके बैठे हैं, वे परमात्मा तक कभी नहीं पहुंच पाते। उनका प्रेम कभी प्रार्थना नहीं बनता। क्योंकि प्रेम का अनुभव ही नहीं हुआ जीवन में, ऊपर कैसे उठोगे? ऊपर तो उससे उठ सकते हो, जिसको जाना; जाना और खोटा पाया, जाना और साथ में अनुभव किया कि थोड़े दूर तक जाता है, बहुत दूर तक नहीं जाता। तो तुम्हें पार जाने की संभावना खुलती है।
यह कोई मुर्दा आश्रम नहीं है। भगवानदास आर्य ने और आश्रम देखे होंगे निश्चित। मुर्दा आश्रम देखे होंगे, मरे—मराए आश्रम देखे होंगे, जहां अक्सर के और बूढ़िया ही जाते हैं। वहां जवान जाना भी नहीं चाहता। जीवन—विरोधी आश्रम देखे होंगे, जहां जीवन के हर कृत्य की निंदा है, जहां जीवन की निंदा है।
यह तो...... जीवन का स्वागत है यहां; जीवन का सत्कार है; क्योंकि जीवन ही प्रभु है। और जहां जीवन का स्वीकार है, वहां युवा आएंगे। वहीं आ सकते हैं। यह मंदिर युवकों का है। और स्वभावत: जहां युवा आएंगे, वहां युवा—जीवन की सारी भाव— भंगिमाएं आएंगी। स्त्री—पुरुष होंगे, तो प्रेम में गिरेंगे। एक—दूसरे का हाथ पकड़ेंगे; एक—दूसरे का आलिंगन करेंगे। यह सब ठीक है। इसमें कुछ अड़चन नहीं है।
छुरा नहीं भोंक रहे। किसी को मार नहीं रहे। किसी को नुकसान नहीं पहुंचा रहे। किसी की चोरी नहीं कर रहे। दो व्यक्तियों ने यह तय किया है कि उन्हें अच्छा लगता है एक—दूसरे के पास खड़े होना; तुम्हारा क्या बिगड़ रहा है? तुम इतना भी बर्दाश्त नहीं कर सकते? तो जरूर तुम रुग्ण हो। तुम्हारा चित्त विकृत है। तुम्हें मनोचिकित्सा की जरूरत है।
क्षुद्र धारणाओं को लेकर यहां आओगे, तो खाली हाथ चले जाओगे। और यहां अमृत बह रहा है। तुम अपनी धारणाओं से भरे रहे, तो तुम जानी।

चौथा प्रश्न:

 जीवन निरर्थक मालूम होता है। मैं संन्यास भी लेना चाहता हूं। लेकिन समाज का भय लगता है— और रूक जाता हूं। फिर जीवन की अर्थहीनता को देखकर आत्मघात का विचार भी बार —बार आता है। आत्मघात के संबंध में आप क्या कहते हैं?

भाई विचार तो बड़ा ऊंचा है!
मगर जब संन्यास तक लेने की हिम्मत नहीं है, तो आत्मघात कैसे करोगे? इतना साहस तुम जुटा न पाओगे। आत्मघात के लिए कुछ साहस चाहिए। संन्यास का ही साहस नहीं हो रहा है!
और संन्यास में तो मृत्यु नहीं होने वाली है अभी एकदम से, सिर्फ जीवन की शैली थोड़ी बदलेगी। और मेरे संन्यास में वह भी इतनी सुविधा से बदलती है, इतने आहिस्ता बदली जाती है कि तुम्हें कभी पता भी नहीं चलता है कि कब बदलाहट हो गयी। और तुम तो अभी संन्यास लेने में डर रहे हो।
कहते हो, 'समाज का भय लगता है।'
तो आत्मघात में तो बहुत भय लगेंगे। लोग क्या कहेंगे तुम्हारे मर जाने के बाद! कि आत्मघात कर लिया, कायर था। और फिर यह भी भय लगेगा कि आत्मघात के बाद क्या होगा! शरीर छूट गया—फिर भूत बनूं; प्रेत बनूं! नर्क जाना पड़े! महा रौरव नर्क में पड़ना पड़े! कि मरघटों पर रहना पड़े! कि झाड़ों पर बैठना पड़े! फिर क्या होगा—पता नहीं! वे सब भय भी तुम्हें पकड़ेंगे।
विचार तो बड़ा ऊंचा है! बड़ी पहुंची बात ले आए! दूर की कोड़ी खोज लाए। मगर कर न सकोगे। और फिर जमाना भी खराब है। सतयुग होता, बात और थी। मैंने सुना है एक आदमी आत्मघात करना चाहता था। जहर खरीदकर लाया। पीकर सो गया निश्चित कि मर गए। सुबह सोचता था कि अब देखें, कहां आंख खुलती है! नर्क में कि स्वर्ग में? लेकिन वही पत्नी की आवाज सुनायी पड़ने लगी! वही दूध वाला दरवाजे पर खटक रहा। बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे हैं। बस्ता गिर गया। किसी की स्लेट फूट गयी। किसी का कुछ.।
बड़ा हैरान हुआ! आंखें खोलीं कि मामला क्या है! न कोई स्वर्ग, न कोई नर्क! वही का वही घर। आंखें साफ करके गौर से देखा, वही कमरा! खिड़की के बाहर देखा, वही झाड़! उठकर बाहर गया। देखा, वही पत्नी! उसने कहा मामला क्या है! जहर लाया था इतना कि साधारणत: जितने से आदमी मरे, उससे तीन गुना! भागा हुआ दुकानदार के पास पहुंचा। कहा हद्द हो गयी। दुकानदार ने कहा कि भई! हम भी क्या करें! जमाना खराब है। हर चीज में मिलावट चल रही है! शुद्ध जहर आजकल मिलता कहां है?
