बुद्धत्व का आलोक—प्रवचन—117
सूत्र:
छिंद सोतं परक्कम्म
कामें पनुद ब्राह्मण।
संखारानं खयं जत्वा
अकतज्जूसि ब्राह्मण ।।313।।
यदा द्वयंसु
धम्मेसु पारगू होति ब्राह्मणो।
अथस्स सब्बे
संयोगा अत्थं गच्छंति जानतो ।।314।।
यस्स पारं अपारं
वा पारापारं न विज्जति।
वीतद्दरं विसज्जुत्तं
तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।315।।
झायिं विरजमासीनं
कतकिच्चं अनासवं।
उत्तमत्थं अनुप्पत्तं
तमहं ब्रूमि ब्राह्मण ।।316।।
दिवा तपति आदिच्चो
रतिं आभाति चन्दिमा।
सन्नद्धो खत्तियो
तपति झायी तपति ब्राह्मणो।
अथ सब्बमहोरत्तिं
बुद्धो तपति तेजसा ।।317।।
प्रथम
दृश्य:
वक्कलि स्थविर
श्रावस्ती में ब्राह्मण— कुल में उत्पन्न हुए थे। वे तरुणाई के समय भिक्षाटन करते
हुए तथागत के सुंदर रूप को देखकर अति मोहित हो गए। फिर ऐसा सोचकर कि यदि मैं इनके
पास भिक्षु हो जाऊंगा तो सदा इन्हें देख पाऊंगा प्रव्रजित हो गए। वे प्रव्रज्या के
दिन से ही ध्यान— भावना आदि न कर केवल तथागत के रूप— सौदर्य को ही देखा करते थे।
भगवान भी उनके ज्ञान की अपरिपक्वता को देखकर कुछ नहीं कहते थे। फिर एक दिन ठीक घड़ी
जान— वक्कलि के शान में थोड़ी प्रौढ़ता देखकर— भगवान ने कहा वक्कलि। इस अपवित्र शरीर
को देखने से क्या लाभ? वक्कलि जो धर्म को देखता है वह मुझे देखता है।
फिर
भी वक्कलि को सुध न आयी। वे शास्ता का साथ छोड़कर कहीं भी न जाते थे। शास्ता के
कहने पर भी नहीं। उनका मोह छूटता ही नहीं था।
तब
शास्ता ने सोचा यह भिक्षु चोट खाए बिना नहीं सम्हलेगा। यह संवेग को प्राप्त हो तो
ही शायद समझे। सो एक दिन किसी महोत्सव के समय हजारों भिक्षुओं के समक्ष उन्होंने
बड़ी कठोर चोट की। कहा. हट जा वक्कलि! हट जा वक्कलि। मेरे सामने से हट जा। और ऐसा
कहकर वक्कलि को सामने से हटा दिया।
स्वभावत:
वक्कलि बहुत क्षुब्ध हुआ; गहरी चोट खाया। पर वक्कलि ने जो व्याख्या की वह
पुन: भ्रांत थी। सोचा : भगवान मुझ से क्रुद्ध हैं। अब मेरे जीने से क्या लाभ?
और जब मैं सामने बैठकर उनका रूप ही न देख सकूंगा तो अब मर जाना ही
उचित है। ऐसा सोचकर वह गृद्धकूट पर्वत पर चढ़ा. पर्वत से कूदकर आत्मघात के लिए।
अंतिम क्षण में— बस जब कि वह कूदने को ही था—अंधेरी रात में कोई हाथ पीछे से उसके
कंधे पर आया। उसने लौटकर देखा। भगवान सामने खड़े थे। अंधेरी रात्रि में उनकी प्रभा
अपूर्व थी। आज उसने शास्ता की देह ही नहीं शास्ता को देखा। आज उसने धर्म को जीवंत
सामने खड़े देखा। एक नयी प्रीति उसमें उमड़ी— ऐसी प्रीति जो कि बांधती नहीं मुक्त
करती है।
तभी
भगवान ने इस अपूर्व अनुभूति के क्षण में वक्कलि को ये गाथाएं कही थीं:
छिंद सोतं परक्कम्म
कामें पनुद ब्राह्मण।
संखारानं खयं जत्वा
अकतज्जूसि ब्राह्मण ।।
'हे ब्राह्मण, पराक्रम से तृष्णा के स्रोत को काट दे और कामनाओं को दूर कर दे। हे
ब्राह्मण, संस्कारों के क्षय को जानकर तुम अकृत—निर्वाण—कासाक्षात्कार
कर लोगे।'
यदा द्वयंसु
धम्मेसु पारगू होति ब्राह्मणो।
अथस्स सब्बे
संयोगा अत्थं गच्छंति जानतो ।।
'जब ब्राह्मण दो धर्मों—समथ और विपस्सना—में पारंगत हो जाता है, तब उस जानकार के सभी संयोग—बंधन—अस्त हो जाते हैं।’
यस्स पारं अपारं
वा पारापारं न विज्जति।
वीतद्दरं विसज्जुत्तं
तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
'जिसके पार, अपार और पारापार नहीं है, जो वीतभय और असंग है,
उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
झायिं विरजमासीनं
कतकिच्चं अनासवं।
उत्तमत्थं अनुप्पत्तं
तमहं ब्रूमि ब्राह्मण ।।
'जो ध्यानी, निर्मल, आसनबद्ध, कृतकृत्य,
आस्रवरहित है, जिसने उत्तमार्थ को पा लिया है,
उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
पहले
दृश्य को समझें।
वक्कलि
ब्राह्मण—कुल में उत्पन्न हुए थे।
ब्राह्मण—कुल
में उत्पन्न होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता है। पैदा तो सभी शूद्र होते हैं।
ब्राह्मण बनना होता है।
शूद्र
की परिभाषा क्या है?
शूद्र की परिभाषा है जिसको शरीर से ज्यादा कुछ दिखायी न पड़े। जो
शरीर में जीए; शरीर के लिए जीए। शरीर से अन्यथा जिसकी समझ
में न पड़े। जिसकी आंखें पृथ्वी में उलझी रह जाएं; आकाश जिसे
दिखायी न पड़े। जो आकृति में बंध जाए, और आकृति के भीतर जो
अनाकृत विराजमान है, उसे दिखायी न पड़े। ऐसे अंधे को शूद्र
कहते हैं।
सभी
अंधे पैदा होते हैं। सभी शूद्र पैदा होते हैं। ब्राह्मण तो कोई पराक्रम से बनता
है। ब्राह्मण उपलब्धि है। ब्राह्मण गुणवत्ता है, जो अर्जित करनी होती है।
मुफ्त नहीं होता कोई ब्राह्मण। जन्म से हो जाओ, तो मुफ्त हो
गए। जन्म से हो जाओ, तो संयोग से हो गए। जन्म से हो जाओ,
तो तुम्हारी कौन सी उपलब्धि है?
और
ब्राह्मण का अर्थ यह भी नहीं होता कि जो शास्त्रों को जानता हो। क्योंकि शास्त्रों
को तो शूद्र भी जान ले सकता है। इसी डर से कि कहीं शूद्र शास्त्रों को न जान ले, सदियों तक
शूद्र को शास्त्र पढ़ने से रोका गया। नहीं तो फिर ब्राह्मण और शूद्र में भेद क्या
करोगे? भेद कुछ है भी नहीं। उतना ही भेद है कि ब्राह्मण
शास्त्र जानता है। तथाकथित ब्राह्मण, जो जन्म से ब्राह्मण है,
उसमें और तथाकथित शूद्र में भेद क्या है? इतना
ही भेद है कि ब्राह्मण वेद को जानता है, शूद्र वेद को नहीं
जानता है। इसलिए हिंदुओं ने शूद्र को वेद नहीं पढ़ने दिया, नहीं
तो ब्राह्मण की प्रतिष्ठा क्या रहेगी? शूद्र भी अगर पढ़े,
तो ब्राह्मण हो गया!
अगर
शास्त्र को जानना ही एकमात्र ब्राह्मण होने की परिभाषा है, तो जो
शास्त्र को जान लेगा, वही ब्राह्मण हो गया। डाक्टर अंबेडकर
को ब्राह्मण कहोगे कि नहीं? अगर शास्त्र को जानना ही परिभाषा
हो, तो डाक्टर अंबेडकर ब्राह्मणों से ज्यादा बेहतर ब्राह्मण
हैं। तभी तो इस देश का विधान बनाते समय ब्राह्मणों को नहीं बुलाया गया। अंबेडकर को
निमंत्रित किया गया। अंबेडकर विधि का, शास्त्र का ज्ञाता था।
भारतीय संस्कृति की अपूर्व पकड़ थी, समझ थी। बड़े—बड़े ब्राह्मण
थे, उन्हें न बुलाकर एक शूद्र से भारत का विधान निर्मित
करवाना किस बात की सूचना है?
शास्त्र
पढ़ने का मौका हो,
शास्त्र कोई जान ले, तो फिर कौन शूद्र?
कौन ब्राह्मण? यह बात बिगड़ जाएगी, इस डर से ब्राह्मणों ने शूद्र को जानने ही नहीं दिया शास्त्र को।
स्त्रियों
को भी नहीं जानने दिया,
क्योंकि पुरुष की अकड़ का फिर कोई कारण न रह जाएगा। और जब तुम जानने
ही न दोगे......।
अब
यह बड़े मजे की बात है। यह कैसा अन्याय है! जब शूद्र पढ़ ही न सकेगा, पढ़ने ही न
दोगे, वह अज्ञानी रह जाएगा, फिर कहोगे
कि शूद्र अज्ञानी होते हैं! ब्राह्मण ज्ञानी, शूद्र अज्ञानी!
और यह शूद्र का अज्ञान तुम्हारे ही द्वारा नियोजित, आयोजित अज्ञान
है।
न
कोई शूद्र है,
न कोई ब्राह्मण। पढ़ने से कुछ भेद तय नहीं होता। अगर भेद तय होगा,
तो कोई अंतर—क्रांति से तय होगा।
बुद्ध
किसको ब्राह्मण कहते हैं?
बुद्ध उसको ब्राह्मण कहते हैं, जिसने ब्रह्म
को जाना। लेकिन ब्रह्म को जन्म से कैसे जानोगे? ब्रह्म को
जानने के लिए तो सारा जीवन दाव पर लगाना होगा। पराक्रम से जानोगे। ब्रह्म उपलब्धि
है। अथक चेष्टा से.। शायद एक जन्म भी काम न आए। अनेक जन्मों में श्रम करके,
समथा को साधकर, समाधि को उपलब्ध करके, अंतर के चक्षु खुलेंगे, ब्रह्म का दर्शन होगा—तब तुम
ब्राह्मण होओगे।
यह
घटना कहती है वक्कलि स्थविर श्रावस्ती में ब्राह्मण—कुल में उत्पन हुए थे। लेकिन
रहे होंगे शूद्र। रूप पर अटक गए। शरीर पर अटक गए। बुद्ध में भी उत्सुक हुए, तो उनके
देह—सौंदर्य के कारण! बुद्ध में उत्सुक हुए, तो सिर्फ बाहरी
छटा को देखकर! बुद्ध के पास आकर भी बुद्धत्व के दर्शन न हुए। वहा भी देह ही दिखी।
हम
वही देख सकते हैं,
जो देखने की हममें क्षमता होती है। तुमने देखा, चमार रास्ते पर बैठता है! वह तुम्हारा चेहरा नहीं देखता, तुम्हारा जूता देखता है। दिनभर देखता रहता है लोगों के जूते। फिर धीरे—
धीरे चमार इतना पारंगत हो जाता है जूतों को देखने में कि जूते को देखकर तुम्हारे
संबंध में सब जानकारी कर लेता है। अगर जूते की हालत खराब है, तो जानता है कि तुम्हारी जेब खाली है। जूते की हालत खराब है, तो जानता है कि तुम्हारी हालत कुटी—पिटी है, जैसी
तुम्हारे जूते की हालत है। जूते पर चमक है, रौनक है, तो जानता है कि तुम्हारे चेहरे पर भी चमक और रौनक होगी। चेहरे को देखने की
जरूरत क्या? उसके हाथ में जूता है। जूते से तुम्हारे संबंध
में सारा तर्क फैला लेता है। जूते से तुम्हारे संबंध में सूचनाएं ले लेता है।
दर्जी
कपड़े देखता है;
आदमी नहीं देखता।
और
तुम भी विचार करना. तुम क्या देखते हो? तुम भी क्षुद्र को ही देखते होओगे।
जो क्षुद्र को देखे, वह शूद्र है। जो क्षुद्र को हटा दे और
भीतर छिपे विराट से संबंध बनाए, वही ब्राह्मण है।
तो
साधारण लोगों में तुम सौंदर्य देखो, यह चल जाएगा। लेकिन बुद्ध के पास
आकर भी चूक जाओगे! जहां ज्योति भीतर की ऐसी जलती है कि चांद—तारे फीके हैं! कि
सूरज शरमाए! जहां भीतर की ज्योति ऐसी जलती कि अंधे को दिख जाए, वहां भी वक्कलि को क्या दिखा? वक्कलि को दिखा बुद्ध
का देह—सौंदर्य!
