नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रवचन-तीसरा
दिनांक 27 मई सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।
रासलीला: पुरुष और प्रकृति का खेल
संसार में रहकर और संसार के न होना, शरीर में
रहकर और शरीर के न होना, नदी से गुजरना और पैर गीले न हों,
वही साक्षीभाव का सूत्र है।
प्रश्न:
भगवान, हम पाते हैं कि हमारी समझ से वृत्तियां ज्यादा
मजबूत हैं।
होश से देखने पर घृणा,र् ईष्या, क्रोध,इन सारी वृत्तियों की लहरें
नाभि-केंद्र से उठती हुई दिखाई देती हैं।
साक्षीभाव और लहर का उठना एक साथ घटता है।
कृपया यह बताएं कि ये लहरें नाभि-केंद्र से क्यों उठती हैं?
क्या अचेतन नाभि-केंद्र से संबंधित है?
तथा क्या इन वृत्तियों का अचेतन में बहुत बड़ा संचय है या
क्षण-क्षण ये वृत्तियां पैदा होती रहती हैं?
चेतना
की धारा विभाजित नहीं है। चेतन और अचेतन, दमन के कारण विभाजित हैं। पहले यह
बात ठीक से समझ लें।
बच्चा
पैदा होता है,
तो उसकी चेतना एक और अखंड है। न तो वहां कोई चेतन मन है और न अचेतन
मन। ऐसे दो भाग नहीं हैं। लेकिन जल्दी ही भाग होने शुरू हो जाएंगे। क्योंकि हम
बच्चे को सिखाएंगे, क्या ठीक है, क्या
गलत है। हम उसे बताएंगे, क्या शुभ है, क्या
अशुभ है; क्या तुम करो, क्या तुम न
करो। और जो-जो हम कहेंगे न करो, जो-जो हम कहेंगे बुरा है,
वह बच्चा क्या करेगा?
बुरा
कहने से कोई चीज नष्ट तो होती नहीं। कहा हमने कि क्रोध बुरा है। बच्चे ने सुना और
समझा। लेकिन इतना कहने से कि क्रोध बुरा है, क्रोध नष्ट तो नहीं होता, क्योंकि क्रोध स्वाभाविक है। बच्चे ने क्रोध सीखा नहीं है, जन्म से पाया है। जैसे शरीर पाया है, आंखें और हाथ
पाए हैं, ऐसे ही क्रोध भी पाया है।
और
प्रकृति क्रोध का उपयोग करती है। क्रोध ऊर्जा है। बिना क्रोध के बच्चा मर जाएगा।
क्रोध ही उसे बल देगा संघर्ष का, क्रोध ही उसे बल देगा समय पर खड़े होने का,
क्रोध ही उसे चलाएगा। तो क्रोध उसकी यात्रा का अनिवार्य अंग है।
हम
कहते हैं, काम बुरा है, सेक्स बुरा है। सेक्स कोई किताबों से,
फिल्मों से सीखी गई बात तो नहीं है। नहीं तो पशु-पक्षी उसे कहां से
सीखे? न तो फिल्में देखते हैं--जैसा कि साधु-संत कहते हैं कि
फिल्में लोगों को बिगाड़ रही हैं--तो पशु-पक्षी कोई फिल्म नहीं देखते, कोई अश्लील साहित्य नहीं पढ़ते, फिर भी सेक्स तो है।
तो
बच्चा लेकर पैदा हो रहा है कामवासना को। हम कहते हैं, बुरी है।
और वे लोग कहते हैं बुरी है, जिन्होंने इस बच्चे को कामवासना
के द्वारा जन्म दिया है। यह बच्चा ही न होता, अगर कामवासना न
होती। यह बच्चा कामवासना की जीवंत प्रतिमा है। इस बच्चे के शरीर का रोआं-रोआं
काम-अणुओं से बना है। यह सारा शरीर इसका कामवासना का ही सघन रूप है। हम कहते हैं,
बुरा है। बच्चा क्या करे?
बच्चे
को न कुछ बुरा है अभी,
न कुछ भला है। अभी उसने सोचा भी नहीं। हम उसे सोच देते हैं। फिर हम
शक्तिशाली हैं। जिस बात को हम ठीक कहते हैं, उसको हम
पुरस्कृत करते हैं। जिसको हम गलत कहते हैं, उसको हम दंडित
करते हैं। और जिसको हम गलत कहते हैं, हम ही गलत नहीं कहते,
हमारा आसपास का पूरा समाज उसे गलत कहता है। बच्चा अकेला पड़ जाता है।
वह प्राकृतिक है, लेकिन अकेला है, असहाय
है, कमजोर है, और उनके ऊपर निर्भर है
जो वृत्तियों को गलत कह रहे हैं। भोजन उनसे मिलेगा, कपड़े
उनसे मिलेंगे। वे मार सकते हैं, पीट सकते हैं, दंड दे सकते हैं। तो बच्चा क्या करे?
जो
गलत है, अगर गलत कहने भर से समझ लेने से समाप्त हो जाता, तो
बच्चा समाप्त कर देता। समाप्त तो नहीं होता, तो उसे बच्चा
दबाना शुरू करता है, दमन शुरू करता है। जिस-जिस को मां-बाप
और समाज कहता है गलत, बच्चा उसे अपने मन में पीछे हटाता है।
यह जो पीछे हटाया गया है, यही अचेतन बनता है। ऐसे अचेतन का
जन्म होता है।
पीछे
हटाकर बच्चा उससे आंखें चुराता है कि वह दिखाई भी न पड़े कि है। क्योंकि दिखाई
पड़ेगा, तो बच्चे को पीड़ा और बेचैनी होगी। तो बच्चा एक तरह का अंधापन पैदा करता है
अपने में कि जो-जो बुरा है, वह दिखाई न पड़े।
छोटे
बच्चे, जिस-जिस चीज से भय लगता है, उसको देखकर आंख बंद कर
लेते हैं। आंख बंद करके शायद वे सोचते हैं कि जो दिखाई नहीं पड़ता, वह समाप्त हो गया। छोटे बच्चों को तर्क वही है जो शुतुरमुर्ग का है।
दुश्मन को देखकर शुतुरमुर्ग अपनी गर्दन रेत में छिपा लेता है। तो दुश्मन दिखाई
नहीं पड़ता है, शुतुरमुर्ग सोचता है, दुश्मन
नहीं है। जो दिखाई नहीं पड़ता, वह नहीं है। जो दिखाई पड़ता है,
वह है। छोटा बच्चा क्या करे?
छोटे
बच्चे की तकलीफ का अंदाज हमें नहीं है। तो उस सबको जो बुरा है--कहते हैं बुरा
है--उसको वह अपने भीतर छिपा लेता है और उसे देखना बंद कर देता है, उसकी तरफ
पीठ कर लेता है। यह पीठ कर लेने से अचेतन, अनकांशस का जन्म
होता है।
इसलिए
आप हैरान होंगे कि आप चार वर्ष की उम्र के पहले की स्मृति को वापस नहीं ला सकते।
अगर आप पीछे लौटें,
तो एक जगह जाकर दीवाल आ जाती है, जहां से फिर याददाश्त
आगे नहीं बढ़ती। चार वर्ष, पांच वर्ष, कोई
बहुत ही गहरे में जाएगा तो तीन वर्ष, बस वहां जाकर सब ठहर
जाता है। वे जो तीन-चार वर्ष हैं प्रथम जीवन के चरण में, वे
बिलकुल आप पोंछ दिए हैं।
लेकिन
अगर आपको सम्मोहित किया जाए, मूर्च्छित किया जाए, और
पूछा जाए, तो सब याद आ जाती है। याददाश्त नहीं मिटी, लेकिन पीठ कर ली। आपको क्यों याद नहीं आते पिछले अपने जीवन के पहले चार
वर्ष?
