समष्टि से आलिंगन है धर्म—प्रवचन—54
सूत्र:
अप्पस्सुतायं
पुरिसो बलिवद्दो व जीरति।
मंसनि
तस्स बड्ढन्ति पज्जा तस्स न बड्ढ़ति ।।131।।
अनेक
जाति संसार संधविस्सं अनिब्बिसं।
गहकारकं
गवेसंतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं ।।132।।
गहकारक! दिट्ठोसि
पुन गेहं न काहसि।
सब्बा
ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखिति।
विसंखारंगतं
चितं तण्हानं खयमज्झगा ।।133।।
अचरित्वा
ब्रह्मचरियं यलद्धा योब्बने धनं।
जण्णकोज्चा
व झायन्ति खीनमच्छे व पल्लल ।।134।।
अचरित्वा
ब्रह्मचरियं यलद्धा योब्बने धनं।
सेन्ति
चापातिखित्ता व पुण्णानि अनुत्थनं ।।135।।
आज के सूत्र बड़े अनूठे और बहुमूल्य हैं। बुद्ध के
वचनों में भी अतुलनीय हैं। उनकी जीवन—साधना का सार इन सूत्रों में है। इन्हें ठीक
से समझने की कोशिश करें। पहला सूत्र—
'यह अल्पश्रुत पुरुष बैल की भांति बढ़ता है। उसके मांस तो बढ़ते हैं, परंतु उसकी प्रज्ञा नहीं बढ़ती।’
इस
सूत्र को खोजने में मनोविज्ञान को पच्चीस सौ साल लगे। पश्चिम में इस खोज का श्रेय
अल्केड़ विने को मिला। न उसे पता था कि बुद्ध ने यह सूत्र पच्चीस सौ साल पहले कहा, न अभी भी
पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों को खयाल है कि यह बात नयी नहीं।
अल्केड़
विने ने पहली दफा एक खोज की—कम से कम पश्चिम की दृष्टि में—कि मनुष्य की शारीरिक—उम्र
और मानसिक—उम्र अलग— अलग है। साधारणत: हम सोचते हैं कि जो आदमी बीस साल का है, उसका शरीर
भी बीस साल का है, उसका मन भी बीस साल का है; ऐसा नहीं है। बीस साल के व्यक्ति के मन की उम्र हो सकता है दस ही साल हो।
यह भी हो सकता है तीस साल हो।
इसलिए
कभी—कभी ऐसा हुआ है कि शंकराचार्य जैसे व्यक्ति को तीस साल की उम्र में वैसे बोध
और अनुभव हुए,
जो साधारण आदमी तीन सौ साल की उम्र में भी न पा सकेगा।
शंकराचार्य
ने अपने सारे श्रेष्ठ शास्त्र तैंतीस साल की उम्र में रच दिए—तैंतीस साल में तो
उनकी मृत्यु हो गयी। ब्रह्मसूत्र पर उनकी टीकाएं, उपनिषदों पर उनकी टीकाएं,
गीता पर उनकी टीकाएं अमूल्य हैं, बेजोड़ हैं।
फिर कोई दूसरा वैसा काम न कर पाया। और यह बिलकुल युवा था।
नौ
वर्ष की उम्र में शंकराचार्य ने संन्यास लेने की आशा मांगी। लोग हैं जो नब्बे वर्ष
की उम्र में भी संन्यास की आकांक्षा नहीं
करते। संन्यास की आकांक्षा बड़ी प्रौढ़ता का लक्षण है। आत्यंतिक प्रौढ़ता का लक्षण है।
इसीलिए तो हिंदुओं ने सदियों की खोज के बाद संन्यास को अंतिम चरण माना। मगर अंतिम
चरण में भी कहां लोग संन्यासी हो पाते हैं!
एक
का आदमी मेरे पास आया,
उसकी उम्र होगी कोई अठहत्तर वर्ष। वह रोने लगा, उसने कहा, आपने मेरे बेटे को संन्यास दे दिया,
उपद्रव खड़ा कर दिया, यह उम्र कहीं संन्यास की
है! अभी तो वह जवान है, अभी तो दिन राग—रंग, भोग के हैं। मैंने कहा, छोड़ो, तुम्हारी
उम्र संन्यास की है? अगर तुम संन्यास लेने को राजी हो,
तो तुम्हारे बेटे का संन्यास मैं वापस ले लेता हूं। वह घबड़ाया। वह
यह सोचकर न आया था।
मैंने
कहा, तुम्हारी कितनी उम्र है? उसने कहा, माना मेरी उम्र अठहत्तर वर्ष है, लेकिन अभी नहीं।
अभी मुझे थोड़ा सोचने दें। अठहत्तर वर्ष नहीं सोचा? बहुत
उलझाव हैं, वृद्धजन कहने लगे, परिवार
की जरूरतें हैं। कब तक पूरी करोगे? किसी भी दिन विदाई का
क्षण आ जाएगा, परिवार फिर भी रहेगा, जरूरतें
फिर भी रहेंगी। तुम कब पूरा करोगे? वे भूल ही गए कि बेटे के
संन्यास को अब वापस लेना है। वे इतने घबड़ा गए, उन्होंने कहा
कि मुझे जाने दें। मैं फिर कभी आऊंगा।
दो
वर्ष से उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूं वे नहीं आए। अभी कुछ दिन पहले खबर मिली कि वे
चल बसे। अब वे कभी नहीं आएंगे।
अस्सी
वर्ष की उम्र में भी कहां संन्यास का भाव उठता है? मरते दम तक आदमी जीवन को
पकड़ता है। आखिरी क्षण तक पकड़ता है। मौत गरदन दबाने लगती है, तब
भी उसके हाथ जीवन की तरफ बढ़े रहते हैं।
शंकराचार्य
ने नौ वर्ष की उम्र में संन्यास की आज्ञा मांगी। मां रोने लगी होगी, स्वाभाविक
था। यह कोई उम्र है! कहानी बड़ी प्रीतिकर है कि शंकर स्नान करने नदी में उतरे थे,
एक मगर ने उनका पैर पकड़ लिया। ठीक समय मगर ने भी बड़ी कृपा की! बचना
मुश्किल हो गया। मां घाट पर खड़ी है, भीड़ इकट्ठी हो गयी है,
शंकर ने वहीं से चिल्लाया कि अब तो आशा दे दे संन्यास की, अब मरते को तो आशा दे दे। अब तो उम्र और ज्यादा न हो सकेगी, अब तो आखिरी घड़ी आ गयी। तो मां ने यह देखकर कि बेटा मर ही रहा है—जो मर
रहा है, वह का हो गया, और अब संन्यास
से रोकने का क्या कारण है? उसे शांति से संन्यस्त होकर ही मर
जाने दो —उसने कहा, ठीक। संयोग की बात, मगर ने पैर छोड़ दिया।
कहानी
तो कहानी है,
लेकिन बड़ी सूचक है। सूचना इतनी है कहानी में कि मौत तो नौ साल के
बच्चे को भी आ सकती है। कोई नब्बे साल तक मौत प्रतीक्षा करे, जरूरी कहां? मगर तो अभी पकड़ ले सकता है। कल तक भी
दया करेगा, इसे मानने की सुविधा कहां है? और अगर मौत इस क्षण हो सकती है, तो संन्यास फिर कब
होगा?
शंकर
नौ वर्ष की उम्र में संन्यस्त हुए। तैंतीस साल की उम्र में विदा हो गए सदा के लिए, फिर कभी
लौटेंगे नहीं, उनका कोई पुनरागमन न होगा।
इतनी
छोटी उम्र में ऐसी प्रौढ़ता! निश्चित ही शंकर की मानसिक—उम्र तीस साल, तैंतीस
साल नहीं मानी जा सकती। तैंतीस साल की उम्र में तो आदमी शराब खानों में मिलता है,
वेश्या गृहों में मिलता है। संन्यास! तैंतीस साल की उम्र में तो
आदमी हर तरह की मूढ़ता करता मिलता है। करीब—करीब विक्षिप्त होता है। संन्यास की
समझ!
बुद्ध
का यह सूत्र कहता है—जो अल्केड़ विने ने इस सदी के प्रारंभ में खोजा। ने कहा कि
लोगों की मानसिक—उम्र और शारीरिक—उम्र अलग— अलग हैं। तुम अपनी शारीरिक—उम्र से
धोखे में मत पड़ना,
क्योंकि उससे तुम्हारी समझदारी का कोई संबंध नहीं। वह तो बैल भी ऐसे
ही बढ़ते हैं।
यह
थोड़ा समझो। बैल की शारीरिक और मानसिक—उम्र हमेशा एक ही होती है। भैंस की शारीरिक
और मानसिक—उम्र हमेशा एक ही होती है। सिर्फ आदमी है इस जगत में जिसकी शारीरिक और
मानसिक—उम्र में फासला हो सकता है। तुम चकित होओगे लेकिन, जब तुम
अपनी मानसिक—उम्र का विचार करोगे।
पिछले
महायुद्ध में,
पहली दफा सैनिकों के सेनाओं में प्रवेश के पहले उनकी मानसिक—उम्र की
जांच की गयी। पहली दफा। क्योंकि उसके पहले तक तो ठीक—ठीक साधन भी उपलब्ध न थे। आई
क्यू., इंटेलीजेन्स कोसिएंट, बुद्धि—
अंक के साधन पहले न थे कि कैसे नापो आदमी का। किस तराजू पर नापो कि बुद्धि कितनी
है। लेकिन अब कुछ वैज्ञानिकों ने थोड़े से साधन विकसित किए हैं। तो दूसरे महायुद्ध
में, पहली दफा, जो लोग फौज में अमरीका
में भरती हुए उनका बुद्धि—अंक नापा गया। बड़ी हैरानी की घटना हुई। बारह—तेरह साल से
ज्यादा किसी का बुद्धि— अंक ऊपर न गया। किसी की उम्र पैंतीस साल थी, किसी की तीस थी, लेकिन औसत बुद्धि— अंक बारह साल।
बड़ी घबड़ाने वाली बात है।
अब
तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चा चार साल की उम्र में, अपने
जीवनभर में जितना सीखेगा, उसका पचास प्रतिशत सीख लेता है।
चार साल में आधी मानसिक—उम्र पूरी हो गयी। फिर तो तुम यूं ही जीते हो, उधार जीते हो। और बारह साल में तुमने सब सीख लिया, जो
तुम जिंदगीभर दुहराते रहोगे। फिर तुम जीओगे जरूर, सीखोगे
नहीं। बारह साल पर आकर तुम्हारी बुद्धि ठहर जाती है। पड़ाव आ जाता है। शरीर बढ़ता
जाता है।
बुद्ध
का यह सूत्र कहता है,
'यह अल्पश्रुत पुरुष बैल की भांति बढ़ता है।’
अल्पश्रुत!
अल्पश्रुत का अर्थ होता है,
जिसने अभी सुनने की कला नहीं सीखी। क्योंकि शान का सारा प्रादुर्भाव
सुनने की कला से होता है। ज्ञान कहीं पड़ा तो नहीं है कि तुम उठा लो। ज्ञान कोई
वस्तु तो नहीं है कि खरीद लो, कि बाजार में बिकता हो। ज्ञान
तो वहा से लिया जा सकता है, जहां हो। ज्ञानी के सत्संग से
लिया जा सकता है। लेकिन सत्संग का अर्थ तो होगा, श्रवण की
कला। सुनना सीखना होगा। कृष्णमूर्ति निरंतर कहते हैं. राइट लिसनिंग, ठीक—ठीक सुनना। महावीर ने तो अपने शिष्यों को श्रावक कहा। ठीक सुनने वाले।
जिन्होंने श्रवण की कला सीख ली। महावीर ने तो यहां तक कहा कि जो ठीक से सुन लेते
हैं, वे सुनकर ही मुक्त हो जाते हैं। इसलिए उन्होंने चार
तीर्थ कहे। श्रावक— श्राविका—दो तीर्थ। इनसे भी उस पार जाया जा सकता है। फिर साधु—साध्वी—और
दो तीर्थ।
चूंकि
महावीर पर सभी टीकाएं जैन—साधुओं ने लिखी हैं, इसलिए उन्होंने इस बात को उठाया
नहीं; वह जरा उनके धंधे के विपरीत है। लेकिन मैं यह पूछना
चाहता हूं कि महावीर ने पहला तीर्थ कहा है—श्रावक— श्राविका। पहले श्रावक—
श्राविका गिनाया, फिर साधु—साध्वी को। अर्थ साफ है कि जो
सुनने से ही पा गया, उसे करने की जरूरत नहीं। जो सुनने से न
पा सके, उसे करना पड़ेगा। साधना उनके लिए है, जो सत्संग न कर सके। साधना नंबर दो है, नंबर एक नहीं।
यह
तुम थोड़ा चौंकोगे। क्योंकि श्रावक साधु के पैर छूता है, छूना
चाहिए साधु को श्रावक के पैर। क्योंकि जिसने सुनकर ही पा लिया, करने की भी जरूरत न रही। करने का तो अर्थ ही है कि समझ में कुछ कमी रह गयी,
उसे करके पूरा करोगे। किसी ने कहा, आग में हाथ
ड़ालने से जल जाता है हाथ। यह तुमने सुनकर समझ लिया, तुम
श्रावक हो। और तुम गए, तुमने हाथ ड़ालकर देखा, और जला, और तब समझे, फिर हाथ
खींचा, फिर कसम ली मंदिर में जाकर कि अब कभी आग में हाथ न ड़ालेंगे,
हम तो व्रत लेते हैं, तो तुम साधु हो। साधु का
मतलब यह हुआ, समझ जिसके लिए काफी न हुई, व्रत लेना पड़ा। अगर समझ काफी है, तो व्रत तुम लोगे क्यों?
व्रत किसके खिलाफ लोगे?
