बुधवार, 24 मई 2017

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05



प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक 10 जून 1969, शाम अहमदाबाद-चांदा।
प्रवचन-पांचवा-(साक्षी भाव है द्वार)

मेरे प्रिय आत्मन,
पिछली चर्चाओं के आधार पर मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं एक मित्र ने पूछा है कि आप गांधीजी की भांति हरिजनों के घर में क्यों नहीं ठहरते हैं?

एक छोटी सी कहानी से समझाऊं। जर्मनी का सबसे बड़ा पादरी आर्च प्रीस्ट एक छोटे-से गांव के चर्च का निरीक्षण करने गया था। नियम था कि जब वह किसी चर्च की निरीक्षण करने जाए तो चर्च कि घंटियां उसके स्वागत में बजाई जाती थीं। लेकिन उस गांव के चर्च की घंटियां न बजीं। जब वह चर्च के भीतर पहुंचा तब उसने उस चर्च के पादरी को पूछा कि मेरे स्वागत में घंटियां बजती हैं हर चर्च की। तुम्हारे चर्च की घंटी क्यों नहीं बजी? उस पादरी की आदत थी, कि वह कोई भी कारण बताए, तो उसका तकिया कलाम था, वह इसी में शुरू करता था, कि इसके हजार कारण है। उसने कहा--इसके हजार कारण हैं। पहला कारण तो यह कि चर्च में घंटी भी नहीं है। उस आर्च प्रीस्ट ने कहा, बाकी कारण रहने दो, उनके बिना भी चल जाएगा। यह एक ही कारण काफी है।

मुझसे आप पूछते हैं, मैं हरिजन के घर क्यों नहीं ठहरता? पहली तो बात यह कि मेरी दृष्टि में कोई हरिजन नहीं है। उसको ढूंढूं कहां? आदमी हैं। हरिजन नहीं हैं। गांधीजी की दृष्टि में हरिजन होंगे, इसलिए वह हरिजन का घर ढूंढूं लेते हैं। यह ध्यान रहे, अछूत और शूद्र बड़े अच्छे शब्द थे। यह हरिजन बहुत खतरनाक शब्द है। अछूत और शूद्र में एक चोट थी, एक दर्द था, एक पीड़ा थी। अछूत और शूद्र अपने को कोई कहने में घबराता था--बुरा मानता था। यह हरिजन बहुत खतरनाक शब्द है। इसे कहने में अकड़ मालूम पड़ती है, कि हम हरिजन है। बोल वही है। बीमारी का नाम बदल देने से बीमारियां नहीं बदल जाती है। और जहर के ऊपर शक्कर लगा देने से सिर्फ मरने की सुविधा हो जाती है। मरने में आसानी हो आती है। और कुछ भी नहीं होता। ये हरिजन जैसे शब्द बड़े खतरनाक है। किसी भी तरह से हरिजन को रिकग्नेशन देना हरिजन को बचाने की तरकीब है। चाहे उसको गाली दो, और चाहे सम्मान दो। और चाहे उसे छुओ मत और चाहे उसके घर ठहरने का आयोजन। करो। लेकिन हरिजन की स्वीकृति, रिकग्नेशन, कि यह आदमी हरिजन है, छूने योग्य नहीं है। इसके घर ठहराना जरूरी है, बड़ी ऊंची बात है। इन दोनों स्थितियों में हरिजन आता है और बचाया जाता है। हरिजन को मिटाना है--बचाना है।
लेकिन गांधीजी के साथ एक कठिनाई थी। बड़ी बीमारी--वह हिंदू नाम की जो बीमारी है, उसके वह बड़े प्रेमी थे। उसी बीमारी की यह छोटी संतति, यह जो हरिजन है। यह जो शूद्र है। अदभुत है। उसी बड़ी बीमारी की पैदाइश है। उस बड़ी बीमारी को तो वह बचाना चाहते थे और उसी बड़ी बीमारी के भीतर इस छोटी बीमारी के लिए भी कोई समझौते का रास्ता खोजना चाहते थे। सच तो यह है, कि हिंदू, मुसलमान, ईसाई, ये सारी बीमारियां मिटनी चाहिए। और जो लोग हिंदू समाज के भीतर दुःखी अनुभव करते थे उन्हीं हिम्मत जुटानी चाहिए, कि वह कहें कि हम हिंदू नहीं है। क्या जरूरत है उन्हें हिंदू होने की? हिंदू होने से उन्हें क्या दिया है? लेकिन अगर वे हिम्मत भी जुटाए कि हिंदू नहीं है, तो वह कहेंगे कि हम मुसलमान होते है। हम ईसाई होते है। हम बौद्ध होते