शनिवार, 8 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-58



एस धम्मो सनंतनो-(भाग-06)
ओशो
प्रवचन-058-(स्व से होकर राह सर्व को)

सारसूत्र:

अत्तना' व कतं पापं अत्तजं अत्तसंभवं।
अभिमन्थति दुम्मेधं वजिरं व' स्ममयं मणिं।।१४०।।

यस्सच्चन्तदुस्सल्यिं मालुवा सोलमिवोततं।
करोति सो तथत्तानं यथा' नं इच्छति दिसो।।१४१।।

सुकरानि असाधूनि अत्तनो अहितानि च।
यं वे हितग्च साधुग्च तं वे परमदुक्करं।।१४२।।

यो सासनं अरहतं अरियानं धम्मजीविनं।
पटिक्कोसति दुम्मेधो दिट्ठिं निस्साय पापिकं।
फलानि कट्ठकस्सेव अत्तघग्भय फल्लति।।१४३।।


अत्तना' व कतं पापं अत्तना संकिलिस्सति।
अत्तना अकतं पापं अत्तता' व विसुज्झति।
सुद्धि असुद्धि पच्चतं नाग्भे अग्भ् विसोधये।।१४४।।

अत्तदत्थं परत्थेन बहुनापि न हापये।
अत्तदत्थमभिग्भय सदत्थ पसुतो सिया।।१४५।।

बुद्ध ने जो क्रांति की दृष्टि दी, उसका आधारभूत सूत्र है कि मनुष्य एकांत-रूप से उत्तरदायी है। किसी और के प्रति नहीं, अपने ही प्रति। पाप हो, तो मनुष्य जिम्मेवार है। पुण्य हो, तो मनुष्य जिम्मेवार है। किसी और पर टालने का कोई उपाय नहीं। बुद्ध ने आदमी के हाथ से टालने की व्यवस्था छीन ली।
बुद्ध ने कहा, तुम यह न कह सकोगे कि तुमने बुरा किया, क्योंकि तुम क्या करते, भाग्य ने करवाया! तुम यह भी न कह सकोगे कि जब परमात्मा करवाएगा शुभ, तब करेंगे। उसकी मर्जी के बिना क्या होता है! पत्ता भी नहीं हिलता।
नहीं, बुद्ध ने कहा, पत्ता भी अपनी मर्जी से हिलता है। ये टालने के ढंग हैं, बहाने हैं। आदमी की बेईमानी के हिस्से हैं।
जिनको तुम धर्म कहते हो, जरा गौर से देखना, कहीं उनकी ही ओट में तो अंधेरा नहीं छिपा है! कहीं दीया तले अंधेरा तो नहीं! कहीं ऐसा तो नहीं है कि धर्म की आड़ में ही तुमने अधर्म को छिपा दिया, ताकि उसे तुम खुद भी न खोज सको। दूसरे तो धोखा खा ही जाएं, तुम भी धोखा खा जाओ।
बुरा तुम करते हो, नाम नियति का लेते हो, भाग्य का लेते हो। शुभ तुम्हें करना है, कहते हो जब परमात्मा करवाएगा तब करेंगे। उसकी मर्जी के बिना कहीं कुछ होता है!
बुद्ध ने तुम्हें तुम्हारे ऊपर फेंका और कहा तुम्हारी मर्जी ही नियति है। तुम्हारा निर्णय ही भाग्य है। और भगवान तुम्हारे भीतर छिपा है। उसे कहीं और टालने की सुविधा मत जुटाओ। ऐसे ही तो जन्म-जन्म भटके, और कब तक भटकना है!
कहीं प्रार्थना परमात्मा से बचने का उपाय तो नहीं? कहीं प्रार्थना करके सुलझ गए, झंझट मिटी, धर्म कर लिया, ऐसी सरल बातें तो नहीं खोज रहे हो। पाप तुम करते हो, स्नान करने गंगा जाते हो। पाप तुमने किया, धोएगी गंगा! किसे धोखा दे रहे हो? गंगा को? अपने को ही धोखा दे रहे हो। तुमने किया तो गंगा कैसे धोएगी? तुम्हीं को धोना पड़ेगा।
यह तुम्हारी गंदगी तुम्हीं धोओगे, कोई और धोने को नहीं है। और जब तक तुम कहोगे कि कोई और धो दे, कोई और धो दे, तब तक यह गंदगी तुम बढ़ाते रहोगे। आखिरी परिणाम क्या होता है? गंगा स्नान करके लौट आते हो, पाप बंद तो नहीं होते, स्वच्छ-मन से फिर पाप में लग जाते हो। जैसे अब और करने की सुविधा मिली। अब जैसे वह पुराने पापों से तो छुटकारा मिला, अब तुम नए करने को मुक्त हुए। और एक तरकीब हाथ लगी कि जब फिर बहुत इकट्ठे हो जाएंगे, गंगा कोई बहुत दूर थोड़े ही है। फिर स्नान कर आएंगे।
ईसाई अपने पादरी के पास जाकर कन्फेसन कर आते हैं, पाप की स्वीकृति कर आते हैं, और सोचते हैं कि क्षमा हो गया। कह दिया, बता दिया, माफी मांग ली! पाप कहीं और किया था, माफी कहीं और मांगी। धोखा कैसा कर रहे हो! गाली किसी और को दी थी, चोट किसी और को पहुंचायी थी, घाव कहीं और छोड़े, चर्च में जाकर क्षमा मांग ली। यह चर्च तो फिर बहाना हुआ। इस पादरी को तो गाली न दी थी। इस पादरी के हृदय पर तो घाव न मारे थे। पाप तो इससे किए न थे। इसके सामने प्रकट करने से क्या होगा? यह तो फिर गंगा ही हो गयी। लौट आए हल्के मन, प्रसन्नचित्त, झंझट मिटी!
इतने सस्ते में छूट जाना चाहते हो! जिन पर घाव छोड़े हैं, थोड़ा सोचो तो! जहां घाव छोड़े हैं, थोड़ा सोचो तो! शरीर अगर गंदा हो, इतना कह देने से पादरी के सामने जाकर कि मैंने कई दिन से स्नान नहीं किया, स्नान हो जाएगा? पादरी को यह कह देने से स्नान कैसे हो जाएगा? हां, तुम्हारा मन भला हल्का हो जाए कि चलो एक बात मन में काटती थी, कचोटती थी, कह दी, निर्भार हुए। लेकिन निर्भार होकर भी करोगे क्या? फिर वही पाप करोगे। फिर वही बोझ इकट्ठा करोगे।
बुद्ध ने सब छीन लिया। उनकी क्रांति बड़ी मौलिक है। मूल से है। उन्होंने जड़ काट दी। इसलिए बुद्ध पर लोग नाराज भी हुए--ऐसे तुम सब सपने छीन लोगे! ऐसे कोई भ्रम न बचने दोगे!
यहीं तुम समझो। बुद्ध तुमसे यह नहीं कहते कि संसार ही माया है, वे कहते हैं, तुम्हारा परमात्मा भी माया है। तुम्हारी दुकान तो झूठ है ही, तुम्हारा मंदिर भी झूठ है। तुम्हारा पाप भी झूठ है, तुम्हारा पुण्य भी झूठ है। तुम झूठ हो। क्योंकि अब तक तुमने बुनियादी सत्य स्वीकार नहीं किया कि मैं जिम्मेवार हूं। जीवन की क्रांति की शुरुआत इस बात से होती है कि एक आदमी अपनी बागडोर अपने हाथ में ले लेता है; कहता है, बुरा-भला जैसा हूं, मैं जिम्मेवार हूं।
जरा सोचो तो, एक बार तुम्हें यह खयाल आ जाए कि मैं जिम्मेवार हूं, यह तीर तुम्हारे प्राणों में धंस जाए कि मैं जिम्मेवार हूं, यह तुम्हें बात भुलाए न भूले, यह तुम्हारे सोते-जागते चारों तरफ तुम्हें घेरे रहे, यह तुम्हारी हवा में, तुम्हारे वातावरण में समा जाए; यह तुम्हारे मन में जलता हुआ दीया बन जाए कि मैं जिम्मेवार हूं, इतनी आसानी से पाप कर सकोगे जितनी आसानी से अब तक किया? मैं जिम्मेवार हूं। फूंक-फूंककर पैर रखने लगोगे। कहते हैं, दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीने लगता है।
अगर एक बार तुम्हें स्मरण में आ जाए कि पाप मैंने किए, कौन मुझे छुटकारा देगा? मैं किसकी राह देख रहा हूं, कोई भी नहीं आएगा। कोई न कभी आया है, कोई न कभी आएगा। बंद करो यह द्वार, प्रतीक्षा बंद करो। तुम ही हो। तुम्हीं आए, तुम्हीं गए। कोई और नहीं आया है। तुम्हीं ने किया, तुम्हीं ने अनकिया भी। तुम्हीं ने अच्छा भी, तुम्हीं ने बुरा भी। लेकिन जिम्मेवारी आत्यंतिक है। अल्टीमेट है। कोई इसमें भागीदार नहीं हो सकता। किसी परमात्मा के कंधों पर रखकर तुम बंदूकें मत चलाओ। और किन्हीं तीर्थों की आड़ में पाप मत करो।
आज के सूत्र इसी संबंध में हैं।
'स्वयं से जात, स्वयं से उत्पन्न और स्वयं से किया गया पाप, दुर्बुद्धि मनुष्य को उसी तरह नष्ट करता है, जिस तरह पत्थर से ही पैदा हुआ वज्रमणि पत्थर को काटता है।'
'स्वयं से जात।'
तुमसे ही जन्म होता पाप का।
'स्वयं से उत्पन्न।'
तुमसे ही प्रकट होता पाप। जीता तुम्हारे ही सहारे है। ऊर्जा तुम्हीं देते, शक्ति तुम्हीं देते, साथ तुम्हीं देते।
'स्वयं से किया गया पाप।'
और तुम पाप कर किससे रहे हो? घूम-फिरकर सब तुम्हीं पर लौट आता है। दूसरों के बहाने तुम जो कर रहे हो, वह अपने से ही कर रहे हो। किसी को गाली तो दो--लौट आती है। थोड़ी वजनी होकर लौट आती है। थोड़ी पैनी होकर लौट आती है। थोड़ी निखरकर आ जाती है। धार साफ हो जाती है। और थोड़ा जहर लेकर लौट आती है। किसी को प्रेम तो करो--पुरस्कारों की वर्षा हो जाती है।
तुम जो दूसरे के साथ कर रहे हो, बुद्ध कहते हैं, दूसरा तो सिर्फ बहाना है। ये चिट्ठियां जो तुमने दूसरों के नाम लिखीं, इन पर तुम्हारा ही पता है। इन्हें तुम डाल आओ पोस्ट-आफिस में। सील-मोहर लगाकर पोस्ट-आफिस की, डाकिया तुम्हारे ही घर लौटा जाएगा। इन पर पता तुम्हारा है। इस जगत में तुम जो भी करोगे, अंततः तुम अपने से ही कर रहे हो।
'स्वयं से किया गया पाप।'
स्वयं के साथ ही किया गया है। इस गहरी बात को समझो। इसका स्वाद लो। तुमने अब तक जो किया है, वही तो लौट-लौट आया है। कभी निंदा की, निंदा लौट आयी। कभी घृणा की, घृणा लौट आयी। यह जगत एक प्रतिध्वनि है। गीत गुनगुनाओ, सारा जगत गीत गुनगुनाने लगता है। हंसो, दुनिया हंसती है। मुस्कुराकर आकाश को देखो, आकाश तुम्हारी तरफ मुस्कुराता मालूम होता है। उदास होकर चांदत्तारों को देखो, वे भी उदास हो जाते हैं, आंसू गिरने लगते उनकी आंखों से। तुम्हारा संसार तुम्हारे ही मन का फैलाव है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, यह मत सोचना कि तुमने किसी और के साथ पाप किया। क्योंकि और के साथ किया, तो ऐसा लगेगा, फिर कोई बचने का उपाय कर लेंगे। फिर कोई व्यवस्था जुटा लेंगे। माफी मांग लेंगे, क्षमा मांग लेंगे। प्रार्थना-पूजा कर लेंगे, पुण्य कर देंगे। लाख की चोरी की, थोड़ा दान कर देंगे।
