शनिवार, 8 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-59



एस धम्मो सनंतनो-(भाग-06)
ओशो
प्रवचन-059 (गुरु को द्वार बनाना दीवार नहीं)


पहला प्रश्न:

आपको मैं क्या कहूं--प्रभु कहूं, विभु कहूं या शंभु कहूं? यह भी इसलिए कि सतत मैं आपके चरणों में नमूं। बस वहां ही मैं त्रिकाल तक नमूं। अब तो मेरी प्रार्थना सुनें!

कहने की बहुत बात नहीं है। क्या तुम मुझे कहते हो, अप्रासंगिक है। मेरे निकट क्या तुम स्वयं को समझ लेते हो, वही महत्वपूर्ण है।
तुम मुझे अच्छे-अच्छे नाम दो, उससे कुछ लाभ न होगा। तुम स्वयं को पहचानो, उससे ही कुछ होने वाला है। मेरी स्तुति से नहीं कुछ, आत्मस्मरण से कुछ होगा। स्तुति में समय खराब मत करो। कितनी तो तुम स्तुति कर चुके, कितने द्वारों पर! कितने मंदिर-मस्जिदों में तुमने प्रार्थना नहीं की, नमाज नहीं पढ़े, झुके नहीं! क्या पाया? हाथ खाली के खाली हैं। अब भीतर झुको। अब जो तुम्हारे भीतर सोया है, उसे जगाओ। अब असली मंदिर में प्रवेश करो। मुझे क्या कहो, इसकी क्या चिंता करनी! कुछ भी कह लो। बिना नाम के भी चल जाएगा।

अपनी तलाश करो। मैं कौन हूं, इसकी फिक्र नहीं, तुम कौन हो। अगर तुम स्वयं को जानो तो ही मुझे जान सकोगे। तुम्हारे उस आत्मबोध में ही मुझसे तुम्हारा सेतु बनेगा।
लेकिन अक्सर आदमी की नजरें दूसरे पर जाती हैं। प्रेम भी तुमने किसी से किया, प्रार्थना भी किसी से करते हो। कब अपने पर लौटोगे? ये बुद्ध के सारे वचन जिन पर हम चर्चा कर रहे हैं, तुम्हें स्वयं पर लौटा देने की चेष्टा है। नहीं तो अक्सर ऐसा हुआ है कि खोजने वाला पहले तो खुद के कारण भटका, फिर जिनके सहारे पकड़ लिए, उनके कारण भटका। तुम किसी का भी सहारा पकड़ो, भटकोगे। क्योंकि दूसरे का सहारा पकड़ने का अर्थ ही यह है कि तुम जागने से बचना चाहते हो। तुम किसी और पर टालना चाहते हो। यह जीवन की संपदा ऐसी नहीं कि कोई और तुम्हें दे देगा।
इसलिए बुद्ध बार-बार कहते हैं, कोई और तुम्हें न जगा सकेगा, तुम्हीं को जागना होगा। तुमने दूसरों से काम लेना सीख लिया है। लेकिन एक काम ऐसा है जो तुम दूसरों से न ले सकोगे। वह काम है आत्म-जागरण का। वह है सत्य-साक्षात का। नहीं तो तुम बदलते रहोगे द्वार। एक द्वार पर न पाओगे, सोचोगे यहां कुछ भी नहीं।
मेरे पास लोग आते हैं। एक बूढ़े सज्जन आए। उन्होंने कहा, शिवानंद के आश्रम में था, कुछ न पाया। फिर अरविंद आश्रम में था, कुछ न पाया। फिर श्री रमण आश्रम में था, कुछ न पाया। अब आपके चरणों में आया हूं। मैंने कह, तुम जल्दी जाओ, इसके पहले कि तुम कुछ न फिर पाओ। तुम जल्दी करो, यहां से जाओ, अन्यथा तुम दूसरों से जाकर कहोगे--वहां भी हो आया, कुछ न पाया। तुम तो कुछ इस ढंग से बात कर रहे हो जैसे कुछ शिवानंद का कसूर है कि तुमने कुछ न पाया; कि जैसे अरविंद का कोई कसूर है कि तुमने कुछ न पाया। तुम चाहते क्या थे, कोई तुम्हें दे दे उठाकर सत्य? सत्य कोई वस्तु है? कोई तुम्हें दे दे, सत्य कुछ बाहर है? कि रमण आश्रम हो आया, कुछ न पाया। तुम कह क्या रहे हो? तुम कह रहे हो कि ये सब जगह व्यर्थ हैं, ढकोसला हैं। अपनी तरफ देखो। इतनी जगह हो आए, इतने घाट घूमे और प्यासे के प्यासे रह गए। अपनी तरफ देखो। तुमने शायद पीने का ढंग ही न जाना।
सरोवर के पास पहुंच जाने से थोड़े ही प्यास बुझती है। कहावत है--घोड़े को नदी ले जाया जा सकता है, पानी थोड़े ही पिलाया जा सकता है। नदी दिखायी जा सकती है, प्यास होगी तो पी लेगा। नहीं होगी प्यास तो लौट आएगा। इसलिए जो लोग घोड़ा रखते हैं, उनके नौकर जानते हैं भाषा। भाषा यह है--घोड़े को जाओ पानी दिखा लाओ। पिलाने की कोई नहीं कहता। कौन पिलाएगा पानी? दिखा लाओ। प्यास होगी तो घोड़ा पी लेगा। तुम इतनी जगह पानी देख आए और पीया न। प्यास ही झूठी मालूम पड़ती है। और या फिर तुम गलत तलाश में निकले थे। तुम सोचते थे, किसी और की जिम्मेवारी है।
मेरे पास साफ कर लो बात। मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है। तुम्हें पाना होगा। मेरी उपस्थिति का लाभ ले सकते हो, लेकिन मेरी उपस्थिति की स्तुति करने की कोई जरूरत नहीं है। मेरी स्तुति से कुछ लाभ न होगा, समय व्यय होगा। परमात्मा भीतर छिपा है। मुझे तुम्हें क्या फायदा है कहने से? प्रभु कहो, विभु कहो, शंभु कहो, जो कहना हो कहो। न कहना हो, मत कहो। प्रभु भीतर छिपा है। मेरे इशारों को देखो। मेरी चिंता मत करो। मैं क्या कह रहा हूं, किस तरफ इशारा कर रहा हूं, उसको पहचानो। मेरे पीछे चलने से तुम मेरे अनुयायी न बनोगे, अपने भीतर उतरोगे तो मेरे अनुयायी हो। और अनुयायी कहने का तब कोई अर्थ नहीं रह जाता। ये सारे इशारे तुम्हारी तरफ हैं। कहीं ऐसा न हो किसी दिन तुम्हें रोना पड़े, कहना पड़े--
पाएत्तलब भी तेज था मंजिल भी थी करीब
लेकिन निजात पा न सके रहनुमां से हम
पांवों की ताकत भी तीव्र थी। चलने की क्षमता भी काफी थी।
पाएत्तलब भी तेज था मंजिल भी थी करीब
और मंजिल भी सामने खड़ी थी। लेकिन मुश्किल यह हो गयी--
लेकिन निजात पा न सके रहनुमां से हम
लेकिन पथ-प्रदर्शक से मुक्त होना मुश्किल हो गया।
गुरु द्वार बने, दीवार न हो जाए। तुम्हें मुझ पर रुक नहीं जाना है, यह तुम क्या पागलपन की बात कर रहे हो कि त्रिकाल बस आपको ही नमता रहूं? तुम मुझे भी मुसीबत में डालोगे। त्रिकाल, कुछ सोचो तो! तुम मुझे भी अटकाओगे? त्रिकाल तक तुम नमोगे, तो मुझे भी वहीं खड़ा रहना पड़ेगा। ऐसे ही तुमने पत्थरों के भगवान बना लिए हैं। क्योंकि जिंदा भगवान तीन काल तक खड़ा न रहेगा तुम्हारे लिए। तुम्हारी कसरत से जिंदा को क्या प्रयोजन! इसलिए तुमने पत्थर की मूर्तियां गढ़ ली हैं। उनका भगवान से कुछ संबंध नहीं। तुम्हें मजा लेना है झुकने-उठने का। उठते रहो, झुकते रहो।
यह त्रिकाल की बात ही क्यों उठती है? ऐसा लगता है, इस क्षण झुक नहीं पा रहे। तो फिर तीन काल भी काफी न होंगे। क्योंकि झुकने का संबंध समय से नहीं, झुकने का संबंध प्रतीति से है। झुकने का संबंध समय की लंबाई से नहीं है, समय की गहराई से है। एक क्षण में हो सकता है। एक पल में हो सकता है। दो पलों के बीच में जो थोड़ी सी जगह होती है, उसमें हो सकता है। झुकना तो भाव है।
तीन काल! तुम सोचते हो कि तुम बड़ी ऊंची बात कह रहे हो। तुम यह कह रहे हो कि इस क्षण में तो नहीं हो रहा है, अगले क्षण का भी भरोसा नहीं है--आज तो हो ही नहीं रहा है, कल भी होगा इसका पक्का नहीं, तीन काल का समय चाहिए, तब शायद!
झुकना हो अभी झुक लो। और झुकना कोई शारीरिक क्रिया नहीं है। झुकना भीतर की अंतस-दशा है। और झुकना किसी के प्रति नहीं होता। जो किसी के प्रति है वह असली झुकना नहीं है। झुकना तो तुम्हारी समझ है। किसी के प्रति नहीं। क्योंकि अगर किसी के प्रति झुके तो तुम कारण से झुकोगे। कारण से झुके, तो तुम झुके ही नहीं।
समझने की कोशिश करो। किसी के पास बहुत धन था, तुम झुके। इससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि तुम्हारी आकांक्षा बहुत धन पाने की थी, जो तुम पूरी न कर पाए, इस आदमी ने पूरी कर ली, झुकते हो। तुम अपनी आकांक्षा की पूर्ति की संभावना के लिए झुकते हो। जो तुम न हो सके, यह हो गया--झुकते हो। चाहते तुम भी ऐसे होना थे।
किसी को बड़े पद पर देखा, झुके। यही तुम्हारे भीतर का भी रोग था। तुम भी चाहते थे सिंहासन पर विराजो, न विराज पाए। लेकिन इस आदमी ने पा लिया, झुकने योग्य है। किसी के पास बहुत ज्ञान देखा, झुके। किसी के पास बहुत त्याग देखा, झुके। लेकिन जब भी झुके, कारण से झुके।
जो कारण से झुका, वह झुका ही नहीं। क्योंकि अगर इतना ही धन तुम्हें मिल जाए, तो फिर तो तुम इस आदमी के आगे न झुकोगे। ऐसा ही पद तुम्हें मिल जाए, या इससे ऊंचा पद मिल जाए, फिर तो तुम न झुकोगे। तुम कहोगे, अब कारण ही न रहा। इतना ही ज्ञान मिल जाए, इतना ही त्याग तुम्हारे जीवन में भी फल जाए, फिर तो न झुकोगे। तुम कहोगे, अब प्रयोजन ही न रहा।
तो मैं तुमसे कहता हूं, तब भी तुम झुके न थे। तब भी अहंकार गिरा न था। उस झुकने में भी अहंकार ने अपने को सम्हाला था। उस झुकने में भी अहंकार ने आभूषण बनाए थे। अकारण झुको। तब सवाल नहीं कि मेरे प्रति झुको। राह चलते अजनबी के प्रति भी झुके हो, वृक्षों के प्रति भी झुके हो, पत्थरों के प्रति भी झुके हो, जिनके पास देने को कुछ भी नहीं, होने को कुछ भी नहीं। न धन है, न पद है, न प्रतिष्ठा है, न ज्ञान है, न त्याग है, न बुद्धत्व है, कुछ भी नहीं है। लेकिन अब तुम झुके हो। क्योंकि तुम्हें झुकने का मजा आ गया। अब तुम कारण से नहीं झुके हो, अब तुम रस से झुके हो। अब झुकना ही साध्य हो गया, साधन न रहा। अब कोई ऐसी घड़ी न आएगी जब तुम्हें न झुका हुआ पाया जा सके। अब तुमने झुकने की भीतरी कला सीख ली, बाहरी कारण न रहे, निमित्त न रहे।
इसलिए झुकने को किसी के प्रति मत बनाओ। झुकना हो, बस काफी है। नहीं तो मंदिर के सामने झुकोगे, तो मस्जिद के सामने अकड़कर निकलोगे। यह भी कोई झुकना हुआ! मेरे सामने झुकोगे तो किसी दूसरे के सामने अकड़कर निकलोगे। बदला कहीं ले लोगे तुम।
इसलिए तो मंदिर के सामने जो झुकता है, मस्जिद के सामने अकड़कर निकलता है। वह यह कह रहा है, अब बहुत हो गया है झुकना, झुकना, अब यहां तो अकड़ लें। जो मस्जिद में झुकता है, वह मंदिर के सामने अकड़कर निकलता है। बदला तुम मंदिर से लेते हो मस्जिद का? अगर तुम झुके ही होते तो क्या मंदिर! क्या मस्जिद! क्या गुरुद्वारा! तुम झुके ही होते।
दुआ के वास्ते अब अर्श हाथ उठते नहीं अपने
तबीयत महवेत्तस्लीम-ओ-रजा मालूम होती है
अर्श की बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं। अब प्रार्थना के लिए तक हाथ नहीं उठते। उपासना में ऐसी मग्नता छा गयी है। याद ही नहीं रहती हाथ उठाने की बात। झुकने की याद नहीं रहती, ऐसे झुके हो। उपासना में ऐसे मग्न हो!