तो मैं तुमसे कहता हूं. करोगे कैसे आत्मघात? शुद्ध जहर मिलता नहीं! जमाना खराब है। सतयुग में ये बातें होती थीं। अब बहुत मुश्किल है!
और फिर तुम्हारी हालत संन्यास तक लेने की नहीं हो रही है...।
एक और आदमी आत्मघात करना चाहता था। उसकी पत्नी घबड़ा गयी। उसने कमरा बंद करके भीतर और आत्मघात करने का उपाय किया। पत्नी पड़ोस के लोगों को बुला लायी। लोगों ने दरवाजा तोड़ा। तो देखा कि स्टूल पर चढ़े —म्याल से रस्सी बाधे —अपनी कमर में रस्सी बांधे खड़े थे! लोगों ने पूछा. यह कर क्या रहे हो यहां? आत्मघात कर रहे हैं। तो उन्होंने कहा. हमने कभी सुना नहीं कि कमर में रस्सी बांधने से कोई आत्मघात होता है! गले में बांधो, अगर आत्मघात करना हो! उसने कहा पहले मैंने गले में ही बांधी थी। मगर दम घुटता है!
हिम्मत तो चाहिए न! अब गले में बांधोगे, दम घुटेगा ही! तो वे अब कमर में बांधकर रस्सी आत्मघात कर रहे हैं!
एक सज्जन और आत्मघात करने रेल की पटरी पर गए। साथ में टिफिन भी ले गए थे! एक चरवाहा वहा अपनी गाएं चरा रहा था, उसने पूछा कि आप यहां लेटे—लेटे क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहा कि मैं आत्मघात करने की तैयारी कर रहा हूं।
पटरी पर लेटे हैं, टिफिन अपनी बगल में रखे हैं। अखबार भी पढ़ रहे हैं! टिफिन किसलिए लाए हैं?
उन्होंने कहा गाड़ियों का क्या भरोसा। हिंदुस्तानी गाड़ी; आए न आए! कितनी लेट हो जाए! भूखों मरना है क्या? तो टिफिन लेकर आए हैं!
तुमसे न हो सकेगा। पहले संन्यास की तो हिम्मत करो। फिर असली आत्मघात संन्यास से घट जाएगा। यह तो जो तुम सोच रहे हो, नकली आत्मघात है। शरीर के बदलने से कुछ भी तो नहीं बदलेगा। फिर पैदा होओगे। फिर गर्भ होगा। फिर यही यात्रा शुरू हो जाएगी।
असली आत्मघात संन्यास से ही घटता है। असली, क्योंकि अहंकार मर जाता है। असली, क्योंकि और जीने की आकांक्षा समाप्त हो जाती है। असली, क्योंकि फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। ऐसी मृत्यु मरो कि फिर जन्म न लेना पड़े। वही तो धर्म की सारी प्रक्रिया है। धर्म का अर्थ है, ऐसे मरण की प्रक्रिया कि फिर दुबारा जन्म न हो। तुम शायद सोचो कि चलो, ये लोग चूक गए—कोई कमर में बांधकर खडा हो गया, किसी को जहर नकली मिल गया, किसी की ट्रेन लेट हो गयी—हम सब उपाय कर लेंगे।
ऐसे ही सब उपाय मुल्ला नसरुद्दीन ने एक बार किए। पिस्तौल खरीद लाया। एक कनस्तर में मिट्टी का तेल भर लिया। एक रस्सी ली। नदी के किनारे पहुंचा। एक टीले पर चढ़ गया। एक वृक्ष से रस्सी बांधी। रस्सी को गले में बांधा। सब उपाय किए थे उसने, ताकि किसी तरह की चूक न हो। अगर एक उपाय चूक जाए, तो दूसरा उपाय काम में आ जाए।
फिर गले में रस्सी बांधकर, शरीर पर मिट्टी का तेल उंड़ेल लिया। फिर आग लगायी और झूल गया पहाडी से—कि अगर किसी तरह गिर र्भा? जाए, तो गहरी नदी है, उसमें मर जाएगा। और पिस्तौल भी. हाथ में रखे है। पिस्तौल चलायी, सिर में मारी—झूलते हुए।
मगर सब चूक हो गयी। पिस्तौल लगी रस्सी में, जो बाधी थी। सो धड़ाम से पानी में गिर गया। पानी में गिर गया तो आग बुझ गयी। और जब शाम को घर लौटकर आया, तो लोगों ने पूछा कि मामला क्या है? उसने कहा. सब गड़बड़ हो गया। अगर तैरना न आता होता, तो आज मर ही गए होते।
तुम इन झंझटों में न पड़ो। सुगम उपाय आत्महत्या का मैं तुम्हें बताता हूं : संन्यास तुम ले लो। कम से कम अपनी जीवन —चर्या को तो नया ढंग दो।
तुम कहते हो, 'जीवन निरर्थक मालूम होता है। '
निरर्थक है, मालूम नहीं होता। जिसे तुम जीवन समझते रहे हो, वह निरर्थक है। मगर एक और जीवन है —इस जीवन के पार, इस जीवन से गहरा, इस जीवन से भिन्न—रूप और आयाम है होने का।
यह जीवन व्यर्थ है, सच ही व्यर्थ है। यही तो बुद्ध को भी दिखा। लेकिन उन्होंने आत्मघात नहीं किया। ध्यान की तलाश की। अगर यह जीवन व्यर्थ है, तो कोई और जीवन भी —होगा। इस पर ही क्यों समाप्त मान लेते हो!
