समग्र संस्कृति का सृजन—प्रवचन—118
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न:
पूर्व
के और खासकर भारत के संदर्भ में एक प्रश्न बहुत समय से मेरा पीछा कर रहा है। वह यह
कि जिन लोगों ने कभी दर्शन और चिंतन के, धर्म और ध्यान के गौरीशंकर को
लांघा था, वे ही कालांतर में इतने ध्वस्त, और पतित, और विपन्न कैसे हो गए? भगवान, इस प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा
करें।
स्वाभाविक
ही था। अस्वाभाविक कभी होता भी नहीं। जो होता है, स्वाभाविक है। यह अनिवार्य
था। यह होकर ही रहता। क्योंकि जब भी कोई जाति, कोई समाज एक
अति पर चला जाता है, तो अति से लौटना पड़ेगा दूसरी अति पर।
जीवन संतुलन में है, अतियों में नहीं। जीवन मध्य में है और
आदमी का मन डोलता है पेंडुलम की भांति। एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है। भोगी
योगी हो जाते हैं; योगी भोगी हो जाते हैं। और दोनों जीवन से
चूक जाते हैं।
जीवन
है मध्य में,
जहां योग और भोग का मिलन होता है, जहां योग और
भोग गले लगते हैं। जो शरीर को ही मानता है, वह आज नहीं कल
अध्यात्म की तरफ यात्रा शुरू कर देगा। पश्चिम में अध्यात्म की बड़ी प्रतिष्ठा होती
जा रही है रोज। कारण? कारण वही है—शाश्वत कारण।
तीन
सौ वर्षों से निरंतर पश्चिम पदार्थवादी है। पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
आत्मा नहीं है,
परमात्मा नहीं है। देह सब कुछ है। इन तीन सौ साल की इस धारणा ने एक
अति पर पश्चिम को पहुंचा दिया, पदार्थवाद की आखिरी ऊंचाई पर
पहुंचा दिया। धन है; वितान है, सुख
—सुविधाएं हैं।
लेकिन
अति पर जब आदमी जाता है,
तो उसकी आत्मा का गला घुटने लगा। शरीर तो सब तरह से संपन्न है,
आत्मा विपन्न होने लगी। और कितनी देर तक तुम आत्मा की विपन्नता को
झेल पाओगे? आज नहीं कल आत्मा बगावत करेगी और तुम्हें दूसरी
दिशा में मुड़ना ही पड़ेगा।
इसलिए
अगर पश्चिम पूरब की तरफ आ रहा है, तो तुम यह मत सोचना कि यह पूरब की कोई खूबी है।
ऐसा तुम्हारे तथाकथित महात्मा समझते हैं। तुम्हारे राजनेता भी यही बकवास करते रहते
हैं। वे सोचते हैं पश्चिम के लोग पूरब की तरफ आ रहे हैं, देखो,
हमारी महिमा!
तुम्हारी
महिमा का इससे कोई संबंध नहीं है। पश्चिम अगर पूरब की तरफ आ रहा है, तो
पदार्थवाद की अति के कारण आ रहा है। एक अति देख ली, वहां कुछ
पाया नहीं। वहां शरीर तो ठीक रहा, आत्मा घुट गयी।
और
आदमी दोनों का जोड़ है। आदमी दोनों का मिलन है। आदमी न तो शरीर है, न आत्मा
है। आदमी, दोनों के बीच जो स्वर पैदा होता है, वही है। दोनों के बीच जो लयबद्धता है, वही है। शरीर
और आत्मा का नाच है आदमी। साथ —साथ दोनों नाच रहे हैं। उस नृत्य का नाम आदमी है।
और जब नृत्य पूरा होता है, शरीर और आत्मा दोनों संयुक्त होते
हैं, तब तृप्ति है।
ऐसा
ही पूरब में घटा। आत्मा—आत्मा—आत्मा। संसार माया है, झूठ है, असत्य है। शरीर है ही नहीं, सपना है। एक अति पैदा कर
दी। तो आत्मा की ऊंचाई को तो छुआ, लेकिन शरीर तडुफने लगा,
जैसी मछली तड़फती है प्यासी— धूप में, रेत
पर—ऐसी भारत की देह घुटने लगी। उस देह की घुटन का यह परिणाम हुआ, जो आज सामने है।
तो
आदमी का संतुलन जब भी टूटेगा, तब विपरीत दिशा की तरफ यात्रा शुरू हो जाती है।
इसलिए
फिर दोहराता हूं यहां योगी भोगी हो जाते हैं, भोगी योगी हो जाते हैं। दोनों चूक
जाते हैं। क्योंकि दोनों रोगी हैं। रोग का मतलब—अति। योगी आत्मा की अति .से पीड़ित
है। भोगी शरीर की अति से पीड़ित है। दोनों में भेद नहीं है। दोनों अतियों से पीड़ित
हैं। एक ने शरीर को घोंट डाला है, एक ने आत्मा को घोंट डाला
है। लेकिन दोनों ने जीवन की परिपूर्णता को अंगीकार नहीं किया है।
मैं
तुम्हें वही सिखा रहा हूं कि जीवन की परिपूर्णता को अंगीकार करो। इनकार मत करना
कुछ। तुम देह भी हो;
तुम आत्मा भी हो। और तुम दोनों नहीं भी हो। तुम्हें दोनों में रहना
है और दोनों में रहकर दोनों के पार भी जाना है। तुम न तो भौतिकवादी बनना, न अध्यात्मवादी बनना। दोनों भूलें बहुत हो चुकीं हैं। जमीन काफी तड़फ चुकी
है। तुम अब दोनों का समन्वय साधना, दोनों के बीच संगीत
उठाना। दोनों का मिलन बहुत प्यारा है। दोनों के मिलन को मैं धर्म कहता हूं।
ये
तीन शब्द समझो. भौतिकवादी—नास्तिक। तथाकथित आत्मवादी— आस्तिक। दोनों के मध्य में, जहां न तो
तुम आस्तिक हो, न तो नास्तिक, जहां ही
और ना का मिलन हो रहा है—जैसे दिन और रात मिलते हैं संध्या में, जैसे सुबह रात और दिन मिलते हैँ—ऐसे जहां हा और ना का मिलन हो रहा है,
जहां तुम नास्तिक भी हो, आस्तिक भी, क्योंकि तुम जानते हो तुम दोनों का जोड़ हो। देह को इनकार करोगे, आज नहीं कल देह बगावत करेगी। आत्मा को इनकार करोगे, आत्मा
बगावत करेगी। और बगावत ही पतन का कारण होता है।
प्रश्न
सार्थक है। पूरब ने बड़ी ऊंचाइयां पायीं, लेकिन ऊंचाइयां अपंग थीं। जैसे कोई
पक्षी एक ही पंख से आकाश में बहुत ऊपर उड़ गया। कितने ऊपर जा सकेगा? और कितनी दूर जा सकेगा एक ही पंख से? शायद थोड़ा तड़फ
ले। थोड़ा हवाओं के रुख पर चढ़ जाए। शायद थोड़ी दूर तक अपने को खींच ले। लेकिन यह
ज्यादा देर नहीं होने वाला है। तुम एक पंख देखकर ही कह सकते हो कि यह पक्षी
गिरेगा। इसका गिरना अनिवार्य है।
उडान
होती है दो पंखों पर। लंगडा आदमी भी चल लेता है। मगर उसका चलना और दो पैर से चलने
में बड़ा फर्क है। लंगड़े आदमी का चलना कष्टपूर्ण है। लंगड़ा आदमी मजबूरी में चलता
है। और जिसके पास दोनों पैर हैं और स्वस्थ हैं, वह कभी—कभी बिना कारण के दौडता है,
नाचता है। कहीं जाना नहीं है, तो भी घूमने के
लिए निकलता है।
उन
दो पैरों के मिलन में जो आनंद है, वह आनंद अपने आप में परिपूर्ण है। इसलिए मैं
अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कह रहा हूं। संसार छोड़कर देख लिया गया।
जिन्होंने संसार छोड़ा वे बड़ी बुरी तरह गिरे, मुंह के बल
गिरे। मैं अपने संन्यासी को संसार ही सब कुछ है, ऐसा भी नहीं
कह रहा हूं। जिन्होंने संसार को सब कुछ माना, वे भी बुरी तरह
गिरे।
मैं
तुमसे कहता हूं. संसार और संन्यास दोनों के बीच एक लयबद्धता बनाओ। घर में रहो, और ऐसे
जैसे मंदिर में हो। दुकान पर बैठो, ऐसे जैसे पूजागृह में।
बाजार में और ऐसे जैसे हिमालय पर हो। भीड़ में और अकेले। चलो संसार में और संसार का
पानी तुम्हें छुए भी नहीं, ऐसे चलो। ऐसे होशपूर्वक चलो। तब
स्वास्थ्य पैदा होता है।
परमात्मा
ने तुम्हें शरीर और आत्मा दोनों बनाया है। और तुम्हारे महात्मा तुम्हें समझा रहे
हैं कि तुम सिर्फ आत्मा हो! लाख तुम्हारे महात्मा समझाते रहें कि तुम सिर्फ आत्मा
हो, कैसे झुठलाओगे इस सत्य को जो परमात्मा ने तुम्हें दिया है कि तुम देह भी
हो!
तुम्हारा
महात्मा भी इसको नहीं झुठला पाता। जब भूख लगती है, तब वह नहीं कहता कि मैं देह
नहीं हूं। तब चला भिक्षा मांगने! उससे कहो कि संसार माया है, कहां जा रहे हो? वहा है कौन भिक्षा देने वाला?
भिक्षा की जरूरत क्या है? आप तो देह हैं ही
नहीं। शिवोऽहं—आप तो शिव हैं, आप कहां जा रहे हैं? देह है कहां? देह तो सपना है।
अगर
महात्मा से यह कहोगे,
तब तुम्हें पता चलेगा। महात्मा को भी भिक्षा मांगने जाना पड़ता है।
भोजन जुटाना पड़ता है। सर्दी लगती है, तो कंबल ओढ़ना पड़ता है।
और सब माया है! शरीर पाया! कंबल माया! गर्मी लगती है. तो पसीना आता है, प्यास लगती है। बीमारी होती है, तो औषधि की जरूरत
होती है।
यह
महात्मा किस झूठ में जी रहा है जो कहता है कि शरीर माया है? इससे बड़ा
और झूठ क्या होगा?
और
फिर दूसरी तरफ लोग हैं,
जो कहते हैं कि शरीर ही सब कुछ है, आत्मा कुछ
भी नहीं है। इनसे जरा पूछो कि जब कोई तुम्हें गाली दे देता है, तो तकलीफ क्यों होती है? पत्थर को गाली दो, पत्थर को कोई तकलीफ नहीं होती है। और जब कोई वीणा पर संगीत छेड़ देता है,
तब तुम प्रफुल्लित और मग्न क्यों हो जाते हो? पत्थर
तो नहीं होता मग्न और प्रफुल्लित!
तुम्हारे
भीतर कुछ होना चाहिए,
जो पत्थर में नहीं है, जो प्रफुल्लित होता है,
मग्न होता है। सुबह सूरज को देखकर जो आह्लादित होता है। रात आकाश
में चांद—तारों को देखकर जिसके भीतर एक अपूर्व शाति छा जाती है।
यह
कौन है? देह के तो ये लक्षण नहीं हैं। देह को तो पता भी नहीं चलता, कहां चांद, कहां सूरज! कहा सौंदर्य; कहां शाति!