दुआ के वास्ते अब अर्श हाथ उठते नहीं अपने
तबीयत महवेत्तस्लीम-ओ-रजा मालूम होती है
तबीयत ऐसी डूब गयी है उपासना में, प्रार्थना में, किसे याद कब हाथ उठाना, कब फूल चढ़ाना, कब कुमकुम लगाना, किसे याद? झुके तो झुके।
झुकने की बात बाहर की नहीं है। भीतर की है। अंतर्भाव की है। तुम पूछते हो, तीन काल तक झुका रहूं। तुम तो मुसीबत में पड़ोगे, मुझे भी डाल दोगे। तुम्हें झुकना हो झुको, मुझे तो बख्शो!
'इसलिए कि मैं सतत आपके चरणों में नमूं।'
डर क्या है? सतत क्यों बनाना चाहते हो? यह क्षण काफी नहीं? इस क्षण का निपटारा इसमें कर लो। आने वाला क्षण आने वाले क्षण की फिकर कर लेगा। तुम कल का हिसाब क्यों रखते हो? तुम्हारा आज जरूर दीन-दरिद्र होगा। कल की बात ही तब उठती है, जब तुम आज प्रसन्न नहीं हो।
इसे खोजो, तलाशो। जब कोई प्रसन्न होता है, सुख से भरा होता है, कल की बात ही नहीं उठाता। न बीते कल की उठाता है, न आने वाले कल की उठाता है। दोनों गए। दोनों गिरे उसकी नजर से। आज इतना भरा-पूरा है, ऐसे कमल खिले हैं प्राणों में, ऐसा नाच उठा है, ऐसे नृत्य की घड़ी आयी, कौन फिकर करता है कल थे भी कि नहीं, कल होंगे भी कि नहीं! आज होना इतना गहन है, इतना परिपूर्ण है, इतना तृप्तिदायी है, ऐसा गहन परितोष छा रहा है, कौन फिकर करता है!
दुख में याद आती है बीते कल की, आने वाले कल की। बीते कल की, क्योंकि लगता है बहुत सुख थे कल, जो आज न रहे। आने वाले कल की, आशा बंधाते हो अपने को कि कोई फिकर नहीं, आज नहीं कल हो जाएगा। ये सब दुख के सोचने के ढंग हैं।
अपने भीतर ही खोजो, सुख के क्षण में समय खो जाता है। दुख के क्षण में समय घना हो जाता है।
सतत! किसलिए पूछते हो? यह क्षण पर्याप्त नहीं? आज का मिलना काफी नहीं? आज तुम मेरे पास हो, इससे तृप्ति नहीं? इससे पूरा मन नहीं भरता? तो फिर तुम कहीं चूक रहे हो मुझसे, क्योंकि मैं तो पूरा-पूरा उपलब्ध हूं, यहीं। मेरी तरफ से जरा भी कंजूसी नहीं है। तुम ही अपने पात्र को बचा रहे हो। मैं तो बरस रहा हूं, तुम अपना पात्र उलटा रखे बैठे हो। और कहते हो, सतत बरसते रहना। सतत भी क्या होगा, जो इस क्षण में नहीं होगा वह आने वाले क्षण में कैसे होगा? जो आज नहीं होगा, वह कल कैसे होगा? जैसे तुम आज चूके हो, वैसे ही तुम कल चूकोगे। चूकना तुम्हारी आदत हो गयी है।
तुम बुद्धों से चूके, महावीरों से चूके, कृष्णों से चूके। तुम चूकते ही रहे हो। तुम कोई नए नहीं हो। तुम कुछ मुझे सुन रहे हो, ऐसा नहीं है। ऐसे ही तुम बुद्ध के पास भी बैठे रहे, ऐसे ही सोए-सोए। ऐसे ही उलटा पात्र रखे। ऐसे ही तुमने महावीर के पास भी समय गुजारा। ऐसे तुम जन्मों-जन्मों से यात्रा कर रहे हो। अभी भी तुम कहते हो, सतत। मन भरा नहीं? इतने भटकने के बाद और भटकने का मन है? इसी क्षण को पूरा हो जाने दो। इसी क्षण की बात करो। क्षण से बाहर मत जाओ। क्षण के बाहर गए, उलझन खड़ी हुई। इसी क्षण को सुलझा लो। फिर इसी सुलझाव से और सुलझाव भी निकलते आएंगे।
'अब तो सुनो प्रार्थना मेरी!'
प्रार्थना किसी को सुनाने के लिए थोड़े ही है। किसी को सुनाने गए तो झूठ हो जाएगी। कठिन होगा तुम्हें सोचकर कि यह मैं क्या कह रहा हूं--प्रार्थना किसी को सुनाने के लिए नहीं है। यह तो अत्यंत एकांत में गुनगुनाने के लिए है।
इसीलिए तो बुद्ध ने परमात्मा भी छीन लिया, नहीं तो तुम किसी न किसी को सुनाते ही रहोगे। और जब तुम सुनाने चलते हो, तब अतिशयोक्ति हो ही जाती है। जब तुम किसी को बताने चलते हो, तो जो नहीं होता वह भी बता देते हो, बढ़ा-चढ़ा कर बता देते हो। आदमी का स्वभाव ऐसा है। चिंदी का सांप हो जाता है।
तुम जरा अपने को पकड़ो, जब तुम लोगों को सुनाने लगते हो तो कितना बढ़ा रहे हो, कितना जोड़ रहे हो, कितना मिर्च-मसाला डाल दिया? बढ़ती चली जाती हैं बातें। लोग एक-दूसरे को सुनाते चले जाते हैं। लेकिन यह दूसरे को सुनाने के मोह में झूठ हो जाता है।
प्रार्थना तो सच्ची होनी चाहिए, किसी को सुनानी नहीं है। इन पक्षियों के गीत जैसी होनी चाहिए। अपने आनंद से गुनगुना रहे हैं। प्रदर्शन नहीं है कोई। न किसी की फरमाइश है। न आकांक्षा है, कोई सुने। सुन ले मौज उसकी। पक्षियों को कोई प्रयोजन नहीं है।
इन फूलों को देखो, वृक्षों पर खिले हैं। किसके लिए खिले हैं? अपने लिए खिले हैं। किसी की राह नहीं देख रहे हैं कि कोई निकले किनारे से और गंध से आंदोलित हो जाए। कोई निकले ठीक, कोई न निकले ठीक, वृक्षों को पता ही नहीं चलता। कोई आए ठीक, कोई न आए ठीक। निर्जन में भी वृक्ष ऐसे ही खिलते हैं, जहां से कोई भी नहीं निकलता।
तुम्हारी प्रार्थना भी ऐसी ही होनी चाहिए। किसी को सुनाने के लिए नहीं। प्रार्थना तो तुम्हारे आनंद की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। और मांग तो प्रार्थना में रखना ही मत, अन्यथा प्रार्थना मर गयी। मांग छाती पर बैठी प्रार्थना की कि प्रार्थना मरी। इतना दिया है, उसके लिए धन्यवाद दो, मांगो मत।
लेकिन प्रार्थना में भिखारी खड़ा ही रहता है। प्रार्थना में प्रार्थी बना ही रहता है। प्रार्थी को हटाओ, अन्यथा प्रार्थना की दम घुट जाएगी। प्रार्थना दो ढंग से हो सकती है--अहोभाव की, धन्यवाद की; मांग की। मांगने की प्रार्थना गंदी हो जाती है। तुम कुछ भी मांगो, तुम्हारी मांग तुमसे बड़ी न होगी। तुम परमात्मा भी मांगो, तो भी तुम्हारा परमात्मा तुम्हारी धारणा का परमात्मा होगा।
अगर तुम असीम को चाहते हो तो मांगो ही मत। मांग को हटा लो, क्योंकि तुम्हारी मांग सीमा ही बनाएगी। तुम कितना ही सोचोगे, सीमा ही बनेगी। तुम बड़े से बड़ा भी मांगोगे तो छोटा ही रहेगा। तुम बड़ा मांग ही नहीं सकते। मांग बड़े की हो ही नहीं सकती। मांगते ही चीजें छोटी हो जाती हैं।
खू-ए-वफा मिली दिल-ए-दर्द-आशना मिला
क्या रह गया है और जो मांगें खुदा से हम
खू-ए-वफा मिली
प्रेम निभाने की आदत मिली।
दिल-ए-दर्द-आशना मिला
पीड़ाओं से परिचित होने की क्षमता मिली हृदय को।
क्या रह गया है और जो मांगें खुदा से हम
अब और मांगने को क्या बचा? प्रेम की क्षमता मिली, पीड़ा की क्षमता मिली, सब मिल गया। पीड़ा निखारेगी, पीड़ा गलत को काटेगी, पीड़ा व्यर्थ को जलाएगी, प्रेम सार्थक को उभारेगा, जगाएगा, बस हो गयी बात।
पीड़ा यानी जो व्यर्थ है वह कट जाएगा। प्रेम यानी जो सार्थक है वह बच जाएगा और खिलेगा; खिलेगा, फूलेगा, हजार-हजार रंग-रूपों में प्रगट होगा। प्रेम मिला, पीड़ा मिली, अब और खुदा से मांगने को क्या रह गया?