हैं। एक जेल से छूटे नहीं कि वह फौरन पूछते हैं कि हम किस जेल में जाए? अंबेडकर ने थोड़ी हिम्मत जुटाई और कहा कि छोड़ दो हिंदू धर्म। लेकिन हिम्मत पूरी नहीं है वह भी। अंबेडकर ने इधर हिम्मत जुटायी--तत्काल दूसरे जेल में भिजवा दिया। हो सकता है--दूसरा जल थोड़ा कम्फर्टेबल हो। कम्फर्टेबल जेल और खराब होते हैं। क्योंकि उनको छोड़ने का मन भी हनीं होता। हिंदू से हटो--बौद्ध हो जाओ। ईसाई हो जाओ, मुसलमान हो जाओ। वह भी सब पागल घर हैं। भी एक पागल घर है, हरिजनों को--अछूतों को, शूद्रों का, मुक्त हो जाना चाहिए सब जेलों से। कह देना चाहिए--हम सिर्फ निपट आदमी है। और हम किसी के साथ जुड़ते नहीं। लेकिन वह भी उत्सुक हैं कि उनको हरिजन माना जाए। वह भी बड़े उत्सुक हैं कि उनको सम्मान दिया जाए हरिजन होने का। अपमान उन्होंने काफी झेल लिया है, अब बदले में सम्मान चाहते हैं। लेकिन ध्यान रहे--अपमान हो या सम्मान हो। हरिजन होने से आदमी आप नहीं हो सकते हैं।
और इस समय दुनिया को आदमियों की जरूरत है। एक प्रयोग करना चाहिए, कि हम कारागृह में बाहर होंगे। जब तक पृथ्वी पर इतने हिम्मतवर लोग कुछ इकट्ठे नहीं होते जो सब जेलखानों को इंकार कर दें, और कहें कि हम बस सिर्फ आदमी है। यह हिंदुस्तान की सरकार है। सिकुलर कहलाती है अपने को।  धर्म निरपेक्ष कहलाती है। लेकिन यहां भी नौकरी के फार्म पर लिखा रहता है--आपका धर्म क्या है? क्या पागलपन है? धर्म पूछने को जरूरत क्या है? एक आदमी का आदमी होना काफी है। स्कूल में भर्ती करो लड़के को, तो फार्म में, लिखा रहता है कि धर्म क्या है? यह क्या पागलपन है? धर्म पूछने की क्या जरूरत है? आदमी होना काफी है। सेंसेस होगा मुल्क की मतगणना होगी जनगणना होगी--उसमें भी भरा रहेगा--कौन किस धर्म को मानता है? फिर यह बेईमानी की सिकुलरेज्म है। यह कोई ठीक सिकुलरेज्म न हुआ। धर्म निरपेक्ष होने का मतलब है कि हम इस देश आदमी को सिर्फ आदमी मानते हैं। और हम कोई दूसरी सीमा और कोई विशेषण उसके ऊपर नहीं लगाते। अगर थोड़ी हिम्मत जुटायी जाए तो हिंदुस्तान आदमियों का समाज बन सकता है। लेकिन सब तरफ वही आदमी और आदमी के बीच दीवार खड़े करने का बड़ा आग्रह है। गांधीजी ने कितनी मेहनत की जिंदगी भर कि हिंदू-मुसलमान एक हो जाए। लेकिन पहले बीमारी को स्वीकार करते हैं। फिर एक करना चाहते हैं। पहले कहते हैं--हिंदू भी ठीक--मुसलमान भी ठीक। दोनों एक हो जाए। दोनों गलत है। और दोनों के एक होने की जरूरत नहीं है। दोनों के मिटने की जरूरत है। वह दोनों मिटेंगे तो आदमियत एक होगी। दोनों एक नहीं हो सकते। हिंदू-मुसलमान एक नहीं हो सकते। उनका हिंदू होना--मुसलमान होना ही उनका अंधा होना है। अलग होना है--पृथक होना है। हिंदू होने में ही दुश्मनी छिपी है। मुसलमान होने में दुश्मनी छिपी है। हिंदू-मुसलमान दोनों मिट जाए तो आदमियत एक हो सकती है। हिंदू-मुसलमान कभी एक नहीं हो सकते। अब मलेरिया-प्लेग एक हो जाएं तो फायदा थोड़ा होगा--और खतरा होगा। इनको मिटाने की जरूरत है। इनको एक करने की जरूरत नहीं। जिंदगी भर गांधीजी वही-वही कोशिश करते रहे। सब बीमारियां के साथ समझौते की उनकी आदत थी। किसी बीमारी को मिटाने के लिए सीधा खयाल नहीं है। वही शूद्रों के साथ, हरिजनों के साथ चला सिलसिला।

एक और मित्र ने पूछा है, कि आपका शंकराचार्य वर्णाश्रम के संबंध में जो कहते हैं, शास्त्र जो कहते हैं--उस संबंध में क्या मत है?

