ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
ध्यान विधि है मूर्च्छा को तोड़ने की-(प्रवचन-दसवां)
दसवां प्रवचन; दिनांक ३० सितंबर, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान,
क्या आप इस सूत्र पर कुछ कहना पसंद करेंगे?--
नास्ति कामसमो व्याधि नास्ति मोह समो रिपु:।
नास्ति क्रोध समो वहिनास्ति ज्ञानात् परं सुखम्।।
काम के समान कोई व्याधि नहीं है, मोह के समान कोई शत्रु नहीं है, क्रोध के तुल्य कोई
अग्नि नहीं है और ज्ञान के उत्कृष्ट कोई सुख नहीं है।
चैतन्य कीर्ति
यह उन थोड़े से सूत्रों में से एक है जिनकी सदा ही गलत व्याख्या होती
रही है। अमृत भी जहर हो जाता है गलत हाथों में। सही हाथों में जहर भी औषधि हो जाता
है। सवाल गलत और सही का कम, सवाल उन हाथों का होता है जिनमें सूत्र पड़ जाते हैं।
सही हाथों में तलवार जीवन का रक्षण है और गलत हाथों में निश्चित ही हिंसा बनेगी।
सूत्र तो संकेत है। उन में विस्तार नहीं है, इसलिए उन्हीं सूत्र कहते हैं। निचोड़ हैं। बहुत थोड़े में कहा है। और जब कोई
चीज बहुत-थोड़े में कही जाती है तो एक खतरा है। समझने के लिए काफी अवकाश होता है।
और तुम समझोगे अपनी समझ से।
इस सूत्र पर अज्ञानियों ने जो व्याख्या की है उससे भयंकर अहित हुआ है।
तो पहले तो उनकी व्याख्या ख्याल में ले लें, ताकि इसकी सम्यक
व्याख्या की तरफ तुम्हारी आंखें उठ सकें। जिन्होंने स्वयं नहीं जाना है, जिनका ज्ञान उधार है, बासा है, जिनके भीतर स्वयं के ध्यान का दीया नहीं जला है--उनसे इससे ज्यादा अपेक्षा
भी नहीं हो सकती। वे भूल करने को आबद्ध हैं। उन्होंने इस सूत्र की यूं व्याख्या की
है: "नास्ति कामसमो व्याधि'...। काम का अर्थ उनके लिए
रह गया: यौन। क्योंकि उनके जीवन में यौन से ज्यादा और कोई सूझ-बूझ नहीं है।
"काम' बहुत बड़ा शब्द है।
व्यापक उसके अर्थ हैं। उसे यौन पर ही आबद्ध कर देना भ्रांत है। फिर उसके
दुष्परिणाम होंगे। दुष्परिणाम यह होंगे कि जब काम सिर्फ यौन बन जाए, आकाश को जैसे कोई आंगन बना दे। और काम है व्याधि, तो
उपाय हो जाता है दमन, दबाओ, मिटाओ,
नष्ट करो। दुश्मन को तो मिटाना ही होगा। व्याधि को तो जड़मूल से उखाड़
फेंकना होगा। और इसका परिणाम यह हुआ कि करीब-करीब सारी मनुष्यता उसी व्याधि में और
भी गहरी डूब गयी। दमन से कोई मुक्ति तो होती नहीं। दमन मुक्ति का उपाय नहीं है।
रूपांतरण से मुक्ति होती है। जैसे कोई बीमारी को दबा ले, तो
बीमारी और भीतर चली जाएगी, और अचेतन में उतर जाएगी। पहले
परिधि पर थी, अब केंद्र पर पहुंच जाएगी। पहले देह में थी,
अब मन में पहुंच जाएगी। मन से आत्मा तक उसकी मवाद उतर जाएगी।
इसलिए तथाकथित धार्मिक व्यक्तियों का जीवन मवाद से भरा हुआ जीवन है।
वे घाव हैं--सड़ते हुए घाव! हां, ऊपर से उन्होंने राम नाम की
चदरिया ओढ़ रखी है, भीतर सिवाय बदबू के और कुछ भी नहीं है।
पाखंड, गहन पाखंड! कहेंगे कुछ, करेंगे
कुछ। करेंगे कुछ, बताएंगे कुछ। उन्होंने मुखौटे पर मुखौटे
लगा रखे हैं।
इस सूत्र की गलत व्याख्या बहुत बड़ा कारण है पाखंड का।
काम का अर्थ होता है: और और की मांग। काम का अर्थ सिर्फ यौन नहीं
होता। वह केवल एक शाखा है काम के बड़े वटवृक्ष की। धन भी काम है। और इसलिए तुम जरा
गौर से देखना। कृपण आदमी धन को ऐस देखता है जैसे कामी स्त्री को देखता हो, सुंदर देह को देखता हो। धन का दीवाना नोटों को ऐसे छूता है, जैसे उसने अपनी प्रेयसी के तन को छुआ हो। पद भी काम है। पदाकांक्षी उतना
ही कामग्रस्त है जितना कि कोई और कामी। और तब एक बात और तुम्हें समझ में आ जाएगी:
जो पद के लिए दीवाना है वह चाहे तो कामवासना से, जिसको तुम
साधारणतः कामवासना समझते हो, यौन, उससे
मुक्त हो सकता है, बड़ी आसानी से। क्योंकि उसकी सारी ऊर्जा पद
की दौड़ में लग जाती है। जो धन के पीछे दौड़ रहा है वह भी अपनी सारी ऊर्जा को धन के
लिए नियोजित कर सकता है। उसकी सारी ऊर्जा लोभ बन जाती है, लिप्सा
बन जाती है। ऐसा व्यक्ति बड़ी आसानी से काम को दबा ले सकता है। इसमें कोई अड़चन नहीं
है। क्योंकि उसने काम को एक नया ढंग दे दिया, एक नयी यात्रा
पकड़ा दी, एक नया मुखौटा उढ़ा दिया।
राजनीतिज्ञ बहुत चिंतित नहीं होते यौन से। कोई जरूरत नहीं है। उल्टे
राजनीतिज्ञ ब्रह्मचर्य की बातें करना शुरू कर सकते हैं। और तुम्हें उनकी बातें
जंचेंगी भी, क्योंकि उनके जीवन में ब्रह्मचर्य से मिलती-जुलती चीज
तुम्हें दिखाई पड़ने लगेगी। जैसे मोरारजी देसाई। पद के पीछे दीवाने हैं, पागल हैं। पचासी वर्ष की उम्र में भी पागल हैं। सारी कामवासना ने एक दिशा
ले ली है। अब इसमें और शाखाएं पैदा होने का उपाय ही न रहा। यह कोई ब्रह्मचर्य नहीं है।
सैनिकों को हम उनके सामान्य स्वाभाविक यौन से अवरुद्ध करवा देते
हैं--सिर्फ इसीलिए, क्योंकि अगर सैनिक सामान्य यौन का जीवन जीए तो उसकी
लड़ने में कोई उत्सुकता नहीं होती। उसकी ऊर्जा तो यौन में ही प्रवाहित हो जाती है।
तो सैनिकों को हम उनकी पत्नियों से दूर रखते हैं। सैनिकों को हम सब तरह से रुकावट
डालते हैं कि उनकी कामऊर्जा किसी तरह से प्रवाहित न हो, कोई
और आयाम न ले, ताकि वे उबलने लगें। और उस उबलने में ही हम
उनको लड़ा सकते हैं। तब वे दीवाने की तरह एक-दूसरे की हत्या करते हैं४ कामवासना
हिंसा बन जाती है।
जो स्वर्ग के लिए लालायित हैं वे भी ब्रह्मचर्य साध सकते हैं--बड़ी
आसानी से, क्योंकि उनकी सारी आकांक्षा एक ही दिशा में प्रवाहमान
हो गयी है--स्वर्ग, मोक्ष। अब कहीं और दूसरी शाखाओं के
निकलने के लिए उपाय न रहा।
तुम अगर बगीचे से प्रेम करते हो तो तुम्हें एक बात पता होगी। अगर
तुमने फूलों की प्रतियोगिता में भाग लिया है
तो तुम्हें यह बात पता होगी कि माली को अगर फूलों की प्रतियोगिता में भाग
लेना होता है तो गुलाब के पौधे पर वह बहुत सारे फूल नहीं खिलने देता। वह कलियों को
काट देता है। एक ही फूल को खिलने देता है। स्वभावतः जब सारी कलियां तोड़ दी जाती
हैं तो जितनी भी उस गुलाब की क्षमता है फूलों को पैदा करने की, वह एक ही फूल में प्रवाहित होती है। वह फूल बहुत बड़ा हो जाता है।
प्रतियोगिता में यह माली जीत जाएगा। हालांकि गुलाब को इसने बड़ा दीन हीन कर दिया;
जिस पर बहुत फूल खिलते उन सबकी ऊर्जा को इसने एक ही बहाव दे दिया।
फूल तो बड़ा हो गया, मगर बहुत फूलों की जगह बस एक ही फूल रह
गया। यही आदमी के साथ किया जाता रहा है।
किसी भी तरह की वासना काम है। यह इसकी सम्यक व्याख्या होगी। काम का
अर्थ है कामना। यौन भी एक कामना है, धन भी, पद भी, प्रतिष्ठा भी, स्वर्ग
भी, मोक्ष भी, परमात्मा भी। तुम जब भी
कुछ पाना चाहते हो तब यह सब काम है। यह इसकी सम्यक व्याख्या होगी। और यह तुम्हें
समझ में आ जाए तो जीवन में क्रांति हो जाए। "नास्ति कामसमो व्याधि'। तब तुम इस सूत्र का सम्यक अर्थ खोल पाओगे। तब इसमें छिपा राज तुम्हारे
हाथ लग जाएगा। जिसके जीवन में कामना है, वह व्याधिग्रस्त है।
जो और कुछ की आकांक्षा कर रहा है, जो उससे तृप्त नहीं है
जहां है और जैसा है, वैसा व्यक्ति रुग्ण है, व्याधिग्रस्त है।
स्वस्थ कौन है? स्वस्थ वह है जो अभी और यहीं है, जैसा है वैसा ही, आह्लादित है। अगर इस क्षण मौत आ
जाए तो वह यह भी न कहेगा कि घड़ी भर ठहर जा; मेरा कोई काम
अधूरा रह गया है।
उसका कोई काम कभी अधूरा नहीं है। वह जो कर रहा है इतनी समग्रता और
परिपूर्णता से कर रहा है, इतने आह्लाद से, उत्सव से,
उसके लिए साधन और साध्य का भेद नहीं है। स्वस्थ व्यक्ति वह है जिसके
लिए साधन ही साध्य है;जिसके लिए साधन और साध्य में कोई भेद
नहीं है; जिसके लिए कोई और साध्य नहीं है, बस साधन ही साध्य है; जिसके लिए मंजिल और मार्ग में
कोई अंतर नहीं है। मंजिल मार्ग है। मार्ग का प्रत्येक कदम मंजिल है। वह हर कदम पर
मंजिल पर है। रास्ता अभी टूटता हो, अभी टूट जाये। कल की उसे
कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि आज काफी है।
जीसस अपने शिष्यों के साथ एक खेत से गुजर रहें हैं। खेत के किनारे पर
लिली के फूल खिलें हैं--सफेद फूल। जेरुसलम के आसपास लिली के फूल बहुत खिलते हैं।
मौसम अनुकूल है। भूमि अनुकूल है लिली के फूलों के लिए। और इतने खिलते हैं कि उनकी
कोई फिक्र भी नहीं करता। कीमत तो उसकी होती है, जो न्यून हो। जब
चारों तरफ लिली के फूल खिलते हैं तो कौन फिक्र करता है! लिली के फूल गरीब फूल हैं।
सर्वहारा। जब चाहो तब, जहां चाहो वहां उपलब्ध हो जाते हैं।
लेकिन जीसस ठिठक गए और उन्होंने अपने शिष्यों से कहा: "देखते हो लिली के
फूलों को! देखते हो इन गरीब फूलों को! मैं तुमसे कहता हूं कि सम्राट सोलोमन
भी ।'
यहूदियों में सम्राट सोलोमन सबसे बड़ा सम्राट है। उसकी यश गाथा का अंत
