राजनीति और धर्म—प्रवचन—116
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न:
आपने
कबीर और मीरा की एक ही सभा में उपस्थित होने की कहानी कही। लेकिन यह ऐतिहासिक रूप
से संभव नहीं है। क्योंकि दोनों समसामयिक नहीं थे।
इतिहास का मूल्य दो कौड़ी है। इतिहास से मुझे प्रयोजन
भी नहीं है। कहानी अपने आप में मूल्यवान है, इतिहास में घटी हो या न घटी हो।
घटने से मूल्य बढ़ेगा नहीं।
कहानी
का मूल्य कहानी के भाव में है। और ऐतिहासिक रूप से भी घट सकती है, कोई बहुत
कठिन बात नहीं है। अगर कबीर एक सौ बारह साल जिंदा रहे हों—जो कि संभव है—तो कबीर
और मीरा का मिलन हो सकता है।
लोग
एक सौ पचास साल तक भी जीते,
हैं। रूस में हजारों लोग हैं, जो एक सौ पचास
साल के करीब पहुंच गए हैं।
लेकिन
उससे कुछ प्रयोजन नहीं है। मैं कह नहीं रहा हूं कि कबीर एक सौ बारह साल जिंदा रहे।
मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि कबीर का मीरा से कभी मिलना कहानी का मूल्य उसकी अंतर—कथा
में है; उसकी अंतर्भावना में है। न मिले हों इस पृथ्वी पर—छोड़ो! स्वर्ग में पंद्रह
सौ ज्ञानी इकट्ठे हुए हों और कबीर को बुलाया हो। और कबीर ने कहा हो कि जब तक मीरा
न आएगी—या सहजो, या दया, या राबिया,
या थेरेसा, या लल्ला—तब तक मैं न आऊंगा।
कहानी
का अर्थ इतना है कि जहां सिर्फ पुरुष ही पुरुष हैं, वहां कुछ अधूरा है। जहां
पुरुष ही पुरुष हैं, वहा कुछ कठोर हो जाता है; परुष हो जाता है। स्त्री के आते ही थोड़ा सा माधुर्य आता है। स्त्री के आते
ही थोड़ा गीत आता है, थोड़ा संगीत आता है। स्त्री के आते ही
अध्यात्म में थोड़े फूल खिलते हैं। नहीं तो अध्यात्म मरुस्थल हो जाता है।
चूंकि
अध्यात्म के सभी शास्त्र पुरुषों ने लिखे हैं, इसलिए शास्त्र रूखे—सूखे हैं।
चूंकि स्त्रिया मंदिरों, मस्जिदों, सिनागाग
से वर्जित रही हैं, इसलिए धर्म मुर्दे की तरह जीया है। धर्म
में प्राण आ जाएंगे।
कहानी
का अर्थ है कि कबीर यह कह रहे हैं कि स्त्री और पुरुष का समान मूल्य है। एक। इसलिए
मीरा को बुलाओ तभी मैं आऊंगा।
दूसरा
: स्त्री और पुरुष की ऊर्जा जहां संयुक्त होकर नाचती है, वहा
परिपूर्णता का वास होता है। पुरुष आधा है, स्त्री आधी है।
दोनों जहां मिलते हैं, वहा पूर्ण का जन्म होता है।
न
तो पुरुष अकेला बच्चे को जन्म दे सकता है, न स्त्री अकेली बच्चे को जन्म दे
सकती है। जीवन फलता है तब, जब दो का मिलन होता है। दो विपरीत
ऊर्जाएं जब एक—दूसरे में गिरती हैं, तो तीसरी ऊर्जा का जन्म
होता है।
अध्यात्म
बाझ रह गया है,
क्योंकि पुरुष ही पुरुष की ऊर्जा है।
मुझसे
लोग पूछते हैं कि कोई स्त्री तीर्थंकर क्यों नहीं है? कोई
स्त्री अवतार क्यों नहीं है? कोई स्त्री ईश्वर की पुत्र
क्यों नहीं है? कोई स्त्री पैगंबर क्यों नहीं है?
वे
ठीक पूछते हैं। स्त्रियां इस योग्य हुई हैं, जो पैगंबर होनी चाहिए, जो अवतारों में गिनी जानी चाहिए, जिनकी गिनती
तीर्थंकरों में होनी चाहिए, लेकिन पुरुष का अहंकार नहीं होने
देता गिनती।
उस
पुरुष के अहंकार पर चोट है कहानी में। उस कहानी का इतना ही अर्थ है कि कबीर यह कह
रहे हैं कि मैं पुरुष के अहंकार को भरने को राजी नहीं हूं। स्त्री की महिमा उतनी
ही है, जितनी पुरुष की। उसकी ऊंचाई उतनी ही हो सकती है, जितनी
पुरुष की।
लेकिन
मीरा को या सहजो को तीर्थंकर की तरह स्वीकार करना तो दूर, जैनों में
एक स्त्री तीर्थंकर हो गयी, उसका नाम जैनों ने बदल दिया है—कि
पता न चले किसी को कि वह स्त्री थी। नाम था, मल्लीबाई;
जैन कहते हैं, मल्लीनाथ। पुरुष की तरह गिनती
कर दी। बात अखरी होगी। स्त्री रही होगी अपूर्व महिमा की। निश्चित ही महावीर से
ज्यादा महिमा की स्त्री रही होगी। नहीं तो स्त्री होकर तीर्थंकरों में गिनी नहीं
जा सकती थी। महिमा कुछ ऐसी रही होगी कि पुरुष भी इनकार कर नहीं सका। ज्योति कुछ
इतनी ज्योतिर्मय रही होगी कि स्त्री होते हुए भी स्वीकार करना पड़ा होगा।
तेईस
तीर्थंकर पुरुष हैं;
उसमें एक स्त्री चौबीसवीं—मल्लीबाई! उस समय तो स्वीकार कर लिया
होगा। उसकी मौजूदगी का बल! उसकी मौजूदगी का दबाव। लेकिन पीछे पुरुष के अहंकार को
चोट लगी होगी—कि स्त्री और तीर्थंकर! स्त्री और इतनी ऊंचाई पा ले! और शास्त्र तो
कहते हैं कि स्त्री पर्याय से मोक्ष ही नहीं हो सकता।
वे
पुरुषों के लिखे हुए शास्त्र हैं, जो कहते हैं कि स्त्री पर्याय से मोक्ष नहीं हो
सकता। कोई भी स्त्री सीधे स्त्री—देह से मोक्ष नहीं जा सकती। पहले मरे; पुरुष बने दूसरे जन्म में; फिर जा सकती है। पुरुष
हुए बिना मोक्ष जाने का कोई द्वार नहीं है।
यह
बड़ी बेहूदी बात है;
अभद्र बात है। मगर पुरुषों का राज्य रहा। पुरुष मालिक रहे।
स्त्रियों को पढ़ने की आज्ञा नहीं; समझने की आज्ञा नहीं;
सोचने की आज्ञा नहीं!
और
एक स्त्री तीर्थंकर हो गयी,
तो फिर शास्त्रों का क्या होगा, जो कहते हैं :
स्त्री पर्याय से मोक्ष नहीं है! उन्होंने कहानी को बदल दिया। एक छोटी सी तरकीब
लगायी; एक कानूनी व्यवस्था जुटा ली; एक
टेक्निकल तरकीब खोज ली। मल्लीबाई को मल्लीबाई मत कहो; मल्लीनाथ
कहो। एक स्त्री कभी उस महिमा को प्रगट भी की थी, तो हमने उसका
नाम मिटा दिया।
कबीर
की कहानी में इतनी ही बात है कि पंद्रह सौ पंडित काशी में इकट्ठे हुए हैं और
उन्होंने कबीर को निमंत्रित किया है कि आप आओ। वे गए। उन्होंने देखा : सब पुरुष
हैं। लौट गए। उन्होंने कहा : मीरा को बुलाओ। मीरा नाचे, तो कबीर
भी आए। मीरा नाचे, तो कबीर भी बोले।
जहां
स्त्री नहीं है,
वहा कुछ अधूरा है। वहां मातृत्व नहीं है; वहा
प्रेम नहीं है। तर्क होगा; सिद्धात—जाल होगा। पांडित्य होगा।
आचरण भी हो सकता है। चरित्र भी हो सकता है। लेकिन उस चरित्र में सुगंध नहीं होगी।
उस चरित्र में माधुरी नहीं होगी; मस्ती नहीं होगी। वहा लोग
ज्ञानी होकर पत्थरों की तरह हो जाएंगे। वहा बहाव नहीं होगा।
तुमने
देखा एक कमरे में दस पुरुष बैठे हों, हवा और होती है। फिर एक स्त्री
कमरे में आ जाए, हवा और हो जाती है। सिर्फ उसकी मौजूदगी से
तनाव कम हो जाता है। लोग ज्यादा हंसने लगते हैं। लोग विवाद कम करते हैं। लोग अभद्र
शब्दों का उपयोग नहीं करते। लोग गाली—गलौज बंद कर देते हैं!
पंद्रह
स्त्रियां बैठी हों,
तो भी बड़ी तू —तू मैं—मैं होती है। क्षुद्र बातों पर निंदा का रस
चलता है; निंदा—रस बहता। एक पुरुष आ जाए, बात सम्हल जाती है।
स्त्री
और पुरुष एक ही सत्य के दो पहलू हैं; एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और
अब तक हमने चूंकि सिक्के के एक ही पहलू को स्वीकार किया, पुरुष
को, और स्त्री का अस्वीकार किया; इसलिए
दुनिया बड़ी दीन रह गयी है।
दुनिया
में युद्ध कम हों,
अगर स्त्री भी इतनी ही स्वीकृत हो, जितना
पुरुष स्वीकृत है। दुनिया में प्रेम थोड़ा ज्यादा हों—उसकी जरूरत है बहुत कि ज्यादा
हो। जब प्रेम कम पड़ जाता है, तो संगीनें बढ़ती हैं, तलवारें बढ़ती हैं, बम बढ़ते हैं। स्त्री स्वीकृत हो,
संतुलित हो। स्त्री और पुरुष समान हैं। इसलिए कबीर ने कहा जब मीरा
आए.।
मीरा
को खोजा गया। जब मीरा आकर नाची, तब कबीर बोले। निश्चित ही इस बोलने में
गुणवत्ता का फर्क हो गया। मीरा नाची, तब कबीर बोले। मीरा के
नाचने में ही तरलता आ गयी। वे गंभीर पंडितों के चेहरे शिथिल हो गए होंगे। तर्कजाल
थोड़ा भीतर कम हुआ होगा। खोपड़ियों से उतरे होंगे पंडित, हृदय
में डूबे होंगे थोड़ा।
मीरा
नाची। उसने अर बांधे। पद घुंघरु बांध मीरा नाची रे! वातावरण शीतल हो गया होगा।
थोड़े से जूही के फूल झर गए होंगे। फिर कबीर बोले। अब यह एक अलग वातावरण में बोले।
तुम
कहां की फिजूल बकवास लिए बैठे हो कि इतिहास
यह
कोई विश्वविद्यालय थोडे ही है। यहां इस तरह की फिजूल बातों की चर्चा ही नहीं हो
रही है। यहां तो इसकी भी फिकर नहीं कि कबीर हुए कि नहीं हुए! कि मीरा हुई कि नहीं
हुई। इसकी भी कोई फिकर नहीं है। कहानी इतनी प्यारी है कि कहानी की वजह से कबीर को
होना पड़ेगा, मीरा को होना पड़ेगा। कहानी का अपने में मूल्य है, उसका
काव्य ऐसा है।
लेकिन
तुम्हारी दृष्टि क्षुद्र पर अटक जाती है! तुम क्षुद्र हिसाब —किताब में लगे रहते
हो। जो हुआ, उसका पक्का होना चाहिए। और ध्यान रखो पक्का उसी का हो पाता है—जितना
क्षुद्र हो, उतना पक्का हो जाता है। जैसे अडोल्फ हिटलर हुआ,
इसमें कोई शक—सुबहा नहीं होता। क्योंकि अडोल्फ हिटलर इतना
ध्वंसात्मक है कि अनेक खंडहर अपने पीछे छोड़ जाता है—प्रतीक और गवाह।
कृष्ण
हुए, यह संदिग्ध है। हुए हों न हुए हों! क्योंकि कृष्ण जो लाए थे इस जगत में,
वह तो उनके साथ ही तिरोहित हो गया, उसका कोई
तो प्रमाण मिलता नहीं। खंडहर तो नहीं छोड़ गए यहां कोई। लाशों से तो नहीं पाट गए
पृथ्वी को। पत्थरों पर कोई हस्ताक्षर भी नहीं कर गए। आए, खिले
फूल की तरह सुबह, और सांझ खो गए। और जब फूल खो गया और वास उड
गयी आकाश में, तो कहा खोजोगे! कहां प्रमाण खोजोगे?
कृष्णों
का कोई प्रमाण नहीं है। बुद्धों का कोई प्रमाण नहीं है। जीसस का कोई प्रमाण नहीं
है। प्रमाण है नादिरशाह का। प्रमाण है तैमूरलंग का। प्रमाण है नेपोलियन का, सिकंदर
का। इनके प्रमाण हैं।
इस
बात की सदा संभावना है कि आज से दो हजार साल बाद रमण का कोई प्रमाण न हो।
कृष्णमूर्ति का क्या प्रमाण होगा? अखबारों में खोजने से नाम भी तो नहीं मिलेगा!