सभी चोर दान करते हैं। चोरी भारी हो जाती है। दान करके हल्का कर लेते हैं। दिनभर घृणा, क्रोध करते हैं, थोड़ा प्रेम कर लेते हैं। जैसे समझा-बुझा रहे हैं।
बहके जो मैकदे में नमाजों पे आ गए
यूं आकबत को हमने संवारा कभी-कभी
जब मधुशाला में ज्यादा पी गए और परेशानी मालूम हुई, मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ ली। ऐसे इस दुनिया को भी सम्हाला, उस दुनिया को भी सम्हाला।
बहके जो मैकदे में नमाजों पे आ गए
यूं आकबत को हमने संवारा कभी-कभी
उस दूसरी दुनिया को भी सम्हालते रहे। होशियार लोग हैं। कुशल हैं। व्यवसायी हैं। गणित जानते हैं। मधुशाला में भी पी लेते हैं, मस्जिद में नमाज भी पढ़ आते हैं। ऐसे संसार को भी रिझा लेते हैं, परमात्मा को भी सम्हाले रखते हैं। उसे भी नाराज नहीं होने देते। चोरी कर लेते हैं, दान कर आते हैं। चोरों के भी देवता होते हैं। चोरी करने के पहले हनुमान जी पर जाकर नारियल चढ़ा आते हैं कि खयाल रखना, कहीं पकड़े न जाएं। अगर न पकड़े गए और चोरी सफल रही, तो एक नारियल और चढ़ा देंगे। नारियल सड़े होते हैं, यह बात और! पर चढ़ा देते हैं।
बुद्ध कह रहे हैं, कृत्य तुम्हारा है, तुम पर लौटेगा। देर-अबेर हो सकती है, वर्तुल छोटा-बड़ा हो सकता है, कभी तो जन्मों लग जाते हैं तुम तक लौटने में, इतना बड़ा वर्तुल होता है। जैसे कि तुम आवाज दो और चांदत्तारों से प्रतिध्वनि हो, तो जन्मों लग जाएंगे। बड़ा समय बीतेगा। पर लौटेगी प्रतिध्वनि। संसार के आखिरी किनारों से लौटेगी। तुम यहां न होओगे, तुम कहीं और होओगे, पर लौटेगी।
इसीलिए तो कई बार तुम चौंकते हो कि कभी बुरा तो किया नहीं, इतना दुख पा रहा हूं! किया होगा। निश्चित किया होगा। अकारण कुछ भी नहीं होगा।
बुद्ध की दृष्टि तो बड़ी वैज्ञानिक तर्क-सरणी की है। वे कहते हैं, जो मिलता है, वह दिया होगा। जो काटते हो, वह बोया होगा। जो भोग रहे हो, वह तुम्हीं ने निर्मित किया होगा। हम सब अपने ही बनाए घरों में रहते हैं।
'स्वयं से जात, स्वयं से उत्पन्न और स्वयं से किया गया पाप, दुर्बुद्धि मनुष्य को उसी तरह नष्ट करता है, जिस तरह पत्थर से पैदा हुआ वज्रमणि पत्थर को काटती है।'
होती पत्थर से ही पैदा है। वज्रमणि होती पत्थर से पैदा है। हीरा है तो पत्थर ही, फिर पत्थर को काटता है। तो यह मत सोचना तुम कि जो तुम्हें काट रहा है, वह तुमसे कैसे पैदा होगा? जो तुम्हें काट रहा है, वह तुमसे ही पैदा होगा। जो दूसरे को काट रहा है, वह दूसरे से पैदा होगा।
हम अपने-अपने जगत में रहते हैं। इस सत्य की स्वीकृति जिसने कर ली, वह प्रौढ़ हुआ। इस स्वीकृति के आते ही तुम्हारे जीवन में रूपांतरण शुरू होता है। क्योंकि अब अगर तुम दुख नहीं चाहते, तो दुख मत दो। प्रार्थनाओं से न टलेगा। पूजाओं से न टलेगा। अब अगर तुम दुख नहीं चाहते, तो दुख मत दो। अब अगर तुम सुख चाहते हो, तो सुख दो। लेकिन बड़ी कठिनाई है।
और कठिनाई यह है--उसे न समझोगे तो मुश्किल होगी--कठिनाई यह है कि तुम्हारे पास दुख ही दुख है देने को। तुम दुखी हो। एक शृंखला का जाल है। अतीत में जो कुछ किया है, उसने तुम्हें दुखी बना दिया है। फसल काट ली जहर की। घर जहर से भरा है। अब तुम करो क्या? तुम जो भी देने जाते हो, उसमें तुम्हारे हाथों की छाप पड़ जाती है। तुम भला भी करने जाते हो, तो बुरा हो जाता है।
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, हो क्या रहा है? हम भला भी करने जाते हैं, तो बुरा हो जाता है। हम सोना भी छूते हैं, तो मिट्टी हो जाता है। तुम्हारे हाथों ने लंबे अर्सों तक सोने को मिट्टी बनाया है। वे कला सीख गए हैं। इस पर भी नाराज मत होओ। इसे भी पहचानो।
तुम दुख दे रहे हो लोगों को, क्योंकि तुम दुखी हो। तब तो एक बड़ा दुष्ट-चक्र हो गया। तुम दुखी हो, इसलिए दुख दे रहे हो। दुख दोगे, और दुख आएगा। तुम दुखी बनते चले जाओगे। सिलसिला कैसे टूटेगा? सिलसिला तोड़ने की कला है। वही धर्म है। एस धम्मो सनंतनो।
क्या है कला? कला है, जब तुम्हें दुख आए, तो उसे भोग लो। उसे बांटो मत। द्वार-दरवाजे बंद कर लो, रो लो, छाती पीट लो, आंसू बहा लो, जल उठो दुख में, भस्म हो जाओ, मगर दूसरे को मत दो, बांटो मत। कितना ही भारी पड़े। टूट जाए कमर, गर्दन गिर जाए गिर जाने दो, मगर दुख को झेल लो। दुख से बचो मत। वह चुकतारा करना ही होगा। वह तुम्हारा ऋण है। वह तुम्हें चुकाना ही होगा। दुख को एकांत में झेल लो।
इसीलिए साधु एकांत में जाता है। वह सिर्फ समाधि की खोज में ही एकांत में नहीं जाता। क्योंकि मेरी समझ है, समाधि तो भरे बाजार में मिल जाती है। तुमसे मैं यह कहना चाहता हूं कि लोग एकांत में गए हैं सिर्फ इसलिए, ताकि दुख को अकेले में भोग लें और किसी को देना न पड़े। न होगा कोई, न दे सकेंगे। न होगा कोई, न किसी पर फेंक सकेंगे। झेल लेंगे। वह झेलना निखारेगा। जैसे आग सोने को निखारती है। उस झेलने से तुम कुंदन होकर बाहर आओगे। तुम्हारा रूप निखर जाएगा, तुम्हें अपरिसीम सौंदर्य मिलेगा।
ऐसे ही तो किसी दिन बुद्ध जंगल से वापस लौटे। वे छह वर्ष दुख को अकेले में भोगने के वर्ष थे। इसी को तपश्चर्या कहा है। तपश्चर्या का अर्थ नहीं है कि तुम कांटों पर लेटो। लेकिन कांटों पर लेटना पड़ता है। क्योंकि कांटे तुमने बोए हैं जन्मों-जन्मों तक। कौन लेटेगा? किसी और को लिटाओगे साथ कोई होगा। तप का इतना ही अर्थ है, तुम्हीं लेट लो। ताकि चुकतारा हो, ताकि शृंखला आगे न चले। तप का यह अर्थ नहीं है कि तुम भूखे मरो। लेकिन भूखे मरना होगा। क्योंकि तुमने भूखा मारा है। तप का यह अर्थ नहीं कि तुम धूप में खड़े रहो। लेकिन खड़े होना होगा। क्योंकि तुमने कितनों को धूप दी! छाया तुमने कब दी, याद आती है? किसको छाया दी? अपने लिए छाया खोजी होगी, लेकिन सभी को धूप दी। और जिसने सभी को धूप दी, उसने धूप पायी, वह छाया कैसे पा सकेगा?
इस प्रक्रिया को खयाल में ले लो। तपश्चर्या की प्रक्रिया है: अतीत के दुखों को अब और नहीं बांटना है, अब अपने किए को स्वीकार कर लेना है। अब किसी को उसमें साझीदार नहीं बनाना है, नहीं तो शृंखला जारी रहेगी।
बुद्ध पर कोई थूक गया, तो बुद्ध ने कहा, चलो, निपटारा हुआ। इसकी प्रतीक्षा करता था। नहीं तो बुद्ध होना मुश्किल था। कभी थूका था इस आदमी पर, राह देखता था--आ जाए, थूक ले, बात समाप्त हो।
वह आदमी तो समझा ही नहीं, बुद्ध के शिष्य भी न समझे। आनंद ने कहा कि नहीं, यह हमारी बर्दाश्त के बाहर है। हम आपके कारण चुप हैं, अन्यथा हम इस आदमी को ठीक कर दें। क्षत्रिय थे सभी। तलवारों को पकड़ने की पुरानी आदत थी, इतनी जल्दी थोड़े ही छूट जाती। क्रोध से भर गया आनंद।
बुद्ध ने कहा, इस पर मुझे आश्चर्य नहीं होता, आश्चर्य तुझ पर होता है। इससे तो मेरा लेना-देना है। जो दिया था, लौटा गया। यह तो बड़ा भला आदमी है। तू क्यों नाहक उबला जा रहा है? अगर तूने इसके साथ कुछ किया, तो ध्यान रखना, जैसा मैं निपटारा कर रहा हूं, कभी निपटारा करना पड़ेगा। मत फंस इस जाल में। मैं फंस चुका हूं। अभी-अभी बाहर आया हूं। तू फंसा जा रहा है। मैं इसी जाल के बाहर आ रहा हूं और तू भीतर जाने की कोशिश कर रहा है। तुझे देखकर आश्चर्य होता है, आनंद! फिर तेरे ऊपर थूका भी नहीं। थूका मेरे ऊपर है, तू क्यों परेशान होता है? जब मैं ही परेशान नहीं।
लेकिन जिन्हें परेशान होना है, वे दूसरों के कारण भी परेशान हो लेते हैं। जिन्हें पाप में गिरना है, वे दूसरों के बहाने भी पाप में चले जाते हैं। वे कहते हैं, मित्र जा रहा था वेश्यालय की तरफ, क्या करते? इंकार न कर सके। कि मित्र ने बहुत आरजू-मिन्नत की, सो पी गए--शराब पी ली--क्या करते?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, क्या करें, व्यवसाय में पीना पड़ता है। विदेशियों से धंधा है, क्या करें? पीना-पिलाना पड़ता है। मैं उनसे कहता हूं, पानी पी लिया करें, शरबत पी लिया करें, बहुत पाप ही करना हो, कोकाकोला पी लिया करें। कुछ भी पी लेना! क्यों, बहाने क्यों खोज रहे हो? कौन किसको जबर्दस्ती पिलाता है? किसने किसको जबर्दस्ती पिलाया?