जिन्होंने ठीक से प्रार्थना की, उन्होंने पाया, अरे! मुझ अपात्र को इतना दिया, अकारण दिया! वे धन्यवाद देने गए हैं मंदिर और मस्जिद, मांगने नहीं गए।
तुम जरा देखो भी, मैं तुम्हें क्या दे रहा हूं! तुम जरा अपने को जगाकर फिर से सोचो। तुम्हारे पात्र में क्या उंडेला है, जरा गौर तो करो। अमृत तुम्हें दे रहा हूं। तुम्हारे मांगे नहीं दे रहा हूं। तुम्हारी मांग के कारण तुम्हें न मिल रहा हो, यह हो सकता है। तुम्हारी मांग पात्र को गंदा कर रही हो और पात्र में पड़ा अमृत भी जहर हो जाता हो, यह हो सकता है। तुम जरा मांज डालो अपने पात्र को। मांग को हटा दो कि मांज लिया पात्र। मांगो मत। मिला ही हुआ है।
कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी प्रार्थनाएं तुम्हारी वासनाओं के ही छिपे रूप हों। कहीं ऐसा न हो कि तुमने प्रार्थनाओं के सुंदर-सुंदर शब्दों में कुरूप वासनाओं को ढांक लिया हो, छिपा लिया हो।
आदमी बड़ा बेईमान है। और आदमी बड़ा आत्मवंचक है। फिर से तुम उघाड़कर अपनी प्रार्थनाएं देखो। जरा प्रार्थनाओं के ढक्कन हटाओ, नीचे झांको, क्या भरा है वहां? भला तुम कहो या न कहो, अगर वह भीतर है तो है। और प्रार्थना को गलत कर जाएगा। प्रार्थना होनी चाहिए शुद्ध, सहजस्फूर्त, तुम्हारी सरल निर्दोषता से उठी हुई। एक धन्यवाद का भाव अस्तित्व के प्रति कि मुझ अपात्र को कितना दिया है! किस कारण दिया है! प्रार्थना में आश्चर्य होगा।
तुम्हारी प्रार्थना में कभी आश्चर्य होता है? तुम्हारी प्रार्थना में तुम कुछ मांग रहे हो--धन, पद, प्रतिष्ठा। इससे किसी तरह छूटे, छूटे क्या, इसको किसी तरह छिपाया, तो तुम मांगने लगते हो--मोक्ष, समाधि, कैवल्य। मगर मांग जारी रहती है। जहां तक मांग है, वहां तक संसार है। जहां तुम्हारी मांग गिरती है, वहीं निर्वाण है। वहीं मोक्ष है।
बुद्ध ने हटा लिया परमात्मा को, न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। न रहेगा कोई जिससे तुम मांग सको, न तुम्हारी ये व्यर्थ की प्रार्थनाएं चलेंगी। धर्म को परमात्मा से मुक्त किया, ताकि धर्म मांग से मुक्त हो जाए। तुम अकेला अपने को पाओ।
इक फरेब-ए-आरजू साबित हुआ
जिसको जौक-ए-बंदगी समझा था मैं
आकांक्षा का धोखा सिद्ध होती है अक्सर, जिसको तुमने उपासना की अभिरुचि समझी है।
मंदिरों में जाते लोगों के हृदय में झांको, वे कुछ मांगने चले जा रहे हैं। बाजार में हार गए मांग-मांगकर, न मिला, अब मंदिर जा रहे हैं। आदमी से मांग-मांगकर हार गए, अब परमात्मा से मांगने जा रहे हैं। लेकिन मांगने जा रहे हैं। अभी मांग से नहीं छूटे। और जब तक तुम मांग से न छूटे, तब तक तुम्हें मंदिर की राह न मिलेगी। तब तक तुम कहीं भी जाओ, सब जगह तुम्हारा बाजार तुम्हारे साथ जाएगा। तुम्हारी मांग में ही तुम्हारा बाजार है। और तुम बाजार में भी मांग छोड़ दो, अचानक तुम पाओगे मंदिर वहीं आ गया। तुम जहां हो वहीं प्रगट हो गया।


दूसरा प्रश्न: भगवान!

तेरी महफिल की रस्म निभाना हमको नहीं आता
अपने ही जिस्म की भस्म लगाना हमको नहीं आता
मरने का तौर सिखाने वाले ऐ रजनीश सुन
मरने से पहले मर जाना हमको नहीं आता

तो सिखा लेंगे। अगर तुम्हें आता ही हो, तो ही मुश्किल होगी। न आता हो और पता हो कि नहीं आता, तो सिखा लेंगे। आता हो, अगर सच में ही आता हो, तब तो मेरे पास आने की कोई जरूरत नहीं। आने का सिर्फ खयाल हो कि आता है और आता न हो, तो सिखाना मुश्किल हो जाएगा।
जिसने अपने अज्ञान को समझा, उसने ज्ञान को निमंत्रण दिया। जिसने कहा, नहीं आता, कोई अड़चन नहीं। उससे मेरा संग-साथ बन जाता है। किसको आता है मरना! जीना ही नहीं आता, मरना तो बड़ी दूर की बात है। जी रहे हो और जीना नहीं आता, मरना तो कैसे आएगा! मरना तो केवल उन्हीं को आता है जो जीना सीख लेते हैं, जो जीने को उसकी पराकाष्ठा में जी लेते हैं, जो जीवन को उसकी आत्यंतिक गहराई में जी लेते हैं। उनको मरना आता है। क्योंकि मरना जीवन की आखिरी ऊंचाई है। उसके पार फिर कोई शिखर नहीं। वह गौरीशंकर है जीवन का।
तुम साधारणतः सोचते हो, मृत्यु जीवन का अंत है, ऐसा नहीं। यह तो तुम्हें जीना नहीं आया, इसलिए सोचते हो। समझो। जिसे जीना नहीं आया वह मौत से डरता है। डरेगा ही। दया का पात्र है बेचारा। क्योंकि जिसे अभी जीना नहीं आया, वह देखता है कि मौत चली आती है पास, हम अभी जीए भी नहीं। अभी हम सोचते ही रहे--कहां आशियां बने कहां न बने, बहार खतम हुई। घबड़ाहट आती है। डर लगता है। यह तो पैर अभी जमे भी न थे। अभी जी भरकर पी न पाए थे कि यह तो मधुपात्र के टूटने का, छूटने का वक्त आ गया। अभी ओंठ से लगा ही पाए थे कि किसी ने झटक लिया। मौत दुश्मन मालूम होती है।
क्यों? क्योंकि मौत समय को छीन लेती है। और जीने के लिए समय की जरूरत थी। अभी तो जी न पाए थे। अभी कल की जरूरत थी। आज तो तुम जीते नहीं, कल जीते हो, मौत कल को समाप्त कर देती है। मौत कहती है, बस खतम हुआ मामला। आज बस आज। अब कल नहीं। अब और कल नहीं। मौत भविष्य को छीन लेती है। और तो कुछ नहीं छीनती।
तुम जरा सोचो, जीवन को नहीं छीनती मौत। जीवन तो जीया जा चुका, अब क्या मौत छीनेगी? जीवन तो अतीत हुआ। जीवन को तो छीन ही नहीं सकती जो अतीत हो गया। और जो वर्तमान है उसको तो मौत छीनेगी कैसे? वह तो आ ही गया। यहां मौजूद ही है। अब उसके न-होने का कोई उपाय नहीं। मौत सिर्फ भविष्य को छीन सकती है। जो आने वाला था, न आए।
सिकंदर मर रहा था। तो उसने कहा, सारा साम्राज्य दे दूंगा, थोड़ी देर मुझे बचा लिया जाए--चौबीस घंटे बचा लिया जाए। मुझे मेरी मां से मिलना है। पास आ गया था अपनी राजधानी के, लेकिन अभी भी फासला था चौबीस घंटे का। चिकित्सकों ने कहा, असंभव है। उसने कहा, आधा राज्य देता हूं, पूरा देता हूं। चिकित्सकों ने कहा, अब तुम कुछ भी दो, असंभव है। चौबीस घंटे तो बहुत, एक सांस भी हम न बढ़ा सकेंगे। भविष्य पर हमारा कोई बस नहीं।
सिकंदर रोने लगा और उसने कहा, अगर मुझे पता होता पहले, तो मैंने सांसें व्यर्थ न गंवायी होतीं। अगर एक सांस नहीं मिल सकती मेरे पूरे साम्राज्य से, और इसी साम्राज्य के लिए सब सांसें मैंने गंवा दीं, काश मुझे पहले पता होता!
लेकिन सिकंदर गलत कह रहा है। नहीं पता हो, ऐसा नहीं है। सारे शास्त्र यही दोहरा रहे हैं। एक धुन से यही दोहरा रहे हैं। सारे सदगुरु यही दोहरा रहे हैं, एक स्वर से यही दोहरा रहे हैं। सिकंदर ने न सुना हो, ऐसा नहीं है। सिकंदर को सत्संग की बड़ी रुझान थी। भारत भी आया तो संन्यासियों से मिला था। यूनान में भी अरस्तू का शिष्य था। सुकरात के शिष्य का शिष्य था। ज्ञानियों के पास बैठता था। न सुना हो, ऐसा नहीं है। लेकिन बहरा रहा होगा। सुने को अनसुना किया होगा, जैसा तुम कर रहे हो।
मौत भविष्य को छीनती है। और जो जीया नहीं, उसका सारा जीवन भविष्य में है। वह सोचता है, कल जीएंगे। आज गया, कोई हर्जा नहीं। हजार चिंताएं थीं, उन्हें सुलझाने में लगे थे, कल जीएंगे। सब चीजों से निवृत्त होकर कल जीएंगे। आज मकान बना लेते हैं, कल जीएंगे। आज पत्नी ले आते हैं, कल जीएंगे। आज धन कमा लेते हैं, कल जीएंगे। ऐसा आदमी कल पर टालता है जीवन को। आज तैयारी करता है, जीने को कल पर टालता है। एक दिन मौत आती है--तैयारी तो कभी पूरी होती नहीं। हो नहीं सकती। आदमी का मन ऐसा है। कितना ही अच्छा मकान बनाओ, और अच्छा बनाया जा सकता है। कितनी ही सुंदर स्त्री ले आओ, कितना ही सुंदर पति खोज लो, और सुंदर खोजा जा सकता है।
मनुष्य की सबसे बड़ी पीड़ा यही है कि मनुष्य के पास कल्पना है। कल्पना के कारण वह श्रेष्ठतर का हमेशा सपना देख लेता है। सुंदरतम स्त्री--क्लियोपैत्रा-- तुम्हें मिल जाए, तो भी तुम सोचोगे कि आंख थोड़ी और काली हो सकती थी। कि आंख थोड़ी और मछलियों जैसी हो सकती थी। कि चेहरा और थोड़ा गोरा हो सकता था, कि और थोड़ा सांवला हो सकता था। कि और सब तो ठीक है, लेकिन बाल मेघों की घटाओं जैसे नहीं। कि और सब तो ठीक है, नाक थोड़ी लंबी है, कि थोड़ी छोटी है। मनुष्य के पास कल्पना है। कल्पना के कारण वह श्रेष्ठतर की सदा ही चिंतना कर सकता है। तुम जाकर ताजमहल में भी भूल-चूकें खोज सकते हो। अक्सर लोग यही करते हैं। ताजमहल में जाकर भूल-चूकें खोजते हैं--कहां कमी रह गयी? कहां...?
