ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
स्वभाव में थिरता-(प्रवचन-पहला)
पहला प्रवचन; दिनांक ११ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान, आज प्रारंभ होने वाली प्रवचनमाला
को जो शीर्षक मिला है, वह बहुत अनूठा और बेबूझ है--ज्यूं था
त्यूं ठहराया! भगवान, हमें इस सूत्र का अर्थ समझाने की
अनुकंपा करें।
आनंद
मैत्रेय!
यह
सूत्र निश्चय ही अनूठा है और बेबूझ है। इस सूत्र में धर्म का सारा सार आ गया
है--सारे शास्त्रों का निचोड़। इस सूत्र के बाहर कुछ बचता नहीं। इस सूत्र को समझा, तो सब
समझा। इस सूत्र को जीया, तो सब जीया।
सूत्र
का अर्थ होता है: जिसे पकड़ कर हम परमात्मा तक पहुंच जाएं। ऐसा ही यह सूत्र है।
सूत्र के अर्थ में ही सूत्र है। सेतु बन सकता है--परमात्मा से जोड़ने वाला। यूं तो
पतला है बहुत,
धागे की तरह, लेकिन प्रेम का धागा कितना ही
पतला हो, पर्याप्त है।
ज्यूं
था त्यूं ठहराया! मनुष्य स्वभाव से परमात्मा है, लेकिन स्वभाव से भटक गया।
वह भटकाव भी अपरिहार्य था। बिना भटक के पता ही नहीं चलता कि स्वभाव क्या है। जैसे
मछली को जब तक कोई पानी से बाहर न निकाल ले, तब तक उसे याद
भी नहीं आती कि क्या है पानी का राज, कि पानी जीवन है। यह तो
जब मछली तट की रेत पर तड़फती है, तभी अनुभव में आता है। सागर
में ही रही, सागर में ही बड़ी हुई, तो
सागर का बोध असंभव है। भटके बिना बोध नहीं होता। भटके बिना बुद्धत्व नहीं होता।
इसलिए
अपरिहार्य है भटकाव,
लेकिन फिर भटकते ही नहीं रहना है! अनुभव में आ गया कि सागर है जीवन,
तो फिर सागर की तलाश करनी है। धूप में तप्त रेत पर तड़फते ही नहीं
रहना है।
और
हम सब तड़फ रहे हैं। हमारा जीवन सिवाय तड़फन के और क्या है--एक विषाद, एक संताप,
एक चिंताओं का झमेला, एक दुख स्वप्नों का
मेला! एक दुखस्वप्न छूट नहीं पाता कि दूसरा शुरू हो जाता है। कतार लगी है--अंतहीन
कतार! कांटे ही कांटे--जैसे फूल यहां खिलते ही नहीं! दुख ही दुख! सुख की बस आशा।
और आशा धीरे-धीरे निराशा बन जाती है। जब बहुत बार आशा हार जाती है; हर बार टूट जाती है, बिखर जाती है, तो स्वभावतः उम्र के ढलते-ढलते, सांझ आते-आते मनुष्य
हताश हो जाता है, निराश हो जाता है। सूर्यास्त के साथ
होते-होते उसके भीतर भी कुछ जीवन टूट जाता है, बिखर जाता है।
मरने
के पहले ही लोग मर जाते हैं। जीने के पहले ही लोग मर जाते हैं! जीते जी जान नहीं
पाते जीवन क्या है। और कारण--इतना ही कि मछली तड़फती रहती है रेत पर; पास ही
सागर है; एक छलांग की बात है। एक कदम से ज्यादा दूरी नहीं
है। लेकिन अपनी तड़फन में ही ऐसी उलझ जाती है, याद भी आती है
सागर की। वे सुख के दिन विस्मृत भी नहीं होते। इसीलिए तो आकांक्षा है आनंद की।
आनंद
की आकांक्षा इस बात का सबूत है कि कभी हमने आनंद जाना है। जिसे जाना न हो, उसकी
आकांक्षा कैसी! जिसे कभी चखा न हो, स्वाद न लिया हो, उसकी अभीप्सा असंभव है। जाना है कभी; स्वाद अब भी
हमारी जबान पर है। अभी भी भूली नहीं। कितनी ही बिसर गई हो बात, बिलकुल नहीं भूल गई, बिलकुल नहीं मिट गई!
कितने
ही दूर की हो गई हो आवाज,
अब भी आती है। अब भी पुकार उठती है, मगर साहस
नहीं होता फिर--इस विराट सागर में डूबने का। जब तट पर इतनी कठिनाई है, तो सागर में पता नहीं और क्या मुश्किल हो जाए!
मछली
सागर में फिर पहुंच जाए,
तो ज्यूं था त्यूं ठहराया! हट गई थी स्वभाव से, फिर वापस लौट आई। फिर आनंद है। फिर उत्सव है। फिर हर रोज होली है, हर रोज दीवाली है।
और
अब पहली बार पहचान होगी। सागर में पहले भी थी; सागर में अब भी है। मछली भी वही,
सागर भी वही, फिर भी बात बदल गई। पहले अज्ञान
था, अब बुद्धत्व है।
यह
शीर्षक एक अपूर्व फकीर रज्जब जी के वचन का एक अंश है। पूरा वचन खयाल में लोगे, तो यह अंश
जल्दी समझ में आ सकेगा
ज्यूं
मुख एक देखि दुई दर्पन,
गहला तेता गाया।
जन
रज्जब ऐसी बिधि जानें,
ज्यूं था त्यूं ठहराया।।
ज्यूं
मुख एक देखि दुई दर्पन...! चेहरा तो एक है, लेकिन दर्पण में झांकोगे, तो दो हो जाता है। और दर्पण में झांके बिना चेहरे का पता नहीं चलता। सो
मजबूरी है। झांक कर ही पता चलेगा। दर्पण में झांकना तो होगा। मगर झांकते ही जो एक
था, वह दो हो जाता है! इसलिए खतरा भी है। अनिवार्यता और खतरा
साथ साथ।
अनिवार्यता--कि
बिना दर्पण में झांके पता ही न चलेगा कि मेरा चेहरा कैसा है। नाक-नक्शा क्या है!
मैं कौन हूं?
कहां से हूं? क्या है मेरा स्वरूप? दर्पण में तो झांकना ही होगा। लेकिन झांकते ही एक दुविधा खड़ी हो जाती है,
दुई खड़ी हो जाती है।
मैंने
सुना है: अमृतसर से एक रेलगाड़ी दिल्ली की तरफ रवाना हुई। सरदार विचित्तर सिंह को
जोर से लघुशंका लगी थी। जाकर सरदारी-झटके से संडास का दरवाजा खोल दिया। झांक कर
देखा; दर्पण में अपना चेहरा दिखाई पड़ा! जल्दी से कहा, माफ
करिए सरदार जी! दरवाजा बंद कर दिया! मगर लघुशंका जोर से लगी थी। पांच मिनट सम्हाला,
दस मिनट सम्हाला। मगर यह भीतर जो सरदार घुसा है, निकला ही नहीं, निकला ही नहीं! फिर जा कर दरवाजा
खटखटाया, मगर जवाब भी न दे! फिर खोला। सरदार मौजूद था! कहा,
माफ करना सरदार जी! फिर बंद कर दिया।
लेकिन
अब सम्हालना मुश्किल हो गया। संयम की भी सीमा है! तभी कंडक्टर आ गया। तो विचित्तर
सिंह ने कहा कि हद्द हो गई! एक आदमी अंदर घुसा है, सो घंटे भर से निकलता ही
नहीं है! कंडक्टर ने कहा, देखो, मैं
जाता हूं।
कंडक्टर
ने झांका। कंडक्टर भी सरदार! जल्दी से दरवाजा बंद कर के विचित्तर सिंह को कहा कि
भई, तुम दूसरे डब्बे के संडास में चले जाओ। भीतर तो कंडक्टर है! देखा कि ड्रेस
वगैरह कंडक्टर की है!
वह
जो दर्पण है,
वह सिर्फ सरदारों को ही धोखा दे रहा है--ऐसा मत सोचना। दर्पण सब को
धोखा दे रहा है। और जीवन में बहुत तरह के दर्पण हैं। हर आंख एक दर्पण है।
मां
की आंख में बच्चा अपने को झांकता है, तो उसे पहले प्रतीति होती है कि
मैं कौन हूं। वह प्रतीति जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती। वह दुई छाया की तरह पीछे लगी
रहती है। क्योंकि मां ने जैसा अगाध, बेशर्त प्रेम दिया,
वैसा कौन देगा! कुछ मांगा नहीं। बच्चे के पास देने को कुछ था भी
नहीं। बच्चा कुछ भी नहीं देता है; मां सब देती है। इससे एक
भ्रांति पैदा होती है, कि बच्चे को यूं लगता है कि लेने का
मैं हकदार हूं!
दर्पण
से धोखा खा गया। अब वह जिंदगी भर मांगेगा कि--दो। पत्नी से मांगेगा। मित्रों से
मांगेगा। जहां जाएगा--कहीं छिपी भीतर आकांक्षा रहेगी कि प्रेम दो। प्रेम मैं
दूं--यह तो बात ही नहीं उठेगी। क्योंकि पहला दर्पण जो मिला था, वह मां का
दर्पण था। उस दर्पण से जो उसे छवि दिखाई पड़ी थी, वह यह थी कि
मैं जैसा हूं, प्रेम का पात्र हूं। प्रेम मुझे मिलना चाहिए;
यह मेरा हक है, अधिकार है। प्रेम को अर्जित
नहीं करना है; बिना अर्जित मिलता है। और जीवन भर दुखी होगा,
क्योंकि पत्नी मां नहीं होगी। मित्र मां नहीं होंगे। यह समाज मां
नहीं होगा। फिर मां कहां मिलेगी? फिर मां कहीं भी नहीं
मिलेगी। इस बड़ी दुनिया में हर जगह दुतकारा जाएगा। और कठिनाई यह है कि इस बड़ी
दुनिया में जो भी लोग मिलेंगे, उन सबने मां के दर्पण में
अपने चेहरे को देखा है। वे भी मांग रहे हैं कि दो!
तो
मांग उठ रही है कि दो। प्रेम दो। पत्नी पति से मांग रही है। पति पत्नी से मांग रहा
है। मित्र मित्र से मांग रहा है। देने वाला कोई भी नहीं! मांगने वालों की भीड़ है, जमघट है।
मांगने वाले, मांगने वालों से मांग रहे हैं! भिखारी भिखारी
के सामने हाथ फैलाए खड़े हैं! दोनों के हाथों में भिक्षा-पात्र है।
वह
जो दुई पैदा हो गई दर्पण से, अब अड़चन आएगी; अब
छीना-झपटी शुरू होगी। जब नहीं मिलेगा मांगे से, तो
छीनो--झपटो--जबर्दस्ती लो। इस जबर्दस्ती का नाम ही राजनीति है। नहीं मिलता मांगे
से, तो क्या करें! फिर येन केन प्रकारेण, जैसे भी मिल सकता हो--लो।
कैसी-कैसी
विडंबनाएं पैदा हो जाती हैं! लोग प्रेम के लिए वेश्याओं के पास जा रहे हैं! सोचते
हैं, शायद पैसा देने से मिल जाएगा! पैसा देने से प्रेम कैसे मिलेगा? प्रेम तो खरीदा नहीं जा सकता। सोचते हैं, बड़े पद पर
होंगे, तो मिलेगा। लेकिन कितने ही बड़े पद पर हो जाओ, प्रेम नहीं मिलेगा। हां, खुशामदी इकट्ठे हो जाएंगे।
लेकिन खुशामद प्रेम नहीं है।
लाख
अपने को धोखा देने की कोशिश करो, दे न पाओगे। एक तसवीर देखी थी पिता की आंखों
में, वह धोखा हो गई। एक तसवीर देखी थी भाई-बहनों की आंखों
में, वह धोखा दे गई। एक तसवीर देखी थी भाई-बहनों की आंखों
में, वह धोखा दे गई। फिर तस्वीरें ही तस्वीरें हैं--अपनी ही
तस्वीरें--लेकिन दर्पण अलग-अलग। तो अपनी ही कितनी तस्वीरें देख लीं। हर दर्पण अलग
तसवीर दिखलाता है।
एक
तसवीर देखी पत्नी की आंखों में, पति की आंखों में। एक तसवीर देखी अपने बेटे की
आंखों में, बेटी की आंखों में। एक तसवीर देखी मित्र की आंखों
में, एक तसवीर देखी शत्रु की आंखों में। एक तसवीर देखी उसकी
आंखों में--जो न मित्र था, न शत्रु था; जिसको परवाह ही न थी तुम्हारी। लेकिन तसवीर तो हर दर्पण में दिखाई पड़ी।
ऐसे बहुत-सी अपनी ही तस्वीरें इकट्ठी हो गई। हमने अलबम सजा लिया है! दुई ही नहीं
हुई--अनेकता हो गई! एक दर्पण में देखते, तो दुई होती।
रज्जब
ठीक कहते हैं,
ज्यूं मुख एक, देखि दुई दर्पन! देखा नहीं
दर्पण में कि दो हुआ नहीं। इसलिए द्वैत हो गया है। है तो अद्वैत। स्वभाव तो अद्वैत
है। एक ही है। लेकिन इतने दर्पण हैं--दर्पणों पर दर्पण हैं! जगह-जगह दर्पण हैं! और
तुमने इतनी तस्वीरें अपनी इकट्ठी कर ली हैं कि अपनी ही तस्वीरों के जंगल में खो गए
हो। अब आज तय करना मुश्किल भी हो गया कि इसमें कौन चेहरा मेरा है! जो मां की आंख
में देखा था--वह चेहरा? कि जो पत्नी की आंखों में देखा--वह
चेहरा? कि जो वेश्या की आंखों में देखा--वह चेहरा? कौन-सा चेहरा मेरा है? जो मित्र की आंखों में
देखा--वह? या जो शत्रु की आंखों में देखा--वह?