मनस्विद
बड़े चिंता में रहे हैं कि क्या कारण होगा! क्योंकि आप होश में थे। चार साल का
बच्चा होश में है,
अनुभव करता है, घटनाएं घटती हैं, सुख-दुख होते हैं। उन सबकी स्मृति क्यों खो गई? मनस्विदों
ने एक वैज्ञानिक सिद्धांत खोजा है कि जिसको हम बहुत दुखद पाते हैं, उससे हम पीठ कर लेते हैं। उससे बचने का यही उपाय है। और सभी लोग कहते हैं
कि बचपन बड़ा सुखद था। लेकिन अगर सुखद था, तो चार वर्ष की
स्मृति होनी चाहिए, क्योंकि सुख को तो हम सम्हालते हैं,
दुख को भुलाते हैं। अगर बचपन सुखद था, तो वह
तो हमारी स्मृति में बहुत सघन होता। उसकी झलक तो सदा बनी रहती। दुख को हम भुलाते
हैं, सुख को तो हम सम्हालते हैं। लेकिन बचपन बिलकुल याद नहीं
है। शायद इसीलिए हमें खयाल है कि बड़ा सुखद था, क्योंकि दुख
की कोई याददाश्त नहीं है।
वे
चार वर्ष, जो हम भूल गए हैं, वह हमारा अचेतन बन गया है। इसलिए
फ्रायड और फ्रायड के अनुयायी--जिन्होंने मनुष्य के मन पर गहरे से गहरा काम किया
है--किसी भी मानसिक बीमारी की चिकित्सा के लिए पहला काम यही मानते हैं कि बचपन की
स्मृतियों में वापस लौटा जाए। सारा मनोविश्लेषण, साइकोएनालिसिस
बचपन में वापस लौटने की प्रक्रिया है। क्योंकि वे कहते हैं, तुम्हारी
आज की कोई भी बीमारी हो, उसका मूल कारण तुम्हारे बचपन में
छिपा होगा। और जब तक मूल कारण न पकड़ लिया जाए, तब तक उसे
उखाड़कर नहीं फेंका जा सकता। वह जो बचपन में हमने दबाया है, जीवनभर
छाया की तरह हमारा पीछा करेगा, हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित
करेगा, हमारे क्रिया-कलाप को रंगेगा।
आप
साठ साल में पागल हो सकते हैं, लेकिन उसका बीज आपके पहले चार सालों में छिपा
होगा। बढ़ते-बढ़ते वृक्ष साठ साल में बना। उसकी जड़ें बचपन में हैं।
अगर
उन जड़ों को हम निकाल लें और उन जड़ों को खोज लें, तो यह वृक्ष कुम्हला जाएगा,
समाप्त हो जाएगा। समस्त मनोचिकित्सा बचपन में लौटती है।
अचेतन
पैदा होता है दमन से,
दमन पैदा होता है अस्वीकार से। वृत्तियां तुम्हारे अचेतन में दबी पड़ी
हैं।
और
जो-जो हम दबाते हैं,
वह बड़ा शक्तिशाली है। शक्तिशाली है, इसीलिए
समाज उसको बुरा कहता है। क्योंकि अगर उसे न दबाया जाए, तो
शायद समाज को डर है कि वह इतना शक्तिशाली है कि समाज खंडित हो जाएगा, नष्ट हो जाएगा। जो-जो शक्तिशाली है...।
सर्वाधिक
शक्तिशाली काम की वासना है,
इसलिए समाज सबसे ज्यादा कामवासना के विरोध में है। सेक्स को तो
बिलकुल मिटा ही डालना चाहता है। क्योंकि जैसे ही कामवासना किसी व्यक्ति की मिटी
हालत में हो जाए, दबी हालत में हो जाए, वह व्यक्ति समाज का दास हो जाता है।
देखें, एक सांड
को देखें। उसकी कामवासना दबाई नहीं गई, काटी नहीं गई। और एक
बैल को देखें। सांड और बैल एक ही जाति के मालूम नहीं पड़ते। सांड की गरिमा और शान,
उसका व्यक्तित्व, उसका बल, बात ही और है। और बैल निर्जीव, निरीह! लेकिन गाड़ी
में जोतना हो, तो बैल चाहिए, सांड काम
नहीं करेगा। सांड इतना शक्तिशाली है कि गाड़ी को ले भागेगा। रास्ते पर चलाना गाड़ी
को मुश्किल है। सांड की जहां मर्जी होगी, वहां जाएगा। खड्डे,
खाई, कहां पटकेगा, कुछ
कहना मुश्किल है। यह बैल चलेगा, कमजोर है।
हर
बच्चा सांड की तरह पैदा होता है और समाज हर बच्चे को बैल की तरह कर देता है। क्योंकि
तब उसकी छाती पर सवार हुआ जा सकता है, तब उसके कंधे पर बैठा जा सकता है,
तब उसे जोता जा सकता है।
यह
जो जीवन में इतनी उदासी दिखाई पड़ती है, गरिमा नहीं मालूम पड़ती, गौरव नहीं मालूम पड़ता, यह हर व्यक्ति को हमने सांड
से बैल कर दिया है। यह इतने दिन से हम कर रहे हैं कि हमें खयाल भी नहीं कि हम क्या
कर रहे हैं।
अगर
बच्चों की कामवासना में उनको पूरी तरह उन्मुक्त छोड़ा जाए, तो वे
कहां ले जाएंगे, उससे समाज डरता है। फिर वे समाज का बोझ
ढोएंगे? इससे डरता है। फिर वे दफ्तर में बैठकर क्लर्क का काम
करेंगे? इससे डरता है। किसी प्राइमरी स्कूल में मास्टर होने
को राजी होंगे? इससे डरता है। और उनकी वासना इतनी प्रगाढ़
होगी कि परिवार निर्मित हो सकेगा? पत्नी से पति डरेगा?
कि पत्नी पति की फिक्र करेगी?
इतने
बल के साथ भय मालूम पड़ता है। सब उखड़ जाएगा, अराजक हो जाएगा। शक्ति का भय समाज
को गहन है। इसलिए हर बच्चे को कमजोर कर देना जरूरी है।
लेकिन
कमजोरी ऊपर ही ऊपर मालूम होती है। भीतर तो वासना प्रज्वलित रहती है, जैसे राख
के भीतर अंगारा छिपा रहता है, और भीतर से काम करता रहता है।
उसका उत्ताप राख में फैलता रहता है। तुम्हारे ऊपर के व्यक्तित्व की परत राख जैसी
हो गई है। इसीलिए तुम उदास हो, दुखी हो, पीड़ित हो। क्योंकि बिना ऊर्जा के कोई प्रसन्न नहीं हो सकता, बिना शक्ति के कोई आनंदित नहीं हो सकता। शुद्ध शक्ति का अनुभव आनंद है।
पश्चिम
के एक बहुत अनूठे कवि विलियम ब्लैक का एक वचन है, एनर्जी इज डिलाइट, शक्ति ही आनंद है।
और
जहां शक्ति क्षीण हो जाती है, वही आनंद खो जाता है, वहीं
निर्बलता प्रवेश कर जाती है। निर्बलता उदासी का नाम है। और सारा समाज तुम्हें
निर्बल करने में लगा है। वह सब दबा पड़ा है भीतर। जो-जो सबल था और दबाया गया,
वह प्रतिपल धक्के मार रहा है।
इसलिए
जब तुम साक्षी का प्रयोग शुरू करोगे, ध्यान का प्रयोग शुरू करोगे,
तो एक तरफ साक्षी भी बना रहेगा और भीतर से उस अचेतन की परतों से
लपटें भी आती रहेंगी, वासना जगेगी, क्रोध
आएगा। क्या किया जाए?
