गुरुवार, 25 मई 2017

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-03



प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

मेरा संन्यास वसंत है(तीसरा प्रवचन)
दिनांक १३ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

1—मैं आपके नव-संन्यास से भयभीत क्यों हूं? वैसे पुराने ढंग के संन्यास से मुझे जरा भी भय नहीं लगता है।

पहला प्रश्न: भगवान,
मैं आपके नव-संन्यास से भयभीत क्यों हूं? वैसे पुराने ढंग के संन्यास से मुझे जरा भी भय नहीं लगता है।
मंगलदास,
नए से सदा भय लगता है--नए के कारण ही। मन पुराने से सदा राजी होता है; क्योंकि मन पुराने में ही जीता है। नये में मन की मृत्यु है, पुराने में मन का पोषण है। जितना पुराना हो, मन उससे उतना ही ज्यादा राजी होता है। जितना नया हो, मन उतना ही घबड़ाता है उतना ही भागता है।
मन की पूरी प्रक्रिया तुम्हें समझनी होगी। मन का अर्थ ही होता है--अतीत। जो बीत गया, उस के संग्रह का नाम मन है। वर्तमान क्षण का कोई मन नहीं होता। बीते सारे कल, उनकी छापें, उनके संस्कार--वही तुम्हारा मन है। थोड़ी देर को अतीत को हटा कर रख दो, फिर क्या बचता है मन में? एक-एक ईंट अतीत की अलग कर लो और मन का भवन गिर जाता है। अतीत का कुछ न बचे तो मन को बचा पाओगे? मन का बचना असंभव हो जाएगा। मन तो अतीत का जोड़ है।