जब
धन था पास, तब जो आंखें आसपास इकट्ठी हो गई थीं, वह चेहरा सच था;
कि जब दीन हो गए, दरिद्र हो गए--अब जो चेहरा
दिखाई पड़ रहा है? क्योंकि अब दूसरी तरह के लोग हैं।
एक
बहुत बड़ा धनी बरबाद हो गया। जुए में सब हार गया। मित्रों की जमात लगी रहती थी, मित्र
छंटने लगे। उसकी पत्नी ने पूछा...। पत्नी को कुछ पता नहीं। पत्नी को उसने कुछ
बताया नहीं--कि हाथ से सब जा चुका है; अब सिर्फ लकीर रह गई
है--सांप जा चुका है। तो पत्नी ने पूछा कि क्या बात है! बैठक तुम्हारी अब
खाली-खाली दिखती है? मित्र नहीं दिखाई पड़ते। आधे ही मित्र रह
गए!
पति
ने कहा, मैं हैरान हूं कि आधे भी क्यों रह गए हैं! शायद इनको अभी पता नहीं। जिनको
पता चल गया, वे तो सरक गए। पत्नी ने कहा, क्या करते हो! किस बात का पता?
पति
ने कहा, अब तुझसे क्या छिपाना। सब हार चुका हूं। जो धन था--हाथ से निकल चुका है।
सब जुए में हार चुका। जो मेरे पास इकट्ठे थे लोग, वे धन के
कारण थे, यह तो आज पता चला! जिन-जिन को पता चलता जा रहा है
कि अब मेरे पास कुछ भी नहीं है, वे खिसकते जा रहे हैं। ठीक
है: गुड़ था, तो मक्खियां थीं! अब गुड़ ही नहीं, तो मक्खियां क्यों? फूल खिले थे, तो भंवरे आ गए थे। अब फूल ही गिर गया, मुरझा गया,
तो भंवरों का क्या!
पत्नी
ने यह सुना और बोली कि मेरे पिता ठीक ही कहते थे कि इस आदमी से शादी मत करो। यह आज
नहीं कल गङ्ढे में गिराएगा। मैं मायके चली!
पति
ने कहा, क्या कहती हो! तुम भी छाड़ चलीं! पत्नी ने कहा, अब
यहां रह कर क्या? अपने जीवन को बरबाद करना है!
यहां
लोग सब कारणों से जुड़े हैं। अकारण तो प्रीति कहां मिलेगी? और जब तक
अकारण प्रीति न मिले, तब तक प्राण भरेंगे नहीं।
यहां
तो सब कारण हैं। लोग शर्तबंदी किए हुए हैं!
एक
मित्र अपने बहुत प्रगाढ़ हितैषी से कह रहा था कि दो स्त्रियों के बीच मुझे चुनाव
करना है--किससे शादी करूं?
एक सुंदर है--अति सुंदर है, लेकिन दरिद्र है,
दीन है। और एक अति कुरूप है, पर बहुत धनी है।
और अकेली बेटी है बाप की। अगर उससे विवाह करूं, तो सारा धन
मेरा है। कोई और मालिक नहीं उस धन का। बाप बूढ़ा है। मां तो मर चुकी, बाप भी आज गया, कल गया! लेकिन स्त्री कुरूप है। बहुत
कुरूप है! तो क्या करूं, क्या न करूं?
उसके
मित्र ने कहा कि इसमें सोचने की बात है! अरे, शर्म खाओ। प्रेम और कहीं धन की बात
सोचता है। जो सुंदर है, उससे विवाह करो। प्रेम सौंदर्य की
भाषा जानता है--धन की भाषा नहीं। जो सुंदर है, उससे विवाह
करो।
मित्र
ने कहा, तुमने ठीक सलाह दी। और जब मित्र जाने लगा, तो उसके
हितैषी ने पूछा कि भई, और उस कुरूप लड़की का पता मुझे देते
जाओ!
इस
दुनिया में सारे नाते-रिश्ते बस, ऐसे हैं! फिर ये सारी तस्वीरें इकट्ठी हो जाती
हैं। फिर यह तय करना ही मुश्किल हो जाता है कि मैं कौन हूं। और अपने को तो तुमने
कभी जाना नहीं; सदा दर्पण में जाना!
तुमने
कभी किसी म्यूजियम में अनेक तरह के दर्पण देखे! किसी में तुम लंबे दिखाई पड़ते हो।
किसी में तुम ठिगने दिखाई पड़ते हो। किसी में तुम मोटे दिखाई पड़ते हो। किसी में तुम
दुबले दिखाई पड़ते हो। तुम एक हो, लेकिन दर्पण किस ढंग से बना है, उस ढंग से तुम्हारी तसवीर बदल जाती है। और इतने दर्पण हैं कि अनेकता पैदा
हो गई!
रज्जब
तो कहते, हैं--दुई! दुई पर ही कहां बात टिकी? बात बहुत हो गई।
दो से चार होते हैं, चार से सोलह होते हैं। बात बढ़ती ही चली
जाती है। दुई हुई, कि चूके। फिर फिसलन पर हो। फिर फिसलते ही
जाओगे, जब तक फिर पुनः एक न हो जाओ। एक हो जाओ--तो ज्यूं था
त्यूं ठहराया।
दर्पण
से मुक्त होना संसार से मुक्त होना है। दर्पणों से मुक्त होना संसार से मुक्त होना
है।
जिस
व्यक्ति को दूसरों की आंखें क्या कहती हैं, इसकी जरा भी परवाह नहीं, उसी को मैं संन्यासी कहता हूं।
मुझसे
लोग पूछते हैं,
आपको इतनी गालियां पड़ती हैं; इतना आपके खिलाफ
लिखा जाता है! करीब-करीब सारी दुनिया में। आपको कुछ परेशानी नहीं होती!
मुझे
परेशानी होने का कोई कारण नहीं, क्योंकि कोई दर्पण क्या कह रहा है, यह दर्पण जाने। मुझे क्या पड़ी।
यह
दर्पण में जो छवि बन रही है, यह दर्पण के संबंध में कुछ कहती है; मेरे संबंध में कुछ भी नहीं कहती। यह वक्तव्य दर्पण के संबंध में है--मेरे
संबंध में नहीं।
इसलिए
हमारे पास कहावत है कि कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी निकल जाता है। हाथी प्रतीक
है--मस्त फकीरों का। हाथी की चाल मस्ती की चाल है; मतवाली
चाल है। कुत्ते भौंकते रहते हैं। भौंक-भांक कर चुप हो जाते हैं। आखिर कब तक भौंकते
रहेंगे? कुत्ते दर्पणों की तरह हैं। और दर्पण पीछा करते हैं।
दर्पण
नाराज हो जाता है,
अगर तुम उसकी फिक्र न लो। अगर तुम उसकी न सुनो, तो उसे क्रोध आता है। दर्पण भौंकेगा। दर्पण हजार तरह से तुम्हारी निंदा
करेगा। दर्पण चाहेगा कि तुम च्युत हो जाओ; तुम अपने केंद्र
से सरक आओ। तुम दर्पण पर भरोसा कर लो। लेकिन दर्पण पर जिसने भरोसा किया, वह चूका। वही संसारी है--जो दर्पण पर भरोसा करता है।
जो
दर्पण पर भरोसा नहीं करता,
जो कहता है: मैं तो अपने को आंख बंद कर के जानता हूं; और अब किस दर्पण में देखना है! मैंने अपना असली चेहरा देख लिया, अब कहां मुझे, किससे पूछना है! अब कौन मेरा चेहरा
बता सकेगा! जब मुझे पता नहीं, तो कौन मेरा चेहरा बता
सकेगा!...
कुछ
बातें हैं, जो आंख खोल कर देखी जाती हैं। बाहर का संसार आंख खोल कर देखा जाता है।
भीतर का संसार आंख बंद कर के देखा जाता है। आंख बंद कर के जो दिखाई पड़ता है,
वही तुम हो।
दर्पण
में भटके--तो भटको। ज्यूं मुख एक देखि हुई दर्पन! देखा नहीं दर्पण में, कि दो हुआ
नहीं!
छोटे
बच्चों को जब पहली दफा दर्पण दिखाओ, तो तुम देखना, उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है! छोटा बच्चा, जिसने
अभी दर्पण नहीं देखा, उसके सामने दर्पण रख दो। चौंकेगा।
किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाएगा क्षण भर को, कि अब क्या करना--यह
दूसरा बच्चा सामने है! या तो डर जाएगा या अपनी मां की तरफ भागेगा। या अगर हिम्मतवर
हुआ, तो टटोल कर देखेगा कि कौन है! कहां है? दर्पण पर टटोलेगा, तो पकड़ में तो कुछ आएगा नहीं;
हाथ फिसल फिसल जाएगा!
दर्पण
में कुछ है तो नहीं;
सिर्फ भ्रांति है! तो छोटा बच्चा अगर बुद्धिमान होगा थोड़ा, तो दर्पण के पीछे जा कर देखेगा। सरक कर, घुटने के बल
पीछे जाएगा, कि छिपा है कोई पीछे!
यह
प्रत्येक छोटे बच्चे की प्रतिक्रिया होगी, जो पहली बार दर्पण के सामने आएगा।
समझेगा कि कोई दूसरा है। जरूर छिपा है। पीछे छिपा होगा। यहां से पकड़ में नहीं आता,
तो पीछे से जा कर पकडूं! और जब भी लौट कर आएगा, तो फिर पाएगा उसको कि छिपा है! थोड़ी देर में परेशान हो जाएगा; पसीना-पसीना हो जाएगा, कि करना क्या! इस दूसरे के
साथ अब करना क्या? रोने लगेगा, चिल्लाने
लगेगा; मां को पुकार देने लगेगा।
छोटे
बच्चे जल्दी से टटोल कर देखना चाहते हैं, पहचानना चाहते हैं--कौन है?
कैसा है?
छोटे
बच्चे भी पहचानते हैं कि कौन प्रेमपूर्ण है, कौन अप्रेमपूर्ण है। छोटा बच्चा
जिसको प्रेमपूर्ण पाता है, उसके पास सरक आता है। जिसको
अप्रीतिकर पाता है, उससे दूर हट जाता है। छोटे बच्चे को
क्रोध से देखो, रोने लगता है। प्रेम से देखो--पास आने को
ललचाने लगता है।
और
इन दर्पणों के साथ हम भी यही कर रहे हैं। लेकिन दर्पण हमारे सूक्ष्म हैं। इसलिए हम
बहुत चिंतित होते हैं। जिस दर्पण ने कल हमारी सुंदर छवि दिखाई थी, अगर वह आज
असुंदर छवि दिखाए, तो हमें लगता है--धोखा दिया गया, बेईमानी की गई! हम क्रोधित होते हैं। हम कहते हैं, कल
की बात को बदलो मत; इतने जल्दी मत बदलो!