वह
जो दबा है, उसे देखना ही पड़ेगा। वह जो छिपाया है और जहां-जहां हम अंधे हो गए हैं,
वहां-वहां आंख फिर से पैदा करनी पड़ेगी। जो हमने किया है, उससे उलटे वापस लौटना होगा। बचपन में जहां हमसे ऊर्जा छीन ली गई है,
उस बिंदु पर हमें वापस जाना होगा।
इसलिए
सब संतत्व पुनः बचपन को पाने का नाम है। जीसस कहते हैं, बच्चे की
भांति जो है, वह मेरे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर जाएगा।
बच्चे की भांति! फिर उस शुद्ध ऊर्जा में, अखंडित ऊर्जा में,
अविभाजित ऊर्जा में, जहां चेतन और अचेतन नहीं,
जहां एक ही चेतना की अखंड धारा है; जहां बुरे
और भले का अभी पागलपन पैदा नहीं हुआ, जहां सभी कुछ स्वीकार
है, जहां बच्चे ने अभी कोई विचार ही नहीं किया, जहां निर्विचार मौजूद है, इस अवस्था को पुनः पाना
होगा।
धर्म, समाज ने
जो-जो तुम्हारे साथ अन्याय किया है, उससे मुक्ति का उपाय है।
समाज ने तुमसे जो-जो छीन लिया है, धर्म तुम्हें वह पुनः वापस
दे देना चाहता है।
इसलिए
धर्म कभी सामाजिक नहीं हो सकता। धर्म तो मौलिक रूप से क्रांतिकारी है और
गैर-सामाजिक है। इसलिए जब भी कोई धार्मिक व्यक्ति होता है--जीसस या बुद्ध या
महावीर या कृष्ण--तो समाज उसके विरोध में होता है। समाज कभी धार्मिक व्यक्ति को
स्वीकार नहीं करता,
क्योंकि धार्मिक व्यक्ति का मौलिक ढंग ही विद्रोह है। उसकी सारी
प्रक्रिया यही है कि समाज ने जो-जो तुम्हारे साथ अन्याय किया है और समाज ने
जहां-जहां तुम्हें पक्षाघात से भर दिया है, पैरालाइज किया है,
समाज ने जहां-जहां तुमसे ऊर्जा छीन ली है, समाज
ने जहां-जहां तुम्हारे जीवन के झरने पर पत्थर रख दिए हैं, दीवालें
और बांध बना दिए हैं, उन सबको तोड़कर तुम्हें निर्बंध,
तुम्हें मुक्त, तुम्हें परिपूर्ण स्वतंत्र कर
देना है।
इसलिए
समाज मौलिक रूप से धर्म-विरोधी है, धर्म मौलिक रूप से समाज-विरोधी है।
पर यह सुनकर तुम्हें हैरानी होगी। फिर ये हिंदू, मुसलमान,
ईसाई, जैन, बौद्ध,
ये सब तो सामाजिक हैं।
बुद्ध
सामाजिक नहीं हैं,
बौद्ध सामाजिक हैं। महावीर सामाजिक नहीं हैं, जैन
सामाजिक हैं। यह समाज की पुनः तरकीब है धर्म को अपने में समा लेने की।
जब
कोई समाज, विद्रोही धर्म को भी सांड से बैल बना देता है--जैसे उसने प्रत्येक विद्रोही
बच्चे को बना दिया--जब वह धर्म में से क्रांति का तत्व काट देता है, तो संप्रदाय का जन्म होता है। ये संप्रदाय हैं, धर्म
नहीं। ईसाइयत संप्रदाय है; जीसस धार्मिक हैं। तो जीसस को तो
समाज सूली देता है। उनको तो सूली देने के सिवाय कोई उपाय नहीं। और फिर सूली चढ़े
हुए जीसस के आसपास चर्च बनाता है। फिर उनकी पूजा करता है। वह क्रांति का तत्व तो
समाप्त हो गया। फिर पोप! जीसस की जगह पोप खड़ा हो जाता है।
शंकराचार्य
को तो गाली मिलती है,
अपमान मिलता है। लेकिन शंकराचार्यों को, वे जो
मठों पर बैठे हैं, उनको सम्मान मिलता है। मौलिक शंकराचार्य
तो ऊर्जा है, विराट ऊर्जा है, जिसमें
क्रांति अबाध है, जिसके रास्ते को नहरों की तरह नहीं चलाया
जा सकता, जो सागर की तरफ दौड़ती गंगा है। और फिर शंकराचार्य
हैं, मठों में बैठे हुए हैं, वे नहरों
की तरह हैं। उन्हें तुम जहां ले जाना चाहो, वहां जाते हैं।
उनकी अपनी कोई स्वतंत्रता नहीं है।
इस
बात को ठीक से समझ लें कि धर्म जगत में बड़ी से बड़ी क्रांति है। क्योंकि समाज ने
जो-जो किया है,
धर्म उसको वापस तुम्हें उस मौलिक, मूल,
निर्दोष स्थिति में ले आना चाहता है, जैसे तुम
पैदा हुए थे। झेन फकीर कहते हैं कि तुम्हारे मौलिक चेहरे को खोज लेना ही धर्म है।
जिस दिन तुम जन्मे थे उस दिन तुम जो थे--न तुम्हें बुरे-भले का कोई ज्ञान था,
न तुम्हें जीवन-मरण का कोई बोध था, न तुम्हें
कोई भय था, न कोई घृणा थी, न कोई
आसक्ति थी, न कोई अनासक्ति थी, न तुम
संसारी थे, न तुम संन्यासी थे-- जस क्षण तुम पैदा हुए थे,
उस क्षण तुम शुद्ध जल की भांति थे, जिस पर अभी
एक छाया भी नहीं पड़ी थी जो उसे अशुद्ध कर दे।
उस
निर्मलता को पुनः पा लेने का नाम संतत्व है। और धर्म उसकी प्रक्रिया है।
तो
जब तुम साक्षीभाव साधोगे,
तो समाज ने जो-जो दबाया है, वह उठेगा। क्योंकि
साक्षीभाव का अर्थ है, तुमने वजन हटा लिया। अभी तुम उसके ऊपर
बैठे हो, इसलिए वह दबा है। इसलिए, मेरे
पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान
करने से अजीब हालत हो रही है। हम तो सोचते थे, शांति बढ़ेगी।
यहां तो भीतर और उठते हुए तूफानों का पता चल रहा है। और हम तो सोचते थे कि संतोष आ
जाएगा, गहरे असंतोष की ज्वाला जल रही है। और हम तो सोचते थे,
क्रोध मिटेगा, हम और क्रोधी हुए जा रहे हैं।
प्रथम
ऐसा होगा। क्योंकि जो-जो तुमने दबाया है, अब तक तुम उसके ऊपर बैठे थे,
तुम उसे दबाने का प्रतिपल प्रयास कर रहे थे, तुम
उसकी छाती पर सवार थे। जैसे ही तुम साक्षी होते हो, तुम छाती
से उतरकर किनारे खड़े हो गए। अब तुम सिर्फ देखोगे, कुछ करोगे
नहीं। इसलिए सब उठेगा, दबा हुआ भभकेगा। जहां राख थी, वहां अंगारे दिखाई पड़ेंगे। सारी अशांति, सारा क्रोध,
सारी कामवासना उठेगी, तुम्हें घेरेगी।
पर
तुम साक्षीभाव को सम्हालना। ज्यादा दिन यह न चलेगा। क्योंकि यह जो हो रहा है, यह सिर्फ
दमन का परिणाम है। जैसे-जैसे ये लपटें ऊपर उठ जाएंगी, नीचे
के अंगारे तिरोहित होने लगेंगे। जैसे-जैसे यह धुआं आकाश में खो जाएगा, तुम पाओगे, भीतर निर्धूम अवस्था आने लगी। एक दिन
आएगा कि तुम अचानक पाओगे, तुम अकेले खड़े हो, देखने को कुछ भी नहीं। साक्षी बचा है और साक्षी होने को कुछ भी नहीं बचा।
न वहां क्रोध है, न वहां कामवासना है, न
वहां द्वेष है, नर् ईष्या है। लेकिन समय लगेगा।
और
यह कोई एक ही जन्म का दबाया हुआ होता, तो भी ठीक था। यह अनेक जन्मों का
दबाया हुआ है। न मालूम कितनी बार तुम पैदा हुए हो और न मालूम कितने समाजों ने
तुम्हें नष्ट किया है। और हर बार तुम अलग-अलग समाजों में पैदा हुए हो। तो हर समाज
ने तुम्हें अलग-अलग ढंग से नष्ट किया है। इसलिए तुम्हारे भीतर इतने अंतर्विरोध,
इंटरकंट्राडिक्शंस हैं।
कभी
तुम हिंदू थे,
तुम्हें कुछ सिखाया गया कि यह अच्छा है और यह बुरा है। कभी तुम
मुसलमान थे, तो उलटा सिखाया गया कि यह अच्छा है और यह बुरा
है। कभी तुम जैन थे, कभी तुम बौद्ध थे। तुमने न मालूम
कितने-कितने समाजों में यात्रा की है। और तुम इतनी गलत और सही बातों को सीख गए हो
और वे सब इतनी विरोधी हैं, इससे तुम्हारी गहरी अंतर्द्वंद्व
की, कन्फ्यूजन की अवस्था पैदा हुई है।
तुम्हारे
भीतर इतने-इतने लोगों ने तुम्हें काटा और बनाया है कि तुम्हारी मूर्ति तो नहीं
निखरी, न मालूम कितनी मूर्तियां तुममें खोदी गई हैं; कि तुम्हारा
पत्थर अगर अनगढ़ होता तो भी सुंदर होता। गढ़ने वालों ने तुम्हारे पत्थर को बुरी तरह
कुरूप कर दिया है।
साक्षीभाव
समय लेगा। समय इस बात पर निर्भर करेगा कि कितना तुम्हारे भीतर दमन है। और इस बात
पर निर्भर करेगा कि साक्षीभाव के लिए कितनी तुम्हारी चेष्टा है।
अगर
तुम्हारी चेष्टा बड़ी प्रगाढ़ हो, तो जल्दी भी परिणाम आ जाएगा। तुम्हारी चेष्टा
कुनकुनी हो, तो परिणाम शायद जन्मों में आएगा या शायद कभी भी
न आ पाए। कितनी त्वरा से, कितनी तीव्रता से, कितनी उत्कंठा से, कितनी समग्रता से तुम साक्षीभाव
में ठहरते हो, उतना ही समय लगेगा।
अगर
तुम पूर्णरूपेण साक्षी हो जाओ, तो क्षण-मात्र में भी सारा उपद्रव विलीन हो
सकता है। अगर तुम होश बन जाओ और उस होश के क्षण में तुम्हारी सारी ऊर्जा होश हो
जाए, तुम्हारे भीतर कर्ता बिलकुल भी न बचे, केवल द्रष्टा रह जाए, तो एक क्षण में भी वैसी दृष्टि
सब राख कर देगी, तुम्हारे भीतर जो दबा पड़ा है।
तुमने
कहानी सुनी है कि काम का देव शिव को लुभाने गया है। शिव अपने ध्यान में बैठे हैं
और वह उनके चारों तरफ जाल बुन रहा है वासना के। तो उन्होंने एक आंख खोलकर उसे देखा
और वह जलकर राख हो गया। तब से वह अनंग है, उसका फिर कोई शरीर नहीं है।
ऐसा
ही तुम्हारे भीतर घट सकता है। दो आंख भी खोलने की जरूरत न पड़ेगी, एक आंख!