ब्राह्मण—कुल
में उत्पन्न हुआ था,
लेकिन शूद्र था।
वक्कलि
तरुणाई के समय भिक्षाटन करते हुए तथागत के सुंदर रूप को देखकर अति मोहित हो गए।
यह
एक तरह की कामुकता थी! इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम बुद्ध के रूप—सौंदर्य पर
मोहित हुए कि किसी और के रूप—सौंदर्य पर मोहित हुए। रूप पर जो मोहित हुआ, वह कामुक
है।
उसने
बाहर की परिधि को ही पहचाना। वह तिजोड़ी के प्रेम में गिर गया। तिजोड़ी के भीतर हीरे
रखे हैं, उसकी उसे चिंता ही नहीं है। और देह कितनी ही सुंदर हो, अंततः देह है तो हड्डी—मास—मज्जा। देह कितनी ही सुंदर हो, अंततः तो मृत्यु में चली जाएगी। अंततः तो कब में सडेगी या चिता पर जलेगी। देह
कितनी ही सुंदर हो, आज नहीं कल कीड़े—मकोड़ों का भोजन बनेगी।
देह कितनी ही सुंदर हो, सब मिट्टी में मिल जाएगा। जो देह के
प्रेम में पड़ा, वह मिट्टी के प्रेम में पड़ गया। वह घड़े के
प्रेम में पड़ गया और घड़े के भीतर अमृत भरा था!
बुद्ध
के पास खड़े होकर भी इस आदमी ने अमृत न देखा; इसने घड़ा देखा। घड़ा सुंदर था। घड़े
पर कारीगिरी थी। घड़े पर बड़ी मेहनत की गयी होगी। यह घड़े के मोह में पड़ गया। यह घड़े
को ही छाती से लगा लिया! और यह भूल ही गया कि घड़े के भीतर ऐसा अमृत है कि पीओ,
तो सदा—सदा के लिए तृप्त हो जाओ, कि सारी
क्षुधा मिट जाए कि सारी भूख मिट जाए, कृतकृत्य हो जाओ। परम
अर्थ विराजमान था।
शूद्र
का यही अर्थ है। वक्कलि शूद्र था, जैसे कि सभी लोग शूद्र होते हैं।
ध्यान
में ले लेना। ऐसा मत सोचना कि वक्कलि शूद्र था और तुम शूद्र नहीं हो। हम सब शूद्र
की तरह ही पैदा होते हैं। और कोई पैदा होने का उपाय नहीं है। बड़े से बड़ा ब्राह्मण—बुद्ध
भी—शद्र की तरह ही पैदा होते हैं।
थोड़े
से धन्यभागी,
जहां पैदा होते हैं, उससे आगे बढ़ते हैं। अधिक
अभागे, जहां पैदा होते हैं, वहीं अटके
रह जाते हैं। जो जन्म पर ही अटककर रह गया है, वह जीवन से,
जानने से वंचित ही रहा। बहुत कम लोग हैं, जो
जन्म के बाद बढ़ते हैं। जन्म के बाद बढ़ना चाहिए। जन्म तो सिर्फ शुरुआत है, अंत नहीं है। जन्म तो यात्रा का पहला कदम है, मंजिल
नहीं है। जन्म तो सिर्फ अवसर है जीने का, जीवन को जानने का।
इस अवसर को लेकर ही मत बैठ जाना।
जन्म
तो कोरी किताब है। लिखोगे कब इस पर? तुम्हारा गीत कब फैलेगा इस पर?
तुम्हारे चित्र कब बनेंगे इस पर?
जन्म
तो ऐसे है, जैसे अनगढ़ पत्थर। छेनी कब उठाओगे? इस पत्थर को
मूर्ति कब बनाओगे? इस पत्थर में प्राण कब डालोगे? अधिक लोग अनगढ़ पत्थर की तरह पैदा होते, अनगढ पत्थर
की तरह मर जाते। उनकी मूर्ति निखर ही नहीं पाती। उनके भीतर जो छिपा था, छिपा ही रह जाता है। जो गीत गाया जाना था, बिन गाया
चला जाता। जो नृत्य होना था, नहीं हो पाता।
जो
अपना गीत गा लेता है,
वही बुद्ध है। जो अपना नाच नाच लेता है, वही
बुद्ध है। जो अपनी भीतर छिपी हुई संभावनाओं को अभिव्यक्त कर देता है, अभिव्यंजित कर देता है, गुनगुना लेता है, वही बुद्ध है। और वही कृतकार्य है। वही फल को, फूल
को उपलब्ध हुआ।
अधिक
लोग बीज की तरह मर जाते हैं। कुछ थोड़े से लोग अंकुरित होते हैं और मर जाते हैं।
कुछ थोड़े से लोग वृक्ष भी बन जाते हैं, लेकिन उनमें कभी फूल नहीं लगते,
फल नहीं लगते और मर जाते हैं। जब फूल खिलता है तुम्हारे जीवन का,
जब तुम्हारी चेतना सहस्रदल कमल बनती, तभी
जानना कि ब्राह्मण हुए—तभी जानना कि ब्राह्मण हुए।
इसे
ऐसा समझो कि सभी लोग शूद्र की तरह पैदा होते हैं, फिर शूद्र के बाद दूसरा कदम
है वैश्य का। कुछ लोग वैश्य बन जाते हैं। वैश्य का मतलब है, पौधा
पैदा हुआ; बीज फूटा, कुछ अंकुर निकले।
शूद्र
बिलकुल ही देह में जीता है। मन का भी उसे पता नहीं, आत्मा की तो बात ही दूर।
परमात्मा का तो सवाल ही कहा उठता है! तुम सोचते हो कि शूद्र वह है, जो मल—मूत्र ढोता है। तो तुम गलत हो। शूद्र वह है, जो
मल—मूत्र में जीता है। ढोने से क्या होता है? बड़ी उलटी बात
समझ ली।
जो
आदमी पाखाने साफ करता है,
मरे जानवरों को ढोकर ले जाता है—इसको शूद्र कहते हो? यह शुद्धि कर रहा है, स्वच्छता ला रहा है। इसको
शूद्र कहते हो? शूद्र तुम हो। मल—मूत्र पैदा किया। यह बेचारा
ढोकर साफ कर रहा है—इसको शूद्र कहते हो? इसकी तुम्हारे ऊपर
बड़ी कृपा है। अनुकंपा है। इसके चरण छुओ। इसका धन्यवाद मानो।
जरा
सोचो कि इस नगर में शूद्र एक सात दिन के लिए निर्णय कर लें कि अब नहीं सफाई करनी
है, तब तुमको पता चलेगा कि शूद्र क्या कर रहा था। तुम्हारे सुंदर घर भयंकर
बदबू से भर जाएंगे! तब तुम्हें पता चलेगा कि शूद्र कौन है!
यह
मल—मूत्र में जो जी रहा है,
जिसका जीवन मल—मूत्र के पार नहीं गया है, जिसे
पता ही नहीं देह के बाहर कुछ। भोजन कर लेता है, मल—मूत्र से
निष्कासित कर देता है, फिर भोजन कर लेता है। ऐसा ही जिसका
जीवन है। इंद्रियों से पार जिसे कुछ पता नहीं है, ऐसा आदमी
शूद्र है। मल—मूत्र की सफाई करने वाला शूद्र नहीं है। मल—मूत्र को ही जीवन समझ
लेने वाला शूद्र है।
इससे
थोड़ा कोई ऊपर उठता है,
तो अंकुर फूटता है; वैश्य बनता है। वैश्य को
शूद्र से थोड़ी सी ज्यादा समझ है। उसके भीतर मन में थोड़ी उमंगें उठनी शुरू होती
हैं पद, प्रतिष्ठा, धन, सम्मान, सत्कार। भोजन और कामवासना—इतने ही पर वैश्य
समाप्त नहीं होता। वैश्य जीवन के व्यवसाय में लगता है। कुछ और भी मूल्यवान है।
लेकिन
वैश्य भी सिर्फ अंकुरित हुआ। जो वैश्य की तरह मर जाए, वह भी कुछ
बहुत दूर नहीं गया शूद्र से।
फिर
होता है क्षत्रिय। क्षत्रिय का अर्थ होता है योद्धा, संकल्पवान। जीवन को अब वैसा
ही नहीं जी लेता, जैसा जन्म से पाया है। युद्ध करता है जीवन
को निखारने का। उठाता है तलवार। काट देता है, जो गलत है।
मिटा देता है, जो व्यर्थ है। सार्थक की तलाश में लगता है।
संघर्षरत होता है। जीवन उसके लिए एक चुनौती है, व्यवसाय
नहीं।
शूद्र
के लिए जीवन क्षुद्र का भोग है। वैश्य के लिए क्षुद्र से थोड़े ऊपर उठना है, लेकिन
जीवन की दिशा व्यवसाय की दिशा है, संघर्ष की नहीं। थोड़ा छीन—झपट
लो। चोरी कर लो। धोखा दे दो।
क्षत्रिय
का आयाम संघर्ष का आयाम है,
चुनौती का आयाम है। चाहे सब गंवाना पड़े, लेकिन
दाव लगाओ। क्षत्रिय जुआरी है, व्यवसायी नहीं है। क्षत्रिय
वृक्ष बन जाता है। जब जूझता है, तो ही कोई वृक्ष बनता है।
ये
वृक्ष भी जूझते हैं,
तो ही ऊपर उठ पाते हैं। इनकी बड़ी संघर्ष की कथा है। जब एक वृक्ष
बनना शुरू होता है, तो कितना संघर्ष है उसके सामने! नीचे
जमीन में पड़े पत्थर हैं, जिनको तोड़कर जड़ें पहुंचानी हैं।
कठोर भूमि है, जिसमें रास्ता बनाना है, जल—स्रोत खोजने हैं। फिर अकेला ही नहीं खोज रहा है, और
बहुत से वृक्ष खोज रहे हैं। इसके पहले कि दूसरे जल—स्रोत तक पहुंच जाएं, इस वृक्ष को अपनी जड़ें वहां पहुंचा देनी हैं, नहीं
तो दूसरे कब्जा कर लेंगे। फिर आकाश की तरफ उठना है। फिर अकेले ही नहीं हैं,
और वृक्ष पहले से आकाश की तरफ उठे खड़े हैं। अगर आकाश की तरफ न उठेगा,
तो सूरज की रोशनी न मिलेगी, शुद्ध हवाएं न
मिलेंगी। संघर्ष है। संकल्प है।
संकल्प
और संघर्ष से कोई ऊपर जाता है। लेकिन संकल्प की सीमा है। अपने हाथ से लड़ना कितनी
दूर तक हो सकता है?
हमारे हाथ ही बहुत छोटे हैं।
क्षत्रिय
अपने पर भरोसा करता है,
इसलिए जाता है, वैश्य से आगे जाता है। लेकिन
अपने भरोसे की सीमा है। तुम्हारी सामर्थ्य कितनी? एक दिन
संकल्प थक जाएगा। क्षत्रिय गिरेगा; जैसे तूफान आया और बडा
वृक्ष गिर गया। लड़ता रहा था अब तक, लेकिन तूफानों से कैसे
लड़ेगा? छोटी—मोटी हवाएं आती थीं, निपट
लेता था। आज भयंकर चक्रवात आया। आज तांडव नृत्य करती हुई हवाएं आयीं। आज नहीं
होगा। संघर्ष की सीमा है। अपने से जब तक बना, लड़ लिया,
अब गिरेगा और टूटेगा। और जब बड़े वृक्ष गिरते हैं, तो दुबारा नहीं उठते। उठ ही नहीं सकते। उठने का कोई उपाय नहीं है। इसके
पार ब्राह्मण है।
ब्राह्मण
का अर्थ है : समर्पण। क्षत्रिय का अर्थ है. संकल्प। क्षत्रिय लड़ता है, जीतने की
चेष्टा करता है, लेकिन एक न एक दिन हारेगा। क्योंकि व्यक्ति
की सीमा चुक जाएगी। समष्टि के सामने व्यक्ति का क्या मुकाबला है! जितनी दूर तक
व्यक्ति की ऊर्जा जा सकती है, जाएगा, फिर
ठहर जाएगा।
वहीं
से ब्राह्मण शुरू होता है। अपनी सारी सामर्थ्य लगा दी, तब उसे
पता चलता है कि मुझसे भी बड़ा कोई है। मैं लडूं क्यों! उसका सहारा क्यों न ले लूं!
