शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-55



मुझे शास्त्र नहीं, अनुभव बनाओ—प्रवचन—55  


पहला प्रश्न


भगवान श्री, अर्थ तो कमाया, पर शुरूआत ही गलत हो गयी। कोई छह—सात साल का ही था जब कामवासना सक्रिय हो गयी। और दस से छत्तीस की उस तक इस कदर वीर्य स्‍खलितत किया कि कोई हिसाब नहीं! और यह भी बता दूं कि केवल सात महीने ही मां के गर्भ में रहकर मैं बाहर आ गया था। आपका स्वभाव कल से बेचैन है। जब वह वीर्य न बचा सका, तब प्रज्ञा कैसे पैदा हो? तभी तो मूड़ हूं और बिना जाने जानने का दावा करता हूं। संन्यास लेकर भी पलायन ही कर रहा हूं। क्रोध और अहंकार से बुरी तरह ग्रसित हूं। बस चमड़ी—मास ही बढ़ा है। स्वभाव खुद कर—करके हार गया, प्रभु! अब आप ही कछ करें।

हली बात, जो बीता सो बीता। जो हुआ उसे न तो अनहुआ किया जा सकता है, न करने की चेष्टा में व्यर्थ समय गंवाने की कोई जरूरत है। अतीत के लिए रोओ मत, भविष्य के लिए प्रार्थना करो।

अतीत के लिए पछताओ मत, क्योंकि उस पछतावे में भी गंवाया गया समय फिर लौटकर नहीं आएगा। उतना समय तो गया। कुछ किया नहीं जा सकता। जो गया, गया। अब पछताओ मत। क्योंकि पछतावे में गया समय भी व्यर्थ जाएगा। व्यर्थ के कामों में समय जाता है, फिर व्यर्थ के कामों के पछतावे में समय जाता है। मूल तो गया ही गया, अब तुम व्यर्थ ब्याज भी गंवा रहे हो।
तो पहली तो बात खयाल रखो, अतीत के लिए पछतावा नासमझी है। अतीत का अर्थ ही यह है कि जो अब हमारे हाथ के बाहर हुआ—तीर छूट चुका। अब उसे वापस तुम तरकस में न लौटा सकोगे। लेकिन चिंता का कोई कारण नहीं। यह चिंता भी उसी मन का जाल है जिसने अतीत को गंवाया। अब वही मन चिंतातुर होकर वर्तमान को गंवाएगा। तब किसी दिन भविष्य में, जब भविष्य वर्तमान बनेगा, तुम पछतावे के लिए पछताओगे। ऐसा चक्र है—दुष्ट—चक्र—जिसमें आदमी फंसता चला जाता है।
बहुत ठीक से सभी के समझ लेने की बात है, किसी एक के नहीं। क्योंकि प्रश्न होंगे अलग— अलग, लेकिन इस संबंध में सभी का प्रश्न एक है। अतीत के लिए सभी पछताते हैं। कोई कामवासना में गंवाया है, इसलिए पछताता है। किसी ने क्रोध में गंवाया है, इसलिए पछताता है। किसी ने लोभ में गंवाया है, इसलिए पछताता है। अतीत के लिए सभी पछताते हैं। और इससे बड़ी कोई कूता नहीं है। कुछ किया ही नहीं जा सकता। जब कुछ किया ही नहीं जा सकता, छोडो बात। कल नहीं जाग पाए, सोए, फिक्र छोड़ो, अब तो बीते कल में जाग न सकोगे। आज जागो। आज ही प्रारंभ है।
देर कितनी ही हो गयी हो, इतनी देर कभी नहीं हो जाती कि जीवन रूपांतरित न हो जाए। अगर इतनी समझ भी शेष है कि अतीत मैंने व्यर्थ गंवाया, तो काफी समझ शेष है। एक किरण भी शेष है, तो सूरज को खोजा जा सकता है। एक बीज भी शेष है, तो पूरा उपवन निर्मित किया जा सकता है।
और इतना कोई कभी नहीं गंवाता कि सभी कुछ गंवा दे। गंवा ही नहीं सकता। क्योंकि संपदा हमारा अंतर—स्वभाव है। हम कितना ही गंवाएं, गंवाने से हम मुश्किलें खड़ी कर देते हैं स्वयं तक आने में, लेकिन स्वयं नष्ट नहीं हो जाता। समय हम कितना ही व्यर्थ करें, इससे स्वयं व्यर्थ नहीं हो जाता। तुम आज भी लौट सकते हो। तुम आज भी अंतर्यात्रा पर आ सकते हो। थोड़ी अड़चन होगी।
कल जो मैंने कहा, वह तुम्हें निराश करने को नहीं कहा है, वह तुम्हें सजग हौने को कहा है। यही मनुष्य का उलझाव है, जो सुलझाव के लिए कहा जाता है, उससे भी उलझाव खड़ा हो जाता है। कल जो मैंने कहा, वह तुम्हें उदास होने को नहीं कहा है। इसलिए नहीं कहा कि तुम अतीत के लिए पछताओ। इसलिए कहा है कि ऐसे भी देर बहुत हो गयी है, पर अब और देर मत करो। जब जागे, तभी सुबह।
यदि बचपन ब्रह्मचर्य में बीता होता, तो अंतर्यात्रा सुगम होती, रास्ते पर कंकड़—पत्थर न होते, फूल बिछे होते। रास्ता अभी भी है। फूल नहीं हैं। थोड़ा कंटकाकीर्ण होगा, थोड़े कंकड़—पत्थर होंगे, ऊबड़—खाबड़ होगा, बस इतना ही फर्क पड़ रहा है। जहां सुगमता से यात्रा हो सकती थी, वहां थोड़ी दुर्गम होगी। जहां क्षण में पहुंचा जा सकता था, वहां थोड़ा ज्यादा समय लगेगा। थोड़ा तप होगा, थोडी कठिनाई होगी। हांपोगे थोड़े, पसीना बहेगा थोड़ा। बहुत नीचे उतर गए, चढ़ना होगा। ब्रह्मचर्य होता, उतरे ही न होते, चोटी पर ही होते। चलना समतल भूमि में होता। खाई—खड्ड में उतर गए, चढ़ना होगा। बस इतनी ही बात है। पछताओ मत। इतनी ही शक्ति को तपश्चर्या में लगाओ, चढ़ने में लगाओ।
और चढ़ने को दुख और उदासी से मत करो। सौभाग्य समझो कि अभी भी जाग गए। बहुत हैं जो अभी भी नहीं जागे। तुम छोटे ही गड्डे में उतरकर जाग गए, बहुत हैं जो गहरी खाइयों में उतर गए हैं और उतरे ही चले जाते हैं।
सदा जीवन का विधायक रूप देखो, ताकि तुम उदास न हो जाओ। क्योंकि जो उदास है, उसके पैरों में पत्थर बंध जाते हैं। क्योंकि जो निराश है, वह थककर बैठ जाता है। और मैं कई लोगों को जानता हूं जो मंजिल के सामने ही थककर बैठ गए हैं। उठ जाएं तो मंजिल सामने है।
अक्सर ऐसा होता है। लंबी यात्रा तो लोग पार कर लेते हैं, फिर जब मंजिल करीब आ जाती है, तब थककर बैठ जाते हैं। दो कदम चलना मुश्किल हो जाता है। लंबी यात्रा तो आशा में कर लेते हैं पूरी, जब मंजिल सामने आती है, तब अपनी थकान का अनुभव होता है, बैठ जाते हैं। कहते हैं, अब तो पास है, अब तो पहुंच जाएंगे। बैठकर सो भी सकते हो! और मंजिल कुछ ऐसी है—गत्यात्मक है—तुम बैठ जाओगे, मंजिल बैठी न रहेगी। मंजिल भाग रही है। जब आंख खोलोगे, शायद पाओ कि मंजिल अब सामने नहीं है। किसी क्षण में थी। किसी भाव—दशा में सामने थी। किसी दूसरी भाव—दशा में सामने न होगी।
मंजिल कोई थिर चीज नहीं है, कोई वस्तु नहीं है, भावोन्मेष है। तो किसी प्रेम के क्षण में, प्रार्थना के क्षण में पास होती है। जब प्रेम खो जाता है, प्रार्थना खो जाती ???, दूर हो जाती है। दूरी और पास होना तुम्हारे मन की अवस्थाओं पर निर्भर है। जब मन बिलकुल नहीं होता, तो तुम मंजिल के भीतर होते हो, तुम भवन के भीतर होते। : ), मंदिर के भीतर होते हो।
जो गया, गया। चिंता का कोई भी कारण नहीं। सभी ने गंवाया है, तुमने अकेले थोड़े ही गंवाया है। सभी भटके हैं, तुम अकेले थोड़े ही भटके हो। शायद भटकाव  ''।ाई जरूरी था। शायद वही भटकाव तुम्हें मेरे पास ले आया है। इसे मैं कहता हूं गी वन को विधायक ढंग से देखने की दृष्टि।
कुछ दिन हुए एक शराबी आया। उसने कहा कि मैं बरबाद हो गया शराब पी— पीकर। अब तो छोड़ भी नहीं सकता हूं। ऐसी गहन आदत बन गयी। मन की ही नहीं, शरीर की भी आदत बन गयी है। अब तो छोड़ता हूं तो शरीर में भी बेचैनी अनुभव होती है। अब तो मेरे चिकित्सक भी कहते हैं कि छोड़ना आसान न होगा। शरीर की जरूरत हो गयी है। मैंने तो जीवन यूं ही गंवाया! वह रोने लगा। उसने सिर पीट लिया।
मैंने कहा, इसे भी थोड़ा गौर से देख, बहुत हैं जो शराबी नहीं हैं और मेरे पास नहीं आए। शायद तेरी शराब ही तुझे मेरे पास ले आयी। शराब को भी धन्यवाद दे। जीवन को शुभ की दिशा से देख। कभी—कभी मंदिर का रास्ता मधुशाला से होकर भी जाता है। कभी—कभी मंदिर के पड़ोस में जो रहता है, वह चूक जाता है, और मधुशाला से आने वाला पहुंच जाता है। उठने के लिए गिरना जैसे जरूरी है, पाने के लिए खोना जरूरी है। नहीं तो पाने का पता ही नहीं चलता। इसीलिए तो हम बचपन को खोते। अब दुबारा जब हम बचपन को पाएंगे होशपूर्वक, खोजेंगे, निर्मित करेंगे—तब हम समझेंगे उस सौभाग्य को। सभी बच्चे रहे हैं। लेकिन किसने जाना उस सौभाग्य को! यूं ही गंवा दिया। और जीसस कहते हैं, जो बच्चों की भांति होंगे, वे मेरे प्रभु के राज्य के अधिकारी। और हम सभी बच्चे थे। और जब हम बच्चे थे, तब हमें कुछ भी पता न चला कि हम प्रभु के राज्य के अधिकारी! राज्य के भीतर थे, पता कैसे चलता?
मछली को पता चलता है सरोवर का, जब मछुआ उसे जाल में खींचकर रेत पर पटक लेता है। तब फड़फड़ाती है। तब रोती—चिल्लाती है। तब वह कहती है, हाय, यह जाना ही न अब तक कि मैं सरोवर में थी! सरोवर को जानना हो तो रेत पर तड़फना जरूरी है। ऐसा जीवन का गणित है।
तो घबड़ाओ मत। जो हुआ, हुआ। तडूफ लिए रेत पर काफी। इतना जीवन भी अगर शेष है कि तडूफन अनुभव होती है, तो सरोवर दूर नहीं है। कहीं पास ही है। रेत से सरोवर कितनी दूर हो सकता है! रेत जल के पास ही पास है। जल के किनारे पर ही रेत है। अगर तडूफ रहे हो, तडुफन को छलांग बनाओ। उछलो। कई बार तो ऐसा होता है कि आकस्मिक रूप से उछलती मछली रेत में, पानी में वापस पहुंच जाती है। रास्ता भी पता नहीं होता। कहा जाए? तडूफ इतनी होती है कि आंखें  अंधी हो जाती हैं, बुद्धि धुंधली हो जाती है, लेकिन तडूफ ही ले जाती है। तडूफ ही ले गयी है। भक्तों से पूछो! वे कहते हैं, जो तडुफा, उसने पाया। जो रोया, उसे मिला। दिल भरकर रो लो। आंसू धो देंगे। जीवन को लेकिन विधायक ढंग से देखो।
चल रहा है पर पहुंचना लक्ष्य पर इसका अनिश्चित
कर्म कर भी कर्मफल से यदि रहा यह पाथ वंचित विश्व तो उस पर हंसेगा खूब भूला, खूब भटका
किंतु गा यह पंक्तियां दो वह करेगा धैर्य संचित