तुम्हारे
भीतर एक और आयाम भी है। तुम्हारे भीतर कुछ और भी है।
ऐसा
समझो चट्टान है। यह बाहर ही बाहर है। इसके भीतर कुछ भी नहीं है। तुम इसको कितना ही
खोदो, इसके भीतर नहीं जा सकोगे। इसके भीतर जैसी चीज है ही नहीं। चट्टान तो बस
बाहर ही बाहर है।
फिर
चट्टान के बाद गुलाब का फूल है। गुलाब में थोड़ा भीतर कुछ है। पखुडी ही पखुडी नहीं
है। पखुडियों से ज्यादा कुछ है। जब तुम चट्टान को देखते हो, तो चट्टान
साफ —सुथरी है। सीधी—साफ है। एकागी है। जब तुम गुलाब के फूल को देखते हो, तो वह इतना एकांगी नहीं है। कुछ और है। जीवन की झलक है। सौंदर्य है। एक
सलाम है।
फिर
तुम एक पक्षी को उड़ते देखते हो। इसमें कुछ और ज्यादा है। पक्षी अगर तुम्हारे पास आ
जाएगा, तो तुम पाओगे : इसमें कुछ और ज्यादा है। ज्यादा पास आने में डरता है।
गुलाब का फूल नहीं डरता। तुम पकड़ने की कोशिश करो, पक्षी उड़
जाता है। गुलाब का फूल नहीं उड़ जाता। पक्षी की आंखें तुम्हारी तरफ देखती हैं,
तो तुम जानते हो, इसके भीतर कुछ है, कोई है।
फिर
एक मनुष्य है। जब तुम एक मनुष्य को देखते हो, तो तुम जानते हो देह ही सब कुछ
नहीं है। भीतर गहराई है। इसकी आंखों में झांको, तो तुम्हें
पता चलता है देह ही नहीं है, आत्मा है।
और
फिर कभी एक बुद्ध जैसा व्यक्ति है, जिसके भीतर अनंत गहराई है—कि तुम
झांकते जाओ, झांकते जाओ और पार नहीं है। चट्टान में कुछ भी
भीतर नहीं है। बुद्ध में भीतर—और भीतर—और भीतर। इस भीतर का नाम ही आत्मा है। यह जो
भीतर का आयाम है, इसका नाम ही आत्मा है।
जो
कहता है. मैं सिर्फ शरीर हूं, वह अपनी गहराई को इनकार कर रहा है। वह परेशानी
में पड़ेगा। जो कहता है? मैं सिर्फ आत्मा हूं, वह अपने बाहर को इनकार कर रहा है। यह परेशानी में पडेगा। तुम बाहर— भीतर
का मेल हो। और अपूर्व मेल घट रहा है तुम्हारे भीतर।
यही
तो रहस्य है इस जगत का कि यहां विरोधाभास मिल जाते हैं; एक—दूसरे
में डूब जाते हैं। यहां विरोधाभास आलिंगन करते हैं।
भारत
नष्ट हुआ, होना ही था। अमरीका भी नष्ट हो रहा है, होना ही है।
क्योंकि अब तक मनुष्य समग्र संस्कृति पैदा नहीं कर पाया। अब तक मनुष्य पूर्ण
संस्कृति पैदा नहीं कर पाया—ऐसी संस्कृति जहां सब स्वीकार हो। जहां प्रेम भी
स्वीकार हो और ध्यान भी स्वीकार हो।
खयाल
रखना ध्यान यानी आत्मा,
ध्यान यानी भीतर जाने का मार्ग। और प्रेम यानी बाहर जाने का मार्ग।
जब तुम प्रेम करते हो, तो किसी से करते हो। और जब ध्यान करते
हो, तो सबसे टूट जाते हो, अकेले हो
जाते हो। ध्यान यानी एकांत। जब तुम ध्यान में हो, तब तुम आंख
बंद कर लेते हो। तुम बाहर को भूल जाते हो। तुम अपनी देह को भी विस्मृत कर देते हो।
संसार गया। तुम अपने भीतर जीते हो, भीतर धड़कते हो। चैतन्य
में और गहरे उतरते जाते हो।
जब
तुम प्रेम में उतरते हो,
तो अपने को भूल जाते हो, तब दूसरे पर आंख टिक
जाती है। तुम्हारी प्रेयसी या तुम्हारा प्रेमी, तुम्हारा
बेटा या तुम्हारी मां, तुम्हारा मित्र, जिससे तुम प्रेम करते हो, वही सब कुछ हो जाता है।
सारी आंख उस पर टिक जाती है। तुम अपने को विस्मृत कर देते हो। स्व को भूल जाते हो,
पर को याद करते हो प्रेम में। ध्यान में पर को भूल जाते हो, स्व को याद करते हो।
पूरब
ने ध्यान की ऊंचाई पायी,
प्रेम में चूक गया। प्रेम में चूक गया, तो पतन
होना निश्चित था। क्योंकि प्रेम भोजन है, अत्यंत जरूरी,
अत्यंत पौष्टिक भोजन है। उसके बिना कोई नहीं जी सकता।
प्रेम
ऐसे ही है, जैसे सांस लेना। बाहर से ही लोगे न सांस! और तो कोई उपाय नहीं है। अगर
बाहर से सांस लेना बंद कर दोगे, तो शरीर घुट जाएगा। और बाहर
से प्रेम आना बंद हो जाएगा और जाना बंद हो जाएगा, तो आत्मा
घुट जाएगी। भारत की आत्मा घुट गयी प्रेम के अभाव में।
पश्चिम
ने प्रेम को तो खूब फैलाया है, लेकिन ध्यान का उसे कुछ पता नहीं है। इसलिए
प्रेम छिछला है, उथला है। उसमें कोई गहराई नहीं है। उसमें
गहराई हो ही नहीं सकती, क्योंकि आदमी स्वीकार ही नहीं करता
है कि हमारे भीतर कोई गहराई है। तो प्रेम ऐसे ही है, जैसे और
सारे छोटे —मोटे काम हैं। एक मनोरंजन है, शरीर का थोड़ा
विश्राम, उलझनों से थोड़ा छुटकारा। लेकिन कोई गहराई की
संभावना नहीं है, आंतरिकता नहीं है।
दो
प्रेमी बस एक—दूसरे की शारीरिक जरूरत पूरी कर रहे हैं, आत्मिक
कोई जरूरत है ही नहीं। तो जिस दिन शरीर की जरूरतें पूरी हो गयीं या शरीर थक गया,
तो एक—दूसरे से अलग हो जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। क्योंकि
भीतर तो कोई जोड़ हुआ ही नहीं था। आत्माएं तो कभी मिली नहीं थीं। आत्माएं तो
स्वीकृत ही नहीं हैं। तो बस, हड्डी—मास—मज्जा का मिलन है।
गहरा नहीं हो सकता।
पश्चिम
ने ध्यान को छोड़ा है,
तो प्रेम उथला है। पश्चिम भी गिरेगा, गिर रहा
है। गिरना शुरू हो गया है। एक शिखर छू लिया अति का, अब भवन
खंडहर हो रहा है। यह अति का परिणाम है।
मैं
तुम्हें चाहूंगा कि तुम जानो कि तुम्हारे भीतर ध्यान की क्षमता हो और तुम्हारे
भीतर प्रेम की क्षमता हो। ध्यान तुम्हें अपने में ले जाए; प्रेम
तुम्हें दूसरे में ले जाए। और जितना ध्यान तुम्हारा अपने भीतर गहरा होगा, उतनी तुम्हारी प्रेम की पात्रता बढ़ जाएगी, योग्यता
बढ़ जाएगी। और जितनी तुम्हारी प्रेम की पात्रता और योग्यता बढ़ेगी, उतना ही तुम पाओगे तुम्हारा ध्यान में और गहरे जाने का उपाय हो गया। इन
दोनों पंखों से उडो, तो परमात्मा दूर नहीं है।
अब
तक कोई संस्कृति नहीं बन सकी, दुर्भाग्य से, जो दोनों
को स्वीकार करती हो। नहीं बनी, नहीं बनाने का उपाय हुआ,
उसका भी कारण है। क्योंकि दोनों को मिलाने के लिए मुझ जैसा पागल
आदमी चाहिए!
दोनों
विरोधी हैं। दोनों तर्क में बैठते नहीं हैं! एक के साथ तर्क बिलकुल ठीक बैठ जाता
है। एक को चुनो तो बात बिलकुल रेखाबद्ध, साफ—सुथरी मालूम होती है। दोनों को
चुनो, तो दोनों विपरीत हैं, तो फिर
व्यवस्था नहीं बनती, दर्शनशास्त्र निर्मित नहीं होता।
इसलिए
मैं कोई दर्शनशास्त्र निर्मित नहीं कर रहा हूं। मैं सिर्फ जीवन को एक छंद दे रहा
हूं—दर्शनशास्त्र नहीं। मैं जीवन को एक काव्य दे रहा हूं—दर्शनशास्त्र नहीं। मैं
जीवन को प्रेम करता हूं—सिद्धांतों को नहीं। अगर सिद्धांतों में मेरा रस हो, तो मुझे
भी उसी जाल में पड़ना पड़ेगा, जिस जाल में पहले सारे लोग पड़
चुके हैं। क्योंकि सिद्धांत की अपनी एक व्यवस्था है।
सिद्धांत
कहता है : शरीर है,
तो आत्मा नहीं हो सकती। क्योंकि तब सिद्धांत के ऊपर शरीर की सीमा
आरोपित हो जाती है। तब सिद्धांत कहता है : अगर आत्मा भी हो, तो
शरीर जैसी ही होनी चाहिए। कहां है? दिखायी नहीं पड़ती,
जैसा शरीर दिखायी पड़ता है। कहां है? शरीर का
तो वजन तौला जा सकता है, आत्मा किसी तराजू पर तुलती नहीं।
कहां है तुम्हारी आत्मा? हम शरीर को छिन्न—भिन्न करके देख
डालते हैं, हमें कहीं उसका पता नहीं चलता।
जिसने
कहा शरीर है,
उसने एक तर्क स्वीकार कर लिया कि जो भी होगा, वह
शरीर जैसा होना चाहिए, तो ही हो सकता है। अब आत्मा नहीं हो
सकती, क्योंकि आत्मा बिलकुल भिन्न है, विपरीत
है।
जिसने
मान लिया कि आत्मा है,
वह भी इसी झंझट में पड़ता है। जब आत्मा को मान लिया, कहा. अदृश्य सत्य है, तो फिर दृश्य झूठ हो जाएगा।
तर्क
को सुव्यवस्थित करने की ये अनिवार्यताए हैं। अगर अदृश्य सत्य है, असीम सत्य
है, तो फिर सीमित का क्या होगा? फिर जो
दिखायी पड़ता है, दृश्य है, उसका क्या
होगा? जो छुआ जा सकता है, स्पर्श किया
जा सकता है, उसका क्या होगा? तुमने अगर
अदृश्य को स्वीकार किया, तो दृश्य को इनकार करना ही होगा।
इसलिए
तुम यह बात जानकर चौंकोगे कि कार्ल मार्क्स और शंकराचार्य में बहुत भेद नहीं है.।
कार्ल मार्क्स कहता है : शरीर है केवल। और शंकराचार्य कहते हैं. आत्मा है केवल!
दोनों में कुछ भेद नहीं है। दोनों का तर्क एक ही है कि एक ही हो सकता है। दोनों
अद्वैतवादी हैं। दोनों की तर्क—सरणी में जरा भी भेद नहीं है। यद्यपि दोनों
एक—दृस्रे से विपरीत बात कह रहे हैं, लेकिन मेरे हिसाब से दोनों एक ही
स्कूल के हिस्से हैं; एक ही संप्रदाय के हिस्से हैं। क्यों?
क्योंकि दोनों ने एक बात स्वीकार कर ली है कि एक ही हो सकता है। और
जब एक हो सकता है, तो उससे विपरीत कैसे होगा?
और
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जीवन विपरीत पर खड़ा है। जैसे कि राज जब मकान बनाता
है, तो दरवाजों में देखा है, ईंटें चुनता है; दोनों तरफ से विपरीत ईंटें लगाता है। विपरीत ईंटों को लगाकर ही दरवाजा
बनता है। नहीं तो बन ही नहीं सकता। अगर एक ही दिशा में सब ईंटें लगा दी जाएं,
मकान गिरेगा। खडा नहीं रह सकेगा। विपरीत ईंटें एक—दूसरे को सम्हाल
लेती हैं। एक—दूसरे की चुनौती, एक—दूसरे का तनाव ही उनकी
शक्ति है।
जीवन
को तुम सब तरफ से देखो,
हर जगह द्वंद्व पाओगे। स्त्री है और पुरुष
है।
द्वंद्व है। उन दोनों के बीच ही बच्चे का जन्म है। नया जीवन उन्हीं के बीच बहता
है। जैसे नदी दो किनारों के बीच बहती है। ऐसे स्त्री—पुरुष के किनारों के बीच जीवन
की नयी धारा बहती रहती है।
परमात्मा
को अकल होती,
तो पुरुष ही पुरुष बनाता! अकल होती, तो
स्त्रियां ही स्त्रियां बनाता। अगर शंकराचार्य को बनाना पड़े, तो वे एक ही बनाएंगे। मार्क्स को बनाना पड़े, वह भी
एक ही बनाएंगे। ये दोनों अद्वैतवादी हैं। दोनों में कुछ भेद नहीं है। एक घोषणा
करता है : परमात्मा माया है; संसार सत्य है। एक घोषणा करता
है. परमात्मा सत्य है, संसार माया है। मगर तर्क एक ही है।
जीवन
को देखो जरा। यहां सब द्वंद्व पर खड़ा है। जन्म और मृत्यु साथ—साथ हैं। जुड़े हैं।
उलटे हैं और जुड़े हैं! रात और दिन साथ—साथ हैं। गर्मी और सर्दी साथ—साथ हैं। उलटे
हैं और जुड़े हैं! यहां तुम जहां भी जीवन को खोजोगे, वहीं तुम पाओगे. द्वंद्व
मौजूद है। जीवन द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है।
मैं
जीवन का पक्षपाती हूं। जीवन जैसा है, वैसा तुम्हें खोलकर कह देता हूं।
मुझे कोई जीवन पर सिद्धांत नहीं थोपना है। सिद्धांत हो, तो
आदमी हमेशा ही सिद्धांत का पक्षपाती होता है। उसके सिद्धांत के अनुकूल जो पड़ता है,
वह चुन लेता है, जो अनुकूल नहीं पड़ता, वह छोड़ देता है।
मेरा
कोई सिद्धांत नहीं है। मेरी आंख कोरी है। मैं कुछ तय करके नहीं चला हूं कि ऐसा
होना चाहिए। मेरे पास कोई तर्क नही है, कोई तराजू नहीं है। जीवन जैसा है,
वैसा का वैसा तुमसे कह रहा हूं। और जीवन विरोधाभासी है, इसलिए मैं विरोधाभासी हूं। इसलिए मेरे वक्तव्य सब विरोधाभासी हैं। मैंने
जीवन को झलकाया है। मैंने दर्पण का काम किया है।
अब
तक समग्र संस्कृति पैदा नहीं हो सकी, क्योंकि दार्शनिकों के हाथ से
संस्कृतियां पैदा हुई हैं। संस्कृति पैदा होनी चाहिए कवियों के द्वारा; और तब उनमें एक समग्रता होगी। सिद्धांतवादी कभी समग्र नहीं हो सकते।
इसलिए
मैं समस्त सिद्धांतों के त्याग का पक्षपाती हूं। छोड़ो सिद्धांतों को, जीवन को
देखो। और जैसा जीवन है, वैसा जीवन है, इसको
अंगीकार करो। इसी अंगीकार में गति है, विकास है। और इसी
अंगीकार में तुम्हारे भीतर परम घटेगा। और वह परम दरिद्र नहीं होगा, दीन नहीं होगा।
शंकराचार्य
का परम दरिद्र है। उसमें पदार्थ को झेलने की क्षमता नहीं है। वह पदार्थ को इनकार
करता है। मार्क्स का परम भी गरीब है, दीन है, दरिद्र
है। उसमें आत्मा को स्थान नहीं है।
मेरा
परम, परम समृद्ध है। मैं इसीलिए उसे ईश्वर कहता हूं। ईश्वर से मेरा मतलब है
ऐश्वर्यवान। परम समृद्ध है। सब द्वंद्वों का मेल है।
ईश्वर
इकतारा नहीं है;
जैसा कि तुम्हारे साधु—संन्यासी इकतारा लिए घूमते हैं! उसका कारण है,
इकतारा रखने का। एक की खबर देने के लिए एक तार रखते हैं। ईश्वर
बहुतात है। उसके बहुत तार हैं। बड़े रंग, बड़े रूप हैं। ईश्वर
सतरंगा है, इंद्रधनुषी है। तुम अपने स्थली आग्रहों को अगर न
थोपो, तो तुम्हें जीवन में इतने रंग दिखायी पड़ेंगे! इतनी
विविधता है जीवन में कि जिसका हिसाब नहीं। और इस विविधता में ही ऐश्वर्य है। इस
विविधता में ही ईश्वर छिपा है।
अगर
ईश्वर इकतारा हो,
तो उबाने वाला होगा। ऊब पैदा करेगा। रस चुकता ही कहां है जीवन का!
