गुरुवार, 25 मई 2017

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02



प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
खोलो शून्य के द्वार—(दूसरा प्रवचन)

दिनांक १२ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

1—अभी न ले जाएं उस पार
इन अंधियारी रातों में अब
चंदा देखा पहली बार
क्षण भर तो जी लेने दें अब
रुक कर निरख तो लेने दें अब
कुछ कह लेने कुछ सुन लेने दें
भ्रम है सपना है यह कह कर
अभी न खोलें शून्य के द्वार
अभी न ले जाएं उस पार
2—आप क्या कहते हैं, मैं समझ नहीं पाता हूं। क्या करूं?
3—क्या संसार में कोई भी अपना नहीं है?


पहला प्रश्न: भगवान,
अभी न ले जाएं उस पार
इन अंधियारी रातों में अब
चंदा देखा पहली बार
क्षण भर तो जी लेने दें अब
रुक कर निरख तो लेने दें अब
कुछ कह लेने कुछ सुन लेने दें
भ्रम है सपना है यह कह कर
अभी न खोलें शून्य के द्वार
अभी न ले जाएं उस पार!

मीरा,
इस पार और उस पार में कोई अंतराल नहीं है--स्थान का या समय का। जाग जाओ तो यही पार उस पार में रूपांतरित हो जाता है। भेद है जागने और सोने का।
नदी के दो तट होते हैं, उन दोनों के बीच तो फासला होता है। इस पार से उस पार जाना हो तो तैरना पड़े, नाव करनी पड़े, पतवार उठानी पड़े, जूझना पड़े आंधियों से अंधड़ों से। और कौन जाने दूसरा पार मिले न मिले! उसका क्या भरोसा? नाव मझधार में भी डूब सकती है। लेकिन जीवन की नदी के जो दो पार हैं, उनके बीच दूरी नहीं है। उनके बीच इतनी ही दूरी है जितनी सुबह तुम्हारे सोने और जागने के बीच होती है। उसे दूरी नहीं कहा जा सकता। अभी सोए थे, अभी जाग गए। सोने और जागने के बीच कोई यात्रा भी तो नहीं करनी होती। अभी पलकें बंद थीं, अब खुल गईं। अभी सब अंधकार था और सपने ही सपने थे और सब प्रकाश है अब और सपने कहां तिरोहित हो गए, पता भी नहीं चलता! थे भी कभी, इसका भी पता नहीं पलता।
यह जो जीवन की धारा है, यह सोने और जागने के दो किनारों के बीच बह रही है। हम तो जहां हैं वहीं हैं--सोए भी वहीं, जागे भी वहीं। सोए तो सपनों में खो गए, जाग गए तो सत्य का साक्षात्कार हुआ। इसलिए भाषा में उलझ मत जाना।
मैं जब उस पार की बात कर रहा हूं तो किसी दूर के गंतव्य की बात नहीं है वह। कहीं जाना नहीं है। जाने की बात ही नहीं है। जागने की बात है।
तू कहती है: अभी न ले जाएं उस पार। इन अंधियारी रातों में अब चंदा देखा पहली बार।
यह जो अनुभव हो रहा है अभी, यह जो चंद्रमा की झलक मिल रही है अभी--स्वप्न में ही है। अंधेरी रात में स्वप्न ही हो सकते हैं, क्योंकि अंधेरा यानी निद्रा। रात यानी प्रसुप्ति। हां, सपना देख सकते हो तुम। उस पार का सपना भी देख सकते हो। सोए-सोए भी कोई सोच सकता है कि मैं जाग गया। नींद में भी जागने का सपना देखा जा सकता है। मगर वह जागना नहीं है। और यह बात सच है कि नींद में भी जागने का अहसास हो, तो भी आनंद मालूम होगा। जागने की बात में ही इतना रस है कि नींद तक में जागने की प्रतीति हो तो भी आह्लादित करती है। अभी जो चंद्रमा देखा है, वह चंद्रमा की ज्यादा से ज्यादा झलक है। जैसे झील में बना हुआ चंद्रमा, बिलकुल चंद्रमा जैसा लगता है, मगर वहां है कुछ भी नहीं, केवल प्रतिफलन है। जैसे कि दर्पण में देखा मुखड़ा; वहां कुछ भी नहीं है, दर्पण को तोड़ कर कुछ भी न पाओगे। दर्पण ही टूट जाएगा बस, हाथ कुछ भी न आएगा। छवि भी खो जाएगी।
जरूर यहां मेरे पास बैठोगे, उठोगे, सुनोगे, समझोगे, रसधार बहेगी। पहले तो तुम्हें चंद्रमा झील में ही दिखाई पड़ेगा और जब तुम्हें चंद्रमा झील में दिखाई पड़ेगा तो स्वाभाविक है कि तुम्हारा मोह जगे, तुम्हारी आसक्ति जगे। तुम उसी चंद्रमा को पकड़ कर बैठ जाना चाहो। इतना प्यारा! प्रतिफलन ही सही, तुम्हारे लिए तो सत्य ही है। प्रतिफलन तो उनके लिए जिन्होंने सत्य को देखा है; वे तुलना कर सकते हैं कि सत्य क्या है और प्रतिफलन क्या है। तुमने तो मूल देखा नहीं, इसलिए प्रतिफलन को ही सत्य मान लेने के सिवाय और कोई चारा नहीं। और अगर मैं कहूं कि यह झूठ और अगर मैं कहूं कि यह स्वप्न, माया, तो पीड़ा होगी। बामुश्किल तो झलक मिली। तलाश करते-करते तो, खोजते-खोजते तो, जन्मों-जन्मों में तो, कहीं चांद दिखा। और इधर चांद दिखा नहीं है कि मैंने तुमसे कहना शुरू कर दिया कि छोड़ो इसे, यह तो केवल प्रतिफलन मात्र है, प्रतिबिंब मात्र है। जागो इससे! यह तो केवल सपना है!
यह सपना प्रीतिकर है। चंद्रमा झील में भी बड़ा सुंदर होता है, खूब प्यारा होता है! और झील अगर निष्कंप हो तो बिलकुल सच है, ऐसी भ्रांति पैदा हो सकती है।
मैं चांद की बात कर रहा हूं। तुम रोज चांद की बात सुनते हो। वह बात धीरे-धीरे भीतर बैठती है, अंतर्तम में पैठती है। फिर मैं ध्यान के लिए निरंतर तुमसे आग्रह कर रहा हूं, निमंत्रण दे रहा हूं। फिर धीरे-धीरे ध्यान में भी तुम्हारा रस उमगता है, तुम्हारी जिज्ञासा जगती है। ध्यान का अर्थ है: मन में उठती तरंगों को शांत कर देना। और जैसे ही मीरा, मन की तरंगें शांत हो जाएगी, मन की झील में चांद का प्रतिबिंब बनेगा। वही हो रहा है। और तुझे ही हो रहा है, ऐसा नहीं; बहुतों को यही होगा। सभी को इस घड़ी से गुजरना होगा। और जैसे ही तुम्हारे मन की झील में तरंगें गईं और चांद का प्रतिबिंब बना, कि जरूरी है कि मैं तुम्हें चौंकाऊं, कि मैं तुम्हें हिलाऊं, कि मैं तुमसे कहूं कि इसमें भटक मत जाना। यह बहुत प्यारा दिखने वाला चांद बस केवल प्रतिबिंब है, अभी असली चांद की तलाश करनी है। अभी उस पार चलना है। और तब स्वभावतः तुम्हें लगे कि बामुश्किल तो यह सुंदर अनुभव हुआ, बामुश्किल तो यह जरा सी प्रतीति हुई, जीवन में कोई एक झरोखा खुला, कोई कपाट खुले, ऐसा लगा कि मंदिर करीब आया, ऐसा लगा कि दूरी मिटी--और इधर लग भी नहीं पाई बात कि मैं फिर तुम्हें पुकारने लगा कि रुक न जाना, ठहर न जाना, यह पड़ाव भर है, मंजिल नहीं। विश्राम कर लो दो घड़ी, मगर चलने की तत्परता रखना। अभी और चलना है, और चलना है--जब तक कि सत्य तक ही न पहुंच जाएं तब तक चलते ही चलना है। तब तक बहुत पड़ाव आएंगे और हर पड़ाव पर लगेगा कि बस आ गए। थकान के कारण भी लगने लगता है कि आ गए। और हमें कोई अनुभव भी नहीं सत्य का। इसलिए जो भी हमें मिल जाता है, उसी से हम तृप्त होने लगते हैं। उतना ही क्या कम है! सोचते हैं, शायद बस आ गई मंजिल।
मैंने एक पुरानी सूफी कहानी सुनी है। एक फकीर एक वृक्ष के नीचे बैठ कर रोज अपनी मस्ती में गीत गाता, कभी बांसुरी बजाता, कभी नाचता। एक लकड़हारा भी रोज उसी जंगल से लकड़ियां काट कर गुजरता है। फकीर है, अलमस्त है; झुक कर उसे नमस्कार करता जाता है। एक दिन फकीर ने, जब वह झुक कर नमस्कार कर रहा था, कहा कि मेरे भाई, तू कब तक लकड़ियां ही काटता रहेगा? अरे पागल, जरा और आगे बढ़! जहां से तू लकड़ियां काट रहा है, उससे थोड़े ही आगे चल कर तांबे की खदान है। एक दिन में इतना तांबा ले जा सकता है कि सात दिन तक फिर तुझे कुछ लकड़ियां काटने की जरूरत नहीं। सात दिन के लिए भोजन पर्याप्त हो जाएगा। लकड़हारे को भरोसा तो न आया। लेकिन फकीर रोज-रोज कहने लगा। जब भी लकड़हारा आता, उसके पैर छूता, फकीर याद दिलाता कि जरा आगे। जब भी लौटते में उसके पैर छूता, फिर याद दिलाता कि मूरख, तू लकड़ियां ही ढोता रहेगा, सुनेगा नहीं? जरा और आगे!
एक दिन उसने सोचा कि यह आदमी भला है, मस्त है, कौन जाने ठीक ही कहता हो! मस्तों की बात इनकार करनी मुश्किल भी हो जाती है। उनकी मस्ती ही, उनकी बात की सचाई का प्रमाण होती है। और तो सत्य का कोई प्रमाण इस संसार में है भी नहीं--सिवाय अलमस्ती के; सिवाय आनंद के, सिवाय उत्सव के। इतना नाचता है यह फकीर, इसके पास कुछ भी नहीं। इसके गीतों में ऐसी रसधारा बहती है! यह कभी मौन भी बैठा होता है तो भी इसके पास एक तरंग होती है--किसी और लोक की! कौन जाने, ठीक ही कहता हो। फिर झूठ कहेगा क्यों, किस कारण? मैंने इसका बिगाड़ा भी क्या, जो मुझे नाहक आगे की यात्रा करवाए? फिर एक दिन नहीं, रोज-रोज कहता है।
संकोच भी लगने लगा उसे कि अब वह फिर कहेगा, तो आज चला ही जाऊं। थोड़ा आगे बड़ा, पाया कि थी खदान। बहुत चौंका। कहा कि मैं भी कैसा मूरख! कितने दिन से फकीर कह रहा था! भर लिया इतना तांबा कि फकीर ने तो सात दिन के लिए कहा था, लेकिन वह कम से कम महीने भर के लिए काफी था। महीने भर तो वह आया ही नहीं। महीने भर में एक दिन आता, खदान से तांबा भर ले जाता, बेच देता और महीने भर के लिए निश्चिंत हो जाता। एक दिन फकीर ने कहा, पागल, अब तांबे पर ही अटक जाएगा! थोड़ा और आगे नहीं बढ़ना? अरे चांदी की भी खदान है।
लकड़हारे ने सोचा: मेरे इतने भाग्य कहां! चांदी की खदान! मुझ गरीब को मिल जाए! विधाता ने यह मेरी किस्मत में लिखा होता तो मिल ही गई होती। फकीर मजाक कर रहा है; शायद परीक्षा कर रहा है; शायद देख रहा है कि मैं लोभी तो नहीं हूं।
सुनी-अनसुनी कर दी, लेकिन फकीर फिर रोज कहने लगा। वह जब भी आता, महीने में एक बार, फकीर कहता, क्या इरादे हैं? बस अटक जाएगा तांबे पर? सोचा एक दिन, कौन जाने जैसी पहली बात सच हुई, दूसरी भी सच हो! आगे बढ़ा, थी खदान। फिर ऐसे कहानी चलती है। फिर सोने की खदान और फिर हीरों की खदान है। और हीरों की खदान पर पहुंच गया लकड़हारा, तो फकीर उससे कहता कि जरा और, जरा और। तो वह पूछता कि अब किस चीज की खदान? फकीर कहता, यह मैं न बता सकूंगा। मगर जरा और। अभी असली धन मिला कहां! यह तो सब नकली धन है। यह तो मौत छीन लेगी। मगर उसका कोई नाम नहीं, अनाम है वह धन। अनिर्वचनीय है वह धन। उसकी व्याख्या न कर सकूंगा। उसके लिए कोई शब्द ही नहीं है, जिसमें वह समा सके। मगर थोड़ा और। इतनी सुनी तूने, इतनी और सुन।
मगर यह बात जंचे न। और जिसको हीरे मिल गए हों, अब उसे पड़ी भी क्या! वह बच कर निकल जाता। फकीर जिस रास्ते पर था उस रास्ते से न गुजरता। लेकिन फकीर भी कुछ ऐसे छोड़ थोड़े ही देते हैं। फकीर उसके घर जाने लगा। आधी रात खटखटाए दरवाजा, कि भाई मेरे, सोए ही रहोगे? जरा और आगे! इतनी सुनी, अब न अटको। दो कदम और।
और अक्सर ऐसा होता है, मंजिल जब दो कदम रह जाती है तभी लोग अटक जाते हैं। मंजिल जब दो कदम रह जाती है तभी लोग थक कर बैठ जाते हैं। मगर लकड़हारे की बात भी सच थी। वह पूछता कि बामुश्किल तो मुझे हीरों की खदान मिली, बुढ़ापा आ गया, जिंदगी भर भूखा मरा, दीनता-दरिद्रता में जीया। अब तो इतना मिल गया कि मैं क्या, मेरी सात पीढ़ियों के लिए काफी है। अब मुझे पड़ी भी क्या?
लेकिन फकीर कहता, मान तू मेरी, सुन तू मेरी। अभी तुझे वह धन नहीं पाना है, जो कभी छीना नहीं जा सकता?
लेकिन लकड़हारे की भी बात ठीक थी। वह कहे, तुम प्रमाण दो। तुम मुझे समझाओ। बात पहले मेरी समझ में तो पड़े, तो मैं और आगे बढ़ूं। अब तक तुमने जो बातें कहीं थीं, मेरे समझ पड़ती थीं। अब तुम जो बात कह रहे हो वह बेबूझ है।
फकीर ने एक दिन कहा कि देख, मुझे देख। मेरी आंखों में झांक। तुझे नहीं दिखाई पड़ता कि मुझे हीरों से कुछ ज्यादा मिल गया है। नहीं तो मैं भी हीरों की खदान पर ही बैठा होता। तुझे मुझे देख कर प्रतीति नहीं होती कि हीरों के पार भी कुछ है? नहीं तो मैं कोई पागल हूं, जिसे हीरों की खदान पता है, सोने की खदान पता है, वह झाड़ के नीचे बैठ कर बस बांसुरी बजाता रहता कि आंख बंद करके मस्त होकर डोलता रहता? और मेरे पास कुछ तुझे दिखाई पड़ता है? इस भिक्षापात्र के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। मैं भिखारी रहता, मैं सम्राट न हो जाता? मैं तुझे खबर देता? तूने किसी को खबर दी? तू छिपा रहा है कि किसी को पता न चल जाए हीरों की खदान, मैं भी छिपाता। मैंने तुझे खबर दी, क्योंकि मेरे पास और भी बड़े धन का द्वार खुल गया है। और मैं एक ऐसे धन के द्वार पर पहुंच गया हूं कि कितने ही लोग लें धन, तो भी वहां कुछ कम नहीं होगा। अकूत है, अथाह है। जरा और आगे बढ़ तो मैं जहां हूं वहां तू पहुंच जाए।
धन पकड़ में आ जाता है, ध्यान तो पकड़ में आता नहीं। लेकिन ध्यान ही असली धन है--हीरे-जवाहरातों के पार, समयातीत, कालातीत। उस पार, मीरा, जो मैं तुमसे कहता हूं, चलो, बढ़े चलो, कहीं रुकने नहीं दूंगा जब तक कि उस पार न पहुंच जाओ। और मजा ऐसा है कि उस पार से मतलब ऐसा नहीं कुछ कि कहीं और जाना है। उस पार यानी भीतर। इस पार यानी बाहर। इस पार यानी तंद्रा, निद्रा। उस पार यानी जागरण, ध्यान। इस पार यानी प्रतिबिंब, झलकें, सपने। उस पार यानी सत्य। और सत्य ही केवल मुक्तिदायी है।
लेकिन तुझे तो जो डर लग रहा है, वह सभी को लगता है।