इस जीवन का अर्थ—रोटी—रोजी कमाना, दुकान चलाना, रोज वही.। सुबह फिर उठे, फिर वही कोल्ह के बैल जैसे चल पड़े। फिर सांझ हो गयी, फिर आकर सो गए! फिर सुबह चले। वही लड़ाई—झगड़ा! वही बकवास। वही मतवाद। और धीरे — धीरे किसी को भी लगेगा, जिसमें थोड़ी बुद्धि है उसको लगेगा यह हो क्या रहा है? इससे सार क्या है? ऐसे ही चालीस साल करता रहा, और पच्चीस साल तीस साल करूंगा, फिर मर जाऊंगा। इससे प्रयोजन क्या है?
सिर्फ बुद्धओं को यह विचार नहीं उठता। यह शुभ है कि तुम्हें विचार उठा कि जीवन निरर्थक है। मगर इससे ही यह निर्णय लेना उचित नहीं है कि आत्मघात कर लें। पहले और भी तो तलाश कर लो। और ढंग का जीवन भी हो सकता है।
मैं तुमसे कहता हूं, और ढंग का जीवन है। मैं तुमसे जानकर कह रहा हूं कि और ढंग का जीवन है। एक जीवन है, जो बाहर की तरफ है; वह व्यर्थ है। और एक जीवन है, जो भीतर की तरफ है, वह सार्थक है। प्रत्येक व्यक्ति अर्थ खोज रहा है। लेकिन गलत दिशा में खोज रहा है, इसलिए नहीं मिलता।
अब तुम ऐसा ही समझो कि एक आदमी रेत से तेल निकालने की कोशिश कर रहा है, और नहीं मिलता है। और कहता है मैं आत्मघात कर लूंगा! क्योंकि रेत में तेल नहीं है। अब इसमें रेत का क्या कसूर है? तेल निकालना हो, तो तिल से निकालो। रेत में नहीं है, तो रेत की कोई गलती नहीं है। तुम रेत से निकाल रहे हो, यह तुम्हारी गलती है।
एक आदमी दीवाल से निकलने की कोशिश करता है और नहीं निकल पाता, तो कहता है. आत्मघात कर लूंगा; क्योंकि दीवाल में कोई दरवाजा नहीं है। मगर दरवाजा भी है। तुम दीवाल से निकलने की कोशिश कर रहे हो, यह तुम्हारी भूल है। दीवाल दरवाजा नहीं है। मगर दरवाजा नहीं है, ऐसा तो तुम तभी कहना, जब तुम जीवन के सब आयाम खोज लो और दरवाजा न पाओ।
जिन्होंने भीतर की दिशा में थोड़े भी कदम उठाए, उन्हें दरवाजा मिला। सदा मिला। नहीं तो महावीर—बुद्ध, कृष्ण—क्राइस्ट, मोहम्मद—जरथुस्त्र—इन सबने आत्मघात कर लिया होता। इन्होंने आत्मघात नहीं किया। इन्होंने रूपांतरण किया, आत्म—रूपांतरण किया। अपने को बदल लिया। एक नए जीवन का सूत्रपात हुआ। जो महिमापूर्ण था, दिव्य था, भव्य था। एक नया संगीत इनके भीतर उठा। इनकी वीणा बजी। इनके फूल खिले। इनके जीवन में उत्सव आया।
तुम्हारे जीवन में उदासी है, मुझे मालूम है। मगर तुम्हारे कारण है। और तुम अगर मर भी जाओ, जैसे तुम अभी हो, तो फिर ऐसे के ऐसे पैदा हो जाओगे। इससे कुछ लाभ नहीं होगा। ऐसे तो तुम कई बार मर चुके हो। हो सकता है, पहले भी आत्मघात करते रहे हो, शायद इसीलिए खयाल आता है! पुरानी आदत हो, लत लग गयी हो! फिर उस तरह कर लोगे, इससे कुछ भी नहीं होगा।
अब इस बार जीवन का ठीक—ठीक, सम्यक उपयोग कर लो। इस जीवन में बडा सौंदर्य छिपा है, मगर खोजने वाला चाहिए। इस जीवन में बड़ी संपदा है, ऐसी संपदा, जो कभी नहीं चुकती, सनातन संपदा है। मगर ठीक दिशा में खुदाई करनी चाहिए। और कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि दिशा गलत होती है। और कभी—कभी ऐसा भी होता है. दिशा भी ठीक होती है, तो तुम खोदते नहीं।
मैंने सुना है अमरीका में ऐसा हुआ। कोलेरेडो में जब पहली दफा सोने की खदानें मिलीं, तो सारी दुनिया कोलेरेडो की तरफ भागने लगी, सारा अमरीका कोलेरेडो की तरफ भागने लगा। सोना जगह—जगह था। खेतों में पड़ा था। जहां खोदो, वहां मिल रहा था। जो गया, वही धनपति हो गया।