प्रमाण होगा जोसेफ स्टैलिन का। प्रमाण होगा माओ—त्से—तुंग का। प्रमाण होगा
मुसोलिनी का। लेकिन कृष्णमूर्ति का क्या प्रमाण होगा? दो
हजार साल बाद कृष्णमूर्ति ऐसे ही संदिग्ध हो जाएंगे, जैसे आज
कृष्ण हो गए। कोई फर्क नहीं रहेगा।
जितनी
ऊंची बात होती है,
उतने ही कम प्रमाण छूटते हैं। क्योंकि ऊंची बात आकाश की होती है,
नीची बात जमीन की होती है। नीची बात जमीन पर सरकती है, उसकी लकीरें छूटती हैं। ऊंची बात आकाश में उड़ती है। आकाश में उड़ने वाले
पक्षियों के कोई पद—चिह्न तो नहीं बनते! पक्षी उड गया, फिर
कोई पद—चिह्न नहीं मिलते। लेकिन जमीन पर जो चलते हैं, उनके
जाने के बाद भी पद—चिह्न छूट जाते हैं। उनके जाने के बाद भी प्रमाण होता है।
इतिहास
क्षुद्र की बात कहता है। इसलिए तो इस देश को एक नयी चीज खोजनी पड़ी; उसको हम
पुराण कहते हैं। पुराण बड़ा महिमावान है। दुनिया में कहीं भी पुराण जैसी धारणा नहीं
है।
पुराने
शास्त्र कहते हैं,
इतिहास और पुराण। पुराण का अर्थ इतिहास नहीं होता। पुराण कुछ और है।
पुराण का मतलब होता है : ऐसी बात, जिसका इतिहास कोई लेखा —जोखा
नहीं रखेगा। नहीं रख सकेगा। नहीं कोई उपाय है इतिहास के पास। इतिहास तो लेखा —जोखा
रखता है राजनीति का, टुटपुजियों का, जिनका
कोई मूल्य नहीं है। लेकिन घड़ीभर जो मंच पर आते हैं और बडा शोरगुल मचा देते हैं;
घड़ीभर के लिए उनकी गज व्याप्त हो जाती है—घड़ीभर के लिए!
इतिहास
तो जो घड़ीभर के लिए बड़े प्रभावशाली मालूम पड़ते हैं, उनका अंकन कर लेता है।
पुराण उनका अंकन करता है, जो सदा—सदा के लिए महिमाशाली हैं।
अब
इसमें दोनों में फर्क होने वाला है। जो सदा—सदा के लिए महिमाशाली है—एस धम्मो
सनंतनो—उसको पहचानने में हजारों साल लग जाते हैं; उसका इतिहास कैसे बनाओगे!
इतिहास तो उसका बनता है, जिसको तुम अभी पहचान लेते हो। बुद्ध
को तो अभी भी पहचाना नहीं गया! कबीर से तो अभी भी जान—पहचान कहां हुई तुम्हारी!
अभी भी कबीर खडे हैं, अभी समझे जाने को हैं; अभी पहचाने जाने को हैं।
हजारों
साल बीत जाते हैं,
तब.। और तब भी कुछ लोग ही केवल पहचान पाते हैं, क्या है बुद्धत्व। तब तक बुद्ध खो चुके, देह न रही;
देह के प्रमाण न रहे। जब तक पहचानने वाले लोग आते हैं, तब तक सब चिह्न खो जाते हैं।
इसलिए
हमने—सिर्फ हमने दुनिया में—पुराण जैसी चीज खोजी। पुराण का अर्थ होता है. समय की
धारा पर जिसके चिह्न नहीं छूटते; शाश्वत से जिसका संबंध है, उसका भी उल्लेख हमें करना चाहिए, उसको भी हमें
संगृहीत करना चाहिए।
पश्चिम
के जो लोग भारत के पुराण पढ़ते हैं, उनकी दृष्टि पुराण की नहीं है।
भारतीय
भी अब भारतीय नहीं हैं। वे भी जब पुराण पढ़ते हैं, तो उनकी दृष्टि भी पुराण की
नहीं है। वे कहते हैं : यह इतिहास नहीं है।
कहा
किसने कि यह इतिहास है! इतिहास शब्द का अर्थ समझते हो? जिसकी इति
आ जाए, और जिसका हास हो जाए। जिसका अंत आ जाता है जल्दी और
जो धूल में खो जाता है—यह इतिहास का अर्थ होता है।
पुराण
का क्या अर्थ होता है.?
जो सदा से चला आया है और सदा चलता रहेगा—पुर.आण। आता ही रहा है—आता
ही रहा है—चलता ही रहा है—जो शाश्वत है, सनातन है। उसे पकड़ने
के लिए कुछ और उपाय है।
इसलिए
जब मैं तुमसे कुछ कहता हूं तो स्मरण रखना : उस कहने में इतिहास इत्यादि की बकवास
नहीं है। मैं उस इतिहास से बिलकुल मुक्त हूं। मैं तो तुमसे वही कह रहा हूं जिसके
होने की शाश्वत सत्यता है। घटा हो, न घटा हो। न घटा होगा, तो घटेगा कभी।
लेकिन
तुम्हारा मन इन व्यर्थ की बातों में घूमता रहता है। तुम सोचते हो. शायद घटता, तो मूल्य
बढ़ जाएगा। कैसे बढ़ेगा मूल्य?
समझो
कि सच में ही कबीर एक सौ बारह साल जी गए। और कबीर जैसे लोगों का भरोसा क्या—जी
जाएं! एक सौ बारह साल जी जाएं, तो मीरा से मिलना हो जाए। तो फिर क्या मूल्य बढ़
जाएगा कहानी का! क्या मूल्य बढ़ेगा?
इतनी
ही बात के जुड्ने से—कि ही,
सच में ही एक भवन में काशी के पंद्रह सौ पंडित इकट्ठे हुए थे। फिर
कबीर ने मीरा को बुलाया। मीरा नाची। इससे क्या फर्क पड़ेगा? क्या
कहानी अपने आप में पूरी नहीं है? प्रकारांतर से यह प्रमाण
जुटा लेने से क्या कहानी का अर्थ कुछ गहरा हो जाएगा? कुछ भी
तो भेद नहीं पड़ेगा।
कहानी
का अर्थ तो कहानी में है। घटी हो, न घटी हो। न घटी हो, तो
घटनी चाहिए थी। न घटी हो, तो अभी कभी घटेगी। यहां न घटी हो,
तो कहीं और घटी होगी। इस जमीन पर नहीं, तो
किसी और जमीन पर। जमीनों पर नहीं, तो कहीं स्वर्ग में। लेकिन
घटी होगी। घटेगी। घटती रहेगी। जब भी कबीर पैदा होंगे, मीराएं
पुकारी जाएंगी। और जो कबीर मीरा को न पुकारे, वह कुछ अधूरा—अधूरा
है, भयभीत है। कबीर के साथ और भय को जोड़ना ठीक नहीं होगा।
और
जिसको यह दिखायी न पड़ जाए कि स्त्री में भी वही ज्योति, पुरुष में
भी वही ज्योति; जिसे यह स्त्री—पुरुष का वर्ग— भेद याद रह
जाए, वह कबीर कैसा? उसमें बुद्धत्व ही
नहीं है अभी। अभी देह पर अटका है; अभी आत्मा का पता नहीं चला
है।
देह
से स्त्री हो कोई,
पुरुष हो कोई, लेकिन यह देह की भाषा है। कबीर
को तो देह के पार दिखायी पड़ना चाहिए। देह के भीतर जो छिपा है, उस पारदर्शी का दर्शन होना चाहिए। कबीर को तो दिखना चाहिए कि कौन पुरुष?
कौन स्त्री? एक का ही विस्तार है। एक ही मौजूद
है।
दूसरा प्रश्न:
आप
कभी—कभी बड़ा कठोर उत्तर क्यों देते हैं?
जैसा प्रश्न, वैसा
उत्तर। या जैसा प्रश्नकर्ता, वैसा उत्तर।
और
फिर कभी—कभी कठोरता की जरूरत होती है करुणा के कारण भी। कभी—कभी तुम्हारे सिर पर
चोट पड़े, तो ही तुम्हें थोड़ा सा होश आता है। तुम ऐसी गहरी नींद में सोए हो! डर तो
यह है कि तुम चोट को भी पी जाओगे और न जागोगे।
तुम्हारा
पूछना किस भावदशा में होता है, किस जगह से आता है तुम्हारा प्रश्न, क्यों तुमने पूछा है—वह ज्यादा महत्वपूर्ण है मुझे, बजाय
तुम्हारे प्रश्न के।
कोई
सिर्फ इसलिए पूछता है कि वह अपना पांडित्य दिखाना चाहता है। अब जैसे यही प्रश्न कि
कबीर और मीरा का मिलन ऐतिहासिक नहीं है। अब यहां कोई इतिहास के अंधे आ गए, जो
क्षुद्र का इतिहास पढ़ते रहे हैं—राजा—राजाओं की, रानियों की
कहानियां पढ़ते रहे हैं; युद्धों की कहानियां पढ़ते रहे हैं—और
जिनको तारीखें इत्यादि काफी याद हो गयी हैं। इनके सिर में कचरा भर गया। अब ये कुछ
और नहीं देख सकते! अब उनको हर चीज जब तक क्षुद्र के साथ प्रमाणित न हो, तब तक अर्थहीन हो जाती है।
अब
इनको बड़ी कठिनाई होगी। ये समझ ही न पाएंगे विराट को। और अगर समझेंगे, तो ऐसी
मांगें करेंगे कि वे मांगें बाधा खड़ी करेंगी।
अब
जैसे कहानियां कहती हैं..। कहानियां हैं, इतिहास में प्रमाण हो भी नहीं
सकता। कहते हैं : महावीर चलते हैं रास्तों पर, तो जो कांटे
सीधे पड़े होते हैं, महावीर को देखकर जल्दी से उलटे हो जाते हैं।
अब
यह कहीं होता है?
कांटे इतनी फिक्र करते हैं? आदमी फिक्र नहीं
करते; कांटे क्या खाक फिक्र करेंगे!
यह
कभी हुआ तो नहीं होगा। कांटे रास्तों पर पड़े; महावीर आते हैं; यह देखकर कि कहीं चुभ न जाऊं, जल्दी से उलटे हो जाते
हैं! सिर छिपाकर धूल में घुस जाते हैं। कांटे ऐसा करेंगे?
लेकिन
इस कहानी में बड़ा अर्थ है। कहानी यह कह रही है कि कीटों को भी ऐसा करना चाहिए।
महावीर जैसा व्यक्ति आता हो…..। यह अपेक्षा है कहानी की कि होना तो ऐसा चाहिए
कि रास्ते पर पड़े कांटे भी उलटे हो जाएं। और होता यह है कि रास्ते पर खड़े आदमी भी
पत्थर मारते हैं!
यह
कहानी में अपेक्षा है;
इस कहानी में तुम्हारे लिए इंगित है, सूचना है
कि महावीर के रास्ते पर कांटे मत बनना। वहां तो कीटों को भी उलट जाना चाहिए। लेकिन
तुम भी कांटे बन जाओगे महावीर के रास्ते पर। आदमी कांटे हो जाते हैं!
कहानियां
कहती हैं कि मोहम्मद चलते हैं रेगिस्तान में, तो एक बादल उनके ऊपर छाया करता है।
किस बादल को पड़ी है! बादलों को इतना बोध कहां? और अगर हो,
तो सोचो तो : कितना अपमान हो गया तुम्हारा! बादल छाया करें मोहम्मद
पर! और आदमियों ने क्या किया? आदमियों ने मोहम्मद की छाया
छीन लेनी चाही; जीवन छीन लेना चाहा।
अब
तुम कहोगे : इसका इतिहास में प्रमाण नहीं है! मैं भी नहीं कह रहा हूं। इसका इतिहास
से कुछ लेना—देना नहीं है। यह बात बड़ी महिमा की है। यह काव्य है, और इसमें
इंगित हैं, सूचनाएं हैं।
इसमें
यह सूचना दी गयी है कि होना तो यही चाहिए कि बादल भी मोहम्मद पर छाया करें।
मोहम्मद जैसा आदमी हो और बादल छाया न करें! और होता यह है कि आदमी भी मोहम्मद को
मारने को उत्सुक हो जाते हैं।
कहानियां
कहती हैं कि बुद्ध जब जंगलों में आते, तो सूखे वृक्षों में हरियाली आ
जाती; बेमौसम फूल खिल जाते।
होना
यही चाहिए। बुद्ध आएं,
तो बेमौसम खूब फूल खिल जाना चाहिए। फिर क्या खाक मौसम की फिक्र किए
बैठे हो? बुद्ध का आगमन हुआ। किसी वृक्ष के नीचे आकर बैठ गए।
और वृक्ष कह रहा है कि जब वसंत आएगा, तब खिलूंगा। यह बात
जंचती है?
वसंत
आ गया—यह मतलब हुआ कहानी का। बुद्ध आ गए, तो वसंत आ गया। अब और किस वसंत की
प्रतीक्षा है? इससे बड़ा वसंत और कब आएगा? बुद्ध के पास तो आदमियों के फूल खिल जाते हैं। यही तो वसंत है।
कहानी
यह कह रही है कि खिल जाने चाहिए फूल। अब और किस वसंत की प्रतीक्षा है? मालिक आ
गया, तुम नौकरों की प्रतीक्षा कर रहे हो!
मगर
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि फूल खिले। आदमी नहीं खिले, तो फूल
क्या खिलेंगे! ये काव्य हैं। ये महाकाव्य हैं। पुराण गणित की भाषा में नहीं लिखा
जाता। पुराण काव्य की भाषा में लिखा जाता है। पुराण गणित की भाषा मानता ही नहीं।
पुराण भाव की भाषा मानता है।
अब
अगर मैं तुमसे कह दूं कि यह इतिहास का कूडा—करकट तुम्हारी खोपड़ी में भरा है, इसे जलाओ,
इसे कचरे—घर में डाल आओ, तो तुम कहोगे,
मैंने कठोर उत्तर दे दिया।
यह
कठोर नहीं है महाराज! मेरा वश चले, तो तुम्हारा सिर उतार लूं। यह कठोर
नहीं है। तुम्हारा सिर किसी काम का नहीं है। नाहक उछल—कूद कर रहे हो। नाहक परेशान
हो रहे हो। यह सिर गंवा दो, तो तुम्हें सब मिल जाए। यही सिर
तुम्हारे और परमात्मा के बीच बाधा बना है।
लेकिन
तुम पूछते हो :
आप कभी—कभी बडा कठोर उत्तर देते हैं!'
एक
धोबन अपने गधों को हाकती घर की तरफ आ रही थी कि रास्ते में एक मसखरा मिल गया। और
उसने कहा गधों की अम्मा! सलाम!