कभी नहीं चुकता। ऊब कभी पैदा होती ही नहीं जीवन से। जिसको हो जाती है, उसने कुछ इकतारा ले रखा होगा। जिसने खुली आंखें रखीं और जीवन के सतरंगे
रूप देखे; सब रूप देखे—शुभ और अशुभ, अच्छा
और बुरा, प्रीतिकर— अप्रीतिकर—सब अंगीकार किया, मधुशाला से लेकर मंदिर तक जिसे सब स्वीकार है, ऐसा
व्यक्ति ईश्वर के इंद्रधनुष को देखने में समर्थ हो पाता है। शराबी से लेकर साधु तक
जिसे सब स्वीकार है।
क्योंकि
हैं तो सब उसी के रूप। वह जो शराबी जा रहा है लड़खड़ाता हुआ, वह भी उसी
का रूप है। और वह जो साधु बैठा है वृक्ष के शांत, मौन,
एकांत में, वह भी उसी का रूप है। महावीर भी उसी के रूप हैं, और
मजनू में भी वही छिपा है।
इतनी
विराट दृष्टि हो,
तो समग्र संस्कृति पैदा हो सकती है।
इसीलिए
तो यहां जो एकांगी संस्कृति के लोग हैं, वे आ जाते हैं, उनको बड़ी अड़चन होती है। कभी—कभी कोई कम्युनिस्ट आ जाता है। वह मुझसे कहता
है और तो सब बात ठीक है, लेकिन आप अगर आत्मा, ईश्वर की बात न करें.। और सब बात ठीक है। ये उत्सव, ये
नृत्य, ये सब ठीक हैं; मगर ईश्वर,
परमात्मा को क्यों बीच में लाते हैं? अगर ये
आप बीच में न लाएं, तो हम भी आ सकते हैं।
पुराने
ढब का साधु—संन्यासी भी कभी—कभी आ जाता है। वह कहता है और सब तो ठीक है, आप
ईश्वर—आत्मा की जो बात करते हैं, वह बिलकुल जमती है। मगर यह
नृत्य—गान, यह प्रेम की हवा, यह माहांल;
ये युवक—युवतियां हाथ में हाथ डाले हुए चलते हुए, नाचते हुए, यह जरा जंचता नहीं! अगर यह आप बंद करवा
दें, तो हम सब आपके शिष्य होने को तैयार हैं।
ये
एकागी लोग हैं। इनमें से दोनों का मुझसे कोई संबंध नहीं बन सकता। यह जो प्रयास
यहां हो रहा है,
आज तुम्हें इसकी गरिमा समझ में नहीं आएगी। हजारों साल लग जाते हैं
किसी बात को समझने के लिए।
यह
जो प्रयोग यहां चल रहा है,
अगर यह सफल हुआ, जिसकी संभावना बहुत कम है,
क्योंकि वे एकागी लोग काफी शक्तिशाली हैं। उनकी भीड़ है। और सदियां
उनके पीछे खड़ी हैं। अगर यह प्रयोग सफल हुआ, तो हजारों साल
लगेंगे, तब कहीं तुम्हें दिखायी पड़ेगा कि क्या मैं कर रहा
था! जब यह पूरा भवन खडा होगा.। अभी तो नींव भी नहीं भरी गयी है। मुझे दिखायी पड़ता
है पूरा भवन कि अगर बन जाएगा, तो कैसा होगा। तुम्हें तो
सिर्फ इतना ही दिख पाता है कि कुछ गड्डे खोदे जा रहे हैं; कुछ
नींवें भरी जा रही हैं; कुछ ईंटें लायी जा रही हैं। तुम्हें
कुछ और दिखायी नहीं पड़ता। हजारों साल लगते हैं।
लेकिन
समय आ गया है।
विक्टर
बहे का एक प्रसिद्ध वचन है. जब किसी विचार के लिए समय आ जाता है, तो दुनिया
की कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती। समय की बात है।
वसंत
आ गया है इस फूल के खिलने का। दुनिया थक गयी है प्रयोग कर—करके एकांगी। और हर बार
एकांगी प्रयोग असफल हुआ है। अब हमें बहुरंगी प्रयोग कर लेना चाहिए। अब हम ऐसा
संन्यासी पैदा करें,
जो संसारी हो। और ऐसा संसारी पैदा करें, जो
संन्यासी हो।
अब
हम ऐसे ध्यानी पैदा करें,
जो प्रेम कर सकें। और ऐसे प्रेमी पैदा करें, जो
ध्यान कर सकें।
दूसरा प्रश्न:
क्या मैं शूद्र होकर भी आपका शिष्य हो सकता हूं? क्या मुझ
एकलव्य को आप स्वीकार करेंगे?
पहली तो बात मैं द्रोणाचार्य नहीं हूं। द्रोणाचार्य, मेरे लिए,
थोड़े से गंदे नामों में से एक है। और गंदा इसीलिए नाम हो गया—एकलव्य
को अस्वीकार करने के कारण।
द्रोणाचार्य
को गुरु भी नहीं कहना चाहिए। और अगर वे गुरु रहे होंगे, तो उसी
अर्थों में जिस तरह स्कूल के मास्टर को हम गुरु कहते हैं। उनमें कुछ गुरुत्व नहीं
था। शुद्ध राजनीति थी।
एकलव्य
को इनकार कर दिया,
क्योंकि वह शूद्र था। लेकिन उससे भी ज्यादा भीतर राजनीति थी। वह थी
कि वह अर्जुन से आगे निकल सकता था, ऐसी क्षमता थी उसकी।
राजपुत्र से कोई आगे निकल जाए, और शूद्र आगे निकल जाए
क्षत्रिय से—यह द्रोणाचार्य के ब्राह्मण को बर्दाश्त न था।
फिर
नौकर थे राजा के। उसके बेटे को ही दुनिया में सबसे बड़ा धनुर्धर बनाना था। जिसका
नमक खाया, उसकी बजानी थी। गुलाम थे। एकलव्य को इनकार किया—यह देखकर कि इस युवक की
क्षमता दिखायी पड़ती थी कि यह अर्जुन को पानी पिला दे! इसने पानी पिलाया होता। इसने
वैसे भी पानी पिला दिया। इनकार करने के बाद भी पिला दिया पानी।
तो
इनकार कर दिया। यह तो बहाना था कि शूद्र हो। इस बहाने के पीछे गहरा राजनैतिक दाव
था। वह यह था कि मेरा विशिष्ट शिष्य अर्जुन दुनिया में सर्वाधिक प्रथम हो। सबसे
ऊपर हो।
फिर
राजपुत्र ऊपर हो,
तो मुझे कुछ लाभ है। यह शूद्र अगर ऊपर भी हो गया, तो इससे मिलना क्या है? इनकार कर दिया।
लेकिन
एकलव्य अदभुत था। द्रोणाचार्य, मेरे लिए गंदे नामों में से एक है। एकलव्य,
मुझे बहुत प्यारे नामों में से एक है। अपूर्व शिष्य था, शिष्य जैसे होने चाहिए। द्रोणाचार्य ऐसे गुरु, जैसे
गुरु नहीं होने चाहिए। एकलव्य ऐसा शिष्य, जैसे शिष्य होने
चाहिए।
कोई
फिकर न की। मन में शिकायत भी न लाया। यह राजनीति दिखायी भी पड़ गयी होगी। लेकिन
जिसको गुरु स्वीकार कर लिया, उसके संबंध में क्या शिकायत करनी! जाकर मूर्ति बना
ली जंगल में। मूर्ति के सामने ही कर लूंगा।..
जरा
भी शिकायत नहीं है! क्रोध नहीं है। जिसको गुरु स्वीकार कर लिया, स्वीकार
कर लिया। अगर गुरु अस्वीकार कर दे, तो भी शिष्य कैसे
अस्वीकार कर सकता है? शिष्य ने तो सोचा होगा. शायद इसमें ही
मेरा हित है! इसीलिए उन्होंने अस्वीकार कर दिया।
गुरु
राजनीतिज्ञ था। शिष्य धार्मिक था। उसने सोचा : मेरा इनकार किया, तो जरूर
मेरा हित ही होगा। इससे कुछ लाभ ही होने वाला होगा। नहीं तो वे क्यों इनकार करते!
मूर्ति
बनाकर मूर्ति की पूजा करने लगा और मूर्ति के सामने ही धनुर्विद्या का अभ्यास शुरू
कर दिया। इतनी भावना हो,
ऐसी आस्था, ऐसी श्रद्धा हो, तो गुरु की जरूरत भी क्या है? श्रद्धा की कमी है,
इसलिए गुरु की जरूरत है।
तो
बिना गुरु के भी पहुंच गया। मूर्ति से भी पहुंच गया। श्रद्धा हो, तो मूर्ति
जीवंत हो जाती है। और श्रद्धा न हो, तो जीवित गुरु भी शइrत ही रह जाता है। सब तुम्हारी श्रद्धा पर निर्भर है।
इस
मूर्ति को ही मान लिया कि यही गुरु है। तुम देखते रहना—मूर्ति को कहता होगा—मैं
अभ्यास करता हूं;
कहीं भूल—चूक हो, तो चेता देना। कहीं जरूरत
पड़े, तो रोक देना।
इस
अपूर्व प्रक्रिया में वह उस जगह पहुंच गया, जहां अर्जुन फीका पड़ गया। खबरें
उड़ने लगीं कि एकलव्य का निशाना अचूक हो गया है। ऐसा अचूक निशाना कभी किसी का देखा
नहीं!
ऐसी
श्रद्धा हो, तो निशाना अचूक होगा ही। यह श्रद्धा का निशाना है, यह
चूक ही कैसे सकता है? और जिसको मूर्ति पर इतनी श्रद्धा है,
स्वभावत: उसे अपने पर इतनी ही श्रद्धा है।
तुम्हारी
श्रद्धा दूसरे पर तभी होती है, जब तुम्हें आत्म— श्रद्धा होती है। तुम्हारी
श्रद्धा उतनी ही होती है दूसरे पर, जितनी तुम्हारे भीतर होती
है, जितनी तुम्हें स्वयं पर होती है। जिस आदमी को अपने पर
श्रद्धा नहीं है, उसको अपनी श्रद्धा पर भी कैसे श्रद्धा होगी?
जिस आदमी को अफ्ते पर श्रद्धा है, वही अपनी
श्रद्धा पर श्रद्धा कर सकेगा। वहीं से सब चीजें शुरू होंगी। श्रद्धा पहले भीतर
होनी चाहिए।
एकलव्य
अपूर्व रहा होगा। इसी श्रद्धा को देखकर ही तो द्रोण चौंके होंगे कि यह आदमी खतरनाक
सिद्ध हो सकता है। इसकी आंखों में उन्हें झलक दिखायी पड़ी होगी, लपट
दिखायी पड़ी होगी।
लेकिन
वे भूल में थे। जिसमें इतनी आत्म— श्रद्धा हो, उसे गुरु इनकार कर दे, तो भी वह पहुंच जाता है। और जिसमें इतनी आत्म— श्रद्धा न हो। गुरु लाख
स्वीकार करे, तो भी कहां पहुंचेगा!
एकलव्य
की खबरें आने लगीं कि एकलव्य पहुंच गया, पा लिया उसने अपने गंतव्य को। जिस
गुरु ने एकलव्य को शिष्य बनाने से इनकार कर दिया था, वह
दक्षिणा लेने पहुंच गया!
बेईमानी
की भी एक सीमा होती है! शर्म भी न खायी। चुल्लभर पानी में डूब मरना चाहिए था द्रोण
को। ऐसे शिष्य के पैर जाकर छूने चाहिए थे। लेकिन फिर राजनीति आती है, फिर
चालबाजी आती है।
अब
वे यह इरादा करके गए हैं कि जाकर उसके दाएं हाथ का अंगूठा माग लूंगा। वे जानते हैं
कि वह देगा। उसकी आंखों में उन्होंने वह झलक देखी है कि वह जान दे दे उन लोगों में
से है। उसको शूद्र कहना तो बिलकुल गलत है। वह अर्जुन से ज्यादा क्षत्रिय है। वह
इनकार नहीं करेगा,
जो मांगता। अगर गरदन मांगता, तो गरदन दे देगा।
क्योंकि खबरें आती थीं कि उसने आपकी मूर्ति बना ली है। मूर्ति के सामने अभ्यास
करता है।
द्रोण
पहुंच गए। देखी उसकी निशानेबाजी, छाती कैप गयी। उनके सारे शिष्य फीके थे। वे खुद
फीके थे। इस एकलव्य के मुकाबले वे कहीं नहीं थे। खुद भी नहीं थे। तो उनके शिष्य
अर्जुन इत्यादि तो कहा होंगे! बहुत भय आ गया होगा। उससे कहा कि ठीक, तू सीख गया। मैं तेरा गुरु। मैं गुरु—दक्षिणा लेने आया।
एकलव्य
की आंखों में आंसू आ गए होंगे। उसके पास देने को कुछ भी नहीं है। गरीब आदमी है।
उसने कहा. आप जो मांगें;
जो मेरे पास हो, ले लें। ऐसे मेरे पास देने को
क्या है!
एकलव्य
इसलिए भी अदभुत है कि जिस गुरु ने इनकार किया था, उस गुरु को दक्षिणा देने को
तैयार है। और जो मागे—बेशर्त!
गुरु
चालबाज है। कूटनीतिज्ञ है। शिष्य बिलकुल सरल और भोला है। और द्रोणाचार्य ने उसका
अंगूठा महा लिया—दाएं हाथ का अनूठा। क्योंकि अंगूठा कट गया, तो फिर
कभी वह धनुर्विद नहीं हो सकेगा। उसकी धनुर्विद्या को नष्ट करने के लिए अंगूठा मांग
लिया।
उसने
अंगूठा दे भी दिया। यह अपूर्व व्यक्ति था। यह क्षत्रिय था, जब आया
था। शूद्र इसको मैं नहीं कह सकता। यह क्षत्रिय था, जब यह आया
था गुरु के पास। अंगूठा देकर ब्राह्मण हो गया। समर्पण अपूर्व है! जानता है कि यह
अंगूठा गया कि मैंने जो वर्षों मेहनत करके धनुर्विद्या सीखी है, उस पर पानी फिर गया। लेकिन यह सवाल ही कहां है? यह
सवाल ही नहीं उठा उसे। एक दफा भी संदेह नहीं उठा मन में कि यह तो बात जरा चालबाजी
की हो गयी!
तो
मैं द्रोण नहीं हूं तुमसे कह दूं।
तुम
पूछते हो 'क्या मैं शूद्र होकर भी आपका शिष्य हो सकता हूं?'