तुमने
कभी कसम खायी कि आग में हाथ न ड़ालेंगे? तुम जानते हो, अब कसम की क्या जरूरत? ही, तुम
जाकर मंदिर में कसम लेते हो कि अब कभी क्रोध न करेंगे। वह तुम जानते नहीं, वह तुम समझे नहीं। अगर समझ लेते तो उसकी भी कसम न खाते। मंदबुद्धि कसम
खाते हैं, व्रत लेते हैं। जिनकी प्रज्ञा प्रखर है, वे सिर्फ समझ लेते हैं। समझ ही उनकी नाव है।
'यह अल्पश्रुत पुरुष बैल की भांति बढ़ता है।’
बढ़ता
तो रहता है—मास बढ़ता है,
वजन बढ़ता है, देह बढ़ती है—प्रज्ञा नहीं बढ़ती।
दीए का आकार बड़ा होता जाता है, ज्योति नहीं बढ़ती। और ज्योति
ही तुम हो, दीया तुम नहीं। दीया तो मौत छीन लेगी। ज्योति ही
उड़ेगी मौत के पार। वही तुम हो। अक्सर तो ऐसा होता है कि दीए का वजन ज्योति को दबा ड़ालता,
मार ड़ालता है। दीया ही भारी हो जाता है ज्योति पर।
सुनने
की कला तुम्हारी प्रज्ञा को उकसाएगी। जैसे कोई दीए की बाती को हाथ से उकसा दे, ऐसा
सत्संग उकसाता है।
मनोवैज्ञानिक—उम्र
का ध्यान रखना। इस संबंध में कुछ और बातें समझ लेनी जरूरी हैं, क्योंकि
आगे के सूत्र समझने में सहयोगी होंगी।
अभी
तक मनोवैज्ञानिकों ने यह पूछा नहीं कि बारह साल के करीब—करीब क्यों उम्र रुक जाती
है! दस साल पर क्यों नहीं रुकती? सोलह पर क्यों नहीं रुकती? कभी न कभी पूछेंगे, लेकिन अभी तक नहीं पूछा है।
लेकिन हम इस देश में कोई हजारों साल पहले यह बात पूछ चुके हैं कि वहां क्यों रुक
जाती है। हमारी शोध यह है कि जिस दिन जीवन में ब्रह्मचर्य का विनाश होता है,
वहीं मानसिक—उम्र रुक जाती है। और अमरीका में ब्रह्मचर्य का विनाश
बारह साल के करीब होता है। सारी दुनिया में चौदह साल के करीब होता है। अमरीका में
कामवासना जल्दी जग रही है। लड़कियां बारह साल में मासिक— धर्म शुरू कर रही हैं,
चौदह साल में नहीं। वह गयी—बीती बातें होंगी। पुराने समय की बातें।
इतनी
उत्तेजना है कामवासना की चारों तरफ—फिल्में हैं, टेलीविजन है, रेडियो है, पोस्टर हैं—चारों तरफ कामवासना को
प्रज्वलित करने के इतने उपाय हैं, असमय में, जब नहीं होना था तब काम पक जाता है। जैसे कि धूप से न पका हो फल, बिजली की आंच मिल गयी हो। जैसे कि आम तो लगा हो और बिजली के बल्व के खंभे
के पास लगा हो और बिजली की आंच से पक गया हो। असमय पक गया हो। स्वाद तो न होगा
उसमें, स्वादिष्ट तो न होगा, लेकिन
पीला होगा।
जैसी
कहावत है कि धूप में बाल पक गए। जीवन के अनुभव में पके, तब तो एक
बात है। धूप में पक जाएं, तब कोई बात नहीं, कोई गौरव की बात नहीं। अमरीका में कामवासना की उम्र नीचे सरक रही है। बारह
साल पर आ गयी है। और वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक कहते हैं,
जल्दी ही ग्यारह साल पर आ जाएगी।
आमतौर
से मानसिक—उम्र चौदह साल पर रुकती है। अगर आदिवासियों की खोज कभी की गयी तो मैं जो
कह रहा हूं उसकी सचाई समझ में आएगी। उनकी मानसिक—उम्र चौदह वर्ष पर रुकती है। यह
सूत्र हमें बहुत प्राचीन समय में अनुभव में आ गया। इसका कारण है।
बच्चा
पैदा होता है,
तब उसकी सारी ऊर्जा संगृहीत होती रहती है। उस ऊर्जा के संगृहीत होने
से ही प्रज्ञा को बल मिलता है। प्रज्ञा तुम्हारे भीतर नवनीत की भांति है, तुम्हारी सारी शेष ऊर्जा का अंतिम मक्खन है। वह जो प्रखरता है बुद्धि की,
वह जो तेज है, वह तुम्हारे भीतर की सारी
ऊर्जाओं का आखिरी निचोड़ है। ऐसा समझो। तुमने भोजन किया, तो
मास—मज्जा बनता है। उसमें से भी जो श्रेष्ठतम है, वह रक्त
बनता है। उसमें से भी जो श्रेष्ठतम है, वह वीर्य बनता है।
उसमें से भी जो श्रेष्ठतम है, उससे प्रज्ञा बनती है। प्रज्ञा
आखिरी शिखर है।
इसलिए
जैसे ही वीर्य—स्खलन शुरू होता है, वैसे ही प्रज्ञा के शिखर तक
पहुंचना बंद हो जाता है। यह बिलकुल सीधी और वैज्ञानिक बात है। ऊर्जा इकट्ठी नहीं
होती। तो जहां तक ऊर्जा इकट्ठी होने के क्षण में जो सीमा—रेखा तुमने छू ली थी,
वह सदा के लिए अटकी रह जाती है। चौदह साल के करीब आमतौर से अधिक
लोगों की मानसिक—उम्र रुक जाती है।
इसलिए
हमने बड़े अनूठे प्रयोग किए। हमने ब्रह्मचर्य के प्रयोग किए। हमने कहा कि अगर
ब्रह्मचर्य को पच्चीस साल तक ले जाया जा सके, तो मानसिक—उम्र को भी पच्चीस साल
तक ले जाया जा सकता है। और अगर कामवासना के वातावरण के कारण वासना की उम्र नीचे
गिर सकती है, तो कामवासना से मुक्त वातावरण के कारण वासना की
उम्र पीछे भी हटायी जा सकती है।
अगर
अमरीका में चौदह से बारह हो सकती है, तो कोई कारण नहीं कि किसी गुरुकुल
में चौदह से सोलह हो जाए। इसमें कुछ अड़चन नहीं है। यह बात सीधी है। यह गणित जैसी
साफ है। अगर बिजली का ताप मिलने से आम जल्दी पक जाए, तो बर्फ
में रखने से वर्षों तक पकने से रोका जा सकता है। लेकिन जितनी देर ब्रह्मचर्य लंबा
होता जाता है, उतनी ही प्रज्ञा निखरती जाती है।
इस
देश के अनूठे प्रयोगों का यह परिणाम था कि हमने यह तय किया था कि अगर अट्ठाइस वर्ष
तक ब्रह्मचर्य हो जाए,
तो प्रज्ञा आखिरी चरण छू लेती है। इसके ऊपर जाने का उपाय नहीं है।
तब हम कहते हैं, संसार, अब कोई डर नहीं।
अब लुटाओ। अब तुमने एक स्थिति पा ली, जिससे नीचे गिरने का
कोई उपाय नहीं। इसलिए हमने—पहला कदम ब्रह्मचर्य, दूसरा कदम
गृहस्थ।
आमतौर
से सौ साल को अगर हम आदमी की उम्र मानें, तो पच्चीस—पच्चीस साल का विभाजन।
मोटे तौर से। लेकिन चेष्टा यह थी कि अट्ठाइस वर्ष। साधारणत: चौदह वर्ष में
कामवासना परिपक्व होती है। चौदह वर्ष में युवक योग्य हो जाता है बच्चे पैदा करने
के, युवती योग्य हो जाती है मां बनने के। अगर चौदह वर्ष में
कोई कामवासना में उतर जाए, तो अट्ठाइसवें वर्ष में कामवासना
अपना शिखर छू लेती है। अट्ठाइस साल के बाद फिर कामवासना का उतार शुरू हो जाता है।
बयालीसवें वर्ष में—दूसरे चौदह वर्ष पूरे हुए अब, अट्ठाइस धन
चौदह—बयालीसवें वर्ष में एक वर्तुल पूरा हुआ। जीवन का एक ढांचा गया। बयालीस वर्ष
में लोग धर्म की चिंता शुरू कर देते हैं।
कार्ल
गुस्ताव जूंग ने अपने जीवनभर के मनोवैज्ञानिक अध्ययन, शोध,
निरीक्षण के बाद यह कहा—मेरे पास जितने मानसिक—मरीज आते हैं,
उनमें जिनकी उम्र भी चालीस के पार है, उनको
मानसिक—चिकित्सा की जरूरत नहीं है, धर्म की जरूरत है। यह एक
मनोवैज्ञानिक के मुंह से यह खबर आनी सोचने जैसी है। चालीस साल के बाद जितने मानसिक—बीमारियों
से पीड़ित लोग आते हैं, उनको चिकित्सा की कोई जरूरत नहीं है।
चिकित्सा की जरूरत पड़ रही है, क्योंकि धर्म के द्वार बंद हैं।
ऐसा
ही समझो कि चौदह साल का बच्चा हो गया, काम पक गया और कामवासना को प्रगट
करने का कोई उपाय नहीं, तो रुग्ण हो जाएगा। ऐसे ही बयालीस
साल की उम्र में एक नयी वासना उठती है—जिसको धर्म की वासना कहो—अगर उसको ठीक—ठीक
मौका न मिले, मंदिर न मिले, मस्जिद न
मिले, गुरुद्वारा न मिले; कोई निकास का
रास्ता न मिले और कामवासना के लिए तो सुविधा है—पुरुष अगर है तो स्त्री को खोज
लेगा। उतनी ही संख्या में स्त्रियां हैं दुनिया में जितने पुरुष हैं। स्त्री है तो
पुरुष को खोज लेगी। लेकिन बयालीस साल में एक नयी ऊर्जा उठती है, जिसकी खोज बड़ी धुंधली है। परमात्मा की खोज, सत्य की
खोज। हाथ कहां रखो? किस दिशा में जाओ? कोई
रूप साफ नहीं है।
तो
अगर कोई सहारा देने वाला हाथ न मिल जाए, या अगर जीवनभर तुमने यह सोचा हो कि
न कोई ईश्वर है, न कोई धर्म है, न कोई
प्रार्थना, न कोई पूजा, न कोई ध्यान,
यह सब बकवास है, अगर तुमने चालीस साल तक यह
धारणा बनायी हो, तो तुमने ही—बयालीस साल में जब नए जगत का
सूत्रपात होगा—तो तुमने उसके विपरीत सारे संस्कार इकट्ठे कर लिए। तुम ही बाधा बन
जाओगे। मंदिर का द्वार भी सामने होगा तो तुम्हारी पीठ उस तरफ होगी। और तुम्हारी
गरदन अकड़ गयी होगी, पक्षाघात लग गया होगा। जब चालीस—पैंतालीस
साल तक तुमने मंदिर की तरफ कभी न देखा, तो अचानक तुम कैसे
देख सकोगे? तुम्हारी आंख असमर्थ हो गयी होगी।
जुंग
का निर्णय बड़ा विचारणीय है। और जुंग जैसा व्यक्ति जब कुछ कहता है, तो यूं ही
नहीं कहता। जीवनभर के हजारों मानसिक—चिकित्साओं के बाद की यह प्रतीति है। लेकिन हम
इस देश में यह जानते रहे, तो हमने पहला तो कदम रखा
ब्रह्मचर्य। दूसरा कदम रखा गृहस्थ—अर्थ। तीसरा कदम रखा धर्म। चौथा कदम रखा मोक्ष।
अभी किसी मनोवैज्ञानिक ने इस बात की खोज नहीं की कि बयालीस साल के बाद फिर चौदह
वर्ष जब पूरे हो जाते हैं—छप्पन वर्ष की उम्र आती है—तो क्या होता है? हर चौदह वर्ष पर जीवन में क्रांति घटती है। नयी सीढियां शुरू होती हैं।
जिसे हिंदुओं ने मोक्ष कहा है, वह छप्पन वर्ष की उम्र में
पैदा होता है। वह एक अनूठी खोज है। वह धर्म के भी पार जाना है।
धर्म
की तो रूपरेखा है,
क्रिया—काड़ है, मंदिर—मस्जिद है। धर्म को फिर
भी पकड़ा जा सकता है, तरल है बहुत। कामवासना तो ऐसी है जैसे
पत्थर सी बरफ हो, मुट्ठी में आ जाती है। धर्म ऐसे है जैसे जल
हो। बांधो मुट्ठी में, छितर—छितर जाता है, लेकिन फिर भी मुट्ठी भीग जाती है—पकड़ा जा सकता है। मोक्ष तो ऐसा है जैसे
जल भाप बन गया। दिखायी भी नहीं पड़ता कहां है, पकड़ने की तो
बात और। कोई खबर नहीं मिलती।
हमने
इस देश में चार हिस्सों में बांटा है आदमी की जीवन—व्यवस्था को। काम, अर्थ,
धर्म, मोक्ष। बुद्ध के इन सूत्रों को तुम
समझोगे तो खयाल में आएगा और तुम बड़े चकित होओगे, शायद तुमने
कभी सोचा भी न होगा कि बुद्ध और ऐसी बात कहेंगे।
'यह अल्पश्रुत पुरुष बैल की भांति बढ़ता है। उसके मांस तो बढ़ते हैं, परंतु उसकी प्रज्ञा नहीं बढ़ती।’
अगर
जीवन नैसर्गिक हो तो चौदह साल की मानसिक—उम्र उपलब्ध होगी। वह भी ठीक है। कम से कम
नीचे तो न गिरे। अगर चौदह साल की मानसिक—उम्र होगी, तो अट्ठाइस साल में
कामवासना का वर्तुल नीचे उतरने लगेगा, बयालीस साल की उम्र
में धर्म की आकांक्षा पैदा होगी। ऐसे ही
पैदा होगी जैसे काम की आकांक्षा पैदा हुई
थी।
धर्म
उतना ही नैसर्गिक है,
जैसा काम। समाधि उतनी ही नैसर्गिक है, जितना
संभोग। यह संभोग का ही आगे का कदम है। यह अनंत के साथ संभोग है। यह व्यक्ति को बीच
से हटा दिया अब, समष्टि को सीधा—सीधा आलिंगन में ले लिया।