इसलिए मन जराजीर्ण में बड़ा रस लेता है--परंपरा में, इतिहास में। वे युग जो नहीं रहे--रामराज्य, सतयुग--उनमें मन की बड़ी लिप्सा है। क्योंकि मन उनके सहारे अपने को मजबूत पाता है। मन भविष्य में भी रस लेता है, क्योंकि भविष्य अतीत का ही रूपांतरण है। तुम भविष्य के संबंध में जो भी सोचते हो, वह अतीत से ही जन्मता है, और तो आएगा भी कहां से! और तो तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं। अगर अतीत की जड़ें हैं तो भविष्य के पत्ते लगते हैं। अतीत गया, भविष्य भी गया।
साधारणतः हम सोचते हैं समय के तीन खंड हैं--अतीत, वर्तमान और भविष्य। वह धारणा गलत है, बुनियादी रूप से गलत है। समस्त ध्वनियों का अनुभव उसके विपरीत है। समस्त बुद्धों की देशना उसके विपरीत है।
समय के दो अंग हैं--अतीत और भविष्य। और समय मन का ही दूसरा नाम है। चाहे कहो मन के दो खंड हैं अतीत और भविष्य चाहे कहो समय के--एक ही बात है। समय यानी मन। वर्तमान न तो समय का हिस्सा है, न मन का हिस्सा है। इसलिए जिसे जागना हो उसे वर्तमान में ठहरना होता है। इस क्षण में अगर तुम थिर हो जाओ। न पीछे कुछ, न आगे कुछ। फिर कहां है मन! सारी तरंगें गईं।
अतीत ही भविष्य को जन्माते चलता है। अतीत की संतति है भविष्य। बीते कल, बहुत सुख तुमने देखे, बहुत दुख भी देखे। भविष्य में तुम चाहते हो, जो सुख तुम ने अतीत में देखे उनको और घना करके देखो, और सजा करके देखो। और जो दुख तुमने देखे, वे भविष्य में तुम्हें न देखने पड़ें, बिलकुल न देखने पड़ें। बस यही तुम्हारा भविष्य है। भविष्य की तुम्हारी कल्पना क्या है? अतीत में से ही छांटते हो। हीरे-जवाहरात बचा लेना चाहते हो, कंकड़-पत्थर छोड़ देना चाहते हो।
हमारी भाषा में इसकी सूचना है। दुनिया की किसी भाषा में यह सूचना नहीं है; क्योंकि दुनिया की भाषाओं पर बुद्धों का प्रभाव नहीं पड़ा। हमारी भाषा पर बुद्धों की छाप है। हम बीते कल को भी कल कहते हैं, आने वाले कल को भी कल कहते हैं। दोनों को हम ने एक ही नाम दिया, जरा भी भेद नहीं किया। दुनिया की कोई भाषा में दोनों के लिए एक ही नाम नहीं है। उसका कारण है--बीत गया, वह भी कल है; आ रहा है जो वह भी कल है। दोनों नहीं हैं। एक जा चुका, एक अभी आया नहीं है। और मन दोनों में तैरता है। मन अन-अस्तित्व में जीता है।
इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म, अपनी जाति, अपने ग्रंथ, अपनी परंपरा, अपने देश के पुरातन होने की डींग हांकता है। अतिशय, जिसके लिए कोई प्रमाण भी नहीं होते, लेकिन हमारा मन रस लेता है। पूछो हिंदुओं से तो वे कहेंगे, हमारा धर्म पृथ्वी पर सब से प्राचीन धर्म है। और पूछो यहूदियों से, वे भी यही कहते हैं। और पूछो जैनों से, उनका भी यही दावा है। और सब अपने दावे के लिए तर्क जुटाते हैं। और सब अपने दावे के लिए तर्क जुटा लेते हैं। तर्क वेश्या है। उसका किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। जो दाम चुकाए, उसके साथ हो लेती है। जो मूल्य चुकाए, उसके साथ हो लेती है। तर्क तो वकील है; हमेशा बाजार में बिकने को खड़ा है। तर्क की कोई निष्ठा नहीं होती। तर्क तो चाकर है।
जैन कहते हैं, उनका धर्म सबसे प्राचीन है। क्यों? क्योंकि उनके प्रथम तीर्थंकर का उल्लेख ऋग्वेद में है। हिंदू कहते हैं, हमारा धर्म सब से प्राचीन, क्योंकि ऋग्वेद दुनिया की सबसे पहली किताब है, उस से पुरानी और कोई किताब नहीं है। और जैन कहते हैं, अगर ऋग्वेद दुनिया की सबसे पुरानी किताब है तो ऋग्वेद में आदिनाथ का उल्लेख है, वे हमारे प्रथम तीर्थंकर हैं। और आदिनाथ का उल्लेख बड़े समादर से है--इतने समादर से कि कभी समसामयिक व्यक्ति को इतने समादर से आदृत किया नहीं जाता।
लोग तो मुर्दों को पूजते हैं, खयाल रखना। जिंदा व्यक्तियों को तो गालियां दी जाती हैं, मुर्दों की पूजा की जाती है। क्योंकि मुर्दे अतीत के हिस्से हो जाते हैं, जिंदा वर्तमान के हिस्से होते हैं। आदिनाथ का इतने समादर से उल्लेख है ऋग्वेद में, इससे सिद्ध होता है कि वह कम से कम मरे उन्हें पांच सौ साल तो हो ही चुके होंगे। वे समसामयिक तो हो ही नहीं सकते। तो ऋग्वेद से ज्यादा प्राचीन होने चाहिए और कोई यह तर्क न भी माने तो भी इतना तो मानना ही होगा कि ऋग्वेद जितने ही प्राचीन हैं और ऋग्वेद में भी उन्हें आदर से उल्लेख किया गया है।
तो जैन कहते हैं कि हमारा धर्म सबसे प्राचीन धर्म है। और यहूदियों से पूछो तो वे कहते हैं, उनका धर्म सबसे पुराना है। ईश्वर ने उन्हें ही चुना है; वही ईश्वर के चुने हुए लोग हैं। और यही बात और धर्मों के संबंध में है। सब अपने को खींचतान करते हैं--पुराना सिद्ध करने की। किस कारण? तुम्हारे मन को राजी करने के लिए। तुम्हारा मन पुराने से बहुत प्रभावित होता है; इतना पुराना है तो ठीक होगा ही। जैसे सत्य कोई पुरानी शराब है कि पुरानी जितनी हो उतनी ठीक होगी!
सत्य तो शराब से ठीक उलटा है। शराब जितनी पुरानी हो उतनी ठीक होती है, क्योंकि उतनी जहरीली हो जाती है, उतनी विषाक्त हो जाती है, उतनी नशीली हो जाती है। सत्य तो नशे को तोड़ने वाला है; इसलिए जितना नया हो उतना शुद्ध होता है। जितना पुराना हो उतनी धूल जम जाती है। जितना समय बीतता चला जाता है, उतनी पर्त पर पर्त धूल जम जाती है--व्याख्याओं की, टिप्पणियों की, पंडितों की। इतनी धूल जम जाती है कि पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है कि मूल क्या था। क्या कहा था उस व्यक्ति ने जिसने जाना था? जिन्होंने नहीं जाना है, उन्होंने इतनी व्याख्याएं कर दी हैं कि तुम व्याख्याओं के जंगल में खो जाओगे।
लेकिन मन राजी होता है पुराने से। मंगलदास, इसलिए पुराना संन्यास तुम्हारे मन को भाता है। डर नहीं लगता। लाखों लोग चल चुके हैं उस रास्ते पर, इतने लोग गलत नहीं हो सके। और सच यह है कि जितनी बड़ी भीड़ किसी बात को मानती हो, समझ लेना वह बात सच नहीं हो सकती। क्योंकि भीड़ और सत्य को माने तो इस पृथ्वी पर स्वर्ग कभी का उतर आया होता। भीड़ असत्य को मानती है, सत्य को नहीं। भीड़ झूठ को मानती है, झूठों में जीती है। भीड़ अंधी है, अंधों की है। यहां सत्य को जानने वाला तो कभी कोई एकाध होता है। और उस की वही गति होती है जो अंधों के बीच आंख वाले की हो जाए; पागलों के बीच जो पागल नहीं है, उसकी हो जाए।
भीड़ तो झूठों में जीती है। भीड़ तो सांत्वना चाहती है, सत्य नहीं चाहती।
फ्रेड्रिक नीत्शे ने कहा है, मन छीनो भीड़ से उसके झूठ, अन्यथा भीड़ विक्षिप्त हो जाएगी। मत छीनो भीड़ से उसकी सांत्वनाएं, अन्यथा भीड़ का जीना असंभव हो जाएगा। और इस बात में सचाई है। और इस की गवाही खुद फ्रेड्रिक नीत्शे के जीवन से मिलती है। खुद वह भी पागल हुआ। और पागल हुआ इसी प्रयास में कि झूठ को छोड़ दे, सब झूठ छोड़ दे।
तुम जरा सोचो, तुमसे तुम्हारे सारे झूठ छीन लिए जाएं, तुम तिलमिला उठोगे। भारत-भूमि धार्मिक भूमि है! जैसे कि भूमियां भी धार्मिक और अधार्मिक होती हैं! भूमि तो भूमि होती है। उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले कराची और लाहौर भी धार्मिक भूमि थे, अब? अब नहीं हैं। लेकिन पाकिस्तानियों से पूछो, पाकिस्तान का मतलब समझते हो--पवित्र स्थान! उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले पवित्र स्थान नहीं थे वे, उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद पवित्र स्थान हो गए हैं। पाकिस्तान हो गए हैं। तुम्हारे लिए उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले धर्म-स्थान थे; क्योंकि भारत का अंग थे। अब भारत का अंग नहीं हैं।
तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है इस बात की घोषणा से कि भारत धर्मभूमि है। तुम जहां पैदा हुए हो, तुमने जिस देश को पैदा होकर गौरवान्वित किया है, वह देश धार्मिक भूमि होनी ही चाहिए, नहीं तो तुम जैसा पुण्यवान यहां पैदा होता! इस तरह से तुम प्रकारांतर से अपने अहंकार को भरते हो, कि भारत ऋषि-मुनियों का देश है। जैसे दुनिया में कहीं और ऋषि-मुनि नहीं हुए! सब जगह होते रहे हैं। इसी तरह होते रहे हैं। यह दूसरी बात है कि तुम्हें पता नहीं, क्योंकि तुम दूसरों का पता ही नहीं रखते।
तुमने लाओत्से की फिकर की? तुमने च्वांगत्सु की फिकर की। तुमने लीहत्जु की फिकर की? तुमने नाम भी नहीं सोचे। तुमने विचार भी नहीं किया। तुमने बहाउद्दीन के संबंध में चिंतन किया? तुमने जलालुद्दीन के संबंध में चिंतन किया, कि तुमने अलहिल्लाज के संबंध में ध्यान किया? तुमने फिकर ही नहीं की। तुमने इकहार्ट या बोहमे या फ्रांसिस, इन के संबंध में कभी कुछ भी जानने की आकांक्षा की, अभीप्सा की? तुम्हें अपने ऋषि-मुनियों का पता है।
दूर हैं, उनकी तो तुम छोड़ दो, किसी हिंदू से पूछो कि जैनों के चौबीस तीर्थंकरों के नाम गिनवा दो, नहीं गिनवा सकेगा। बगल में ही जैन रहता है। बगल में ही जैनों का मंदिर है। वहां पूजा-पाठ भी चलती है, चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां भी रखी हुई हैं। मगर हिंदू को क्या लेना-देना है! जैनों से उसे क्या प्रयोजन! बौद्धों को कुछ फिकर पड़ी है! और क्यों करें फिकर वे? जैनों ने उनके साथ क्या व्यवहार किया है? कृष्ण को नरक में डाल दिया है अपने ग्रंथों में! क्योंकि कृष्ण ने ही युद्ध करवाया, महा हिंसा करवाई। और जैन तो अहिंसा परमो धर्मः...वे तो अहिंसा को परम धर्म मानते हैं। तो धर्म का इससे बड़ा और कोई दुश्मन हुआ नहीं। अर्जुन तो बेचारा जैन हुआ जा रहा था। वह तो एकदम तैयार ही था सब छोड़-छाड़ कर चले जाने को। ले लेता एक पिच्छी-कमंडल, बैठ जाता किसी झाड़ के नीचे, करता तपश्चर्या। इस कृष्ण ने इसको भरमाया, भटकाया, ऊलजलूल बातें समझाईं, उलटी-सीधी बातें!
कोई जैन गीता पढ़ता है? कोई जैन गीता पढ़ सकता है? अगर पढ़े भी तो भी समझ सकता है? असंभव! क्योंकि जगह-जगह उसे विरोध खड़ा हो जाएगा। जगह-जगह उस का क्रोध जग जाएगा। और तुम यह खयाल रखना कि वह वहीं से तर्क खोज लेगा कृष्ण के विपरीत, क्योंकि कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि जो परमात्मा करवाए वही कर। जैन कहेगा, और परमात्मा अगर संन्यास ही दिलवा रहा हो, तो तुम क्यों युद्ध करवा रहे हो? तुम कैसे निर्णायक हो कि परमात्मा क्या करवाना चाहता है? अर्जुन अगर सच में ही जैन होता तो फेंक कर गांडीव नीचे उतर गया होता। वह कहता कि ठीक है, अब परमात्मा जो करवाएगा वही करेंगे। परमात्मा कहता है, पिच्छ-कमंडल लो। मेरे भीतर की अंतरात्मा की आवाज है!
अंतरात्मा की आवाज तो तुम जानते ही हो, दिल्ली के राजनेताओं ने इस शब्द को काफी प्रचलित कर दिया है--अंतरात्मा की आवाज! प्रचलित कर दिया या गंदा कर दिया। अब तो अंतरात्मा की आवाज कोई कह नहीं सकता, क्योंकि कहोगे तो लोग कहेंगे: आयाराम, गयाराम। आयाराम-गयाराम को अंतरात्मा की आवाज सुनाई पड़ती है! जब भी उनको आना-जाना होता है, एकदम अंतरात्मा की आवाज सुनाई पड़ती है!
कृष्ण ने भरमाया, जैनों को ऐसा ही लगेगा। तो जैन गीता नहीं पढ़ते। पांच हजार साल हो गए कृष्ण की गीता को, एक जैन ने भी गीता पर कोई टीका नहीं की। हजारों टीकाएं लिखी गईं, लेकिन जैनों ने नहीं, एक ने भी नहीं। इस योग्य भी नहीं माना! और क्यों माने? क्योंकि कुंदकुंद के समयसार पर किस हिंदू ने टीका लिखी है? कुंदकुंद के समयसार का पता ही किसी हिंदू को नहीं है। कुंदकुंद शब्द ही नहीं सुना।
एक युवक ने संन्यास लिया, मैंने उसे कुंदकुंद नाम दिया। उसने तत्क्षण पूछा, ये कुंदकुंद कौन हैं? कभी सुना नहीं।