मालूम
है, उस धोबन ने क्या कहा? उस धोबन ने कहा. खुश रहो बेटा!
और
कहे भी क्या!
एक
सज्जन हैं मियां बब्बन। झक्की स्वभाव के हैं। जहां खड़े होते हैं, लगते हैं
दाम पूछने। एक बार वे एक बड़ी दुकान में घुस गए। दाल कितने में होगी किलो भर?
और यह टूथ—ब्रश? और यह पेस्ट तो घटिया लग रही
है! खैर, फिर भी कितने में दोगे? और यह
हेयर ब्रश?
दुकानदार
बड़ी शांति से भाव बताता जा रहा था। आखिर बब्बन मियां जब सब चीजों के दाम पूछ चुके; सुबह से
सांझ होने के करीब आ गयी। तो फोन के पास आकर रुके और बोले : क्यों मियां! यह फोन
कितने का होगा?
एक
सीमा होती है! दिनभर खराब कर दिया इस आदमी ने। दुकानदार भी.। बड़ा दुकानदार रहा
होगा, बरदाश्त करता रहा, करता रहा, करता
रहा। अब जब यह फोन के भी दाम। जब सब चीजें ही दुकान की पूछ चुके, अब फोन ही बचा। शायद अब आगे बड़े मियां का दाम पूछे! कि आपके कितने दाम
हैं!
दुकानदार
बड़ी शाति से भाव बताता जा रहा था। अब जरा बात उसे सीमा के बाहर जाती मालूम पड़ी। जब
बब्बन मियां ने पूछा: क्यों मियां! यह फोन कितने का होगा? दुकानदार
चिल्लाया. एक—एक नंबर घुमाने के पचास—पचास पैसे। कान से लगाने के तीन पैसे। मुंह
से हर शब्द बोलने के पैसे, तार की तरह। बब्बन मियां बोले
मैंने तो समूचे फोन के दाम पूछे थे जनाब! आप चिल्लाने क्यों लगे?
समूचे
ही फोन के दाम पूछ रहे हैं वे!
कुछ
लोग ऐसे हैं,
जिन्हें प्रयोजन भी नहीं है। किसलिए पूछ रहे हैं, यह भी नहीं है उनको पता। पूछने के लिए पूछ रहे हैं। कुछ खरीदना नहीं है।
जब
मैं देखता हूं कि तुम सिर्फ पूछने के लिए पूछ रहे हो, तो मेरे
पास इतना समय नहीं है कि सुबह से शाम तक खराब करूं। जो पूछने के लिए पूछ रहा है,
उसको तो मैं कठोर उत्तर देता हूं। वही उसे मिलना चाहिए।
जो
कुतूहलवश पूछ रहा है,
वह गलत जगह से पूछ रहा है। ही, जिज्ञासा हो,
तो मेरा उत्तर कोमल होता है। और अगर मुमुक्षा हो, तो मैं अपने सारे प्राण तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में डाल देता हूं। तुम
सच में ही मुक्त होने के लिए पूछ रहे हो, तो फिर मैं सारी
चेष्टा करता हूं।
लेकिन
जब मैं देखता हूं कि यह खुजली ही जैसी बात है, खुजलाहट हो रही है तुम्हारी खोपड़ी
में कुछ, तो मैं खुजलाता नहीं। क्योंकि खुजलाने से खुजलाहट
और बढ़ती है। फिर मैं कठोर उत्तर ही देना पसंद करता हूं।
तुम्हें
वही मिलना चाहिए,
जो तुम्हारी जरूरत है।
तीसरा
प्रश्न:
प्यारे
भगवान! सत्य क्या है? क्या ललित और बच्चे सत्य हैं? क्या आप सत्य हैं? क्या धर्म सत्य है? या क्या जो मैं समझती हूं? वह सत्य है? आप स्पष्ट करें कि सत्य क्या है?
पूछा है तरू ने।
तरू! न तो ललित
और बच्चे सत्य हैं; क्योंकि ललित और बच्चों से मिलना नदी—नाव—संयोग
है। तू तो पहले भी थी। ललित और बच्चे भी पहले थे; इस जन्म के
पहले भी थे। लेकिन तुम्हारा कभी मिलना न हुआ था। तू भी आगे रहेगी; ललित और बच्चे भी आगे रहेंगे। लेकिन फिर दुबारा शायद मिलना न हो। या हो भी,
तो पहचान नहीं रहेगी कि कौन ललित है; कौन
बच्चे हैं, कौन मैं हूं!
इस
संसार के रास्ते पर हम सब अजनबी हैं। घड़ीभर का मिलना है, फिर
रास्ते अलग हो जाते हैं। घड़ीभर साथ चल लेते हैं, इसी से
संसार बसा लेते हैं। फिर रास्ते अलग हो जाते हैं। जब कोई मरता है, तो उसका रास्ता अलग हो गया। फिर अलविदा देने के सिवाय कोई मार्ग नहीं है।
फिर दुबारा तुम उसे खोज भी पाओगे अनंतकाल में—असंभव है।
इसलिए
न तो बच्चे सत्य हैं,
न पति सत्य है, न पत्नी सत्य है, न भाई, न बहन, न मा, न बाप। संबंध हैं ये, सत्य नहीं। संबंध भी क्षणभंगुर
हैं।
फिर
पूछा है : 'क्या आप सत्य हैं?'
थोड़ा
ज्यादा सत्य हूं। जितना पति—पत्नी का संबंध होता है, उससे गुरु—शिष्य का संबंध
थोड़ा ज्यादा सत्य है। क्योंकि पति—पत्नी का संबंध देह पर चुक जाता है। या अगर बहुत
गहरा जाए तो मन तक जाता है।
गुरु—शिष्य
का संबंध मन से शुरू होता है और अगर गहरा चला जाए, तो आत्मा तक जाता है। लेकिन
फिर भी कहता हूं : थोड़ा ज्यादा सत्य है। क्योंकि गुरु—शिष्य का संबंध भी परमात्मा
तक नहीं जाता; आत्मा तक ही जाता है। और जाना है तुम्हें
परमात्मा तक, इसलिए एक दिन गुरु को भी छोड़ देना पड़ता है।
आत्मा की सीमा आयी, उस दिन गुरु गया।
इसलिए
बुद्ध ने कहा है. अगर मैं भी तुम्हें राह पर मिल जाऊं, तो मेरी
गरदन काट देना। राह पर मिल जाऊं अर्थात अगर तुम्हारे और तुम्हारे परमात्मा के बीच
में आने लगू तो मुझे हटा देना।
गुरु
द्वार बने, तो ठीक। द्वार का मतलब ही होता है कि उसके पार जाना होगा। द्वार पर कोई
रुका थोड़े ही रहता है! द्वार पर कितनी देर खड़े रहोगे? द्वार
कोई रुकने की जगह थोड़े ही है। उससे तो प्रवेश हुआ और आगे गए।
तो
गुरु द्वार है। इसलिए नानक ने ठीक कहा, अपने मंदिर को गुरुद्वारा कहा। बस,
गुरुद्वारा ही है गुरु। वह द्वार है। उससे पार चले जाना है। गुरु
इशारा है, जिस तरफ इशारा है, वहा चले
जाना है।
इसलिए
गुरु भी थोड़ा ज्यादा सत्य है, लेकिन असली सत्य तो परमात्मा है। तो यहां तीन
बातें हो गयीं सांसारिक संबंध; आध्यात्मिक संबंध, पारमार्थिक संबंध। सांसारिक संबंध—पति, पत्नी,
बच्चे। बड़े ऊपर के हैं, शरीर तक जाते हैं।
बहुत गहरे जाएं, तो मन तक।
आध्यात्मिक
संबंध—शिष्य और गुरु का संबंध। या कभी—कभी बहुत गहरे प्रेम में उतर गए प्रेमियों
का संबंध। शुरू होता है मन से। अगर गहरा चला जाए, तो आत्मा तक पहुंच जाता है।
और
फिर कोई संबंध नहीं,
तुम अकेले बचो। तुम्हारे स्वात में ही परमात्मा आविर्भूत होता है,
तुम ही परमात्मा हो जाते हो। फिर कोई संबंध नहीं है। परमात्मा और
आदमी के बीच कोई संबंध नहीं हो ती—असंबंध है। क्योंकि परमात्मा और आदमी दो नहीं
हैं।
तो
तू पूछती है 'क्या आप सत्य हैं?'
थोड़ा
ज्यादा, ललित और बच्चों से। लेकिन परमात्मा और तेरे संबंध से थोड़ा कम।
फिर
पूछा है. 'क्या धर्म सत्य है?'
धर्म
सत्य है। धर्म का अर्थ है : असंबंधित दशा। धर्म का अर्थ है अपने स्वभाव में थिर हो
जाना, अपने में डूब जाना। कोई बाहर न रहा। किसी तरह का संबंध बाहर न रहा। गुरु
का संबंध भी न रहा।
वही
है गुरु, जो तुम्हें उस जगह पहुंचा दे, जहां गुरु से भी
मुक्ति हो जाए। उस गुरु को सदगुरु कहा है। उस गुरु को मिथ्या—गुरु कहा है, जो तुम्हें अपने में अटका ले। जो कहे, मेरे से आगे
मत जाना। बस, यही तुम्हारा पड़ाव आ गया, मंजिल आ गयी। अब आगे नहीं। जो तुम्हें अपने में अटका ले, वह मिथ्या—गुरु। जो तुम्हें अपने से पार जाने दे, जो
सीढ़ी बन जाए, द्वार बन जाए; तुम चढ़ो और
पार निकल जाओ, वही सदगुरु।
और
ध्यान रखना सदगुरु के प्रति ही अनुग्रह का भाव होता है। मिथ्या—गुरु के प्रति तो
क्रोध आएगा आज नहीं कल,
क्योंकि मिथ्या—गुरु वस्तुत: तुम्हारा दुश्मन है। पहले प्रलोभन दिया
विकास का और फिर अटका लिया! पहले आशा जुटायी; तुम्हारे भीतर
खूब आशा जगायी कि मुक्ति दूंगा। और फिर तुमने पाया कि एक नए तरह का बंधन हो गया।
जंजीरें बदल गयीं, दूसरी जंजीरें आ गयीं। एक कारागृह से
दूसरे कारागृह में प्रवेश हो गया। एक तरह की गुलामी थी, अब
दूसरी तरह की गुलामी शुरू हो गयी।
तो
मिथ्या—गुरु के प्रति तो तुम कभी भी अनुग्रह का भाव अनुभव नहीं कर सकते। अनुग्रह
का भाव तो उसी के प्रति होता है, जिससे परम स्वतंत्रता मिले, बेशर्त स्वतंत्रता मिले।
धर्म
सत्य है।
'और क्या जो मैं समझती हूं वह सत्य है? आप स्पष्ट
करें कि सत्य क्या है।'
जो
तरु तू समझती है,
वह सत्य नहीं है। लेकिन जो तेरे भीतर समझता है, वह सत्य है। जो तेरे भीतर जागकर देखता है, वह सत्य
है। समझने वाला सत्य है, समझ का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। समझ
तो छोड़ देनी है। पहले नासमझ छोड़नी पड़ती है; फिर समझ छोड़नी
पड़ती है। पहले संसार छोड़ना पड़ता है, फिर अध्यात्म छोड़ना पड़ता
है। पहले गृहस्थी छोड़नी पड़ती है, फिर संन्यास छोड़ना पड़ता है।
आखिरी
में वही बच जाता है,
जो सबका समझने वाला है। निर्विचार जो साक्षी बच जाता है, उसी को धर्म कहो, उसी को परमात्मा कहो, मोक्ष कहो, निर्वाण कहो—जो प्रीतिकर लगे शब्द,
वह दो। लेकिन वह तुम्हारा अंतर्तम स्वभाव है।
चौथा प्रश्न:
आप राजनीति के इतने विरोध में क्यों हैं?
राजनीति के मैं
विरोध में नहीं हूं। राजनीति तो लक्षण है। विरोध में हूं हीनता की ग्रंथि के, वह जो
इफीरियारिटी काप्लेक्स है आदमी में, उसके। और राजनीति उसी
रोग का लक्षण है।
जो
व्यक्ति जितनी हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होता है, उतने ही पद का आकांक्षी
होता है। जो व्यक्ति जितनी हीनता की ग्रंथि से भरा होता है, उतना
ही धन का आकांक्षी होता है।
समझना।
हीनता की ग्रंथि का अर्थ होता है. भीतर तो तुम्हें लगता है—मैं कुछ भी नहीं हूं, ना—कुछ,
दो कौड़ी का। मगर यह बात अखरती है। यह खटकती है—मैं और दो कौड़ी का!
यह बात मानने का मन नहीं होता। दिखा दूंगा दुनिया को कि मैं भी कुछ हूं। हो जाऊंगा
प्रधानमंत्री, कि राष्ट्रपति। कि कमा लूंगा दुनिया की
संपत्ति और दिखा दूंगा दुनिया को कि मैं कुछ हूं।
तुम्हारे
भीतर जो तुम्हें लगता है. दो—कौड़ीपन, अर्थहीनता, रिक्तता,
उसको भरने का उपाय है राजनीति। राजनीति यानी महत्वाकांक्षा; धन की हो कि पद की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और कभी—कभी
त्याग की भी होती है। इससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता।
जब
तक तुम इस बात को सिद्ध करने में लगे हो दुनिया के सामने कि मैं कुछ हूं तब तक एक
बात ही सिद्ध होती है कि तुम भीतर जानते हो कि मैं ना—कुछ हूं। नहीं तो सिद्ध ही
क्यों करोगे?
लाओत्सु
का प्रसिद्ध वचन है जो सिद्ध करने चलता है, वह सिर्फ अपने को असिद्ध करता है।
जो दूसरे को अपने मत में रूपांतरित करना चाहता है, लाओत्सु
ने कहा है, वह सिर्फ इतना ही बताता है कि उसे खुद भी अपने मत
पर भरोसा नहीं है। क्या मतलब है लाओत्सु का? और लाओत्सु जैसी
आंखें कभी—कभी होती है। बड़ी गहरी आंख है।
लाओत्सु
का वचन है. वन हू ट्राइज टु कनव्हिन्स, डज नाट कनव्हिन्स। उसी चेष्टा में
कि मैं सिद्ध कर दूं कि मैं यह हूं साफ हो रहा है कि इस आदमी को खुद ही भरोसा नहीं
है कि यह है, नहीं तो सिद्ध करने की क्या जरूरत!
