बुधवार, 24 मई 2017

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-04



प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 10 जून 1969; सुबह अहमदाबाद-चांदा ।
प्रवचन—चौथा-(ध्यान है द्वार)

संदेह पूर्ण हो तो संदेह से मुक्ति हो जाती है। विचार पूर्ण हो तो विचार से भी मुक्ति हो जाती है। असल में जो भी पूर्ण हो जाए उससे ही मुक्ति हो जाती है। सिर्फ अधूरा बांधता है। अर्द्व बांधता है। पूर्ण कभी भी नहीं बांधता है। लेकिन संदेह पूर्ण नहीं हो पाता और विचार भी पूर्ण नहीं हो पाता। जो संदेह भी करते हैं वे भी पूरा संदेह नहीं करते हैं। जो संदेह करते हुए मालूम होते हैं,उनकी भी आस्थाएं हैं। उनकी भी श्रद्धाएं है। उनका भी अंधापन है। और जो विचार करते हैं वे भी पूरा विचार नहीं करते। वे भी कुछ चीजों का बिना विचारे ही स्वीकार कर लेते हैं। संदेह वाला भी विचार को बिना विचारे स्वीकार कर लेता है। यदि कोई पूर्ण संदेह करेगा तो अंततः संदेह के ऊपर भी संदेह आ जाएगा। और यह सवाल उठेगा कि मैं संदेह भी क्यों करूं? और यह भी सवाल उठेगा--क्या संदेह से कुछ मिल सकता है? जो विचार पूर्ण करेगा, अंततः उसे यह भी ज्ञात होगा कि क्या विचार से उसे जाना जा सकता है, जिसे मैं नहीं जानता हूं? और क्या विचार से जो जाना जाएगा वह सत्य होगा ही? इस संबंध में कल थोड़ी सी बातें सुबह मैंने कहीं--

विचार की प्रक्रिया प्रभु मंदिर के मार्ग पर एक सीमा तक लाकर छोड़ देती है। और जो विचार में ही रुक जाता है वह दर्शन में भटक जाता है--फिलासफी में--लेकिन धर्म तक नहीं पहुंच पाता है। जो विश्वास पर रुकता है वह अंधविश्वासों में भटक जाता है--सुपरस्टीशन में। जो विचार पर रुकता है वह फिलासफीज में--विचारधाराओं में, भटक जाता है। लेकिन जो विचार से भी आगे चलता है वह वहां पहुंचता है जहां धर्म का मंदिर है। विचार के संबंध में थोड़ी और बात समझ लेनी उचित है ताकि हम विचार से ऊपर उठने की बात समझ सकें।
पहली बात तो यह है कि कोई भी विचार कभी मौलिक नहीं होता है। ओरिजनल विचार जैसी कोई चीज नहीं होती। सब विचार बासे, सांयोगिक होते हैं। विचार भी सीखे हुए होते हैं। इसलिए विचार के द्वारा हम वही जान सकते हैं जो हम जानते ही हों। जो हम नहीं जानते हो--जो अननोन हों--अज्ञात हों, वह विचार के द्वारा नहीं जाना जा सकता। सच तो यह है जो ज्ञात नहीं है, उसका विचार भी नहीं किया जा सकता। हम उसका विचार भी कैसे करेंगे जो ज्ञात नहीं। जो हम ज्ञात है, हम उसका विचार कर सकते हैं--पक्ष में--विपक्ष में सोच सकते हैं, लेकिन जो हमें ज्ञात ही नहीं है वह हमारे विचार का विषय कैसे बनेगा? हम उसे सोचेंगे कैसे? हम उसका चिंतन कैसे करेंगे, उसका मनन कैसे करेंगे? आता विचार के बाहर है और परमात्मा अज्ञात है--अननोन है। इसलिए विचार कोई परमात्मा को कभी नहीं जान सकता है।
 दूसरी बात मैंने कही, विचार भी उधार है, वह भी बारोड है। हजार तरफ से विचार की धाराएं हमारे मस्तिष्क की तरफ दौड़ती है। उन विचारों का एक मेल--ताल-मेल भीतर बैठ जाता है। हो सकता है, ताल-मेल बिलकुल नया मालूम पड़े। लेकिन फिर भी, बहुत से विचारों का संकट ही होगा। जैसे एक आदमी कहे कि मैंने एक नया विचार किया है, मैंने एक ऐसे सोने के घोड़े को सोचा है जिसके पंख हैं, और वह आकाश में उड़ता है। निश्चित ही, सोने का घोड़ा पंखों वाला, आकाश में उड़ता हुआ कभी नहीं हुआ है। यह विचार बड़ा मौलिक मालूम होता है। लेकिन यह जरा भी मौलिक नहीं है। घोड़े हम जानते हैं। सोना हम जानते हैं। पंख हम जानते हैं। उड़ना हमने देखा है। इन चार को जोड़ ?कर हम एक सोने का उड़नेवाला घोड़ा बना लेते हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है। इसमें चार पुरानी चीजों को तोड़-मरोड़कर इकट्ठा कर लिया गया है। नए विचार दिखाई ही पड़ते हैं कि नए हैं। नया विचार नहीं होता है। नया तो निर्विकार ही होता है। मौलिक विचार नहीं होता है। ओरिजनल विचार नहीं होता। ओरिजनल मौलिक अनुभूति तो निर्विचार ही होती है। विचार बासा है। उधार है। दूसरों से आया हुआ है। फिर विचार की सामर्थ्य स्मृति से ज्यादा गहरी नहीं है। वह हमारे प्राणों तक प्रवेश नहीं करता है। हमारी मेमोरी के पर्दे तक जाता है। आगे नहीं जाता।
मेरे एक मित्र डाक्टर है। ट्रेन से गिर पड़े। चोट खा गयी स्मृति उनकी। वह सब भूल गए जो जानते थे। डाक्टरी सीखी थी वह सब भूल गए। डाक्टरी तो दूर की बात हैं, अपना नाम भूल गए। अपने पिता को भूल गए। दो ही दिन बाद, मैं उन्हें देखने गया। बचपन से मेरे साथ पढ़े थे--खेले थे--लड़े थे--झगड़े थे। वे मुझे भी भूल गए। वह मेरी तरफ ऐसे देखने लगे जैसे किसी अजनबी और अपरिचित ने भी कभी नहीं देखा होगा। और वह कहने लगे--कौन है आप--और कैसे आए है? और अपने आसपास के लोगों से पूछने लगे, ये कौन हैं? और उनकी आंखों में कोई स्मरण नहीं है। वह जो स्मृति थी वह खो गयी--वह टूट गयी। वह जो टेपरेकाडिंग थी स्मृति की वह एकदम से टूट गयी। वह विस्मरण हो गया और उससे संबंध टूट गया। वह तो हैं। उनकी चेतना है। उनका प्राण है। उसका सब कुछ है। लेकिन स्मृति नहीं है। तो विचार गए। स्मृति की गहराई ही हमारे विचार की गहराई है। विचार प्राणों तक प्रवेश नहीं करता। विचार अस्तित्व तक नहीं जाता। विचार एक्जिस्टेंस तक, बीइंग तक नहीं पहुंचता। विचार सत्य तक नहीं पहुंचता। हमारे प्राणों से आस-पास जो स्मृति का, मेमोरी का यंत्र है, उस तक पहुंचता है। बस उससे गहरी उसकी कोई पहुंच नहीं है। हम कितना ही विचारे, विचार स्मृति से गहरे नहीं जाता। स्मृति का सत्य से क्या संबंध है।

स्मृति का सत्य से क्या संबंध है?