हम
नातों को थिर करना चाहते हैं। हम चाहते हैं, हमारे नाते-रिश्ते शाश्वत हो जाएं।
हम चाहते हैं, समय उनमें कोई व्यवधान न डाले। यह हमारे सारे
संसार का फैलाव है।
इस
छोटे से वचन में अदभुत बात कह दी रज्जब ने: ज्यूं मुख एक देखि दुई दर्पन, गहला तेता
गाया। और जिन्होंने जितना जाना, जिन्होंने जितना
पहचाना--उतना कहने की कोशिश की है, गाने की कोशिश की है।
लेकिन जो सत्य है, वह किसी गीत में समाता नहीं।
गहला
तेता गाया--जितना बन पड़ा है, उतना जानने वालों ने कहा है। लेकिन उस एक को
कहने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि शब्द भी दर्पण है। शब्द में
लाते ही वह एक भी दो हो जाता है।
जब
व्यक्ति अपने भीतर परिपूर्ण शून्य में, ध्यान में डूबता है, तो अनुभव होता है, साक्षात्कार होता है कि मैं कौन
हूं। अभी कोई दर्पण नहीं, सिर्फ प्रतीति होती है, अनुभूति होती है कि मैं कौन हूं। ऐसा भी नहीं कि कोई उत्तर मिलता है,
कि मैं कौन हूं। बस, एक भावदशा। यह परम शिखर
है।
जैसे
ही तुमने अपने भीतर भी कहा कि अरे, यह रही समाधि! दर्पण शुरू हुए। एक
से दो हो गई बात। बोलने वाला भीतर आ गया। मन लौट आया। मन ने कहा, सुनो मेरी! यह है समाधि। यही तो है निर्विकल्प समाधि। यही तो है निर्बीज
समाधि। यही तो पतंजलि ने गाई। यही तो कबीर ने गुनगुनाई। यही तो नानक बोले। यही तो
महावीर के वचनों में है। यही तो बुद्ध का संदेश है। यही तो कुरान है। यही गीता;
यही बाइबिल! आ गए तुम। पहुंच गए तुम। अब भ्रांति शुरू हुई। दर्पण आ
गया। मन ने एक दर्पण सामने कर दिया।
समाधि
एक बात थी; मन दर्पण दिखाने लगा। अब समाधि दो हो गई। शब्द बनी; विकृति
शुरू हो गई।
फिर
तुम किसी से कहोगे,
तब और विकृति हो जाएगी। क्योंकि जो तुम्हारे भीतर छिपा था, उसको तो तुम किसी से कहने जाओगे, तो बात और बिगड़
जाएगी। क्योंकि जिससे तुम कहोगे, उसका कोई अनुभव नहीं है
समाधि का। वह समाधि शब्द को तो सुन लेगा...और चूंकि बहुत बार इस शब्द को सुना है,
इसलिए ऐसा भी मान लेगा कि अर्थ मेरी पकड़ में आता है। मगर अनुभव के
बिना अर्थ कहां! उसके लिए शब्द थोथा है, अर्थहीन है। वह सुन
लेगा। शायद तोते की तरह दोहराने भी लगेगा।
इसी
तरह के तोते तो तुम्हारे मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में बैठे हैं! इसी तरह के तोते तो तुम पूज रहे हो। यही तोते
तो तुम्हारे पंडित हैं। ये दोहराए चले जा रहे हैं! इनका अपना कोई अनुभव नहीं है।
जिनका
अपना अनुभव है,
वे भी जब कहने जाते हैं, तो बात बिगड़ जाती है;
बन ही नहीं पाती। हजार बार
कही गई, और हजार बार बिगड़ गई।
रवींद्रनाथ
मरणशैया पर थे। उनके एक मित्र ने उनसे कहा कि आप धन्यभागी हैं। आपको तो दुखी नहीं
मरना चाहिए! क्योंकि रवींद्रनाथ की आंखों से आंसू झर रहे थे।
मित्र
ने कहा, मैं तो सोचता था कि तुम तो कृतकृत्य हो गए। तुमने छह हजार गीत गाए! दुनिया
के किसी कवि ने इतने गीत नहीं गाए। कालिदास और भवभूति, और
शेक्सपीयर और शेली--सब पीछे पड़ गए।
शेली
ने दो हजार गीत गाए हैं। वह पश्चिम का सबसे बड़ा कवि है--संख्या की दृष्टि
से--महाकवि है। रवींद्रनाथ ने उसी कोटि के छह हजार गीत गाए हैं, जो सब
संगीत में बंध सकते हैं; जो छंद-मात्रा में आबद्ध हो सकते
हैं; जो गीत से, शब्द से रूपांतरित हो
कर संगीत बन सकते हैं।
इतना
विराट दान तुमने जगत को दिया। तुम धन्यभागी हो, मित्र ने कहा, तुम किसलिए रो रहे हो!
रवींद्रनाथ
ने कहा, ठहरो, तुम मेरी बात समझे नहीं। मैं इसलिए रो रहा
हूं: मैं प्रार्थना कर रहा हूं कि हे प्रभु, अभी तो साज बिठा
पाया था। अभी गीत गाया कहां! और यह विदा का क्षण आ गया! यह कोई बात हुई! यह कैसा
अन्याय? जिंदगी भर तो मैं साज बिठाता रहा...।
साज
बिठाना जानते हो न! जब तबलची ले कर अपनी हथौड़ी और तबले को ठोंक-ठोंक कर साज बिठा
रहा होता है। जब सितारवादक तारों को कस-कस कर उस जगह ला रहा होता है, उस स्वर
में, जो न तो बहुत तना हो, न बहुत ढीला
हो। क्योंकि तार बहुत ढीले हों, तो संगीत पैदा नहीं होता। और
तार बहुत खिंचे हों, तो तार टूट ही जाएंगे; संगीत क्या पैदा होगा--विसंगीत पैदा होगा।
तारों
को लाना पड़ता है उस मध्य में--बुद्ध ने कहा है: मज्झिम निकाय--उस ठीक मध्य बिंदु
पर, जहां न तो तार बहुत कसे होते हैं, न बहुत ढीले होते
हैं। न कसे, न ढीले--जहां कसना और ढीला होना दोनों का
अतिक्रमण हो जाता है। तार जब परिपूर्ण स्वस्थ होते हैं--न यह अति, न वह अति, जब पेंडुलम घड़ी का बीच में रुक गया होता
है, तो घड़ी रुक जाती है। ऐसे ही जब तार बिलकुल मध्य में हो
जाते हैं, तब संभावना है संगीत के जन्म की।
रवींद्रनाथ
ने कहा कि मैं तो अभी सितार के तार बिठा पाया था। तबले को ठोंक-ठोंक कर रास्ते पर
लाया था बामुश्किल! ये छह हजार गीत उस गीत को गाने की कोशिश में गाए हैं--जो अब तक
मैं गा नहीं पाया। ये छह हजार असफलताएं हैं। ये छह हजार असफल प्रयास हैं। एक गीत
गाना चाहता हूं। बस,
एक गीत। मगर जब भी गाता हूं, कुछ का कुछ हो
जाता है!
गहला
तेता गाया! बहुत गाया गया है। गीत एक है। सत्य एक है। लेकिन कोई अब तक उसे कह नहीं
पाया। कोई कभी कह भी न पाएगा। रवींद्रनाथ नाहक रो रहे थे। रवींद्रनाथ को बुद्धत्व
का कोई अनुभव नहीं था,
नहीं तो नहीं रोते। जानते इस सत्य को कि उस गीत को गाया नहीं जा
सकता। हां, जितना बने, उतना गा दो। मगर
यह आशा मत करो कि कभी पूर्ण रूप से सत्य को शब्द में बांधा जा सकेगा। न उपनिषद
बांध पाते हैं, न ब्रह्मसूत्र, न कुरान;
कोई नहीं बांध पाता। हां, जिससे जितना बन सका;
जिसमें जितनी सामर्थ्य थी--उसने गुनगुनाने की कोशिश की है।
अनुकंपा
है कि बुद्ध बोले,
कि मोहम्मद गाए। अनुकंपा है। लेकिन सत्य तो अनुभव है। जैसे ही शब्द
में आया कि दो हो गया--दुई हो गई! और जैसे ही किसी को कहा--तैत्र हो गया! और जैसे
ही किसी ने सुन कर उसकी व्याख्या की--बात और बिगड़ गई!
गीता
की हजार व्याख्याएं उपलब्ध हैं! बात बिगड़ती ही चली जाती है। टीकाओं पर टीकाएं होती
रहती हैं! बात बिगड़ती ही चली जाती है।
इसीलिए
जब कोई बुद्धपुरुष जीवित होता है, तब जो उसके निकट होते हैं, बस, वे ही थोड़ा-बहुत स्वाद ले लें, तो ले लें। बाद में तो बात बिगड़ती ही जाएगी। जितनी देर होती जाएगी,
उतनी बिगड़ती जाएगी।
इसलिए
धर्म जितना पुराना होता है,
उतना ही सड़ जाता है। धर्म तो नया हो, अभी-अभी
अनुभव के सागर में जिसने डुबकी मारी है, जो अभी-अभी मोती
लाया हो--शायद कुछ थोड़ा गुनगुना पाए; शायद थोड़ा कुछ इशारा कर
पाए। लेकिन जितना पुराना हो जाता है, उतना ही सड़ जाता है।
हिंदू-धर्म
का यही दुर्भाग्य है कि यह सबसे पुराना धर्म है पृथ्वी पर। इसलिए इसकी सड़ांध गहरी
है। यह भूल ही गया नया होना। इसे अपनी काया बदलनी है बार-बार। यह कायाकल्प की
प्रक्रिया भूल गया। और जब भी इसकी कायाकल्प करने की किसी ने चेष्टा की, तो इसने
इनकार कर दिया।
हम
मुर्दे के पूजक हो गए। हमने बुद्ध को इनकार कर दिया। महावीर को इनकार कर दिया।
हमने कबीर को इनकार कर दिया; हमने नानक को इनकार कर दिया। काश! हम बुद्ध को
इनकार करते, तो बुद्ध उपनिषदों को फिर जन्म दे जाते। काश! हम
कबीर को इनकार न करते, तो कबीर ने फिर बुद्ध को पुनरुज्जीवित
कर दिया होता। काश! हम नानक को इनकार न करते, तो बात फिर
निखर-निखर आती।
धर्म
का रोज पुनर्जन्म होना चाहिए। जैसे पुराने पत्ते गिरते जाते हैं और नए पत्ते आते
चले जाते हैं। जैसे नदी की धार। पुराना जल बहता जाता है और नया जल उसकी जगह लेता
जाता है। धार रुकी--कि सड़ी। धार रुकी--कि सरिता मरी। फिर डबरा हुआ। बहने दो। बहते
रहने दो।
यह
गंगा को पूजने वाले भी राज न समझ सके! गंगा को पूजा, लेकिन असली गंगा को भूल गए।
असली गंगा को तो इन्होंने कठौती में बंद कर लिया! ये कहते हैं, मन चंगा, तो कठौती में गंगा! कठौती में कहीं गंगा
होगी? पागल हो गए? मन कितना ही चंगा
हो। मन क्या खाक चंगा होगा? जब कठौती में गंगा होगी, तो मन क्या खाक चंगा होगा?
गंगा
तो बहे। लेकिन तुमने गंगा की कथा पढ़ी न...। भगीरथ ने बड़े प्रयास से...इतना प्रयास
किया कि भगीरथ का काम ही महाप्रयास का पर्यायवाची हो गया। अब जब कभी कोई बड़ा
प्रयास करता है,
तो उसको हम कहते हैं--भगीरथ प्रयास!
भगीरथ
ने इतना प्रयास किया कि आकाश से गंगा को उतार लाए। लेकिन गंगा आधी ही आ पाई। आधी
आकाश में ही रह गई। यह सूचक है।
जितना
जाना है, उतना शब्द में न ला सकोगे। जितना भीतर है, उतना बाहर
न ला सकोगे। आधा ही आ जाए, तो बहुत।
भगीरथ
सौभाग्यशाली रहे होंगे कि आधा भी आ गया। आधा तो स्वर्ग में ही रह गया। आधा तो
अनुभव के लोक में ही रह गया। आधा तो परलोक में ही रह गया! आधा तो आकाश में ही रह
गया। आधा पृथ्वी पर उतरा।
लेकिन
गंगोत्री में गंगा की जो पवित्रता है, जो शुद्धता है, जो निश्चलता है, वह फिर वाराणसी की गंगा में नहीं
है। वाराणसी की गंगा तो गंदी है। गंदा नाला है। फिर तो कितना कूड़ा-करकट मिल गया
उसमें! फिर तो कितनी नालियां और नाले गिरते गए, गिरते गए,
गिरते गए!
