साक्षीभाव : परम सूत्र—प्रवचन—53
पहला
प्रश्न :
भगवान, आखिर आप
कहते वही हैं जो आपको कहना है। फिर इतर बुद्धों की खूंटी का सहारा क्यों लेते हैं?
अपनी बात सीधी ही हमसे क्यों नहीं कहते? हमें
उलझाते क्यों हैं?
पूछा है स्वभाव ने।
बहुत
सी बातें समझनी होंगी। पहली बात तो यह है—हजरत प्यार है, प्यार को
प्रश्न मत बनाओ!
बुद्धों
से लगाव है। लगाव के लिए कोई उत्तर नहीं। जैसे तुम्हें कोई स्त्री पसंद आ जाए, मन भा जाए,
कहो कि सुंदर है, बहुत सुंदर है, सिद्ध न कर सकोगे।
प्रेम
तर्क से गहरा है। कोई पूछेगा, क्यों प्रेम करते हो, उत्तर
न दे सकोगे। जहां तक प्रश्न और उत्तर जाते हैं, उससे आगे की
बात है।
बुद्धों
से मुझे लगाव है। जब संसार से लगाव हट जाता है, तो लगाव मिट थोड़े ही जाता है। लगाव
मिटेगा कैसे? लगाव तो जीवन की ऊर्जा है। संसार से हटता है तो
बुद्धों पर लग जाता है। बाजार से हटता है तो मंदिर में खिल जाता है। कामवासना से
मुक्त होता है, करुणा बन जाता है। लगाव जाने वाला नहीं है।
तुम्हारे जीवन का स्वभाव है। ऐसा ही समझो कि नीचे की मंजिल पर नल लगा हो, टोंटी बंद कर दो, तो ऊपर की मंजिल पर पानी चढ़ जाता
है। नीचे की मंजिल की टोंटी खोल दो, ऊपर की मंजिल का पानी
बंद हो जाता है।
वस्तुओं
से लगाव है, अभी तुम्हें चैतन्य का दर्शन नहीं हुआ। अभी बाहर—बाहर भटकता है तुम्हारा
लगाव, अभी अंतर्यात्रा शुरू नहीं हुई। जब होगी तब तुम समझोगे।
फिर तुम बुद्धों के प्रेम में जीते हो। उन बुद्धों के जो हुए, उन बुद्धों के जो हैं, उन बुद्धों के जो होंगे कठिन
है उनको समझाना, जिनकी नजर अभी धन, पद,
यश में लगी है। कठिन है उनको समझाना, जिनकी
नजरें अभी बाहर भटक रही हैं, वस्तुओं से उलझी हैं। लेकिन एक
बार तुम्हें कहीं से भी बुद्धों की झलक मिल जाए, किसी के
द्वारा भी मिल जाए—उसी को तो हम गुरु कहते हैं, जिसके माध्यम
से बुद्धों को श्रृंखला तुम्हारे लिए खुल जाए। गुरु तुम्हें अपने से थोड़े ही जोड़ता
है, बुद्धों से जोड़ देता है। गुरु तुम्हें उस महाश्रृंखला से
जोड़ देता है, जो जाग्रतपुरुषों की है। उस दीपमालिका से,
जहां बुद्ध का दीया जलता है—महावीर का, कृष्ण
का, क्राइस्ट का, जरथुस्त्र का,
लाओत्सु का। यह पंक्ति दीयों की बड़ी प्यारी है।
इन
सभी दीयों में ज्योति एक है, पर सभी दीयों के ढंग अलग हैं। हर दीए का रंग
अलग है, शैली अलग है, अंदाज अलग है।
अंदाज भी बड़े प्यारे हैं। लाओत्सु को समझो, बड़ा प्यारा अंदाज
है। फिर कोई दूसरा उस अंदाज को न पा सका। अगर मैं तुम्हें अपने पर सीमित रखूं तो
तुम्हें दीन बनाऊंगा। मेरा अपना अंदाज है। रोशनी वही है, मेरा
अपना दीया है। पर और भी दीए हुए हैं।
और
भी हैं सुखनवर बहुत अच्छे
मैं
तुम्हें अपने पर नहीं रोकना चाहता। मैं तुम्हारे लिए द्वार बनूं दीवार न बनूं। तुम
मुझसे प्रवेश करो,
मुझ पर रुको मत। तुम मुझसे छलांग लो, तुम उड़ो
आकाश में। मैं तुम्हें पंख देना चाहता हूं, तुम्हें बांध
नहीं लेना चाहता। इसीलिए तुम्हें सारे बुद्धों का आकाश देता हूं।
तुम
कहते हो, उलझन होती है, जानता हूं। जिनको पिंजड़ों में रहने की
आदत हो गयी है, खुले आकाश को देखकर बड़ी घबड़ाहट होगी। कहां
जाएं? अब तक घर था, ठिकाना था, बंधी सींकचे की सीमा थी। खुला आकाश भयाक्रांत कर देगा। इतनी दिशाएं हैं,
कैसे चुनें? कहां जाएं? और
कहीं उत्तर गए, तो पछतावा रहेगा कि दक्षिण क्यों न गए। पता
नहीं दक्षिण में ही सोने की खदानें हों। दक्षिण गए, तो मन
पछताता रहेगा, पूरब क्यों न गए, जहां
से ऊगता था सूरज, शायद वहीं सब छिपा हो। पूरब गए तो मन कहता
रहेगा, पश्चिम क्यों न गए, जहां सूरज
जा रहा है रोज। तो अकारण तो न जाता होगा।
पिंजड़े
में बंद पक्षी को ये सब अड़चनें नहीं हैं। कारागृह में पड़े आदमी को ये सब उलझनें
नहीं हैं। न निर्णय लेना है, न किसी तरफ जाने की हिम्मत जुटानी है। न कोई
कदम उठाना है। घूम लेता है अपने पिंजड़े में, सभी दिशाओं में
हाथ—पैर मार लेता है। दिशाएं हैं ही नहीं वहां।
तुम
चाहोगे कि मैं तुम्हें अपने पर सीमित रखूं र मगर मैं न चाहूंगा। मैं चाहूंगा कि
तुम मेरे कारण मुक्त बनो। पहले भी लोग और बुद्धपुरुषों पर बोले हैं, लेकिन
जैसा मैं बोल रहा हूं वैसा कभी नहीं कोई बोला।
महावीर
अगर बोले हैं,
तो कृष्ण पर नहीं बोले हैं; पार्श्व पर बोले
हैं, नेमि पर बोले हैं, ऋषभ पर बोले
हैं। जैनों के तीर्थंकरों पर बोले हैं। उत्तर पर ही बोले हैं, फिर दक्षिण पर नहीं बोले। माना कि अपने पर नहीं रोका, लेकिन अपनी दिशा पर रोका है। कारागृह तोड़ा, लेकिन
पूरा आकाश तुम्हें नहीं दे दिया है। जैन— धारा के बाहर न गए।
बुद्ध
भी बोले हैं,
अपने से पहले बुद्धपुरुषों पर बोले हैं, लेकिन
बौद्ध— धारा से इंचभर हटे नहीं। तो अड़चन नहीं है। बातें सीधी—साफ हैं, उलझन खड़ी नहीं होती। कृष्ण भी बोले हैं, मगर हिंदू—
धारा के बाहर नहीं गए।
जीसस
ने भी कहा है कि मैं पुराने पैगंबरों को पूरा करने आया हूं। मैं पिछले समय में दी
गयी व्यवस्थाओं को तोड़ने नहीं आया हूं, उन्हें भरने आया हूं। लेकिन वे
व्यवस्थाएं मूसा की हैं, इजेकील की हैं। यहूदी परंपरा की हैं।
जीसस इंचभर उस परंपरा से यहां—वहां न गए। दिशाएं दीं उन्होंने। मैं तुम्हें आकाश
दे रहा हूं।
इसलिए
तुम्हारी उलझन मैं समझ सकता हूं। तुम्हारी अड़चन मैं नहीं समझता, ऐसा नहीं।
खूब समझता हूं। सोच—समझकर ही पूरा आकाश दे रहा हूं। क्योंकि मुझे लगता है, पिंजड़ों ने तो बांधा ही, दिशाओं ने भी बांध लिया।
जैन फिर जैन से आबद्ध हो गए। मेरे देखे, मनुष्य इस भांति
दरिद्र हुआ, उसकी महिमा घटी, क्योंकि
वह औरों को आत्मसात न कर सका।
कृष्ण
को चूका, जो जैन हुआ। जो हिंदू हुआ, वह महावीर से वंचित हुआ।
संकरी गली हो गयी। पहुंचाती है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं राह को भी विराट क्यों न
बनाओ! और कभी—कभी मुझे लगता है, गली अगर इतनी संकरी है,
तो तुम जहां पहुंचोगे, वह कोई बहुत बड़ा विराट
नहीं हो सकता। क्योंकि साधन साध्य को निर्णीत करते हैं। मार्ग मंजिल को बनाता है।
अगर तुम संकरे में जीने के आदी हो गए—और जीओगे तो मार्ग पर न—मालूम कितने जन्मों
तक—तो तुम्हारी आंखें ही संकीर्ण न हो
जाएं! तुम्हारी आत्मा ही कहीं दिशा न ले ले! ले लेती है।
जैन
यहीं रहे, कृष्ण का मंदिर पड़ोस में, लेकिन उनके कानों में
कृष्ण—मंदिर की घंटियां नहीं गूंजी। नहीं गज सकतीं। उस तरफ कान बंद हैं। कृष्ण की
बांसुरी बजती रही है, लेकिन उन्हें ऐसा ही लगा कि यह नींद
में खलल है, कोलाहल है। वे कभी उस बांसुरी के स्वर को सुनने
न गए। ड़रे रहे, कहीं यह बांसुरी का स्वर उन्हें भटका न दे।
यह कहीं महावीर के मार्ग से च्युत न कर दे।
मैं
तुम्हारे सारे बंधन तोड़ रहा हूं। इसलिए मेरे साथ तो अगर बहुत हिम्मत हो तो ही चल
पाओगे। अगर कमजोर हो,
तो किसी कारागृह को पकड़ो, मेरे पास मत आओ।
लेकिन तुम्हारे कारण मैं संकीर्ण न दूंगा, मैं विराट ही
दूंगा। जो ले सकेंगे उन्हीं को दूंगा। मैं तुम्हें इस योग्य बनाऊंगा—तुम्हें
तोडूगा, तुम्हें तरल करूंगा—इस योग्य बनाऊंगा कि तुम फैल सको
सभी दिशाओं में, तुम उड़ सको खुले आकाश में।
वस्तुत:
मैं तुम्हें कहीं ले जाना नहीं चाहता, उड़ना सिखाना चाहता हूं। ले जाने की
बात ही ओछी है। मैं तुमसे कहता हूं, तुम पहुंचे हुए हो। जरा
परों को तौलो, जरा तूफानों में उठो, जरा
आंधियों के साथ खेलो, जरा खुले आकाश का आनंद लो। मैं तुमसे
यह नहीं कहता कि सिद्धि कहीं भविष्य में है। अगर तुम उड़ सको तो अभी है, यहीं है।
मैं
चाहता हूं कि मंदिर से उठती घंटियों की आवाज में तुम्हें मस्जिद की अजान भी सुनायी
पड़े। कैसा दरिद्र हो गया आदमी! मस्जिद—मंदिर को बांट लिया। कैसा दरिद्र हो गया