सत्य तो बहुत गहरे है। स्मृति तो बहुत ऊपर है। जैसे कोई सागर की सतह पर लहरें हैं। सागर की गहराइयों से लहरों का क्या संबंध है? लहर को पता भी नहीं कि सागर की गहराई क्या है? लहरें तो ऊपर हैं, हवाओं के झोंको से उठती है, मिटती रहती हैं। स्मृति भी ऊपर है चेतना की, ऊपर की सतह है। बाहर की हवाओं के झोंकें लगते हैं, घटनाएं घटती हैं। अनुभव होते हैं। शब्द सुने जाते हैं। याद किए जाते हैं, ज्ञान होता है। सारा अनुभव होता है। बाहर की हवाओं से झोंके लगते हैं। चेतना की ऊपर की पर्त पर स्मृति निर्मित होती है। स्मृति बाहर के झोंकों की प्रतिक्रिया से पैदा होती है। इस स्मृति को कोई भी पता नहीं है कि गहरे में, सागर में कौन है? इस स्मृति का, इस गहरे सागर से कोई भी संबंध नहीं जुड़ पाता। इस स्मृति का संबंध बाहर के संसार से जुड़ता है। स्वयं से गहरे में स्मृति को कोई भी पता नहीं है।
तो अगर कोई विचार पर ही अटकेगा तो स्मृति पर ही अटक जाएगा। और गहरे नहीं जा सकता। हम, हमारा होना और भी गहरा है। फिर यह भी ध्यान रहे कि विचार क्या है? सिवाय शब्दों के जोड़ के और क्या है? सिवाय शब्द के जोड़ के विचार और क्या है? और शब्द मग सत्य है, तब तो सभी को सत्य मिल गया होता। एक आदमी--एक आदमी पढ़ता है, सुनता है, समझता है, विचारता है, कहता है ब्रह्म ही सत्य है। शब्द उसने सीख लिया। ब्रह्म सत्य है, सीख लिया। स्मृति में बैठ गया। वह दोहराता; है--ब्रह्म ही सत्य है--जगत माया है। ब्रह्म ही सत्य है--जगत माया है। वह दोहराता चला जाता है--दोहराता चला जाता है। स्मृति मजबूत होती चली जाती है। और ऐसा प्रतीत करने लगता है--जगत असत्य है--ब्रह्म सत्य है। लेकिन, यह कोई अनुभव नहीं है। यह कोई सत्य नहीं है। यह शब्द की पुनरुक्ति से पैदा हुआ आभास है। कोई भी सत्य की पुनरुक्ति करो, उसका आभास पैदा हो जाता है, उसका अलजन पैदा हो जाता है।
तब हम कैसे जाने सत्य को? कैसे हम प्रभु मंदिर में प्रविष्ट हों। द्वार तक लाकर विचार छोड़ता है। जो विचार पर ही रुक जाते हैं, वे बहुत आगे नहीं गए। गए थोड़ा और रुक गए। विचार पर्याप्त नहीं है, नाट इनफ। कुछ और आगे जाना पड़ेगा। और उस आगे जाने से विचार छूटेगा तो ही आगे जाया जा सकता है। आदमी सीढ़ियों पर चढ़ता है, एक सीढ़ी पर पैर रखता है। आगे की सीढ़ी पर पैर रखता हो तो पिछली सीढ़ी छोड़ देनी पड़ती है। थोड़ी देर पहले उसने उस पर पैर रखा था। अब छोड़ना पड़ता है। आगे की सीढ़ी पकड़नी है तो पिछली सीढ़ी छोड़ देनी पड़ती है। विचार की सीढ़ी पर रखा हुआ पैर उठा लेना पड़ेगा तो जो सीढ़ी आएगी उसका नाम ध्यान है। ध्यान अवस्था अर्थ है, निर्विचार। ध्यान का अर्थ है चित्त की समग्र मौन अवस्था। चित्त में टोटल साइलेंट--ऐसा मौन, जहां शब्द नहीं--जहां विचार नहीं--जहां तक नहीं--जहां सिर्फ देखना है। जहां सिर्फ दर्शन है। जहां सिर्फ देखने कि शुद्ध अनुभूति है। ध्यान का अर्थ है, निर्विचार में प्रवेश। लेकिन ध्यान के नाम से और न मालूम क्या-क्या प्रचलित है जो ध्यान नहीं है। पहले हम समझ ले कि ध्यान क्या नहीं है तो समझना बहुत आसान होगा कि ध्यान क्या है?
ध्यान तीसरा सूत्र है। ध्यान प्रभु मंदिर में जहां विचार छोड़ता है उससे आगे ले जाता है। विचार द्वार पर छोड़ देना है। ध्यान द्वार के भीतर ले जाता है। ध्यान क्या नहीं है, यह समझ लेना इसलिए जरूरी है कि ध्यान के नाम से बहुत झूठे ध्यान प्रचलित हैं। बहुत सूडो मेडिटेशन प्रचलित हैं। पहली बात, ध्यान के नाम से एकाग्रता, कंसट्रेशन प्रचलित है, जो ध्यान नहीं है। साधारणतः समझा जाता है--एकाग्र हो जाना ध्यान है। एकाग्र हो जाना भी विचार की अवस्था है--ध्यान की नहीं। किसी एक विचार पर अगर कोई एकाग्र हो जाए तो वह ध्यान की अवस्था नहीं है। वह विचार की चंचल अवस्था होती है और विचार की एकाग्र अवस्था होती है जो विचार की ही अवस्था है। कोई आदमी राम पर चित्त को एकाध कर ले, कोई कृष्ण पर, कोई क्राइस्ट पर, कोई अल्लाह पर, कोई किसी और पर कोई ओम पर, कोई किसी और पर। कोई व्यक्ति किसी एक शब्द और विचार पर अपने चित्त को एकाग्र कर ले, तो भी यह ध्यान नहीं है। तो भी यह एक विचार के आस-पास घूमता हुआ चित्त है। विचार मौजूद है--और जहां विचार मौजूद है वहां ध्यान नहीं है। हां, विचार पर अगर एकाग्र किया जाए तो कुछ परिणाम होंगे। पहला परिणाम यह होगा, अगर एक ही विचार रह जाए चित्त में, तो चित्त तत्काल तंद्रा से, सम्मोहन से बेहोशी में, चला जाता है। असल में चित्त की आकांक्षा नित नए की है। प्रतिक्षण नए की है। चित्त का स्वभाव चंचलता है। वह बदलता रहे तो सुखद रहता है। अगर बिना बदली कोई चीज रह जाए तो चित्त ऊब जाता है। बोर्डम से भर जाता है। घबड़ा जाता है। घबड़ाकर सो जाता है।
आपने आज जाकर एक फिल्म देखी। कल फिर आपको वहीं फिल्म देखनी पड़े। आज बहुत अच्छी लगी। कल आप कहेंगे--ठीक है। परसों फिर आपको देखना पड़े तो आप कहेंगे, कृपा करें, अब मैं नहीं जाना चाहता। फिर और आपको देखना पड़े तो आप घबड़ा जाएंगे और एक कानून लगा दिया जाए कि अब आपको जीवन भर देखती ही पड़ेगी तो आप पागल हो जाएंगे। या विद्रोह कर देंगे कि यह मैं नहीं देखना चाहता हूं। एक ही चीज चित्त को बेचैन करती है। उबाती है। बोर करती है। घबराती है। घबराने पर एक ही रास्ता रह जाता है चित्त के सामने, ताकि वह सो जाए, ताकि वह जो एक अटका है, वह भूल जाए। एक मां अपने बच्चे को सुलाती है तो कहती है, राजा बेटा सो जा। राजा बेटा सो जा। राजा बेटा सो जाता है। मां सोचती है, शायद बहुत मधुर संगीत की वजह से सो गया तो गलत सोचती है। राजा बेटा सिर्फ ऊब गए हैं। घबरा गए हैं। उनसे कह रहे हो, राजा बेटा सो जा। राजा बेटा सो जा। वह बोर्डम से भर गए। राजा बेटा क्या, राजा बेटा के बाप के साथ यह दर्ुव्यवहार