नहीं है। उसके धन उसके साम्राज्य की कोई सीमा नहीं है। अकूत उसके पास धन था। और
सुंदरतम वह व्यक्ति था। दुनिया की श्रेष्ठतम स्त्रियों ने उससे निवेदन किया था
विवाह का। दूर-दूर से राजकुमारियां उसके चरणों में आ गिर पड़ती थीं। तो यहूदियों
में सोलोमन की बड़ी कहानियां हैं। सुंदर था, धनी था और बड़ा
बुद्धिमान भी-- जो कि बड़ी ही मुश्किल घटना है एक साथ सब होना--ऐसा धन ऐसा सौंदर्य,
ऐसी प्रतिभा। जो यहूदी नहीं हैं वे भी, जिन्हें
सोलोमन के संबंध में कुछ पता नहीं हैं वे भी इस कहावत से परिचित हैं। इस देश में
भी यह कहावत है कि बड़े सुलेमान बने बैठे हो! सुलेमान सोलोमन का हिंदी रूप है,
कि क्या समझा है तुमने अपने को, सुलेमान समझा
है? शायद उसको पता भी नहीं जो आदमी यह कह रहा है कि वह क्या
कह रहा है? सुलेमान यानि कौन? मगर
सुलेमान बुद्धिमत्ता का, सौंदर्य का, समृद्धि
का प्रतीक हो गया है। वह सोलोमन का ही रूप है...तो जीसस ने अपने शिष्यों को कहा कि मैं तुमसे कहता हूं कि
सोलोमन भी अपनी सारी-सज्जा के साथ, अपने परम सौंदर्य में
इतना सुंदर नहीं था--जितने ये लिली के दरिद्र फूल। और तुम जानते हो कि इनके
सौंदर्य का राज क्या है? इनके सौंदर्य का राज है कि ये अभी
और यहीं जीते हैं। इनको कल की कोई चिंता नहीं। इन्हें कल का कोई पता नहीं।
और जीसस ने कहा: यही मैं तुमसे कहता हूं। अभी जीयो और यहीं! तुम भी
ऐसे ही सुंदर हो जाओगे। तुम्हारे जीवन में भी ऐसी सुगंध होगी। तुम भी इन्हीं फूलों
जैसे खिल जाओगे। तुम्हारा जीवन भी एक उत्सव बन जाएगा, एक नृत्य,एक गीत।'
काम का अर्थ है: और की दौड़। निष्काम का अर्थ है: अदौड़। ज्यूं का त्यूं
ठहराया! जन रज्जब ऐसी विधि जाने ज्यूं का त्यूं ठहराया। रज्जब ठीक कह रहे हैं कि
मुझे उस विधि का पता है, जिससे चीजें ठहर जाती हैं, जैसी
हैं वैसी ठहर जाती हैं। दौड़ बंद हो जाती है। दौड़ है काम। दौड़ है व्याधि।
और तुम सब दौड़े हुए हो, भागे हुए हो। तुम
जहां हो वहां कभी नहीं हो, हमेशा कहीं और। जितना है उतना
पर्याप्त नहीं, कुछ और चाहिए, और
चाहिए! और यह "चाहिए' का अंत नहीं आता, आ नहीं सकता। यह दौड़ ऐसी है जैसे कोई क्षितिज को छूने के लिए दौड़े। ऐसे तो
दिखाई पड़ता है पास ही, कि यही कोई दस-पांच मील की दूरी आकाश
जमीन को छू रहा है; दौडूंगा तो बहुत से बहुत घंटा दो घंटा
पहुंच जाऊंगा। लेकिन तुम कितना ही दौड़ो, लाख दौड़ो, सारी जमीन का चक्कर लगा आओ तो भी तुम क्षितिज तक नहीं पहुंच पाओगे।
क्षितिज और तुम्हारे बीच की दूरी हमेशा उतनी ही रहेगी जितनी जब तुमने दौड़ शुरू की
थी तब थी। दौड़ अंत होगी तब भी दूरी उतनी ही रहेगी। क्षितिज और तुम्हारे बीच की
दूरी मिटती ही नहीं, क्योंकि क्षितिज है ही नहीं, दूरी मिटे तो कैसे मिटे?
काम का अर्थ है: तुम्हारे सामने हमेशा एक भ्रामक क्षितिज है, जिसको पाने के लिए तुम दौड़ रहे हो। मगर तुम आगे बढ़ते हो, क्षितिज भी आगे बढ़ जाता है। तुम्हारे पास इतना है अभी, दुगना हो जाए, अगर यह तुम्हारा क्षितिज है कि दुगना
हो जाए, तो जब दुगना होगा तब भी यही क्षितिज तुम्हारे भीतर
रहेगा कि अब फिर दुगना हो जाए। वह भी संभव है हो जाए, मगर
बात वही की वही रहेगी, परेशानी वही की वही रहेगी--फिर दुगना
हो जाए। यह दुगना होता चला जाए, यह तुम्हारा गणित कभी छूटेगा
नहीं। और जितने तुम सफल होते जाओगे उतना ही यह गणित तुम्हें जोर से पकड़ेगा,
क्योंकि लगेगा दुगना हो सकता है; हो गया है,,
तो और कर लो।
अगर हारे तो दुखी, अगर जीते तो दुखी। इस संसार की
बड़ी अजीब कथा है, बड़ी अजीब व्यथा है। यहां हारने वाले तो
हारते हैं, यहां जीतने वाले भी हार जाते हैं। यहां असफल तो
असफल होते ही हैं; सफल जो हैं वे भी असफल हो जाते हैं। यहां
हर हालत में दुख हाथ लगता है। हारे तो दुख हाथ, विषाद कि हार
गया, टूट गया, खंडहर हो गया। जीतो तो
विषाद। महल मिल जाता है तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि
दुगने बड़े महल की योजना बन जाती है। तुम हमेशा ही दीन रहोगे।
व्याधि का अर्थ है: तुम हमेशा ही दीन और रुग्न रहोगे। तो इसका संबंध
सिर्फ यौन से नहीं हो सकता। यौन इसका एक अंग मात्र है, एक पहलू। और इसके अनंत पहलू हैं। यौन का मतलब होगा: इस स्त्री से तृप्ति
नहीं मिलती, उस स्त्री से मिलेगी। उससे भी नहीं मिलेगी तो और
किसी से मिलेगी। दौड़े जाओ, दौड़े जाओ। भागे जाओ। तृप्ति कभी
नहीं मिलेगी, न किसी स्त्री से मिलेगी, न किसी पुरुष से मिली है। ऐसे तृप्ति मिलती ही नहीं। यह तो अतृप्ति की आग
है, जिसमें तुम ईंधन डाल रहे हो। फिर इससे क्या फर्क पड़ता है
कि इस मकान में तृप्ति मिलेगी या उस मकान में तृप्ति मिलेगी, इतने धन से मिलेगी या उतने धन से मिलेगी, इस पद से
मिलेगी या उस पद से मिलेगी। ये सब उसी वृक्ष की शाखाएं हैं।
काम को यौन ही मत समझो। नहीं तो लोग बस यौन से ही लड़ते रह जाते हैं।
और जीवन, अगर यौन से तुम लड़े, तो उसका
परिणाम यह होने वाला है कि यौन का द्वार तो बंद हो जाएगा। लड़ोगे तो द्वार बंद कर
सकते हो, मगर यौन की ऊर्जा नये द्वार खोज लेगी। जैसे कोई
झरने को पत्थर से अटका दे तो झरना पास से बह कर निकलेगा। वहां से रोक दे तो कहीं
और से निकलेगा। लेकिन झरना है तो झरना बहेगा। खंड-खंड हो जाएगा, लेकिन कहीं न कहीं से बहेगा, रिसेगा।
काम व्याधि है, क्योंकि और की दौड़ कभी स्वस्थ नहीं होने देती,
अपने में नहीं ठहरने देती, अपने में नहीं
रुकने देती। और वहां है आनंद। रुकने में है आनंद, दौड़ने में
है दुख। फिर तुम किसलिए दौड़ते हो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।
काम है मूर्च्छा, क्योंकि जो मूर्च्छित है वही दौड़ सकता है।
जो होश में आ गया वह दौड़ने वालों पर हंसेगा क्योंकि जो मूर्च्छित है वही दौड़ सकता
है। जो होश में आ गया वह दौड़ने वालों पर हंसेगा क्योंकि वे सब स्वर्ण-मृग की तलाश
में चले हैं। और मजा यह है कि जाते हो स्वर्णमृग की तलाश में और अपनी सीता को गंवा
बैठते हो। जो अपनी थी वह खो जाती है--उसको पाने के लिए जो कि जरा भी बुद्धि होती,
जरा भी विचार होता, जरा भी होश होता, तो तुम पहले से ही समझ लेते कि स्वर्ण-मृग कहीं होते हैं!
सभी का जीवन बस रामायण की कथा है। राम चले स्वर्ण-मृग की तलाश में और
सीता को गंवा बैठे। जो अपनी थी उसे खो बैठे और जो अपना कभी हो नहीं सकता, उसकी तलाश में निकल गए। यह मूर्च्छा का सबूत है। यह बेहोशी का सबूत है।
काम का अर्थ है: मूर्च्छा। और जब तक मूर्च्छित है, मनुष्य नहीं है। तब तक पशु है। और पशु को तो माफ किया जा सकता है, क्योंकि उसकी बेचारे की क्षमता नहीं है जागरण की। लेकिन मनुष्य को कभी माफ
नहीं किया जा सकता; उसकी क्षमता है जागरण की। और क्षमता हो
और उपयोग न करो तो तुम्हारे अतिरिक्त और कौन जिम्मेवार होगा? इसलिए कोई पशु पापी नहीं होता। तुम किसी पशु को पानी नहीं कह सकते। मनुष्य
ही को पापी कह सकते हो।
और पाप क्या है? तुम्हें जो अवसर मिला है उसका
उपयोग न करना पाप है। और पुण्य क्या है? तुम्हें जो अवसर
मिला है उसका समुचित उपयोग कर लेना पुण्य है। जीवन की क्षमता है: मनुष्य के भीतर आ
कर जागरण का दीया जल सकता है।
काम है मूर्च्छा। इस मूर्च्छा को तोड़ना है। यह मूर्च्छा ध्यान के बिना
नहीं टूटती। ध्यान विधि है मूर्च्छा को तोड़ने की। काम है पशुत्व, वासना, और-और की दौड़। और ध्यान है ठहरना, रुकना, और से मुक्त हो जाना। जैसे हैं, जहां हैं, परितुष्ट। जो है उससे आनंदित, अनुगृहित। जो है वही बहुत है। जो है उसकी भी हमारी पात्रता नहीं है। जो
मिला है उसके लिए भी धन्यवाद हमारे भीतर नहीं उठता।
और मजा यह है कि जो है, अगर तुम्हारे लिए
अनुग्रह का कारण बन जाए तो और-और वर्षा होगी तुम्हारे ऊपर, अमृत
और झरेगा। वह सिर्फ अनुगृहित लोगों पर ही झरता है। लेकिन तुम्हारे हृदय में तो
शिकायतें हैं, शिकवे हैं, गिला है। न
मालूम कितने-कितने कांटे तुम अपने हाथ से बोए चले जाते हो! शिकायतों के कांटे।
तुम्हारी प्रार्थनाएं भी तुम्हारी शिकायतें हैं। तुम परमात्मा से यही कहने जाते हो
हमेशा कि ऐसा क्यों नहीं हुआ, ऐसा होना चाहिए था। तुम कभी यह
भी कहने गए हो कि धन्यवाद तेरा, जैसा होना चाहिए था वैसा ही
हो रहा है? जिस दिन तुम दुख के क्षण में भी कह सकोगे कि जैसा
होना चाहिए वैसा ही हो रहा है, दुर्घटना में भी कह सकोगे कि
जैसा हो रहा है वैसा ही होना चाहिए था, जिस दिन तुम्हारा
अनुग्रह का भाव बेशर्त होगा--उस दिन तुम जानोगे प्रार्थना क्या है।
मगर यह बिना जागरण के तो नहीं हो सकता। जहां और-और की दौड़ लगी है वहां
तो शिकायत होगी ही। वहां यह भी शिकायत नहीं होती कि मुझे क्यों कम मिला है?