हां, यह भी हो सकता है कि तुम न पीयो तो शायद दूसरे को भी खयाल आए। शायद तुम उसके सामने एक प्रश्न चिह्न बनकर खड़े हो जाओ। शायद तुम न जाओ वेश्यालय को, तो तुम्हारा मित्र भी ठिठक जाए।
नहीं लेकिन, लोग कहते हैं, क्या करें! क्यों इतने नपुंसक बनते हो? क्यों ऐसे बहे चले जाते हो, कोई कहीं ले जाता है। क्यों ऐसे बिन पतवार की नाव, बिन मांझी, क्यों ऐसे यहां-वहां डांवाडोल होते हो?
नहीं, लेकिन ये बहाने हैं। मित्र तो बहाना है। यह दूसरा तो बहाना है। तुम अपने पाप का जिम्मा भी पूरा अपने पर नहीं लेना चाहते। तुम कहते हो, क्या करें, मित्र ले गया। किसी ने कह दिया, किसी के घर भोजन के लिए गए थे, मांस खिला दिया। किसने कब खाया है कुछ जो नहीं खाना चाहा है? कोई नहीं तुम्हें ले जा रहा है कहीं। तुम जाना चाहते हो, इसलिए तुम उनका साथ खोज लेते हो, जो जा रहे हैं।
जिन्हें दुखी होना है, वे दूसरे का दुख भी अपने ऊपर ले लेते हैं। और जिन्हें सुखी होना है, वे अपने दुख की शृंखला को भी नहीं बढ़ाते। उसे रोज-रोज क्षीण करते हैं। उसकी निर्जरा करते हैं। रोज प्रसन्न होते हैं कि चलो एक और निपटारा हुआ। एक संबंध अटका था, वह भी मुक्त हुआ।
बुद्धत्व का अर्थ क्या है? मोक्ष का अर्थ क्या है? मोक्ष का अर्थ है, किनारे से फिर एक भी खूंटी लगी न रह जाए, नाव मुक्त हो। किनारा कहां है? ये दूसरे लोग ही किनारा हैं। इनमें ही तुम्हारी खूंटियां लगी हैं। तुम्हीं ने गड़ायी हैं, इसीलिए लगी हैं। ये तो बिचारे इंकार कर रहे थे कि मत गड़ाओ खूंटी, दुख होता है, बड़ी तकलीफ होती है, यह तुम क्या कर रहे हो? मगर तुम खूंटी ठोंके चले गए। तुमने सोचा, खूंटियों के सहारे तंबू लगाएंगे, घर बनाएंगे, सुंदर महल सजाएंगे। खूंटियां तो जरूरी हैं। लेकिन जो दूसरे की छाती में तुम ने खूंटियां ठोंकी हैं, वही तुम्हारा बंधन हैं।
तप का अर्थ है, तप का विज्ञान है, इस दुख को तुम एकांत में झेल लो, अब और न फैलाओ। दुख झेलो अकेले में, सुख भोगो साथ। जब दुखी होओ, एकांत में सरक जाओ, अंधेरे में, मौन में; जब सुखी हो जाओ, नाचो बाजार में। सुख बांटो, सुख मिलेगा। दुख बांटोगे, दुख मिलेगा। सुख को छिपाओ मत।
लेकिन हालतें उलटी हैं। लोग हंसने में शरमाते हैं। लोग नाचने में संकोच करते हैं। लोग गीत गुनगुनाने में बड़ा भय खाते हैं। किसी से कहो तो कि जरा गुनगुनाओ, गीत गाओ! वह कहता है, नहीं, मुझे आता ही नहीं, मेरा कंठ ही ठीक नहीं है। गाली देते वक्त इसका कंठ बिलकुल ठीक होता है। ऐसे तरन्नुम से और ऐसे लुत्फ से गालियां देता है! गाली देने का भी एक संगीत होता है। कुछ को आता है।
मैंने सुना है, अमरीका का बड़ा हास्य-लेखक हुआ--मार्क ट्वेन। उसे गाली देने में बड़ा रस आता था। और बड़ा कुशल गाली देने वाला था। जब देता था, तो रुकता ही नहीं था। देते ही चला जाता था। और एक गाली के पीछे दूसरी गाली ऐसे सरकती आती, जैसे उसकी जबान में फिसलन हो, कुछ अटकता न हो। पत्नी परेशान थी, घर के लोग परेशान थे, क्योंकि भद्द हो जाती, बेहूदी बातें हो जातीं। कहीं भी उतर आता वह। जरा पी लेता और बस शुरू कर देता।
सब तरह समझा चुकी थी। आखिर कोई रास्ता न देखकर एक दिन उसने दूसरी बात तय की। उसने कहा अब ऐसा ही है तो--सुबह ही मार्क ट्वेन उठा था, अखबार पढ़ रहा था कि कुछ बात हुई--कि पत्नी ने ऐसी गालियां दीं, उसी की गालियां थीं, मार्क ट्वेन की; चौंका। पत्नी गालियां बक रही है! सुनता रहा। फिर बोला और तो सब ठीक है, लेकिन अभ्यास करना होगा, वह संगीत नहीं! शब्द तो हैं, संगीत नहीं। गालियों में भी संगीत है। दे तो रही हो, लेकिन लुत्फ लेकर नहीं दे रही हो।
गालियां भी लोग चटखारे ले-लेकर देते हैं। स्वाद ले-लेकर देते हैं। गाने को कहो तो कहते हैं, कहां, कंठ ही नहीं है। गाली देने को कंठ मिल जाता है। बुरा करने को इनके हाथ में बल आ जाता है, शुभ करने को एकदम सिकुड़ जाते हैं।
सुख बांटो। जो बांटोगे, वह मिलेगा, वह बढ़ेगा, वह फैलेगा। वह तुम पर बरसेगा। दुख मत बांटो। तुम उलटा करते हो। जब दुख होता है, या तो तुम दूसरे को दुख देना शुरू कर देते हो, या अगर न कर सको इतना, तो कम से कम दुख कहना तो शुरू कर ही देते हो। दुख की लोग कथाएं कह रहे हैं। बढ़ा-चढ़ाकर कह रहे हैं। अतिशयोक्ति करके कह रहे हैं। इससे बचो।
तप का अर्थ है, दुख आ रहा है अतीत के संबंधों से, शृंखलाओं से, संस्कारों से, भोगूंगा मैं। किया मैंने है, किसी दूसरे को कहूं भी क्यों? तपस्वी अपने दुख को भोगता है, जलता है उस आग में। यही है उसकी धूप। यही हैं उसके कांटे। यही है उसका उपवास। इसलिए एकांत में हट जाता है कि कोई होगा, तो कहीं भूल-चूक हो जाए। कोई मौजूद होगा, शोरगुल सुन ले, सहानुभूति प्रगट करने आ जाए; नहीं, एकांत में चला जाता है। यह चेहरा किसी और को दिखाने का नहीं, यह बड़ा वीभत्स है। यह बड़ा कुरूप है। लौटेंगे फिर, जब चेहरे पर कोई और रौनक आ जाएगी, और कंठ किसी गीत से भर जाएंगे, और पैरों में नृत्य होगा, पायल बजती होगी, घूंघर साज देते होंगे, तब लौटेंगे। वीणा बजती होगी; कुछ होगा देने को, बांटने को, तब लौटेंगे। यह बदशकल, यह कुरूप स्थिति क्यों दिखाएं? किसको दिखाएं? क्या सार है? लोग वैसे ही काफी दुखी हैं।
जिसको यह जाग आ गयी, वह हट जाता है चुपचाप। तुमसे मैं नहीं कह रहा हूं, जंगल भाग जाओ। जंगल जाने की कोई जरूरत नहीं। जंगल बचे भी नहीं। लेकिन एकांत एक कमरा खोज लो, कोना खोज लो, घर में, गांव के बाहर, मंदिर में, मस्जिद में, कहीं भी, जहां तुम अकेले हो सको, वहां दुख को जी लो। और तुम पाओगे, दुख को जी लेने से, पीड़ित हो लेने से, रो लेने से, रेचन होगा, केथार्सिस होगी। तुम स्वच्छ हो उठोगे।
और यह स्वच्छता गंगा में नहाने की स्वच्छता नहीं है। यह स्वच्छता केवल जाकर पादरी के पास स्वीकार कर लेने की स्वच्छता नहीं है। यह स्वच्छता वास्तविक है। तुमने भोगा दुख, उससे तुम निखरे। और तब दुबारा किसी को दुख मत दो। तब तुमसे सुख की धारा बहेगी।
'स्वयं से जात, स्वयं से उत्पन्न और स्वयं से किया गया पाप, दुर्बुद्धि मनुष्य को उसी तरह नष्ट करता है, जिस तरह पत्थर से पैदा हुआ वज्रमणि पत्थर को काटता है।'
इसे संजोकर रख लो, हृदय की मंजूषा में। यह मत कहना कि मैं खुद ही अपने को दुख कैसे दूंगा? वज्रमणि काटती है पत्थर को ही, पत्थर से ही पैदा होती है। जरा गौर से देखना, तुम्हारे ही हाथ तुम्हें दुख दे रहे हैं।
कभी देखा! खुजली आ जाती है, तुम जानते हो कि ज्यादा खुजला लेंगे, लहूलुहान हो जाएंगे, पीड़ा होगी, फिर भी खुजलाए चले जाते हो। एक रस है, एक दुर्दम्य रस है। जानते हुए, बोधपूर्वक, फिर भी खुजलाए चले जाते हो। थोड़ी ही देर में लहू निकल आता है, चमड़ी फट जाती है, पीड़ित होते हो, तय भी करते हो, अब दुबारा ऐसा न करेंगे। खुजलाने से कहीं खुजली मिटी है? दुख देने से कहीं दुख मिटा है? अब तक तुमने खुजला-खुजलाकर अपनी आत्मा को बड़े घावों से भर लिया है। ये हाथ तुम्हारे हैं। यह आत्मा तुम्हारी है। अगर अभी भी दुख पूरा न हुआ हो, तो बात और! अन्यथा रोको।
फिर, इसे न देखने के लिए कि मेरे ही हाथ मुझे कष्ट दे रहे हैं, तुम मंदिर, मस्जिद खड़े करते हो। तुम कहते हो, परमात्मा क्या लीला दिखा रहा है? लीला तुम्हीं परमात्मा को दिखा रहे हो। कहते हो, हे परमात्मा, क्या लीला दिखा रहा है? परमात्मा को क्या पड़ी तुम्हें लीला दिखाने की! और तुम्हें लीला दिखाकर परमात्मा को क्या मिलने को है? यह कुछ लीला भी बड़ी सुंदर तो मालूम नहीं होती। यह लीला भी बड़ी वीभत्स है और बड़ी दुखपूर्ण है। एक दुख-स्वप्न की भांति है।
लोग कहते हैं, परमात्मा लीला कर रहा है। बुद्ध स्वीकार नहीं कर पाते। वे कहते हैं, यह तो...यह तो परमात्मा न हो, तो अच्छा। ऐसा परमात्मा जो यह लीला कर रहा है कि लोग कीड़ों की तरह बिलबिला रहे हैं, नर्क में जी रहे हैं, दुख पा रहे हैं, पीड़ा से सने हैं और पीड़ा ही बांट रहे हैं, और चारों तरफ अंधेरा बढ़ता जाता है, यह परमात्मा है अगर, तो फिर शैतान की परिभाषा क्या होगी?