किया जाए--वह भी सो जाएंगे। यह दर्ुव्यवहार है। उसको उबाया जा रहा है। वही एक शब्द। वही एक ध्वनि। एक ही मोनोटोनस, एक रस आवाज में कही जा रही है, नींद पैदा करती है। धार्मिक सभाओं में लोग अकारण नहीं सोते। वही बात हजार दफे सुन ली। वही बात फिर कही जा रही है। सब सुनने को भी कुछ नहीं है। लोग सो रहे हैं। कुछ डाक्टर तो यह कहते हैं कि जिन लोगों को नींद न आती हो उनको धार्मिक सभा में जाना चाहिए। नींद की दवाएं भी जिन पर काम नहीं करती उन पर भी राम और कृष्ण की कथाएं काम कर जाती हैं। वे इतनी दफे सुनी गयी हैं कि अब सिवाय सोने के कुछ उपाय नहीं। वह इतनी परिचित है कि अब उबाने वाली हो गयी है। चित्त नए के प्रति जागता है। पुराने के प्रति सो जाता है। पुनरुक्त के प्रति सो जाता है। नए के प्रति थोड़ी देर जागता है। सिर्फ पुनरुक्त के प्रति सो जाता है। नया जैसी ही पुराना पड़ा--चित्त सोने लगता है! चित्त को सुलाने की तरकीब है--किसी एक ही चीज पर पुनरुक्ति पूर्वक उसे रोक लेना। एक आदमी बैठकर कहता रहे--राम-राम-राम, ओम-ओम-ओम, ये शब्द चुन ले और कहता रहे। कहता ही चला जाए। घबरा जाएगा। फिर तंद्रा पकड़ लेगी, फिर चित्त खो जाएगा। चित्त निद्रा मग चला जाएगा। सम्मोहक का शास्त्र कहता है, हिप्नोटिज्म कहता है, कोई भी एक चीज को पुनरुक्त करो--तुम बेहोश हो सकते हो। पुनरुक्ति बेहोशी लाने की दवा है। किसी भी चीज को तीव्रता से दोहराते चले जाओ और तुम सो जाओगे। चित्त अचेतन हो जाएगा, चेतन अचेतन में लीन हो जाएगा।
हजारों साल से पुनरुक्ति और एकाग्रता को ध्यान समझा जा रहा है। पुनरुक्ति और एकाग्रता सम्मोहन है। हिप्नोटिक स्लीप है--ध्यान नहीं। इधर पश्चिम में महेश योगी और उस तरह के लोग जो बातें करते हैं वे सिर्फ सम्मोहन--तंद्रा की बातें हैं। इनका ध्यान से कोई भी संबंध नहीं है। और पश्चिम में इस तरह की बातों का जो प्रभाव पड़ता है उसका कारण कुल इतना है, कि पश्चिम नींद की कमी से बेचैन और परेशान है। पश्चिम में नींद उखड़ गयी है, तनाव बहुत ज्यादा है। टेंशन बहुत है। चिंता बहुत है। आदमी सुबह से सांई तक इस तरह तना हुआ है कि रात नींद भी नहीं आती। नींद लाने की दवा चाहिए। कोई ट्रेंकोलाइजर चाहिए। लोग दवाएं ले रहे हैं। ट्रेंकोलाइजर ले रहे हैं। लेकिन ट्रेंकोलाइजर भी थोड़े दिन तक काम करता है--फिर वह भी खत्म हो जाता है। तो पश्चिम में जो नए-नए एकाग्रता के प्रभाव चल रहे हैं उसका और कोई कारण नहीं--उसका कुल कारण इतना है, कि यह मंत्र जाप से भी नींद आने में सुविधा होती है। मंत्र जाप भी निद्रा लाता है। इतना फायदा है। लेकिन निद्रा ध्यान नहीं है। तो एक तो पहली बात यह खयाल में ले लें कि कि एकाग्रता--कंसंट्रेशन, ध्यान या मेडिटेशन नहीं है। एकाग्रता बात ही और है। ध्यान बात ही और है। एकाग्रता का अर्थ है एक विचार की पुनरुक्ति, ध्यान का अर्थ है निर्विचार। विचार की पुनरुक्ति नहीं।
समझ लें, एक छोटा बच्चा है और एक कमरे में सौ पेटियां रखी हुई है। वह छोटा बच्चा एक पेटी से दूसरी पेटी पर, दूसरी से तीसरी पेटी पर कूदता है। तीसरी चौथी पर, चौथी से पांचवीं पर कूदता है। पेटी बदल जाती है। बच्चा कूदता चला जाता है। खेल खेलता है। फिर हमने निन्यानबे पेटियां अलग कर दीं, एक ही पेटी बची है। अब वह बच्चा एक ही पेटी पर जंप करता है। कूदता है। खेल अब भी जारी है, पर एक ही पेटी पर कूद रहा है। फिर हमने पेटी भी हटा दी। अब कूदने को कुछ भी न बचा। अब वह बच्चा बैठा गया हैं। अब कूदने को कुछ भी नहीं है। न एक है। न सौ है। चित्त की तीन अवस्थाएं है। एक अवस्था है। चंचल चित्त की। एक विचार से दूसरा विचार, दूसरे से तीसरा, तीसरे से चौथा, चित्त की सामान्य स्थिति है। फिर इसे रोक लो, सब विचार अलग कर लो, एक पर बचाओ। एक पर चित्त कूदता है। एक पर ही कूदता है। कूदने का काम जारी है। एक अभी भी है। एक पर ही कूदता है। कूदने का काम जारी है। एक अभी भी शेष है। फिर एक को भी हटा दो। अब कूदने को शेष नहीं रहा, कूदने की जगह नहीं रही। चित्त बैठ गया। शांत हो गया। मौन हो गया।
पहली अवस्था चंचलता की है। दूसरी अवस्था एकाग्रता की है। तीसरी अवस्था ध्यान की है। ध्यान का अर्थ है--जहां कोई आब्जेक्ट न रहा। चित्त में कोई विषय--कोई विचार--कुछ न रहा। चित्त परिपूर्ण मौन हो गया। शांत हो गया। एकाग्रता विचार की ही अवस्था है, ठहरे हुए विचार की। एक नदी भाग रही है। यह चंचल चित्त की अवस्था है। एक नदी ठहर गयी है। जम गयी है--तालाब बन गयी है। यह एकाग्रता की अवस्था है। एक नदी बची ही नहीं। धूप में सूरज में उड़ गयी है। सिर्फ खाली नदी का--रेत का पाट रह गया। नदी है ही नहीं। यह ध्यान की अवस्था है। ध्यान और एकाग्रता में फर्क किए बिना कोई समझ नहीं पाएगा ठीक से, कि ध्यान क्या है? और अधिक लोग एकाग्रता को ही ध्यान मान कर समय को नष्ट कर लेते हैं। वे सिर्फ तंद्रा में, निद्रा में अपने को सुलाते हैं। निश्चित ही नींद का भी मजा है। जीवन में दुःख है। तकलीफ है। परेशानी है। भूलने का मन होता है।