आदमी! अपनी धरोहर को बांट लिया। कोई जरूरत न थी। सब तुम्हारे हैं, तुम सबके
हो।
तमीजे—कुफ्रो—ईमा
मिट चुकी है अर्श अब दिल से
सदा
नाकूस की कानों में आती है अजी होकर
अब
कौन है काफिर और कौन है मुसलमां, यह भेद गिर गया।
सदा
नाकूस की कानों में आती है अजी होकर
मंदिर
से शंख की आवाज उठती है,
अजान सुनायी पड़ती है।
तुम्हें
पिघलाना चाहता हूं। तुम्हें धनी बनाना चाहता हूं। निश्चित ही गरीब आदमी उतनी उलझन
में नहीं होता,
यह मुझे पता है। उलझन होने योग्य ही कुछ नहीं है। बैठे हैं अपनी
झोपड़ी में। एक दिन का खाना मांग लाए हैं, भिक्षापात्र है।
वही है रात का कंबल, वही है दिन का वस्त्र; वही है बिस्तर, वही है ओढ़नी, उलझन
क्या है? जैसे —जैसे तुम धनी होते हो, उलझन
बढ़ती है। कहां सोए? क्या ओढ़े? इतना कुछ
है! चुनाव का सवाल उठता है।
और
यही बात अंतर्जीवन के संबंध में भी सही है। आदमी दीन रहने में सुविधा पाता है। मैं
तुमसे कहता हूं तुम दरिद्र रहना चाहते हो, क्योंकि दरिद्र रहने में उलझन खड़ी
नहीं होती। एक तरह की शांति होती है। चुनाव का उपाय ही नहीं है, उलझन ही नहीं है। जो है, वह है। उतना ही है। लेकिन
जैसे—जैसे तुम धनी होते हो, वैसे—वैसे बड़ी कठिनाई आती है।
मगर
मैं तुमसे कहता हूं कठिनाई का मुकाबला करने से ही मनुष्य निर्मित होता है। जितनी
चोट पड़ती है,
उतनी जाग आती है। जितने तार तुम्हारे छेड़े जाएंगे, उतना संगीत निखरेगा। जितनी छेनी तुम पर पड़ेगी, उतना
ही रूप प्रगट होगा।
गरीब
रहना चाहते हो,
सुलझाव के हिसाब से। कहते हो, एक कत बता दो,
वही पकड़ लें, उलझाओ मत। एक बात पकड़ लेना सदा
आसान है। चुनाव ही नहीं हो, तो चैतन्य की जरूरत ही नहीं होती।
मूर्च्छित भी पकड़ लेता है एक बात। इसीलिए तो जो एक—एक बात पकड़े हैं, मूर्च्छित रह गए हैं।
हिंदू
बेहोश है, मुसलमान बेहोश है, जैन बेहोश है। चले जाते हैं,
रौ में बहे जाते हैं, भीड़ के धक्के कहें,
वहां चले जाते हैं। जहां भीड़ जा रही है, वे भी
चले जा रहे हैं। एकांत में, अकेले चलने में घबड़ाहट होती है।
क्योंकि फिर कदम—कदम पर चुनाव है, और कदम—कदम पर निर्णय लेना
है, और कदम—कदम पर होश रखना है।
इसीलिए
तो लोग दूसरों का अनुसरण करते हैं, अपनी झंझट टली। किसी का भी पकड़
लिया पीछा। एक दफा मान लिया कि ठीक जा रहा होगा, चल पड़े। हम
तो निश्चित हुए।
ध्यान
रखना, तुम जिन्हें नेता कहते हो, वे निश्चित हैं, क्योंकि पीछे बहुत लोग उनका दामन पकड़े हुए हैं। वे निश्चित हैं कि जब इतने
लोग मेरे पीछे चल रहे हैं, तो जरूर मैं ठीक ही चल रहा होऊंगा।
अन्यथा कौन किसके पीछे चलता है! पीछे चलने वाले सोच रहे हैं कि जब नेता इतना
निश्चित चल रहा है, तो निश्चित जानता होगा कहां जा रहा है।
ऐसा लेन—देन है। अकेले चलने में तुम भी डरते हो, तुम्हारा
नेता भी डरता है। इसीलिए तो व्यक्तित्व को पाना बड़ा दूभर मालूम होता है।
व्यक्तित्व
पाने का अर्थ है,
पगडंडी, राजपथ नहीं। और मैं तो तुम्हें पगडंडी
भी नहीं दे रहा हूं क्योंकि आकाश में पगडंडियां भी नहीं होतीं। पक्षी उड़ जाते हैं,
पैरों के चिह्न भी नहीं छूटते। किसी को पीछे अनुसरण करने का उपाय भी
नहीं बचता। आकाश कोरा का कोरा रह जाता है। यहां पथ बनते ही नहीं।
पूछा
है, 'आखिर आप वही कहते हैं जो आपको कहना है।’
अन्यथा
तो कह भी कैसे सकता हूं! वही कहता हूं, जो मुझे कहना है। ठीक होगा इस तरह
सोचना कि वही कहता हूं जो मुझसे कहा जाता है। कहता, कुछ ठीक
नहीं। क्योंकि कहने में तो ऐसा लगता है जैसे मैं कुछ तय किए बैठा हूं—वही कहना है
जो मुझे कहना है। नहीं, वही कहता हूं जो कहा जाता है। वही
कहता हूं जो परमात्मा कहला रहा है।
काम
जो तुमने कराया,
कर गया
जो
कुछ कहाया, कह गया
यह
कथानक था तुम्हारा
और
तुमने पात्र भी सब चुन लिए थे
किंतु
उनमें थे बहुत से
जो
अलग ही टेक अपनी धुन लिए थे
और
अपने आपको अर्पण
किया
मैंने कि जो चाहो बना दो
काम
जो तुमने कराया,
कर गया
जो
कुछ कहाया, कह गया
मैं
कुछ कहना चाहता हूं ऐसा भी नहीं है। जो परमात्मा कहला रहा है वह कह रहा हूं। अपने
को मैंने हटा लिया है,
यही मेरा होना है। और इसको इस तरह से हटा लिया है कि अब यह बांसुरी
किसी के भी ओंठों पर रखी जा सकती है। यह कृष्ण के ओंठों पर रख दो, तो गीता के स्वर उठने लगेंगे। इसे तुम बुद्ध के ओंठों पर रख दो, तो एस धम्मो सनंतनो। इस बांसुरी का अपना कोई आग्रह नहीं है। यह बस,
बांस की पोगरी है। यह बस, खाली है। इसलिए कोई
भी स्वर इससे उतरना चाहे तो मुक्त है। और मैं चाहता हूं कि जब तक यह बांसुरी है,
तुम जितने ज्यादा स्वर सुन लो उतना अच्छा। तुम उतने धनी हो जाओगे।
तुम
कहते हो, 'आपको जो कहना हो वही कह दें।’
वही
होगा। स्वर बांसुरी के ही रहेंगे। स्वर में बांसुरीपन रहेगा। बांसुरी से वीणा के
स्वर न उठेंगे। लेकिन बांसुरी जब कृष्ण के ओंठों पर होगी, तो कुछ..
बांसुरीपन में भी कुछ और जुड़ जाएगा। बुद्ध के ओंठों पर होगी, तो कुछ और जुड़ जाएगा। मैं तुम्हें धनी बनाना चाहता हूं। मैं निर्धनता का
पक्षपाती नहीं हूं। मैं तो निर्धनता का पक्षपाती तभी हूं जब निर्धनता भी तुम्हारा
धन हो।
मैंने
सुना है, सूफी फकीर हुआ इब्राहिम। वह बल्क का बादशाह था कभी। फिर उसने छोड़ दिया राज—पाट।
फिर वह फकीर हो गया। पहली ही रात एक दरगाह में रुका, वहां एक
दूसरा फकीर भी था। सांझ दोनों प्रार्थना करने बैठे हैं। वह दूसरा फकीर जोर—जोर से
कहने लगा, परमात्मा! तेरी प्रार्थना करते —करते कितने दिन हो
गए, कब तक गरीब रखेगा? कब तक और यह
दीनता—दरिद्रता? कब तक यह और गरीबी? इब्राहिम
हंसने लगा।
उस
फकीर ने पूछा,
हंसते हो, बात क्या है? इब्राहिम
ने कहा, मालूम होता है गरीबी तूने सस्ती पा ली। मुफ्त मिल
गयी मालूम होता है। कुछ चुकाया नहीं मालूम होता। अरे पागल, हम
पूरा साम्राज्य देकर गरीबी लिए हैं, बड़ी महंगी पायी है। हम
यही प्रार्थना करते हैं, ऐसा ही बनाए रखना।
अब
तुम समझो। मैं गरीबी का पक्षपाती हूं तब, जब तुमने उसे कमाया हो। तब गरीबी
बड़ी अमीरी है। मैं तुम्हारी शून्यता का पक्षपाती हूं, लेकिन
तभी जब पूर्णता के मार्ग पर शून्यता उतरी हो। मैं तुम्हारे जीवन को निर्धन नहीं
देखना चाहता। निर्धनता भी धन होती है, तभी, निर्धनता भी जब परम सौभाग्य होती है, तभी। मैं
तुम्हें भरे हुए देखना चाहता हूं। अगर मैं शून्यता की बात भी कहता हूं तो सिर्फ
इसलिए कि शून्यता जितना भरती है, उतना कुछ और नहीं भरता। वह
बड़ा भराव है। वह आखिरी भराव है। उसके ऊपर
फिर कुछ और भरने को बचता नहीं।
सूनी
प्याली को गौर से देखना,
भरी प्याली से ज्यादा भरी होती है। पानी भर दो, कितना ही भर दो फिर भी कुछ खाली होती है। पानी और प्याली के बीच में थोड़ी
जगह तो होगी। नहीं तो पानी प्याली हो जाएगा, प्याली पानी हो
जाएगी। थोड़ा अवकाश तो होगा, फासला तो होगा। और कितना ही पानी
भरा हो, एक बूंद और भी भरा जा सकता है।
सुना
है मैंने, नानक एक गांव के बाहर मेहमान हुए। गांव फकीरों का था, सूफियों का था। वे बड़े चिंतित हो गए। फकीर न रहे होंगे, अन्यथा आनंदित होते, चिंता की क्या बात थी! जो
फकीरों में प्रमुख था, उसने सांकेतिक—रूप से संदेश भेजा।
उसने अपने शिष्य के हाथ में पानी से भरी हुई एक प्याली भेजी। लबालब भरी थी। एक
बूंद भी रखने को जगह न थी।
नानक
बैठे थे सुबह—सुबह गांव के बाहर, कुएं के पाट पर। मरदाना धुन छेड़ रहा था। नानक
ने कहा, मरदाना! जाकर एक फूल तोड़ ला। वह फूल तोड़ लाया,
उसकी कुछ समझ में न आया। वह जो सेवक आया था फकीर का, प्याली लिए खड़ा था। नानक ने वह फूल उसमें तैरा दिया, कहा, वापस ले जा। मरदाना कहने लगा, बात क्या हुई? कुछ समझे नहीं, बड़ा
लेन—देन हो गया। यह क्या चल रहा है? यह फकीर का आना, यह भरी हुई प्याली लाना, मतलब क्या है? फिर तुम्हारा यह फूल का तैरा देना!