तुम चकित होओगे। बुद्ध ने परमात्मा को कह दिया, नहीं है। क्योंकि बुद्ध के सामने दो ही विकल्प हैं: अगर परमात्मा है, तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि दुखवादी है। अगर परमात्मा है तो सैडिस्ट है। सताने में रस ले रहा है। लीला दिखला रहा है। इससे तो बेहतर है, कह दो कि परमात्मा नहीं है। कम से कम इल्जाम तो न रहा, शिकायत तो न रही, अपराध तो न रहा।
धर्म के सामने यह सवाल सदा से रहा है, अगर परमात्मा को स्वीकार करो, तो कठिन हो जाता है समझाना कि इतना संसार में दुख कैसे है? अगर परमात्मा को स्वीकार करो तो फिर दुख का भी स्रोत वही हो जाता है। दिन उससे आएंगे, तो अंधेरी रातें भी उसी से आ रही हैं। फूल उससे आ रहे हैं, तो कांटे भी उसी से आ रहे हैं।
तब तुम समझने की कोशिश करोगे तो समझ में आएगा, बुद्ध जड़ से इस प्रश्न को काट देते हैं; वे कहते हैं, परमात्मा नहीं है, बस तुम हो। और लीला दिखा रहे हो, तो तुम्हीं दिखा रहे हो। देख चुके काफी, बंद करनी है--ये रहे सूत्र! बुद्ध कहते हैं, ये रहीं कुंजियां, बंद करो थियेटर, घर जाओ!
जन्म से तो उड़ रहा निस्सीम इस नीले गगन पर
किंतु फिर भी छांव मंजिल की नहीं पड़ती नयन पर
और जीवन-लक्ष्य पर पहुंचे बिना जो मिट गया तू--
जग हंसेगा खूब तेरे इस करुण असफल मरण पर
ओ मनुज! मत विहग बन, आकाश बनकर जी!
मत पुजारी बन, स्वयं भगवान बनकर जी!
हो चुकी पूजा बहुत। छोड़ो पूजा। समझो। जागो। देखो, तुमने ही किया है। कोई दूसरा इस बीच मौजूद नहीं, जो इसे बदलेगा। तुम्हारा किया, तुम ही बदल सकोगे।
'मालव लता से वेष्टित शाल वृक्ष की भांति जिसका दुराचार उसे घेरकर फैला हुआ है, वह अपने प्रति ठीक वैसा ही करता है जैसा उसके शत्रु चाहते हैं।'
बड़ा प्यारा वचन है। तुम वही कर रहे हो, जो तुम्हारे शत्रुओं की आकांक्षा होगी कि तुम करो। तुम अपने शत्रु हो। तुमने अपना जीवन अपने हाथों नर्क बना लिया। यही तो शत्रु चाहते थे।
बुद्ध को किसी ने गालियां दीं और बुद्ध ने कहा, तेरी बात पूरी हो गयी हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव पहुंचना है। उस आदमी ने कहा, हम गालियां दे रहे हैं, यह कोई बात नहीं है!
बुद्ध ने कहा, मेरे लिए बात ही है, तुम्हारे लिए गाली होगी। दस साल पहले आना था। तब मेरे लिए भी गाली थी। तब मैं ऐसा पागल था कि दूसरों की भूलों के लिए अपने को दंड देता था। तब मैं ऐसा पागल था। दूसरों की भूलों के लिए अपने को दंड देता था--गाली तुम देते, दुख मैं पाता था। अब गाली तुम दे रहे हो, तुम्हीं जानो। अपना कुछ लेना-देना नहीं; हम इस बीच पड़ते ही नहीं। तुमने दी, तुम समझो। पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयां लाए थे। मेरा पेट भरा था, मैंने कहा, ले जाओ। क्या किया होगा उन्होंने?
उस गाली देने वाले आदमी ने भी कहा, क्या किया होगा, गांव में जाकर बांट दिया होगा। घर में खा लिया होगा, प्रसाद समझा होगा।
तुम भी अपनी गालियां ले जाओ। गांव में बांट देना, घर में खा लेना, प्रसाद समझ लेना। मेरा पेट भर चुका। दस साल पहले भर चुका। तुम जरा देर करके आए, मित्र! अब किसी और के अपराधों के लिए मैं अपने को दंड नहीं देता। अब मैं अपना शत्रु नहीं हूं।
तुमने कभी गौर किया! कोई आदमी गाली देता है, तुम क्यों क्रोधित हो रहे हो? क्रोध से तो तुम जलोगे, यह आग तो तुम्हारे भीतर उठेगी, यह तो तुम्हारे जीवन में घाव बनाएगी। तुम कहते हो, इसने गाली दी। माना। तुमने ली क्यों? देने तक बात थी, खतम थी बात। लिए बिना तो कोई दे नहीं सकता। जो जागा हुआ है, वह लेता नहीं है। वह कहता है, बड़ी कृपा, तुमने दी, अब ले जाओ वापस, हम लेते नहीं। तुमने खयाल किया, गाली तुम्हारे लेने पर निर्भर है, दूसरे के देने पर नहीं। देने वाला लाख सिर पटके, तुम न लोगे तो क्या करेगा? थकेगा, परेशान होगा। शायद जागकर लौटे।
वह आदमी बुद्ध को देखकर समझा होगा, सोचा होगा उसने, यह तो किसी नए ही ढंग की चेतना से मिलना हो गया। बुद्ध ने उसे चौंका दिया। वह रातभर सो न सका होगा। उसकी गाली उस पर ही लौटती रही होगी। वह करवटें बदलता रहा होगा। कहते हैं, सुबह वह भागा हुआ आया था क्षमा मांगने। बुद्ध ने कहा, छोड़ भी, जो हमने ली नहीं, उसके लिए हम क्षमा कैसे दें! तू ही जान, तेरा ही काम। यह सब तेरा ही हिसाब है। एकालाप, मोनोलाग। यह डायलाग नहीं है। दूसरा बोला ही नहीं, हम कुछ बोले ही नहीं, हम कुछ कहे ही नहीं।
तुमने एकालाप देखा? कुछ कलाकार होते हैं, जो एकालाप करते हैं। वे सभी पात्रों का अभिनय अकेले कर देते हैं। तांगे वाले भी वही हैं, तांगे पर बैठने वाले भी वही हैं, रास्ते पर चलने वाले भी वही हैं। तांगे वाले की तरफ से भी आवाजें मारते हैं, घोड़े को हांकते हैं, ग्राहक की तरफ से भी आवाज देते हैं, रास्ते पर चलते लोगों का भी शोरगुल करते हैं। एक ही आदमी सब काम कर लेता है, पर्दे की आड़ में।
तुमने सब काम किए। तुम ही करने वाले हो, और तुम्हीं पर सब हुआ। एकालाप है तुम्हारा जीवन। संवाद नहीं है इसमें।
इसीलिए तो रोज-रोज ऐसा होता है, तुम पत्नी से कुछ कहते हो, पत्नी कुछ और अर्थ ले लेती है। तुम लाख सिर पटको, तुम कहो, यह मेरा मतलब न था। पत्नी कहती है, यही तुम्हारा मतलब था। तुम खुद ही कह रहे हो यह मेरा मतलब न था, लेकिन पत्नी फिर भी नहीं सुनती। वह कहती है, यही तुम्हारा मतलब था। एकालाप चल रहा है। इस एकालाप के बाहर आओ। मौन बनो।
'मालव लता से वेष्टित।'
जैसे कोई लता घेर ले वृक्ष को, इसी भांति दुराचार जैसे घेरकर फैला हुआ है।
'वह अपने प्रति ठीक वैसा ही करता है जैसा उसके शत्रु चाहते हैं।'
तुम अपने शत्रुओं के हाथ में खेल रहे हो। यह कैसा षडयंत्र तुमने किया है? तुम अपने ही मित्र नहीं। मेरे देखे, तुम अगर प्रसन्न होना चाहो तो कोई तुम्हारी प्रसन्नता में बाधा नहीं डाल सकता। हां, अगर तुम दुखी होना चाहो, तब भी कोई बाधा नहीं डाल सकता। मगर यह सत्य इतना कठिन है, इसे स्वीकार करने में मन झिझकता है। यह कहता है, मैं खुद ही दुख दे रहा हूं? कभी नहीं। दूसरे दुख दे रहे हैं। जब तुम कहते हो, दूसरे दुख दे रहे हैं, तभी तुम मोहताज हुए, तभी तुम भिखारी बने। अब दूसरे ही सुख देंगे, तो मिलेगा।
इसे तुम समझो। इस गणित के पीछे उतरो। अगर तुमने कहा, दूसरे दुख दे रहे हैं, तो इसका अर्थ हुआ, जब दूसरे सुख देंगे, तभी। तो तुम तो भिखारी हो गए। जो दूसरे देंगे, वही। तुम मालिक न रहे।
बुद्ध चाहते हैं तुम मालिक बनो, स्वामित्व की घोषणा करो। तुम कहो, मैं अपने को सुख देता, मैं अपने को दुख देता, जो मेरी मर्जी वही मैं करता हूं। तुम दूसरे से अपने को मुक्त कर लो।
तुम अगर इसे थोड़ा भी प्रयोग करके देखो, तुम हंसोगे। इस बात पर हंसोगे कि अब तक इस सीधी सी सरल बात को समझा क्यों न? पत्नी कुछ कहे चली जा रही है, तुम हंसते ही रहो। तुम कहो कि हमने हंसने का ही तय किया है, हम प्रसन्न ही रहना चाहते हैं। तुझे जो करना हो तू कर, यह तेरा मन, तेरी मर्जी। तुझे दुखी होना हो दुखी हो, बाकी हम तय करके आए कि आज सुखी ही रहेंगे। तुम जरा देखो कि तुम्हारे निर्णय के साथ ही सुख की एक धारा बहने लगती है। तुम चकित होकर पाओगे कि तुम जैसे उपद्रव के बाहर खड़े हो। जैसे पत्नी किसी और से कह रही है, तुम साक्षी हो गए।
राम को, स्वामी रामतीर्थ को अमरीका में कुछ लोगों ने घेर लिया, गाली-गुफ्ता की, हंसी-मजाक उड़ाया, वे बड़े हंसने लगे। उनमें से एक ने पूछा कि हंसते हैं? दिमाग खराब है? हम तो गालियां दे रहे हैं, मजाक उड़ा रहे हैं। उन्होंने कहा, हम भी इसीलिए हंस रहे हैं कि देखो राम, कैसी फजीहत हो रही है! अब देखो! हम भी मजा ले रहे हैं, जैसा तुम मजा ले रहे हो।