एक आदमी शराब पी लेता है। झंझट के बाहर हो गया। जितनी देर शराब में होता है, उतनी देर न दुःख है, न पीड़ा है, न परेशानी है। पत्नी बीमार है--न बच्चे को दवा की जरूरत है, न नौकरी की तलाश है। सब खत्म हो गया। आदमी ने शराब पी ली है, वह निश्चित हो गया है। सोम रस से लेकर लीसार्जिक एसिड तक, वेद के ऋषियों से लेकर अमरीका के नवीनतम ऋषि अल्डुअस हक्सले तक, शराब की नयी-नयी तरकीबें आदमी खोजता रहा है। एक आदमी शराब पीता है तो हम कहते हैं कि बुरा करता है। क्यों--बुरा क्यों करता है? बुरा इसलिए करता है कि वह सिर्फ जीवन को भूलता है। जीवन को बदलता हनीं है। और क्या बुराई है? भूलने में जीवन बदलता हनीं है। वही बना रहता है। और जितनी देर हम भूल रहे, उतना समय व्यर्थ हो जाता है। उतने समय में जीवन के दुःख को बदला जा सकता है। एक आदमी मंदिर में भजन-कीर्तन करके सब भूल जाता है। एक आदमी तीन घंटे के लिए सिनेमा में बैठकर सब भूल जाता है। एक आदमी-ढोलत्तास बजाकर जोर से नाचकर सब भूल जाता है। एक आदमी टेस्ट में भूल रहा है। एक आदमी याद में भूल रहा है। एक आदमी एक कोने मग बैठकर राम-राम-राम जप कर भूल रहा है। एक आदमी शराब पीता है। एक आदमी मैस्कलीन लेता है। मारिजुआना लेता है। अफीम लेना है। भांग-चरस-गांजा लेता है। ये सारे लोग भूलने की कोशिश कर रहे हैं। भूलने की कोशिश अलग-अलग है। अच्छी और बुरी भी हो सकती है। लेकिन बुनियादी बात एक है कि जीवन में जो दुःख है, जो पीड़ा है, जीवन में जो अंधेरा है, उसे ये भूलने की कोशिश कर रहे हैं। भूलने की कोशिश से अंधेरा मिटता नहीं, अज्ञान टूटता नहीं दुःख नष्ट नहीं होता है। फिर भूलने के बाहर आते हैं। फिर दुःख वही है। पीड़ा वहीं है। अज्ञान वहीं है।
ध्यान भूलने की कोशिश नहीं है। ध्यान जीवन को जानने की कोशिश है। जीवन के सत्य को भूलने की कोशिश नहीं है। वह फार्गेटफूलनेस नहीं है। वह पूरी रिमेंबरिंग है। वह पूरी स्मृति है जीवन के सत्य की। उसका पुरा बोध है। तो ध्यान और एकाग्रता में उल्टा संबंध है। एकाग्रता ध्यान नहीं है, और अगर एकाग्रता की कोशिश में लगे हैं तो सिर्फ निद्रा में जाने की कोशिश में लगे हैं। उससे कहीं आप ध्यान में--सत्य में--प्रभु के मंदिर में प्रविष्ट नहीं हो जाएंगे। लेकिन बहुत लोग नशे में जाकर सोचते हैं कि भगवान के मंदिर में चले गए। और इसीलिए आज हजारों किस्म के साधु-संत गांजा पीते हुए मिलते हैं। उसका कुल कारण इतना है, कि वह सोचते हैं कि नशा वह भी है। इस नशे से और सहारा ले लो और जल्दी पहुंच जाओ। नशे से कोई कहीं पहुंच नहीं सकता। किसी भी तरह के नशे से कोई भी नहीं पहुंच सकता। जागकर पहुंचना होगा, होश से भर कर पहुंचना होगा। अवेयरनेस चाहिए, बेहोशी नहीं। तो ध्यान एकाग्रता नहीं है।
फिर ध्यान क्या है? ध्यान जागरूकता है। ध्यान है चित्त के समस्त विषयों के प्रति पूरे रूप से जाग जाना। बहुत-बहुत विचार हैं मन में, और हम सोए हुए हैं।एक दिन बुद्ध बोले रहे हैं और एक आदमी सामने बैठकर पैर का अंगूठा हिला रहा है। बुद्ध अपना बोलना बंद कर देते हैं, और उस आदमी से कहते हैं कि मेरे मित्र! यह पैर का अंगूठा क्यों हिलता है?जैसे ही बुद्ध यह कहते हैं, उसके पैर का अंगूठा हिलना बंद हो जाता है। अगर आप भी बैठे होते और पैर का अंगूठा हिलाते होते, और बुद्ध कहते, आपके पैर का अंगूठा--सुनते ही बंद हो जाता। वह आदमी कहता है, मुझे पता नहीं। यों ही हिलता था। बुद्ध कहते हैं, अजीब, बात कहते हो। तुम्हारा अंगूठा और तुम्हें पता नहीं? और यों ही हिलता है? अंगूठा तुम्हारा है, कि किसी और का? तुम होश में हो या बेहोशी में? एक आदमी कुर्सी पर बैठा है और टांगें हिला रहा है। उसे कुछ पता नहीं कि टांगें क्या हिल रही हैं? एक आदमी बैठा और बार-बार करवट बदल रहा है। बैठे-बैठे करवट बदल रहा है। उसे कुछ पता नहीं कि करवट क्यों बदली जा रही है? शायद उसे होश ही नहीं, कि वह यह क्या कर रहा है? बुद्ध कहते हैं, यह अंगूठा हैं, तेरा है, और तुझे पता नहीं? हिलता है, और तुझे पता नहीं हैं, तेरा है, और तुझे पता नहीं? हिलता है, और तुझे पता नहीं?मैंने पूछा, और एकदम रुक क्यों गया? उसने कहा, जैसे ही मैं सजग हुआ--रुक गया। जब तक मैं सजग न था--चलता था। जैसे पैर का अंगूठा हिल रहा है, पैर हिल रहे हैं, और जीवन की सारी की सारी पत्तियां और शाखाएं हिल रही है। वैसे ही चित्त भी बिलकुल अनजान हिल रहा है। हमें कुछ पता नहीं कि क्या चल रहा है भीतर? हमने शायद ही अपने मस्तिष्क के भीतर झांककर, कभी बैठकर देखा हो, क्या खलता है भीतर? अगर देखें तो शायद घबड़ा जाएं। अगर दस मिनट कमरा बंद कर लें और कागज रख लें और कलम ले लें, और जो भी चित्त में चलता हो उसे लिख डालें ईमानदारी से। वही जो चलता हो, तो अपने सगे मित्र को भी बताना मुश्किल पड़ेगा। क्योंकि वह भी देखकर फौरन कहेगा कि चलो किसी डाक्टर के पास। तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। यह तुम्हारे दिमाग में चलता है। हमने कभी भीतर अगर झांककर देखा हो तो। हमारे भीतर एक बिलकुल विक्षिप्त चित्त बैठा हुआ है। क्या-क्या चल रहा है वहां? पागल में और हमने फर्क क्या है? पागल में और हममें इतना ही फर्क है कि जो हमारे भीतर चलता है हम उसे किसी तरह दबाए रहते हैं। संयम रखते हैं उस पर। वह निकल नहीं जाता है एकदम। उसको हम क्रोध कहते हैं कि जरा हमसे गलती हो गयी क्रोध से। वह निकल गया जो भीतर चलता था। लेकिन सामान्यता सम्हाले रहते हैं।
हर आदमी अपने पागलपन को सम्हाले चल रहा है। जो सम्हाल कर चल रहा है उसको हम कहते हैं नार्मल, और जो नहीं सम्हाल पाता हैं बेचारा, उसको हम कहते हैं पागल है। पागल और नार्मल में इससे ज्यादा फर्क नहीं है। डिग्री का फर्क है। कोई और ज्यादा फर्क नहीं है। हममें से कोई भी किसी भी क्षण पागल हो सकता है। जरा सा धक्का लग जाए, और वह जो भीतर सम्हला हुआ था छलक आए बाहर, तो सब गड़बड़ हो गया। यह जो भीतर लिए हम चल रहे हैं, यह जो चित्त है हमारा--यह जो माइंड है--यह जो विचार है? या हम सिर्फ इनकी तरफ पीठ किए हुए है? जिन्होंने मन को खोजा है--व कहते हैं, कि ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने कितनी ही बार आत्महत्या न की हो भीतर। कितनी ही बार कितने ही खून न किए हो। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने जितने अपराध हो सकते है उनकी किसी न किसी कोने में, मन के कहीं न कहीं अंधेरे में इच्छा न की हो। सब अपराध, सब पाप सब बुराइया, सब पागलपन हम सबके भीतर खोज रूप में मौजूद है। और उन सब के विचार डोलते रहते है। तरंगें डोलती रहती है। भीतर सब चलता रहता है। पर हम कभी जागकर उन्हें देखते नहीं हैं। हम उसकी तरफ पीठ किए हुए है। हम डरते है कि वह सब दिखाई न पड़ जाए। शायद इसीलिए हम चौबीस घंटे कहीं न कहीं उलझे रहने चाहते हैं, कि जो भीतर है वह दिखायी न पड़ जाए। दिखाई पड़ेगा तो हम घबड़ा जाएंगे कि यह क्या पागलपन भीतर है। यह मैं हूं जिसका मैं गौरव करता   हूं। गान करता हूं। यही मैं हूं। जिस अहंकार की मैं घोषणा करता हूं? इसी पागल को मैं मैं समझे हुए हूं? तो डरता है मन। हम बाहर ही बाहर हरते हैं, भीतर जाते ही नहीं। जैसे किसी घर में सांप-बिच्छू भरे हो और वह दरवाजे पर ताला लगाकर बाहर बैठा हो। और वह जानता है कि, भीतर सब सांप-बिच्छू भरे हैं। वह भीतर की बात ही नहीं करता है। अगर कोई भीतर की याद भी दिलाता है तो वह कहता है, वहां सब ठीक है। कुछ और बात करो। क्योंकि उसे पता चलता है कि जैसे ही भीतर को बात चलती है, सारे सांप-बिच्छू भीतर के खयाल में आने लगते हैं। वह कहता है, कुछ ऐसी तरकीब बताओ कि मैं भीतर-भीतर सब भूल जाऊं। मुझे तो विस्मरण चाहिए। कुछ ऐसी तरकीब बताओ कि भक्ति-भाव में लीन हो जाऊं। कुछ ऐसा बताओ समर्पण कर दूं। कुछ ऐसा बताओ कि यह सब मुझे याद ही न रहे। कुछ ऐसा बताओ कि मैं संसार से मुक्त हो जाऊं। मैं उनके भीतर जो सांप-बिच्छू भरे है, जो अंधेरा भरा है, उसे देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। और उसे पता नहीं है कि, जब तक वह देखने की हिम्मत न जुटाए तब तक वे सांप-बिच्छू बिदा न होगे। वह न देखने में ही पैदा हुए हैं। वह वहां मौजूद न होने से ही इकट्ठे हुए हैं। अगर मैं वहां चला जाऊं, पूरे होश से भर कर तो वे वैसे ही विलीन हो जाएंगे जैसे कोई दिए को लेकर अंधेरे को खोजने चला जाए और जहां-जहां जाए वहीं-वहीं अंधेरा न पाए।
हमारे चित्त की सारी रुग्णता, हमारे चित्त का सारा विष, हमारे चित्त का सारा जहर हमारी गैर-मौजूदगी से पैदा हुआ है। हम अनुपस्थित है। हर आदमी अपने भीतर एपसेंट है। एक जगह से हम बिलकुल अनुपस्थित है, वहां हम कभी नहीं जाते। प्राक्सी देने वाला भी हमारा वहां कोई नहीं है। वहां सब अंधेरा पड़ा हुआ है। वहां हम कभी जाते नहीं। हम बाहर-बाहर घूमते रहते हैं। सब तरफ घूमते हैं, एक तरफ छोड़कर--वह जगह, जो हम हैं। वह जो मैं हूं। वहां हम प्रवेश नहीं करते, वहां हम कभी नहीं जाते। ध्यान का अर्थ है, वहां जाना। ध्यान का अर्थ है--चित्त में जो है, उसके प्रति जागना। ध्यान का अर्थ है--जो भी है बुरा--भला--गंदा--पागलपन--उस सबके प्रति होश से भरना। लेकिन, होश से वही भर सकता है जो चित्त के प्रति दमन से न भरा हो। इसलिए ध्यान की प्रक्रिया में दमन नहीं। यह ध्यान का पहला, सूत्र है। सप्रेशन नहीं। क्योंकि जिन आदमी ने दमन किया, वह भीतर जाने से डरेगा। उसने भीतर सब गंदगी इकट्ठी कर दी। अब वह भीतर जाने से घबड़ाएगा। उसे पता है कि भीतर क्या-क्या है? और हम सबने दमन किया है। क्रोध का, काम का, लोभ का, सबका दमन किया है। भीतर सब इकट्ठा हो गया है। और वह सब इतना इकट्ठा हो गया है कि वहां जाने की हिम्मत भी जुटानी मुश्किल मालूम पड़ती है। वहां हम नहीं जाना चाहते। लेकिन ध्यान रहे, प्रभु मंदिर के द्वार तक पहुंचने में वहां से गुजरना ही पड़ेगा। अपने से गुजरे बिना कोई प्रभु तक नहीं पहुंच सकता। अपने से गए बिना कोई प्रभु तक नहीं पहुंच सकता। कोई भी हो, और कहीं से भी चले, एक रास्ते से गुजरना ही पड़ेगा। वह जो मैं हूं। उससे गुजरे बिना कोई परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता। मैं ही द्वार हूं। और इस द्वार से गुजरना ही पड़ेगा। और इसी द्वार से हम डर गए हैं। दमन के कारण डर गए हैं। हमने वहां सब छिपा दिया है। वहां हम देखने को भी जाने को राजी नहीं है, कि वहां क्या है?
ध्यान का अर्थ है--दमन नहीं--जागरण। जा भी चित्त में है उसे दबाना नहीं। दबाने का मतलब होता है, अनकांसेस में धकेल दो। अंधेरे मग धकेल दो, जहां दिखायी न पड़े। जैसे कोई आदमी अपने घर में तल-घर बना लेता है। जो भी कचरा, कूड़ा, कबाड़ है, किसी की हत्या कर दी, किसी की चोरी कर लाए, वह सब तल-घर मग डालता चला जाता है। नीचे तल-घर भरता चला जाता है। वह किसी को बताता नहीं कि मेरे घर में तल-घर है। क्योंकि वहां उसने हत्याएं की हैं। वहां वह दूसरों की स्त्रियों को उठा लाया है। वहां दूसरे का धन ले आया है। वहां उसने क्या नहीं लिया है? वह तल-घर किसी को बताता नहीं है। खुद भी वहां जाने से डरता है। वहां उसने जो कुछ किया है वह इतना घबड़ाने वाला है कि मैं कहां कैसे जाऊं। हमने अपने चित्त को दो हिस्सों में बांट रखा है। एक तो वह चित्त है--थोड़ा सा ऊपर का बैठकर खाना--जहां हम मेहमानों का स्वागत करते है, और अच्छी-अच्छी बातें करते हैं। बिलकुल झूठा है बैठकखाना। बैठकखाना से झूठी कोई जगह घर में दूसरी नहीं होती। बैठकखाना असली जगह नहीं है। वहां जो पर्दे हमने लगाए हैं और वहां जो फर्नीचर हमने लगाया है, वह सब दिखावा है। वह सिर्फ उनके लिए है जो बाहर से आते हैं, उनके लिए धोखा है। लेकिन कोई धोखा-वोखा नहीं खाएगा, क्योंकि ऐसे ही धोखा उन्होंने भी अपने घर में बना रखा है। बैठकखाना झूठी जगह है। वह हमारा असली घर नहीं है। असली घर तो बैठकखाने के पीछे शुरू होता है, और वहां जो है वहां हम खुद भी जाने से डरते हैं।