वैज्ञानिक
कहते हैं: आज गंगा से ज्यादा गंदी कोई नदी नहीं है। उसमें तुम डुबकियां मार रहे
हो! लाशें गंगा में डाली जाती हैं। मुर्दे गंगा में बहाए जाते हैं। और फिर इतने
पापी अपने पाप गंगा में धोते हैं!
जरा
सोचो--तो कितने पापी कितनी सदियों से पाप गंगा में धोते रहे! अगर इन सबके पाप गंगा
में धुल गए हैं,
तो भूल कर गंगा को छूना भी मत, क्योंकि पाप
बुरी बला है। अंगुली में भी लग जाए, तो धीरे-धीरे भीतर
प्रवेश कर जाए! गंगा तो बिलकुल अछूत समझना। यह तो शूद्र हो गई! अब उसमें डुबकी मार
रहे हो। आशा यही है कि तुम और थोड़े पाप ले कर घर आ जाओगे! अब यह गंगा तुम्हारे पाप
क्या छुड़ाएंगी? तुम कीचड़ से कीचड़ को धो रहे हो। मगर यही दशा
धर्म की होती है।
अनुभव
के लोक में तो धर्म पूरा होता है, एक होता है, अखंड होता
है। अभिव्यक्ति में आते ही, बाहर उतरते ही आधा हो जाता है।
फिर जब तक तुम तक पहुंचे, फिर तुम समझो। और आधे में आधा हो
गया। फिर तुम किसी और से कहो--और आधे में आधा हो गया!
और
अब तो बात इतनी पुरानी हो गई कि अब तो पता ही नहीं कि किसने किससे कहा! कितने
लोगों ने किसको दिया?
कैसे बात चलती रही! कानों में कान--एक दूसरे को लोक फूंकते रहे;
एक दूसरे के कान में डालते रहे! और हम आग्रह करते हैं इस बात का कि
हमारा धर्म बहुत पुराना! जितना पुराना, उतना श्रेष्ठ। इस
गलती में मत पड़ना। जितना पुराना--उतना सड़ा।
धर्म
को भी पुनरुज्जीवित होना पड़ता है। हर बार भगीरथ को गंगा को वापस लाना होता है--तो
गंगोत्री पैदा होती है। गहला तेता गाया!
मगर
शब्द में अटकना मत--शून्य में उतरना। शब्द में भटकना मत। गाने वालों ने गाया है।
उनके इशारे पकड़ लेना;
लेकिन उनके शब्दों की पूजा मत करना। लेकिन शास्त्रों की पूजा चल रही
है!
जन
रज्जब ऐसी बिधि जानें...। रज्जब कहते हैं: मैं तो सीधा-सादा, साधारण जन
हूं। मैं कोई पंडित नहीं। मैं कोई ज्ञानी नहीं। मुझे कुछ शास्त्रों का पता नहीं
है। मुझे तो सिर्फ एक विधि का पता है; एक तरकीब जानता हूं;
एक कीमिया मेरे हाथ में है।
जन
रज्जब ऐसी विधि जानें,
ज्यूं था त्यूं ठहराया! बस, मेरे पास तो एक
छोटा-सा सूत्र है कि जैसा था--मेरा स्वभाव, जैसा था जन्म के
पहले--वैसा ही मैंने उसे ठहरा दिया है। और उसके ठहरने में ही सब पा लिया है।
सब
शास्त्र आ गए,
सब सिद्धांत आ गए। सब बुद्ध आ गए; सब कृष्ण,
सब क्राइस्ट--सब आ गए। क्योंकि कृष्ण ने भी कैसे पाया--ज्यूं था
त्यूं ठहराया! और बुद्ध ने कैसे पाया--ज्यूं था त्यूं ठहराया! और जीसस ने कैसे
पाया--ज्यूं था त्यूं ठहराया! तुम भी ठहरा लो--ज्यूं था त्यूं ठहरा लो।
क्या
है वह विधि? क्या है वह राजों का राज? क्या है वह रहस्य? छोटा-सा रहस्य है। ध्यान कहो उसे, तो चलेगा। जागरण
कहो उसे, तो चलेगा। बोध कहो उसे, तो
चलेगा। साक्षी-भाव। बस, मन में जो चल रहा है--विचारों का
सिलसिला, तांता, वह जो भीड़ मन में चल
रही है--वासनाओं की, इच्छाओं की, ऐषणाओं
की; स्मृतियों का प्रवाह बंधा हुआ है; कल्पनाओं
का जाल बुना जा रहा है!
अतीत
और भविष्य के बीच तुम दबे जा रहे हो, पिसे जा रहे हो। कबीर कहते हैं,
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय! ये हैं दो पाट--अतीत और
भविष्य--चक्की के दो पाट--इनके बीच पिसे जा रहे हो! साबित बचा न कोय।
लेकिन
कबीर ने यह पद गाया--दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय--तो कबीर के बेटे कमाल ने
इसके उत्तर में एक सूत्र लिखा कि चक्की के बीच में कील लगी होती है, जिस कील
पर चक्की का पाट घूमता है।
कमाल
था कबीर के बेटे का नाम। कमाल ने कहा कि सुनिए, कुछ बच जाते हैं--कुछ! कबीर ने कहा,
कौन? कमाल ने कहा, वे,
जो वह बीच में कील ठहरी हुई है, जो चलती नहीं
है, जो ठहरी हुई है--जो सदा से ठहरी हुई है--उसका सहारा ले
लेते हैं; वे बच जाते हैं। दो पाटों के बीच तो कोई नहीं बचता;
उनमें पिसता ही है। लेकिन वह जो छोटी-सी कील खड़ी हुई है थिर,
उसका जो सहारा ले लेता है...। इसलिए कुछ गेहूं के दाने बच जाते हैं।
तुम
चक्की चलाओ तो पता चलेगा। कुछ गेहूं के दाने बड़े होशियार! वे दोनों पाटों के बीच
से सरककर कील के पास पहुंच जाते हैं। वे कील का सहारा ले लेते हैं। वहां नहीं पीस
सकती चक्की।
तुम्हारे
भीतर भी ऐसी कील है।
कबीर
ने कहा कि मैं यह देखता था कि कोई इस सूत्र को पूरा कर सकता है या नहीं। कमाल, मैं खुश
हूं!
उसी
दिन कबीर ने कमाल को यह बात कही थी कि बूढ़ा वंश कबीर का, उपजा पूत
कमाल!
लोग
समझते हैं, यह कमाल की निंदा की। नहीं। यह कमाल की प्रशंसा में कहा।
कबीर
ने कहा, मैं तो कबीर ही रहा। कम से कम मैंने कुछ तो पैदा किया; एक बेटा पैदा किया, एक बेटी पैदा की।
कबीर
का बेटा था कमाल,
और बेटी थी कमाली। कबीर ने नाम भी उनको कमाल, कमाली
इसीलिए दिया था, कि कबीर ने साक्षी-भाव में ही उनको जन्म
दिया था--इसलिए कमाल था।
यही
तो कमाल है कि संन्यासी रहता संसार में है, और संसार उसे छुए न। कबीर पत्नी के
साथ रहे; बाजार में रहे। जुलाहे थे, कपड़ा
बुनते रहे, बेचते रहे। और आखिर में यह भी कह सके...। हिम्मत
के आदमी थे, गजब के आदमी थे! यह भी कह सके परमात्मा को कि
ज्यों की त्यों रख दीन्हीं चदरिया--यह ले अपनी चादर सम्हाल। यह ज्यों की त्यों रख
दे रहा हूं। जैसी तूने दी थी, वैसी ही रख दे रहा हूं। दाग भी
नहीं लगा। यूं संसार में रह आया हूं। काजल की कोठरी से गुजर आया हूं। और यह तेरी
चादर देख! यह ले, सम्हाल, अपनी चादर!
ज्यों
की त्यों रख दीन्हीं चदरिया! साक्षी-भाव में ही जीए! संभोग भी साक्षी-भाव में ही!
इसलिए अपने बेटे को नाम दिया--कमाल! और साक्षी-भाव में बेटा पैदा हो, तो कमाल
तो है। और बेटा फिर कमाल का ही होगा। कमाल का ही था।
कबीर
ने कम से कम जन्म भी दिया कुछ, सिलसिला भी छोड़ा। लेकिन कमाल ने सिलसिला भी
नहीं छोड़ा; किसी को जन्म ही नहीं दिया। बूढ़ा वंश कबीर का
उपजा पूत कमाल! ऐसा सपूत पैदा हुआ कि बात ही खतम कर दी। उसने सिलसिला ही तोड़ दिया।
उसने कहा, अब क्या चलाते रखना सिलसिले को! इस संसार को क्यों
बढ़ाए चले जाना!
यह
उस दिन कबीर ने कहा था,
जिस दिन कमाल ने यह बात जोड़ दी थी कि इतना जोड़ दें और, कि जिसने बीच की कील के सहारे को पकड़ लिया, वह बच
गया।
दो
पाट हैं--अतीत और भविष्य के, और बीच में कील है--वर्तमान। साक्षी-भाव का
अर्थ होता है--वर्तमान में ठहर जाना। न अतीत रह जाए, न
भविष्य। फिर क्या बचा?
तुम्हारे
पास अतीत और भविष्य के सिवाय और क्या है? कुछ भी नहीं। अतीत गया--भविष्य
गया--कि शून्य बचा। उस शून्य में सिर्फ प्रकाश है; सिर्फ बोध
है; सिर्फ होश है; कोई विषय नहीं है।
दर्पण है, लेकिन दर्पण में कोई छवि नहीं बनती अब। कोई पराया
नहीं, कोई दूसरा नहीं, कोई दूजा नहीं।
साक्षी
है, लेकिन कोई साक्षी के सामने नहीं। द्रष्टा है, लेकिन
दृश्य कोई भी नहीं है। ज्ञानी है, लेकिन ज्ञान के लिए कुछ भी
नहीं बचा।
ज्यूं
था त्यूं ठहराया! ऐसी साक्षी की अवस्था में तुम पुनः स्वभाव में थिर हो जाते हो।
बुद्ध
इसको कहते हैं--तथाता। बुद्ध का एक नाम है तथागत। जो ऐसा ठहर गया, जो तथाता
में आ गया--वह तथागत।
जो
स्वभाव में आ गया,
जो स्वरूप में डूब गया, उसने फिर सागर पा
लिया। फिर मछली नहीं तड़पती। फिर मस्ती है। फिर उत्सव है। फिर जीवन एक समारोह है।
फिर आनंद ही आनंद की वर्षा है। फिर अमृत के मेघ गरजते हैं।
ज्यूं
मुख एक देखि दुई दर्पन,
गहला तेता गाया।
जन
रज्जब ऐसी बिधि जानें,
ज्यूं था त्यूं ठहराया।।
इसलिए
मैं कहता हूं,
इस छोटे से सूत्र में सब आ गया। कुछ शेष नहीं रह जाता। इस एक बात को
तुम पूरी कर लो, तो तुम्हारे जीवन में धर्म का अवतरण हुआ;
तुम्हारी ज्योति जली--ज्योति जो जन्मों से बुझी पड़ी है। तुम्हारे
भीतर फिर जीवन का प्रवाह बहा; प्रवाह, जो
कितने जन्मों से अवरुद्ध है।
कठौती
की गंगा हो गए हो तुम! इस सूत्र को पूरा करते ही फिर गंगोत्री। फिर वही पावन गंगा।
फिर तुम जहां से बहोगे,
वहां तीर्थ बनेंगे। तुम जहां उठोगे-बैठोगे, वहां
तीर्थ बनेंगे। तुम जहां उठोगे-बैठोगे वहां काबा और काशी!
दूसरा प्रश्न: भगवान,
इश्के बुतां करूं कि मैं यादे खुदा करूं
इस छोटी-सी उम्र में, मैं क्या-कया खुदा करूं
अब्दुल करीम!