किस किनारे जा लगेगी प्राण की नैया न जाने?
उस किनारे हों न हों इस पार के साथी सुहाने!

सहज हंसमुख सुख, हृदय का धन, न जाने कहां होगा?
दुख, मिलन तन यमुन मन की जाह्नवी का, कहां होगा?
कौन जाने, कौन हों उस तीर पर अपने-बिराने?

कहां होगी सहज सौंधी गंध वाली सजल धरती?
वह लहर, जो तृषित चितवन को अचानक तरल करती?
कहां होगी दूब, उस पर भी तुहिन के चटुल दाने?

नील नभ नक्षत्रधारी और दो नैना भिखारी, कहां होंगे?
स्वप्न की गंधर्व-नगरी, दृश्य उसके हृदयहारी, कहां होंगे?
याद आएगा मुझे जग, आज जग माने न माने!

किस किनारे जा लगेगी प्राण की नैया न जाने?
उस किनारे हों न हों इस पार के साथी सुहाने!
लगता है भय। चिंता पकड़ती है। छोड़ दें इस किनारे को? जो अभी-अभी प्रीतिकर होने लगा है! जो अभी-अभी सुंदर होने लगा है! जहां अभी-अभी लगा है आनंद भी है! जहां अभी-अभी वीणा में झंकार उठी! जहां अभी-अभी रहस्य की धार बही है! छोड़ दें इस किनारे को? और उस पार का क्या पता है? उस पार का क्या भरोसा है? इससे भय पकड़ना स्वाभाविक है, चिंता पकड़नी स्वाभाविक है।
तू ठीक कहती है:
अभी न ले जाएं उस पार
इन अंधियारी रातों में अब
चंदा देखा पहली बार
क्षण भर तो जी लेने दें अब
रुक कर निरख तो लेने दें अब!
कितना ही निरखो, प्रतिबिंब सत्य न हो सकेगा। लाख निरखो, झूठ झूठ ही रहेगा, छाया छाया ही रहेगी, माया माया ही रहेगी।
मगर यही उपाय है। सीधा तुम्हें चांद दिखाया भी नहीं जा सकता। तुम रहते हो सपनों की दुनिया में। इसलिए पहले तो तुम्हें सत्य की भी झलक ही दिखानी होती है। वही तुम्हारी भाषा है जो तुम्हारी समझ में आ सके। फिर झलक समझ में आ जाए तो तुम्हें कहा जा सकता है कि अब इशारा समझो, अब झलक के पार उठो। अब उसे देखो, जिसकी यह झलक है!
पहले तो तुम्हें पृथ्वी पर ही झलक दिखानी होगी। फिर तुम्हें आकाश की तरफ इंगित किया जा सकता है। और जब चंदा की झलक इतनी प्यारी है तो चंदा कितना प्यारा न होगा! ऐसा सोचो, ऐसा विचारो। और यह झलक क्षण भर में खो जा सकती है। फिर विषाद पकड़ ले सकता है। इसके पहले कि विषाद पकड़े, एक जरा सी कंकड़ी गिर जाए झील में कि फिर लहरें उठ आएंगी और चांद की झलक खो जाएगी। जरा सी बात हो जाए, आदमी खिन्न हो जाता है। यह क्षण भर की जो शांति सघन हो गई है, इसका उपयोग कर लो, इसकी सीढ़ी बना लो। इसलिए मैं क्षण भर भी नहीं चाहता कि तुम इस झलक पर रुको। क्योंकि कौन जाने, अगले क्षण यह झलक हो गया न हो। और अगर झलक खो गई तो फिर तुम्हें असली चांद तक ले जाना असंभव हो जाएगा। झलक का ही उपयोग करना है--इशारे की तरह।
तू कहती है: क्षण भर तो जी लेने दें अब!
क्षण का भी कहां भरोसा है? एक क्षण भी तो हमारा अपना नहीं है। आने वाला क्षण आएगा भी, इसका पक्का कहां है! और कहीं ऐसा न हो कि हाथ में आते-आते संपदा चूक जाए। इसलिए नहीं, क्षण भर भी मैं नहीं चाहता कि तुम रुको, कि तुम भटको-भरमो।
तू कहती है:
रुक कर निरख तो लेने दें अब
कुछ कह लेने, कुछ सुन लेने दें
भ्रम है सपना है यह कह कर
अभी न खोलें शून्य के द्वार!
मैं कहूं या न कहूं, जो है, जैसा है वैसा ही है। मेरे कहने से कुछ भेद नहीं पड़ता। तुम्हें एक छाया के पीछे भागता हुआ देखूं और न कहूं! और माना कि तुम्हारे भागने में, तुम्हारी दौड़ में बाधा बनूंगा अगर कहूं कि यह छाया है। और तुम इतने उन्मत्त, तुम इतने मस्त भागे जा रहे हो, जैसे कोई संपदा हाथ लग गई हो! जैसे कोई सत्य हाथ लग गया हो! और मैं ठहरा लूं तुम्हें और कहूं कि यह सब माया है, यह सब छाया है, तो चोट लगती है।
मीरा ठीक कहती है कि मत कहें कि यह भ्रम है, यह सपना है। मगर मेरे कहने से क्या होता है? भ्रम है, सपना है! मैं कहूं तो भी, मैं न कहूं तो भी। मैं न कहूं तो एक खतरा है कि कहीं इसी भ्रम में ही तुम लिप्त न रह जाओ; इसी सपने में ही कहीं खो न जाओ।
शून्य के द्वार तो खोलने ही होंगे, क्योंकि शून्य में ही पूर्ण का साक्षात्कार है। शून्य में ही सत्य की प्रतीति है। शून्य यानी समाधि। ध्यान में सिर्फ झलक मिलती है चंद्रमा की और शून्य में, समाधि में चंद्रमा ही मिल जाता है। पागल मीरा, जब चंद्रमा की झलक इतनी प्यारी मालूम हो रही है तो झोली फैला, चंद्रमा ही झोली में आने को राजी है! मगर झलक छोड़नी पड़ेगी।
सत्य के मार्ग पर और कुछ नहीं त्यागना होता, केवल असत्य त्यागने होते हैं, केवल असार त्यागना होता है। जो नहीं है वही छोड़ना होता है। यह बेबूझ बात लगेगी तुम्हें। सत्य के मार्ग पर जो नहीं है तुम्हारे पास वही छोड़ना होता है और जो है वही जानना होता है।
मैं तो कहूंगा, बार-बार कहूंगा कि यह सपना है। बुद्ध ने कहा है अपने शिष्यों को कि अगर ध्यान के मार्ग पर मैं भी तुम्हें मिल जाऊं तो तलवार उठा कर दो टुकड़े कर देना। ध्यान के मार्ग पर बुद्ध मिल जाएं तुम्हें, तुम ध्यान में बैठे हो और बुद्ध प्रकट हो जाएं, तुम तलवार उठा कर दो टुकड़े कर पाओगे? तुम तो आह्लादित हो जाओगे। तुम तो चरणों पर गिर पड़ोगे। तुम तो कहोगे:हो गई उपलब्धि! आ गई मंजिल! अब और क्या चाहिए! लेकिन बुद्ध कहते हैं, मैं भी तुम्हें मिल जाऊं ध्यान के मार्ग पर तो दो टुकड़े कर देना, क्योंकि ध्यान के मार्ग पर मेरा जो मिलना है वह केवल प्रतिफलन है, वह केवल छाया है। अगर तुम उससे भी मुक्त हो गए तो तुम स्वयं ही बुद्ध हो जाओगे। और जब तक तुम स्वयं बुद्ध न हो जाओ तब तक क्या मिलना बुद्ध से, कैसा मिलना बुद्ध से? हम वही जान सकते हैं जो हम हो जाते हैं। और सब जानना झूठ है।
गीत का दीपक संजो दो
दीप्त जागृति के स्वरों से!
उर-जलदपट पर लिखो फिर
दामिनी के अक्षरों से!