मेरा क्या मत होता है, यह भी पूछने की जरूरत है। मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद डालने वाले सारे शास्त्र अपराधी हैं। मनुष्य और मनुष्य के बीच किसी भी तरह का ऊंच-नीच का विचार करने वाला कोई भी शास्त्र शोषितों के द्वारा लिखा गया होगा। वह किन्हीं ऋषि-मुनियों की बात नहीं हो सकती। और कोई भी, मनुष्य और मनुष्य के बीच, किसी भी तरह की ऊंच-नीच की धारणा को कायम रखना चाहता हो, तो वह किमिनल है--अपराधी है। एक चोर के साथ जो हम व्यवहार करते हैं, एक हत्यारे के साथ हम जो व्यवहार करते हैं उससे भी ज्यादा सजग इस तरह के अपराधियों के प्रति होना आवश्यक है। क्योंकि एक चोर क्या नुकसान पहुंचा सकता है? इधर का पैसा उठाकर उधर रख सकता है। और क्या फर्क कर सकता है? एक घर की चीज दूसरे घर से रख आ सकता है। एक हत्यारा क्या फर्क कर सकता है? एक आदमी जो दस-बीस साल बाद मरता है उसे आज मार सकता है। लेकिन अगर कोई आदमी वर्ण-व्यवस्था जैसी बात की ताईद करता है और सिफारिश करता है, तो करोड़ों-करोड़ों लोगों के जीवन को नर्क बनाने का जिम्मेदार ठहरता है। ऐसे आदमी--ऐसे विचार--ऐसे शास्त्र--सब अनादृत होने चाहिए। उनकी कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
लेकिन यह मुल्क बहुत बेईमान है। शंकराचार्य पुरी के अगर कहेंगे, तो उनका विरोध किया जाएगा। लेकिन जिन शास्त्रों के आधार पर वह कह रहे हैं उन्हीं शास्त्रों की पूजा चलती रहेगी। यह कैसा मूल्य है? ये कैसे लोग हैं। शंकराचार्य कहते है, तो उनका विरोध करते हैं आप। और जिन शास्त्रों के आधार पर वह कहते है उन शास्त्रों की पूजा जारी है। तो फिर समझ में आने पाला मामला नहीं दिखता। फिर कोई बेईमानी दिखती हैं। ऐसा दिखता है, कि समय की हवा बदल गयी, इसलिए शंकराचार्य का विरोध भी नहीं करते हैं। लेकिन चित्त नहीं बदला। इसलिए शास्त्र की पूजा भी करते हैं। शंकराचार्य का क्या कसूर है? इतना ही कसूर हो सकता है कि उनके पास कोई अपनी बुद्धि नहीं मालूम पड़ती। शास्त्र ही उनकी बुद्धि है। और कोई कसूर नहीं मालूम पड़ता है। वे एक टेप रेकार्ड मालूम होते हैं। शास्त्र में जो लिखा है, वह दोहराते हैं। उनका क्या कसूर है? लेकिन सारा मुल्क उन पर टूट पड़ा। और उन सारे शास्त्रों की पूजा जारी रहेगी, तो फिर यह उचित नहीं है। यह अन्यायपूर्ण है। यह ठीक नहीं है। शास्त्रों से मुक्त होने की जरूरत है। सच तो यह है, कि अतीत से मुक्त होने की जरूरत है। क्योंकि उस अतीत ने ही यह सारी की सारी नासमझियां पैदा की। उस अतीत की जड़ें--वह जो बीत गया है हमारा अतीत का इतिहास है। उसमें इन सब रोगों के कीटाणु हैं। उसको तो हम गौरव से गौरवान्किृत करते हैं। उसका तो हम शोरगुल मचाते हैं पूरा। उसको तो हम चाहते हैं कि रामराज्य फिर से आ जाए। रामराज्य फिर से आ जाए तो फिर शंकराचार्य ठीक कहते हैं। फिर आप सब गलत कहते हैं। अगर रामराज्य फिर से आएगा, तो शूद्र होगा। और यह भी होगा कि कोई शूद्र वेद वचन नहीं सुन सकेगा। और शूद्र अगर वेद के वचन सुन लेगा, तो उसके कान में शीशा पिघलाकर डाला जाएगा। बिलकुल डाला जाएगा। अगर रामराज्य लाना है तो इसकी तैयारी रखना। या फिर रामराज्य जैसी बेकार बातों मग मत पड़ना। गया सो गया। वह अब नहीं लौटाया जा सकता है। न लौटाने की जरूरत है। लेकिन हमारे मुल्क का पूरा चित्त अतीत से बंधा है। और सारी बीमारियां जो अतीत ने दी हैं उनसे हम छूटना चाहते हैं--और अतीत से छूटना नहीं चाहते। तो एक तरह की चीज, एक तरह की तनाव की स्थिति मुल्क के चित्त के सामने पैदा हो गयी है। और यह ध्यान रहे, यह मत सोचना कि हम ऐसा कर सकते है कि अतीत का जो अच्छा है वह बचा लें। और जो बुरा है वह छोड़ दें। इसे थोड़ा समझ लेना।
हर समय एक आर्गनिक यूनिटी है। ऐसा नहीं है कि एक आदमी की आंखें बहुत प्यारी लगती हैं तो आंखें बचा लो। बाकी आदमी को जाने दो। ऐसा नहीं हो सकता कि आदमी का हृदय हमें बड़ा प्यारा लगता है तो हृदय बचा लें। बाकी हमको नहीं जंचता--जाने दें। आदमी एक आर्गनिक इकाई है, इकट्ठी इकाई है। हर युग, समय, हर सदी, हर शास्त्र, हर विचार, हर धर्म एक आर्गनिक यूनिटी है। अगर जाएगा तो पूरा जाएगा। अगर बचेगा तो पूरा बचेगा। लेकिन हम इस मुल्क में यह कर रहे हैं--कि हम कह रहे हैं कि जो गलत है उसे छोड़ दें, जो ठीक है, उसे हम बचा लें। लेकिन जिस चित्त से वह ठीक पैदा हुआ था उसी चित्त से वह गलत पैदा हुआ था। वह गलत और ठीक किसी एक ही चीज के दो हिस्से हैं। और इसलिए हम बड़ी मुश्किल में पड़े। हम हमेशा यह खयाल करते हैं कि कुछ अच्छा है, उसे बचाते चलें। कुछ बुरा है, उसे छोड़ते चलें। ऐसा नहीं होता। पिछली इकाई को छोड़ना होता है। नयी इकाई को जन्म देना होता है। पिता मरता है तो ऐसा नहीं होता कि पिता की खोपड़ी बहुत अच्छी थी इसलिए बेटे की खोपड़ी अलग रखो--पिता की खोपड़ी जोड़ दो। पिता पूरा मरता है। बेटा पूरा पैदा होता है। हर युग को पूरा मरना चाहिए, ताकि हर नया युग पूरा पैदा हो सके। अगर पुराने युग में से कुछ बचाने की कोशिश चलती है तो नए युग के हाथ-पैर पंगु हो जाते हैं--वह पैदा नहीं हो पाते। हिंदुस्तान बहुत दिन से इस मुश्किल में पड़ा हुआ है। पुराना यहां मरता ही नहीं हैं वे तो ठीक ही हैं--साफ हैं। लेकिन वे जो पुराने के पक्षपाती के विरोधी हैं, वे भी पुराने के पक्षपाती हैं। इसलिए इस मुल्क के मस्तिष्क में साफ-साफ नहीं हो पाता कि हम क्या करें? क्या न करें?