जूझे शास्त्र नही, अनुभव बनाओ  व्यर्थ जीवन, व्यर्थ जीवन की रटन क्या
दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं
यही श्रद्धा है कि परमात्मा तुम्हारी बाट जोहता है। कितने ही दूर चले गए, सत्य तुम्हारी प्रतीक्षा करता है। तुम्हीं नहीं खोज रहे हो, परमात्मा भी तुम्हें अंधेरे में खोज रहा है। जीसस ने कहा है, गड़रिया आता है सांझ, सूरज के ढले, अपनी गाड़से को सम्हालता हुआ, भेड़ों को सम्हालता हुआ। अचानक पाता है, एक खो गयी। सबको छोड़ देता है वहीं, उस एक की तलाश में निकल जाता है। उस अंधेरी रात में सबको छोड़ जाता है असहाय। उस एक की खोज में निकल जाता है, जो भटक गयी। और जब उसे पा लेता है, तो उसे कंधे पर रखकर लौटता है।
ठीक कहा, जानकर कहा, पता है जीसस को जो वे कह रहे हैं।
किंतु गा यह पंक्तियां दो वह करेगा धैर्य संचित
व्यर्थ जीवन, व्यर्थ जीवन की रटन क्या दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खडे हैं
जो गया, गया। व्यर्थ था, व्यर्थ सही। पर कोई तुम्हारी प्रतीक्षा करता है। तुम्हीं नहीं खोजते, परमात्मा भी खोजता है। अगर तुम्हीं खोजते और वह न खोजता, तो मिलना हो ही नहीं सकता था। मिलना कहीं एकतरफा हुआ है? ताली दो हाथों से बजती है। तुम अकेले ही ताली बजाते होते और परमात्मा का हाथ उत्सुक न होता, ताली बजने वाली नहीं थी। ताली बहुत बार बजी है। उसका हाथ भी आतुर है। उतना ही, जितना तुम्हारा।
पंथ जीवन का चुनौती दे रहा है हर कदम पर
आखिरी मंजिल नहीं होती कहीं भी दृष्टिगोचर
धूल से लद, स्वेद से सिंच हो गयी है देह भारी
कौन—सा विश्वास मुझको खींचता जाता निरंतर
पंथ क्या, पथ की थकन क्या, स्वेदकण क्या, दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं
मत देखो धूल जो राह पर इकट्ठी हो गयी। मत गिनो शल जो राह पर मिले। नजरें उठाओ— दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खडे हैं
भक्त की भाषा बोलो, तो भगवान तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। ज्ञानी की भाषा बोलो, सत्य आतुर है अनावृत्त होने को। जैसे दुल्हन आतुर है—आए दूल्हा, उठाए ह)घट। सत्य आतुर है। घबड़ाओ मत। भूलों—फ्लो का हिसाब मत रखो। परमात्मा कृपण नहीं, कंजूस नहीं। पंडितों ने, पुरोहितों ने तुमसे कितना ही कहा हो कि वह तुम्हारे पापों का हिसाब रखेगा, मैं तुमसे कहता हूं, वह पापों का हिसाब रख ही नहीं सकता। परमात्मा और पापों का हिसाब रखे, यह बात ही कुछ बड़ी दुकानदारी की हो जाती है। तुम कितने ही भटको — भूलो, तुम कितने ही अंधकार में निकल जाओ, उसका हाथ तुम्हें खोज ही रहा है। इसलिए विधायक—दृष्टि को पकड़ो।
पहली बात, जो हुआ हुआ। समझो कि देखा था एक दुख—स्वप्न। इससे ज्यादा है भी नहीं तुम्हारी जिंदगी। ब्रह्मचर्य भी एक मधुर—स्वप्न है। ब्रह्मचर्य भी एक मधुर—स्वप्न है! निश्चित ही रात अगर मधुर—स्वप्न देखे, तो सुबह तुम थोडे ज्यादा मुस्कुराते उठते हो। बस इतना ही फर्क है। रात दुख—स्वप्‍न देखे, छाती पर राक्षसों को सवार देखा, पहाड़ से गिराए गए, चट्टानों पर पीटे गए, छाती पर हिमालय रख दिया किसी ने, सुबह उठते हो थोड़े परेशान से।
लेकिन परेशानी कितनी देर टिकती है? आखिर यह भी सपना है। दुख—स्वप्न, नाइटमेयर, पर है तो सपना ही। और मधुर सपनों से मिली हुई ताजगी, गंध, वह भी कितनी देर टिकती है? घड़ी में दोनों खो जाते हैं। जागो। ब्रह्मचर्य, व्यभिचार दोनों निद्रा में हुए हैं। हो सकता कि मधुर सपने देख लेते—जब सपने देखने ही थे, मधुर देख लेते, अच्छा! न देख पाए, छोड़ो। सपने सपने हैं।
अब तुम देखना, मन का उलझाव क्या है! जब मैं कह रहा हूं सपने सपने हैं, तब जिन्हें व्यभिचार करना है, वे कहेंगे, अरे! पहले न सोचा, चलो अभी भी क्या देर हुई, अगर सपने ही हैं दोनों, तो फिर व्यभिचार ही चुन लो। फिर ब्रह्मचर्य की पंचायत क्या! कल मैंने तुमसे कहा था, अगर ब्रह्मचर्य हो, सत्य के पास आना सुगम हो जाएगा। तो तुमने सोचा, बड़े पाप किए, व्यभिचार किया, बड़े भोग में डूबे रहे; तो तुम थके —मांदे, उदास, धूल—सने, परेशान, व्यथित आ गए। कल मैंने कहा था, यदि बच्चे ब्रह्मचर्य में पल सकें, तो उन्हें संसार का अनुभव प्रगाढ़ होगा। ब्रह्मचर्य की पृष्ठभूमि में जीवन की सारी रेखाएं साफ उभर आएंगी।
तुम्हें उदास करने को न कहा था। अब तुम तो बच्चे हो नहीं सकते—इस जन्म में तो नहीं। अगले जन्म में होओगे, अगर न जागे तो होना ही पड़ेगा। खयाल रखना! खैर, अगले जन्म में तुम शायद भूल ही जाओगे, क्योंकि होश से मरोगे इसकी संभावना बहुत कम है। तो तुम्हारे बच्चे होंगे, कम से कम उनका खयाल रखना।
लेकिन वह तो तुमने न सोचा, तुम यह समझकर आ गए कि अब तो बात खतम हो गयी। अब तो प्रज्ञा का जन्म कैसे होगा? यह मैंने नहीं कहा था कि प्रज्ञा का जन्म हो ही नहीं सकता। सुगम होता है। अब थोड़ा दुर्गम होगा। पर अंततः फर्क तो दुख—स्वप्‍न और मधुर—स्वप्‍न का है। रात सुख में बीत जाए, तो सुबह तुम जरा और ढंग से उठते हो। एक प्रसाद होता है उठने में। ताजे होते हो, स्वस्थ—मन होते हो। स्वच्छ—गात होते हो। स्नान किए—किए, ताजे—ताजे, नहाए—नहाए होते हो। मधुर—स्वप्न की गूंज, मधुर—स्वप्न की शहनाई भीतर बजती रहती है। तुम्हारे पैरों में थोड़े शर बंधे होते हैं, थोड़ा संगीत होता है। दिन के लिए यह सहारा होगा।
फिर तुम दुख—स्वप्न से उठते हो। तुम सुबह ही क्रोध में उठे, नाराज उठे,परेशान उठे। किसी तरह उठे। बोझ—रूप दिन को तुम ढोओगे। लेकिन ये बातें इसीलिए होती हैं कि तुम बेहोश हो। अगर तुम होश में उठो सुबह, तो दुख—स्वप्न और मधुर—स्वप्न दोनों बराबर हैं। तुम कहोगे अरे, सब सपने थे! तुम झिड्का दोगे उन सपनों को अपने से। तुम दोनों से मुक्त हो जाओगे। जो गया, गया।
' अर्थ तो कमाया पर शुरुआत ही गलत हो गयी। कोई छह—सात साल का था तब कामवासना सक्रिय हो गयी। और यह भी बता दूं कि केवल सात महीने मां के गर्भ में रहकर बाहर आ गया था।तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि मां के गर्भ से नौ महीने के पहले जो बच्चे आ जाते हैं, वैज्ञानिकों के पास उसका अभी कोई ठीक—ठीक उत्तर नहीं है, लेकिन जिन्होंने जन्म—मरण की गहराइयों में प्रवेश किया है, उन योगियों के पास उत्तर है। उनका उत्तर तुम खयाल रखो, शायद आगे काम आ जाए। पीछे तो काम आने का अब कोई उपाय न रहा, अब तो आ ही चुके, सात महीने में आए कि नौ महीने में आए, लेकिन आगे काम आ जाए।
मरते वक्त जो व्यक्ति मरना नहीं चाहता, लड़ता है मौत से, जबर्दस्ती करता है बचने की, वह मां के गर्भ से जल्दी बाहर आ जाता है। वह जो मरने से बचने की आकांक्षा  है, वह जो जीवन की पकड़ है, वही उसे मा के गर्भ से जल्दी बाहर ले आती है। अगर मरते वक्त कोई शांत—मन, स्वीकार— भाव से मरे, मौत को अंगीकार करके मरे, अगर खूब अंगीकार करके मरे, तो वह ठीक समय पर पैदा होता है। कोई जल्दबाजी नहीं। उसकी मृत्यु भी शांत, समय पर होती, उसका जन्म भी शांत और समय पर होता है।
जो लोग जबर्दस्ती करते हुए मरते हैं, वे जन्म भी जबर्दस्ती ले लेते हैं। और इसीलिए दूसरी घटना भी घटी होगी। छह —सात साल की उम्र में कामवासना से भर जाने का अर्थ इतना ही है कि पिछले जन्म में मरते समय तक कामवासना ने पीछा किया होगा। बहुत के हैं जो मरते समय भी, मरने की आखिरी घड़ी में भी, कामवासना से ही आतुर रहते हैं। उस समय भी उनको काम ही घेरे रहता है। राम —नाम सत्य है, यह तो दूसरे कहते हैं, जब वे मर जाते हैं। वे खुद नहीं कह पाते। उनके लिए तो काम—नाम सत्य है। वही भीतर धुन गूंजती रहती है। तो चाहते हैं कि दो दिन और मिल जाते जीने के, तो और भोग लेते। थोडे पाप और कर लेते।
एक आदमी मर रहा था। धर्मगुरु को बुलाया गया, धर्मगुरु ने कहा, अब तो पछता लो! अब तो यह आखिरी सांस का वक्त आ गया। उसने कहा, पछता ही रहा हूं और क्या कर रहा हूं? धर्मगुरु ने कहा, पछता रहे हो, तुम और पछता रहे हो! क्योंकि वह जाहिर आदमी था, कभी मंदिर न गया, कभी शास्त्र न छुआ, कभी सत्संग में तो बैठा नहीं। पछता रहा है! मरते दम तक भोग में ही लिप्त था। उसने कहा, तुम और पछता रहे हो! उसने कहा, ही, पछता रहा हूं। लेकिन तुम गलत मत समझना, मैं उन पापों के लिए पछता रहा हूं जो कर न पाया। कर ही लेता! अब पछता रहा हूं आखिरी घड़ी आ गयी, समय न बचा। और तुम जैसे मूढ़ों की बातों में पड़कर मैं कई पाप न कर पाया। सोच—सोचकर रह गया—करूं, न करूं? अब यह मौत आ गयी। अब कौन उत्तर देगा?