एक आदमी के पास काफी संपत्ति थी, कोई एक करोड़ रुपया था। उसने सब संपत्ति बेचकर.। उसने सोचा छोटा—मोटा काम क्या करना। सब संपत्ति बेचकर एक पूरा पहाड़ खरीद लिया। इसी आशा में कि अब तो धन ही धन हो जाएगा। लेकिन संयोग की बात, पहाड़ बिलकुल सोने से खाली था। बड़ी खुदाई की। यहां खोदा, वहा खोदा। थकने लगा, घबड़ाने लगा। टुकड़ा भी सोने का नहीं मिला। फिर किसी ने कहा, खुदाई गहरी होनी चाहिए। सोना तो है, खोज करने वालों ने कहा, लेकिन गहरे में है; पहाड़ में नीचे दबा है। तो उसने बड़े यंत्र.......। और जो कुछ पास था—घर—मकान—द्वार, गहना—जेवरात—सब बेच दिया। बड़े यंत्र लाया, पहाड़ पर बड़ी गहरी खुदाई की। लेकिन आखिर थक गया। सोना न मिला, सो न मिला।
उसने अखबारों में विज्ञापन दिया कि मैं पूरा पहाड़, खोदने के सारे यंत्रों के साथ, बेचना चाहता हूं। उसके मित्रों ने कहा : कोन खरीदेगा? अब तुम बेकार विज्ञापन में पैसा खराब मत करो। तुम्हारी खबर तो सारे अमरीका में पहुंच गयी है। सबको पता हो गया है कि तुम्हें पहाड़ पर कुछ भी नहीं मिला है! सब तुमने गंवा दिया है इसके पीछे। अब कोन पागल गवाएगा?
उसने कहा मैं ही कोई एक अकेला पागल थोड़े ही हूं इतने बड़े मुल्क में, कोई एकाध होगा। और निकल आया एक आदमी! और उसने एक करोड़ रुपए देकर वह पूरा पहाड़ खरीद लिया। उसके मित्रों ने कहा कि तुम महा पागल हो! वह आदमी बरबाद हो गया—तुम देखते नहीं? उसने कहा. जहां तक उसने खोदा है, वहां तक सोना नहीं है, यह ठीक है। लेकिन खुदाई तो आगे भी हो सकती है। एक कोशिश और कर ली जाए।
और तुम जानकर हैरान होओगे कि सिर्फ एक हाथ खुदाई करने पर दुनिया की सबसे बडी खदान मिली। सिर्फ एक हाथ और खुदाई करने की बात थी।
तो कभी दिशा गलत होती है, तब तो मिल ही नहीं सकता। कभी दिशा भी ठीक होती है, तो तुम पूरे नहीं जाते! कभी तुम जाते भी हो, तो आखिर— आखिर में चूक जाते हो। एक हाथ के फासले से भी आदमी लौट आ सकता है।
इसलिए इतनी जल्दी निर्णय मत लो कि जीवन व्यर्थ है। मैं तुमसे कहता हूं—चश्मदीद गवाह की तरह—जीवन व्यर्थ नहीं है। दिशा बदली। और दिशा बदलने के बाद सारी ऊर्जा को खुदाई में लगा दो। और कभी निराश मत होना। नहीं तो कभी यह हो सकता है कि एक हाथ पहले से लौट आओ। खोदते ही जाना, खोदते ही जाना। आज नहीं कल, कल नहीं परसों—खोदते ही जाना—एक दिन खजाना मिलने ही वाला है। क्योंकि खजाना प्रत्येक के भीतर छिपाया ही गया है।
तुम्हारे होने में ही प्रमाण है कि तुम्हारे भीतर खजाना है। जहां जीवन है, वहीं परमात्मा भीतर विराजमान है। खुदाई करने की जरूरत है। कोई थोड़ी खुदाई से पा लेता है, क्योंकि किसी के कर्मों का जाल कम है। कोई थोडी ज्यादा खुदाई से पाता है; क्योंकि अतीत में बहुत कर्मों का जाल बना लिया है।
और मैं तुमसे कहता हूं आत्महत्या मत कर लेना, नहीं तो तुमने फिर और एक कर्म का जाल बनाया। अगले जीवन में खुदाई और मुश्किल हो जाएगी।
आत्महत्या ही करनी हो, तो कम से कम पहला साहस करो—संन्यास का। फिर मैं तुम्हें ठीक आत्महत्या का उपाय बता दूंगा। ऐसी आत्महत्या का उपाय कि पुलिस भी नहीं पकड़ेगी, अदालत में भी नहीं जाना पड़ेगा। परमात्मा के कानून में भी कहीं नहीं आओगे। मैं तुम्हें ठीक—ठीक रास्ता बता दूंगा—कैसे तिरोहित हो जाओ; कैसे विलीन हो जाओ; कैसे खो जाओ, कैसे समाप्त हो जाओ।
और यह तो सच है कि जब तुम समाप्त होते हो, तभी परमात्मा प्रगट होता है। तुम्हारे मिटने में ही उसका होना है।

 पांचवां प्रश्‍न:

 आप कहते हैं कि बौद्ध धर्म में प्रार्थना के लिए जगह नहीं है। लेकिन बौद्ध मंदिरों में उनके अनुयायी प्रणति और प्रार्थना में झुकते पाए जाते हैं। यह कैसे?