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, "हम ईमानदार हैं,
नैतिक हैं, सदाचरण से रहते हैं, और फिर भी बेईमान और बदमाश और लुच्चे और लफंगे धन कमा रहे हैं, पद पर पहुंच रहे हैं, प्रतिष्ठित हो रहे हैं और हमें
कुछ भी नहीं मिल रहा है।' न तो ये नैतिक हैं, न ये ईमानदार हैं, न ये सदाचरण को उपलब्ध हैं।
क्योंकि जो नैतिक है उसको तो नैतिक होने में ही ऐसा परम सौभाग्य मिल गया कि क्या
वह कोई पद चाहेगा? और जो ईमानदार है, उसको
तो ईमानदार होने में ही रस स्रोत उपलब्ध हो गए कि क्या अब धन के पीछे दौड़ेगा?
और जो सच में ही धार्मिक है, क्या अधार्मिकों
से उसकी प्रतिस्पर्धा हो सकती है? वह दया करेगा कि ये बेचारे
धन में ही मरे जा रहे हैं, ये पद में ही सड़े जा रहे हैं। उसे
दया आएगी, करुणा आएगी। मगर इन्हेंर् ईष्या आ रही है।र् ईष्या
सिर्फ एक बात की सूचना है कि ये भी उसी तरह के लोग हैं। शायद बेईमानी करने की
हिम्मत नहीं है, इसलिए ईमानदार हैं। मगर बेईमान को जो मिल
रहा है वही ये भी चाहते हैं। ये दोहरे बेईमान हैं। ये ईमानदारी से भी जो लाभ मिलना
चाहिए परलोक में, वह भी लेना चाहते हैं और बेईमानी से जो लाभ
यहां मिलता है, वह भी ईमानदारी से ले लेना चाहते हैं। ये
दोनों दुनिया संभाल लेना चाहते हैं। ये दोनों लोक संभाल लेना चाहते हैं--यहां भी
जीत गए, वहां भी जीत जाएं। ये बहुत चालबाज लोग हैं। न इन्हें
नीति का पता है, न इन्हें धर्म का पता है। जाग्रत हुए बिना
पता चल भी नहीं सकता।
"नास्ति कामसमो व्याधि'--मैं
स्वीकार करता हूं, यह सूत्र बहुमूल्य है। मगर इसका अर्थ मेरे
ढंग से समझना होगा। निश्चित ही और की दौड़ से बड़ी इस दुनिया में कोई बीमारी नहीं
है। क्योंकि सब बीमारियों का दूसरे इलाज कर सकते हैं, इस
बीमारी का इलाज सिर्फ तुम्हीं कर सकते हो, कोई दूसरा नहीं कर
सकता। यहां बीमार और वैद्य एक ही व्यक्ति को होना है। यहां बीमार को ही अपनी
चिकित्सा करनी है, इसमें कोई सहयोगी नहीं हो सकता। इसलिए यह
बड़ी से बड़ी व्याधि है, महाव्याधि।
"नास्ति मोह समोरिपुः। और मोह के समान कोई शत्रु
नहीं। मोह को भी समझने की कोशिश करना। उसको भी गलत समझा गया है। मोह से लोग मतलब
लेते हैं--पत्नी, बच्चे, घर द्वार,
इनको छोड़ कर भाग जाओ। इनको छोड़ दिया तो मोह से मुक्त हो गए। यह बड़ी
जड़बुद्धि की व्याख्या हुई। क्योंकि जिसने घर छोड़ा, पत्नी छोड़
दी, बच्चे छोड़ दिए--यह कोई कठिन नहीं है। यह मामला बहुत कठिन
नहीं है। सच तो यह है कि पति पत्नियों से परेशान हैं, पत्नियां
पतियों से परेशान हैं। इससे ज्यादा आसान और क्या होगा कि वे भाग खड़े हों? आश्चर्य तो यह है कि अनंत-अनंत लोग भागते क्यों नहीं? इनको कभी का शंकराचार्य के शिष्य हो जाना चाहिए कि जगत माया है और जंगलों
में बैठ जाना चाहिए। पता नहीं क्यों रुके हैं, किस कारण रुके
हैं!
चंदूलाल का बेटा पूछ रहा था चंदूलाल से, "पापा, आपने मम्मी से शादी क्यों की?'
चंदूलाल ने गौर से अपने बेटे को देखा और कहा, "तो तुझे भी आश्चर्य होने लगा?'
चंदूलाल की पत्नी चंदूलाल से कह रही थी, "मान लो हमारे
घर में कोई चोर घुस आए तो आप क्या करेंगे?'
चंदूलाल ने कहा, "जो आप कहेंगी।'
पत्नी ने कहा, "मैं क्यों?'
चंदूलाल ने कहा, "क्योंकि अब तक इस घर में
मुझे अपनी इच्छा से कुछ करना नसीब नहीं हुआ। तो जब चोर आएंगे, आपसे पूछ लूंगा। जो आप कहेंगी वही करूंगा।'
कौन पति नहीं भागना चाहेगा! ये तो बड़े हिम्मतवर बहादुर लोग हैं कि जमे
हुए हैं। ये तो कहते हैं: सौ-सौ जूते खाएं तमाशा घुस कर देखें! कोई फिक्र नहीं, तमाशा देखेंगे।
"मैं कहां हूं?' चंदूलाल ने
अस्पताल में एक नर्स को देख कर पूछा। लगता है मैं स्वर्ग में आ गया हूं।' नर्स बड़ी सुंदर थी और चंदूलाल अभी-अभी क्लोरोफार्म से बाहर आ रहे थे। सो
कुछ थोड़ा-थोड़ा होश था, कुछ थोड़ी-थोड़ी बेहोशी थी, कुछ सपना-सपना सा था। उस तैरती सी सपने की अवस्था में यह सुंदरी एकदम
प्रगट हुई, सोचा उर्वशी है कि मेनका है! पूछने लगे,
"मैं कहां हूं? लगता है मैं स्वर्ग में आ
गया हूं।'
पास खड़ी उनकी पत्नी बोली, "नहीं पप्पू के
पापा, अभी तो मैं तुम्हारे साथ हूं। कैसी बहकी-बहकी बातें कर
रहे हो?'
कहां का स्वर्ग, जब पत्नी मौजूद है? तत्क्षण होश आ गया चंदूलाल को। सब क्लोरोफार्म नदारद हो गया, जैसे ही पत्नी की आवाज सुनी। पत्नी की आवाज अगर लोग स्वर्ग में भी सुन लेंगे,
एकदम संसार में आ जाएंगे। सब चौकड़ी भूल जाएंगे।
चंदूलाल हाल में भोगी हुई मुसीबतों की कथाा अपने मित्र को बड़े विस्तार
से सुना रहे थे। मित्र ने कहा, "अरे यह तो कुछ भी नहीं है।
कल मुझ पर जो गुजरी वह सुनो। कल रात मुझे सपना आया कि मुझे ले कर मेरी बीबी और हेमामालिनी
में हाथापाई हो गयी और मेरी बीबी जीत गयी।'
पत्नियों से कौन भागना न चाहेगा और पतियों से कौन बचना न चाहेगा! लाख
ऊपर-ऊपर लोग कुछ कहते हों, भीतर तो बात कुछ और ही है। इसलिए यह बात लोगों को जमी,
यह अर्थ समझ में आ गया लोगों को कि पत्नी छोड़ दो, बच्चे छोड़ दो--यही मोह है।
मोह का इतना छोटा अर्थ मत करो। घर में है भी क्या तुम्हारे, जो तुम छोड़ कर जा रहे हो? दुख ही दुख है, पीड़ा ही पीड़ा है। सुबह से सांझ तक कोल्हू के बैल की तरह जुते हुए हो। और
कोई धन्यवाद देने को भी राजी नहीं है। बच्चे भी धन्यवाद देने को राजी नहीं हैं,
पत्नी भी राजी नहीं है, पति भी राजी नहीं है,
पिता भी राजी नहीं है, मां भी राजी नहीं है,
कोई राजी नहीं है किसी से। इससे भाग जाना तो सीधा गणित है। इसमें
कुछ अड़चन नहीं है।
तुम्हारा जो पुराना संन्यास था, दो कौड़ी का था। वह
इसी उपद्रव पर निर्भर था। मोह कुछ और बड़ी बात है। उसे समझने की कोशिश करो। मोह का
अर्थ है: मेरे का भाव। मोह से मुक्ति का अर्थ होगा: मेरे से मुक्ति। तुमने घर छोड़
दिया; "मेरा' यह भाव छूटा?
यह नहीं छूटता। फिर मेरा मंदिर, मेरी मसजिद,
मेरा धर्म, मेरा शास्त्र! एक व्यक्ति घर छोड़
कर मुनि हो जाता है, समाज छोड़ देता है; लेकिन जिस समाज को छोड़ आया है उसी समाज का सिखाया हुआ धर्म नहीं छोड़ता। यह
कैसा छोड़ना हुआ? अभी भी कहता है--मैं जैन हूं, मैं हिंदु हूं, मैं मुसलमान हूं। उसी समाज ने तो यह
सब बकवास सिखायी है--उन्हीं मां बाप ने, जिनको तुम छोड़ आए हो;
उनको तो छोड़ आए लेकिन उन्होंने जो कचरा तुम्हारे दिमाग में भर दिया
था वह तो साथ ही ले आए। मेरा देश, मेरी जाति, मेरा कुल! यह अकड़ जाती नहीं। यह अहंकार हटता ही नहीं, और जोर से पकड़ लेता है। क्योंकि वहां तो बंटा हुआ था--मेरी पत्नी थी,
मेरा बेटा था, बेटी थी, और
रिश्तेदार थे, मां थी, बहन थी, सारा विस्तार था, धन था, मकान
था, अब सब छूट गया तो इस मेरे को अब पकड़ने को जो बचा थोड़ा
बहुत--मेरी गीता, मेरा कुरान, मेरा
मंदिर, मेरा धर्म--अब यह मेरे ने इस कर शिकवा कसा। और यह
ज्यादा गहरा शिकंजा है, क्योंकि धन तो दिखाई पड़ता है,
छोड़ सकते हो। जो दिखाई पड़ता है उसे छोड़ने में कठिनाई नहीं है। अब यह
"मेरे' जो है, बड़ा सूक्ष्म हो गया,
अब इसे छोड़ना मुश्किल हो जाएगा। अब यह "मेरे' ने तो तुम्हें भीतर से पकड़ा। यह बड़ा नाजुक और बारीक हो गया। इसको देखने और
पहचानने के लिए आंखें चाहिए।
जो मुनि अपने को जैन कहता है वह मुनि है ही नहीं। यह कैसा मौन? अभी पुरानी बकवास तो जारी है। जो संन्यासी अपने को अभी भी हिंदु कहता है,
वह तो संन्यासी नहीं है। जब हिंदु जाति को ही छोड़ दिया...। अभी भी
संन्यासी हो कर जो शूद्र को शूद्र मानता है, ब्राह्मण को
ब्राह्मण मानता है--वह खाक संन्यासी है। समाज को छोड़ आया है, लेकिन समाज की व्यवस्था तो इसकी खोपड़ी में समायी हुई है। यह शूद्र के साथ
भोजन करने को तैयार है?