मैं नदी से संघर्ष क्यों करूं? मैं नदी के साथ बहने क्यों न
लग? समर्पण शुरू होता है। ब्राह्मण की दशा समर्पण की दशा है।
वह परमात्मा के साथ अपना संबंध जोड लेता है।
जब
कोई किसी गुरु से अपना संबंध जोड़ता है, तो ब्राह्मण होने की शुरुआत हुई।
इस आदमी को यह बात दिखायी पड़ गयी कि मेरे हाथ से जितना हो सकता था, मैंने कर लिया, अब मुझे विराट का प्रसाद चाहिए। अब
मुझे परमात्मा का सहारा चाहिए। अब मुझे अपनी असहाय अवस्था का बोध होता है। इस
स्थिति में व्यक्ति ब्राह्मण बनना शुरू होता है।
और
जब समग्र समर्पण हो जाता है, जब सब भांति व्यक्ति अपने को विसर्जित कर देता
है असीम में; सीमाएं खो जाती हैं; जैसे
बूंद सागर में गिर जाए, ऐसे जब कोई विराट में गिर जाता है;
और उस गिरने में ही जानता है विराट के स्वाद को—तब पूरा ब्राह्मण
हुआ। तब फूल लगे; फल लगे। तब सुगंध बिखरी। तब कोई कृत—संकल्प
हुआ, कृतकार्य हुआ। तब पहुंच गया वहां, जहां पहुंचना था। नियति उपलब्ध हुई। तभी तृप्ति है। उसके पूर्व कोई तृप्ति
नहीं है।
वक्कलि
स्थविर श्रावस्ती में ब्राह्मण—कुल में उत्पन्न हुए थे। वे तरुणाई के समय भिक्षाटन
करते हुए तथागत के सुंदर रूप को देखकर अति मोहित हो गए। फिर ऐसा सोचकर कि यदि मैं
इनके पास भिक्षु हो जाऊंगा,
तो सदा इन्हें देख पाऊंगा, प्रव्रजित भी हो
गए।
आदमी
कभी —कभी ठीक काम भी गलत कारणों से करता है। और कभी—कभी गलत काम भी ठीक कारणों से
करता है! और स्मरण रखना इस सूत्र को कि गलत आकांक्षा से किया गया ठीक काम भी गलत
हो जाता है। और ठीक आकांक्षा से किया गया गलत काम भी ठीक हो जाता है। अंततः
निर्णायक तुम्हारी आकांक्षा है। परसों की कहानी तुमने देखी! नंगलकुल बड़ी गलत
आकांक्षा से वृक्ष पर टांग आए अपने नंगल को, अपने हल को देखने जाता था। नंगल को
देखने जाता था। नंगल में क्या हो सकता है! हल में क्या हो सकता है? कुछ भी नहीं। लेकिन हल को देखते —देखते ज्ञान को उपलब्ध हो गया!
यहां
बात बिलकुल उलटी हो रही है! यहां कोई आदमी बुद्ध के पास आ गया है और फिर भी
चूकेगा। चूकेगा,
क्योंकि बुद्ध से भी उसने जो संबंध जोडे हैं, वे
बड़ी शूद्र की चित्तदशा से उमंगे हैं।
इस
आदमी ने न तो बुद्ध के वचन सुने हैं, इस आदमी ने न बुद्ध के भीतर की
महिमा देखी। इस आदमी ने, जो बुद्ध का सबसे ज्यादा बाहरी
हिस्सा था, वही देखा। बुद्ध की देह देखी। यह शूद्र है।
अगर
यह बुद्ध का मन देख ले,
तो वैश्य है। अगर यह बुद्ध की आत्मा देख ले, तो
क्षत्रिय है। अगर यह बुद्ध के भीतर का परमात्मा देख ले, तो
ब्राह्मण है। ये दृष्टियों के नाम हैं, शूद्र, ब्राह्मण।
शूद्र
करीब—करीब देखता ही नहीं,
टटोलता है। जैसे अंधा आदमी।
तुमने
हेलेन केलर के संबंध में सुना है? वह अंधी है, बहरी है। अब
उसके पास एक ही उपाय है किसी को जानने का कि उसके चेहरे पर हाथ फेरे। जब उसने
पंडित जवाहरलाल नेहरू को देखा पहली दफा, तो उसने उनके चेहरे
पर हाथ फेरा और बहुत खुश हुई। उसने कहा मैं खुश हूं। तुम्हारा चेहरा बड़ा सुंदर है!
जवाहरलाल
को तो भरोसा नहीं हुआ कि यह अंधी स्त्री चेहरे पर हाथ फेरकर चेहरे के सौंदर्य को
कैसे समझ लेगी! उन्होंने कहा कि मुझे भरोसा नहीं आता। उसने कहा कि तुम्हारा चेहरा
ठीक वैसा है,
जैसा मैंने यूनान में मूर्तियों का देखा; संगमर्मर
की मूर्तियां। जब मैंने उन पर हाथ फेरा, तो मुझे जैसा भाव
हुआ, वैसा तुम्हारे चेहरे को देखकर हुआ।
जवाहरलाल
के पास प्यारा चेहरा था। संगमर्मर की मूर्तियों जैसा चेहरा था। लेकिन अंधा आदमी
देख तो नहीं सकता,
टटोल सकता है।
हेलेन
केलर सिर्फ चेहरे की आकृति को अनुभव कर सकती है हाथ फेरकर। अधिक लोग ऐसे ही जीवन
को टटोल रहे हैं—अंधे की भांति!
ऐसे
वक्कलि आया। अंधा तो नहीं था। कम से कम ऊपर से तो नहीं था। आंखें खुली थीं। मगर
अटक गया रूप में। जो आंखों ने दिखाया, उसमें ही भटक गया। ठीक आदमी के पास
आया, गलत आकांक्षा ने सब खराब कर दिया।
सोचा
भिक्षु हो जाऊं। अब भिक्षु होने का हेतु देखते हैं! संन्यस्त होना चाहता है, लेकिन
संन्यस्त होने के पीछे कारण क्या है? कारण है कि सदा इनके
पास रहूंगा फिर। सदा इनका रूप देखता रहूंगा।
भिक्षु
हो भी गया। लेकिन जिस दिन संन्यास लिया, उसी दिन से न तो ध्यान किया,
न भावना की कोई।
बुद्ध
दो तरह की बातें लोगों को कहते। जैसे मैं तुमसे कहता हूं _ भक्ति और
ध्यान। जो लोग ध्यान कर सकते, उनको ध्यान में लगाते। जो नहीं
कर सकते, उनको भावना में लगाते। भावना यानी भक्ति।
बुद्ध
भक्ति का उपयोग नहीं करते,
क्योंकि वे किसी परमात्मा को नहीं मानते जो आकाश में बैठा है,
जिसकी भक्ति की जाए। फिर भावना.। उन्होंने एक नयी प्रक्रिया खोजी,
जो भक्ति का ही रूप है बिना भगवान के। भगवान से मुक्त भक्ति के रूप
का नाम भावना।
भगवान
के चरणों में लगायी गयी जो दृष्टि है, वह भी भावना है। लेकिन उसमें पता
है किसी का। तुमने प्रार्थना की। तुमने कहा हे कृष्ण। या तुमने राम को पुकारा।
तुमने आकाश की तरफ देखा। तुम्हारे मन में कोई धारणा है, रूप
है। और तुमने जो भाव प्रगट किया, उसमें पता है। तुमने जो
पाती लिखी, उसमें पता है राम का। यह भक्ति।
बुद्ध
ने कहा सिर्फ झुको। कोई नहीं है, जिसके सामने झुकना है। झुकना ही काफी है। बिना
पता झुक जाओ। राम के सामने नहीं। कृष्ण के सामने नहीं। किसी के सामने का सवाल नहीं
है, झुक जाओ। जाओ एकात में और झुक जाओ। और झुकने की कला
सीखा।
अब
इसको भक्ति नहीं कह सकते। हालांकि परिणाम वही होगा। इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम
राम का नाम लेकर झुके कि कृष्ण का नाम लेकर झुके? किसका नाम लेकर झुके,
इससे क्या फर्क पडता है! नाम तो बहाने थे झुकने के। बुद्ध ने बहाने
हटा दिए।
बुद्ध
ने कहा. बहानों में झंझट होती है, बहानों में झगड़ा खड़ा होता है। जो राम के सामने
झुकता है, वह उससे लडने लगता है, जो
कृष्ण के सामने झुकता है। झुकना—वुकना तो भूल जाते हैं; एक—दूसरे
के सिर फोड़ने में लग जाते हैं! तुम सिर्फ झुकी!
इसको
उन्होंने भक्ति नहीं कहा,
इसलिए भावना कहा। इसको उन्होंने ठीक शब्द दिया ब्रह्म— भावना।
परमात्मा बाहर नहीं है; परमात्मा तुम्हारे भीतर है। तुम
भावना कर लो; तुम्हारे भीतर प्रगट हो जाए। भावना की छेनी से
तुम अपने भीतर की मूर्ति को निखार लो। किसी और मंदिर में फूल नहीं चढ़ाने हैं।
लेकिन
न तो वक्कलि ने ध्यान किया,
न भावना की। वह आया ही नहीं था ध्यान करने या भावना करने। उसकी नजर
तो कुछ और ही थी। उसकी दृष्टि तो कुछ और ही थी।
यहां
सूफी नृत्य होता है। अनीता बड़ी परेशान रहती है; जो सूफी नृत्य को नेतृत्व देती है।
उसकी परेशानी यह है कि अधिकतम भारतीय, जो सूफी नृत्य में आते
हैं, उनकी नजर स्त्रियों पर होती है। वह बड़ी परेशान है। सभी
नहीं, लेकिन अधिकतम। वे आते ही इसलिए हैं। उन्हें सूफी नृत्य
से कुछ लेना—देना नहीं है। लेकिन सूफी नृत्य में स्त्रियां नाच रही हैं और उनका
हाथ छूने का मौका मिलेगा—उनकी नजर उस पर होती है! उस पर नजर होने के कारण सूफी
नृत्य की जो महिमा है, वह खो ही जाती है। और ऐसे एक—दो आदमी
भी वहां हों, तो वे विध्न—बाधा खड़ी कर देते हैं।
उसकी
परेशानी बढ़ती गयी। मैं कोशिश करता रहा कल तक कि किसी तरह सम्हालो। लेकिन वह बढ़ती
ही जाती है बात। तो अब मजबूरी में यह तय करना पड़ा कि सूफी नृत्य में भारतीय
सम्मिलित नहीं हो सकेंगे। इसमें मैं जानता हूं कुछ लोग अकारण वंचित रह जाएंगे।
लेकिन कोई और उपाय दिखता नहीं।
कोई
गलत कारण से भी ध्यान करने आ सकता है।
भारतीयों
के मन में कामवासना बड़ी दबी पड़ी है, भयंकर रूप से दबी पड़ी है। सदियों
का बोझ है उनके ऊपर। एक चीज को इतना दबा लिया है कि वह उनके रग—रग में समा गयी है!