जो लोग शंकराचार्य का विरोध करेंगे और कहेंगे, शंकराचार्य गलत कहते हैं, वह भी शास्त्रों को उठाकर यह सिद्ध करने की कोशिश करेंगे कि शास्त्रों में शूद्र नहीं है। लेकिन शास्त्रों में सिद्ध करने की कोशिश करेंगे। यह नहीं कहेंगे कि होगा शास्त्रों में, लेकिन शास्त्रों में हमें प्रयोजन क्या? कोई ठेका ले लिया है शास्त्रों ने, सदा के लिए कि हम उनसे बंध हैं? मनु महाराज ने कोई ठेका लें लिया है कि अब आने वाली दुनिया कभी भी उनसे मुक्त नहीं हो सकेगी। मनु महाराज मर गए। उनका विचार भी मर जाना चाहिए। सब चीजें मरनी चाहिए, अगर जिंदगी को जिंदा रखना है। जैसे आदमी बदलते हैं, वैसे ही समाज, शास्त्र, विचार सब बदलने चाहिए। सभ्यता को भी करना सीखना चाहिए। और जो सभ्यता करना नहीं सीखती उसका नया जन्म होना बंद हो जाता है। सभ्यताएं भी मरती हैं। लेकिन इस देश में हमें यह खयाल है कि हमारी सभ्यता कोई बहुत अदभुत बात है। रोम मर गया, बेबीलोन मर गया, सीरिया मर गया, इजिप्त मर गया। हम? हम मरते ही नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मरे-मराए हो इसलिए मरते नहीं हों। सिर्फ मरा हुआ नहीं मरता है। ध्यान रहे मरे हुए आदमी को एक फायदा होता है, फिर नहीं मर सकता है। फिर मरने का सवाल ही नहीं है। जिंदा कौम मरती भी है, जन्मती भी है। जिंदगी का लक्षण है यह। युग मरने चाहिए, ताकि नए युग पैदा हो सकें। शास्त्र भी मरने चाहिए, ताकि नए शास्त्र जन्म ले सकें। विचार भी विदा होने चाहिए, ताकि नए विचार आ सकें। यह धारा बढ़नी चाहिए, रुक नहीं जानी चाहिए। लेकिन यह सब रुकी हुई है। शंकराचार्य कहते हैं, हमारी किताब में यह लिखा हुआ है। उनका भी दावा किताब का है। उनके विरोधी कहते हैं, नहीं, उस किताब का दूसरा मतलब है। लेकिन किताब के दोनों दावेदार हैं। ये दोनों दुश्मन हैं देश के। इनमें एक नहीं है दुश्मन। शंकराचार्य ही नहीं, वह दूसरा भी है। क्योंकि वह यह कहता है, नहीं लिखा। लेकिन अगर सिद्ध हो जाए कि लिखा है, फिर वह भी राजी हो जाएगा। पर किताब से मुक्त होने की हिम्मत किसी की भी नहीं है।
यह क्या मामला है? क्या हमारे पास कोई बुद्धि सोचने वाली नहीं है--जो हम उधार बुद्धि से ही सोचते रहें। क्या ऐसा कुछ हो गया है कि संपूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया है, अब आगे कोई प्राप्त नहीं होना है? ज्ञान रोज आगे बढ़ेगा। जो कौम तय कर लेगी कि हम आगे नहीं सोचेंगे वह कौम सड़ने लग जाएगी। और ध्यान रहे, सभ्यता जितनी पुरानी हो जाती है उतनी ही पाखंडी हो जाती है। नयी सभ्यता में ताजगी होती है। नयापन होता है। ईमानदारी होती है। पुरानी सभ्यता बेईमान हो जाती है। उसका कारण है। अनुभव चालाक कर देता है। एक बच्चा पैदा होता है। बच्चे में इनोसेंस होती है, निर्दोषिता होती है, ताजगी होती है। वही बच्चा जब सत्तर साल के बाद बूढ़ा हो जाएगा तो चालाक हो जाता है। कनिंग हो जाता है। बूढ़ा आदमी और निर्दोष खोजना, जरा मुश्किल है। बच्चा और चालाक खोजना जरा मुश्किल है। और जो बच्चे और बूढ़े के संबंध में सच है वही नयी सभ्यता और पुरानी सभ्यता के संबंध में सच है। यह हमारी पूरी सभ्यता चालाक हो गयी है। इसके इतने अनुभव हैं कि अनुभवों ने इसे बेईमान कर दिया है। और अनुभवों का ढेर लगता चला जाता है। नई सभ्यताएं ताजी होती हैं। जिंदा होती हैं। ताकतवर होती हैं कुछ करने की हिम्मत होती है। हममें कुछ भी करने की हिम्मत नहीं है। शूद्र जैसी सड़ी और