शूद्र
सभी हैं। शूद्र की तरह ही सभी पैदा होते हैं। और जिस शूद्र में शिष्य बनने की
कल्पना उठने लगी,
वह बाहर निकलने लगा शुद्रता से। उसकी यात्रा शुरू हो गयी। इस भाव के
साथ ही क्राति की शुरुआत है। चिनगारी पड़ी।
तुम
शिष्य बनना चाहो और मैं तुम्हें अस्वीकार करूं, यह असंभव है। मैं तो कभी—कभी उनको
भी स्वीकार कर लेता हूं जो शिष्य नहीं बनना चाहते। ऐसे ही भूल—चूक से कह देते हैं
कि शिष्य बनना है। उनको भी स्वीकार कर लेता हूं।
द्रोण
ने एकलव्य को अस्वीकार किया। मैं उनको भी स्वीकार कर लेता हूं, जिनमें
एकलव्य से ठीक विपरीत दशा है, जो हजार संदेहों से भरे हैं;
हजार रोगों से भरे हैं, हजार शिकायतों से भरे
हैं, जिन ने कभी प्रार्थना का कोई स्वर नहीं सुना और श्रद्धा
का जिनके भीतर कोई अंकुर नहीं फूटा है कभी। जो जानते नहीं कि श्रद्धा शब्द का अर्थ
क्या होता है।
नास्तिकों
को भी मैं स्वीकार कर लेता हूं। मैं इसलिए स्वीकार कर लेता हूं कि जो किसी भी कारण
से सही, शिष्य बनने को उत्सुक हुआ है, चलो, एक खिडकी खुली। फिर बाकी द्वार—दरवाजे भी खोल लेंगे। एक रंध्र मिली। जरा
सा भी छिद्र मुझे तुममें मिल जाए, तो मैं वहीं से प्रविष्ट
हो जाऊंगा। जरा सा रंध्र मिल जाए, तो सूरज की किरण यह थोड़े
ही कहेगी कि दरवाजे खोलो, तब मैं भीतर आऊंगी। जरा खपड़ों में
जगह खाली रह जाती है, सूरज की किरण वहीं से प्रवेश कर जाती
है।
तुम्हारी
खोपड़ी के खपड़ों में कहीं जरा सी भी संध मिल गयी, तो मैं वहीं से आने को
तैयार हूं। मैं तुमसे सामने के दरवाजे खोलने को नहीं कहता। मैं तुमसे बैंड—बाजे
बजाने को भी नहीं कहता। तुम बड़ी उदघोषणा करो, इसकी भी चिंता
नहीं करता। तुम किसी भी क्षण में, किसी ब्राह्मण— क्षण
में...।
अब
यह प्रश्न किसी ब्राह्मण— क्षण में उठा होगा। शूद्र को तो यह उठता ही नहीं। शूद्र
तो यहां आता ही कैसे?
शूद्र तो मेरे खिलाफ है। तुम यहां आ गए, यह
किसी ब्रह्म—मुहूर्त, किसी ब्राह्मण— क्षण में हुआ होगा।
तुम्हारे
मन में शिष्य होने का भाव भी उठा—अच्छा है।
द्रोण
मैं नहीं हूं। और तुमसे मैं चाहूंगा कि तुम अगर एकलव्य होना चाहो, तो उस
पुराने एकलव्य की सारी हालात समझकर होना। क्योंकि नए एकलव्य बड़ी उलटी बातें कर रहे
हैं!
मैंने
सुना है :
कलियुग के
शिष्यों ने
गुरुभक्ति को
ऐसा मोड़ दिया
कि नकल करते हुए
एकलव्य ने,
द्रोणाचार्य का ही
अंगूठा तोड़ दिया!
तुम
आधुनिक एकलव्य नहीं बनना। जमाना बदल गया है। अब शिष्य, द्रोणाचार्य
का अंगूठा तोड़ देते हैं!
न
मैं द्रोण हूं न तुम्हें एकलव्य—कम से कम आधुनिक एकलव्य—बनने की कोई जरूरत है। और चूंकि
मैं द्रोण नहीं हूं इसलिए तुम्हें इनकार नहीं करूगा। और तुम्हें जंगल में कोई मूर्ति
बनाकर धनु र्विद्या नहीं सीखनी होगी। मैं ही तुम्हे सिखाऊंगा। और जो मेरे पास है, वह बांटने
से घटता नहीं। इसलिए क्या कंजूसी करनी! कि इसको बनाएंगे शिष्य, उसको नहीं बनाएंगे! क्या शर्तें लगानी! नदी के तट पर तुम जाते हो, तो नदी नहीं कहती कि तुम्हें नहीं पानी पीने दूंगी। जो आए, पीए। नदी राह देखती है कि कोई आए, पीए।
फूल
जब खिलता है,
तब यह नहीं कहता कि तुम्हारी तरफ न बहूंगा। तुम्हारी तरफ गंध को न
बहने दूंगा। शूद्र! तू दूर हट मार्ग से! मैं तो सिर्फ ब्राह्मणों के लिए हूं। जब फूल
खिलता है, तो सुगंध सब के लिए है। और जब सूरज निकलता है,
तो सूरज यह भी नहीं कहता कि पापियों पर नहीं गिरूंगा, पुण्यात्माओं के घर पर बरसूंगा। पुण्यात्माओं के घर और पापियों के घर में
सूरज को कोई भेद नहीं है। और जब मेघ घिरते हैं और वर्षा होती है, तो महात्माओं के खेतों में ही नहीं होती, सभी के
खेतों में हो जाती है।
तुम
मुझे एक मेघ समझो। तुम अगर लेने को तैयार हो, तो तुम्हे कोई नहीं रोक सकता। और
यह कुछ संपदा ऐसी है कि देने से घटती नहीं, बढ़ती है। जितना
तुम लोगे, उतना शुभ है। नए स्रोत खुलेंगे। नए द्वार से और
ऊर्जा बहेगी। लो! लूटो!
आदि है अशेष और
दूर अभी अंत
फागुनी वितान तले
तैरता वसंत।
तरु—तरु के कंधों
पर कोंपलें खड़ी हुयी
नव पल्लव वेश, खिले
लतियों के चेहरे
नीले—पीले—लाल—श्वेत
सुमन गहनों में
वन देवी गांव—गांव
गाती है सेहरे।
सहमी—सी शकुन, आ पहुंचा
दुष्यंत
फागुनी वितान तले
तैरता वसंत।
रूप की दुपहरी में, वसुधा
संवर रही
कसी हुई देह किंतु
वसन तनिक ढीले
पनघट पर यौवन के
आमंत्रित सब ही
छलका सौंदर्य—कलश, जो चाहे
पी ले।
साक्षी आकाश और
दर्शक दिगत
फागुनी वितान तले
तैरता वसंत।
पनघट पर यौवन के
आमंत्रित सब ही
छलका सौंदर्य—कलश, जो चाहे
पी ले।
तुम
यह पूछो ही मत कि तुम कौन हो, क्या हो। मैं भी नहीं पूछता। तुम्हारे भीतर
प्यास है, बस, काफी योग्यता है।
पी
लो! जो कलश छलक रहा है,
अंजुलि भर लो!
तीसरा प्रश्न
कल आपने शूद्र और ब्राह्मण की परिभाषा की। कृपया
समझाएं कि मन शूद्र है अथवा ब्राह्मण।
शूद्र है। मन वैश्य
है। आत्मा क्षत्रिय है। परमात्मा ब्राह्मण। इसलिए ब्रह्म परमात्मा का नाम है।
ब्रह्म से ही ब्राह्मण बना है।
देह
शूद्र है। क्यों?
क्योंकि देह में कुछ और है भी नहीं। देह की दौड़ कितनी है? खा लो, पी लो, भोग कर लो,
सो जाओ। जीओ और मर जाओ। देह की दौड़ कितनी है! शूद्र की सीमा है यही।
जो देह में जीता है, वह शूद्र है। शूद्र का अर्थ हुआ. देह के
साथ तादात्म्य। मैं देह हूं? ऐसी भावदशा. शूद्र।
मन
वैश्य है। मन खाने—पीने से ही राजी नहीं होता। कुछ और चाहिए। मन यानी और चाहिए।
शूद्र में एक तरह की सरलता होती है। देह में बड़ी सरलता है। देह कुछ ज्यादा मतों
नहीं करती। दो रोटी मिल जाएं। सोने के लिए छप्पर मिल जाए। बिस्तर मिल जाए। जल मिल
जाए। कोई प्रेम करने को मिल जाए। प्रेम देने—लेने को मिल जाए। बस, शरीर की
मांगें सीधी—साफ हैं, थोड़ी हैं, सीमित
हैं। देह की मांगें सीमित हैं। देह कुछ ऐसी बातें नहीं मांगती, जो असंभव है। देह को असंभव में कुछ रस नहीं है। देह बिलकुल प्राकृतिक है।
इसलिए
मैं कहता हूं कि सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं, क्योंकि सभी देह की तरह
पैदा होते हैं। जब और— और की वासना उठती है, तो वैश्य। वैश्य
का मतलब है और धन चाहिए।
फोर्ड
अपने बुढ़ापे तक—हेनरी फोर्ड—और नए धंधे खोलता चला गया। किसी ने उसकी अत्यंत
वृद्धावस्था में,
मरने के कुछ दिन पहले ही पूछा उससे कि आप अभी भी धंधे खोलते चले जा
रहे हैं! आप के पास इतना है; इतने और नए धंधे खोलने का क्या
कारण है?
वह
नए उद्योग खोलने की योजनाएं बना रहा था। बिस्तर पर पड़ा हुआ भी! मरता हुआ भी! हेनरी
फोर्ड ने क्या कहा,
मालूम? हेनरी फोर्ड ने कहा. मैं नहीं जानता कि
कैसे रुकूं। मैं रुकना नहीं जानता। मैं जब तक मर ही न जाऊं, मैं
रुक नहीं सकता।
यह
वैश्य की दशा है। वह कहता है, और। इतना है, तो और। ऐसा
मकान है, तो और थोड़ा बड़ा। इतना धन है, तो
और थोड़ा ज्यादा धन।
देह
शूद्र है, और सरल है। शूद्र सदा ही सरल होते हैं। मन बहुत चालबाज, चालाक, होशियार, हिसाब बिठाने
वाला है। मन की सब दौडे हैं। मन किसी चीज से राजी नहीं है। मन व्यवसायी है। वह
फैलाए चला जाता है। वह जानता ही नहीं, कहा रुकना। वह अपनी
दुकान बड़ी किए चला जाता है! बड़ी करते—करते ही मर जाता है।
आत्मा
क्षत्रिय है। क्यों?
क्योंकि क्षत्रिय को न तो इस बात की बहुत चिंता है कि शरीर की
जरूरतें पूरी हो जाएं; जरूरत पड़े तो वह शरीर की सब जरूरतें
छोड़ने को राजी है। और क्षत्रिय को इस बात की भी चिंता नहीं है कि और—और। अगर
क्षत्रिय को इस बात की चिंता हो, तो जानना कि वह वैश्य है,
क्षत्रिय नहीं है।
क्षत्रिय
का मतलब ही यह होता है संकल्प का आविर्भाव। प्रबल संकल्प का आविर्भाव। महा संकल्प
का आविर्भाव। और महा संकल्प या प्रबल संकल्प के लिए एक ही चुनौती है, वह है कि
मैं कौन हूं इसे जान लूं।
शूद्र
शरीर को जानना चाहता है। उतने में ही जी लेता है। वैश्य मन के साथ दौड़ता है। मन को
पहचानना चाहता है। क्षत्रिय, मैं कौन हूं इसे जानना चाहता है। जिस दिन
तुम्हारे भीतर यह सवाल उठ आए कि मैं कौन हूं, तुम क्षत्रिय
होने लगे। अब तुम्हारी धन इत्यादि दौड़ो में कोई उत्सुकता नहीं रही। एक नयी यात्रा
शुरू हुई—अंतर्यात्रा शुरू हुई।
तुम
यह जानते हो कि इस देश में जो बड़े से बड़े ज्ञानी हुए—सब क्षत्रिय थे। बुद्ध, जैनों के
चौबीस तीर्थंकर, राम, कृष्ण—सब
क्षत्रिय थे! क्यों? होना चाहिए सब ब्राह्मण, मगर थे सब क्षत्रिय। क्योंकि ब्राह्मण होने के पहले क्षत्रिय होना जरूरी
है। जिसने जन्म के साथ अपने को ब्राह्मण समझ लिया, वह चूक
गया। उसे पता ही नहीं चलेगा कि बात क्या है!
और
जो जन्म से ही अपने को ब्राह्मण समझ लिया और सोच लिया कि पहुंच गया, क्योंकि
जन्म उसका ब्राह्मण घर में हुआ है, उसे संकल्प की यात्रा
करने का अवसर ही नहीं मिला, चुनौती नहीं मिली।
इस
देश के महाज्ञानी क्षत्रिय थे। हिंदुओं के अवतार, जैनों के तीर्थंकर, बौद्धों के बुद्ध—सब क्षत्रिय थे। इसके पीछे कुछ कारण है। सिर्फ एक
परशुराम को छोड़कर, कोई ब्राह्मण अवतार नहीं है। और परशुराम
बिलकुल ब्राह्मण नहीं हैं। उनसे ज्यादा क्षत्रिय आदमी कहां खोजोगे! उन्होंने
क्षत्रियों से खाली कर दिया पृथ्वी को कई दफे काट—काटकर। वे काम ही जिंदगीभर काटने
का करते रहे। उनका नाम ही परशुराम पड़ गया, क्योंकि वे फरसा
लिए घूमते रहे। हत्या करने के लिए परशु लेकर घूमते रहे। परशु वाले राम—ऐसा उनका
नाम है।
वे
क्षत्रिय ही थे। उनको भी ब्राह्मण कहना बिलकुल ठीक नहीं है, जरा भी ठीक
नहीं है। उनसे बडा क्षत्रिय खोजना मुश्किल है! जिसने सारे क्षत्रियों को पृथ्वी से
कई दफे मार डाला और हटा दिया, अब उससे बड़ा क्षत्रिय और कौन
होगा?