यह तिमिर का देश, तुम
छोड़ो न तम का लेश मन में!
लहलहाए ललक ज्योतिर्वल्लरी
प्रत्येक क्षण में!

पुलक-पुष्पों की पंखुरियां
गिराओ हंसते करों से!

युगों के अवसाद में
आह्लाद-पल-उत्पल खिला दो!

बहुत दिन बिछुड़े रहे जो,
खिन्न बहिरंतर मिला दो!
किरण-कलियों कि करो बरसात
फिर मधुराधरों से!

कल्पना कलहंसिनी फिर
खोल पर उन्मुक्त विहरे!
कर परस मधुछंद काफिर,
आपुलक अनुभूति सिहरे!
फिर झरें नन्हीं फुहारें
चेतना के निर्झरों से!
तुम शून्य तो होओ। और शीघ्र ही--फिर झरें नन्हीं फुहारें चेतना के निर्झरों से! तुम बिलकुल ही शून्य हो जाओ, कुछ पकड़ो मत। एकदम सन्नाटा हो जाओ। और अमृत झरेगा। उसी शून्य से पूर्ण का आविर्भाव होता है। उसी शून्य में खिलता है पूर्ण का कमल।
मैं तो तब तक तुम्हें हांकता ही रहूंगा, देता ही रहूंगा हांक--बढ़े चलो! रुकने नहीं दूंगा। तुम तो रुकना चाहोगे। तुम तो हर कहीं रुकने को राजी हो। तुम तो मील के पत्थर पर ही रुक जाने को राजी हो। तुम मंजिल तक पहुंचने की झंझट नहीं लेना चाहते; जितनी जल्दी रुकना हो जाए उतना अच्छा। कौन चले, कौन यात्रा करे, कौन श्रम उठाए!
मगर संन्यास का अर्थ यही है कि सत्य पाए बिना नहीं रुकेंगे। इस संकल्प का नाम ही संन्यास है।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
आप क्या कहते हैं, मैं समझ नहीं पाता हूं। क्या करूं?
परेश,
समझ तो पाते हो, क्योंकि मैं तो सीधे-सादे शब्दों में बोल रहा हूं। मैं किसी मुर्दा भाषा में नहीं बोल रहा हूं कि संस्कृत, अरबी, लैटिन, ग्रीक। मैं तो तुम्हारी रोजमर्रा की भाषा में बोल रहा हूं। मेरे शब्दों में एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो तुम्हारी समझ में न आता हो। शब्द तो सब समझ में आ जाते हैं। हां, लेकिन शब्दों में जो छिपा है शून्य, वह समझ में नहीं आता। वह समझ में आएगा भी नहीं ऐसे। सुन-सुन कर नहीं आएगा। उसके लिए तो कुछ साधना होगा।
जैसे कोई शास्त्रीय संगीत को सुनने जाए तो उसे सुनाई तो सब पड़ता है, लेकिन फिर भी रस नहीं आता--जब तक कि शास्त्रीय संगीत का कुछ बोध न हो; जब तक शास्त्रीय संगीत में कुछ पारंगतता न हो। शास्त्रीय संगीत का अभ्यास चाहिए, तो फिर उसके रहस्य अनुभव में आने शुरू होते हैं।
मैं जो तुमसे कह रहा हूं, शब्द तो सीधे-सादे हैं, लेकिन उन सीधे-सादे शब्दों में जो अनुभव है, वह गहरा है। और जब तक वह अनुभव तुम्हारा न बने, तब तक शब्द तुम सुन भी लोगे, तो भी कुछ चूका-चूका लगेगा।
फिर तुम अभी नये हो यहां, पहली बार ही आए हो। इसलिए ठीक से शायद सुन भी न पाओगे। क्योंकि सुनना भी एक कला है। इधर मैं बोल रहा हूं, उधर तुम्हारा मन हजार बातें बोले चला जाएगा। और अगर तुम्हारा मन वहां बातों में लगा है तो सुनेगा कौन? अगर तुम्हारे भीतर एक भीड़ चल रही है विचारों की, तो वह भीड़ मेरे शब्दों को तुम तक पहुंचने कहां देगी! और किसी तरह पहुंच भी गए मेरे शब्द, तो बहुत विकृत हो जाएंगे। धक्कमधुक्की में, उस भीड़-भाड़ में से गुजरने में छूट जाएंगे, कुछ टूट जाएंगे, कुछ पहुंचते-पहुंचते अपना रंग-रूप बदल लेंगे। कुछ कहूंगा, कुछ तुम तक पहुंच पाएगा।
जब तक मस्तिष्क बहुत से विचारों से भरा हो, ऊहापोह से भरा हो, तब तक हम सुन कर भी सुनते नहीं। सुनते हुए भी बिलकुल बहरे होते हैं; बहरों से भी ज्यादा बहरे होते हैं। बहरे को तो जोर से चिल्ला दो तो शायद सुन भी ले, लेकिन कितने ही जोर से चिल्लाओ, भीतर तुम्हारे विचार इतना शोरगुल मचाए रहते हैं कि नक्कारखाने में तूती की आवाज हो जाती है बाहर से आई कोई भी बात। उधर बैंड-बाजे बज रहे हैं भीतर, धमाचौकड़ी मची है, बरात लगी है। और एकाध विचार नहीं है वहां, विचारों पर विचारों की कतारें लगी हैं! क्यू लगे हैं, जिनका ओर-छोर नहीं दिखाई पड़ता।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर गई तो बड़ी भीड़ अंतिम विदाई में कब्रिस्तान की तरफ चली। लोग बड़े हैरान हुए। एक नया-नया आदमी गांव में आया था। उसने कहा कि महिला क्या कुछ पहुंची हुई महिला थी? बात क्या है? इतनी भीड़! करीब-करीब सारा गांव! जिससे भी उसने कहा वही मुस्कुरा कर रह गया। तो और बात रहस्यपूर्ण हो गई। आखिर उसने सोचा कि उस आदमी से ही क्यों न पूछ लूं जिसकी पत्नी मरी है। उसने नसरुद्दीन का हाथ पकड़ा और कहा, भई मैं परदेश हूं, नया-नया आया हूं। जिससे पूछता हूं वही मुस्कुरा कर रह जाता है। महिला क्या कुछ अदभुत थी?
नसरुद्दीन ने कहा कि ये महिला के लिए नहीं आ रहे हैं, ये सब मेरे गधे को खरीदना चाहते हैं।
गधे को किसलिए खरीदना चाहते हैं?
कहा, मेरे गधे ने ऐसी दुलत्ती मारी मेरी पत्नी को कि वह मर गई। ये सब गधे के खरीददार हैं। इसलिए ये मुस्कुरा कर रह जाते हैं, कुछ बोलते नहीं।
वह आदमी भी उत्सुक हो गया। उसने कहा कि कितने में गधा दोगे?
मुल्ला ने कहा कि लाइन में पीछे लग जाओ। ग्राहक पहले ही बहुत हैं। कब्रिस्तान पर बोली लगेगी। जो ज्यादा देगा सो ले जाएगा। जिसकी हो हिम्मत ले जाए। गधा खानदानी है! पहले भी ऐसे काम कर चुका है। यह कोई पहला काम नहीं है। मैं भी बामुश्किल खोज कर लाया था।
तुम जरा अपने मन में तो देखना कि किस-किस तरह की भीड़ लगी है! हत्यारे विचार हैं--हिंसा के विचार हैं, आत्महत्या के विचार भी हैं! विध्वंस के विचार हैं। ऐसा कोई पाप नहीं है जो किसी आदमी ने किया हो दुनिया में और जिसका विचार तुम्हारे भीतर भी न हो। यह दूसरी बात है कि तुम करो या न करो, मगर तुम ऐसा कोई विचार न खोज सकोगे जो दुनिया में किसी आदमी के भीतर रहा हो और तुम्हारे भीतर न हो। तुम सारी मनुष्यता का प्रतिनिधित्व कर रहे हो। चंगीजखान, और तैमूरलंग और अडोल्फ हिटलर सब तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। मौका मिले, अवसर मिल जाए तो तुम भी वही सब कर सकते हो।
और इन सारे विचारों में बड़ा द्वंद्व है, क्योंकि अगर अकेला ऐसा ही होता कि अडोल्फ हिटलर और चंगीजखान तुम्हारे भीतर होते तो भी ठीक था; तुम्हारे भीतर बुद्ध होने की संभावना भी है, महावीर होने की संभावना भी है, कृष्ण और क्राइस्ट होने की संभावना भी है। इसलिए बड़ा तुमुल नारद है। तुम्हारे भीतर चौबीस घंटे महाभारत चल रहा है। इधर सेनाएं सजी हैं, उधर सेनाएं सजी हैं। और तुम दोनों तरफ बंटे हो। ऐसा ही नहीं है जैसा कि महाभारत के युद्ध में था, कि अर्जुन के कुछ सगे-संबंधी इस तरफ थे, कुछ सगे-संबंधी उस तरफ थे। बात यहां तक पहुंच गई थी कि कृष्ण इस तरफ थे और कृष्ण की सेना उस तरफ थी। ऐसा महाभारत में ही नहीं है, ऐसा तुम्हारे भीतर इससे भी ज्यादा है। कम से कम कृष्ण पूरे तो इस तरफ थे; ऐसा तो नहीं था कि आधे उस तरफ, आधे इस तरफ; कि एक हाथ कौरवों के साथ, एक हाथ पांडवों के साथ। मगर तुम्हारे भीतर हालतें ऐसी ही है।
एक आदमी स्टीम-रोलर के नीचे दब कर मर गया। उसकी पत्नी भागी हुई अस्पताल पहुंची। खबर मिली कि ससून अस्पताल में भरती है। जाकर उसने पूछा कि किस वार्ड में मेरे पति भरती हैं? जिस नर्स से पूछा, उसने कहा, क्या नाम-धाम? तो उसने कहा कि वही जो स्टीम-रोलर के नीचे दब कर मर गए हैं। तो उसने कहा कि हां वे भरती हैं--चार नंबर, पांच नंबर और छह नंबर के वार्ड में।
अब तीन वार्ड में एक आदमी भरती हो तो तुम मतलब समझ सकते हो स्टीम-रोलर ने क्या गति कर दी होगी! खोपड़ी अलग हो गई होगी, एक हाथ अलग हो गया, पैर अलग हो गया, चीजें अलग-अलग हो गई होंगी। तीन वार्ड में एक साथ सो रहे हैं, चमत्कार कर रहे हैं!
मगर यह चमत्कार तुम्हारे भीतर प्रतिपल हो रहा है। तुम कितने वार्डों में बंटे हुए हो! खंड-खंड हो। भीड़ मची है। सुनता कौन है यहां! लोग बिलकुल बहरे हैं।
मैंने सुना है, एक पंडित ने चंदूलाल की शादी तय करवाई। लेकिन शादी के दिन जब चंदूलाल ने लड़की को देखा तो गुस्से से पंडित का हाथ पकड़ कर एक किनारे ले गया और बोला कि हद कर दी! झूठ की भी हद्द होती है! और ब्राह्मण होकर शर्म न आई! ऐसा क्रोध आ रहा है कि तुम्हारी गर्दन दबा दूं। इससे वीभत्स और कुरूप स्त्री मैंने जीवन में नहीं देखी। इसको देख कर तो डर लगता है। इसकी एक आंख एक तरफ देखती है, दूसरी आंख दूसरी तरफ देखती है। इसकी नाक इरछी-तिरछी! इसके ओंठ तो देखो। इसका चेहरा ऐसा भयंकर काला कि कोलतार भी इसके मुकाबले सफेद मालूम पड़े। कूबड़ इसकी निकली है। इस स्त्री के लिए तुम मुझे यहां लेकर आए हो दिखाने के लिए? तुम्हें शर्म न आई?
