गुरुवार, 11 मई 2017

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02



नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

प्रवचन-दूसरा
दिनांक 26 मई सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।

मैं सिखाने नहीं, जगाने आया हूं
सिखाने का अर्थ है, जो आप नहीं जानते हैं, वह आपको शब्दों में बताया जाए। जगाने का अर्थ है कि जो आप नहीं हैं, वह आपको प्रक्रियाओं के द्वारा करवाया जाए।
प्रश्न:
भगवान, नहिं राम बिन ठांव पर प्रवचन सुनकर हमें आपका वह उदघोष याद आया,
जो आनंदशिला शिविर में मुखरित हुआ था--मैं सिखाने नहीं, जगाने आया हूं।
समर्पण करो और मैं तुम्हें रूपांतरित कर दूंगा, यह मेरा वचन है।
इस परम आश्वासन के सूत्र को कृपया विस्तार से हमें समझाएं।
साथ ही यह भी बताएं कि सीखने और जागने में फर्क क्या है?
और समर्पण और रूपांतरण में संबंध क्या है?

भेद बहुत है सीखने और जागने में। सीखना बहुत सरल है, जागना बहुत कठिन है। सीखने के लिए जागना कोई शर्त नहीं है। सोए हुए भी सीखा जा सकता है। और जो भी हम सीखते हैं, सोए हुए ही सीखते हैं। नींद को तोड़ना अनिवार्य नहीं।
शायद आपको पता हो, रूस के मनोवैज्ञानिक एक नया प्रयोग दस वर्षों से कर रहे हैं। और वह प्रयोग है नींद में ही बच्चों को शिक्षित करने का। प्रयोग मूल्यवान है। प्रयोग मूल्यवान है कि बच्चा सोया रहे रातभर और सीखता रहे। दिन में विद्यालय जाने की जरूरत न हो।
तो बच्चा खेल भी सके, मुक्त भी अनुभव कर सके। दिनभर की कैद है विद्यालय, उससे छुटकारा हो जाए। और प्रयोग सफल हो रहा है। बच्चा सोया रहेगा, उसके कान के पास यंत्र लगा रहेगा। वह नींद में यंत्र उसे गणित, भाषा और भूगोल की सूचनाएं देता रहेगा। बच्चे का अचेतन मन उन सारी सूचनाओं को पकड़ेगा और संगृहीत कर लेगा।
और पाया यह गया कि जागने में जो बाधाएं हैं सीखने में, वे सोने में नहीं हैं। मन विचलित भी होता है, दूसरी चीजें आकर्षित भी करती हैं। बच्चा स्कूल में बैठा है, बाहर पक्षी गीत गा रहे हैं, उसका मन डांवाडोल होता है। कोई रास्ते से गुजरता है, कोई आवाज होती है, उसका मन बंटता है। सोते बच्चे का मन अनबंटा है। और सीखते हम अचेतन से हैं, चेतन से नहीं। फ्रायड ने जिसे अनकांशस कहा है, सारा सीखना उसी से होता है।
इसीलिए सीखने के लिए हमें चीजों को पुनरुक्त करना पड़ता है। अगर आप भाषा सीख रहे हैं, तो उसी शब्द के अर्थ को बहुत बार दोहराना पड़ता है। दोहराने से, पुनरुक्ति से, चेतन से बात अचेतन में उतर जाती है। बार-बार दोहराने से भीतर उतर जाती है। जितना दोहराते हैं, उतनी भीतर चली जाती है। अगर आप एक गीत बार-बार दोहराएं तो कंठस्थ हो जाता है, एक बार दोहराएं तो भूल जाता है। क्योंकि एक बार दोहराने से चेतन मन पढ़ता है, बार-बार दोहराने से चेतन की परतों के नीचे उतरती जाती है बात, धीरे-धीरे अचेतन हो जाती है। सीखते हम अचेतन से हैं।
नींद में चेतन सो जाता है, अचेतन जागता है। नींद में हमारे भीतर का मन तो जागता रहता है, ऊपर का मन सो जाता है। नींद की शिक्षा सीधे अचेतन की शिक्षा है।
इस प्रयोग की बात इसलिए कर रहा हूं ताकि आपको खयाल में आ सके कि सीखना बिना जागे हो सकता है। शायद ज्यादा अच्छी तरह हो सकता है।
सीखना और जागना बड़ी अलग बातें हैं। सीखना स्मृति की ही बात है, सीखने के लिए जानना जरूरी नहीं है। दूसरा जानता हो, तो भी आप सीख सकते हैं। सारी शिक्षा ऐसे ही चलती है। सारी शिक्षा उधार चलती है, स्वयं के अनुभव की कोई बात नहीं है।
प्रेम के संबंध में सीखना हो, तो बहुत शास्त्र ग्रंथालयों में भरे पड़े हैं। आप सब पढ़ सकते हैं। बड़ा शोध कार्य कर सकते हैं। खुद भी एक बड़ा शास्त्र लिख सकते हैं। प्रेम के संबंध में जानने के लिए प्रेम करना जरूरी नहीं है। सीखना हो सकता है बिना अनुभव के।
अनुभव के लिए जागना जरूरी है। और परमात्मा का जो अनुभव है, उसके लिए परिपूर्ण जागना जरूरी है। वह पूर्ण जागृति का अनुभव है। पूरे होश में आप हों तो ही हो सकता है। संसार का ज्ञान नींद में भी मिल जाता है, सत्य का ज्ञान नींद में नहीं मिल सकेगा। चाहे रूस के वैज्ञानिक सफल हो जाएं बच्चों को शिक्षा देने में निद्रा में, लेकिन दुनिया की कोई भी व्यवस्था कभी किसी व्यक्ति को निद्रा में संत बनाने में सफल नहीं हो सकती; पंडित बनाने में सफल हो सकती है।
पांडित्य और निद्रा का कोई विरोध नहीं है। दोनों में बड़ा गहरा संबंध है। ज्ञान और निद्रा का बड़ा विरोध है, क्योंकि ज्ञान का आत्यंतिक अर्थ ही अनिद्रा है, होश है, अमूर्च्छा है।
हम जैसे जीते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, काम करते हैं, वह सब सोया-सोया है। उसमें हम होश में नहीं हैं। भूख लगती है, खाना खा लेते हैं। काम होता है, दफ्तर चले जाते हैं। सांझ होती है, वापस लौट आते हैं। इस सबके लिए होश की कोई भी जरूरत नहीं है। यह सब आदत से हो जाता है। यह यांत्रिक है।
शायद आपको पता हो उन लोगों का, जो नींद में चलते हैं और अनेक काम कर लेते हैं--सोम्नाबुलिस्ट। अनेक लोग हैं, यहां भी कुछ लोग होंगे, क्योंकि मनोवैज्ञानिक कहते हैं, सौ में कम से कम पांच लोग नींद में चल सकते हैं और काम कर सकते हैं। वे उठ आते हैं रात, आंखें खोल लेते हैं। आंखें खुली रहती हैं और भीतर सब सोया रहता है। उठते हैं, अंधेरे में चल लेते हैं। शायद दिन में अंधेरे में चलना मुश्किल हो जाए। जागे हों, तो अंधेरे में चलना मुश्किल हो जाए। लेकिन रात नींद में उठकर चलते हैं, टकराते नहीं, फर्नीचर हो रास्ते में तो आहिस्ता से पार कर जाते हैं। अंधेरे में जाकर घर में अनेक काम कर लेते हैं।
बहुत बार पाया गया कि सुबह घर के लोग कहते हैं कि घर में कुछ भूत-प्रेत की बाधा है। और बाधा कुल इतनी थी कि घर का कोई एक सदस्य रात में उठकर चीजों को अस्तव्यस्त कर देता था। उसे भी होश नहीं है। सुबह पूछे जाने पर वह भी नहीं कह सकता कि मैं उठा। उसे कोई पता नहीं है। जैसे कोई आदमी शराब की बेहोशी में रास्ते पर चल लेता हो। और शराबी अगर अभ्यस्त हो तो आप पता भी नहीं लगा सकते कि वह नशे में है। ऐसे ही रात की निद्रा में भी लोग चल लेते हैं, काम कर लेते हैं। कई बार तो लोगों ने ऐसे काम किए हैं जो चमत्कारी कहे जा सकते हैं। लोगों ने हत्याएं भी कर दी हैं और फिर वापस जाकर अपने बिस्तर पर सो गए हैं। और सुबह उन्हें कुछ भी पता नहीं।
न्यूयार्क में १९४० में एक घटना घटी। एक आदमी अपने मकान से दूसरे मकान की छत पर नींद में कूद जाता था। कोई पचास मंजिल मकान, दोनों मकानों के बीच में पचास मंजिल गहरी खाई, और वह एक छत से दूसरी छत पर कूद जाता था। इसकी खबर लोगों को लग गई। रोज नियमित एक बजे रात वह उठेगा, दूसरी छत पर कूदेगा, फिर वापस कूदकर अपने बिस्तर पर सो जाएगा। धीरे-धीरे लोगों की भीड़ इकट्ठी होने लगी देखने, क्योंकि फासला इतना था कि जागते में भी कूदना बहुत खतरनाक और दुस्साहस का काम था।
लोगों की भीड़ एक दिन इतनी इकट्ठी हो गई कि जब वह आदमी कूदा और छलांग पार कर गया तो लोग खुशी से चिल्ला उठे। उसकी नींद टूट गई। नींद टूटते ही वह इतना घबड़ा गया। वह कूदकर दूसरी छत पर खड़ा था। छलांग पार हो गया था। अब कोई खतरा न था। लेकिन उस छत पर खड़े होकर जब उसने नीचे देखा और नींद टूट गई आवाज से, तो वह घबड़ाकर कंप गया और गिर गया और मर गया।
छलांग न मार सकी। यह खयाल ही कि मैं इतनी बड़ी खाई को पार कर गया हूं--पचास मंजिल ऊंचाई को--इतना घबड़ा गया, कंप गया, कि गिर गया और मर गया। नींद में अनेक बार कर चुका था, जागने में बिना किए मौत घट गई।
सीखना नींद में भी हो सकता है। नींद से अर्थ है, एक ऐसी जीवन-चर्या, जहां हम ध्यानपूर्वक नहीं जीते। आप जो भी काम करते हैं, ध्यान कहीं और होता है। रास्ते पर चलते होते हैं, शरीर रास्ते पर होता है, मन हो सकता है घर हो, पत्नी से बात कर रहा हो, कि दफ्तर पहुंच गया हो आपके पहले, और दफ्तर में व्यवस्था कर रहा हो और आप अभी रास्ते पर हैं।
मन कहीं और, शरीर कहीं और--यह मूर्च्छा की अवस्था है। जहां शरीर, वहीं मन--यह होश की अवस्था है।
यहां मुझे आप सुन रहे हैं। अगर सुनते इन क्षणों में, सिर्फ सुनने की ही प्रक्रिया रह जाए; मन कहीं भी न जाए, बस यहीं हो, अभी हो और सुनना ही एकमात्र घटना रह जाए; जैसे सारा जगत खो गया, जैसे कुछ भी न बचा, यहां मैं हूं जो बोल रहा हूं, वहां आप हैं जो सुन रहे हैं, बस इन दो के बीच एक सेतु बन जाए और आपका मन कोई और दूसरा काम न करता हो, सब भांति निष्क्रिय हो जाए, सिर्फ सुने, सिर्फ सुने, सिर्फ सुने, तो इस सुनने के क्षण में आपको होश का अनुभव होगा। आप पहली दफा पाएंगे, ध्यान क्या है।
ध्यान का अर्थ है, इस क्षण में होना, इस क्षण के पार न जाना।
बुद्ध से किसी ने पूछा है, कैसे ध्यान करें? तो बुद्ध ने कहा है, जो भी तुम करो उसे ध्यानपूर्वक करो, बस यही ध्यान है। चलो तो ध्यानपूर्वक चलो, जैसे चलना ही सब कुछ है। भोजन करो तो ध्यानपूर्वक करो, जैसे भोजन करना ही सब कुछ है। उठो तो ध्यानपूर्वक उठो, बैठो तो ध्यानपूर्वक बैठो। सारी क्रियाएं ध्यानपूर्वक हों। क्षण के बाहर हमारा मन न जाए, क्षण की सीमा में हमारा मन ठहरे, रुके, स्थिर हो, बस यही ध्यान है।
ध्यान कोई अलग से प्रक्रिया नहीं है। ध्यान जीवन को होशपूर्वक जीने की विधि का नाम है। ध्यान कोई ऐसी बात नहीं कि चौबीस घंटे में एक घंटा निकालकर आप बैठें और कर लें। क्योंकि तेईस घंटे गैर-ध्यान हो और एक घंटा ध्यान हो तो गैर-ध्यान जीतेगा, ध्यान नहीं जीत सकता। तेईस घंटे मूर्च्छा हो और एक घंटा अगर अमूर्च्छा का प्रयोग हो, तो आप कभी बुद्धत्व को उपलब्ध न हो सकेंगे। यह एक घंटा कैसे जीतेगा तेईस घंटे पर?