उनके खून में प्रविष्ट हो गयी है। वे और कुछ सोच ही नहीं सकते। हालांकि वे सोचते
हैं कि धार्मिक लोग हैं! उनकी धार्मिकता में यह सारा अधर्म समाया हुआ है। वे सोचते
हैं कि हम धार्मिक हैं! लेकिन जैसे ही वे स्त्री को देखते हैं, उनके भीतर बड़े विकार उठने लगते हैं। उन विकारों को वे दबाए जाते हैं।
क्योंकि दबाना उन्हें सिखाया गया है।
लेकिन
दबाए गए विकारों से कभी मुक्ति नहीं होती। मुक्ति समझ से होती है, दबाने से
नहीं होती। दमन से तो घाव छिप जाते हैं। उनमें मवाद पड़ने लगती है। ऐसे भारतीय
मनुष्य के मन में बड़ी मवाद पड़ गयी है। और वह मवाद बढ़ती चली जाती है, क्योंकि तुम्हारे साधु —महात्मा उसी मवाद को बढ़ाने. का काम करते हैं।
मुक्ति
चाहिए कामवासना से—निश्चित मुक्ति चाहिए। लेकिन दमन से मुक्ति नहीं होती।
अब
यह वक्कलि कैसे ध्यान करे! कैसे भावना करे! यह तो बुद्ध के रूप पर मोहित होकर आ
गया है। इसने तो भिक्षु का वेश भी स्वीकार कर लिया है। इसने तो सब संसार भी छोड़
दिया। यह दीवाना है उनके रूप पर।
तथागत
को यह बात दिखायी पड़ रही है —पहले दिन से ही दिखायी पड़ रही है, जब यह
भिक्षु बना होगा, तब से दिखायी पड़ रही है —कि इसके भीतर बड़ी
कामुकता भरी पड़ी है। यह शूद्र है।
लेकिन
बुद्ध जैसे व्यक्ति में महाकरुणा होती है।
उन्होंने
सोचा अभी कहना ठीक नहीं है। थोड़ी देर देखने दो। या तो इसे खुद ही समझ आ जाएगी।
शायद देखते—देखते,
देखते—देखते भीतर का भी कुछ दिखायी पड जाए। शायद देखते —देखते मैं
जो कहता हूं, वह सुनायी पड़ जाए! शायद देखते—देखते यहां इतने
लोग धारणा— ध्यान कर रहे हैं, इतने लोग भावना कर रहे हैं,
इनकी तरंगों का थोड़ा परिणाम हो जाए! सत्संग का असर होता है। जैसे
लोगों के साथ होते हो, वैसे हो जाते हो। शायद कुछ हो जाए।
थोड़ी प्रौढ़ता आने दो।
तो
देखते थे कि यह सिर्फ मेरी तरफ देखता है और इसकी आंखों में मेरी तलाश नहीं है।
सिर्फ चमड़े पर अटक जाती हैं आंखें। यह चमार है। फिर भी चुप रहे। उसकी अपरिपक्वता
को देखते हुए कुछ भी नहीं कहे।
फिर
एक दिन ठीक घड़ी जान।
कहना
भी तभी होता है,
जब ठीक घड़ी आ जाए। बुद्धपुरुष तभी कहते हैं, जब
ठीक घड़ी आ जाए। क्योंकि चोट तभी करनी चाहिए, जब लोहा गरम
हो। और बात तभी कहनी चाहिए, जब प्रवेश कर सके। किसी के द्वार
तभी ठकठकाने चाहिए, जब खुलने की थोड़ी संभावना हो। पुकार तभी
देनी चाहिए, जब किसी की नींद टूटने के करीब ही हो। कोई भयंकर
नींद में खोया हो, तो पुकार भी न सुनेगा।
तो
बुद्ध प्रतीक्षा करते थे ठीक क्षण की। कभी जब जरा इसकी शद्रता कम होगी, कभी जब
इसके भीतर ब्राह्मण— भाव का थोड़ा सा प्रवाह होगा।
और
ध्यान रखना चौबीस घंटे कोई भी शूद्र नहीं होता, और चौबीस घंटे कोई भी ब्राह्मण
नहीं होता। बड़े से बड़ा ब्राह्मण कभी —कभी बिलकुल छोटे से छोटा शूद्र हो जाता है।
और कभी—कभी क्षुद्र से क्षुद्र शुद्र भी ब्राह्मण होने की तरंगों से आंदोलित होता
है। जीवन प्रवाह है।
तुमने
अपने भीतर भी यह प्रवाह देखा होगा. कभी तुम ब्राह्मण होते हो, कभी तुम
शूद्र; कभी क्षत्रिय, कभी वैश्य।
क्योंकि ये स्थितियां बदलती रहती हैं। ये तो मौसम हैं। अभी बादल घिरे हैं, तो एक बात। अभी सूरज निकल आया, तो दूसरी बात। अभी
किसी ने आकर तुम्हारी निंदा कर दी, तो तुम्हारे चित्त की दशा
कुछ हो गयी। और किसी ने आकर तुम्हारी प्रशंसा कर दी, तो
तुम्हारे चित्त की दशा कुछ हो गयी। राह पर चलते थे, रुपए की
थैली मिल गयी, तो तुम्हारा चित्त बदल गया। पैर में कांटा गड़
गया, तो तुम्हारा चित्त बदल गया। किसी ने एक गाली दे दी,
कोई अपमान कर गया, कि कोई हंसने लगा देखकर—कि
तुम्हारा चित्त बदल गया।
तुम्हारा
चित्त तो छुई—मुई है,
जरा—जरा में बदलता है! जब न बदले, तो तुम
बुद्ध हो गए। जब न बदले, तो स्थितप्रज्ञ हुए। जब न बदले,
तो स्थिरधी हुए। जब न बदले, तो भगवत्ता प्रगट
हुई।
लेकिन
यह मन तो बदलता रहता है। यह मन तो गिरगिट है; यह तो रंग बदलता रहता है! इसलिए
तुम यह मत सोचना कि कोई शूद्र है, तो चौबीस घंटे शूद्र है।
इसी
कारण सारे दुनिया के धर्मों ने कुछ समय खोज निकाले हैं, जब
प्रार्थना करनी चाहिए। जैसे ठीक सुबह ब्रह्म—मुहूर्त में। उसको ब्रह्म—मुहूर्त
क्यों कहते हैं? क्योंकि उस वक्त आदमी के ब्राह्मण— भाव के
उदय होने की संभावना ज्यादा है।
क्यों? रातभर
सोए। विश्राम किया। कम से कम आठ घंटे के लिए दुनिया भूल गयी। तो दुनिया का जाल आठ
घंटे के लिए टूट गया। सुबह जब आंख खुलती है, नींद की गहरी
ताजगी के बाद, विश्राम के बाद, तुम्हारे
भीतर थोड़ी देर के लिए ब्राह्मण का जन्म होता है। उस क्षण तुम्हारे भीतर दया होती,
करुणा होती, प्रेम होता, उल्लास होता, उत्साह होता। जीवन फिर जागा। फिर तुम
ताजे हो गए हो। फिर हवाएं बहीं। फिर सूरज निकला। फिर पक्षियों ने गीत गाए। फिर फूल
खिले। तुम्हारे भीतर भी फूल खिला। तुम्हारे भीतर भी हवाएं बहीं। तुम्हारे भीतर भी
सूरज निकला। तुम्हारे भीतर का पक्षी भी गीत गाने लगा।
सुबह
होती है, तो सारा जगत आह्लाद से भरता है। रातभर के विश्राम के बाद यह आह्लाद
स्वाभाविक है। तुम कैसे वंचित रहोगे!
इसलिए
धर्मों ने निरंतर कहा है कि जल्दी जाग जाओ। वह जो आदमी आठ—नौ—दस बजे उठेगा, वह चूक
गया अपने ब्रह्म होने के क्षण को, ब्राह्मण होने के क्षण को।
वह उठते से ही शूद्र होगा।
तुमने
देखा, जो आदमी दस बजे तक पड़ा रहेगा, जब वह उठे तो उसके
चेहरे पर तुम्हें शूद्र दिखायी पड़ेगा! जो सुबह ब्रह्म—मुहूर्त में उठ आया है सूरज
के साथ—साथ, जो प्रकृति के साथ—साथ उठ आया है, उसके भीतर तुम एक तरंग पाओगे, एक ताजगी पाओगे। उसकी आंखों
में एक शांति पाओगे। चाहे वह शाति ज्यादा देर न टिके, क्योंकि
जिंदगी कठिन है। जल्दी ही उपद्रव शुरू हो जाएगा। दुकान खोलेगा, ग्राहक आएंगे। दफ्तर जाएगा; पत्नी उठेगी, बच्चे होंगे। सब उपद्रव शुरू अभी हो जाने को है। लेकिन इसके पहले कि
उपद्रव शुरू हो, सभी धर्मों ने कहा है, प्रार्थना कर लेना।
प्रार्थना
का अर्थ है यह जो क्षण मिला है, यह जो झरोखा खुला है थोड़ी देर के लिए, इस पर सवार हो जाना, इसका फायदा उठा लेना। इस क्षण
को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर देना। इस क्षण को अगर तुमने परमात्मा की
पुकार में, परमात्मा की प्रार्थना में लगा दिया, तो बहुत संभावना है कि यह क्षण थोड़ा लंबा जाएगा। अगर वैसे कुछ देर रहता,
अब शायद थोड़ी ज्यादा देर टिकेगा। यह भी हो सकता है कि अगर तुम ठीक
से प्रार्थना कर लो, तो यह दिनभर पर फैल जाए। इसका रंग दिनभर
मौजूद रह जाए।
फिर
धर्मों ने कहा रात के अंतिम समय में, जब तुम थक गए दिनभर के उपद्रव से,
ऊब गए, तब फिर प्रार्थना कर लेना। उसका क्या
अर्थ होगा? यह बात तो विरोधाभासी लगती है! सुबह तो ठीक कि सब
ताजा था। रात क्यों, जब कि सब बासा हो गया?
उसके
पीछे भी कारण है। जब दिनभर का तुम संसार देख चुके, तो एक विराग की भावदशा अपने
आप पैदा होती है। लगता है सब फिजूल है। दिनभर देखने के बाद नहीं लगे जिसको,
वह आदमी बिलकुल वज बहरा है। सब फिजूल है! कोई सार नहीं! ऐसी जो
भावदशा है, इसका भी उपयोग कर लेना। इसके ऊपर भी सवार हो
जाना। इसका घोड़ा बना लेना। और प्रभु की प्रार्थना करते —करते ही नींद में उतर
जाना। उसका भी लाभ है। क्योंकि प्रभु की प्रार्थना करते —करते अगर नींद में उतर गए,
तो नींद पर फैल जाएगी प्रभु की छाया।
ऐसे
जीवन के इन दो क्षणों को सभी धर्मों ने स्वीकार किया है। इन दो क्षणों को प्रभु पर
समर्पित करना।
फिर
ऐसा नहीं कि इन दो ही क्षणों में यह बात घटती है। दिन में कई दफे तुम्हारा मौसम
बदलता है। तुम जरा निरीक्षण करोगे, तो तुम समझने लगोगे कि कब मौसम
बदलता है। और अगर तुम निरीक्षण ठीक से करो, तो अदभुत परिणाम
ला सकते हो। तुम एक अपने जीवन की व्यवस्था भी खोज सकते हो।
एक
बार तीन महीने तक डायरी रखो। हर रोज, सोमवार से लेकर रविवार तक, अपनी डायरी में लिखते रहो—कब तुम्हारे भीतर ब्राह्मण — क्षण होता है,
कब शूद्र— क्षण होता है; कब क्षत्रिय— क्षण
होता है, कब वैश्य का क्षण होता है। तीन महीने तक नोट करते
रहो। धोखा मत देना; क्योंकि धोखा किसको दोगे? तुम अपने को ही दोगे। जबर्दस्ती मत लिख लेना कि नहीं है ब्राह्मण— क्षण,
लेकिन दिखाना तो चाहिए कि एक ब्राह्मण— क्षण! न हो, तो नहीं लिखना। जब हो, तो ही लिखना। अगर तुम एक तीन
महीने तक अपने भीतर का सारा ब्यौरा लिख लो, तुम चकित हो
जाओगे। तुम चकित इसलिए हो जाओगे कि तुम तीन महीने के बाद पाओगे कि करीब—करीब
तुम्हारे भीतर जो बदलाहटें होती हैं, वे सुनिश्चित हैं। अगर
सोमवार को सुबह तुम्हें आनंदित मालूम हुआ है, तो तुम चकित
होओगे जानकर कि हर सोमवार को ऐसा होता है!
तुम्हारे
भीतर एक वर्तुल है,
जैसे गाड़ी का चाक घूमता है। अगर हर शनिवार को तुम्हारे भीतर क्रोध
का जन्म होता है, क्रोध की छाया होती है; तुम कुछ न कुछ झंझट खड़ी कर लेते हो; कोई झगड़े में
पड़ जाते हो; किसी को मार देते हो। तो तुम चकित होओगे तीन
महीने के बाद कि यह करीब—करीब हर शनिवार को होता है कम—ज्यादा। और एक बार तुम्हारी
जिंदगी का चार्ट तुम्हारे सामने हो जाए, तो बहुत लाभ का है।
फिर तो तुम अपने दरवाजे पर लिखकर टांग सकते हो—कि सोमवार, मुझसे
सावधान! कि मंगलवार, आपका स्वागत है! और फिर तुम उसके अनुसार
जी भी सकते हो।
अगर
तुम्हारा सोमवार बुरा दिन है.। और तुम्हें अनजाने इसका अनुभव भी होता है। लोग
जानते भी हैं कि फला दिन मेरा बुरा दिन है। हालांकि उन्हें साफ नहीं होता कि मामला
क्या है! क्यों बुरा दिन है? ज्योतिषी से पूछने जाने की जरूरत नहीं है।
ज्योतिषी को क्या पता? उसको अपना पता नहीं है, तुम्हारा क्या खाक पता होगा!
एक
ज्योतिषी को एक बार मेरे पास लाया गया जयपुर में। उसकी एक हजार रुपए फीस एक बार
हाथ देखने की! उसने कहा एक हजार रुपए मेरी फीस है हाथ देखने की। मैंने कहा तुम
बेफिक्री से देखो। उसने हाथ देख लिया। बड़ा खुश था कि एक हजार रुपए मिलते हैं। जब
हाथ देख लिया,
उसने कहा मेरी फीस? मैंने कहा वह तो मैं पहले
से ही तय था कि नहीं दूंगा। तुम्हें इतना भी पता नहीं है? तुम
घर से अपना हाथ देखकर तो चला करो! तुम मुझे देखकर यह भी न समझ सके कि यह आदमी एक
हजार रुपए नहीं देगा। और मैं जोर से यह दोहरा रहा था अपने भीतर, ताकि तुम्हें सुनायी पड़ जाए। अगर तुममें थोड़ा भी ज्योतिष हो, तो समझ में आ जाए कि भाई! दूंगा नहीं! यह मैं कह ही रहा था भीतर बार—बार।
तुम जब हाथ पकड़े बैठे थे, तब मैं दोहराता ही रहा कि हजार
रुपए दूंगा नहीं, दूंगा नहीं। मेरी तरफ से तुम्हें मैंने
धोखा नहीं दिया है। लेकिन तुम ज्योतिषी कैसे!
उसकी
हालत तो बड़ी खस्ता हो गयी! अब वह क्या कहे!
ज्योतिषी
को तो अपना पता नहीं है।
मैंने
तो यह भी सुना है. एक गांव में दो ज्योतिषी थे। वे दोनों सुबह निकलते अपने — अपने
घर से, बाजार जाते धंधा करने। तो एक—दूसरे का हाथ देखते रास्ते में— भई! आज कैसा
धंधा चलेगा?
अपना
ही पता नहीं है,
तुम्हें दूसरे का क्या पता होगा!