लेकिन आखिरी ऊंचाई तो मोक्ष की है। पहले व्यक्ति को हटाया, समष्टि
को लिया। फिर समष्टि को भी हटा दिया। आत्मरति मोक्ष है। अब अपने में ही संभोग को
उपलब्ध हुए। दूसरे की इतनी भी जरूरत न रही। प्रेमी को प्रेयसी की जरूरत है,
भक्त को भगवान की जरूरत है, मोक्ष के यात्री
को भगवान की भी जरूरत नहीं।
इसीलिए
तो बुद्ध भगवान की बात नहीं करते। इसीलिए तो महावीर भगवान की बात नहीं करते। भगवान
के विपरीत हैं,
ऐसा नहीं; एक कदम आगे हैं, ऐसा। मोक्ष! मोक्ष शब्द भी समझने जैसा है। इसका अर्थ है, दूसरे से मुक्ति। काम में पड़ो, तो दूसरे में बंधना
पड़ता है। यही तो पीड़ा है प्रेम की। दूसरे के बिना हल नहीं होता। और जिसके बिना हल
नहीं होता, उस पर क्रोध आता है। इसीलिए पति—पत्नी लड़ते हैं,
लड़ते ही रहेंगे। इस लड़ने को बचाया नहीं जा सकता।
इसका
यह मतलब मत समझना कि पत्नी बुरी है या पति बुरा है। न, इससे
व्यक्तियों का कुछ लेना—देना नहीं है। यह काम का स्वभाव है, प्रेम
का स्वभाव है कि दूसरे पर निर्भर होना पड़ता है; और हम
स्वतंत्रता चाहते हैं—निर्भरता कोई नहीं चाहता। प्राणों के प्राणों में छिपी मोक्ष
की आकांक्षा है।
हम
कहते हैं कि हम कुछ ऐसे हो जाएं कि अपने में काफी हों। ऐसी कोई स्थिति न रह जाए
जिसमें हमें दूसरे की जरूरत हो। आप्तकाम हो जाएं। तभी तो मौज होगी, तभी मजा
होगा, क्योंकि कोई सीमा—रेखा न रह जाएगी। जब चाहेंगे तब
आनंदित होंगे, किसी पर निर्भर न रहना पड़ेगा, कोई कारण न होगा।
अभी
तो अगर प्रेम का सुख चाहिए और पत्नी राजी न हो—और अक्सर पत्नी राजी न होगी जब
तुम्हें चाहिए। जब पत्नी को चाहिए, तब तुम राजी न होओगे। मेरे पास रोज
लोग आते हैं, कहते हैं, बड़ी हैरानी की
बात है। जब हम मांगते हैं प्रेम दो, पत्नी सिकुड़ जाती है। जब
पत्नी मांगती है, हम सिकुड़ जाते हैं। क्या होता है? जब भी कोई मांगता है, तो ऐसा लगता है शोषण हुआ। जब
भी कोई मांगता है तो अकडू आती है। लगता है, तो ठीक, हम पर निर्भर हो न! तो नहीं कहने में मजा आता है। रोकने में, ठहराने में सुख मिलता है। यह देखकर मजा आता है कि दूसरा गिड़गिड़ा रहा है।
वहीं हमें अपनी ताकत, अहंकार का बल मालूम होता है।
तो
पति—पत्नी एक—दूसरे से संघर्ष करते ही रहेंगे। फिर अगर न भी संघर्ष करें, समझदार
हों—बहुत समझदार हों—तो भी गहरे में एक बात खलती है कि मैं किसी पर निर्भर हूं।
मेरा सुख किसी पर निर्भर है, यह कैसा सुख हुआ? सुख अगर दूसरे पर निर्भर है, तो उसमें दुख छिपा ही
है। कल पत्नी मर जाएगी। उसे खूब चाहा था।
तो
जितना सुख चाहा था,
जितना सुख जाना था, उतना ही दुख होगा। कल बेटा
मर जाएगा, तो दुख होगा। आज पत्नी बीमार पड़ जाएगी, तो दुख होगा। पत्नी कुरूप हो जाएगी, घर में आग लग
जाएगी तौर पत्नी जल जाएगी, तो दुख होगा। पत्नी आज नहीं कल की
होगी, कुछ दुर्घटना न हो तो बुढ़ापा तो आएगा ही, शरीर जर्जर होगा, जीर्ण होगा। सुख ज्यादा से ज्यादा
माना जा सकता है, हो नहीं सकता। क्योंकि इतनी विपरीत चीजें
घटती रहेंगी।
सुख
तो तभी सुख है जब उससे दुख की सारी संभावना शून्य हो गयी हो। पर ऐसे सुख के लिए तो
अकारण होना चाहिए। और किसी पर निर्भर न होना चाहिए। वह आत्मरति होगी। मोक्ष
आत्मरति है।
प्रेमी
से छूटता है आदमी तो परमात्मा को पकड़ता है। क्योंकि दूसरे से छूटना बड़ा मुश्किल है।
ठीक भी है। प्रेमी से हटे,
प्रेयसी से हटे तो फिर परमात्मा की बात शुरू होती। परमात्मा काफी
बड़ा है प्रेमी और प्रेयसी से। न मरेगा, न का होगा, जब चाहो तब उसकी प्रार्थना करो, वह इनकार न करेगा कि
अभी नहीं। जब चाहो तब उसकी मस्ती में मस्त होकर नाचो, वह कभी
बाधा न ड़ालेगा। एक अर्थ में वह है ही नहीं कि बाधा ड़ाले। उसकी उपस्थिति
अनुपस्थिति जैसी है।
इसलिए
तुम क्या करते हो,
तुम अकेले ही कर रहे हो। मगर अकेले ही करने में तुम्हें मजा न आएगा।
तुम झुक रहे हो चरणों में परमात्मा के, एक रस आता है। उसके
चरण। लेकिन अब तुम अकेले ही झुक रहे हो, चरण नहीं हैं,
तो झुकने में फीकापन आ गया। कोई है ही नहीं जिसके सामने झुक रहे हो।
तुम
मंदिर में बैठे परमात्मा से बात कर रहे हो, बात में रस है, क्योंकि तुम सोचते हो, उस तरफ कोई सुन रहा है। न
केवल सुन रहा है, अगर भक्त डूब जाए ठीक—ठीक, तो उत्तर भी आने शुरू हो जाते हैं। वह भी भक्त से ही हैं। उसके ही गहरे
अचेतन से आते हैं। वहा कोई भी नहीं है। मगर उसको लगता है, आते
हैं। और इतने सत्य होते हैं कि यह तो मान ही नहीं सकता कि मुझसे आते हैं। लेकिन
तुम अपने से अकेले बातें करो तो तुमको खुद ही लगेगा कि पागल हो।
तुमने
देखा, अगर मंदिर में कोई भक्त हाथ जोडे खड़ा है और कह रहा है, हे पतित—पावन! तो तुम उसको पागल नहीं कहते। लेकिन बगीचे में कोई खड़ा है,
प्रेयसी पास नहीं है और वह कह रहा है, हे
देवी! मैं तेरे चरणों की धूल हूं तो तुम कहोगे, यह पागल हो
गया। दोनों एक ही काम कर रहे हैं। लेकिन एक भक्त है। हम सबने मान लिया है कि
परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता, अदृश्य है।
जिन
देशों में भगवान की धारणा खो गयी है, उनमें पागलों की संख्या ज्यादा है।
उसका कारण है कि उनके पागलपन के निकास का एक द्वार बंद हो गया। अब वे सभी बगीचों
में खड़े हैं और प्रेयसियों से बात कर रहे हैं। अगर वे भारत में होते, तो मंदिरों में होते परमात्मा से बात करते, कोई
उन्हें पागल न कहता। वे पागल थे भी नहीं। क्योंकि परमात्मा उस तरफ है, यह धारणा ही उनको हलका करती, निश्चित करती। यह धारणा
ही उनके पागलपन का रेचन करती।
तो
जब प्रेमी से कोई मुक्त होता है तो परमात्मा को पकड़ लेता है। लेकिन बुद्ध और
महावीर जैसे लोग कहते हैं,
मुक्त तो हुए, लेकिन पूरे मुक्त न हुए,
थोड़ा तुम बचा लाए। इसको भी जाने दो। आकार तो छोड़ दिया, भाव न छोड़ा। भाव भी जाने दो।
इसीलिए
तो भक्त—सूफी हैं—वे परमात्मा को प्रेयसी मानते हैं। तो उनका सारा वर्णन परमात्मा
का ऐसा ही है जैसे एक सुंदर स्त्री का हो, परम सुंदर स्त्री का, क्लियोपेत्रा का। सूरदास जैसे भक्त परमात्मा को छोटा बालक मानकर चलते हैं।
वह भी प्रेम का एक ढंग है, वात्सल्य। तो कृष्ण के बचपन की
कहानियां, गीत, उनका ठुमक—ठुमककर चलना,
उनके पैरों में बंधी पायल की झनकार, जैसे एक
मा अपने बच्चे में रस लेती है। ऐसी कोई मां है जिसने अपने बच्चे में उतना ही रस न
लिया हो? सभी मां लेती हैं। सूरदास कुछ नया नहीं कर रहे हैं।
वह जो वात्सल्य का भाव है, उसको आरोपित कर रहे हैं कृष्ण पर।
फिर
कोई कृष्ण— भक्त हैं। बंगाल में एक संप्रदाय है, वह अपने को सखी मानता है।
कृष्ण को पति मानता है। तो वे स्त्रियों के ही कपड़े पहनते हैं। अब धीरे— धीरे
उनकी संख्या कम हो गयी, क्योंकि जमाना अनुकूल नहीं। मांग
भरते हैं, स्त्रियों के कपड़े पहनते हैं, स्त्रियों जैसे ही चलते हैं। रात कृष्ण की प्रतिमा को छाती से लगाकर सोते
हैं। ये सब प्रेम के ही जगत की बातें हैं, जिनमें से आधा
हिस्सा बदल दिया गया—उस तरफ अब कोई ठोस प्रेमी नहीं है। लेकिन इस तरफ ठोस प्रेम का
भाव अब भी है। प्रेमी विराट हो गया है, लेकिन भाव अभी भी
दूसरे पर बंधा है।
बुद्ध
कहते हैं, वह भी जाए, क्योंकि इसमें भी पर—निर्भरता है। कभी
तुम बुलाओगे और वह न बोलेगा। कभी तुम चीखोगे —चिल्लाओगे और वह न आएगा। वह तो है भी
नहीं उस तरफ। कभी तुम्हारे ही भीतर ऐसी संगति होगी कि उत्तर आ जाएगा; कभी संगति न होगी, उत्तर न आएगा। यह भी निर्भरता है।
तुम पूरे ही मुक्त हो जाओ।
मोक्ष
की धारणा भारत में ही पैदा हुई, क्योंकि परमात्मा से मुक्त होने की धारणा भारत
में पैदा हुई। यह धर्म का आत्यंतिक रूप है। संसार से मुक्त होना धर्म का पहला कदम
है। धर्म से भी मुक्त हो जाना धर्म का आखिरी कदम है। धर्म जब तक धर्म के भी पार न
ले जाए तब तक एक नया बंधन बन जाता है। ईसाई हैं, यहूदी हैं,
मुसलमान हैं, परमात्मा पर अटक गए हैं। मोक्ष
की धारणा नहीं।
मोक्ष
के लिए दूसरी भाषाओं में शब्द नहीं है। क्योंकि उस पर कभी विचार ही नहीं हुआ, तो शब्द कहां
से हो। शब्द ही एकांत रूप से हमारा है। अगर अनुवाद करना हो मोक्ष का, निर्वाण का, कैवल्य का, तो बड़ी
मुश्किल पड़ती है, कैसे अनुवाद करो? अनुवाद
करो, तो जो भी शब्द तुम चुनो; अगर
मोक्ष के लिए फ्रीड़म चुनो, तो कुछ राजनीति मालूम पड़ती है उस
शब्द में। मोक्ष में कोई राजनीति नहीं है। कोई भी शब्द चुनी, शब्द है ही नहीं उसके पर्यायवाची। क्योंकि ईसाई, मुसलमान
और यहूदी मुल्कों में परमात्मा के ऊपर धर्म न गया। धर्म के पार धर्म न गया। सीढ़ी
पर तो चढ़े, लेकिन सीढी पर अटक गए; सीढ़ी
को न छोड़ पाए। और सीढ़ी का प्रयोजन यही है कि चढ़ो और छोड़ दो, नहीं
तो छत पर न पहुंच पाओगे।
'यह अल्पश्रुत पुरुष बैल की भांति बढ़ता है। उसके मांस तो बढ़ते हैं, पर उसकी प्रज्ञा नहीं बढती।’
प्रज्ञा
की आखिरी कला क्या है?
मुक्ति, मोक्ष। प्रज्ञा का आखिरी स्वरूप क्या
है? परम निर्विकार असीम का अनुभव। जहां कोई सीमा न रही। जहां
तुम आकाश हुए। उससे कम पर रुक जाना रुक जाना है। उससे कम पर बुद्ध कहेंगे, मांस तो बढ़ रहा है, प्रज्ञा नहीं बढ़ रही है। बड़ी
ऊंची गौरीशंकर के शिखर को हमने लक्ष्य माना है। इससे छोटा लक्ष्य मनुष्य के योग्य
भी नहीं।
लेकिन
इसका यह अर्थ नहीं है कि हमने और जीवन के लक्ष्यों को इनकार किया है। यही भारत की
अनूठी सामंजस्य और समन्वय की कला है। हमने सारे लक्ष्यों को मोक्ष में समाहित किया
है। हमने उनको सीढ़ियां बना लिया। हमने विरोध नहीं किया है।
अब
तुम चकित होओगे,
क्योंकि आमतौर से ऐसा लगता है, बुद्ध जीवन—विरोधी
हैं, लेकिन ये सूत्र तुम्हें बताएंगे कि यह बात कहीं न कहीं
गलत हो गयी है, गलत हाथों की व्याख्या है।
'बिना रुके अनेक जन्मों तक घर को बनाने वाले को खोजते —खोजते मैं संसार में
दौड़ता रहा। पुन: —पुन: जन्म पाना बड़ा दुखरूप है।’
'बिना रुके अनेक जन्मों तक घर को बनाने वाले को खोजते मैं संसार में दौड़ता
रहा—घर को बनाने वाले को खोजते—गहकारक गवेसंतो।’
यह
जीवन का घर कौन बनाता है?