ऐसा तो आदमी खोजना मुश्किल है जिसके पास कल्पना न हो। कल्पना ही तो सताती है, परेशान करती है। कल्पना कहती है और थोड़ा सुधार लो, फिर भोग लेना; और थोड़ा सुधार लो, फिर भोग लेना। दस हजार हैं, दस लाख हो जाने दो फिर भोग लेना। दस हजार तो जल्दी चुक जाएंगे। दस लाख कर लो। जब तक दस लाख हो पाते हैं, कल्पना चार डिग आगे बढ़ जाती है। वह करोड़ों की बात करने लगती है। कल्पना तुम्हारे साथ ठहरती नहीं। कल्पना सदा उड़ी-उड़ी है, तुमसे सदा आगे है। इसलिए कल्पना तुम्हें कभी इस हालत में नहीं आने देती कि तुम कह सको, अब तैयार हूं, भोग लूं। इसके पहले कि कल्पना थके, मौत आ जाती है। कल्पना कभी थकती ही नहीं। जैसे मौत और कल्पना में होड़ लगी है। मौत अभी तक कल्पना को थका नहीं पायी।
जिसकी कल्पना को मौत ने थका दिया, वही बुद्ध हो गया। जिसने जान लिया कि कल्पना से तो कभी भी पूर्ति होने वाली नहीं है, यह तो बढ़ती ही जाएगी, बढ़ती ही जाएगी। यह तो अमर-बेल है। बिना जड़ों के फैलती चली जाती है, फैलती चली जाती है। वृक्षों का रस सोख लेती है। खुद कुछ भी नहीं देती। चूस लेती है पूरे जीवन को। अमर-बेल है।
बड़ा प्यारा नाम दिया है बड़ी खतरनाक बेल को, अमर-बेल कहा है। अमर-बेल ठीक ही कहा है, क्योंकि मरती नहीं। वृक्ष मर जाते हैं, बेल नहीं मरती। एक वृक्ष मरता है, तब तक वह दूसरे वृक्ष पर सरक जाती है। वृक्षों से वृक्षों पर यात्रा करती रहती है, कभी मरती नहीं। उसके पास मरने का कोई कारण नहीं, क्योंकि जड़ें नहीं हैं। जड़ हो तो कोई चीज मरती है। जड़ सूख जाए, तो मर जाए। उसके पास जड़ नहीं है। बिना जड़ के है। हवा में चलती है। शोषण से जीती है। शोषण करने को यह वृक्ष नहीं होगा, दूसरा वृक्ष होगा। न उसमें पत्ते लगते, न फूल लगते, न फल लगते। बांझ है। कल्पना से बांझ तुमने कोई और चीज देखी? कुछ भी नहीं लगता। मगर लगने के सपने दिए चली जाती है।
जिस दिन तुम यह देख लोगे अमर-बेल है, उसी दिन तुम जागोगे। उस दिन तैयारी छोड़ोगे, तुम जीओगे। उस दिन तुम कहोगे कि आज तो जी लें, जितनी तैयारी है उतने से जी लें। माना कि आंगन टेढ़ा है, लेकिन कुछ नाच तो हो ही सकेगा। अब यह न कहें कि आंगन टेढ़ा है नाचें कैसे? चलो थोड़ा हम बच-बचकर नाच लेंगे, टेढ़ा सही। मगर नाच तो लें। क्योंकि आंगन कब होगा जब टेढ़ा न होगा? फिर नाचेंगे। तब गैर-टेढ़े आंगन में भी नाच लेंगे। लेकिन नाच तो लें। टेढ़े में सही।
भूख लगी है आज, रूखी-सूखी रोटी है, इसे तो आनंद से स्वीकार कर लें। अहोभाव से इसका भोजन कर लें। इसका तो खून बनने दें। फिर जब सजेंगे थाल तब...तब उन्हें भी स्वीकार कर लेंगे। कहीं ऐसा न हो कि रूखी-सूखी रोटी के अस्वीकार करने में तुम्हारी भूख ही मर जाए। ऐसा हुआ है। कहीं ऐसा न हो कि आंगन टेढ़ा है नाचें कैसे, तो जब तक आंगन सीधा हो तब तक तुम नाचना भूल जाओ, पैर टूट जाएं। और जिंदगीभर जो नाचा न हो वह कैसे नाचेगा!
ऐसे मैं लोगों को जानता हूं, जो कहते हैं, एक दफा कमा लें।
एक मेरे मित्र हैं। उन्होंने कहा, ठीक! जब पचपन साल का हो जाऊंगा--तब तक कमा लूं--फिर शांति से जीयूंगा। तुम्हारी मौज, मैंने कहा। फिर वे पचपन के भी हो गए, काम-धंधा भी छोड़ दिया, मगर बड़े अशांत हो गए। कहने लगे मुझे आकर कि यह तो बड़ी उलटी हो गयी बात। मैं तो सोचता था, शांति से जीयूंगा।
मैंने कहा, पचपन साल का अशांति का अभ्यास, अब उससे छुटकारा कैसे पाओगे? आपा-धापी, दौड़-धूप, धन-दुकान-बाजार। होटल चलाते थे, बड़ी होटल थी। और होटल का उपद्रव! दिन-रात यात्रियों का आना-जाना! ठेठ बाजार में बैठे थे।
अचानक पचपन साल के हुए, निर्णय के अनुसार छोड़ दिया--हिम्मत के आदमी हैं। लेकिन सालभर बाद वापस होटल में लौट जाना पड़ा। कहने लगे, मन नहीं लगता घर पर, होटल की याद आती है। और फिर यह भी कि घर में बैठकर कोई शांति भी नहीं मिलती, और अशांत हो गया। पत्नी से झंझट नहीं होती थी, झंझट होने लगी। झंझट होटल में ही हो जाती थी, घर निपटकर आते थे। अब घर ही बैठे हैं, झंझट की पुरानी आदत है।
पत्नी ने मुझे कहा, ये इस तरह व्यवहार करते हैं जैसे नौकर-चाकरों से। वही उनकी आदत है। जिंदगीभर होटल में नौकर-चाकरों के साथ जो व्यवहार किया, वही वे घर में करते हैं। पहले पत्नी को भी पता न चला था। थक-मांदे आते थे। अब वे घर में बैठे हैं, ताजे। पुराना उपद्रव सिर को घुमाता है, शांत न रह सके। पत्नी ने मुझे भी कहा कि आप इन्हें समझाओ कि किसी तरह ये वापस होटल जाएं। इनके पास बैठने में डर लगता है। कुछ भी बात करते हैं, तो झंझट निकाल लेते हैं। वापस लौट गए।
तुम जिंदगीभर तैयारी करोगे, तैयारी में तुम जिंदगी खो रहे हो। तैयारी चलने दो। तैयारी रोकने को मैं नहीं कहता। लेकिन जिंदगी के भोग को मत रोको। तैयारी के लिए मत रोको। साथ-साथ चलने दो। ताकि अगर कभी तैयारी पूरी हो जाए, तो तुम भोग सको। न तैयारी पूरी हो, तो मौत आए तो तुम्हें मौत के सामने हाथ जोड़कर खड़ा न होना पड़े, तुम कह सको कि भोग लिया है, कुछ तैयारी के लिए रुका न था; तैयार हूं, ले चलो।
जीवन को जीना तो पहली बात है। जिसने वह कला सीखी, वह मौत से नहीं डरता। और जिसने जीवन को ठीक से जीया, वह अचानक पाता है कि जब भी जीवन में सौंदर्य का, सत्य का, आनंद का, शांति का शिखर आता है, तो एक तरह की मौत घटती है। हर गहरा अनुभव मौत का अनुभव है।
अगर तुमने किसी को प्रेम किया और गहरा प्रेम किया, तो तुम प्रेम की आखिरी गहराई में पाओगे एक तरह की मौत। तुम जो थे, मर गए। नया हो आया। नया जन्म हुआ। हर प्रेम नया जन्म है। तुमने अगर ध्यान लगाया, ध्यान की गहराई पायी, हर ध्यान नया जन्म है। ध्यान के बाद तुम पाओगे, जो गया था ध्यान में, वह लौटा नहीं। यह तो कोई और आ रहा है। यह तो अपरिचित। इससे तो कोई पहचान नहीं। यह तो अजनबी। मगर बड़ा नया और बड़ा ताजा और बड़ा क्वांरा। गयी धूल। हट गया पुराना उपद्रव। अतीत का जाल, कूड़ा-करकट, सब बह गया। अगर तुमने चित्र बनाया और डूबे चित्र के बनाने में, तो भी यही होगा।
इसलिए कवि, चित्रकार, मूर्तिकार रोज-रोज नए हो जाते हैं। दुकानदार पुराना पड़ता जाता है। जो भी सृजनात्मक किसी कर्म में लगे हैं, जिनकी जीवन-ऊर्जा सर्जना बन रही है, वे रोज-रोज नए होते जाते हैं। क्योंकि रोज-रोज मरते हैं। सृजन का अर्थ ही रोज-रोज पल-पल मरना है। ताकि जीवन नया होता जाए। कभी पुराना न हो, कभी बासा न हो।
अगर जीवन को तुमने ठीक से जीया तो तुम बहुत बार जीवन के बीच पाओगे, मौत घटती है। तब मौत अपरिचित नहीं रह जाती। फिर भय क्या? और मौत जब भी घटती है तब इतना अपूर्व, अभिनव, अनुपम जीवन दे जाती है! फिर मौत से डरना क्या? फिर तो तुम उलटे प्रतीक्षा करते हो। तुम राह देखते हो कि कब बड़ी मौत आएगी, कब महामृत्यु आएगी, और कब सब कूड़ा-करकट बहा ले जाएगी। सब शैवाल बह जाएगा, नदी पूरी स्वच्छ होगी। अतीत से बिलकुल जड़-मूल से तोड़ देगी। जिसने जीवन को जीया, वह मरने की कला भी जीवन के जीने में ही सीख लेता है।
कहते हो, 'मरने से पहले मर जाना हमको नहीं आता।'
आ जाएगा। जरा साहस करे रहो, रुके रहो मेरे पास, आ जाएगा। मगर सूत्र है--जीवन को जीना।
आखिरी जब मौत आती है, तब बहुतों को, जिन्होंने होश से, थोड़ी समझपूर्वक मरने की कला जानी है, जो थोड़ा सा जागे-जागे मरे, वे बहुत पछताते हैं।
मौत ने आसरा दिया भी तो कब
जब मुसीबत के दिन गुजार आए
तब उन्हें पता लगता है, अरे! इस मौत को हमने काश पहले ही थोड़ा बुला लिया होता। इसकी थोड़ी आतिथ्य, आवभगत की होती।
मौत ने आसरा दिया भी तो कब
जब मुसीबत के दिन गुजार आए
जब जवान थे तभी इसे बुलाया होता, तो जवानी में निखार आ जाता। जब प्रेम में थे तब इसे बुलाया होता, तो प्रेम में गहराई आ जाती। अगर यह मौत तुमने पुकारी होती संभोग के क्षण में, तो संभोग समाधि बन जाता।
मौत तुम्हें पुनर्जन्म देती है। फिर तुम्हें बार-बार छोटा बच्चा बनाती है। इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, प्रतिपल मरो। टालो मत। मौत को इकट्ठा सत्तर साल के बाद मत टालो, रोज-रोज उपयोग कर लो। मौत उपलब्ध है, तुम भागे हो उससे, बच रहे हो उससे। मौत से भागने के कारण बहुत सी चीजें असंभव हो गयीं। आदमी ठीक से सो नहीं पाता, क्योंकि सोना भी छोटी सी मौत है।
तुम देखो, पूरब में लोग ज्यादा गहरी नींद सोते हैं बजाय पश्चिम के। कारण, पूरब में लोगों को खयाल है, जन्मों के बाद फिर और जन्म हैं, फिर और जन्म हैं। लेकिन पश्चिम में खयाल है, बस एक ही जन्म है। मेरी समझ है कि जब तक पश्चिम में पुनर्जन्म की धारणा फैलती नहीं, तब तक लोग ठीक से न सो सकेंगे। क्योंकि नींद एक मौत है।
मैं एक आदमी को जानता हूं, जो बड़ी लंबी बीमारी से पीड़ित थे। बाद-बाद में वे सोने से डरने लगे। मैं उन्हें देखने गया था। मैंने पूछा कि यह क्या मामला है? तुम्हारे घर के लोग शिकायत करते हैं कि तुम सोने से डरने लगे। वे कहने लगे कि कहीं सोते-सोते मर न जाऊं! तो मैं जागा रहना चाहता हूं।
तुमने देखा, किसी को सांप काट ले तो चिकित्सक उसे सोने नहीं देते। जगाए रखते हैं। चलाते हैं। क्योंकि अगर वह सो जाए तो फिर शायद वापस न जग सके। जहर और नींद का मेल हो जाए, तो शायद जग न सके, मौत घट जाए। उसे चलाते हैं। उसे जगाए रखते हैं। उसे हिलाते-डुलाते हैं। अगर चौबीस घंटे वह जागा रहे, तो जहर उसके शरीर से बाहर हो जाए। फिर कोई खतरा नहीं। जहर भीतर हो और नींद आ जाए, तो नींद मौत बन जाए।
जिन देशों में धारणा है कि एक ही जीवन है, फिर कोई जीवन नहीं, उन देशों में नींद खोती जा रही है।
कभी-कभी इन चीजों पर सोचा करो, ध्यान किया करो। जिन देशों में यह धारणा है कि एक ही जीवन है, वहां से प्रेम समाप्त हो गया। क्योंकि प्रेम में भी मौत घटती है। इसलिए पश्चिम में प्रेम समाप्त हो गया, विवाह बरबाद हो गया, घर उजड़ गया। प्रेम के लिए मरने की हिम्मत चाहिए। प्रेम में मरने की हिम्मत चाहिए। जिनका एक ही जीवन है, इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते। घबड़ा गए हैं।