कुंदकुंद उतने ही महिमावान व्यक्ति है जितने कृष्ण। उतने ही महिमावान व्यक्ति हैं जैसे बुद्ध, जैसे कबीर, जैसे नानक। उस अपूर्व कोटि में हैं। लेकिन हम दूसरों की तरफ तो देखते नहीं। पास-पड़ोस में नहीं देखते तो दूर देशों का तो हमें पता ही क्या चलेगा कि इजरायल में कौन-कौन से ऋषि-मुनि हुए और चीन में कौन से ऋषि-मुनि हुए और जापान में कौन से ऋषि-मुनि हुए। सो हरेक अपने कुएं में जीता है और अपने कुएं को ही मानता है यही सागर है और अपने कुएं के बाहर झांकता भी नहीं, डरता भी है कि कहीं कोई बड़े कुएं हों न, अन्यथा अहंकार को चोट लगेगी, पीड़ा होगी। और हरेक अपने कुएं की महिमा में, गुणगान में संलग्न है। हरेक अपने कुएं को सजाने में संलग्न है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि वेद पांच हजार साल से ज्यादा पुराने नहीं, लेकिन हिंदू इस से राजी नहीं होते। सिर्फ पांच हजार साल! पांच हजार साल तो हिंदुओं को कुछ जंचते नहीं। पांच हजार साल में खतरा है, क्योंकि चीनियों के पास एक किताब है जो छह हजार साल पुरानी है। फिर वेद सबसे पुराने न रह जाएंगे। और मिश्र में इस तरह के शिलालेख मिले हैं जो सात हजार साल पुराने हैं, तो फिर वेद सब से पुराने न रह जाएंगे। तो लोकमान्य तिलक ने सिद्ध करने की कोशिश की है कि वेद कम से कम नब्बे हजार साल पुराने हैं!
और जो सिद्ध करना हो सिद्ध करने के लिए बड़ी तरकीबें खोजी जा सकती हैं। जब सिद्ध ही करना हो, जब तय ही कर लिया हो सिद्ध करना है, खोज-बीन के पहले ही निष्कर्ष ले लिया हो...वैज्ञानिक ढंग यही होता है: निष्कर्ष पहले, खोज-बीन बाद में। वैज्ञानिक पहले खोज-बीन करता है, फिर निष्कर्ष लेता है। अगर तुमने निष्कर्ष पहले ही ले लिया है...कोई भी निष्कर्ष ले लो।
एक आदमी ने किताब लिखी है। अमेरिका में खयाल है कि तेरह का आंकड़ा बहुत अपशगुन से भरा हुआ है। तो तुम अगर अमेरिका की किसी होटल में ठहरो तो वहां तुम्हें तेरह नंबर की मंजिल नहीं मिलेगी होटल में। बारह के बाद सीधी चौदह! होती वह तेरह ही है, लेकिन नंबर उस पर चौदह का होता है, क्योंकि तेरहवीं मंजिल पर कोई ठहरना ही नहीं चाहता। और तेरहवां नंबर का कमरा भी नहीं मिलेगा; बारह के बाद सीधा चौदह, क्योंकि तेरह नंबर के कमरे में ठहरे कौन! तेरह का आंकड़ा बुरा समझा जाता है। और एक आदमी ने बड़ी किताब लिखी है। उसने किताब में सब तरह से सिद्ध किया है कि तेरह का आंकड़ा क्यों बुरा है! तेरह तारीख को कितने लोग मरते हैं, कितने लोग आत्मघात करते हैं, कितनी दुर्घटनाएं होती हैं, कितनी कारें उलटती हैं, कितने हवाई जहाज गिरते हैं, कितने भूकंप आते हैं, कितने ज्वालामुखी फूटते हैं--उसने इतना सब इकट्ठा किया है! उसका एक भक्त उस किताब को लेकर मेरे पास आ गया था। मैंने उससे कहा कि पहले तू यह भी तो फिकर कर, बारह तारीख की भी तो फिकर कर। अगर बारह की तुम खोज करने जाओगे तो इतनी ही दुर्घटनाएं बारह को भी होती हैं। इतने ही लोग बारह को भी मरते हैं और पागल होते हैं। और मैंने उससे कहा कि तेरह को कुछ अच्छा भी घटता है कि नहीं? उसका तो इस ने उल्लेख ही नहीं किया? कितने लोग मरते हैं यह तो बता दिया; कितने बच्चे जन्मते हैं, क्या दुनिया में तेरह तारीख को कोई बच्चा पैदा नहीं होता? और तेरह तारीख को कितने हवाई जहाज नहीं गिरते हैं, उन की भी तो गणना देना चाहिए न! और कितनी ट्रेनें ठीक अपने स्थान पर पहुंच जाती हैं बिना गिरे! उसका कोई हिसाब नहीं है।
निष्पत्ति पहले ले ली, फिर खोज-बीन में लग गए। निर्णय पहले ले लिया, फिर उस निर्णय के अनुकूल तथ्यों को खोजने लगे। तो लोग सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। ईसाई इसको मान नहीं सकते कि नब्बे हजार साल पुराना है, क्योंकि ईसाइयों की धारणा है कि दुनिया को ही बने इतना नहीं समय हुआ। ईसाई मानते हैं कि जीसस के केवल चार हजार चार साल पहले दुनिया बनाई गई। वे भी अपने लिए तर्क खोज लेते हैं।
जब पहली दफे खुदाइयां होनी शुरू हुईं और पुराने खंडहर मिले और पुराने ऐसे अस्थिपंजर मिले जो कि बहुत प्राचीन हैं, पचास हजार साल पुराने आदमियों की हड्डियां मिलीं, खोपड़ियां मिलीं, तो ईसाई पादरी बड़ी मुश्किल में पड़ गए, क्या करें! क्योंकि सबको एक खतरा लगा रहता है: अगर उनके ग्रंथ की एक बात गलत हो जाए तो लोगों को फिर दूसरी बातों पर भी शक पैदा हो जाएगा। जब एक बात गलत हो सकती है बाइबिल की तो और बातों का क्या भरोसा! इसलिए हर बात सही होनी चाहिए।
वेद की एक बात गलत हो सकती है तो फिर दूसरी बातों का क्या भरोसा! और अगर राम एक बात गलत बोल सकते हैं तो फिर कौन जाने, और बातें भी संदिग्ध हो जाती हैं। श्रद्धा डांवाडोल हो जाती है। जरा सा झूठ पकड़ में आ जाए कि श्रद्धा का भवन गिरने लगता है। श्रद्धा के सारे भवन ही लोगों ने ताश के पत्तों की तरह बनाए हुए हैं। एक पत्ता खींच लो कि सारा भवन भूमिसात होने लगता है।
तो ईसाई बहुत घबड़ाए, मगर उन्होंने तरकीब खोज ली! इसको मैं कहता हूं तर्क का वेश्या होना। उन्होंने क्या तरकीब खोजी? उन्होंने यह तरकीब खोजी कि हां, यह बात सच है कि ये हड्डियां पचास हजार साल पुरानी मालूम पड़ती हैं, मगर हैं नहीं।
परमात्मा ने जब दुनिया बनाई--जो परमात्मा दुनिया बना सकता है, क्या वह इतना सा काम नहीं कर सकता कि ऐसी हड्डियां बनाए जो पचास हजार साल पुरानी मालूम पड़ती हों? उसने ये हड्डियां इसलिए पचास हजार साल पुरानी बनाईं प्रतीति होनी चाहिए--ताकि श्रद्धालु कौन है, अश्रद्धालु कौन है, इसका निर्णय हो सके। यह कसौटी है। अब भी जो श्रद्धा करेंगे कि दुनिया चार हजार साल और चार वर्ष पहले ही बनाई गई, वे ही श्रद्धालु हैं, वे ही सच्चे ईसाई हैं। यह तो भक्तों की पहचान के लिए परमात्मा ने एक मापदंड रख दिया जमीन के भीतर।
खोज ली तरकीब उन्होंने! यह तो परमात्मा न हुआ...। मेरे एक मित्र हैं, वे नेपाल में एक फैक्टरी डाले हुए हैं। वहां वे प्राचीन चीजें बनाते हैं। मैं थोड़ा हैरान हुआ। मैंने कहा, प्राचीन चीजें बनाते हैं! उन्होंने कहा, हां। हजार-हजार, दो-दो हजार, तीनत्तीन हजार साल पुरानी चीजें बनाते हैं। पहले बुद्ध की प्रतिमा बनाते हैं, फिर उस पर तेजाब और रासायनिक द्रव्य डाल कर उसकी ऐसी हालत कर देते हैं खराब कि ऐसी लगे कि तीन हजार साल पुरानी है। फिर उस को जमीन में गड़ा देते हैं। फिर साल छह महीने उसको जमीन में गड़े रहने देते हैं, सो उसकी हालत और खराब हो जाती है। फिर उसको निकालते हैं। फिर वह एंटीक हो गई! फिर उस पर लिख भी देते हैं, किस संवत में बनी। उसी समय की भाषा में--पाली में, प्रकृत में। पंडित रख छोड़ हैं उन्होंने पाली, प्राकृत के, संस्कृत के। उस भाषा में, उसी लिपि में, ब्राह्मी लिपि में लिखवा देते हैं उस पर। वे भी ऐसा लिखवाते हैं कि अधूरा पुछ गया, अधूरा मिट गया, कुछ बचा, कुछ नहीं बचा। एकाध शब्द समझ में आता है, एकाध नहीं भी आता। प्रतिमा पूरी बनाते हैं, फिर हाथ तोड़ देते हैं, नाक तोड़ देते हैं, कान तोड़ देते हैं; क्योंकि नई वही प्रतिमा सौ, दो सौ रुपये में बिके। तीन हजार साल पुरानी होकर लाखों में बिकती है! पुराने का ऐसा मोह है, ऐसा पागलपन है! पुराना जैसे कुछ अपने आप में मूल्यवान हो जाता है!
मंगलदास, तुम कहते हो: मैं आपके नव-संन्यास से भयभीत क्यों हूं?
इसीलिए भयभीत हो कि नया है। पहले कोई चला नहीं। पहले इस भांति से कोई जीया नहीं। पता नहीं ठीक हो या न हो। पहले के लोगों की गवाहियां नहीं हैं। पहले के लोगों के प्रमाण नहीं हैं। और तुम अनुभव से नहीं जानना चाहते; दूसरों के प्रमाणपत्र चाहते हो। तुम अपने अनुभव से नहीं खोजना चाहते सत्य को। तुम सस्ता सत्य चाहते हो। जिसको और सब लोग मानते हों, वह सत्य होगा ही--इतने लोग मानते हैं, हम भी माने लेते हैं। यह सत्य के अन्वेषी का लक्षण नहीं है। यह सत्य से बचने वाले का लक्षण है। जिसको सत्य को खोजना है, वह तो कहेगा, मैं खोजूंगा! और जो अपने अनुभव से जानूंगा वही मानूंगा। जो जानूंगा बस वही मानूंगा। जानने पर मेरी श्रद्धा होगी, मानने पर नहीं। तब तुम्हें मेरा नव-संन्यास आकर्षित करेगा, निमंत्रण देगा।
फिर और भी डर के कारण हैं।
मन का एक नियम है: मन अतियों में जीता है। एक अति से दूसरी अति पर जाने में मन को कोई बाधा नहीं होती। मन घड़ी के पेंडुलम की तरह है। बाएं से दाएं चला जाता है, दाएं से बाएं चला जाता है; लेकिन बीच में नहीं रुकता। बीच में रुक जाए तो घड़ी रुक जाए। ऐसे बाएं-दाएं जाकर घड़ी को चलाए रखता है।
ऐसा ही हमारा मन है: दाएं जाता, बाएं जाता। एक अति से दूसरी अति। दूसरी से फिर पहली अति। ऐसे ही हमारी जीवन की यह जो घड़ी है, यह जो जन्म-मरण का चक्कर है, इसको मन चलाता है। यह पेंडुलम है। यह अगर बीच में रुक जाए तो घड़ी बंद हो जाए; तुम मुक्त हो जाओ, तत्क्षण मुक्त हो जाओ! यह अगर सम हो जाए, मध्य में ठहर जाए, तुम अतिक्रमण कर जाओ संसार का--मैं उसी को संन्यास कहता हूं: संसार का अतिक्रमण, संसार का त्याग नहीं।
त्यागी और भोगी तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कोई सिक्के को सीधा हाथ में रखे है, कोई उसी सिक्के को उलटा हाथ में रखे है; मगर दोनों के हाथ में सिक्का वही है। एक आदमी धन के पीछे दीवाना है; उसके लिए धन ही धन, और कुछ नहीं सूझता।
एक मारवाड़ी मरण-शय्या पर पड़ा है। आखिरी घड़ी, सांझ आ गई जीवन की, पल दो पल की देर है। वह अपनी पत्नी से पूछता है कि मेरा बड़ा लड़का कहां है? पत्नी कहती है, आपके बगल में ही बैठे हैं। उसकी आंखें भी धुंधला गई हैं, प्राण सूखे जा रहे हैं। और मंझला कहां है?
वह आपके पैरों की तरफ बैठा हुआ है। आप चिंता न करें आप निश्चिंत रहें। मगर वह तो टहनी टेक कर उठने की कोशिश करने लगा और कहा कि छोटा कहां है? कहा, वह आपके इस तरफ बैठा हुआ है। हम सब यहीं मौजूद हैं। पत्नी की आंखें तो आर्द्र हो आईं। अंत क्षण में भी अपने बेटों की याद है, इतना प्रेम है! लेकिन उस बेचारी को क्या पता! मारवाड़ी ने कहा, तीनों यहीं बैठे हैं! अरे उल्लू के पट्ठो, तो दुकान कौन चला रहा है? अभी मैं जिंदा हूं, तब यह हाल है। कल मैं मर जाऊंगा तो बस खतम, फिर दुकान नहीं चलनी! तुम मुझे चैन से मरने भी न दोगे! अरे जाओ दुकान चलाओ! मरना-जीना तो लगा ही रहता है, मगर दुकान चलती रहनी चाहिए।
क्या ज्ञान की बात कही कि मरना-जीना तो लगा ही रहता है! यह तो संसार का क्रम है आना-जाना, अरे यह सब तो माया है! दुकान चलती रहनी चाहिए! तुम बुद्धुओं की तरह बैठे यहां क्या कर रहे हो!
मरते घड़ी तक पैसे की पकड़! दुकान चलनी चाहिए! मरने वाले को ही होती है, ऐसा नहीं है। मैंने एक और मारवाड़ी की कथा सुनी है। मारवाड़ियों की तो कथाओं पर कथाएं हैं। वे भी अपनी मरणशय्या पर पड़े थे। सारा परिवार इकट्ठा था। छोटे बेटे ने कहा कि पिता ने जीवन भर बड़ी मेहनत की, कौड़ी-कौड़ी इकट्ठा करके करोड़पति हुए। जीवन भर आपा-धापी की। अंत समय में शवयात्रा को शान से निकालना चाहिए। रॉल्स रायस गाड़ी ले आनी चाहिए।
दूसरे बेटे ने, जो जरा ज्यादा होशियार था, मंझले ने कहा, पागल हो गए हो! अब आदमी जब मर ही गया तो तुम रॉल्स रायस में ले जाओ कि एंबेसेडर में, क्या फर्क पड़ता है? हां जिंदा आदमी को फर्क पड़ता है। हो सकता है एंबेसेडर में ले जाओ तो जिंदा पहुंचे ही नहीं। मगर जो मर ही गया, अब इससे क्या फर्क पड़ता है एंबेसेडर है कि राल्स रायस है। एंबेसेडर से ही काम चल जाएगा। इतना खर्चा करने की जरूरत नहीं।
तीसरा, बड़ा भाई, उसने कहा, तुम फिजूल की बकवास में लगे हो! अरे सादगी बड़ी चीज है! और सादगी को साधुता कहा है। और ऐसे समय में ही तो परीक्षा होती है। एंबेसेडर वगैरह की कोई जरूरत नहीं है। हमारे पिता शुद्ध भारतीय थे। स्वदेशी में उनका विश्वास था। बैलगाड़ी में ही ले जाएंगे। और बैलगाड़ी अपने घर में ही है। फिजूल किराया लगाना! वैसे ही पेट्रोल के दाम बढ़ गए हैं, मिलता नहीं। अब एंबेसेडर लाओ!