संकल्प
यानी क्षत्रिय।
ऐसा
समझो कि भोग यानी शूद्र। तृष्णा यानी वैश्य। संकल्प यानी क्षत्रिय। और जब संकल्प
पूरा हो जाए,
तभी समर्पण की संभावना है। तब समर्पण यानी ब्राह्मण। जब तुम अपना सब
कर लो, तभी तुम झुकोगे। उसी झुकने में असलियत होगी। जब तक
तुम्हें लगता है मेरे किए हो जाएगा, तब तक तुम झुक नहीं
सकते। तुम्हारा झुकना धोखे का होगा, झूठा होगा, मिथ्या होगा।
अपना
सारा दौड़ना दौड़ लिए,
अपना करना सब कर लिए और पाया कि नहीं, अंतिम
चीज हाथ नहीं आती, नहीं आती, नहीं आती,
चूकती चली जाती है। तब एक असहाय अवस्था में आदमी गिर पड़ता है। जब
तुम घुटने टेककर प्रार्थना करते हो, तब असली प्रार्थना नहीं
है। जब एक दिन ऐसा आता है कि तुम अचानक पाते हो कि घुटने टिके जा रहे हैं पृथ्वी
पर। अपने टिका रहे हो—ऐसा नहीं, झुक रहे हो—ऐसा नहीं,
झुके जा रहे हो। अब कोई और उपाय नहीं रहा। जिस दिन झुकना सहज फलित
होता है, उस दिन समर्पण।
समर्पण
यानी ब्राह्मण। समर्पण यानी ब्रह्म। जो मिटा, उसने ब्रह्म को जाना।
ये
चारों पर्तें तुम्हारे भीतर हैं। यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम किस पर ध्यान देते हो।
ऐसा ही समझो कि जैसे तुम्हारे रेडियो में चार स्टेशन हैं। तुम कहां अपने रेडियो की
कुंजी को लगा देते हो,
किस स्टेशन पर रेडियो के कांटे को ठहरा देते हो, यह तुम पर निर्भर है।
ये
चारों तुम्हारे भीतर हैं। देह तुम्हारे भीतर है। मन तुम्हारे भीतर है। आत्मा
तुम्हारे भीतर। परमात्मा तुम्हारे भीतर।
अगर
तुमने अपने ध्यान को देह पर लगा दिया, तो तुम शूद्र हो गए।
स्वभावत:, बच्चे सभी
शूद्र होते हैं। क्योंकि बच्चों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे देह से ज्यादा
गहरे में जा सकेंगे। मगर के अगर शूद्र हों, तो अपमानजनक है।
बच्चों के लिए स्वाभाविक है। अभी जिंदगी जानी नहीं, तो जो
पहली पर्त है, उसी को पहचानते हैं। लेकिन का अगर शूद्र की
तरह मर जाए, तो निंदा—योग्य है। सब शूद्र की तरह पैदा होते
हैं, लेकिन किसी को शूद्र की तरह मरने की आवश्यकता नहीं है।
अगर
तुमने अपने रेडियो को वैश्य के स्टेशन पर लगा दिया; तुमने अपने ध्यान को
वासना—तृष्णा में लगा दिया, लोभ में लगा दिया, तो तुम वैश्य हो जाओगे। तुमने अगर अपने ध्यान को संकल्प पर लगा दिया,
तो क्षत्रिय हो जाओगे। तुमने अपने ध्यान को अगर समर्पण में डुबा
दिया, तो तुम ब्राह्मण हो जाओगे।
ध्यान
कुंजी है। कुछ भी बनो,
ध्यान कुंजी है। शूद्र के पास भी एक तरह का ध्यान है। उसने सारा
ध्यान शरीर पर लगा दिया। अब जो स्त्री दर्पण के सामने घंटों खड़ी रहती है—बाल
संवारती है; धोती संवारती है, पावडर
लगाती है—यह शूद्र है। ये जो दो—तीन घंटे दर्पण के सामने गए, ये शूद्रता में गए। इसने सारा ध्यान शरीर पर लगा दिया है। यह राह पर चलती
भी है, तो शरीर पर ही इसका ध्यान है। यह दूसरों को भी देखती
है, तो शरीर पर ही इसका ध्यान होगा। जब यह अपने शरीर को ही
देखती है, तो दूसरे के शरीर को ही देखेगी। और कुछ नहीं देख
पाएगी। यह अगर अपनी साड़ी को घंटों पहनने में रस लेती है, तो
बाहर निकलेगी, तो इसको हर स्त्री की साड़ी दिखायी पड़ेगी और
कुछ दिखायी नहीं पड़ेगा।
जो
व्यक्ति बैठा—बैठा सोचता है कि एक बड़ा मकान होता, एक बड़ी कार होती; बैंक में इतना धन होता—क्या करूं? कैसे करूं?
वह अपने ध्यान को वैश्य पर लगा रहा है। धीरे— धीरे ध्यान वहीं ठहर
जाएगा। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर तुम एक ही रेडियो में एक ही स्टेशन सदा
सुनते हो, तो धीरे— धीरे तुम्हारे रेडियो का कांटा उसी
स्टेशन पर ठहर जाएगा, जड़ हो जाएगा। अगर तुम दूसरे स्टेशन को
कभी सुने ही नहीं हो और आज अचानक सुनना भी चाहो, तो शायद पकड़
न सकोगे। क्योंकि हम जिस चीज का उपयोग करते हैं, वह जीवित
रहती है। और जिसका उपयोग नहीं करते, वह मर जाती है।
इसलिए
कभी—कभी जब सुविधा बने शूद्र से छूटने की, तो छूट जाना। वैश्य से छूटने की,
तो छूट जाना। जब सुविधा मिले, तो कम से
कम—ब्राह्मण दूर—कम से कम थोड़ी देर को क्षत्रिय होना, संकल्प
को जगाना। और कभी—कभी मौके जब आ जाएं, चित्त प्रसन्न हो,
प्रमुदित हो, प्रफुल्लित हो, तो कभी—कभी क्षणभर को ब्राह्मण हो जाना। सब समर्पित कर देना। लेट जाना
पृथ्वी पर चारों हाथ—पैर फैलाकर, जैसे मिट्टी में मिल गए,
एक हो गए। झुक जाना सूरज के सामने या वृक्षों के सामने। झुकना
मूल्यवान है, कहां झुकते हो, इससे कुछ
मतलब नहीं है। उसी झुकने में थोड़ी देर के लिए ब्रह्म का आविर्भाव होगा।
ऐसे
धीरे—धीरे, धीरे— धीरे अनुभूति बढ़ती चली जाए, तो हर व्यक्ति
अंततः मरते —मरते ब्राह्मण हो जाता है।
जन्म
तो शूद्र की तरह हुआ है,
ध्यान रखना, मरते समय ब्राह्मण कम से कम हो
जाना। मगर एकदम मत सोचना कि हो सकोगे।
कई
लोग ऐसा सोचते हैं कि बस,
आखिरी घड़ी में हो जाएंगे। जिसने जिंदगीभर अभ्यास नहीं किया, वह मरते वक्त आखिरी घड़ी में रेडियो टटोलेगा, स्टेशन
नहीं लगेगा फिर! पता ही नहीं होगा कि कहा है! और मौत इतनी अचानक आती है कि सुविधा
नहीं देती। पहले से खबर नहीं भेजती कि कल आने वाली हूं। अचानक आ जाती है। आयी कि
आयी! कि तुम गए! एक क्षण नहीं लगता। उस घड़ी में तुम सोचो कि राम को याद कर लेंगे,
तो तुम गलती में हो। तुमने अगर जिंदगीभर कुछ और याद किया है,
तो उसकी ही याद आएगी।
इसलिए
तैयारी करते रहो,
साधते रहो। जब सुविधा मिल जाए, ब्राह्मण होने
का मजा लो। उससे बडा कोई मजा नहीं है। वही आनंद की चरम सीमा है।
चौथा प्रश्न
आप गांधीवाद की आलोचना करते हैं। लेकिन क्या
गांधीवाद का सादगी का सिद्धांत सही नहीं है?
सिद्धांत कोई सही नहीं होते। सादगी सही है, सिद्धांत
सही नहीं है। फर्क क्या जब भी तुम सिद्धांत के कारण कोई चीज साधते हो, वह सादी तो हो ही नहीं सकती। सिद्धांत के कारण ही जटिल हो जाती है।
सिद्धांत से पाखंड पैदा होता है, सादगी पैदा नहीं होती।
इसलिए
गांधी ने जितने पाखंडी इस देश में पैदा किए, किसी और ने नहीं। और जिनको तुम
जानते हो, उनकी मैं बात नहीं कर रहा हूं, जिनको तुम जानते हो कि हां, ये पाखंडी हैं। मैं
उनकी तुमसे बात करना चाहूंगा, जिनको तुम जानते नहीं कि
पाखंडी हैं, वे भी पाखंडी हैं। जिनको बिलकुल त्याग की और
सादगी की प्रतिमा समझा जाता है, वे भी पाखंडी हैं।
उदाहरण
के लिए डाक्टर राजेंद्र प्रसाद को लो। अब उनसे सादा आदमी कौन मिलेगा! एकदम सादे
आदमी हैं और गांधी के निकटतम अनुयायियों में से हैं। इसलिए तो गांधी ने उन्हें
भारत के प्रथम राष्ट्रपति होने के लिए चुना। नेहरू की इच्छा नहीं थी। नेहरू तो
राजगोपालाचारी को चाहते थे। नेहरू तो चाहते थे कि कोई आदमी, जो
कूटनीति समझता हो। नेहरू का मन राजेंद्र प्रसाद के लिए नहीं था। लेकिन गांधी जिद्द
पर थे कि राजेंद्र प्रसाद! तो राजेंद्र प्रसाद प्रथम राष्ट्रपति बने। तुम्हें पता
है, पहला काम राजेंद्र प्रसाद ने क्या किया राष्ट्रपति भवन
में जाकर? जिंदगीभर गांधी के पास बैठकर मंत्र दोहराया—अल्लाह
ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। और पहला काम क्या
किया, तुम्हें पता है! राष्ट्रपति भवन में जितने मुसलमान
नौकर थे, सब अलग कर दिए! यह गांधीवादी सादगी है!
ये
बातें लिखी नहीं जातीं,
क्योंकि यहां तो प्रशंसा चलती है। बस, प्रशंसा
का हिसाब है। अब ये बातें खबर देती हैं आदमी की असलियत का। क्यों मुसलमान नौकर अलग
कर दिए गए? मुसलमान नौकर अलग किए गए और उनकी जगह बुलाए कौन
गए? राष्ट्रपति भवन में बंदरों के आने की मनाही थी और उनको
सिपाही भगा देते थे, क्योंकि बंदर उपद्रव करते, कूद—फांद मचाते।
अब
ये राजेंद्र प्रसाद तो शुद्ध हिंदूवाद इनके भीतर है। हनुमान जी के तो शिष्य हैं ये
बंदर, उनकी संतान। दूसरा काम उन्होंने जो किया, बड़ा महान
कार्य, वह यह कि बंदरों को कोई रोक नहीं सकता। बंदर
राष्ट्रपति भवन में मजे से घूमने लगे। बच्चों पर हमला करने लगे। स्त्रियों पर हमला
करने लगे! और एक दिन तो वे नेहरू के कमरे में भी घुस गए। बामुश्किल उनको निकाला जा
सका। और जाते —जाते एक बंदर, नेहरू का एक पेपरवेट, जो किसी ने भेंट किया था, वह ले गया। नेहरू ने सिर
पर हाथ मार लिया और कहा, यह राजेंद्र बाबू की करतूत!
तुम
जानकर हैरान होओगे कि राजेंद्र बाबू यह भी चाहते थे. विधान सभा के भी वे अध्यक्ष
थे, उसमें भी उन्होंने दो दान किए विधान को। भारत को जो उन्होंने विधान दिया,
उसमें जो विधान परिषद का अध्यक्ष था, उसकी देन
दो। एक गौ माता, और दूसरा बंदर वे चाहते थे। वह स्वीकार नहीं
हुआ। गौ माता की रक्षा होनी चाहिए—यह भारत का असली सवाल! और यहां कोई सवाल नहीं
है।
दुनिया
हंसती है इस देश की मूढ़ता पर। यहां इतने बड़े सवाल खड़े हैं! और जिस आदमी को विधान
परिषद का अध्यक्ष बनाया,
उसकी खोपड़ी में कुल इतना आया, ये दो बातें :
कि एक तो गौ माता की रक्षा होनी चाहिए और दूसरे, हनुमान के
वंशज बंदरों की रक्षा होनी चाहिए!
गौ
माता को तो किसी तरह दूसरों ने भी कहा कि चलो, ठीक है, रख
लो। इनका आग्रह। मगर बंदर तो जरा बर्दाश्त के बाहर है। अच्छा हुआ कि उन्होंने बंदर
को विधान में नहीं जगह दी, नहीं तो दुनिया और हंसती। वैसे ही
हम पर हंसती है।
राजेंद्र
प्रसाद की सादगी की बड़ी चर्चा की जाती है कि वे राष्ट्रपति भवन में भी रहे, लेकिन ऐसे
रहे, जैसे कि गरीब आदमी को रहना चाहिए। मैंने उनका कमरा देखा,
जहां वे राष्ट्रपति भवन में रहे। उन्होंने क्या किया था! उसमें
चारों तरफ चटाई चढ़वा दी थी अंदर। संगमरमर की दीवालों पर चटाई लगवा दी! महल के भीतर
झोपड़ा बना लिया। अब मजे से उसमें रहने लगे। यह सादगी!
तुम्हें
झोपड़े में रहना हो,
तो झोपड़ों की कोई कमी है इस देश में? फिर
राष्ट्रपति भवन में किसलिए रह रहे हो? लेकिन आदमी बहुत
पाखंडी है। रहना तो महल में है, मगर झोपड़े में रहने की सादगी
भी नहीं छोड़ी जाती!
और
इसकी भी प्रशंसा की जाती है कि कैसी अदभुत सादगी!
तुम
जानकर हैरान होओगे कि जो सुविधाएं गवर्नर जनरल और वायसराय को मिलती थीं, वही सब
राष्ट्रपति को मिली थीं। उसमें सबसे बड़ी सुविधा थी हजारों रुपये महीने मनोरंजन पर
राष्ट्रपति खर्च कर सकता था। लेकिन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने दो सौ, ढाई सौ रुपये महीने से ज्यादा कभी मनोरंजन पर खर्च नहीं किया। तो अखबारों
में खबरें निकली थीं तब—कि कैसी सादगी! जब हजारों रुपये खर्च करने की सुविधा है,
तब भी दों—ढाई सौ रुपये खर्च किए मनोरंजन पर। इसको कहते हैं
गांधीवादी सादगी!
लेकिन
असलियत का तुम्हें पता है?