गिरगिराई चीज को गिराने की हिम्मत नहीं। उसको भी हम पूछते हैं कि कैसे गिराए। उसको भी हम पूछते हैं कि शूद्र को हम कैसे मिटाए? शूद्र को मिटाने के लिए क्या करना पड़ेगा? कुछ करना पड़ेगा। सिर्फ मुल्क सोच ले, और शूद्र आज मिट गया। मिटाने के लिए कुछ उपाय करना पड़ेगा? शूद्र कोई टीबी, कोई कैंसर है कि कोई इलाज करना पड़ेगा? सिर्फ मान्यता है। एक आदमी शूद्र है, सिर्फ यह मान्यता है। मान्यता को मिटाने के लिए भी कुछ करना पड़ेगा? सिर्फ मान्यता छोड़ देनी पड़ेगी। लेकिन वह मान्यता भी नहीं छोड़ पा रे हैं। वह मान्यता भी नहीं मिटा पा रहे हैं। तो हद हो गयी। शायद हम कुछ भी करने में समर्थ नहीं रहे गए हैं।
मैं किसी आदमी को नीचा-ऊंचा नहीं मानता हूं।
एक मित्र ने पूछा है कि ये शूद्र पैदा क्या हो गए हैं? ये हरिजन पैदा क्यों हो गए हैं?
पैदा हो जाने का कारण है। दुनिया में वर्ग सदा से हैं। क्लासेस सदा से हैं। लेकिन व्यर्थ वर्ण? वर्ण हिंदुस्तान की अपनी ईजाद है। वर्ण दुनिया में कहीं भी नहीं है। वर्ग सब जगह है--गरीब है अमीर है। लेकिन शूद्र और ब्राह्मण और क्षत्रिय और वैश्य जैसा वर्ण कहीं भी नहीं है। वर्ण कहीं भी नहीं है। वर्ग का मतलब यह होता हैं कि कोई आदमी गरीब है। वह चाहे तो कल अमीर भी हो सकता है। कोई रुकावट नहीं है। फिलूडिटी है एक--एक तरलता है। अमीर गरीब हो सकता है। गरीब अमीर हो सकता है। हिंदुस्तान ने एक बहुत चालाकी का काम किया है। उसने गरीबी और अमीरी के बीच फिलूडिटी--जो तरलता थी, वह खत्म कर दी, और उसने निश्चित वर्ण पैदा कर दिए। वर्ण का अर्थ है--ठोस हो गया वर्ग। शूद्र को, गरीब को, उसने कह दिया, दीन को, हीन को, उसने कह दिया कि बस, तू जम गया। अब तेरे भीतर से बदलाहट नहीं हो सकती। तू ऊपर नहीं जा सकता। ऊपर की क्लासेस को इससे फायदा हुआ क्योंकि नीचे की क्लासेस का कंपटीशन--प्रतियोगिता खत्म हो गयी। हिंदुस्तान ने एक तरकीब ईजाद की प्रतियोगिता खत्म करने की। करोड़ों शूद्रों से प्रतियोगिता खत्म हो गयी। अब उनके बेटे ब्राह्मणों के बेटों से संघर्ष कर सकेंगे ऋषि होने का। उनके बेटे वैश्यों के बेटे से धनपति होने का संघर्ष न कर सकेंगे। अब उसके बेटे बहादुरों की तरह लड़ सकेंगे, क्षत्रियों से संघर्ष न कर सकेंगे। एक बड़े वर्ग को, नीचे के विराट वर्ग को हमने बिलकुल जमा दिया और द्वार बंद कर दिए कि तुम कहीं आ-जा न सकोगे। ऊपर के वर्गों को लाभ हुआ। फिर क्रमशः हम जमाते चले गए। शूद्र के बाद हमने वैश्य को जमा लिया, और उससे कह दिया, धन तेरी दुनियादारी है। इससे आगे तू नहीं बढ़ सकता है। यश और ज्ञान तेरी दुनिया है। क्षत्रियों को कह दिया कि यश तेरी दुनिया है लेकिन ज्ञान तेरी दुनिया नहीं है। और सबके ऊपर वह जो ज्ञानवान है, वह जो पंडित है, जो ब्राह्मण है, वह बैठ गया। ये वर्ग जमा दिए, इसलिए प्रतियोगिता खत्म हो गयी और समाज जड़ हो गया। हिंदुस्तान को वर्ण से जितनी मृत्यु मिली, जितनी जड़ता मिली उतनी किसी और चीज से नहीं मिली। इसका फिर परिणाम अनंत रूपों से घातक हुआ।