यह जीवन उठता क्यों है? यह जीवन है क्यों?
किस सहारे जीवन चलता है? क्या है इसका आधारभूत
कारण? यह आग जलती है, ईंधन क्या है?
क्योंकि यह आग का जलना बड़ा दुखरूप है। जिन्होंने भी जीवन को देखा,
उन्होंने यह पाया—
मौत
से बदतर नजर आयी मुझे
जिंदगी
को जिंदगी समझा था मैं
जिसने
जिंदगी को जिंदगी समझा,
वह आज नहीं कल रोएगा, पछताएगा।
मौत
से बदतर नजर आयी मुझे
जिंदगी
को जिंदगी समझा था मैं
यहां
तुम मरने के अतिरिक्त कर क्या रहे हो? बाकी सब करना बड़ा खिलवाड़ मालूम
पड़ता है। खेल—खिलौने थोड़े बड़े हैं, इससे धोखे में मत पड़ जाना।
छोटे बच्चे गुड्डा—गुड्डियों के विवाह रचा रहे हैं, तुम क्या
कर रहे हो?
एक
जर्मन विचारक हैरीगेल जापान में मेहमान था किसी मित्र के घर। एक बुजुर्ग मित्र।
मित्र ने कहा कि आज सांझ एक बारात में सम्मिलित होना है, आप भी
आओगे? वह बड़ा खुश हुआ। उसने कहा, अच्छा
होगा। एक मौका मिलेगा, जापानी बारात कैसी होती है, विवाह कैसा होता है, मैं जानना चाहूंगा।
पश्चिम
के लोगों की ऐसी व्यर्थ की बातों में बड़ी उत्सुकता होती है।
वह
साथ हो लिया। लेकिन वहां जरा चौंका, क्योंकि वह विवाह गुड्डे—गुड्डियों
का था। दो परिवार में बच्चों ने गुड्डे —गुड्डियों का विवाह रचाया था। लेकिन पूरे
गांव के बड़े —बुजुर्ग भी सम्मिलित हुए थे। वह बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि ये
बच्चे यह करें, समझ में आता है, के
इसमें सम्मिलित हों गंभीरता से!
साधे
रहा अपने को। संस्कारशील आदमी था! लौटकर घर उसने कहा कि जरा मैं पूछना चाहता हूं।
पूछना चाहिए तो नहीं,
आपको कहीं चोट न लगे, लेकिन यह देखकर मैं चकित
हुआ, यह तो छोटे बच्चों का काम है। ठीक है, बच्चों ने जुलूस निकाला होता, शोभायात्रा की होती,
विवाह किया होता, सब ठीक है, मगर बड़े—बूढ़े इसमें क्यों सम्मिलित हुए?
वह
बूढा हंसने लगा?
उसने कहा कि और अगर असली जवान लड़के और असली जवान लड़की का विवाह होता,
तो? उसने कहा, फिर कोई
हर्जा नहीं। वह का हंसने लगा। उसने कहा कि हम तो मानते हैं, दोनों
एक जैसे हैं। इसीलिए सम्मिलित हुए। कोई फर्क नहीं है। वही शोरगुल है, वही बैंड़—बाजा है। तुमने बच्चों को देखा, जिसकी
गुड़िया का विवाह हो रहा था उसको देखा, इससे ज्यादा तुम किसी
के मां—बाप को और क्या प्रसन्न पाओगे! और क्या हो सकता है इससे ज्यादा! गुड्डा—गुड्डी
क्यों देख रहे हो, जिन्होंने विवाह रचाया उनकी खुशी तो देखो।
यही खुशी असली विवाह में हो रही है। जिसको तुम असली विवाह कह रहे हो वह भी यही राग—रंग
है। यही सपने हैं।
यहां
सब धूल में पड़ा रह जाता है। जिसको तुम असली कहते हो, वह भी नकली ही है। यहां
नकली सिक्के तो नकली हैं ही, यहां असली सिक्के भी नकली हैं।
मगर असली सिक्के की वजह से तुम खयाल में नहीं लाते।
एक
नोट पकड़ जाता है किसी आदमी के पास नकली। नकली तुम कैसे जांचते हो? क्योंकि
तुमने किसी को असली मान रखा है। लेकिन जिसको असली माना है, वह
कहां असली है? असली क्या है उसमें? कल
सरकार बदल जाए, नकली हो जाए। अभी सरकार का दिल बदल जाए,
नकली हो जाए। मान्यता की बात है। तुम्हारा असली भी नकली ही है। नकली
तो नकली है ही। लेकिन किसको तुम असली कह रहे हो?
बुद्ध
कहते हैं.
अनेक
जाति संसार संधविस्सं अनिबिसा
गहकारकं
गवेसन्तो दुक्सा जाति पुनपुनं ।।
अनेक—अनेक
जन्मों में, अनेक—अनेक जीवन में एक ही बात खोजता रहा हूं कि यह जीवन का घर कौन बनाता
है? यह खेल कौन रचता है?
यहां
बुद्ध की बड़ी गहरी खोज है। साधारण आदमी कह देता है, भगवान की लीला! यह कोई
उत्तर न हुआ। यह उत्तर से बचना हुआ। न तुम्हें भगवान का पता, न तुम्हें लीला का पता! ये उत्तर वैसे ही हैं जैसे कि किसी ने तुमसे पूछा
कि कहां से आए, तुम कहते हो भगवान जाने। इसका मतलब समझते हो?
कोई नहीं जानता। भगवान जाने, इससे यह मत तुम
समझना कि भगवान जानता है। तुम अज्ञान को जानने में ढांक रहे हो। यह कहने की
तुम्हारी हिम्मत नहीं कि मुझे पता नहीं।
आदमी
बड़ा धोखेबाज है। जहां—जहां उसे कहना पड़ता है मुझे पता नहीं, वह कुछ इस
ढंग से कहता है कि ऐसा लगे कि पता है। कहते हो, भगवान जानता
है। ज्यादा ईमानदारी होती, तुम कहते, पता
नहीं, कोई भी नहीं जानता। मगर तब अहंकार को खड़ा कैसे करते?
यहां, भगवान जानता है, ऐसा
जानकर तुमने जना दिया है कि भगवान जानता है क्यों, और तुम
भगवान को जानते हो। सब साफ हो गया मामला। जहां कुछ भी जाना हुआ नहीं है, वहां तुमने जानने का भ्रम पाल लिया।
नहीं, बुद्ध ने.
इस तरह तो बहुत गुरुओं के पास वे गए थे। उन्होंने कहा, भगवान
ने बनाया, वह उनको जंचा नहीं। वह जंचा इसलिए नहीं कि वे कहते
हैं कि फिर भगवान को किसने बनाया? इससे कोई उत्तर नहीं मिलता।
और भगवान भी क्यों बनाएगा? भगवान के भी बनाने का कारण क्या
है? इससे कुछ आधार—सूत्र नहीं मिलता। बुद्ध की गवेषणा उन्हें
बड़े अनूठे जगह ले गयी, जो कि समस्त धर्मों का सार है।
उजाड़
से लगा चुका उम्मीद मैं बहार की
निदाघ
से उम्मीद की बसंत की बयार की
मरुस्थली—मरीचिका
सुधामयी मुझे लगी
अंगार
से लगा चुका उम्मीद मैं तुषार की
अगर
तुम गौर से देखोगे,
तो जहां—जहां तुमने सुख देखा था वहा—वहां दुख पाया, और कुछ भी नहीं। फिर भी तुम यह नहीं कहते—
उजाड़
से लगा चुका उम्मीद मैं बहार की
फिर
भी तुम वही उम्मीद बार—बार लगाए चले जाते हो। तुम अनुभव से सीखते नहीं। और जो
अनुभव से न सीखेगा वह पुनरुक्ति करता रहता है। वह वही—वही दोहराता रहता है। सीख लो, तो जीवन
में कुछ नया हो, पुनरुक्ति रुके।
बुद्ध
कहते हैं कि मैंने गौर से देखा, जन्मों—जन्मों में झांककर देखा, बार—बार झांककर देखा, यह क्या हो रहा है? यह कौन मेरे घर को बनाए जाता है? कौन मुझे नया जन्म
दिए चला जाता है? यह उन्होंने बाहर न खोजा। क्योंकि इसकी
बाहर खोज नहीं हो सकती। यह कहीं तुम्हारे भीतर ही कोई सूत्र है। कहीं भ्रांति का
भीतर ही कोई आधार है।
'बिना रुके अनेक जन्मों तक घर को बनाने वाले को खोजते मैं संसार में दौड़ता
रहा। पुन: —पुन: जन्म पाना बड़ा दुखरूप है।’
मगर
कोई उपाय न था। क्योंकि जब तक हमें यह पता न चल जाए कि घर कैसे बनता है, कैसे उठता
है, तब तक उसे मिटाएं कैसे? जब तक हमें
बीज का पता न चल जाए तब तक हम वृक्ष को रोकें कैसे? बीज हाथ
में आ जाए तो जला दें आग में, भून ड़ालें उसे, फिर उससे कोई अंकुर न उठे, फिर निर्बीज समाधि हो जाए,
फिर जीवन में कोई अंकुर न आए। लेकिन बीज कहां है? कौन दौड़ा रहा है?
कोई
कहता है, भाग्य दौड़ा रहा है। कोई कहता है, भगवान दौड़ा रहा है।
कोई कहता है, प्रकृति दौड़ा रही है। कोई कहते हैं, यह सब दुर्घटना है, संयोगमात्र है। लेकिन बुद्ध कहते
हैं, यह संयोगमात्र नहीं हो सकता। इतने लोग दौड़ रहे हैं,
इतने जन्मों तक दौड़ रहे हैं, यह मात्र संयोग
नहीं हो सकता। इसके पीछे सूत्र खोजना ही होगा।
बुद्ध
की दृष्टि बड़ी वैज्ञानिक है। और बुद्ध कहते हैं, देखने पर मेरी समझ में आना
शुरू हुआ कि जो कुछ भी हो रहा है, कहीं न कहीं मेरा हाथ है।
क्योंकि जो मेरे जीवन में हो रहा है, वह मेरे ही हाथ से हो
सकता है। यह हो सकता है मुझे पता न हो।
फ्रायड़
की एक बड़ी खोज है इस सदी की। और वह खोज भी अत्यंत प्राचीन है। पूरब के लिए बड़ी
प्राचीन है। फ्रायड़ ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक नयी बात जोड़ी जो जीवनभर
की खोजों के विपरीत जाती है। उसकी खुद की खोजों के विपरीत जाती है। लेकिन वह आदमी
ईमानदार था। उसने असंगति की फिकर न की। उसने कहा, जो मेरे अनुभव में आ रहा है,
वह मैं कहूंगा। वह मेरे भी विपरीत जाता हो, तो
भी कहूंगा। मैं क्या कर सकता हूं! तथ्य ही ऐसा कह रहे हैं।
जीवनभर
उसने जिस सिद्धात की प्रस्तावना की, उस सिद्धात का उसने नाम दिया है—लिबिडो।
इरोज। कामवासना। वह कहता है, सारा जीवन कामवासना की दौड़ है।
लेकिन फिर जीवन के अंतिम क्षण में उसने अपने भीतरी निरीक्षण से भी पाया कि अब तो
दौड़ थकने लगी और कभी—कभी मरने का भी मन होता है, और कभी—कभी
तो शांत, चुप हो जाने का, डूब जाने का
भी मन होता है। फिर वह ऐसे मरीजों के भी संपर्क में आया, जो
जीना नहीं चाहते। फिर उन्हें तुम जिलाने की कितनी भी कोशिश करो, तुम उन्हें जिला भी नहीं सकते। क्योंकि जिसके भीतर से जीने की आकांक्षा चली गयी, उसको फिर कोई
बाहरी सहारा नहीं रोक सकता। वह तो ऐसा समझो कि उसकी बुनियाद ही गिर गयी। आधार टूट
गया। केंद्र बिखर गया। फिर तुम कितना ही सतह को सम्हालो, आज
नहीं कल उखड़ जाएगी।
तो
उसने एक दूसरा सिद्धात प्रस्तावित किया— थानाटोस। पहला सिद्धात है जीवेषणा। और
दूसरा सिद्धात है मृत्यु— आकांक्षा। वह कहता है—और उसकी भी बातें तुम्हें मेरे इस
पूरे हिसाब में बैठ जाएंगी—वह कहता है, करीब बयालीस साल की उम्र के निकट
जीवेषणा मृत्यु—एषणा में बदल जाती है। जो आदमी अब तक जीने के लिए दौड़ रहा था,
वह मरने के लिए दौड़ने लगता है। थकने लगता है। जैसे दिन के बाद रात
है। दिनभर श्रम है और रात विश्राम है। दिनभर जो दौड़ा और श्रम किया, वह सांझ को कहता है, अब सो जाने दो। अब मैं थक गया,
अब बाधा मत दो। अब मुझे विश्राम करने दो। ऐसे चालीस साल तक आदमी
दौड़ता रहता है, वह आधा वर्तुल है जीवन का, जीवेषणा। फिर थक जाता है। फिर रात शुरू हुई। फिर वह कहता है, अब मुझे विश्राम करने दो, अब मुझे मर जाने दो।
अगर
हम भारत की भाषा में समझें,
तो अर्थ और काम आधा वर्तुल है। जीवेषणा। दूसरा वर्तुल है धर्म और
मोक्ष। मृत्यु—एषणा। और हमने इसमें कभी विसंगति नहीं देखी, यह
पूरा वर्तुल है। पहले रेखा वर्तुल की ऊपर उठती है, ऊपर उठती