बुद्ध को किसने सुना?
जो लोग सुनना चाहते थे, सुन लिया। जो कहा गया था, वह नहीं सुना गया।
बुद्ध के धर्म में प्रार्थना के लिए कोई जगह नहीं है, क्योंकि बुद्ध के धर्म में परमात्मा के लिए ही कोई जगह नहीं है। प्रार्थना किससे करोगे? बुद्ध कहते हैं : परमात्मा बाहर नहीं है। अगर बाहर हो, तो प्रार्थना हो सकती है—हाथ जोड़ो; नमस्कार करो, मांग करो, स्तुति करो; महिमा का गीत गाओ।
लेकिन परमात्मा बाहर नहीं है। परमात्मा भीतर है। और परमात्मा कहना भी उसे, ठीक नहीं है। क्यों कहना ठीक नहीं है? क्योंकि परमात्मा शब्द से ही ऐसा भाव होता है कि दुनिया को बनाने वाला, चलाने वाला।
बुद्ध के विचार में न कोई चलाने वाला है, न कोई बनाने वाला है। दुनिया अपने से चल रही है। धर्म है, परमात्मा नहीं है। नियम है, नियंता नहीं है। इसलिए प्रार्थना किससे करो!
और प्रार्थना का मतलब ही क्या हो गया है? लोगों की प्रार्थना क्या है? खुशामद है।
इस देश में इतनी रिश्वत चलती है, इतनी खुशामद चलती है, उसका कारण यही है कि इस देश में पुरानी आदत प्रार्थना की पड़ी है। इस देश से रिश्वत मिटाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि लोग भगवान को रिश्वत देते रहे हैं! चले! उन्होंने कहा कि चलो, हनुमान जी! अगर मेरा दुश्मन मर जाए, तो एक नारियल चढ़ा देंगे!
यह क्या है? रिश्वत है। और खूब सस्ते में निपटा रहे हो! एक सड़ा नारियल खरीद लाओ, क्योंकि हनुमानजी के मंदिर में चढ़ाने के लिए कोई अच्छा नारियल तो खरीदता नहीं।
अलग दुकानें होती हैं तीर्थ—स्थानों में, जहां कि चढ़ाने के लिए नारियल बिकते हैं। अलग ही दुकानें होती हैं, जहां सड़े—सडाए नारियल बिकते हैं। और ऐसे नारियल बिकते हैं, जो हजार दफे चढ़ चुके हैं और फिर लौट आते हैं। इधर तुम चढ़ाकर आए कि पुजारी उन्हें दुकानों पर बेच जाता है सुबह आकर। फिर चढ़ जाते हैं, फिर चढ जाते हैं! हनुमानजी भी थक गए होंगे उन्हीं नारियलों से।
एक नारियल चढ़ाकर तुम मुकदमा जीतना चाहते हो! पत्नी की बीमारी दूर करना चाहते हो! चुनाव जीतना चाहते हो! आम आदमी की तो बात छोड़ो, तुम्हारे जो तथाकथित नेता हैं, उनकी भी मंदबुद्धिता की कोई सीमा नहीं है! वे भी चुनाव लड़ते हैं, तो हनुमानजी के मंदिर के सहारे लड़ते हैं। कोई ज्योतिषी। हर आदमी के ज्योतिषी हैं दिल्ली में। हर नेता का ज्योतिषी है। वह पहले ज्योतिषी को पूछता है कि जीतेंगे, कि नहीं! फिर किसी गुरु का आशीर्वाद लेने जाता है। मेरे पास तक लोग आ जाते हैं! कि आशीर्वाद दीजिए।
एक राजनेता आए। मैंने उनसे पूछा : पहले यह बताओ कि किसलिए? क्योंकि राजनेताओं से मैं डरता हूं। डरता इसलिए हूं कि तुम्हारे इरादे कुछ खराब हों! पहले यह तो पक्का हो जाए कि तुम किसलिए आशीर्वाद चाहते हो। उन्होंने कहा अब आपको तो सब पता ही है! चुनाव में खड़ा हो रहा हूं।
मैंने कहा : अगर मैं आशीर्वाद दूं तो यही दूंगा कि तुम हार जाओ। इसमें तुम्हारा भी हित होगा और देश का भी हित होगा।
वे तो बहुत घबड़ा गए कि आप क्या कह रहे हैं! ऐसा वचन न बोलिए! संत पुरुषों को ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए।
मैंने कहा और कोन बोलेगा!