इश्के
बुतां करूं कि मैं यादे खुदा करूं! तुमने दो कर लिए! वही बात कर ली--ज्यूं मुख एक
देखि दुई दर्पन। इश्के बुतां और यादे खुदा क्या दो बातें हैं? वह जो
मंदिर में मूर्ति है और मसजिद में जो शून्य है, वह एक के ही
दो दर्पण हैं। मंदिर एक दर्पण है; मसजिद एक दर्पण है। सत्य
तो एक है। किसी ने उसे निर्गुण की तरह देखा; किसी ने उसे
सगुण की तरह देखा। सब गुण भी उसके हैं। और जिसके सब गुण हैं, वह निर्गुण होगा ही।
इसलाम
उसे निर्गुण की तरह पूजा है; दूसरे मजहब, दूसरे धर्म
उसे सगुण की तरह पूजे हैं। मगर सब गुण उसके हैं।
यह
जो अभिव्यक्त जगत दिखाई पड़ रहा है; ये जो रंग इंद्रधनुष के--सब रंग
उसके। ये सुबहें उसकी, ये सांझें उसकी, ये चांदत्तारे उसके। ये अलग-अलग रूपों में बैठे हुए लोग उसके। स्त्री में
स्त्री है, पुरुष में पुरुष है। वृक्षों में वृक्ष। पत्थरों
में पत्थर।
हम
दो में तोड़ लेते हैं,
बस दुविधा में पड़ जाते हैं। फिर सवालों पर सवाल हैं। फिर सवालों का
कोई अंत नहीं।
इश्के
बुतां करूं कि मैं यादे खुदा करूं? अब मुश्किल खड़ी हुई कि मैं मसजिद
जाऊं, कि मंदिर जाऊं! और फिर कितने मंदिर हैं, कितने मसजिद हैं! फिर मस्जिदों में भी झगड़े हैं; फिर
मंदिरों में भी झगड़े हैं। फिर हिंदू के मंदिर जाऊं, कि जैन
के मंदिर जाऊं, कि बुद्ध के मंदिर जाऊं? फिर जैनों के मंदिरों में भी झगड़े हैं--कि श्वेतांबर का मंदिर, कि दिगंबर का मंदिर? फिर दिगंबरों में भी झगड़े
हैं--कि बीसपंथी का मंदिर, कि तेरापंथी का मंदिर!
झगड़ों
पर झगड़े हैं! फिर बात बिखरने लगी। दो हुई, कि फिर खिसलने लगे तुम। फिर बिगड़ती
ही चली जाएगी बात। फिर इसका कोई अंत नहीं है बिगड़ाव का। फिर यह जो एक था--अनंत
होकर रहता है; अनेक हो कर बंट जाता है!
मस्जिदों
में कितने झगड़े हैं! मसजिद और मंदिर में ही झगड़े होते तो भी समझ लेते। मस्जिदों
में झगड़े हैं। शिया और सुन्नियों में झगड़े हैं। एक दूसरे की गर्दन काटने को तैयार
हैं! फुरसत कहां गर्दन काटने से--कि खुदा की इबादत हो। गर्दन काटने में ही वक्त
चला जाता है। और गर्दन किसकी काट रहे हो। काटने वाला भी वही है, और कटने
वाला भी वही है! हिंदू मारो, तो उसे मारते हो। मुसलमान को
मारो, तो उसे मारते हो। मंदिर को जलाओ, तो उसे जलाते हो। मसजिद को जलाओ, तो उसे जलाते हो।
इश्के
बुतां करूं कि मैं यादे खुदा करूं? लेकिन भूल वहीं हो जाती है शुरू
में, जहां दो कर लेते हो। दो मत करो। ज्यूं मुख एक देखि दुई
दर्पन! क्यों दो करते हो? जो रूप जाए।
इश्के
बुतां--अगर मूर्तियां प्यारी लगती हों, तो हर्ज कुछ भी नहीं। अगर अमूर्त
प्यारा लगता हो, तो हर्ज कुछ भी नहीं। किस बहाने अपने घर लौट
आते हो, बहाने का कोई सवाल नहीं। बैलगाड़ी में आते हो,
कि पैदल आते हो, कि हवाई जहाज से आते हो,
कि रेलगाड़ी में आते हो--घर आ जाओ।
मगर
लोग झगड़ रहे हैं! बैलगाड़ी भी नहीं चलती; रेलगाड़ी भी नहीं चलती। झगड़े से
निपटें, तब तो चले। झगड़े इतने खड़े हो जाते हैं कि कुछ चलता
ही नहीं। सब अटके हैं। झगड़े में जो पड़ा, वह अटक जाएगा। कोई
गीता में अटका है, कोई कुरान में अटका है। जो नावें बन सकती
थीं, वे अटकाव बना लिए हैं हमने। कैसी मूढ़ता है!
धार्मिकता
तो एक है; धर्म अनेक हैं। इसलिए धर्म गलत हैं; धार्मिकता सच
है। और धार्मिक व्यक्ति न हिंदू होता, न मुसलमान होता।
धार्मिक व्यक्ति को मसजिद में बिठा दो, तो भी साक्षी होता है;
और मंदिर में बिठा दो, तो भी साक्षी होता है।
अब इससे क्या फर्क पड़ता है--कहां साक्षी हुए! दीवालें हिंदुओं ने खड़ी की थीं कि
मुसलमानों ने! क्या फर्क पड़ता है!
मैं
एक गांव में मेहमान था। मेरे सामने ही एक मंदिर बन रहा था--जिस घर में मैं मेहमान
था उसके सामने ही मंदिर बन रहा था। जो राज मंदिर को बना रहे थे, जो कारीगर
मंदिर के पत्थर तोड़ रहे थे, मूर्तियां निर्मित कर रहे थे,
मुझे उनकी बातचीत से लगा कि वे मुसलमान मालूम होते हैं। तो मैंने
जानकारी की, पूछताछ की तो पता चला कि हां, वे मुसलमान हैं।
तो
जिनके घर में ठहरा था,
जो उस मंदिर को बनवा रहे थे, मैंने उनसे पूछा
कि यह बड़े मजे की बात है! इस मंदिर की दीवालें मुसलमान उठा रहे हैं। और इस मंदिर
की मूर्ति भी मुसलमान गढ़ रहे हैं! और इस मंदिर की सीढ़ियां भी मुसलमान खड़ी करेंगे।
और यह मंदिर हिंदुओं का होगा? और इसी को एक दिन मुसलमान
जलाएंगे।
मैंने
उनसे पूछा कि यह मंदिर हिंदुओं का कैसे हो जाएगा। दीवालें मुसलमान उठा रहे हैं।
कितने ही मंदिर हैं भारत में, जो मसजिद बना दिए गए हैं, क्योंकि मुसलमानों के जमाने में, जब उनका राज्य था,
उन्होंने हर किसी मंदिर को मसजिद बना दिया। देर क्या लगती थी! थोड़े
से फर्क करने हैं, और मंदिर मसजिद हो गई! और फिर अगर हिंदुओं
का राज्य लौट आया किसी क्षेत्र में--उन्होंने मसजिद को फिर मंदिर बना लिया!
मंदिर
और मसजिद में कुछ फर्क नहीं है। नासमझों को होगा फर्क। समझदारों को कोई फर्क नहीं
है।
मुझे
तुम मसजिद में बिठा दो,
क्या फर्क पड़ेगा! इसी मौज और इसी मस्ती में बैठूंगा। तुम मुझे मंदिर
में बिठा दो, कोई फर्क न पड़ेगा। इसलिए तो गीता पर बोलूं,
कि कुरान पर, कोई भेद नहीं पड़ता। मुझे तो जो
बोलना है, वही बोलना है। मुझे तो जो कहना है, वही कहना है। मुझे तो गीत गाना है--वही गाना है। तुम साज मेरे हाथ में कोई
भी थमा दो, गीत मैं वही गाऊंगा, राग
मैं वही गाऊंगा। तुम बांसुरी पकड़ा दो--तो; और तुम सितार दे
दो--तो, बोलूं--तो वही बोलूंगा। चुप रहूं--तो उसके लिए ही
चुप रहूंगा। मेरे मौन में भी वही होगा; मेरी मुखरता में भी
वही होगा।
धार्मिक
व्यक्ति न हिंदू होता,
न मुसलमान होता, न ईसाई होता, न सिक्ख होता। सिर्फ धार्मिक होता है। मेरा प्रयास--भगीरथ प्रयास--यही है
कि किसी तरह धर्मों से मुक्ति हो जाए तुम्हारी और धार्मिकता तुम्हारे जीवन में खिल
जाए।
मत
पूछो मुझसे--इश्के बुतां करूं, कि मैं यादे खुदा करूं? जिस
भांति तुम धार्मिक हो सको। तुम अलग-अलग लोग हैं, अलग-अलग
उनकी रुचियां हैं। अब मीरा को तुम जबर्दस्ती महावीर बनाना चाहो, तो गलती हो जाएगी। मीरा बेचारी मीरा भी न हो पाएगी--महावीर तो हो ही नहीं
सकती। तुम महावीर को मीरा बनाना चाहो, तो गड़बड़ हो जाएगी। फिर
वे महावीर भी न हो पाएंगे; और मीरा हो नहीं सकते।
यह
यूं पागलपन है,
जैसे कोई बेला को जुही बनाए; जुही को चंपा
बनाए। चंपा को गुलाब होने के पाठ बढ़ाए। सारी बगिया पागल हो जाए! यह सारे आदमी का
बगीचा पागलों से भर गया है। यहां पागल ही पागल हैं। यहां कोई होश की बात ही जैसे
नहीं कर रहा है।
मैं
न किसी को मुसलमान बनाना चाहता--न किसी को हिंदू। हां, इतना मैं
जरूर कहना चाहता हूं: जो तुम्हें रुचे।
कुरान
की अपनी मौज है,
अपनी मस्ती है। अगर भा जाए किसी के दिल को, तो
बस, ठीक। तो कुरान की नाव बना लेना। और किसी को गीता भा जाए,
तो क्या अड़चन! गीता की नाव बना लेना।
डूबता
यह नहीं देखता कि जो नाव मुझे बचाने को आई है, उसका माझी कौन है? हिंदू है, कि मुसलमान? ईसाई है
कि सिक्ख? यह भी नहीं पूछता कि आस्तिक है, कि नास्तिक! डूबता ये बातें पूछता है? डूबता यह
पूछेगा कि तुम कौन हो?
तुम
जब बीमार होते हो,
तो तुम यह नहीं पूछते कि डाक्टर ईसाई है और मैं हिंदू; कि डाक्टर हिंदू है और मैं जैन--कैसे चिकित्सा करवाऊं? तुम जब बीमार होते हो, तब तुम फिक्र नहीं करते। और
तुम बीमार हो--आध्यात्मिक रूप से बीमार हो।
तुम
यह फिक्र क्या करते हो! तुम्हें जो चिकित्सक रुच जाए। क्योंकि ध्यान रखना: दवा से
भी ज्यादा मूल्यवान है--चिकित्सक। दवा तो गौण है। जिस हाथ पर तुम्हें भरोसा आ जाए, उस हाथ से
राख भी मिल जाए, तो दवा हो जाती है। और जिस आदमी पर तुम्हें
भरोसा न हो, वह तुम्हें स्वर्ण भस्मी भी दे, मोतियों की भस्मी पिलाए--कुछ न होगा। राख ही समझो। तुम्हारा संदेह तुम्हें
खा जाएगा।
श्रद्धा
जहां जन्म जाए अब्दुल करीम! जहां तुम्हारी श्रद्धा को पंख लग जाए, वहीं से
आकाश को खोज लो।
यह
क्या बात पूछनी: किस घाट से उतरना है? घाट अनेक हैं--सागर एक है। किसी
घाट से उतरो।
इश्के
बुतां करूं कि मैं यादे खुदा करूं
इस
छोटी-सी उम्र में,
मैं क्या-क्या खुदा करूं
और
बांटा, तो जरूर उम्र बहुत छोटी है। अगर चिंता में पड़े, तो
मुश्किल में आ जाओगे। फिर बहुत हैं...पृथ्वी पर तीन हजार धर्म हैं। यह इश्के बुतां
और यादे खुदा की ही बात नहीं है। यहां तीन हजार धर्म हैं। तीन हजार धर्मों के कम
से कम तीस हजार उप-धर्म हैं! अगर तुम इस चिंता में पड़ गए, तो
एक जिंदगी क्या अनेक जिंदगियां छोटी हैं। यही तय न हो पाएगा, कि किस नाव पर बैठना है!
और
सब माझी पुकार दे रहे हैं कि आओ, मेरी नाव में। यही नाव पहुंचा सकती है। बस,
यही नाव पहुंचाएगी। अब तुम अगर इसी चिंता में पड़ गए कि किस नाव में
बैठूं, और किस नाव में न बैठूं! तो जिंदगी जरूर बहुत छोटी
है। चिंता के कारण छोटी है। और अगर तुम निश्चिंत हो जाओ, तो
यह जिंदगी बहुत बड़ी है। एक क्षण भी शाश्वत जितना बड़ा है।
अगर
तुम निश्चिंत हो,
चिंता छूट गई, तो जिंदगी को छोटी कहते हो!