पंडित बोला कि चंदूलाल, इतने फुसफुसा कर बोलने की जरूरत नहीं है, लड़की बहरी भी है। तुम बेफिक्र, जो तुम्हें कहना हो जोर से कहो। इस लड़की में गुणों की कमी नहीं है।
करीब-करीब आदमी बहरे हैं। नहीं शारीरिक अर्थों में, लेकिन मानसिक अर्थों में। कान तो ठीक-ठाक हैं, मगर कान के भीतर मस्तिष्क इतना शोरगुल मचा रहा है कि कान के पार बात पहुंच ही नहीं पाती, कान में ही अटक जाती है।
एक साहब अपने दोस्तों के बीच बैठे हुए अपने साले की लड़की की बड़ी बड़ाई कर रहे थे। कह रहे थे: लड़की का कद भी बहुत ऊंचा है, उसकी नाक भी बहुत ऊंची है। उसने शिक्षा भी बहुत ऊंची प्राप्त कर रखी है। उनके परिवार का स्टैंडर्ड ही बहुत ऊंचा है। और तो और...इतने में ही एक आदमी ने कहा कि हां, वह सुनती भी बहुत ऊंचा है।
परेश, तुम कहते हो: आप क्या कहते हैं, मैं समझ नहीं पाता हूं। क्या करूं? पहले तो ऊंचा सुनना कम करो। पहले तो थोड़े सुनने की कला सीखो। समझने की बात तो जरा दूर। सुनना हो तो फिर समझना भी हो सकता है। कदम-कदम चलो। एकदम पहाड़ के शिखर पर न पहुंच जाओगे। सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ो। पहले सुनना सीखो। श्रावक बनो।
श्रवण क्या है? शांत होकर सुनना, मौन होकर सुनना, पक्षपातरहित होकर सुनना। अपने सारे पक्षपातों को एक तरफ रख कर सुनना। इसका यह अर्थ नहीं होता कि मैं जो कहूं तुम उसे मान लो। इसका इतना ही अर्थ होता है कि मानने न मानने की जल्दी ही न करो। पहले सुन तो लो, फिर पीछे मानना न मानना सोच लेना, विचार लेना। बिना सुने कैसे मानोगे, कैसे नहीं मानोगे? लोग सुन भी नहीं पाते और मानने नहीं मानने की ऊहापोह में पड़ जाते हैं--कि मैंने जो कहा वह ठीक है या गलत है; शास्त्र के अनुकूल है कि प्रतिकूल है; गीता में ऐसा कृष्ण ने कहा है कि नहीं कहा है; कि वेद इस संबंध में क्या कहते हैं? हिंदू हो तो हिंदुओं के शास्त्रों का तुम मेल बिठालने लगते हो; बौद्ध हो तो बौद्ध शास्त्रों का मेल बिठालने लगते हो; मुसलमान हे तो मुसलमान शास्त्रों का मेल बिठालने लगते हो। सुनेगा कौन? तुम तो दूसरे ही काम में लग गए।
और ध्यान रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मैं जो कहूं उसे मान लो। मानने की तो जरूरत ही नहीं। सिर्फ सुन लो। फिर सोच लेना। पहले ठीक से सुन लो जो कहा जा रहा है। और उसे ठीक से सुनने के लिए जरूरी है कि बीच में कोई और व्याघात न हो। हटा दो शास्त्रों को एक तरफ। रख दो एक तरफ। कहीं खो नहीं जाएंगे शास्त्र। पीछे उठा कर तालमेल बिठा लेना।
लेकिन जब मैं बोल रहा हूं तभी लोगों के भीतर हजार बातें चल रही हैं--ठीक है या गलत है? मूल्यांकन चल रहा है। निर्णय-निष्कर्ष लिए जा रहे हैं। और बड़ी जल्दी में! पूरी बात भी सुन नहीं पाते और नतीजे ले लेते हैं। कोई पक्ष में हो जाता है, कोई विपक्ष में हो जाता हैं। दोनों नासमझ हैं। दोनों ने जल्दी की। न पक्ष में होने की कोई जल्दी है, न विपक्ष में होने की कोई जल्दी है। धैर्य चाहिए!
श्रवण की कला केवल उनको ही उपलब्ध हो सकती है जो धैर्यवान हैं। सन्नाटे में सुनो। मौन में सुनो। सिर्फ सुनने के लिए सुनो, कि अभी सुन लें। ऐसे सुनो जैसे कोई सागर के तुमुलनाद को सुनता है, कि बादलों की गड़गड़ाहट को सुनता है। उस वक्त तुम यह थोड़े ही सोचते हो कि ठीक, कि गलत, कि वेद से मेल खाती है कि नहीं खाती, कि कुरान की आयतें इस पहाड़ी झरने के पक्ष में हैं कि विपक्ष में!
तुमने कहानी सुनी होगी। तीन पंडित काशी से अपनी शिक्षा पूरी करके वापस चले। रात जंगल में रुके, सुबह भूख लगी तो उन्होंने सोचा कि भोजन बनाएं। उनमें एक वनस्पति-शास्त्री था। तो उन्होंने कहा कि तुम वनस्पति-शास्त्री हो, तुम्हीं जाकर सब्जी खरीदो। तुमसे बेहतर और कौन सब्जी खरीद सकेगा?
दूसरा दार्शनिक था। और पुराने भारतीय दर्शन-शास्त्र हमेशा इस समस्या का विचार करते हैं कि जब हम पात्र में घी को भरने हैं तो घी पात्र को सम्हालता है कि पात्र घी को? तो कहा कि तुम घी खरीद लाओ। तुम इसी का विचार करते रहे वर्षों तक। तुम घी खरीदने में निष्णात हो गए होओगे। यह लो पात्र, घी खरीद लाओ।
और तीसरा था शब्द-शास्त्र का ज्ञाता, भाषा-शास्त्र का ज्ञाता, ध्वनि-शास्त्र का ज्ञाता। तो उन्होंने कहा कि तुम चूल्हा जला लो और पानी चढ़ा दो, क्योंकि पानी बुदबुद-बुदबुद करेगा। तो तुम ध्वनि-शास्त्र के हिसाब से पानी को बुदबुदाने देना। वह जो वनस्पति-शास्त्री था, उसने बहुत सिर मारा बाजार में, उसे कोई सब्जी ठीक न मालूम पड़ी। क्योंकि हर सब्जी में कुछ दोष थे; किसी में वात, किसी में कफ, किसी में पित्त खराब हो, किसी में कुछ, किसी में कुछ। आखिर में वह नीम की पत्तियां तोड़ कर आ गया, क्योंकि नीम कि पत्तियां बिलकुल दोषरहित हैं। उनमें कोई दोष है ही नहीं। बड़ा प्रसन्न आया, कि चीज लाया हूं! हीरा लाया हूं! दोनों मित्र भी देख कर खुश हो जाएंगे।
वह जो दर्शन-शास्त्री था, उसने बाजार में घी खरीदा। पात्र में रख कर चला। उसने सोचा कि पढ़ते-पढ़ते हैरान हो गया, कभी पक्का निर्णय न हो पाया कि कौन किसको सम्हालता है--घी पात्र को सम्हालता है कि पात्र घी को? आज मौका मिला है प्रत्यक्ष, प्रयोग ही क्यों न कर लूं! सो उसने पात्र उलटाया। घी सब गिर गया। उसने कहा, पक्का हो गया कि पात्र ही घी को सम्हालता है, घी पात्र को नहीं सम्हालता। वह बड़ी प्रसन्नता से लौटा कि एक निश्चय हो गया। सदियों-सदियों के विवाद का निर्णय इतनी सुगमता से हो गया।
तीसरे ने चूल्हा जलाया और जब पानी ने बुदबुद-बुदबुद की आवाज की, वे जंगली लकड़ियां थीं, गीली लकड़ियां थीं, वे भी खुदबुद-खुदबुद की आवाज करें, उसने बहुत सोचा, ध्वनि-शास्त्र में ऐसी कोई आवाज ही नहीं थी। ध्वनि-शास्त्र में सब तरह की ध्वनियों का वर्णन था; बुदबुद-खुदबुद, इसका कोई वर्णन ही नहीं था। इतना उसे याद आया। एक सूत्र ध्वनि-शास्त्र में है कि अशब्द कहीं भी हो तो उसको सुनना मत। यह शब्द तो है ही नहीं। पक्का हो गया यह अशब्द है। और इसको बैठ कर सुनना! तो उसने उठाया एक डंडा और हांडी को मारा। हांडी भी फूट गई; पानी गिरा, चूल्हा भी बुझ गया। अशब्द शांत हो गया। यह निश्चिंत हुआ। उसने कहा कि जीवन में एक शुभ कार्य किया। अशब्द हो रहा था, नहीं होने दिया। इस पुण्य के लिए परमात्मा का धन्यवाद!
तीनों जब मिले तो तुम समझ ही सकते हो कि जो परिणाम होना था। भोजन वगैरह का तो सवाल ही क्या था; न चूल्हा था, न सब्जी थी, न घी था। तीनों ने सिर पीट लिया।
पांडित्य बहरा बनाता है लोगों को, अंधा बनाता है लोगों को। पांडित्य ज्ञान नहीं है। निर्दोषता से सुनो, पांडित्य से मत सुनना। पांडित्य से सुनोगे तो सुन ही न पाओगे। सरलता से, मौन हो कर, शांत बैठ कर...!
मैं तो सीधी-सादी बातें कह रहा हूं, बहुत सीधी-सादी; जैसे दो और चार होते हैं। तुम सोचो-विचारो मत। सुन लो, फिर सोच-विचार पीछे कर लेना। और एक बहुत मजे की बात है कि अगर तुम शांत भाव से सुन लो तो सत्य की अपनी एक गरिमा होती है; सुनते-सुनते ही वह गरिमा तुम्हारे सामने प्रकट हो जाएगी। सत्य की अपनी एक सुगंध होती है; सुनते ही सुनते तुम्हारे प्राण उस सुगंध से भर जाएंगे। और असत्य की एक दुर्गंध होती है; सुनते ही सुनते वह दुर्गंध तुम्हारे सामने प्रकट हो जाएगी। तुम्हें शायद पीछे सोचने के लिए बचेगा भी नहीं कुछ। सुनते ही सुनते बिना निर्णय लिए, निर्णीत हो जाती है बात।
सत्य स्वतः-प्रमाण्य है और असत्य स्वतः-अप्रमाण्य है। असत्य के लिए कोई अप्रमाणित करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम शांत भाव से सुन लो तो उसी सुनने में तुम देख लोगे, आर-पार देख लोगे कि वह असत्य है, व्यर्थ है; दो कौड़ी उसका मूल्य नहीं। यह निष्कर्ष विचार से नहीं आएगा! यह निष्कर्ष तुम्हारे मौन में ही उठेगा। यह इतना स्पष्ट होगा कि इसके लिए शब्द भी नहीं बनेंगे। बस यह प्रतीति हो जाएगी और बात खतम हो जाएगी। और सत्य ऐसा छू जाता है हृदय को, ऐसा रसमग्न कर जाता है कि तुम फिर लाख उपाय करो, तो भी तुम उसे असत्य सिद्ध न कर पाओगे।
परेश, सुनने की कला सीखो। सुनने की कला की गहराई ही धीरे-धीरे समझने की कला बन जाती है।