नानक
ने कहा, गांव में जो फकीरों का प्रमुख है, चिंतित हो गया है।
सोचता है, कोई प्रतियोगी आ गया। यह फकीर नहीं है, दुकानदार है। तो उसने प्याली भरकर भेजी, उसने कहा,
यहां फकीर बहुत हैं, जगह बिलकुल नहीं है। आप
कहीं और जाएं, डेरा उठाएं। एक मैंने इसमें यह जंगली फूल ड़ाल
दिया। यह कहा है कि हम तो यहां फूल की तरह तैर रहेंगे, तुम
घबड़ाओ मत। और प्याली में इतनी जगह तो है ही कि एक फूल तैर जाए।
मैं
तुमसे यह कह रहा हूं कि प्याली भरी हो तो कितनी ही भरी हो, एक फूल को
तैरने की जगह तो बाकी है ही। भरी चीजें खाली रहती ही हैं। फिर प्याली बिलकुल खाली
है। तब शून्य पूरा भरा होता है। चूंकि तुम शून्य को पहचानते नहीं, चूंकि तुम्हें शून्य दिखायी ही नहीं पड़ता, तुम कहते
हो, प्याली खाली है। अगर तुम जानते, तो
तुम कहते, अब प्याली आकाश से भरी है। शून्य से भरी है।
इस
दशा को ही बुद्ध ने अनत्ता कहा है। बुद्ध ने कहा है, आत्मा, आत्मा, आत्मा, मैं, मैं, मैं—तुम ज्यादा न भर सकोगे। तुम खाली रहोगे।
छोड़ो जी, मैं जाने दो। तुम खाली हो रहो—अनत्ता, अनात्मा। तुम शून्य से भरो। फिर भराव ऐसा है, फूल भी
न तैराया जा सकेगा। फिर भराव पूरा है। फिर उसमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता। परिपूर्ण
है।
तो
मैं तो एक खाली बांस की पोंगरी हूं। इसे मैं बहुत ओंठों पर रखता हू। तुम सुन लो।
सारा अतीत, उसकी सारी संपदा तुम्हें लुटा देना चाहता हूं। और सारा भविष्य भी तुम्हारी
झोली में ड़ाल देना चाहता हूं।
लेकिन
तुम ऐसे कंगाल हो कि तुम कहते हो, क्या उलझन बढ़ा रहे हैं! आप तो सीधी—सीधी बात कह
दें। तुम बड़ी जल्दी में मालूम पड़ते हो। तुम्हें तो मिले कुछ, झपट्टा मारो और घर जाओ। ऐसी कुछ हालत है कि जल्दी से कब्जा कर लो, तिजोड़ी में बंद करो।
मैं
तुम्हें ऐसा सौभाग्य देना चाहता हूं जो किन्हीं तिजोडियों में बंद न किया जा सके।
तुम छोटी—मोटी कुछ जीवनधारा बनाने आए हो। मैं तुम्हें सागर बनाना चाहता हूं। तुम
सीमा के बिना जीने के आदी नहीं हो, मैं तुम्हें असीम में ले चलना
चाहता हूं। मैं जानता हूं तुम कुछ और कारण से आए हो, मैं
कहीं और तुम्हें ले चला। यही गुरु और शिष्य के बीच का द्वंद्व है, संघर्ष है, युद्ध है। शिष्य आया था कुछ और खयाल से,
गुरु कहीं और ले चला। तुम आए थे कुछ पाने, यहां
मैं तुमसे छीनने लगा। तुम आए थे कुछ और पाने, यहां मैं कुछ
और तुम्हें देने लगा।
एक
दूसरे मित्र ने पूछा है,
'विश्रांति चाहिए। आप तो कुछ ऐसी बात बता दें कि शांति हो जाए।’
तुम किनारा मलते हो, हम तुम्हें तूफान सिखाने
लगे। तुम किनारे के लोलुप हो—जल्दी किनारा मिल जाए—और हम तुमसे कहने लगे किनारा यहां
है ही नहीं। मझधार को किनारा समझो। है ही नहीं, करें भी क्या?
यह
किनारा पाने की आकांक्षा ही तुम्हारा जीवन
अशांत बनाए है। जिस कारण से तुम अशांत हो उसको समझो। किनारा पाने की आकांक्षा अशांत बनाए है। क्योंकि किनारा है नहीं, अशांत तुम
रहोगे। अब तुम कहते हो, हमें जल्दी से शांत कर दें। तुम मूल
कारण को मिटाना नहीं चाहते, हटाना नहीं चाहते, तुम कुछ सस्ते उपाय कर लेना चाहते हो। उसी दिन शांत हो पाओगे जिस दिन अशांति
का कारण हट जाएगा। तुम शांत होना चाहते हो, अशांति के कारण
को नहीं हटाना चाहते। वस्तुत: तुम्हारी शांति की आकांक्षा अशांति के कारण से ही आविर्भूत हो रही है। यह
धुआ जो अशांति का उठ रहा है और यह आकांक्षा जो शांति की उठ रही है, ये
एक ही ईंधन से उठ रहे हैं, इनमें भेद नहीं है।
कन्फयूसियस
से किसी ने पूछा,
एक शिष्य ने, कि मुझे शांत होना है, मुझे शांत होने का मार्ग बता दें। कन्फयूसियस ने कहा, बकवास बंद, मरकर तू शांत हो ही जाएगा, अभी इतनी जल्दी क्या है? अभी तू जी ले, फिर कब्र में तो शांत हो ही जाएगा। इतनी जल्दी क्या है? अभी ठीक से जी ले, नहीं तो कब्र में भी शांत न हो
पाएगा। क्योंकि वहा यह अशांति रहेगी कि न जी पाए, न जी पाए।
ऐसे ही गंवा दिया, जिंदगी हाथ से चली गयी। अभी तू जिंदगी है
तो शांत होना चाहता है, फिर शांति होगी तो जीना चाहेगा। उलझाव
खड़े मत कर, जी ले अभी। अभी तूफानों से जूझ ले। अभी आंधियों
से लड़ ले।
एक
तो शांति है जो आंधियों से बचकर मिलती है कि छुप रहे कहीं, और एक शांति
है जो आंधियों से जूझकर उपलब्ध होती है। एक शांति है जो तूफानों के बाद आती है,
तूफानों के द्वारा आती है। और एक शांति है जो शुतुर्मुर्ग जैसी है—सिर
को छिपा लिया रेत में — भगोड़े की है, पलायनवादी की है।
शिष्य
पता नहीं किन कारणों से आ जाता है। लेकिन शिष्य के कारण पूरे करने को गुरु नहीं है।
गुरु वहां देख रहा है जहां की तुम्हें खबर नहीं है। गुरु की आंखों में रोशनी है
किसी सूरज की,
जिस सूरज की सुबह अभी तुम्हारी जिंदगी में नहीं हुई है। वह तुम्हें
अपने प्रकाश में ले चलता है। वह तुमसे कहता रहता है, ठीक आ
गए, जल्दी ही शांत हो जाओगे, जल्दी ही
आनंद मिलेगा, जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा। और सारे समय
तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन खींचे ले रहा है।
लेकिन
जिस दिन तुम गुरु की दृष्टि को समझ पाओगे, उस दिन तुम अनुगृहीत होओगे। उस दिन
तुम कहोगे, अच्छा किया; हम जो
प्रार्थना लेकर आए थे, वह तुमने पूरी न की, अच्छा किया। अच्छा हुआ कि तुमने हमारी प्रार्थना ही बदल दी। इधर मैं
तुम्हारी प्रार्थनाएं पूरी करने को नहीं, तुम्हारी
प्रार्थनाएं बदलने को हूं। इसलिए स्वभावत: तुम्हें बहुत बार अड़चन होगी कि यह तो
मैं उलझाव बढ़ाने लगा। लेकिन अगर तुम मुझे समझोगे, तो मैं एक
ही बात रोज कह रहा हूं। अगर तुम मुझे समझोगे, तो मेरा स्वर
एकतारे का है। एक ही तार है उसमें। चाहे मैं बुद्ध को गुनगुनाऊं, चाहे कृष्ण को, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, ये बहाने हैं। और बड़े प्यारे बहाने हैं।
'फिर इतर बुद्धों की खूंटी का सहारा क्यों लेते हैं?'
ये
बड़ी प्यारी खूंटिया हैं। ये ऐसी खूंटियां हैं जो मुक्त करती हैं। ये ऐसी खूंटियां
हैं जो तुम्हें खुला करती हैं। फिर जिनके संबंध में भी मैं बोल रहा हूं मेरे लिए
वे पराए नहीं हैं। उनके साथ मेरा एक तादात्म्य है। जिस दिन अपने से संबंध छूटा, उसी दिन
उनसे संबंध बन गया। इधर नाव किनारे से छूटी, उधर सागर की हो
गयी। तो मैं बुद्धों पर बोल रहा हूं ऐसा नहीं, अपने पर ही
बोल रहा हूं। मेरे भीतर कोई अंतर नहीं है। इसलिए तुम बहुत अड़चन में और भी पड़ोगे।
अगर
यहां कोई बौद्ध सुन रहा होगा, तो बड़ी मुश्किल में पड़ेगा कि बुद्ध, तो ऐसी बातें तो कभी सुनी नहीं। जैन अड़चन में हैं कि मैं महावीर पर क्या
कहता हूं? ईसाई उलझते हैं कि मैं ईसा पर क्या कह रहा हूं?
ऐसा तो कभी किसी ने कहा नहीं। क्योंकि जिन्होंने कहा है, लिखा है, उनके पास अपनी कोई दृष्टि नहीं थी। पंडित
लिखते हैं, पंडित बोलते हैं। मैं एक नया सिलसिला शुरू कर रहा
हूं। यही एक उपाय है तुम्हें पंडितों से मुक्त करने का।
फिर
मैं कहता हूं अगर तुम्हारा बुद्ध से लगाव है, चलो यही सही, इसी घाट से तुम्हें उतारेंगे। तुम अगर कहते हो कि हम तो बुद्ध के घाट से
ही जाएंगे—बुद्धं शरणं गच्छामि—तो मैं कहता हूं, चलो ठीक,
क्या हर्जा है, नाव इसी घाट से छूटने दो। मैं
हर घाट से नाव छोड़ने को राजी हूं। क्योंकि मैं जानता हूं,
नाव जब छूटती है, घाट तो पीछे छूट जाता है।
ये
खूंटियां प्यारी हैं। अगर इन्हीं खूंटियों पर पंडित बोलें, तो तुम
बंध जाओगे। अगर इन्हीं खूंटियों पर बुद्धपुरुष बोलें, तो तुम
मुक्त हो जाओगे। निर्भर करता है कौन बोल रहा है। कहां से बोली जा रही है बात।
इसलिए
बुद्ध के वचन में क्या है इसकी मुझे बहुत फिकर नहीं है। बहुत बार ऐसा होता है कि
मुझे वचन के विपरीत भी बुद्ध के पक्ष में निर्णय लेना होता है। देखता हूं कि वचन
तो यह है, लेकिन बुद्ध यह बोल सकते नहीं, फिर मैं वचन की फिकर
नहीं करता। फिर मैं बुद्ध की फिकर करता हूं। क्योंकि वचन जिन ने संगृहीत किए हैं,
अनिवार्य रूप से वे उसमें सम्मिलित हो गए होंगे। फिर हजारों साल बीत
गए, बहुत जुड़ता चला गया है, घटता चला
गया है। एक—एक शब्द आमूल रूप बदल देता है। एक—एक मात्रा, एक—एक
विराम बड़े फर्क ले आता है। जरा यहां का वहा कि सब बदल जाता है। मैं फिकर नहीं करता।
जब धम्मपद और बुद्ध के बीच मुझे चुनना हो, तो मैं बुद्ध को
चुनता हूं।
बड़े
बौद्ध पंडित और भिक्षु हैं,
भदंत आनंद कौशल्यायन। वे मुझे मिलने—नागपुर में मैं था—आए। वे कहने
लगे, आपकी बातें तो बड़ी अच्छी लगती हैं, मगर कई बातें ऐसी हैं कि शास्त्र में नहीं हैं। और आप इतने बलपूर्वक कहते
हैं। कहा से आपको मिलीं? मैंने उनसे कहा, वहीं से जहां से बुद्ध को मिलीं। वे थोड़े बेचैन हुए, कि फिर भी कोई शास्त्र।
मैं
कोई शास्त्री नहीं हूं। अगर तुम्हें मेरी कोई बात जंचती हो, शास्त्र
में जोड़ देना। अगर मेरी बात शास्त्र के विपरीत पड़ती हो और जंचती हो, तो शास्त्र को बदल लेना। मैं शास्त्र की मानकर चलने को नहीं हूं। मैं कोई
शब्दों की लकीर से बंधा नहीं हूं। ऐसी सुविधा जो मुझे है, बहुत
मुश्किल से होती है।
इसलिए
मैं छोड़ देता हूं बहुत से वचन। पूरे धम्मपद पर नहीं बोल रहा हूं इसमें बहुत से
सूत्र मैंने छोड़ दिए हैं,
कचरा मान कर। किसी और ने ड़ाले होंगे, बुद्ध
के नहीं हो सकते। और अगर इसका किसी दिन निपटारा होगा, तो मेरे
और बुद्ध के बीच, इसमें भदंत आनंद कौशल्यायन को क्या लेना—देना?