असलियत का पता कभी अखबारों तक नहीं आ पाता। क्योंकि जो लोग शक्ति
में होते हैं, अखबार उनका गुणगान करने में लगे रहते हैं।
असलियत यह थी कि उन्होंने जो हजारों रुपये मनोरंजन पर खर्च करने थे, मनोरंजन पर तो दो —ढाई सौ रुपये महीने खर्च किए; वे हजारों
रुपये उन्होंने अपने नाती—पोतों के नाम कर दिए—जो कि बिलकुल गैर—कानूनी है। वह
मनोरंजन पर खर्च होने के लिए थी संपत्ति। अतिथि आते हैं राष्ट्रपति के, उनके स्वागत—सत्कार में खर्च होती। उसमें तो खर्च नहीं की, नाती—पोतों के नाम कर दिया।
सालभर
बाद नेहरू को पता चला। वे तो चकित हो गए कि यह तो हइ हो गयी! यह तो बिलकुल
गैर—कानूनी है। लेकिन अखबारों तक खबर यही पहुंची कि कैसी सादगी! दो—ढाई सौ रुपये
महीने खर्च किए,
जब कि करने की सुविधा हजारों थी। वे सब हजारों रुपये नाती—पोतों के
नाम बैंक में चले गए! इसकी कोई चर्चा नहीं उठती। सिद्धांतवादी सादगी ऐसी ही चालाक
होती है, ऊपर —ऊपर होती है।
नेहरू
को जाकर समझाना पड़ा राजेंद्र प्रसाद को कि यह तो बात बिलकुल ही गलत है.। यह तो
किसी वायसराय ने कभी नहीं की! मनोरंजन पर खर्च करते—ठीक था। उस पर तो खर्चा आपने
किया नहीं। ठीक है,
नहीं करना है, तो मत करिए। मगर यह तो हद हो
गयी बात की। यह किस हिसाब से आपके नाती—पोतों के पास पहुंच गया पैसा? यह अब दुबारा नहीं होना चाहिए।
कहते
हैं कि राजेंद्र प्रसाद इसके लिए कई दिन तक नेहरू पर नाराज रहे। क्योंकि वह
नाती—पोतों की जो बैंक में थैली बड़ी होती जाती थी, वह बंद हो गयी।
अब
तुम क्या कहोगे,
यह सादगी की वजह से दो—ढाई सौ रुपया खर्च किया था? यह बचाने के लिए। यह कंजूसी थी। और यह चोरी भी थी। यह गांधीवादी सादगी है!
सिद्धांत
से सादगी जब भी आएगी,
चालबाज होगी, चालाक होगी।
तुमने
शायद सरोजिनी नायडू का प्रसिद्ध वचन न सुना हो! सरोजिनी नायडू गांधी के निकटतम
लोगों में एक थी,
अत्यंत आत्मीय लोगों में एक थी। एक वचन बहुत प्रसिद्ध है सरोजिनी
नायडू का—कि लोगों को पता नहीं है कि इस के आदमी को गरीब रखने के लिए हमें कितना
खर्च करना पड़ता है!
गांधी
की गरीबी बड़ी महंगी गरीबी थी! वे दूध तो बकरी का पीते थे, लेकिन
बकरी का भोजन तुम्हें पता है? काजू—किशमिश! ऊपर से दिखता है,
बकरी का दूध पीते हैं बेचारे। वे चलते तो थर्ड क्लास रेल के डब्बे
में थे, लेकिन पूरा डब्बा उनके लिए रिजर्व होता था। इससे
फर्स्ट क्लास में चलना सस्ता है। जहां सत्तर आदमी चलते, वहां
एक आदमी चल रहा है! यह सत्तर गुना खर्च हो गया! थर्ड क्लास से फर्स्ट क्लास में
चार गुना फर्क होगा।
यह
सादगी—वादगी नहीं है। यह बड़ा होशियार हिसाब है। यह सब सिद्धांत की बातचीते हैं। इन
सिद्धांतों के कारण ऊपर से चीजें और दिखायी पड़ती हैं, भीतर कुछ
और होती हैं।
सरोजिनी
नायडू ने सही कहा है। सरोजिनी नायडू ने कहा है कि अमीर से अमीर आदमी जितना खर्च
करे, गांधी की गरीबी पर उससे ज्यादा खर्च करना पड़ता है! वह गरीबी महंगी है।
मैं
तुमसे सादगी को तो निश्चित ही कहूंगा कि अदभुत बात है सादगी। लेकिन सादगी सादी
होनी चाहिए। सादगी चालबाज,
गणित और तर्क और सिद्धांत पर खड़ी नहीं होनी चाहिए, नहीं तो महंगी हो जाएगी।
फिर
यह भी हो सकता है कि सादगी आर्थिक रूप से महंगी न हो। लेकिन अगर तुम्हारे भीतर
किसी गणित पर खड़ी है,
तो सादगी फिर भी नहीं हो सकती। जैसे जैन मुनि की सादगी सादगी नहीं
है। क्योंकि वह यह सोच रहा है कि इस तरह सादे रहने से ही मोक्ष के सुख मिलेंगे।
यह
कोई सादगी न हुई। यह तो सौदा हुआ; सादगी कहा हुई! यह आदमी सादा रहने में आनंदित
नहीं है। सादगी में इसका आनंद नहीं है। सादगी तो सिर्फ कुछ दिन की बात है, फिर तो स्वर्ग में मजा लेना है। जैन—शास्त्र कहते हैं : मोक्ष—रमणी का भोग
करना है। मोक्ष—रमणी! मोक्ष में परम पद पर विराजमान होना है, इसलिए सादगी चल रही है! इसको तुम सादगी कहोगे?
मैं
उसको सादगी कहता हूं जिसका आनंद उसमें ही हो। तुम्हें आनंदित लगता है नग्न होना, कोई आगे
का मोक्ष नहीं। आगे का मोक्ष तो वणिक का हिसाब है; मन का
हिसाब है—और! और! तुम्हें नग्न होना अच्छा लगता है..।
तो
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं—तुम्हें बहुत चौंक होगी इस बात से—कि अमरीका के
समुद्र तटों पर अगर कोई नग्न स्नान कर रहा है, वह ज्यादा सादा है, बजाय तुम्हारे नग्न दिगंबर मुनि के। क्यों? क्योंकि
वह नग्नता में आनंद ले रहा है। और तुम्हारा जैन मुनि नग्नता में सिर्फ पुण्य कमा
रहा है, ताकि आगे मोक्ष में जाकर आनंद ले। इसके भीतर जाल है
गणित का। वह जो अमरीका के समुद्र तट पर नहाने वाला पुरुष या स्त्री नग्न होकर आनंद
ले रहा है धूप का, समुद्र की लहरों का, हवा का—वह ज्यादा सादा है; वह ज्यादा सीधा है;
वह ज्यादा साधु है।
तुम्हें
मेरी बात अड़चन में डाल देती है, क्योंकि तुम्हारे पास बंधी हुई धारणाएं हैं।
तुम कहते हो. यह तो हइ हो गयी! तो आप ये जो नग्न क्लब हैं पश्चिम में, इनकी सादगी को ज्यादा मानते हैं, बजाय बेचारे दिगंबर
मुनि की इतनी कठोर तपश्चर्या के!
कठोर
तपश्चर्या है,
इसीलिए सादा नहीं मानता। उसके पीछे हिसाब है।
वह
जो नंगा दौड़ रहा है,
वृक्षों के साथ खेल रहा है, पशुओं के साथ...।
सादा है। छोटे बच्चे जैसा है। सादगी होनी चाहिए छोटे बच्चे जैसी।
भतीजा
बोला. चाची जी,
जन्मदिवस पर आपने जो भेंट दी थी, उसके लिए
बहुत—बहुत धन्यवाद।
चाची
जी ने कहा. बेटे,
उसमें धन्यवाद की क्या बात है!
भतीजे
ने कहा. वैसे मेरी भी यही राय है। लेकिन मम्मी ने कहा, फिर भी
धन्यवाद तो देना ही चाहिए।
यह
सादगी। यह सीधा—सादापन है।
रात्रि
के भोजन के समय घर आए विशिष्ट मेहमानों के साथ मेजबान दंपत्ति भी अपने आठ वर्षीय
पुत्र के साथ भोजन कर रहे थे कि उनके पुत्र ने कमीज की बांह से अपनी नाक पोंछी।
सुबह
नाश्ते के समय मैंने तुमसे कुछ कहा था बेटे? याद है न? मेजबान
महिला ने बच्चे का ध्यान नाक पोंछने के गलत तरीके की ओर दिलाया।
ही, मम्मी!
याद है। बच्चे ने कहा।
क्या
कहा था? मम्मी ने पूछा।
बच्चा
मेहमानों की ओर देखते हुए बोला आपने कहा था कि इन कमबख्तों को भी आज ही मरना था।
यह
सादगी। इसमें कोई गणित नहीं, कोई हिसाब नहीं; जैसा है,
वैसा है।
सादगी
होनी चाहिए छोटे बच्चों जैसी। और ऐसी सादगी ही साधुता है। जब तुम वैसे ही हो बाहर, जैसे तुम
भीतर हो।
अब
यह हो सकता है कि माता जी गांधीवादी रही हों। तो मेहमानों का तो स्वागत किया होगा।
मेहमानों का लोग स्वागत करते हैं कि भले आए। धन्यभाग। कितने दिन राह दिखायी! आंखें
थक गयीं। पलक—पांवड़े बिछाए रहे। आओ, पधारो। और सुबह कहा हो बेटे के
सामने कि इन कमबख्तों को भी आज ही मरना था?
जैसे—जैसे
तुम बड़े होते हो,
तुम चालबाज होते जाते हो। उसी चालबाजी में सादगी खो जाती है। और
सादगी का बड़ा अदभुत आनंद है। लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सादगी से स्वर्ग
मिलेगा। मैं कह रहा हूं. सादगी स्वर्ग है।
गांधी
की सादगी सादगी नहीं है। बहुत नपा—तुला राजनैतिक कदम है। नपा—तुला! गांधी का
महात्मापन नपा—तुला कूटनीतिक कदम है।
मैं
सिद्धांतों का पक्षपाती नहीं हूं। जीवन जैसा है, उसे जीओ। उसे निष्कपट भाव
से जीओ। उसे भविष्य की आकांक्षा से नहीं, उसे अतीत की आदत से
नहीं, उसे कुछ पाने के हेतु से नहीं—जैसा है, उसे चुपचाप जीओ।
शायद
दुनिया तुम्हें महात्मा न भी कहे। क्योंकि महात्मा धोखेबाजों को कहती है दुनिया।
शायद दुनिया तुम्हें महात्मा न कहे, क्योंकि तुम पाखंडी नहीं होओगे।
पाखंडियों को महात्मा कहती है दुनिया। शायद दुनिया तुम्हें गिने ही नहीं किसी
गिनती में। मगर गिनवाना ही क्या है! गिनवाना क्यों?
तुम
वही कहो, जो तुम्हारे हृदय में उठता है। और तुम वैसे ही जीयो, जैसा तुम्हारे हृदय में उठता है। ऐसी बच्चों जैसी सादगी में सिद्धांत नहीं
होता सादगी का।
एक
महिला ने मुझे कहा कि वह कृष्णमूर्ति के एक शिविर में भाग लेने हालैंड गयी। सांझ
का वक्त था, वह बाजार में घूमने निकली थी कि बड़ी हैरान हो गयी। आध्यात्मिक महिला है।
अब तो कई लोग उस महिला के शिष्य भी हैं। उसे तो बड़ा धक्का लगा। धक्का इस बात से
लगा कि कृष्णमूर्ति एक कपडों की दुकान में टाई खरीद रहे थे। अब महात्मा और टाई
खरीदें! यह तो भारतीय—बुद्धि को जंच ही नहीं सकता। और न केवल टाई खरीद रहे थे,
बल्कि उन्होंने सारी दुकान की टाई बिखेर रखी थीं! ये नहीं जंच रही,
ये नहीं जंच रही—गले से लगा—लगाकर सबको देख रहे थे।
वह
महिला थोडी देर खड़ी देखती रही। उसका तो सारा भ्रम टूट गया कि यह आदमी तो बिलकुल
सांसारिक आदमी है! संसारिकों से भी गया—बीता है! उसने तो शिविर में—शिविर के लिए
ही हालैडं गयी थी—बिना भाग लिए वापस लौट आयी। वापस लौटी थी, ताजी ही
क्रुद्ध; मुझसे मिलना हो गया। उसने कहा कि हद्द हो गयी! आप
कृष्णमूर्ति की ऐसी प्रशंसा करते हैं! मैंने अपनी आंख से जो देखा है, वह आपसे कहती हूं —कि वे एक टाई की दुकान पर टाई खरीद रहे थे। और न केवल
खरीद रहे थे, उन्होंने सारी टाई फैला रखी थीं। और बिलकुल
तल्लीन थे! मैं खड़ी रही वहा पंद्रह मिनट। वे बिलकुल लीन थे।
मैंने
कहा. वे सरल हैं। मगर यह सादगी महात्मा गांधी वाली सादगी नहीं है—वह महिला महात्मा
गांधी की भक्त है—यह सरलता है।
मैंने
उस महिला को कहा. तुम इतना तो मानोगी कि कृष्णमूर्ति में उतनी तो बुद्धि होगी ही, जितनी
तुममें है? इतना तो मानती हो? उनको भी
घर से चलते वक्त यह खयाल आ सकता था कि मैं, इतना प्रतिष्ठित
ज्ञानी, प्रबुद्ध पुरुष, टाई खरीदने
जाऊंगा; लोग क्या सोचेंगे! और अगर रुक गए होते, तो वह चालबाजी होती; वह पाखंड होता। फिर उस दुकान
में भरे बाजार में खड़े थे, कोई चोर की तरह कहीं किसी स्मगलर
के घर में घुसकर तो टाई नहीं खरीद रहे थे। बीच बाजार में खरीद रहे थे। छोटा सा
गांव, वहां कम से कम छह हजार लोग इकट्ठे हुए थे कृष्णमूर्ति
को सुनने; वे सब वहीं थे गांव में। इन सब भक्तों के सामने
खरीद रहे थे! इतना खयाल नहीं आया होगा कि यहां छह हजार मेरे भक्त ठहरे हैं,
लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे कि मैं टाई खरीद रहा हूं! घर भी बुला ले
सकते थे। बंद दरवाजा करके टाई चुन ले सकते थे। उधर आईना भी होता; सुविधा भी होती। भक्त भी न खोते, कोई नुकसान भी न
होता! मगर यह न किया। सरलता, सादगी.।
और
यह जो तल्लीनता छोटे बच्चे की तरह; जैसे छोटा बच्चा खिलौनों में खो
जाए, ऐसे टाई में खो गए! यह सहजता, और
तू वापस लौट आयी! तू नदी के किनारे से वापस लौट आयी?
तू
महात्मा गांधी की सादगी जानती है, वही अड़चन है। वह नपी—तुली सादगी थी। गांधी
एक—एक काम करते थे, तो नपा—तुला करते थे, उसका परिणाम क्या होगा, यह सोचकर करते थे। यह सादगी
नहीं है, जहां परिणाम का हिसाब है। क्या कहूं? कौन से शब्द का उपयोग करूं? पत्र कैसा लिखा जाए?
क्या लिखा जाए? इस पर भारी विचार करते थे! कई
दफा पत्र को सुधारते थे, बदलते थे। जो वक्तव्य दे देते थे,
उसमें भी बदलाहट कर लेते थे।
उनके
एक भक्त स्वामी आनंद ने मुझे कहा। एक रात मेरे पास रुक गए। फिर तो मुझसे इतना घबड़ा
गए कि फिर कभी आए नहीं। उन्होंने कहा कि.। ऐसी ही बात चली। वे गांधी के पुराने
भक्त। शुरू—शुरू गांधी जब भारत आए, तब से उनके साथ थे। तो उन्होंने
मुझसे कहा कि मुझ पर तो ऐसी छाप पहले ही दिन पड़ गयी गांधी की कि उनका हो गया सदा
के लिए। मैंने कहा. हुआ क्या?