थाह नहीं मिलती जीवन की!
लहरों से ही रही खेलती
चंचल मछली मेरे मन की!

स्वल्प ज्ञान की गुनिया हलकी,
कैसे बुझे बात अतल की?
जल में लीन न होने देती
लोह-काठ की नय्या तन की!

व्यर्थ हुई सिद्धांत-समीक्षा;
मिले नहीं गुरु-मंत्र, न दीक्षा;
आज और, कल और दीखती
रंगत मिट्टी के कन-कन की!

यहां स्नेह से स्नेह न मिलता,
सत्यफूल बन स्वप्न न खिलता;
स्वार्थ बन गया स्वामी, भूली
बुद्धि, थकी चेरी क्षण-क्षण की!

थाह नहीं मिलती जीवन की!
लहरों से ही रही खेलती
चंचल मछली मेरे मन की!
मन की इस मछली से तुम थाह न पा सकोगे। और यहां तो चर्चा अथाह की हो रही है। यहां तो बात अगम की हो रही है।
सत्संग ही वही है, जहां रहस्य की बात हो। रहस्य समझा नहीं जाता। समझ में आ जाए तो रहस्य कैसा! इतना ही समझ में आता है कि समझ में नहीं आ सकता। उतरना होगा, डुबकी लगानी होगी। पीया जा सकता है। आनंदित हुआ जा सकता है उसे पीकर, पोषित हुआ जा सकता है उससे, पुष्ट हुआ जा सकता है उससे। निमग्न हुआ जा सकता है उसमें। रस-विभोर हुआ जा सकता है। लेकिन समझना, समझना कैसे संभव होगा? समझना तो असंभव है। जो समझ में आ जाए वह उथला-उथला होगा, इसलिए समझ में आ जाता है। जो गहरा है, वह समझ से ज्यादा गहरा है। समझ के मापदंड वहां काम नहीं आते। समझ के गज लेकर तुम जाओगे, कि समझ के तराजू लेकर जाओगे, कि बटखरे; वे काम नहीं आएंगे। बात अथाह है।
सत्य अगम है। कौन उसे कब समझ पाया है! हां, इतना ही समझ में आ जाए कि समझ में नहीं आने वाली बात है, तो बहुत समझ में आ गया। इतना ही समझ में आ जाए कि डूबने की बात है, तो बहुत समझ में आ गया; मिटने की बात है, तो बहुत समझ में आ गया।
लेकिन लोग तो किनारे पर खड़े हैं और आशा रखते हैं कि समझ लेंगे सागर की गहराई कितनी है। किनारे पर खड़े-खड़े! पैर भी न रखेंगे सागर में। डुबकी भी न मारेंगे सागर में। उतना खतरा लेना भी नहीं चाहते। बड़े होशियार हैं। किनारे पर ही खड़े विवाद करेंगे कि सागर कितना गहरा है। और भारी विवाद चलता है। ऐसी-ऐसी बातों का विवाद चलता है, सिर फूट जाते हैं, हत्याएं हो जाती हैं! किन बातों पर? जिनका किसी को भी पता नहीं है। हिंदू किस बात पर लड़ रहे हैं मुसलमानों से? मुसलमान किस बात पर लड़ रहे हैं हिंदुओं से? ईसाइयों में, यहूदियों में विवाद क्या है? जैनों और बौद्धों में संघर्ष क्या है? सब किनारे पर खड़े हैं। और कितनी सागर की गहराई है, किनारे पर ही खड़े-खड़े विवाद हो रहा है! जो मर्जी आए, उतनी गहराई मान लो। न सिद्ध कर पाओगे तुम, न कोई असिद्ध कर पाएगा।
इसीलिए तो दुनिया में सदियों से चल रहे विवाद, अंत नहीं होता उनका। अंत कैसे हो? अंत हो ही नहीं सकता। कोई उतरता ही नहीं पानी में। और जो पानी में उतरे, वे वहां से लौट कर आते हैं तो कहते हैं कि जो जाना है वह कहा नहीं जा सकता और जो कहा जा सकता है, उसमें, जो जाना है वह समाता नहीं। अनिर्वचनीय है वह। अवर्णनीय है वह। अव्याख्य है वह। न उसे कभी किसी ने कहा है, न कभी कोई कह पाएगा। फिर सत्संग क्या? फिर सत्संग क्यों? फिर सत्संग-समागम का अर्थ-प्रयोजन क्या? इतना ही अर्थ है, इतना ही प्रयोजन है, कि जिसने जीया है कि उसकी तरंगें, उसकी मौजूदगी, उसकी उपस्थिति, उसके शब्द, उसका मौन, उसका उठना, उसका बैठना, उसकी आंखें, उसका तुममें देखना, झांकना, उसके पास होना--शायद तुम्हें छू जाए! शायद तुम्हें स्पर्शित कर ले! शायद संक्रामक हो जाए! शायद तुम भी आंदोलित हो उठो!
ऐसा होता है। कोई संगीतज्ञ वीणा बजा रहा है और तुम बैठे-बैठे अपने हाथ से अपनी कुर्सी पर ही ताल देने लगते हो। क्या हुआ? किसी ने तुमसे कहा नहीं कि ताल दो। कोई आज्ञा नहीं दी गई है कि भाइयो एवं बहनो, अब सब अपनी-अपनी कुर्सी पर ताल दो। ऐसी आज्ञाएं भी दी जाती हैं, जैसे जोसेफ स्टैलिन के व्याख्यानों में इस तरह की आज्ञाएं दी जाती थीं। व्याख्यान छपा हुआ बांट दिया जाता था और उसमें जगह-जगह लिखा होता था: तालियां! तो जहां तालियां लिखा होता था वहां तालियां बजानी पड़ती थीं। न बजाओ तो झंझट में पड़ो। चाहे मन हो बजाने का, चाहे नहीं; चाहे अर्थ हो कुछ बजाने का या नहीं--मगर तालियां बजानी पड़ती थीं।
सत्संग ऐसे नहीं होता कि कुछ लोग औपचारिकता से तालियां बजा रहे हैं, कि कुछ लोग औपचारिकता से सिर हिला रहे हैं। नहीं, हार्दिक होना चाहिए। जब वीणा बजेगी तो कुछ सिर हिलने लगेंगे। पता ही नहीं चलेगा सिर हिलाने वालों को कि कब सिर हिल गए, कब तन्मयता बंध गई, कब तल्लीनता आ गई, कब एक तार से तार जुड़ गया। सिर हिलने लगेंगे। हाथ थाप देने लगेंगे। पैर नाचने को आतुर हो उठेंगे। किसी नर्तक को देख कर, किसी के घूंघर बजते देख कर तुम्हारे पैरों में पुलक नहीं आ जाती? बस ऐसा ही कुछ सत्संग में होता है।
परेश, बात समझने की कम, सत्संग में डूबने की ज्यादा है। आते रहो, जाते रहो, धीरे-धीरे रंग चढ़ेगा। चढ़ते-चढ़ते ही चढ़ेगा। और जल्दी कुछ है नहीं। जल्दी चढ़ाए गए रंग कच्चे सिद्ध होते हैं। जब अपने से चढ़ जाए रंग, जब तुम विवश हो जाओ, जब कि तालियां बजानी ही पड़ें, जब कि सिर हिले ही, जब कि तुम चाहो भी रोकना तो भी पैर न रुकें और नृत्य शुरू हो जाए, तो समझना कि आई समझ में बात। पर खयाल रखना कि जो बात समझ में आती है, वह बात ऐसी है कि उसमें और-और रहस्य के परदे उठते चले जाते हैं, रहस्य कभी समाप्त नहीं होता।
इसीलिए तो हम परमात्मा को अनंत कहते हैं। जितना जानो, और भी जानने को शेष रह जाता है। कितना ही जानो, और भी जानने को शेष रह जाता है। जानते ही रहो, जानते ही जाओ, जितना जानते हो उतना ही लगता है: कितना अज्ञानी हूं और कितना अनंत अभी शेष है! मगर यह महिमा आह्लादित करती है भक्त को। उसे उदास नहीं करती कि अभी तक समझ नहीं पाया, पूरा नहीं समझ पाया। आह्लादित करती है, आनंदित करती है कि परमात्मा का ओर-छोर नहीं है, कि मैं खो जाऊंगा परमात्मा में और उसका ओर-छोर नहीं पाऊंगा। क्योंकि भक्त वस्तुतः खो जाना चाहता है। कोई परमात्मा को पकड़ कर प्रयोगशाला में टेस्ट-टयूब में डाल कर स्टोव पर गरम करके देखना नहीं चाहता कि कितनी डिग्री पर भाट बनता है, कि कितनी डिग्री पर ठंडा होने पर बरफ बनता है। परमात्मा को प्रयोगशाला में नहीं लाना है, न लाया जा सकता है।