बूढ़ा मारवाड़ी, मरणासन्न मारवाड़ी यह सब सुन रहा था। वह एकदम उठ कर बैठ गया, उसने कहा, मेरे जूते कहां हैं? तीनों लड़के भी घबड़ा गए, क्योंकि वे तो समझे थे कि पिता जा ही चुके हैं। तो उन्होंने कहा, जूते का क्या करिएगा! तो उसने कहा, अरे अभी मुझ में इतनी हिम्मत है कि मैं पैदल ही चल कर मरघट चला चलता हूं, वहीं मर जाऊंगा। बैलगाड़ी में नाहक कष्ट देना बैलों को! चारे के दाम बढ़ गए हैं, चारा मिलता कहां है!
एक है पागल, जो धन के पीछे दौड़ रहा है। यह भी मन की एक विक्षिप्तता है। फिर एक दूसरा पागल है, वह इन्हीं पागलों से पैदा होता है, वह धन छोड़ कर भागने लगता है। मगर दोनों की भाग जारी रहती है। एक की धन की तरफ, एक की धन के विपरीत--मगर दोनों की नजर धन पर रहती है। दोनों का अटकाव धन में है। एक धन के लिए दीवाना है कि कितना इकट्ठा कर लूं। और एक दीवाना है, इतना डरा हुआ है धन से कि ऐसा भागता है कि पीछे लौट कर नहीं देखता। भागता ही चला जाता है। छूता नहीं धन को। साधु हैं, संन्यासी हैं, धन को नहीं छूते। जैसे धन काट लेगा! जैसे धन कोई बिच्छू-सांप है! नोट कागज के, क्या काट लेंगे? रुपये नहीं छूता। यह नहीं छूने वाला, तुम सोचते हो धन से मुक्त हो गया है? यह तो और भी रुग्ण हो गया। यह तो और विक्षिप्त हो गया। एक तरफ तो कहता है कि मिट्टी है सब, और दूसरी तरफ इतना डरता है!
विनोबा भावे के सामने रुपया ले जाओ तो वे आंख बंद कर लेते हैं। जरूर कहीं रुपये में कोई न कोई आसक्ति होगी, नहीं तो आंख बंद करने की क्या जरूरत? रुपये की क्या ताकत कि आंख बंद करवा दे? अरे आंख अपनी! रुपये की क्या हैसियत कि आंख बंद करवा दे? मगर एकदम आंख बंद कर लेते हैं, मुंह फेर लेते हैं। रुपया छूते नहीं, रुपया छूना पाप है! रुपये छूने में क्या पाप हो सकता है?
और साधु-संत समझाए जाते हैं कि धन मिट्टी है; मगर मिट्टी को मजे से छूते हैं। एक मुनि महाराज से मैंने कहा कि आप मिट्टी पर चलते हैं, शर्म नहीं आती? कुछ तो लाज-संकोच करो! उन्होंने कहा, आप क्या कहते हैं! फिर मिट्टी पर न चलें तो कहां चलें? मैंने कहा, कम से कम जूते तो पहनो! उन्होंने कहा, जूते हम पहन नहीं सकते। मैंने कहा, मिट्टी पैर को छुएगी। उन्होंने कहा, मिट्टी तो मिट्टी है, इसमें डर क्या है? मैंने कहा, डर यही है कि आप कहते हैं कि सोना-चांदी सब मिट्टी है। अगर सोना-चांदी छूने में डरते हो तो मिट्टी छूने में भी डरो। और अगर मिट्टी छूने में नहीं डरते तो सोना-चांदी से क्या डर है? या फिर झूठ ही कहते होओगे कि सोना-चांदी मिट्टी है। समझाते होओगे मन को कि अरे यह तो मिट्टी है, इस को क्या छूना! मगर भीतर ललक उठती होगी कि छू लें।...कि अरे इस में क्या सार है! मगर कोई बैठ कर नहीं सोचता कि मिट्टी में क्या सार है, कि भाइयो एवं बहनो, मिट्टी को मत छूना, कि मिट्टी बिलकुल असार है! लेकिन धन असार है। धन को छूना मत, पकड़ना मत।
ये एक ही तरह के लोग हैं--तुम्हारे त्यागी और भोगी जरा भी भिन्न नहीं हैं। मन भोग से त्याग में चला जाए, यह बिलकुल आसान है, क्योंकि एक अति से दूसरी अति। लेकिन मन मध्य में ठहर जाए, यह बहुत कठिन है। यह मध्य में ठहरना तलवार की धार पर चलने जैसा है।
मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता हूं कि भाग जाओ। मैं कहता हूं, यहीं! जहां हो--दुकान में, बाजार में--यहीं मुक्त होना है! अगर मुक्ति है तो यहीं है। कहीं और नहीं। मुक्ति अगर है तो आंतरिक बोध में है, छोड़ने-छाड़ने में नहीं। मुक्ति अगर है तो भागने में नहीं, जानने में है। तो जागो, अपने चैतन्य को गतिमान करो, ऊर्ध्वगामी करो। अपने ध्यान को निखारो। बाहर की चीजों पर मत अटको--न भोग के लिए, न त्याग के लिए। न तो उनके लिए पागल हो जाओ कि नहीं मिलेंगी तो मर जाएंगे। और न पागल हो जाओ कि अगर मिल गईं तो मर जाएंगे। बाहर की चीजों का इतना तुम्हारे ऊपर वश हो तो तुम्हारी कोई हैसियत ही नहीं है।
इसलिए मैं कहता हूं, पत्नी, बच्चे, परिवार कुछ छोड़ कर कहीं जाना नहीं है। तुम जहां हो, वहीं धीरे-धीरे शांत होना है, मौन होना है। और जो बाजार के कोलाहल में मौन हो जाता है, उसके मौन को कोई खंडित नहीं कर सकता। और हिमालय की गुफा में बैठ कर अगर तुम मौन हो भी गए तो तुम्हारा मौन तुम्हारा नहीं है, हिमालय का है। बाजार में आओगे, टूट जाएगा, खंडित हो जाएगा। अगर तुम उपवास साध-साध कर मौन हो भी गए, तो वह मौन तुम्हारा नहीं है। वह तो किसी को भी भूखा रखो तो बेचारा मौन हो जाए। वह कोई खास खूबी की बात नहीं है। तुम्हीं चार-छह दिन भूखे रहो तो बोलती बंद होने लगे। पंद्रह दिन, महीना भर भूखे रह गए, फिर बोलना क्या है! मगर वह मौन नहीं है। खाते-पीते, स्वस्थ जीते--अगर तुम्हारे भीतर मौन आ जाए तो कुछ बात हुई, तो कुछ क्रांति हुई, तो कुछ पाई संपदा अंतर की।
मैं बाहर के धन को छोड़ने को नहीं कहता; भीतर के धन को पाने को कहता हूं। और जिसने भीतर का धन पा लिया, उसे बाहर के धन में कुछ अड़चन ही नहीं रह जाती। महल हो तो महल में सोता है और झोपड़ा हो तो झोपड़े में सोता है। मस्ती उसकी अखंड होती है। उसकी मस्ती खंडित नहीं होती। कुछ न हो तो भी मस्त होता है और सब कुछ हो तो भी मस्त होता है। उसे तुम सिंहासन पर बिठाल दो तो कोई अड़चन नहीं। और उसे झाड़ के नीचे बैठा रह जाना पड़े तो कोई बेचैनी नहीं है। इसको कहते हैं समता। इस को कहते सम्यकत्व।
नव-संन्यास--संन्यास की बड़ी क्रांतिकारी धारणा है। तुम भयभीत हो रहे होओगे। पुराने संन्यास से तौलते होओगे। तो और अड़चन खड़ी हो जाती है; क्योंकि लोग सोचते हैं, पुराना संन्यास बड़ा कठिन था। बात बिलकुल गलत है। पुराना संन्यास बिलकुल सुगम है।
इसलिए तुम हैरान न होओ मंगलदास कि पुराने संन्यास से मुझे बिलकुल भय नहीं लगता। पुराना संन्यास बिलकुल सुगम है। मन कर सकता है बड़ी आसानी से। नया संन्यास बहुत कठिन है। शराबघर में बैठ कर और न पीओ, तब समझना कि कुछ बात है। और जहां शराब मिलती ही न हो वहां न पीओ, तो समझना कि कुछ खास बात नहीं है। रेगिस्तान में जाकर बैठ जाओ, जहां न कोई आता हो न जाता हो और वहां अगर तुम्हें क्रोध न आए, तो उसका कोई मूल्य नहीं है। आओ बाजार में, जहां गालियां पड़ती हों, अपमान होता हो, जहां हर आदमी चोट पहुंचाने को आतुर हो--वहां क्रोध न आए, वहां बोध संतुलित रहे, वहां भीतर सब थिर और मौन रहे। कोई कितने ही पत्थर फेंके, चट्टानें फेंके तो भी भीतर लहरें न उठें, तो समझना कि कुछ उपलब्धि हुई।
पुराना संन्यास सुगम है; मन की भाषा के भीतर आता है। नया संन्यास कठिन है, क्योंकि मन का अतिक्रमण करना होगा। नये संन्यास का मौलिक आधार त्याग नहीं है--ध्यान है। नये संन्यास का मौलिक आधार अंतर्गमन है। पुराना संन्यास बहिर्मुखी है। वह कहता है, यह छोड़ो, वह छोड़ो। उसकी दृष्टि बाहर अटकी है। और तुम भी बहिर्मुखी हो और तुम्हारा संन्यास भी पुराना बहिर्मुखी है; दोनों बातों में तालमेल बैठ जाता है। और तुम इस तालमेल को जरा अगर आंख खोल कर देखोगे तो बहुत चकित हो कर पाओगे सब जगह बैठा हुआ मिलेगा।
मेरे एक प्रियजन हैं, दिगंबर जैन हैं। उनकी कपड़े की दुकान है: दिगंबर क्लाथ शाप। मैंने उनसे पूछा कि तुमने कभी इस पर विचार किया? एक शब्द तो संस्कृत का दिगंबर--और क्लाथ शाप दो शब्द अंग्रेजी के। इससे किसी को पता नहीं चलता, मगर इसका शुद्ध हिंदी में अनुवाद तो करो! इसका अर्थ होगा: नंग-धड़ंगों की कपड़े की दुकान। अब नंगे-धड़ंगों को कपड़े की क्या जरूरत है?
वे भी कहने लगे, बात तो ठीक है। मैंने कहा, और अगर तुम बुरा न मानो, अगर और ठेठ अनुवाद करना हो तो इसका अर्थ होगा--नंगे-लुच्चों की कपड़े की दुकान। उन्होंने कहा, आप क्या कहते हैं? नंग-धड़ंगे तक भी ठीक था। नंगे-लुच्चे! मैंने उनसे कहा, तुम्हें शायद पता नहीं कि नंगे-लुच्चे शब्द का पहली दफे प्रयोग जैन मुनियों के लिए ही किया गया। क्योंकि वे नंगे रहते हैं और बाल लोंचते हैं। लुच्चे यानी बाल लोंचने वाले। लुच्चे से मतलब कोई गुंडों से नहीं होता था। पुराना जो मौलिक अर्थ था लुच्चे का, वह था लोंचने वाला। जैन मुनि बाल कटवाता नहीं, लोंचता है।
पागलपन के भी कई ढंग होते हैं। पागलों को अक्सर...पागलखाने में तुम्हें कई पागल मिलेंगे बाल लोंचने वाले। और तुम्हारे घर में भी जब पत्नी बिफरा जाती है तो जो पहला काम करती है वह बाल लोंचने का करती है। वह समझो कि जैन मुनि हो रही है।
मैंने उनसे कहा कि तुमने कभी इस विरोधाभास पर ध्यान दिया कि सब दिगंबर जैन करीब-करीब कपड़ा बेचते हैं? उनके मुनि नंगे। श्रावक सब कपड़ा बेचते हैं। यह बड़ा मजे का मामला है! इसके भीतर कुछ न कुछ संबंध होना चाहिए। सब जैन धनी और उनके सारे मुनि धन के विपरीत, धन-विरोधी। पैसा छूते भी नहीं। कपड़ा पहनते नहीं। यह मामला क्या है! इसके भीतर जरूर कुछ राज होना चाहिए।
सब जैन खाने-पीने में बहुत कुशल हैं। जितना गरिष्ठ भोजन जैन करते हैं, कोई और नहीं करता। और उनके मुनि उपवास करते हैं। और यह बात सारे धर्मों के संबंध में सच है। खोज-बीन करने में तुम्हें पता चलेगी, कि जो संसारी है वह और उस संसारी का जो त्यागी है वह, उन दोनों के बीच एक तारतम्य है, एक गणित है।
भोगी और त्यागी के बीच एक अंतर्संबंध है। ये कपड़ा बेचने वालों को नंगा रहने वाला आदमी आदृत मालूम पड़ता है, आदरऱ्योग्य मालूम पड़ता है, कि भाई गजब कर दिया! ये जो बहुत खाने-पीने वाले लोग हैं, इनको उपवास करने वाला व्यक्ति बहुत प्रभावित करता है। विपरीत में हमेशा आकर्षण होता है। इस नियम को स्मरण रखना।
इसलिए तो स्त्री पुरुषों में आकर्षित होती हैं; पुरुष स्त्रियों में आकर्षित होते हैं; विपरीत का आकर्षण है। जैसे ऋण और धन विद्युत एक-दूसरे की तरफ खिंचते हैं, बस ऐसे विपरीत में आकर्षण होता है।
अमीरों के जो धर्म हैं, उनमें त्याग की महिमा है। और अमीरों के जो धर्म-दिवस होते हैं, उन दिनों में उपवास करना होता है। जैसे जैनों का पर्युषण आया, तो उपवास करो, अनशन करो। और गरीबों के जो धर्म-दिवस होते हैं, बिलकुल उलटे होते हैं। जैसे मुसलमानों का धर्म-दिवस आएगा, तो मीठे चावल बनाओ, अच्छे कपड़े पहनो। साल में वह एक ही दफा कपड़े खरीदते हैं, जब ईद आई। फिर दिल खोल कर मना लेते हैं। गरीब के धार्मिक उत्सव, उत्सव होते हैं। उस दिन वह जो भी भोगना है दिल खोल कर भोगता है। अमीर के धार्मिक दिन त्याग के होते हैं। साल भर तो भोगता है, तो भोग के विपरीत मन कहता है कुछ करो! क्या भोगी ही बने रहोगे, नरक में पड़ोगे! तुम एक दिन तो उपवास कर लो। दस दिन तो उपवास कर लो। साल में कभी तो उपवास कर लो।
गरीब तो साल भर ही उपवासा रहता है। उसका मन कहता है कि यह तो साल भर ही चलता है धर्म तो। एक दिन तो दिल खोलकर...तो साल भर इकट्ठा करता है। एक दिन तो दीवाली मना लो। एक दिन तो हो जाए होली और हुल्लड़। एक दिन तो फिंक जाए रंग और गुलाल।
तुम अगर दुनिया के धर्मों का अध्ययन करोगे तो यह बात तुम्हें स्पष्ट दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी कि उनके त्यागी और उनके भोगियों के बीच एक संबंध होता है। भोगी और त्यागी किसी भीतरी गणित से जुड़े होते हैं।
मंगलदास, तुम्हें पुराने संन्यास से कोई भय नहीं लगता, क्योंकि वह तुम्हारी भाषा के भीतर आता है। मैं जिस संन्यास की बात कर रहा हूं, वह तुम्हें बेबूझ मालूम पड़ता है। वह तुम्हारी भाषा के भीतर नहीं आता है। और चूंकि इतना नया है कि शास्त्रों में उसका कोई उल्लेख नहीं, उसकी कोई परंपरा नहीं, सदियों पुरानी कोई उसकी धारा नहीं, कोई कड़ियां नहीं, कोई शृंखला नहीं--तो भय लगता है: इतने अज्ञात में उतरना या नहीं उतरना!
वह एक छोटा सा विहग
अपनी उमंगों में उमग
निज पंख फैला चल पड़ा
उस नील नभ को नापने;