गांधी
अफ्रीका से आए थे और अहमदाबाद में पहली दफा बोले। और उन्होंने अंग्रेजों को
गालियां दीं। लुच्चे,
लफंगे—इस तरह के कुछ शब्द उपयोग किए होंगे। और मैं रिपोर्टर था किसी
पत्र का। तो मैंने सोचा ये शब्द देने ठीक नहीं हैं। क्योंकि इससे गांधी की
प्रतिष्ठा को नुकसान पडेगा। तो मैंने वे सब शब्द अलग कर दिए। और वक्तव्य ठीक
साफ—सुथरा करके छापा।
दूसरे
दिन गांधी ने मुझे बुलाया। मेरे कंधे को ठोंका और कहा पत्रकार तुम जैसा होना
चाहिए। यही पत्रकारिता है। अब मुझसे जो निकल गया था क्रोध में, उसको
छापने की कोई जरूरत ही नहीं थी। तुमने ठीक किया। इतना बोध होना चाहिए पत्रकार को।
बोलने
वाले को बोध नहीं है,
पत्रकार को बोध होना चाहिए!
और
स्वभावत: स्वामी आनंद का दिल गदगद हो गया—जब उन्होंने कंधा ठोका और कहा कि तुम
महान पत्रकार हो।
मैंने
कहा. तुमने कभी दूसरा काम किया? उन्होंने कहा. क्या? कि
गांधी ने गाली न दी हो और तुमने गाली जोड़ दी होती। क्योंकि पहली बात भी गलत है;
उतनी ही गलत, जितनी दूसरी गलत है। जो कहा था,
वह वैसा का वैसा छपना चाहिए था। यह तो तुमने झूठ किया! इसमें से
तुमने गालियां निकाल दीं, गांधी खुश हुए। गालियां जोड़ देते,
तो गांधी नाराज होते। गांधी ने बेहोशी की।
यह
सादगी नहीं है। यह नपी—तुली राजनीति है। और तुम प्रभावित हो गए, क्योंकि
तुम्हें बहुत. तुम्हारे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिली कि गांधी जैसे व्यक्ति ने और
कहा कि तुम महान पत्रकार हो; ऐसा ही पत्रकार होना चाहिए। फिर
तुम उनके भक्त हो गए। फिर तुमने इसी तरह की काट—छांट जिंदगीभर की होगी!
उन्होंने
कहा बात तो ठीक है।
फिर
दुबारा मुझे नहीं मिले! फिर मुझसे नाराज हो गए होंगे, क्योंकि
मैंने सीधी बात कह दी। जैसी थी, वैसी की वैसी कह दी कि
तुम्हारे अहंकार को गांधी ने मक्खन लगा दिया। उन्होंने तुम्हें खरीद लिया। मैं अगर
उनकी जगह होता, तो मैं तुमसे कहता कि तुम ठीक पत्रकार नहीं
हो। क्योंकि मैंने जो गालियां दी थीं, उनका क्या हुआ?
इस तरह झूठी प्रतिमाएं खड़ी होती हैं। अब दुनिया कभी नहीं जानेगी कि
गांधी ने गालियां दी थीं। अब गांधी की जो प्रतिमा लोगों की नजर में रहेगी, वह झूठी प्रतिमा होगी।
गांधी
ने तो ऐसे ही कहा होगा—गुजराती थे, इससे ज्यादा वजनी गाली दे नहीं
सकते—लेकिन रामकृष्ण तो मां—बहन की गाली देते थे! मगर किताबों में उल्लेख नहीं है।
मगर वे सीधे—सादे आदमी थे, गांव के जैसे आदमी होते हैं।
किताबें नहीं लिखतीं उनको, क्योंकि किताबें कैसे लिखें उनको!
नहीं तो परमहंस का क्या होगा?
लेकिन
मैं तुमसे कहता हूं कि वे गाली देने के कारण ही परमहंस थे। सरल थे। अब जो आदमी
उनको जैसा लगा,
उसको उन्होंने वैसा ही कहा। उसमें फिर रत्तीभर फर्क नहीं किया। वे
परिष्कृत साधु नहीं थे—परमहंस थे। मर्यादित साधु नहीं थे—परमहंस थे। अब कोई आदमी
चोर है, तो उसको उन्होंने चोर कहा। और कोई आदमी उनके सामने
बैठा था और पास में बैठी स्त्रियों को देख रहा था, तो उसको
उन्होंने गंदी गाली दी। उसको उन्होंने कहा कि तू जो कर रहा है।
मैं
इसको सरलता कहता हूं;
सादगी कहता हूं। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं
समग्र संस्कृति का सृजन कि तुम गालियां देना
शुरू कर दो। क्योंकि वह तो फिर नपी—तुली बात होगी। अब परम हंस होने लगे! इसलिए
गालियां देने लगो कि इससे परम हंस हो जाएंगे, तो फिर चूक गए। फिर सादगी से चूक
गए।
मैं
तुमसे इतनी ही बात कह रहा हूं कि जैसा है, सरलता से...। तुम जैसे हो, अच्छे—बुरे, गोरे—काले, ऐसा ही
खोल दो अपने को। इससे अन्यथा दिखलाने की चेष्टा नहीं होनी चाहिए। मैं जैसा हूं
दुनिया मुझे वैसा ही जाने। इसका नाम सादगी। सादगी गैर—नपी—तुली दशा है। सिद्धांत
का उससे कुछ लेना—देना नहीं है।
पांचवां प्रश्न
मैं आपसे कुछ भी पूछते डरता हूं, क्योंकि
लोग अगर मेरे प्रश्न सुनेंगे, तो हंसेंगे।
जब प्रश्न ही पूछने
की हिम्मत नहीं,
तो उत्तर कैसे झेल पाओगे! और पूछोगे नहीं, तो
उत्तर कैसे पाओगे? और लोग हंसेंगे, तो
हंसने दो। इतनी सादगी तो जीवन में लाओ!
प्रश्न
तुम्हारे भीतर है;
जैसा भी है। लोग हंसेंगे ही न, तो हंसने दो।
मैं तुमसे कहता हूं : जो समझदार हैं, वे समझेंगे। जो नासमझ
हैं, वे हंसेंगे। लाओत्सु का प्रसिद्ध वचन है कि जो समझदार
हैं, वे समझेंगे। जो नासमझ हैं, वे
हंसेंगे।
क्यों? समझदार
क्यों समझेगा? क्योंकि समझदार समझेगा कि यह प्रश्न तुम्हारा
ही थोडे ही है, उसका भी है। वह भी नहीं पूछ पाया है। वह भी
रोके रखा बैठा रहा है। वह तो तुम्हें धन्यवाद देगा कि जो मैं नहीं पूछ सका,
तुमने पूछ लिया। मैं डरा रहा, तुमने पूछ लिया।
जो
नासमझ है, मूढ़ है, वही हंसेगा। क्योंकि मूढ़ को यह पता नहीं है
कि यही प्रश्न उसका भी है। आदमी आदमी के प्रश्नों में बहुत भेद थोड़े ही है। आदमी
आदमी की तकलीफों में, परेशानियों में भेद थोड़े ही है!
क्या
तुम पूछ सकते हो,
जो दूसरे आदमी का सवाल नहीं होगा? मैंने
हजारों सवालों के जवाब दिए हैं। मैंने हर सवाल को हर आदमी का सवाल समझा है। अब तक
मुझे ऐसा कभी नहीं दिखायी पड़ा कि यह सवाल किसी एक का विशिष्ट है। मुश्किल है,
संभव ही नहीं है।
क्या
पूछोगे? एक से तो रोग हैं। काम है, लोभ है; क्रोध है, मोह है। एक से तो रोग हैं, तो एक से ही प्रश्न होंगे। थोड़ा मात्राओं का भेद होगा। किसी में लोभ की
मात्रा थोड़ी ज्यादा, और किसी में क्रोध की मात्रा थोड़ी कम,
और किसी में मोह की मात्रा थोड़ी ज्यादा, और
किसी में राग की मात्रा थोड़ी कम। ये मात्राओं के भेद हैं। मगर मौलिक भेद कहा होंगे?
मौलिक भेद होते ही नहीं। आदमी आदमी सब एक जैसे हैं। और जब तुम किसी
दूसरे का प्रश्न सुनते हो, तो खयाल करना, किसी न किसी अर्थों में यह तुम्हारा प्रश्न भी है।
तो
जो समझदार हैं,
वे समझेंगे और, तुम्हें धन्यवाद देंगे। और जो
नासमझ हैं...। नासमझों का क्या? हंसने दो। एक समझदार भी समझ
ले, तो काफी है। और हजार नासमझ हंसते रहें, तो किसी मूल्य के नहीं हैं।
और
तुम अगर ऐसे डरे तो बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। तुम्हारी हालत तो ऐसी हो जाएगी, कल मैं एक
गीत पढ़ता था—
जो मुझ पे बीती है
उसकी तफसील मैं
किसी से न कह सकूंगा
जो दुख उठाए हैं
जिन गुनाहों का
बोझ सीने में ले के फिरता हूं
उनको कहने का
मुझमें यारा नहीं है
मैं दूसरों की
लिखी हुई किताबों में
दास्तां अपनी
ढूंढता हूं
जहां —जहां
सरगुजश्त मेरी है
ऐसी सतरो को मैं
मिटाता हूं
रौशनाई से काट देता
हूं
मुझको लगता है कि
लोग उनको अगर पड़ेंगे
तो
राह चलते में टोककर मुझसे जाने क्या पूछने लगेंगे!
मतलब
समझे? यह आदमी कह रहा है कि जो मुझ पे बीती है, उसकी तफसील
मैं किसी से न कह सकंगूा; उसका विवरण, ब्यौरा
मैं किसी को न बता सकूंगा। मुझ पर ऐसा बीता। लेकिन तुम समझो, जो तुम पर बीता है, वह हजारों पर बीता है। जो तुम पर
बीता है, वह हजारों पर बीत रहा है। तुम भिन्न नहीं हो। तुम
कोई द्वीप नहीं हो अलग— थलग। तुम संयुक्त हो।
जो मुझ पे बीती है
उसकी तफसील मैं
किसी से न कह सकूंगा
जो दुख उठाए हैं
जिन गुनाहों का
बोझ सीने में ले के फिरता हूं
उनको कहने का
मुझमें यारा नहीं है।
मुझमें शक्ति नहीं है। दुखों की और अपराधों
की, जो मैंने किए हैं।
सब, और भी,
ऐसे ही कमजोर हैं। तुमने ही अपराध किए हैं, ऐसा
नहीं। सब ने अपराध किए हैं। यहां कौन है जो अपराधी नहीं है! तुमने ही पाप किए हैं,
ऐसा नहीं। यहां सब ने पाप किए हैं। यहां कौन है जो पापी नहीं है!
पाप से ऊपर उठना है। पाप के पार जाना है। लेकिन कौन है जो पापी नहीं है!
पुरानी
कहावत है कि हर पुण्यात्मा कभी पापी रहा है। और हर पापी कभी पुण्यात्मा हो जाएगा।
संत का अतीत है,
पापी का भविष्य है। मगर भेद क्या है?
इसलिए
जो पहुंचे हैं,
उन्होंने कभी तुम्हारी किसी एक बात पर भी तुम्हारी निंदा नहीं की।
क्योंकि वे जानते हैं कि यही भूलें उनसे भी हुईं। इन्हीं गड्डों में वे भी गिरे
हैं। और जब तक तुम्हें ऐसा कोई करुणावान न मिल जाए, तब तक
जानना. गुरु नहीं मिला।
अगर
तुम किसी के सामने जाकर कहो कि मैं क्या करूं? मेरे मन में चोरी का सवाल उठता है।
और वह आदमी एकदम डंडा उठा ले—कि तुम महापापी हो; नर्क में
सडोगे। तो तुम समझ लेना कि इस आदमी में अभी अनुभव ही नहीं है। इसे करुणा ही नहीं
है। इसे याद ही नहीं है। या शायद इसे याद है और दबा रहा है—कि इसने भी यही सोचा
है। कि इसने भी इसी तरह के विचारों को कभी अपने मन में संजोया है।
और
इसका डंडा उठाना यह बता रहा है कि ये विचार इसके भीतर अभी भी जिंदा हैं; मिटे नहीं
हैं। यह डंडा तुम्हारे लिए नहीं उठा रहा है। यह डंडा अपने लिए उठा रहा है। यह असल
में यह कह रहा है कि मत छेड़ो मुझे। मत उकसाओ मुझे। किसी तरह राख जम गयी है अंगारे
पर, मत फूंक मारो। अन्यथा मेरी राख उड़ गयी, तो यह अंगारा मेरे भीतर भी है। तुम जाओ यहां से। नर्क जाओ। तुम कहीं भी
जाओ; मगर यहां मत आओ। यह कहां की बातें ले आए!
जब
कोई संत तुम्हारी निंदा करे, तो समझ लेना कि अभी संत का जन्म नहीं हुआ है।
संत वही है, जो तुम्हें स्वीकार करे। तुम्हारे गहनतम अपराधों
में भी स्वीकार करे। तुम्हारा गहनतम अपराध भी संत के मन में तुम्हारे प्रति निंदा
न लाए, तो ही संत है। जो समझे। जो कहे कि ठीक है। यही तो
मैंने भी किया है। यही तो मुझसे भी हुआ है। घबडाओ मत। जो तुमसे हो रहा है, वह मुझसे हुआ है। और जो मुझसे हो रहा है, वह तुमसे
भी हो सकता है। क्योंकि हम दोनों अलग नहीं हैं। जो मेरा अतीत है, वह तुम्हारा भविष्य है। हम संयुक्त हैं। हम अलग नहीं हैं। हम एक—दूसरे से
ब्यौरा लें—दें सकते हैं।
जिन गुनाहों का
बोझ सीने में ले के फिरता हूं
उनको कहने का
मुझमें यारा नहीं है।
तो शक्ति जुटाओ।
शक्ति बिना जुटाए कुछ भी न होगा।
मैं दूसरों की
लिखी हुई किताबों में
दास्तां अपनी
ढूंढता हूं
जहां—जहां
सरगुजश्त मेरी है
और
कहीं अगर किसी उपन्यास को पढ़ते वक्त—यह आदमी कह रहा है—मुझे अगर ऐसी कोई बात मिल
जाती है, जिसमें मेरी झलक आती है, तो मैं डरता हूं कि कहीं
कोई पढ़कर यह समझ न ले कि यह इस आदमी के बाबत है। दास्तां अपनी ढूंढता हूं
जहां—जहां
सरगुजश्त मेरी है
ऐसी सतरो को मैं
मिटाता हूं
रौशनाई से काट
देता हूं
मुझको लगता है कि
लोग उनको अगर पढ़ेंगे
तो राह चलते में
टोककर मुझसे जाने क्या पूछने लगेंगे!