लेकिन तुम्हारा संपूर्ण प्राण उस आंख में समा जाए। तुम उस एक आंख से अपनी पूर्णता
से देख सको, तो एक आंख भी काफी है। दो आंख भी न खोलनी
पड़ेंगी। और तुम्हारे भीतर जो भी कचरा है, वह सब जल जाएगा और
समाप्त हो जाएगा।
इस
संबंध में यह खयाल ले लेना जरूरी है कि क्रोध हो या कामवासना हो यार् ईष्या हो, वे सभी
तुम्हारे शरीर के अंग हैं, तुम्हारे नहीं।
समाज
और धर्म का यही भेद है। समाज सोचता है, वे तुम्हारे अंग हैं। इसलिए उन्हें
दबाने में लग जाता है। और धर्म मानता है कि वे तुम्हारे अंग नहीं हैं, तुम्हारी संपदा के अंग हैं, तुम्हारे शरीर के अंग
हैं। इसलिए धर्म तुम्हें जगाने में लगता है। समाज तुम्हें दबाने में लगता है,
धर्म तुम्हें जगाने में लगता है। क्योंकि धर्म मानता है, तुम जितने जग जाओगे, उतने ही वासना से मुक्त हो
जाओगे। और समाज मानता है कि तुमको जितना सुला दिया जाए और दबा दिया जाए, उतना ही वासना से छुटकारा होगा।
समाज
की दृष्टि साधारण लोगों के अनुभव पर है। कोई बुद्ध जैसे लोग समाज नहीं बनाते।
बुद्ध जैसे लोग तो अकेले पैदा होते हैं। बुद्धों का कोई समाज तो होता नहीं। इसलिए
अब तक किसी समाज के नियम बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं हैं।
समाज
बनता है मूढ़ों की विशाल भीड़ से। नासमझों का समूह, वे ही नियम बनाते हैं। जैसे
अंधे कोई नियम बनाते हों, और कोई बच्चा आंख वाला पैदा हो जाए,
तो वे तत्क्षण उसकी आंख का आपरेशन कर देंगे। वे कहेंगे, यह बच्चा कुछ गलत पैदा हो गया, विकृत है। आंख तो
होती नहीं और इसको आंख है, आंख का आपरेशन करो।
या
वे उस बच्चे को सिखाएंगे कि तू सदा आंख बंद रख! क्योंकि कोई भी नहीं देखता है; और जब कोई
भी नहीं देखता है, तो देखना अपराध है। वे उस बच्चे में गिल्ट
और अपराध पैदा करेंगे कि देखने में पाप है। तूने देखा कि तू पापी हुआ। तो या तो
तेरी आंखें अलग कर दी जाएं या तू आंख बंद करने को राजी हो जा।
समाज
अंधों से निर्मित है। आंख वालों का कोई समाज नहीं, आंख वाले अकेले पैदा होते
हैं। कबीर ने कहा है, संतों के नहिं लेहड़े। संतों की कोई भीड़
नहीं, कोई जमात नहीं। साधु चले न जमात। उसकी कोई जमात नहीं
है। अकेला ही है। क्योंकि यह ऊंचाई इतनी है कि अकेला ही आदमी उपलब्ध हो पाता है,
भीड़ तो यहां तक नहीं पहुंच पाती। यह ऊंचाई इतनी दुर्लभ और दूभर है
कि कभी कोई अकेला इस ऊंचाई तक पहुंच पाता है, शेष लोग तो
नीचे जमीन पर छूट जाते हैं।
समाज
बनता है नासमझों से। लेकिन नासमझ भी नियम बनाते हैं और नासमझ भी यह खयाल करते हैं
कि वे समझदार हैं। नासमझों का पहला सूत्र है कि तुम शरीर हो। अज्ञानी का पहला
सूत्र है कि तुम शरीर हो और कुछ भी नहीं। इसलिए तुम्हारे शरीर में जो है, वह तुममें
है।
ज्ञानी
का पहला सूत्र है कि तुम शरीर नहीं हो, तुम शरीर से भिन्न और पृथक हो।
तुम्हारा होना बिलकुल शरीर से अनूठा और अलग है। तुम शरीर में हो, लेकिन शरीर नहीं हो। शरीर घर की भांति है। तुम उसके निवासी हो। कि शरीर
वस्त्रों की भांति है, जिसे तुमने ओढ़ा है और अपने को छिपाया
है। शरीर एक उपकरण है। या कि शरीर एक रथ की भांति है और तुम सारथि हो।
ज्ञानी
का पहला सूत्र है कि तुम शरीर से भिन्न हो; अज्ञानी का कि तुम शरीर से अभिन्न
हो। बस इस पर सारा उपद्रव खड़ा होता है।
अगर
तुम शरीर के साथ अभिन्न हो,
तो शरीर में जो-जो भूल-चूकें हैं, वे काटनी
पड़ेंगी। काटकर भी वे कटती नहीं, छिप जाती हैं। छिपकर रोगों
का जन्म बनता है। अनेक-अनेक रोग पैदा होते हैं।
फ्रायड
का कहना है कि मनोविज्ञान जिन रोगों को जानता है, उनमें नब्बे प्रतिशत
कामवासना के दबाने से पैदा होते हैं। और आज का चिकित्सा-शास्त्र कहता है कि सौ में
से पचास रोग कम से कम मानसिक हैं। यह तो चिकित्सा-शास्त्र कहता है। मनस्विद तो
कहता है कि सौ में से नब्बे प्रतिशत मानसिक हैं। और जानकर आपको हैरानी होगी कि चार
आदमियों में कम से कम तीन आदमी किसी न किसी तरह के मानसिक रोग से पीड़ित हैं। और
फ्रायड कहता है कि नब्बे प्रतिशत मानसिक रोग कामवासना के दमन से पैदा होते हैं।
जब
हम दबाते हैं,
तो रुग्ण व्यवस्था हो जाती है। ऐसी हालत हो जाती है, जैसे केटली उबल रही हो और आपने केटली के ढक्कन पर पत्थर रख दिए हों और
केटली का मुंह भी बंद कर दिया हो, भाप के आप दुश्मन हों और
नीचे से आग भी जल रही हो, तो विस्फोट होगा!
भोजन
आप रोज ले रहे हों,
शरीर का श्रम आप रोज कर रहे हों, श्वास से
जीवन-वायु भीतर जा रही है, खून तैयार हो रहा है, कामवासना निर्मित हो रही है। भोजन आग दे रहा है, श्वास
प्रज्वलित कर रही है आग को, आग कामवासना में प्रगट हो रही है,
और उसको हम दबा रहे हैं। चूल्हा पूरी तरह जल रहा है। ईंधन की जरा भी
कमी नहीं होने देते। और केटली के ढक्कन पर पत्थर रखे हुए हैं--धर्म के, नीति के, आचरण के। वहां से भाप भी नहीं निकलने देते।
और नीचे से आग भी प्रज्वलित किए चले जाते हैं। तो क्या होगा?