हिंदुस्तान पर हमला हुआ। हिंदुस्तान पर हमला हुआ तो शूद्र ने कहा, हमें क्या मतलब है? शूद्र को क्या मतलब है? भंगी भंगी रहेगा, चाहे मुसलमान दिल्ली मग बैठे कि हिंदू बैठे--कि अंग्रेज बैठे। भंगी को क्या फर्क पड़ने वाला है? भंगी भंगी रहेगा। भंगी ने कहा, हमारा भाग्य तो तय है। तो कोई भी राजा हो, हमें क्या हानि है। हम तो अपने चलते चले जाएंगे। हम जो करते हैं, करते चले जाएंगे। हिंदुस्तान की विराट जनता वर्णों के कारण हिंदुस्तान के जीवन से अरुचि से भर गयी। विरागपूर्ण हो गयी। हिंदुस्तान की वर्ण व्यवस्था ने हिंदुस्तान में ऐसे तबके बांट दिए कि एक आदमी को कोई जरूरत न रही चिंतित होने की। सिर्फ थोड़े से लोगों को। चिंता थी कि हम अपने राज्य को बचाए। बाकी पूरे देश को प्रयोजन न था। गरीब को क्या प्रयोजन है अमीरों के झगड़े से? कोई प्रयोजन नहीं है। वही तो अभी भी हो गया। फिर वही हो गया। अंग्रेज हिंदुस्तान से गए। गरीबों ने सोचा था। हमें कुछ मिल जाएगा। फिर उनको पता चला, कुछ नहीं मिलता है। अंग्रेज पूंजीपति बदल जाता है। हिंदू पूंजीपति उसकी जगह बैठ जाता है। गरीब अपनी जगह है। वह वहीं के वहीं हैं। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
अमीरों के झगड़े हैं--ऊपर के झगड़े हैं। नीचे के आदमी को क्या मतलब है? यह हिंदुस्तान के हजारों वर्ष के शूद्रों की वर्ण व्यवस्था की टूटने ऐसी स्थिति जमा दी कि हिंदुस्तान में कोई सामाजिक धारणा, कोई राष्ट्र,कोई नेशनल, कोई भी पैदा नहीं हो सका। लेकिन जो लोग इनके विरोध में खड़े हैं वह भी मौलिक आधारों के विरोध में नहीं हैं। गांधीजी चाहते थे कि अछूत मिट जाए। लेकिन गांधीजी कर्म के सिद्धांत के संबंध में एक शब्द भी विरोध में नहीं बोले। और शायद आपकी खयाल में भी न हो कि हिंदुओं ने जो व्यवस्था की है, हिंदुओं का दिमाग इतना सिस्टममेकर रहा है, उन्होंने इतनी व्यवस्था की है, सिद्धांतों के मुकाबले--सिद्धांत बनाने के लिए हमसे बढ़िया लोग दुनिया में खोजना मुश्किल है। हम ऐसे गजब के सिद्धांत बनाते हैं। हम इतने कुशल हैं सिद्धांत बनाने में कि जिसका कोई हिसाब नहीं। शूद्र हमने ऐसे ही खड़ा नहीं कर दिया। हमने पूरी मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक पृष्ठभूमि बनायी है। हमारा कहना यह है कि जो आदमी जैसे कर्म करता है वैसा उसे जन्म मिलता है। शूद्र वे हैं, जिन्होंने पाप किए हैं। वह शूद्र वर्ग में पैदा होते हैं। ब्राह्मण वे हैं जिन्होंने पुण्य किए हैं। वह ब्राह्मण वर्ग में पैदा होते हैं। पिछले जन्मों में जिन्होंने जैसे कर्म किए है उनके चार विभाजन, और उन चार विभाजनों में लोग पैदा होते हैं। इसलिए शूद्र भी बेचारा राजी हो गया। उसने कोई बगावत नहीं की। उसने कहा--ठीक है। हम पिछले जन्म में बुरे कर्म किए होंगे, इसलिए हम शूद्र हो गए हैं। अब अच्छे कर्म करेंगे तो अगले जन्म में ब्राह्मण हो जाएंगे। अगले जन्म की आशा में वह आज शूद्र होने को राजी हो गया। हिंदुस्तान का शूद्र राजी है। अगले जन्म की प्रतीक्षा कर रहा है और हिंदुस्तान का दिमाग बेईमान है। जिसको भी राजी करवाना हो उसे अगले जन्म का प्रलोभन दे दो। वह राजी हो जाता है।
जब तक यह कर्म की विचार-सरणि न टूटे और जब तक हम इसकी पुनःव्याख्या न करें तब तक शूद्र को मुक्त होना बहुत मुश्किल मामला है। और बड़ा मजा तो यह है, कि जिससे उसे मुक्त होना है वह उसी से बंधने की पूरी कोशिश कर रहा है। विनोबा जी, गांधीजी उसको, उन्हीं मंदिरों में ले जाने के लिए प्रवेश दिलवा रहे हैं, जिन मंदिरों से उसे मुक्त होना चाहिए। यह बड़े मजे की की बात हैं। जिन हिंदू पुरोहितों से मुक्त होना हैं--गांधीजी और विनोबा जी कह रहे हैं कि उन मंदिरों में शूद्र का प्रवेश होना चाहिए। यह बड़ी क्रांति की बात है कि मंदिर में शूद्र का प्रवेश हो। किसके मंदिर में? उसी मंदिर में, जिसने उसे शूद्र