जिसको
साफ हो गया कि मैं कौन हूं वह मस्ती से चलता है। उसे कुछ सिद्ध नहीं करना है। वह
सिद्ध हो ही गया। उसको ही हमने सिद्ध कहा है।
राजनीतिज्ञ
सिद्ध करने की कोशिश करता है और सिद्ध नहीं कर पाता। और सिद्ध सिद्ध है, सिद्ध
करने की कोशिश नहीं करनी पड़ती।
राजनीति
हीनता की ग्रंथि से पैदा होती है।
पश्चिम
का एक बड़ा मनोवैज्ञानिक हुआ है एडलर। उसने सारे मनोविज्ञान को हीनता की ग्रंथि पर ही
खड़ा किया है। पद का आकांक्षी सिर्फ इतना ही बताता है कि मैं भीतर दीन हूं मुझे
बड़े सिंहासन पर बिठाओ। मैं भीतर बहुत डरा हुआ हूं। मुझे ऐसे सिंहासन पर बिठाओ कि
मैं दुनिया के ऊपर दिखायी पड़ सकूं!
तुम्हारे
बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ बड़ी हीनताओं से घिरे होते हैं।
मैंने
सुना है एक छोटे कद का नेता और नेता सभी छोटे कद के होते हैं। चाहे शरीर का कद बडा
भी हो, भीतर का कद छोटा होता है। सब नेता लाल बहादुर शास्त्री होते हैं! सब। नहीं
तो नेता ही नहीं होंगे।
एक
छोटे कद का नेता भाषण देर हा था। भीड़ में से आवाज आयी आप नजर नहीं आ रहे हैं! खड़े
होकर भाषण दीजिए!
नेता
ने कहा. मैं खड़े होकर ही भाषण कर रहा हूं।
भीड
में से फिर आवाज आयी. अच्छा हो, कृपा कर के मेज पर खडे हो जाइए। महोदय! नेता ने
कहा : मैं मेज पर ही खड़ा हुआ हूं।
नेता
छोटे कद का होता ही है। उसके भीतर ही उसे साफ है कि मैं ना—कुछ। इसलिए बाहर प्रमाण
जुटा रहा है कि देखो मेरी शक्ति! मेरा धन! मेरा पद! देखो मुझे। वह तुम्हें थोड़े ही
समझा रहा है वह अपने को भी समझा रहा है। वह यह कर रहा है कोशिश कि जब इतने लोग मुझे
मानते है, तो जरूर मुझमें कुछ होना चाहिए। नहीं तो इतने लोग मुझे मानते क्यों! जब इतने
लोग मुझे पूजते हैं, इतनी फूल—मालाएं आती हैं, तो जरूर मेरे भीतर कुछ होना चाहिए। नहीं तो क्या कारण था कि इतने लोग.!
हालाकि
यह भ्रम जल्दी टूटेगा। एक दफा पद से उतरो, पता चलेगा कि वह जो बहुत बड़ी
तस्वीर दिखायी पड़ती थी, रोज छोटी होती जाती है, छोटी होती जाती है। यह पद से उतरने पर पता चलता है कि जो तुम्हारे पास फूल—मालाएं
लेकर आते थे, वे वे ही लोग हैं, जो अब
जूतों की मालाएं लेकर आने लगे। ये ही लोग फूल फेंकते थे, ये
ही लोग पत्थर फेंकने लगते हैं। ये वे ही लोग हैं। और यह स्वाभाविक है कि ये पत्थर
फेंकें; क्योंकि अब इनको फूल दूसरों पर फेंकने पड़ते हैं।
और
जब भी कोई फूल फेंकता है राजनेता पर, तो भीतर तो वह देखता है .दो बातें
घटती हैं उसको। मानता है कि तुम्हारे पास ताकत है। लेकिन यह भी भीतर अनुभव होता है
कि ठीक है, आज तुम पर है तो ठीक है; फिंकवा
लो फूल। कभी तो उतरोगे नीचे मंच से, फिर देख लेंगे। फिर वही
आदमी बदला लेता है। इसलिए पद पर राजनेता ऐसा सम्मानित होता है, और पद से उतरते ही एकदम अपमानित हो जाता है।
मगर
राजनेता जब पद पर होता है,
तो उसको अपने भीतर भरोसा आ जाता है—कि ठीक। तो मेरा यह खयाल गलत था
कि मैं ना—कुछ हूं। मैं कुछ हूं। देखो, सारी दुनिया मुझे
मानती है!
यह
भ्रांति है। तुम्हीं अपने को नहीं मानते, सारी दुनिया के मानने से क्या होगा?
तुम ही अपने को नहीं जानते, सारी दुनिया
तुम्हें जान ले, इससे क्या होगा? यह
झूठी प्रवंचना है। लेकिन समझने की कोशिश करना तुम अपने को नहीं जानते, इस बात को भुलाने के लिए तुम इस कोशिश में लग जाते हो कि दुनिया मुझे जान
ले। सब अखबारों में मेरी तस्वीरें हों। सारे रेडियो पर मेरा व्याख्यान हो। सारे
टेलीविजन पर मैं प्रदर्शित किया जाऊं।
यह
तुम क्या कर रहे हो?
तुम्हारे भीतर एक खयाल जग रहा है कि मैं अपने को नहीं जानता। बजाय
इसके कि तुम अपने को जानने में लगो, तुम एक झूठे रास्ते पर
चल रहे हो कि मैं दूसरों को जना दूं कि मैं कौन हूं। तुम्हें खुद ही पता नहीं है!
यही फर्क है। राजनीति का अर्थ है : दूसरे जान लें कि मैं कौन हूं। और धर्म का अर्थ
है. मैं जान लूं कि मैं कौन हूं। धर्म अंतर्यात्रा है। राजनीति बहिर्यात्रा है।
राजनीति
के मैं विरोध में सिर्फ इसलिए दिखायी पड़ता हूं कि भीतर जो हीनता की ग्रंथि है, वह जो रोग
का असली कारण है, जहां से जहर उठता है, वह तोड़ना जरूरी है।
और
ध्यान रखना. जब तक तुम्हारे सामने साफ न हो जाए कि राजनीति धर्म का झूठा परिपूरक
है, तब तक तुम धार्मिक न हो सकोगे। तब तक तुम धर्म के नाम पर भी राजनीतिज्ञ ही
हो जाओगे। तुम त्याग कर दोगे और दुनिया को दिखाने लगोगे कि मुझसे बड़ा त्यागी कोई
नहीं है। सिद्ध कर दूंगा कि मुझसे बड़ा त्यागी कोई नहीं है। तुम नग्न खड़े हो जाओगे
सब घर—द्वार छोड़कर, पत्नी—बच्चे —सुविधाएं छोड़कर; उपवास करोगे, भूखे रहोगे; शरीर
को गलाओगे—मगर भीतर एक ही वासना रहेगी कि दुनिया जान ले कि मुझसे बड़ा त्यागी कोई
भी नहीं है।
इसमें
कुछ फर्क नहीं है। यह वही का वही खेल है। तुम अभी भी दूसरों में उत्सुक हो, दूसरे जान
लें कि मैं कौन हूं!
जब
तक तुम्हारी उत्सुकता दूसरे में है—कि दूसरा मुझे जान ले कि मैं कौन हूं—तब तक तुम
राजनीतिज्ञ हो,
राजनीति में होओ या न होओ। जिस दिन तुम सोचोगे, बदलोगे अपनी यात्रा को, कहोगे कि पहले मैं तो जान
लूं कि मैं कौन हूं।
और
दूसरा जानेगा ही कैसे मुझे?
कोई तो मेरे भीतर नहीं जा सकता, सिवाय मेरे।
कोई तो मुझे नहीं देख सकता, सिवाय मेरे। लोग तो मुझे बाहर से
ही देखेंगे। मेरी रूप—रेखा देखेंगे, मेरी अंतरात्मा तो नहीं।
मैं ही कहां दूसरों की अंतरात्मा देख पाता हूं? लोगों का रूप—रंग
देख लेता हूं; चेहरा देख लेता हूं; कपड़े
देख लेता हूं; धन—पद—प्रतिष्ठा देख लेता हूं; लेकिन भीतर कौन विराजमान है, वह तो मुझे भी नहीं
दिखायी पड़ता। तो कोई मेरे भीतर जाकर कैसे देख सकेगा! वहा तो जाने के लिए सिर्फ एक
को ही आज्ञा है—वह मैं हूं। वहा तुम अपने संगी—साथी को भी नहीं ले जा सकते,
अपने प्रेमी को भी नहीं ले जा सकते।
और
पहले मैं तो जान लूं कि मैं कौन हूं; फिर अगर कोई जानेगा मुझे, तो समझ में पड़ने वाली बात है। लेकिन जो अपने को जान लेता है, उसे दूसरों को जनाने की आकांक्षा ही समाप्त हो जाती है। उसे तो मिल गया
परमधन। उसे तो मिल गया परमपद। उसे अब कोई जाने न जाने, उसे
चिंता ही नहीं है। वह विचार ही समाप्त हो गया। वह जाग गया। सपने के बाहर आ गया।
राजनीति
एक सपना है सोए हुए आदमी का। धर्म जागरण की कला है।
राजनीति
से मुझे कुछ लेना—देना नहीं है। और कभी—कभी मैं राजनीतिज्ञों के खिलाफ कुछ कह देता
हूं उससे भी तुम यह मत समझ लेना कि मैं उनके खिलाफ हूं। वह तो केवल उदाहरण है।
उनसे व्यक्तिगत रूप से मुझे कुछ लेना—देना नहीं है। वे नहीं होंगे तो कोई और होगा
उनकी जगह। इतने रुग्ण लोग हैं दुनिया में कि क्या फर्क पड़ता है। इंदिरा नहीं, तो मोरारजी
होंगे। मोरारजी नहीं, तो कोई और आ जाएंगे। कोई न कोई होगा।
इतने बीमार लोग हैं, और इतने पद के आकांक्षी हैं! कोई न कोई
होगा।
इससे
क्या फर्क पड़ता है,
कौन कुर्सी पर बैठा है! कोई न कोई नासमझ बैठेगा। नासमझों में जो
सबसे ज्यादा नासमझ होगा, वह बैठेगा। क्योंकि यह दौड ऐसी है
कि इसमें समझदारों का काम नहीं है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक दुकान पर कुछ सामान खरीदने गया था। कोई त्यौहार के दिन थे और
दुकानदार ने चीजों के दाम काफी कम कर दिए थे। कम किए हों या न किए हों, कम से कम
बाहर उसने तख्ती तो लगा दी थी कि जो चीज दस रुपए की है, वह
पांच रुपए में बिक रही है। चाहे वह पहले भी पांच रुपए में बिकती रही हो!
मगर
भीड़ भारी हो गयी थी। खासकर स्त्रियां ऐसी जगह जरूर पहुंच जाती हैं। सस्ती कोई चीज
मिलती हो, तो वे फिर यह भी नहीं सोचतीं कि अपने को इसकी जरूरत भी है या नहीं! सस्ती
मिल रही हो, तो वे बचा ही लेती हैं पैसा उतना!
बड़ी
भीड थी। मुल्ला अकेला पुरुष था। लेकिन पत्नी ने उसको भेजा था, तो आना
पड़ा था। पत्नी जरा बीमार थी, खुद नहीं आ सकी। और सारे
मोहल्ले की पत्नियां जा रही थीं, स्त्रियां जा रही थीं! तो
उसने कहा मुल्ला! तुम्हें जाना ही पड़ेगा। सारा गांव जा रहा है, हम ही चूक जाएंगे। मैं बीमार पड़ी हूं। अभागा है दिन आज कि मैं बीमार हूं।
तुम चले जाओ।
जाना
पड़ा था। बड़ी देर खड़ा रहा। स्त्रियों की भीड़— भक्का! उसमें अकेला पुरुष! ज्यादा
धक्कम— धुक्की भी नहीं कर सके। और स्त्रिया खूब धक्कम— धुक्की कर रही हैं। और वे जा
रही हैं और एक।
दो
घंटे देखता रहा। उसने सोचा. यह तो दिनभर बीत जाएगा, मैं दुकान के भीतर ही नहीं
पहुंच पाऊंगा! तो उसने सिर नीचे झुकाया और दोनों हाथों से स्त्रियों को चीरना शुरू
किया, जैसा आदमी पानी में तैरता है; ऐसा
नीचे सिर झुकाकर वह एकदम घुसा!
स्त्रियां
बड़ी चौंकी। दो—चार ने उसको धक्का भी मारा और कहा नसरुद्दीन कैसे करते हो? एक सज्जन
पुरुष की तरह व्यवहार करो!
नसरुद्दीन
ने कहा : सज्जन पुरुष की तरह व्यवहार दो घंटे से कर रहा हूं। अब तो एक सवारी का
व्यवहार करूंगा! अब सज्जन से काम चलने वाला नहीं है। अब तो सन्नारी का व्यवहार
करूंगा, तो ही पहुंच पाऊंगा, नहीं तो नहीं पहुंच सकता।
राजनीति
में जो जितना मूढ़ हो,
जितना पागल हो और जितना सिर घुसाकर पड जाए एकदम पीछे, वही पहुंच पाता है। समझदार तो कभी के घर लौट आएंगे, कि
भई, यहां अपना बस नहीं है। यह अपना काम नहीं है। समझदार तो
अपनी मालाएं ले लेंगे और राम—राम जपेंगे। यहां अपना काम नहीं है! नासमझ..!