लोग पछताते मरते हैं कि कर न पाए। और थोड़ा धन कमा लेते। और किसी स्त्री से प्रेम रचा लेते। और किसी पुरुष को पा लेते। और कोई पद पर पहुंच जाते। बस ऐसा ही गोरखधंधा मन में होता है। राम का नाम उठ ही नहीं पाता। काम ही घेरे रहता है।
तो अगर कामवासना मरते वक्त बुरी तरह घेरे रहे, तो दूसरे जन्म में बड़े जल्दी आ जाएगी। हम अपना जीवन अपने हाथों निर्मित करते हैं। जो हम मांगते हैं, मिल जाता है। यही यहां उपद्रव है। सोच—समझकर मांगना। जो मांगोगे, मिल जाएगा। जो मांगते हो, वह मिल ही जाता है। क्योंकि तुम्हीं बीज बोते हो, फिर तुम्हीं फसल काट लेते हो।
मरते वक्त अगर कामवासना रही, तो अगले जन्म में जल्दी ही कामवासना के बीज पक जाएंगे। अगर मरते वक्त राम की याद रही और काम का कोई भाव न रहा, तो अगले जन्म में ब्रह्मचर्य आसान हो जाएगा। राम के भाव में डूबा जो मरता है, उसने काम के बीज को दग्ध करने के लिए बड़ा उपाय कर लिया। वह देर तक ब्रह्मचर्य में जी सकेगा।
इसी आधार पर तो हम जब कोई मर जाता है तो उसकी अर्थी के आसपास राम—नाम सत्य कहते हैं। इसी आधार पर तो गंगाजल उसके मुंह में ड़ालते हैं। वह खुद तो न कर पाए, वह तो शराब में रहे, गंगाजल जंचा नहीं। वह खुद तो नाम न ले पाए, मरते आदमी के कान में हम गायत्री पढ़ते हैं, मंत्र—जाप करते हैं, नमोकार का उच्चार करते हैं। मरते आदमी के! यह जो जीवन में उन्हें करना था, यह दूसरे कर रहे हैं। यह औपचारिक हो गया।
लेकिन कभी ऐसा था कि यह औपचारिक नहीं भी था। और किन्हीं के जीवन में अभी भी नहीं है। तब इसमें एक संगति है।
एक आदमी जो खुद अपने जीवन में मंत्रोच्चारों में डूबा रहा, जिसने मंत्रों का संगीत अनुभव किया, अब मर रहा है। अब खुद की जिह्वा शिथिल हो गयी है, अब खुद के ओंठ उच्चार नहीं कर पाते, वह किसी और से कहता है, तुम उच्चार करो, मैं तो अपने ही मौसम में मरना चाहता हूं। अब वह किसी और से कहता है कि तुम गाओ, गुनगुनाओ, अब मेरी तो सामर्थ्य गुनगुनाने की न रही, अब मैं तो डूबा जाता हूं लेकिन डूबते क्षण आखिरी बात जो मेरे कान में पड़े वह मेरा ही संगीत हो, वह मेरा ही प्रभु—स्मरण हो।
जीवनभर गंगा से नाता जोड़े रहा—गंगा यानी पवित्रता, गंगा यानी शुचिता, गंगा यानी जीवन का क्वांरापन—जीवनभर गंगा से साथ जोड़े रहा, मरते वक्त कहता है, अब मैं तो जाता हूं, अब मेरे हाथ तो शिथिल हुए जाते हैं, लेकिन जाते —जाते आखिरी स्वाद मेरे मुंह में, मेरे ओंठों पर गंगा का हो। क्योंकि जो आखिरी स्वाद है, वही पहला स्वाद बन जाएगा। यह गंगा की याददाश्त में ही डूबूं। ताकि जब फिर आंख खुले, फिर नया जन्म हो, फिर जीवन की कली खिले और फूल बने, तो मैं गंगा से भरा ही बाहर आऊं।
तुम इसे छोटा सा प्रयोग करके देखो। रात सोते समय जो तुम्हारा आखिरी विचार हो, उसका खयाल कर लो। तुम पाओगे, सुबह जागते वक्त वही तुम्हारा पहला विचार होगा। ठीक वही होगा। अगर तुम रात धन की सोचते—सोचते सो गए हो, तो तुम सुबह धन की सोचते —सोचते उठोगे। अगर रात तुम किसी चिंता में दबे —दबे सो गए हो, तो उसी चिंता में सुबह तुम उठोगे। रातभर भी वह चिंता तुम्हारे आसपास सरकती रहेगी, उसकी हवा बहती रहेगी, उसका वातावरण बना रहेगा। तुम्हारे कमरे में चिंता का आवास रहेगा। तुम सोए रहोगे, चिंता तुम्हारे चारों तरफ गिलाफ की तरह लिपटी रहेगी। वह प्रतीक्षा करेगी कि जागो तो मैं हाजिर हूं सेवा के लिए! अभी तुम बेहोश हो गए हो, ठीक है, मैं राह देखूंगी। लगाव है तुम्हारा इतना, जाए भी कैसे? सुबह उठते ही तुम उसे द्वार पर खड़ा पाओगे।
इसे थोड़ा विचार करना, खोजना, प्रयोग करना। ठीक यही जीवन के विराट पर भी लागू है। मरते वक्त जो आखिरी विचार होगा, वह जन्मते वक्त पहला विचार होगा। इसलिए हर बच्चा एक जैसा पैदा नहीं होता। क्योंकि हर आदमी एक जैसा मरता नहीं। यहां जिंदगी ही अलग—अलग नहीं, मौत भी अलग— अलग है। यहां व्यक्तित्व इतना महत्वपूर्ण है। यहां तुम अपनी छाप मौत पर भी छोड़ जाते हो। जिंदगी पर तो छोड़ते ही हो—तुम्हारे हस्ताक्षर होते हैं जिंदगी पर—पर मौत पर भी छोड़ते हो। मौत जैसी सूक्ष्म चीज भी तुम्हारे हस्ताक्षरों को ले लेती है। हर आदमी अलग ढंग से मरता है।
एक झेन फकीर मर रहा था। उसने अपने शिष्यों से पूछा, सुनो जी, तुमने कभी किसी आदमी को खड़े—खड़े मरते देखा? उनमें से एक ने कहा, देखा तो नहीं, लेकिन सुना है कि कभी एक फकीर खड़े—खड़े मर गया, क्यों क्या बात है? उसने कहा कि अब मैं सोच रहा था किस ढंग से मरना। मरने का वक्त आ गया, अपने ही ढंग से मरना चाहिए, दूसरे के ढंग से क्या मरना! खाट पर लेटे—लेटे सभी मरते हैं। यह भी कोई बात हुई! कुछ अपना हस्ताक्षर हो!
उसने कहा, तुमने फिर कभी किसी को शीर्षासन करते हुए मरते सुना? यह तो सुना भी नहीं, सोचा भी नहीं। शीर्षासन करते हुए मरना!
शीर्षासन करते हुए तो आदमी सो भी नहीं सकता, मरना तो बहुत दूर की बात है। शीर्षासन करते हुए तुम सो नहीं सकते, झपकी नहीं खा सकते, क्योंकि खून इतनी तेजी से दौड़ता है मस्तिष्क में, सोओगे कैसे? इसलिए तो हम तकिया रखते हैं रात में, ताकि खून जरा कम चढ़े सिर में, नींद ठीक से आए। बिना तकिए के नींद नहीं आएगी, क्योंकि सिर थोड़ा नीचा पड़ जाएगा शरीर से, खून ज्यादा दौड़ेगा। तो जब तकिए की जरूरत है, तो शीर्षासन में तो नींद भी नहीं लग सकती।
पर उसने कहा कि छोड़ो भी, जब मौत आएगी तो वह यह थोड़े ही देखेगी कि हम शीर्षासन कर रहे हैं! नींद भला न लगे मगर मौत किसी की प्रतीक्षा नहीं करती—चाहे खड़े, चाहे बैठे, वह तो ले ही जाएगी। अब चलो हम भी एक मौका लेकर देख लें। अगर मौत इस तरह न आती हो, तो एक तरकीब मिल गयी आदमी को बचने की। जब आए मौत, खड़े हो गए शीर्षासन लगाकर!
वह शीर्षासन लगाकर खड़ा हो गया। शिष्य भी घबड़ा गए। और कहते हैं, वह खड़ा हो गया और उनको लगा कि मर भी गया। लेकिन अब उसको शीर्षासन से उतारें कैसे! बड़ा भय लगने लगा। कोई आदमी खाट पर मर जाए, अर्थी पर बांध लो। अब ये शीर्षासन में खड़े हैं, अब इनको अर्थी पर कैसे बांधो!
तो उन्होंने कहा, ठहरो, कुछ भी करना उचित नहीं। पता नहीं, इस ढंग से न कभी कोई आदमी मरा, न कोई रीति—रिवाज है। इसकी बहन पास में ही एक दूसरे आश्रम में है, उसको बुला लाओ। वह इसको जानती है। वह भी, साठ साल उसकी उम्र थी, वह आयी। और उसने कहा कि सुनो, जिंदगीभर भी तुम उपद्रव करते रहे, अब मरकर तो बाज आओ! जैसे आदमी मरते, ऐसे मरो। और उसने एक धक्का दिया। कहते हैं, वह फकीर मुस्कुराया, गिरकर मर गया।
हर आदमी की मौत भी, अगर तुम बहुत गौर से देखो, तो उसमें तुम विशिष्टता पाओगे। कोई रोता—चीखता मरेगा, कोई शांत, मौन मरेगा, कोई गीत गुनगुनाता मरेगा। किसी के पास तुम्हें लगेगा कि नृत्य चल रहा है, एक संगीत बज रहा है, एक ओंकार की ध्वनि हो रही है। किसी का चेहरा तुम पाओगे मरकर कुरूप हो गया और किसी का चेहरा तुम पाओगे, ऐसा सुंदर कभी भी न था। हम जो भी करते हैं वह वैसा ही पृथक—पृथक होता है, जैसे हमारे अंगूठों के चिह्न पृथक—पृथक होते हैं। सभी कुछ व्यक्तित्व से भरा है।
तो मरते वक्त अगर मरने की बिलकुल आकांक्षा न थी, और जीवन तुमसे जबर्दस्ती छीना गया और तुम जीवन को पकड़ना चाहते थे, तुम मां के पेट से जल्दी पैदा हो जाओगे। अगर मरते वक्त कामवासना ने मन को पकड़े ही रखा, राम का उच्चार चाहा भी तो भी न हो सका—और ध्यान रखना, कामवासना का उच्चार मृत्यु के क्षण में सौ में निन्यानबे लोग को पकड़ लेता है। उसका कारण भी है। वह कारण भी तुम खयाल में ले लो।
मृत्यु और काम एक—दूसरे के विपरीत हैं। जन्म होता है काम से और मृत्यु से अंत होता है जन्म का। तो जन्म है यानी काम। जिस ऊर्जा को जन्म में कामवासना मुक्त करती है, मृत्यु में वही ऊर्जा सिकुड़ती है और नष्ट होती है। स्वभावत: कामवासना मृत्यु को अपना दुश्मन मानती है।