बनाया। उसी पुरोहितों के मंदिर में जिसने उसको हजारों वर्ष तक पीड़ित किया और शोषित किया। मैं तो कहूंगा, एक शूद्र को किसी मंदिर में नहीं जाना चाहिए। अगर सारे ब्राह्मण पैर पड़ें तो भी नहीं जाना चाहिए। क्योंकि उस मंदिर में क्यों जाना जिस मंदिर ने तुम्हें तोड़ा और बर्बाद किया, और शोषण किया। लेकिन, गांधीजी और उनके सब साथी कहते हैं कि मंदिर का द्वार खोलो। हम शूद्र को मंदिर में ले जाएंगे। यह बड़ी क्रांति हो रही है। शूद्र को मंदिर में ले जाने की। यह ब्राह्मण का ढीला पंजा जो हो रहा है उसको फिर कसे जाने की तरकीब है। फिर ब्राह्मण के हाथ में पहुंच जाएगा यह शूद्र उसके मंदिर में जाते ही। आज वर्ण टूटने के करीब आ गए हैं। व्यवस्था टूटने के करीब आ गयी है। उसको फिर से नयी शक्ल देकर, फिर उसको उसी व्यवस्था के भीतर रखने की कोशिश चल रही है। डर है कि वहीं शूद्र हिंदुओं के बाहर न चला जाए।
लेकिन शूद्र को हिंदू के भीतर रहने की जरूरत क्या है? सच तो यह है किसी को भी हिंदू होने की जरूरत क्या है? किसी को मुसलमान होने की जरूरत क्या है? आदमी होना पर्याप्त है। और जिसको आदमी होगा पर्याप्त नहीं मालूम होता--वह हिंदू और मुसलमान होने से कुछ और विकसित नहीं जाएगा। आदमी होना काफी है। हिंदुस्तान में एक क्रांति की जरूरत है। शूद्र तो कह ही दें कि अब हम हिंदू नहीं हैं। लेकिन बहुत से वे लोग जो शूद्र नहीं हैं। और बुद्धिमान हैं, वे कह दे कि हम हिंदू नहीं हैं। और बहुत से वे लोग जो बुद्धिमान हैं, कह दें कि हम मुसलमान नहीं हैं। बहुत से वे लोग जो बुद्धिमान हैं, कह दे हम जैन और ईसाई नहीं हैं। हम आदमी हैं। और अगर हमें खोज लगानी है सत्य की। अगर हम प्रभु को खोजना है, तो हम खोजेंगे। लेकिन हिंदू के मंदिर में नहीं, मुसलमान के मंदिर में नहीं। इतनी बड़ी दुनिया उसका मंदिर है, हम यही खोजेंगे। हम क्या किसी मंदिर की बंद दीवरों के भीतर जाएं इतना विराट मंदिर है उसका कि हम उसका दर्शन यहीं करेंगे। लेकिन इसकी हिम्मत शूद्र भी नहीं जुटा पाते हैं। वह भी कहते हैं, हम हरिजनों को अधिकार दो। हम हरिजनों को जगह दो। मंदिर का द्वार खोलो। हम भीतर प्रवेश करेंगे। तुम किसको अधिकार मांगते हो? और ध्यान रहे, अधिकार मांगने वाले कभी भी स्वतंत्र हो सकते हैं? जिनसे अधिकार मिलेंगे, वे उनके परतंत्र बने ही रहेंगे। और जिन्होंने हजारों वर्षों तक दिमागी सांचे बनाकर आदमी को कमा है वे इतने होशियार हैं कि वे नए सांचे बना लेंगे और फिर कस लेंगे।
नहीं, सब जाल तोड़कर बाहर आने की जरूरत है। किसी हिंदू मंदिर में किसी शूद्र को जाने की जरूरत नहीं है। और किसी शूद्र को अपने को हरिजन कहने की जरूरत नहीं है। बस, आदमी कहना काफी है। तो मुझसे मत पूछें कि मैं हरिजन के घर में क्यों नहीं ठहरता? मैं घर मग ठहरता हूं। हरिजन और गैर-हरिजन से मुझे कोई मतलब नहीं है। आप आ जाएं और मुझसे कहें कि ले मेरे घर तो मैं ठहर जाऊंगा। लेकिन अगर जरा भी आपको भ्रम हो और आप प्रचार करे कि मैं हरिजन के घर में ठहरा हूं, तो ऐसे पागलपन में, मैं नहीं जाने को राजी हूं। यह पागल-घर है। आदमी का घर होता है।। मैं मेहमान बन सका हूं आदमी का, हरिजन वगैरह से मुझे कोई मतलब नहींअ है। हजार कारण हो सकते हैं, लेकिन एक ही कारण काफी है।

एक मित्र ने पूछा है कि विचार छोड़ दे, कैसे छोड़े दे? और विचार छूटेगा कैसे? सुबह आपने कहा कि विचार छोड़ दो और निर्विचार हो जाओ; लेकिन विचार कैसे छोड़ दें?