उन्होंने कहा. मैं तो जहां जाता हूं सभी जगह आशीर्वाद पाता हूं।
मैंने कहा तुम्हें जो आशीर्वाद देते होंगे, वे तुम जैसे ही लोग होंगे। तुम्हें उनसे आशा है कि कुछ मिल जाएगा; उनको तुमसे आशा है कि उनको तुमसे कुछ मिल जाएगा। वे तुमको ही आशीर्वाद नहीं दिए हैं। तुम्हारे विपरीत जो खड़ा है, उसको भी आशीर्वाद दिए हैं। कोई भी जीत जाए।
तुम भगवान को रिश्वत देते रहे हो। तुम्हारी प्रार्थना एक तरह की रिश्वत और खुशामद है—कि मैं पतित और तुम पतितपावन। तुम अपने को छोटा करके दिखाते हो, हालाकि तुम जानते हो कि यह मामला ठीक नहीं है। हम और छोटे? मगर कहना पड़ता है। शिष्टाचारवश भगवान के सामने तुम कहते हो कि तुम महान, मैं क्षुद्र। हालाकि तुम जानते हो कि महान असली में कोन है!
मगर आदमी को तो जरूरत पड़ जाए, तो गधे से बाप कहना पड़ता है। तो यह तो परमात्मा है, अब इनसे तो जरूरत पड़ी है, तो कहना ही पड़ेगा। हालांकि बगल की नजर से तुम देखते रहते हो कि अगर नहीं हो पाया, तो समझ लेना। अगर मेरी बात पूरी न हुई, तो फिर कभी प्रार्थना न करूंगा।
बुद्ध ने कहा. न कोई परमात्मा है..। बुद्ध तुम्हारी रिश्वत की धारणा को तोड़ देना चाहते थे। बुद्ध चाहते थे कि तुम जागो। तुम अपने को बदलो। तुम किसी का सहारा मत खोजो। वहा कोन है सहारा देने वाला! तुम्हारी बनायी हुई मूर्तियों को प्रतिष्ठित कर लिया है। तुम्हीं ने बनायीं, तुम्हीं ने रख लीं, तुम्हीं उनके सामने झुके हो। खूब खेल चल रहा है! आदमी की धोखे की भी कोई सीमा नहीं है!
बुद्ध ने कहा. कोई परमात्मा नहीं है।
इसका मतलब यह नहीं कि परमात्मा नहीं है। इसका इतना ही अर्थ है कि अगर परमात्मा है, तो तुम्हारे चैतन्य में छिपा है। वह तुम्हारे चैतन्य की सुवास है। अपने चैतन्य को निखारो और परमात्मा प्रगट होगा। प्रार्थना से नहीं, ध्यान से प्रगट होगा।
प्रार्थना में दूसरा है। ध्यान में कोई दूसरा नहीं है, तुम अपने भीतर उतरते हो। अपने को निखारते, साफ करते, पोंछते। धीरे— धीरे जब विचार झड़ जाते हैं, वासनाएं गिर जाती हैं, तब तुम्हारे भीतर वह ज्योतिर्मय, वह चिन्मय प्रगट होता है।
तुम्हारे इस मृण्मय रूप में चिन्मय छिपा है—यह बुद्ध ने कहा।
प्रार्थना से नहीं होगा, ध्यान से होगा।
लेकिन, जैसा मैंने तुमसे पहले कहा, सुनता कोन है बुद्ध की! लोग बुद्ध की ही प्रार्थना करने लगे! लोगों ने बुद्ध के ही मंदिर बना लिए। और लोगों ने कहा : चलो, कोई परमात्मा नहीं है, चलेगा। आप ही परमात्मा हैं। हम आपके ही चरणों में झुकते हैं। आपकी ही प्रार्थना करेंगे!
बुद्ध ने घोषणा की थी, परमात्मा नहीं है, ताकि तुम समझ जाओ कि तुम भी परमात्मा हो।
नीत्शे का एक बहुत प्रसिद्ध वचन है कि जब तक ईश्वर है, तब तक आदमी स्वतंत्र न हो सकेगा। इसलिए नीत्शे ने कहा ईश्वर मर गया है।
इससे आदमी स्वतंत्र हुआ, ऐसा नहीं लगता है। सिर्फ विक्षिप्त हुआ है। नीत्शे खुद पागल होकर मरा।
बुद्ध ने भी यही कहा कि कोई ईश्वर नहीं है। क्योंकि बुद्ध भी समझते हैं कि जब तक ईश्वर है, तुम स्वतंत्र न हो सकोगे। लेकिन बुद्ध पागल नहीं हुए; स्वयं परमात्मा हो गए। कैसे यह क्रांति घटी!