और भी समझ लेने की बात है कि तेईस घंटे जो मूर्च्छित हो, वह एक घंटा होश में हो कैसे सकेगा? तेईस घंटा जो बीमार हो वह एक घंटा स्वस्थ कैसे हो सकेगा? क्योंकि स्वास्थ्य या बीमारी एक अंतर्धारा है। आप तेईस घंटे बीमार हैं, तो चौबीस घंटे बीमार होंगे। आप तेईस घंटे स्वस्थ हैं, तो चौबीस घंटे स्वस्थ होंगे। क्योंकि एक घंटे अचानक जीवन की अंतर्धारा नहीं तोड़ी जा सकती। बहती धारा बहती रहेगी।
आप मंदिर चले जाएं, मस्जिद चले जाएं, गुरुद्वारा पहुंच जाएं, इससे कुछ ध्यान नहीं हो जाएगा। क्योंकि दुकान पर आप बेहोश थे, घर में आप बेहोश थे, बाजार में आप बेहोश थे, तो अचानक मंदिर में होश कैसे सध जाएगा? उसकी अंतर्धारा न होगी, तो अचानक कुछ भी फलित होने वाला नहीं है। इसलिए बुद्ध ने कहा है, चौबीस घंटे ध्यान हो, तो ही ध्यान घट सकता है।
इसलिए ध्यान जीवन के बहुत कार्य-कलाप में एक कर्म नहीं है। ध्यान जीवन के बहुत कर्मों की माला में एक गुरिया नहीं है। बहुत गुरिया हैं, उसमें ध्यान एक गुरिया नहीं है। ध्यान तो सभी गुरियों के बीच पिरोए हुए धागे की भांति है।
तो ध्यान एक कृत्य नहीं है, बल्कि जीवन का एक ढंग है। जो भी हम कर रहे हों, वही ध्यानपूर्वक हो जाए। हर गुरिए में छिपा हुआ धागा हो, तो ही माला निर्मित होगी। वह धागा दिखाई भी नहीं पड़ता। वह गुरियों में छिपा है, आच्छादित है। ध्यानी दिखाई भी नहीं पड़ता, उसके सभी कर्मों के बीच उसके ध्यान का धागा पिरोया हुआ है। और जिस दिन कोई व्यक्ति ध्यानपूर्वक जीता है, उस दिन जागता है; गैर-ध्यानपूर्वक जीता है तो सोता है।
महावीर से कोई पूछता है कि साधु की परिभाषा क्या? तो जैसी परिभाषा महावीर ने की, वैसी किसी ने कभी नहीं की। महावीर ने कहा, असुत्ता मुनि, सुत्ता अमुनि। वह जो सोया है, वह असाधु, अमुनि। जो जागा है, वह मुनि, वह साधु।
कौन जागा हुआ है? जिसका प्रत्येक कृत्य ध्यानपूर्वक है। धर्म का अनुभव, मुक्ति का अनुभव, जागी हुई चेतना में घटी घटना है, बाकी सब सीखना सोए हुए चित्त के साथ जुड़ा है।
इसलिए मैंने कहा कि जागने और सीखने में बड़ा फर्क है।
और मैं, मेरी चेष्टा, तुम्हें कुछ सिखाने की नहीं है। सीखने के लिए तो बहुत बड़ा जगत है। यहां बड़े विश्वविद्यालय हैं, यहां बड़े पंडित हैं, यहां बड़े शास्त्र हैं, पुस्तकालय हैं, सीखने के लिए तो बड़ा विस्तार है। वह तुम कहीं भी कर सकते हो। सिखाने के लिए तो बहुत उपाय हैं, बहुत मार्ग हैं, वह कहीं भी हो सकता है। और सीखने के लिए भीतर बड़ी महत्वाकांक्षा भी है, क्योंकि सीखने से तुम शक्तिशाली होते हो। जितना ज्यादा तुम जानते हो, जितने बड़े तुम विशेषज्ञ हो किसी बात के, उतनी तुम्हारे हाथ में शक्ति है। जितना तुम्हारे पास ज्ञान है, उतनी तुम्हारे पास संपदा है। ज्ञान भी संपत्ति है। कुछ लोग तिजोरी में संपत्ति इकट्ठी करते हैं, कुछ लोग स्मृति में संपत्ति इकट्ठी करते हैं।
और ध्यान रहे, स्मृति में संपत्ति इकट्ठी करने वाला ज्यादा होशियार है। तिजोरी चोरी जा सकती है, राज्य की आर्थिक व्यवस्था बदल सकती है, कम्युनिस्ट क्रांति हो सकती है। तिजोरी का बहुत भरोसा नहीं है। चोर ले जा सकते हैं, साम्यवादी ले जा सकते हैं, राज्य छीन सकता है। तिजोरी का भरोसा बहुत गहरा नहीं है, लेकिन स्मृति को चुराना इतना आसान नहीं। यद्यपि अब स्मृति को चुराने के उपाय भी हो रहे हैं। स्मृति राज्य के बदलने से नहीं बदलती, लेकिन अब कोशिश चल रही है कि वह बदली जा सके।
चीन और कोरिया में कम्युनिस्टों ने बड़े प्रयोग किए हैं लोगों की स्मृति चुरा लेने के, स्मृति को बदलने के। क्योंकि अंततः तो वह भी संपत्ति है, भीतर है, छिपी है। मस्तिष्क सूक्ष्म और दुरूह है, अभी हमारी वहां पहुंच उतनी नहीं है। लेकिन पहुंच शुरू हो गई है।
पुराने ग्रंथों में कहा है, पुराने विश्वविद्यालयों में लिखा हुआ है कि धन इकट्ठा करना वास्तविक नहीं। धन चोरी जा सकता है। ज्ञान इकट्ठा करना वास्तविक है, क्योंकि ज्ञान की कोई भी चोरी नहीं। धन तो मृत्यु छीन लेगी। ज्ञान मृत्यु के भी पार जा सकेगा। पुराने वचन आपने सुने होंगे कि पंडित की प्रतिष्ठा सार्वलौकिक है, जहां भी पंडित जाए वहां आदृत होगा।
लेकिन वे बातें पुरानी पड़ गईं। अब हमने भीतर की तिजोरी को भी तोड़ने और बदलने के उपाय खोज लिए हैं। ब्रेनवाशिंग के बड़े उपाय चल रहे हैं, मस्तिष्क को कैसे पोंछकर बदला जा सके।
चीन में कम्युनिस्टों ने बड़ा प्रयोग किया है। खतरनाक है। कोरिया में अमरीकी जो कैदी रह गए थे, उनके ऊपर उन्होंने बड़े प्रयोग किए हैं। अमरीकन युवकों के मस्तिष्क को पोंछने की कोशिश की है।
और मस्तिष्क पोंछे जा सकते हैं, क्योंकि स्मृति एक चिह्न की भांति है। जैसा टेप रिकार्ड है, वैसी ही स्मृति भी है। उसे पोंछा जा सकता है, कोरा किया जा सकता है, नई स्मृति डाली जा सकती है। मुसलमान को हिंदू बनाया जा सकता है, बिना उसके होश के। गीता पोंछनी है और कुरान लिखना है--हिंदू को मुसलमान बनाया जा सकता है।
तो जो अमरीकी सैनिक चीनी शिविरों में रहकर लौटे वापस, अमरीका चकित हुआ, क्योंकि वे सभी कम्युनिस्ट हो गए थे। जो कि असंभव है, जो कि उन्होंने बोधपूर्वक नहीं किया था। और जब उनके मस्तिष्क की जांच-पड़ताल की गई, तो पाया गया कि उनके साथ कुछ किया गया है। कुछ उनकी स्मृति को तोड़ने के उपाय किए गए हैं।
और अब अमरीका में भी उस पर बड़े प्रयोग चलते हैं। बहुत बड़ा विचारक है, स्किनर। वह कहता है, अब दुनिया में लोगों को समझाने की जरूरत नहीं, अब हमारे पास व्यवस्था है। अच्छा बनाना हो, तो उनके मस्तिष्क को बदला जा सकता है। उनसे कहने की, सिखाने की, नीति की शिक्षा देने की कोई भी जरूरत नहीं है। केमिकल्स के द्वारा भी मस्तिष्क बदला जा सकता है। सर्जरी के द्वारा भी मस्तिष्क बदला जा सकता है। इलेक्ट्रोड्स डाले जा सकते हैं मस्तिष्क में और व्यक्तियों को संचालित किया जा सकता है।
हर बच्चे के पैदा होते ही उसके मस्तिष्क में एक इलेक्ट्रोड डाला जा सकता है, जिसका उसे भी पता नहीं होगा, उसके मां-बाप को भी पता नहीं होगा। और जीवनभर उस इलेक्ट्रोड के द्वारा जो भी उससे करवाना हो, वह करवाया जा सकता है। और उसे लगेगा कि यह मैं ही कर रहा हूं। कोई आदेश दे रहा है, ऐसा भी प्रतीत नहीं होगा। उसे लगेगा, यह मेरी ही अंतःप्रेरणा है, तो वह सोचेगा कि मैं स्वतंत्रता से कर रहा हूं।
स्किनर और उसके साथियों ने जो कुछ खोजा है, वह मनुष्य की परतंत्रता का एक महान अंधकारपूर्ण युग शुरू हो सकता है उसके द्वारा। क्योंकि आपको लगे कि आप कर रहे हैं और आपको संचालित किया जा रहा हो राजधानी से, रेडियो पर खबरें दी जा रही हों और वह आपका मस्तिष्क पकड़ रहा हो। स्किनर कहता है, अगर गांव उपद्रवी है, तो क्षणभर में शांत किया जा सकता है। अगर लोग बगावत कर रहे हैं, तो उनको आज्ञाकारी बनाया जा सकता है। अगर सैनिकों को युद्ध पर भेजा है, तो उन्हें निर्भय बनाया जा सकता है। सिर्फ सूचना देने की बात है कि कोई मृत्यु नहीं है, घबड़ाने का कोई कारण नहीं है। और वे इस तरह कूद जाएंगे जैसे कोई भी मृत्यु नहीं है।