नहीं, ज्योतिष
से नहीं पता चलता। तुम्हें अपने जीवन का निरीक्षण करना होगा, तो पता चलेगा। और एक बार तुम्हें पता हो जाए कि सोमवार या शनिवार या
रविवार मेरा खराब दिन है; इस दिन कुछ न कुछ दुर्घटना होती है,
तो उस दिन छुट्टी ले लो। वह तुम्हारा छुट्टी का दिन होना चाहिए।
रविवार
की छुट्टी नहीं मिलनी चाहिए। दुनिया अगर व्यवस्थित हो वितान से, तो आदमी
को उस दिन छुट्टी मिलनी चाहिए जो उसका बुरा दिन है, ताकि वह
लोगों के संपर्क में न आए। ताकि वह अपने घर में चादर ओढकर सो जाए। मौन रखे। बाहर न
निकले। दरवाजा बंद रखे। अगर क्रोध उठे भी, तो तकिया पीट ले,
मगर बाहर न जाए। हां, उसका जो अच्छा दिन है,
उस दिन वह संपर्क बनाए; लोगों से मिले—जुले।
खिले! फूले
और
तुम इस तरह के परिवर्तन अपने भीतर पकड़ ले सकते हो। और वे करीब'—करीब गाड़ी
के चाक की तरह घूमते हैं। उनमें ज्यादा भेद नहीं होता। जिंदगी भर ऐसा होता है।
जैसे स्त्रियों का मासिक— धर्म होता है अट्ठाइस दिन के बाद, फिर
और— और लौट आता है। ठीक ऐसा ही वर्तुल है तुम्हारे भीतर भी।
और
तुम यह जानकर भी हैरान होओगे कि पुरुषों का भी मासिक— धर्म होता है; और हर
अट्ठाइस दिन के बाद होता है। सिर्फ स्त्रियों के शरीर से खून बाहर जाता है,
इसलिए दिखायी पड़ता है। पुरुषों के शरीर से खून बाहर नहीं जाता,
लेकिन उनके भीतर चार—पांच दिन के लिए उसी तरह की उथल—पुथल हो जाती
है, जैसी स्त्रियों के भीतर होती है। सूक्ष्म उथल—पुथल।
तुमने
देखा : जब स्त्रियों का मासिक— धर्म होता है, तो वे ज्यादा खिन्न, उदास, चिड़चिड़ी हो जाती हैं। ठीक ऐसे ही पुरुषों का
मासिक— धर्म होता है। चार दिन के लिए वे भी बड़े चिड़चिड़े और बड़े उदास और बड़े
उपद्रवी हो जाते हैं। मगर उनको तो पता भी नहीं होता।
इस
देश में जो स्त्रियों को हम चार दिन के लिए बिलकुल छुट्टी दे देते थे, उसका कारण
यह नहीं था—कारण तुमने गलत समझा है—कि स्त्रियां अपवित्र हो जाती हैं। वह कारण
नहीं है। अपवित्र क्या होंगी! खून भीतर है, तब अपवित्र नहीं
हैं! बाहर जा रहा है, तब तो पवित्र हो रही हैं, अपवित्र कैसे होंगी? और खून अगर अपवित्र है, तो सारा शरीर ही अपवित्र है। अब इसमें और क्या अपवित्रता हो सकती है!
नहीं; उसका कारण
मनोवैज्ञानिक था। चार दिन के लिए, जब स्त्री का मासिक— धर्म
चलता है, तब वह खिन्न होती, उदास होती,
नकारात्मक होती। अगर वह खाना भी बनाएगी, तो
उसकी नकारात्मकता उस खाने में विष घोल देगी।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि किसी ने क्रोध से खाना बनाया हो, तो मत खाना। क्योंकि हाथों से
प्रतिपल तरंगें जा रही हैं। हाथों से विद्युत—प्रवाह जा रहा है। इसलिए तो जो
तुम्हें प्रेम करता है, गहन प्रेम करता है, उसके हाथ की बनी रूखी—सूखी रोटी भी अदभुत होती है।
होटल
में कितना ही अच्छा खाना हो, कुछ कमी होती है। कुछ चूका—चूका होता है। खाना
लाश जैसा होता है, उसमें आत्मा नहीं होती। लाश कितनी ही
सुंदर हो, और लिपस्टिक लगा हो, और
पावडर लगा हो और सब तरह की सुगंध छिडकी हो, मगर लाश आखिर लाश
है। तुम्हें इस लाश में से शायद शरीर के लिए तो भोजन मिल जाएगा, लेकिन आत्मा का भोजन चूक जाएगा।
और
जैसे तुम्हारे भीतर शरीर और आत्मा है, ऐसे ही भोजन के भीतर भी शरीर और
आत्मा है। आत्मा प्रेम से पड़ती है।
तो
जब स्त्री उद्विग्न हो,
उदास हो, खिन्न हो, नाराज
हो, नकार से भरी हो, तब उसका खाना
बनाना उचित नहीं है। तब उसके हाथ से जहर जाएगा। और तब अच्छा है कि वह ख्यात में,
एक कमरे में बैठ जाए। चार दिन बिलकुल विश्राम कर ले। ये चार दिन ऐसी
हो जाए, जैसे मर ही गयी। दुनिया से उसका कोई नाता न रहे।
यह
बड़ी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया थी। लेकिन चूंकि हमने इसको भी गलत ढंग दे दिया था। हालाकि
हम गलत ढंग इसलिए दे देते हैं कि शब्दों को समझ नहीं पाते। जब स्त्री मासिक— धर्म
में होती है,
तो पुराने शास्त्र कहते हैं वह शूद्र हो गयी। मगर शूद्र होने का
मतलब ही यह होता है कि नकार हो गया। उसको छूना मत, शूद्र हो
गयी। मगर पुरुष भी इसी तरह शूद्र होते हैं। शास्त्र चूंकि पुरुषों ने लिखे हैं,
इसलिए पुरुषों के चार दिन नहीं लिखे गए।
लेकिन
अब विज्ञान की खोजों ने यह साफ कर दिया है कि पुरुष भी चार दिन इसी तरह शूद्र हो
जाते हैं। और तुम अपने वे चार दिन भी खोज ले सकते हो। और तुम चकित होओगे हर महीने
ठीक वर्तुल में वे चार दिन आते हैं। उनकी तारीखें तय हैं। उन चार दिनों में तुमसे
हमेशा बुराई होती है। झगड़ा हो जाता है। मार—पीट हो जाती है। उन चार दिनों में
तुमसे चूके होती हैं। कार चलाओगे, एक्सीडेंट हो जाएगा। उन चार दिनों में हाथ से
चीजें छूट जाएंगी, गिर जाएंगी, टूट
जाएंगी। उन चार दिनों में तुमसे ऐसे वचन निकल जाएंगे, जो तुम
नहीं कहना चाहते थे, और फिर पीछे पछताओगे। उन चार दिनों में
तुम अपने में नहीं हो। उन चार दिनों में तुम्हारा शूद्र पूरी तरह तुम्हारे ऊपर
हावी हो गया है।
और
जैसे चार दिन शूद्र के होते हैं, ऐसे ही चार दिन ब्राह्मण के भी होते हैं,
क्योंकि आदमी अतियों में डोलता है। एक अति से दूसरी अति—जैसे घड़ी का
पेंडुलम डोलता है।
तो
बुद्ध ने प्रतीक्षा की कि जरा परिपक्व हो जाए। इसकी कोई प्रौढ घड़ी, कोई सम्यक
घड़ी देखकर कहूंगा।
फिर
एक दिन थोड़ी प्रौढ़ता की भावना को देखकर भगवान ने कहा. वक्कलि! इस अपवित्र शरीर को
देखने से क्या लाभ?
वक्कलि, जो धर्म को देखता है, वह मुझे देखता है।
तो
तू ध्यान कर और धर्म को देख। धर्म को देख सकेगा—धर्म यानी तेरा स्वभाव—जब तू अपने
स्वभाव को देख सकेगा,
तो तूने मुझे देखा। तभी जानना कि तूने मुझे देखा। मैं अगर कुछ हूं?
तो धर्म हूं। मैं अगर कुछ हूं? तो ध्यान हूं।
मैं अगर कुछ हूं तो समाधि हूं। तू समाधिस्थ हो, तो मुझसे
जुड़ेगा। इन चमड़े की आंखों से मेरे चमड़े को देखते —देखते समय मत गंवा। ये आंखें भी
कल मिट्टी में गिर जाएंगी, यह देह भी कल मिट्टी में गिर
जाएगी। इसके पहले कि यह देह मिट्टी में गिर जाए, इस देह के
भीतर जो ज्योति प्रज्वलित हुई है, उसे देख। मगर उसे तू तभी
देख सकेगा, जब तू धर्म को देखने में कुशल हो जाए। नहीं तो नहीं
देख सकेगा। तो ध्यान में लग, समाधि में उतर।
फिर
भी वक्कलि को सुध न आयी।
सुध
इतनी आसानी से आती ही कहां है! सुध ही आ जाए, तो फिर और क्या बचा? वक्कलि ने सुन लिया होगा। शायद सुना भी न हो! जब बुद्ध यह कह रहे थे,
तब वह उनकी भाव— भंगिमा देखता हो; हाथ को
देखता हो; मुद्रा देखता हो, चेहरा
देखता हो। शायद सुना ही न हो। जब तुम किसी एक चीज में अटके होते हो, तो तुम्हें कुछ और दिखायी ही नहीं पड़ता।
या
उसने कहा ऐसा तो बुद्ध रोज ही कहते रहते हैं! यह तो कई दफे सुन लिया। यह तो इनके
प्रवचन में रोज ही आता है। इसमें कौन सी खास बात है! वह अपने में ही लीन रहा होगा।
अपनी ही भावदशा में तल्लीन रहा होगा। उसे सुध न आयी।
वह
शास्ता का साथ छोड़कर कहीं जाता भी न था। शास्ता के कहने पर भी नहीं।
ऐसी
घटनाएं यहां घट जाती हैं। मेरी एक संन्यासिनी है—कुसुम। वह जब पहली दफा आयी, मेरे
चरणों में सिर रखकर कहा कि सब समर्पित करती हूं। बस, अब मेरे
जीवन के सूत्रधार आप हैं। जो आप कहेंगे, वही करूंगी। और मुझे
यहीं रहना है। मुझे कहीं जाना नहीं है। मैंने उससे कहा देख, मैं
तुझ से कहता हूं कि तू अभी जा वापस घर। तेरे माता—पिता दुखी होंगे, परेशान होंगे। कुछ दिन तू ध्यान कर। उसने कहा मैं जाने वाली नहीं। मैंने
उससे कहा. देख, तू कहती है कि आप जो कहेंगे! मैं कह रहा हूं
कि जा! उसने कहा आप जो कहेंगे, वह करूंगी। लेकिन मैं जाने
वाली नहीं! नहीं गयी! पूरी हठयोगिनी है।
यह
वक्कलि ऐसा ही आदमी रहा होगा, जैसी कुसुम। बुद्ध उसको कभी—कभी भेजना चाहते
कही—कि जा! दूसरे गाव जाकर कुछ काम करके आ। वह कहता. आप जो कहेंगे, करूंगा। मगर कहीं जा नहीं सकता। रहूंगा तो यहीं। एक दिन को भी आपको बिना
देखे नहीं रह सकता। उसके मोह को तोड्ने को कहते होंगे कि जा। मगर जिद्दी था।
मन
बड़ा जिद्दी है। सुनता ही नहीं। उनकी भी नहीं सुनता, जिनकी सुनकर क्रांति घट
सकती है।
शास्ता
के कहने पर भी नहीं जाता था। उसका मोह छूटता ही नहीं था। एक दिन बिना देखे कैसे रह
जाऊंगा! और देखता क्या था?
देखता था नाक—नक्शा। देखने योग्य जो था, वह तो
देखता नहीं था।
तब
शास्ता ने सोचा यह ऐसे मानने वाला नहीं है। इस पर तो बड़ी चोट करनी पड़ेगी।
और
ध्यान रखना अगर कभी बुद्ध जैसे व्यक्ति चोट करते हैं, तो सिर्फ
अनुकंपा के कारण, करुणा के कारण। इस पर दया आती होगी कि
बेचारा, मेरे पास आकर भी चूका जाता है! इतने पास रहकर चूका
जाता है। सरोवर के इतने पास—और प्यासा!
फिर
किसी महोत्सव के समय,
जब बहुत भिक्षु इकट्ठे हुए, हजारों भिक्षुओं
के सामने उन्होंने निश्चित ही कठोर चोट की। कहा : हट जा वक्कलि! वह बैठा होगा
सामने ही। वह देख रहा होगा। वह लगा होगा अपने ही काम में। वह रस पी रहा होगा अपना
ही। यद्यपि वह रस ऐसा ही है, जैसे कोई नालियों से रस पीए।
देह
में और क्या हो सकता है! बुद्ध की देह में भी नहीं कुछ हो सकता है। किसी की देह
में नहीं होता। देह तो एक जैसी है। अज्ञानी की हो कि ज्ञानी की हो, भेद देह
में जरा भी नहीं है। भेद है, तो भीतर है। भेद है, तो जागरण का और सोने का है।
हट
जा वक्कलि! हट जा वक्कलि! मेरे सामने से हट जा। ऐसा बुद्ध ने कहा ही नहीं, उसे हटवा
भी दिया।
वक्कलि
को स्वभावत: गहरी चोट लगी। लेकिन अज्ञानी आदमी करुणापूर्ण कृत्यों की भी अपनी ही
व्याख्या करता है। उसने सोचा कि ठीक है। तो बुद्ध मुझ पर क्रुद्ध हो गए हैं। तो अब
जीने से क्या सार! अब मर जाने में ही सार है।
तब
भी जो बुद्ध चाहते थे,
वह नहीं समझा। अगर बुद्ध की सुनकर हट गया होता सामने से, चला गया होता दूर पहाड़ी पर, बैठ गया होता आंख बंद
करके, कि बुद्ध नाराज हैं, क्योंकि मैं
ध्यान नहीं कर रहा हूं; बुद्ध नाराज हैं, क्योंकि मैं समाधि में नहीं उतर रहा हूं। उनकी महाकरुणा कि उन्होंने मुझे
हटवाया है, ताकि मैं जाऊं और समाधि में उतरूं। तो ठीक समझा
होता। ठीक व्याख्या की होती। मगर गलत व्याख्या कर ली।
ऐसी
गलत व्याख्या तुम भी करते चले जाते हो। मैं कुछ कहता हूं; तुम
व्याख्या कर लेते हो अपनी। तुम सोच लेते हो इसका मतलब ऐसा! मतलब तुम निकाल लेते
हो। शिष्य को चाहिए कि अपना मतलब न डाले। जल्दी न करे मतलब डालने की। मौन बैठे। जो
कहा गया है, उस शब्द को अपने भीतर उतरने दे। मतलब करने की
जल्दी न करे। तुमने अर्थ निकाला, अनर्थ हो जाएगा।
अब
उसने क्या समझा?