बुद्ध ने कहा. कोई ईश्वर नहीं है, क्योंकि तुम ईश्वर हो। प्रार्थना किसकी करते हो? जिसकी प्रार्थना करते हो, वह तुम्हारे भीतर बैठा है। बुद्ध ने तुम्हें महिमा दी। बुद्ध ने मनुष्य को परम महिमा दी।
बुद्ध की धारणा को चंडीदास ने अपने एक वचन में प्रगट किया है साबार ऊपर मानुष सत्य, ताहार ऊपर नाहीं। सबसे ऊपर मनुष्य का सत्य है और उसके ऊपर और कोई सत्य नहीं है।
बुद्ध मनुष्य—जाति के सबसे बड़े मुक्तिदाता थे। सबसे मुक्ति दिला दी।
लेकिन आदमी गुलाम है; आदमी मुक्ति चाहता नहीं। तुम उसे किसी तरह जंजीरों से निकाल लो, वह फिर जंजीरें बांध लेता है। तुम किसी तरह उसे धक्के देकर कारागृह के बाहर करो, वह दूसरे दरवाजे से भीतर घुस जाता है। आदमी को गुलामी में सुरक्षा मालूम पड़ती है!
इसलिए बुद्ध ने तो कहा था कि अब प्रार्थना न हो, ध्यान हो। लेकिन लोगों ने बुद्ध की ही प्रार्थना करनी शुरू कर दी। बुद्ध के मंदिर बने, मूर्तियां बनीं। प्रार्थना चली। लोग बुद्ध की प्रार्थना तो करने लगे, लेकिन बुद्ध के मूल—तत्व से चूक गए।
प्रत्येक द्रष्टा की अपनी प्रक्रिया है। उस प्रक्रिया में तुमने जरा भी कुछ जोड़ा—घटाया कि खराब हो जाती है। और हम जोड़ते —घटाते हैं। हम अपने मन को बीच में ले आते हैं। हम अपनी वासनाओं को बीच में ले आते हैं। हम रंग डालते हैं चीजों को; हम अपना रंग दे देते हैं।
बुद्ध के धर्म में प्रार्थना की तो कोई जगह नहीं है, लेकिन झुकने की जगह है। इसको खयाल में रखना। और तब बड़ा कठिन हो जाता है बुद्ध को समझना। क्योंकि बुद्ध ने इतनी ऊंची उड़ान ली है कि समझना बहुत कठिन हो जाता है।
बुद्ध कहते हैं : प्रार्थना की तो कोई जरूरत नहीं है, लेकिन झुकने का भाव कीमती है। किसी के सामने मत झुकना, झुक ही जाना। झुकना किसी के सामने गलत है। लेकिन झुकना अपने आप में सही है। क्योंकि जो झुकता है, समर्पित होता है। जो झुकता है, वह मिटता है। जो झुकता है, उसका अहंकार खोता है।
अब यह बड़ा कठिन है। तुम्हें यह समझ में आता है कि अगर शतइr हो, परमात्मा हो, तो झुका जा सकता है। कोई झुकने को तो चाहिए! बुद्ध कहते हैं : झुकने को कोई नहीं चाहिए। झुकना शुद्ध होना चाहिए। क्योंकि अगर तुम किसी के सामने झुकोगे, तो किसी वासना से झुकोगे। तुम अगर किसी के सामने झुकोगे, तो तुम्हारे झुकने में कोई हेतु रहेगा। यह कोई असली झुकना नहीं होगा।
जब तुम बिना किसी वासना के झुकोगे; सिर्फ झुक जाओगे; झुकने का मजा लोगे; न कोई मांग है, न कोई मांग को पूरी करने वाला है। तुम एक वृक्ष के पास झुके पड़े हो। या जमीन पर सिर रखे पड़े हो; तुम मिट रहे हो, गल रहे हो, तुम विसर्जित हो रहे हो। जो पूरी तरह झुक गया, वह पूरी तरह उठ गया। और जो अकड़ा खड़ा रहा, वह चूकता चला गया है।
ध्यान रखना : पहाड़ खड़े हैं अकड़े हुए, इसलिए पानी से खाली रह जाते हैं। वर्षा तो उन पर होती है, लेकिन खाली रह जाते हैं। और झीलें, जो खाली हैं, झुकी हैं; गड्डे हैं; सिर उठाए नहीं खड़े हैं—उनमें जल भर जाता है।
परमात्मा तो रोज बरस रहा है। सारा जगत चैतन्य से भरा है। तुम्हीं चैतन्य से भरे नहीं हो; सभी कुछ चैतन्य से भरा है। चेतना का ही सारा जाल है। चेतना प्रतिपल बरस रही है, लेकिन तुम अकड़े खड़े हो। अकड़े खड़े हो, इसलिए खाली रह जाते हो। झुको।
बुद्ध से किसी ने पूछा है.....। क्योंकि बुद्ध ने कहा : किसी के सामने नहीं झुकना है। कोई पहुंच गया होगा तार्किक व्यक्ति। उसने देखा कि बुद्ध कहते हैं : किसी के सामने नहीं झुकना; और लोग बुद्ध के सामने ही झुक रहे हैं! और लोग कह रहे हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि। संघ शरणं गच्छामि। धम्म शरणं गच्छामि। बुद्ध की शरण आता हूं; संघ की शरण आता हूं; धर्म की शरण आता हूं।
किसी तार्किक ने देखा होगा कि यह क्या हो रहा है! और बुद्ध कहते हैं : किसी के सामने झुकना मत। तो उसने पूछा कि यह आप कैसे स्वीकार कर रहे हैं! लोग आपके सामने झुक रहे हैं!