स्मृति को भी अब चुराने के, बदलने के, नष्ट करने के, नए करने के उपाय हैं। लेकिन वह भी इसीलिए क्योंकि वह भी संपदा है। सिर्फ एक चीज को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता, वह है अंतर-चेतना, अंतरऱ्होश, अवेयरनेस। उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता।
बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट हमसे ज्यादा स्मृति वाले लोग नहीं हैं, हमसे ज्यादा होश वाले लोग हैं। उनसे कुछ भी छीना नहीं जा सकता। हम उनके शरीर की हत्या कर सकते हैं, हम उन्हें टुकड़े-टुकड़े में काट डाल सकते हैं, लेकिन उनके होश को हम खंडित नहीं कर सकते।
क्योंकि होश हमारे भीतर किसी यंत्र का परिणाम नहीं है। होश हमारे अंतर-हृदय का, अंतर-केंद्र का, आत्मा का--या जो भी नाम हम देना पसंद करें, उसका स्वभाव है--इसलिए होश को कोई नष्ट नहीं कर सकता। स्मृति डाली जा सकती है और वापस ली जा सकती है। स्मृति बाहर से आती है, इसलिए वापस बाहर जा सकती है। होश हमारे भीतर से उठता है, बाहर से नहीं आता। इसलिए वापस हमसे छीना नहीं जा सकता।
सिवाय ध्यान के मृत्यु को और कोई चीज पार नहीं करती है। ज्ञान नहीं, ध्यान ही केवल मृत्यु में भी साथी हो सकता है। सिर्फ ध्यान स्वतंत्र बनाता है।
इसलिए हिंदुओं ने निरंतर कहा है, ध्यान के अतिरिक्त और कोई मोक्ष नहीं है, सब बंधन है। सब तरह से बांधा जाता है। हमारी नीति बंधन है, हमारा ज्ञान बंधन है। सब बांधता है। सिर्फ ध्यान मुक्त करता है।
तो मैंने जो कहा कि मैं सिखाने नहीं, जगाने का प्रयास कर रहा हूं, वह इस प्रयोजन से कि आपकी स्मृति को बढ़ाने की मुझे कोई इच्छा नहीं है। वह बढ़ जाए, तो उससे कुछ हित भी नहीं है। आप थोड़ा ज्यादा जान लें, थोड़ी ज्यादा इन्फरमेशन आपके पास हो जाए, इससे कुछ हित होने वाला नहीं है। लेकिन आपका ध्यान ज्यादा हो जाए, आपकी चेतना प्रगाढ़ हो जाए, आप ज्यादा होशपूर्वक हो जाएं, तो आपके जीवन में क्रांति घटित हो सकती है।
जगाने के प्रयास मूलतः भिन्न होंगे। सिखाने के प्रयास भिन्न होंगे। सिखाने का अर्थ है, जो आप नहीं जानते हैं, वह आपको शब्दों में बताया जाए। जगाने का अर्थ है कि जो आप नहीं हैं, वह आपको प्रक्रियाओं के द्वारा करवाया जाए।
नदी के किनारे बैठकर तैरने के संबंध में मैं आपको कुछ बताऊं, उससे आपकी जानकारी बढ़ेगी। आपको धक्का देकर नदी में उतार दूं, उससे तैरने का जन्म होगा। जो लोग भी तैरना सिखाते हैं, उनके सिखाने की प्रक्रिया और कुछ भी नहीं है। वे आपको नदी में धक्का दे देते हैं। आप हाथ-पैर तड़फड़ाने लगते हैं। तैरने की शुरुआत हो गई।
ध्यान के जिन प्रयोगों को मैं निरंतर आपसे करने को कह रहा हूं, वे चेष्टाएं हैं तैरना सीखने की। मेरा जोर सूचना पर कम, विधि पर ज्यादा है। और सूचना पर उतना ही है, जितने से आपको विधि के लिए राजी किया जा सके।
बुद्ध से कोई पूछता है, ईश्वर है? तो बुद्ध चुप रह जाते हैं। लेकिन बुद्ध से अगर कोई पूछता है कि ईश्वर को पाने का कोई उपाय है? तो वे तत्क्षण बोलते हैं। बुद्ध से कोई पूछता है कि मोक्ष के संबंध में कुछ कहें, तो वे मौन रह जाते हैं। लेकिन बुद्ध से अगर कोई पूछता है, मोक्ष कैसे पाया जाए? तो वे तत्क्षण जीवित हो जाते हैं, जैसे तैयार बैठे थे, प्रतीक्षा कर रहे थे। अंतिम क्षणों में बुद्ध से किसी ने पूछा है कि आप हमें कौन-सा तत्व सिखाना चाहते थे? तो बुद्ध ने कहा, तत्व मैं तुम्हें कोई भी नहीं सिखाना चाहता था। मैं तुम्हें सिर्फ विधि देना चाहता था, जिससे तुम परमत्तत्व को जान सको।
विधि और सूचना का, मैथड और इन्फरमेशन का फर्क है। भोजन के संबंध में हम घंटों तक चर्चा कर सकते हैं। उससे किसी की भूख मिटेगी नहीं। बढ़ सकती है, मिटने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन भोजन तैयार करने में हम लग जाएं, चाहे पहले दिन कोई बहुत स्वादिष्ट भोजन तैयार न भी हो--क्योंकि पहले ही दिन हम कोई भोजन बनाने में कुशल न हो जाएंगे--लेकिन जो भी रूखा-सूखा तैयार होगा, वह भूख को मिटाएगा।
परमात्मा एक क्षुधा है हमारे भीतर, एक भूख है, एक प्यास है। वह किन्हीं भी सिद्धांतों से तृप्त नहीं की जा सकती। कोई शास्त्र उस भूख को मिटाएगा नहीं। शास्त्र उस भूख को बढ़ा दे तो परम उपकार है।
कोई गुरु सिर्फ शिक्षाओं के द्वारा उस क्षुधा को तृप्त नहीं कर सकता, प्रज्वलित कर दे तो परम कृपा है। इसलिए सदगुरु आपकी प्यास बुझाता नहीं, जगाता है। वह आपको संतोष नहीं देता, असंतुष्ट करता है। वह आपको चैन नहीं देता, क्योंकि चैन तो मृत्यु बन जाएगी। वह आपको और बेचैन करता है, एक नए अलौकिक जगत की दिशा में, एक अनजान यात्रा पर वह आपको धक्के देता है। वह आपके प्राणों में एक अग्नि को जलाता है कि आपका रोआं-रोआं प्यासा हो उठे, आपकी श्वास-श्वास अतृप्त हो जाए, आपका पूरा जीवन एक भूख हो जाए। और जब तक वह भूख तृप्त न हो, तब तक आप विक्षिप्त की तरह बेचैन और व्याकुल हो उठें।
सदगुरु के पास मिलती है व्याकुलता, असदगुरु के पास मिलती हैं सूचनाएं। असदगुरु आपको पंडित बना देगा, आप बहुत सी बातें बिना जाने जानने लगेंगे। शास्त्र आपके हृदय में बैठ जाएंगे। सत्य से कोई संपर्क न होगा। सत्य से संपर्क तो तभी हो सकता है, जब प्यास सघन हो। इतनी सघन हो कि आप प्यास ही हो जाएं। प्यास इतनी सघन हो जाए कि आपको ऐसा भी न लगे कि मैं प्यासा हूं; मैं प्यास हूं, ऐसी प्रतीति होने लगे; कि आपका रोआं-रोआं एक प्रज्वलित अग्नि हो।
जिस क्षण आपका रोआं-रोआं प्रज्वलित अग्नि होता है, उसी क्षण वर्षा हो जाती है। वही क्षण क्रांति का, रूपांतरण का क्षण है। उसी क्षण सत्य से संपर्क हो जाता है।
गुरु के पास जाकर मिलेगा दुख--दुख कि हम भूखे हैं, कि प्यासे हैं, कि अतृप्त हैं, दुख कि जो चाहिए वह हमारे पास नहीं--गुरु के पास सांत्वना नहीं मिलेगी। गुरु सारी सांत्वनाएं छीन लेगा। गुरु कोई कन्सोलेशन नहीं है कि आपको समझाए कि सब ठीक है, सब ठीक हो जाएगा। गुरु एक क्रांति है। वह आपकी सारी सांत्वना तोड़ देगा, वह आपकी सारी सांत्वना छीन लेगा। वह आपने जो अपने आसपास निद्रा का आयोजन किया है कि सब ठीक है, उस सबको बिखरित कर देगा और बताएगा कि कुछ भी ठीक नहीं है, सब गैर-ठीक है और तुम एक अराजकता हो और तुमने जो भी अब तक पाया है, वह कचरा है और जो भी पाने योग्य है, उस तरफ तुमने हाथ भी नहीं बढ़ाया; तुम्हारी मुट्ठियां कंकड़-पत्थरों से भरी हैं और तुमने उन कंकड़-पत्थरों को हीरे समझ रखा है। वह तुमसे छीन लेगा, जो भी तुम्हारे पास है। वह तुम्हें नग्न कर देगा। वह तुम्हें कोरा शून्य कर देगा। और उसी शून्य और उसी नग्नता से तुम्हारी आध्यात्मिक प्यास जगेगी। वह तुमसे सभी कुछ छीन लेगा कि तुम्हारे पास कोई भरोसा न रह जाए। तुम्हारी सारी सुरक्षा, तुम्हारा सारा आयोजन भ्रांति का, स्वप्न का, सब खंडित कर देगा।