कार्ल माक्र्स कहता था कि जब तक परमात्मा को प्रयोगशाला में न लाया जाएगा, मैं नहीं मानूंगा। तो कार्ल माक्र्स जैसे लोग कभी नहीं मान सकेंगे, क्योंकि परमात्मा लाया नहीं जा सकता प्रयोगशाला में। अगर कार्ल माक्र्स मुझे मिल जाए कभी तो मैं उससे पूछूं कि तुमने और बहुत सी चीजें मान लीं, जो प्रयोगशाला में नहीं लाई जा सकतीं। तुम एक स्त्री के प्रेम में गिर गए और तुमने कहा, यह सुंदर है। फ्रा माक्र्स, जिसके प्रेम में माक्र्स पड़ गया था, कहता था--बहुत सुंदर है! सौंदर्य को प्रयोगशाला में लाया जा सकता है? मैं पूछूंगा कार्ल माक्र्स से। तुम अपनी पत्नी फ्रा को ले आओ प्रयोगशाला में और जांच-पड़ताल करवाओ। कोई वैज्ञानिक सिद्ध नहीं कर सकता कि सुंदर है। नापत्तौल करके बता देगा: कितना वजन है, कितनी हड्डी, कितना मांस, कितनी मज्जा। और ज्यादातर तो पानी है--अस्सी परसेंट। और पानी भी कोई साधारण पानी नहीं, समुद्री पानी, कि पानी भी चाहो तो पी न सको। और बाकी मिट्टी, कुछ थोड़ी हवा और कुछ थोड़ा आकाश। सौंदर्य कहां है?
अब तक कितनी आटोप्सी होती हैं मुर्दों की, मगर कभी कोई खोज पाया कि कुछ सौंदर्य पता चला हो? हां, हो सकता है नाक लंबी हो तो नाक लंबी सही, मगर इसमें सौंदर्य का क्या? क्योंकि दुनिया में ऐसे लोग भी हैं, जो चपटी नाक को सुंदर मानते हैं। हो सकता है ओंठ पतले हों, सो क्या? दुनिया में ऐसे लोग हैं जो मोटे ओंठों को सुंदर मानते हैं। अफ्रीका में स्त्रियां अपने ओंठों को मोटा करने के हर उपाय करती हैं। पत्थर लटकाती हैं ओंठों में, ताकि ओंठ मोटे हो जाएं। हम तो कहेंगे, भद्दे हो गए। मगर उनके ओंठ जितने मोटे हो जाएं उतनी ही वे सुंदर समझी जाती हैं। और उनका कहना भी सोचने जैसा है। कहते हैं जितने ओंठ मोटे होते हैं उतना चुंबन गहरा होता है। यह भी बात सच है। पतले ओंठ भी क्या खाक चुंबन करेंगे। क्षेत्र ही नहीं है कुछ, क्षेत्रफल भी तो होना चाहिए।
दुनिया है, हजार मापदंड हैं। अलग-अलग लोगों के अलग-अलग हैं। स्त्रियां बालों को बढ़ाती हैं, बाल सुंदर समझे जाते हैं। लेकिन अफ्रीका में ऐसे कबीले हैं, स्त्रियां बिलकुल घुट्टमघुट्ट! बिलकुल त्रिदंडी संन्यासी! और उनका भी कहना सोचने जैसा है। सबकी बातें सोचने हैं। वे यह कहते हैं कि बालों की वजह से जो स्त्री सुंदर दिख रही है, वह कोई सुंदर है? अरे बिना बालों के दिखे सुंदर तो कोई सौंदर्य है। और उनके हिसाब से चलो तो तुम्हारी सुंदरतम स्त्रियां बदशक्ल हो जाएंगी; एकदम बाल उनके घोंट दो। जरा अपनी पत्नी के बाल घोंट कर देखो, एकदम खुद ही भागोगे कि फिर लौट कर नहीं आओगे घर। भूत-प्रेत मालूम होगी। मगर वे कहते हैं कि जब तक बाल न घुटें, यह कूड़ा-करकट...बाल कूड़ा-करकट ही हैं, क्योंकि बाल शरीर का मरा हुआ हिस्सा है, मुर्दा है। यह जब तक घास-पात साफ न करो, तब तक असली सौंदर्य का पता ही न चलेगा। इस घास-पात के हटने पर अगर कोई स्त्री सुंदर है तो सुंदर है।
अलग-अलग लोग हैं। अलग-अलग उनके सौंदर्य के मापदंड है। अपनी-अपनी मान्यता है। मगर सौंदर्य क्या कोई ऐसी चीज है जिसका प्रयोगशाला में तय किया जा सके?
कार्ल माक्र्स से मैं तो कहूंगा कि तुझे सौंदर्य को नहीं मानना चाहिए। लेकिन तू कहता है, तेरी पत्नी सुंदर है। (उसने कविताएं भी लिखी थीं अपनी पत्नी के लिए।) ईश्वर को तुम कहते हो प्रयोगशाला में लाना पड़ेगा, तब हम मानेंगे। और सौंदर्य को बिना प्रयोगशाला में लिए, बिना प्रयोगशाला के सिद्ध किए मान लेते हो? यह तो तर्क की भूल हो गई। यह तो तर्क अधकचरा हो गया।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसे प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं किया जा सकता। प्रयोगशाला तो केवल स्थूल को पकड़ती है, सूक्ष्म छूट जाता है। और परमात्मा तो परम सूक्ष्म है। वह तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। उसे कोई कभी नहीं समझ पाया है। हां, लोगों ने जाना है, जीया है, पहचाना है, डुबकी मारी है, अपने को खो दिया है पूरा-पूरा उसमें और परम आनंद को उपलब्ध हुए हैं, सच्चिदानंद को उपलब्ध हुए हैं। लेकिन उन्होंने भी कहा है कि अकूत है, अथाह है। और बहुत शेष है, अनंत शेष है! हमने जो जाना है वह कुछ भी नहीं। जैसे बूंद जान ली है और अभी सागर पड़ा है।
मगर जिसने बूंद चख ली उसे सागर जानने की कोई फिक्र भी नहीं रह जाती। जिसने स्वाद ले लिया, उसे जानने में रस भी नहीं रह जाता है। तुम मिठास के संबंध में जानना चाहते हो या मिठास का स्वाद लेना चाहते हो? थोड़ा सोचो। जो बुद्धिमान है, वह कहेगा: हम स्वाद लेना चाहते हैं। जो बुद्धू है, वह कहेगा: हम समझना चाहते हैं। तुम पानी को समझना चाहते हो कि प्यास बुझाना चाहते हो? जो बुद्धिमान है, वह कहेगा: मैं प्यासा हूं, मुझे पानी चाहिए। जो बुद्धू है, वह कहेगा कि पहले हम समझेंगे; जब तक हम समझ न लेंगे तब तक हम कैसे पीएं? क्या प्रमाण है कि पानी के पीने से और प्यास बुझती है? वह तो अच्छा है कि लोग इस तरह के प्रश्न नहीं पूछते, नहीं तो आदमी का जिंदा रहना मुश्किल हो जाए--कि क्या प्रमाण है कि पानी से प्यास बुझती है, कैसे मानें? पानी में प्यास बुझाने का क्या गुण है? इसे प्रयोगशाला में सिद्ध होना चाहिए।
प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं होता। क्योंकि सिर्फ कंठ ही सबूत दे सकता है, प्रयोगशाला कैसे सिद्ध करेगी! कंठ के अतिरिक्त कोई सबूत नहीं दे सकता कि पानी प्यास को बुझाता है। और प्रयोगशाला के पास कोई कंठ नहीं है। प्रयोगशाला बता सकती है कि पानी बनता है आक्सीजन और उदजन के मिलने से--एच टू ओ। मगर एच टू ओ तो ऐसा ही मंत्र जैसा है, जैसे गायत्री मंत्र। कुछ लोग बैठे गायत्री मंत्र चढ़ रहे हैं; जैसे ये सब गायत्री मंत्र पढ़ते-पढ़ते पढ़ते-पढ़ते पहुंच जाएंगे। यह ऐसी ही भूल है, जैसे कोई बैठा है प्यासा और बैठा है और रट रहा है एच.टू.ओ., एच.टू.ओ., एच.टू.ओ.। जैसे प्यास बुझ जाएगी! एच.टू.ओ. का अर्थ और है। वह ठीक है पानी की व्याख्या के लिए, विज्ञान की समझ के लिए; लेकिन प्यास बुझाने के लिए नहीं। प्यास बुझाने के लिए पानी पीना पड़ता है। ऐसे ही परमात्मा को भी पीना पड़ता है।
परेश, यहां बैठो और पीओ। पीते-पीते शायद कुछ झलक आने लगे, कुछ पुलक आने लगे। आती है। यहां बहुतों के चेहरों पर तुम्हें दिखाई पड़ेगी। यहां वातावरण में उसी की गंध है, उसी का संगीत है!