तुम्हें समय का अंदाज है--कि समय घड़ी के अनुसार ही नहीं होता; समय तुम्हारे चित्त की दशा के अनुसार ही होता है। एक समय तो बाहर का समय
है जो घड़ी बताती है। और एक समय भीतर का समय है। वह भीतर का समय तुम पर निर्भर है।
तुम
अपनी प्रेयसी के पास बैठे हो अब्दुल करीम! वर्षों बाद मिले हो, तो घंटे
यूं बीतेंगे, जैसे पल बीते। इतनी तेजी से भागेंगे! रात गुजर
जाएगी और पता न चलेगा।
यहां
मेरे संन्यासी मुझसे कहते हैं कि समय कैसे गुजर जा रहा है, पता नहीं
चलता! ऐसा भागा जा रहा है!--मस्ती के कारण। दुख में समय लंबा मालूम पड़ता है,
मौज में समय छोटा हो जाता है।
आठ
सितंबर को विवेक मुझसे कहने लगी, एक वर्ष हो गया! भरोसा नहीं आता कि आपके पिता
के महापरिनिर्वाण को एक वर्ष हो गया! ऐसा लगता है यूं, अभी,
कुछ ही दिन पहले तो हमने उन्हें विदा दी थी--और फिर आठ सितंबर का
दिन आ गया। इतने जल्दी! दिन यूं भागे जाते हैं!
अगर
तुम मस्त हो,
तो दिन भागे जाते हैं। समय का पता नहीं चलता। और अगर तुम दुख में हो,
तो समय ठहर-ठहर कर, अटक-अटक कर चलता है। समय
बूढ़े आदमी की तरह लकड़ी टेक कर चलने लगता है। रुक-रुक जाता है। पैसेंजर गाड़ी की तरह
चलता है।
मेरे
एक मित्र थे रेखचंद्र पारेख; अभी कुछ दिन पहले विदा हो गए। उनको पैसेंजर
गाड़ी से चलने का बहुत शौक था। मैंने उनको कई दफा कहा कि यह क्या पागलपन है!
उन्होंने कहा, एक बार मेरी भी मानो। तो एक बार उनकी मान कर
मैं पैसेंजर गाड़ी से यात्रा किया। और सच में ही मैंने पाया कि वे कहते थे, उसमें भी राज था।
जहां
हम हवाई जहाज से एक घंटे में पहुंच सकते थे, वहां पहुंचने में चार दिन लगे! मगर
उनकी बात भी मुझे समझ में आई कि उनकी बात भी ठीक थी।
हर
स्टेशन पर गाड़ी का रुकना। घंटों रुकना। हर स्टेशन पर उनके जाने-पहचाने लोग थे।
परिचित थे। कुली-कुली उनको पहचानता था! स्टेशन मास्टर उनको पहचानता। टिकिट कलेक्टर
उनको पहचानता। होटल वाला उनको पहचानता! जहां गए, वहीं स्वागत था। और उनको
पता था एक-एक जगह का--कि कहां भजिए अच्छे। कहां दूध अच्छा। कहां की चाय अच्छी।
कहां की कचौड़ियां अच्छी। उनको एक-एक चीज का पता था।
एक
स्टेशन पर गाड़ी खड़ी हुई,
वे मुझसे बोले, जल्दी आओ। स्टेशन के बाहर ले
गए! मैंने कहा, कहां ले जा रहे हो? गाड़ी
चली गई तो क्या होगा? उन्होंने कहा, तुम
फिक्र मत करो!
बाहर
बहुत से आमों के वृक्ष थे। आम का एक झुंड का झुंड खड़ा था। और आम पक गए थे।
उन्होंने कहा,
आम का समय है। और इस स्टेशन से तो मैं कभी जाता ही नहीं जबकि पके आम
का मौसम होता है। तो कुछ आम तोड़ लें। मैंने कहा, हद्द हो गई!
अब ये आमों पर चढ़ना पड़ेगा। इस बीच अगर गाड़ी छूट गई...! उन्होंने कहा, तुम फिक्र मत करो। यहां गाड़ी रुकेगी।
जब
हम ऊपर चढ़े तो एक आदमी हम से भी पहले उस पर चढ़ा हुआ था। उन दोनों ने नमस्कार भी
किया और गपशप भी की। मैंने कहा कि अब उतर चलें अपन! उन्होंने कहा, तुम
बिलकुल फिक्र ही मत करो। जब तक यह आदमी इस पर सवार है झाड़ पर, गाड़ी चलने वाली नहीं। मैंने कहा, यह है कौन? उन्होंने कहा, यह ड्राइवर है! इसी के पीछे-पीछे मैं
आता हूं। गाड़ी चलेगी कैसे? फिक्र ही मत करो।
और
गाड़ी चलती भी कैसे! ठीक ही था। फिर बेफिक्री से सब ने आम तोड़े। झोलियां भर कर आम
लाए। अब ड्राइवर ही चढ़ा हो,
तो तुम समझ सकते हो कि चार दिन लगने ही वाले थे। जहां आम भी तोड़ने
हों रास्ते में रुक कर, और भजिए भी खाने हों, और चाय भी पीनी हो, और दूध भी लेना हो। और बच्चों के
लिए मिठाइयां भी लेनी हों; खिलौने भी उनको मालूम थे कहां
मिलते हैं, अच्छे, लकड़ी के। और कहां
क्या--वह सारा का सारा...घर आते-आते उन्होंने डब्बे को सामान से भर लिया!
मैंने
उनको कहा, यह बात तो ठीक है। उन्होंने कहा, अब तुम ही
कहो--हवाई हवाई जहाज से जाते, तो यह मजा कहां! और हवाई जहाज
से जो आदमी उड़ता है, उन्होंने कहा, उसको
जनता कभी क्षमा नहीं करती। मैंने कहा, यह बात भी ठीक है।
क्योंकि किसी के ऊपर से उड़ोगे, तो वह क्षमा कैसे करेगा?
किसी के सिर पर चढ़ोगे--कैसे क्षमा करेगा?
और
पैसेंजर गाड़ी में!...मेरे आग्रह से वे फर्स्ट क्लास में चले। नहीं तो वे कहते थे
कि मजा थर्ड क्लास में चलने का है। क्योंकि दोस्ती, पहचान, मैत्री, नए-नए संबंध, और एक से
एक मजेदार लोग, और उनकी जीवन कथाएं! और जब रहना है चार दिन
साथ, तो फिर सभी अपनी-अपनी खोल देते हैं। जो सगे-संबंधियों
से लोग नहीं कहते, वह ट्रेन में अपरिचितों से कह जाते हैं।
अपनों से कहने में डरते हैं, वह अजनबियों से कह जाते हैं। तो
हर आदमी एक कहानी है। हर आदमी एक अनूठी कहानी है।
तो
वे कहते कि यह क्या फर्स्ट क्लास में चलना! मैंने कहा, तुम इतनी
कृपा करो कि थर्ड क्लास में मुझे मत घसीटो। मैं पैसेंजर में आने को राजी हो गया,
इतना ही बहुत। तुम मुझे फर्स्ट क्लास में तो कम से कम चलने दो!
मगर
वे बीच-बीच में जाते रहे मिलने लोगों से; थर्ड क्लास में बैठते रहे! उनको
चैन न पड़े। भीड़भाड़!
लोगों
की रुचियां भिन्न हैं। रुचियों को ध्यान में रखो और तुम्हारी रुचि जिस बात से जुड़
जाए, वहां समय एकदम भिन्न हो जाता है। समय की धारा बदल जाती है।
एक
मजे की बात है,
जो तुमने शायद खयाल में न ली हो। समय के संबंध में एक विरोधाभास है।
जब सुख के क्षण होते हैं, तो जल्दी जाते हैं। लेकिन दुख के
क्षण धीरे-धीरे जाते हैं। और बाद में जब तुम याद करोगे, तो
तुम चकित होओगे। बाद में स्थिति बिलकुल उलट जाती है। जब तुम याद करोगे, तब सुख के क्षण लंबे मालूम होंगे, और दुख के क्षण
जल्दी बीत जाएंगे। क्योंकि दुख को हम स्वीकारते नहीं, अंगीकार
नहीं करते। कर नहीं सकते। वह हमारे स्वभाव के प्रतिकूल है। फूलों को हम संजो लेते
हैं; कांटों को हम छोड़ देते हैं।
तो
जब तुम बाद में याद करोगे,
तो तुम कहोगे, अहा, प्यारा
बचपन! क्या थे दिन! जब तुम बुढ़ापे में जवानी याद करोगे, तो
कहोगे, अहा! क्या थे दिन! इधर हुई शाम, उधर हाथ में जाम! क्या थे दिन! हालांकि जवान आदमी अपनी मुसीबतें जानता है।
जवानी में उसको मुसीबतें दिखाई पड़ती हैं। बुढ़ापे में मुसीबतें भूल जाती हैं।
बच्चा
अपनी मुसीबतें जानता है। तुम जरा फिर से सोचो। बचपन को पुनरुज्जीवित कर के सोचो, तब
तुम्हें पता चलेगा--कितनी मुसीबतें थीं। रोज-रोज स्कूल जाना। रोज-रोज स्कूल में
पिटाई-कुटाई। कान पकड़-पकड़ कर उठाया जाना। घुटने टिकवाना। सजाएं--दंड-बैठक लगवाना!
कौन जाना चाहता है। सुबह-सुबह सर्द दिन, और शनिवार आ
जाए--कौन उठना चाहता है सुबह-सुबह? एक करवट और ले कर आदमी
कंबल ओढ़ कर सो जाना चाहता है।
जरा
याद करो, पुनरुज्जीवित करो, फिर से जीओ, तो तुम इतना सुखी नहीं पाओगे, जितना तुम अभी पा रहे
हो। लेकिन अगर तुम यूं देखोगे खड़े, दूर हो कर, तो जवानी में लगेगा: बचपन बड़ा अदभुत था। सुख ही सुख था। न कोई चिंता। मगर
यह अब तुम कह रहे हो। तब बहुत चिंता थी--कि परीक्षा में पास होंगे कि नहीं होंगे?
माना, कि नौकरी की चिंता नहीं थी। दूसरी
चिंताएं थीं। स्कूल में शैतान बच्चे थे, वे सताते।
मेरे
स्कूल में एक लड़का था,
उसकी चांद पिलपिली थी। वह भी मुझे जब बाद में मिला, तो कहने लगा, अहा, कैसे अच्छे
दिन थे! मैंने कहा , तू तो मत कह! उसने कहा, क्यों? मैंने कहा, मुझे
भली-भांति तेरी जिंदगी याद है।
जो
भी उससे जरा मजबूत था,
वही उसकी चांद पिलपिलाता था! जो भी मिल जाए; वह
टोपी उतार कर पहले उसकी चांद दबाए। और मैंने उसकी चांद इतनी दबाई कि मुझे एक दफा
हेडमास्टर के पास भेजा गया कि तुम क्यों इस लड़के को सताते हो! तुम क्यों इसकी टोपी
उतार इसकी चांद...?
तो
मैंने हेडमास्टर से कहा कि आप इसके पहले कि मुझे कुछ कहें, मैं इसकी
टोपी उतारता हूं, आप इसकी चांद पिलपिला कर देखें! उन्होंने
कहा, इसमें क्या है! इसकी चांद में क्या है? वे भी उत्सुक हुए। मैंने कहा, आप देखें तो। जब
उन्होंने उसकी चांद पिलपिलायी, तो वे भी हंसने लगे। उन्होंने
कहा कि बात तो ठीक है। चांद इसकी अदभुत है!
उसकी
बड़ी पिलपिली चांद थी। मैंने कहा, अब आप ही कहो, ऐसी चांद
हो, तो कसूर किसका? ऐसे देना हो सजा,
आप मुझे दे सकते हो। मगर इसकी चांद इतनी अदभुत है कि किसका जी इसकी
चांद दबाने का न होगा।
उस
लड़के की जान मुसीबत में थी। शिक्षक भी उसको सजा देते, तो टोपी
निकाल उसकी चांद दबाते! उसका कान नहीं पकड़ते; उसकी चांद दबाते।
क्योंकि वही उसका सबसे बड़ा दंड हो सकता था।
उसकी
हालत मैं जानता था कि वह छिपा-छिपा स्कूल आता; गली-कूचों में से आता--कि कहीं
सीधी सड़क से गया, तो मिलने वाले हैं दुष्ट--और वे सताएंगे।
तो हमेशा स्कूल देर से आता। और जल्दी छुट्टी मांगता कि जब स्कूल की छुट्टी होती,
तो एक हजार लड़के! एक साथ छूटना! उसकी मुसीबत हो जाती। घर जाते-जाते
उसकी चांद इतनी दबाई जाती कि उसकी जान
मुसीबत में थी।
वही
मुझे बाद में जब मिला,
तो मैंने कहा, चंदूलाल! तू तो मत कह!