गुरु मूर्तिभंजक है। और वह मूर्तियां, मंदिरों में जो स्थापित हैं, उनको नहीं तोड़ने जाता, क्योंकि उन्हें तोड़ना मूढ़ता है। वह तुम्हारे भीतर स्थापित तुम्हारी ही मूर्ति को तोड़ता है। तुमने जो अपने को समझ रखा है, वह तुम हो नहीं। तुम्हारे चेहरे पर जो शांति दिखाई पड़ती है, वह झूठी है। तुम जो मुस्कुराते हो, वह सामाजिक व्यवहार है, लोकाचार है। वह जो तुम बताते हो कि सब ठीक है, वह झूठ है, ठीक कुछ भी नहीं है। और जब भी तुमसे सुबह कोई पूछता है कि कहो तुम कैसे हो? तो तुम कहते हो, सब ठीक है। वह सिर्फ शब्द है, शब्द से ज्यादा नहीं है। तुमने कभी उस पर दुबारा सोचा भी नहीं है कि यह जो मैं कह रहा हूं, वह कितने दूर तक सच है। तुम सोचने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते, क्योंकि डर लगता है। ठीक तो कुछ भी नहीं है, शिष्टाचार है और उचित है कि दूसरे को हम कहें कि सब ठीक है। लेकिन दूसरे को कहते-कहते तुम्हें खुद भी भरोसा आ गया है कि सब ठीक है। तुम यह भूल ही गए हो कि कुछ भी ठीक नहीं है।
इसलिए सदगुरु के पास जाना खतरनाक है, जोखिमपूर्ण है। क्योंकि वह तुम्हारी सारी भ्रांतियां तोड़ देगा और सिवाय भ्रांतियों के तुम कुछ भी नहीं हो। वह तुम्हारा सारा संतोष छीन लेगा और एक ऐसे असंतोष का जन्म होगा जो परमात्मा के पाने के पहले कभी नहीं मिटता है फिर। और एक ऐसी व्याकुलता जन्मती है, एक ऐसा विरह पैदा होता है, जो शूलों की भांति चुभने लगता है सब तरफ से। एक ऐसी व्याधि पैदा होती है, जो परम स्वास्थ्य न मिल जाए, तब तक पीछा करती है।
इसलिए गुरु के पास केवल अति साहसी लोग ही जा सकते हैं। उचित होगा, हम कहें दुस्साहसी लोग ही जा सकते हैं। वह आग से खेलना है, क्योंकि एक दूसरे संसार की खबर, एक दूसरे जगत का संदेश, वह जो ज्ञात है उसके पार अज्ञात की यात्रा, जिसका न कोई नक्शा है और जिसके संबंध में कोई सूचना नहीं दी जा सकती। वह कोई धंधा नहीं है। वह बिलकुल जुआरी का खेल है, वहां हम अपने को दांव पर लगाते हैं और हमें बिलकुल पक्का पता नहीं कि क्या परिणाम होगा।
ऐसे दांव पर लगाने वाले लोगों को ही मैं साधक कहता हूं, संन्यासी कहता हूं। जो वे जानते हैं, उसे दांव पर लगा देते हैं उसके लिए, जिसे वे जानते नहीं। दुनिया की जो समझदारी है, वह इसके विपरीत है। इसलिए संन्यासी को दुनिया हमेशा पागल समझती है। क्योंकि दुनिया जीती है व्यवसाय के नियम से। एक रुपया दांव पर लगाओ, अगर सवा रुपया मिलने का पक्का भरोसा हो। क्योंकि दुनिया कहती है, हाथ की आधी रोटी बेहतर है, सपने की पूरी रोटी से। जो हाथ में है वह उचित है, उसे छोड़ना पागलपन है उसके लिए, जो कभी मिलेगा। मिलेगा या नहीं मिलेगा, उसका कुछ पक्का भरोसा नहीं।
उमर खय्याम की प्रसिद्ध रुबाई है कि जो हाथ में है, उसे मत छोड़ो, उसे भोगो। क्योंकि जो हाथ में नहीं है, वह है भी, इसका भी पक्का नहीं है। इसलिए इस संसार को भोग लो और उस संसार की बात मत उठाओ। अगर वह होगा तो देखेंगे, निपटेंगे। लेकिन वह है या नहीं, कोई भी नहीं जानता। इसलिए जो पास है, उसे भोग लो--शरीर को, इंद्रियों को, संसार को--उसे निचोड़ लो पूरा।
सांसारिक आदमी का तर्क है कि जो हाथ में है, उसे निचोड़ लो; और जो हाथ में नहीं है, उसका विचार ही मत करो। संन्यासी का तर्क बिलकुल विपरीत है, वह कहता है, हाथ में जो है वह कंकड़-पत्थर है। उनमें से निचोड़ो भी कुछ, तो निकलेगा नहीं। उसमें निचोड़ने योग्य भी कुछ नहीं है। वहां कुछ रस ही नहीं है जो निकल सके। और उसे छोड़ते ही उसके द्वार खुल जाते हैं जो अज्ञात है। और जीवन का सारा आनंद वहां है।
जुआरी ही इस खेल में उतर सकते हैं। इसलिए मैं अक्सर कहता हूं कि व्यवसायी धार्मिक नहीं हो पाता, क्योंकि व्यवसायी गणित से जीता है।
मैंने सुना है, एक व्यवसायी ने एक बार एक लाटरी के दो टिकट खरीदे दो रुपये में। एक-एक रुपये के दो टिकट खरीदे। और संयोग की बात कि प्रथम पुरस्कार उसे मिल गया। कोई दस लाख रुपये का पुरस्कार था। मित्र, परिचित भागे उसके घर। ऐसी शुभ घटना घटी थी और सभी उसको बधाइयां देना चाहते थे। लेकिन वह उदास अपने बिस्तर पर पड़ा था। दोनों टिकट उसके हाथ में थे। मित्रों ने कहा, तुम और उदास? उसने कहा कि मैं यह सोच रहा हूं कि मैंने यह दूसरा टिकट किस दुर्भाग्य की घड़ी में खरीदा। एक टिकट तो ठीक है, जिससे दस लाख मिले, मगर यह दूसरा टिकट, जिसमें एक रुपया व्यर्थ गया।
व्यवसायी का तर्क यही है। इसलिए व्यवसायी धार्मिक नहीं हो पाता।
यह जानकर आप चकित होंगे कि इस मुल्क में जो बड़े से बड़े धार्मिक लोग पैदा हुए, वे सब क्षत्रिय घरों से आए हैं। न तो वे ब्राह्मण-पुत्र थे, न वे व्यावसायिक, वणिक घरों से आए थे। महावीर, बुद्ध, पार्श्व, नेमी, कृष्ण, राम सभी क्षत्रिय घरों से आए हैं। क्षत्रिय जुआरी हो सकता है। उसका गणित अलग ढंग का है। वह ब्याज के ढंग से नहीं सोचता, वह दांव के ढंग से सोचता है। मरना-जीना उसे छलांग की भांति है।
सारी दुनिया में धार्मिक व्यक्ति हमेशा जुआरी के ढंग का होता है। जुआरी का मतलब है दुस्साहसी। जुआरी का अर्थ है: जो है, उसे उसके लिए दांव पर लगा दे जो अभी है नहीं; वास्तविक को संभावना के दांव पर लगा दे।
कवि तो हो सकता है धार्मिक हो जाए, दुकानदार धार्मिक नहीं हो पाता। और दुकानदार जब धार्मिक होते हैं, तो धर्म को भी दुकान बना लेते हैं। धर्म उन्हें नहीं बदल पाता, वे धर्म को बदल देते हैं। उनके मंदिर, उनकी मस्जिदें दुकानें हो जाती हैं। वहां हिसाब-किताब के खाते-बहियां पहुंच जाते हैं।
जब मैं कहता हूं, मैं सिखाने नहीं जगाने आया हूं, तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम्हारा व्यवसाय, तुम्हारा वाणिज्य तुमसे छीन लेना चाहता हूं। चाहता हूं कि तुम दुस्साहसी जुआरी हो जाओ। तुम्हारे पास जो है, तुम आंखें खोलकर उसे देखो और पाओ कि वहां कुछ भी नहीं है, ताकि जो तुम्हारे पास नहीं है, उसकी खोज शुरू हो सके।
यात्रा कठिन है और यात्रा तभी हो पाएगी, जब तुम जागे हुए होओगे। अगर तुम सोए हुए हो, तो तुम भटक जाओगे। और भटकने की बहुत संभावना है। क्योंकि भटकने के लिए बड़ा विस्तार है। पहुंचने के लिए तो एक संकीर्ण मार्ग है। संतों ने कहा है: तलवार की धार की तरह संकीर्ण। भटकने के लिए बड़ा विस्तार है, इस पृथ्वी से बड़ा। बड़ा संसार है भटकने के लिए।
वह जो तलवार की धार का संकीर्ण मार्ग है, उसको ही हम ध्यान कह रहे हैं। अगर ध्यान की कोशिश करोगे, तो तत्क्षण समझ में आ जाएगा कि क्यों संतों ने कहा है तलवार की धार की तरह संकीर्ण। क्योंकि जरा-जरा में चूक जाता है। एक क्षणभर भी ध्यान नहीं हो पाता कि गैर-ध्यान की अवस्था पकड़ लेती है।