पश्चिम से ध्यान खो गया, समाधि के सूत्र खो गए। कारण? मौत का डर बड़ा हो गया। जब एक ही बार जीवन है, तो मौत बड़ी बहुमूल्य हो गयी कि एक दफा मरे कि मरे, सदा के लिए मरे, अनंत काल के लिए मरे। पूरब में ऐसी घबड़ाहट नहीं है। लोग कहते हैं, कोई हर्जा नहीं, अभी मरे, फिर पैदा हो जाएंगे। होते रहे हैं, होते रहेंगे। आते रहे हैं, आते रहेंगे। यह तो जीवन-चक्र है, घूमता रहता है। यह धारणा तुम्हें तनाव से नहीं भरती। पूरब में लोग गहरी नींद भी सोते हैं, प्रेम में भी डुबकी लगा लेते हैं, कभी-कभी समाधि के शिखरों पर भी चढ़ जाते हैं।
लुत्फ जो बेखुदी में था वो कहां
होश में आके हमने देख लिया
जरा बचपन की याद तो करो। भूल ही गए बिलकुल। कैसा मजा था बेखुदी में! जब तुम्हें अपनी याद भी न थी। जब अहंकार जगा न था। जब यह भी पता न था कि क्या जीवन है और क्या मौत है। जब हीरे और कंकड़-पत्थरों में कोई फर्क न था। जब तितलियों के पीछे दौड़ जाते थे। जब कंकड़-पत्थर रंगीन घर भर लाते थे। जब ओस की बूंदों में मोती दिखायी पड़ते थे। और जब हर चीज चमत्कृत करती थी, और हर चीज आश्चर्य से भर जाती थी। जरा याद तो करो।
अगर मरने की कला तुम सीख लो, तुम रोज सुबह पाओगे कि फिर तुम बच्चे हुए, फिर तितलियों ने पुकारा, फिर ओस ने आवाज दी, फिर चारों तरफ मोती बिखरे, फिर चांदत्तारे रहस्यपूर्ण हो गए। क्या अर्थ होता है बचपन का? बचपन का अर्थ होता है, अबोध। जिसे अभी अहं-बोध नहीं हुआ। जिसने रोज-रोज मरने की कला सीख ली, उसने रोज-रोज बचपन को पाने का रस पा लिया। द्वार पा लिया।
लुत्फ जो बेखुदी में था वो कहां
होश में आके हमने देख लिया
पूछते हो, 'मरने से पहले हम से मरा न जाएगा।'
मरकर मरे, तो कौन सी कला होगी! मरकर तो सभी मर जाते हैं। कुत्ते-बिल्ली भी मर जाते हैं, आदमी भी मर जाते हैं। मरकर ही मरे, जब मौत ने मारा तब मरे, तब तुम्हारी क्या कुशलता होगी? तब तुम्हारा क्या मूल्य होगा?
अति महाबली वह भीम, सुना जाता जिसमें
था साठ हजार हाथियों का बल मूर्तिमान
वह लकड़ी एक न निज छाती से उठा सका
जब हुआ चिता पर उसके बल का इम्तिहान
आखिरी परीक्षा तो वहां होगी ही। लकड़ी की चिता पर जब चढ़ोगे, आग में जब उतरोगे फिर क्या करोगे? फिर तो बच न सकोगे। फिर तो बड़ी बिना इच्छा के मरना होगा। बड़ी जबर्दस्ती होगी। उसी जबर्दस्ती के कारण तो मौत भयानक मालूम होने लगती है। और जब मौत भयानक हो जाती है, तो सब चीजें भयानक हो जाती हैं। तब जिंदगी भी भयानक हो जाती है, क्योंकि जिस जिंदगी से अंततः मौत आती है, वह जिंदगी कैसे भयानक न होगी?
एक आदमी मेरे पास आया। वह कहने लगा, बड़ा डर लगता है मुझे। खासकर अंधेरे में बहुत डर लगता है। रात को जब भांय-भांय होने लगती है, तो मुझे बहुत डर लगता है। मैंने कहा, भांय-भांय? सांय-सांय सुना है। फिर मैंने सोचा...। नहीं, वह आदमी बोला, मुझे भांय-भांय। सांय-सांय, मैंने उससे कहा, तुझे सुनायी पड़ता है कि भांय-भांय? उसने कहा, भांय-भांय। तो मैंने कहा, जरूर भय और सांय-सांय दोनों मिल गए हैं। भय और सांय मिल गया, तो भांय।
अगर तुम्हें रात के सन्नाटे में रस आए तो सांय-सांय सुनायी पड़ेगी। सांय-सांय का अर्थ ही संगीतपूर्ण है। सन्नाटा भी सन-सन की आवाज से बना। वह आवाज बाहर की नहीं है। वह तुम्हारे भीतर जब सब कोलाहल बंद हो जाता है, तुम्हारे भीतर की है। उसको जिन्होंने जाना है, उन्होंने उसे ओंकार कहा है। जानने वालों ने सांय-सांय को ओंकार कहा है। अनाहत नाद कहा है। वह शून्य की आवाज है। शून्य का संगीत है। नीरव स्वर है। लेकिन जो घबड़ा गए, उनको भांय-भांय मालूम होती है। जो ओंकार हो सकता था, वह भांय-भांय हो जाता है।
तुम्हारी दृष्टि पर सब निर्भर है। अगर तुम मौत से डरे हो तो तुम जिंदगी से भी डरे रहोगे, क्योंकि जिंदगी ही आखिर मौत ले आती है। यह जिंदगी की सीढ़ी है जो मौत पर ले जाती है। यह जिंदगी का रास्ता ही है जो मरघट पर पहुंचा देता है। तुम कैसे जिंदगी को प्यार कर सकोगे? तुम कैसे जिंदगी को आलिंगन कर सकोगे? तुम कैसे नाच सकोगे जिंदगी के साथ? इसी से तो मौत आनी है। यही तो मौत लाने वाली है।
नहीं, तुम छिटके-छिटके रहोगे। तुम बचे-बचे रहोगे। तो ऐसे तुम जिंदगी भी गंवाओगे और मौत तो तुम गंवा ही दोगे। जब बेमन से मरना पड़ता है, तो मौत भी गंवा दी। बेमन से जीए, बेमन से मरे, सारा अवसर व्यर्थ गया।
मैं तुमसे कहता हूं, मन-भरपूर्वक जीओ। और अगर तुम्हें मरना है--मरना तो होगा ही--तो मनपूर्वक मरो। फिर मरने को भी साधना बना लो। फिर मरने को भी ऐसा जबर्दस्ती स्वीकार न करो। रोज-रोज उसका भी स्वाद लो कि जब मौत आए, तो तुम्हें पारंगत पाए। जब मौत आए, तो निष्णात पाए, तुम उठकर खड़े हो जाओ।
मैंने एक फकीर के संबंध में सुना है--झेन फकीर के--कि जब वह मरने को हुआ, उसने कहा, मेरे जूते ले आओ। क्या करना है जूते का? चिकित्सक तो कहते हैं कि अब आप सुबह न होगी और समाप्त हो जाएंगे। और आप भी कहते हैं कि सूरज के उगने के पहले मृत्यु आ जाएगी। उसने कहा, वही तो मैं तैयारी कर रहा हूं। मरघट जाता हूं। मैं किसी के कंधे पर चढ़कर न जाऊंगा। जूते लाओ। मैं मौत को अपनी तरफ से चलकर मिलूंगा। यह मेरी जिंदगी का कौल रहा। वह उठा और उसने अपने जूते पहने, बूढ़ा आदमी है, लकड़ी टेकते हुए मरघट चला।
हजारों की भीड़ उसके पीछे चली, लोगों ने कभी न देखा था कि कोई आदमी अपने पैर से चलकर जाता है। लोग सदा दूसरों के कंधों पर चढ़े जाते हैं। दूसरों को ले जाना पड़ता है। अपनी तरफ से कौन जाता है! मगर यह फकीर गया, इसने कहा, कब्र खोदो। इसने कब्र खोदने में हाथ भी बंटाया। वह उसमें लेट गया और कहते हैं, मर गया। आंख उसने बंद कर ली, उसने कहा, अब मैं जाता हूं, अलविदा! अब तुम मिट्टी फेंक सकते हो। उसने आंख बंद कर ली, वह मर गया।
यह...यह कुछ बात हुई! यह कुछ मरने का ढंग हुआ! यह कोई शैली हुई! इसमें कुछ सौंदर्य है! इस आदमी ने मौत को हरा दिया। मौत भी रह गयी होगी छाती मसोसकर कि इस आदमी को न मार पाए। यह स्वेच्छा से गया है।
तुम जरा फर्क तो समझो जबर्दस्ती ले जाए जाने में और स्वेच्छा से जाने में।
जब तुम जबर्दस्ती ले जाए जाते हो, तुम पकड़ रहे हो बिस्तर का कोना और मौत खींचती है। इसीलिए तो तुम्हारे मन में कल्पनाएं उठी हैं कि आते हैं यमदूत भैंसों पर सवार होकर--भांय-भांय! क्योंकि जिन्होंने जाना है, वे कहते हैं, परमात्मा हाथ फैलाता है। उससे मिलन होता है। और तुम कहते हो, भैंसों पर सवार होकर! तुम्हें और कोई सवारी न मिली! बैठे आ रहे हैं भैंस पर चढ़े। बड़ा पुराना ढंग मालूम पड़ता है, अब कहां यंत्र कहां से कहां पहुंच गए! यह तो बैलगाड़ी से भी गया गुजरा जमाना मालूम होता है, जब भैंस पर चढ़े आ रहे हैं। नहीं मगर, तुम्हारे भय ने भैंस खड़ी कर ली है। तुम्हारे भय ने यमदूतों को काला रंग दिया है।
तुमने कठोपनिषद पढ़ा ही है। नचिकेता अपनी तरफ से चला गया तो मौत से भी अमृत के सूत्र लेकर लौटा। कहानी तो प्रतीक है। जबर्दस्ती जाते हो, उससे केवल इतनी ही खबर मिलती है--ठीक से जीए भी न। जीवन से भी मौत ही निकली तुम्हारे। और नचिकेता मौत से भी अमृत ले आया। मौत ने उसे जीवन देने के बहुत बहाने किए, कहा कि धन ले ले, राज्य ले ले, साम्राज्य ले ले, हाथी-घोड़े ले ले, सुंदर स्त्रियां ले ले; उसने कहा, इनको लेकर क्या होगा? एक दिन तो तुम आ जाओगे। फिर तुम छीन लोगे। तो जो छिन ही जाना है, उसकी बात न उठाओ। मुझे तो तुम वह दे दो जो कभी छिनता नहीं।
मौत ने बहुत तरकीबें लगायीं, सब तरह से समझाया--अगर मौत की बातें सुनोगे, तुम्हारा भी मन होने लगेगा: हम न हुए अन्यथा ले लेते, क्या-क्या मिल रहा था! और यह नासमझ नचिकेता आखिर बाल-बुद्धि बालक ही ठहरा--लेकिन नचिकेता ने कुछ भी न लिया। उसने कहा कि एक बात का जवाब देते चलो, यह तुम जो देने को कहते हो, अगर मैं ले लूं, तो कभी तुम छीनोगे या नहीं? मृत्यु ने कहा, जितना तुझे लंबा समय मांगना हो मांग ले, हजार साल जीना हो हजार साल जी, दस हजार साल जीना हो दस हजार साल जी, कितनी लंबी आयु मांगता है? उसने कहा, लंबी की बात मत उठाओ। एक दिन आओगे आखिर में कि नहीं? सौ साल बाद आओगे, हजार साल बाद आओगे, दस हजार साल बाद आओगे, आओगे न? बात खतम हो गयी। कुछ ऐसी बात बताओ जिस में तुम आओ ही न।
नचिकेता ने मृत्यु में से भी अमृत खोज लिया। लेकिन सूत्र इतना है कि अपनी स्वेच्छा से चला गया। एक बार भी ना-नुच न की। बाप नाराज हो गया। बाप ने यज्ञ किया है। वह बांट रहा है--जैसा बांटने वाले बांटते हैं। बेकार चीजें बांटते हैं। जिनकी कोई जरूरत नहीं रह गयी, वह बांट देते हैं। भेंट कर आते हैं। तुम भी करते हो यही। बाप बांट रहा है। गौवें बांट रहा है, जो न दूध देती हैं, जिनके हड्डी-पंजर निकल आए हैं। नचिकेता पास बैठा है, वह पूछता है, पिता! ये गाएं आप दे रहे हैं, इनको देने से पुण्य होगा? क्योंकि इनमें दूध तो निकलता ही नहीं! बाप नाराज होता है।
अक्सर बाप नाराज हो जाते हैं, क्योंकि अनुभव अक्सर क्वांरे निर्दोष बोध से नाराज हो जाता है। क्योंकि क्वांरा निर्दोष बोध अनुभव को जैसे ही उंगली उठता है, अनुभव को बेचैनी होती है। क्योंकि अनुभव बेईमान सिद्ध होता है।
यह बेटा यह कह रहा है कि पिताजी बड़ी बेईमानी कर रहे हैं, यज्ञ का नाम ले रहे हैं, ब्राह्मणों को दान कर रहे हैं, दान की वाह-वाह हो रही है, लेकिन ये गौवें दान योग्य नहीं हैं। यह मुझे पता है। इनमें से दूध तो निकलता ही नहीं। उसने देखा होगा घर में ये गौवें कई दिन से खड़ी हैं, उलटा इनको घास-फूस खिलाओ। कुछ निकलता तो है नहीं, ये पिता दान कर रहा है। इससे कैसे पुण्य होगा?