सुलझ लेंगे।
पंडितों
को तो मुश्किल होगी। क्योंकि पंडित के पास अपना तो दीया नहीं है। वह यह तो जांच ही
नहीं सकता कि बुद्ध ने क्या कहा होगा। उसके लिए तो बुद्ध होना जरूरी है। वह तो
शास्त्र में खोज सकता है। शास्त्र में कहा है, बस। शास्त्र में कैसे आया? बुद्ध के द्वारा आया या किसी और ने ड़ाल दिया, कोई
और जोड़ गया!
वचन
संगृहीत किए गए,
वर्षों बाद लिखे गए। बुद्ध के मर जाने के कोई पाच सौ वर्ष बाद। थोड़ा
सोचो। लोगों की स्मृति में रहे। इसलिए बहुत से पाठ हैं, पाठ—
भेद हैं। क्योंकि एक स्मृति में रखने वाले ने कुछ जोड़ लिया, कुछ
छूट गया। ऐसा भी नहीं है कि जानकर किया हो। लोगों ने बड़ी निष्ठा और प्रेम से
सम्हाला होगा। लेकिन मनुष्य—स्वभाव; मनुष्य की सीमाएं हैं,
स्मृति की सीमाएं हैं, स्मृति की भूल—चूके हैं।
तो वेद के बहुत पाठ हैं। एक पाठ एक बात कहता है, दूसरा पाठ
दूसरी बात कहता है। अब सवाल यह है कि कैसे निर्णय करो कि कौन सही है? एक ही उपाय है वहा पहुंच जाओ जहां से वेद पैदा होते हैं, जहां से वेद जन्मता है, उस गंगोत्री में तलाशों।
इसलिए
मैंने सोचा कि ऐसा मौका फिर मिले, न मिले। बुद्ध को फिर ताजा कर जाऊं, महावीर को फिर से ताजगी दे दूं। ये फूल खूब कुम्हला गए। बड़े प्यारे हैं,
लेकिन सूखने लगे। इनकी जड़ों को पानी नहीं मिला। इनका उपयोग हो सकता
था, इनकी सिर्फ पूजा हुई। इनसे महाक्रांति पैदा हो सकती थी,
कुछ भी न हुआ। इनको फिर ज्योति दे देनी जरूरी है। इन दीयों की
ज्योति बुझने लगी है, जरा बाती को सम्हाल देना जरूरी है।
इसके पहले कि बाती डूब ही जाए, बुझ ही जाए, कोई सम्हाल दे, ये फिर प्रज्वलित हो जाएंगे, फिर इनसे प्रकाश मिलने लगेगा। और सभी दीयों से एक ही प्रकाश है। इसलिए मुझे
अड़चन नहीं होती।
मुझसे
कई लोग पूछते हैं कि यह कैसे संभव होता है आपको कि आप बाइबिल पर भी बोल लेते हैं, धम्मपद पर
भी बोल लेते हैं, गीता पर भी बोल लेते हैं? इसमें कुछ अड़चन नहीं है, उलझन नहीं है। मेरे पास
अपनी कसौटी है। इसलिए जहां मेरी कसौटी से मेल खा जाता है, वहा
मैं जानता हूं जीसस ने कहा है। जहां मेरी कसौटी से मेल नहीं खाता, वहां मैं जानता हूं जीसस ने नहीं कहा है।
जीसस
से कोई पूछता है,
किस अधिकार के बल बोल रहे हैं? बाइ व्हाट
अथारिटी? तो जीसस ने मालूम है क्या कहा? जीसस ने कहा, अब्राहम भी जब पैदा नहीं हुआ था,
तब भी मैं था।
अब्राहम!
वह यहूदियों का सबसे पुराना पैगंबर है। जैसे राम हिंदुओं के हैं, ऐसे
अब्राहम यहूदियों का है। और इस बात की बहुत संभावना है कि ये दो व्यक्ति न हों,
क्योंकि अब्राहम अबराम का रूपांतर है। हो सकता है ये एक ही व्यक्ति
हों। इस बात की बहुत संभावना है। मूल हिलू तो अबराम है। अबराम का मतलब होता है—श्रीराम।
सम्मान के लिए है अब। राम को कैसे राम कहें—श्रीराम। तो अबराम। फिर अब्राहम हुआ
उससे। चलते —चलते बिगड़ गया।
और
ये दो ही धर्म हैं संसार में जो बड़े मूल हैं—हिंदू और यहूदी। फिर शेष तो इनकी
शाखाएं हैं। हिदुओं की शाखाएं हैं—जैन, बौद्ध, सिक्स।
यहूदियों की शाखाएं हैं—मुसलमान, ईसाई। ये दो मूल हैं। और हो
सकता है, दोनों के पीछे एक ही स्रोत हों—राम का। होना भी
चाहिए यही। धर्म का एक ही स्रोत होना चाहिए। फिर उसकी शाखाएं फैलती चली गयीं।
तो
जीसस ने कहा,
अब्राहम भी नहीं था, तब भी मैं था। जीसस यह कह
रहे हैं कि मैं उसी मूल स्रोत से आता हूं जहां से सब आए। उनके भी पहले मैं था। समय
का कोई सवाल नहीं है।
मैं
तुमसे कहता हूं बुद्ध भी नहीं थे तब मैं था। अड़चन होगी। या जहां से बुद्ध आए वहीं
से मैं आता हूं। उसी एक घर से, उसी एक गंगोत्री से। मुझे पता है बुद्ध ने क्या
कहा होगा। जो मैं नहीं कह सकता, वह बुद्ध नहीं कह सकते। और
अगर तुम पूछो, किस अधिकार से? मेरे
अधिकार से कहता हूं। और तो कोई अधिकार है नहीं। और कोई अधिकार हो भी नहीं सकता।
'अपनी ही बात सीधी हमसे क्यों नहीं कहते हैं, हमें उलझाते
क्यों हैं?'
तुम
उलझे ही हो। तुम्हें उलझाता नहीं हूं सिर्फ तुम्हारी उलझन को ऊपर लाता हूं।
तुम्हारी उलझन को सतह पर तैराता हूं, उलझे तो तुम हो ही। उलझे न होते तो
जरूरत ही न थी। जो नहीं उलझा है, उसे कोई उलझा नहीं सकता।
तुम तो मुझे उलझाओ। तुम तो इतने पारंगत हो उलझन में, चलो
कोशिश करो। तुम मुझे उलझाओ। तुम मुझे नहीं उलझा सकते।
जो
सुलझ गया सुलझ गया। जो जाग गया, उसे सोए लोग सुला नहीं सकते। कैसे सुलाके?
थोड़ा सोचो, करोड़ लोग सोते हों और एक आदमी जागा
हो, तो करोड़ आदमियों की ताकत भी तो उसे सुला नहीं सकती।
लेकिन एक आदमी जागा हो, तो करोड़ को जगा सकता है। तुम इतने हो,
मैं अकेला हूं। तुम सब उलझे हो, तुम मुझे
उलझाओ। कोई उपाय नहीं। मैं तुम्हें सुलझाने की कोशिश कर रहा हूं। हालांकि मैं समझ
गया तुम्हारे प्रश्न का मतलब। तुम मेरे पास आए थे, तब
तुम्हें खयाल था कि तुम सुलझे हुए हो। जब से आए हो, तब से
उलझनें दिखायी देने लगीं। दर्पण के सामने आ गए हो, तो अपना
चेहरा दिखायी पड़ने लगा। पहले तुमने सोचा था बड़े सुंदर हो। अब दर्पण के सामने पड़ गए,
तो अड़चन आने लगी। कभी—कभी दर्पण पर भी नाराज हो जाते हो। यह मामला
क्या है? हम तो बड़े सुंदर थे!