विस्फोट
होगा। यह आदमी रुग्ण हो जाएगा, पागल हो जाएगा। पागल का अर्थ है, विस्फोट। पागल का अर्थ है, सब सीमाएं टूट गईं। केटली
टुकड़े-टुकड़े में हो गई, ईंधन बिखर गया, सारा पानी चारों तरफ हो गया।
इस
कारण कुछ धार्मिक लोग--जो वस्तुतः धार्मिक नहीं हैं--बजाय केटली के पत्थर हटाने के, ईंधन की
लकड़ियां हटाने लगते हैं। इसलिए साधु कम भोजन करेगा। भय कामवासना का है। क्योंकि
भोजन शरीर में जाता है, तो कामवासना निर्मित होती है। भोजन
ऊर्जा देता है। तो साधु उपवास में लगेगा। उपवास से नई ऊर्जा पैदा न होगी, इसलिए केटली का विस्फोट न होगा।
लेकिन
साधु कमजोर और उदास हो जाएगा। इसलिए प्रसन्न साधु खोजना मुश्किल है। हंसता हुआ, आनंदित
साधु खोजना मुश्किल है। उदास, जराजीर्ण, खंडहर की भांति। क्योंकि वह उतना ही भोजन ले रहा है, जितने से काम चल जाए। काम से ज्यादा भी भोजन हुआ थोड़ा सा कि वासना निर्मित
होगी।
वासना
अतिरेक है। वह फैलाव है। तुम्हारे भीतर जो अतिरिक्त है, उसका
काम-क्रीड़ा में नियोजन है।
तो
उतना ही, जितने से काम चल जाए। एक बार भोजन लेगा, वह भी कम
भोजन लेगा। उस भोजन में से भी जो वास्तविक प्राणदायी तत्व हैं, वह अलग कर देगा। रूखा-सूखा, किसी तरह बस शरीर चल
जाए।
तो
ईंधन हटा लिया। अब आग नहीं जलती। सिर्फ धुआं-धुआं और थोड़ी-सी गर्मी पैदा होती।
उससे पानी थोड़ा-सा कुनकुना बना रहता है। तो जीवन चलता जाता है, ठंडा नहीं
हो जाता बिलकुल।
पर
स्वभावतः, इस आदमी की दशा उस चूल्हे के जैसी हो जाएगी, जिसमें
धुआं ही धुआं है। पानी धुएं से ही थोड़ा गरम हो लेता है, लेकिन
कोई उबाल नहीं आता, न भाप बनती है, न
भाप के पैदा होने से जो संगीत पैदा होता है, वह संगीत पैदा
होता है।
झेन
फकीरों ने केटली में होती हुई गुनगुनाहट की बड़ी तारीफ की है। रूस के कवियों ने
सेमोवार में होती गुनगुनाहट के बड़े गीत गाए हैं। किसी शांत क्षण में, सुबह जब
अभी लोग उठे भी नहीं, और पक्षियों ने भी अभी अपने पंख नहीं
फैलाए, अगर केटली गुनगुनाती हो तो सुनने जैसा है। लेकिन वह
गुनगुनाहट बंद हो जाएगी, अगर ईंधन पूरा न हो।
इसलिए
गुनगुनाता साधु खोजना मुश्किल है। उसके जीवन की धारा क्षीण हो गई। मुर्दा-मुर्दा, मरा-मरा
जीता है। चलता है, उठता है, बैठता है,
लेकिन थका है। कुछ करने के पहले ही थका है, क्योंकि
जीवन की ऊर्जा का प्रवाह रुक गया है।
ऐसे
उदास साधुओं से पृथ्वी भर जाए, तो भी खतरा है, क्योंकि
उदास आदमी दूसरे की प्रसन्नता को देख नहीं सकता। और उदास आदमी चाहता है कि सब उदास
हों। और उदास आदमी हंसते हुए आदमी में यह भाव पैदा करता है कि तुम कुछ अपराध कर
रहे हो। रुग्ण आदमी हमेशा स्वस्थ आदमी की तरफर् ईष्या से देखता है। और ऐसी धारणा
पैदा करेगा कि स्वास्थ्य में कुछ पाप है।
आप
चकित होंगे जानकर कि लिओ टालस्टाय ने, जो कि इस तरह की रुग्ण साधुता का
पक्षपाती था, यह लिखा है कि स्वास्थ्य एक तरह की बीमारी है,
टु बी हेल्दी इज टु बी इल। और लिओ टालस्टाय ने यह भी लिखा है कि
जिसको आध्यात्मिक होना हो, उसको स्वास्थ्य की वासना छोड़ देनी
चाहिए। उसको बीमार होने के लिए राजी हो जाना चाहिए। क्योंकि दीन, कम ऊर्जा, सब न्यून--इसकी उसको तैयारी होनी चाहिए।
तो
अध्यात्म के नाम पर दो घटनाएं घट सकती हैं। या तो ईंधन को निकाल लो, ताकि डर न
रहे भाप के पैदा होने का। और या फिर भाप के ढक्कन पर वजन को बढ़ाते जाओ, ताकि डर न रहे। दोनों हालत में, एक हालत में
विक्षिप्त आदमी पैदा होगा, जिसका विस्फोट हो गया; दूसरी हालत में रुग्ण, उदास आदमी पैदा होगा, जो कि मर गया मरने के पहले। जिसको हम साधुता कहते हैं, वह इन दो तरह की रुग्ण दिशाओं में विभाजित है।
लेकिन
बुद्ध को देखें,
महावीर को देखें, तो न तो रुग्ण दिखते हैं,
न विक्षिप्त दिखते हैं। महावीर जैसा सुंदर शरीर खोजना मुश्किल है।
उनके रोएं-रोएं से प्रसन्नता और नृत्य अभिव्यक्त हो रहा है। महावीर की प्रतिमा को
देखकर लगेगा कि और इससे ज्यादा सुंदर काया नहीं खोजी जा सकती।
लेकिन
महावीर के पीछे चलने वाले साधुओं को खड़ा करके देखें! तब आपको जरा बेचैनी होगी कि
महावीर के पीछे चलने वाला साधु ईंधन निकाल लिया है। वह रुग्ण दिखता है। महावीर
जैसी प्रफुल्लता वहां नहीं है। और जहां प्रफुल्लता नहीं, वहां
अहिंसा कैसी? क्योंकि दुखी आदमी सदा हिंसक होगा। वह दूसरे को
दुखी देखना चाहेगा। और जब तक वह तुम सबको भी उदास न कर दे, तब
तक उसे चैन नहीं।
इसलिए
तथाकथित दुखी साधु दूसरों को भी दुखी करने का उपाय करते हैं। वे सिखाते हैं, खाओ कसम,
यह छोड़ो, लो व्रत, इसका
त्याग करो। और अगर तुम त्याग नहीं करते, तो वे इस भांति
देखते हैं, जैसे तुमसे ज्यादा बड़ा पापी खोना मुश्किल है।
उनकी आंखों में घृणा मालूम होगी, निंदा मालूम होगी। उस निंदा
से खबर मिलती है कि उनका जीवन स्वस्थ नहीं हुआ। उनका जीवन विकृत हो गया।
वास्तविक
जो संत है, उसका व्यक्तित्व एक अनंत नृत्य जैसा होगा, उसकी
गुनगुनाहट चलती ही रहेगी। तुम उसके पास बैठोगे--अगर वह चुप भी बैठा हो, शांत भी बैठा हो--तो भी तुम अनुभव करोगे कि कोई नाच रहा है। वह मौन भी बैठा
है, तो तुम्हें उसकी कविता सुनाई पड़ेगी। वह चलेगा, तो तुम्हारे पास अगर सुनने को कान हों, तो तुम्हें
उसके पैरों में बंधे घूंघर सुनाई पड़ेंगे। उसका उठना-बैठना, जैसे
कोई जीवन की वीणा पर संगीत को जन्मा रहा हो, ऐसा होगा। उसका
सारा व्यक्तित्व संगीतपूर्ण और कलात्मक हो जाएगा।
और
तभी तो जीवन का उत्सव है। और तभी तो कोई कह सकता है कि परमात्मा को धन्यवाद। यह
उदास साधु कैसे धन्यवाद देगा? इसको अगर परमात्मा मिल जाए तो शिकायत कर सकता
है। यह यही कह सकता है कि क्या यह जीवन दिया है? एक बोझ!