उर में भरा उल्लास था,
स्वर में भरा उच्छवास था,
संगीत जीवन का रचा
उसकी विसुध प्रति सांस ने।

थे मौन वन उपवन पड़े,
थे मौन गिरि परवत खड़े,
वह गा रहा, वह जा रहा
था सामने--बस सामने।

ऊंचा अधिक उड़ता गया,
ओझल हुई उससे धरा
पर सामने निःसीम था
उसके लगे पर कांपने।

वह एक छोटा सा विहग
अपनी उमंगों में उमग
निज पंख फैला चल पड़ा
उस नील नभ को नापने।
हम छोटे-छोटे पंखों के लोग...विराट आकाश है। अनंत अज्ञात है। असीम सागर है। हमारी छोटी सी डोंगी, छोटी पतवारें! अज्ञात में उतरने में डर लगता है। हां, बहुत से यात्री जिस घाट से उतरते रहे हों और बहुत से यात्री उल्लेख छोड़ गए हों कि भय न करना, हम उतरे और पहुंचे--तुम भी उतरोगे तो पहुंच जाओगे; उनकी गवाहियां हों, प्रमाणपत्र हों--तो थोड़ा ढाढस बनता है। नये के लिए कोई साक्षी नहीं होती, कोई गवाही नहीं होती, कोई प्रमाणपत्र नहीं होता। कैसे हो सकता है!
और मैं तुम से यह कहना चाहता हूं कि सत्य सदा नवीन है, नितनूतन है, ताजा है। ऐसा ताजा है जैसे सुबह की ओस, कि सुबह-सुबह खिले गुलाब के फूल की पंखुड़ियां! सत्य सदा वर्तमान है। उसका कोई अतीत नहीं है। उसकी कोई परंपरा नहीं होती।
सत्य में उतरने का साहस चाहिए, दुस्साहस चाहिए। भय लगेगा, यह स्वाभाविक है। भय के बावजूद उतरने का साहस जुटाना पड़ेगा। और जो भय के बावजूद उतरने को राजी है वह जरूर पहुंच जाता है। क्यों? क्योंकि अगर हम परमात्मा की तलाश कर रहे हैं तो एक बात कभी मत भूलना कि परमात्मा भी तुम्हारी तलाश कर रहा है। अगर हम अस्तित्व के सत्य को खोजने चले हैं तो सत्य भी आतुर है कि हम उसे खोज लें। यह हमारे और सत्य के बीच लुका-छिपी का खेल है। यह लीला है।
घबड़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है। और जितना विराट अज्ञात हो उसमें उतरने से उतनी ही विराट तुम्हारी आत्मा हो जाएगी। जितनी बड़ी चुनौती स्वीकार करोगे उतना ही बड़ा तुम्हारा नवजन्म हो जाएगा।
पुराने में चुनौती नहीं होती। पुराने में तो चुनौती हो ही नहीं सकती। जंग लगी होती है। नये में चुनौती होती है, धार होती है, चमक होती है, पुकार होती है। और नये पर चलने का साहस ही संन्यास है।
मैं तुम्हें कोई नक्शा भी नहीं देता, क्योंकि आकाश का कोई नक्शा नहीं होता। आकाश में पगडंडियां भी नहीं होतीं। राजपथ की तो बात ही दूर छोड़ दो, पगडंडियां भी नहीं होतीं। आकाश में पक्षी उड़ते हैं तो पैरों के चिह्न भी नहीं छूट जाते। ऐसा नहीं है कि तुमसे पहले लोग परमात्मा को नहीं पाए हैं। मगर बस आकाश में पक्षी बहुत उड़े हैं, मगर उनके पैरों के चिह्न नहीं छूट गए हैं। बुद्ध के, कि लाओत्सु के, कि जीसस के, कि मोहम्मद के कोई चिह्न नहीं छूट गए हैं आकाश में। आकाश वैसा का वैसा खाली है। तुम भी उड़ोगे, तुम भी चिह्न नहीं छोड़ जाओगे। अच्छा ही है कि चिह्न नहीं छूटते। नहीं तो लोग सिर्फ नकलची होंगे। लोग दूसरों के पैरों पर पैर रख कर चलते रहेंगे! उनकी खुद की आत्मा का जन्म कब होगा! लोग केवल कार्बन कापी रह जाएंगे। लोग सिर्फ पाखंडी होंगे। लोगों के जीवन में धार कैसे आएगी! उनकी आत्मा का जन्म कैसे होगा! लोग थोथे रह जाएंगे, खोखे रह जाएंगे! उनके भीतर बल नहीं पैदा होगा। संघर्षों से बल पैदा होता है।
मैं जिस संन्यास की बात तुमसे कह रहा हूं, वह संघर्ष का निमंत्रण है। तुम्हें जूझना पड़ेगा। समाज तुम्हारे विपरीत होगा। भीड़ तुम्हारे विपरीत होगी। अतीत तुम्हारे विपरीत होगा। परंपराएं तुम्हारे विपरीत होंगी। मंदिर-मस्जिद तुम्हारे विपरीत होंगे। तुम अकेले रह जाओगे। लेकिन अकेले होने का एक मजा है। अकेले चलने का एक अलग ही रस है। एक अलग ही मस्ती है! अकेले चलने में ही तुम्हारे भीतर सिंहनाद होगा। भेड़ें भीड़ में चलती हैं; सिंह तो अकेले चलते हैं। नहीं सिंहों के लेहड़े! उनकी कोई भीड़-भाड़ नहीं होती।
अकेले चलने का साहस हो तो ही मेरा संन्यास तुम्हारे लिए मार्ग बन सकता है। सब तरह की लांछनाएं सहने का साहस हो, तो ही! पुराने संन्यास में तो सुविधा है, सम्मान मिलेगा। अहंकार की तृप्ति होगी। मेरे संन्यास में तो लोग कहेंगे, पागल हो! तुम विक्षिप्त हो गए। तुमने भी अपना होश खो दिया! तुम सम्मोहित हो गए। तुम भी किन बातों में पड़ गए हो! अरे अपने बाप-दादों की लीक को छोड़ दिए! और बाप-दादों की लीक का मतलब होता है भेड़ बने रहो। बाप-दादे उनके बाप-दादों की लीक पर चल रहे थे और उनके बाप-दादे उनके बाप-दादों की लीक पर। बस भेड़ बने रहो!
एक छोटे बच्चे से स्कूल में पूछा उसके शिक्षक ने कि समझ लो तुम्हारे बाड़े में दस भेड़ें बंद हैं। एक बाड़े को छलांग लगा कर निकल गई, तो भीतर कितनी बचेंगी? उस लड़के ने कहा कि बिलकुल नहीं। शिक्षक ने कहा कि तू गणित समझता है कि नहीं समझता? उस लड़के ने कहा, गणित में समझूं या न समझूं, मेरे घर में भेड़ें हैं, मैं भेड़ों को समझता हूं। एक अगर छलांग लगा गई, फिर गणित कुछ भी कहे...भेड़ें भी गणित नहीं समझतीं। वे सभी छलांग लगा कर निकल जाएंगी। आपका गणित काम नहीं आएगा। मैं भेड़ों को जानता हूं भलीभांति।
और वह बच्चा ठीक कह रहा है।
बच्चे कभी-कभी ऐसे सत्य कह देते हैं तो बड़ों-बड़ों को भी नहीं सूझते। यह बात सच है भेड़ों को क्या पता गणित का! भेड़ें तो अपनी भेड़चाल से चलती हैं।
संन्यास लीक छोड़ कर चलने का नाम है। लीक छोड़ कर चलने में थोड़ा भय तो लगेगा। भीड़-भाड़ में अच्छा लगता है: इतने लोग साथ हैं, अकेले नहीं हो। लगता है को खतरा नहीं है; सुरक्षा है। अकेले हुए कि चारों तरफ खतरा दिखाई पड़ता है। कोई संगी नहीं कोई साथी नहीं।
मगर अकेले होना हमारा आंतरिक सत्य है। हम अकेले ही पैदा हुए हैं। हम अकेले ही हैं और अकेले ही हमें इस संसार से विदा हो जाना है। इस अकेलेपन को जिस दिन तुम जीने लगोगे, संन्यस्त हो गए। जुटाओ साहस।