एक तो चित्त का वह हिस्सा है जिसे कांसेस कहें, चेतन कहें। चित्त दो हिस्सों में बंटा नहीं है। हमने बांट दिया है। एक हिस्सा वह है, जिसको चेतन कहें। वहां हम मेहमानों का स्वागत करते हैं, नमस्कार करते हैं, अभिवादन करते हैं, अच्छी-अच्छी बातें करते हैं। शिष्टाचार के नियम हैं। समाज है। संस्कृति है सभ्यता है। वह बस वही है। वह बहुत छोटा हिस्सा है। अगर हम मन के दस खंड करें तो वह एक खंड है। नौ खंड अंधेरे हैं भीतर। वहां असली आदमी रहता है, खूंखार, जंगली। हजारों लाखों वर्षों से आदमी वहां रहा है--वही वहां रहता है। वहां न सभ्यता है, न संस्कृति है, न शिष्टाचार है। वहां हम असली हैं। वहां हम जाते ही नहीं। वहां हम झांकते ही नहीं हैं। हम तो उसी बैठकखाने में जिंदगी गुजारने की कोशिश करते हैं जो बिलकुल झूठा है। और तब हम की सत्य तक नहीं पहुंच सकते हैं। अपने नौ खंडों को भी जानना पड़ेगा। इन नौ खंडों से बचकर भागने का उपाय नहीं है। शराब में आदमी इन्हीं नौ खंडों से मानता है, और मंत्र जाप में भी इन्हीं से भागता है। प्रार्थना-पूजा में भी इन्हीं से भागता है। मेस्कलीन और लिसर्जिक एसिड में भी इन्हीं से भागता है। सिनेमा में, संगीत में, नाच में भी इन्हीं से भागता है। आदमी अपने ही उन खंडों से भागता है, जिन्हें वह देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता, साहस नहीं कर पाता।
लेकिन साधक को उसे देखना ही पड़ेगा। जाना ही पड़ेगा। उसे प्रवेश करना ही पड़ेगा। उसे अपने उस पूरे चित्त में जाना पड़ेगा जहां वह कभी नहीं गया है। ध्यान का अर्थ है, अपने अचेतन में सचेत प्रवेश। ध्यान का करूंगा। उसका। उसे देखूंगा कि वह क्या है? जरूरी है इसके लिए, कि मैं दमन करूं। जरूरी है, इसके लिए, कि मैं चित्त की किसी वृत्ति के प्रति कोई निर्णय न लूं। कोई जजमेंट न लूं। क्योंकि जैसे ही मैंने निर्णय लिया, तो जिसको मैं बुरा कहता हूं उसको मैं सामने न लाना चाहूंगा। जिसे मैं बुरा कहता हूं उसे मैं हटा दूंगा और जिसे अच्छा कहता हूं उसे क्षार पर लगा दूंगा। फिर खंड-खंड चित्त शुरू हो जाएगा। जिस आदमी को ध्यान करना है उसे जजमेंट--उसे निर्णय--कि यह बुरा है, यह अच्छा है, यह कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। उसे इतना ही जानना है कि क्या है? जो है उसे मैं जानूंगा। वह बुरा हो, भला हो, पाप हो, पुण्य हो, वह जो भी हो, मैं कोई निर्णय नहीं लेता। मैं अनिर्णीत--मैं बिना किसी निर्णय के जाऊंगा और देखूंगा कि क्या है? और बड़े आश्चर्य की बात है, जो आदमी निर्णय नहीं लेता पूर्व से, यह बुरा है, यह अच्छा है, यह पाप है, यह पुण्य है, यह करना है, यह नहीं करना है, यह होना है, यह नहीं होना है। ऐसा जो डिवीजन, खंड नहीं करता, उसका चित्त अखंड हो जाता है। और जो आदमी अपने चित्त की उसकी समग्रता में अत्यंत निष्पक्ष भाव से साक्षी बन कर देखने की हिम्मत जुटाता है उस आदमी के जीवन में एक क्रांति आनी शुरू होती है, जिसका हमें कुछ भी पता नहीं है। जैसे ही वह निष्पक्ष होकर देखना शुरू करता है, वे सारी बातें, जो कल तक बड़ी भारी मालूम पड़ती थीं, विदा होने लगती हैं। छायाओं की तरह विदा होने लगती हैं। यह निष्पक्ष साक्षी भाव, यह बिना चुनाव के, बिना निर्णय के, चित्त में जो भी उसे देखने की हिम्मत और साहस ध्यान का लक्षण है। ध्यान का अर्थ हुआ--जो भी मेरे भीतर है उसे मैं जानूं और देखूं। न निर्णय करूं, न बुरा कहूं, न भला कहूं। न कंडमनेशन न जस्टीफिकेशन। जो भी है उसे मैं देखूं और जानूं कि यह है। सिर्फ इतना ही--ध्यान का इतना ही अर्थ है कि चित्त के समस्त पर्तों के सामने निष्पक्ष भाव खड़े हो जाना। लेकिन हम--हम बड?ी अजीब मनोदशा में हैं। हम तो किसी चीज के साथ निष्पक्ष खड़े ही नहीं हो सकते। हम तो किसी भी चीज के साथ बिना पक्ष लिए एक क्षण नहीं ठहर सकते। अगर गुलाब के फूल के पास खड़े होगे तो यह बिना कहे नहीं ठहर सकते कि सुंदर है। ऐसा नहीं हो सकता कि हम कुछ न कहे और दो क्षण गुलाब के फूल के साथ ठहर जाए। जो भी हो गुलाब का फूल--सुंदर हो कि असुंदर हो--हम कुछ न कहे--हमारा चित्त कोई निर्णय न ले। सिर्फ फूल को देखे और ठहर जाए। हम नहीं ठहर सकते। हम चांद को देखें और ठहर जाए, और निर्णय न ले कि सुंदर है, असुंदर है। एक स्त्री का चेहरा दिखाई पड़े, सुंदर युवक का चेहरा दिखाई पड़े, तो यह असंभव है कि हम यह सोचे बिना, एक क्षण रुक जाए, कि इसे मैं पा लूं। इसका मैं मालिक हो जाऊं। हमारी सारी आदत तत्काल पक्ष निर्णय करने की है। हम निष्पक्ष एक क्षण भी नहीं ठहरते। ध्यान का अर्थ है--निष्पक्ष, जो है उसके पास ठहर जाना। कुछ निर्णय न लेना जल्दी में। क्योंकि जैसे ही निर्णय लिया, ध्यान विदा हुआ, विचार शुरू हुआ। इसे समझ लेना। जैसे ही निर्णय लिया, ध्यान गया, विचार शुरू हुआ। निर्णय विचार है--पक्ष विचार है। जैसे ही मैंने कहा, गुलाब का फूल सुंदर है, विचार शुरू हो गया, फूल विदा हो गया। दर्शन समाप्त हुआ। ध्यान का अंत हुआ। विचार बीच में आ गया। अगर मैं यह न कहूं कि गुलाब का फूल सुंदर है, अगर मैं यह न कहूं कि पहले भी इस फूल को देखा था, अगर मैं यह न कहूं कि इसे मैं तोड़कर अपने बटन-होल में लगा लेना चाहता हूं। अगर मैं यह कुछ भी न कहूं। गुलाब वहां हो--मैं यहां होऊं, बीच में कोई विचार न हो। तब गुलाब और मेरे बीच जो मिलन होगा वह ध्यान हुआ। और ऐसे ही हम अपने चित्त के सारे फूल, सारे कांटे, जो भी वहां है, उसे देखें। उसका दर्शन करें। उसे इस दिशा में थोड़ा प्रयोग करना पड़े। इसकी थोड़ी आदत बनानी पड़े। इस तरफ थोड़ा अभ्यास ले जाना पड़े। क्योंकि हमारी निरंतर की आदत, दर्शन हुआ नहीं की, शब्द हमने दिया नहीं। कुछ हुआ और हमने फौरन शब्द दिया, कि यह ऐसा है। और पह शब्द द्वार पर खड़ा हो गया। दर्शन बंद हो गया। ध्यान विलीन हो गया। ध्यान का अर्थ है, निःशब्द निर्विचार साक्षी भाव। थॉटलेस विटनेस। कोई विचार नहीं, सिर्फ साक्षी भाव। सिर्फ देख रहा हूं। इसे बाहर भी प्रयोग करें। फूल के पास से गुजरे तब भी। पत्नी के पास से गुजरें तक भी। बेटे के पास से गुजरे तब भी। पति जब सामने हो तब भी। अनजान आदमी रास्ते से गुजरता