इसीलिए तो कामी पुरुष का नहीं होना चाहता, सदा जवान रहना चाहता है। कामी स्त्री अपनी उम्र झूठी बताने लगती है।
कल ही मैं एक छोटी सी कहानी पढ़ रहा था। एक युवती अपनी मां से बोली—मां का जन्मदिन था—क्योंकि वह देख रही है कि मां की उम्र बढ़ती तो नहीं, उलटी घटती जाती है। पिछले साल अगर पैंतीसवां जन्मदिन मनाया था, तो इस बार वह चौंतीसवां मना रही है। तो उसने कहा कि मां और सब तो ठीक है, मुझमें और तुममें कम से कम नौ महीने का फर्क रखना। नहीं तो बड़ी झंझट होगी। लोग क्या कहेंगे?
स्त्रियों की उम्र ठहर जाती है कहीं न कहीं, फिर वे दो —दो साल, तीन—तीन साल में एक—एक साल बढ़ती हैं। बड़ी झिझककर बढ़ती हैं। बड़ी मुश्किल से बढ़ती हैं। बुढ़ापे का भय है। पश्चिम में स्त्रियां बच्चों को दूध नहीं पिला रही हैं, क्योंकि दूध पिलाने से स्तन के हो जाते हैं। पश्चिम में स्त्रियां मा बनने में जरा भी उत्सुक नहीं रह गयी हैं। क्योंकि बच्चों को जन्म देने का मतलब हैं, अपनी मौत को पास बुलाना। हर बच्चा तुम्हारे जीवन का कुछ हिस्सा ले जाता है। जवानी बनी रहे, किसी भी कीमत पर!
कामवासना बुढ़ापे से भयभीत है, क्योंकि फिर बुढापे का जब कदम उठ गया, तो ?? मौत ज्यादा दूर नहीं। बुढ़ापा आ गया तो कब्र फिर कितनी दूर रही! मरघट के द्वार पर तो आ ही गए, अब ज्यादा देर न लगेगी। अगर बचना हो, तो पहले बुढापे ही से बचना चाहिए, तो फिर मौत सै शायद बचना हो जाए।
आदमी की कथाओं में, सारी मनुष्य—जाति की कथाओं में तुम ऐसे लोग पाओगे जो मरे नहीं। वे हमारी कामवासना के प्रतीक हैं। कोई अश्वत्थामा मरता ही नहीं, कोई आल्हा—ऊदल मरते ही नहीं। सारी दुनिया में ऐसी कथाएं हैं कि कोई व्यक्ति जीए ही चला जाता है।
तुम भी बड़े प्रभावित होते हो अगर कोई कह दे कि फलां संन्यासी गांव में आया, उसकी उम्र दो सौ साल! चले, गिरे चरणों में! बड़े चमत्कृत हो गए! चमत्कार क्या है इसमें? चमत्कार यह है कि जो आदमी दो सौ साल जिंदा रह गया, पता नहीं कोई जड़ी—बूटी दे दें, कोई ताबीज दे दें, आशीर्वाद दे दें, तुम भी रह जाओ। यह तुम्हारे भीतर मरने का जो डर है, भय है, वही तुम्हें चमत्कृत करता है। उसी को चमत्कृत करने के लिए साधु अपनी उम्र बडी करके बताते हैं।
अब तुम थोड़ा सोचो, स्त्रियां उम्र छोटी करके बताती हैं, साधु बड़ी करके बताते हैं, मगर मतलब दोनों का एक ही है। प्रयोजन एक ही है। स्त्रियां छोटी करके बताती हैं, वे कहती हैं, मौत बहुत दूर है। सीधु बड़ा करके बताते हैं कि हम तो पार कर चुके हैं, मौत को हरा चुके हैं। मगर दोनों यह कह रहे हैं कि किसी भांति हम मौत से दूर, मौत हमें छू नहीं सकती। लेकिन यह कामी की ही वासना है।
पिछला जन्म, पिछला जीवन, पिछली मौत तुम्हारे इस जन्म को प्रभावित कर जाती है। पर यह सब हो चुका। यह मैं तुमसे इसलिए नहीं कह रहा हूं कि तुम इसके लिए उदास होओ। मैं तुमसे इसलिए कह रहा हूं, ताकि आगे तुम फिर ऐसी भूलें न करो।
एर्नाल्ड टायनबी ने अपने एक पत्र में लिखा है कि इतिहास पढ़ना जरूरी है, ताकि लोग वही भूलें दुबारा न करें।
यह बात ठीक समझ में आती है। लोग कहते हैं, इतिहास नहीं दोहरता, लेकिन यह तभी संभव है जब इतिहास को ठीक से समझ लिया जाए; तभी नहीं दोहरेगा। नहीं तो दोहरेगा, दोहरेगा।
जो मैं तुमसे कह रहा हूं वह तुम्हें उदास करने को नहीं, बल्कि तुम्हें भविष्य के प्रति आशा से भरने को कि अब तुम्हारे हाथ में सूत्र हैं, अब तुम दुबारा उस भांति मत मरना। और अब तुम दुबारा कामवासना से भरे मत मरना। यही मैं तुमसे कहता हूं कि मरते वक्त कामवासना बहुत जोर से पकड़ती है। तुमने देखा है, जब दीया बुझने लगता है तो भभककर जलता है एक बार। ऐसा जलता है जैसा कभी नहीं जला था। मरने के पहले कामवासना भी भभककर जलती है। मौत आ गयी, तो जो सदा की छुपायी हुई ऊर्जा थी, दबायी हुई ऊर्जा थी, कृपणता थी, अब तो मौत आ गयी, सब छूटने लगा हाथ से, अब भभककर जलती है। एक जोश में तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती है।
मरता हुआ आदमी सौ में निन्यानबे मौकों पर कामवासना से घिरा मरता है। चिल्लाओ तुम मंत्र, पढो तुम गीता, उस तक नहीं पहुंचेगा। क्योंकि वह भीतर तो कामवासना के लिहाफ में लिपटा हुआ है। मरते वक्त, और कामवासना से बच जाना, बड़ा कठिन है! यह तभी संभव है जब जीवनभर तुमने कामवासना के प्रति सजगता साधी हो और तुम्हारी कामवासना से इतनी पहचान हो गयी हो कि जब वह आखिरी भभककर जले, तब तुम हंसकर कहो कि अच्छा, तो अब दीया बुझा! और तुम साक्षी रह सको। तुम कहीं तादात्म्य न कर लो।
' आपका स्वभाव कल से बेचैन है। जब वह वीर्य न बचा सका, तब प्रज्ञा कैसे पैदा हो!'
अगर तुम बचे हो, तो वीर्य भी बचा है। वीर्य के संबंध में कुछ बात समझ लेनी जरूरी है। पहली बात कि वीर्य कुछ ऐसी बात नहीं है कि कोई निश्चित संपदा है। रोज पैदा हो रहा है। यह बडी भ्रांति है तुम्हें कि वीर्य कोई निश्चित संपदा है। यह कोई फिक्स बैंक एकाउंट नहीं है कि सौ रुपए जमा हैं, एक रुपया खर्च हो गया, निन्यानबे बचे। एक और खर्च हो गया, अट्ठानबे बचे। वीर्य सृजनात्मक है। यह रोज पैदा हो रहा है। तुम्हारे भोजन से, श्वास से, श्रम से, विश्राम से रोज पैदा हो रहा है। इसलिए इससे घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है।
ब्रह्मचर्य को तुम कृपणता मत समझ लेना, जो कि अक्सर हुआ है। कंजूस आदमी ब्रह्मचारी हो जाते हैं। वह भी एक तरह की कंजूसी है। न धन खर्च कर सकते, न वीर्य खर्च कर सकते। मैं तुम्हें कंजूस बनने को नहीं कह रहा हूं। न बुद्ध कह रहे, न पतंजलि कह रहे हैं।
वस्तुत: वे यह कह रहे हैं कि इसके पहले कि तुम खर्च करो, काफी हो तुम्हारे पास। ताकि खर्च करने की गहराई आ सके। इकट्ठा करो पहले, ऊर्जा को गहन होने दो, सघन होने दो। क्योंकि जितनी ऊर्जा सघन और गहन होगी, उतना ही संभोग गहरा हो पाएगा। और कभी—कभी एक संभोग में भी मुक्ति हो सकती है। एक संभोग भी ठीक से देख लिया, बात खतम हो गयी। फिर तो पुनरुक्ति है।
और ध्यान रखना, अगर वीर्य पास हो, तो एक संभोग, पहला संभोग जितना गहरा होगा, दूसरा उससे कम होगा गहरा, तीसरा और कम गहरा होगा। क्योंकि पहला पच्चीस वर्ष, या बीस वर्ष, या अट्ठाइस वर्ष की संपत्ति—इकट्ठी संपत्ति—का परिणाम था। फिर दूसरा तो रोज—रोज जो संपत्ति इकट्ठी होगी, उसका परिणाम होगा। आज तुमने वीर्य खर्च किया, फिर चौबीस घंटेभर बाद पैदा हो जाएगा। लेकिन यह रोजमर्रा का पैदा होने वाला वीर्य है। इससे तुम वह गहरा अनुभव न पा सकोगे जो ब्रह्मचारी पाता है।
इसलिए यह मत सोचो कि वीर्य खतम हो गया, अब क्या करें? वीर्य आज भी पैदा हो रहा है, रोज पैदा हो रहा है—वीर्य तो तुम्हारा जीवन है। अगर तुम आज भी ब्रह्मचर्य की दिशा में थोड़े कदम उठाओ, तो तुम्हारा सरोवर फिर भरने लगेगा। जीवन का दान अनंत है। जीवन कृपण नहीं है। तुम्हारी भूल—चूक के कारण जीवन यह नहीं कहता कि बस हो गया, तुमने भूल की, अब तुम्हें न मिलेगा। जीवन तुम्हें हजार बार देता है। तुम हजार बार भूल करो, वह एक हजार एक बार देता है। तुम जीवन को हरा न पाओगे।
तुम घबड़ाओ मत। जो समय गया, गया। जाने दो। फिर आज तुम्हारे जीवन में ब्रह्मचर्य का भाव जगे। कहते हो, तीस—पैंतीस साल गुजर गए, गुजर जाने दो। तुम फिर से बच्चे हो जाओ। नहीं समझ थी तब, करते भी क्या तुम? कोई समझाने वाला भी न था, करते भी क्या तुम? जो समझाने वाले थे, वे उलटे हैं। उनके कारण ब्रह्मचर्य तो पैदा नहीं होता, उनके कारण ब्रह्मचर्य जल्दी टूट जाता है। समझाने वाले ऐसे नासमझ हैं कि उनके कारण और आकर्षण पैदा होता है।
अब यह बडी हैरानी की बात है। दो तरह के लोग हैं समाज में। एक हैं जो हर व्यक्ति की कामवासना का शोषण करना चाहते हैं। तो फिल्में हैं, कहानियां हैं, उपन्यास हैं, गीत हैं, संगीत है, बाजार है। वह तुम्हारी कामवासना का शोषण कर रहा है। वह छोटे से छोटे बच्चे में कामवासना पैदा कर रहा है। यह चारों तरफ फैला बाजार है। यह तुम्हारी गरदन पर तलवार रखे है। यह जानता है कि कामवासना बड़ी गहरी है, इसलिए हर चीज को कामवासना से बेचो। कार बेचनी है। कार अकेली नहीं बिकती। नग्न स्त्री उसके साथ होनी चाहिए खड़ी।