है, फिर एक जगह से वर्तुल मुड़ता है, रेखा
नीचे उतरने लगती है, फिर वहीं मिल जाती है जहां से शुरू हुई
थी, वर्तुल पूरा हुआ। जहां जन्म हुआ था, वहीं मृत्यु वापस ले आती है। फिर नया जन्म शुरू हो जाता है। फिर नयी
मृत्यु की यात्रा पर हम निकल जाते हैं।
और
जिस जीवन में ये दोनों नहीं हैं, वह जीवन अधूरा है। जिसने केवल दिन जाना और रात
का विश्राम न जाना, तुम उसका पागलपन तो देखो। वह किस मुश्किल
में पड़ जाएगा। जिसको नींद नहीं आती, उससे पूछो। जो विश्राम
नहीं कर सकता, उससे पूछो। भोजन के बिना आदमी तीन महीने जी
सकता है। बिना नींद के तीन महीने न जी सकेगा। नींद भोजन से भी ज्यादा जरूरी है।
बिना भोजन के आदमी दुबला हो जाएगा, कमजोर हो जाएगा; बिना नींद के आदमी विक्षिप्त हो जाता है, पागल हो
जाता है।
अनिद्रा
जिसको पकड़ लेती,
इनसोमेनिया जिसे पकड़ लेती है, उसकी तकलीफ पूछो।
उसकी तकलीफ यह है कि काम तो करता है, विश्राम का उपाय न रहा।
दूसरे दिन सुबह उठता है और भी ज्यादा थका—हारा, जितना कि
सांझ को बिस्तर पर गया था। तो दिनभर भी थकता है, रातभर भी
थकता है। थकान इकट्ठी होती चली जाती है। उसकी पूरी जिंदगी एक थकान और एक बोझ हो
जाती है।
जो
रात के संबंध में सही है,
वह मौत के संबंध में सही है। मौत पूरी जिंदगी की दौड़ के बाद विश्राम
है। और जैसे रात की तैयारी करनी होती है—सांझ हो गयी, सूरज
ढल गया, दीए जल गए, लोग तैयारी करने
लगे, पशु—पक्षी आकर अपने नीड़ों में शोरगुल मचाकर आखिरी चर्चा,
विचार—विमर्श करके शांत हो गए—ऐसा धर्म तैयारी है। सांझ हो गयी,
मोक्ष, मृत्यु में डूब जाना है, स्वेच्छा से। जो मरने से डर रहा है, वह नींद से भी ड़रेगा।
जो नींद से डर रहा है, वह मरने से भी ड़रेगा। क्योंकि नींद
रोज आने वाली छोटी मौत है। और मौत जीवन के अंत में आने वाली बड़ी नींद है। और जैसे
नींद सुबह ताजा कर जाती है, ऐसे ही मौत फिर तुम्हें नए जन्म
के योग्य बना जाती है। फिर तुम्हें ताजा कर जाती है। बुढ़ापा छीन लेती है तुमसे,
बचपन दे देती है।
जो
आज जा रहा मैं असमय की यात्रा पर वह सचमुच मेरी चाह हुई है जाने की
जो
ठहर नहीं पाती हैं मेरी सांसें
है
मेरी ही वह चाह नहीं रुक पाने की
कोई
मरता नहीं। कोई जबर्दस्ती किसी को मार नहीं रहा है। हम मरते हैं। हम चाहने लगते
हैं। जो आकांक्षा जीवन को मांगती थी, वही एक
दिन मौत को मांगने लगती है। अगर जीवन की ही आकांक्षा को हमने स्वीकार किया, तो
अर्थ और काम दो ही लक्ष्य रह जाते हैं। भोगो, वासना, स्त्री—पुरुष और धन—पद।
धन—पद
की जरूरत है भोगने के लिए। बिना धन के भोगोगे कैसे? बिना धन के अच्छी स्त्री भी
न पा सकोगे। बिलकुल निर्धन हुए तो स्त्री भी न पा सकोगे। स्त्रियां आमतौर से धन
में उत्सुक होती हैं।
यह
तुमने खयाल किया। धनी को सुंदरतम स्त्री मिल जाती है। चाहे धनी सुंदर न हो। का भी
हो धनी, तो भी युवा स्त्री मिल जाती है। ओनासिस को जैकी मिल जाती है। धन हो! तो
थोड़ा सोचने जैसा है कि स्त्री को धन में इतनी उत्सुकता क्या है? स्त्री काम है। धन के बिना काम के खिलने की सुविधा नहीं। धन तो ऐसे ही है
जैसे पौधे में पड़ी खाद है। बिना खाद के फूल न खिल सकेगा। इसलिए स्त्री की सहज आकांक्षा
धन की है। वह बलशाली आदमी को खोजती है,
महत्वाकाक्षी को खोजती है, धनी को खोजती है,
पद वाले को खोजती है। स्त्री सीधे—सीधे चेहरे पर नहीं जाती। चेहरे —मोहरे
से स्त्री बहुत हिसाब नहीं रखती।
इसलिए
कभी—कभी आश्चर्य होता है,
सुंदरतम स्त्री कुरूप आदमी को खोज लेती है। मगर उसकी जेबें भरी
होंगी। वह बड़े पद पर होगा। राष्ट्रपति होगा। प्रधानमंत्री होगा। सुंदर स्त्री की आकांक्षा
बड़े गहरे में अर्थ की है, क्योंकि वह जानती है अगर अर्थ होगा, तो ही वह खिल
पाएगी, तो ही उसका सौंदर्य निखर पाएगा। धन सुविधा है।
पुरुष
की आकांक्षा काम की है। पुरुष अर्थ है। इसे तुम समझो।
पुरुष
महत्वाकांक्षा है,
वह अर्थ है। वह धन तो कमा सकता है, धन तो उसकी
मुट्ठी की बात है, हाथ का मैल है, लेकिन
सुंदर स्त्री को कैसे कमाएगा? सुंदर स्त्री तो हो तो हो,
न हो तो सौंदर्य को पुरुष पैदा नहीं कर सकता। इसलिए उसकी नजर
सौंदर्य पर है। सुंदर स्त्री हो, तो वह और तेजी से दौड़कर
कमाएगा।
एंड्रू
कारनेगी को किसी ने पूछा—अमरीका के सबसे बड़े धनी व्यक्ति को—कि तुम इतनी कमाई
कैसे करते चले गए?
तो उसने कहा, मेरी पत्नी को देखा? जब उससे मैंने विवाह किया, तभी मैंने जान लिया कि
उसने मुझसे विवाह नहीं किया है, मेरे धन से विवाह किया है।
और अगर यह विवाह टिकना है, तो धन बढ़ते जाना चाहिए। फिर
मुझमें और उसमें एक दौड़ लग गयी। मैं यह देखता रहा कि कितना ऐसा धन हो सकता है,
जिस पर वह तृप्त होगी! वह कभी तृप्त न हुई, इसलिए
मैं दौड़ता रहा। दस अरब रुपया वह आदमी छोड़कर मरा, नगद। महत्वाकांक्षा
में दौड़ पैदा हो गयी, महत्वाकांक्षा में त्वरा आ गयी।
स्त्रियों
ने प्रेरणा दी है। अगर कवि कविता करता है, सुंदर स्त्री मिल जाए, कविता सुंदर हो जाती है तत्क्षण। नहीं तो बैठे—बैठे गमगीन गा रहे थे—से
रहे थे असल में। रोने को गाना कह रहे थे। आंसू टपक रहे थे। सुंदर स्त्री मिल जाती
है, प्रेरणा आ जाती है। गीत निखर जाते हैं। छवि प्रगट होने
लगती है गीत में। सुंदर स्त्री न भी मिले, दिखायी भर पड़ जाए,
तो भी महत्वाकांक्षा सजग हो जाती है, ज्योति
जलने लगती है।
मैं
तुमसे यह कह रहा हूं कि पुरुष है अर्थ, पुरुष है महत्वाकांक्षा, अहंकार की दौड़, विजय की यात्रा। पुरुष है आक्रमण,
स्त्री है निमंत्रण। स्त्री है काम, बुलावा।
इसीलिए तो पुरुष निवेदन करता है प्रेम का, स्त्री कभी नहीं
करती। स्त्री कभी नहीं कहती कि मुझे तुमसे प्रेम है। वह सिर्फ प्रतीक्षा करती है
कि बोलो, अब बोलो। बोलो और फंसो! मगर वह राह देखती है।
इसलिए
तुम कभी किसी स्त्री से यह न कह सकोगे कि तूने मुझे फंसाया। वह तो चुप ही थी। उसने
तो कभी बात ही न उठायी थी। बात की तो बात दूर, उसने तो हमेशा इनकार ही किया था।
वह तो नहीं ही कहती चली गयी थी—कि नहीं। वह तो दूर ही हटती चली गयी थी, तुम्हीं पीछे दौड़ते रहे।
मुल्ला
नसरुद्दीन और उसकी पत्नी में, दोनों में बात हो रही थी, सुबह चाय की टेबल पर। मैं भी मौजूद था। कुछ गरमागरमी बात हो गयी थी। तो
उसकी पत्नी ने कहा कि तुम्हें ध्यान रहना चाहिए कि मैं तुम्हारे पीछे नहीं दौड़ रही
थी। मैंने कभी तुम्हें चाहा भी न था, कभी कहा भी न था।
मुल्ला ने कहा, वह मुझे पता है। चूहादानी कभी चूहे के पीछे
दौड़ती है? चूहा खुद ही आता है। यह तो बिलकुल साफ है, मैं खुद ही आया।
स्त्री
निक्तियता है,
एक शांत सरोवर। उसके कारण बहुत से सरोवर अशांत होते हैं, यह दूसरी बात है। मगर अपने में वह शांत है। अपने में वह उत्तेजित नहीं है।
स्त्री काम—ऊर्जा है। काम की प्रतिमा है। स्वभावत: स्त्री और पुरुष में मेल तभी हो
सकता है, जब वे विपरीत हों। रस भी तभी हो सकता है, जब विपरीत हों।
पुरुष
है महत्वाकांक्षा,
स्त्री है निमंत्रण। पुरुष है दूर शिखरों को छूने की प्रज्वलित
भावना। स्त्री है दूर शांत खड़ा शिखर—बुलाता है। स्त्री और पुरुष अर्थ और काम हैं।
इसलिए स्त्री रस लेती है धन में, पुरुष रस लेता है सौंदर्य
में। यह दौड़ जारी रहती है।
जब
तक कि इस दौड़ के भीतर हम प्रवेश करके गौर से न देखें, पुरुष जब
तक न झांके अपनी महत्वाकांक्षा में, अपनी आक्रामक, अपनी हिंसात्मक वृत्तियों में, तब तक उसे पता नहीं
चलता, कौन घर बना रहा है? स्त्री जब तक
न झांके अपनी निष्किय निमंत्रण की अवस्था में, अपने चुपचाप
दिए गए बुलावे में। कभी—कभी तुम्हें पता ही नहीं होता कि तुम जो कर रहे हो जब होता
है तब तुम नाराज हो जाते हो।
अब
स्त्रियां घर से निकलती हैं, खूब सज— धजकर निकलती हैं। फिर कोई रास्ते पर
धक्का मार देता है। अब कोई पूछे कि इतना सज— धजकर क्यों निकलीं? तो शायद कोई उत्तर नहीं है साफ, लेकिन अगर इसे गहरे
मनोविज्ञान से पूछें तो सज— धजकर निकलने का मतलब ही यह था कि तुम चाहते थे कि कोई
धक्का मारे। कोई आकर्षित हो, कोई उत्सुक हो। अगर कोई धक्का न
मारे, तो स्त्री उदास—उदास घर लौटेगी कि यह क्या हुआ?
तुम
सोचो, एक सुंदर स्त्री निकले, कोई देखे ही नहीं। बाजार में
घूम आए, सब जगह हो आए, कोई नजर ही न डाले।
गांव तय कर ले कि आज इसको देखना नहीं, न कंकड़ मारना, न धक्का मारना, न दूर से एक चुंबन फेंकना—कुछ करना
ही नहीं, भूल ही जाना कि यह है स्त्री। वह घर आकर रोकी उस
रात, यह हुआ क्या?
मैं
एक कालेज में अध्यापक था। बैठा था मैं प्रिंसिपल के कमरे में, — कुछ बात
थी। एक लड़की आयी, वह बड़ी नाराज थी। किसी लड़के ने एक कंकड़
उसको मार दिया। प्रिंसिपल बहुत नाराज हुए, उन्होंने कहा कि
उस लड़के को बुलवाओं। मैं बैठा सुनता रहा। वह लड़का भी आ गया।
प्रिंसिपल
ने कहा, आप इससे कुछ कहें—मुझसे कहा कि आप इससे कुछ कहें। मैंने कहा, मुझे बीच में मत लाएं! क्योंकि मेरी यह समझ है कि ये दोनों सहभागी हैं। इस
लड़की की तरफ तो देखें, बालों में लव—इन—टोकियो लटके हुए हैं।
यह झंझटी है। इसको कंकड़ न मारा जाए, तो यह दुखी होकर लौटेगी।
अब मारा, तो दुखी हो रही है। और यह लड़का ऐसे कुछ बुरा नहीं
दिखता। अगर यह कंकड़ अभी नहीं मारेगा, तो क्या सोचते हैं जब
प्रिंसिपल हो जाएगा आपकी जगह, तब मारेगा। तब बड़ा बेहूदा
लगेगा। तब असमय हो जाएगी बात। और मुझे नहीं दिखता कि इसकी, लड़की
की नाराजगी में वस्तुत: नाराजगी है। इसकी नाराजगी को जरा गौर से झांकें, यह बडी प्रसन्नचित्त होकर कह रही है। वह लड़की भी मेरी बात सुनकर
मुस्कुरायी। मैंने कहा, आप देखिए!