दिगंबर जैन मुनि यात्रा करते हैं तो वे सिर्फ जैन के घर से ही भोजन ले
सकते हैं। क्या गजब का त्याग किया है! छोड़ दिया समाज, मगर भोजन अभी जैन घर से ही लेंगे। तो अब जैन सारे गांव में तो होते भी
नहीं। और तीर्थयात्रा पर जात है मुनि
तीर्थयात्रा पर जाने की जैन मुनि को क्या जरूरत है? मेरा
तीर्थ है! तो पैदा होता है केरल में और जाता है शिखरजी। लंबी यात्रा केरल से
कलकत्ता तक, अब इसमें बहुत-से ऐसे गांव पड़ेंगे जहां कोई जैन
घर नहीं होता। तो एक उपद्रव चलता है, दिगंबर जैन मुनि के साथ
एक उपद्रव चलता है। दस-पंद्रह चौके उसके साथ चलते
हैं। तुम पूछोगे, दस पंद्रह क्यों? उसका भी राज है। एक चौका छोड़ा। एक चौका होता है एक घर में, अब दस पंद्रह पीछे चलते हैं। क्योंकि महावीर ने यह सूत्र दिया है कि तुम
सुबह से एक प्रतिज्ञा लेना और वह प्रतिज्ञा जिस मकान के सामने पूरी हो, वहीं से भोजन ग्रहण करना। अब अगर एक ही चौका हो तो मुश्किल हो जाए,
पता नहीं प्रतिज्ञा क्या ले जैन मुनि। हालांकि जब जैन मुनि
प्रतिज्ञाएं ऐसी लेते हैं जो सबको मालूम हैं। जैसे जिस घर के सामने दो केले लटके
हों, इस तरह की दस पंद्रह बंधी हुई प्रतिज्ञाएं हैं उनकी। सो पंद्रह चौके साथ
चलते हैं, वे पंद्रह प्रतीक अपने अपने चौके के सामने लटका
लेते हैं। उनमें से कोई न कोई एक प्रतीक तो होने ही वाला है।
महावीर तो कुछ और ढंग के प्रतीक लेते थे। एक प्रतीक दुबारा नहीं लेते
थे।और जो प्रतीक लेते थे, वे भी बड़े
बेबूझ थे। ऐसे कभी-कभी महावीर को छः महीने भोजन न मिला। और यह जैन मुनि को
रोज भोजन मिलता है। महावीर ने एक बार सुबह से व्रत ले लिया--अपने ध्यान में वे
व्रत लेते थे--कि आज जिस घर के सामने कोई राजकुमारी, पैरों
में बेड़ियां पड़ी हों, एक पैर भीतर हो एक पैर बाहर हो दहलीज
के, हाथों में हथकड़ियां पड़ी हों, हो
राजकुमारी, भोजन का आग्रह करेगी, तो भोजन लूंगा। अब एक तो
राजकुमारी, फिर उस पर ये शर्तें तुम देखो पैरों में बेड़ियां
पड़ी हों, राजकुमारी है। तो किसलिए पैरों में बेड़ियां पड़ी हों?
हाथों में जंजीरें पड़ी हों। और फिर यह शर्त कि एक पैर भीतर हो देहली
के, एक पैर बाहर हो। और जिसकी यह दशा होगी, जो इस तरह से बंधी होगी, वह क्या भोजन की प्रार्थना
करेगी? वह कहां से भोजन लाएगी? वह तो
खुद ही भोजन के लिए औरों पर निर्भर होगी। वह भोजन की प्रार्थना करे तो मैं भोजन स्वीकार करूंगा! छः महीने तक यह
प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो सकी। वह रोज गांव में जाते , घूम कर
वापिस आ जाते।
इसमें बड़ा अद्भुत राज था महावीर की इस व्यवस्था में। महावीर कहते थे:
अगर अस्तित्व को मुझे जिलाना है तो वह शर्त पूरी करेगा। अगर नहीं जिलाना है तो
मुझे कुछ जीना नहीं है, मेरी कुछ जीने की इच्छा नहीं है, मेरा काम पूरा हो गया। अगर अस्तित्व को कुछ काम लेना हो मुझसे, तो जिलाओ। मगर उस जीने में मेरी कुछ आकांक्षा नहीं है, मेरी कोई जीवेषणा नहीं है। यह अदभुत सूत्र था कि मेरी कोई जीवेषणा नहीं है,
मेरा काम तो पूरा हो चुका। मुझे तो जो पाना था पा लिया, जो होना था हो गया। अब मैं तो तैयार हूं जाने को। मैं तो इस देह से किसी
भी क्षण मुक्त होने को तैयार हूं। अब अगर अस्तित्व की कोई इच्छा हो कि मेरे द्वारा
कुछ काम हो ले तो, ठीक है। अब यह अस्तित्व की अगर आकांक्षा
हो तो अस्तित्व ही इसकी जिम्मेवारी ले, मैं क्यों जिम्मेवारी
लूं? जिलाना हो जिलाओ, मिटाना हो
मिटाओ। मेरी तरफ से सब बराबर है। जीवन और मृत्यु समान हैं।
इसलिए सुबह से शर्त ले लेते। शर्त पूरी हो जाती तो ठीक, नहीं पूरी होती तो बात खत्म। शिकायत नहीं थी। छः महीने तक शर्त पूरी नहीं
हुई, शर्त ही ऐसी थी। छः महीने में भी पूरी हो गयी, यह आश्चर्य है। छः साल भी पूरी न होती, कभी पूरी न
होती, यह भी हो सकता था। मगर रोज उसी प्रसन्नता से वापिस लौट
आते, वही आनंद, वही अहोभाव। जो प्रकृति
की इच्छा है, जो इस परम जगत का आग्रह है, वह पूरा होना चाहिए। जिलाना होगा जिलाएगा, मारना
होगा मारेगा। अपने से सारी जीवेषणा छोड़ दी--यह मोह मुक्ति है। अब मैं बचूं,
यह भी इच्छा नहीं है।
महावीर जैन नहीं थे, यह मैं दोहरा देना चाहता हूं। न
कृष्ण हिंदू थे। न मुहम्मद मुसलमान थे। न जीसस ईसाई थे। न बुद्ध बौद्ध थे। हो ही
नहीं सकते। जहां मैं ही नहीं बचा वहां "मेरा' कैसे
बचेगा? मैं की मृत्यु से ही मोह समाप्त होता है। अभी मेरा तो
भीतर घना बैठा है, खूब घना बैठा है और तुम मुक्त होना चाहो
मोह से, तो थोथा होगा, पाखंड होगा। हां,
धन छोड़ कर भाग सकते हो। मगर जो मैं धन को पकड़े था वही मैं त्याग को
पकड़ लेगा। कल तक कहते थे मेरे पास लाखों हैं; अब कहोगे उसी
अकड़ से, शायद ज्यादा अकड़ से कि मैंने लाखों को लात मार दी।
मगर वही मैं, जो लाखों को पकड़ कर अकड़ कर चलता था, अब लातें मार दीं लाखों को, अब और भी अकड़ कर चलता
है। पत्नी छोड़ दी, बच्चे छोड़ दिए, अब
इसकी तुम डुंडी पीटोगे कि मैंने क्या-क्या त्याग कर दिया।
जैन मुनि हिसाब रखते हैं, डायरी रखते हैं कि इस
साल में उन्होंने कितने उपवास किए। पूरे अपने मुनि-जीवन में उन्होंने कितने उपवास
किए, इसकी डायरी रखते हैं। कहीं मिल जाए ईश्वर तो खोल कर रख देंगे डायरी कि देख ले, यह रहा खाता वही! खाते बही करते रहे दुकान पर बैठे-बैठे, अभी भी खाता बही गया नहीं। अभी भी खाता बही है। हर साल घोषणा-पत्र निकलता
है कि किस मुनि ने कितने व्रत किए, कितने उपवास किए। जिसने
ज्यादा किए वह महात्यागी। जो उतने नहीं कर पाया बेचारा दीन-हीन रह जाता है,
मन मसोस कर रह जाता है कि मेरी क्या हैसियत मैं कुछ भी नहीं! अगले
साल देखूंगा। अगले साल सब लगा दूंगा दांव पर। आगे निकलना है। वहां भी प्रतिस्पर्धा
चल रही है।
तो महावीर चूंकि कई घरों के सामने खड़े होते थे, अगर शर्त पूरी होती तो ठीक, शर्त पूरी नहीं होती तो
आगे बढ़ जाते। अब यह जैन मुनि क्या करे? यह भी अनुकरण कर रहा
है। यह केवल नकलची है। इसकी बंधी हुई धारणाएं हैं, जो वे
पंद्रह चौके वालों को पता हैं। बस इसके पंद्रह बंधे हुए मामले हैं कि जो श्राविका
द्वार पर हाथ में गुलाब का फूल लेकर भोजन का निमंत्रण दे, उसका
स्वीकार कर लेंगे। जिस दरवाजे पर केले लटकें हों, आप के
पत्ते लटके हों...। और आम के पत्ते, केले, ये सब बंधी हुई बातें हैं अब। यह हर मुनि वहीं कर रहा है। और वे पंद्रह
चौके वाले जानते हैं कि अपना मुनि कौन-से नियम लेता है। क्योंकि रोज भोजन मिल जाता
है और पंद्रह ही चौके से काम चल जाता है। तो एक चौका छूटा, यह
भारी उपद्रव हो गया, अब पंद्रह परिवार इसके पीछे चलते हैं।
जगह-जगह तंबू लगा कर बस्ती बसाते हैं, क्योंकि वहां जैन नहीं
हैं, उस बस्ती में, तो उन्हें बस्ती
बसानी पड़ती है तंबू लगा कर। क्या धोखा चल रहा है, क्या नाटक
चल रहा है! और आ कर मुनि महाराज एक-एक द्वार पर खड़े होते हैं। उनका प्रतीक मिल
जाता है।
मैं तो यह भी सोचता हूं, नहीं भी मिलता होगा
तो किसी को पता नहीं, वे मिला ही लेते होंगे। क्योंकि बताना
तो होता नहीं किसी को सुबह-सुबह, जब रोज ही मिल जाता है।
महावीर से भी ज्यादा ये होशियार हैं। अस्तित्व इनको महावीर से भी ज्यादा कीमत दे
रहा है, साफ है। क्योंकि महावीर को कभी छः महीने भोजन नहीं
मिला, कभी तीन महीने भोजन नहीं मिला, कभी
दो महीने भोजन नहीं मिला। बारह साल के तपश्चर्या-काल में उन्हें केवल एक साल भोजन
मिला। मतलब हर बारहवें दिन पर एक दिन भोजन मिला। यह औसत अनुपात रहा उनका। और इनको
तो रोज मिल जाता है। तो या तो ये कोई धोखा दे रहे हैं। महावीर से ज्यादा मूल्यवान
तो ये नहीं हैं कि अस्तित्व इनको ज्यादा बचाने के लिए उत्सुक है। या तो ये व्रत
बंधे हुए लेते हैं, जो पता है लोगों को। और या फिर न भी
मिलते हों तो मिला लेते होंगे, क्योंकि सुबह बताना तो होता
नहीं किसी को। यह तो बाद में पता चलता है। जब वे भोजन ले लेते हैं तब पता चलता है
कि दो केले लटकाने का व्रत लिया था आज।
और इन सबको ख्याल है कि इन्होंने मोह छोड़ दिया है। इनको खयाल है
इन्होंने जीवेषणा छोड़ दी है।
महावीर नग्न सोते थे। जैन मुनि भी नग्न सोता है--दिगंबर जैन मुनि। मगर
सर्दी के दिनों में सोता तो नग्न है, शिष्यगण पुआल बिछा
देते हैं। पुआल काफी गर्म होती है। और अच्छी काफी मोटी गद्दी पुआल की बना देते
हैं। उस पर वह लेट जाता है। और ऊपर से फिर पुआल उस पर ढांक देते हैं मोटी दुलाई की
तरह, सो वह पुआल के भीतर बिलकुल दब जाता है। पुआल काफी गर्म
होती है।
मैंने एक जैन मुनि को पूछा कि मैंने कहीं किसी शास्त्र में कि महावीर
पुआल बिछा कर सोते थे और ऊपर से पुआल डाली जाती थी। वे बोले, "मैं क्या करूं? मैं तो जमीन पर सोता हूं लोग पुआल
बिछा दें तो मैं क्या करूं? और मैं सो जाता हूं, लोग मेरे ऊपर पुआल डाल देते हैं तो मैं क्या करूं? मैं
तो किसी से कहता नहीं।'
मैंने उनसे कहा, "और शिष्य अगर कांटे बिछा
दें, फिर आप कहेंगे कि नहीं? मैं बिछवा
देता हूं आज।'
वे कहने लगे, "आप कैसी बातें करते हैं?'