मुझे बचपन की एक याद है, उसको मैं कभी नहीं भूल पाता। उस पहलवान का नाम मुझे याद नहीं रहा। गांव में एक पहलवान आया था। बड़ा दंगल था। वह हार गया। गांव के पहलवान से हार गया। हार-जीत तो बड़ी बात न थी, लेकिन जब सारे लोग तालियां बजाकर हंसने लगे उसकी हार पर, तो वह भी ताली बजाया और हंसा। सन्नाटा छा गया। वह बीच मैदान में खड़ा है--हारा हुआ पहलवान--उसने ताली बजायी और हंसा, और एक सन्नाटा छा गया। लोगों की हंसी रुक गयी, यह क्या मामला है? वह और खिलखिलाकर हंसा। सिर्फ उसकी हंसी गूंजने लगी। किसी ने पूछा, यह मामला क्या है? तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया? उसने कहा, दिमाग खराब नहीं हुआ, हम भी देख रहे हैं, बड़े पहलवान बने फिरते थे, खूब खायी, चारों खाने खायी।
उसको मैं भूल ही नहीं पाता। वह आदमी अदभुत था। उसने हार को जीत में बदल दिया। जीता हुआ उदास खड़ा था सामने। बस्ती हंस रही थी, चुप हो गयी। हारा हुआ जीत गया। वह आदमी सिर्फ पहलवान न रहा होगा। गहरी उसकी फकीरी थी। शरीर से उसका नाता न था। और उसकी हंसी भी मैं नहीं भूल पाता। वह दिल खोलकर हंसा था। वह कोई ऐसी हंसी न थी, जैसे कोई जबर्दस्ती हंसता है। जैसे फूल झरे। उसने सन्नाटा ला ही दिया।
तुम जरा जिंदगी को ऐसे दूर खड़े होकर देखना शुरू करो। वही बुद्ध कह रहे हैं। मगर हम दूसरों के हाथ में खेलते रहते हैं। हमने अपनी कुंजियां दूसरों के हाथों में दे दी हैं। हम बांट आए अपना स्वामित्व। कोई दुखी है, पूछो क्यों? वह कहता है, क्या करें, दुर्भाग्य से एक कर्कशा स्त्री मिल गयी।
सुकरात से एक जवान आदमी पूछने गया...उसको बड़ी कर्कशा स्त्री मिली थी; जेन थिप्पे उसका नाम था। कहते हैं, ऐसी औरत बड़ी मुश्किल से मिलती है। कर्कशा औरतें तो बहुत होती हैं, मगर वह बेजोड़ थी। वह अतुलनीय थी। सुकरात जैसा प्यारा आदमी! वह पत्नी इतनी उपद्रवी थी कि उसे एक क्षण चैन से न बैठने दे। मारती-पीटती भी थी। एक दफा तो उबलती हुई चाय के पानी को उसके चेहरे पर डाल दिया, आधा चेहरा उसका जल गया, जिंदगीभर जला रहा। आधा काला पड़ गया था। एक युवक उससे पूछने गया। निश्चित ही युवक शादी न करना चाहता होगा, नहीं तो कौन सुकरात से पूछने जाता। शादी करनी हो तो किसी ऐसे आदमी से पूछो जिसको जिंदगी में कोई ढंग की औरत मिली हो। सुकरात से पूछने गया था--करना न चाहता होगा! लोग बड़े हिसाब से चलते हैं। मगर सुकरात ने जो जवाब दिया, उसको मुश्किल में डाल दिया।
उसने पूछा कि मैं शादी करूं या न करूं, आप क्या कहते हैं? आप तो बड़े अनुभवी हैं। सुकरात ने कहा, करो। अगर कर ली शादी और पत्नी सुंदर मिल गयी, अहोभाग्य! सुख से जीओगे। अगर मेरे जैसी पत्नी मिल गयी, तो मेरे जैसे दार्शनिक हो जाओगे। साक्षीभाव जगाना ही पड़ता है। अब अगर रोज पिट रहे हो और ऊपर चाय का पानी डाला जा रहा है, तो साक्षी बनना ही पड़ेगा। और कोई उपाय नहीं। सुकरात ने कहा, तुम कर ही लो। हर हालत में फायदा है। कैसी ही पत्नी मिले, फायदा तो है ही।
हमने चाबियां बांट दी हैं। हमने अपनी कुंजियां बांट दी हैं। कुछ बेटे के हाथ में हैं, कुछ पत्नी के, कुछ पति के हाथ में हैं, कोई बाप के, कोई...फिर इतने से भी हमारा चैन नहीं होता, तो मंदिर-मस्जिद; पंडा-पुजारी; बांटते फिरते हैं।
जितनी देखी दुनिया सबकी देखी दुलहन ताले में
कोई कैद पड़ा मस्जिद में, कोई बंद शिवाले में
किसको अपना हाथ थमा दूं किसको अपना मन दे दूं
कोई लूटे अंधियारे में, कोई ठगे उजाले में
पर सब तरफ। असल में जब तुमने किसी के हाथ में हाथ दिया, तभी तुम ठगे गए। हाथ अपने हाथ में रखो। हाथ अपना स्वतंत्र रखो, मुक्त रखो। हाथ दिया नहीं कि गुलामी आयी नहीं। कितनी सस्ती बातों पर तुमने अपने को बेचा है! किसी ने जरा पीठ थपथपा दी, उसी के हो गए। किसी ने कह दिया, बड़े सुंदर हो, उसी के हो गए। किसी ने कह दिया, बड़े बुद्धिमान हो, उसी के हो गए। खाक बुद्धिमानी रही! बुद्धू साबित हुए। किसी ने कह किया, बुद्धिमान हो, उसी के हो गए।
अर्श पर क्यों दिमाग-ए-अर्श उड़ा
मुफ्त की वाह-वाह से पूछो
आसमान पर क्यों उड़ने लगे?
मुफ्त की वाह-वाह से पूछो
लोग हैं चारों तरफ, जो सस्ते में खरीदने को तैयार हैं। संसार तो बाजार है। वहां तुम टिकटी पर खड़े हो, बोली लग रही है, नीलाम हो रहा है, सस्ते में बिक जाते हो। कभी सोचा तुमने कि कैसी सस्ती बातों में तुम बिक गए? इंकार न कर सके। कोई वाह-वाह कर रहा था। कोई ताली पीट रहा था। किसी ने तुम्हारी जरा प्रशंसा कर दी थी। तुम्हारा आत्म-गौरव बड़ा कम है। तुम्हारे जीवन में स्वयं का भाव बड़ा कम है। तुमने अपने को कूड़े-करकट की तरह बेचा।
अब तड़फते हो, अब रोते हो कि गुलाम हो गए, अब इतनी जगह बंध गए। अभी भी खींच ले सकते हो। यह देना-लेना तुम्हारे हाथ की बात है। दूसरों के कारण सुखी-दुखी मत होओ, मुक्त हो गए। दूसरों के कारण सुखी-दुखी होओ, गुलाम हो गए।
'उसे करना बहुत आसान है जो अशुभ है और अपने ही अहित में है। और उसे करना परम दुष्कर है जो अपने हित में है और शुभ है।'
बड़ी अजीब बात कहते हैं बुद्ध।
'उसे करना बहुत आसान है जो अशुभ है और अपने अहित में है।'
क्यों आसान है? क्योंकि सारी दुनिया तुम्हें तुम्हारे हित में नहीं देखना चाहती। दुनिया तुम्हारा शोषण करना चाहती है। तो जो तुम्हारा शोषण करना चाहता है, जो तुम्हारे खीसे में हाथ डालना चाहता है, वही तुम्हारी इस तरह की भावनाओं को सजग करता है, जगाता है कि तुम बिक जाओ। कोई अकारण तुम्हें नमस्कार भी नहीं करता।
जरा सोचो तो। पद पर थे, प्रतिष्ठा पर थे, तो लोग नमस्कार करते थे। पद से उतरे नहीं कि फिर कोई पूछता नहीं। फिर कोई नहीं पूछता कि कौन हो? कहां जा रहे हो? क्या हुआ? कहां से आ रहे हो? लोग कन्नी काट जाते हैं। देखकर अनदेखा कर देते हैं। जरा जागकर देखो, जो तुम्हारी प्रशंसा कर रहे हैं, वे तुमसे कुछ लेने आए हैं, वे तुम्हें खरीदने आए हैं।
अर्श पर क्यों दिमाग-ए-अर्श उड़ा
मुफ्त की वाह-वाह से पूछो
क्यों यह कठिन है अपने हित में जीना? क्योंकि तुम अगर अपने हित में जीओ, तो तुम दूसरों के हित में न जी सकोगे। और सभी की उत्सुकता यह है कि तुम उनके हित में जीओ। पत्नी चाहती है पति पत्नी के हित में जीए। पति चाहता है पत्नी पति के हित में जीए। बाप चाहता है बेटा मेरे हित में जीए, बेटा चाहता है बाप मेरे हित में जीए। हितों का बड़ा संघर्ष है।
हर बात में आपा-धापी है चालाकी है तर्रारी है
दुनिया के फसाने का उन्वां मक्कारी है ऐय्यारी है
अफसोस है कि ऐसी दुनिया में
तू मस्त-ए-मय-ए-खुद्दारी है
तेवर तो देख जमाने के
जड़ काट के रख तक्लीद की तू
बुनियाद भी रख तस्दीक की तू
उम्मीद भी रख ताईद की तू
तू तेवर भी देख जमाने के
तेवर तो देख जमाने के
चारों तरफ एक गहन संघर्ष है। लोग तुम पर कब्जा करना चाहते हैं। दुनिया बड़ी है। सभी तुम पर कब्जा करना चाहते हैं। मां अपनी तरफ खींचती है, पत्नी अपनी तरफ खींचती है। मंदिर अपनी तरफ खींचता है, मस्जिद अपनी तरफ खींचती है। सभी तुम पर कब्जा करना चाहते हैं। बाजार बड़ा है, खरीददार बहुत हैं, बिकने को तुम अकेले टिकटी पर खड़े हो। अगर होश न रखा, तो तुम भटक जाओगे।
हर बात में आपा-धापी है चालाकी है तर्रारी है
दुनिया के फसाने का उन्वां मक्कारी है ऐय्यारी है
अफसोस है कि ऐसी दुनिया में
तू मस्त-ए-मय-ए खुद्दारी है
और तुम अपने अहंकार की शराब में डूबे खड़े हो। चारों तरफ तुम्हें खरीदने की दौड़ लगी है और तुम अपने अहंकार की शराब में बेहोश हो। बिकोगे, कटोगे, टुकड़े-टुकड़े हो जाओगे। खंड-खंड होकर छितरोगे, बिखरोगे। जोड़ना मुश्किल हो जाएगा।
तेवर तो देख जमाने के
जरा देखो तो दुनिया की नजर, किस भांति तुम पर लगी है! किस तरह तुम्हें बेच लेने को, बाजार में रख देने को सभी की उत्सुकता है!