आदमी
कभी अपने भीतर ठीक से झांककर देखे, तो बहुत चीजें साफ होती हैं। यहां
जो भी हो रहा है, वह हमारे चाहे हो रहा है। जो हम चाहते हैं,
वही हो रहा है। शायद हमें भी पता न हो कि हम क्या चाहते हैं। चाहे
हमारी चाह भी हमने खूब अंधेरे में दबा दी हो—अचेतन में दबा दी हो—लेकिन जो भी हो
रहा है वह हमारे चाहे हो रहा है। मौत भी यहां हमारी चाह से ही घटती है, और जीवन भी हमारी चाह से ही घटा है। जन्मे भी हम अपने कारण हैं, मरेंगे भी हम अपने कारण। संसार में भी हम अपने कारण हैं और मोक्ष में भी
हम अपने कारण होंगे। यही बुद्ध की आत्यंतिक खोज है। यह उनका चरम निष्कर्ष है।
'हे घर के बनाने वाले! मैंने तुझे देख लिया; अब तू
फिर मेरे लिए घर न बना सकेगा। तेरे सभी बांस टूट गए और तेरे घर का शीर्ष भी बिखर
गया। संस्कार—रहित चित्त से तृष्णा का क्षय हो गया है।’
तृष्णा, घर बनाने
वाला सूत्र है। तन्हा। वह जो, जिसको फ्रायड़ लिबिडो कहता है,
वह कामवासना।
गहकारक!
दिडोसि पुन नेह न काहसि ।
देख
ले, हे घर बनाने वाले अब ठीक से देख ले, अब तुझे दुबारा
बनाने की जरूरत न रहेगी, पकड़ लिया मैंने सूत्र। मैं ही बना
रहा था। मैंने ही अंधेरे हाथों से अपने घर की ईंटें रखी थीं। मैंने ही सजाया था।
हो सकता है रात में उठकर नींद में सजाया हो, पर मैंने ही
सजाया था।
गहकारक
! दिडोसि पुन गेहं न काहसि ।
अब
द्वारा, अब दुबारा यह न होगा।
सबा
ने फासुका
देख, सारे बांस
गिरने लगे।
भग्गा
गहकूटं विसंखिति।
देख, शीर्ष भी
बिखरने लगा। घर की छत भी गिरने लगी।
विसंखारगंतं चित्तं तरुहानं खयमन्त्रगा ।
तण्हानं—तन्हा, तृष्णा,
लिबिडो। पकड़ लिया सूत्र। मैंने ही चाहा है, जो
हुआ है। औरों ने कहा है, भगवान ने चाहा है, जो हुआ है। लेकिन तुम जरा जिन्होंने कहा है, भगवान
ने चाहा है, उनको जरा पूछो, उनके जरा
गहरे उतरो—उसने क्यों चाहा है? तो भगवान से भी गहरी तुम चाह
को पाओगे, क्योंकि उसने भी चाहा है।
इसलिए
पुराणों की कथाएं बड़ी महत्वपूर्ण हैं। कभी—कभी अभद्र भी मालूम पड़ती हैं, पर बड़ी
महत्वपूर्ण हैं।
पुराण
कहता है, ब्रह्मा ने पृथ्वी रची, वह उसकी बेटी थी, फिर उस पर मोहित हो गया। अपनी बेटी पर! उसके पीछे दौड़ने लगा। बेटी घबड़ा
गयी। घबड़ाकर गाय हो गयी। वह बैल हो गया। ब्रह्मा!
मगर
यह कितनी ही भद्दी लगती हो,
अश्लील भी लगती हो, पर बड़ी मूल्यवान है कथा।
और हिंदुओं ने बड़ी हिम्मत की। उन्होंने इसकी फिकर नहीं की कि लोग क्या कहेंगे कि
यह पुराणकथा! यह धर्म—शास्त्र! यह तुम क्या कह रहे हो? लेकिन
सत्य को कहने की बड़ी हिम्मत की। आज के हिंदू बहुत कमजोर और कायर हो गए, वह बात और है। लेकिन कभी बड़ी हिम्मतवर कौम थी।
जरा
सोचो, भगवान ने पृथ्वी पैदा की, तो निश्चित ही जिसने पैदा
की वह पिता हो गया। बेटी हो गयी पृथ्वी। और वह बेटी पर आकर्षित हो गया—इतनी सुंदर
थी। वह दौड़ने लगा उसके पीछे। बेटी स्वभावत: घबड़ा गयी। बाप को दौड़ते देखा तो वह
बेचैन हो गयी। उसने घबड़ाकर रूप बदल लिया, वह गाय हो गयी। तो
वह बैल मे गया। बैल नहीं सांड, क्योंकि बैल तो बहुत बाद में
आए। वह घबड़ाकर बदलती गयी। हथिनी हो गयी, तो वह हाथी हो गया।
हिंदू कहते हैं, इसी तरह पूरी सृष्टि पैदा हुई। क्योंकि वह
बेटी घबड़ाती गयी और रूप बदलती गयी। और बाप भी अपना रूप बदलकर नए रूप में फिर
कामवासना से भरता हुआ दौड़ने लगा। सारी दुनिया में सभी समाजों ने अब तक—अब तक कहता
हूं कहना चाहिए दो सप्ताह पहले तक—नियम रखा है कि बाप और बेटी का संबंध न हो। यह
संबंध सबसे बड़ा पाप समझा है। दो सप्ताह पहले तक कहता हूं,
क्योंकि दो सप्ताह पहले स्वीडन की सरकार ने एक नियम पारित किया, कि इसको अब गैरकानूनी नहीं समझा जा सकता। बाप भी अगर बेटी से संबंध बनाए,
या बेटी बाप से संबंध बनाए, तो इसको कोई अब
अदालत में नहीं ला सकता। यह गैरकानूनी, अपराध नहीं है।
क्यों
सारे समाजों ने यह बात रखी कि बाप और बेटी का संबंध, या बेटे और मां का संबंध।
जरूर खतरा वहा है। अगर संबंध पर बहुत रोक न हो, तो संबंध हो
जाएगा। इसका डर है। जहां डर है, वहीं रोक है। साधारणत: हम
सोचेंगे कि यह बात ही सोचने जैसी नहीं। बाप और बेटी का संबंध! लेकिन जब ब्रह्मा और
उसकी बेटी का हो गया, तो हिंदू जानते हैं, यह हो सकता है।
जब
बेटी बड़ी होती है,
तो बाप को फिर अपनी पत्नी उसमें दिखायी पड़ती है—वैसी ही जैसी उसकी
पत्नी युवा थी, जब वह उसे विवाह लाया था। सारी वासना फिर
प्रज्वलित होती है। वह तो इतने संस्कारों के कारण रुकावट पड़ती है। इतने संस्कार
हमने खड़े कर दिए हैं, इतनी धारणाएं हमने पैदा कर दी हैं कि
पाप है। यह पाप की बात इतनी गहरी बिठा दी है और संस्कार सदियों पुराना है कि बाप
के मन में उठे भी तो वह खुद ही को घृणा करेगा कि यह मैंने क्या सोचा? यह बात मेरे मन में कैसी उठी? मैं महापापी हूं। वह
पश्चात्ताप करेगा, उपवास रखेगा, मंदिर
जाएगा, कुछ करके इंतजाम करेगा—अपने को प्रच्छालित करेगा।
लेकिन यह बात उठ सकती है।
अगर
बिलकुल प्राकृतिक हो और कोई रुकावट न डाली गयी हो, तो जैसा पशुओं में उठती है,
वैसे ही पुरुष में भी, मनुष्यों में भी उठेगी।
मां जब अपने बेटे को जवान होते देखती है, तो उसे याद आते हैं
वे दिन, जब उसका पति भी जवान था और ऐसा ही तो लगता था! ठीक
उसका पति जैसे फिर लौट आया। लौटा भी है। आखिर बेटा उसका पति का ही रूप है। खतरा
है! डर है!
स्वीडन
ने यह खतरा हटाया,
यह मनुष्य—जाति के इतिहास में एक क्रांतिकारी क्षण हो सकता है। आज
इसका इतिहास नहीं लिखा जा सकता, लेकिन हजारों साल बाद। आदमी,
स्वीड़न में जो यह नियम बना, इसके बाद अब वही
नहीं हो सकेगा जो इसके पहले था। मनुष्य का इतिहास इस नियम से विभाजित होगा। यह बड़ा
क्रांतिकारी कदम है। बड़ा हैरान करने वाला कदम है।
बुद्ध
कहते हैं, ईश्वर ने बनाया, लेकिन. वेद कहते हैं कि ईश्वर के मन
में कामना पैदा हुई कि मैं रचूं। मैं संसार रचूं। रचने की वासना जगी। तो बुद्ध की
बात बड़ी साफ है, वे कहते हैं, वासना
फिर परमात्मा से बड़ी हुई। वासना ने परमात्मा को आंदोलित किया। परमात्मा भी वासना
से ही चला—कामना हुई कि रचूं वासना हुई कि बनाऊं, फैलाऊं,
माया का जाल उठाऊं—तो फिर यह जो वासना ने परमात्मा तक को अनुप्राणित
किया और चलाया, वह बड़ी हो गयी।
इसलिए
बुद्ध कहते हैं,
परमात्मा को छोड़ो, जिसने परमात्मा को चलाया
वही तुम्हें भी चला रही है, उससे ही निपट लो।
इसलिए
बौद्ध—पुराणशास्त्र में,
जब बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, तो
ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी उनके चरणों
में आते हैं। यह भी एक बड़ी अनूठी घटना है। हिंदू इससे बहुत नाराज हुए। यह कहानी
गढ़ने से। कि यह क्या कहानी गढ़ी कि बुद्ध के चरणों में ब्रह्मा, विष्णु, महेश आते हैं! ब्रह्मा उनके चरणों में सिर
रखता है और कहता है, आप बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए, हमें भी ज्ञान दें। परमात्मा बुद्ध के चरणों में आकर मांगता है, ज्ञान दें!
यह
बात लेकिन महत्वपूर्ण है। यह कहानी बिलकुल ठीक है। होना ही यह चाहिए। क्योंकि
ब्रह्मा भी तो उसी वासना से पीड़ित है जिससे बुद्ध पीड़ित थे। और बुद्ध उस वासना से
मुक्त हो गए जिससे ब्रह्मा अभी मुक्त नहीं हुआ है। तो ब्रह्मा को चरणों में आना
चाहिए, बिलकुल ठीक है। स्वाभाविक है। कथा से चोट नहीं लगनी चाहिए। कथा बड़ी सूचक
है।
'हे घर के बनाने वाले! मैंने तुझे देख लिया, अब फिर
तुम घर न बना सकोगे।’
जिसने
देख लिया तृष्णा को,
बस मुक्त हो गया। देखने में मुक्ति है, दर्शन
में मुक्ति है, द्रष्टा होने में मुक्ति है। इसलिए सारा सवाल
यह है कि हम कैसे अपने भीतर के उस मूल—सूत्र को देख लें, जिससे
बार—बार जीवन की पुनर्रचना होती है। फिर—फिर जन्म, फिर—फिर
मौत। और पुन: —पुन: जन्म पाना बड़ा दुखरूप है, बुद्ध कहते हैं।
'तुम्हारे सभी बास टूट गए।’
तृष्णा
से कह रहे हैं कि तेरे सब बांस टूट गए।
'तेरे घर का शीर्ष भी बिखर गया है। संस्कार—रहित चित्त से तृष्णा का क्षय
हो गया है।’
'
आशियाना ही गुलिस्ता में नहीं
अब
खिजां आए या बहार आए
अब
क्या फिक्र! अपना घर ही अब बगीचे में नहीं है। अब बहार आए तो ठीक, पतझार आए
तो ठीक।
आशियाना
ही गुलिस्तां में नहीं
'
अब खिजा आए या बहार आए
इस
घडी को मुक्ति कहा है। इसलिए हम संसारी को गृहस्थ कहते हैं। गृहस्थ से तुम इतना मत
समझ लेना कि घर में रहता है इसलिए; कि घरवाली उसके पास है इसलिए।
गृहस्थ का इतना ही मत समझना मतलब। इसका मतलब है, जिसका घर
बनाने का क्रम अभी जारी है। घरवाली तो पीछे आती है। घर भी पीछे आता है। इन दोनों —के
पीछे घर बनाने का क्रम—गृहकारक! अभी तृष्णा जारी है।
संन्यासी
को हम कहते हैं गृहत्यागी। बुद्ध ने उसे अगृही कहा है। अनिकेत कहा है। अनागरिक कहा
है। जिसने घर छोड़ा,
जो अगृही हुआ। इसका यह मतलब नहीं कि बुद्ध का भिक्षु घर में नहीं
रहता। घर में ही टिकता है, जब बरसात आती है तो घर में ही
रुकता है। मेहमान तो बनता है घर में ही। लेकिन अब उसने घर बनाना छोड़ दिया। उसने
तृष्णा को देख लिया।
साधारणत:
हम अंधे की तरह टटोल रहे हैं। साधारणत: तृष्णा हमें चलाए जाती है, हम दौड़े
चले जाते हैं। हमें ठीक से यह भी पता नहीं, कौन हमें दौड़ा
रहा है? क्यों दौड़ा रहा है? कहां दौड़ा
रहा है? इस तृष्णा के कारण हम बड़ा दुख पाते हैं, क्योंकि यह दुख में ही ले जाती है। सब दौड़ दुख में ले जाती है।
थी
छांव बहुत जग में लेकिन
मेरी
किस्मत बस धूप पड़ी
उस
क्षण भी काटे हाथ रहे
मौसम
ने ली जब फूलछड़ी
पर
करूं शिकायत कहां
समय
का रथ ऐसे ही चलता है
कल
देखी थी बारात जहां
अर्थी
उस घर थी आज खड़ी
जो
ऋण देना था चुका दिया
जो
कुछ कहना था सुना दिया
अब
जाने बोली कहां लगे?
झोली
नीलाम कहां पर हो?
अब
जाने शाम कहा पर हो?