बाप नाराज हो गए। बाप ने कहा, तू चुप भी रह। लेकिन बेटा चुप नहीं रह सकता, वह देख रहा है। उसने कहा कि आप सब दान दे रहे हैं, सब दान कर देंगे? जो भी आपका है दान कर देंगे? पिता ने कहा, हां, जो भी मेरा है दान कर दूंगा। मैं सर्वस्व-दानी होने वाला हूं। उसने कहा, मैं भी तो आपका हूं। मुझको दान कर देंगे? अब तो बाप का गुस्सा बहुत चढ़ गया। उसने कहा कि तुझे भी दान करूंगा और ब्राह्मणों को नहीं, मौत को दूंगा। लेकिन नचिकेता ने एक बार भी न कहा कि मुझे मौत को मत दें। कहते हैं, वह उठा और मौत के घर की तरफ चला गया। जब दे ही दिया, तो बात खतम हो गयी।
अक्सर मौत तुम्हारे घर आती है, नचिकेता मौत के घर गया। यह बड़ी प्रतीक की बात है। और जब मौत तुम्हारे घर आती है, तुम हमेशा मिल जाते हो, खयाल है! कहीं भी घर बनाओ, मौत वहीं आ जाएगी। कभी तुमने ऐसा देखा कि मौत आयी और तुम घर पर न थे। वह वहां आएगी ही नहीं। अगर तुम बाजार में थे, तो बाजार में आएगी। मंदिर में थे, तो मंदिर में आएगी। तुम यह तो नहीं कह सकते, यह कोई अलीह भी तो नहीं हो सकती कि हम घर पर नहीं थे। यह कोई अदालत तो नहीं है कि वहां तुम बहाना खोज लोगे। मौत जब भी आती है, सदा तुम्हें घर पर पाती है। पाएगी ही।
नचिकेता मौत के घर गया, मौत न थी। मौत को पता ही नहीं था। यह कोई आने का वक्त ही न था। इसके आने का समय भी न आया था। यह तो अभी छोटा था। अभी तो यह निर्दोष था, अबोध था। अभी-अभी तो यह पैदा हुआ था, अभी तो जीवन के द्वार में प्रवेश ही हुआ था। इसका तो कोई सवाल ही न था, अभी रजिस्टर में इसका नाम न आया था। अभी क्यू में इसका नंबर न आया था। यह असमय पहुंच गया। मौत घर पर न थी।
कहानी का मतलब यह है कि अगर मरने के लिए बैठे रहे, तो मौत तुम्हें पा लेगी। अगर अपनी तरफ से मरे, तो तुम मौत को न पा सकोगे। अगर तुम अपनी तरफ से मरे, फिर मौत से कोई मिलना नहीं है।
मगर नचिकेता भी एक ही जिद्दी था, वह बैठा रहा तीन दिन। उसने कहा, कभी तो आएगी। जब आएगी तब मिल लेंगे, लेकिन बिना मिले नहीं जा सकते। पिता ने दे दिया, सो दे दिया। मौत से मिलकर ही आया। और जो भी मौत से मिलकर आ गया है, वह अमृत हो गया है। इसलिए कठोपनिषद बड़ा बहुमूल्य उपनिषद है। मौत की कला का उपनिषद है।
जानता हूं, तकलीफ होती है, यह सोचकर भी तकलीफ होती है कि मरना सीखें। मगर सीख लोगे, तो पछताओगे न। न सीखे, तो बहुत पछताओगे। फिर वैसे ही रोओगे जैसे सिकंदर रोया कि जिंदगी फिजूल गंवा दी। इतने बड़े सम्राज्य से एक श्वास भी वापस नहीं मिलती, इसका क्या अर्थ था?
जिंदगी उन्वान-ए-अफसाना भी है
तुझको ऐ दिल खुद तड़फ के उनको तड़फाना भी है
तुम जीने की आकांक्षा करते हो। इसीलिए तुम परमात्मा से दूर हुए जाते हो। तुम जितनी जोर से जीने की आकांक्षा करते हो, उतना ही तुम अपने को अलग तोड़े चले जाते हो। तुम मरना सीखो। इधर तुमने मरना सीखा कि उधर परमात्मा के हृदय में भी तुम्हारे लिए तरंगें उठीं।
जिंदगी उन्वान-ए-अफसाना भी है
तुझको ऐ दिल खुद तड़फ के उनको तड़फाना भी है
अक्ल वाले तो उठा सकते नहीं बार-ए-जुनूं
क्या कोई ऐ अहले-महफिल तुझमें दीवाना भी है
जो बहुत बुद्धिमान हैं, वे तो यह पागलपन न कर पाएंगे। वे तो कहेंगे, कहां की बात कर रहे हो! मरने की? मरने से बचना है कि मरना सीखना है!
अक्ल वाले तो उठा सकते नहीं बार-ए-जुनूं
यह जो दीवानगी है, इसका जो बोझ है, ये बुद्धि वाले तो नहीं उठा सकते।
क्या कोई ऐ अहले-महफिल तुझमें दीवाना भी है
लेकिन अगर तुममें कोई दीवाने हों और मरना सीख लें, तो अंततः वे ही अक्ल वाले सिद्ध होते हैं।
तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। तुम्हें अभी जीना नहीं आया, और मैं तुम्हें मौत का पाठ सिखाऊं? लेकिन जीना मौत का ही पहला पाठ है। अगर तुम मौत को ही सीखना चाहते हो, तो ही तुम जीने को सीख सकोगे। क्योंकि जो दूसरा पाठ नहीं सीखना चाहता, वह पहले पाठ से भी बचेगा।
एक छोटा बच्चा अपने छोटे भाई को समझा रहा था कि देख, तेरे स्कूल जाने का वक्त आया, एक बात से बचना। उसी में हम फंसे। तू मत फंसना। जब स्कूल में सिखाने लगें--सी ए टी: कैट, बस वहीं रुक जाना, उसको मत सीखना--सी ए टी: कैट, बिल्ली, उसको मत सीखना। छोटे भाई ने पूछा, क्यों? उसने कहा, अगर वह सीखा तो बस, उसके बाद फिर शब्द बड़े और लंबे होते जाते हैं। फिर सीखते ही रहो, सीखते ही रहो, अब मेरी ही हालत देखो न! वहीं रुक जाना, तू पहला पाठ मत सीखना। अगर दूसरे से बचना हो। पहली क्लास में ही रुक जाना, अगर दूसरे में न जाना हो। बिल्ली पर रुक जाना--सी ए टी: कैट, बिल्ली। वहां से आगे मत बढ़ना। वही मत सीखना, बस यही कला है। हम चूक गए। हमें किसी ने बताया नहीं, वह हम सी ए टी: कैट सीख गए एक बार, बस फिर शब्द लंबे होने लगे। अब तो बढ़ते ही चले जाते हैं। अब तो कोई पारावार नहीं मालूम होता।
यही हो रहा है। तुम अगर मौत से बचना चाहते हो, तुम जिंदगी को सीखने से बच जाते हो। जिंदगी मौत का पहला पाठ है। जीओ! दिल भरकर जीओ। जितनी त्वरा, तीव्रता से जी सको, जीओ। यह पहला पाठ है। और दूसरा पाठ और भी प्यारा है। जीने में इतना रस है, सोचो तो जरा, मरने में कितना न होगा! होने में इतना रस है, न होने में कितना न होगा! क्योंकि होने की तो सीमा है, न होने की कोई सीमा नहीं। होना तो छोटा है, न होना विराट है।
इसलिए तो बुद्ध उस परम कला को निर्वाण कहते हैं। निर्वाण यानी मरने की कला। निर्वाण यानी दीए का बुझ जाना। न हो जाना। इसलिए बुद्ध ने मोक्ष शब्द का भी उपयोग नहीं किया, क्योंकि मोक्ष से ऐसा लगता है, तुम जीए ही जाओगे। शरीर छूट जाएगा, मगर तुम रहोगे।
बुद्ध ने कहा, कुछ भी न रहेगा। तभी विराट होगा। जैसे बूंद सागर में गिरती है और शून्य हो जाती है। पर इधर शून्य हुई, उधर सागर हुई।


तीसरा प्रश्न:

जब-जब हमने सूफियों को सलाम किया
तबत्तब हम पर कविता का इलहाम हुआ
इस दौर में जब हम कुछ लिखने बैठे
यूं लगा कि मजहब अब इस्लाम हुआ
ऐसा क्यों है?