मैंने कहा, "मैं कैसी बातें नहीं करता। आप कैसी बातें करवा
रहे हैं! शिष्य कांटे बिछा दें, फिर लेटेंगे आप? और ले आएं एक बर्फ की चट्टान और रख दें छाती पर, फिर
आप मना करेंगे? एक दम उचक कर खड़े हो जाएंगे।'
मैंने कहा, "ये शिष्य भी तुम्हारे मूढ़ हैं जो पुआल बिछाते
हैं।'
मगर यह सब चलता है। छोड़ तो देते हैं, मगर समझ नहीं है,
तो कहीं से लौट आएगा, किसी तरह से लौट आएगा।
तुमने देखे, हिंदु साधु नग्न बैठे रहते हैं, मगर भभूत लगा लेते हैं। तुम जानते हो भभूत क्यों लगा लेते हैं? तुम सोचते हो शायद कोई तपश्चर्या कर रहे हैं। यह तपश्चर्या नहीं है। शरीर
का रंध्र-रंध्र श्वास लेता है तो ठंड के दिनों में तुम ऊनी वस्त्र भी पहनते हो;
उससे भी ज्यादा गर्मी देने वाली चीज है कि सारे शरीर पर राख मल कर
बैठ जाओ, क्योंकि सारे शरीर के रंध्रों में राख समा जाती है।
और जब रोज रोज राख ही मलते रहते हैं तो
रंध्र बंद हो जाते हैं। और जब रंध्र बंद हो जाते हैं तो उन से हवा अंदर
जानी समाप्त हो गयी। मोटी से मोटी ऊन की चादर भी तुम, कीमती
से कीमती पश्मीना भी ओढ़ कर बैठो, उसमें से भी थोड़ी हवा भीतर
आती है। लेकिन अगर तुम राख पूरे शरीर पर लपेट कर बैठ जाओ तो उससे कोई हवा आने की
संभावना नहीं रह जाती।
तुम सोचते होओगे ये कोई त्याग कर रहे हैं। ये त्याग नहीं कर रहे हैं।
इन्होंने तरकीब निकाल ली है। तरकीबें निकलेंगी ही, क्योंकि मौलिक रूप से
व्याधि दूर नहीं हो रही है, सिर्फ ऊपरी-ऊपरी व्याख्याओं से
काम चल रहा है।
मोह से मेरा अर्थ होता है: मैं का विस्तार। मैं-भाव का विस्तार। फिर
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे पास साम्राज्य है या नहीं। समझ हो तो
साम्राज्य के भीतर भी कोई मैं से मुक्त हो कर जी सकता है और नासमझी हो तो नग्न खड़ा
हो कर जंगल में वृक्ष के नीचे भी मैं भाव से भर सकता है।
मैं हिमालय की यात्रा पर था। मनाली में एक वृक्ष के नीचे, पता चला मुझे कि एक साधु कोई बीस वर्षों से बैठता है। वहीं रहता है। वही
वृक्ष उसका आवास है। घना वृक्ष था, सुंदर वृक्ष था। अभी साधु
भिक्षा मांगने गया था। तो मैं उस वृक्ष के नीचे बैठ रहा। जब वह लौट कर आया तो
मैंने आंख बंद कर ली। उसने मुझे देखा और कहा कि उठिए यह वृक्ष मेरा है। यहां मैं
बीस साल से बैठता हूं।
मैंने कहा, वृक्ष किसी का भी नहीं होता। और बीस साल से नहीं ,
तुम बीस हजार साल से बैठते होओ, इससे क्या
फर्क पड़ता है? अभी तो मैं बैठा हूं। जब मैं हटूंगा तब तुम
बैठ जाना। अब मैं हटने वाला नहीं हूं।
वे तो एकदम आगबबूला हो गए कि यह मेरी जगह है! हरेक को पता है। यहां और
भी बहुत साधु-संन्यासी आते हैं, सबको मालूम है कि यह वृक्ष मेरा
है।
मैंने उनको और भड़काया। तो उनको क्रोध बढ़ता चला गया। फिर मैंने उनसे
कहा कि मैं सिर्फ यह जानने के लिए आपको भड़का रहा था, मुझे कुछ लेना-देना
नहीं वृक्ष से, मुझे यहां रहना भी नहीं, मैं सिर्फ यह देख रहा था कि आप बीस साल पहले घर छोड़ दिए, पत्नी बच्चे छोड़ दिए, आपकी कथाएं मैंने सुनी हैं कि
आप बड़े त्यागी हैं, मगर अब यह वृक्ष को पकड़ कर बैठे हैं! यह
आपका हो गया! यह जमीन आपकी हो गयी! इस पर अब कोई दूसरा बैठ नहीं सकता। तो यह नया
घर बसा लिया।
यह स्वाभाविक है। अगर समझ न हो तो तुम जो भूल करते थे, फिर-फिर करोगे। नये-नये ढंग से करोगे। नयी-नयी दिशाओं में करोगे। मगर भूल
से बचोगे कैसे?
निश्चित ही मोह के समान और कोई शत्रु नहीं है, क्योंकि अहंकार ही शत्रु है। और अहंकार का जो फैलाव है, जहां-जहां अहंकार जुड़ जाता है, वहां वहां मोह है।
जहां तुमने कहा मेरा, वहां मोह है। इसलिए मैं कहता हूं,
मत कहना--मेरा धर्म; मत कहना--मेरा शास्त्र,
मेरी कुरान, मेरी बाइबिल, मेरी गीता! मत कहना--मेरा देश, मेरी जाति, मेरा वर्ण, मेरा कुल! ये सब मोह ही हैं और बहुत
सूक्ष्म मोह है।
काम है: और की आकांक्षा। वह भी अहंकार का विस्तार है। और मोह है:
जो-जो काम के द्वारा मिल गया है, उसको अपना बनाए रखने की
आकांक्षा। वह मेरा ही रहे। वह मेरे हाथ से छिटक न जाए। जो पाने की दौड़ है वह काम;
और जो पकड़ लेने की आकांक्षा है, वह मोह। वह
काम की ही शाखा है।
"काम के समान कोई व्याधि नहीं, मोह के समान कोई शत्रु नहीं, क्रोध के समान कोई
अग्नि नहीं।'
यूं समझो कि काम है और की दौड़, मोह है जो मिल गया
उसको अपना बनाए रखने की आकांक्षा और क्रोध है, जब तुम्हारी
इस आकांक्षा में कोई बाधा डाले, कोई उपद्रव खड़ा करे। जैसे वह
साधु क्रोधित हो गया, क्योंकि मैं उस के झाड़ के नीचे बैठ
गया--उसका झाड़! उसके मैं पर हमला हो गया। उसकी लक्ष्मण-रेखा थी वहां खिंची हुई,
उसके भीतर मैं प्रवेश कर गया, तो क्रोध आ गया।
जहां तुम्हारे अहंकार को चोट पड़ती है वहां क्रोध आता है। और जहां
तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है वहां मोह आता है। ये क्रोध और मोह अलग-अलग
नहीं, एक ही सिक्के दो पहलू हैं। लेकिन दोनों के मूल में
काम है। जो तुम्हारी कामवासना में सहयोगी होता है उसको तुम मित्र कहते हो। और जो
तुम्हारी कामवासना में विरोधी हो जाता है, अड़चनें डालता है,
उसको तुम शत्रु कहते हो। कौन है तुम्हारा मित्र? लोग कहते हैं: मित्र वही जो वक्त पर काम आए। क्यों? वक्त
पर काम आए, यह कसौटी है मित्र की! यह मित्रता हुई? वक्त पर काम आने का मतलब हुआ कि जो मेरे काम के आरोहण में सहयोगी हो;
जो मेरी आकांक्षाओं अभी प्साओं में सीढ़ी बने; जो
मेरे हाथ में शक्ति दे; जो मेरे साथ अभियान पर निकले,
मेरा सहयोगी हो। और शत्रु कौन है? जो बाधा
डाले। तुम चुनाव लड़ रहे हो, वह तुम्हारे खिलाफ खड़ा हो जाए,
तो शत्रु। और तुम्हारा जा कर प्रचार करे तो मित्र। तुम्हें वोट न दे
तो शत्रु।
क्रोध पैदा होता है, जब भी तुम्हारी किसी वासना में
कोई अड़चन आ जाती है, कोई भी अड़चन खड़ी कर देता है तभी क्रोध
पैदा हो जाता है। मुझ पर इस देश के सारे साधु-संत, महंत-महात्मा
क्रोधित हैं। क्यों? पूछना चाहिए, क्यों?