तुमने ही दिया यह जीवन? बंद करो यह खेल! इसकी शिकायत हो सकती
है, धन्यवाद नहीं हो सकता। धन्यवाद तो वही दे सकता है,
जिसने धन्यता जानी हो।
साक्षीभाव
है मार्ग उस धन्यता को पाने का। न तो ईंधन को हटाना है, क्योंकि
जीवन ईंधन है। ऊर्जा कम नहीं करनी, बढ़ानी है, क्योंकि ऊर्जा आनंद है। और परमात्मा परम ऊर्जा है।
इसलिए
तुम निर्वीर्य होकर उसे न पा सकोगे। तुम्हारी ऊर्जा जब बहेगी सब बांध छोड़कर, तभी तुम
उसे पा सकोगे। तुम जब बाढ़ में आ जाओगे, सब किनारे डुबा दोगे,
तभी तुम उसे पा सकोगे।
सूखी
नदियां सागर तक कैसे पहुंचेंगी? डबरे बन जाएंगे, जगह-जगह
व्याघात हो जाएगा, जगह-जगह रेत के ढेर हो जाएंगे। सब सूख
जाएगा। कहीं-कहीं नदी बहेगी, तो थोड़े डबरे बना देगी। तुम
उन्हीं डबरों की भांति हो जाओगे, अगर तुमने ईंधन अलग कर
दिया।
जीवन
की ऊर्जा को बढ़ाओ,
जीवन की ऊर्जा को पहुंचने दो उसके पारावार तक। और वहां कोई अंत नहीं
है, क्योंकि अनंत है जीवन-ऊर्जा। इसलिए तुम जीवन-ऊर्जा के
संबंध में अति नहीं कर सकते हो। अतिशय होता ही नहीं वहां। जितना भी तुम बढ़ाओगे,
पाओगे कम है।
जो
नदी सागर से मिलने चली है,
उसे काफी जल चाहिए और काफी उमंग चाहिए। शक्ति का प्रवाह चाहिए। कहीं
डबरे न बन जाएं, कहीं वह खो न जाए। वह सब बांध तोड़ देगी,
वह सब किनारों को डुबा देगी, लेकिन सागर तो
पहुंचेगी।
सागर
तक पहुंचना हो तो थोड़ा-बहुत सागर तुम्हें भी बनना होगा। क्योंकि सिर्फ समान का
मिलन होता है। अगर परमात्मा परम ऊर्जा है, तो निर्वीर्य होकर तुम उस तक नहीं
पहुंच सकते हो। अगर वह विराट है, तो क्षीण होकर तुम नहीं
पहुंच सकते हो। वह जैसा है, कुछ तो उस जैसे बनो। और अगर
परमात्मा जीवन है, तो तुम मुर्दा-मुर्दा होकर कैसे उसके
मंदिर की यात्रा करोगे?
देखो, चारों तरफ
परमात्मा नाचता हुआ है। उसमें फूल खिल रहे हैं, उसमें गीत झर
रहे हैं, चारों तरफ जीवन एक उल्लास से भरा है।
हमारे
उत्सव के दिन कभी-कभी आते हैं। कभी साल में हम होली मनाते हैं, तब हम
रंगीले हो जाते हैं, तब हम रंग एक-दूसरे पर फेंक लेते हैं।
कभी साल में हम दीवाली मनाते हैं और अंधेरे में दीए जला लेते हैं। पर हमारा जीवन
रूखा-सूखा है। इसीलिए रूखे-सूखे जीवन के कारण आदमी को उत्सव निर्मित करने पड़े हैं।
लेकिन पशु-पक्षियों के, पौधों के, नदी-झरनों
के न कोई दीवाली है, न कोई होली है, क्योंकि
पूरा जीवन दीवाली और होली है।
आदमी
रुग्ण है, इसलिए एक दीवाली से राजी हो जाता है। एक दीवाली सिर्फ सांत्वना है। तो उस
दिन हम नए कपड़े पहन लेते हैं, घर में दीए जला लेते हैं,
पटाखे फोड़ लेते हैं। और फिर हम वैसे ही अपनी उदासी में लौट जाते
हैं--फिर उसी कारागृह में, उसी दुख और पीड़ा में। एक होली आती
है तो हम गीत गा लेते हैं, नाचते हैं। सब सीमाएं तोड़ देते
हैं। सब नीति-नियम, बंधन हटा देते हैं। उस दिन फिर हम कोई
नीति-नियम नहीं मानते । उस दिन हम कोई शिष्टाचार नहीं मानते। उस दिन हम कोई नियम
स्वीकार नहीं करते। उस दिन सब अनुशासन को तोड़कर नदी एक दिन बह लेती है।
लेकिन
एक दिन नदी बहे,
इससे कहीं सागर मिलेगा? और यह एक दिन तो सिर्फ
बहाना है। यह सिर्फ अपने को समझा लेना है।
लेकिन
प्रकृति को देखो,
वहां परमात्मा प्रतिदिन दीवाली और प्रतिदिन होली मना रहा है। वहां
रोज ही रंग छिटकते हैं। वहां रोज फूल खिलते हैं। वहां पुराना पत्ता गिर भी नहीं
पाता कि नए का जन्म हो जाता है; नई कोंपल उसकी जगह ले लेती
है। वहां उत्सव क्षणभर को बंद नहीं होता। वहां अखंड चल रहा है उत्सव। वहां तारे और
चांद और सूरज रोज ही जल रहे हैं। वहां दीवाली प्रतिपल है।
धार्मिक
व्यक्ति का जीवन ऐसा होगा। वह प्रतिपल उत्सव से भरा है। अहोभाव है कि वह है। और
उसकी श्वास-श्वास एक धन्यवाद है।
यह
साक्षीभाव से जन्मेगा। साक्षीभाव में ईंधन नहीं हटाना है, क्योंकि
निर्वीर्य नहीं करना है तुम्हें। और साक्षीभाव में पत्थर भी नहीं रखने हैं,
क्योंकि विक्षिप्त भी नहीं करना है तुम्हें। कोई विस्फोट हो जाए और
तुम टूट जाओ, बिखर जाओ, खंड-खंड हो जाओ,
वह भी नहीं करना है।
साक्षीभाव
का अर्थ है, दूर खड़े होकर देखना है, जो भी हो रहा है। यह जलता
हुआ ईंधन सुंदर है। ये उठती हुई लपटें अनूठी हैं। यह जीवन, जो
अग्नि की तरह प्रगट हो रहा है, प्यारा है। यह उबलते हुए जल
का गीत, यह गुनगुनाहट, ये बुलबुले यह
भाप का उठना, सब सुंदर है, सब स्वीकार
है। ढक्कन को हटाओ, भाप को मुक्त होने दो, अग्नि को जलने दो और भाप को मुक्त होने दो, और तुम
दूर खड़े होकर देखो।
एक
अनूठी घटना घटती है कि तुम पाते हो कि यह सब शरीर में हो रहा है। यह ईंधन, यह जल,
यह भाप, सब शरीर में हो रहा है। तुम इससे घिरे
हो, लेकिन इसके पार हो। और जिस दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ने
लगे कि तुम प्रतिपल जिससे घिरे हो, उसके पार हो, उस दिन अतिक्रमण हो गया। उस दिन क्रोध तुम्हें क्रोधित न करेगा, उस दिन कामवासना तुम्हें कामवासना से पीड़ित न करेगी। उस दिन अगर तुम काम
में उतरोगे, तो भी दूर खड़े रहोगे। और तब तुम जानोगे कि
परमात्मा की मर्जी है। अगर काम में उतरना है, तो ठीक,
उसकी मर्जी पूरी हो। उस दिन अगर तुम क्रोध करोगे, तो क्रोध भी क्रीड़ा होगी, वह खेल होगा, वह अभिनय होगा। लगेगा जरूरी है, तुम उसे होने दोगे।
लेकिन क्षणभर को भी तुम्हारा तादात्म्य उससे न होगा। वृत्ति और तुम अलग रहोगे।
संसार
में रहकर और संसार के न होना, शरीर में रहकर और शरीर के न होना, नदी से गुजरना और पैर गीले न हों, वही साक्षीभाव का
सूत्र है।
एक
झेन फकीर अपने शिष्य को विदा दे रहा था। शिष्य को कह रहा था, जा तू
संसार में और जो मैंने तुझे कहा है औरों को कह, और जो मैंने
तुझे दिया है औरों को बांट। और जब शिष्य सीढ़ियां उतरने लगा मंदिर की, तो उस फकीर ने कहा, देख, नदी
से गुजरना, लेकिन पैर गीले न हों!