सारी
दुनिया भरी है नासमझों से। कोई तो होगा। इसलिए व्यक्तियों से मुझे कुछ लेना—देना
नहीं है। व्यक्ति तो सिर्फ उदाहरण मात्र हैं।
और
राजनीति से भी सीधा मुझे कोई विरोध नहीं है। विरोध है तो इसीलिए कि वह धर्म का
झूठा परिपूरक है।
लोग
समझें कि धर्म क्या है,
ताकि अपने भीतर के आनंद को उपलब्ध हो सकें। और यह तभी हो सकता है,
जब वे राजनीति से मुक्त हो जाएं। यह तभी हो सकता है, जब उनकी महत्वाकाक्षा गिर जाए।
इसलिए
विरोध है।
पांचवां
प्रश्न:
तेरो
तेरे पास है,
अपने माहि टटोल।
राई
घटै न तिल बढ्रै,
हरि बोलौ हरि बोल।।
भगवान, इस पद का
भाव समझाने की कृपा करें।
इस पद का वही भाव
है, जो कल बुद्ध की कथा का भाव था। अत्ता हि अत्तनो नाथों—आदमी अपना मालिक खुद
है, स्वयं अपना मालिक है। और जब तक यह सत्य दिखायी न पड़ जाए,
तब तक व्यर्थ ही भिखारी बना रहता है—व्यर्थ ही, अकारण ही।
तुम
भिखारी बने हो,
भिखारी होने के कारण नहीं; तुम्हें एक सत्य का
स्मरण भूल गया है कि तुम मालिक हो—अत्ता हि अत्तनो नाथो—तुम अपने मालिक स्वयं हो।
'तेरो तेरे पास है...।’
जिसकी
तुम खोज कर रहे हो,
उसे तुम साथ ही लेकर आए हुए हो, उसे तुमने कभी
खोया ही नहीं।
फिर
लाओत्सु का प्रसिद्ध वचन है कि जो खो जाए, वह धर्म नहीं है। जो न खोए,
वही तो स्वभाव है; वही धर्म है।
मुझसे
लोग पूछते हैं : ईश्वर को खोजना है! मैं उनसे पूछता हूं. कब खोया? कहां खोया?
अगर खोया ही नहीं है, तो खोजने जाओगे तो भटक
जाओगे। क्योंकि जिसे खोया ही नहीं, उसे खोजोगे कैसे!
ईश्वर
को खोजना नहीं होता,
सिर्फ जागकर देखना पड़ता है अपने भीतर; वहां वह
मौजूद है।
'तेरो तेरे पास है......।
जिसको
तुम तलाश रहे हो,
वह तुम्हारे भीतर है। चूक रहे हो, क्योंकि
बाहर तलाश रहे हो।
राबिया
के जीवन की प्रसिद्ध कथा है। एक सांझ लोगों ने देखा कि वह घर के बाहर कुछ खोज रही
है। की औरत, की फकीरन! पास—पड़ोस के लोग आ गए। वे भी कहने लगे कि हम साथ दे दें। क्या
खो गया? उसने कहा मेरी सुई गिर गयी है। वे भी खोजने लगे
सूरज
ढलने लगा। रात उतरने लगी। सुई जैसी छोटी चीज, बड़ा रास्ता, कहां
खोजें? एक समझदार आदमी ने कहा कि राबिया, सुई गिरी कहां है? ठीक—ठीक जगह का कुछ पता हो,
तो शायद मिल जाए। ऐसे तो कभी नहीं मिलेगी। रास्ता बड़ा है, और अब तो रात भी उतरने लगी!
राबिया
ने कहा. वह तो पूछो ही मत कि कहां गिरी! सुई तो घर के भीतर गिरी है। तब तो वे सब, जो खोजने
में संलग्न हो गए थे, खड़े हो गए। उन्होंने कहा. हद्द हो गयी!
तेरे साथ हम भी पागल बन रहे हैं। अगर सुई घर के भीतर गिरी है, तो यहां किसलिए खोज रही है? तेरा होश खो गया! पागल
हो गयी है? बुढ़ापे में सठिया गयी है?
राबिया
ने कहा नहीं;
मैं वही कर रही हूं जो सारी दुनिया करती है। सुई तो भीतर गिरी है,
लेकिन भीतर रोशनी नहीं है—गरीब औरत, दीया नहीं
है—बाहर रोशनी थी, तो मैंने सोचा, बाहर
ही खोजूं। जहां रोशनी है, वहीं खोजूं।
लोग
कहने लगे. यह तो हमारी समझ में आता है कि बिना रोशनी के कैसे खोजेगी। लेकिन जब
गिरी ही नहीं है सुई यहां,
तो यहां कैसे खोजेगी?
उसने
कहा. यही तो मेरी समझ में नहीं आता। तुम सबको भी मैं बाहर खोजते देखती हूं। और
जिसे तुम खोज रहे हो,
वह भीतर बैठा हुआ है! शायद जिस कारण से मैं सुई बाहर खोज रही हूं
उसी कारण से तुम भी बाहर खोज रहे हो।
आंखों
की रोशनी बाहर पड़ती है,
हाथ बाहर फैलते हैं, कान बाहर सुनते हैं। सारी
रोशनी इंद्रियों की बाहर पड़ती है। शायद इसीलिए आदमी बाहर खोजने निकल जाता है। और
फिर बाहर का तो कोई अंत नहीं है; खोजते जाओ, खोजते जाओ। पृथ्वी चुक जाए, तो हिमालय के शिखरों पर
खोजो। हिमालय के शिखर चुक जाएं, तो चांद पर खोजो। अब मंगल पर
खोजो। और बढ़ते जाओ! और बढ़ते जाओ! कोई अंत नहीं है इस ब्रह्माण्ड का। खोजते—खोजते
समाप्त हो जाओगे। और मजा यह है कि जिसे तुम खोज रहे थे, वह तुम्हारे
भीतर बैठा हंस रहा है।
'तेरो तेरे पास है, अपने माहि टटोल।’
टटोल
शब्द भी बड़ा अच्छा है। क्योंकि इंद्रियां तो बाहर हैं, भीतर
अंधेरा है, टटोलना पड़ेगा।
समझो
कि राबिया अगर भीतर खोजे अपनी सुई, तो दिखायी तो कुछ नहीं पड़ेगा। बैठ
जाएगी जमीन पर और टटोलेगी। अंधेरा है, लेकिन अगर सुई जहां
गिरी है, वहा अंधेरे में भी टटोली जाए, तो मिल सकती है। और जहां गिरी ही नहीं है, वहां हजार
सूरज खड़े हों, सब रोशन हो, तो भी कैसे
मिलेगी?
टटोलना
शब्द को खयाल रखना। टटोलने का मतलब होता है पक्का पता नहीं है, कहां है।
दिखता कुछ नहीं। सब अंधेरा है।
ध्यान
जब तुम करते हो,
तब तुम्हें लगेगा सदा अंधेरा हो गया।
किसी
ने पूछा है एक प्रश्न कि आप कहते हैं. भीतर जाओ, आप कहते हैं. आत्म—दर्शन
करो। जब भी मैं ध्यान करता हूं तो अंधेरा ही अंधेरा दिखायी पड़ता है! ठीक हो रहा
है। ध्यान शुरू हो गया। अंधेरा दिखायी पड़ने लग गया, बड़ी घटना
घट गयी। चलो, कुछ तो दिखायी पडा। भीतर का अंधेरा भी बाहर की
रोशनी से बेहतर है। चलो, कुछ तो हाथ लगा। अंधेरा सही। आज
अंधेरा हाथ लगा है,
कल रोशनी हाथ लग
जाएगी। क्योंकि अंधेरा और रोशनी दो नहीं हैं। अंधेरे से ही जब ठीक से पहचान हो
जाती है, तो रोशनी बन जाती है। अंधेरा रोशनी ही है, जिससे हम
अपरिचित हैं।
तुमने
देखा न, कभी—कभी तीव्र रोशनी भी अंधेरा मालूम होती है। सूरज की तरफ देखा कभी
क्षणभर को? और फिर चारों तरफ देखो। सब अंधेरा हो जाता है।
भीतर
भी इतनी विराट रोशनी है,
इसलिए अंधेरा मालूम होता है। आंखें चुंधिया जाती हैं। और तुमने यह
रोशनी कई जन्मों से नहीं देखी है। इसलिए जब पहली दफा यह रोशनी आंख पर पड़ती है,
एकदम अंधेरा छा जाता है।
घबड़ाओ
मत। तुम्हारे हाथ में,
जिसकी तुम खोज कर रहे हो, उसका पन्त आ ही गया।
यही तो चाहिए; अंधेरा दिखने लगा। अब टटोलो।
'तेरो तेरे पास है, अपने माहि टटोल।
राई
घटै न तिल बढै......।’
तुम्हारे
भीतर जो है, वह न तो राईभर घटता है, न राईभर बढ़ता है। वह तो जैसा
है वैसा है। जैसा का तैसा, जस का तस। जब तुम आए थे पृथ्वी पर,
तब भी इतना ही था, जितना अब है, और जब तुम जाओगे पृथ्वी से, तब भी उतना ही होगा,
जितना अब है। जितना तब था—जन्म के समय।
इस
संसार के अंधकार में भटके हुए लोगों के पास भी उतना ही है, जितना
बुद्धों के पास।
'राई घटै न तिल बढै.......।’
परमात्मा
के संबंध में हम सब समान अधिकारी हैं। लेकिन कुछ हैं, जिन्होंने
अपने अधिकार को पहचान लिया और परम आनंद में विराजमान हो गए। और कुछ हैं, जिन्होंने अपने अधिकार को नहीं पहचाना; भिखमंगे बने
भीख मांग रहे हैं।
यह
प्यारा वचन है 'राई घटै न तिल बढै.......।’
न
कुछ घटता, न बढ़ता। न कुछ पाना है, न कुछ खोना है। जो है,
जैसा है, वैसा ही जान लेना है।
'हरि बोलौ हरि बोल।'
इसकी
पहचान हो जाए,
तो ही हरि— भजन। यह जो राई न घटता न बढ़ता, यह
जो तुम्हारे भीतर बैठा है, जो टटोलने से ही मिलेगा—इसकी मिलन
हो जाए, इससे पहचान हो जाए, यह
तुम्हारे हाथ लग जाए—तब एक हरि—बोल उठता है। वह हरि—बोल असली भजन है।
यह
जो तुम बैठकर राम—राम जपते रहते हो, इस भजन का कोई मूल्य नहीं है।
तुम्हें न राम का पता.। तुम्हें अपना पता नहीं, राम का क्या
खाक पता होगा! तुम्हें अभी काम का भी पता नहीं है; राम का तो
क्या पता होगा! तुमने अभी बंधन भी नहीं पहचाने, मोक्ष को तो
तुम कैसे पहचानोगे?
अभी
तुम राम—राम जपते हो,
क्योंकि तुम सुनते हो कि जपने से शायद कुछ हो जाए। जपने से कुछ नहीं
होता; कुछ होने से जप होता है। जब कुछ हो जाता है, तब सुगंध उठती है; तब संगीत बिखरता है।
छटवां प्रश्न:
मृत्यु क्या है?
मृत्यु है ही नहीं।
मृत्यु एक झूठ है—सरासर झूठ—जो न कभी हुआ, न कभी हो सकता है। जो है, वह सदा है। रूप बदलते हैं। रूप की बदलाहट को तुम मृत्यु समझ लेते हो।
तुम
किसी मित्र को स्टेशन पर विदा करने गए; उसे गाड़ी में बिठा दिया। नमस्कार
कर ली। हाथ हिला दिया। गाड़ी छूट गयी। क्या तुम सोचते हो, यह
आदमी मर गया? तुम्हारी आंख से ओझल हो गया। अब तुम्हें दिखायी
नहीं पड़ रहा है। लेकिन क्या तुम सोचते हो, यह आदमी मर गया?
बच्चे
थे, फिर तुम जवान हो गए। बच्चे का क्या हुआ? बच्चा मर
गया? अब तो बच्चा कहीं दिखायी नहीं पड़ता! जवान थे, अब के हो गए। जवान का क्या हुआ? जवान मर गया?
जवान अब तो कहीं दिखायी नहीं पड़ता!