कभी अपनी घड़ी को हाथ में रखकर बैठ जाओ और एक छोटी-सी कोशिश करो कि वह जो सेकेंड को बताने वाला भागता हुआ कांटा है, उस पर ध्यान रखो और यह कोशिश करो कि मैं कितने सेकेंड तक उसका स्मरण साधे रख सकता हूं। दूसरी बात मन में न आए, बस सेकेंड का कांटा ही मेरे खयाल में रहे। तुम पाओगे कि तीन सेकेंड भी बहुत मुश्किल हो जाता है। तीन सेकेंड भी नहीं बीत पाते कि तुम्हारा मन कहीं और जा चुका, किसी और लोक में, किसी और वासना में। वह घड़ी भी भूल गई, वह कांटा भी भूल गया। अचानक फिर तुम चौंकोगे और पाओगे कि अरे कितने सेकेंड गुजर गए और मुझे इस कांटे का स्मरण भी न रहा। तब तुम्हें समझ में आएगा कि संत क्यों कहते हैं तलवार की धार की तरह संकीर्ण। क्षणभर में चूक जाता है, जरा हिले कि गए।
जागृति, होश, कठिन है; लेकिन साधने जैसा है। कितना ही कठिन हो, जो हम उससे पाते हैं, उसके मुकाबले प्रयास कुछ भी नहीं है। और जिनको भी मंजिल उपलब्ध होती है, वे कहते हुए पाए गए हैं कि जो हमने किया था, वह ना-कुछ था; और जो हमने पाया, वह सब कुछ है। इसीलिए संत कहते हैं कि उसकी उपलब्धि प्रसाद है, प्रयास नहीं। जैसे हमारे किए का कोई संबंध ही नहीं। जैसे हमने दमड़ीभर का काम किया था और अरबों की संपत्ति पा ली है। जैसे हमने कुछ भी न किया था और सब कुछ मिल गया। हमारे करने और उसके मिलने में कार्य-कारण जैसा संबंध नहीं दिखाई पड़ता। इसलिए संत कहते हैं, प्रसाद। जैसे उसकी अनुकंपा से मिला, हमारे प्रयास से नहीं।
पर प्रयास करते समय बड़ा कठिन है। और कठिन इसीलिए है कि मूर्च्छा में हमारा बहुत इनवेस्टमेंट है। निद्रा में हमने बहुत कुछ लगाया हुआ है और बड़ी आशाएं और बड़े सपने संजोए हुए हैं। और जैसे ही हम निद्रा को तोड़ते हैं, सारी आशाएं, सब सपने टूटने शुरू हो जाते हैं।
अपनी पत्नी को आप कहते हैं कि तुझे मैं प्रेम करता हूं। अगर होश से भरेंगे तो दिखाई पड़ेगा कि प्रेम तो मैंने कभी किया नहीं। यह सरासर झूठ है। अपने बच्चों को आप कहते हैं कि तुम्हारे लिए मैं जी रहा हूं। लेकिन अगर होश से भरेंगे तो दिखाई पड़ेगा कि बात बिलकुल उलटी है। आप बच्चों के लिए नहीं जी रहे, बल्कि बच्चों को आप इसलिए जिला रहे हैं ताकि जब आप मर जाएं तो वे आपके लिए जीएं। बच्चे आपकी आकांक्षाएं हैं। जो आप पूरा नहीं कर पाए, वे पूरा करें। आप उनके कंधों पर भविष्य की यात्रा करने की कोशिश कर रहे हैं। आप बच्चों के माध्यम से अपना अमरत्व साध रहे हैं। आप तो मरेंगे, लेकिन आपका बेटा रहेगा। कुछ तो रहेगा आपका। कुछ आपका शेष रहेगा, इस जगत में चलता रहेगा।
लोग पत्थर पर भी नाम लिखकर खुश होते हैं कि मैं नहीं रहूंगा, कोई फिक्र नहीं, यह पत्थर तो रहेगा। तो पत्थर पर इतनी खुशी होती है, तो एक जीवित व्यक्ति पर अपना नाम खोद देना...!
बिना बाप हुए मर जाना बड़ा दुखद है, बिना मां हुए मर जाना बड़ा पीड़ापूर्ण है, क्योंकि आप किसी जीवंत घटना को अपने पीछे नहीं छोड़ जा रहे हैं। आप बिलकुल मर रहे हैं, आपकी धारा जारी न रहेगी। हिंदू कहते रहे हैं कि पितृ-ऋण तब तक नहीं चुकता, जब तक आप बच्चे पैदा न करें। यह बड़ी सोचने जैसी बात है कि पिता के प्रति आपका जो ऋण है, वह तब चुकता है जब आप पिता हो जाते हैं।
क्यों? क्योंकि पिता आपके माध्यम से जी रहा है और अगर आपकी धारा बंद हो जाती है तो पिता फिर आगे नहीं जी सकेगा। इसलिए बच्चे को अपने पीछे छोड़ जाओ। तो बेटा चाहिए, चाहे गोद ही क्यों न लेना पड़े, चाहे झूठा ही क्यों न हो, पराया ही क्यों न हो, अपना मानकर चला लेंगे। हिंदू तो इतने मोहित हो गए थे इस बात से कि अगर बेटा पैदा न होता हो, तो किसी व्यक्ति को निमंत्रण दे देते थे कि पत्नी से आकर संभोग कर लो और बेटा पैदा हो जाए। तब उसे व्यभिचार नहीं मानते थे। क्योंकि बेटे का होना इतना जरूरी है कि इस व्यभिचार को क्षमा किया जा सकता है। तब इसमें कोई अनैतिकता न थी, क्योंकि पिता का ऋण तो चुकाना ही है।
आदमी मृत्यु से बचना चाहता है। बहुत उपाय खोजता है। बड़े महल खड़े करता है। बड़े किले बनाता है। मजबूत से मजबूत पत्थर खोजता है। जीवन की तरल धारा पर भी हस्ताक्षर करता है। अपने बच्चे छोड़ जाना चाहता है। और हर बाप कोशिश करता है कि बच्चे मेरी प्रतिछवि हों। कभी नहीं सोचता कि ऐसा मुझमें क्या है, जिसकी प्रतिछवि छोड़ जाना जरूरी हो या जिसके कारण पृथ्वी ज्यादा सुंदर हो! मेरे कारण काफी कुरूप थी, मेरी मौजूदगी एक बोझ थी और मैं अपनी प्रतिछवि छोड़ जाना चाहता हूं! और बेटा जरा यहां-वहां हिले बाप की लकीर से, तो बाप को कष्ट होता है। क्योंकि उसका मतलब यह हुआ कि यह मेरी प्रतिछवि न होगा, यह मेरा प्रतिनिधि नहीं हो सकेगा। कहते मां-बाप यही हैं कि हम बच्चो, तुम्हारे लिए जी रहे हैं। लेकिन अगर होश से भरेंगे तो दिखाई पड़ेगा कि हम बच्चों को अपने लिए जिला रहे हैं।
इसलिए बच्चे अगर विद्रोही हो जाते हैं और बुढ़ापे में बदला लेते हैं तो कुछ आश्चर्यजनक नहीं है। क्योंकि कोई भी दूसरे के लिए नहीं जीना चाहता, सब अपने लिए जीना चाहते हैं। प्रत्येक जीवन की आकांक्षा स्वयं को फैलाने की है, किसी दूसरे को फैलाने की नहीं। इसलिए हर बेटा अपने बाप के प्रति गहरी घृणा से भरा रहता है।
फ्रायड की अनेक खोजों में एक मूलभूत खोज यह है कि ऐसा बेटा खोजना मुश्किल है, जो बाप का दुश्मन न हो गहरे में। ऊपर से ठीक है, ऊपर से आदर करता है, पैर छूता है। ऐसी लड़की खोजना कठिन है जो मां की शत्रु न हो, भीतर गहरा विरोध है।
गुरजिएफ कहता था, अगर कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए, तो सच में ही अपने माता-पिता का आदर करता है, तो समझना कि वह संत है। क्योंकि बड़ा कठिन है मां-बाप को प्रेम करना। और अगर यह घट जाए...यह तभी घट सकता है, जब परिपूर्ण होश हो। तो मां-बाप पर दया आएगी, करुणा आएगी। तब ऐसा लगेगा कि वे मूर्च्छा में जी रहे थे। उनका कोई कसूर नहीं।
मूर्च्छा के ये स्वाभाविक लक्षण हैं कि वह दूसरे पर हावी होगी, दूसरे को सताएगी; और सताएगी इस ढंग से कि सताना भी नैतिक मालूम पड़े।
जब आप अपने बेटे को मार रहे हैं, तो आप सोचते हैं कि उसके सुधार के लिए मार रहे हैं। जरा सा होश होगा तो आपको खयाल में आएगा, सुधार का इससे कोई भी संबंध नहीं। आप क्रोधित थे, बेटे ने किसी कारण से आपके अहंकार को चोट पहुंचाई है, घाव हो गया है। आप बेटे को मार तो उस घाव के कारण रहे हैं। लेकिन कह रहे हैं आप कि तेरे सुधार के लिए। दिखा आप ऐसा रहे हैं कि जैसे उस पर आप कृपा कर रहे हैं उसको मारकर। होश होगा, तो ये सारी चीजें छिटक जाएंगी हाथ से।
कहते तो आप यहीं हैं कि मैं राजनीति के चुनाव में इसलिए खड़ा हो रहा हूं कि जनता की सेवा कर सकूं। लेकिन कोई राजनीतिज्ञ कभी जनता की सेवा के लिए खड़ा नहीं होता। हालांकि हर राजनीतिज्ञ ऐसा ही सोचता है, कहता भी है। और मैं यह नहीं कहता कि वह झूठ कहता है, वह ऐसा सोचता भी है। वह आपको धोखा दे रहा है, ऐसा नहीं, अपने को भी धोखा दे रहा है। वह सोचता यही है कि जनता की सेवा कैसे हो सकती है जब तक पद हाथ में न हो? जब तक शक्ति न होगी, सेवा कैसे होगी?