तेवर तो देख जमाने के
जड़ काट के रख तक्लीद की तू
अनुकरण की जड़ को काट दो।
बुनियाद भी रख तस्दीक की तू
मौलिक होने की बुनियाद रखो। स्वयं होने की बुनियाद रखो, उधार होने की नहीं।
उम्मीद भी रख ताईद की तू
और सफल होने की आशा भी रखो।
तू तेवर भी देख जमाने के
तेवर तो देख जमाने के
क्या कठिनाई हो गयी आदमी को? क्यों यह मुश्किल हो गया अपने हित में होना? छोटा बच्चा पैदा होता है...मनस्विद बड़ा श्रम कर रहे हैं आधुनिक समय में। पिछले पचास वर्षों में बच्चे के संबंध में बड़ी खोजें की गयी हैं, जो कि पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में कभी नहीं की गयी थीं। बच्चा खोज का कभी कारण ही न रहा था। बच्चे की खोजों ने इतनी साफ बातें कर दी हैं कि बुद्धों के वचन आज पहली दफा ठीक-ठीक गणित की तरह समझे जा सकते हैं।
छोटा बच्चा पैदा होता है--असहाय, निर्भर। उसी पहले क्षण से जीवन के, दूसरे उसका शोषण शुरू कर देते हैं। अगर छोटा बच्चा जब मां चाहती है तब दूध न पीए, तो मां नाराज हो जाती है। बच्चे की भूख की किसी को फिक्र नहीं है! मां को सिनेमा देखने जाना है, बच्चे को दूध पीना चाहिए। बच्चे को भूख भी लगी या नहीं! बच्चे से कोई नहीं पूछता तेरा हित क्या है? तेरा सुख क्या है? अभी तू क्या चाहता है? बच्चे को कोई पता नहीं कि सिनेमा भी होता है। अगर बच्चा दूध पीने से इंकार करे, मां नाराज होती है। जब बच्चे को भूख लगती है तब मां दूध पिलाने को जरूरी नहीं कि राजी हो, क्योंकि मेहमान घर में बैठे हैं। बच्चे को कुछ पता नहीं कि मेहमान क्या बला हैं! और ये क्यों बैठे हैं घर में, उठते क्यों नहीं? और ये इसी वक्त क्यों आए, जब मुझे भूख लगी है? बच्चा रोता है, तो पिटाई होती है।
बच्चे को जब भूख लगती है, तब जरूरी नहीं मां दूध दे। बच्चे को जब भूख नहीं लगती, तब भी मां दूध देती है। और धीरे-धीरे बच्चा एक बात समझ लेता है कि मेरे हित का सवाल नहीं है। मां की तरफ देखने लगता है कि कब वह दूध देना चाहती है, तब दूध ले लेता है। कब वह नहीं देना चाहती, तब चुपचाप पड़ा रहता है--सिकुड़ा। रोना चाहता है, चिल्लाता भी नहीं, क्योंकि और पिटेगा, उससे कुछ सार नहीं; करके देख लिया।
फिर ऐसे ही जीवन की बुनियाद पड़ती है। बच्चा कुछ करना चाहता है, मां-बाप कुछ करवाना चाहते हैं। हर जगह बच्चा पाता है, मेरे हित में और उनके हित में विरोध है। और मेरे हित को पूरा करना असंभव है, क्योंकि मैं असहाय हूं, निर्भर हूं, उनका ही हित पूरा करना पड़ेगा। वे ताकतवर हैं, शक्तिशाली हैं। झुकना होगा। उनके हाथ में रोटी है, मकान है, कपड़े हैं। धीरे-धीरे बच्चे ने अपने को बेचना शुरू किया।
तुमने कभी देखा--मैं गौर से देखता रहा हूं--अगर छोटा बच्चा मुस्कुराए तो जरूरी नहीं कि मां मुस्कुराए उस वक्त। लेकिन जब मां मुस्कुराती है, तो बच्चे को मुस्कुराना चाहिए। जब मां मुस्कुराती है तो बच्चे को मुस्कुराकर उत्तर देना चाहिए। इसकी अपेक्षा है। अगर बच्चा उत्तर न दे, तो नाराजगी है। नाराजगी बच्चा अभी उठा नहीं सकता। बहुत महंगी है। अभी इतना समर्थ नहीं। लेकिन बच्चा अगर मुस्कुराए तो जरूरी नहीं है कि मां मुस्कुराए। हजार और काम भी हैं। यह कोई फुरसत की बात है। जब होगा समय तब मुस्कुरा लेगी।
धीरे-धीरे बच्चा एक बात सीख लेता है कि इस संसार में अगर जीना हो, तो अपने हित की बात भर मत करना। बच्चा राजनीतिज्ञ हो गया अब। कूटनीतिज्ञ हो गया। जब मां समझती है हंसना जरूरी है तब हंसता है, चाहे भीतर आंसू भरे हों। जब हंसी आती है तब रोक रखता है, देखता है चारों तरफ ठीक माहौल है, उचित अवसर है, कहीं बेवक्त तो नहीं हंस रहा हूं, नहीं तो मार पड़े। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, युवा होते-होते अपने से छूट जाता है। अपना हित ही भूल जाता है।
और सभी उसे समझा रहे हैं, स्वार्थी मत बनो। सभी उससे कह रहे हैं, परार्थ करो। मां जो कहती है उसकी इच्छा पूरी करो, अगर तुम असली सच्चे बेटे हो। बड़ी हैरानी की बात है। बेटा अपनी इच्छा पूरी करे, या मां की इच्छा पूरी करे? बाप कहता है, मेरी इच्छा पूरी करो।
मैंने एक छोटे लड़के से पूछा, तू क्या बनना चाहता है भविष्य में? उसने कहा कि पागल हो जाऊंगा, बनने का तो सवाल ही नहीं है। मां डाक्टर बनाना चाहती है, बाप इंजीनियर बनाना चाहता है, भाई एक्टर बनाना चाहता है। बहन की कुछ और इच्छा है। काकियां हैं, काका हैं, सब की अलग इच्छा, पागल हो जाऊंगा! मुझे तो पता ही नहीं चलता कि मैं क्या बनना चाहता हूं, लेकिन वे सब उत्सुक हैं बनाने को। और वे सब खींचातानी कर रहे हैं।
ऐसा वक्त आ जाता है जल्दी ही कि बच्चे के अपने से संबंध ही छूट जाते हैं। यह सबसे बड़ी दुर्घटना है जो मनुष्य के जीवन में घटती है। उसको अपनी भावनाओं का बोध नहीं रह जाता। दिशा का बोध नहीं रह जाता। उसके भीतर की घड़ी अस्तव्यस्त हो जाती है। जब समय होता है, तब भूख। भूख जब होती है, तब समय नहीं। धीरे-धीरे वह भूल ही जाता है कि भूख कब लगती है। समय से खाने लगता है। घड़ी देख लेता है। बारह बज गए, भोजन का वक्त हो गया। ऐसे सारी जिंदगी झूठी हो जाती है।
पत्नी है तो प्रेम करना चाहिए। प्रेम से कोई पत्नी हो, यह समझ में आता है। लेकिन पत्नी है इसलिए प्रेम करना चाहिए, घड़ी देखकर भोजन करना हुआ। प्रेम हो और कोई पत्नी हो जाए, बात ठीक। लेकिन उसकी सुविधा समाज नहीं देता। मां है इसलिए प्रेम करना चाहिए, कर्तव्य निभाओ! सब तरफ से हटाया जा रहा है उसे स्वयं से। और सब उसे अपने-अपने हित में खींच लेना चाहते हैं।
मेरे एक मित्र थे। उनका एक बेटा मंत्री था। वे खुद मंत्री होना चाहते थे, हो न पाए। जेल वगैरह तो बहुत गए, मगर कुछ सिक्का बैठा नहीं। कुछ फिसड्डी रहे। दूसरे दांव मार ले गए, जो कम भी जेल गए थे। और गए भी नहीं थे कई तो, वे भी दांव मार ले गए। सीधे-सीधे आदमी थे। पर लड़के को किसी तरह मंत्री बना दिया। लेकिन मंत्री बनकर लड़का मर गया। बड़े दुखी हुए, बड़े ही दुखी हुए, आत्महत्या की सोचने लगे।
मैंने उनसे पूछा कि आपका दूसरा लड़का भी है। अगर यह मरता तो आप आत्महत्या की सोचते? बोले, कभी नहीं। दूसरा लड़का, उसने कोई महत्वाकांक्षा ही पूरी नहीं की। न वह मंत्री बना, न बड़ा नेता हुआ, न कुछ। उनके मुंह से एकदम निकल गया, कभी नहीं। मैंने कहा, दोनों तुम्हारे बेटे हैं। एक मर गया तो तुम आत्महत्या करने को उतारू हो। और मैं तुमसे पूछता हूं, दूसरा मर जाता तो तुम आत्महत्या करते! तुम कहते हो, कभी नहीं। थोड़ा सोचो तो क्या कह रहे हो!
इसका मतलब सिर्फ इतना हुआ कि पहले बेटे ने तुम्हारी मानी, तुम्हारी महत्वाकांक्षा के लिए कंधा दिया। जो तुम होना चाहते थे, वह हो गया। तुम्हारा पहला बेटा झूठा था। तुम्हारा दूसरा बेटा थोड़ा सच्चा है। वह अपने से जी रहा है। और मैं तुमसे कहता हूं, शायद तुम्हारा बड़ा बेटा इसीलिए मर गया कि झूठा था, बड़े तनाव में था। बड़ा परेशान था। बेचैनी में था।
मेरी बात से उन्हें बड़ी चोट लगी कि मैं ऐसे दुख के समय में और ऐसी दार्शनिक समस्या छेड़ रहा हूं। मैंने कहा, दुख के समय में अगर दार्शनिक समस्या न छेड़ो तो कब छेड़ोगे? सुख के समय में छेड़ो, लोग कहते हैं, अभी सुख का समय है, यह क्या बात छेड़ रहे हो? यह दुख का समय है, यह क्या बात छेड़ रहे हो? कब छेड़नी! आप सुख और दुख से, दोनों से कभी अलग होंगे? जो हो जाए, उसे छेड़ने की जरूरत नहीं, वह तो साक्षी हो गया। वह तो जान ही गया।
'उसे करना बहुत आसान है जो अशुभ है और अपने ही अहित में है।'
बुद्ध के ये वचन बहुत गौर से याद कर लेने जैसे हैं। हृदय पर लिख जाएं।
'और उसे करना परम दुष्कर है जो अपने हित में है और शुभ है।'
क्योंकि संसार तुम्हें निर्मित करता है दूसरों की सेवा के लिए।
एक पादरी छोटे बच्चों को समझा रहा था कि दूसरों की सेवा करना चाहिए। भगवान ने तुम्हें दूसरों की सेवा के लिए बनाया है। एक छोटा बच्चा खड़ा हो गया। उसने कहा कि यह तो हम समझ गए कि हमको उसने दूसरों की सेवा के लिए बनाया। दूसरों को किसलिए बनाया? इसका भी तो पक्का पता चल जाए। पादरी भी थोड़ा सकुचाया होगा। कभी-कभी बच्चे ऐसे सवाल उठा देते हैं कि बूढ़े जवाब नहीं दे सकते। बूढ़े बेईमान हैं।
पादरी थोड़ा झिझका होगा कि क्या जवाब देना? क्योंकि अगर वह यह कहे कि दूसरों को उसने तुम्हारी सेवा के लिए बनाया, तो बच्चा काफी तेजत्तर्रार मालूम होता है, बच्चा कहेगा कि फिर झंझट ही काहे को खड़ी करनी, हम अपनी सेवा कर लें, वह अपनी कर लें। हम उसकी करें, वह हमारी करें, हम तुम्हारे पांव दाबें, तुम हमारे दाबो? हम अपने दाब लें, तुम अपने दाब लो, झंझट खतम करो। यह क्या जाल फैलाया? अगर यह कहे कि दूसरों को उसने इसलिए बनाया कि तुम उनकी सेवा करो, तो बच्चा कहेगा, यह तो जरा ज्यादती मालूम होती है। हमको सेवा के लिए बनाया और उनको सेवा लेने के लिए बनाया! आखिर हमारा कसूर क्या है?
ध्यान रखना, बुद्धपुरुषों ने स्वार्थ सिखाया है। सूत्र आगे का है जो तुम्हें साफ करेगा।
'उसे करना परम दुष्कर है जो अपने हित में है।'
क्योंकि संसार तुमसे कह रहा है, किसी और के हित में जीओ, अपने हित में मत जीना। संसार तुम्हें व्यक्ति नहीं होने देना चाहता। संसार तुम्हारे भीतर एक गुलाम को देखना चाहता है, एक सेवक को देखना चाहता है। उसने सब तरह के जाल फैलाए हैं। उसने सब तरह की अच्छी-अच्छी बातों का, शब्दों का एक पूरा संसार रचाया है। उसने हर जगह कांटे में आटा लगाया है कि तुम उलझो, फंसो। स्वभावतः, हर एक व्यक्ति कहता है कि क्या अपने स्वार्थ में पड़े हो!