हो तब भी। आकाश का तारा देखें तब भी। बाहर भी प्रयोग करें ध्यान का। चुप हो जाए। देखें, जो है, और फिर खोजें, कि क्या होता है सिर्फ देखने से? फिर भीतर भी प्रयोग करें। जब विचार चले तब, क्रोध चेले तब। जब काम चले, सेक्स चले तब। तब देखें, क्या है भीतर, कौन सा धुआं चल रहा है? देखूं मैं, चुप होकर देखूं। क्या है, उसे पहचानूं। आर पहचान तभी सकूंगा जब पूरा देखूं। बीच में कुछ न आने दूं। बाहर भी, भीतर भी, ध्यान का प्रयोग चले तो विचार से मुक्ति होगी। और जो है, उसे जानने की क्षमता प्रगाढ़ होगी। और एक बिलकुल नया द्वार खुलेगा, जिसकी हमें अब तक कोई पहचान नहीं है। एक बहुत सौंदर्य की अनूठी संभावना खुलेगी, जिसे हमने कभी नहीं जाना। एक सत्य की बिलकुल नयी हवा चलेगी जिससे हम बिलकुल अपरिचित है। कुछ ऐसे फूल खिलेंगे, कुछ ऐसी सुगंध होगी जिसे हम पहचानते नहीं। कुछ अज्ञात हममें प्रवेश करेगा।
ध्यान के अतिरिक्त अज्ञात कभी प्रवेश नहीं कर रहा है। विचार तो ज्ञात की ही पुनरुक्ति है। और जब हम एक फूल के पास खड़े होकर कहते है कि हां, देखा है, पहचाना है, रिकग्नाइज करते हैं, विचार पुराना है। पहले के देखे फूल हैं। यह फूल कब देखा था? यह फूल तो कभी नहीं देखा था। यह तो परमात्मा भी पहली ही बार देख रहा होगा। यह तो किसी ने कभी नहीं देखा था। इस फूल को देखने के लिए सब फूल विदा हो जाए। सब शब्द विदा हो जाए। सीधा मैं इसके रास्ते खड़ा हो जाऊं। जैसा फूल के लिए वैसा स्वयं के लिए है। चित्त की समस्त स्थितियों के सामने मैं खड़ा हो जाऊं। सीधा खड़ा हो जाऊं, जो भी है उसे देखूं। डरूं भी नहीं। बहुत बुरा दिखाई पड़ेगा। लेकिन वह बुरा इसीलिए मालूम होता है कि हमने बुरे की धारणा बना रखी है। प्रशंसित भी न हो जाऊं। बहुत पुण्य भी दिखाई पड़ते है। बहुत प्रेम भी वहां दिखाई पड़ सकता है, लेकिन प्रशांति भी न होऊं। निंदित भी न होऊं, क्योंकि जैसे ही मैं वह हुआ, मन, चित्त डांवाडोल हुआ। ध्यान विलीन हुआ। विचार शुरू हुआ। विचार का कंपन बीच में न आए। एक दर्पण की भांति--जैसे खाली दर्पण जिस पर कोई धूल नहीं है वैसे। मैं स्वयं की देखने की दिशा में चलूं। इस प्रक्रिया का नाम ध्यान है। ध्यान है आत्म-निरीक्षण। ध्यान है स्वयं के प्रति साक्षी भाव। ध्यान है--अपने ही लिए विटनेस हो जाना।
स्वामी राम अमरीका गए। वहां लोग बड़ी मुश्किल में पड़े, क्योंकि स्वामी राम की आदत से वह परिचित ही न थे। राम हमेशा थर्ड पर्सन में बोलते थे। वह ऐसा नहीं बोलते थे कि, मैं गया, एक जगह, और कुछ लोग मुझे गाली देने लगे। वह ऐसा ही कहते थे कि आज बड़ा मजा हुआ। राम गए एक जगह, कुछ लोग राम को गालियां देने लगे। लोगों ने कहा, आप किसके बाबत कहते हो? राम यानी आप ही न! राम ने कहां--मैं कहां! मैं तो दूर खड़ा देखता था। राम को गालियां पड़ती थी। राम बेचैन होते थे। राम गुस्से में भरते थे। मैं दूर खड़ा देखता था और हंसता था। अच्छे फंसे राम। आज अच्छे फंसे। क्या गालियां पड़ रही हैं। अब क्या करोगे? और राम जो करते थे वह मैं देखता था। बड़ी मुश्किल थी लोगों को समझने में कि यह आदमी क्या कह रहा है? कभी आपने भी यह हिम्मत की है? कि आप दूर खड़े हो गए हों, और देखा हो कि यह चित्त क्या करता है? ये राम क्या करते हैं? जब इन गालियां पड़ती हैं तब ये क्या करते हैं? कभी आप दूर खड़े हुए, कभी आप तीसरे आदमी बने? अगर नहीं बने तो ध्यान का आपको कोई पता नहीं हो सकता। ध्यान का अर्थ है--तीसरे आदमी बन जाना। हम हमेशा दो आदमी है आप मेरे पास आए और मुझे गाली दें--वहां दो आदमी है। एक आप, गाली देने वाले--एक में, गाली का उत्तर देने वाला। लेकिन एक कोई और भी है न! जो देख रहा है यह सब कि गाली दी गई। गाली ली गई। गाली का उत्तर लिया गया। वह तीसरा भी मेरे भीतर है न। आपके भीतर भी तीसरा है। वहां चार हैं। लेकिन प्रत्येक के लिए तीन हैं। एक यह--जिसको गाली दी जा रही, यह जो बेचैन हो रहा गाली सुनकर। और एक वह, जो गाली दे रहा--एक जो इन दोनों को देख रहा है। यह तीसरा निरखना चाहिए तो ध्यान विकसित होगा। ध्यान, यानी यह तीसरा, दी थर्ड। यह साफ होना चाहिए। थोड़ा प्रयोग करके देखें, और बहुत हैरानी होगी। पैर में चोट लगी है, दर्द हो रहा है, सिर दुख रहा है। थोड़ा देखें, वहां दो हैं या तीन। दर्द है दर्द जिसे हो रहा है, कोई एक और भी जो दोनों को देख रहा है--दर्द भी है और दर्द हो रहा है और कोई एक और भी है। एक और भी है। वह एक और भी साक्षी होने से क्रमशः प्रकट होगा।
सिकंदर हिंदुस्तान आया। वापस लौटता है। उसके मित्रों ने कहा, एक संन्यासी भी ले आना। सब लूटकर जब जाने लगा तो एक गांव में खयाल आया कि एक संन्यासी और ले आए। तो पूछा किसी से, कोई संन्यासी होगा? या एक संन्यासी। दो सिपाही भेजे, कि ले जाओ उसको और कहो कि हम तुम्हें शाही सम्मान देंगे। सुविधा देंगे। आदर देंगे। हमारे साथ यूनान चलो। महान सिकंदर की आज्ञा है। वे सिपाही नंगी तलवार लेकर गए और उस संन्यासी से कहा कि चलो, महान सिकंदर ने कहा है। वह संन्यासी हंसने लगा। उसने कहा, पागल है जो स्वयं अपने को महान कहता हो। उन्होंने कहा, तुम्हें पता नहीं, तुम किसको पागल कह रहे हो? मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम्हें आज्ञा दी गयी है, चलो हमारे साथ। उस संन्यासी ने कहा, तुम्हें शायद पता नहीं--संन्यासी का अर्थ ही यह होता है कि--जिसने सबकी आज्ञा पालना छोड़ दिया। अब हम किसी की आज्ञा नहीं पालते हैं। अब हम किसी की आज्ञा पालते ही नहीं। उन लोगों ने कहा--तुम्हें पता नहीं--सिकंदर गर्दन अलग करवा देगा। उसने कहा, तुम सिकंदर से जाकर कहना, कि संन्यासी होने का अर्थ ही यह होता है कि हम जानते हैं, कि गर्दन अलग है। उसे अब अलग करने का कोई सवाल नहीं है। वह है ही अलग। सिकंदर को खबर की गयी। सिकंदर खुद गया। और उसने कहा, तुम भयभीत नहीं होते? यह तलवार देखते हो? उस संन्यासी ने कहा, भयभीत! जो भयभीत होता है उसको भी मैं देख रहा हूं। जो भयभीत कर रहा है, उसको भी मैं देख रहा हूं। और मैं? मेरा कोई लेना-देना नहीं है। न भयभीत करने वाले से--न भयभीत होने वाले से। दोनों को देख रहा हूं। पता नहीं सिकंदर समझा या नहीं समझा। लेकिन उसने कहा, अच्छा होगा कि तुम मेरे साथ चलो, अन्यथा मैं तुम्हें खत्म करके जाऊंगा। उस संन्यासी ने कहा--तुम खत्म करो--बड़ा मजा होगा। तुम भी देखोगे कि गर्दन गिरी और मैं भी देखूंगा कि गर्दन गिरी हम दोनों देखेंगे, गर्दन को गिरते।