लेकिन सभी सेवक, जैसे ही शक्ति उनके हाथ में पहुंच जाती है, मालिक हो जाते हैं। राजनीतिज्ञ आपके पैर दबाने से शुरू करता है और आपकी गर्दन दबाने पर अंत करता है। सोचता वह भी यही था कि मैं पैर दबा रहा हूं, सेवा कर रहा हूं। लेकिन पैर से बढ़ते-बढ़ते कब वह गर्दन दबाने लगता है, न आपको पता चलता है, न उसको पता चलता है।
अगर होश भरेगा, तो पता चलेगा कि मेरी राजनीति एक धोखा है, यह मैं किसी की सेवा करने को नहीं कर रहा हूं। यह मेरे ही अहंकार का विस्तार है। मैं दूसरों से सेवा लेना चाहता हूं।
आप जब सेवा करते हैं, तो दूसरे से सेवा लेने के लिए करते हैं। आप जब देते हैं, तो छीनने के लिए देते हैं। आपका सब उपाय शोषण का है। नाम अच्छे आप चुन सकते हैं।
इसलिए मैं कहता हूं, मूर्च्छा में हमारा इनवेस्टमेंट है। बड़ा हमने उसमें दांव लगाया हुआ है। तो मूर्च्छा को तोड़ना कठिन है। मूर्च्छा को तोड़ने का अर्थ है कि मैंने जो संसार अपने चारों तरफ बसाया है, वह सब झूठा है, वह सब प्रवंचना है। वह मेरी वासनाओं, महत्वाकांक्षाओं, हिंसाओं,र् ईष्याओं का जाल है।
कोई आदमी आसानी से इतना समर्थ नहीं कि अपने पूरे आज तक के जीवन को व्यर्थ देख पाए और घबड़ा न जाए। हम घबड़ा जाते हैं। हम आंख बंद कर लेते हैं और सोचते हैं, जैसा है ठीक है, उसे चलने दो, मत तोड़ो।
इसलिए ध्यान में कठिनाई है। सीखने को तो आप सब तैयार होते हैं, जागने को कोई तैयार नहीं होता। इसलिए मुझे थोड़ी बात आपसे करनी पड़ती है। वह बात करनी पड़ती है, ताकि आप सीखने के मोह में मेरे पास आ जाएं। वह प्रलोभन है। वह वैसे ही है जैसे कि कोई मछली को पकड़ने के लिए आटा लटकाता है।
बुद्ध भी बोलते हैं, जीसस भी बोलते हैं, और भलीभांति जानते हुए कि बोलने से कुछ अर्थ नहीं, बोलने से कुछ सार नहीं। लेकिन आप ऐसी मछली हो कि आटे के बिना आप पास नहीं आओगे।
सिखाना आटे की तरह है और जगाना कांटे की तरह है। वह चुभेगा। उससे जीवन मुश्किल में पड़ेगा। उससे यह जीवन तो मरेगा और नया जीवन पैदा होगा। वह एक पुनर्जन्म है।
लेकिन हर पुनर्जन्म के पहले मृत्यु है। जागने में आपको मरना पड़ेगा, आपका सातत्य नहीं रह सकता, आप तो मिटोगे। और मिटने के लिए कौन आसानी से राजी होता है! सीखने में आपका सातत्य है, कंटीन्युटी है। आप वही रहते हो, और भी अच्छे हो जाते हो, निखर जाते हो, साफ-सुथरे हो जाते हो। वह आपका संस्करण है। जितना ज्यादा आप सीख लेते हो, उतने आप साफ-सुथरे, सुसंस्कृत, शिक्षित, सभ्य मालूम होते हो।
सभ्य शब्द बड़ा अच्छा है। इसका अर्थ है: सभा में बैठने योग्य। जितना आपके पास ज्ञान होता है, उतने आप सभा में बैठने योग्य हो जाते हो। जितना आप ज्यादा जानते हो, उतना आपका अहंकार परिष्कृत हो जाता है। जैसे एक हीरे को कोई काटे, छांटे, निखारे; और उसमें चमक आ जाती है। ऐसा अशिक्षित आदमी अनगढ़ हीरे की तरह होता है। शिक्षित आदमी गढ़े हुए हीरे की तरह होता है। अनगढ़ हीरे को तो केवल जौहरी ही पहचान सकता है। गढ़े हुए हीरे को कोई भी पहचान सकता है। उसकी चमक, उसका निखार, सबको दिखाई पड़ने लगता है, अंधों को भी दिखाई पड़ने लगता है।
सीखने के लिए तो आप तैयार हो, क्योंकि आपके अहंकार का सातत्य रहेगा, और भी सुखद हो जाएगा अहंकार। लेकिन जागने के लिए आप तैयार नहीं हो। क्योंकि जागने में आप मिटोगे और नए का जन्म होगा।
तो मैं सिखाने से शुरू करता हूं, ताकि जगा सकूं। लेकिन सिखाना कोई प्र्र्रयोजन नहीं है। और जब भी कोई व्यक्ति सीधा जागने को मेरे पास आ जाता है, तो फिर सिखाने का मैं कोई भी प्रयास नहीं करता हूं।
इसी संबंध में समर्पण की बात समझ लेनी जरूरी है। अगर सीखना हो, तो समर्पण की कोई भी जरूरत नहीं, संकल्प की जरूरत है। वही आदमी सीख सकता है जिसके पास विल-पावर हो, संकल्प हो। क्योंकि सीखने में कानसन्ट्रेशन चाहिए, एकाग्रता चाहिए। सीखने के लिए आपके चित्त की धारा जितनी संकीर्ण हो, उतना अच्छा है। क्योंकि संकीर्ण चित्त की धारा से चीजें सीधी आपके भीतर चली जाती हैं, स्मृति के हिस्से बन जाती हैं।
इसलिए सभी विद्यालय एकाग्रता पर जोर देते हैं। सीखना है तो एकाग्र होना जरूरी है। एकाग्रता के लिए पच्चीस तरह के उपाय किए जाते हैं, दंड दिया जाता है, पुरस्कार दिया जाता है, ताकि चित्त एकाग्र हो। दंड के भय से चित्त एकाग्र हो जाता है।
अगर कोई आदमी आपकी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाए, तो आप यह न पूछोगे, एकाग्रता कैसे करें? आप एकाग्र हो जाओगे। सब भूल जाएगा। वह जो गीत आप गुनगुना रहे थे, टूट जाएगा। वह जो मन में कोई धारणा चल रही थी, वह बिखर जाएगी। बस इस छुरे पर सब एकाग्र हो जाएगा। भय एकाग्र करता है।
इसलिए सभी विश्वविद्यालय, विद्यालय बच्चों को भयभीत करते हैं। भय के बहुत सूक्ष्म रूपों का उपयोग करते हैं। अगर असफल हुए तो बदनामी होगी। अगर परीक्षा में उत्तीर्ण न हुए तो लोग क्या कहेंगे, लोग हंसेंगे। और फिर जीवन का भय है कि अगर इस तरह परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण होते रहे, तो जगत में क्या होगा? वहां तुम कहां खड़े रहोगे? रोटी कहां मिलेगी? छाया कहां मिलेगी? तुम ना-कुछ हो जाओगे। इस भय को बिठाना पड़ता है गहरे में। जैसे-जैसे यह भय बैठने लगता है, वैसे-वैसे एकाग्रता होने लगती है। इसलिए विद्यार्थी को जैसी एकाग्रता परीक्षा के दिनों में होती है, वैसी कभी नहीं होती। क्योंकि परीक्षा जैसे-जैसे करीब आती है, भय सघन होता है। भयभीत चित्त एकाग्र होने लगता है।
और भय का दूसरा सिक्का है पुरस्कार। वह उसका ही दूसरा हिस्सा है। भय और पुरस्कार में कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं है। वह विपरीत भय है। प्रथम आओगे, गोल्ड मेडल मिलेगा, सम्मान होगा, अखबारों में नाम होगा, प्रतिष्ठा होगी, जीवन में खड़े होने का मौका होगा। महत्वाकांक्षा पूरा करना आसान हो जाएगी। अहंकार निखरेगा, प्रतिष्ठित होगा। फिर वह पुरस्कार न मिले, उसका भय पैदा हो जाता है; मिले, उसका लोभ पैदा हो जाता है।
तो सारी शिक्षा भय और लोभ पर खड़ी है। सिखाना हो तो भयभीत करना जरूरी है। इसलिए जो गुरु--जिनको मैं गुरु नहीं कहता--आपको सिखाना चाहते हैं, वे पहले आपको भयभीत करेंगे। इसलिए नर्क की ईजाद की गई है। इसलिए स्वर्ग का आविष्कार किया गया है।
न तो कहीं कोई नर्क है और न कहीं कोई स्वर्ग है। और अगर नर्क और स्वर्ग कहीं हैं, तो वे तुम्हारे भीतर हैं, कोई भौगोलिक घटनाएं नहीं। कहीं पृथ्वी के नीचे खोदने से नर्क नहीं मिलेगा। और राकेट को हम कितने ही अंतरिक्ष में ले जाएं, स्वर्ग नहीं मिलेगा। स्वर्ग और नर्क कहीं बाहर नहीं हैं, भीतर हैं। स्वर्ग और नर्क भय और लोभ के विस्तार हैं। भय है नर्क, लोभ है स्वर्ग।
धर्मों को भी समझ में आ गया कि अगर लोगों को सिखाना है, तो भयभीत करो, लोभित करो। और यह बड़ी विपरीत बात है कि धर्म निरंतर कहते हैं कि लोभ से मुक्त हो जाओ, भय से मुक्त हो जाओ, फिर भी स्वर्ग और नर्क की बात किए चले जाते हैं।
सूफी फकीर औरत हुई राबिया। एक दिन लोगों ने उसे गांव में भागते हुए देखा। एक हाथ में उसके मशाल थी और दूसरे हाथ में एक बर्तन था पानी से भरा हुआ। राबिया को लोग पागल ही समझते थे।
संतों को सदा लोगों ने पागल ही समझा है। सिर्फ वही संत आपको पागल नहीं मालूम पड़ेगा जो आपके जैसा ही दुकानदार हो। जिसमें और आपमें मौलिक भेद न हो, वही भर पागल नहीं मालूम पड़ेगा। जिसमें और आपमें मौलिक भेद होगा, वह पागल मालूम पड़ेगा। और संत और आपमें मौलिक भेद होना ही चाहिए।
राबिया को लोग पागल तो समझते ही थे, पर आज पागलपन अतिशय मालूम पड़ा। वस्त्रों का होश नहीं, एक हाथ में मशाल है, एक हाथ में जल का पात्र है। तो लोगों ने बाजार में पूछा, राबिया, इतनी गति से कहां भागी जा रही हो? और यह तुम हाथ में क्या लिए हो? राबिया ने कहा कि यह है मशाल, ताकि तुम्हारे स्वर्ग को जला दूं! और यह है जल, ताकि तुम्हारे नर्क को डुबा दूं! और जब तब तुम्हारा स्वर्ग और नर्क नष्ट न हो जाए, तब तक तुम्हारे धार्मिक होने का कोई उपाय नहीं। भय और लोभ के नष्ट हुए बिना कोई धार्मिक कैसे हो सकता है?