कभी तुमने गौर किया कि जो व्यक्ति तुमसे यह कहता है, क्या स्वार्थ में पड़े हो, उसका मतलब क्या है? उसका मतलब है, हमारी सेवा करो, क्या स्वार्थ में पड़े हो! हम मौजूद हैं और सेवा नहीं कर रहे! जब तुमसे कोई कहता है, क्या स्वार्थ में पड़े हो, तो उसका मतलब यह है कि तुम उसके स्वार्थ के काम नहीं आ रहे।
एक नया ही संसार बनेगा जिस दिन बुद्धों का वचन हमारी समझ में गहरा बैठ जाएगा। तब तुम अपने स्वार्थ में जीओगे। इसका यह अर्थ नहीं कि तुम दूसरों के दुश्मन हो जाओगे। इसका यह अर्थ नहीं कि तुम दूसरों को दुख दोगे। इसका यह भी अर्थ नहीं कि परार्थ खो जाएगा। वस्तुतः परार्थ है कहां, परार्थ की बकवास चल रही है। जिस दिन स्वार्थ होगा, उसी दिन परार्थ होगा। जिस दिन तुम स्वयं के हित में होओगे, उसी दिन तुम अचानक सबके हित में हो जाओगे। क्योंकि जो तुम्हारा आंतरिक हित है, वह किसी के विपरीत नहीं है। और जो तुम्हारा हित नहीं है, वह किसी के हित में नहीं हो सकता।
अगर तुमने अपने को प्रेम किया, तो पत्नी को प्रेम कर पाओगे। अगर पत्नी ने जिद्द की और तुमसे भीर् ईष्या की कि तुम अपने को ज्यादा प्रेम करते हो मेरी बजाय, तो तुम अपने को तो प्रेम कर ही न पाओगे, पत्नी को भी न कर पाओगे। अपने स्वार्थ में जड़ें नहीं जमायी हैं जिसने, वह किसी के काम न आ सकेगा। जो अपने भी पैर दबाना न सीखा, वह किसी और के पैर न दबा सकेगा। जो अपना न हुआ, वह किसका होगा?
सबका तो मुदावा कर डाला अपना ही मुदावा कर न सके
सबके तो गिरेबां सी डाले अपना ही गिरेबां भूल गए
सबका तो इलाज कर डाला, खुद को ही भूल गए। सबका तो उपचार कर दिया, खुद बीमार ही बने रहे।
मैंने सुना है, एक बीमार आदमी एक चिकित्सक के पास गया और उसने कहा कि मैं बहुत परेशान हूं। यह खांसी, सूखी खांसी मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती। कई चिकित्सकों के पास गया, कुछ सार नहीं। सब दवाएं करवा लीं, कोई सार नहीं। फिर किसी ने आपके पास भेजा है कि आप बड़े अनुभवी हैं।
उसने कहा, हूं अनुभवी। दवा निकालकर देने लगा। वह आदमी कुछ सोचता रहा, उसने पूछा कि आपका क्या मतलब कि अनुभवी हैं? क्योंकि जब वह दवा बना रहा था, दोत्तीन दफे वह खुद ही खांसा। उसने कहा कि तीस साल से यह बीमारी मुझे ही पकड़े हुए है। मैं बड़ा अनुभवी हूं। अनुभव से ही दवा दे रहा हूं। तू ऐसे चिकित्सकों के पास गया होगा, जिनको पता ही नहीं बीमारी का। तीस साल से मैं खुद ही परेशान हूं।
थोड़ा खयाल रखना। अगर तुम खुद ही दुखी हो, तो किसको सुख दे पाओगे? तुम खुद ही बीमार हो तो किसकी चिकित्सा कर पाओगे?
सबका तो मुदावा कर डाला अपना ही मुदावा कर न सके
सबके तो गिरेबां सी डाले अपना ही गिरेबां भूल गए
पहले अपने कपड़े तो सी लो। पहले अपना दामन तो बचा लो कांटों से, फिर दूसरों को बचाने निकल जाना। पहले अपना दीया तो जला लो। फिर किसी दूसरे का दीया भी तुम्हारे जले दीए से जल सकता है। अपना अंधेरा दीया लिए हुए किसका दीया जलाने चले हो? कैसे यह होगा? डर यही है कि कहीं किसी का जलने वाला हो, तुम बुझा मत देना।
नहीं, परार्थ की बहुत बात हो चुकी। लेकिन चूंकि तुम्हारा परार्थ अब तक स्वार्थ के विपरीत रहा, पूरा न हो सका। क्योंकि वह मनुष्य के स्वभाव के विपरीत है। एक ऐसा परार्थ चाहिए जो स्वार्थ के अनुकूल हो। एक ऐसा परार्थ चाहिए जो स्वार्थ का संगी-साथी हो सके, पैर मिलाकर चल सके। स्वार्थ के साथ जिसका संगीत जुड़ सके। बुद्ध उसी स्वार्थ की बात कर रहे हैं। और इसलिए कठिन हो गया है।
जिस व्यक्ति को भी सत्य को पाना हो, स्वयं को पाना हो, उसे एक बात तय कर लेनी होगी, उसे अपने व्यक्तित्व में खड़े रहने की हिम्मत जुटानी होगी। यह कठिन है। यह सारे संसार से संघर्ष में पड़ना है। संन्यास सरल नहीं है। संन्यास का अर्थ ही यही है कि तुमने अब स्वयं होने की बात सोची। अब तुम अपने से चलोगे। अब तुमने यह कहा कि मैं व्यक्ति होता हूं, हो चुका भीड़ का हिस्सा बहुत।
कल बी.के.संघवी रात मुझे मिलने आए। परेशान हैं। कहने लगे, अब सब काम-धंधे से छुटकारा करवा दें। मैंने कहा, छोड़ दो, अब संन्यस्त हो जाओ। उसमें जरा मुश्किल है। क्या मुश्किल है? जो रोजमर्रा का ढांचा है, उसमें बेचैनी आएगी।
कब तक उस ढांचे के हिस्से बने रहोगे? और अगर उस ढांचे का इतना मूल्य है, तो तुम भी ढांचा ही होकर रह जाओगे। आत्मा कभी न खोज पाओगे। अगर तुम इतने भी स्वतंत्र नहीं हो कि तुम अगर संन्यस्त होना चाहो तो संन्यस्त न हो सको, तो तुम कैसे आत्मवान हो सकोगे? वस्तुतः जहां कठिनाई है, वहीं चुनौती है। और जो चुनौती को स्वीकार करता है, वही आनंद की फसल भी काटता है।
वो मर्द नहीं जो डर जाए माहौल के खूनी मंजर से
उस हाल में जीना लाजिम है जिस हाल में जीना मुश्किल है
जहां कठिनाई मालूम पड़े, उसे चुनौती समझो।
उस हाल में जीना लाजिम है जिस हाल में जीना मुश्किल है
जहां कठिनाई हो, उसे जीवन समझो। क्योंकि वहीं से तुम्हारे जीवन की दबी हुई आग प्रगट होगी। तुम्हारा अंगारा राख को झड़ाएगा, प्रगट होगा। लपट उठेगी।
मैं जानता हूं, डर लगता है, पत्नी नाराज होगी। डर लगता है, बच्चे हंसेंगे घर में। डर लगता है, भाई क्या कहेंगे! कब तक यह चलेगा? तब तो फिर मौत के पहले छुटकारा असंभव है। और मौत भी कोई छुटकारा है, जब जबर्दस्ती खींचे जाओगे! स्वयं होने की हिम्मत करो, चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े।
और मैं तुमसे कहता हूं, जिस दिन तुम स्वयं होओगे, होने की हिम्मत जुटाओगे, उस दिन पत्नी तुम्हें पहली दफा पाएगी। क्योंकि ऐसे आदमी का भी क्या पाना जो इतना कमजोर था कि गेरुआ वस्त्र पहनने में डरा; यह भी कोई मर्द हुआ!
मेरी अपनी समझ यह है, हजारों लोगों के जीवन में प्रयोग करने के बाद मेरी समझ यह है कि पत्नी उसी पति के साथ प्रसन्न होती है, जिसमें कुछ बल हो। नहीं तो पत्नी सोचती है, कहां का फीका आदमी मिल गया! गेरुआ कपड़ा तक नहीं पहन सकता। एक कमजोर के पल्ले पड़ गए! कोई पत्नी उस पति से राजी नहीं होती जो पत्नी से दबता है। पिछलग्गुओं से कौन राजी होता है? कोई पत्नी प्रसन्न नहीं होती उस पति से, जो झुकता है। पत्नी चाहती है ऐसा पति, जो झुका ले। जो शिखर की भांति अडिग खड़ा रहे। जिसे कोई भी झुका न सके। सभी स्त्रियों की आकांक्षा ऐसे पुरुष को खोज लेने की है जो पुरुष हो।
लेकिन हम कुछ उलटा ही सोचे बैठे हैं। हम सोचते हैं, झुकते जाओ-- समझौता, समझौता, समझौता। हमने वणिक की कला सीख ली है। हम हर हाल में समझौता कर लेते हैं। धीरे-धीरे हम समझौता ही रह जाते हैं। हमारे भीतर से सत्य खो जाता है।
'अपनी पापमयी मिथ्या-दृष्टि के कारण, जो दुर्बुद्धि मनुष्य आर्य और धर्मात्मा अर्हतों के शासन की निंदा करता है, वह बांस की तरह आत्मघात के लिए ही फूलता है।'
बुद्ध कह रहे हैं, जिन्होंने जाना है वे हैं अर्हत। अर्हत का अर्थ होता है, जिन्होंने अपने शत्रुओं पर विजय पा ली। बाहर के शत्रु नहीं, भीतर के शत्रु। अरि यानी शत्रु। जिनके शत्रु हत हो गए, गिर गए। जिन्होंने अपने क्रोध पर, घृणा पर, वैमनस्य पर,र् ईष्या पर विजय पा ली। ऐसे अर्हत पुरुषों ने जो कहा है, उसकी जो निंदा करता है, वह उस बांस की तरह है जो फूल रहा है, फूलकर फटेगा। उसका फूलना ही उसका आत्मघात हो जाएगा।
'जो आर्य और अर्हतों के...।'
बुद्ध ने आर्य शब्द का उपयोग जातिवाचक दृष्टि से नहीं किया। आर्य का अर्थ होता है, श्रेष्ठ। उत्तम। जो पुरुषोत्तम है। जिसने अपने भीतर की आत्मा को, अपने भीतर के पुरुष को उपलब्ध कर लिया। जिसने अपने भीतर के सत्य से पहचान कर ली। उसकी जो निंदा करता है, वह आत्मघाती है।
तो निंदा करते समय थोड़ा विचार करना, आलोचना करते समय थोड़ा विचार करना, कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम उस-उस की निंदा करते हो, उस-उस की आलोचना करते हो, जहां-जहां तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित होने की संभावना थी, जहां-जहां चुनौती थी।
ऐसे बहुत लोग हैं, जो मेरी किताब पढ़ेंगे, लेकिन मेरे पास आने से डरते हैं। जो चोरी-छिपे मेरे संबंध में बात करेंगे, लेकिन आमने-सामने न आएंगे। क्या कारण होगा? और मैं जानता हूं, उनमें से बहुत निंदा भी करेंगे, आलोचना भी करेंगे। लेकिन आलोचना और निंदा करनी हो, उसके पहले जान तो लेना चाहिए, मैं क्या कर रहा हूं? यहां क्या हो रहा है? यहां वे कभी आए ही नहीं।
निश्चित ही, उनकी निंदा और आलोचना आत्मवंचना है। अगर आलोचना करनी हो, निंदा करनी हो, पहले ठीक से परिचित तो हो लो। जरा स्वाद तो ले लो। इस मधुशाला में आओ, जरा डोलो तो।
खुश्क बातों में कहां ऐ शेख कैफे-जिंदगी
वो तो पीकर ही मिलेगा जो मजा पीने में है
थोड़ा आओ, पीओ। थोड़ा डगमगाओ। फिर स्वाद के बाद ठीक न लगे, इनकार करना। लेकिन बिना स्वाद लिए इनकार करने का एक ही कारण हो सकता है कि तुम डरते हो कि अगर पास आए तो गए। पास आए तो खोए। पीया तो डूबे।