कि बुद्ध कहते हैं कि अब तू किसी सार का नहीं, असार है। तू योग्य नहीं है, अपात्र है। मर जा। तेरे
जिंदा रहने में कोई मतलब नहीं है। भारी अपमान हो गया मेरा—सोचा होगा। हजारों
भिक्षुओं के सामने मुझ ब्राह्मण—पुत्र को इस तरह दुत्कारा! कि हट जा वक्कलि। हटाया
ही नहीं, इतना भारी अपमान किया! अकेले में कह देते।
हालांकि
अकेले में वे बहुत बार कह चुके थे और इसने सुना नहीं था। उसने सोचा. अब मेरे जीने
से क्या लाभ?
जीने में तो एक ही अर्थ था उसके और वह अर्थ था बुद्ध की देह को
देखते रहना!
जब
मैं सामने ही न बैठ सकूंगा उनके, तो अब मर जाना उचित है। ऐसा सोच वह गृद्धकूट
पर्वत पर चढ़ा. पर्वत से कूदकर आत्मघात के लिए। अंतिम क्षण में—बस जब कि वह कूदने
को ही था—अंधेरी रात में कोई हाथ पीछे से उसके कंधे पर आया।
बुद्ध
का हाथ है ही इसीलिए कि जब तुम अंधेरे में होओ, और जब तुम जीवन के प्रति इतने उदास,
इतने खिन्न हो जाओ, कि अपने को मिटाने को
तत्पर हो जाओ, तब बुद्ध का हाथ है ही इसलिए कि तुम्हारे कंधे
पर आए।
गुरु
का अर्थ ही यही है कि वह तुम्हें तलाशे। जब तुम्हें जरूरत हो, तब उसका
हाथ पहुंच ही जाना चाहिए। तुम्हारी जरूरत हो और उसका हाथ न पहुंचे, तो फिर गुरु गुरु नहीं है। तुम कितने ही दूर होओ, इससे
कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम हजारों मील दूर होओ, इससे भी कोई
फर्क नहीं पड़ता। जब तुम्हारी वास्तविक जरूरत होगी, गुरु का
हाथ तुम्हारे पास पहुंचेगा ही। पहुंचना ही चाहिए। वही तो अनुबंध है—शिष्य और गुरु
के बीच। वही तो गांठ है—शिष्य और गुरु के बीच। वही तो सगाई है—शिष्य और गुरु के
बीच।
कोई
हाथ पीछे से कंधे पर आया। उसने लौटकर देखा। भगवान सामने खड़े थे। मगर यह देह नहीं
थी। यह भगवान की देह नहीं थी। यह भगवान का वही रूप नहीं था, जो अब तक
देखता रहा था। आज कुछ अभिनव घटित हुआ था। इस मृत्यु के क्षण में।
अक्सर
ऐसा हो जाता है। जब आदमी मरने ही जा रहा है, जब मरने के लिए आखिरी कदम उठा लिया
है—एक क्षण और, और समाप्त हो जाएगा—तो मन अपने आप रुक जाता
है, अवरुद्ध हो जाता है। ऐसी घड़ियों में मन को चलने की
सुविधा ही नहीं रहती। मन को चलने के लिए भविष्य चाहिए।
इसे
समझ लेना। जब कोई आदमी मरने जा रहा है, तो भविष्य तो बचा ही नहीं। बात खतम
हो गयी। अब मन को चलने को क्या रहा? मन को चलने को जगह
चाहिए। आगे दीवाल आ गयी—मौत आ गयी।
इसीलिए
तो का आदमी पीछे लौट—लौटकर सोचने लगता है। आगे तो दीवाल है, वहा सोचने
की जगह नहीं है। जवान सोचता है. कल बड़ा मकान बनाऊंगा। सुंदर स्त्री लाऊंगा। ऐसा
होगा, वैसा होगा। वह भविष्य की सोचता है। मन आगे की तरफ
दौड़ता है।
बूढ़ा
आदमी एक दिन देखता है आगे तो अब कुछ भी नहीं है। आगे तो मौत है। अब आगे क्या सोचना? वह मौत से
बचने के लिए मौत की तरफ पीठ कर लेता है, पीछे की तरफ सोचने
लगता है। वह कहता है. क्या जमाने थे! राम—राज्य था। स्वर्णयुग था। बीत गया। अब
कैसा भ्रष्ट युग आ गया! दूध इस भाव बिकता था। घी इस भाव बिकता था! गेहूं इस भाव
बिकता था! वह इन बातों को सोचने लगता है। वह अपने पचास, साठ
या अस्सी साल पहले जो स्थितियां थीं, उनका विचार करने लगता
है। कैसे सुंदर दिन थे? कैसे अच्छे लोग थे!
ये
ही लोग थे। ये ही दिन थे। कुछ फर्क नहीं पड़ता दुनिया में बाहर। दुनिया वही की वही
है। वैसी की वैसी है। लेकिन बूढ़ा रंग भरने लगता है अपने अतीत में। सब बूढे भरते
हैं।
लेकिन
अगर कोई आत्मघात करने जाए,
तब तो पीछे भी लौटकर नहीं सोच सकता। अब तो सोचना ही समाप्त हुआ। आखिरी
घड़ी आ गयी। अपने हाथ से मिटने जा रहा है। अब विचार के लिए उपाय नहीं है, सपने के लिए उपाय नहीं है। तो मन न रहा होगा मौजूद! और इस अंधेरी रात में
किसी हाथ का कंधे पर पड़ना। एकदम चौंका होगा! यहां कौन? लौटकर
देखा होगा। ज्योतिर्मय रूप था। जिसको बुद्ध देखने के लिए कह रहे थे बार—बार—कि तू
उसे देख, जो मैं वस्तुत: हूं —आज इस मृत्यु की घड़ी में सामने
खड़ा हो गया था।
यह
बुद्ध की पार्थिव देह नहीं थी। बौद्धशास्त्र गलत कहते हैं। बौद्धशास्त्र कहते हैं
कि बुद्ध खुद ही वहा आकाश—मार्ग से उडकर खडे हो गए थे। नहीं; यह बुद्ध
की अंतदेंह थी। यह बुद्ध की अंतरात्मा थी। यह बुद्ध का बुद्धत्व था, जो वहा खड़ा हुआ था। अगर चमड़े की ही देह खड़ी होती, तो
मैं तुमसे पक्का कहता हूं. वक्कलि फिर चूक जाता।
आज
उसने शास्ता को वैसा नहीं देखा, जैसा वह सदा देखता था; पर
ऐसा देखा जैसा शास्ता चाहते थे कि देखे। आज उसने शास्ता की देह नहीं, शास्ता को देखा। आज उसने धर्म को जीवंत सामने खड़ा पाया। वह महाकरुणा बरसती
हुई; वह प्रसाद, वह शीतल बरसा, वह अमृत का मेघ! एक नयी प्रीति उसमें उमगी—ऐसी प्रीति जो बांधती नहीं,
मुक्त करती है।
प्रेम
दो तरह के होते हैं। जब प्रेम शूद्र जैसा प्रेम होता है, शूद्र का
प्रेम होता है, तो बांधता है। क्षुद्र का प्रेम बांधता है,
क्योंकि क्षुद्र का प्रेम तुम्हें भी क्षुद्र बना देगा। जैसा प्रेम
करोगे, जिससे प्रेम करोगे, जिस ढंग से
करोगे, वैसे हो जाओगे।
प्रेम
बड़ी कीमिया है,
सोच—समझकर करना। प्रेम करना हो, तो विराट से
करना। प्रेम करना हो, तो आकाश से करना। प्रेम करना हो,
तो असीम से करना। क्योंकि जिससे तुम प्रेम करोगे, वैसे ही तुम हो जाओगे। क्षुद्र से करोगे, क्षुद्र हो
जाओगे। खयाल रखना, प्रेम रूपातरकारी है। प्रेम एकमात्र रसायन
है।
आज
एक नयी प्रीति उमड़ी। अब तक जो प्रीति जानी थी, देह की थी। शूद्र मन की थी। आज
ब्राह्मण पैदा हुआ। वक्कलि आज ब्राह्मण हुआ। ब्राह्मण—कुल में पैदा हुआ था,
उस समय नहीं। आज बुद्ध के कुल में पैदा होकर ब्राह्मण हुआ। आज बुद्ध—कुल
में जन्मा। आज नया जन्म हुआ। द्विज हुआ।
इसलिए
तो ब्राह्मण को द्विज कहते हैं। लेकिन सभी ब्राह्मण द्विज नहीं होते। सभी द्विज
जरूर ब्राह्मण होते हैं। फिर द्विज चाहे जीसस हों, चाहे मोहम्मद—सभी द्विज
ब्राह्मण होते हैं।
लेकिन
आमतौर से लोग समझते हैं कि सभीब्राह्मण द्विज हैं। ब्राह्मण को द्विज कहते हैं।
गलत। द्विज को ब्राह्मण कहो। द्विज का अर्थ है जो दुबारा जन्मा। एक जन्म मां—बाप
से मिला। फिर दूसरा जन्म गुरु से मिला।
आज
वक्कलि द्विज हुआ,
ब्राह्मण हुआ। आज बुद्ध के कुल में जन्मा। एक नयी प्रीति उमड़ी।
विराट को सामने खड़े देखा। उस विराट में शून्य हो गया होगा। लीन हो गया होगा। वे
किरणें उसे धो गयीं, साफ कर गयीं, स्वच्छ
कर गयीं। वह नया हो आया। नए मनुष्य का जन्म हुआ, जिस पर
पुराने की अब छाया भी नहीं, धूल भी नहीं। पुराने से इसका कोई
संबंध भी नहीं है। यह पुराने से असंबंधित है। ऐसी घड़ी में भगवान ने ये सूत्र कहे
थे
छिंद सोतं परक्कम्म
कामें पनुद ब्राह्मण।
संखारानं खयं जत्वा
अकतज्जूसि ब्राह्मण ।।
'हे ब्राह्मण, पराक्रम से तृष्णा के स्रोत को काट दे और कामनाओं को दूर कर दे। हे
ब्राह्मण, संस्कारों के क्षय को जानकर तुम अकृत—निर्वाण—का
साक्षात्कार कर लोगे।’
बुद्ध
ने कहा जैसा मैं हूं?
ऐसा ही तू भी हो सकता है। बस, अब कामनाओं को
एक झटके में काट दे। अब दुबारा कामना न करना। फिर शूद्र मत हो जाना। इस घड़ी को ठीक
परख ले, पहचान ले, पकड़ ले। अब यह घड़ी
तेरी जिंदगी बने। अब यह घड़ी तेरी पूरी जिंदगी का सार हो जाए। इसी के केंद्र पर
तेरे जीवन का चाक घूमे।’हे ब्राह्मण।’
सुनते
हैं फर्क? अभी कुछ ही देर पहले, कुछ ही घंटों पहले कहा था.