एक
स्त्री पागल हो गयी थी। वह जहां भी जाती, दर्पण होता तो तोड़ देती। लोग पूछते,
मामला क्या है? तो वह कहती, ये दर्पण मुझे कुरूप बना देते हैं। वह स्त्री कुरूप थी। लेकिन दर्पणों पर
नाराज होती थी। दर्पण किसी को क्या कुरूप बनाएंगे! इधर तुम मेरे पास आओगे, तो तुम्हें उलझनें दिखायी पड़नी शुरू होंगी। मेरी चेष्टा है कि उलझनें दबी
न रहें, उनका रेचन हो। वे तिरें, ऊपर
आएं। क्योंकि ऊपर आएं तो ही उनसे छुटकारा हो सकता है। दबी न रह जाएं, तुम्हारे मन के कोने —कातरों में पड़ी न रह जाएं। अंधेरे में न पड़ी रहें।
तुम्हारी चेतना के तलघरों में न रहें, रोशनी में आएं। रोशनी
में मरेगी। रोशनी में आते से तुम उन्हें छोड़ने लगोगे, क्योंकि
तुम्हें यह दिखायी पड़ेगा कि तुम्हीं उन्हें पालो—पोसो तो वे बचती हैं। उन्होंने
तुम्हें नहीं पकड़ा है, तुमने ही उन्हें पकड़ा है। पर जागने
के पहले झूठे सुलझाव से मुक्ति मिलती है और सच्चा उलझाव प्रगट होता है।
साधारणत:
आदमी सोचता है,
सुलझा ही हुआ है। इतना बेहोश है कि इतना भी समझ में नहीं आता कि मैं
उलझा हूं। तुम दूसरों को भी सलाह दिए चले जाते हो। तुम्हें यह भी पता नहीं कि ये
सलाहें अपने काम भी नहीं आयीं। ये सलाहों का तुम खुद भी जीवन में आंचरण नहीं कर
पाते और दूसरों को दिए चले जाते हो। तुम्हारी सलाहों के कारण संसार में एक बड़ी
भारी दुर्घटना घटती है।
कभी
तुमने खयाल किया,
जैसे —जैसे बच्चा बड़ा होता है, उम्र बढ़ती है,
अनुभव आता है, वैसे —वैसे उसकी श्रद्धा क्षीण
होने लगती है। बड़े आश्चर्य की बात है। पहले वह अपने मां—बाप पर भरोसा करता था।
लगते थे वे, जो कुछ कहते हैं, वेद—वाक्य
हैं, देव—वाणी है।
फिर
धीरे—धीरे संदेह पैदा होता है। क्योंकि मां—बाप ने जो बातें कही थीं, बच्चा जब
देखने में समर्थ हो जाता है, पाता है ये तो उनका आंचरण खुद
भी नहीं करते। जब तक बोध नहीं था तब तक भरोसा करता था कि ठीक कहते हैं। पर अब
पकड़ने लगता है विरोधाभास। कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। करते
कुछ हैं, बताते कुछ हैं। हैं कुछ, दिखावा
बड़ा और है। पाखंड़ दिखायी पड़ने लगता है।
और
जिस बच्चे के मन से मां—बाप का भरोसा उठ गया—क्योंकि वह उसकी पहली श्रद्धा थी, वह उसका
पहला प्रेम था—उसका श्रद्धा का भवन गिरने लगा। अब यह किसी पर भरोसा न कर सकेगा। जब
अपने मां—बाप तक दगा दे गए, जब ये भी भरोसे के साबित न हुए,
अब कौन साबित होगा! फिर भी चेष्टा करता है। क्योंकि श्रद्धा बड़ी
प्रीतिकर है, और अश्रद्धा बड़ी कष्टपूर्ण है। बड़ी मुश्किल से
छोड़ता है बच्चा श्रद्धा को। स्कूल के शिक्षकों पर भरोसा कर लेता है। लेकिन वह भी
टूट जाता है। उनके जीवन में भी वह नहीं दिखायी पड़ता जो वे कहते हैं। दिखायी उलटा
ही पड़ता है।
जैसे—जैसे
वह बड़ा होता है और जैसे—जैसे जीवन का अनुभव होता है, सब तरफ से श्रद्धा पर चोट
पड़ती है, सब तरफ से श्रद्धा खंडित होती है। अश्रद्धा भर जाती
है। यह अश्रद्धा इसलिए पैदा होती है कि तुम ऐसी सलाहें दे रहे हो जो तुम्हें नहीं
देनी थीं। तुम ऐसी बातें कह रहे हो जो तुम्हें नहीं कहनी थीं। आखिर कितनी देर धोखा
दोगे! थोड़े लोगों को थोडे दिन धोखा दिया जा सकता है, लेकिन
सभी को तुम सदा के लिए थोड़े ही धोखा दे दोगे।
अगर
लोग इतने भी जागरूक हो जाएं कि ऐसी सलाह न दें जो उनके जीवन का अनुभव नहीं है, तो दुनिया
में श्रद्धा के पौधे पनपने लगें। अगर बाप यह कह दे कि मुझे पता नहीं है कि ईश्वर
है या नहीं, मैं भी खोज रहा हूं; तू भी
खोजना बेटे, अगर तुझे मिल जाए तो मुझे बता देना, मुझे मिल जाएगा तो तुझे बता दूंगा, लेकिन मैं भी
टटोल रहा हूं। इस बाप से श्रद्धा कभी न उठ सकेगी।
लेकिन
पूछो बाप से—किसी भी बाप से—ईश्वर है? वह कहता है, है।
उसी ने संसार बनाया है। प्रार्थना करो रोज।
लेकिन
आज नहीं कल बेटा पाएगा कि इसकी प्रार्थना झूठी, रोज तो यह भी नहीं करता है। रोज—रोज
पाएगा कि इसका जीवन वक्तव्य कुछ और दे रहा है और यह कहता कुछ और है। करता तो यह
वही है जिससे सिद्ध होता है कि ईश्वर नहीं है, और कहता है कि
ईश्वर है। घृणा और वैमनस्य, और ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा,
सब इसमें घर किए हैं। मोह, मत्सर और मद,
सब इसमें घर किए हैं। सब तरह के जहर पाले हुए है। इन जहरों से
प्रार्थना उठेगी कैसे?
ध्यान
रखना, तुम जब तक मेरे पास न आए थे, तुम्हें अपनी सलाहें
मूल्यवान मालूम होती थीं, मेरे पास आकर तुम्हारी सलाहें दो
कौड़ी की हो जाएंगी। जब तक तुम मेरे पास न आए थे, तुम्हें लगता
था, सब ठीक है। क्योंकि ठीक का तुम्हें पता ही न था, तुलना कैसे करते? तौलते कहां? तराजू
कहां था? मुझे सुनोगे, सब गैर—ठीक होने
लगेगा। मेरे पास नहीं आए थे, बड़े सुलझे हुए थे।
स्वभाव
ने पूछा है। स्वभाव को मैं जानता हूं।’ मेरे पास आने के पहले स्वभाव
बिलकुल सुलझे हुए थे। साफ—साफ था सब मामला। दृढ़ता थी। मुझसे तक आकर टकरा जाते थे।
बड़ा भरोसा था भीतर। फिर जैसे—जैसे करीब आए, वह भरोसा ड़गमगाया,
वह दृढ़ता टूटी, पिघले, बहे—उलझाव
प्रगट हुआ जो भीतर छुपा था।
बड़ी
उलझनें हैं। गुजलिकें हैं उलझनों की, उलझनों पर उलझनें हैं, धागे में धागे उलझे हैं। किसी तरह हम ऊपर से अपने को समझाए रखते हैं,
नहीं तो जीना मुश्किल हो जाए। तुम अपना सारा उलझाव लेकर बाजार जाओगे,
दुकान चलाना मुश्किल हो जाएगा। तुम सारा उलझाव लेकर घर आओगे,
पत्नी से संबंध जोड़ना मुश्किल हो जाएगा। तुम उलझावों को किनारे रखते
हो। तुम कहते हो, हटाए चलो, छिपाए चलो।
एक कोना साफ—सुथरा रखते हो, जैसा तुम्हारा घर का बैठकखाना है।
बस उसको तुम साफ—सुथरा रखते हो। वहां मेहमानों से मिल—जुल लेते हो। बाकी सारा घर
गंदा है। वहां तुम नजर ही नहीं ड़ालते। वहां ध्यान देने की कोई जरूरत ही नहीं है।
मेरे पास आए तो उलझन होगी। इसलिए प्रश्न बिलकुल सार्थक है।
पूछा
है, 'हमें उलझाते क्यों हैं!'
और
करें क्या? तुम उलझे हो, सुलझाव की बातें हम करेंगे, तुम्हारा उलझाव प्रगट होगा। जैसे अंधेरी दीवाल पर सूरज की किरण चमके;
अंधेरे बादलों में, काले बादलों में, बिजली चमके। तुमने खयाल किया, बिजली चमक जाने के बाद
रात और अंधेरी मालूम होती है। राह से गुजरते तुमने देखा, कार
निकल जाती है—तेज प्रकाश। अंधेरा था, लेकिन कार गुजर जाने के
बाद और अंधेरा हो जाता है। अब कार अंधेरा थोड़े ही कर गयी। लेकिन कार रोशनी की झलक
दे गयी। आंखें जब रोशनी देख लेती हैं तो
अंधेरे को पहचानती हैं—और गहराई से।
मैं
तो सुलझाने की ही कोशिश कर रहा हूं। लेकिन जितनी सुलझाने की मैं कोशिश करूंगा, जितनी
रोशनी तुम्हारी आंख में ड़ालूंगा, उतना तुम्हें अपना अंधेरा
दिखायी पड़ेगा। और इसके अतिरिक्त कोई उपाय भी नहीं है। अंधेरे को देखो; छिपाओ मत, उघाड़ो। उघाड़ने से ही मुक्ति है। उसे बाहर
लाओ। उससे संबंध छोड़ो, उससे नाते गिराओ, उसके साथ जितने तुमने न्यस्त स्वार्थ बाध रखे हैं, उनसे
मुक्त हो जाओ। क्योंकि गलत से कोई भी स्वार्थ कभी पूरा होने वाला नहीं है। तुम
कितना ही चाहो कि क्रोध से कभी शांति मिल जाए, नहीं मिलेगी।
और तुम कितना ही चाहो कि वैर से कभी मित्रता मिल जाए, नहीं
मिलेगी।
बुद्ध
ने कहा है, वैर से वैर नहीं बुझता। शत्रुता से शत्रुता नहीं घटती। क्रोध से क्रोध की
अग्नि और जलती चली जाती है।
इसे
देखो। जिस दिन तुम्हें यह साफ—साफ दिखायी पड़ जाएगा कि मैं जहर को अमृत बनाने की
कोशिश कर रहा हूं यही मेरी उलझन है, बस उसी दिन तुम छुटकारा पा जाओगे।
लेकिन इतना भी आसान नहीं होगा, क्योंकि जन्मों—जन्मों तक
तुमने गलत के साथ संबंध बांधे हैं, गलत ने तुम्हारे भीतर जगह—जगह
जड़ें पहुंचा दी हैं।
मैंने
सुना है, एक फकीर बैठा हुआ था नदी के किनारे, अपने शिष्यों के
साथ। सर्दी थी बहुत और फकीर ठिठुर रहा था। देखा नदी में एक कंबल बहता चला आ रहा है।
तो शिष्यों ने कहा, अरे, कंबल! आप
छलांग लगाकर कंबल निकाल क्यों नहीं लाते? आप ठंड़ से परेशान
हैं। वह फकीर छलांग लगाया। लेकिन वह कंबल नहीं था, वह एक रीछ
था, जो सिर छिपाए हुए पानी में बहा जा रहा था। कंबल जैसा
मालूम पड़ रहा था।
अब
जब उसने रीछ को पकड़ लिया,
तो उसने पाया कि उसने तो पकड़ा नहीं था कि तत्काल रीछ ने उसको पकड़ा।
अब वह उसके साथ बहने लगा। उसके शिष्यों ने कहा, क्या मामला
है? अगर कंबल बहुत वजनी हो और खींचकर न ला सकते हो, तो छोड़ दो। उसने कहा कि अब छोड़ना बहुत मुश्किल है, कंबल
ने भी पकड़ लिया है। मैं नहीं पकड़े हूं, मैं तो छोड़ने की
कोशिश कर रहा हूं, लेकिन अब कंबल ने भी पकड़ लिया है।
तुमने
जो उलझनें पकड़ी हैं,
वे मुर्दा नहीं हैं। उन्हें तुमने खूब जीवन दिया है, खूब सींचा है। वे कंबल की तरह नहीं हैं, वे रीछ की
तरह हो गयी हैं। उनमें तुमने प्राण ड़ाल दिया, अपना ही प्राण
ड़ाला है। खींच लोगे धीरे— धीरे तो निकल जाएगा, निष्प्राण हो
जाएंगी। लेकिन एकदम से होगा नहीं। समय लगेगा। और इसलिए जिसमें हिम्मत हो संघर्ष को
जारी रखने की, वही उलझनों से मुक्त हो सकता है। समझ जरूरी है,
फिर समझ के बाद थोड़ी प्रतीक्षा जरूरी है। संघर्ष जारी रखो, प्रतीक्षा और धैर्य रखो; जिसको बनाया है, उसको हम मिटा भी सकते हैं। जो हमने ही बनाया है, हम
उसे मिटा सकते हैं।
'आखिर आप कहते वही हैं जो आपको कहना है। फिर इतर बुद्धों की खूटी का सहारा
क्यों लेते हैं? अपनी बात सीधे ही हमसे क्यों नहीं कहते?'