मैंने सुना है कि दूर अमरीका में पहाड़ों में रहने वाले एक आदमी को एक केटलाग मिल गया। अमरीका में केटलाग यानी गीता। लोग केटलाग ही पढ़ते हैं। वह एक खास अध्ययन का विषय है। कौन—कौन सी चीजें बाजार में बिक रही हैं—विज्ञापन इस सबका। गरीब आदमी ने कभी केटलाग देखा नहीं था। उसने देखा तो बड़ा चकित हुआ। उसने एक स्त्री को देखा केटलाग में, बड़ी सुंदर और दाम बहुत कम। वह बड़ा हैरान हुआ। कुल तीन ड़ालर। यही कोई पच्चीस—तीस रुपए। उसने कहा, इतनी सस्ती मिल रही है। उसने फौरन आर्डर किया।
फिर उसने बडी प्रतीक्षा की, क्योंकि लिखा था कि तीन सप्ताह के भीतर पोस्ट आफिस में पूछ लेना। वह फिर पोस्ट आफिस गया, दूर था गांव से, पास के नगर में था, वहां गया। उसकी पार्सल मौजूद थी। वह पार्सल देखकर और चौंका, पार्सल बड़ी छोटी थी। इतनी बडी औरत, इतनी सी पार्सल में समा गयी! चमत्कार पर चमत्कार हो रहा है! एक तौ पच्चीस रुपए में।
उसने पूछा पोस्ट मास्टर को कि मुझे शक है, जो चीज मैंने बुलायी, है नहीं इसमें। यह धोखाधड़ी है। मेरे पच्चीस रुपए मुफ्त जाएंगे। मैं जान लेना चाहता हूं। उसने कहा, तुमने बुलाया क्या है? तो वह जरा शरमाया। अब उसने कहा, अब आपसे क्या छिपाना, मैंने एक स्त्री बुलायी है।
उसने कहा, स्त्री? कहां तुमने पढ़ा कि पच्चीस रुपए में स्त्री मिलती है। और अभी तक तो इंतजाम नहीं हुआ वी पी पी. से भेजने का। और तरह से मिलती? पच्चीस में भी मिलती। मगर वी पी पी से! तुम भी बड़े खोजी हो। उसने केटलाग निकाली अपने बैग में से, कहा, यह देख लो।
वह एक हैंड़बैग का विज्ञापन था। हैंड़बैग लिए स्त्री खड़ी थी। उस गरीब ने ठीक ही समझा कि स्त्री बिकती होगी। हैंड़बैग के लिए स्त्री काहे के लिए खड़ी है? स्त्री के साथ हैंड़बैग आता होगा, यह समझ में आता है, हैंड़बैग के साथ स्त्री किसलिए आएगी? हैंड़बैग आया हुआ था।
हर चीज को बेचना हो तो स्त्री को खड़ा करो। ऐसा लगता है कि और सब चीजें बहाने हैं, बिकती स्त्री है। बिकता काम है। तो एक तो चारों तरफ बाजार है, वह खींच रहा है तुम्हें कि तुम्हारी कामवासना जगे। जितनी जल्दी जग जाए उतना अच्छा। क्योंकि उतनी चीजें बिक सकें।
दूसरी तरफ मंदिर, मस्जिद, चर्च के पुजारी हैं। वे खिलाफ हैं। वे इतने ज्यादा खिलाफ हैं कि उनकी खिलाफत आकर्षण पैदा कर रही है। वे हर एक के गले में एक ही दवा घोंटकर पिलाए चले जाते हैं—ब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्य! उन बच्चों से ब्रह्मचर्य की बात करते हैं, जिनको अभी कामवासना का भी पता नहीं। अभी रुको! और उन दोनों के बीच में प्राण घुटे जा रहे हैं।
तो मैं जानता हूं तुम्हारा कुछ कसूर नहीं, कोई अपराध नहीं। कोई पाप नहीं। इधर बाजार है, उधर पुरोहित है, और दोनों की सांठ —गांठ मालूम होती है। दोनों एक ही तरफ ढकेल रहे हैं।
सुख की गरदन काट रही है दुनिया की तलवार तो देख
जिस तलवार को चूम रहा है उस तलवार की धार तो देख
जान यहां हर चीज की कीमत आन यहां हर चीज का मोल सौदा करने वाले गाफिल पहले ये बाजार तो देख
पर बच्चों को कहो भी क्या! उनका कसूर भी क्या! बच्चे तो नासमझ हैं, भोले — भाले हैं। उनकी स्लेट तो कोरी है, जो तुम लिख देते हो लिख जाता है। जब लुट जाते हैं तब पता चलता है कि जिस तलवार को चूमा, उसने काटा। जब लुट जाते हैं तब पता चलता है कि यह बाजार तो लुटेरों का है, दुकानदारों का नहीं। लेकिन तब ऐसा लगता है, देर हो गयी।
मैं तुमसे कहता हूं? देर नहीं हुई है'। जब जागे, तब सुबह। छोडो चिंता! बेचैन मत होओ! वीर्य कोई ऐसी बात नहीं है कि बंधी हुई है। रोज पैदा होती है। फिर संगृहीत कर सकते हो। अच्छा होता कि पहले न गंवाया होता, पर अभी भी कुछ बिगड़ नहीं गया है। घबड़ाओ मत। अगर इतना बोध तुम्हारे भीतर है कि अब प्रज्ञा कैसे पैदा हो, तो प्रज्ञा पैदा होनी शुरू हो गयी। यही तो प्रज्ञा का पहला कदम है। क्या है पहला कदम?
कहा है, 'तभी तो मूढ़ हूं और बिना जाने जानने का दावा करता हूं।
अगर यह समझ में आ गया, तो प्रज्ञा ने पहला कदम लिया।
'संन्यास लेकर भी पलायन ही कर रहा हूं।
अगर समझ में आ गया, तो पैर कब तक भगाए रखेंगे?
'क्रोध और अहंकार से बुरी तरह ग्रसित हूं।
अगर यह दिखने लगा, तो बीमारियों से फासला होने लगा।
'बस चमडी—मास ही बढ़ा है।जिसे यह समझ में आ गया, उसके प्रज्ञा के बढ़ने का क्षण आ गया।
और यह उचित है भाव कि 'स्वभाव खुद कर—करके हार गया, प्रभु! अब आप ही कुछ करें।इस भाव को प्रार्थना बनने दो। इस असहाय— भाव को पूजा बनने दो। इसमें फर्क समझ लेना। इसमें भी भ्रांति हो सकती है। असहाय— अवस्था से उठा हुआ यह भाव तुम्हें मुक्त कर सकता है, लेकिन निराशा से उठा हुआ यही भाव तुम्हें बरबाद कर सकता है। तुम निराशा से यह मत कहो कि अब आप ही करें। तुम असहाय— अवस्था से कहो।
क्या फर्क है दोनों में? जब तुम निराशा से कहते हो, तब तुम यह जानते हो कि हो तो सकता नहीं, चलो यह भी करके देख लें। कि शायद गुरु पर छोड़ने से कुछ हो जाए। शायद प्रभु पर छोड़ने से कुछ हो जाए। जानते तो तुम यह हो कि यह हो नहीं सकता, जब अपने किए न हुआ, तो इनके किए क्या होगा? मगर मजबूरी है, चलो, इसको भी जांच लें। इसे भी देख लें। अगर निराशा से यह भाव उठा, तो यह पूरा न होगा। क्योंकि इसमें पहले ही प्राण नहीं हैं।
असहाय— अवस्था बड़ी अलग बात है। असहाय— अवस्था का यह अर्थ नहीं है कि यह हो नहीं सकता। असहाय— अवस्था का इतना ही अर्थ है कि यह मेरे अहंकार से नहीं हो सकता, निर—अहंकार से होगा। निर— अहंकार से होगा। अहंकार से नहीं हुआ, निर—अंहकार से निश्चित होगा। अहंकार की यात्रा करके देख ली, अब अहंकार छोड़कर  देखूं। लेकिन निराशा बिलकुल नहीं है। अहंकार से हार हुई है, लेकिन हार नहीं हुई है।
लुट गए तन के रतन सब
लुट गए मन के सपन सब
तुम मिलो तो जिंदगी फिर
आंख में काजल लगाए
निराशा नहीं है। आंखें  तैयार हैं, काजल लगाने का मन तैयार है। पर अब, अब तक जिस ढंग से काजल लगाया, न लगाएंगे। उससे तो आंखें  अंधी ही हुईं। सुंदर न हुईं।
लुट गए तन के रतन सब
लुट गए मन के सपन सब
समझ लेना। सब लुट गया, लेकिन आशा नहीं लुटी।
लुट गए तन के रतन सब
लुट गए मन के सपन सब
तुम मिलो तो जिंदगी फिर
आंख में काजल लगाए
तुम नहीं तो स्वर्ग की
सारी जमींदारी करूं क्या?
और अब अगर तुम्हारे बिना स्वर्ग की पूरी जमींदारी भी मिलती हो, तो मैं लेने को राज़ी नहीं। वही तो हम कोशिश करते रहे अब तक।
तुम नहीं तो स्‍वर्ग की
सारी जमींदारी करूं क्‍या?
तुम नहीं तो सांस की
दिन—रात रखवाली करूं क्या?
तार हूं मैं सिर्फ, है
झंकार तो इसमें तुम्हारी
तुम नहीं तो एक मुट्ठी
धूल यह क्यारी करूं क्या?
अब न दरवाजा लगाओ
खोल सांकल पास आओ
यह न हो इस जन्म भी
डोली अकेली लौट जाए
तुम मिलो तो जिंदगी फिर
आंख में काजल लगाए
असहाय— अवस्था में उठी प्रार्थना में निराशा नहीं है। निराशा में पकड़ी गयी असहाय— अवस्था में प्राण नहीं है।
तो बहुत बार ऐसा हो जाता है कि तुम निराशा से आकर मेरे पास कहते हो कि अब आप ही सम्हालो। मतलब यह है कि हम करके देख लिए, जानते हैं, आप से भी क्या होगा! किसी से कुछ होने वाला नहीं। मगर चलो, इसको भी करके देख लें, मरता क्या न करता! तो यह भी सही। मगर इस भांति कुछ भी न हो सकेगा, क्योंकि होना तो तुम्हारे भीतर है। तुमने तो द्वार बंद कर लिए। तुम्हारी निराशा ने तो तुम्हारे भीतर की संभावनाओं पर वज्रपात कर दिया, कुठाराघात कर दिया।
हारे हो, संभावनाओं से नहीं, सिर्फ अहंकार से। हार हुई है, क्योंकि मैं को चाहा था। अभी जीत समाप्त नहीं हो गयी है। अभी तुम गलत ढंग से चल रहे थे, इसलिए हारे हो। हार आत्यंतिक नहीं है। लौटो। अभी तुम नदी से लड़ रहे थे, इसलिए थक गए हो। अब नदी के साथ बहो। थकान, जो नदी के साथ बहता है, उसने जानी नहीं। थकान उसने पहचानी नहीं। थकान का उसे परिचय नहीं है। जो नदी के साथ बहता है, वह ताजा होता है। नदी अपनी ऊर्जा भी उसे देती है। वह नदी का माध्यम बन जाता है।
अगर सच में तुम हार गए हो, अहंकार सब तरह से पराजित हो गया है, तो मैं तैयार हूं। लेकिन निराशा से न उठे यह स्वर। गहन आशा से उठे।