जोड़ कर सौ तार, फिर-फिर तोड़ देता हूं!
धार पर नैया चढ़ा कर, मोड़ देता हूं!

जान कर निश्चय नियति का, है अनिश्चय क्यों?
आज से कल, यों समय का व्यर्थ विनिमय क्यों?
हो रहा अपनी लगन पर मुझे विस्मय क्यों?
हार कर मनुहार अपनी मोड़ देता हूं!

पहुंच कर सन्मुख तुम्हारे, विमुख हो जाता!
तोड़ने से टूटता भी नहीं यह नाता!
दूर खींच कर, और भी खिंच पास यों आता
गूढ़ रेशम-गांठ से ज्यों होड़ लेता हूं!

जोड़ कर सौ तार, फिर-फिर तोड़ देता हूं!
धार पर नैया चढ़ा कर, मोड़ देता हूं!
अब इस बार न मोड़ो। धार पर नैया को चढ़ाओ और पीछे लौट कर मत देखो। आगे देखो! आगे है परमात्मा। आगे है निर्वाण। पीछे तो सिर्फ उड़ती हुई धूल है। मगर लोग यूं ही चल रहे हैं।
अगर लोगों के मनोविज्ञान को समझ कर हम कारें बनाएं तो हमें कारें ऐसी बनानी चाहिए कि ड्राइवर को आगे बिलकुल दिखाई ही न पड़े। जहां कांच लगाते हैं ड्राइवर को देखने के लिए, वहां आईना लगाना चाहिए! पूरा आईना! उसको पीछे का दिखाई पड़े--उड़ती हुई धूल, छूट गए दरख्त! और फिर तुम समझ सकते हो, जो होगा सो होगा। दुर्घटना के सिवा कुछ भी नहीं हो सकता। देखेगा पीछे, चलेगा आगे।
चलना तो आगे ही पड़ता है; पीछे कोई गति होती ही नहीं। जवान हो तो अब बच्चे नहीं हो सकते। बूढ़े हो तो अब जवान नहीं हो सकते। जो बीता सो बीता। जो गया सो गया। समय में पीछे लौटने का उपाय ही नहीं है। मगर देखते पीछे हो, हमेशा पीछे देखते हो! और चलते आगे हो। इससे तुम्हारी जिंदगी में दुर्घटनाएं ही दुर्घटनाएं होती हैं। इससे जगह-जगह तुम्हारे हाथ-पैर टूटते हैं, सिर फूटते हैं। जगह-जगह तुम टकराते हो। तुम्हारी यह मूर्च्छा है। थोड़े सम्हलो! जहां चल रहे हो वहां देखो। जहां से चल चुके हो अब वहां क्या देखना! उड़ती धूल का क्या हिसाब रखना!
लेकिन लोग बैठे हैं, रामायण पढ़ रहे हैं--उड़ती धूल! और कब से तुम रामायण पढ़ रहे हो, सदियों हो गईं! गांव-गांव रामायण चल रही है। हर साल वही रामलीला। तुम ऊबते भी नहीं, जैसे तुम्हारी बुद्धि बिलकुल पथरा गई है! जैसे कोई आदमी एक ही फिल्म को देखने रोज-रोज जाए, तो तुम उसको पागल कहोगे कि नहीं कहोगे? और नहीं होगा पागल तो हो जाएगा। रोज-रोज देखेगा...और भारतीय फिल्में! एक ही दिन आदमी देख लेता है तो बस काफी है। फिल्म वगैरह क्या है--होऱ्हुल्लड़ है, हंगामा है! सब तरह की गधा-पच्चीसी है। कोई सोचता भी नहीं कि इससे जिंदगी का क्या लेना-देना है! जहां देखो वहां गाने आ जाते हैं। ऐसा जिंदगी में तो कहीं होता ही नहीं। और गाना ही नहीं आता, बैंड-बाजे भी साथ में! जैसे भूत-प्रेत हमेशा आस-पास रहते हैं, जो तैयार रहते हैं...तुम गाना गाओ...नायिका गाना गाती है, भूत-प्रेत एकदम सितार बजाने लगते हैं! और हर चीज का गाना! आंसू गिरें तो गाना, प्रेम हो जाए तो गाना, प्रेम टूटे तो गाना। फिल्म यहां से लेकर वहां तक गानों से भरी है। हर जगह नाच घुसेड़ देते हैं। ऐसा जिंदगी में कहीं दिखाई नहीं पड़ता--न कहीं कोई गाना गाता दिखाई पड़ता, न कहीं कोई नाच दिखाई पड़ता।
अगर कोई आदमी रोज-रोज एक ही फिल्म को देखे तो क्या तुम उसको कहोगे? और यह देश कितनी सदियों से एक ही कहानी को देख रहा है--वही रामलीला! एक बार भर ऐसा हुआ एक गांव में...और मैं खुश हुआ जब मुझे पता चला कि मैंने कहा चलो कुछ तो हुआ! जो आदमी रावण बना था, उसका, जो महिला सीता बनी थी, उससे सच में ही प्रेम था। मगर अलग-अलग जाति के थे। सीता थी ब्राह्मण और जो रावण बना था, वह था बढ़ई। सो विवाह तो हो नहीं सकता था, विवाह की बात भी उठना खतरनाक थी। मगर संयोग की बात कि बढ़ई रावण बना। वही था गांव में तगड़ा आदमी। चीरते-चारते लकड़ी, हो गया होगा तगड़ा। उसने यह मौका न चूका।
स्वयंवर रचा है। कथा के हिसाब से रावण भी आया है। राम भी गए हैं। और भी राजे-महाराजे इकट्ठे हुए हैं। और डर यह था कि रावण की सामर्थ्य थी यह कि वह इंद्र के शिव के धनुष को तोड़ देता और सीता का विवाह उससे होना था। इससे बचाने के लिए झूठी अफवाह...राजनीति, कूटनीति...अगर तुम रामायण को ठीक से देखो तो रावण पीछे जिम्मेवार है, पहले तुम्हारे ऋषि-मुनि बेईमानी करने में आगे हैं। उन्होंने खबर, झूठी खबर...एक संदेशवाहक चिल्लाता हुआ आता है कि रावण, तेरी लंका में आग लगी है। और रावण भागता है। लंका में आग लगी हो तो कहां का विवाह! वह गया है। इसी बीच राम धनुष तोड़ देते हैं और विवाह हो जाता है। इसी से सारी कथा उलझती है। रावण इसका ही बदला लेने के लिए चेष्टारत होता है, सीता को चुराता है। मगर भूल-चूक शुरुआत में राम की तरफ से होती है। राम की तरफ से न कहो तो राम के एजेंटों की तरफ से होती है--वे ऋषि-मुनि जिनको तुम कहते हो।
मगर इस बार मामला कुछ बदल गया। वह आया संदेशवाहक, उसने चिल्लाया कि रावण, तेरी लंका में आग लगी है। उसने कहा, लगी रहने दो। जनता भी, जो करीब-करीब सोई थी, आंख खोल कर बैठ गई कि यह बात क्या है! यह कभी सुना नहीं। ऐसा कहीं होता है! अभी तक बहुत रामलीलाएं देखीं।...लगी रहने दो, उसने कहा! संदेशवाहक ने कहा कि समझे नहीं आप, अरे लंका में आग लगी है, चलो! उसने कहा कि अब जाने वाला नहीं। और वह तो उठा और इसके पहले कि उसे कोई रोके...अब वह तो धनुष-बाण जो रखा था कोई शिव जी का धनुष-बाण था, ऐसे ही बांस का बना कर रख दिया था। उसने उठा कर उसके कई टुकड़े करके फेंक दिए। और जनक से कहा कि निकालो, सीता कहां है? इस बार विवाह किए ले जाता हूं। आगे की झंझट ही क्यों करनी, कि फिर चुराओ, फिर यह करो फिर वह करो!
वह तो जनक बूढ़ा आदमी था, कई दफे जनक का काम कर चुका था। एक दफे तो उसकी भी बुद्धि चकरा गई, कि अब करना क्या! और जनता ताली बजा रही। यह तो गजब हो गया! पहली दफा थोड़ा आनंद आया लोगों को कि कुछ हो रही है रामलीला! अब कुछ होकर रहेगा! वही पिटा-पिटाया बार-बार होता था, वही घिसा-पिटा। लोग सोते थे। उनको पहले से ही मालूम है, जाग कर करना भी क्या है! सब मालूम है कि अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा। तो जनक होशियार आदमी था। उसने जल्दी से कहा कि भृत्यो, मालूम होता है तुम मेरे बच्चों के खेलने का धनुष-बाण उठा लाए। यह शंकर जी का असली धनुष-बाण नहीं है। पर्दा गिराओ!
और बामुश्किल सबको लगना पड़ा...रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी और जनक जी, क्योंकि वह रावण तगड़ा आदमी था, वह कहे, सीता कहां है? वह चिल्लाता ही रहा कि सीता कहां है। और यह अन्यथा हो रहा है। यह मुझ गरीब के साथ अन्याय हो रहा है! मुझे लंका नहीं जाना।
जबरदस्ती उसको निकाल कर किसी तरह पीछे ले गए। उस को पकड़ कर बिठाया। मैनेजर ने हाथ-पैर जोड़े--भैया, तू पागल है, क्या है? सब रामलीला खराब कर दी? जल्दी से दूसरे आदमी को रावण बनाया। फिर पर्दा उठा। फिर वही कहानी शुरू।
मैंने कहा कि कुछ तो उसने किया। सदियां-सदियां हो गईं, कुछ तो आदमी में मौलिकता थी। चलने देना थी कहानी थोड़ी आगे, अब क्या होना था देखते! अगर जरूरत पड़ती तो राम चुराते सीता को, और क्या होता! मगर कहानी में कुछ जान तो आती। मगर नहीं चलने दी कहानी।
पढ़ रहे हैं लोग रामायण, देख रहे हैं अतीत की धूल। जाना है भविष्य में और तुम बातें करते हो स्वर्णयुग की, जो पीछे था। सतयुग, जो पीछे था। और कदम आगे रख रहे हो, गङ्ढों में न गिरोगे तो क्या होगा! यही तो हमारी मूर्च्छा है। यही हमारे जीवन का सबसे बड़ा रोग है। देखते पीछे हैं, चलना आगे है। इस देश के बड़े से बड़े दुर्भाग्य में यह दुर्भाग्य है।