सूफियों के पास जाओगे, तो सूफियाना होने लगोगे। उनकी हवा तुम्हें पकड़ लेगी। तुम उनके गीत गुनगुनाने लगोगे। उनके हृदय की धुन तुम्हें पकड़ लेगी। सूफियों के पास रहोगे, तो तुम सूफी होने लगोगे। जिनके पास रहोगे वैसे होने लगोगे। इसीलिए तो सत्संग का इतना मूल्य है।
सत्संग का अर्थ है, जो तुम होना चाहो उस तरह के लोगों के पास रहना। बीमारियां ही नहीं संक्रामक होती हैं, स्वास्थ्य भी संक्रामक है। अगर स्वस्थ रहना चाहो, स्वस्थ लोगों का सत्संग खोजना। अगर सुंदर होना चाहो, सुंदर लोगों का सत्संग खोजना। अगर सत्य होना चाहो, सच्चे लोगों का सत्संग खोजना। अगर फूलों जैसा आनंद चाहिए हो तो फूलों के पास बैठना। बगीचों से निकलना। बगीचों से निकलने वाले आदमी के वस्त्रों को भी फूलों की गंध पकड़ लेती है।
सूफियों के पास अगर तुम अनजाने भी निकल जाओ, तो भी बचकर न जा सकोगे। आकस्मिक रूप से गुजर जाओ, तो भी बचकर न जा सकोगे। कुछ न कुछ उनका रंग पकड़ ही जाएगा। अब जहां रंग-गुलाल खेला जा रहा हो, वहां से तुम ऐसे भी निकल गए, तो भी कुछ न कुछ रंग-गुलाल तुम्हारे ऊपर पड़ जाएगा। कुछ तुम रंग जाओगे। और सूफी का तो अर्थ ही यही है, वह खुद तो अब बचा नहीं और उसके चारों तरफ की हवा तुम्हें भी मिटने के लिए बुलाती है। और जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह सब मिटने से पैदा होता है।
कविता तब पैदा होती है, जब तुम नहीं होते। जो कविता तुम्हारे रहने से पैदा होती है, वह तो सब तुकबंदी है। उसका कोई मूल्य नहीं है। असली काव्य तो सूफियों के पास ही पैदा हुआ है। बाकी कविताएं तो ठीक हैं।
इसलिए हमने पुराने भारत में अलग-अलग शब्द चुने थे। हमने कवियों की दो कोटियां चुन रखी थीं। एक को हम ऋषि कहते थे और एक को कवि कहते थे। ऋषि वह था, जो न होकर गाया। कवि वह था, तो होकर गाता रहा। कवि की सीमा है, ऋषि की कोई सीमा नहीं। सूफी यानी ऋषि। जो मिट गया। अब जो बचा नहीं। मस्ती ही बची है। आनंद बचा है। हर्षोन्माद बचा है। नृत्य बचा है। तुम जाओगे सूफी के पास तो उसका नाच तुम्हें घेर लेगा। उसका नाच तुम्हें भी नचाने लगेगा।
इसलिए यह हो सकता है--अक्सर हुआ है--तुम्हारे पास कुछ भी न था और कभी तुम किसी आदमी के पास गए जहां कुछ आविर्भूत हुआ था, कोई अवतरण हुआ था, अचानक तुम्हारे भीतर कोई सोयी क्षमता जाग गयी। थी पड़ी, सोयी पड़ी थी, उसकी मौजूदगी में जाग गयी।
कहते हैं, कोई अच्छा संगीतज्ञ वीणा बजाए और एक खाली वीणा भी कमरे में रख दी जाए, तो खाली वीणा भी धीरे-धीरे अपने तारों को हिलाने लगती है। उससे भी स्वर-गूंज उठने लगती है। बिना छुए। सारा कमरा जब भर जाता है झंकार से, तो वीणा कैसे चुप रह सकती है? जरूर होता होगा। ऐसा होना ही चाहिए। झंकार वीणा को भी झंकृत कर देगी, जिसको कोई नहीं छू रहा है।
सूफियों के पास होना, उनके पास होना जिन्होंने जाना है, जीया है; जो मस्त हुए, डूबे, मिटे, किसी और ही दुनिया में प्रवेश है। तुम भी उनके पास थोड़े पिघलोगे। तुम्हारी जड़ता थोड़ी कम होगी। तुम भी निर्भार होओगे। तुम भी उनके साथ में शायद उड़ने की हिम्मत जुटा लो। इतना ही अर्थ है। तो तुम्हारे भीतर जो क्षमता दबी पड़ी होगी, वह प्रगट होने लगेगी। अगर तुम मूर्तिकार होने को पैदा हुए थे, तो सत्संग तुम्हें मूर्तिकार बना देगा।
सत्संग सृजनात्मक है, यह मैं तुमसे कहना चाहता हूं। इसे तुम्हारे हृदय में बिठाना चाहता हूं। जो सत्संग सृजनात्मक नहीं है, वह मुर्दा है। अगर किसी संत के पास जाकर तुम भी मुर्दा हो जाओ, तो उसको मैं सत्संग नहीं कहता। वह तो मरे, तुम भी मरे। आप डुबंते ले डूबे जजमान। वह तो डूबे ही, तुम को भी डुबा लिया।
नहीं, जिस सत्संग में जाकर तुम सृजनात्मक हो जाओ, तुम्हारे भीतर जो स्वर सोए पड़े थे मुखर हो उठें। अगर तुम कवि हो सकते थे तो गीत प्रकट होने लगे, अगर नृत्य छिपा पड़ा था तुममें तो नाच उठ आए, अगर तुम मूर्तिकार हो सकते थे, मूर्तिकार हो जाओ, अगर तुम्हारे भीतर कोई वीणा सोयी थी तो बजने लगे।
वास्तविक सत्संग तुम्हारी ऊर्जा को सृजनात्मक गति देगा, दिशा देगा, आयाम देगा। तुम वहां से मिटकर लौटोगे, मगर कुछ बड़े होकर लौटोगे। तुम वहां मिटोगे भी और तुम्हारा नया जन्म भी होगा।
सूफियों ने बड़े प्यारे गीत गाए हैं। और जिनके भीतर भी गीत की संभावना थी उनके गीत भी जगाए हैं। सूफी नाचे, और जिनमें भी थोड़ा-बहुत नाच कहीं पड़ा था दबा, उसको भी उभार लिया है। सूफी बड़ी सृजनात्मक प्रक्रिया है।
इस देश में बहुत से असृजनात्मक ढंग प्रचलित हैं। जैन-मुनि बिलकुल असृजनात्मक हैं। उनका गुण-गौरव उनके असृजनात्मक होने में है। अगर तुम पूछो कि यह जैन-मुनि इतना प्रख्यात क्यों है, तो लोग बताएंगे, क्योंकि इसके...साल में यह छह महीने उपवास करता है। बड़ी नकारात्मक प्रशंसा हुई। छह महीने भोजन नहीं करता। कुछ न करने की प्रशंसा हुई। छह महीने नाचता है ऐसा नहीं, छह महीने भोजन नहीं करता। किसी की प्रशंसा है कि वे धूप में खड़े रहते हैं। बड़ी जड़तापूर्ण प्रशंसा हुई। यह धूप में खड़ा रहना कोई गुणवत्ता नहीं है। इससे कुछ उपलब्धि नहीं है। इससे कोई सिकुड़ सकता है, फैल नहीं सकता। इससे कोई मर सकता है, जीवन की उमंग नहीं आ सकती। कोई नहीं कहता कि ये गीत लिखते हैं, कोई नहीं कहता, ये मूर्ति बनाते हैं, कोई नहीं कहता, ये नाचते हैं। जीवन को विधायक दिशा चाहिए।
नकारात्मकता के कारण धर्म भी बुरी तरह नष्ट हुआ। तो तुम अक्सर पाओगे, जो कुछ नहीं कर सकते वे साधु हो जाते हैं। क्योंकि साधु होने में कुछ न करने की ही महिमा है। कुछ नहीं कर सकते--दुकान भी न चली, बाजार में भी न बैठ सके, दफ्तर में काम भी न कर सके, काहिल और सुस्त थे, नौकरी-चाकरी भी न बनी, बुहारी भी न चला सके, जैन-मुनि हो गए। अब न करने में ही प्रतिष्ठा है। अब कोई नहीं पूछता, तुम्हारी प्रतिभा क्या है? तुम्हारे जीवन की ऊर्जा का कौन सा आविष्कार हो रहा है। कोई नहीं पूछता।
अब तो बस यही बात काफी है कि उन्होंने संसार छोड़ दिया। कि वे खाली होकर बैठ गए मंदिर में। कि उपवास करते हैं। कि पांच घंटे सोते हैं। यह भी कोई बात हुई! पांच घंटे सोओ कि छह घंटे सोओ, कि सात घंटे, कि चार घंटे, इससे क्या हासिल? भोजन एक बार करो, कि दो बार, कि पांच बार, इससे क्या हासिल? इससे क्या मिलता है जगत को? तुम जगत को जैसा तुमने पाया था, उससे सुंदर न छोड़ पाओगे। और यह भी क्या संन्यास, यह भी क्या साधुता, जो जगत को वैसा का वैसा छोड़ जाए--बल्कि थोड़ा और कुरूप कर जाए!
इसे थोड़ा सजाकर जाना। तुम्हारे पीछे थोड़े गीत गुनगुनाते रहें लोग, ऐसे जाना। तुम्हारे पीछे थोड़ी मुस्कुराहटों के फूल खिलते रहें, ऐसे जाना। धर्म सृजनात्मक हो, क्रिएटिव हो। तुम्हारी प्रशंसा तुम्हारे कुछ करने की प्रशंसा हो। तुम्हारी प्रशंसा तुम्हारे कुछ होने की प्रशंसा हो। तुम्हारा जीवन एक दान बने। तुम बांटो। जीवन में बहुत अंधेरा है, तुम थोड़े दीए जलाओ। लोग बहुत उदास हैं, तुम थोड़े गीत उठाओ। लोग थके-मांदे हैं, लोग सुस्त हो गए हैं, गिरे पड़ते हैं, तुम फिर से उनके पैरों को गति दो और नृत्य दो। लोगों की आंखों पर धूल जम गयी है, झाड़ो। उनकी आंखों को फिर वैसी आंखें दो कि फिर फूलों को देख सकें, फिर चांदत्तारों को देख सकें। फिर जीवन रक्स में आए।
समझा तो ये समझा मैंने जाना तो ये जाना है
हर वीराना एक बस्ती है हर बस्ती एक वीराना है
देखने के ढंग पर निर्भर है।
हर वीराना एक बस्ती है हर बस्ती एक वीराना है
देखने के ढंग पर निर्भर है। अगर तुम नकारात्मक ढंग से देखो, तो हर बस्ती एक वीराना है। अगर तुम विधायक ढंग से देखो, तो हर वीराना एक बस्ती है।
जीवन को स्वीकार कर अहोभाव से देखना जरूरी है। तो तुम खिलोगे, अन्यथा मुर्झा जाओगे। और तुम खिलोगे तो ही तुम्हारी तृप्ति है। मुर्झा गए तो तृप्ति न हो सकेगी।
इधर मैं देखता हूं, साधु मेरे पास आ जाते हैं। पुराने ढंग-ढर्रे के साधु हैं। वे कहते हैं, साधु तो हो गए, लेकिन कुछ पाया नहीं। साधु होने से पाने का क्या संबंध है? मैं कहता हूं, कुछ पा लो, उससे साधुता निकलनी चाहिए। तुम कुछ पा लो, उससे साधुता निकलनी चाहिए। तुम कहते हो, साधु हो गए कुछ पाया नहीं। किसने कहा था कि साधु होने से तुम्हें कुछ मिल जाएगा? मिलने का साधु होने से क्या संबंध था? कुछ मिला होता, उससे साधुता निकलती। तुम कुछ खोजते, कुछ साधते, कुछ निखारते, अपने पत्थर को थोड़ा छांटते, मूर्ति बनाते, उससे साधुता निकली होती। तुमने सस्ती साधुता चाही। तुमने बड़ी सस्ती साधुता चाही।
पूछा है--
'जब-जब हमने सूफियों को सलाम किया
तबत्तब हम पर कविता का इलहाम हुआ
इस दौर में जब हम कुछ लिखने बैठे
यूं लगा कि मजहब अब इस्लाम हुआ'
संभव है। क्योंकि सूफी की भाषा इस्लाम की भाषा है। सूफी का ढंग इस्लाम का ढंग है। सूफी इस्लाम का सार है। तो अगर तुम सूफियों के पास रहे, तो तुम्हारी कविता में भी तुम्हें इस्लाम की सुवास आएगी, स्वाभाविक है। बच नहीं सकते।
तुम अगर ज्यादा देर मेरे पास रह गए, तो मेरी भाषा तुममें रम जाएगी। मेरे बोलने का ढंग तुममें रम जाएगा। मेरी भाव-भंगिमाएं, मेरी मुद्राएं तुममें रम जाएंगी। अनजाने तुम उस तरह से बोलने लगोगे। अनजाने उन शब्दों का उपयोग करने लगोगे। तुम्हें पता भी न चलेगा, कब तुम्हारा हाथ मेरे हाथ की तरह भाव-मुद्रा बनाने लगा। यह चुपचाप हो जाता है।
सूफियों का अपना ढंग है। बड़ा अनूठा ढंग है। अगर परमात्मा की बात करते हैं, तो शराब की बात करते हैं। दुनिया में कोई नहीं करता। अगर तुम सूफियों के पास रहे, तो फिर बिना शराब की बात किए काम ही न चलेगा। क्योंकि मस्ती की बात करनी है। अब इस जगत में शराब से ज्यादा और बेहतर कोई प्रतीक नहीं मिलता। आनंद की बात करनी है, दीवानगी की बात करनी है, तो शराबी से ज्यादा दीवाना यहां कोई दिखायी नहीं पड़ता। हालांकि वह शराब बड़ी और है। वह शराब कुछ ऐसी है कि उसे पीने वाला होश में आ जाता है। मगर है शराब। पीने वाला कुछ और ही दुनिया में जीने लगता है। यहां का नहीं रह जाता। पैर उसके जमीन पर नहीं पड़ते।
हर चंद हो मुशाहिद-ए-हक की गुफ्तगू
बनती नहीं है बादा-ओ-सागर कहे बगैर
किसी सूफी ने कहा है कि जब भी सत्य की बात करता हूं तो बिना शराब के कहते बनती ही नहीं, करो भी क्या!