बुद्ध ने कहा कि नहीं; मेरे सामने कोई नहीं झुक रहा है। लोग झुक रहे हैं। अभी लोग इतने कुशल नहीं हो पाए हैं, इसलिए मेरा सहारा लेकर झुक रहे हैं। मगर मेरे सामने नहीं झुक रहे हैं।
जैसे छोटे बच्चे को हम पढ़ाते हैं, तो कहते हैं, ग गणेश का। पुराने जमाने में कहते थे। अब कहते हैं : ग गधा का। उसको गधा या गणेश से जोड़ना पड़ता है ग को, नहीं तो बच्चे को ग समझ में नहीं आता। हा, गणेशजी की मूर्ति दिख जाती है, तो वह समझ जाता है कि ठीक, ग गणेश का।
फिर जिंदगीभर थोड़े ही ग गणेश का! फिर जब भी ग आए तभी पढ़ना पड़े ग गणेश का, तो फिर पढ़ना ही मुश्किल हो जाए। फिर तो ग गणेश का, और आ आम का, और इसी तरह अगर पढ़ाई करनी पड़े, तो पढ़ाई क्या हो पाएगी! फिर तो एक लाइन भी पढ़ नहीं पाओगे। इतनी चीजें आ जाएंगी कि भटक ही जाओगे। पंक्ति का तो अर्थ खो जाएगा।
फिर धीरे— धीरे गणेशजी छूट जाते हैं, गधाजी भी छूट जाते हैं। फिर ग ही शुद्ध रह जाता है।
तो बुद्ध ने कहा. जैसे छोटे बच्चे को चित्र का सहारा लेकर समझाते हैं, ऐसे ये अभी छोटे बच्चे हैं। मैं तो सिर्फ ग गणेश का। जल्दी ही ये प्रौढ़' हो जाएंगे, फिर मेरी जरूरत न होगी। फिर मेरे बिना सहारे के झुक जाएंगे।
जैसे मां बच्चे को चलाती है हाथ पकड़कर। फिर जब बच्चा चलने लगता है, हाथ अलग कर लेती है। ऐसे सदगुरु चलाता है। फिर जब बड़ा हो जाता है, प्रौढ़ हो जाता है व्यक्ति, हाथ अलग कर लेता है।
फिर इस बुद्ध के वचनों में ये जो तीन शरण हैं—त्रिरत्‍न—ये भी समझने जैसे हैं। पहला है : बुद्धं शरणं गच्छामि। बुद्ध एक व्यक्ति हैं। फिर दूसरा है : संघ शरणं गच्छामि। वह बुद्ध से बड़ा हो गया मामला। दूसरा चरण आगे का है। बुद्ध के ही नहीं, जितने बुद्ध हुए हैं, उन सबके संघ की शरण जाता हूं। एक बुद्ध से इशारा लिया, सहारा लिया। एक बुद्ध को पहचाना। एक बुद्ध से संबंध जोड़ा। फिर आगे चले। जैसे घाट से उतरे, तो सीढियों पर चले। फिर सीढ़ियों से उतरे, तो नदी में गए।
बुद्धं शरणं गच्छामि। जिससे पहचान बनी, जिससे नाता जोड़ा, जिससे शिष्यत्व का संबंध बना—उसकी शरण गए। फिर जल्दी ही खयाल में आना शुरू हुआ कि बुद्ध ही थोड़े बुद्ध हैं; कृष्ण भी बुद्ध हैं; महावीर भी बुद्ध हैं; पतंजलि भी बुद्ध हैं; लाओत्सु भी बुद्ध हैं। फिर और सारे बुद्ध दिखायी पड़ने लगे। एक फूल से क्या पहचान हुई, फिर सारे फूलों से पहचान होने लगी। एक नदी का क्या जल पीया, फिर सारे नदियों के जल की समझ आने लगी कि यही जल है। सभी जगह गंगाजल है। तो दूसरी शरण है—संघं शरणं गच्छामि।
और तीसरी शरण और बड़ी हो गयी। फिर जब सब बुद्धों को देखा, सब फूलों को देखा, तो उन फूलों के भीतर अनस्थूत धागा दिखायी पड़ने लगा—कि इतने बुद्ध हुए ये सब कैसे बुद्ध हुए? ये किस कारण बुद्ध हुए? धर्म के कारण। फिर बुद्ध भी गए; बुद्धों का संघ भी गया; फिर धम्म शरणं गच्छामि—फिर धर्म की शरण आए। और एक दिन वह भी चला जाएगा। फिर सिर्फ झुकना रह जाएगा, शुद्ध झुकना।
सीढियां उतरे; बुद्ध सीढ़ियों जैसे। फिर नदी में गए; नदी बुद्धों के संघ जैसी। फिर नदी में बहे और सागर में पहुंचे; सागर धर्म जैसा। फिर सागर में गले और एक हो गए। फिर झुकना शुद्ध हो गया। फिर असली शरण हाथ लगी। फिर तुम धन्यवाद करोगे—बुद्धों का, धर्म का, बुद्ध का; अनुग्रह मानोगे। अब झुकना शुद्ध हो गया। अब तुमने जान लिया कि मेरे न होने में ही मेरे होने का असली राज है। मेरी शून्यता में ही मेरी पूर्णता है

आज इतना ही।
ओशो

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