दूसरा प्रश्‍न:

      एस धम्‍मो सनंतनो प्रवचनमाला के चालू सत्र में आपने स्‍त्रियों के दुःख-प्रदर्शनकी वृति का ऐसा भव्‍य और विराट वर्णन किया कि अभी— अभी सच में भी हमें दर्द हो, तो भी हम उसे प्रगट न कर पाएंगे। कृपया बताएं कि इस आत्म—दमन के लिए—हमारे आत्म—दमन के लिए—कौन जिम्मेवार होगा?

र्द प्रगट करने से प्रयोजन क्या है? दर्द झूठा हो या सच्चा हो, इससे क्या फर्क पड़ता है! प्रगट करने की आकांक्षा क्यों है? घाव को दिखाते फिरने की जरूरत क्या है? बाजार में घाव खोलने का कारण क्या है? सच्चा सही। सच्चे और झूठे में फर्क करने का भी क्या कारण है? क्योंकि प्रयोजन तो एक ही है।
मैंने तुमसे यह नहीं कहा है कि झूठे घाव मत दिखाना, सच्चे हों तो दिखाना, यह मैंने नहीं कहा है। घाव दिखाने की आकांक्षा क्या? और अगर घाव ही दिखाने हों, तो सिर्फ दिखाने के लिए सच्चे की आकांक्षा  कर रहे हो? फिर झूठे ही दिखा लेना। और झंझट क्यों लेनी सच्चे घाव की।
लेकिन दिखाने का रस तो एक ही है कि घाव के माध्यम से सहानुभूति मांग रहे हो। कोई तुम्हारे दुख में सहभागी हो, यह रुग्ण आकांक्षा है। सुख में सहभागी करो। दुख में कोई साथ भी हो गया, कितनी देर साथ रहेगा!
तुम जरा इसे ऐसा सोचो, जब कोई तुम्हारे पास आकर अपनी दुख की कथा कहता है—सच्ची ही सही—तब तुम्हें क्या बडी प्रसन्नता होती है कि इनका संग—साथ दें! ऊब पैदा होती है कि इनसे कब छुटकारा हो, ये सज्जन कब जाएं। अपना ही दुख क्या कम है कि इनके दुख की कथा सुनें। किसके दुख में किसको रस है? शिष्टाचारवश तुम सुन लेते हो, यह एक बात है। या तुम्हें भी कुछ अपना दुख रोना है, इसलिए सुन लेते हो, यह दूसरी बात है। कि पहले तुम रो लो, फिर हम रोके। तो बराबर हो जाएंगे।
तुम किस आदमी को कहते हो कि वह बड़ा उबाने वाला है, बोर है? कौन आदमी को तुम कहते हो? उस आदमी को तुम बोर कहते हो जो अपनी तो सुना लेता है, तुम्हें मौका नहीं देता। और किसको तुम बोर कहते हो! जो तुम्हें तो सता लेता है और तुम्हें बिलकुल मौका नहीं देता कि तुम उसको सता सको। वह बोले ही चला जाता है।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूं। उनकी वजह से मैंने टेलिफोन छूना छोड़ दिया। वे टेलिफोन पर बोलते, तो बोलते ही चले जाते। हां—हूं कहने का भी अवसर नहीं देते। रखने की भी सुविधा नहीं देते, क्योंकि वह भी अशिष्टाचार मालूम होगा। घंटों! क्या प्रयोजन है? क्यों चाहते हो कि दुख को कहें? सुख को कहो। सुख को बांटो। मैं तुमसे यह कह रहा हूं अगर तुम सुख को बांटने लगो, तो तुम्हारा दुख अपने आप तिरोहित हो जाएगा। क्योंकि सुख बांटकर तुम्हें जो प्रेम मिलेगा, वह दुख बांटकर मिली सहानुभूति से बहुत अन्य है। दुख कहकर जो सहानुभूति मिलती है, वह तो प्रेम का आभास है। वह तो झूठा प्रेम है। वह तो मात्र शिष्टाचार है, सभ्यता है। सुख बांटो, प्रेम चाहो। तुम झूठे को क्यों मांग रहे हो?
यह कृष्णप्रिया का प्रश्न है। अब उसे तकलीफ लग रही है कि अब तो अपना सच्चा दुख भी न कह सकेंगे! लेकिन कहो क्यों? तो सवाल उठता है, यह तो दमन हो जाएगा।
नहीं, दमन के लिए मैंने नहीं कहा। दरवाजा बंद कर लो, अपने से ही कह लो। दिल खोलकर कहो। रोओ, छाती पीटो, लोटो। मगर यह जरा भी आकांक्षा  न हो कि कोई देखे। दुख क्या दिखाना! यह कोई शोभन है बात? घाव क्या उघाड़ने!
रास्ते पर तुम देखते हो बैठे भिखारियों को, घाव उघाड़—उघाड़कर बताते हैं। तुमने कभी बड़ा प्रेम अनुभव किया उनके प्रति? ग्लानि उत्पन्न होती है। तुम छिटककर भागते हो, कि यह क्या मामला है? कोई अपना कोढ़ से भरा हाथ दिखा रहा है, कोई टूटी टांग दिखा रहा है। वे क्या कह रहे हैं?
वे तुम्हारी सहानुभूति पर हमला बोल रहे हैं। वे सहानुभूति का शोषण कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, अगर आदमी हो, तो दो कुछ। वे तुमसे यह कह रहे हैं कि अगर न कुछ दिया, न देखा, तो दुनिया तुमको आदमी न कहेगी। वे तुम्हें एक झंझट में ड़ाल रहे हैं। वे तुम्हारे सामने एक प्रश्नवाची चिह्न खड़ा कर रहे हैं कि अब देखें बिना दिए जाते हो! अधार्मिक! जो देता है वह धार्मिक है। दान को तो शास्त्रों ने पुण्य कहा है, वे कह रहे हैं—भिखारी तुमसे कह रहे हैं—इधर देखो, और वे अपने घाव बनाए बैठे हैं। अक्सर तो झूठे! पर सच्चे भी हों तो भी किसी का घाव देखने को किसको उत्सुकता है? ऐसे ही रस हो तो अस्पताल चले गए, जरा देख आए सबको। किसको रस है? यह रस रुग्ण है।
जो तुम्हारे घाव देखने में रस लेता है, वह तुम्हें घाव में देखना चाहता है। उसको ही मनोवैज्ञानिक सैडिस्ट कहते हैं। वह परदुखवादी है। उसका रस गलत है, रुग्ण है, बीमार है। वह तुमसे और कहता है, जरा और उघाड़—उघाड़कर दिखाओ। उसका रस गंदा है। उसका रस स्वस्थ नहीं है। तुम भी रुग्ण हो कि अपना दुख दिखाते हो। दु:ख कोई दिखाने की बात है! एकांत में बैठ जाओ, रो लो। कोई मना नहीं कर रहा है, रेचन कर लो। जिंदगी सोज बने साज न होने पाए दिल तो टूटे मगर आवाज न होने पाए
आवाज क्या करनी! मगर दिल तो टूटते नहीं और तुम आवाज करते हो। तुम पोगों को यह बताना चाहते हो कि देखो, हम दिल तोड़कर बैठे हैं, अब तो आ जाओ। सहानुभूति दिखाओ, आंसू बहाओ। हमने दिल तक तोड़ दिया, अब और , क्या चाहते हो? जरूर मोहल्ले—पड़ोस में से कोई न कोई आ जाएगा और सहानुभूति दिखाएगा। या तो वह खुद भी रुग्ण है, और या फिर सिर्फ शिष्टाचारवश आया है। लेकिन किसको रस हो सकता है तुम्हारे दुख में? तुम्हारे नासूरों में किसको सौंदर्य का दर्शन करना है?
अपने तईं रखो। रेचन कर लो। ध्यान करो, एकांत में उनको उघाड़ लो, दीवालों से बात कर लो, पहाड़ों से बात कर लो, वृक्षों से कह दो, मगर आदमियों के सामने घाव मत उघाड़ो। क्योंकि अगर तुमने घाव उघाड़े और उनकी सहानुभूति तुम्हें मिली, तो तुम घावों को झूठा करने में लग जाओगे। तुम पक्का न कर पाओगे, कहां तक घाव सच्चे थे, और कहां झूठे हो गए। तुम घावों को बड़ा करने लगोगे। तुम घावों को रंगने लगोगे। क्योंकि इतने लोग आते हैं, अब जरा ढंग से ही दिखाना चाहिए। तुम कहानी को सजाने—संवारने लगोगे। तुम उसमें जोड़ने —घटाने लगोगे। और ऐसा नहीं कि दूसरे इस पर भरोसा करेंगे, तुम भी इस पर भरोसा करने लगोगे। बहुत बार दोहरायी गयी कहानी, चाहे झूठी ही हो, सच्ची हो जाती है।
नहीं, दुख की कहानी अब मत दोहराओ। डर है कि कहीं तुम्हें उन पर भरोसा न आ जाए। कहीं ऐसा न हो कि दुख ही तुम्हारा व्यवसाय हो जाए, जैसा कि बहुत लोगों का हो गया है। मैं तुम्हें सुखी देखना चाहता हूं। सुख की चर्चा करो। सुख के गीत गाओ। जिसके तुम गीत गाओगे, वह बढ़ेगा। जिसकी तुम चर्चा करोगे, वह फैलेगा। और जिसकी तुम बार—बार चर्चा करोगे, उसका तुम पर प्रभाव बढ़ेगा और तुम्हारी उस पर आस्था बढ़ेगी। तुम आयोजन कर रहे हो महासुख का, अगर तुम सुख की चर्चा करते हो। अगर तुम दुख की चर्चा करते हो, तो महादुख का आयोजन कर रहे हो। अब तुम पूछते हो, 'दमन की जिम्मेवारी किस पर?'