सिर्फ
रूप बदलते हैं। बच्चा ही जवान हो गया। जवान ही बूढ़ा हो गया। और कल जीवन ही मृत्यु
हो जाएगा। यह सिर्फ रूप की बदलाहट है।
दिन
में तुम जागे थे,
रात सो जाओगे। दिन और रात एक ही चीज के रूपांतरण हैं। जो जागा था,
वही सो गया।
बीज
में वृक्ष छिपा है। जमीन में डाल दो, वृक्ष पैदा हो जाएगा। जब तक बीज
में छिपा था, दिखायी नहीं पड़ता था। मृत्यु में तुम फिर छिप
जाते हो, बीज में चले जाते हो। फिर किसी गर्भ में पड़ोगे;
फिर जन्म होगा। और गर्भ में नहीं पड़ोगे, तो
महाजन्म होगा, तो मोक्ष में विराजमान हो जाओगे।
मरता
कभी कुछ भी नहीं।
विज्ञान
भी इस बात से सहमत है। विज्ञान कहता है. किसी चीज को नष्ट नहीं किया जा सकता। एक
रेत के छोटे से कण को भी वितान की सारी क्षमता के बावजूद हम नष्ट नहीं कर सकते।
पीस सकते हैं,
नष्ट नहीं कर सकते। रूप बदलेगा पीसने से तो। रेत को पीस दिया,
तो और पतली रेत हो गयी। उसको और पीस दिया, तो
और पतली रेत हो गयी। हम उसका अणु विस्फोट भी कर 'सकते हैं।
लेकिन अणु टूट जाएगा, तो परमाणु होंगे। और पतली रेत हो गयी।
हम परमाणु को भी तोड़
सकते हैं, तो फिर
इलेक्ट्रान, न्द्वान, पाजिट्रान रह
जाएंगे। और पतली रेत हो गयी! मगर नष्ट कुछ नहीं हो रहा है। सिर्फ रूप बदल रहा है।
विज्ञान
कहता है पदार्थ अविनाशी है। विज्ञान ने पदार्थ की खोज की, इसलिए
पदार्थ के अविनाशत्व को जान लिया। धर्म कहता है. चेतना अविनाशी है, क्योंकि धर्म ने चेतना की खोज की और चेतना के अविनाशत्व को जान लिया।
विज्ञान
और धर्म इस मामले में राजी हैं कि जो है, वह अविनाशी है।
मृत्यु
है ही नहीं। तुम पहले भी थे; तुम बाद में भी होओगे। और अगर तुम जाग जाओ,
अगर तुम चैतन्य से भर जाओ, तो तुम्हें सब
दिखायी पड़ जाएगा जो—जो तुम पहले थे। सब दिखायी पड जाएगा, कब
क्या थे।
बुद्ध
ने अपने पिछले जन्मों की कितनी कथाएं कही हैं! तब ऐसा था। तब ऐसा था। तब वैसा था।
कभी जानवर थे;
कभी पौधा थे, कभी पशु थे; कभी पक्षी। कभी राजा, कभी भिखारी। कभी स्त्री,
कभी पुरुष। बुद्ध ने बहुत कथाएं कही हैं।
वह
जो जाग जाता है,
उसे सारा स्मरण आ जाता है।
मृत्यु
तो होती ही नहीं। मृत्यु तो सिर्फ पर्दे का गिरना है।
तुम
नाटक देखने गए। पर्दा गिरा। क्या तुम सोचते हो, मर गए सब लोग जो पर्दे के पीछे हो
गए! वे सिर्फ पर्दे के पीछे हो गए। अब फिर तैयारी कर रहे होंगे। मूंछ इत्यादि
लगाएंगे; दाढ़ी वगैरह लगाएंगे, लीप—पोत
करेंगे। फिर पर्दा उठेगा। शायद तुम पहचान भी न पाओ कि जो सज्जन थोड़ी देर पहले कुछ
और थे, अब वे कुछ और हो गए हैं! तब वे बिना मूंछ के थे;
अब वे मूंछ लगाकर आ गए हैं। शायद तुम पहचान भी न पाओ।
बस, यही हो
रहा है। इसलिए संसार को नाटक कहा है, मंच कहा है। यहां रूप
बदलते रहते हैं। यहां राम भी रावण बन जाते हैं और रावण भी राम बन जाते हैं। ये
पर्दे के पीछे तैयारियां कर आते हैं। फिर लौट आते हैं, बार—बार
लौट आते हैं।
तुम
पूछते हो 'मृत्यु क्या है?'
मृत्यु
है ही नहीं। मृत्यु एक भांति है। एक धोखा है।
सरूरे—दर्द गुदाजे—फुगा
से पहले था
सरूदे —गम मेरे
सोजे—बया से पहले था
मैं आबोगिल ही अगर
हूं बकौदे—शमो—सहर
तो कौन है जो
मकानो —जमी से पहले था
ये कायनात बसी थी
तेरे तसव्वर में
वजूदे हर दो जहां
कुन फिकां से पहले था
अगर तलाश हो सच्ची
सवाल उठते हैं
यकीने—रासिखो —महकम
गुमां से पहले था
तेरे खयाल में
अपना ही अक्से —कामिल था
तेरा कमाल मेरे
इप्तिहा से पहले था
मेरी नजर ने तेरे
नक्यो —पा में देखा था
जमाले—कहकशा कहकशा
से पहले था
छुपेगा ये तो फिर
ऐसा ही एक उभरेगा
इसी तरह का जहां
इस जहां से पहले था
तज्जलियात से रौशन
है चश्मे—शौक मगर
कहां वो जल्वा जो
नामो—निशा से पहले था
सब
था पहले ऐसा ही। फिर—फिर ऐसा ही होगा। यह दुनिया मिट जाएगी, तो दूसरी
दुनिया पैदा होगी। यह पृथ्वी उजड़ जाएगी, तो दूसरी पृथ्वी बस
जाएगी। तुम इस देह को छोड़ोगे, तो दूसरी देह में प्रविष्ट हो
जाओगे। तुम इस चित्तदशा को छोड़ोगे, तो नयी चित्तदशा मिल
जाएगी। तुम अज्ञान छोड़ोगे, तो ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाओगे;
मगर मिटेगा कुछ भी नहीं। मिटना होता ही नहीं।
सब
यहां अविनाशी है। अमृत इस अस्तित्व का स्वभाव है। मृत्यु है ही नहीं।
इसलिए
मजबूरी है, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर न दे सकूंगा कि मृत्यु क्या है? क्योंकि जो है ही नहीं, उसकी परिभाषा कैसे करें! जो
है ही नहीं, उसकी व्याख्या कैसे करें? ऐसा
ही है, जैसे तुमने रास्ते पर पड़ी रस्सी में भय के कारण सांप
देखा। भागे। घबडाए। फिर कोई मिल गया, जो जानता है कि रस्सी
है। उसने तुम्हारा हाथ पकड़ा और कहा. मत घबड़ाओ, रस्सी है।
तुम्हें ले गया; पास जाकर दिखा दी कि रस्सी है। फिर क्या तुम
उससे पूछोगे सांप का क्या हुआ?
नहीं; तुम नहीं
पूछोगे कि सांप का क्या हुआ? बात खतम हो गयी, साप था ही नहीं। क्या हुआ का सवाल नहीं है। क्या तुम उससे पूछोगे अब जरा
सांप के संबंध में समझाइए! वह जो सांप मैंने देखा था, वह
क्या था?
वह
तुम्हारी भ्रांति थी। वह बाहर कहीं था ही नहीं। रस्सी के रूप—रंग ने तुम्हें
भ्रांति दे दी,
सांझ के धुंधलके ने तुम्हें भ्रांति दे दी, तुम्हारे
भीतर के भय ने तुम्हें भांति दे दी। सारी भ्रांतियों ने मिलकर एक सांप निर्मित कर
दिया। वह तुम्हारा सपना था। मृत्यु तुम्हारा सपना है। कभी घटा नहीं। घटता मालूम
होता है। और इसलिए भ्रांति मजबूत बनी रहती है कि जो आदमी मरता है, वह तो विदा हो जाता है। वही जानता है कि क्या है मृत्यु जो मरता है। तुम
तो मर नहीं रहे। तुम बाहर से खड़े देख रहे हो।
एक
डाक्टर मुझे मिलने आए थे। वे कहने लगे मैंने सैकड़ों मृत्युएं देखी हैं। मैंने कहा.
गलत बात मत कहो। तुमने मरते हुए लोग देखे होंगे, मृत्युएं कैसे देखोगे?
मृत्यु तुम कैसे देखोगे? तुम तो अभी जिंदा हो!
तुमने सैकडों मरते हुए लोग देखे होंगे, लेकिन मरते हुए लोग
देखने से क्या होता है! तुम क्या देखोगे बाहर? यही देख सकते
हो कि इसकी सांस धीमी होती जाती है; कि धड़कन डूबती जाती है।
मगर यह थोड़े ही मृत्यु है। यह आदमी अब ठंडा हो गया, यही
देखोगे। मगर इसके भीतर क्या हुआ? इसके भीतर जो चेतना थी,
कहां गयी? उसने कहां पंख फैलाए? वह किस आकाश में उड गयी? वह किस द्वार से प्रविष्ट
हो गयी? किस गर्भ में बैठ गयी? वह कहां
गयी? क्या हुआ?
उसका
तो तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। वह तो वही आदमी कह सकता है। और मुर्दे कभी लौटते
नहीं। जो मर गया,
वह लौटता नहीं। और जो लौट आते हैं, उनकी तुम
मानते नहीं। जैसे बुद्ध यही कह रहे हैं कि मैंने ध्यान में वह सारा देख लिया जो
मौत में देखा जाता है।
इसलिए
तो ज्ञानी की कब को हम समाधि कहते हैं, क्योंकि वह समाधि को जानकर मरा।
उसने ध्यान की परम दशा जानी।
इसलिए
तुमने देखा. हम संन्यासी को जलाते नहीं, गड़ाते हैं। शायद तुमने सोचा ही न
हो कि क्यों! गृहस्थ को जलाते हैं, संन्यासी को गड़ाते हैं।
क्यों? क्योंकि गृहस्थ को अभी फिर पैदा होना है। उसकी देह जल
जाए, यह अच्छा। क्योंकि देह के जलते ही उसकी आत्मा की जो
आसक्ति इस देह में थी, वह मुक्त हो जाती है। जब जल ही गयी;
खतम ही हो गयी, राख हो गयी—अब इसमें मोह रखने
का क्या प्रयोजन है? वह उड़ जाता है। वह नए गर्भ में प्रवेश
करने की तैयारी करने लगता है। पुराना घर जल गया, तो नया घर
खोजता है।
संन्यासी
तो जानकर ही मरा है। अब उसे कोई नया घर स्वीकार नहीं करना है। पुराने घर से मोह तो
उसने मरने के पहले ही छोड़ दिया। अब जलाने से क्या सार? अब जले—जलाए
को जलाने से क्या सार! अब मरे —मराए को जलाने से क्या सार? इस
आधार पर संन्यासी को हम जलाते नहीं, गड़ाते हैं।
और
संन्यासी की हम समाधि बनाते हैं। उसकी कब को समाधि कहते हैं। इसीलिए कि वह ध्यान
की परम अवस्था समाधि को पाकर गया है। वह मृत्यु को जीते जी जानकर गया है कि मृत्यु
झूठ है।
जिस
दिन मृत्यु झूठ हो जाती है,
उसी दिन जीवन भी झूठ हो जाता है। क्योंकि वह मृत्यु और जीवन हमारे
दोनों एक ही भांति के दो हिस्से हैं। जिस दिन मृत्यु झूठ हो गयी, उस दिन जीवन भी झूठ हो गया। उस दिन कुछ प्रगट होता है, जो मृत्यु और जीवन दोनों से अतीत है। उस अतीत का नाम ही परमात्मा है;
जो न कभी पैदा होता, न कभी मरता, जो सदा है।
सातवां प्रश्न:
मैं प्रेम में सब समर्पित कर देना चाहता था, पर यह
नहीं हुआ, क्योंकि मेरा प्रेम ही स्वीकार नहीं हुआ। और अब
दिल एक टूटी हुई वीणा है। मेरी पीड़ा पर भी, जिससे मुझे प्रेम
था, उसे दया नहीं आयी। अब इस टूटे—फूटे जीवन को प्रभु को
कैसे चढाऊं?
बात तो बड़ी ऊंची कह रहे हैं! जब टूटा—फूटा नहीं था, तब चढ़ाया
नहीं। तब सोचा होगा कि अभी तो वीणा ताजी है, जवान है;
अभी किसी सुंदर स्त्री के चरणों में चढ़ाए। अभी कहां प्रभु को बीच
में लाते हो! देखेंगे पीछे। तब यह सोचकर अपने को समझाया होगा कि अभी तो जवान हैं,
अभी भोग लें। यह चार दिन की जिंदगी, फिर क्या
पता! अंतिम समय में याद कर लेंगे प्रभु को। अभी तो यह चार दिन की जो चांदनी है,
इसको लूट लें।
तो
जब तुम जवान थे,
जब हृदय संगीत से भरा था, तब इसलिए नहीं चढ़ाया
कि चढ़ाए किसी सुंदर देह के चरणों में। और अब कहते हो कि टूट—फूट गया। अब क्या
प्रभु के चरणों में चढाएं! तुमने कसम खा रखी है कि प्रभु के चरणों में कभी नहीं
चढाओगे!
अब
तो जागो। टूट—फूट गया दिल,
फिर भी जागते नहीं! अब भी इरादा यही है कि अगर वह देवी मिल जाए भूल—चूक,
तो चढ़ा दें। कब जागोगे?
और
ध्यान रखना : सबके दिल टूट—फूट जाते हैं। तुम्हारी मनोकांक्षा का व्यक्ति मिले, तो टूट—फूट
जाते हैं; न मिले, तो टूट—फूट जाते
हैं। दिल तो टूट ही फूट जाते हैं। यह दिल तो बड़ी कच्ची चीज है। काच की बनी है।
कच्चे काच की बनी है। तुम अकेले रहो, तो टूट जाता है;
तुम संग—साथ में रहो, तो टूट जाता है। यह टूट
ही जाता है। इसकी कोई मजबूती है नहीं। यह मजबूत हो ही नहीं सकता। क्योंकि जिसको
तुम दिल कहते हो, यह गलत के लिए प्रेम है, यह कच्चा ही होगा।
और
तुम इस भ्रांति में मत रहना कि जिससे मुझे प्रेम था, उसने मेरे प्रेम का
प्रत्युत्तर नहीं दिया, इसलिए टूट गया। तो तुम जरा उन
प्रेमियों से पूछना जाकर, जिनको प्रत्युत्तर मिला है,
उनकी क्या हालत है!
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी ने एक दिन उससे कहा कि हमारे पच्चीस साल पूरे हो गए विवाह के।
अब क्या इरादा है,
आज इस पच्चीसवीं वर्षगांठ को कैसे मनाए? मुल्ला
ने कहा अगर पाच मिनट चुप रहें, तो कैसा रहे!
और
क्या! पच्चीस साल की बकवास! यह पत्नी खोपड़ी खा गयी होगी। मुल्ला कह रहा है कि अब
पांच मिनट चुप रह जाएं। जैसा जब कोई मर जाता है न, तो पांच मिनट लोग मौन हो
जाते हैं। ऐसा अगर पांच मिनट मौन होकर मनाए, तो कैसा रहे!
तुम
जरा भुक्त— भोगियों से तो पूछो!
मैंने
सुना है. नयी दुल्हन के हाथ का खाना पति ने पहली बार खाया। मिर्चें बहुत ज्यादा
थीं। फिर भी वह बात नहीं बिगाड़ना चाहता था। कौन बिगाड़ना चाहता है? सुधारते—सुधारते
बिगड़ जाती है, यह और बात है, मगर
बिगाड़ना कोई नहीं चाहता। बिगड़ सबकी जाती है; मगर बिगाड़ना कोई
भी नहीं चाहता।
तो
उस पति ने कहा. बहुत अच्छा खाना बनाया है।
पत्नी
ने कहा : लेकिन आप रो क्यों रहे हैं?
पति
ने कहा. खुशी के कारण!