जो किसी और बात में राजी नहीं होते, जो एक
दूसरे से हर हालत में दुश्मन होते हैं, वे सब भी एक साथ मेरे
विपरीत खड़े हो जाते हैं। क्या कारण होगा? जरूर बड़े जादू की
घटना घट रही है। सभी संप्रदायों के साधु, महंत, संत महात्मा मेरे विपरीत इकट्ठे हो जाते हैं। क्योंकि उन सबको लग रहा है
कि मैं उनके सारे व्यवसाय को चोट पहुंचा रहा हूं, मैं शत्रु
हूं। अगर मेरी बात लोगों की समझ में आ गयी तो मंदिर खाली पड़े होंगे, मस्जिदें खाली पड़ी होंगी। अगर मेरी बात लोगों की समझ में आ गयी तो कौन
जाएगा काशी और कौन जाएगा काबा! इसलिए सारे पंडित पुरोहितों को घबराहट और बेचैनी
है। इस बैचेनी के पीछे भारी क्रोध है, क्योंकि उनकी
आकांक्षाओं में लग रहा है कि मैं सहयोगी नहीं हूं। मैं सहयोगी हो जाऊं इसकी बहुत
कोशिश थी।
जैन मुनियों ने मुझसे कहा था कि हम सब तरफ से आपका साथ देंगे अगर आप
हमेशा जैन धर्म का समर्थन करें। मैंने कहा, "मैं समर्थन
सत्य का करूंगा। जैन धर्म उसके अनुकूल पड़ेगा तो जरूर समर्थन करूंगा और प्रतिकूल
पड़ेगा तो मेरी मजबूरी है। मैं सिर्फ सत्य का समर्थन कर सकता हूं।'
मुझे हिंदु महात्माओं ने कहा था कि अगर आप विश्व में हिंदु धर्म का
प्रचार करें तो हम आप के साथ हैं। मैंने उनसे कहा कि मैं सिर्फ सत्य का प्रचार कर
सकता हूं। और अगर हिंदु धर्म में कोई भी सत्य होगा तो जरूर मैं उसके साथ हूं।
लेकिन असत्य चाहे हिंदू हो चाहे जैन, मैं साथ नहीं दे सकता
हूं।
तो धीरे-धीरे मैंने न मालूम कितने दुश्मन खड़े कर लिए! सत्य से दोस्ती
जोड़ी तो असत्य से जो जी रहे हैं वे दुश्मन हो गए। परमात्मा से नाता जोड़ा तो
परमात्मा के नाम से जो धंधे चला रहे हैं वे दुश्मन हो गए। निश्चित ही क्रोध के
समान कोई अग्नि नहीं है क्यों? क्योंकि और अग्नियां तो सिर्फ
वस्तुओं को नष्ट करती हैं, क्रोध आत्मा को नष्ट करता है। और
अग्नियां तो स्थूल को जलाती हैं, क्रोध तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म
को जला देता है। और अग्नियां तो पदार्थ पर शक्तिशाली होती हैं, लेकिन क्रोध की अग्नि तो चेतना पर भी आच्छादित हो जाती है।
मगर तुम्हारे शास्त्र दुर्वासा जैसे लोगों को भी ऋषि कहते हैं--जिनके
मुंह पर ही क्रोध है, जिनकी जबान पर क्रोध है, जो
अभिशाप देने को आतुर बैठे हैं, जो जरा से भूल चूक से जनम-जनम
बिगाड़ दें। ऋषि और अभिशाप दे! ऋषि तो वरदान ही दे सकता है। उससे तो आशीष की ही
वर्षा हो सकती है।
मैं तो राबिया को ऋषि कहूंगा, दुर्वासा को नहीं।
राबिया सूफी स्त्री थी। कुरान में एक जगह यह वचन आता है कि शैतान से घृणा करो। उसने
काट दिया। और कुरान में कोई तरमीम नहीं कर सकता, कोई सुधार
नहीं कर सकता। कुरान में सुधार करना! इसका मतलब हुआ कि पैगंबर गलत है, कि कुरान जो उतारी परमात्मा ने वह गलत है! ये ईश्वरीय वचन हैं। इनको कोई
सुधार सकता है? यह कोई बच्चों की लिखी हुई किताब तो नहीं है
कि तुम इस में सुधार कर दो।
लेकिन राबिया ने काट ही दिया वह वचन। हसन नाम का फकीर उसके घर मेहमान
था। उसने राबिया की किताब देखी, कुरान देखी। उलट-पलट रहा था,
देखा कि एक जगह वाक्य कटा हुआ है। वह तो बहुत हैरान हुआ। उसने
राबिया से कहा, "किसी ने तेरी कुरान को अपवित्र कर
दिया।'
राबिया ने कहा, "किसी ने नहीं। और अपवित्र नहीं किया है,
पवित्र किया है। मैंने ही किया है। क्योंकि जब से मैंने परमात्मा को
जाना तब से मुझे शैतान दिखाई नहीं पड़ रहा। मैं घृणा कैसे करूं? शैतान नहीं दिखाई पड़ता। शैतान भी मेरे सामने आ कर खड़ा हो जाए तो परमात्मा
ही दिखाई पड़ता है। और घृणा कैसे करूं? जब से परमात्मा को
जाना, सारा जीवन प्रेम में रूपांतरित हो गया है। घृणा मेरे
भीतर नहीं बची। अब शैतान का मैं क्या करूं? घृणा पहले भीतर
होनी चाहिए न, तभी तो मैं कर सकूंगी! अब भीतर ही जो चीज न
बची। शैतान हो या परमात्मा हो, कोई भी हो, मेरे भीतर तो बस प्रेम ही बचा है। मेरे भीतर से तो प्रार्थना ही उठेगी।
मेरे भीतर दुर्गंध नहीं है, सुगंध ही उठेगी।'
मैं राबिया को ऋषि कहूंगा। और मैं कहूंगा उसने ठीक किया जो कुरान में
सुधार कर दिया। दुर्वासा को ऋषि नहीं कह सकता। जरा-सी बात में क्रुद्ध हो जाए। ऋषि
तो वह परम अवस्था है दृष्टि की, द्रष्टा भाव की, जहां न कोई काम बचता, न कोई मोह बचता न कोई क्रोध
बचता। और जहां ये तीनों समाप्त हो जाते हैं, वहीं ज्ञान का
जन्म होता है।
इसलिए ठीक कहता है यह सूत्र: "ज्ञान से उत्कृष्ट कोई सुख नहीं।' ज्ञान महासुख है। मगर ये तीन जाएं, तो ज्ञान। यह जो
त्रिमूर्ति है--काम, क्रोध, मोह
की--यही बाधा है। इस देश में परमात्मा को त्रिमूर्ति कहा है; लेकिन जो हमने त्रिमूर्ति बनायी है वह परमात्मा के संबंध में पर्याप्त
नहीं है। उससे कहीं ज्यादा गहरी दृष्टि तो पतंजलि की है, जो
कहता है कि असली अवस्था तुरीय है, चौथी है। तीन के पार जाओ
तो तुरीय। तुरीय का अर्थ होता है: चौथी। गुरजिएफ के शिष्य आस्पेंस्की ने अद्भुत
किताब लिखी है: द फोर्थ वे, चौथा रास्ता। क्या है वह चौथा
रास्ता? तुरीय क्या है? काम, मोह, क्रोध--इन तीनों के पार जो चला जाए, वही चौथे को उपलब्ध होता है।
यूं समझो कि काम है ब्रह्मा, क्योंकि ब्रह्मा से
ही जगत की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा का अगर तुम उल्लेख पढ़ो शास्त्रों में तो यह बात
तुम्हें साफ हो जाएगी; हालांकि किसी ने कभी तुमसे यह बात कही
नहीं। यह मैं तुमसे पहली बार कह रहा हूं; क्योंकि कौन झंझट
में पड़े! इस देश में झंझट में पड़ने वाले लोग ही नहीं रहे। नेता बचे हैं, ऋषि नहीं बचे। धार्मिक नेता हैं जिनको तुम धर्मगुरु कहते हो, वे भी ऋषि नहीं हैं। गुरु होने के लिए हिम्मत चाहिए, छाती चाहिए।
ब्रह्मा को मैं काम का प्रतीक मानता हूं और तुम अपने पुराण उठा कर देख
लो, तुम्हें मेरी बात के लिए गवाहियां मिल जाएगी। कहानी कहती है कि ब्रह्मा ने
पृथ्वी पैदा की। जिसने पैदा की, वह पिता हो गया। लेकिन
पृथ्वी को पैदा करके वे उस पर आसक्त हो गए। पिता पुत्री पर आसक्त हो गया। दौड़ने
लगे वे पुत्री के पीछे, उसको पकड़ने के लिए दौड़ने लगे। उसको
भोगने की आकांक्षा पैदा हो गयी ब्रह्मा में। स्वभावतः, स्त्री
का स्वभाव है बचना, छिपना, लज्जा,
घूंघट, तो स्त्री बचने लगी। ऐसे सारी सृष्टि
पैदा हुई। क्योंकि स्त्री बच कर गाय हो गयी, वह छिप गयी और
गाय बन गयी, ताकि किसी तरह ब्रह्मा के इस कामवासना के उपद्रव से छूट पाए। मगर ब्रह्मा कुछ ऐसे तो
छोड़ने वाले नहीं थे, वे तत्क्षण सांड हो गए। ब्रह्मा ही थे,
वे कोई ऐसे छोड़ देने वाले थे!
ऐसे सारी प्रकृति बनी। वह हरिणी हो गयी तो वे हरिण हो गए। वह हथिनी हो गयी
तो वे हाथी हो गए। वह स्त्री हो गयी तो वह पुरुष हो गए। यूं भाग चलती रही, चलती रही, चलती रही। ऐसी ये चौरासी करोड़ योनियां जो
पैदा हुईं, यह ब्रह्मा की कामवासना का विस्तार है।
ब्रह्मा काम के प्रतीक हैं। होना भी चाहिए, क्योंकि काम से ही उत्पत्ति है। और ब्रह्मा उत्पत्ति हैं। वे जगत के स्रोत
हैं, जहां से सारा जगत पैदा हुआ। और काम से ही जगत की
उत्पत्ति होती है। निश्चित ही ब्रह्मा काम के प्रतीक हैं।
विष्णु मोह के प्रतीक हैं। विष्णु के लिए जो व्याख्या की गयी है
शास्त्रों में, वह है जगत को सम्हालने वाले, बचाने
वाले, व्यवस्था रखने वाले। यह मोही का लक्षण है। मोह का अर्थ
ही होता है: व्यवस्था, सम्हालना, बचाना।
जो है उस को जोर से पकड़ना, कहीं खो न जाए, कहीं छिटक न जाए हाथ से। काम का अर्थ होता है: बनाना, और, और, और! और मोह का अर्थ
होता है: बचाना। विष्णु बचाने वाले हैं।
तुमने एक मजा देखा! इस भारत में ब्रह्मा का सिर्फ एक मंदिर है, सिर्फ एक मंदिर समर्पित है ब्रह्मा को। क्योंकि लोगों को अब ब्रह्मा से
क्या लेना-देना! दुनिया तो बन ही चुकी। जब बन ही चुकी तो अब ब्रह्मा से क्या
लेना-देना! बात ही खत्म हो गयी। लेकिन विष्णु के बहुत मंदिर हैं, अनंत मंदिर हैं। सब अवतार विष्णु के हैं। राम और कृष्ण सब अवतार विष्णु के
हैं। इसलिए जितने मंदिर हैं, चाहे राम के हों, चाहे कृष्ण के हों, ये सब विष्णु के मंदिर हैं।
निश्चित ही विष्णु से अभी लेना देना है। अभी मामला विष्णु के हाथ में है। ब्रह्मा
का तो काम खत्म हो गया। वे तो लिख गए कहानी और कहां गए पता नहीं। यहीं खो गए
सांडों में, हाथियों में, कितने बंट
गए। एक थे, चौरासी करोड़ हो गए। वे तो यहीं कंट छंट कर समाप्त
हो गए। अब उनका कहां पता लगाते फिरोगे? अब तो खोजोगे भी तो
मिलना मुश्किल हो जाएगा। थोड़ा-थोड़ा अंश मिलेगा, थोड़ा सांड
में मिलेगा, थोड़ा मुहम्मद अली में मिलेगा, थोड़ा दारासिंह में मिलेगा, थोड़ा-थोड़ा, अंश-अंश...। उनको तुम कहां खोजोगे? इसलिए एक मंदिर
ठीक है प्रतीक के लिए कि भई चलो तुमने काम किया,ऐसा जगत बना
दिया, बड़ी कृपा! एक मंदिर तुम्हें समर्पित कर देते हैं। मगर
अब तुमसे लेना-देना क्या है!
इसलिए ब्रह्मा की कोई चिंता नहीं करता। न कोई स्तुति गाता, न कोई प्रार्थना करता, न किसी मंदिर में घंटियां
बजतीं ब्रह्मा के लिए। लेकिन विष्णु के लिए सारी स्तुतियां हैं, क्योंकि विष्णु के हाथ में ताकत है। जिसके हाथ में ताकत है, जिसके हाथ में लाठी है उसकी भैंस है। सब भैसें एकदम डोलने लगती हैं लाठी
देख कर। लाठी अभी विष्णु के हाथ में है। इसलिए सब अवतार उनके। और सारी प्रार्थनाएं
उनके लिए हैं। विष्णु-सहस्त्रना।, विष्णु के हजार नाम बताने
वाला शास्त्र है। एक नाम से काम नहीं चलता विष्णु का। हजार नाम, ताकि तरहत्तरह से स्तुतियां करो। और सारे मंदिर विष्णु को समर्पित हैं।
विष्णु मोह के प्रतीक हैं--मेरा! हजार ढंग से स्तुतियां करो। मेरा है तो बचाओ।
और महेश अंत करेंगे अस्तित्व का। जैसे विष्णु बचाते हैं, और ब्रह्मा शुरू करते हैं, वैसे महेश अंत करेंगे। वे
क्रोध के प्रतीक हैं। और तुम पुराणों में देख लो। कथाएं फैली पड़ी हैं। मैं कभी-कभी
चौंकता हूं कि क्यों यह बात साफ नहीं हुई, क्यों किसी ने यह
बात ठीक-ठीक न कही कि इन तीनों के ये तीन प्रतीक हैं?