अभी
परसों एक पत्र लक्ष्मी ले कर आई। किसी सज्जन ने उत्तर प्रदेश से पत्र लिखा है कि
आपसे मेरी विनती है कि आप कृपा कर के चंदूलाल के नाम से लतीफे कहना बंद कर दें।
बिलकुल बंद कर दें। क्योंकि मेरे बाप का नाम चंदूलाल है। आप कोई दूसरा नाम चुन
लें। आपका कुछ न बिगड़ेगा। आप कोई दूसरा नाम चुन लें। मगर यह चंदूलाल की वजह से
मेरी मुसीबत हुई जा रही है। क्योंकि मैं आपका प्रेमी हूं और टेप सुनने जाता हूं।
और जब भी आप चंदूलाल का नाम लेते हैं, सब लोग मेरी तरफ देख कर हंसते हैं
कि यह चंदूलाल का बेटा! और मेरे बाप आप पर बहुत नाराज हैं कि यह आदमी क्यों मेरे
पीछे पड़ा है!
अब
मैंने कहा कि यह बड़ी मुश्किल हो गई। मैं कोई दूसरा नाम चुनूंगा, वह किसी
का बाप होगा, किसी का बेटा होगा। और चंदूलाल कोई एक है?
इसका चंदूलाल तो मुझे पता ही नहीं था कि ये चंदूलाल कहीं उत्तर
प्रदेश में रहते हैं! मैं तो यूं ही चुन लिया था चंदूलाल! अरे, इस देश में कम से कम लाखों चंदूलाल होंगे।
मगर
इस लड़के का नाम ही मुझे भूला गया है, क्योंकि हम उसे चंदूलाल ही कहते
थे। उसका नाम कुछ और ही था। मगर उसको सभी लोग चंदूलाल के नाम से जानते थे। शिक्षक
भी उसको बुलाते, तो कहते, चंदूलाल! वह
नाराज होता था। झुंझलाता था। परेशान होता था।
मगर
अभी मुझे मिला,
तो कहने लगा कि कहा, क्या दिन थे वे! मैंने
कहा, तू तो कम से कम मत कह! तू तो याद कर कि तेरी क्या गति
थी। मैंने कहा, उठा टोपी! तुझे याद दिलाऊं कि फिर तुझे
भूली-बिसरी यादें आएं, तो शायद तुझे कुछ खयाल में पड़ें!
वह
कहने लगा कि यह बात तो ठीक है। अगर लौट कर सोचूं, तो मुझे बहुत सताया गया।
मगर अब वे बातें तो भूल गई। अब तो सब अच्छी-अच्छी बातें याद रहीं।
जब
तुम पीछे लौट कर देखोगे,
तो जो सुखद क्षण थे, वे लंबे मालूम पड़ेंगे,
क्योंकि वे तुमने चुन लिए। और जो दुखद थे, वे
छोटे मालूम पड़ेंगे, क्योंकि वे तुमने चुने नहीं हैं। बस,
उनकी तो हल्की लकीर रह गई मजबूरी में। वह लकीर भी तुम मिटा देना
चाहते हो। इसलिए बूढ़ा आदमी सोचता है--जवानी अच्छी थी। जवान सोचता है--बचपन अच्छा
था। और जो मर गए हैं, वे शायद सोचते होंगे कि बुढ़ापा अच्छा
था--कब्र में लेटे-लेटे--कि अहा, क्या दिन थे!
अमरीका
का एक सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नब्बे साल का हो कर मरा। जब वह नब्बे साल का था, तो अपने
बेटे के साथ बगीचे घूमने गया था। बेटे की उम्र थी पैंसठ साल। यूं बात चल रही थी
दोनों में। एक सुंदर स्त्री पास से गुजरी। स्वभावतः बेटे की नजर उस पर पड़ी,
बाप की भी नजर पड़ी। स्त्री बहुत सुंदर थी, नजर
बचाना मुश्किल था। तो बेटे ने अपने बाप से कहा कि पिताजी, आपका
मन होता होगा कि आप भी जवान होते...! तो बाप ने कहा कि यह तो मन नहीं होता कि जवान
होता। लेकिन इतना कम से कम मन होता है कि कम से कम पैंसठ साल का होता ही! कम से कम
तेरी उम्र का तो होता ही! अब पैंसठ साल भी यूं बुढ़ापा है। मगर जो नब्बे साल का है,
उसके लिए तो पैंसठ साल का होना भी जवानी है।
पीछे
लौट कर देखोगे,
तो समय का रूप बदल जाता है। दुख में समय लंबा मालूम होता है। स्मृति
में दुख का समय छोटा हो जाता है। सुख में समय छोटा मालूम होता है; स्मृति में सुख का क्षण लंबा हो जाता है। और समय के संबंध में आखिरी जो
बात समझने की है, वह यह है कि दुख में और सुख में समय का
इतना अंतर पड़ता है; आनंद में समय की क्या अवस्था होगी?
आनंद में समय मिट ही जाता है।
जब
कोई व्यक्ति ठीक समाधिस्थ अवस्था में होता है, शून्य भाव में होता है, साक्षी भाव में होता है; ज्यूं था त्यूं ठहराया--उस
अवस्था में होता है, तब समय समाप्त हो जाता है। समय होता ही
नहीं। और अगर इस क्षण को तुम लौट कर याद करोगे, तो लगेगा
शाश्वत था! क्योंकि इतना अपूर्व था! इतना गदगद तुम हुए थे कि शाश्वत भी उस विराट
आनंद को अपने में कैसे समाएगा, यह भी भरोसा नहीं आता।
अब्दुल
करीम, इस छोटी-सी उम्र में, पूछते हो, मैं क्या-क्या खुदा करूं? कुछ न करो! बस, एक बात करो--ज्यूं था त्यूं ठहराया। इतना ही करो, और
सब हो जाएगा। इश्के बुतां भी हो जाएगा, यादे खुदा भी हो
जाएगी। मूर्ति में जो अमूर्त छिपा है, वह मिल जाएगा।
फिर
मूर्त से जाना हो,
तो मूर्त से जाओ। अमूर्त में सीधी छलांग लगानी हो, तो सीधी छलांग लगाओ। मगर दिखाई नहीं पड़ता मुझे कि कोई अमूर्त में सीधी
छलांग लगा पाता हो। माना कि मसजिद में कोई बुत नहीं है, कोई
मूर्तियां नहीं हैं। लेकिन काबा का पत्थर क्या है? आखिर
मसजिद क्या है? मसजिद भी वही काम करने लगी, जो मूर्ति करती है! आखिर मसजिद में तुम हाथ धो कर वजू कर के प्रवेश क्यों
करते हो? मसजिद की पवित्रता क्या है? अगर
मसजिद भी एक मकान है, जैसे और मकान हैं, तो मसजिद में नमन क्या करते हो! अगर ईंट-पत्थर-गारा ही है, जैसा सब मकानों में लगा है। नहीं। लेकिन मसजिद की कुछ खूबी है। वही खूबी
मूर्ति हो गई।
माना
कि तुम्हारी मसजिद में मूर्ति नहीं है...बहुत से मंदिर हैं, जिनमें
मूर्ति नहीं होती--ग्रंथ होते हैं। मैं जिस जैन परिवार में पैदा हुआ उसके मंदिर
में मूर्ति नहीं होती, उसके मंदिर में ग्रंथ होता है,
जैसे गुरुद्वारा में ग्रंथ होता है।
तारण
एक फकीर हुए नानक के समय में ही हुए। मेरा परिवार परंपरागत रूप से उन्हीं की
शृंखला में हैं। जैसा नानक ने मूर्ति को हटा दिया और गुरु-ग्रंथ को जगह दे दी; वैसे ही
तारण ने भी किया। वह एक हवा थी उस समय--आज से पांच सौ साल पहले। कबीर, नानक, तारण, रैदास--एक हवा थी
कि क्यों पत्थर की मूर्ति पूजनी?
मगर
कागज की किताब भी तो आखिर पत्थर की मूर्ति ही है। शायद पत्थर की मूर्ति ज्यादा
टिकाऊ है कागज की किताब से--अगर स्थिरता की सोचो। अगर परमात्मा की शाश्वतता की
सोचा, तो पत्थर की मूर्ति शायद उसकी शाश्वतता की खबर देती है। लेकिन अगर विचार
की बात सोचो, तो शास्त्र ज्यादा उपयोगी हो सकता है। मूर्ति
क्या कहेगी? शास्त्र पढ़ा जा सकता है; चिंतन-मनन
किया जा सकता है। तो जिनको चिंतन-मनन प्रिय था, उन्होंने
शास्त्र रख लिया। जिनको भजन-कीर्तन प्रिय था, उन्होंने
मूर्ति रख ली। जो रुचिकर हो।
हिंदू
घर में पैदा होने से कोई हिंदू नहीं; मुसलमान घर में पैदा होने से कोई
मुसलमान नहीं। जन्म से धर्म का कोई संबंध नहीं।
हमने
बहुत संबंध जोड़ रखा है। इस गलत संबंध ने, इस नाजायज संबंध ने हमारी ना मालूम
कितनी मुसीबत कर दी है! हमारी जीवन की बहुत-सी जड़ता इसी नाजायज संबंध के कारण हो
गई है।
अब
यह हो जाता है कि एक व्यक्ति जैन घर में पैदा हुआ, तो उसके मन में अगर मीरा
जैसी भक्ति उठे, तो क्या करें? तड़फेगा।
कृष्ण को कहां पाए! और महावीर के पास तुम नाच नहीं सकते। जंचेगी नहीं बात। महावीर
खड़े हैं बिलकुल नग्न। इनके पास तुम नाचोगे--शोभा नहीं देगा। तालमेल नहीं बैठेगा।
उसके लिए तो कृष्ण ही चाहिए। वही रूप चाहिए। वही शृंगार; वही
मोर-मुकुट; वही परिधान; वही नृत्य की
मुद्रा; वही हाथ में बांसुरी--लगती है यूं कि अब बजी,
तब बजी! वही नाचते हुए कृष्ण की प्रतिमा हो, तो
तुम भी नाच सकोगे--तालमेल होगा।
महावीर
की खड़ी हुई नग्न प्रतिमा के पास क्या नाचोगे? वहां तो सब नृत्य बंद हो गया;
सब थिर हो गया है।
बुद्ध
की प्रतिमा के पास नाचोगे;
जंचेगा नहीं। वहां तो चुप हो जाना। वहां गीत भी नहीं गाना। वहां
मौन-सन्नाटा चाहिए। मगर कोई गा कर भी सन्नाटे में उतरता है। कोई नाच कर भी सन्नाटे
में उतरता है। कोई नाचते-नाचते खो जाता है नाच में। मिट जाता है। गल जाता है। पिघल
जाता है। और उसी पिघलाव में, जब अहंकार नहीं होता--तो ज्यूं
था त्यूं ठहराया!