'अपना किया पाप अपने को मलिन करता है। अपना न किया पाप अपने को ही शुद्ध करता है। शुद्धि और अशुद्धि स्वयं से होती है। दूसरा दूसरे को शुद्ध नहीं कर सकता।'
'दूसरे के बहुत हित के लिए भी स्वयं के हित की हानि न करे।'
बड़ा अनूठा वचन है। तुमने सोचा भी न होगा कि बुद्ध, और कहेंगे! बुद्ध का एक वचन बहुत लोगों ने प्रचलित किया है--बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय। वह लोगों के मतलब का दिखा। उन्हें समझ में आया कि यह बात काम की है। लेकिन इस वचन को बहुत प्रचार नहीं मिला। और यह वचन बड़ा कीमती है। शायद पहला वचन न भी कहा हो, लेकिन यह वचन तो निश्चित बुद्धपुरुष ही कह सकते हैं।
'दूसरों के बहुत हित के लिए भी स्वयं के हित की हानि न करे। अपने धर्म की बात को समझकर, अपने अर्थ की बात को समझकर अपने ही अर्थ के साधन में लग जाए।'
स्वार्थ! तो जब मैं तुमसे कहता हूं, स्वार्थ धर्म है, तो घबड़ाना मत। मैं अकेला ही ऐसा नहीं कहता, बुद्ध भी यही कह रहे हैं। लेकिन जब बुद्ध कहते हैं तो सोचकर कहा है। क्योंकि स्वार्थ से ही परार्थ के फूल खिलते हैं। जो स्वयं के अर्थ की खोज में लग गया, वह फिर किसी की हानि न कर सकेगा। और जिसने अपना सुख पा लिया, वह सुख बांटेगा। करेगा क्या? फूल खिलेगा तो सुगंध बिखरेगी ही। फिर फूल रोक थोड़े ही पाएगा सुगंध को? एक बार खिले भर।
तो हम कहते हैं, फूल अपना स्वार्थ साध! अभी तू फिकर मत कर दूसरों की, अभी तो तू अपनी जड़ों को फैला पृथ्वी में, सोख रस को, जीवन को; सूरज को पी, मेघ को निमंत्रित कर, अभी अपनी फिकर कर। एक बार तेरा फूल खिल जाए, बस! गंध तो उड़ेगी ही। गंध तो दूसरों तक पहुंचेगी ही। फिर कोई उपाय थोड़े ही है खिले फूल को बंद हो जाने का कि रोक ले। खिलने का अर्थ ही बंट जाना है। तो बुद्ध कहते हैं, सुखी तो हो जाओ, फिर तो सुवास लुट जाएगी। पहले स्वार्थ साध लो।
लेकिन दूसरे तुम्हें उलटा ही सिखा रहे हैं। वे कह रहे हैं, परार्थ। दूसरे की सेवा करो। दूसरे यानी वे। दूसरे का अर्थ है--सीधे-सीधे नहीं कह सकते, मेरी सेवा करो--कह रहे हैं, दूसरे की सेवा करो। भिखमंगे रास्ते पर बैठे हैं, वे कहते हैं, दान दो। दान महापुण्य है। दान धर्म है। लोभ पाप का बाप बखाना। वे लोगों को कह रहे हैं। यह मत समझ लेना कि वे दान के पक्ष में हैं। वे यह कह रहे हैं, दान इधर दो, कहां जा रहे हो? एक बार दान के पक्ष में हो जाओ, उनका भिक्षापात्र तो फैला ही हुआ है। तो बड़ी मुश्किल में डाल देता है भिखारी जब रास्ते पर अचानक मिल जाता है। तुम न भी देना चाहो, तो बेइज्जती की हालत खड़ी कर देता है। चारों तरफ लोग देखने लगते हैं।
इसलिए भिखारी कभी तुम अकेले हो, तुम्हें नहीं छेड़ता। जब चार जन चारों तरफ हों, तब पकड़ता है। अकेले में तुम कहोगे, जा, चुप; मस्तत्तड़ंग है, काम कर! लेकिन अगर बीच-बाजार में उसने पैर पकड़ लिया, जहां प्रतिष्ठा दांव पर लगा देता है वह--तुम्हारी प्रतिष्ठा--लोग चारों तरफ देखने लगे, अब अगर तुम दो पैसे के लिए झंझट करते हो, तो लगता है यह जरा महंगा सौदा है, लोग क्या कहेंगे? लोभ पाप का बाप बखाना। और दान पुण्य है। तुम करना भी नहीं चाहते फिर भी करते हो।
मुफ्त की वाह-वाह से पूछो
ये चारों तरफ के लोग कहेंगे, बड़े दानी हैं। चित्त बड़ा प्रसन्न है। न भी हो, तो भी तुम देकर प्रसन्नता दिखाते हो। भीतर से देना भी नहीं चाहते। यही दशा है। लोग कहते हैं, अपना कर्तव्य पूरा करो। करते हो तुम। क्योंकि दब गए हो संस्कारों से।
लेकिन बुद्ध का वचन सुनो, 'दूसरे के बहुत हित के लिए भी स्वयं के हित की हानि न करे।'
यह ऊपर से तो दिखता है कि बुद्ध जैसे तुम्हें स्वार्थ सिखा रहे हैं, परार्थ के विपरीत हैं। लेकिन वे जानते हैं कि वस्तुतः स्वार्थ कभी परार्थ के विपरीत है ही नहीं। जिसने अपने को न दिया, वह दूसरे को क्या देगा? कंजूस दूसरे को नहीं देता, ऐसा थोड़े ही है, अपने को ही कहां देता है? तुम जरा कंजूस को गौर से देखो, वह अपने को कहां देता है? उसके कपड़े तो देखो।
कहते हैं, निजाम हैदराबाद जब तख्त पर बैठे, तो जो टोपी उन्होंने पहनी थी, जब मरे चालीस साल बाद, वही पहने हुए थे। गंदी हो गयी तो उसको धुलवाते नहीं थे, क्योंकि खराब न हो जाए। बास आती थी। एक ही टोपी से गुजार दिए। कहते हैं कि जब लोग सिगरेट वगैरह पीकर चले जाते, अधजली छोड़ जाते, तो एस्ट्रे में से उठाकर रख लेते थे निजाम हैदराबाद--खुद के पीने के लिए। तुम्हें भरोसा भी न आएगा! क्योंकि निजाम हैदराबाद पृथ्वी के सबसे बड़े धनी आदमी थे। अब तक उनकी संपत्ति का ठीक आकलन नहीं हो सका। उनके पास इतने हीरे-जवाहरात थे--सारी गोलकुंडा की खदान उनके ही घर आ गयी थी--कि साल में जब एक दफा उनके हीरे-जवाहरातों को धूप दिखानी पड़ती थी, तो सात महलों की छतें भर जाती थीं। और यह आदमी सिगरेट के टुकड़े बीन रहा है!
कंजूस दूसरे को नहीं देता, यह तो दूसरे नंबर का कदम है। पहले नंबर का कदम तो वह अपने को ही नहीं देता। कंजूस गरीब की तरह रहता है। है अमीर, रहता गरीब की तरह, मरता गरीब की तरह।
मैं बहुत से धनी लोगों को जानता हूं। जैसे गरीब मैंने धनी आदमियों में देखे, वैसे गरीबों में नहीं देखे। गरीब तो कभी-कभी धनी भी हो जाता है, अमीर गरीब ही रहता है। एक पैसा नहीं छूटता। अपने लिए ही नहीं छूटता। और बहाने खोज लेता है अमीर। बहाने खोज लेता है--सादगी।
निजाम हैदराबाद भी यही कहते थे कि मैं सीधा-साधा आदमी हूं--सादगी। इसलिए टोपी चालीस साल तक पहने हुए थे। भाड़ में फेंको इस सादगी को! यह सादगी नहीं है। यह आदमी अच्छे शब्दों के भीतर छिपा रहा है। यह बदबू आने लगी सादगी में। यह सादगी बीमारी हो गयी। यह सादगी है पीए हुए सिगरेट के अधजले टुकड़े इकट्ठे करना? और गंदगी क्या होगी? अगर यह सादगी है, तो सादगी से बचाए भगवान!
नहीं, यह सादगी नहीं है। लेकिन कंजूस भी कहता है, सादगी। जो बांटकर जीते हैं, उनको कहता है, फिजूलखर्च। फिजूलखर्च! खुद को ही नहीं देता। तुम जरा अमीरों की जिंदगी तो देखो, कैसे गरीब की तरह जीते हैं। अगर अमीर की तरह जीने लगें, अगर अपना ही आनंद खोजने लगें, तो बांटना तो अपने आप आ जाएगा।
इसलिए बुद्ध ठीक ही कहते हैं। लेकिन कठिन है। क्योंकि बिलकुल उलटा सिखाया जा रहा है। सारी सिखावन उलटी है।
डंक निहायत जहरीले हैं मजहब और सियासत के
नागों की नगरी के वासी की फुंकार तो देख
सुख की गरदन काट रही है दुनिया की तलवार तो देख
जिस तलवार को चूम रहा है उस तलवार की धार तो देख
धर्म और सियासत--राजनीति और धर्म--दोनों के डंक बड़े जहरीले हैं। राजनीति सिखाती है, मर मिटो देश के लिए, मर मिटो समाज के लिए। धर्म सिखाता है, इस्लाम खतरे में है, हिंदू-धर्म खतरे में है, मर मिटो। सभी सिखाते हैं, मर मिटो। कोई कहता नहीं, जीओ भी। मरने के पहले जी तो लो। मरोगे क्या खाक, मरे हुए हो। जीवन तो चाहिए। सब उत्सुक हैं तुम्हारे मरने में। तुमने कभी सुना, कोई तुमसे कहता है, जीओ धर्म के लिए? मेरे सिवाय कोई नहीं कहता। जीओ राष्ट्र के लिए। जीओ मनुष्यता के लिए। जीओ भगवान के लिए।
नहीं, वे सब कहते हैं, मरो। खतरा है भगवान पर। यह भी कोई भगवान हुआ, जिस पर खतरा है और तुम्हें मरना पड़ रहा है! ऐसे भगवान को ही मरने दो। कहते हैं, राष्ट्र के लिए मरो। राष्ट्र है क्या बला? आदमी है। आदमियों का जोड़ है। जोड़ के लिए कोई मरने का सवाल है! राष्ट्र है कहां? व्यक्ति हैं। बस असलियत तो व्यक्ति की है, राष्ट्र तो झूठ है। राजनीतिज्ञ का झूठ है। कहीं तुम राष्ट्र से मिले? तस्वीरें तुमने देखी होंगी भारतमाता की। रथ पर सवार है, शेर-सिंह जुते हैं, हिंदुस्तान का नक्शा बना है। मगर कभी मिलना हुआ भारतमाता से? माताएं मिलती हैं, भारतमाता कहीं नहीं मिलती। झूठ है। राजनीति का झूठ है। और ऐसे ही धर्म के झूठ हैं। मंदिर का भगवान है, मस्जिद का खुदा है, खतरे आ जाते हैं--मरो!
तुम्हें सब सिखाया है लोगों ने मरने के लिए। कुर्बान हो जाओ। पर कुर्बान हो जाओ? जीवन सिर्फ कुर्बानी के लिए है?
नहीं, जीवन है जीवन के रस को जानने के लिए। जागो और जीओ। और मैं तुमसे कहता हूं कि अगर तुम जागकर जीए, तो तुम्हारे जीवन में तो फूल होंगे ही, तुम्हारी मृत्यु में भी फूल होंगे। क्योंकि मृत्यु तो वही प्रगट करती है जो जीवनभर तुम इकट्ठा करते हो।
'दूसरों के बहुत हित के लिए भी स्वयं के हित की हानि न करे। अपने अर्थ की बात को समझकर अपने ही अर्थ के साधन में लग जाए।'
तुम अपने को पा लो, वह तुम्हारी पहली संपदा है। फिर और संपदाएं आएंगी पीछे, छाया की तरह। तुम आत्मा को खोज लो, फिर सब खोजने के द्वार खुल जाएंगे। इस एक को जान लेने से सब जान लिया जाता है। इस एक को पा लेने से सब पा लिया जाता है।

आज इतना ही।





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