पत्नी
ने कहा : और दूं?
तो
पति ने कहा : नहीं;
मैं ज्यादा खुशी बर्दाश्त न कर सकूंगा।
भुक्त—
भोगियों से पूछो। रो रहे हैं। और कह रहे हैं, बड़े खुश हैं! उनकी बातों पर मत
जाना। उनकी आंखों को देखना। क्या कह रहे हैं, इसमें तो पड़ना
ही मत, क्योंकि वह तो सब शिष्टाचार है, जो कह रहे हैं। उनकी हालत देखना।
सब
रंग उड़ गया है। सब सपने टूट गए हैं। रस्सी तो कब की जल गयी है, राख रह
गयी है। जरा गौर से देखना। हालांकि वे कहेंगे यही कि हां, हम
बड़े खुश हैं। मगर ऐसी मुर्दगी से कहेंगे कि हम बड़े खुश हैं कि आदमी जब कहता है कि
हम बड़े दुखी हैं, तब भी कुछ जान रहती है उसमें। इनकी खुशी
में उतनी भी जान नहीं है!
जब
कोई कहे, हम बड़े खुश हैं; तो पूछना. फिर रो क्यों रहे हैं?
आदमी
की बड़ी अदभुत दशा है! अदभुत इसलिए कि जो तुम चाहते हो, न मिले तो
तुम तड़फते हो। क्योंकि तुम सोचते हो. मिल जाता ,, तो स्वर्ग
मिल जाता। और मिल जाए, तो तुम तड़फते हो—कि अरे! मिल गया और
कुछ न मिला। और इस संसार में मिलने को कुछ है ही नहीं।
इस
संसार में सभी हारते हैं। जो हारते हैं, वे तो हारते ही हैं; जो जीतते हैं, वे भी हारते हैं। यहां हार भाग्य है।
यहां जीत होती ही नहीं; जीत बदी ही नहीं; किसी की किस्मत में नहीं है।
इस
प्रतीति को जानकर ही तो आदमी अपने भीतर उतरना शुरू होता है—कि यहां बाहर तो हार ही
हार है।
अब
कब तक तुम यह रोना लिए बैठे रहोगे—कि किसी को प्रेम किया था। सब दे देना चाहता था!
भगवान
का धन्यवाद दो कि बच गया। सब दे देते, तो बहुत पछताते। वही तो हालत कई की
हो गयी है। सब देकर बैठे हैं अब! अब भागने का भी रास्ता नहीं मिलता!
और
तुम कहते हो : 'लेकिन यह नहीं हुआ, क्योंकि मेरा प्रेम ही स्वीकार
नहीं हुआ।’
तुम
धन्यभागी हो। तुम झंझट से बच गए। उस स्त्री ने तुम पर बड़ी दया की।
लेकिन
तुम कह रहे हो कि 'इस कारण मेरे हृदय की वीणा टूट गयी।’
उसने
तो छुई नहीं तुम्हारे हृदय की वीणा, टूट कैसे गयी? छूती, तो टूटती। तार—तार बिखेर देती।
अब
तुम कहते हो कि 'लेकिन मेरी पीडा पर भी, जिससे मुझे प्रेम था,
उसे दया न आयी।’
मुझे
लगता है कि तुम्हें प्रेम और दया का भेद स्पष्ट नहीं है। दया आ जाती, तो प्रेम
नहीं होने वाला था। दया प्रेम नहीं है। दया तो बड़ी बीमार चीज है, रुग्ण। दया में तो अपमान है। प्रेम में सम्मान है।
और
यह भी हो सकता है कि तुमने दया मांगी हो, इसलिए प्रेम नहीं मिला। कोई भी
स्वस्थ आदमी दया नहीं करना चाहता। क्योंकि दया का मतलब होता है एक गलत संबंध बनता
है।
एक
मेरे परिचित थे। उन्हें एक विधवा पर बहुत दया आने लगी। विधवाओं पर कई लोगों को दया
आती है! विधवाओं में कुछ खूबी होती है, जो सधवाओं में भी नहीं होती। वे कहने
लगे कि मैं तो विधवा—विवाह करूंगा। मुझे विधवा पर बड़ी दया आती है। मैं तो समाज में
क्रांति करूंगा।
मैंने
उनसे कहा कि तुम ठीक से सोच लो। क्योंकि इससे अगर तुमने विवाह किया, तो फिर यह
सधवा हो जाएगी! फिर विधवा रहेगी नहीं। फिर दया खतम हो जाएगी। फिर तो दया तुम्हें
तभी आ सकती है, जब तुम मरो और इसको फिर विधवा करो! तुम्हें
दया आ रही है विधवा पर। इतनी सधवाएं हैं, तुम्हें किसी पर
दया नहीं आ रही है!
वे
बड़े नाराज हो गए,
क्योंकि वे बड़ी ऊंची बात लाए थे। सामाजिक क्रांति इत्यादि कर रहे थे—विधवा
से विवाह करके।
नहीं
माने। कर लिया विवाह। और छह महीने बाद मुझे कहा कि मुझे क्षमा करना कि मैं नाराज
होकर गया था। आप ठीक ही कहते थे। वह दया थी, वह प्रेम नहीं था। मैं अहंकार का
मजा ले रहा था—कि देखो, विधवा से विवाह करता हूं। और मेरी
जाति में कोई अब तक विधवा से विवाह नहीं किया, तो मैं पहला
आदमी था। मैं दुनिया को दिखाना चाहता था।
फिर
विवाह हो गया। फिर फुग्गे से हवा निकल गयी। अब सामाजिक क्रांति। मैंने कहा हो गयी
सामाजिक क्रांति! अब तुम उसको फिर विधवा बनाओ! किसी और को सामाजिक क्रांति करने
दो! अब तुम कब तक जीओगे?
अब सार भी क्या तुम्हारे जीने में! तुम्हें जो करना था दुनिया में,
तुम कर चुके!
बहुत
बार ऐसा हो जाता है।
कल
एक युवती ने मुझे आकर कहा। फ्रांस से आयी है, संन्यासिनी है। एक मित्र को लेकर
आयी है। कहती थी मैं बहुत दुख में थी, बहुत पीड़ित थी,
परेशान थी। इन मित्र ने मुझ पर बड़ी दया की। दो साल से ये सब तरह से
मेरी सेवा कर रहे हैं। इनके ही सहारे जी रही हूं। अब मैं इसीलिए आयी हूं कि मुझे
दुख के बाहर करें।
मैंने
कहा : मैं दुख के बाहर तो कर दूं। लेकिन ये मित्र चले जाएंगे। उसने कहा : क्यों? और मैंने
कहा तू भी जानती है। अब तू कभी ठीक हो नहीं सकती। क्योंकि अब इन मित्र को रोकने का
एक ही उपाय है कि इनको दया करने की सुविधा रहे। तेरा इसमें न्यस्त स्वार्थ है। अब
तो तेरा इसमें बड़ा भारी स्वार्थ लग गया। अब अगर तू स्वस्थ हो जाए, ठीक हो जाए, तो ये मित्र गए! फिर ये करेंगे क्या?
इनका काम ही खतम हो गया! इनको स्त्री से थोड़े ही मतलब है। स्त्रियां
तो बहुत थीं दुनिया में। इनको मतलब है दया करने से।
और
मित्र बैठे थे बिलकुल अकडे हुए। उन्होंने दया की है! स्वभावत:। दो साल से इसकी
सेवा कर रहे हैं! वे चाहते थे, मैं भी सर्टिफिकेट दूंगा। मेरी बात सुनकर तो
उनकी हालत खराब हो गयी। मगर बात ऐसी ही है।
तुमने
दया मांगी, तो गलत बात मांगी।
ध्यान
रखना. दया मांगनी पड़ती है,
प्रेम दिया जाता है। और जो मलता है, वह गलत
है। वह शुरू से ही गलत हो गया।
तुम्हारी
भूल वहां हो गयी कि तुमने प्रेम मांगा। वह दया है। तुमने भिखारी की तरह हाथ फैलाए।
और प्रेम उन्हीं के पास आता है, जो सम्राट होते हैं।
तुम्हें
देना था प्रेम। और मजा यह है कि मांगो, तो दूसरा दे तो उस पर निर्भर है।
देना हो, तो देने में तुम मालिक हो। कोई तुम्हें रोक नहीं
सकता। मैं सारी दुनिया को प्रेम दे सकता हूं कोई मुझे रोक नहीं सकता। कैसे रोकेगा
कोई मुझे? प्रेम एक भावदशा है, जो मैं
लुटाता चल सकता हूं राह पर लुटाता चल सकता हूं। जो राह पर आए, उसी को प्रेम से देख सकता हूं। जो करीब आए, उसी को
प्रेम दे सकता हूं। जो नहीं है पास, जो दूर है, उसकी तरफ भी मेरे प्रेम की तरंगें उठकर जा सकती हैं।
प्रेम
मांगता ही नहीं। प्रेम तो दान है। तुमने भूल वहीं कर दी, तुमने
प्रेम मांगा। और स्त्री समझदार थी, जो तुमसे हट गयी। तुम गलत
आदमी थे। तुम्हारा चित्त ही रुग्ण था।
अब
तुम कहते हो 'मेरी वीणा टूट गयी! अब मैं प्रभु को कैसे चढाऊं?'
अब
यह तुम्हारी टूटी वीणा और कोई स्वीकार भी कैसे करेगा? अब प्रभु
ही कर लें, तो बहुत! और मैं तुमसे कहता हूं वे कर लेंगे।
उनकी दुकान तो कबाड़ी की दुकान है। वहा तो सब टूटे—फूटे सामान, सब लिए चले आते हैं लोग। वे ले लेते हैं। और वे वीणाओं को सुधारने में
कुशल हैं। और वे मिट्टी को भी छूते हैं, तो सोना हो जाती है।
तुम
अब संकोच न करो। अब टूटी—फूटी वीणा है, कम से कम इसको ही दे दो। और मैं
तुमसे कहता हूं. उनके छूते ही इस वीणा से अपूर्व संगीत उठेगा।
तुम
जिस दरवाजे पर गए थे,
वह गलत था। अब ठीक दरवाजे पर खड़े हो।और अब डर रहे हो! संकोच खा रहे
हो!
मन का यह वासंती
मौसम
सिर्फ तुम्हारे
नाम।
रंगी—रंगी—सी
पाखुडियां हैं
बगिया है मदहोश
और कहानी कहते—कहते
दर्द हुआ खामोश
कजरारी आंखों का
सावन
सिर्फ तुम्हारे
नाम।
मन का यह वासंती
मौसम....
भोली कलियों को
गंधों ने
कर डाला बदनाम
खूब लिखे खत
पुरवैया ने
फूलों को गुमनाम
अलसाए सपनों का
दर्पण
सिर्फ तुम्हारे
नाम।
मन का यह वासंती
मौसम.....
अंधियारे का दामन
थामे
रही ऊंघती रात
सुख—दुख दोनों आज यहां
हैं
सजा रहे बारात
रंग भरे गीतों का
सरगम
सिर्फ तुम्हारे
नाम।
मन का यह वासंती
मौसम......
ऐसा गीत तुमने किसी क्षणभंगुर देह और रूप के
सामने गाया था,
अब यह गीत परमात्मा के सामने गाओ।
मन का यह वासंती
मौसम
सिर्फ तुम्हारे
नाम।
तुमने
बहुत चिट्ठियां लिखी—और— और नामों पर। उन नामों ने तुम्हें कुछ दाद न दी। उनके कुछ
और मंसूबे रहे होंगे,
कुछ और इरादे रहे होंगे। अब इस बात को लेकर रोते मत रहो। अब इस बात
को लेकर बैठे मत रही। शायद तुम जिस स्त्री के लिए रुके हो, उसे
याद भी न हो कि तुमने कभी उसे प्रेम किया था। शायद उसे पता भी न चला हो कि किसी ने
अपने आप ही अपनी वीणा तोड़ ली।
देखते
हैं न कल नंगलकुल अपने आप ही बुद्ध हो गया! ऐसे तुमने अपने आप वीणा तोड़ ली। किसी
ने तोड़ी—वोड़ी नहीं है;
तुमने खुद ही गुस्से में पटक दी। तुम खुद ही तोड़—फोड़ लिए हो। और यह
हो सकता है—अक्सर ऐसा होता है—कि तुम जिसके लिए तोड़—फोड़ लिए हो वीणा, उसे पता भी न चला हो। यह जगत कठोर
है। यहां हृदय नहीं हैं; यहां पाषाण हैं।
बू—ए—गुल, रौशनी
रंग, नग्मा,
सबा
हर हंसी चीज है
मेरे जब्बात के
कल्ल से आशना।
सिर्फ तुमको नहीं
इल्म इस कल्ल का!
मेरा दिल, मेरा
महबूब, मासूम दिल
ओढ़कर दाइमी
क्षइरयों का कफन
दर्द के बेअमां
दश्त में दफ्त है
आज भी मेरी हर
मुज्जरिब सांस है
उस पे नौहाकनां!
आज भी याद है
मुझको उस गर्म
दोपहर का सानिहा
जब तुम्हारी
मुहब्बत के छतनारे से
मेरा दिल, मेरा
महबूब, मासूम दिल
एक प्यासे परिदे
की सूरत गिरा
और मेरी तरफ इक
नजर देख कर
इस तरह मर गया
जैसे इस कल्ल, इस मगें—नागाह
में
मेरा भी हाथ था!
सिर्फ तुमको नहीं
इल्म इस कल्ल का!
बू—ए—गुल, रौशनी,
रंग, नग्मा,
सबा
हर हंसी चीज है
मेरे जज्वात के
कल्ल से आशना।
फूलों को पता है, चांद—तारों को पता है कि
मेरा कल्प हो गया है, कवि कह रहा है।
सिर्फ तुमको नहीं
इल्म इस कल्ल का!
और जिसके लिए हो गया है, जिसकी वजह
से हो गया है, उसको भर पता नहीं है।
बू—ए—गुल
फूलों
की सुगंध।
रौशनी, रंग,
नग्मा, सबा
सुगंधित
हवा।
हर हंसी चीज है
मेरे जज्वात के
कत्त से आशना।
हर
सुंदर चीज को पता है कि मेरी भावना मर गयी।
सिर्फ तुमको नहीं
इल्म इस कल्ल का!