लेकिन सिखाना हो तो भय और लोभ चाहिए। भय और लोभ के कारण चित्त एकाग्र होता है। और जब चित्त एकाग्र होता है, तभी तुम कुछ सीख सकते हो। जगाना हो तो चित्त की एकाग्रता बिलकुल जरूरी नहीं। जगाना हो तो लोभ और भय की कोई जरूरत नहीं। मिटना चाहिए लोभ और भय, और चित्त की एकाग्रता समाप्त होनी चाहिए।
यहां जरा कठिन होगा। क्योंकि हमने आमतौर से एकाग्रता को ध्यान समझ लिया है। एकाग्रता ध्यान नहीं है। कानसन्ट्रेशन मेडीटेशन नहीं है। एकाग्रता तो चित्त की तनाव से भरी हुई अवस्था है। ध्यान चित्त का विश्राम है। एकाग्रता तो संकीर्ण है, ध्यान विस्तीर्ण है। ध्यान का अर्थ है, चित्त शांत है; किसी तरफ लगा हुआ नहीं; कहीं भी लगा हुआ नहीं, सिर्फ शांत है।
आप एक वृक्ष के नीचे बैठे हो। अगर एकाग्रता करनी है, तो हाथ में माला लेकर जपो, राम-राम या कुछ मंत्र, चित्त एकाग्र करो। वह सीखने का ही हिस्सा है। उससे शक्ति पैदा हो सकती है, क्योंकि संकल्प से शक्ति पैदा होती है। लेकिन उससे शांति पैदा नहीं हो सकती है, क्योंकि संकल्प से शांति का कोई भी संबंध नहीं। उससे दुर्वासा आपके भीतर पैदा हो सकता है, एकाग्रता से।
दुर्वासा एकाग्रता की चरम परिष्कृति है, वह आखिरी स्थान है। इसलिए दुर्वासा अगर कह दें कि मर जाओ, तो आप मर जाओगे वहीं। क्योंकि दुर्वासा ने इतना चित्त को एकाग्र किया है कि वह जो भी कहेगा, वह आपके अचेतन तक तीर की तरह प्रवेश कर जाएगा। वह आपके भीतर जाकर सजेशन बन जाएगा। वह एक बीज आपके भीतर बैठ जाएगा। दुर्वासा ने कह दिया कि मर जाओ तो आप जिंदा नहीं रह सकते। आपको उसकी आज्ञा का पालन करना पड़ेगा। इतनी मजबूत एकाग्रता है कि उस एकाग्रता में आप झुक जाओगे, टूट जाओगे। दुर्वासा से आपको डरना होगा।
इसलिए मैं दुर्वासा को ऋषि कहने में असमर्थ हूं। क्योंकि जिससे हमें डरना पड़े, वह ऋषि कैसा? जिसके पास पहुंचकर सारा भय मिट जाए, वही ऋषि है।
पर एकाग्र व्यक्ति से डरना होगा। अगर एकाग्र व्यक्ति आपकी तरफ आंखें भी उठा दे, तो आपके भीतर कंपन पैदा होगा।
रूस में हुआ रासपुटिन। वैसा ही एकाग्र व्यक्ति, इस युग का दुर्वासा! वह जिसकी तरफ आंख उठाकर देख लेगा, घबड़ाहट पैदा हो जाएगी। जिस आदमी ने रासपुटिन की हत्या की, प्रिंस युसिपोव ने, उसने मारते वक्त रासपुटिन को, आंखें बंद कर लीं। क्योंकि रासपुटिन अगर उस वक्त उसको देख ले, तो उसके हाथ में जो पिस्तौल है, वह चले न। ऐसी आंखें थीं रासपुटिन के पास कि तीर की तरह भीतर प्रवेश कर जाएंगी।
पलक झपकना रासपुटिन को नहीं आता था। वह अगर आपकी तरफ देखना शुरू करे, तो आपको बहुत बेचैन कर देगा। सिर्फ देखने से, कुछ और करने की जरूरत नहीं। उसकी अपलक आंखें और उसके लंबे वर्षों की एकाग्रता के प्रयोग आपको घबड़ा देंगे। वह जिसको भी देख लेगा, उसको मुसीबत में डाल देगा।
रूस में जार पर उसने कब्जा कर लिया था--सिर्फ उसकी आंखों के कारण। जार का एक छोटा लड़का था जो तकलीफ में था। उसी तकलीफ के लिए रासपुटिन को राजमहल लाया गया था। उसको कुछ बीमारी थी कि उसको चोट लग जाए तो खून बड़ी तेजी से बहता था और रुकना मुश्किल होता था। पर रासपुटिन उस बच्चे की आंख में देखकर कह दे कि बस रुको, तो खून रुक जाता था।
पहले समझा जाता था कि यह बड़ा चमत्कार है, लेकिन अब हिप्नोसिस की खोजें कहती हैं, यह हो सकता है। क्योंकि खून भी बहुत गहरे से हमारे मन की आज्ञा को मान सकता है। मेरा हाथ हिलता है। जब मैं उठाना चाहता हूं, हाथ उठता है। जब हाथ उठ सकता है पूरा, तो खून भी रुक सकता है। जब हाथ आज्ञा मानता है--आखिर हाथ है क्या! हड्डी है, खून है, चमड़ी है। जब मैं उठकर चलना चाहता हूं, तो चल सकता हूं। जब मेरा पूरा शरीर मेरी आज्ञा मानता है, तो खून भी आज्ञा मान सकता है। थोड़ी एकाग्रता की जरूरत है।
रासपुटिन पूरे रूस के राज-परिवार पर छा गया, क्योंकि वह बच्चा उसके हाथ में हो गया। एक दिन के लिए रासपुटिन गांव के बाहर चला जाए तो मुसीबत, क्योंकि वह बच्चे को अगर चोट लग जाए, तो कोई डाक्टर किसी सहयोग का न हो सके। और रासपुटिन ने एक बहुत अनूठी बात कही, और वह उसने यह कही कि जिस दिन मैं मर जाऊंगा, थोड़े ही दिन के भीतर जार की सारी सत्ता अंत हो जाएगी। यह उसने इसलिए कहा ताकि जार उसकी रक्षा करे। और जार ने उसकी रक्षा की, जितना बन सका। रासपुटिन के मरने के डेढ़ साल के भीतर जार का तीन सौ साल पुराना साम्राज्य नष्ट हो गया।
मेरी समझ में जार को भी रासपुटिन की बात बहुत गहरे में लग गई। रूस में जो क्रांति हुई १९१७ में, उसके डेढ़ साल पहले रासपुटिन की हत्या की गई। उसकी हत्या के साथ ही जार का साम्राज्य अस्त होने लगा। और जार और जारिना को प्रतीत भी होने लगा प्रतिदिन कि कैसे हम जी सकते हैं रासपुटिन के बिना? कैसे यह राज्य चलेगा? यह सब टूट गया। वह आदमी गया, तो सब गया। यह भाव इतना प्रगाढ़ हो गया।
एक तो इतिहास है जो ऊपर से देखा जाता है। उस ऊपर के इतिहास को हम देखेंगे तो लेनिन महत्वपूर्ण व्यक्ति है क्रांति में। और एक और इतिहास है जो भीतर से देखा जाता है। उसको अगर देखेंगे तो रासपुटिन महत्वपूर्ण व्यक्ति है क्रांति में। रासपुटिन के कारण रूस में क्रांति हो सकी। मगर वह एक मनो-इतिहास है। उसकी घटनाएं ऊपर नहीं दिखाई पड़तीं, भीतर दिखाई पड़ती हैं।
अगर आप एक वृक्ष के नीचे बैठकर एकाग्रता कर रहे हैं, तो आपमें शक्ति का उदय होगा। सब तरह की शक्ति अहंकार को परिपूरित करती है, भरती है। इसलिए एकाग्रता साधने वाले संन्यासियों को आप सदा पाएंगे अति अहंकारी। उनकी चाल में, उनके बैठने-उठने में, उनके बोलने में सब भांति अहंकार होगा, अहंकार की छाया होगी। और जो अहंकार से भरा है, उसका परमात्मा से कैसा संबंध? असंभव है।
ध्यान एकाग्रता से बिलकुल विपरीत अवस्था है। ध्यान का अर्थ है, आप वृक्ष के नीचे बैठे हैं और आपकी चेतना सब तरफ से खुली है। किसी एक दिशा में नहीं दौड़ रही, सभी दिशाओं में खुली है। दौड़ नहीं रही, सिर्फ ठहरी है और सभी दिशाएं उन्मुक्त हैं। एक पक्षी गीत गाता है तो सुनाई पड़ेगा। सोचेंगे नहीं आप इस पर कि कौन पक्षी गीत गा रहा है, कि कोयल है, कि पपीहा है। सोचना शुरू हुआ कि ध्यान गया, सोचना शुरू हुआ कि एकाग्रता शुरू हुई।
पक्षी गीत गाएगा उसकी आवाज आपके भीतर के शून्य में गूंजेगी, क्योंकि आप खुले हैं, लेकिन कोई सोच-विचार की तरंगें पैदा न होंगी। आवाज गूंजेगी और चली जाएगी। एक हवाई जहाज आकाश से निकलेगा, गड़गड़ाहट की आवाज गूंजेगी और चली जाएगी। कोई ट्रेन सीटी बजाएगी, आवाज गूंजेगी और चली जाएगी। हवाएं वृक्ष को हिलाएंगी, आवाजें गूंजेंगी और चली जाएंगी। वृक्ष से पत्ते गिरते रहेंगे, उनकी आवाज होती रहेगी। लेकिन आप सोचेंगे नहीं, सिर्फ होंगे।
इस होने का नाम ध्यान है। बिना सोचे होने का नाम ध्यान है। और ध्यान कोई संकीर्ण अवस्था नहीं है चित्त की, ध्यान कोई संकीर्ण बहती हुई नदी नहीं है, ध्यान सागर है।
एकाग्रता नदी की भांति है, सक्रिय नदी दौड़ रही है तेजी से एक दिशा में। ध्यान सागर की भांति है। विस्तीर्ण सागर सभी दिशाओं में मौजूद है, कहीं दौड़ नहीं रहा। नदियों में पूर आ जाते हैं, सागर में कोई पूर नहीं आता। नदियां दौड़ रही हैं, संकीर्ण हैं, क्षुद्र हैं, जरा-सा पानी उन्हें भर देता है, जरा-सा पानी कम हुआ कि सूख जाती हैं। एकाग्रता में बड़ी शक्ति का तूफान आ सकता है और एकाग्रता निर्जीव भी हो सकती है। ध्यान न तो कभी सूखता है और न कभी पूर से भरता है। ध्यान सदा अपने में थिर है।
जागरूकता ध्यान से उपलब्ध होती है और ध्यान समर्पण है। एकाग्रता संकल्प से उपलब्ध होती है, ध्यान समर्पण से।