जैसे कि जिम्मेवारी मुझ पर होगी, क्योंकि मैंने कहा, दुख मत बताओ। चलो यह भी सही, जिम्मेवारी हम ले लेते हैं। छोड़ो तो, किसी बहाने सही। यह भी ठीक, दमन के लिए मैंने कहा नहीं, लेकिन दूसरे के ऊपर दुख उछालना तुम्हारा रेचन है। मैं तुमसे कहता हूं कचरा पड़ोसी के घर में मत फेंको, तुम कहते हो, तब हमारे घर में कचरा इकट्ठा हो जाएगा, तो फिर जिम्मेवार कौन! तुमसे कहा कब कि तुम कचरा मत फेंको? लेकिन कचराघर है, वहां फेंको। पड़ोसी के घर में नहीं फेंकना है। चलते, राह—चलते लोगों के ऊपर कचरा नहीं फेंकना है। क्योंकि तुम अगर पड़ोसी के घर में फेंकोगे, पड़ोसी तुम्हारे घर में फेंकेगा। लेन—देन की बात है। तो कचरा बदल जाएगा, छुटकारा कैसे होगा? यही हो रहा है। तुम दूसरों में दुख उडेलते हो, दूसरे तुममें दुख उडेलते हैं। बंद करो। यह नाता बुरा है। इससे एक बीमार समाज पैदा हुआ है।
जीवन में सदा स्मरण रखो, सुंदर के लिए प्रेम मांगो, असुंदर के लिए नहीं। सुख के लिए स्वागत मांगो, दुख के लिए नहीं। क्योंकि जिसके लिए तुम स्वागत मांगोगे, अगर स्वागत मिला, तो तुम फिर उसे बढ़ाओगे। स्वभावत: यह तो सीधा नियम है, गणित है। जब दुःख के कारण इतना स्वागत मिलता हो, तो फिर तुम कफन बांध कर घूमोगे। तुम सिर में कफन बाँध लोगे। जब दुख के कारण लोग इतना शहीद मानते हों तुम्हें, तो तुम सूली पर चढ़ जाओगे। तुम्हारे बहुत से शहीद इसीलिए सूली पर चढ़ गए हैं, क्योंकि उनको खयाल है—
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे मेले
मरने को भी तुम तैयार हो, मेला जुड़ना चाहिए। धूम—धड़ाका हो, फुलझड़ी— फटाके हों, फूलमालाएं पहनायी जाएं, तुम मरने को तैयार हो। जिंदगी तुम्हें काम की नहीं मालूम पड़ती। तुम्हारा दृष्टिकोण रुग्ण है। इसीलिए तो सारी पृथ्वी रोग से ग्रस्त है।
दुःख के संबंध में चुप रहो। वह चुप्पी, तुम्हारा दुःख में जो स्वार्थ है, उसको काट देगी। वह चुप्पी दुख से तुम जो मजा ले रहे थे, दुख में जो रस ले रहे थे, उसकी धारा को तोड़ देगी। उससे दुख मरेगा। तुम धीरे—धीरे दुखी न रह जाओगे।
सुख में नियोजन करो। हमेशा अपना लंगड़ा—लूलापन मत दिखलाओ। कुछ सृजनात्मकता दिखलाओ। लंगड़े हो, कोई हर्जा नहीं, चित्र तो बना सकते हो हाथ से। अगर किसी का प्रेम मांगना है, चित्र बनाकर। मूर्ति तो गढ़ सकते हो? अंधे हो, गीत तो गा सकते हो। बहरे हो, किसी को प्रेम से तो देख सकते हो। गलत के लिए मत मांगो। मत अपना कान दिखाओ कि मैं बहरा हूं। अपनी सुंदर आंख दिखाओ। मत अपनी टांगों को दिखाओ कि टूटी हैं। उन्हें छिपा लो। लोग वैसे ही दुखी हैं, उन्हें टूटी टलें क्या दिखाना! इससे प्रयोजन भी क्या है? टूटी टांगों का इतना विज्ञापन क्या? तुम्हारे हाथ तो ठीक हैं। मूर्ति बनाओ, कविता लिखो, सितार बजाओ। कुछ करो। सृजनात्मक के लिए मांगो।
इधर मेरे पास लोग आ जाते हैं। एक महिला एक पागल लड़के को लेकर आ गयी। उसने कहा, इसे आप ही सम्हांलिए। जैसे कि कोई भेंट लायी हो। मैंने कहा कि कभी पागलखाना खोलेंगे, तो इसको बुला लेंगे। अभी जरा मैं दूसरे पागलों से उलझा हूं। इन पागलों पर भी ध्यान देंगे, पर अभी उपाय नहीं है। उसने कहा कि यह कैसा आश्रम? दुखियो का कोई सहारा नहीं है। मैंने कहा, दुःख में मेरी उत्सुकता नही है। यह कठोर लगता है, लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं दुख में मेरी उत्सुकता नहीं है।
दुःख वादियों ने बड़े प्रचार किए हैं दुनिया में कि दुखी पर दया करो। मैं तुमसे कहता हूं सुखी पर दया करो। तो दुनिया में दुख कम होंगे। इन नासमझों की शिक्षाओं की वजह से दुख बढे हैं। वे कहते हैं, अंधे—लूली के हाथ—पैर दाबों। तो भी हाथ—पैर दबवाने हैं, वे अंधे—लूले होकर बैठे हैं।
एक लगड़ा आदमी एक औरत से भीख मांग रहा था उसके द्वार पर। उस औरत न कहा कि देखो, तुम तो भले—चंगे हो, जरा सा पैर में मालूम होता है मोच लग गयी। आंखें  तुम्हारी ठीक हैं, हाथ ठीक हैं। अंधे होते, तो मैं तुम्हें देती भी कुछ। यह लंगड़ा होने से क्या होता है? हजार काम कर सकते हो। आंखें  तो साबित हैं। आंख है तो जहान है।
तो उसने कहा, देवी जी, पहले मैं अंधा भी हुआ करता था। तब लोग यह कहते थे, अंधे हो, इससे क्या होता है? अरे, हजार काम कर सकते हो! अंधे कई काम करते हैं। तब से मैं लंगड़ा हो गया। अब देखो तो, लोग यह समझाने लगे फिर।
तुम अगर चाहते हो कि दुनिया से दुख मिटे, दुख घटे, तो लोगों की ऐसी स्थिति मत बनाओ कि जिसमें उनको दुख में स्वार्थ का हित मालूम होने लगे। श्रेष्ठ को सत्कारो। सुंदर को स्वीकारो। सुख का गुणगान करो। दुख है, उसका इलाज करो, मगर स्वागत नहीं। दुख है, उसको मिटाने का उपाय करो, लेकिन सम्मान नहीं। दुख है, उसे सहानुभूति दो, लेकिन इतनी नहीं, कि लगे कि तुम प्रेम में पड़ गए हो। दुखी को यह पता होना चाहिए कि लोग शिष्टाचार, संस्कार, सभ्यता के कारण सेवा कर रहे हैं। उन्हें सेवा में कोई रस नहीं आ रहा है। मजबूरी में सेवा कर रहे हैं। करनी पड़ रही है, इसलिए सेवा कर रहे हैं।
जब घर में तुम्हारे कोई बच्चा बीमार हो, तो उसे साफ—साफ पता चल जाने दो कि तुम्हारी बीमारी में कोई उत्सुकता नहीं है। तुम बीमारी को समाप्त करना चाहते हो। तुम सेवा कर रहे हो, क्योंकि बीमारी मिटे, इसलिए। लेकिन ज्यादा लाड़—प्यार मत बतलाओ, गले मत लगाओ, सिर मत सहलाओ, बच्चे को कहीं यह भ्रांति मत दे दो कि जब वह बीमार होता है, तब उसे प्रेम मिलता है। अगर यह एक दफा उसके मन में भाव आ गया कि जब मैं बीमार होता हूं तब प्रेम मिलता है, जब मैं स्वस्थ होता हूं तब कोई मेरी तरफ देखता भी नहीं, तुमने एक जहर का बीज बो दिया। अब यह बच्चा बीमार होना चाहेगा। अब जब—जब भी इसको प्रेम की कमी मालूम होगी जीवन में, यह बीमार पड़ जाएगा।
पूछो मनोवैज्ञानिकों से! वे कहते हैं, पचास से लेकर सत्तर प्रतिशत बीमारियां झूठी हैं। आदमी उनको पैदा कर रहा है। क्योंकि उन बीमारियों से कुछ मिलता है जो अन्यथा मिलता ही नहीं। जब तुम बीमार हो जाते हो, पास—पड़ोस के लोग तुम्हें देखने आने लगते हैं, जब तुम स्वस्थ थे, इनमें से कोई भी न आया। तभी आना था, ताकि स्वास्थ्य का रस पैदा होता। तब कोई न आया। जब तुम सुंदर दिखते हो, स्वस्थ दिखते हो, तो कोई नहीं कहता, अहा! कितने सुंदर! जरा तुम्हारी शकल पीली पड़ी और लोग मिलने लगे, कहने लगे, अरे! बड़े बीमार दिखायी देते हो। क्या हो गया? बीमार हो तो दफ्तर से छुट्टी मिल जाती है।
अगर मैं दुनिया बनाऊं, तो जब तुम स्वस्थ हो तब तुम्हें छुट्टी मिल जानी चाहिए। कि यह मौका है, गीत गाओ, नाचो, वृक्षों से मिलो, पहाड़ों पर जाओ। यह क्या, बीमार हुए कि छुट्टी! बीमार हुए तो कोई कह ही नहीं देते। बीमारी पर दया होनी चाहिए।
मैं तुम्हें एक अलग ही जीवन—दृष्टिकोण दे रहा हूं। दृष्टिकोण पूरा यह है कि बीमारी है, माना; होनी नहीं चाहिए। बीमारी है, माना, मिटाने का उपाय करेंगे। लेकिन इसके साथ प्रेम इत्यादि को पागना उचित नहीं है। दुनिया बहुत सुंदरतर हो सकती है।
जख्मे —दिल भी दिखा के देख लिया
बस तुम्हें आजमा के देख लिया
दागे —दिल से भी रोशनी न मिली
ये दीया भी जला के देख लिया
कितनी बार देख चुके हो, क्या मिला?
जख्मे—दिल भी दिखा के देख लिया
कितनी बार उघाड़े अपने जख्म और दिखाए, क्या मिला?
जख्मे—दिल भी दिखा के देख लिया
बस तुम्हें आजमा के देख लिया
सभी को तो आजमा चुके हो रो—रोकर। अब कब तक आजमाते रहोगे?
दागे—दिल से भी रोशनी न मिली
कहीं घावों से रोशनी मिलती है? दिल में ही सही घाव!
दागे —दिल से भी रोशनी न मिली
ये दीया भी जला के देख लिया
अब समझो भी, जागो भी।