यह जो देखने वाला है भीतर--यह ध्यान है। यह जो देखने की क्षमता है। यह ध्यान है। यह जीवन को खड़े होकर जो भी हो रहा है उसको देखने की जो क्षमता है वह ध्यान है। तीसरा सूत्र है--ध्यान--जीवन को देखें। मन को देखें। जो हो रहा है उसको देखें। एक द्रष्टा हो जाएं। लड़ें न। निर्णय न करें। चुनें न। देखें--देखें। लेकिन हमें तो देखना बहुत मुश्किल है। हम तो नाटक भी देखते जाते हैं तो वहां भी भूल जो हैं, कि सिर्फ देखने वाला हैं, और यह भी भूल जाते हैं, कि जो हो रहा है पर्दे पर--वह जो फिल्म के पर्दे पर घटित हो रहा है, वह सिर्फ बिजली का खेल है। छाया और धूप का। वहां कोई है नहीं। वहां कोई दुःख की घटना घटती है और देखें हॉल में। लोग एक-दूसरे से बचाकर आंसू पोंछ रहे है। देख लेते हैं आसपास कि कोई देख तो नहीं रहा है? और इसलिए सिनेमा में अंधेरा बड़ा सहयोगी होता है। अंधेरा बड़ा उपयोगी है। किसी दिन अगर सिनेमा प्रकाश में होने लगा तो इतना मजा नहीं देगा, क्योंकि बड़ा डर लगेगा कि कोई देखन ले। आंसू पोंछ रहे हैं लोग। क्या देखकर आंसू पोंछ रहे हैं? पर्दे को। पर्दे पर चलती हुई विद्युत की किरणों की बनी छाया, घूप और छाया की रेखाओं को? वहां कोई भी तो नहीं है।
विद्यासागर एक नाटक देखने गए थे कलकत्ते में। और इतने उत्तेजित हो गए नाटक देखकर--एक आदमी है जो पीछे पड़ा है। एक औरत के। वह उसे परेशान कर रहा है। आखिर में अंधकार में एक घने जंगल में उसने स्त्री को पकड़ लिया है। वह बलात्कार करने को है ही, कि विद्यासागर भूल गए। छलांग लगाकर मंच पर चढ़ गए। निकाला जूता और मारने लगे उस पात्र को। उस पात्र ने विद्यासागर से ज्यादा बुद्धिमत्ता दिखायी। वह जूता हाथ में लेकर उसने नमस्कार किया और लोगों से कहा--इतना बड़ा पुरस्कार अभिनय का मुझे कभी नहीं मिला। विद्यासागर जैसा बुद्धिमान आदमी अभिनय को समझ गया सच है। इस जूते को सम्हालकर रख लूंगा। अब इसे मैं विद्यासागर जी--आपको दूंगा नहीं। यह मेरा सबसे बड़ा पुरस्कार है। यह याद रहेगा कि कभी अभिनय ऐसा किया था कि सत्य मालूम पड़ गया। और विद्यासागर को भी लगा कि सच है। भूल गए कि नाटक हो रहा है।
साक्षी वहां भी हम नहीं रह पाते--नाटक में। तो जिंदगी में कैसे रह पाएंगे? नाटक को हम ऐसा समझ लेते हैं कि जिंदगी है। और ध्यान करने वाले को जिंदगी ऐसी समझनी होगी जैसे नाटक है। ध्यान में जाने वाले को जानना होगा कि क्या है यह सब? किसी ने गाली दी है, तो क्या है? शब्दों की, कुछ ध्वनियों की, टंकार। जो कान के पर्दों को हिला जाती है। और क्या है? और किसी ने जूता फेंककर मार दिया और सिर पर लगा है जूता। तो क्या है--कुछ अणुओं का कुछ और अणुओं पर दबाव, और क्या है? ध्यान वाले को जानना पड़ेगा। और किसी ने काट दी है गर्दन, और गुजर गयी है तलवार गर्दन से। आरपार हो गयी है। जगह भी वहां--इसीलिए आरपार हो गयी है। चीजें अलग थीं, इसीलिए अलग हो गयी हैं। और क्या है? ध्यान के प्रयोग में निरंतर जानना होगा कि है क्या? और खोज करनी पड़ेगी और जागना पड़ेगा। और तब धीरे-धीरे बहुत अदभुत होगा और अदभुत के द्वार खुलने लगेंगे। साक्षी जैसे ही मन होता है वैसे ही वैसे एक अनुपम शांति, एक सन्नाटा, एक शून्य आने लगता है। बीच में जगह खाली--स्पेस पैदा होने लगती है। आकाश बीच में आने लगता है। चीजें अपनी सचाई में दिखाई पड़ने लगती हैं। नाटक नाटक हो जाता है। और जब नाटक नाटक हो जाता है तब संभावना उतरी है उसकी, जो सत्य है। जब तक नाटक सत्य है, तब तक सत्य असत्य ही बना रहेगा। जब नाटक नाटक हो जाएगा असत्य असत्य हो जाएगा। दी फाल्स इज नोन ऐज दी फाल्स। जब हम भ्रामक को--मिथ्या को, जान लेंगे, मिथ्या है--तब उसकी प्रतीति, उसका उदघाटन--उसका--वह जो सत्य है--जो मिथ्या नहीं है, वह उतरना शुरू होता है। ध्यान द्वार में प्रवेश है। लेकिन प्रभु में पहुंच जाना नहीं।
ध्यान द्वार में प्रवेश है। मैं आपके मकान में प्रविष्ट हो गया--लेकिन यह आपमें पहुंच जाना नहीं। और प्रभु मंदिर में पूर्ण प्रवेश तो जब प्रभु में हम एक ही हो जाए, तभी संभव होता है। तो तीसरा सूत्र है ध्यान--साक्षी भाव। इसमें द्वार खुल जाएगा। आप भीतर पहुंच जाएंगे। लेकिन फिर भी एक रुकावट है। प्रभु और है--आप और है। मंदिर में पहुंच गए, वह और है, आप और हैं। सत्य दिखायी पड़ा है। लेकिन सत्य वह रहा--आप यह रहे। अब यह फासला भी टूट जाएगा। तो ही सत्य को उसकी परिपूर्णता में जीया और जाना जा सकता है। अभी सत्य को देखा गया बाहर से--दूर से--अभी सत्य को पहचाना गया बाहर से देर से। अभी सत्य ही नहीं हो जाया गया है। सत्य को जानना ही नहीं है। सत्य को जीना भी है। सत्य को देखना ही नहीं है। सत्य को जाना भी है। परमात्मा में पूर्ण प्रवेश स्वयं के परमात्मा हुए बिना नहीं हो सकती है। ध्यान के भी ऊपर उठना होगा।
कल, चौथे सूत्र में हम ध्यान के भी पार चले। समाधि की ओर। मेरी बातों को इतनी शांति से सुना उससे अनुगृहीत हूं, और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
अहमदाबाद
दिनांक १० जून १९६९; सुबह


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