तीसरा प्रश्न: भगवान,
क्या संसार में कोई भी अपना नहीं है?
उषा,
संसार का अर्थ ही क्या होता है? संसार से अर्थ होता है--वह जो हमने कल्पित कर लिया है, गढ़ लिया है। हम अकेले रहने में डरते हैं, घबड़ाते हैं। अकेलापन काटता है। एकाकीपन की बड़ी पीड़ा है। हम दूसरे को चाहते हैं। कोई चाहिए जो हमारे अकेलेपन को भर दे--पत्नी हो, पति हो, बच्चे हों, परिवार हो। ये सब मान्यताएं हैं। लेकिन हम जी लेते हैं--इन मान्यताओं में अपने को उलझा कर; इन खिलौनों में अपने को भरमा कर। और हम डरते हैं बहुत कि कहीं भरम टूट न जाएं। हम ऐसे लोगों से भी बचते हैं, जो हमारे भरम तोड़ दें। हमें भी पता है कि है तो सब भरम ही, मगर हम भ्रमों को भी वास्तविक बनाने का खूब उपाय करते हैं।
तुम देखते हो, जब हम विवाह करते हैं किसी युवक का, युवती का! पुराने समय में लोग होशियार थे, बाल-विवाह करते थे। बाल-विवाह की सबसे बड़ी खूबी जो थी, वह यही थी कि बच्चों को जितनी जल्दी धोखा दिया जा सकता है और धोखे पर भरोसा दिलवाया जा सकता है, उतना बड़ों को नहीं दिलवाया जा सकता। उम्र हो जाती है, तो बोध भी आ जाता है, सोच-विचार भी आ जाता है। छोटे-छोटे बच्चे, चार-छह साल की उम्र में, ये तो किसी भी चीज को मान लें। इनको तो तुम जो कह दो वही मान लें। ये तो रात अंधेरे में रस्सी पर टंगा हुआ लंगोट, इनको भूत मालूम पड़ता है। तुम बता दो कि ये दो हाथ हैं, यह देखो भूत खड़ा हुआ है! ये तो उसको भूत मान लेते हैं। ये तो घबड़ा जाते हैं। ये तो किसी भी चीज से डर सकते हैं। छोटे बच्चे, अभी इनमें तर्क भी नहीं उठा, विचार भी नहीं उठा, विवेक भी नहीं जगा...पुराने लोग होशियार थे, ज्यादा चालबाज थे, छोटे-छोटे बच्चों का विवाह करवा देते थे। और विवाह करने का आयोजन इतना भव्य होता था कि भरोसा ही आ जाए। छोटा बच्चा घोड़े पर बैठे, राजा बने, दूल्हा राजा! छुरी इत्यादि लटकी है। शानदार कपड़े पहने है। नगर, समाज के बड़े से बड़े लोग नीचे चल रहे हैं, वह घोड़े पर बैठा है। उसकी अकड़ का ठिकाना न हरे! उसके अहंकार को खूब बल मिले। फिर बड़ा पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, पंडित-पुरोहित, मरी हुई भाषाओं में मंत्र-जाप--सब इतना औपचारिक आयोजन कि उसे लगेगा कि कुछ बड़ी महत्वपूर्ण बात हो रही है। फिर सात फेरे! और यह सब इतनी गंभीरता से किया जा रहा है, है सब दो कौड़ी का! तुम घोड़े पर बैठो कि हाथी पर, कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम सात चक्कर लगाओ कि सत्तर, चक्कर ही लगा रहे हो, कुछ खास मतलब नहीं है। लेकिन छोटे बच्चे, कि बांध दिया पत्नी का पल्ला छोटे बच्चे के पीछे। वह सोचता है कि अब गांठ बंध गई। और समझा दिया कि अब गांठ बंध गई--ऐसी गांठ, जो अब खुलती नहीं; अब कभी खुल ही नहीं सकती।
छोटे बच्चे मान लें और भरोसा बचपन में बैठ जाए...ये सम्मोहन की प्रक्रियाएं थीं। यह सम्मोहित करना है। फिर अब इसी पत्नी के साथ बड़ा होगा बच्चा, तो जैसे बच्चे बड़े होते हैं भाई-बहिन के साथ वैसे ही पत्नी को भी बड़ा होते देखेगा अपने साथ। स्वभावतः साथ रहते-रहते, सहयोग से, साहचर्य से संबंध गहरा हो जाएगा।
जब तक दुनिया में बाल-विवाह था तब तक तलाक की बात पैदा नहीं होती थी। सोची नहीं जाती थी। जिस दिन से दुनिया में युवकों ने जिद की कि हम तो युवा होने पर विवाह करेंगे, उसी दिन से खतरा विवाह के लिए शुरू हो गया। क्योंकि युवक को तुम लाख घोड़े पर बिठाओ, वह जानता है कि घोड़े पर बिठा रहे हो, इससे होना क्या है? दूल्हा राजा ही कहो तो क्या फर्क पड़ता है? सात गांठें बांध दो, इससे क्या होता है? सात चक्कर लगवा दो, इससे क्या होता है? उसे साफ दिखाई पड़ रहा है कि इस सबसे होना क्या है? कल तक जो स्त्री परायी थी, वह आज अपनी कैसे हो जाएगी? मैं कल तक पराया था, अजनबी था, आज अपना हो गया। कल तक एक-दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं था, आज अचानक आग के घेरे के सात चक्कर लगा लेने से हम एक-दूसरे के हो गए!
संसार हमारा सृजन है, हम बनाते हैं। और हम बनाते हैं इसलिए कि हम अकेले होने में डरते हैं। हम अकेले होने में भयभीत होते हैं। और सचाई यही है कि हम अकेले हैं। अकेले ही हम आए हैं, अकेले ही हमें जाना है। दोनों के बीच में जो थोड़ा सा अंतराल है, उसको हम भर लेते हैं भीड़-भाड़ से। लेकिन सचाई यह है कि तब भी हम अकेले हैं।
मैं उस व्यक्ति को ही संन्यासी कहता हूं, जो जानता है कि अकेला मैं आया हूं, अकेला मैं जाऊंगा और अकेला मैं हूं। इसका यह मतलब नहीं है कि तुम भागो हिमालय, कि किसी गुफा में बैठ जाओ। अकेले होने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है; तुम जहां हो वहीं अकेले हो। जो आदमी कहता है कि संसार छोड़ कर मैं हिमालय जाऊंगा, क्योंकि मैं तो अकेला हूं, उसको अभी शक कायम है कि संसार में रहेगा तो अकेला नहीं है; हिमालय पर रहेगा तो अकेला है।
तुम्हारे तथाकथित भगोड़े संन्यासी उतने ही भ्रम में हैं जितने तुम्हारे गृहस्थ। दोनों की मान्यता एक है। दोनों मानते हैं कि यहां रहे संग-साथ, तो संग-साथ हो जाएगा संन्यासी भी डरा हुआ है! संन्यासी ज्यादा डरा हुआ है। इससे तो गृहस्थ ही ज्यादा हिम्मतवर हैं; डटे हैं! संन्यासी तो भगोड़ा है। उसने तो पीठ दिखा दी।
मगर हम तो जब किसी चीज को पूजना चाहें तो अच्छे-अच्छे नाम दे देते हैं। भगोड़ा नहीं कहते हम उसको, पलायनवादी नहीं कहते। हम उसको कहते हैं: त्यागी! सुंदर शब्द दे दिया, भगोड़ेपन को छिपा दिया। कृष्ण युद्ध के मैदान से भाग गए तो हमने उनको नहीं कहा: भगोड़ादास! हमने नाम दिया: रणछोड़दासजी! क्या होशियारी के लोग हैं! रणछोड़दासजी, मतलब वही है। मगर अब किसी को खयाल नहीं आता कि रणछोड़दासजी का मतलब क्या है। मंदिर हैं--रणछोड़दासजी के मंदिर! मगर रणछोड़दास का मतलब क्या होता है? भाग खड़े हुए युद्ध छोड़ कर। भगोड़ादास कहो, झगड़ा हो जाए। हिंदू अदालत में पहुंच जाएं कि हमारी धार्मिक भावना को चोट पहुंच गई। हालांकि भगवान भगोड़ादास जी ज्यादा जंचे, बजाय भगवान रणछोड़दास जी के। थोड़ी तुक भी बैठती है--भगवान और भगोड़ादास! रणछोड़दास में तो कोई तुक भी नहीं है। मगर मतलब वही है। हम सुंदर शब्द दे देते हैं।
आदमी मर जाता है तो हम कहते हैं--महायात्रा पर निकल गए। अगर वह आदमी उठ आए तो सिर खोल दे तुम्हारा, कि हम तो मर गए और तुम कह रहे हो महायात्रा पर निकल गए! आदमी मर जाता है, हम कहते हैं--प्रभु के प्यारे हो गए। वह उठ आए जरा तो गर्दन दबा दे कि यह प्रभु का प्यारा होना है, हम तो मर रहे हैं और तुम कह रहे हो प्रभु के प्यारे हो गए!
लेकिन हम अच्छे शब्द खोजते हैं--झूठों को छिपाने के लिए। कोई मर जाता है तो हम कहते हैं कि अच्छे लोग परमात्मा पहले उठा लेता है, बाकी बुरे लोगों को जिंदा रखता है। किसी के घर छोटा बच्चा मर गया तो लोग उसको समझाने पहुंच जाते हैं कि चिंता न करो, परमात्मा अच्छों को जल्दी उठा लेता है। तो गौतम बुद्ध जो चौरासी साल तक जीए, कुछ गड़बड़ रही होगी; नहीं तो परमात्मा के प्यारे पहले ही हो गए होते।
मगर हम हर भ्रांति को सम्हालते हैं, लीपते-पोतते हैं। ये हमारी आदतें हैं। इस तरह हम अपने संसार को किसी तरह सम्हाले चलते हैं। ताश के पत्तों का घर है, मगर उसमें टेकें लगाए रखते हैं। इधर से गिरा तो टेक लगा दी एक, उधर से गिरने लगा तो टेक लगा दी और। सब तरफ से टेकें लगाए रखे हैं। रेत का मकान बनाए बैठे हैं। जानते हैं गिरेगा। गिरना सुनिश्चित है। जब तक नहीं गिरा है तभी तक चमत्कार है, कि क्यों नहीं गिरा है! हवा का जरा सा झोंका आएगा और गिर जाएगा। मगर आशा बांधे हुए हैं कि औरों के गिरते हैं, हमारा नहीं गिरेगा। हमने कितनी कुशलता से बनाया है!
संन्यासी वह नहीं है जो भागता है संसार से। संन्यासी वह है जो जानता है भीड़ के बीच भी कि मैं अकेला हूं; जो अपने अकेलेपन को स्वीकारता है, उसे इनकारता नहीं, नकारता नहीं।
संसार है क्या? बस तुम्हारी आशा! संसार से मेरा अर्थ ये वृक्ष नहीं हैं, ये पशु-पक्षी नहीं हैं, ये चांदत्तारे नहीं हैं। संसार से अर्थ है तुम्हारी कल्पनाओं का जाल उसे तुम सिकोड़ लो, वापस हटा लो। यह संसार तो अपनी जगह रहेगा।
जब मैं कहता हूं कि संसार माया है, तो मेरा मतलब यह नहीं कि तुम ध्यान में हो जाओगे तो वृक्ष खो जाएंगे और पहाड़ नहीं रह जाएंगे। पहाड़ भी अपनी जगह होंगे, वृक्ष भी अपनी जगह होंगे। यह विश्व तो अपनी जगह होगा, सिर्फ इस विश्व के संबंध में तुमने जो भ्रांतियां बना रखी थीं, तुमने जो एक घरघूला बना रखा था अपनी ही कल्पनाओं का, वह भर नहीं होगा।
जगत तो सत्य है--उतना ही सत्य है जितना ब्रह्म सत्य है। लेकिन इस जगत के भीतर तुमने एक कल्पनाओं का संसार बना रखा है, वह बिलकुल झूठ है, वह तुम्हारा ही है। सुबह जब तुम जागोगे तो तुम्हारे सपने खो जाएंगे; इसका यह मतलब नहीं कि तुम्हारे कमरे का फर्नीचर खो जाएगा और जिस बिस्तर पर तुम सोए थे रात भर, वह नदारद हो जाएगा। तुम अपने बिस्तर पर ही अपने को पाओगे, अपने कमरे में ही पाओगे। लेकिन एक बात बदल जाएगी: रात सपनों में तुम न बिस्तर पर थे, न तुम अपने कमरे में थे। तुम न मालूम कहां-कहां रहे! टिम्बकटू पहुंच गए कि टोकियो पहुंच गए, कि कौन-कौन सी कारगुजारियां कर लीं सपनों में पता नहीं! कितनी चोरियां कर लीं, हत्याएं कर दीं! किसकी स्त्री ले भागे! क्या-क्या हुआ सपने में! वह सब खो जाएगा। लेकिन जो है वह नहीं खोएगा। वह तो अपनी जगह है।