वक्कलि हट! हट जा। हट जा वक्कलि! हटवा दिया था। इसके पहले कभी बुद्ध ने उसको
ब्राह्मण कहकर संबोधन नहीं किया था। वक्कलि। आज पहली दफा कहा. हे ब्राह्मण! आज वह
ब्राह्मण हुआ है।
छिंद सोतं परक्कम्म
कामें पनुद ब्राह्मण।
इस
घड़ी को पहचान,
इस घड़ी को पकड़। कामनाओं को काट, तृष्णाओं को
उच्छेद कर दे, संस्कारों का क्षय हो जाने दे। अब यह जो शून्य
तेरे भीतर घड़ीभर को उतरा है, यही तेरी नियति हो जाए,
यही तेरा स्वभाव हो जाए, तो तू अकृत को जान लेगा।
अकृत
अर्थात निर्वाण। अकृत—जो किए से नहीं होता। अकृत—जो करने से कभी हुआ नहीं, जो सब
करना छोड़ देने से होता है। जो समर्पण में होता है, संकल्प से
नहीं होता।
'जब ब्राह्मण दो धर्मों में पारंगत हो जाता है.।'
कौन
से दो धर्म? एक धर्म है, समथ। और दूसरा धर्म है, विपस्सना।
'तब उस जानकार के सभी संयोग—बंधन—अस्त हो जाते हैं।’
इन
दोनों शब्दों को समझ लेना जरूरी है।
बुद्ध
ने दो तरह की समाधि कही है. समथ समाधि और विपस्सना समाधि। समथ समाधि का अर्थ होता
है लौकिक समाधि। और विपस्सना समाधि का अर्थ होता है अलौकिक समाधि। समथ समाधि का
अर्थ होता है संकल्प से पायी गयी समाधि—योग से, विधि से, विधान
से, चेष्टा से, यत्न से। और विपस्सना
का अर्थ होता है. सहज समाधि। चेष्टा से नहीं, यत्न से नहीं,
योग से नहीं, विधि से नहीं—बोध से, सिर्फ समझ से। विपस्सना शब्द का अर्थ होता है अंतर्दृष्टि।
फर्क
समझना। तुमने सुना कि क्रोध बुरा है। तो तुमने क्रोध को रोक लिया। अब तुम क्रोध
नहीं करते हो। तो तुम्हारे चेहरे पर एक तरह की शाति आ जाएगी। लेकिन चेहरे पर ही।
भीतर तो क्रोध कहीं पड़ा ही रहेगा। क्योंकि तुमने दबा दिया है सुनकर। अगर तुम्हारी
समझ में आ गया कि क्रोध गलत है—शास्त्र कहते हैं, इसलिए नहीं, बुद्ध कहते हैं, इसलिए नहीं, मैं
कहता हूं इसलिए नहीं—तुमने जाना अपने जीवंत अनुभव से, बार—बार
क्रोध करके कि क्रोध व्यर्थ है। यह प्रतीति तुम्हारी गहन हो गयी, इतनी गहन हो गयी कि इस प्रतीति के कारण ही क्रोध असंभव हो गया, तुम्हें दबाना न पड़ा। तुम्हें विधि—विधान न करना पड़ा। तुम्हें अनुशासन
आरोपित न करना पड़ा। तो दूसरी दशा घटेगी। तब तुम्हारे भीतर भी शांति होगी, बाहर भी शाति होगी।
समथ
समाधि में बाहर से तो सब हो जाता है, भीतर कुछ चूक जाता है। विपस्सना
समाधि पूरी समाधि है। बाहर भीतर एक जैसा होता है, एकरस हो
जाता है।
जैसे
एक आदमी योगासन साधकर बैठ गया। अगर वर्षों अभ्यास कर लोगे, तो कसरत
की तरह योगासन सध जाएगा। योगासन तो साधकर बैठ गए बिलकुल पत्थर की मूर्ति की तरह।
हिलते ही नहीं! चींटी चढ़ती है; पता उसका लेते ही नहीं। मच्छड़
काटता है; फिक्र नहीं है। बैठे, तो
बैठे। घंटों बैठे हैं! लेकिन भीतर मन चल रहा है।
अभ्यास
कर लिया। अब मच्छड़ का भी अगर रोज—रोज अभ्यास करोगे। काटने दो—काटने दो—काटने दो।
धीरे— धीरे, धीरे —धीरे तुम्हारी चमड़ी संवेदना खो देगी। चींटी चढ़ती रहेगी, काटती रहेगी, तुम्हें पता नहीं चलेगा। चमड़ी कठोर हो
गयी अभ्यास से।
बाहर
से तो तुम मूर्ति बन गए,
लेकिन भीतर? भीतर बाजार भरा है।
फिर
एक और तरह का आसन है। वही असली आसन है। तुम्हारा मन घिर हो गया। चूंकि मन थिर हो
गया, इसलिए शरीर नहीं कंपता। तुम्हारा मन शांत है, इसलिए
शरीर को कंपाने की कोई जरूरत नहीं है। तब तुम शांत बैठे—यह और ही बात हो गयी।
इसलिए
पहली को बुद्ध ने लौकिक कहा, दूसरी को अलौकिक। पहली से तुम ब्राह्मण तक नहीं
पहुंच पाओगे। पहली से क्षत्रिय तक। संकल्प; जूझते हुए;
लड़ते हुए; प्रयास से। दूसरी से तुम ब्राह्मण
होओगे। प्रसाद से।
इसलिए
बुद्ध ने कहा जो दो धर्मों को जान लेता, समथ और विपस्सना, वह पहुंच गया।
पहले
आदमी को समथ से जाना पड़ता है। फिर समथ की हार पर विपस्सना का जन्म होता है।
ऐसा
ही बुद्ध को हुआ। छह वर्ष तक उन्होंने जो साधा, वह समथ समाधि थी। फिर छह वर्ष के
बाद, उस आखिरी रात जो घटा, वह विपस्सना
समाधि थी।
'जिसके पार, अपार और पारापार नहीं है, जो वीतभय और असंग है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
किसे
ब्राह्मण कहता हूं?
उसे जो तीन चीजों से दूर निकल गया है। पार का अर्थ होता है स्थूल;
आंख, कान, नाक से जो
देखा जाता है; जिसकी सीमा है—पार। अपार का अर्थ होता है
जिसकी सीमा नहीं है, जो बड़ा है, सूक्ष्म
है, स्थूल नहीं है। रूप, रस, गंध से, जो इंद्रियों से नहीं जाना जाता है, मगर मन से जाना जाता है।
जैसे
तुमने एक फूल देखा। इंद्रियां सिर्फ इतना ही कह सकती हैं कि लाल है। बड़ा है।
सुगंधित है। ये इंद्रियां कह रही हैं। यह पार है। जब तुम कहते हो सुंदर है, तो कोई
इंद्रिय तुम्हारे पास नहीं है सुंदर कहने वाली। सुंदर कहने वाला मन है। कोई
इंद्रिय नहीं बता सकती तुमको कि फूल सुंदर है। कैसे बताएगी? इंद्रिय
तो सिर्फ खबर दे देती है। इंद्रिय तो ऐसे है, जैसे कैमरा।
कैमरा यह नहीं कह सकता कि सुंदर है, कि असुंदर। कैमरा तो
उतार देता है, जो है। सामने गुलाब का फूल है; इंद्रिय खबर दे देती है। आंखें कहती हैं कि लाल फूल है, गुलाब का है। नाक कहती है. सुगंधित है। मगर सुंदर! जब तुम सुंदर कहते हों—तो
अपार।
तो
रस, रूप, गंध, सौंदर्य—ये जो हैं,
ये सूक्ष्म अनुभव हैं मन के। इंद्रियों के अनुभव—पार। मन के अनुभव—जो
कि आत्मा और इंद्रिय के मध्य में है—अपार। और फिर पारापार। पार और अपार दोनों से
भी पार, दोनों के आगे—फिर आत्मा का अनुभव है।
और
जो इन तीनों से पार हो जाता है,.। वह आत्मा का अनुभव क्या है? मैं का अनुभव—अत्ता। इसलिए बुद्ध ने कहा : आत्मा नहीं—अनत्ता। मैं को भी
जाने दो। इंद्रियां गयीं; मन गया, मैं
को भी जाने दो। पार से पार, अपार से पार; पार—अपार दोनों से पार। फिर जो शेष रह जाता है शून्य; वहां मैं का भाव भी नहीं है। उसे जो जान लेता है, उसे
मैं ब्राह्मण कहता हूं।
और
जो उसे जान लेता है,
स्वभावत: वीतभय हो जाता है। फिर उसे क्या भय! अब उसके पास कुछ बचा
नहीं, जिसे छीन लोगे। उसने सब स्वयं ही छोड़ दिया है। अब तो
शून्य बचा, जिसे कोई छीन नहीं सकता, जिसे
छीनने का कोई उपाय नहीं है। अब तो वही बचा, जिसकी मृत्यु
नहीं हो सकती। इसलिए भय कैसा! वह अभय को उपलब्ध हो जाता है।
और
असंग हो जाता है। अब उसको किसी के साथ की जरूरत नहीं रह जाती। साथ की जरूरत भय के
कारण है। समझ लेना।
इसीलिए
बुद्ध ने कहा. वीतभय और असंग।
तुम
साथ क्यों खोजते हो?
इसलिए कि अकेले में डर लगता है। पत्नी डरती है अकेले में। पति डरता
है अकेले में। अकेले में डर लगता है। अकेले में याद आने लगती है मौत की, घबड़ाहट होती है। कोई दूसरा रहता है, मन भरा रहता है।
तुमने
कभी देखा! अकेली गली से गुजरते हो रात। सीटी बजाने लगते हो! कुछ करते नहीं बनता, तो सीटी
बजाओ! फिल्मी गाना गाने लगते हो। फिल्मी गाना नहीं; अगर
धार्मिक किस्म के आदमी हो, तो राम—राम या हनुमान—चालीसा पढ़ने
लगे! सब एक ही है। कुछ फर्क नहीं है।
मगर
क्यों? सीटी की आवाज, अपनी ही आवाज है। लेकिन उसको सुनकर
ऐसा लगता है कि चलो, कुछ तो हो रहा है! कुछ है। हालाकि सीटी
की आवाज से कोई भूत—प्रेत भागेगे नहीं। भूत—प्रेत हैं नहीं कि जो भागे। मगर सीटी
की आवाज से तुमको ऐसा लगता है कि चलो, सब ठीक है। कुछ कर तो
रहे हैं! गाना गाने लगे जोर से। अपनी ही आवाज सुनकर ऐसा लगता है, जैसे कोई और मौजूद है। भूल गए।
आदमी
अपने को भुला रहा है। इसलिए संग—साथ खोज रहा है।
बुद्ध
ने कहा. वही ब्राह्मण है,
जिसे संग—साथ की कोई जरूरत नहीं रही, जो असंग
है। और जो वीतभय है।
'जो ध्यानी, निर्मल, आसनबद्ध,
कृतकृत्य, आस्रवरहित है, जिसने उत्तमार्थ को पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण
कहता हूं।’
जो
ध्यान में डूब रहा है। ध्यान यानी निर्विचार। जो निर्मल हो रहा है। निर्विचारता
निर्मलता लाती है। विचार चालाकी है।
तुमने
देखा! जितना आदमी पढ़ा—लिखा हो जाता है, उतना चालाक, धोखेबाज,
पाखंड़ी हो जाता है। जितने विचार बढ़ जाते हैं, उतना आदमी बेईमान हो जाता है। पढ़ा—लिखा आदमी और बेईमान न हो, जरा कठिन है।
और
हम सोचते हैं,
बड़ी उलटी बात हो रही है। हम कहते हैं कि यह मामला क्या है? विश्वविद्यालय से लोग आते हैं पढ़—लिख करके और इनमें सिवाय बेईमानी और
धूर्तता के कुछ भी नहीं होता।
लेकिन
विश्वविद्यालय सिखाते यही हैं। तुमने जो शिक्षा विकसित की है, वह
धूर्तता की है। निर्विचार की तो वहां कोई शिक्षा ही नहीं है। कोई विश्वविद्यालय
ध्यान की क्षमता नहीं देता, निर्मलता नहीं देता, सरलता नहीं देता। चालबाजी सिखाता है। गणित सिखाता है। तर्क सिखाता है।
कैसे लूट लो दूसरों से ज्यादा, यह सिखाता है। बिना कुछ किए
कैसे संपत्ति मिल जाए, यह सिखाता है!
सिखाते
तुम यह हो और फिर जो सिखाने वाले हैं, वे भी परेशान हैं। जब उनके
विद्यार्थी उन्हीं को धोखा देने लगते हैं, उन्हीं की जेब
काटने लगते हैं, तो वे कहते हैं : यह मामला क्या है? गुरु के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है!
लेकिन
तुम इनको सिखा क्या रहे हो?
श्रद्धा तुमने कभी इनको सिखायी? तुमने सिखाया
तर्क, संदेह, और जब ये तुम पर ही तर्क
करते हैं और तुम्हारे साथ ही संदेह करते हैं, और तुम्हारे
साथ ही चालबाजियां.......। अभ्यास कहां करेंगे? यह होमवर्क
है! फिर दुनिया में जाएंगे, फिर वहा असली काम करना पड़ेगा!
ये तैयारी कर रहे हैं।
यह
जो विश्वविद्यालयों में इतनी रुग्णता दिखायी पड़ती है—हड़ताल, घिराव—इस
सबके लिए जिम्मेवार शिक्षा है; विद्यार्थी नहीं। तुम्हारी
शिक्षा इसी के लिए है। तुम्हारी शिक्षा हिंसा सिखाती है और चालबाजी सिखाती है। और
जब कोई आदमी चालबाज हो जाता है, हिंसक हो जाता है, तो उसका अभ्यास करना चाहता है—स्वभावत:। कहां अभ्यास करे? विश्वविद्यालय में ही अभ्यास करेगा।
तुम्हारे
विश्वविद्यालय राजनीति सिखाते हैं। अभ्यास कहां करे? फिर वहीं चुनाव लड़ना सीखता
है। विद्यार्थी यूनियन का चुनाव—और तुम देखोगे, जैसे कि
पार्लियामेंट का चुनाव हो रहा है! वह अभ्यास कर रहा है। वह छिछले पानी में तैरना
सीख रहा है। फिर कल वह पार्लियामेंट में भी जाएगा।
और
पार्लियामेंट में भी वही होता है। जरा बड़े पैमाने पर। वही मूढ़ता। वही धूर्तता। वही
गुंडागर्दी। कोई फर्क नहीं!