सीधे
तो तुम बिलकुल न समझ पाओगे। बुद्धों के वचन तो तुम्हें परिचित हो गए हैं। पच्चीस
सौ साल लगे, तब बुद्ध के वचन धीरे— धीरे तुम्हारे रग—रेशे में उतरे। पांच हजार साल लगे,
तब कहीं गीता तुम्हारे कंठ में उतरी। हृदय में तो अभी भी नहीं उतरी।
पर कंठ तक तो उतर गयी, कंठस्थ हो गयी। दो हजार साल लगे,
तब कहीं जीसस के वचन लोगों की वाणियों में छा गए। प्राणों में तो अब
तक नहीं हैं, लेकिन वाणियों में छा गए। वे परिचित हैं।
अगर
मैं सीधा—सीधा बोलूं—वह मैंने सोचा है कि जाने के पहले सीधा—सीधा बोलूंगा, तुम जरा
तैयार हो जाओ—लेकिन मुझे शक है कि तुम समझ पाओगे। फिर पच्चीस सौ साल लगेंगे। फिर
कोई और बुद्धपुरुष की जरूरत होगी, जो तुम्हें समझाए। क्योंकि
अगर मैं सीधा—सीधा बोल दूंगा तो वह तरजुम तुमसे बिलकुल अपरिचित होगी। वे शब्द
तुम्हें बड़े बेबूझ मालूम होंगे। उनमें तुम्हें संगति न दिखायी पड़ेगी।
इसीलिए
खूंटियां खोजता हूं। तुम्हारे सहारे के लिए। मुझे कोई जरूरत नहीं है। मुझे तो
खूंटियों की वजह से बोलने में थोड़ी अड़चन होती है। क्योंकि मुझे तालमेल बिठलाना
पड़ता है पच्चीस सौ साल पुरानी भाषा के साथ। व्यर्थ की अड़चन आती है। मुझे जो कहना
है वही कहना है। मैं सीधे ही कह सकता हूं। आखिर धम्मपद में एक भी ऐसा वचन नहीं है, जो ऐसा हो
जो मैं सीधा न कह सकूं। तुमने कोई एक वचन अभी तक सुना जो ऐसा है जो मैं सीधा न कह
सकूं। अड़चन क्या है? गीता में कौन सा ऐसा वचन है जो मैं सीधा
न कह सकूं? ऐसी बात क्या है जो सीधी नहीं कही जा सके?
लेकिन
जब मैं सीधी कहूंगा,
तो वह तुमसे बिलकुल अपरिचित होगी। कोरे आकाश से उतरेगी। अगर मैं
बुद्ध के ढांचे का सहारा लेता हूं तो पच्चीस सौ साल पुराना ढांचा है; उससे तुम धीरे— धीरे राजी हो गए हो, पहचान गए हो।
अगर मैं वेद पर बोलूं उपनिषद पर बोलूं र तो वह तुम्हारे खून में उतर गया है—मैं
उसका फायदा ले रहा हूं।
यह
तुम्हारे लिए सुगम बनाने की दृष्टि से है, कठिन बनाने की दृष्टि से नहीं। लेकिन
तुम इतने कठिन हो कि सुगम बनाने में भी कठिनता दिखायी पड़ जाती है।
मैं
बोलूंगा कभी,
मेरे खयाल में है। लेकिन तुम्हें तैयार कर लूं। अभी तो तुम्हें लगता
है विरोधाभासी हूं तब तुम्हें लगेगा पागल हो गया। क्योंकि फिर मैं बोलूंगा,
तुम्हारी फिकर छोड़ दूंगा। तुम्हारी फिकर से बोला तो फिर मुझे पुरानी
भाषा का उपयोग करना पड़ेगा। फिर मैं बोलूंगा जैसे कि मैं खाली रिक्त स्थान में बोल
रहा हूं तुम नहीं हो। तुम जरा रिक्त और खाली हो जाओ, तब मैं
सूत्रों में बोलूंगा। फिर मैं व्याख्या नहीं करूंगा, व्याख्या
कौन करेगा फिर? फिर व्याख्या के लिए पच्चीस सौ साल रुकना
पड़ेगा। फिर सौभाग्य की बात है, कभी कोई जागेगा, उसकी व्याख्या कर देगा तो ठीक!
खयाल
रखो, जो भी कर रहा हूं, वह इसीलिए है कि तुम्हें किसी भी
तरह सहारा मिल जाए। कुछ भी हो, उपाय खाली न छोड़ा जाए। तुम यह
न कह सको कि मैंने कोई उपाय खाली छोड़ा था। अगर तुम भटको, तो
मैं तुम्हें इस स्थिति में ही भटकते छोडूंगा कि तुम जानते रहो कि तुम अपने कारण
भटक रहे हो, मेरे कारण नहीं। तुम यह न कह सकोगे, यह शिकायत न कर सकोगे कि मैंने कोई औषधि छोड़ी थी। तुम यह न कह सकोगे कि आप
एलोपैथी का ही इलाज करते रहे और हम होमियोपैथी से ठीक हो सकते थे। तो मैं सभी इलाज
कर रहा हूं। होमियोपैथी भी, नेचरोपैथी भी, आयुर्वेद भी, हकीमी भी, एक्यूपंचर
भी, जो तुम—जिस इलाज से तुम्हारी बीमारी छूटने की तुम्हारी
इच्छा हो, वही।
अगर
फिर भी तुम ठीक न हुए तो तुम्हें कहना पड़ेगा, मानना पड़ेगा कि तुमने बीमारी को
पकड़ा था, तुम छोड़ना ही न चाहते थे। तुम मुझे दोष न दे सकोगे।
दूसरा
प्रश्न.
सुना
है, संत स्वार्थ सिखाते हैं। किंतु कल तो आपने हमें हरी झंडी दिखा दी। भाग्य
से प्रेम का प्याला मिला था, द्वंद्व की दवा द्वंद्वातीत से
मांगी थी, और आपने हरी झंडी दिखा दी। ज्योति के, प्रकाश के, अमृत के, प्रभु के
घर से जाने की हरी झंडी कैसी!
तुम मुझे समझ गए, तो तुम
फिकर छोड़ो, तुम जाओ, मैं तुम्हारे साथ
आता हूं। यहां रुकने का आग्रह तो यही बताता है कि तुम्हें डर है कि कहीं इंदौर गए,
तो जो पाया है वह छूट जाएगा।
इंदौर
में कुछ खराबी है?
पूना से खराब तो नहीं। जैसे लोग यहां हैं, वैसे
लोग वहां हैं। जैसे वृक्ष यहां हैं, वैसे वृक्ष वहां हैं।
जिस आकाश ने पूना को घेरा है, उसी आकाश ने इंदौर को भी घेरा
है। और जिस पृथ्वी ने पूना को सम्हाला है, उसी पृथ्वी ने
इंदौर को सम्हाला है। मैं चाहता हूं कि इंदौर और पूना का फासला मिट जाए। तुम इंदौर
में भी पूना को पा सको।
तुमने
अगर जिद्द की कि तुम यहीं रुकोगे, तो वह जिद्द सिर्फ डर बताती है। मैं तुम्हें उस
डर से भी मुक्त करना चाहता हूं। तुम अगर मेरे पास ही सुखी रह सकते हो, तो यह सुख बहुत कीमत का न हुआ, यह सुख बहुत गहरा न
हुआ। यह सुख बड़ा उथला है, ऊपर—ऊपर है। इस सुख के भीतर डर तो
छिपा ही है—छूट जाने का, खो जाने का।
हरी
झंडी स? डरते क्यों हो? हरी झंडी उतनी ही प्यारी है जितनी
लाल झंडी। तुम मेरे हाथ को तो पहचानो, जिसने लाल झंडी दी है,
वही हरी झंडी दे रहा है। अब अगर तुम कहते हो कि हम तो लाल झंडी ही
देखेंगे, हरी झंडी न देखेंगे, तो तुम
मेरे हाथ नहीं देख रहे। तुम अपनी जिद्द से टिके हो।
तुमने
पुरानी कहानी सुनी है कि एक परम ज्ञानी अपने शिष्यों को समझा रहा था कि सभी जगह
परमात्मा है। सब रूपों में वही छाया है। सभी रंग में वही है। एक शिष्य वहां से
विदा हुआ, इस भाव से भरा हुआ। राह पर राजा का हाथी पागल हो गया था। महावत चिल्लाया,
हट जाओ! आसपास के लोगों ने रोका कि राह पर मत जाओ, हाथी पागल है। पर उसने कहा, छोडो भी! अभी गुरु के घर
से आ रहा हूं, और गुरु ने कहा सबमें वही है, वही एक बसा है। इस हाथी में भी वही है, क्या डर है?
वही मुझमें, वही इसमें।
माना, उसने तो वेदांत
सुना था, हाथी ने न सुना था। वहीं झंझट हो गयी। हाथी कहीं
उपनिषद वगैरह की चिंता करते हैं? उस हाथी ने उसको उठाया सूंड़
में, मरोड़ा और फोका। टकराया पास की दीवाल से, सिर खुल गया, लहूलुहान हो गया। वह बोला, अरे, यह गुरु तो कहता था सभी में ब्रह्म है! उसने
कहा, मुझे गुरु के पास ले चलो, यह तो
बात संदिग्ध मालूम पड़ती है।
लोग
उसे उठाकर गुरु के पास ले गए। गुरु ने कहा, मैंने कहा था सभी में ब्रह्म है,
लेकिन महावत में नहीं है, ऐसा मैंने कहा था?
और वह महावत जब चिल्ला रहा था कि रुको, तो कौन
चिल्लाया था नासमझ? ब्रह्म ही चिल्लाया था। अब तेरी मर्जी,
तूने हाथी के ब्रह्म की सुनी और महावत के ब्रह्म की न सुनी। जब
महावत और हाथी में सवाल उठे, तो महावत का ब्रह्म ज्यादा
विकसित ब्रह्म है। उसकी सुनो। तूने व्यर्थ जिद्द की।
तुम
सोचते हो, लाल झंडी मैंने बतायी, इसलिए तुम रुके। नहीं,
तुम रुकना चाहते हो। तुम अपने कारण रुकते हो। इसलिए हरी झंडी बाधा ड़ालती
है। पर मैं कहता हूं मेरे हाथ को देखो। मैं तुम्हें पास बुलाता हूं तुम्हें दूर भी
भेजता हूं? ताकि तुम उस ढंग से पास होना सीख जाओ, जहां फिर पास आने और दूर जाने का उपाय नहीं रहता।
तुमने
जो पाया है उसे सम्हालो,
गांठ गठियाओ, घर जाओ। कोशिश करना वहा भी कि जो
शांति, जो आनंद, जो सुख, जो ध्यान यहां मिला, वह वहां भी मिल सके। न मिले,
जानता हूं कठिनाइयां हैं, फिर लौट आना। लेकिन
बार—बार जाना वहीं है। जिस दिन तुम्हें ब्रह्म इंदौर में दिखायी पड़ने लगे, उसी दिन समझना कि मेरे पास आए। और इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं, तुम जाओ, मैं पीछे आ रहा हूं।
तुम
किस बात को बेहतर समझते हो,
तुम्हारे यहां रहने को या तुम्हारे साथ मेरे आने को? मैं नहीं चाहता कि जिंदगी को तुम बोझ समझने लगो। मैं तुम्हें जिंदगी को
जीने की कला सिखाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम जिंदगी को आनंद से जी सको,
अहोभाव से जी सको। मैं तुममें और तुम्हारी जिंदगी में किसी तरह की
दुई पैदा नहीं करना चाहता, खाई पैदा नहीं करना चाहता। अन्यथा
अधिक बार ऐसा ही हुआ है कि धर्म के नाम पर तुम भगोड़े हो गए हो।
अब
उन्होंने पूछा है कि यह हरी झंडी कैसी? वस्तुत: प्रश्न से ऐसा लगता है,
जैसे मैं तुम्हें भगा रहा हूं। गौर से देखो, तुम
भागना चाहते हो। तुम घर से भागना चाहते हो। तुम मुझे सहारा बनाकर घर से पलायन करना
चाहते हो। पत्नी है, बच्चे हैं, जिम्मेवारियां
हैं, तुम उनसे भागना चाहते हो।
नहीं, मैं
तुम्हें भगोड़ा नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हें भगोड़ेपन से बचाना चाहता हूं। और मैं
यह भी नहीं चाहता कि तुम घर में रहो और बेमन से रहो। मैं कहता हूं कि घर को मंदिर
समझो। ऐसा न हो कि तुम्हें और तुम्हारे मन में इस तरह की बातें पैदा हो जाएं—
अब
जी रहा हूं गर्दिशे—दौरा के साथ—साथ
ये
नागवार फर्ज अदा कर रहा हूं मैं
ये
नागवार फर्ज! धर्म ने अब तक यही उपद्रव करवा दिया लोगों को। जिस दिन धर्म की बात
जंचती है, तो फिर सारा नागवार हो जाता है। जबर्दस्ती ढोए चले जाते। मजबूरी है,
उलझ गए, फंस गए जाल में, बच्चे पैदा कर लिए, क्या करें? विवाह कर लिया, क्या करें?