एक बार सड़क पर कालेज की दो लड़कियां जा रही थीं। अचानक किसी बात पर उनकी तूत्तू मैं-मैं हो गई। पहली ने कहा, तुझे अंधा पति मिलेगा। दूसरी ने उत्तर दिया, तुझे लंगड़ा पति मिलेगा। यह बात पास से गुजरते हुए दो भिखारियों ने भी सुनी, जिनमें से एक अंधा था और दूसरा लंगड़ा। वे वह वार्तालाप सुन कर ठहर गए। जब काफी देर तक मामला नहीं सुलझा, तो दोनों भिखारी भीड़ को चीरते हुए उन लड़कियों के पास पहुंचे और बोले, देवियो, आप बाद में चाहे जितनी देर लड़ती रहें, लेकिन हमें यह बता दें कि हम खड़े रहें या जाएं?
तुम्हारा संसार बस ऐसा ही है! आशा बांधे हुए हो। अब उन दो भिखारियों की बेचारों की आशा कि यह अच्छा मौका मिला! सोचा ही नहीं था। भगवान जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है, सोचा होगा। कि वाह रे वाह, कैसा दिन, शुभ दिन! एक कह रही है अंधा मिलेगा, एक कह रही है लंगड़ा मिलेगा--और हम दोनों मौजूद हैं! अब देर क्या है? लड़ाई-झगड़ा बाद में कर लेना।...तो हम खड़े रहें कि जाएं?
तुम कहां खड़े हो, किस आशा में खड़े हो? तुम्हारी सब आशाएं बस ऐसी ही हैं--धन की, पद की, प्रतिष्ठा की, सब झूठी हैं।
उषा, यहां संसार में कोई अपना नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि सबसे दुश्मनी साध लो। इसका यह अर्थ नहीं है कि लोगों को प्रेम न दो। इसका यह अर्थ नहीं है कि लोगों की सेवा न करो। इसका यह अर्थ नहीं है कि भाग जाओ, कहीं दूर किसी निर्जन में छिप जाओ। इसका केवल इतना ही अर्थ है कि अपने एकांत को, अपने एकाकीपन को इन भ्रांतियों में मत डुबाओ। अपने एकांत को जीओ। एकांत को जीने का नाम ही ध्यान है। अपने एकाकीपन में रस लो। अपने एकाकीपन का आनंद खोजो। और जितना आनंद अपने में है, अपने में, अपने एकाकीपन में, उतना इस जगत के किसी संबंध में नहीं है।
लेकिन लोगों ने भ्रांतियां कर ली हैं। कहा यही था ज्ञानियों ने सदा-सदा, कि अपने भीतर जो छिपा है उस एक को जानो। मगर उस एक को जानने की बजाय दुनिया में दो तरह के लोग हो गए: एक, जो पर से बंधे हैं; और एक, जो पर से भाग रहे हैं। दोनों अपने को नहीं जानने की चेष्टा में संलग्न हैं। एक पर में आकर्षित है और पर को पकड़ रहा है; वह भी गलती कर रहा है। और दूसरा पर को छोड़ कर भाग रहा है। पर को छोड़ कर भागना तभी सच हो सकता है, जब पर को पकड़ना संभव हो सके। जिसको पकड़ा ही नहीं जा सकता उसको छोड़ोगे कैसे? जो अपना ही नहीं है उसका त्याग क्या करोगे?
एक संन्यासी मुझ से कहते थे आकर कि मैंने पत्नी का त्याग कर दिया, बच्चों का त्याग कर दिया। मैंने उनसे पूछा, वे तुम्हारे थे? अगर तुम्हारे थे तो तुम्हारे त्याग करने का कोई अर्थ है। अगर तुम्हारे थे ही नहीं, तो फिर तो तुम्हारी जो मर्जी हो वह कहो। तुम कहो कि मैंने सूरज का त्याग कर दिया, मैंने चांद का त्याग कर दिया। यह क्यों नहीं कहते? तुम्हारी पत्नी भी इतनी ही तुम्हारी नहीं थी, जितना सूरज तुम्हारा नहीं है। फिर अपने त्याग को जितना बड़ा करना हो उतना बड़ा करके बताओ। कुछ भी तुम्हारा नहीं है। यह त्याग का अहंकार उसी भ्रांति पर खड़ा है।
मगर ज्ञानियों की बातें हमेशा अज्ञानियों के हाथों में पड़ कर बड़े अनूठे अर्थ ले लेती हैं।
दूसरी मंजिल के मकान में रहने वाली युवती काफी देर बाद छत से नीचे कूड़ा डाल कर लौटी, तो पति ने उससे पूछा, कूड़ा डालने में इतनी देर क्यों लगा दी?
आपने ही तो कहा था कि छत से कूड़ा डालते समय छत से नीचे आने-जाने वाले लोगों को देख कर कूड़ा डाला करो। काफी देर तक वहां से कोई गुजरा ही नहीं। अभी एक आदमी वहां से गुजरा तो मैंने उसे देख कर छत से नीचे कूड़ा डाला। पत्नी ने देरी का कारण समझाया।
बुद्धों ने कहा है: अकेले होने में आह्लादित होओ। अकेले होने में रस खोजो। जितना मौका मिल सके, जब मौका मिल सके, तब आंख बंद करो और भीतर जाओ। वह तो नहीं करते लोग। कुछ भाग रहे हैं बाहर धन की तरफ और कुछ भाग रहे हैं धन से। लेकिन दोनों बाहर ही भाग रहे हैं। धन भी बाहर है, त्याग भी बाहर है।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को न तो कहता हूं कि तुम धन छोड़ो, न कहता हूं पद छोड़ो, न कहता हूं पत्नी छोड़ो। यह छोड़ने को गोरखधंधा बंद करो। तुम्हारा कोई है ही नहीं। छोड़ना क्या है? पकड़ना क्या है? न तुम किसी के हो, न कोई तुम्हारा है। रास्ते पर संग-साथ हो गया है। नदी-नाव संयोग! थोड़ी देर साथ चल लेंगे, फिर रास्ते अलग-अलग हो जाएंगे। जितनी देर साथ हो, अपनी सुगंध बांट सकते हो, बांटो; अपना सौरभ बांट सकते हो, बांटो। जितनी देर संग-साथ है, अपना आनंद बांट सकते हो बांटो; अपना दुख न दो। लोग वैसे ही बहुत दुखी हैं।
और बांटो अपना आनंद, क्योंकि आनंद बांटने से बढ़ता है। यह सूत्र खयाल रखना। अगर दूसरों को दुख दोगे, तुम्हारा दुख बढ़ेगा। और अगर तुम दूसरों को आनंद दोगे, तुम्हारा आनंद बढ़ेगा। तुम जो दोगे वही बढ़ेगा।
और गलत व्याख्याएं न करो।
एक बार दो युवक कहीं जा रहे थे। रास्ते में उनका एक तीसरे युवक से झगड़ा हो गया। दोनों में से पहले युवक को तीसरे ने ठोंकना शुरू कर दिया। दूसरा मौका पाकर भाग गया। बाद में जिस युवक की पिटाई हुई थी, उसने अपने मित्र से पूछा, तू मुझे अकेला छोड़ कर क्यों भाग गया? यह कैसी दोस्ती! अरे दोस्त वही जो वक्त पर काम आए। दोस्त तो वही जो अपने दोस्त को दुख में न देख सके।
दूसरे ने कहा, भई इसीलिए तो भाग गया, क्योंकि तुम्हें पिटते हुए मैं नहीं देख सका। बिलकुल नहीं देख सका! मेरी बरदाश्त के बाहर हो गया। मैंने आंखें बंद कर लीं। मगर फिर भी तुम्हारी पिटाई की आवाज सुनाई पड़ती रही, तो फिर मैंने कहा यहां से हट ही जाना उचित है। अरे दोस्त वही जो न देखे, न सुने!
जीवन में हमने खूब उलटी व्याख्याएं कर ली हैं। आदमी के पास बड़ी उलटी खोपड़ी है। कुछ कहो, कुछ समझेगा। और सदियों-सदियों तक फिर उस नासमझी को ढोएगा।
संसार को, उषा, छोड़ना नहीं है। हां, अपना यहां कोई भी नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि विरस हो जाओ। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि दूसरों के प्रति उदास, दूसरों के प्रति एक ठंडापन ले आओ अपने जीवन में, एक मुर्दगी ले आओ। नहीं, अपना यहां कोई भी नहीं है; उनका भी कोई नहीं है। और सब चाहते हैं कि कोई होता, कि हम अकेले न होते। इस चाह के कारण सबने आयोजन कर लिए हैं अपने-अपने। कई तरह के आयोजन हैं; परिवार बनाते हैं लोग, धर्म बनाते हैं लोग, राजनीतिक दल बनाते हैं लोग, राष्ट्र बनाते हैं लोग। ये सब उपाय हैं कि किसी तरह के नाते खड़े कर लें हम। कोई हमारा है! हम अकेले नहीं हैं!
जब तुम कहते हो मैं भारतीय हूं, तो तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो कि जितने भारत के वासी हैं, हमारे हैं; मैं उनका हूं। जब तुम कहते हो मैं हिंदू हूं, तो तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो कि सब हिंदू मेरे हैं; मैं उनका हूं। और जब तुम कहते हो मैं ब्राह्मण हूं, तो तुम यह कह रहे हो: सब ब्राह्मण मेरे हैं; मैं उनका हूं। ऐसे तुमने न मालूम कितने बड़े, छोटे, उनमें और छोटे, कितने घेरों पर घेरे बना रखे हैं! और उनसे भी काम नहीं चलता, तो कोई रोटरी क्लब में भरती हो जाता है--रोटेरियन! सब रोटेरियन अपने हैं! कोई लायंस क्लब में भरती हो जाता है; सब लायंस अपने हैं!
एक अजायबघर में एक महिला अपने बच्चे को लेकर अजायबघर दिखाने गई थी। बच्चे तो अजीब-अजीब प्रश्न पूछते हैं। एक सिंह को देख कर बच्चे ने पूछा कि मम्मी, क्या तुम बता सकती हो कि लायन एक-दूसरे से कैसा प्रेम करते हैं? उसकी मम्मी ने कहा, बेटा, तेरे पिता के सब दोस्त रोटेरियन हैं, सो लायनों के संबंध में मैं कुछ नहीं कह सकती। हां, रोटेरियन के संबंध में तू पूछ तो बता सकती हूं कि रोटेरियन कैसे प्रेम करते हैं।
घेरों पर घेरे, उनमें और छोटे घेरे! लोग बनाए चले जाते हैं--सिर्फ एक आकांक्षा में कि बहुत से वर्तुलों में घिर कर भुला लेंगे अपने अकेलेपन को। लेकिन न कभी कोई भुला पाया है, न कोई भुला सकता है। तुम्हारा एकाकीपन तुम्हारे जीवन का परम सत्य है। उसकी स्वीकृति संन्यास है। उसकी सहज स्वीकृति संन्यास है।
भीड़ में रहो, बाजार में रहो, मगर अपने एकाकीपन को मत भूलना। और जब मौका मिले तब आंख बंद करके अपने एकाकीपन में डुबकी मार लेना। और वही डुबकी तुम्हें धीरे-धीरे परमात्मा में ले जाएगी, क्योंकि तुम जब बिलकुल अकेले हो, तो तुम परमात्मा में हो। और जब तुम भीड़ में डूबे हो, औरों में उलझे हो, तब परमात्मा से विमुख हो गए हो। भीड़ से जुड़े कि परमात्मा से विमुख हुए, राम से विमुख हुए। अपने से जुड़े कि राम के सन्मुख हुए। और राम के सन्मुख हो जाना ही क्रांति है।

आज इतना ही।


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