वह
शिष्य ठिठककर खड़ा हो गया कि यह तो उपद्रव की बात है। नदी से गुजरेंगे तो पैर तो
गीले हो ही जाएंगे। पैर गीले न करने हों, तो नदी से गुजरना ही न आए। अच्छा
है, मत गुजरो। पैर गीले करने हों, तो
ही नदी से गुजरो। वह वापस लौटने का सोचने लगा।
गुरु
ने कहा, तू वापस लौट ही आ। अगर तू इतनी-सी बात नहीं समझा, तो
तेरा अभी जाना उचित नहीं है। वह कहने लगा, आप समझाएं। गुरु
ने कहा, यह समझाने की बात नहीं, तू
अपने ध्यान की प्रक्रिया को फिर शुरू कर। तू फिर साक्षीभाव साध, क्योंकि यह साक्षीभाव का अर्थ है।
इतना
ही अर्थ है, नदी से गुजरना और पैर गीले न हों। नदी से बचे, तो
कमजोर। पैर गीले हो गए, तो भटक गए।
कठिन
है। पर साक्षीभाव जैसे-जैसे सधता है, सरल होता जाता है। तुम सिर्फ देखने
वाले बनना, कर्ता मत बनना। क्रोध हो तो देखना; कामवासना हो तो देखना;र् ईष्या हो तो देखना। और
जानना कि तुम वही हो, जो देख रहा है। तुम वह नहीं हो,
जो दिखाई पड़ रहा है। दृश्य के साथ अपना संबंध छोड़ देना और द्रष्टा के
साथ अपना संबंध जोड़ लेना।
जैसे
ही इसकी झलक मिलनी शुरू होती है, धीरे-धीरे तुम पाओगे, संसार
चलता है अपनी ही ऊर्जा से। तुम्हें उसमें साथ देने की जरूरत ही नहीं है, तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारे बिना शरीर चलता है। शरीर को भूख
लगती है, शरीर भूख की मांग करता है और शरीर ही भोजन को उठाकर
शरीर में डाल लेता है। तुम अकारण बीच में आ जाते हो। गर्मी लगती है, शरीर पीड़ा अनुभव करता है। और शरीर ही वृक्ष की छाया में हट जाता है। तुम
अकारण बीच में आ जाते हो। तुम्हारी कोई जरूरत न थी। तुम सिर्फ देख सकते थे कि शरीर
को गर्मी लगी, पसीना आया। और तुम देख सकते थे कि शरीर ने
पीड़ा अनुभव की। और तुम देख सकते थे कि शरीर उठा और छाया में जाकर बैठ गया।
काश, तुम देख
सको शरीर का गर्मी से पीड़ित होना, छाया में हट जाना और तुम
साक्षी रहो, कर्ता न बनो, तो तुम मुक्त
हो। कोई और मुक्ति नहीं है। और जल्दी ही तुम पाओगे कि समाज ने जो-जो दबाया,
उससे छुटकारा हो जाएगा।
लेकिन
जो-जो प्रकृति ने दिया है,
उससे कोई छुटकारा नहीं है। समाज ने जो-जो तुम्हें दबा दिया है
जबर्दस्ती, वह तो कृत्रिम है, उससे
छुटकारा हो जाएगा साक्षीभाव से। लेकिन जो-जो प्रकृति ने दिया है, उससे छुटकारा नहीं होगा। इसे ठीक से समझ लो। अन्यथा बड़ी कठिनाई खड़ी होती
है। क्योंकि साधक सोचता है, अभी छुटकारा इससे नहीं हुआ,
उससे नहीं हुआ, तो मेरा कुछ भी नहीं हो रहा
है।
ध्यान
रहे, छुटकारा उससे हो सकता है, जो तुम्हें दूसरों ने दिया
है; उससे नहीं हो सकता, जो तुम लेकर आए
हो। उससे छुटकारा तो उसी दिन होगा, जिस दिन शरीर छूटेगा।
जीवन-मुक्त
हम उसे कहते हैं,
जिसका समाज से छुटकारा हो गया और समाज के संस्कारों से छुटकारा हो
गया, जिसके भीतर दमित कुछ भी न रहा। लेकिन प्रकृति तो अभी
उसके साथ चल रही है। जीवन-मुक्त को भी भूख लगेगी। और लगनी चाहिए। सच तो यह है कि
उसे जैसी अच्छी भूख लगेगी, तुम्हें कभी लग नहीं सकती।
क्योंकि उसका सब शुद्ध है। साक्षीभाव शुद्ध है; अलग खड़ा है।
अक्सर
तो तुम झूठी भूख से परेशान होते हो, क्योंकि तुम्हारा साक्षीभाव नहीं
है। अगर तुम एक बजे रोज भोजन करते हो, तो घड़ी में एक देखकर
भूख लग आती है। और यह भी हो सकता है कि घड़ी रात बंद हो गई हो और एक उसमें बजा हो,
लेकिन अभी वस्तुतः ग्यारह बजा हो। झूठा एक देखकर भी भूख लग सकती है।
यह भूख झूठी है। और बड़े मजे की बात है कि अगर तुम थोड़ी देर रुक जाओ तो यह भूख खो
जाएगी। सिर्फ झूठी भूख खो सकती है। अगर यह वास्तविक होती तो और बढ़ती।
तुम
रोज रात दस बजे सो जाते हो तो ठीक दस बजे नींद आने लगेगी। यह नींद मानसिक है, झूठी है।
अगर तुम दस मिनट मत सोओ, और काम में लग जाओ, नींद नदारद हो जाएगी, रातभर न आएगी। अगर यह वास्तविक
होती तो दस बजे जितनी थी, साढ़े दस बजे और ज्यादा होती,
ग्यारह बजे और ज्यादा होती, बढ़नी चाहिए। लेकिन
यह वास्तविक नहीं है, यह सिर्फ तुम्हारा खयाल है, यह तुम्हारा तादात्म्य है।
इसलिए
संत को जैसी भूख लगेगी,
वैसी तुम्हें नहीं लग सकती। संत को जैसी नींद आएगी, वैसी तुम्हें नहीं आ सकती। संत जैसा सुख पाता है, शरीर
से भी, वैसा भी तुम नहीं पा सकते।
लेकिन
सुख हो या दुख,
भूख हो या प्यास, नींद हो या न नींद हो,
संत दूर खड़ा है। वही उसका संतत्व है। वह शरीर को चलने देता है। संत
को एक बात अनुभव हो गई कि शरीर अपने आप चल रहा है। तुम्हारे कर्ता बनने का कोई भी
प्रयोजन नहीं है।
अपने
को जरा दूर करो और देखो कि शरीर अपने से चलता है या नहीं। तुम्हारे कारण विघ्न ही
पड़ता है, बाधा उपस्थित होती है। तुम बीच-बीच में आकर झंझट खड़ी करते हो, शरीर को उसकी सरलता से नहीं चलने देते।
समाज
ने जो थोपा है,
वह खो जाएगा साक्षीभाव से। लेकिन प्रकृति ने जो दिया है, वह शुद्ध हो जाएगा, निखर आएगा। प्रकृति का दिया हुआ
तो तभी खोएगा, जब शरीर खो जाएगा। इसलिए जीवन-मुक्त समाज से
मुक्त होता है। और जब शरीर से मुक्त होता है, तब हम उसे
परममुक्ति कहते हैं। तब वह प्रकृति से भी मुक्त हो जाता है। तब शुद्ध साक्षी ही रह
जाता है।
बौद्धों
ने दो निर्वाण कहे हैं। एक को वे निर्वाण कहते हैं और एक को महानिर्वाण कहते हैं।
निर्वाण तो बुद्ध का उस दिन हुआ, जब वे चालीस साल की करीब उम्र के थे, तब उन्होंने जान लिया कि मैं साक्षी हूं। वह निर्वाण हुआ। भूख तब भी लगी,
प्यास तब भी लगी, पानी की तब भी जरूरत रही,
रात सोना भी पड़ा, दिन चले, तो शरीर थका भी, बीमारियां भी आईं, स्वास्थ्य भी आया, चालीस साल बुद्ध निर्वाण के बाद
भी जीए। फिर हुआ महानिर्वाण।
महानिर्वाण
का अर्थ है कि अब शरीर भी गया। पहले समाज जाता है, फिर प्रकृति जाती है। और जब
समाज और प्रकृति दोनों चले जाते हैं तब शुद्ध ब्रह्म, शुद्ध
आत्मा बच रहती है।
पहले
समाज को जाने दो। संन्यास इस बात की घोषणा है कि मैं समाज से अब मुक्त होने की
चेष्टा शुरू करता हूं। संन्यास का यही अर्थ है। संन्यास का यह अर्थ नहीं कि आप जंगल
चले गए तो संन्यासी हो गए। क्योंकि जंगल में भी आप समाज को अपने साथ ले जा सकते
हैं। क्योंकि जंगल आप चले जाएं, यहां आप हिंदू थे और जंगल में भी आप समझते रहें
कि हिंदू, तो फिर यहां समाज ने जो सिखाया था, उसको आप जंगल में भी ले जा सकते हैं, तो आप समाज के
भीतर हैं।
समाज
का त्याग, इसका अर्थ, समाज से दूर हट जाना नहीं। क्योंकि दूर
हटने की कोई जगह भी नहीं, कहां भागोगे? समाज के त्याग का अर्थ है, समाज ने जो-जो आरोपित