अब
तुम्हारी मौज।
मेरे
इस मंदिर के द्वार अनेक हैं। कोई नाचता हुआ आए, तो उसके लिए मैंने कृष्ण की मूर्ति
सजा रखी है। और किसी को नाच न जंचता हो, चुप बैठना हो,
तो उसके लिए मैंने बुद्ध की मूर्ति बिठा रखी है। जिसकी जैसी रुचि
हो।
पहले
अपनी रुचि को पहचानो। पहले अपने दिल को पहचानो; अपने दिल को टटोलो--और उसी आधार पर
चलना, वहीं से संकेत लेना, तो यह
दुविधा खड़ी नहीं होगी, तो यह दुई खड़ी नहीं होगी।
ज्यूं
मुख एक देखि दुई दर्पन! दर्पणों में मत देखो। आंख बंद करो और अपने भीतर के रुझान
को पहचानो कि मेरा रुझान क्या है। और कठिनाई नहीं होगी। अगर तुम दूसरों की सुनोगे, तो कठिनाई
में पड़ोगे, क्योंकि दूसरे अपनी सुनाएंगे।
इसलिए
मैं निरंतर अनेक जीवन-दृष्टियों पर बोल रहा हूं। कहीं ऐसा न हो कि कोई जीवन-दृष्टि
तुमसे अपरिचित रह जाए। तुम्हें परिचित करा देता हूं।
और
निरंतर यह घटना घटती है: जब मीरा पर बोला हूं, तो किसी के हृदय की घंटियां बजने
लगीं। और जब बुद्ध पर बोला हूं, तो किसी के हृदय की गूंज
उठी। और मैंने यह पाया है कि जिसको मीरा को सुन कर गूंजा था हृदय, उसको बुद्ध को सुन कर नहीं गूंजा। और जिसको बुद्ध को सुन कर हृदय आंदोलित
हुआ, वह मीरा से अप्रभावित रह गया। जो मीरा को सुन कर रोया
था, आंख आंसुओं से गीली हो गई थीं--वह बुद्ध को सुन कर ऐसा
ही बैठा रहा। कहीं तालमेल न बैठा।
और
जो बुद्ध को सुन कर गदगद हो आया, जिसके भीतर कुछ ठहर गया बुद्ध को
सुनते-सुनते--वह मीरा को सुन कर सोचता रहा था; यह सब
कल्पना-जाल है! यह सब भ्रम है! ये सब मन के ही भाव हैं। कहां कृष्ण? कहां कृष्ण की बांसुरी? कैसा नृत्य? यह मीरा स्त्री थी, भावुक थी, भावनाशील
थी। भजन तो अच्छे गाए हैं! वह उनकी भजन की प्रशंसा कर सकता है--काव्य की दृष्टि से,
संगीत की दृष्टि से, मगर, और उसके भीतर कुछ नहीं होता।
लेकिन
जो मीरा को देख कर डांवांडोल हो गया था, वह बुद्ध को सुनता है, लगता है: हैं--रेगिस्तान जैसे! उसके भीतर कोई फूल नहीं खिलते। उसका दिल
ऐसा नहीं होता कि दौड़ पडूं इस रेगिस्तान में। कि जाऊं और खो जाऊं इस रेगिस्तान
में। न कोई कोयल बोलती है। न कोई पक्षी चहचहाते हैं। कुछ भी नहीं। सन्नाटा है।
यहां
मैं सारे द्वार तुम्हारे लिए खोल रहा हूं। इस तरह की बात कभी पृथ्वी पर नहीं की
गई। इसलिए मैं इसे भगीरथ-प्रयास कह रहा हूं। यह पहली बार हो रहा है। महावीर ने
अपनी बात कही। मैं भी अपनी बात कह कर चुप हो सकता हूं। मगर मेरी बात कुछ लोगों के
काम की होगी,
थोड़े से लोगों के काम की होगी।
मीरा
ने अपनी बात कही। बुद्ध ने अपनी बात कही। कृष्ण ने अपनी बात कही। अब समय आ गया कि
कोई इन सबकी बात को पुनरुज्जीवित कर दे। इसलिए तुम्हें मेरी बातों में बहुत से
विरोधाभास मिलेंगे। मिलने वाले हैं। क्योंकि जब मैं मीरा पर बोलता हूं, तो मीरा
के साथ एकरूप हो जाता हूं। फिर मैं भूल ही जाता हूं--बुद्ध को, महावीर को। फिर मुझे कुछ लेना-देना नहीं। और अगर किसी ने बुद्ध-महावीर की
बात छेड़ी, तो मैं मीरा के सामने उन्हें टिकने नहीं दूंगा! जब
मीरा मैं हूं, तो उस समय मीरा मैं हूं।
और
जब मैं बुद्ध के संबंध में बोल रहा हूं; किसी ने कहा कि अब मेरी आंखों में
आंसू नहीं आ रहे--तो मैं उसे झकझोरूंगा। तो मैं कहूंगा कि तुम्हें रोना हो,
तो कहीं और जा कर रोओ। रोने की जरूरत क्या है! मीरा के समय जरूर
कहूंगा कि रोओ, जी भर कर रोओ। गीले हो जाओ। इतने गीले कि
बिलकुल भीग ही जाओ। तरोबोर हो जाओ।
तो
मेरी बातों में तुम्हें विरोधाभास मिलेंगे, क्योंकि मैं सारे द्वार खोल रहा
हूं। वे अलग-अलग द्वार हैं। उनकी कुंजियां अलग; उनके ताले
अलग; उनकी स्थापत्य कला अलग; उनका
रंग-ढंग अलग। मगर ये सब द्वार एक ही जगह ले जा रहे हैं। ज्यूं था त्यूं ठहराया!
अब्दुल
करीम! मत पूछो:
इश्के
बुतां करूं कि मैं यादे खुदा करूं
इस
छोटी-सी उम्र में,
मैं क्या-क्या खुदा करूं
बस, इतना-सा
कर लो। यह छोटी उम्र नहीं है, बहुत है। हिसाब से दी गई है।
इससे ज्यादा तुम शायद झेल भी न पाओ। इससे ज्यादा शायद झेलना मुश्किल हो जाए।
पश्चिम
में उम्र बढ़ गई है;
सौ साल के पार जा चुकी है। आज रूस में बहुत से लोग हैं, जिनकी उम्र एक सौ पचास के करीब पहुंच गई। सब से बड़ी उम्र का आदमी एक सौ
चौरासी वर्ष का है, और अभी भी काम कर रहा है।
अमरीका
में, स्वीडन में, स्विटजरलैंड में उम्र का मापदंड बहुत
ऊपर पहुंच गया है। और तब वहां एक नई चर्चा शुरू हुई--अथनासिया की, मृत्यु की, स्वतंत्रता की। क्योंकि बूढ़े यह कह रहे
हैं कि हमारा यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि जब हम मरना चाहें, हमें
मरने दिया जा!
हमें
हैरानी होती है सुन कर--अथनासिया की बात। मृत्यु का जन्मसिद्ध अधिकार--यह भी कोई
बात है! किसी ने सुनी?
किसी विधान में दुनिया के अभी तक नहीं रही। लेकिन अब लानी पड़ेगी,
क्योंकि आंदोलन गति पकड़ रहा है। लानी पड़ेगी।
जो
आदमी सौ साल के ऊपर हो गया,
जी चुका काफी, वह कहता है कि अब मुझे जी कर
क्या करना है? जो देखना था, देख लिया।
जो भोगना था, भोग लिया। अब मुझे क्यों सड़ाते हो? और अभी मुश्किल यह है कि कानूनी उसको मरने का हक नहीं है। यदि करने की
कोशिश करे, तो सजा खाएगा, जेल जाएगा।
आत्महत्या का प्रयास समझा जाएगा। पाप है। अपराध है।
अभी
अस्पतालों में यूरोप और अमरीका के ऐसे बहुत से लोग पड़े हैं, जिनकी
हालत जीवित नहीं कही जा सकती। लेकिन बस, सांस ले रहे हैं।
सांस भी ले रहे हैं, वह भी कृत्रिम, यंत्र
के द्वारा सांस ले रहे हैं। डाक्टरों के सामने सवाल है--करीब-करीब दुनिया के सभी
प्रतिष्ठित डाक्टरों के सामने यह चिंता है कि करना क्या? क्या
हम उनको आक्सीजन देना बंद कर दें? बंद करते ही वे मर जाएंगे।
तो पुरानी अब तक की धारणा कहती है कि आक्सीजन तुमने अगर बंद की, तो तुम उनकी हत्या के जिम्मेदार हुए। तुमने इस आदमी को मार डाला। और इस
आदमी को जिला कर क्या करना है? क्योंकि वह पड़ा है--साग-सब्जी
की भांति--गोभी-गाजर! गोभी-गाजर भी नहीं, क्योंकि गोभी-गाजर
किसी काम आ जाए; वह किसी काम का नहीं। और दस-पांच आदमियों को
उलझाए हुए है। एक नर्स लगी हुई है। एक डाक्टर लगा हुआ है। और चौबीस घंटे उसकी
फिक्र करनी पड़ रही है। यह इंजेक्शन दो, वह इंजेक्शन दो! टांग
ऊपर बंधी हुई हैं; वजन लटकाए गए हैं। न उसे होश है। वह कोमा
में पड़ा है।
एक
महिला को मैं देखने गया। वह नौ महीने से कोमा में है। अब सवाल उठता है कि इसको कब
तक जिलाए रखना?
क्यों--क्या प्रयोजन है? मगर कौन मारने का
हकदार है! क्या डाक्टर आक्सीजन देना बंद कर दे। तो डाक्टर के हृदय में भीतर कचोट
होगी, क्योंकि उसका भी शिक्षण तो हुआ है पुराने आधारों पर।
वह भी सो नहीं पाएगा रात में, कि यह मैंने क्या किया! मैंने
उस आदमी को मार डाला! पता नहीं: वह ठीक हो जाता, फिर। या हो
सकता है, वह अभी और जीना चाहता हो। उसकी आकांक्षा के विपरीत
जाने वाला मैं कौन हूं! और उसको जिलाए रखूं...! और हो सकता है, वह मरना चाहता हो। क्योंकि क्या करेगा जीकर--ऐसी अवस्था में?
सत्तर
साल मेरे हिसाब से ठीक प्राकृतिक उम्र है। सत्तर से ज्यादा आदमी बोझपूर्ण मालूम
होने लगेगा। खुद को भी बोझ लगने लगेगा, औरों को भी बोझ लगने लगेगा। और अगर
सत्तर साल जिंदगी में कुछ न कर पाए, तो अब और क्या करोगे?
अब विदा होने का क्षण आ गया।
सत्तर
साल से ज्यादा अगर चिकित्साशास्त्र ने लोगों को जिलाने की कोशिश की, तो उसका
अंतिम परिणाम यह होगा कि सभी समृद्ध देशों के विधानों में इस बात को जोड़ना ही
होगा--जहां और जन्मसिद्ध अधिकार हैं, वहां एक जन्मसिद्ध
अधिकार और जोड़ना होगा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मृत्यु का वरण करने का अधिकार
है। तुम उसे जबर्दस्ती जिला नहीं सकते। वह अगर मरना चाहता है, तो तुम्हें उसे मरने की सुविधा देनी होगी। तुम कौन हो, जो उसे जबर्दस्ती ?
अब्दुल
करीम! यह उम्र छोटी नहीं है। यह उम्र ठीक उतनी है, जितनी चाहिए। प्रकृति ने
उतना दिया है, जितना चाहिए--न ज्यादा, न
कम। लेकिन इस उम्र का अगर तुम आनंद के लिए उपयोग कर लो, तो
यह शाश्वत है, बहुत है--जरूरत से बहुत ज्यादा है। क्योंकि एक
क्षण भी आनंद का अगर मिल जाए, तो बस, तुमने
चख ली बूंद अमृत की; तुम अमर हुए। फिर यह देह जाएगी, यह मन जाएगा, मगर तुम जहां हो--वहीं हो।
श्री
रमण के मृत्यु के समय जब उनसे पूछा गया कि भगवान, आप विदा हो रहे हैं। आप
कहां जाएंगे? उन्होंने कहा, पागल हुए
हो! कहां जाऊंगा? जहां हूं--वहीं रहूंगा। जैसा हूं--वहीं
रहूंगा। यहीं के यहीं रहूंगा। ज्यूं था त्यूं ठहराया!
जो
अपने साक्षी भाव में बैठ गया, उसको न अब कहीं आना है, न
कहीं जाना है। वह शाश्वत का अंग हो गया; वह अनंत का
हिस्सेदार हो गया; वह परमात्मा का रूप हो गया; वह परमात्मामय हो गया। इसलिए तो हमने बुद्ध को भगवान कहा। महावीर को भगवान
कहा। कहने का कारण था। भगवत्ता को उपलब्ध हो गए।
भगवत्ता
का अर्थ है: जिसने भी जान लिया कि मैं जन्म के पहले था और मृत्यु के बाद भी रहूंगा; जिसने
अपने स्वरूप को पहचान लिया। इतना ही करो। फिर किस बहाने करते हो, यह तुम्हारी मर्जी।
इश्के
बुतां--मूर्तियों से प्रेम हो--चलेगा। तो कोई प्यारी मूर्ति चुन लो। और अगर शून्य
तक सीधी छलांग लगाने का साहस हो, तो कोई जरूरत नहीं मूर्ति चुनने की।
मूर्ति
चुनो, तो प्रार्थना तुम्हारा पथ होगा। और अगर अमूर्ति चुनो, तो ध्यान तुम्हारा पथ होगा। मगर ये पथ हैं। और ये सारे पथ एक ही शिखर पर
पहुंच जाते हैं।
मैंने
सारे पंथों को छानबीन कर देखा है, ये सब एक ही शिखर पर पहुंच जाते हैं। कोई कुरान
गुनगुनाता आता है। कोई गीता गुनगुनाता आता है। कोई कृष्ण को भजता आता है। कोई
शांत-साक्षीभाव में आता है। मगर सब को आ जाना है अपने उस बिंदु पर, जो शाश्वत है, जो अमृत है।
आज इतना ही।
पहला प्रवचन; दिनांक ११ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
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