हर चंद हो मुशाहिद-ए-हक की गुफ्तगू
जब भी परिपूर्ण सत्य की बात करो, चर्चा चलाओ!
बनती नहीं है बादा-ओ-सागर कहे बगैर
फिर प्याली, मधुपात्र, और मधुशाला, और मधुबाला सभी को ले आना पड़ता है।
बनती नहीं है बादा-ओ-सागर कहे बगैर
वह सूफियों का ढंग है। इसलिए सूफियों के साथ अगर रहोगे, तो उनका ढंग भी पकड़ेगा।
सूफियों को समझना मुश्किल हुआ। उमर खय्याम का अनुवाद किया फिट्जराल्ड ने, गलत समझा वह। उसने समझा, शराब यानी शराब। उसने समझा, साकी यानी साकी। उसने शब्दों के शाब्दिक अर्थ ले लिए। उमर खय्याम एक सूफी फकीर था। उमर खय्याम एक सिद्धपुरुष था। जब वह साकी की बात कर रहा है, तो वह परमात्मा की बात कर रहा है। जब वह शराब की बात कर रहा है, तो वह ध्यान की बात कर रहा है। जब वह मधुशाला की बात कर रहा है, तो वह मंदिर की बात कर रहा है।
लेकिन फिट्जराल्ड को तो कुछ पता न था। ईसाइयों के पास वैसी कोई भाषा नहीं थी। तो उसने तो शराब को शराब समझा, मधुशाला को मधुशाला समझा। तो आज दुनिया में कई शराब की दुकानें हैं, जिनका नाम उमर खय्याम है। शराब की दुकान, और उमर खय्याम का नाम! और धीरे-धीरे ऐसा लगा कि यह उमर खय्याम बस पियक्कड़ होगा। था पियक्कड़, मगर परमात्मा का पियक्कड़ था। इसका कुछ लेना-देना नहीं उस शराब से, जिसको तुमने जाना है। इसने कुछ और ही शराब पी थी, जो एक दफे पी ली, तो बस पी ली। फिर नशा उतरता ही नहीं। चढ़ी तो चढ़ी। फिर उतरती नहीं। गिरे तो गिरे, फिर उठते नहीं।
दुनिया में शैलियां हैं। सूफियों की अपनी है, झेन फकीरों की अपनी है। अगर झेन फकीरों की भाषा तुम्हें नहीं आती तो तुम बड़ी अड़चन में पड़ोगे। तुम जाओ किसी झेन फकीर के पास, तुम पूछो, आत्मा को कैसे पाया जाए? हो सकता है, वह उठाकर डंडा मार दे। यह उसकी भाषा है। जो समझता है उसकी भाषा, वह सिर झुकाकर चरण छुएगा, कि बड़ी कृपा की, आपने जवाब दिया। तुम तो नाराज हो जाओगे। तुम तो पुलिस-दफ्तर की तरफ भागोगे कि यह आदमी कैसा है? हम पूछने गए कि सत्य कैसे पाया जाए! आत्मा कैसे पायी जाए! और इसने लट्ठ मार दिया।
तुम समझे नहीं। यह आदमी यह कह रहा है कि आत्मा पायी नहीं जाती, तुम पाए हुए हो। यह लकड़ी मारकर तुम्हें होश ला रहा है कि जागो। दिया एक झड़ापा जोर से कि जागो। यह तुम्हें होश में ला रहा है कि क्या सोयी-सोयी बातें कर रहे हो? नींद में हो? आत्मा को पाना है? आत्मा पायी ही हुई है! तो तुम न समझोगे। कठिनाई हो जाएगी। मुश्किल हो जाएगी।
जापान को डेढ़ हजार साल धीरे-धीरे, धीरे-धीरे यह भाषा रमी, समझ में आयी। धर्म की भी वैसी ही भाषाएं हैं जैसी और भाषाएं हैं। अगर तुम समझते हो अरबी, तो समझते हो। नहीं समझते, तो नहीं समझते। ऐसे ही धर्म की भाषाएं हैं।
सूफी इस्लाम की गहरी भाषा है। खुद मुसलमान नहीं समझे। मंसूर को लटका दिया सूली पर। क्योंकि उसने कह दिया, अनलहक; अहं ब्रह्मास्मि; मैं ब्रह्म हूं। मुसलमानों ने लटका दिया। वह इस्लाम की गहरी से गहरी बात कह रहा था। वह कह रहा था, अब फासला बचा ही नहीं मुझमें और तुझमें। अब चाहे यह कहूं कि तू मैं है, या यह कहूं कि मैं तू है, एक ही बात है। अब दूरी न रही, अब हम एक हुए। अब बूंद सागर में गिर गयी। यह कहो कि बूंद सागर में गिर गयी, या यह कहो कि सागर बूंद में गिर गया, क्या फर्क पड़ता है! अलग-अलग न रहे। इस्लाम की गहरी से गहरी बात मंसूर ने की, मुसलमानों ने सूली लगा दी। मुसलमान भी न समझे इस्लाम की गहरी बात।
यही बुद्ध के साथ हुआ। बुद्ध ने उपनिषदों की गहरी से गहरी बात कही। हिंदू न समझे। बुद्ध को उखाड़ फेंका। भारत में टिकने न दिया। उपनिषद और वेदों का जो सार था, वह बुद्ध ने कहा। बुद्ध से ज्यादा सारभूत उपनिषद किसी और से प्रगट नहीं हुए। लेकिन हिंदू न समझे।
होता ऐसा है कि एक भाषा में भी कई तल होते हैं। हिंदी है, तो गंवार भी हिंदी बोलता है--गंवार, गांव की। उसकी भी एक भाषा है। फिर शहर का आदमी भी हिंदी बोलता है, उसकी भी एक भाषा है। फिर पढ़ा-लिखा शहर का आदमी भी एक भाषा बोलता है, उसकी भी एक भाषा है। सभी हिंदी बोलते हैं। फिर यूनिवर्सिटी है, विश्वविद्यालय हैं, वहां के अध्यापक भी बोलते हैं, वे भी हिंदी बोलते हैं, पर उनकी और ही एक भाषा है। भाषा में भी आभिजात्य होता है, संपन्नता होती है।
वैसे ही धर्म की भी भाषा है। मोहम्मद ने जो भाषा बोली है, वह उस आदमी की है, जो आखिरी आदमी समझ ले। मंसूर ने जो भाषा बोली, वह इस्लाम की भाषा है, लेकिन उसकी है, जो शिखर पर चढ़ा हुआ सिद्धपुरुष ही समझे। हां, मंसूर ने जो बोला, मोहम्मद समझ सकते थे। लेकिन मुसलमान न समझे। क्योंकि मोहम्मद ने जो बोला था, वह साधारण आदमी समझ ले, तो साधारण आदमी के पास तो मोहम्मद की भाषा थी। उसने पकड़ ली थी, अब वह उसको छोड़ने को राजी न था। जब मंसूर बोला, तो यह बात इतनी आभिजात्यपूर्ण मालूम पड़ी, इतनी अरिस्ट्रॉक्रेटिक मालूम पड़ी, इतनी दूर की मालूम पड़ी, कि नहीं, उसको जंची नहीं। यह तो इस्लाम को खराब किए दे रहा है!
सूफी बड़ी गहरी भाषा है। जब तुम उनके पास रहोगे तो कुछ आश्चर्य नहीं कि तुम्हारी वाणी में भी इस्लाम की झलक आने लगे। हर्जा भी कुछ नहीं है, आने दो। इस्लाम बड़ा प्यारा है। जिसको धर्म से प्रेम है, उसे इस्लाम में भी, हिंदू में भी, बौद्ध में भी, जैन में भी, ईसाई में भी, यहूदी में भी, जरथुस्त्र में भी--सबमें--उसी एक के दर्शन होंगे। रूप अनेक हैं, लेकिन जिसके हैं वह एक है। भाषा अनेक हैं, पर जो प्रगट हो रहा है वह मनुष्य का हृदय एक है। गीत बहुत हैं, लेकिन जिसकी गुनगुन है वह एक है।
कोई हर्जा नहीं, हो जाने दो इस्लाम को हावी। बोलो सूफी की भाषा, गाओ सूफी का गीत। अगर वही तुम्हें प्यारा लगता है, वही करो।
मेरे देखे जन्म से धर्म का निर्णय नहीं होता, नहीं होना चाहिए। तुम्हारा जहां मेल खा जाए। कुरान जम जाए तो कुरान ही तुम्हारा वेद है। वेद जम जाए तो वेद ही तुम्हारा कुरान है। जन्म से तुम हिंदू-घर में पैदा हुए, इससे परेशान मत होना। जन्म से क्या लेना-देना है धर्म का! धर्म तो तुम्हें खोजना होगा। जहां तुम्हारी संगति बैठ जाए, जहां तुम्हारा स्वर तालमेल खा जाए, जहां साज तुम्हें जगा दे और तुम नाचने लगो, गाने लगो। बस, जो भाषा तुम्हारी समझ में आ जाए, उसी भाषा में परमात्मा से बोलना। दूसरी भाषा को छोड़ देना, फिकर मत करना। सब भाषाएं उसकी हैं। क्योंकि उसकी कोई भी भाषा नहीं है। मौन उसकी भाषा है।
सब मार्ग धीरे-धीरे वहां ले आते हैं जहां मार्ग तो छूट जाते हैं, अकेले तुम रह जाते हो। तुम--वैसे तुम नहीं, जैसे तुम कल तक थे--तुम भी पीछे छूट जाता है, बस तुम्हारी शुद्धता रह जाती है। उस शुद्धता को कहो मोक्ष, कहो निर्वाण, कहो आत्मा, कहो परमात्मा, जो तुम्हारी मौज हो।

आज इतना ही।





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