नहीं, जिंदगी
अगर नागवार फर्ज हो जाए, जबर्दस्ती बोझ जैसा कर्तव्य हो जाए,
तो तुमने धर्म को समझा ही नहीं। धर्म तुम्हारे पैरों को नृत्य देगा,
तुम्हें निर्भार करेगा। इसलिए मैं तुम्हारे विपरीत लड़ता ही रहूंगा।
मैं तुम्हें पलायनवादी नहीं बनने दूंगा। और एक न एक दिन जब तुम समझोगे, तब तुम मुझे धन्यवाद दोगे।
अभी
तो तुम्हें लगेगा,
यह क्या बात हुई! तुम यहां रहना चाहते हो, मैं
कहता हूं जाओ। तुम सब छोड़ने को तैयार हो, मैं कहता हूं मत
छोड़ो। तुम कहोगे, यह क्या बात हुई! तुम चाहते हो कि मैं हौ
भर दूं ताकि छोड़ने की जो ग्लानि है तुम्हारे मन में, उसका
उत्तरदायित्व तुम मुझ पर सौंप दो। तुम कहो, क्या करें! गुरु
ने कहा सब छोड़ दो। ऐसे गुरु बहुत हैं। अगर छोड़ना ही होगा तुम्हें, तो तुम किसी ऐसे गुरु को खोज लोगे जो छुड़वा देगा। बड़े नासमझ लोग हैं।
एक
सिंधी महिला ने मुझे आकर कहा—उनके कोई गुरु हैं, कोई दादा—उस महिला ने मुझे
कहा कि मैं बड़ी उलझन में पड़ गयी हूं।
अब
एक तो गुरु और फिर सिंधियों के गुरु!
बड़ी
उलझन में पड़ गयी हूं। क्या उलझन है? उसने कहा कि मेरे गुरु ने समझाया
कि यह जो पति का प्रेम वगैरह—और अभी विवाह हुए कोई दो ही साल हुए थे—यह जो प्रेम
वगैरह है, यह सब धोखा है, भ्रमजाल है,
माया है। तो मैंने पूछा कि इसकी कसौटी कैसे करूं? तो गुरु ने कहा, ऐसा कर, पंद्रह
दिन तक तू उदासीन रह। पति कुछ भी करे, तू उदासीनता जाहिर कर।
पति कुछ भी कहे, तू क्रोध और नाराजगी जाहिर कर। पता चल जाएगा।
अगर प्रेम होगा तो टिकेगा, नहीं होगा तो खतम हो जाएगा।
उस
मूढ़ ने घर जाकर यह प्रयोग भी कर लिया। पंद्रह दिन उदासीन, क्रोधित।
आखिर. पति आखिर पति है। उसने पिटाई कर दी उसकी। पिटाई कर दी तो गुरु से जाकर पूछा,
अब क्या करना? गुरु ने कहा, छोड़, यह कैसा प्रेम है! तो वह छोड़ कर, घर—द्वार छोड़कर बैठ गयी। तभी कोई
उसे मेरे पास ले आया।
मैंने
कहा, वह तो ठीक है कि तेरे पति ने तेरी पिटाई की, तू एक
ही पिटाई से भाग खड़ी हुई? तूने यह न सोचा कि पति कहीं किसी
और गुरु की शिक्षा लेकर और प्रयोग कर रहे हों! यह भी तो तू सोच थोड़ा। कोई और दादा
मिल गए हों। दादाओं की कोई कमी है। और तेरा प्रेम एक ही दफे में खतम हो गया,
और पंद्रह दिन में पति की तू परीक्षा लेती रही। और उसने एक ही दफे
लगायी पिटाई तेरी। तू फिर से घर जा। तू जरा सोच तो! उसने कहा, यह बात तो मेरे खयाल में ही न आयी। पति भी परीक्षा ले रहा होगा। जब तू
परीक्षा ले रही है तो पति को भी मौका दे।
जीवन
को हम व्यर्थ उपद्रवों से भरते हैं। और इस तरह के लोग हमारे आसपास हैं। और उनके
होने का कारण यही है कि तुम जीवन जीने की कला नहीं जानते। तो जीवन में अड़चनें आती
हैं, तुम इन नासमझों के पास पहुंच जाते हो। और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अगर
तुम बीमार होओ, तो तुम ड़ाक्टर के पास जाओगे जिसने हजारों
मरीजों का इलाज किया हो। लेकिन अगर तुम विवाह से परेशान हो तो किसी बाल—ब्रह्मचारी
के पास पहुंच जाओगे।
यह
बड़े मजे की बात है। तुम जरा अकल की भी थोड़ा सोचो। बुद्धि है तुम्हारे पास!
जिन्होंने एक भी विवाह नहीं किया, यह तो पक्का प्रमाणपत्र हुआ कि ये बेकार हैं,
तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं। इनका कोई अनुभव नहीं है। जिसने बहुत
विवाह रचाए हों, उसके पास जाना, तो
शायद कुछ कुंजी हाथ में सम्हाल दे, दे दे। जिन्होंने दुकान
कभी की नहीं, उनसे पूछने चले गए। इसमें कोई समझ नहीं मालूम
होती। तुम भागना चाहते हो। तो तुम किसी भगोड़े को खोज लोगे और जिम्मेदारी उस पर टाल
दोगे। अब तुम निश्चित हो गए कि चलो ठीक, हम कोई भगोड़े नहीं
हैं, धार्मिक हैं। आदमी अच्छे शब्दों की ओढ़नी ओढ़कर सारे
दुष्कृत्य किए चला जाता है।
संन्यास
की ओढ़नी ओढ़ लेते हो,
लेकिन उस ओढ़नी के पीछे तुम क्या करते हो, यह
तो थोड़ा सोचो! कितना दुख छोड़ जाते हो पीछे। और ये सारे बुद्धपुरुष यह कह रहे हैं
कि दूसरे को दुख देने से सुख न मिलेगा। तुम अपनी पत्नी और बच्चों को भी सुख न दे
पाए, उनको भी तुम दुख में ड़ाल गए, और
किसको तुम सुख दे पाओगे? जो तुम्हारे बहुत पास हैं, कम से कम उन्हें तो दो, फिर दूर की सोचना। फिर और
बढ़ाना अपने प्रेम को। लेकिन जो पास हैं, उनसे ही तो मत छीनो।
लेकिन
अक्सर ऐसा होता है कि जो लोग प्रेम करने में असमर्थ होते हैं, वे
मनुष्यता को प्रेम करते हैं। और मनुष्यता कहीं मिलती है? कहां
खोजोगे मनुष्यता को? जहां मिलेगा मनुष्य मिलेगा। जहां मिलेगा
व्यक्ति मिलेगा, मनुष्यता तो कहीं मिलती नहीं।
जिनको
प्रेम से बचना है,
वे कहते हैं, हम तो मनुष्यता को प्रेम करते
हैं। ये धोखेबाज हैं। ये इस सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहते हैं कि हम प्रेम करने
में असमर्थ हैं, इसलिए हमने एक बड़ा ढकोसला बनाया, ऊंचा शब्द चुना—मनुष्यता का प्रेम।
संसार
को भी तुम प्रेम न कर पाए,
तुम निर्वाण को प्रेम कर सकोगे? शान तो सीढ़ी—सीढ़ी
ऊपर उठता है। तुम जहां हो, वहां तुम शांत हो जाओ, तत्क्षण तुम पाओगे, तुम ऊपर उठ गए। तुम जहां हो
वहीं शांत हो जाओ, तुम पाओगे, एक सीढ़ी
पार हुई। घर में होना एक शिक्षण है। संसार एक विश्वविद्यालय है। और सस्ता नहीं
मिलता कोई अनुभव, कीमत चुकानी पड़ती है। इसलिए कलह भी है,
उपद्रव भी है, अड़चन भी है, चिंता भी है—यह कीमत है।
रही
मेरी बात, तो मैं तुम्हारे साथ आता हूं। तुम जब भी अकेले होओगे, तुम मुझे अपने साथ पाओगे। तो लौट जाओ घर। घडीभर को अकेले होने की
प्रक्रिया जारी रखना। घड़ीभर को द्वार—दरवाजे बंद कर लेना, भूल
जाना पली—बच्चों को।
पत्नी—बच्चे
भी खुश होंगे,
क्योंकि तुम्हारा चौबीस घंटे छाती पर चढ़े रहना किसी को भी सुख नहीं
दे रहा है। वे भी घड़ीभर को बड़े प्रसन्न होंगे कि बड़ा अच्छा हुआ! ध्यान कर रहे हैं,
बड़ा अच्छा हुआ! कोई इससे दुखी होने वाला नहीं, क्योंकि घड़ीभर को उनको भी फुर्सत मिलेगी तुमसे। थोड़ा उनको भी अवकाश मिलेगा,
जगह मिलेगी। घड़ीभर को तुम अकेले हो जाओ, उस
अकेलेपन में तुम मुझे पाओगे। मेरे साथ संग बनने लगेगा।
मैं
कल एक गीत पढ़ रहा था। बड़ा प्यारा गीत है—
मां!
जल भरन न जाऊं
कोई
युवती अपनी मां से कह रही है।
मां!
जल भरन न जाऊं
जिधर
बढाऊं चरण, उधर ही
साथ
लगा छाया—सा डोले
भीड़
देख जा छिपे आडू में
इकला
पाते ही संग हो ले
तरह—तरह
के रूपक रचकर
ऐसा
नाच नचाए मन को
मां!
जल भरन न जाऊं
बिना
सूत्र के पुतली नाचे
बिना
तार इकतारा बोले
घट
से तट तक, थल से जल तक
पर्णकुटी
से राजमहल तक
कोई
भी पथ नहीं जहां
यह
हेरा—फेरी करे न भौंरा
मां!
जल भरन न जाऊं
कृष्ण
के लिए कहा गया गीत है। पर बड़ा प्यारा! तुम अगर मेरे पास ही आ गए हो तो तुम दूर न
जा सकोगे। जल भरने जाओ कि न जाओ।
साथ
लगा छाया—सा डोले
भीड़
देख जा छिपे आड़ में
इकला
पाते ही संग हो ले
जरा
इकले होते रहना।
तरह—तरह
के रूपक रचकर
ऐसा
नाच नचाए मन को
मां!