चैतन्य कीर्ति ने मुझसे एक प्रश्न पूछा है कि भगवान, आपने आह्वान दिया है युवकऱ्युवतियों को। सारी दुनिया से युवक और युवतियां आपके आह्वान को सुन कर आना शुरू हुए हैं। कम से कम पचास मुल्कों के लोग यहां मौजूद हैं। लेकिन भारतीय युवकऱ्युवतियों के कान पर जूं भी नहीं रेंगती। उनका तो पता ही नहीं चल रहा! उनको आपका आह्वान सुनाई नहीं पड़ता है?

चैतन्य कीर्ति भारत में युवकऱ्युवतियां होते ही कहां हैं? या तो बच्चे या बूढ़े। कुछ बच्चे ही रह जाते हैं--जैसे राजनारायण इत्यादि। और कुछ बूढ़े ही पैदा होते हैं--जैसे मोरारजी देसाई इत्यादि। जवान भारत में होते ही नहीं, सदियों से नहीं हुए।
आह्वान तो मैं देता हूं, लेकिन जवान कोई हो तो सुने। जो थोड़े-बहुत इक्के-दुक्के जवान हैं, वे गए हैं, आ जाएंगे; बाकी कुछ बचकाने हैं, वे जिंदगी भर के लिए बचकाने हैं। उनकी बुद्धि कभी प्रौढ़ नहीं होती। और कुछ पैदाइशी बूढ़े हैं, वे पैदाइश से ही बूढ़े होते हैं। वे पैदाइश से बिलकुल चूड़ीदार पाजामा पहने, अचकन और गांधी टोपी लगाए...पैदाइश से ही; उनमें कुछ चुनौती, युवा होने की संभावना, नये को अंगीकार करने की ऊर्जा--कुछ होती नहीं। मुर्दे हैं। या तो मुर्दे हैं या बच्चे हैं। यहां तीसरी चीज होती ही नहीं। जो बच्चे हैं वे फिर बूढ़े हो जाते हैं। जवानी घटती ही नहीं।
और ऐसा मैं ही नहीं कह रहा हूं, मनोवैज्ञानिक इस बात से राजी हो रहे हैं कि बहुत कम देश हैं जहां जवानी घटती है। नये देशों में जवानी घट रही है, जैसे अमेरिका में जवानी घट रही है। लेकिन पुराने देश में जवानी नहीं घटती। पुराने देशों में बूढ़ों का इतना आदर है। बूढ़ा यानी पुराना, बीता हुआ। उसका आदर है। तो बच्चे एकदम बूढ़े होने की कोशिश में लग जाते हैं। जिसका आदर है, वही होना चाहिए। उससे अहंकार को तृप्ति मिलती है। छोटे-छोटे बच्चे बूढ़ों की नकल करने लगते हैं। इसके पहले कि वे जवान हों, वे बूढ़े हो जाते हैं।
जवान को आदर नहीं है, क्योंकि नये को आदर नहीं है। युवा के लिए सम्मान नहीं है, क्योंकि ताजगी के लिए सम्मान नहीं है।
हम तो जितना बूढ़ा और मरा हुआ आदमी हो, उसको उतना आदर देते हैं। जब बिलकुल मर जाता है तो हम उसको महात्मा कहते हैं। जब बिलकुल कब्र में ही पड़ जाता है, तब फिर उसके विरोध में कोई कुछ नहीं बोलता, सब उसके पक्ष में बोलने लगते हैं, सब उसका सम्मान करने लगते हैं। क्योंकि मुर्दे का सम्मान हमें सिखाया गया है।
चैतन्य कीर्ति, जवान कहां हैं? जवान हों तो आह्वान को सुनें। जवान हों तो उन्हें मेरी बात खयाल में आए।
अब यह मंगलदास ने पूछा है। अगर इनके भीतर थोड़ा भी युवापन होगा तो यह भय को एक तरफ सरका कर रख देंगे और संन्यास की चुनौती स्वीकार करेंगे। और अगर बुढ़ापा सघन हो गया होगा तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।
मैंने सुना है, लखनऊ में ऐसा हुआ: एक महिला गर्भवती हुई, नौ महीने बीत गए, लेकिन फिर बच्चा पैदा ही नहीं हुआ। महिला की तकलीफ बढ़ती चली गई और बच्चा पैदा ही न हो। डाक्टरों ने बहुत जांच-परख की। डाक्टर और भी मुश्किल में पड़े। डाक्टरों ने कहा, बच्चा एक भी नहीं है भीतर, जुड़वां हैं, दो हैं। मगर वे पैदा ही न हों। कहते हैं, ऐसे साठ साल बीत गए। लखनऊ की कहानी है, सो जहां तक सच हो या जहां तक झूठ हो, तुम सोच लेना। मगर कहानी सार्थक है। जब साठ साल बीत गए और कोई उपाय न दिखा और स्त्री मरने के करीब आ गई तो उसने कहा कि अब तो मेरे पेट को काट कर कम से कम बच्चों को तो बचा लो, मैं तो मर ही जाऊंगी। पेट उसका चीरा गया। छह-छह इंच के दो बूढ़े निकले। वही चूड़ीदार पाजामा, अचकन, खादी की टोपी--बिलकुल गांधीवादी; और वे झुक-झुक कर एक-दूसरे से कह रहे थे: पहले आप! इसी में साठ साल लगे गए। पहले आप! पहले कौन निकले! शिष्टाचार निभा रहे थे। लखनवी शिष्टाचार--पहले आप!
कुछ यहां पैदा ही नहीं हो पाते। कुछ पैदा भी होते हैं तो मुर्दा पैदा होते हैं। कुछ पैदा भी होते हैं और मुर्दा नहीं होते तो जल्दी ही सीख लेते हैं कि मुर्दा होने में सम्मान है।
तुम जिसको अब तक संन्यास कहते रहे हो मंगलदास, वह सिर्फ मुर्दा होने की प्रक्रिया है। मैं जिसको संन्यास कहता हूं, वह जीवन है--अहोभाव है, आनंद है, उत्सव है, वसंत है।
हलका लाल, पियाबांसा है,
गहरा लाल पलाश!
फूल बन फूला फागुन-मास!

फागुन के गुन गाती कोकिल,
फूलों से अमराई बोझिल,
चटक रहे गोफन, शुकदल से
हरा हुआ आकाश!

जौ की बाली दूध भरी है,
पीली सरसों हुई हरी है,
फसल अगाई पकने आई,
आज हुआ विश्वास!

डालों की जो लाज गई अब,
पहनेंगी पोशाक नई सब;
सूखे पत्तों पर चरमर कर
ऋतुपति आया पास!

लगा डोलने पवन पछइया,
होली गाने लगा गवइया;
अंग अंग में रंग नया है,
नस नस में रस-प्यास!