शायद
पता भी न हो। जिसको तुमने चाहा था, उसे पता भी न हो। इस जगत में लोगों
को अपना पता नहीं, दूसरों का पता कैसे हो? लोग बेहोश हैं। लोग चले जा रहे हैं नींद में, तंद्रा
में। कौन आ गया था, सपने में थोड़ी देर छांव डालकर चला गया,
किसको हिसाब है?
तुम
शायद उस स्त्री के सामने पड़ जाओ, वह तुम्हें पहचान भी न सके। शायद पूछे, आप कौन हैं! शायद पूछे कि चेहरा कुछ पहचाना सा मालूम पड़ता है, जैसे कहीं देखा हो!
छोड़ो।
गलत से प्रेम करोगे,
दुख पाओगे। व्यर्थ से प्रेम करोगे, दुख पाओगे।
और फिर तुम्हारे प्रेम करने का ढंग भी बड़ा व्यर्थ और गलत है। तुमने दया मांगी और
चूके। अब परमात्मा के द्वार पर खड़े हो। अब बहुत हो गया यह।
साकी, तेरी
रातें बिछौने के हंगामों से गुजरी हैं
अब तो सुबह करीब
है, अल्लाह का नाम ले।
अब
बहुत हो गया। अब अल्लाह का नाम लो। टूटी—फूटी वीणा पर ही गुनगुनाओ। उसके नाम में
जादू है। उसके नाम के संस्पर्श से वीणा सुधर जाएगी। और जिसमें तुम डूबे जा रहे हो
नाहक, चुल्लभर पानी में डूबे जा रहे हो! वहां कुछ था नहीं डूबने जैसा। डूबना हो,
तो सागर तलाशों।
तुझसे ऐं दरियाए—जिदगी, पार कोई
भी पा न सका
कैसे—कैसे डूब गए
गो घुटनों—घुटनों पानी है।
बड़े
—बड़े यहां डूबे जा रहे हैं—गो घुटनों—घुटनों पानी है। मामला ही क्या था? किसी
स्त्री की आंख अच्छी लग गयी—घुटनों—घुटनों पानी है! किसी के बाल बड़े प्यारे थे—घुटनों—घुटनों
पानी है! किसी की नाक बड़ी लंबी थी, तोते जैसी थी—घुटनो—घुटनों
पानी है! इसमें ही डूब गए! जागो।
आठवां प्रश्न:
भगवान, बौद्ध—साहित्य
कहता है : भगवान श्रावस्ती में विहरते थे। जैन—साहित्य कहता है : भगवान श्रावस्ती
में ठहरे थे। विहरना और ठहरना—इन अलग शब्दों के उपयोग के पीछे क्या प्रयोजन है?
कैसा आश्चर्य कि उपरोक्त प्रश्न देने के पूर्व ही कल उसका उत्तर आ
गया— आपके मुख से!
पूछा है अमृत बोधिधर्म ने।
बोधिधर्म
का ध्यान निरंतर गहरे जा रहा है। बोधिधर्म निरंतर डूब रहे हैं। इस जीवन के जूही
के फूल सूखने के पहले वे पा लेंगे, इसकी पूरी संभावना दिखती है। जैसे—जैसे
तुम्हारा ध्यान गहरा होने लगेगा, वैसे—वैसे तुम्हारे प्रश्न
तुम न भी पूछो, तो मुझ तक पहुंचने लगेंगे। ध्यान गहरा न हो,
तो तुम पूछो भी तो शायद ही मुझ तक पहुंचे। ध्यान गहरा न हो, तो तुम पूछ भी लो, मुझ तक पहुंच भी जाएं, तो शायद मैं उत्तर न दूं। ध्यान गहरा न हो, तुम पूछ
भी लो, मैं उत्तर भी दूं तो तुम तक न पहुंचे। और शायद तुम तक
पहुंच भी जाए, तो तुम उसे समझ न पाओ। समझ लो, तो कर न पाओ।
हजार
बाधाएं हैं—ध्यान न हो तो। और ध्यान हो—तुम न भी पूछो, तो मुझ तक
पहुंच जाएगा। बहुत से ऐसे प्रश्नों के मैं उत्तर देता हूं जो तुमने नहीं पूछे हैं।
लेकिन कोई पूछना चाहता था। किसी ने मुझसे भीतर— भीतर पूछा था। कोई मेरे कानों में
गुनगुना गया था। कागज पर लिखकर नहीं भेजा था।
जैसे—जैसे
तुम्हारा ध्यान गहरा होगा,
वैसे—वैसे तुम्हें यह अनुभव में आने लगेगा। तुम्हारा प्रश्न—इसके
पहले कि तुम पूछो—उसका उत्तर तुम्हें मिल जाएगा। मिल ही जाना चाहिए; नहीं तो तुम्हारे मेरे पास होने का प्रयोजन क्या है!
आखिरी प्रश्न
मेरी पत्नी बहुत कुरूप है। क्या करूं?
गजब
के प्रश्न पूछते हो।
अब
मैं कोई प्लास्टिक सर्जन थोड़े हूं। अगर पत्नी कुरूप है, तो ध्यान
करो पत्नी पर—लाभ होगा। सुंदर स्त्री खतरे में ले जाए; कुरूप
न कभी खतरे में नहीं ले जाए। इस मौके को चूको मत सुकरात से किसी ने पूछा.। एक युवक
आया। उसने कहा : मैं विवाह करना चाहता हूं। मैं करूं या न करूं? आपसे इसलिए पूछने आया हूं कि आप भुक्तभोगी हैं।
सुकरात
को इस दुनिया की खतरनाक से खतरनाक औरत मिली थी, झेनथेप्पे उसका नाम था। मगरमच्छ
कहना चाहिए स्त्री नहीं। मारती थी सुकरात को! सुकरात जैसा प्यारा आदमी! मगर
परमात्मा अक्सर ऐसे प्यारे आदमियों की बड़ी परीक्षाएं लेता है। भेजी होगी झेनथेप्पे
को—कि लग जा इसके पीछे!
मारती
थी। डांटती थी। बीच—बीच में आ जाती। सुकरात अपने शिष्यों को समझा रहे हैं, वह बीच में
खड़ी हो जाती—कि बंद करो बकवास! एक बार तो उसने लाकर पूरी की पूरी केतली गरम पानी
कीं—चाय बना रही थी, क्रोध आ गया—सुकरात समझा रहा होगा कुछ
लोगों को, उसने पूरी केतली उसके सिर पर आकर उंडेल दी। सुकरात
का चेहरा सदा के लिए जल गया। आधा चेहरा काला पड़ गया।
तो
उस युवक ने पूछा इसीलिए आपसे पूछने आया हूं कि आप भुक्तभोगी हैं; आप क्या
कहते हैं ? विवाह
करूं या न करूं? सुकरात ने कहा. करो। अगर स्त्री अच्छी मिली,
तो सुख पाओगे। अगर मेरी जैसी स्त्री मिली, दार्शनिक
हो जाओगे। लाभ ही लाभ है।
अब
तुम कह रहे हो कि कुरूप स्त्री.!
कुरूप
स्त्री पर ध्यान अगर करो,
तो विराग— भाव पैदा होगा। विरागी हो जाओगे। चूको मत अवसर। अगले जन्म
में कहीं भूल—चूक से सुंदर स्त्री मिल जाए, तो झंझटें आएंगी।
मुल्ला
नसरुद्दीन शादी करता था,
तो गांव की सबसे कुरूप स्त्री को चुन लिया। लोग बड़े चौंके। धन है
उसके पास, पद है, प्रतिष्ठा है। सुंदर
से सुंदर स्त्रियां उसके पीछे दीवानी थीं। और इस नासमझ ने सबसे ज्यादा कुरूप
स्त्री को चुन लिया। जिसकी कि गांव के लोग विवाह की संभावना ही नहीं मानते थे—कि
कौन इससे विवाह करेगा! कौन अपने को इतना कष्ट देना चाहेगा? उस
स्त्री की तरफ देखना भी घबड़ाने वाला था!
मुल्ला
ने जब शादी कर ली,
तो लोगों ने पूछा कि यह तुमने क्या किया! उसने कहा. इसके बड़े लाभ
हैं। इसको देख—देखकर मैं संसार की असारता का विचार करूंगा। इसको देख—देखकर बुद्ध
जैसे व्यक्तियों के वचन मेरे खयाल में आएंगे कि सब असार है। यहां कुछ सार नहीं है।
और दूसरा. यह कुरूप स्त्री है, इसकी वजह से मैं सदा निश्चित
रहूंगा। सुंदर स्त्री का कोई भरोसा नहीं है। लोग उसके प्रेम में पड़ जाएं; वह किसी के प्रेम में पड़ जाए! इस पर मैं हमेशा निश्चित रहूंगा। दो—चार साल
भी चला जाऊं कहीं, कोई फिकर नहीं। घर आओ, अपनी स्त्री अपनी है।
और
सुंदर स्त्रियां बाहर से जितनी सुंदर होती हैं, उतनी भीतर से कुरूप हो जाती हैं।
संतुलन रखती हैं। अक्सर ऐसा होगा कि सुंदर स्त्री की जबान कड़वी होगी; व्यवहार कठोर होगा; हेंकड़पन होगा; अहंकार होगा। सुंदर स्त्री भीतर से दुर्गंध देगी। सुंदर पुरुष के साथ भी
यही बात है।
कुरूप
स्त्री—परिपूरक खोजने पड़ते हैं उसे। देह में तो सौंदर्य नहीं है, इसलिए
सेवा करेगी; प्रेम करेगी; चिंता लेगी।
दुर्व्यवहार न करेगी, क्योंकि दुर्व्यवहार तो वैसे ही काफी
हो रहा है! वह तो चेहरे के कारण ही काफी हुआ जा रहा है; देह
के कारण ही काफी हुआ जा रहा है। अब और तो क्या सताना!
तो
अक्सर ऐसा हो जाता है,
कुरूप व्यक्ति भीतर से सुंदर हो जाते हैं। बाहर से सुंदर व्यक्ति
भीतर से कुरूप हो जाते हैं। सुंदर को अकड़ होती है कि तुम नहीं तो कोई और सही!
कुरूप को अकड़ नहीं होती; तुम ही सब कुछ हो!
पर
स्त्री थी तो कुरूप ही। मुल्ला जब उसे घर ले आया, तो मुसलमानों में पूछते हैं;
स्त्री घर आकर पूछती है कि मैं अपना बुर्का किसके सामने उठा सकती
हूं? किसके सामने नहीं उठा सकती हूं? किसके
सामने आशा है?
तो
पता है, मुल्ला ने क्या कहा! मुल्ला ने कहा कि मुझे छोड़कर तू सबके सामने अपना
बुर्का उठा सकती है।
और
यह कहानी
आफिस
का समय होने के कारण बस में अत्यधिक भीड़ थी। सामने की सीट पर एक नव—विवाहित जोड़ा
बैठा था, जिसके सामने एक भद्र पुरुष रॉड पकड़कर खड़े —खड़े सफर कर रहे थे। एक जगह बस
के अचानक झटके से रुकने से भद्र महोदय खुद को सम्हाल न पाए और नव—वधु की गोद में
गिर पड़े।
फिर
क्या था, वह महाशय का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। लगे उन महाशय को बुरा— भला
कहने। लोगों ने समझाने की कोशिश की कि इस हालत में कोई भी गिर सकता था। किंतु वर
महाशय तो और भी ज्यादा भड़क उठे। बोले. बस, बस, आप लोग चुप रहिए। अगर आपकी पत्नी की गोद में कोई बैठे तो क्या आप इसे सहन
करेंगे?
मुल्ला
नसरुद्दीन यह सब बैठा हुआ सुन रहा था। वह उठकर आया। उसने कहा. यह रहा मेरा कार्ड।
मेरा नाम मुल्ला नसरुद्दीन है। आप इस पते पर किसी भी समय आ सकते हैं और जितनी देर
चाहें मेरी पत्नी की गोद में बैठ सकते हैं।
अब
पत्नी कुरूप है,
तो यहां सुंदर और है क्या! इस संसार में सभी तो कुरूप है। इस संसार
में हर चीज तो सड़ जाती है। इस संसार में हर चीज तो कुरूप हो जाती है। सुंदरतम
स्त्री भी एक दिन कुरूप हो जाती है। और जवान से जवान आदमी भी एक दिन मुर्झाता है
और का हो जाता है। सुंदर से सुंदर देह भी तो एक दिन चिता पर चढ़ा देनी पड़ेगी। करोगे
क्या! यहां सुंदर है क्या?
इस
जगत की असारता को ठीक से पहचानो। इस जगत की व्यर्थता को ठीक से पहचानो। ताकि इसकी
व्यर्थता को देखकर तुम भीतर की सीढ़ियां उतरने लगो।
सौंदर्य
भीतर है, बाहर नहीं। सौंदर्य स्वयं में है। और जिस दिन तुम्हारे भीतर सौंदर्य उगेगा,
उस दिन सब सुंदर हो जाता है। तुम जैसे, वैसी
दुनिया हो जाती है। जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।
तुम
सुंदर हो जाओ। पत्नी को सुंदर करने की फिकर छोड़ो। तुम सुंदर हो जाओ। और तुम्हारे
सुंदर होने का अर्थ,
कोई प्रसाधन के साधनों से नहीं; ध्यान सुंदर
करता है। ध्यान ही सत्यं शिवं सुंदरम् का द्वार बनता है।
जैसे
—जैसे ध्यान गहरा होगा. वैसे—वैसे तुम पाओगे : तुम्हारे भीतर एक अपूर्व सौंदर्य
लहरें ले रहा है। इतना सौंदर्य कि तुम उंडेल दो, तो सारा जगत सुंदर हो जाए।
मुझसे तुम उस सौंदर्य की बात पूछो। इस तरह के व्यर्थ प्रश्न न लाओ, तो अच्छा है।
आज इतना ही।
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