बस
ऐसे ही चलता है। कहां सुबह होगी, पता नहीं। कहां शाम होगी, पता नहीं। कहा घर बनेगा, पता नहीं। कहां कब्र बनेगी,
पता नहीं। मगर एक बात पक्की है— थी छाव बहुत जग में लेकिन
मेरी
किस्मत बस धूप पड़ी
तृष्णा
तुम्हें दुख में ले जाती है—यहां सुख भी बहुत है —क्योंकि तृष्णा तुम्हें बाहर ले
जाती है और बाहर दुख है,
भीतर सुख है। यहां छांव बहुत है। पर छाव भीतर है, धूप बाहर है। यहां शांति बहुत है। पर शांति भीतर है, अशांति बाहर है। यहां बड़ा आनंद है। यहां समाधि के फूल भी खिलते हैं। पर
उन्हीं के जीवन में, जो भीतर प्रवेश करते हैं। और तृष्णा
बाहर ले जाती है। तृष्णा तुम्हें तुमसे दूर ले जाती है, वही
दुख है। जो अपने से जितना ज्यादा दूर, उतना ज्यादा दुखी। जो
अपने से जितना पास, उतना ज्यादा सुखी। जो अपने में बिलकुल
डूब गया, वह परम आनंद को उपलब्ध हो गया।
'जो बाल्यावस्था में ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते हैं।’
बुद्ध
का सूत्र है कि तृष्णा क्यों दिखायी नहीं पड़ती? अंधे हम क्यों हैं? जो है इतनी प्रगाढ़ता से, जो जीवन का आधार है,
वह दिखायी क्यों नहीं पड़ती?
'जो बाल्यावस्था में ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते, जो
युवावस्था में धन नहीं कमाते, वे वृद्धावस्था में मछलियों से
खाली तालाब के किनारे बैठे के क्रौंच पक्षी के समान चिंता को प्राप्त होते हैं।’
यह
शब्द चौंकाने वाला है। बुद्ध से सुनने की कल्पना भी नहीं होती कि बुद्ध कहेंगे कि
जो युवावस्था में धन नहीं कमाते, और जो बाल्यावस्था में ब्रह्मचर्य को उपलब्ध
नहीं होते। बुद्ध यह कह रहे हैं, जो जीवन की सरणी में चूक
जाते हैं। बाल्यावस्था ब्रह्मचर्य के लिए है। क्योंकि जितनी देर ब्रह्मचर्य टिक
जाए, जितनी देर बाल्यावस्था टिक जाए, उतनी
ही प्रज्ञा प्रखर हो जाती है। जितनी देर शक्ति बाहर न जाए, उतने
ही भीतर का अनुभव हो जाता है। एक बार भीतर का अनुभव हो जाए, फिर
जाओ बाहर। फिर तुम्हें बाहर अटकाएगा न, उलझाएगा न। तुम बाहर
भी रहोगे लेकिन भीतर का तुम्हें स्मरण भूलेगा न। वह सुख तुमने जाना।
यह
बडी सोचने जैसी बात है। भारत की आत्यंतिक खोजों में बड़ी बहुमूल्य खोज है। भारत
कहता है, पहले तुम भीतर का सुख जान लो, फिर जाओ बाहर। सब फीका—फीका
रहेगा। अगर भीतर का सुख जाने बिना बाहर चले गए, तो चूके। फिर
बाहर का सुख ही एकमात्र सुख मालूम होगा और दुख ही दुख पाओगे। और तुम्हें भीतर से
तुलना करने का कोई उपाय नहीं। तुमने अपना घर तो कभी जाना ही नहीं। तुम उससे तो
अनजाने ही बाहर निकल आए, बेहोश ही बाहर निकल आए।
अब
तुम खोजते फिरोगे छाव पराए घरों में, पराए छप्परों के नीचे से भगाए
जाओगे, हटाए जाओगे। तुम जानते ही नहीं कि अपना भी घर है एक,
और उसे तुम अपने भीतर लिए हो। वहां जाने के लिए कुछ भी नहीं करना है,
बस आंख बंद करनी है। वहां जाने के लिए कुछ भी नहीं करना है, बस न—करने का थोड़ा उपाय करना है। वहां जाने के लिए कुछ भी नहीं करना है,
थोड़े द्वार—दरवाजे बाहर के बंद करने हैं, ऊर्जा
को भीतर प्रवाहित होने देना है।
इसलिए
हमने यह चेष्टा की थी इस देश में—अनूठा प्रयोग था, कभी पृथ्वी पर कहीं और किया
नहीं गया और भारत भी करके उसे भटक गया, चूक गया। किया,
फिर भूल गया। प्रयोग बड़ा बहुमूल्य था। वह प्रयोग यह था कि हर बच्चा
ब्रह्मचर्य का अनुभव कर ले। चौदह साल तक ब्रह्मचर्य का अनुभव नहीं हो सकता। बच्चा
ब्रह्मचारी होता है, लेकिन अभी कामवासना नहीं उठी, इसलिए ब्रह्मचर्य का अनुभव नहीं हो सकता। अनुभव तो विपरीत में होता है।
काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद रेखा खींचनी पड़ती है, तब दिखायी
पड़ती है।
चौदह
साल तक सभी बच्चे ब्रह्मचारी हैं। लेकिन वह ब्रह्मचर्य अबोध है। चौदह और अट्ठाइस
के बीच में ब्रह्मचर्य हो,
तो अनुभव होगा। क्योंकि तब वासना खींचेगी बाहर, और ऊर्जा को भीतर रखने की साधना चलेगी, तो अनुभव
होगा। वासना के विपरीत, वासना के आकर्षण के विपरीत, वासना की काली तख्ती पर जब सफेद रेखा की तरह ब्रह्मचर्य प्रगट होगा,
तो बोधपूर्वक अनुभव होगा। चौदह साल तक सभी बच्चे ब्रह्मचारी हैं। उस
ब्रह्मचर्य का कोई पता नहीं। वह बेहोश है। विपरीत अभी पैदा नहीं हुआ, अभी आकर्षण जगा नहीं, अभी बाहर जाने का निमंत्रण
नहीं आया है, इसलिए भीतर रहने का अनुभव भी नहीं हो सकता।
विपरीत
में अनुभव होते हैं। चौदह और अट्ठाइस साल के बीच में ब्रह्मचर्य का अनुभव है। अगर
उस बीच ब्रह्मचर्य का अनुभव हो जाए, तो जीवन की बुनियाद रख गयी—ठीक जगह
बुनियाद रख गयी। यह अनुभव इतना महत्वपूर्ण है, इतना गहरा है,
इतनी सुरभि है इसकी, इतनी संपदा है इसमें कि
फिर संसार तुम्हें कुछ भी दे, तुम जानोगे यह ना—कुछ है।
तुम्हारे पास तुलना होगी। तुमने सोना जान लिया, अब तुम्हें
पीतल से कोई भरमा न सकेगा। तुमने हीरे जान लिए, अब रंगीन कंकड़—पत्थर
तुम्हें भुला न सकेंगे।
ब्रह्मचर्य
को हमने पहला कदम माना। फिर दूसरा कदम बुद्ध कहते हैं, युवावस्था
में जिसने धन नहीं कमाया। बचपन में जिसने ब्रह्मचर्य न साधा, युवावस्था में जिसने धन न कमाया। युवावस्था है महत्वाकांक्षा का क्षण।
बाहर को देख लेने का क्षण। बाहर से परिचित होने का क्षण।
ध्यान
रखना, अगर कोई व्यक्ति ब्रह्मचर्य में डूबा—डूबा भीतर ही रह जाए, तो सुख तो बहुत पाएगा, लेकिन यह कभी न समझ पाएगा कि
बाहर दुख है। और जब तक तुम यह न जान लो कि बाहर दुख है, तब
तक बाहर जाने की संभावना बनी है। किसी भी दिन तुम बाहर जा सकते हो। बाहर से रोकने
वाला अभी तुम्हारे पास कोई अनुभव नहीं है। बाहर जाना जरूरी है, ताकि बाहर से तुम मुक्त हो जाओ। फिर तुम्हें कोई बाहर न ले जा सकेगा।
भटकना जरूरी है, ठीक राह पर आने के लिए। अपने घर में प्रवेश
के लिए दूसरे घरों पर दस्तक देनी जरूरी है।
यह
ऊपर से उलटा दिखायी पड़ता है, लेकिन जीवन को समझो, ऐसा
ही जीवन का शास्त्र है। एस धम्मो सनंतनो।
बाहर
जाओ, घर की याद रहे। बाहर खूब घूमों, घर का रास्ता न भूले।
तुम घर से ठीक से परिचित हो जाओ, फिर जाओ। फिर बड़ी मौज से
जाओ, वह भी करना जरूरी है। वह जीवन का अनिवार्य शिक्षण है।
भीतर है आनंद, यह जानना जरूरी है। बाहर है दुख, यह भी जानना जरूरी है। ताकि भीतर होना शाश्वत हो जाए। फिर बाहर की कोई
कल्पना ही न उठे, स्वप्न न जगे।
'जो बाल्यावस्था में ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते, और
युवावस्था में धन नहीं कमाते.।’
धन
यानी महत्वाकांक्षा,
पद। वह जो व्यर्थ है, उसको भी इकट्ठा करना
जरूरी है। एक यहूदी रबाई से एक गरीब आदमी ने आकर कहा कि अब बहुत हो गया, मुझे मरने का आशीर्वाद दे दें। अब मुझे समझाएं मत। मैं बहुत बार पहले भी
आया, आप हर बार समझा—बुझाकर भेज देते हैं, अब मैं नहीं जी सकता। यह जीना नरक है। जरा सोचो भी तो, उसने कहा, एक छोटा सा कमरा, दस
बाई दस का। पानी भी बरसता है उसमें। उसी में मैं रहता हूं,
मेरी पत्नी रहती है, मेरे बच्चे रहते हैं। उसी में मेरी सास
रहती है, मेरा ससुर रहता है। उसी में मेरी मां, उसी में मेरे पिता। नहीं, अब यह बहुत हो गया। यह तो
महानायक है। हिलने —डुलने की भी जगह नहीं है। और सब एक—दूसरे से चिड़चिड़े और क्रोध
से भरे रहते हैं। थोड़ा एकांत भी चाहिए। और हमारी सामर्थ्य नहीं कि हम और कोई मकान
खरीद सकें, या कहीं जा सकें। मरने की आशा दे दें।
उस
के रबाई ने कहा,
एक बात। इस बार तुम्हें रोकूंगा न, बस सात दिन
और रुक जाओ। तुम्हारे पास कितने जानवर हैं? उसने कहा कि एक
कुत्ता है, छह बकरियां हैं, बारह भेड़ें
हैं, एक गाय है, उसका एक बछड़ा है। तुम
ऐसा करो, इन सबको भी कमरे में ले लो। उसने कहा, पागल हो गए हैं आप! दिमाग खराब हो गया है! हम वैसे ही मरे जा रहे हैं,
इनको भी कमरे में ले लूं? खड़े होने की भी जगह
न रहेगी। उस रबाई ने कहा, सात ही दिन का मामला है, फिर तुम मर जाना। इतना तो मान लो। मैं बूढा आदमी। सदा तुमने मेरी मानी,
मरते वक्त तो न टालो।
उसने
कहा, हद्द की बात हो गयी। तुम फिर से सोचो, क्या कह रहे
हो? मैं यह कल्पना ही करके घबड़ाता हूं। सात दिन जिंदा ही न
रहूंगा, मरने की बात ही अलग है। मरेगा कौन? मर ही जाएंगे सभी। कोई फिकर नहीं, जब मरना ही है तो
इसकी भी क्या फिकर।
रबाई
ने जिद्द की,
गरीब यहूदी कुछ सोच न सका, घर चला आया। घर के
लोगों से कहा, रबाई ने कहा है तो मानना ही पड़ेगा। घर के लोग
भी चिल्लाए कि हद्द हो गयी। वैसे ही मरे जा रहे हैं, ये
बकरियां, कुत्ता, गाय, भेडें! तुम. तुम्हारा दिमाग ठीक है? वे भी भागे गए,
रबाई से पूछा। रबाई ने कहा, हौ, मैंने कहा है। करने दो। जब रबाई कहता है तो फिर करना पड़ता है।
ले
लिया सबको अंदर। वे सात दिन महानर्क के थे। नर्क भी फीका पड़ जाए। सात दिन बाद वह
आदमी आया। रबाई ने कहा,
अब मरने के पहले उन सबको घर के बाहर कर दे। उसने घर के बाहर किया।
रबाई दो —तीन दिन प्रतीक्षा किया, वह लौटा नहीं। वह गया रबाई
उसके घर, कहा क्या मामला है? मरना नहीं
है? उसने कहा, अरे छोड़ो, हम जीवन का ऐसा आनंद भोग रहे हैं! ऐसा आनंद कभी जाना ही न था। और घर में
ऐसा प्रेम— भाव पैदा हुआ है! हम सब एक—दूसरे में इतने और इतनी जगह मालूम होती है!
कमरा वही है। बड़ी जगह मालूम होती है। और बड़ा रस। कौन मरता है? तुम्हारी बड़ी कृपा। अगर कभी फिर मरने लग र यही इलाज तुम फिर बताना।
जिंदगी
ऐसी है। यहां विपरीत से अनुभव होते हैं। यहां दुख भी दिशा देता है। यहां नर्क भी
स्वर्ग की तरफ तीर बताता है।
'जो बाल्यावस्था में ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते हैं, युवावस्था में धन नहीं कमाते, वृद्धावस्था में
मछलियों से खाली तालाब के किनारे बैठे के क्रौंच पक्षी के समान चिंता को प्राप्त
होते हैं।’
उनका
वार्द्धक्य धूप में पकाए गए बाल सिद्ध होते हैं, जिन्होंने बचपन में
ब्रह्मचर्य न जाना, और जवानी में जिन्होंने राग—रंग न जाना।
जिन्होंने जवानी का ज्वर न जाना, बचपन की शांति न जानी,
उनका बुढ़ापा कोरा, खाली होता है। उनके पास कोई
संपदा नहीं। वे ऐसे तालाब के किनारे बैठे हैं, बुद्ध कहते
हैं, जिसमें मछलियां नहीं, बंसी लटकाए
हैं।
'जो बाल्यावस्था में ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते, युवावस्था
में धन नहीं कमाते, वे वृद्धावस्था में धनुष से छोड़े गए बाण
की भांति अपनी पुरानी बातों को ही कह—कहकर चिंतित पड़े रहते हैं।’
उनके
पास फिर कुछ करने को नहीं रहता, सोचने को भी नहीं रहता। वे पुराने अतीत को ही
जुगाली करते हैं। के अक्सर तुम्हें जुगाली करते मिलेंगे। जब किसी के को तुम जुगाली
करते देखो, तो जान लेना, के क्रौंच
पक्षी की भांति। ऐसे ही तालाब में बैठा है बंसी लटकाकर जहां मछलियां नहीं हैं। जब
किसी बूढ़े को तुम जुगाली करते देखो, जब वह कहे कि मालूम है,
मैं डिप्टी कलेक्टर था, तब तुम समझ जाना। कि
पता है, हमने जमाना देखा है। कि अब वे दिन न रहे। सभी को ऐसा
लगता है। सभी को ऐसा लगता है कि—
अपने
युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुआ अपना
प्याला
फिर
भी वृद्धों से जब पूछा,
एक यही उत्तर पाया—
अब
न रहे वे पीने वाले अब न रही वह मधुशाला
सभी
को ऐसा लगता है कि वे जो उन्होंने पीए थे दिन!