हलका लाल, पियाबांसा है,
गहारा लाल पलाश!
फूल बन फूला फागुन-मास!
मेरा संन्यास वसंत है। मेरा संन्यास फागुन मास है। मेरा संन्यास फूलों की भांति है। यह जीवन का उत्सव है। यह परमात्मा के प्रति धन्यवाद है, अनुग्रह का भाव है। यह त्याग नहीं है। यह भोग भी नहीं है। यह त्याग और भोग दोनों का अतिक्रमण है। यह इस भांति भोगना है कि भोगो भी और बंधने भी न पाओ। गुजरना है ऐसे संसार से कि गुजर भी जाओ और संसार की धूल तुम पर जमने भी न पाए। संसार तुम्हें छूने भी न पाए, अछूते निकल जाओ। गीत गाते हुए निकल जाओ। यह कोई रोता हुआ संन्यास नहीं है। यह कोई उदासीन संन्यास नहीं है। यह नाचता हुआ संन्यास है।
योग प्रीतम के ये शब्द तुम्हें सहयोगी होंगे--

इस महारास में घूंघर बन बोलूं रे
मैं तेरी लीला का नर्तन हो लूं रे

तू महासूर्य सम युग-नभ में समुदित है
तुझसे ही युग-सौभाग्य-कमल प्रमुदित है
तेरे उत्सव की हर धुन पर डोलूं रे
मैं तेरी लीला का नर्तन हो लूं रे

मेरे रहने का और अर्थ ही क्या है
मेरे जीवन की और शर्त ही क्या है
मैं तेरा संकीर्तन बन रस घोलूं रे
मैं तेरी लीला का नर्तन हो लूं रे

तू मिला, मुक्ति ही मुक्ति मिली जीवन में
मैं खिला कि जब से भक्ति खिली जीवन में
प्रिय, अब तो मैं घूंघट के पट खोलूं रे
मैं तेरी लीला का नर्तन हो लूं रे

तेरी बगिया का एक फूल बन जाऊं
बन तव सागर की एक लहर, लहराऊं
तेरे सावन का मधु-वर्षण हो लूं रे
मैं तेरी लीला का नर्तन हो लूं रे

इस महारास में घूंघर बन बोलूं रे
मैं तेरी लीला का नर्तन हो लूं रे
यह तो एक नृत्य है, एक उत्सव है, एक महारास है! तैयारी हो जीवन के आनंद को अंगीकार करने की, तो आओ, द्वार खुले हैं; तो आओ, स्वागत है, तो आओ; बुलावा है, निमंत्रण है। और अगर मृत्यु के पूजक हो तो फिर पुराना संन्यास ठीक होगा। वह मरने का ढंग है। वह आत्मघात है। वह दुखवादी है।
सोच लो, विचार कर लो, तौल लो। परमात्मा जीवन है। जगह-जगह प्रमाण हैं। पत्ते-पत्ते पर प्रमाण है। हर पत्ते की हरियाली उसकी हरियाली है और हर फूल का रंग उसका रंग है। चांदत्तारों में है, सूरज में है, पहाड़ों में है, सागरों में है। सब तरफ जरा आंख खोल कर देखो, उत्सव ही उत्सव है, वसंत ही वसंत है! फूल पर फूल खिले हैं, दीये पर दीये जले हैं! सब तरफ दीवाली है।
लेकिन अगर तुम दुखवादी हो और तुम्हें दुख में ही रस आता है, तुम घावों में ही जीना चाहते हो, तुम आत्मघाती प्रवृत्ति से भरे हो, कि अपने को भूखा मारोगे, कि कांटों पर अपने को सुलाओगे, कि धीरे-धीरे क्रमशः अपनी हत्या करोगे, तो तुम्हारी मर्जी। मगर जान कर कि यह आत्मघात है--जिसको तुम पुराना संन्यास कहते रहे हो--इसमें सिर्फ रुग्ण लोग उत्सुक हुए हैं, इसमें विक्षिप्त लोग उत्सुक हुए हैं।
इसीलिए तो पृथ्वी धार्मिक नहीं हो पाई। और मैं तुमसे यह बात कह दूं कि इस पुराने संन्यास से बुद्ध का, या महावीर का, या नानक का, या कबीर का, या मीरा का कोई लेना-देना नहीं है। महावीर की प्रतिमा देखते हो? इतनी सुंदर, इतनी आनंदमग्न! और जैन मुनियों को देखते हो? इस प्रतिमा से और जैन मुनियों का कहीं कोई तालमेल दिखाई पड़ता है? कृष्ण को देखते हो? जीवन रास ही रास है! यह मोर-मुकुट, यह आनंद, यह गीत, यह चांदत्तारों के नीचे नृत्य, यह बांसुरी, ये बांसुरी पर बजी हुई धुनें, इनसे तुम उदासी देखते हो, इनमें उदासी है? इनमें कहीं उदासी की दूर की भी ध्वनि है? मगर वही संन्यासी हिंदुओं का, गीता पढ़ रहा है, उसका जीवन--न कहीं मोर-मुकुट दिखाई पड़ता है, न कहीं बांसुरी दिखाई पड़ती है, न कहीं कोई जीवन का उत्सव है, न कोई गीत, न कोई धुन, न कोई स्वर, न कोई संगीत। सब बासा और उदास!
तुम बुद्ध का मौन देखते हो, शांति देखते हो, अपूर्व प्रसाद देखते हो! बौद्ध भिक्षुओं में तो नहीं दिखाई पड़ता। वे तो मरे हुए पीले पत्ते मालूम पड़ते हैं। कुछ लोग जल्दी शीघ्रता से आत्महत्या करते हैं, जहर खा लेते हैं, पहाड़ से कूद जाते हैं, फांसी लगा लेते हैं। और कुछ लोग इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते, वे क्रमशः आहिस्ता-आहिस्ता, शनैः-शनैः आत्महत्या करते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन सिगरेट पर सिगरेट पी रहा था और बीच-बीच में शराब की भी चुस्कियां लेता जाता था। एक गांधीवादी समाज-सेविका, सर्वोदयी निकली। उसने कहा कि नसरुद्दीन, जब मैं पिछली बार आई थी तो मैं देख कर बहुत प्रसन्न हुई थी, आनंदित हुई थी, कि तुम न शराब पी रहे, न सिगरेट पी रहे। नसरुद्दीन ने कहा, बाई, उस दिन तुम प्रसन्न हो लीं, आज मुझे प्रसन्न हो लेने दो। तुम्हींत्तुम्हीं प्रसन्न होओ...। वह तुम्हारी खुशी का दिन था, आज मेरी खुशी का दिन है। कभी तो मुझे भी छुट्टी दो!
महिला तो क्रोध में आ गई। इस तरह के लोग बड़ी जल्दी क्रोध में आते है--ये जो दुनिया को सुधारने वाले लोग हैं, ये जो दुनिया के पीछे पड़े हैं, जो किसी को जीने न देंगे! खुद नहीं जीते, न किसी को जीने देंगे। वह तो क्रोध में आ गई और बोली, तुम्हें मालूम है कि तुम यह जो सिगरेट पी रहे हो, यह जहर है! निकोटिन, यह तुम्हें मार मर रहेगा। और यह शराब, यह तो बिलकुल जहर है। तुम धीरे-धीरे आत्महत्या कर रहे हो।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, बाई, मुझे कोई जल्दी नहीं है। तू अपना काम कर।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, एक दफा मैंने जल्दी की थी, तब भी नहीं हो पाई। एक बार उसने आत्महत्या करने की कोशिश की थी। बिलकुल पक्का ही कर लिया था। और करे भी क्यों न! चार-चार पत्नियां हैं। मुसलमान होने में यही तो एक खतरा है कि तुम चार विवाह कर सकते हो। एक पत्नी काफी है, एक पति काफी है। चार-चार!...आखिर घबड़ा गया। बिलकुल पक्का करके गया कि आत्महत्या कर लेनी है। और आदमी गणितज्ञ है, होशियार है, तो उसने सारा इंतजाम कर लिया। मिट्टी का तेल ले गया एक पीपा भर, एक रस्सी ले गया। पिस्तौल भी ले गया। माचिस भी ले गया। सब इंतजाम कि कोई भी बचाव न रह जाए। चढ़ गया एक पहाड़ी पर। नीचे नदी बह रही--गहरी नदी। पहाड़ी पर एक झाड़ पर उसकी लंबी शाखा है, जो पहाड़ी के बाहर तक चली गई है, उसमें उसने रस्सी बांधी। उसमें गर्दन बांधी कि पहले तो इसी में मौत हो जाएगी। नहीं हो, तो दूसरा उपाय भी उसने कर लिया। पूरा पीपा मिट्टी के तेल का अपने ऊपर डाल लिया। माचिस से आग लगा ली। मगर कौन जाने बच जाए। अरे जिंदगी में दुर्घटनाएं हो ही जाती हैं। तुम लाख उपाय करो, कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाए। सो उसने पिस्तौल से गोली भी अपने सिर में मार ली। और दूसरे दिन जब मुझे मिला तो मैंने पूछा कि नसरुद्दीन, हुआ क्या? उसने अपना सिर ठोंक लिया। उसने कहा, किस्मत! बदकिस्मती! मैंने तो गोली मारी सिर में, वह लगी रस्सी में। सो रस्सी टूट गई। नदी में धड़ाम से गिरा, सो आग बुझ गई। वह तो आपकी कृपा से कहो कि तैरना आता था, नहीं तो कल खात्मा था।
लोग दो तरह से आत्महत्याएं करते हैं: एक तो एकदम से, एक झटके में। और कुछ लोग धीरे-धीरे करते हैं। ये धीरे-धीरे आत्महत्या करने वाले लोग संन्यासी समझे जाते रहे।
मैं संन्यासी कहता हूं उसे, जो जीवन को उसकी परिपूर्णता में जीए; जो जीवन को ही परमात्मा मान कर जीए; जिसके लिए जीवन और परमात्मा पर्यायवाची हैं; जिसके लिए जीवन परमात्मा की भेंट है; जो उसे अहोभाव से जीता है; और जो अपने जीवन को जागरूकता से जीता है; और जो अपने जीवन को अतीत के लिए समर्पित नहीं करता, न भविष्य के लिए समर्पित करता है--वर्तमान में, वर्तमान की सघनता में, त्वरा में, तीव्रता में जीता है। बस जो वर्तमान में जीने की कला है उसका नाम ही संन्यास है। उससे ही महारास पैदा होता है। उससे ही आता है वसंत और हजारों फूल खिल जाते हैं! कमल पर कमल तुम्हारी चेतना में खिल जाते हैं! होश के कमल! जागृति के कमल! समाधि के कमल!
मंगलदास, सोचो। मंथन करो। मनन करो। ध्यान करो। भय तो कट जाएगा। अगर थोड़ी भी आत्मा है भीतर तो भय कटेगा ही, संन्यास घटेगा ही। आत्मवान व्यक्ति बच नहीं सकता, जो मैं कह रहा हूं, उससे अनुरंजित होने से; जो मैं कह रहा हूं, उसमें बिना डूबे। तुम भाग न सकोगे। तुम अगर यहां तक आ गए हो तो डूबो। मगर मेरी मान कर नहीं--अपने निज विचार से; अपने निज निर्णय से। मैं सिखाता हूं कि अपने दीये स्वयं बनो। अप्प दीपो भव!
आज इतना ही।


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