आखिरी प्रश्न

अंगूठी गोल है और अंत नहीं है उसमें। आपके लिए मेरे प्रेम का भी अंत नहीं है। कल पहली बार आपका प्रवचन सुनने का सौभाग्य मिला। आपकी किताबें अब तक पड़ी थीं। प्रवचन से निष्पत्ति ली कि ढाई आखर प्रेम का पड़े सो पंडित होय, क्या सही है यह?

संदेह क्‍यों है? सही के लिए सदा बाहर से सहारा क्‍यों मांगते है हम? कब अपने पर भरोसा करोगे? प्रेम जैसी गहन बात भी उठती है, उस पर भी लगता है, पता नहीं सही हा, न हो।
इसीलिए तो परमात्मा चूक रहा है। परमात्मा सामने भी खड़ा हो जाए तो तुम किसी न किसी और से जाकर पूछोगे कि खड़ा तो था, सही है, या नहीं? तुम्हें अपने पर भरोसा क्या बिलकुल खो गया!
बिलकुल सही है, प्रेम के अतिरिक्त कोई शास्त्र नहीं। लेकिन प्रेम के शास्त्र की पहली शर्त यही है कि संदेह गिराओ, आस्था जगाओ। और आस्था किस में? अपने में। जब तुम्हारी आस्था स्वयं में न होगी, तो मुझमें क्या होगी? आखिर तुम्हीं तो मुझ पर आस्था करोगे! अगर तुम्हारी अपने में ही आस्था नहीं, तो अपनी आस्था पर क्या आस्था होगी? अंततः तो तुम्हीं हो।
धीरे—धीरे अपने पैरों पर भरोसा करो। धीरे — धीरे चाहे भूल हो, चूक हो, भटको भी तो हर्ज नहीं। उस भटकाव से भी शिक्षण मिलेगा, अनुभव होगा। लेकिन धीरे— धीरे यह कोशिश करो कि जब जीवन में कोई निष्पत्ति मालूम पड़े, कोई सार मालूम पड़े किसी बात का, प्रयोग करो। अपनी भीतर की आवाज थोडी सुननी शुरू करो। वहा परमात्मा बोलता है। बाहर की आवाजें कितनी ही मधुर हों, उनसे मुक्ति न हो सकेगी। बाहर की आवाजों से मुक्ति तभी हो सकती है, जब वे तुम्हें तुम्हारी आवाज पर लौटा दें। इसलिए मैं तुमसे इतना कठोर भी हो जाता हूं कभी।
अब तुमने तो बड़ी प्रेम की बात कही है, ' अंगूठी गोल है और अंत नहीं है उसमें। आपके लिए मेरे प्रेम का भी अंत नहीं है।
तुमने तो बड़े प्रेम से प्रश्न पूछा है। फिर भी तुम्हें लगेगा कि मैं कठोर हूं। जरूरी है कि मैं कठोर रहूं। मैं तुम्हें तुम्हारे पर ही फेंक देना चाहता हूं। तुम आत्मनिर्भर बनो। मुझसे क्यों पूछते हो, 'क्या सही है यह?' यह बात प्रेम की इतनी सही है, इस पर भी तुम्हें थोड़ा संदेह है। इसे जीवन में उतारो। मेरे कहने के कारण नहीं, तुम्हारे भीतर यह भाव उठा, इस कारण।
मुझे सुनो, समझो, लेकिन अंततः तो अपने भीतर के भावों को पकड़ो। मेरे पास तुम्हारे अंतर— भाव साफ होने लगें, बस काफी है। मैं तुम्हारे लिए कोई आदेश नहीं हूं। तुम मेरी तरफ मत देखो कि मैं तुमसे कहूं बाएं चलो, तो बाएं, दाएं चलो तो दाएं। इसी में तो खराबी हुई। लोग तुम्हें ऐसे ही तो चलाते रहे। और धीरे— धीरे तुम्हें अपने भीतर की वाणी सुनायी पड़नी ही बंद हो गयी।
मेरा प्रयोजन बिलकुल और है। मेरा उपयोग बिलकुल और है। तुम मेरे साथ रहकर अपनी चाल पहचान लो। तुम मुझे सुनकर अपने को सुनना जान लो। मेरी आवाज धीरे— धीरे तुम्हें तुम्हारी आवाज से परिचित करा दे। जब तुम्हें अपने भीतर का सूत्र मिल जाए, फिर उसके सहारे चलो। चलने का एक ही उपाय है कि तुम उसे प्रयोग करो।
अब तुम्हें लगा, 'ढाई आंखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
यह बात अगर समझ में आ गयी, तो और सब तरह का पांडित्य जो तुमने सीखा हो—ढाई अक्षर के अलावा—उसे कचरेघर में फेंक आओ। सब पेथी—पत्रा बांधकर कचरेघर में रख दो। अब तो ढाई अक्षर बस वेद है।
तो पहला काम कि ढाई अक्षर के अलावा जो भी कूड़ा—करकट तुम्हारे भीतर हो, उसे विदा करो, सफाई करो घर की, जगह करो। फिर दूसरी बात है, कि वह जो ढाई अक्षर है प्रेम का, वह पोथी में लिखा अक्षर नहीं है। अक्षर शब्द का मतलब होता है, जिसका कभी क्षय न हो। जो कभी मिटे न।
बस प्रेम ही है जिसका कभी क्षय नहीं होता। कभी मिटता नहीं। प्रेमी मिट जाते हैं, प्रेम नहीं मिटता। प्रेम करने वाले विलीन हो जाते हैं, खो जाते हैं, प्रेम बना रहता है। प्रेमी बदलते जाते हैं, प्रेम की कथा चलती रहती है। पात्र बदलते रहते हैं, लीला जारी। प्रेम का कथानक शाश्वत है।
ढाई अक्षर का अर्थ है, प्रेम करो, ऐसा प्रेम करो जिसका क्षय न हो। हालांकि तुम्हें तो जब भी तुम प्रेम करते हो तो ऐसा ही लगता है, अब इसका क्षय न होगा। और दूसरी घड़ी क्षय हो जाता है। तुम कह भी नहीं पाए कि क्षय कभी न होगा, कि क्षय हो गया। वस्तुत: तुमने कहा और क्षय हो गया। तुम्हारा कहना ही संदेह से निकलता है।
जब तुम किसी को कहते हो कि यह प्रेम सदा रहने वाला है, तभी जरा गौर से देखना, सदा में जरा नीचे उतरना, पैर ड़गमगाते पाओगे। सदा? फिर से विचार करो। सदा तुम कर सकोगे? तुम किसके आसरे पर यह भरोसा कर रहे हो? तुम्हारे आसरे पर? एक क्षण का तो ठिकाना नहीं है, अभी कुछ, अभी कुछ, अभी सुबह, अभी शाम, एक क्षण का तो ठिकाना नहीं है तुम्हारा! अभी क्रोध से जल रहे हो, अभी प्रेम से भर गए हो, अभी गीत उठता था, संगीत उठता था, अभी गाली निकल आयी है। तुम किसके आधार पर आश्वासन दे रहे हो?
नहीं, इतना बड़ा आश्वासन मत दो। कहीं यह आश्वासन बंधन न हो जाए। तगैर यह आश्वासन टूटेगा, तो तुम्हारी आत्मा खंडित होगी।
तुमने तो अब तक जितने प्रेम जाने हैं, सभी का क्षय हो जाता है। पत्नी का प्रेम जाना, बचा? मां का प्रेम जाना है, बचा? बेटे कहे चले जाते हैं कि ही मां, प्रेम करते है। लेकिन करते हैं? औपचारिकता रह जाती है। जाते हैं, पैर भी छू आते हैं, लेकिन मां आ जाए और दो—चार महीने साथ रह जाए, तो प्रेम का पता चल जाता है। जिस पत्‍नि को तुम प्रेम करते हो, मायके चली जाती है तो ऐसा नहीं लगता कि चलो, छूटतारा हुआ? एक दो दिन अब शांति से —रहेंगे, झंझट मिटी! घर से भागते हो। घर आते आदमियों के पैर मैं देखता हूं, उनमें वह गति नहीं होती, जो घर से जाते वक्त होती है। घर से निकलते लोगों को देखता हूं तब फड़कते निकलते हैं। चले, झंझट मिटी। घर लौटते ऐसे लौटते हैं कि अब फिर फंसे। फिर वही झंझट। पति पत्‍नियों से बात करने में डरते हैं, क्योंकि बात में से बात निकलती है। फिर पता नहीं कहां ले जाए। बात ही नहीं चलाते। चुप्पी साधे रहते हैं। अखबार पढ़ते हैं, रेडियो सुनते हैं, टेलीविजन देखते हैं, हजार दूसरे काम करते हैं, पत्नी से आंख नहीं मिलाते, क्योंकि कुछ बात निकल आए! और बात में तो सदा फिर काटे ही ऊगते हैं, कुछ सार तो लगता नहीं, विवाद खड़ा हो जाता है।
प्रेम? तुमने अपने बच्चों को प्रेम किया। अगर तुम्हारा बच्चा डाकू बन जाए, तुम प्रेम करोगे? राजनैतिक बन जाए तो करोगे। राजनेता हो जाए, अहा! सौभाग्य!! सब पुरखे प्रसन्न होंगे, तुम्हीं नहीं। स्वर्ग से पुरखे एकदम फूल बरसा के कि अपना ही वंशधर, देखो मंत्री हो गया। लेकिन डाकू हो जाए, चोर हो जाए, बेईमान हो जाए, बगावती हो जाए, शराबी हो जाए, तो तुम्हें स्वीकार करने में डर लगने लगता है कि मेरा बेटा है। प्रेम? यह प्रेम भी कुछ स्वार्थ मालूम पड़ता है। यह प्रेम भी कुछ महत्वाकांक्षाओं से जुड़ा मालूम पड़ता है।
नहीं, यह ढाई अक्षर वाला प्रेम नहीं है। तो फिर जरा तलाश करो, अपने प्रेम में तलाश करो, तुम वहां कहीं भी ढाई अक्षर वाला प्रेम न पाओगे। तब तुम्हें सोचना पड़ेगा।
'ढाई आखर प्रेम का।
तो तुम्हें प्रार्थना सीखनी पड़ेगी। तो तुम्हें फिर परमात्मा से प्रेम करना सीखना पड़ेगा। अक्षर से करोगे प्रेम, तो ही अक्षर होगा। प्रेम शब्द में ढाई अक्षर हैं—दो अक्षर हैं और एक मात्रा है, इसलिए ढाई। अंततः दोनों अक्षर खो जाते हैं, मात्रा ही रह जाती है। भक्त भी खो जाता है, भगवान भी खो जाता है, सिर्फ प्रेम रह जाता है। जब दोनों खो जाते हैं, तभी अक्षर बचता है।
जब तक दो हैं, तब तक तो थोड़ी कलह जारी रहती है। तब तक तो थोड़ा मान—मन्नौवल चलती है। रूठना—मनाना चलता है। जब तक दो हैं, तब तक तो डर है टूट जाने का। डर कहना ठीक नहीं, निश्चित ही है टूट जाना। दो को कब तक जोड़े रखोगे? द्वंद्व, द्वैत अक्षर में नहीं ले जा सकता।
किसी ऐसे प्रेम को खोजो जहां डूब जाओ, मिट जाओ, जहां तुम न रहो। जहां न मैं बचे, न तू बचे। जहां मात्रा भर बचे, बस प्रेम भर बचे। फिर अक्षर की उपलब्धि हुई; शाश्वत की, सनातन की उपलब्धि हुई।
ठीक सूत्र खयाल में आया है। अब इसको खो मत देना। अब इसको जोर से पकड़ो। यह तुम्हारी जीवन—दृष्टि, जीवन की दिशा बन जाए।
जब तलक दिल में मुहब्बत न हुई थी पैदा
ये जमीं सादा थी, जन्नत न हुई थी पैदा
जिंदगी में कोई लज्जत न हुई थी पैदा
जेहन और फिक्र में अजमत न हुई थी पैदा
जब तलक दिल में मुहब्बत न हुई थी पैदा
मेरे अफकार के फूलों में बहार आयी न थी
मेरे अशआर में रंगीनी— ओ—रानाई न थी
मेरे तखईल में नुदरत न हुई थी पैदा
जब तलक दिल में मुहब्बत न हुई थी पैदा
ये जमीं सादा थी, जन्नत न हुई थी पैदा
प्रेम स्वर्ग है। स्वर्ग का द्वार है। पृथ्वी ही परमात्मा हो जाती है, अगर तुम पर प्रेम बरस जाए। प्रेम मार्ग है।
लेकिन प्रेम से लोग बचते हैं। कहते तो बहुत हैं, चर्चा तो बहुत करते हैं प्रेम की, लेकिन बचते हैं। क्योंकि प्रेम में मिटना पड़ता है। प्रेम महामृत्यु है। मिटने की तैयारी करो। सभी शास्त्र तुम्हें बचा लेते हैं, प्रेम तुम्हें मिटा देता है, इसलिए वही असली शास्त्र है। सभी शास्त्र किनारे—किनारे हैं, प्रेम मझधार है। जो बचना चाहता है, किनारों को पकड़े रहे।
लेकिन जिसने बचाया, वह मिट जाएगा। जो मिटने की तैयारी रखता हो, मझधार में आ जाए। और मजा यही है, सनातन धर्म यही है—एस धम्मो सनंतनो—कि जो मिटा, वही बचा। मझधार में जो डूबा, उसी ने असली किनारा पाया है।
प्रेम आग में उतरना है, अंगारों पर चलना है। प्रेम अपने को मिटाना है। मृत्यु भी छोटी मृत्यु है प्रेम के सामने। क्योंकि मृत्यु में भी शरीर ही जाता है। तुम, तुम्हारा  मन तो सब बच जाते हैं। नए चोले, नए वस्त्रों में प्रवेश कर जाते हैं। प्रेम तुम्हारे मन को, तुम्हें डुबा ले जाता है। जो प्रेम में मरा, फिर उसकी कोई मृत्यु नहीं। जो बिना प्रेम के जीया, वह जीया ही नहीं।
जब तलक दिल में मुहब्बत न हुई थी पैदा
ये जमीं सादा थी, जन्नत न हुई थी पैदा प्रेम तो स्वर्ग का सूत्र है। मगर करोगे तो। प्रेम हो जाओगे तो। ये शब्द न रह जाए, ये किताबों में लिखे अक्षर न रह जाएं, ये जीवन में अक्षर का आविर्भाव बनें। और मुझसे मत पूछो कि ये सही हैं या गलत! मैं कौन हूं? करो और जानो। जीओ और जागो। परखो जीवन में। मेरे कहने से क्या होगा?
अगर मैंने कह दिया कि ही, ठीक है, इसलिए तुमने मान लिया, तो फिर तुमने शास्त्र बना लिया। फिर मैं तुम्हारा शास्त्र हो गया। फिर भी तुमने अंतर्वाणी न सुनी। फिर तुम किसी और से पूछ आए।
इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुमने बुद्ध से पूछा—धम्मपद से पूछा, जीसस से पूछा —बाइबिल से पूछा, मोहम्मद से पूछा—कुरान से पूछा, या मुझसे पूछा। पूछते क्यों हो?
भरोसा करो। अपनी आवाज पर थोड़ा भरोसा करो। अपने पैरों पर थोड़ा भरोसा करो। यह डर छोड़ो। यह डर भी मन का है। और यही मन तो सारे शास्त्रों को पकड़ता है। यह मुझे भी पकड़ लेगा। मैं जानता हूं तुममें से जो डरे हुए हैं, वे मुझे भी शास्त्र बना लेंगे। भय सदा शास्त्र बना लेता है। और जहां शास्त्र बना, वहीं धर्म की कब्र बन गयी।
तुम मुझे शास्त्र मत बनाओ, तुम मुझे अनुभव बनाओ। मुझसे सुनो, जीवन में परीक्षा करो। तुम उलटा करते हो। मुझसे सुनो, समझो! जीवन में जाकर जीवन से पूछो, क्या यह सही है? जो सुना, क्या यह सही है? जीवन तुम्हें उत्तर देगा। जीवन कसौटी है। तुम अभी उलटा करते हो। जीवन आवाज देता है, तुम मुझसे पूछने आते हो, क्या यह सही है?
एक युवक मेरे पास आया। उसने कहा, मुझे विवाह करना है, आप क्या कहते हैं? मैंने कहा, तू कर ही ले। क्योंकि जिसको नहीं करना, वह पूछने नहीं आता। तू कर ही ले।
उसने कहा, फिर आपने क्यों नहीं किया? मैंने कहा, मैं किसी से पूछने ही नहीं गया। पूछने जाता—तो मैं पूछने जाता ही नहीं, कर ही लेता। पूछने क्या जाना है! अपने से पूछना है। अब तू पूछने आया है, इसलिए मैं कहता हूं कर ही ले।
वह राजी न हुआ। क्योंकि मैंने उसी पर फेंक दिया। वह चाहता था, मैं कुछ कहूं। करेगा तो वह अपनी ही। कौन ने कब किसी और की की है?
इसे तुम थोड़ा समझो, ये बेईमानियां, धोखे बंद करो।
करेगा तो वह अपनी ही। वह जिम्मेवारी भर मुझ पर छोड़ना चाहता था। मैं कहता, कर ले, जरूर कर ले, बिलकुल ठीक है कर लेना; तो वह कहता, आप कहते हैं, इसलिए करता हूं। अगर उसको करना है, तो करेगा, कहेगा आप कहते हैं। अगर वह देखेगा कि नहीं, यह अपने को करना नहीं, तो किसी और से पूछेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन ने मुझसे कहा कि कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि दफ्तर जाने का मन नहीं होता, तो क्या करना? तो मैंने कहा कि यह बड़ा मुश्किल है। तू सिक्का हाथ में लेकर फेंक लिया कर, तय कर लिया कर।
अगर चित्त पड़ेगा तो जाएंगे, अगर पट्ट पड़ेगा तो नहीं जाएंगे। दूसरे दिन वह दफ्तर न गया। साझ को मुझे दिखा, मैंने कहा, क्या हुआ? उसने कहा, सिक्का फेंका था। मगर दस बार फेंकना पड़ा, तब पट्ट आया।
तुम मुझसे पूछोगे, किसी और से पूछ लोगे, मतलब की जब बात आ जाएगी—दस बार फेंक लोगे, जब पट्ट आ जाएगा—तो अपने मतलब की बात पूरी हो गयी। करोगे तो तुम अपनी ही, फिर शास्त्रों को, सदगुरुओं को बीच में क्यों लेते हो? उनको बीच में लेने के कारण धोखा पैदा होता है।

मेरी सुनो, करो अपनी। जिंदगी से पूछो, क्या सही है? जिंदगी के वक्तव्य कभी झूठे नहीं होते। मैं भी तुमसे कह सकता हूं, मैं जानता हूं कि जिंदगी का भी यहीं वक्‍तव्‍य है—ढाई आखर प्रेम का, पढ़े से पंडित होय।
लेकिन इतने सस्‍ते में तुम्‍हें मिल जाये तो तुम इसका मूल्‍य न समझ पाओगे।

जाओ, जिंदगी में खरीदो, अर्जित करो। जो अर्जन से मिलता है, उसका ही

मूल्य गहरा बैठता है। वही रूपांतरित करता है।

आज इतना ही।

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