अभी कल ही तुम से मैं शिवजी की कथा कह रहा था कि उन्होंने गर्दन ही काट दी गणेश की। अरे जरा
पूछताछ करते, इतनी जल्दी क्या पड़ी थी? गर्दन
ही काटनी थी, थोड़ी देर से काटी जा सकती थी। मगर आव देखा न
ताव, गर्दन काट दी। क्रुद्ध हो गए। तुमने उनके क्रोध की कथा
सुनी ही है कि कामदेवता उनके सामने प्रगट हुआ तो उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल कर
उसको भस्म कर दिया। महाक्रोधी! तांडव नृत्य करने वाले! निश्चित ही अंत वही कर सकता
है इस जगत का जो क्रोध हो, हिंसा हो, विनाश
हो।
ये तीन परमात्मा के रूप नहीं हैं४ ये तीन परमात्मा की विकृतियां हैं, अगर ठीक से समझो। इन तीनों के जो पार जाता है वह परमात्मा को उपलब्ध होता
है। तुरीय, चतुर्थ। और वही ज्ञान है। वही बोध है, समाधि है, संबोधि है, बुद्धत्व
है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि बौद्धों ने यह कथा लिखी कि जब सिद्धार्थ गौतम
बुद्धत्व को उपलब्ध हुए तो सारे देवता, ब्रह्मा भी उसमें
सम्मिलित हैं,, उनके चरणों में नमस्कार करने आए। आना ही चाहिए।
आए हों या न आए हों, मगर जरूर आना चाहिए, केवल बुद्धत्व देवत्व से बहुत ऊंची बात है। ब्रह्मा विष्णु महेश में तो
तुम अपने ही जैसी सारी बीमारियां पाओगे। ब्रह्मा में तुम अपनी ही कामवासना पाओगे।
विष्णु में तुम अपने ही मोह का विस्तार पाओगे। महेश में तुम अपने ही क्रोध का रूप पाओगे। लेकिन जो तीनों के पार है, जहां न काम बचा, न क्रोध बचा, वहां
ज्ञान। वहां तुम्हारा निर्मल स्वभाव प्रगट होता है; तुम्हारा
स्वरूप पहली दफा सहस्र-दल कमल की भांति खुलता है; पहली बार
तुम्हारे जीवन में संगीत होता है, काव्य होता है।
निश्चित ही महासुख है ज्ञान। लेकिन इस ज्ञान से तुम शास्त्रीय ज्ञान
मत समझना। यह सिर्फ ध्यान से ही उपलब्ध होता है, क्योंकि ध्यान तीनों
को मिटा देता है। वह त्रिमूर्ति को नष्ट कर देता है। जहां यह त्रिमूर्ति नष्ट हुई,
फिर जो शेष रह जाता है, जिसको नष्ट किया ही
नहीं जा सकता, ध्यान अग्नि है जिसमें ये तीनों जल कर राख हो
जाते हैं--और उसके बाद जो शेष रह जाता है, खालिस सोना,
सब कचरा जल गया, सोना कुंदन बनता है अग्नि से
गुजर कर। ध्यान की अग्नि से गुजरकर तुम्हारे भीतर सिर्फ शुद्ध सोना बचता है। वही
ज्ञान है। उसे जिसने पा लिया उसने सब पा लिया। उसे जिसने खोया उसने सब गंवाया। और
हम सब उसे गंवाए बैठे हैं।
और कैसा पागलपन है कि तुम ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पूजा कर रहे हो और
तुम्हारे भीतर स्वयं परमात्मा विराजमान है, चतुर्थ
विराजमान है! तुम्हारे भीतर स्वयं ब्रह्म विराजमान है और तुम दो कौड़ी के देवी
देवताओं की पूजा में लगे हुए हो। अचंभा होता है देख कर कि भीतर ब्रह्म बैठा है,
तुम हनुमान-चालीसा पढ़ रहे हो! कुछ तो शर्म करो! कुछ तो शर्म खाओ!
कुछ तो संकोच लाओ! अरे डूब मरो चुल्लू भर पानी में! हनुमान चालीसा पढ़ रहे हो! न
लाज, न संकोच! "जय गणेश जय गणेश' का
शोरगुल मचा रहे हो! ब्रह्म हो कर क्या खिलौनों से खेल रहे हो! लेकिन मूर्च्छा में
यही संभव है। कीमती है--
नास्ति कामसमो व्याधि नास्ति मोह समो रिपुः।
नास्ति क्रोध समो वहिनास्ति ज्ञानत् परं सुखम्।।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
आप इतना समझाते हैं, फिर भी मेरी पत्नी की समझ में क्यों कुछ नहीं आता है? वह अभी भी दकियानूसी साधु-संतों के सत्संग में समय बर्बाद कर रही है। मैं
क्या करूं?
राजाराम,
राजा भैया, सौभाग्य है कि वह साधु-संतों का सत्संग कर रही है,
नहीं तो तुम यहां न आ सको। उसे करने दो। इतना तुम्हें अवसर मिल जाता
है यहां आने का। बाधा न डालो। और न चेष्टा करो उसे समझाने की। नहीं तो इतनी सुविधा
भी न बचेगी, अगर वह तुम्हारा ही सत्संग करने लगी। जाने दो जहां जाना हो। जहां तुमको पता चल जाए
कि साधु-संत आए हैं, फौरन उसको बता दिए कि बाई जा।
चंदूलाल अपने दोस्त ढब्बू जी को बता रहे थे कि आजकल शहर में स्वामी
मुक्तानंद का सत्संग चल रहा है, बड़ा ही शानदार है अद्भुत है,
गजब का है। तबियत बाग-बाग, अर्थात
गार्डन-गार्डन हो जाती है! कल रात मुझे इतना आनंद आया कि जिंदगी में कभी नहीं आया।
ढब्बू जी ने कहा, "मुझे आश्चर्य होता है
मैंने तो सोचा भी न था कि तुम संत-महात्माओं और अध्यात्म के ऐसे रसिक हो! माफ करना
यार, सच बात तो यह है कि मैं अब तक तुम्हें बस एक मारवाड़ी
व्यापारी ही समझता रहा और तुम्हारे आध्यात्मिक हृदय की पहचान न कर पाया। लेकिन एक
बात समझ में नहीं आती, कल रात सत्संग में मैंने तुम्हारी श्रीमती
जी और बच्चों को देखा था, परंतु तुम नहीं दिखे। तुम कहां
बैठे थे, यह तो बताओ।'
चंदूलाल ने कहा, "मैं! अरे मैं अपने घर में बैठा आराम फरमा रहा था। कई सालों
बाद ऐसा मौका आया कि पत्नी बच्चों का उपद्रव नहीं, घर में
शांति का साम्राज्य छाया, उसी के सुख का तो वर्णन कर रहा हूं कि हे भगवान, यह सत्संग अनंत काल तक चलता रहे!'
तुम क्यों, राजाराम, परेशानी में पड़े हो?
बता दिया, जैसे ही साधु-संतों का पता लगाए रखे,
कि कोई मुक्तानंद आए कि कोई अखंडानंद आए। पत्नी को बता दिया कि जा
बाई, बड़ा गजब का सत्संग हो रहा है! इतनी देर को तुम्हें कम
से कम शांति मिलेगी। ध्यान कर लिया। तुम और अड़चन में पड़ना चाहते हो?
और कौन पति अपनी पत्नी को कभी समझा पाया है? तुमने कभी इतिहास में सुना? तुम असंभव को संभव करने
चले हो? इस झंझट में पड़ो ही मत। खतरा यही है कि कहीं वहीं
तुमको न समझा दे। स्त्रियों के समझने के ढंग अलग हैं। उनके सोचने की प्रक्रिया अलग
है। और पति को तो हर पत्नी दो कौड़ी का समझती है, उससे समझेगी?
और दो कौड़ी का समझने का उसके पास कारण है, क्योंकि
वह अपने को ऊपर दिखाती है हमेशा तुमसे। वह धार्मिक व्रत-उपवास करे।
अब इसमें कई बातें हैं। स्त्रियां आसानी से उपवास कर सकती हैं। इसका
वैज्ञानिक आधार है। पुरुष नहीं कर सकते इतनी आसानी से, क्योंकि स्त्रियों के शरीर में चर्बी ज्यादा इकट्ठी होती है पुरुषों के
बजाए। उसका कारण है, क्योंकि स्त्री के पेट में जब बच्चा
आएगा तो बच्चा इतना स्थान घर लेता है कि स्त्री ठीक से भोजन भी नहीं कर पाती। करती
है तो वमन हो जाता है। तो उन नौ महीने के लिए प्रकृति ने इंतजाम किया हुआ है कि
उसके शरीर में चर्बी इकट्ठी कर देता है, ताकि वह अपनी चर्बी
को ही पचाती रहती है। वह नौ महीने के लिए संकटकाल के लिए व्यवस्था है। पुरुष में
ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। पुरुष के शरीर में चर्बी इस तरह से इकट्ठी नहीं होती
जिस तरह से स्त्री के शरीर में होती है! तो स्त्री अगर उपवास करना चाहे तो बड़ी
आसानी से कर सकती है, उसको अड़चन नहीं है। पुरुष को उपवास से
प्राण निकलते हैं। सो स्त्रियां उपवास कर लेती हैं। और जब स्त्रियां उपवास कर लेती
हैं तो वे कहती हैं, तुम देखो पापी जमाने भर के! उनको आसान
है मामला।
फिर स्त्री स्वभावतः कामवासना में कभी अपनी तरफ से उत्सुकता नहीं
दिखाती। यह उसका स्वभाव नहीं है। इसमें कुछ खूबी नहीं है। यह बस स्वभाव की बात है।
स्त्री प्रतीक्षा करती है, पुरुष निवेदन करता है। और जो निवेदन करता है वही
फंसेगा, क्योंकि वह तुमसे हमेशा कहेगी कि हमेशा तुम
बस...तुमको सिवाय कामवासना के कुछ सूझता ही नहीं! अरे कुछ साध लो धर्म, कुछ कर लो,चार दिन की जिंदगी है, फिर पीछे पछताओगे! और पुरुष की भी मजबूरी है, उसको
निवेदन करना पड़ेगा। वह उसकी प्रकृति है। जैसे स्त्री की प्रकृति है कि वह सिर्फ
प्रतीक्षा करती है, पुरुष निवेदन करता है। वह पुरुष ही
पीछे-पीछे घूमता है। तो स्त्री स्वभावतः अपने को मान कर चलती है वह धार्मिक है।
कौन पुरुष अपनी पत्नी को समझा सकता है कि तेरा धर्म गलत है, कि तू गलत है? वह कहेगी कि पहले अपना मुंह आईने में
देखो! और उनके सोचने कि प्रक्रिया बिलकुल अलग है।
स्त्रियां आमतौर से परंपरावादी होती हैं। उसके पीछे भी प्रकृति कारण
है। स्त्री को सम्हल-सम्हल कर चलना होता है। हमने सदियों से उससे उपेक्षा की है कि
वह सम्हल-सम्हल कर चले। जो सम्हल-सम्हल कर चलेगा वह अतीत को पकड़ेगा, क्योंकि अतीत जाना-माना है। वह खतरा मोल नहीं ले सकता। नये को पकड़ना तो
खतरनाक है, पता नहीं क्या परिणाम हो!