समर्पण का अर्थ है, अपने को छोड़ दें इस विराट में, इसके साथ एक हो जाएं। नहिं राम बिन ठांव। यह जो राम चारों तरफ फैला है, यह जो ब्रह्म चारों तरफ मौजूद है, इसके साथ एक हो जाएं। आपकी बूंद इसमें खो जाए। अपने को अलग न बचाएं। क्योंकि अगर आप बचाएंगे अलग, तो आप खुले हुए नहीं हो सकते। द्वार-दरवाजे बंद करने पड़ेंगे। दीवालें उठानी पड़ेंगी। छोड़ दें खुला। हवाएं आपके भीतर से गुजरें और उन्हें कोई प्रतिरोध न मिले। आवाजें आपके आर-पार चली जाएं और पीछे बीच में कोई दीवाल उनसे न टकराए। आप एक खुलापन हो जाएं, एक मुक्त आकाश। यह समर्पण से घटित होगा।
समर्पण एक आंतरिक दशा है, संकल्प एक दूसरी आंतरिक दशा है। संकल्प का अर्थ है, संघर्ष; समर्पण का अर्थ है, कोई संघर्ष नहीं।
एक आदमी तैरता है नदी में, वह संकल्प का प्रतीक है। और एक आदमी बहता है नदी में, वह समर्पण का प्रतीक है। तैरने वाला आदमी डूब सकता है। बहने वाला आदमी कभी नहीं डूबता। आपने कभी किसी मुर्दे को डूबते देखा? जिंदा आदमी थोड़ा न बहुत लड़ेगा ही। वह चाहे बह भी रहा हो, तो भी होश रखेगा कि कहीं नदी डुबा न दे। थोड़ा-सा प्रतिरोध बना ही रहेगा। मुर्दा बड़ा कुशल है। वह परम ध्यानी है। वह बिलकुल फिक्र ही नहीं करता कि क्या होने वाला है। इसलिए कोई नदी मुर्दे को नहीं डुबा सकती।
इसलिए डाक्टर इसको परीक्षा का विषय बना लेते हैं। अगर किसी आदमी की लाश नदी में मिले और उसके फेफड़ों में पानी मिले, तो इसका अर्थ है कि जब उसे फेंका गया, वह जिंदा था। अगर उसके फेफड़ों में पानी न मिले, तो उसका मतलब है, जब उसे नदी में फेंका गया, वह मर चुका था। क्योंकि मुर्दा आदमी नदी से कोई संघर्ष ही नहीं करता, तो नदी भी उससे संघर्ष नहीं करती। मुर्दा आदमी को नदी फूल की तरह ऊपर उठा लेती है।
ध्यानी का अर्थ है, जो अहंकार की दृष्टि से मर गया। समर्पण का अर्थ है, जिसने अपने अहंकार को मिटा दिया और कहा कि तू है, मैं नहीं। इस सूत्र का यही अर्थ है। नहिं राम बिन ठांव, इसका अर्थ है, मैं नहीं हूं तू है। और मेरा मैं तुझमें समर्पित करता हूं। इसे खोता हूं। इसे बहुत सम्हाला, इससे बहुत दुख पाया, इसे बहुत ढोया, इसके वजन से सारी कमर टूट गई, जन्मों-जन्मों तक इसको खींचा और कुछ सार न पाया। इसे मैं वापस लौटाता हूं।
अहंकार को वापस लौटा देने का नाम समर्पण है। मैं नहीं हूं, इस भाव में जीने का नाम समर्पण है। उठते-बैठते, मैं न उठे-बैठे। मैं एक सिर्फ उपकरण हो जाऊं, परमात्मा उठे मुझसे, परमात्मा बैठे। परमात्मा ही भूखा हो, परमात्मा ही भूख से तृप्त हो, परमात्मा ही प्यासा हो, पानी पीए, मैं हट जाऊं।
समर्पण का इतना ही अर्थ नहीं कि किसी के चरणों में आपने सिर झुका दिया, तो आप समर्पित हो गए। समर्पण का अर्थ है, एक ऐसी जीवन-चर्या जिसमें मैं को बनाना आपने बंद कर दिया; जिसमें मैं निर्मित नहीं होता; जिसमें परमात्मा निर्बाध आपके भीतर से काम करता है।
कृष्ण की पूरी शिक्षा अर्जुन को गीता में इसके अतिरिक्त और नहीं है, कि तू मिट जा और परमात्मा को होने दे। युद्ध परमात्मा चाहे, तो चलने दे; परमात्मा रोकना चाहे, तो रुक जाने दे। तू सिर्फ उपकरण हो जा, एक निमित्त-मात्र। तेरे हाथ में तलवार होगी, लेकिन तू परमात्मा के हाथ में तलवार को होने दे, तेरा-पन भीतर न हो। तब कृत्य तो होगा, फल का कोई सवाल न उठेगा, क्योंकि फल हमेशा अहंकार मांगता है।
कृत्य तो जीवन की ऊर्जा का हिस्सा है। कृत्य तो ऊर्जा का खेल है। फल की आकांक्षा अहंकार की आकांक्षा है। अहंकार कहता है, फल क्या मिलेगा?
इसलिए छोटे बच्चे खेल पाते हैं। जैसे ही हमारी उम्र थोड़ी बड़ी होती है, खेल बंद हो जाता है। क्योंकि अहंकार पूछने लगता है, फायदा क्या है? फल क्या है? छोटा बच्चा घूम रहा है गोल, चक्कर मार रहा है, अपनी ही फिरकनी कर रहा है। और हम कहते हैं, क्यों बेकार परेशान हो रहा है? बेकार, क्योंकि हम कहते हैं, इतने में तो पैसा कमाया जा सकता है। इतने श्रम से तो कुछ फल मिल सकता है, क्यों बेकार चक्कर मार रहा है? क्यों ऊधम दौड़ कर रहा है? इससे फायदा क्या है?
अहंकार सदा पूछता है, फायदा क्या है? लाभ क्या है? क्या मिलेगा?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान से क्या मिलेगा? मैं उनसे कहता हूं, ध्यान से कुछ भी न मिलेगा। जो तुम्हारे पास है, वह भी चला जाएगा। ध्यान से कहीं किसी को कुछ मिला है? सब चला जाता है! और जब तुम्हारा सब चला जाता है, तो जो शेष रह जाता है, उसका नाम ही परमात्मा है। उसका नाम ही मोक्ष है।
राम सब कुछ है और मैं कुछ भी नहीं।
लेकिन राम से आप धनुर्धारी राम को मत समझ लेना। वे धनुर्धारी राम जो मंदिरों में खड़े हैं, उनका कोई बहुत उपयोग नहीं है। आप उनके चरणों में सब छोड़ सकते हैं, ऐसा खयाल कर सकते हैं, लेकिन वह छूटेगा नहीं। मंदिर में जो भी जाता है, वह छोड़ने जाता ही नहीं, वह मांगने जाता है। वह अगर सिर रखता है राम के चरणों में, तो बदले के लिए रखता है। वह कुछ मांगने आया है। वह सिर्फ परसुएड कर रहा है, वह राम को फुसला रहा है। वह कह रहा है, तुम बड़े महान हो। हे धनुर्धारी राम! तुम पतितपावन हो! वह खुशामद कर रहा है। वह स्तुति कर रहा है। वह यह कह रहा है कि कुछ मतलब है मेरा, वह तुम पूरा करो। वह लोभ दे रहा है कि अगर तुमने पूरा न किया, तो यह स्तुति बंद हो जाएगी, कि स्तुति की जगह मैं निंदा करूंगा।
पर जिस राम को तुम स्तुति से प्रभावित कर लेते हो, वह राम नहीं। जिस राम को तुम निंदा से प्रभावित कर लेते हो, वह राम नहीं। जो राम तुम्हारी मांगों को सुनता है और पूरी करता है, वह राम नहीं। वह तुम्हारी ही आकांक्षाओं का जाल है, वह तुम्हारा ही बनाया हुआ पुतला है, वह तुम्हारा ही खिलौना है। उसे तुमने ही प्रतिष्ठित किया है। वह मंदिर तुम्हारे स्वप्न का अंग है।
, मैं उस राम की बात नहीं कर रहा। मैं तो उस राम की बात कर रहा हूं, जो वृक्षों में लहरा रहा है, जो पक्षियों में गीत गा रहा है, जो झरनों में कलकल कर रहा है, जो खुले आकाश में है, जो सब जगह है। व्यक्ति की बात नहीं, इस परम ऊर्जा की। अगर तुम्हारे पास आंखें हों, तो सब तरफ तुम्हें विस्तार ऊर्जा का दिखाई पड़ेगा। एक परम शक्ति का विस्तार दिखाई पड़ेगा, जो अनेक-अनेक रूपों में प्रकट होती है, लीन होती है। यह विराट का खेल है राम।
हिंदुओं ने अच्छा शब्द चुना है। राम के नाटक के लिए, हमने रामलीला शब्द चुना है, वह बड़ा प्यारा है। शब्द बड़ा प्यारा है। लीला का अर्थ: खेल। लीला का अर्थ: बच्चों का खेल। लीला का अर्थ है: ऊर्जा इतनी है कि बैठे-बैठे क्या करें, उसे खेल में लगा दें। खेल की धारणा सिर्फ हिंदुओं के पास है।
ईसाई कहते हैं, परमात्मा ने जगत बनाया। बनाने में बड़ी गंभीरता मालूम पड़ती है। बनाने में ऐसा लगता है, जैसे कोई प्रयोजन है। बनाने में ऐसा लगता है, जैसे कोई फल है, जैसे कहीं पहुंचना है।
हिंदू कहते हैं, जगत परमात्मा की लीला है। लीला का अर्थ हुआ कि इतनी ऊर्जा है कि बैठे-बैठे क्या करें? परमात्मा ने सोचा, खेलें!
छोटे बच्चे को बिठाए-बिठाए रखना मुश्किल है। बूढ़े को बिठाएं, प्रसन्नता से बैठ जाता है, चलने में कष्ट है। ऊर्जा क्षीण हो गई है। बच्चे के पास इतनी ऊर्जा है, इतनी शक्ति है, इतनी उबल रही है शक्ति कि वह बैठे-बैठे क्या करेगा! उसको बिठा भी दें, तो भी वह डांवाडोल होता रहेगा। ऊर्जा ओवरफ्लोइंग है, ऊपर से बही जा रही है।
परमात्मा अनंत ऊर्जा है, उसकी ओवरफ्लोइंग हम हैं। सारा अस्तित्व उसकी ओवरफ्लोइंग है, उसकी बाढ़ है, जो बहती जा रही है। और वह कभी रिक्त नहीं होता, रिक्त हो नहीं सकता। यह जो कभी रिक्त न होने वाली शक्ति है, उसका नाम राम है।
और जिस दिन यह राम आपकी अंतिम शरण हो जाए, जिस दिन यह राम आपकी अंतिम ठांव हो जाए, जिस दिन इसके आगे कोई मंजिल न रहे, उस दिन आपके जीवन में परम धन्यता उदय होगी। उसके पहले धन्यता का कोई उदय नहीं हो सकता है।

आज इतना ही।



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