जल भरन न जाऊं
बिना
सूत्र के पुतली नाचे
बिना
तार इकतारा बोले
तुम
जरा इकले होकर बैठ जाना,
मेरा इकतारा बजने लगेगा। तुमने अगर मुझे चाहा, तुमने अगर मुझे प्रेम किया, तो तुम जब भी अकेले
होओगे मुझे पाओगे। इसमें मुझे कुछ करना नहीं पड़ता, तुम्हारा
प्रेम ही सब कर लेता है।
तुम
जिसे प्रेम करते हो,
अकेले होते ही उसकी याद आती है, और किसी की
याद नहीं आती। प्रेम की कसौटी यह है कि जब तुम अकेले होओ, तब
उसकी याद आए। खो जाते हो संसार में, बाजार में, भूल जाते हो, लेकिन जब फिर अकेले हुए, फिर उसकी याद आ जाती है। प्रेम का लक्षण यही है। इसमें मुझे कुछ करना नहीं
पड़ता। मुझे कोई इंदौर तक आने—जाने की टिकिट का खर्च नहीं पड़ने वाला है। तुमने अगर
मुझे चाहा, तुम्हारी चाहत सब कर लेगी।
बिना
सूत्र के पुतली नाचे बिना तार इकतारा बोले घट से तट तक, थल से जल
तक पर्णकुटी से राजमहल तक कोई भी पथ नहीं जहां यह हेरा—फेरी करे न भौंरा
मां!
जल भरन न जाऊं जल भरने जाओ या न जाओ, तुम जहां जाओगे—हेरा—फेरी करे यह
भौंरा। यह तुम्हारे चारों तरफ चक्कर लगाता ही रहेगा। यह तुम्हारा ही भाव है,
यह तुम्हारी ही श्रद्धा है।
तुम
इतने ड़रे क्यों हो अपनी श्रद्धा के प्रति? तुम इतने अविश्वासी क्यों हो अपनी
श्रद्धा के प्रति? चलो, हरी झंडी
दिखायी, हरी झंडी सही! हाथ को पहचानो और जो तुमसे कह रहा हूं
वह करो। क्योंकि जो मैं तुमसे कह रहा हूं वही करने में तुम मेरे निकट आओगे। तुम
अपनी जिद्द से यहां रुक सकते हो। आखिर मैं क्या कर सकता हूं,
तुम रुकना चाहो तो रुको। लेकिन तुमने मुझे नहीं सुना। फिर दोष मुझे मत देना,
अगर भटक जाओ। यहां रुककर भी भटक जाओगे। क्योंकि यहां रुके तुम मुझे
बिना सुने।
और
मैं तुमसे कहता हूं तुम जाओ। आते रहो कभी—कभी। मुझे तो तुम ज्यादा से ज्यादा स्नान
समझो। आ गए कभी,
डुबकी लगा ली, चले गए। चौबीस घंटे नदी में मत
डूबे रहो। इसका कोई सार नहीं है। बस कभी—कभी काफी है। उतना भी तुम सम्हाल लो तो
बहुत, उतना भी तुम्हें ले जाएगा। कभी—कभी तो यह भी हो जाता
है कि धीरे—धीरे, धीरे—धीरे अगर तुम बहुत ज्यादा मेरे पास
रहो तो मुझे भूल ही जाओ। पास रहने से भूल—चूक होनी शुरू हो जाती है, विस्मरण हो जाता है। दूर रहने से याद बनी रहती है।
दूरी
को तुम प्रेम का दुश्मन मत समझना, दूरी प्रेम की बड़ी मित्र है। क्योंकि दूरी
उकसाती है प्रेम को, जलाती है प्रेम को। विरह को उठाती है।
पास ही जो है, वह मिला ही है, धीरे —
धीरे हम भूल जाते हैं। पास होने के कारण ही तुम परमात्मा को भूले हो। पास ही होने
के कारण तो तुम आत्मा को भूले हो। दूर है इसलिए थोड़े ही परमात्मा दूर है; बहुत पास है, तुमसे भी ज्यादा पास है, इसीलिए याद नहीं आता।
आखिरी
सवाल:
आपने
माला के धागे के पहचानने की बात कही। मैं आपको काफी समय से सन रहा हूं। मेरी समझ
से आपकी माला का धागा साक्षीभाव है। कृपापूर्वक इस बात पर प्रकाश ड़ालें।
ठीक पहचाना।
साक्षीभाव मेरी ही माला का धागा नहीं, सभी की माला का धागा है। बुद्ध,
कृष्ण, क्राइस्ट, महावीर,
जरथुस्त्र, लाओत्सु—सभी की माला का धागा है।
साक्षीभाव आखिरी बात है। पहली भी और अंतिम भी। शुरू भी उसी से करना है और अंत भी
उसी पर करना है। पहला कदम आखिरी कदम।
संभलने
दे मुझे ऐ नाउमीदी क्या कयामत है
कि
दामाने—यार छूटा जाए है मुझसे अरी निराशा, यह कैसी ज्यादती! जरा मुझे सम्हल
तो लेने दे, प्रीतम के ध्यान का आंचल मेरे हाथ से छूटा जा
रहा है। प्रेमी उसे प्रेम कहता है, प्रेम का आंचल कहता है—छूट
न जाए हाथ से। ज्ञानी उसे ध्यान कहता है। भक्त उसे प्रभु की याद कहता है, नाम—स्मरण कहता है। ज्ञानी उसे स्मृति कहता है, आत्मबोध
कहता है। लेकिन बात वही है कि प्रभु का, या स्वयं का बोध न
खो जाए। कुछ तुम्हारे भीतर जो शाश्वत है, वह वही है।
शरीर
भी गलेगा, मिटेगा। मन भी जाएगा। शरीर भी संगठन है पांच तत्वों का। और मन भी संगठन है
उधार विचारों का, वासनाओं का। दोनों पिघल जाएंगे, खो जाएंगे। तुम्हारा होना न तो शरीर में है, न मन
में है। तुम्हारा होना तो उसमें है, जो शरीर और मन के पार
खड़ा हो जाता है। दोनों को देख लेता है। शरीर का साक्षी हो जाता है। मन का साक्षी
हो जाता है।
गायक
के अधरों पर है ऐसा एक गीत
चुप
होकर भी जो युग—युग गाया जाता है
चुप
होकर भी जो युग—युग गाया जाता है
मुरझाते
उपवन में भी है ऐसा एक फूल
जिसके
तन को पतझार नहीं छू पाता है
सांसों
के घर में एक सांस ऐसी रहती है
मरघट
का सूना भी न जिसे भर सकता है
मिट्टी
की पुतली में है ऐसा एक स्वप्न
जिसके
कारण इंसान नहीं मर सकता है तुम्हारे भीतर उसे खोजो, जिसके पार तुम न जा सको,
जिसके पीछे तुम न हट सको। जहां तक हट सको, जिसके
पीछे न हट सको। तुम आंख बंद करो, अपने शरीर को देख सकते हो।
हाथ हिलाओ, तुम देख सकते हो हाथ हिल रहा है। सिर में दर्द हो,
तुम देख सकते हो, भीतर सिरदर्द हो रहा है। तुम
अलग हो, पीछे खड़े हो। विचार चलें, सूक्ष्मतम
विचारों की तरंगें चलें, अच्छी या बुरी, तुम उन्हें भी देख सकते हो। तुम देखने वाले हो। तुम साक्षी हो। अब इस
साक्षी से पीछे तुम न हट सकोगे, क्योंकि साक्षी को भी देखोगे
तो साक्षी ही रहोगे। साक्षी के साक्षी को भी देखोगे तो साक्षी ही रहोगे। शरीर से
हट गए, शरीर न रहे। मन से हटे, मन न
रहे। साक्षी से नहीं हट पाते, साक्षी ही रहते हो। यह परम
सूत्र मिल गया। यह वह गीत मिल गया जिसकी बात है।
गायक
के अधरों पर है ऐसा एक गीत
चुप
होकर भी जो युग—युग गाया जाता है
मुरझाते
उपवन में है ऐसा एक फूल
जिसके
तन को पतझार नहीं छू पाता है
वही
तुम्हारा साक्षीभाव है। वही समस्त बुद्ध पुरुषो की मालाओं का सूत्र है। उस
साक्षीभाव में सारे विरोध शून्य हो जाते हैं। उस साक्षीभाव में अंधेरा और प्रकाश
दोनो शून्य हो जाते है,
क्योंकि तुम दोनो से पीछे हट जाते हो। तुम अंधेरे के भी देखने वाले,
प्रकाश के भी देखने वाले। शुभ और अशुभ दोनों शांत हो जाते हैं,
तुम दोनों के देखने वाले। संसार और निर्वाण दोनों शांत हो जाते है,
तुम दोनो के देखने वाले। सब निमज्जित हो जाता है उसमें।
मुहब्बत
सोज भी है, साज भी है
खामोशी
भी है, आवाज भी है
प्रेम
कभी खामोश है,
कभी बोलता है। लेकिन साक्षीभाव दोनों के पार है। न तो खामोश,
न बोलता। इसलिए बड़ा कठिन है कहना कि साक्षीभाव क्या है? खामोश होता, कह देते खामोश है। बोलता, कह देते बोलता है। लेकिन न बोलता है, न खामोश है।
दोनों के पार है।
किसका
कुर्बं, कहा की दूरी, अपने आपसे गाफिल हो
राज
अगर पाने का पूछो,
खो जाना ही पाना है
किसका
सामीप्य—किसका कुर्बं?
किसके पास जाने की सोच रहे हो? किस परमात्मा
की खोज पर निकले हो?
किसका
कुर्बं, कहां की दूरी, अपने आपसे गाफिल हो
न
कोई दूरी है,
न परमात्मा दूर है, न उसकी समीपता खोजनी है,
बस अपने आपसे बेहोश हो, साक्षी नहीं हो,
जागे नहीं हो।
राज
अगर पाने का पूछो,
खो जाना ही पाना है
साक्षीभाव
में तुम भी न बचोगे। क्योंकि तू और मैं, दोनों के तुम साक्षी हो जाओगे।
यहां
देखो, मैं बोल रहा हूं तुम सुन रहे हो। अगर तुम साक्षी बनो, तो तुम बोलने और सुनने दोनों के पार हो गए। तुम अपने सुनने के भी साक्षी
हो जाओगे; जैसे तुम मेरे बोलने के साक्षी हो वैसे ही अपने
सुनने के भी साक्षी हो जाओगे। तुम कहोगे, आप बोल रहे,
मैं सुन रहा। लेकिन कोई दोनों के पार है। इस पार को पकड़ो। इस
अतिक्रमण के सूत्र को पकड़ो। यही दामाने—यार है। यही उस प्रेमी का आंचल है।
साक्षी
समस्त शास्त्रों का सार है। साक्षी समस्त कही गयी, न कही गयी उपदेशनाओ का सार
है। साक्षी के लिए अलग— अलग शब्द उपयोग किए गए हैं लेकिन भाव को पकड़ लो। भाव इतना
ही है कि तुम दृश्य से छूटते जाओ और द्रष्टा में डूबते जाओ। जो दिखायी पड़े,
जानना अलग है, भिन्न है, पृथक है। जो देखे, जानना यही मैं हूं। और धीरे— धीरे
उस जगह आ जाना जिसके पार जाने का उपाय न हो। जहां द्रष्टा ही द्रष्टा बचे, देखने को कुछ न बचे। जहां साक्षी ही साक्षी बचे। जहां एक ही स्वाद बचे
तुम्हारे भीतर, साक्षी का। जैसे सागर का जल सब जगह खारा है,
कहीं से भी चखो।
तुम
उठो, बैठो, चलो, सोओ, बोलो, न बोलो; घर में, मंदिर में, मस्जिद में, बाजार
में, हिमालय पर, कहीं भी रहो, तुम्हारा स्वाद साक्षी का हो जाए—बस, हाथ में आ गया
प्यारे का आंचल। पकड़ ली राह। उठ गया पहला कदम। और इस जगत में पहला कदम ही आखिरी
कदम भी है।
आज
इतना ही।
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