और स्त्रियों को हमने इतनी सदियों तक डराया है, घबड़ाया है। शास्त्र कहते हैं कि जब स्त्री बच्ची हो तो बाप उसकी रक्षा करे;
जब जवान हो तो पति उसकी रक्षा करे और जब बूढ़ी हो जाए तो बेटा उसकी
रक्षा करे। मतलब उसको कभी तुम अपने पैर पर खड़ा होने ही नहीं दोगे, रक्षा ही रक्षा करते रहो! कभी उसको अपनी तरफ से चलने मत देना। तो उसको
तुमने घबड़ा रखा है, डरा रखा है, भयभीत
कर रखा है। उस भय का यह परिणाम हुआ है कि वह हमेशा अतीत को पकड़ती है, जाने-माने को।
मेरी बातें तो नयी हैं। नयी इस अर्थों में हैं कि कोई परंपरागत
साधु-महंत पंडित पुरोहित उनका समर्थन नहीं कर सकेगा। यूं तो वे पुरानी से पुरानी
हैं और नयी से नयी हैं, क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह शाश्वत है और सनातन है।
मगर पंडित-पुरोहित अतीत को पकड़कर चलता है और उससे स्त्री राजी हो जाती है। स्त्री
पंडित-पुरोहितों से बड़े जल्दी राजी हो जाती है। उसको बात जंचती है, क्योंकि वही उसने सुनी है, वही उसे सुनायी गयी है।
तुमने सदियों तक स्त्रियों को वेद पढ़ने का हक नहीं दिया, उपनिषद पढ़ने का हक नहीं दिया। तुमने तो स्त्रियों को कहानियों में भटकाए
रखा। पुराण पढ़ सकती है स्त्री, वेद नहीं पढ़ सकती। तुलसीदास
रामचरितमानस पढ़ ले, बस इतना काफी है। इतना ज्ञान उसके लिए
बहुत है। इससे ज्यादा ज्ञान की उसको जरूरत नहीं। तुमने स्त्रियों को सदियों तक
ज्ञान से रोका है। और मैं ज्ञान की ही अग्नि जला रहा हूं, तो
तुम्हारी स्त्री कैसे राजी हो?
और तुमने अगर उसे खींचने की कोशिश की तो वह कभी नहीं आएगी, क्योंकि यह उसके अहंकार का सवाल हो जाएगा! यह मेरा अनुभव है कि अगर पुरुष
अपनी पत्नियों को यहां लाना चाहें, वे कभी नहीं आएंगी। अगर
पत्नियां अपने पतियों को लाना चाहें, वे कभी नहीं आएंगी। अगर
पत्नियां अपने पतियों को लाना चाहें, वे कभी नहीं आएंगे।
अहंकार का सवाल है--कौन किसकी मानता है! फिर भी मेरा मानना है कि अगर स्त्री जिद करे
तो पति को आना पड़ेगा क्योंकि वह उपद्रव करना जानती है। रोएगी-धोएगी, सिर पीटेगी, खाना न बनाएगी, सामान
तोड़ देगी, रेडियो गिरा देगी, घड़ी फोड़
देगी। तो पति वैसे ही तो पिटा हुआ आता है दिन भर दुनिया से और फिर घर पिटने की
उसकी हैसियत नहीं रह जाती घर चाहता है थोड़ी देर शांति मिले। शांति के लिए वह
समझौता कर लेता है और स्त्री किसलिए समझौता करे? दिन भर तो
वह तैयार होती है कि अब आते ही होंगे पप्पू के पिता। और तो कोई है ही नहीं उसके
लिए। तुमनें छोड़ा भी नहीं उसको संसार कुछ; एक पति पर ही उसको
सब कुछ अटका दिया है। स्वभावतः जो करना है, इसी पति के साथ
करना है। और तो तुमने बंद ही कर दिए सब द्वार दरवाजे। तो उबलती रहती है दिन भर और
तुम आए कि वह टूटी।
फिर, स्त्री-पुरुष के सोचने की प्रक्रियाएं भिन्न होती
हैं। तुम्हारा तर्क उसके काम का नहीं है। स्त्री तर्क से नहीं जीती। स्त्री प्रेम
से जीती है। इसलिए मेरे पास जो स्त्रियां हैं वे इसलिए मेरे पास नहीं हैं कि मेरी
बात उन्हें ठीक लगी। वे इसलिए मेरे पास हैं कि उन्हें मुझसे प्रेम हो आया। और जो
पुरुष मेरे पास हैं, वे इसलिए हैं कि उन्हें मेरी बात ठीक
लगी। दोनों के कारण अलग-अलग हैं। पुरुष मेरे पास इसलिए हैं कि उनको मेरी बात में
राज समझ आया, दृष्टि दिखाई पड़ी। स्त्रियां इसलिए मेरे पास
हैं कि उन्हें मुझमें रस आया। उनका मामला निजी है।
इसलिए हमेशा मैंने अनुभव किया कि अगर मैं पुरुषों की धारणाओं के खिलाफ
कुछ बोल दूं तो वे भाग खड़े होते हैं। क्यों? क्योंकि वे धारणाओं
के कारण ही राजी थे। उनके तर्क को बात लगती थी तो राजी थे। अगर मैंने उनके तर्क के
विपरीत कोई बात कह दी कि वे भाग गए। लेकिन कोई स्त्री संन्यास नहीं छोड़ती। क्योंकि
मेरी बात से उसे उतना प्रयोजन नहीं है, मुझसे प्रयोजन है।
मैं क्या कहता हूं वह उसे अच्छा लगता है, क्योंकि मैं कह रहा
हूं। पुरुष को मैं अच्छा लगता हूं, क्योंकि मेरी बात अच्छी
लगती है। अगर बात ही अच्छी नहीं लगती तो मैं गलत हो गया। दोनों के सोचने की
प्रक्रियाएं अलग हैं।
एक महिला अपनी कार मरम्मत कराने के लिए लायी और गैरेज के मालिक से
बोली, "इसका हार्न ठीक कर दीजिए, इसके ब्रेक खराब हैं।'
एक होटल से रोज दो चम्मच गायब हो जाते थे। सभी परेशान थे। आखिर एक दिन
बैरे ने एक महिला को पकड़ लिया और पूछा कि देवीजी, आप रोज दो चम्मच
क्यों चुरा ले जाती हैं?
महिला बोली, "मैं क्या करूं? मुझे
डाक्टर ने कहा है कि खाने के बाद दो चम्मच लूं।'
एक बहुत मोटी स्त्री डॉक्टर के पास गयी और डॉक्टर से अपने मोटापे की
शिकायत की। डॉक्टर ने कहा, "बहन जी दवाई से तो काम नहीं चलेगा। पर आप उबली
हुई सब्जियां, गाजर मूली आदि और ढेर सारे फलों और दूध और दही
का उपयोग करें।'
मोटी स्त्री ने पूछा, "यह सब खाने के पहले खाऊं
या बाद?'
देखा, स्त्री की पकड़ अलग! उसका हिसाब अलग।
"बहन जी, जनकपुरी की बस कब
जाएगी?' एक व्यक्ति ने पास ही बैंच पर बैठी महिला से पूछा।
"एक घंटे बाद।'
"हे राम'--उन सज्जन ने
कहा--"तब तो इस ठंड में कुल्फी जम जाएगी।'
एक घंटे के बाद भी जब बस नहीं आती तो महिला बोली, "भाई, अगर कुल्फी जम गयी हो तो थोड़ी मुझे भी दे दें।'
एक पति ने अपनी पत्नी से कहा कि कोई भी काम करने से पहले कम से कम
मुझसे पूछ लिया करो। थोड़ी देर बाद ही पत्नी आयी और बोली, "नन्हे के पापा, मैंने खिड़की में से देखा कि रसोई में
बिल्ली दूध पी रही है, अगर आप कहें तो मैं उसे भगा दूं।'
राजाराम, तुम पूछ रहे हो: "आप इतना समझते हैं, फिर भी मेरी पत्नी की समझ में क्यों कुछ नहीं आता?'
यह बात समझ की नहीं है पत्नियों के लिए। यह बात प्रेम की है। तुम
चिंता न करो। अगर तुम्हारी पत्नी यहां आ जाए तो काफी। तुम समझो। समझने की बात
तुम्हारे लिए है। पत्नी तो यहां आए, इतना काफी है। बस
यहां उठे बैठे, इतना काफी है वह डूब जाएगी, मगर तुम आग्रह न
रखो कि उसकी समझ में आना चाहिए। तुम्हारे आग्रह के कारण बाधा पड़ जाएगी। मेरे और
उसके बीच तुम खड़े मत होओ। बस वह आती हो तो अच्छा, सुनती हो
तो अच्छा। न आती हो तो तुम फिक्र मत करो। चिंता मत करो, उसे
खींच कर लाना मत। तुम्हारी जिंदगी की बदलाहट अगर किसी दिन उसे ले आएगी तो ठीक,
अन्यथा कोई और लाने का उपाय नहीं है। जरूरत भी नहीं है।
आखिरी प्रश्न: मेरे जीवन में इतना विषाद क्यों है?
अनिल भारती,
किसके जीवन में विषाद नहीं है? जब तक स्वयं का
साक्षात न हो, विषाद होगा ही। जब तक परमात्मा न मिले,
विषाद होगा ही। यह स्वाभाविक है।
इसलिए विषाद के विश्लेषण में न पड़ो। उतनी शक्ति ध्यान में लगाओ। यही
भेद है मनोविज्ञान में और धर्म में। मनोविज्ञान विश्लेषण करता है कि विषाद क्यों
है? इसका कारण क्या है? और धर्म इसकी चिंता ही नहीं करता
कि विषाद क्यों है, इसका कारण क्या है? धर्म तो सीधा ध्यान का सुझाव देता है।
यूं समझो कि तुम्हारे घर में अंधेरा है। अब पहले यह समझो कि अंधेरा
क्यों है, क्या कारण है, या दीया जलाओ?
मैं तो यह कहूंगा कि अगर अंधेरे को समझना भी हो तो बिना दीया जलाए
कैसे समझोगे? पहले दीया जलाओ, फिर खोजो
अंधेरे को कहां है। मिलेगा भी नहीं।
विषाद का विश्लेषण न पूछो। दीया जला लो। विषाद अंधकार की भांति है।
जब तेरी फुरकत में घबराते हैं हम
सर को दीवारों से टकराते हैं हम
ऐ अजल आ चुक खुदा के वास्ते
जिंदगी से अब तो घबराते हैं हम
कहके आये थे न आवेंगे कभी
बे बुलाये आज फिर जाते हैं हम
किसने वादा घर में आने का किया
आपसे बाहर हुए जाते हैं हम
जब तेरी फुरकत में घबराते हैं हम
सर को दीवारों से टकराते हैं हम
अभी तो करोगे भी क्या--सर को दीवारों से ही टकराओगे! जब तक परमात्मा न
मिल जाए, तब तक जीवन एक पीड़ा ही है, एक
घाव है। परमात्मा के मिलते ही स्वास्थ्य है। और कठिन नहीं है उसका मिल जाना। मिल
जाना सरल है।
जागो। मन से अपनी ऊर्जा को खींचो और ध्यान में उस ऊर्जा को सन्निहित
कर दो। ध्यान का दीया जले कि मीन फिर सागर में आ जाए। और फिर आनंद ही आनंद है।
आज इतना ही।
दसवां प्रवचन; दिनांक ३० सितंबर, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
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