इसके
पीछे कारण है। ध्यान न हो,
तो निर्मलता नहीं होती।
बुद्ध
ने कहा. ध्यानी,
निर्मल, आसनबद्ध.।
जब
भीतर निर्मलता होती है,
तो शरीर के व्यर्थ हलन—चलन अपने आप विलीन हो जाते हैं। शरीर में एक
तरह की थिरता आ जाती है। एक तरह की शाति आ जाती है।
कृतकृत्य..
और स्वभावत: फूल जब ध्यान के खिलते हैं, तभी पता लगता है कि मिल गया,
जो मिलना था, पा लिया, जो
पाना था। पाने योग्य पा लिया। अब कुछ और पाने योग्य नहीं है। आखिरी संपदा मिल गयी।
कृतकृत्य।
आस्रवरहित.
और जो ध्यान को उपलब्ध हो गया, उसके भीतर व्यर्थ चीजें नहीं आ सकतीं। ध्यान
उसका रक्षक हो जाता है। जो ध्यान को उपलब्ध हो गया, उसको
क्रोध नहीं आएगा। जो ध्यान को उपलब्ध हो गया, उसको लोभ नहीं
आएगा। जो ध्यान को उपलब्ध हो गया, उसको मोह नहीं आएगा।
क्यों? उसके घर
अब दीया जल गया है। और दीया जला हो, तो अंधेरा भीतर नहीं
आता। और उसके भीतर पहरेदार जग गया है। और पहरेदार जगा हो, तो
चोर नहीं आते।
आस्रवरहित...।
अब शत्रु भीतर प्रवेश नहीं कर सकते।
और
जिसने उत्तमार्थ को पा लिया है। दुनिया में दो अर्थ हैं। एक अर्थ शरीर का है, और एक
अर्थ आत्मा का। आत्मा का अर्थ है—उत्तमार्थ। परमार्थ। आखिरी अर्थ जिसने पा लिया है,
उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
दूसरा
दृश्य:
भगवान के मिगारमातु— प्रसाद
में विहार करते समय एक दिन आनंद स्थविर ने भगवान को प्रणाम करके कहा भंते! आज मैं
यह जानकर धन्य हुआ हूं कि सब प्रकाशों में आपका प्रकाश ही बस प्रकाश है। और प्रकाश
तो नाममात्र को ही प्रकाश कहे जाते हैं। आपके प्रकाश के समक्ष वे सब अंधेरे जैसे
मालूम हो रहे हैं। भंते! मैं आज ही आपको और आपकी अलौकिक ज्योतिर्मयता को देख पाया
हूं दर्शन कर पाया हूं और अब मैं कह सकता हूं कि मैं अंधा नहीं हूं।
शास्ता
ने यह सुन आनंद की आंखों में देर तक झांका। और और—और आलोक उसके ऊपर फेंका।
आनंद
डूबने लगा होगा उस प्रसाद में, उस प्रकाश में, उस प्रशांति में।
और
फिर उन्होंने कहा. हां आनंद ऐसा ही है। लेकिन इसमें मेरा कुछ भी नहीं है। मैं तो
हूं ही नहीं इसीलिए प्रकाश है। यह बुद्धत्व का प्रकाश है मेरा नहीं। यह समाधि की
ज्योति है मेरी नहीं। मैं मिटा तभी यह ज्योति प्रगट हुई है। मेरी राख पर यह ज्योति
प्रगट हुई है।
तब
यह सूत्र उन्होंने आनंद को कहा:
दिवा तपति आदिच्चो
रतिं आभाति चन्दिमा।
सन्नद्धो खत्तियो
तपति झायी तपति ब्राह्मणो।
अथ सब्बमहोरत्तिं
बुद्धो तपति तेजसा ।।
'दिन में केवल सूरज तपता है, दिन में केवल सूरज प्रकाश देता है। रात में चंद्रमा तपता है; रात में चंद्रमा प्रकाश देता है। अलंकृत होने पर राजा तपता है।' जब खूब स्वर्ण सिंहासनों पर राजा बैठता है, बहुमूल्य
वस्त्रों को पहनकर, हीरे—जवाहरातों के आभूषणों में, हीरे—जवाहरातों का ताज पहनता—तब राजा प्रकाशित होता है।
'ध्यानी होने पर ब्राह्मण तपता है।’
और
जब ध्यान की पहली झलकें आनी शुरू होती हैं, तो एक ज्योति आनी शुरू होती है
ब्राह्मण से, ध्यानी से।
'और बुद्ध दिन—रात तपते हैं।’
अकारण
तपते हैं। बिन बाती बिन तेल।
फर्क
समझना। सूरज की सीमा है,
दिन में तपता है। चांद की सीमा है, रात तपता
है। फिर सूरज एक दिन बुझ जाएगा। और चांद के पास तो अपनी कोई रोशनी नहीं है,
उधार है। वह सूरज की रोशनी लेकर तपता है। जिस दिन सूरज बुझ जाएगा,
उसी दिन चांद भी बुझ जाएगा। चांद तो दर्पण जैसा है। वह तो सिर्फ
सूरज की रोशनी को प्रतिफलित करता है। सूरज गया, तो चांद गया।
सूरज
की सीमा है; हालांकि सीमा बहुत बड़ी है। करोड़ों —करोड़ों वर्ष से तप रहा है। लेकिन
वैज्ञानिक कहते हैं एक दिन बुझेगा। क्योंकि यह बिन बाती बिन तेल नहीं है। इसका
ईंधन समाप्त हो रहा है, रोज—रोज समाप्त हो रहा है। बड़ा ईंधन
है इसके पास, लेकिन रोज सूरज ठंडा होता जा रहा है। उसकी
गर्मी कम होती जा रही है। गर्मी फिंकती जा रही है, खर्च होती
जा रही है।
एक
दिन सूरज चुक जाएगा। यह प्रकाश —सीमित है। तुम्हारे घर में जला हुआ दीया तो सीमित
है ही। क्या है उसकी सीमा?
उसका तेल। रातभर जलेगा; तेल चुक जाएगा;
बाती भी जल जाएगी फिर। फिर दीया पड़ा रह जाएगा।
ऐसे
ही सूरज भी जलेगा—करोड़ो —करोडों वर्षों तक। लेकिन उसकी सीमा है। और चांद में तो
प्रतिफलन है केवल।
'अलंकृत होने पर राजा तपता है।’
राजा
की जो प्रतिष्ठा होती है,
प्रकाश होता है, वह अपना नहीं होता, उधार होता है।
देखते
तुम, एक आदमी जब गद्दी पर बैठता है, तो दिखायी पड़ता है
सारी दुनिया को; नहीं तो उसका पता ही नहीं चलता किसी को। कोई
आदमी मिनिस्टर हो गया, तब तुम्हें पता चलता है कि अरे! आप भी
दुनिया में थे! फिर वह एकदम दिखायी पड़ने लगता है। सब अखबारों में दिखायी पड़ने लगता
है। प्रथम पृष्ठ पर दिखायी पड़ने लगता है। सब तरफ शोरगुल होने लगता है।
फिर
एक दिन पद चला गया। फिर वह कहां खो जाता है, पता ही नहीं चलता! फिर तुम उसे
खोजने निकलो, तो पता न चले!
यह
उधार है, यह प्रतिष्ठा उधार है। यह ज्योति अपनी नहीं है। यह अपनी नहीं है, यह पद की है।
अगर
तुम्हें राजा मिल जाए साधारण वस्त्रों में, तुम पहचान न सकोगे। तभी पहचानोगे,
जब वह अपने मुकुट को बांधकर और अपने सिंहासन पर बैठेगा। तब
पहचानोगे। नहीं तो नहीं पहचान सकोगे। राजा में कुछ और होता ही नहीं। तुम्हारे जैसा
ही आदमी है। इस बात को प्रतिष्ठित करने के लिए ही तो इतने हीरे—जवाहरातों की जरूरत
पड़ती है।
जब
नेपोलियन हार गया,
और उसके महलों की छानबीन की गयी, तो बड़े चकित
हुए लोग। उसने जो सिंहासन बनवाया था, वह इस ढंग से बनवाया था,
उसमें एक यंत्र लगाया हुआ था पीछे कि जब वह सिंहासन पर बैठता,
तो सिंहासन अपने आप धीरे— धीरे ऊपर उठ जाता! चमत्कृत हो जाते थे लोग
कि सिंहासन अपने आप ऊपर उठ रहा है!
वह
यह दिखाने के लिए उसने लगवाया था कि सिंहासन की वजह से मैं प्रतिष्ठित नहीं, मेरी वजह
से सिंहासन प्रतिष्ठित है। देखो, मेरे बैठते ही! पीछे इंतजाम
था। जैसे ही वह बैठता, आदमी वहा बटनें दबाते; मशीन काम करती। वह ऊपर उठ जाता। वह दुनिया में अकेला सिंहासन था। लोग
सोचते थे चमत्कार है।
इसलिए
तो लोग राजा को सदा भगवान का अवतार मानते रहे कि राजा भगवान का प्रतिनिधि है
पृथ्वी पर। ऐसा कुछ भी नहीं है। वह आदमियों तक का प्रतिनिधि नहीं है। भगवान का तो
प्रतिनिधि क्या होगा?
उसके पास अपना कुछ नहीं है। सब उधार है। उसकी तलवार में उसकी ज्योति
है। उसके सैनिकों में उसकी ज्योति है। उसके धन में उसकी ज्योति है! हीरे—जवाहरातों
में ज्योति है। उसकी ज्योति अपनी नहीं है। राजनीति उधार ज्योति है।
इसलिए
बुद्ध कहते हैं 'अलंकृत होने पर राजा तपता है।’
जब
नेपोलियन को बंद कर दिया गया सेंट हेलेना के द्वीप में, तो वह
सुबह घूमने निकला अपने डाक्टर के साथ पहले ही दिन। अब तो कैदी है, सम्राट नहीं रहा। हार गया सब। एक घास वाली औरत, जिस
पगडंड़ी पर वह घूमने गया, घास का गट्ठर लिए आ रही है।
नेपोलियन का साथी जो डाक्टर है, जो उसके पास रखा गया है उसकी
सेवा इत्यादि के लिए, वह चिल्लाकर कहता है. घसियारिन,
रास्ता छोड! उसकी बात सुनता है नेपोलियन और उसे याद आता है कि अब तो
मैं एक कैदी हूं। वह हाथ पकड़ लेता है डाक्टर का। पगडंड़ी से नीचे उतर जाता है।
डाक्टर कहता है, क्यों? वह कहता है वह
जमाना गया, जब मैं कहता पहाड़ी से कि हट जाओ मैं आता हूं, तो पहाड़ हट जाते। अब घसियारिन भी नहीं हटेगी। हम ही को हट जाना चाहिए। वे
दिन गए!
नेपोलियन
जैसा शक्तिशाली आदमी भी एकदम नपुंसक हो जाता है। पद गया कि सब गया। धन गया कि सब
गया।
तो
बुद्ध कहते हैं राजा भी तपता है, लेकिन अलंकृत होने से।
'ध्यानी होने पर ब्राह्मण तपता है।’
राजा
से बेहतर ब्राह्मण है। उसके भीतर की संपदा प्रगट होनी शुरू हुई। ध्यान उमगा। लेकिन
ध्यान ऐसा है कभी होगा,
कभी चूक जाएगा। ब्राह्मण, ध्यानी— कभी—कभी
बिजली जैसे कौंधे—ऐसी दशा है। बिजली कौंध जाती है, सब तरफ
रोशनी हो जाती है। फिर बिजली चली गयी, तो सब तरफ अंधेरा हो
जाता है।
ध्यान
का अर्थ है : समाधि की कौंध। और जब ध्यान इतना गहरा हो जाता है कि अब समाधि की तरह
निश्चित हो गया,
ठहर गया, अब जाता नहीं, आता
नहीं। जब रोशनी थिर हो गयी, तो बुद्धत्व।
बुद्धत्व
ब्राह्मण की पराकाष्ठा है। ध्यान है झलक, समाधि है उपलब्धि।
'ध्यानी होने पर ब्राह्मण तपता है। बुद्ध रात—दिन अपने तेज से तपते हैं।’
और
बुद्ध.........
अथ
सब्बमहोरत्ति बुद्धो तपति तेजसा ।
……..
उन पर कोई सीमा नहीं है। न तो ऐसी सीमा है, जैसी
चांद—तारों पर। न ऐसी सीमा है, जैसे अलंकृत राजा पर। न ऐसी
सीमा है, जैसे ध्यानी ब्राह्मण पर। उनकी सब सीमाएं समाप्त हो
गयीं। वे प्रकाशमय हो गए हैं। वे प्रकाश ही हो गए हैं। वे तो मिट गए हैं, प्रकाश ही रह गया है।
यही
दिशा होनी चाहिए। यही खोज होनी चाहिए। ऐसी ज्योति तुम्हारे भीतर प्रगट हो, जो दिन—रात
जले, जीवन में जले, मृत्यु में जले;
देह में जले, जब देह से मुक्त हो जाओ, तो भी जले। और ऐसी ज्योति, जो ईंधन पर निर्भर न हो,
किसी तरह के ईंधन पर निर्भर न हो। जो निर्भर ही न हो। ऐसी ज्योति,
जिसको संतों ने कहा—बिन बाती बिन तेल।
आज
इतना ही।
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