लोगों
का भय खतरनाक है। इसी से पक्षाघात पैदा हो जाता है; इसी से तुम्हें लकवा मार
जाता है।
यहां
तुम फिक्र छोड़ो। क्योंकि यहां मेरे पास प्यारे लोग इकट्ठे हैं; ऐसे लोग
इकट्ठे हैं, जो समझेंगे। ऐसे लोग इकट्ठे हैं, जिनको तुम पर निंदा का खयाल न आएगा। जो तुम्हें धन्यवाद देंगे। जो कहेंगे
हमारी बात तुमने कह दी। हम छिपाए बैठे थे। हमारा घाव तुमने खोल दिया। तुम्हारे घाव
के खोलने के बहाने हमें भी औषधि का पता चला।
यहां
मेरे पास पुराने ढंग के महात्मा, साधु—संत नहीं हैं। यहां एक नए ढंग का मनुष्य
जन्म ले रहा है, एक नया संन्यास पैदा हो रहा है। यहां तुम भय
छोड़ सकते
ही, तुमसे मैं
कहूंगा कि किसी जैन मुनि के सामने जाकर मत कहना। किसी शंकराचार्य के सामने जाकर मत
कहना। वहा तुम्हारी भयंकर निंदा होगी। वहां ऐसी छोटी—छोटी बातों पर निंदा हो जाती
है, जिसका हिसाब नहीं है।
मैंने
सुना. पुरी के शंकराचार्य दिल्ली में ठहरे हुए थे। और एक आदमी ने खड़े होकर उनसे
जिज्ञासा की कि मैं खोजी हूं। मगर ईश्वर पर मुझे भरोसा नहीं आता, विश्वास
नहीं होता। मुझे भरोसा दिलवाइए। कुछ ऐसा प्रमाण दीजिए कि ईश्वर है। और पता है,
शंकराचार्य ने क्या कहा! शंकराचार्य ने उस आदमी की तरफ क्रोध से
देखा और पूछा कि तुमने पतलून क्यों पहन रखी है?
वह
बेचारा ईश्वर की जिज्ञासा कर रहा है! वे पूछते हैं तुमने पतलून क्यों पहन रखी है? और वहां
बैठे होंगे चुटैयाधारी और भी लोग। क्योंकि पुरी के शंकराचार्य के पास और कौन
जाएगा! मूढ़ों की जमात होगी वहां। वे सब हंसने लगे। और यह बेचारा एकदम दीन—हीन हो
गया। पतलून पहने हुए खड़ा हुआ है! होगा दिल्ली के किसी दफ्तर में क्लर्क।
तुमने
पतलून क्यों पहन रखी है?
भारतीय संस्कृति का क्या हुआ? तुम्हारी चोटी
कहां है?
वह
बेचारा ईश्वर का प्रमाण लेने आया है! अब उसकी चोटी भी नहीं है। गया नर्क में। गया
काम से। और पतलून पहन रखी है!
और
फिर बात यहीं खतम नहीं हो गयी। वे लोग और हंसने लगे। वह तो थोड़ा चिंता में पड़ गया
होगा कि यह मैं कैसा प्रश्न पूछ बैठा! यहां चार आदमी के सामने फजीहत हो गयी।
जो
उन्होंने और आगे बात की,
वह तो बहुत गजब की है—ब्रह्म—ज्ञान की! उन्होंने कहा कि तुम पतलून
ही पहनकर पेशाब भी करते हो? तो तुम अशुद्ध हो। खड़े होकर
पेशाब करते हो? क्योंकि पतलून पहने हो, तो बैठकर कैसे करोगे?
यह
ब्रह्म—ज्ञान चल रहा है! और वे सारे लोग हंसने लगे। उस आदमी की तरफ किसी का खयाल
नहीं है। और उसने एक ऐसी बात पूछी थी, जो सभी के भीतर है। और यह मैंने
शंकराचार्य की पत्रिका में ही पढ़ा। तो मतलब जिसने छापा है, वे
शंकराचार्य की पत्रिका वाले लोग इसको बड़े गौरव से छापे हैं कि देखो, शंकराचार्य ने कैसा नास्तिक को ठीक किया!
किसी
को ठीक कर रहे हो कि किसी को सहारा देना है! और जो आदमी ऐसी बातें कह रहा है, यह
शंकराचार्य, इससे ऊंचाई पर नहीं हो सकता; इससे ज्यादा ऊंचाई पर नहीं हो सकता।
इस
आदमी के अपमान में पूरी मनुष्य जाति का अपमान कर दिया गया। और जो आदमी यह कर रहा
है, वह गहन प्रकार से दंभ का रोगी है।
इन्हीं
शंकराचार्य के साथ एक दफा पटना में मेरा मिलना हो गया—स्थ ही मंच पर। मैत्रेय जी
तुम्हें पूरी कहानी बता सकेंगे। संयोजकों ने मुझे भी बुला लिया, उनको भी
बुला लिया। उन्होंने मुझे देखते ही से संयोजकों को कहा कि अगर ये सज्जन यहां
बोलेंगे, तो मैं यहां नहीं बोल सकता!
अब
संयोजक बड़ी मुश्किल में पड़ गए कि अब करना क्या भू: अड़चन खडी हो गयी। मुझे
निमंत्रित किया है;
दूर से मुझे बुलाया है। और ये कहते हैं कि अगर मैं बोला, तो वे नहीं बोलेंगे!
मैंने
संयोजकों को कहा कि उनको कहो कि पहले मैं बोल देता हूं। फिर पीछे वे बोलें। और दिल
भरकर जो आलोचना करनी हो,
वह कर लें। यह बात उन्हें जंची।
फिर
वे मुश्किल में पड़ गए। वे तो इतने क्रोध में आ गए कि आलोचना करना तो मुश्किल ही हो
गया। आलोचना के लिए भी तो थोड़ी शांति तो चाहिए। वे तो एकदम ज्वरग्रस्त हो गए। वे
तो सन्निपात में हो गए। तो कुछ का कुछ बकने लगे। के आदमी, इतना
जोश—खरोश; पैर खिसक गया; मंच से गिर
गए।
इस
तरह के महात्माओं के पास जाओ, तो तुम्हारा कहना ठीक है; डरना। पहले तो जाना ही मत। चले जाओ, तो दिल की मत
कहना। वहा झूठे प्रश्न पूछना। वहां अगर श्रद्धा न हो, तो
कहना? बड़ी श्रद्धा है भीतर—तो ठीक होगा। नास्तिक हो, तो कहना. आस्तिक हूं। चोटी न भी हो, तो भी टोपी
लगाकर जाना और कहना कि चोटी है। और पतलून भी पहने हो, तो ऊपर
से धोती पहन लेना। और इसके पहले कि ऐसे महात्मा तुमसे कहें कि खड़े होकर पेशाब करते
हो कि बैठकर, तुम ही बता देना कि हम बैठकर ही पेशाब करते
हैं।
वहां
डरना। मेरे पास डरने की कोई भी जरूरत नहीं है। तुम्हारा जैसा प्रश्न हो। मैं अगर
कुछ हूं, तो चिकित्सक हूं। तुम मुझसे अपनी बीमारी न कहोगे, तो
कैसे होगा! और ध्यान रखना : मैं पशु—चिकित्सक नहीं हूं। आदमियों का चिकित्सक हूं।
एक
सज्जन मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि फलां डाक्टर बडा गजब का डाक्टर है। उससे कहो
ही मत, वह नाड़ी पर हाथ रखकर सब बीमारियां बता देता है। तो मैंने कहा कि वह
आदमियों का डाक्टर है कि पशुओं का? वे बोले. नहीं; आदमियों का डाक्टर है। मैंने कहा. आदमी तो बोल सकता है! पशुओं का सवाल है
कि नाड़ियों पर हाथ रखो। अब पशु तो बोल नहीं सकता, तो अब नाड़ी
पकड़कर देखो कि क्या बीमारी है। आदमी बोल सकता है। इसमें गुणवत्ता क्या है? इसमें कोई गुणवत्ता नहीं है।
मैं
चाहता हूं कि तुम अपनी बीमारी मुझसे कहो। तुम्हारे कहने में ही आधी बीमारी हल होती
है। मैं तुम्हारे बिना कहे भी जान सकता हूं। लेकिन मेरे जानने से उतना लाभ नहीं
होगा, जितना तुम कहोगे तो होगा।
एक
तो कहने के लिए तुमने जो साहस जुटाया, वही बड़ी बात हो गयी। कहने के लिए
तुमने जो भय छोड़ा, वही बड़ी बात हो गयी। कहने के लिए तुमने जो
सोचा—विचारा, विश्लेषण किया, परखा अपने
भीतर—क्या है मेरा रोग—उसी में तुम्हारा ध्यान बढ़ा; तुम्हारा
होश बढा।
ठीक
से प्रश्न पूछ लेना,
आधा उत्तर पा जाना है। ठीक से अपना प्रश्न पकड़ लेना, आधा उत्तर पा जाना है। आधा काम तुम करो, आधा काम मैं
करूं। क्योंकि तुम अगर बिलकुल कुछ न करो, तो तुम्हें लाभ
नहीं होगा। पूरा काम अगर मुझे करना पड़े, तो तुम्हें लाभ नहीं
होगा।
मैं
तुम्हें इशारा दे सकता हूं;
काम तुम्हें करना है।
आखिरी प्रश्न
कहते हैं लोग, आती है बहार
भी कभी
लेकिन
हमें खिजां के सिवा कुछ नहीं पता।
मुड़ते
हवा के साथ रहे जो सदा, उन्हें
क्यों
और कब,
कहां के सिवा कुछ नहीं पता।
माथा
पकड के आज तक रोते रहे ये लोग
इनको
गलत निशा के सिवा कुछ नहीं पता।
खंजर
नहीं उठा सको,
तेवर ही बदल लो
तुमको
तो मेहरबां के सिवा कुछ नहीं पता।
वो
क्या करेंगे रोशनी घर में कभी, जिन्हें
बुझती
हुई शर्मा के सिवा कुछ नहीं पता।
जन्नत
भी कहीं होती है,
ये कहती है किताब
लेकिन
हमें यहां के सिवा कुछ नहीं पता।
किताब की मानना भी
मत। तुम्हें पता चल सकता हैं। जन्नत का पता लगाने की जरूरत भी नहीं है। क्योंकि
जन्नत तुम्हारे भीतर है, कहीं और नहीं। जन्नत का कोई भूगोल नहीं है। जन्नत का सिर्फ अध्यात्म
है। जन्नत यहां है—इन वृक्षों में, इस आकाश में, इन चांद—तारों में, इन लोगों में—जन्नत कहीं और नहीं
है। किताबें तुम्हें किसी जन्नत की बात करती हैं, जो कहीं
दूर आकाशों में, सात आसमानों के पार है। वह जन्नत झूठी है।
जिन्होंने वे किताबें लिखी हैं, उनको भी पता नहीं है।
मैं
तुम्हें जन्नत यहां दे रहा. हूं। इस जन्नत को पाने के लिए किताबों में जाने की
जरूरत नहीं है;
अपने में जाने की जरूरत है। तुम ही हो वह किताब, जिसको तुम वेद में खोजते हो, कुरान में, बाइबिल में, धम्मपद में। तुम ही हो वह किताब,
जिसे पढ़ा जाना है। कौन पढ़ेगा तुम्हारे अलावा?
तुम्हारे
भीतर सारे वेद पड़े हैं,
सारे कुरान, सारे उपनिषद छिपे हैं। जब किसी
ऋषि से उपनिषद पैदा हुआ, तो उसका अर्थ यही है कि हर आदमी में
पड़ा है। जब भी कोई जागेगा, उसी से उपनिषद पैदा हो जाएगा। जब
किसी से वेद की ऋचाएं निकलीं और कुरान की अपूर्व आयतें आयी—वे इतनी ही खबर देती
हैं कि हर आदमी के अचेतन गर्त में यह सब पड़ा है। अगर मोहम्मद में उठ सका, तो तुम में भी उठ सकेगा।
मैं
तुम्हें तुम्हारी याद दिलाता हूं। किसी किताब में जाने की जरूरत नहीं है। तुम ही
हो वह किताब। और जन्नत कहीं दूर नहीं है, आगे नहीं है, जन्नत यहां है और अभी है। जन्नत जीवन को जीने का ढंग है। नर्क भी जीवन को
जीने का ढंग है। एक गलत, एक सही। बस, उतना
ही भेद है।
नर्क
का अर्थ होता है कि तुम इस ढंग से जी रहे हो कि दुख पैदा होता है। तुम इस ढंग से
जी रहे हो कि चिंता पैदा होती है। तुम इस ढंग से जी रहे हो कि बेचैनी रहती है। तुम
इस ढंग से जी रहे हो कि खिंचे—खिंचे रहते हो।
जन्नत
का अर्थ क्या है?
जन्नत या स्वर्ग का अर्थ है : तुम्हें राज हाथ लग गया। तुम इस ढंग
से जीने लगे कि सुख की छाया बनी रहती है, शांति बनी रहती है
भीतर। तनाव गया, चिंता गयी, फिक्र गयी।
भविष्य गया, अतीत गया; यही क्षण सब कुछ
है। तुम इसी में नाचते; इसी में खाते, इसी
में पीते, इसी में सोते, इसी में
जागते। यह क्षण सब कुछ है—वर्तमान। अतीत जाए, भविष्य जाए।
स्वर्ग का द्वार यहीं खुल जाता है। इस क्षण में है स्वर्ग का द्वार।
'कहते हैं
लोग, आती है बहार भी कभी
लेकिन
हमें खिजां के सिवा कुछ नहीं पता।’
बहार
बाहर से नहीं आती। और खिजां भी बाहर से नहीं आती। वसंत भी भीतर से आता है, पतझड भी
भीतर से आता है। तुम गलत ढंग से जी रहे हो, इसलिए तुम्हें
पतझड़ के सिवा कुछ भी पता नहीं है। तुम ठीक से जीयो।
ठीक
से जीने के दो सूत्र हैं : ध्यान और प्रेम। ये दो जड़ें हैं, अगर ये
मजबूती से तुम्हारे भीतर जम जाएं तो तुम पाओगे, वसंत आ गया।
वसंत आया ही हुआ था। वसंत सदा से आया हुआ है। अस्तित्व वसंत के सिवा और कुछ जानता
ही नहीं।
आज इतना ही।
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