लेकिन
जो आदमी पीछे लौट—लौटकर देखता है, वह इतना ही बता रहा है कि उसके हाथ खाली हैं।
क्योंकि जिस व्यक्ति ने ठीक से जीवन को जीया है, बुढ़ापे में
वह वर्तमान में जीने लगता है। सारे जीवन का शिक्षण—बचपन का ब्रह्मचर्य, फिर बाद की गृहस्थावस्था, बाहर— भीतर दोनों उसने जान
लिए। अब जानने को कुछ भी न बचा। व्यर्थ को उसने व्यर्थ की तरह जान लिया। सार्थक को
सार्थक की तरह जान लिया। तो के में एक गरिमा प्रगट होती है।
रवींद्रनाथ
ने कहा है कि जैसा सौंदर्य बुढ़ापे का है, वैसा किसी और अवस्था का नहीं। सच
है यह बात। बूढ़े के सफेद बाल ऐसे ही हैं जैसे हिम—शिखर। हिमालय के शिखर पर सफेद
बर्फ। जवानी सुंदर है, लेकिन बड़ी उत्तेजित है। बचपन सुंदर है,
पर बड़ा अबोध है। बुढ़ापा सुंदर है—न तो अबोध, न
उत्तेजित।
लेकिन
के कम ही सुंदर दिखायी पड़ते हैं, क्योंकि बचपन ही चूक गया, आधार ही चूक गया। जवानी भी व्यर्थ गयी, बचपन भी
व्यर्थ गया, सब ऐसे ही गया, तो बुढ़ापा
खाली रह जाता है।
वृद्धावस्था
बड़ी संपदा है। इसीलिए तो हमने इस देश में वृद्धों को बड़ा आदर दिया था। हमने जाने
ऐसे वृद्ध, जो समृद्ध थे। हमने उनके पैर छुए।
यह
बात इतनी गहरी हो गयी थी कि फिर हम तो को को सिर्फ के होने की वजह से आदर देने लगे।
सारी
दुनिया में—खासकर पश्चिम में—बूढ़ों का कोई समादर नहीं है। हो भी नहीं सकता।
क्योंकि पश्चिम का बूढ़ा बिलकुल थोथा है। क्रौंच पक्षी की भांति। बैठे हैं बंसी
लटकाए। मछलियां वगैरह हैं ही नहीं। तालाब भी न हो, हो सकता है वे टब में बैठे
हों, और वहीं.....।
अंग्रेजी
में शब्द है,
ड़र्टी ओल्ड मैन, वह बिलकुल ठीक है। जिंदगी
ऐसे ही गयी। अब वह गंदगी जो जवानी में ठीक था, वही बुढ़ापे
में गंदगी हो जाती है। जवानी में उचित था कि प्रेम का सोचा होता, गीत गाए होते, नाचे होते, मधुशाला
की तरफ गए होते, स्त्री—पुरुष में रंग—रस लिया होता, वह जरूरी था, वह उचित था। वह तो चूक गया, वह भी चूक गया। उचित था कि बचपन में ब्रह्मचर्य जाना होता। वह प्रगाढ़ शांति
जानी होती अपने भीतर होने की, जो बीज जानता है। ऐसा
ब्रह्मचर्य जाना होता, जब अंकुर भी नहीं फूटा। फिर जवानी में
फूल जाने होते। तो फिर पतझड़ भी बड़ा सुंदर हो जाता है।
पतझड़
की शांति! बसंत उसका मुकाबला नहीं कर सकता। पतझड़ में उड़ते सूखे पत्तों का संगीत!
नहीं, बसंत के कोई पक्षी उसका मुकाबला नहीं कर सकते। मगर हो, तब! साधारणत: तो हम बूढ़ों को जिस ढंग से देखते हैं, ऐसा
लगता है—
यह
हसरत रह गयी,
किस—किस मजे से जिंदगी करते
यह
हसरत रह गयी,
किस—किस मजे से जिंदगी करते
अगर
होता चमन अपना,
गुल अपना, बागवां अपना
बस
सोचते हैं, कैसा—कैसा मजा न करते। किया कभी नहीं। अब सपने देखते हैं। अब शक्ति खो गयी।
अब सिर्फ सपने में ही सोच सकते हैं।
हुई
मुद्दत कि गालिब मर गया,
पर याद आता है
वह
हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता
सभी
के यही कर रहे हैं—यूं होता तो क्या होता! चूक गए, चली हुई कारतूस हैं। खाली
कारतूस, चल चुकी। अब रो रहे हैं—यूं होता तो क्या होता! इस
तरह चलना था, इस तरह चोट करनी थी।
बुद्ध
कहते हैं—समस्त बुद्धपुरुष यही कहते हैं —कि अगर ठीक निशाने पर पहुंचना हो तो बचपन
से ही यात्रा ठीक दिशा में चल पड़नी चाहिए। यहां एक—एक कदम सुनियोजित होना चाहिए।
बचपन
ब्रह्मचर्य का,
स्वयं को जानने का। फिर जवानी घर बसाने की, गृहकारक
को पहचानने की, तृष्णा में फैलने की—मगर भूलने की नहीं।
तृष्णा में दूर तक जाने की, मगर अपने भीतर से जड़ें न उखड़
जाएं; केंद्रित रहते हुए दूर तक परिधि को फैलाने की, महत्वाकांक्षा को दूर तक दौड़ाने की। उड़ना दूर तक, जैसे
कबूतर उड़ जाते हैं; लेकिन लौट—लौट आते हैं, अपने घर पर वापस आ जाते हैं। फैलाना दूर तक अपना जाल, क्योंकि वह भी जरूरी है, अन्यथा पीछे पछताओगे जब
शक्ति न रहेगी। जब शक्ति है तब फैला लेना, ताकि फैलाने से भी
छुटकारा हो जाए। ताकि तुम जान लो—सब व्यर्थ है। जवानी व्यर्थ को जानने का अवसर है।
फिर वानप्रस्थ। जब तुम व्यर्थ को जानने लगो, तो फैलाए जाल को
समेटने लगना, जैसे मछुआ जाल को समेटता है, या दुकानदार अपनी दुकान को समेटता है—सांझ हो गयी, बाजार
उजड़ने लगा, लोग जाने लगे। वानप्रस्थ है समेटना। जो फैलाया था
जवानी में, उसे वानप्रस्थ में समेट लेना।
फिर
है संन्यास। संन्यास है घर वापस लौट आना। फिर उसी जगह, जहां बचपन
में थे। वह पुनर्जन्म है! इसी को जीसस ने कहा है, केवल वे ही
जो बच्चों की भांति हैं, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर
सकेंगे। लेकिन ईसाइयों के पास इसका पूरा सूत्र नहीं है। जीसस ने इस देश से ही सीखा
होगा। बुद्ध का वचन ही कहीं उनके कान में पड़ा होगा। फिर ब्रह्मचर्य, संन्यास। ब्रह्मचर्य से शुरुआत, ब्रह्मचर्य पर अंत।
वर्तुल पूरा हुआ। यात्रा संपूर्ण हुई।
लेकिन
एक—एक कदम का अपना—अपना अर्थ है। एक भी कदम व्यर्थ नहीं है। यह दूसरी बात है कि
अगर कोई बहुत मेधावान व्यक्ति हो, तो इन कदमों को जल्दी उठा लेगा। कोई जरूरी नहीं
कि पच्चीस—पच्चीस साल के ही हों। यह तो औसत बात है।
अगर
मेधावान व्यक्ति हो तो तैंतीस साल में सब कदम उठा लिए—शंकराचार्य ने नौ वर्ष में
संन्यास ले लिया। जहां पचहत्तर साल में घटना घटती, वह नौ वर्ष में घट गयी।
मानसिक—उम्र बड़ी गहरी है। प्रज्ञा बड़ी प्रखर है।
बुद्ध
जवान थे तब संन्यस्त हो गए। आंखें बड़ी
पैनी रही होंगी। जो हमें देखने में कई सदियां लग जाती हैं, सैकड़ों
जन्म लग जाते हैं, या कई वर्ष लग जाते हैं, वह बुद्ध को जल्दी ही दिखायी पड़ गया। तुमने भी देखा है मरते लोगों को। रोज
मरघट कोई जाता है। लेकिन बुद्ध ने एक बार देखा, बात खतम हो
गयी। कहते हैं, बस एक बार ही देखा। मुर्दे को देखा, बात खतम हो गयी। बुद्ध ने पूछा, क्या मैं भी मर
जाऊंगा? पाया उत्तर कि कोई भी बच नहीं सकता, मरना सभी को पड़ेगा। बुद्ध ने कहा, रथ घर वापस लौटा
लो, बात खतम हो गयी। जहां मरना है, वहा
जीने की आकांक्षा व्यर्थ है। तो मैं उसको
खोजूं जो मरने के बाद मिलेगा, उसको अभी खोज लूं र क्योंकि
समय क्यों गंवाना है! जब मौत आनी ही है, आ गयी। बड़ी गहरी आंख
रही होगी। बड़ी प्रज्ञा रही होगी।
तो
बुद्ध यह नहीं कह रहे हैं तुमसे कि जब पचहत्तर साल के हो जाओ, तभी संन्यास
लेना। बुद्ध यह कह रहे हैं, पचहत्तर साल के हो जाओ तब तो ले
ही लेना। बुद्ध तो यह कह रहे हैं कि जब तुम्हारे पास आंख आ जाए, तब ले लेना। जिसके पास तीव्र प्रतिभा है, वह थोड़े ही
अनुभवों से सीख जाता है। एक संभोग से सीख जाता है कि संभोग व्यर्थ है। एक पद पर
पहुंचकर जान जाता है कि पद व्यर्थ है। लाख रुपए कमा लिए, समझ
लिया, हो गया खतम। हजार रुपए कमाकर भी समझ लेता है, खतम है। अगर प्रज्ञा बहुत प्रखर हो, एक पैसा भी हाथ
में रखकर समझ लेता है, मिट्टी। बात खतम हो गयी।
प्रज्ञा
की प्रखरता पर निर्भर होता है। नहीं तो दस करोड़ भी इकट्ठे कर लो, क्या फर्क
क्या पड़ता है? बचकाना मन कहे चला जाता है, थोड़ा और, क्या पता दस करोड़ और एक रुपए पर सुख मिलता
हो। क्या पता एक कदम और, थोड़े और चलो, अभी
तो जवान हो। अभी तो शक्ति पास है, थोड़े और दौड़ लो, फिर तो मरना ही है। इतनी जल्दी क्या छोड़ना? तृष्णा
दौड़ाए लिए चली जाती है। और इस जगत में जहां तृष्णा दौड़ाती है, तो वहा दूसरे से तो परिचय मुश्किल ही है, अपने से ही
परिचय नहीं हो पाता। मेरे सिरहाने जलता है जो एक दीप
कल
हंसकर मैंने था यह प्रश्न किया क्या बतला सकते हो तुम ओ मेरे साथी!
कब
मेरी आंखों ने तुमको स्नेह दिया? वह नीचे नजरें करके सकुचाकर यों बोला
मैंने
देखी है बुझी सुबह और जली शाम
शायद
तुमको तो पहली बार निहारा है
इसलिए
नहीं मालूम तुम्हारा नाम— धाम। ऐसे ही मैंने पूछा पथ के पत्थर से जिस पथ में
वर्षों से चलने का मैं अभ्यासी वह बोला तुमसे कितने आए, चले गए
क्या मुझे पता तुम कौन देश के हो वासी?
जब
एक लहर से कहा कि क्षणभर रुक जाओ सुन लो मेरे जीवन की करुण—कहानी तुम
वह
तुनुक गयी, बोली फुरसत है मुझे कहां
जो
देखूं मैं गुमसुमी निगाहें यह पुरनम?
यहां
कौन तुम्हें पहचान सकता है?
तुम्हीं अपने को नहीं पहचानते। जिसने वस्तुएं इकट्ठी करके सोचा कि
कुछ जान लेगा, उसने जानने के क्षण व्यर्थ ही गंवाए। जिसने
दूसरों से दोस्ती बांधकर सोचा कि दोस्ती बनी, उसने संग—साथ
के भ्रम में असली का साथ न किया, जिसका साथ हो सकता था। तुम
ही हो अपने साथी।
तुम्हारे
भीतर का साक्षीभाव ही है तुम्हारा एकमात्र संगी। उसे ही जगाओ।
जीवन
के दो ढंग हैं—तृष्णा का और साक्षी का। या तो सोए—सोए जीयो, तब तृष्णा
तुम्हारी गरदन को पकड़े रहती है। या जागो, होश सम्हालो,
आंखें खोलो, प्रज्ञा को निखारो, साक्षी बनो—जो भी करो देखते हुए
करो, श्वास भी चले तो देखते हुए चले, हाथ
भी हिले तो देखते हुए हिले। साक्षी को जिसने पकड़ा, उसकी
तृष्णा गयी। जो साक्षी को पा लेता है, —वही बुद्धत्व को
उपलब्ध हो जाता है।
तृष्णा
में बहुत दिन जीए—बहुत जन्म जीए— थोड़ा साक्षी की तरफ चेष्टा करो, प्रयास
करो।
आज
इतना ही।
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