किया है, उससे छुटकारा। शुद्ध बचपन में लौट जाना, समाज से छुटकारा है। फिर से बचपन की तरह ताजे हो जाना, बच्चे की तरह हलके हो जाना, समाज से छुटकारा है।
समाज
से जिस दिन पूरे छूट जाओगे,
तुम्हारा निर्वाण होगा। पहली घटना घटेगी: तुम और प्रकृति अलग-अलग
मालूम होने लगोगे। समाज बीच में सेतु की तरह काम कर रहा है, सेतु
हट जाएगा। एक तरफ तुम, एक तरफ प्रकृति। एक तरफ पुरुष,
एक तरफ प्रकृति। फिर बड़ा खेल में रस है।
शुद्ध
पुरुष, शुद्ध प्रकृति का खेल बड़ा रसपूर्ण है। उसको हिंदुओं ने अपनी मिथ, अपनी कथा में रासलीला कहा। वह प्रकृति और पुरुष का खेल है। वह कृष्ण का
नाचना गोपियों के बीच। वह कथा बड़ी प्यारी है। कृष्ण पुरुष है, साक्षी को उपलब्ध हो गया। गोपियां चारों तरफ नाचती हैं, उसे रिझाती हैं। उसे रिझाया नहीं जा सकता। जिस दिन तुम्हारे बीच का सेतु
टूट जाता है, समाज हट जाता है।
और
कृष्ण से ज्यादा समाज-विरोधी आदमी खोजना मुश्किल है। इसलिए तुम कितनी ही कृष्ण की
पूजा करो, भीतर-भीतर तुम कृष्ण से डरे रहते हो। अगर कृष्ण अचानक तुम्हें मिल जाएं,
तो तुम अपनी पत्नी से उनका परिचय कराना पसंद न करोगे। यह आदमी
खतरनाक है। तुम अपने बच्चों को भी नहीं चाहोगे कि उनके पास जाएं, क्योंकि यह आदमी उपद्रवी है। इसे दूर-दूर से पूजना तो ठीक, इसके पास होना उचित नहीं है। कृष्ण ने समाज को बिलकुल ही हटा दिया है।
कृष्ण बिलकुल गैर-सामाजिक हैं।
और
यह जो नृत्य की कथा है,
यह घटती है, जिस दिन तुम भी समाज के तत्व को
अपने से पोंछकर अलग कर दोगे, समाज ने जो-जो संस्कार डाले हैं,
उन्हें हटाकर शुद्ध बच्चे की भांति हो जाओगे। इसलिए कृष्ण को हम
ज्यादातर बच्चे की तरह चित्रित किए हैं। कृष्ण अस्सी साल तक जीए, लेकिन उनके बुढ़ापे का कोई चित्र नहीं है। और हमने उन्हें बूढ़े की तरह कभी
चित्रित नहीं किया। इसका यह अर्थ नहीं कि वे बूढ़े न हुए होंगे। बूढ़े तो जरूर हुए
होंगे। शरीर तो, प्रकृति तो, अपना गुणधर्म
पूरा करता है। उनके भी दांत गिरे होंगे, शरीर निर्बल हुआ
होगा, कमर झुक गई होगी। लकड़ी की जरूरत पड़ी होगी। लेकिन सोचना
ही कठिन है कृष्ण को लकड़ी लेकर बूढ़े की तरह चलते हुए। वह हम नहीं सोच सकते। वह है
भी उचित नहीं। क्योंकि कृष्ण का शरीर बूढ़ा हो गया हो, प्रकृति
थक गई हो, लेकिन पुरुष सदा बचपन में रहा, वह पुरुष सदा बच्चे की तरह ताजा, नए पत्ते, नए कोंपल की तरह ताजा रहा।
इसलिए
कृष्ण की जो अधिकतम चित्रावली है और जो गीत सूरदास और दूसरों ने लिखे हैं, वे सब
बालपन के हैं। वह शुद्ध पुरुष का स्वभाव है। बच्चे की भांति, सरल, निर्दोष।
कृष्णमूर्ति
इस बालपन की दशा को स्टेट आफ अनकंडीशनिंग कहते हैं, संस्कार-शून्य--समाज
संस्कार देता है--समाज-मुक्त, जहां कोई रेखा दूसरे की खींची
हुई नहीं बचती, चेतना अरेखांकित, अनकंडीशंड!
फिर
भी प्रकृति का खेल चारों तरफ चलता रहेगा, रासलीला चलेगी। क्योंकि तुम साक्षी
हो गए, इससे प्रकृति का कृत्य तत्क्षण बंद नहीं हो जाएगा।
क्योंकि प्रकृति का अपना मोमेंटम है।
तुम
साइकिल चलाते हो,
तुम पैडल लगाते हो। फिर तुमने पैडल लगाना रोक दिया और तुमने कहा,
बहुत हो गया, अब नहीं चलाना। लेकिन अभी साइकिल
थोड़ी दूर चलेगी। क्योंकि पीछे तुमने जो पैडल चलाए थे, साइकिल
ने शक्ति इकट्ठी कर ली है। अभी मील, आधा मील साइकिल चलेगी।
और अगर उतार हो तो कई मील भी चल सकती है।
इसलिए
जो लोग पैंतीस साल की उम्र के पहले निर्वाण को उपलब्ध हो जाते हैं, उनकी
साइकिल का चलना बहुत मुश्किल हो जाता है, क्योंकि पैंतीस साल
के पहले जीवन चढ़ाव पर होता है। पैंतीस साल बिंदु है चढ़ाव का आखिरी। इसलिए अक्सर जो
व्यक्ति पैंतीस साल के पहले ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, निर्वाण
को उपलब्ध होते हैं--जो पैडल लगाना बंद कर देते हैं--उनकी प्रकृति का नृत्य बहुत
जल्दी बंद हो जाता है। और अगर प्रकृति के नृत्य को, शरीर को
चलाना हो, तो बड़ी कठिनाई हो जाती है। किन्हीं कारणों से
चलाना जरूरी हो, वासना के कारण तो समाप्त हो गए, करुणा के कारण चलाना जरूरी हो, तो अति कठिन हो जाता
है। इसलिए अक्सर पैंतीस साल के पहले जो लोग ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, शंकराचार्य या कोई और, वे जल्दी ही समाप्त हो जाते
हैं।
जो
लोग पैंतीस साल के बाद ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, उनकी साइकिल चलती है। तब
जीवन उतार पर होता है। महावीर या बुद्ध अस्सी साल तक जी लेते हैं। पैंतीस साल के
बाद जीवन उतार पर है, तब बिना पैडल के भी काफी दूर तक जा
पाता है।
शरीर
तो चलेगा, आप साक्षी हो गए तब भी। उसका नृत्य चलेगा, उसकी
भूख-प्यास चलेगी, लेकिन आप अब दूर खड़े देखते रहेंगे। इसके
पहले आप कर्ता थे, अब आप द्रष्टा होंगे। इसके पहले आप
पार्टिसिपेंट थे, आप भागीदार थे, अब आप
भागीदार नहीं हैं, अब आप एक दर्शक हैं। इसलिए परिणाम की अब
आपको कोई चिंता नहीं है। जब तक आप भागीदार थे, तब तक क्या
परिणाम होता है, उसकी चिंता थी। अब कुछ भी परिणाम हो,
उसकी चिंता नहीं है। कृष्ण वही अर्जुन को कहते हैं कि तू परिणाम की
चिंता छोड़, फल की आकांक्षा छोड़। वह यही कह रहे हैं कि तू साक्षी
हो जा, तू सिर्फ देख जो हो रहा है। और प्रकृति जो करती है,
उसे करने दे, तू दूर खड़ा हो।
पहले
समाज, संस्कार से छुटकारा होगा, फिर एक दिन प्रकृति भी
शांत हो जाएगी। ये गोपियां कब तक नाचेंगी? थक जाएंगी।
सांख्य-सूत्र
कहते हैं कि पुरुष जब देखने वाला हो जाता है, तब प्रकृति बड़ी नाचती है, रिझाती है, कोशिश करती है। क्योंकि प्रकृति को भी
पीड़ा अनुभव होती है तुम्हारे दूर होने से। तुम्हारे हट जाने से प्रकृति का खेल
रुकने के करीब आ जाता है। तो प्रकृति सब उपाय करती है तुम्हें उलझाने के, वापस बुलाने के। लेकिन साक्षी अगर तुम खड़े ही रहे, तो
सांख्य-सूत्र कहते हैं, प्रकृति की नटी थक जाती है। फिर थककर,
वह शांत होकर बैठ जाती है। फिर तुम्हारा स्मरण छोड़ देती है, तुम बाहर हुए उसकी सीमा के।
तब
महापरिनिर्वाण। तब शरीर दोबारा उपलब्ध नहीं होता। तब आत्मा विराट के सागर में खोकर
एक हो जाती है,
रहती है और नहीं भी रहती। नहीं भी रहती इसलिए कि कोई मैं का बिंदु,
कोई मैं का केंद्र नहीं रह जाता। रहती है इसलिए कि इस जगत में जो
कुछ भी है, उसके मिटने का उपाय नहीं। केंद्र-रहित महाशून्य
में एक हो जाती है।
तुम्हारी
तरह तुम न बचोगे,
परमात्मा की तरह तुम बचोगे--वही लक्ष्य है, वही
खोज है।
आज इतना ही।
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