इसे थोड़ा समझना उपयोगी है। मैं यह मुट्ठी बांधे हुए हूं और आपसे आकर मैं पूछूं कि यह मुट्ठी मुझे खोलनी है, कैसे खोलूं? तो आप क्या कहेंगे? आप कहेंगे--बांधो मत--मुट्ठी खुल जाएगी। बांधो मत, खोलने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। बांधने के लिए कुछ करना पड़ता है। बांधने के लिए मुझे श्रम करना पड़ रहा है। अगर मैं न बांधूं तो मुट्ठी खुल जाएगी। खुला होना मुट्ठी का स्वभाव है। इसमें दो बातें समझ लेना जरूरी है। एक, विचार हम कर रहे हैं, पकड़े हुए हैं इसलिए चल रहा है। तो मत पूछें कि हम विचार को कैसे छोड़े? यह पूछें कि हम विचार को कैसे पकड़े हुए हैं। और पकड़ने की तरकीब खयाल में आ जाए तो छूटना अपने आप हो जाएगा। हम पकड़े कैसे हुए हैं? पकड़ने की तरकीब है। तादात्म्य--आइडेंटिटी। हम प्रत्येक विचार के साथ अपना तादात्म्य कर लेते हैं। क्रोध आया और आप कहते हैं मुझे क्रोध आ गया। आप फैसला कर पाते कि मैं अलग हूं और क्रोध अलग है। एक विचार भीतर चल रहा है और आप उस विचार के साथ एक हो जाते हैं, और लगता है, यही मैं हूं। कभी आपने खयाल किया, आप सादा पृथक हैं। आपके विचार अलग चल रहे हैं। आकाश में एक नीला बादल उड़ा चला जा रहा है। आप देख रहे हैं, आप यह कहते हैं कि मैं नीला बादल हूं? आप कहते हैं वह नीला बादल रहा--देखने वाला मैं हूं।
मन के आकाश पर एक विचार चल रहा है। आप फौरन कहते हैं, मैं यह हूं। झंझट मग पड़ गए। मन के आकाश पर विचार उतनी दूरी पर चल रहा है। आपसे, जितना उस आकाश पर एक बदली का टुकड़ा चल रहा है। आप फिर भी अलग हैं। आप दूर खड़े साक्षी से ज्यादा नहीं हैं। यह हमें स्मरण करना होना, निरंतर कि विचार से मैं पृथक हूं। अलग हूं। और कोई विचार में मैं जुड़ा हुआ नहीं हूं। लेकिन हम? हम विचर से अपने को जोड़न की आदत के इतने आदी हो गए कि हमें खयाल हर पहीं आता। जब क्रोध आता है, तो बजाय इसके कि आप कहें कि मेरे सामने क्रोध आ गया है, आप कहते हैं, मैं क्रोधी हो गया हूं। आप गलत कहते हैं। जब आपके सामने सुख आ जाए तो बजाय यह कहने के कि मेरे सामने सुख आ गया, आप कहते हैं, मैं सुखी हो गया हूं। अगर आप सुखी हो गए हैं तो अब कभी दुखी न हो सकेंगे? लेकिन हम जानते हैं कि सुख चला जाएगा, दुख आ जाएगा।
एक कमरे में मैं सुबह बैठ जाऊं। सूरज निकले, किरणें भर जाएं, तो मैं यह नहीं कहता कि मैं प्रकाश हो गया हूं। मैं कहता हूं कमरे में प्रकाश भर गया है, मैं प्रकाश को देखता हूं। फिर सांझ आती है, अंधेरा भर जाता है। मैं कहता हूं कि मैं अंधेरा हो गया हूं? मैं कहता हूं, अब अंधेरा भर गया, अब मैं अंधेरे को देख रहा हूं। मन में विचार आते-जाते हैं। सुख-दुख आते-जाते हैं। क्रोध, प्रेम, घृणा आते-जाते हैं। भाव आते हैं, जाते हैं और वह जो बैठा हुआ है भीतर, वह हरेक के साथ कहने लगता है कि मैं हो गया हूं। तब पकड़ शुरू हो जाती है। क्लिबिंग शुरू हो जाती है। फिर मुक्त होना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए मैंने सुबह कहा--ध्यान का अर्थ है--साक्षी-भाव। मैं देखूं, जो आ रहा है।
एक सम्राट ने अपने वजीरों को कहा कि मैं तुमसे एक ऐसा सूत्र चाहता हूं जो तो काम हर स्थिति में काम दे सके। सुख आए तो काम दे, दुख आए तो काम दे। मुझे एक सूत्र इस ताबीज पर लिख दो जो हर स्थिति में काम दे। वजीर बड़ी मुश्किल में पड़ गए। क्या लिखें? ऐसा कौन सा सूत्र है जो हर जगह काम दे। फिर उन्होंने एक फकीर को पूछा। फकीर ने एक ताबीज दे दिया और उसने एक कागज की पुड़िया लिखकर रख दी। और कहा कि जब सुख-दुख आए, इसे खोलकर पढ़ लेना। राजा पर सुख आया, उसने ताबीज खोला। दुख आया, ताबीज खोला। उसमें सिर्फ एक छोटा सा वाक्य लिखा था--लिखा था--दिस टू विल पास। यह भी चला जाएगा। इतना ही लिखा था उस कागज पर, दिस टू विल पास। सुख आया, राजा ने पढ़ा, यह भी चला जाएगा। और राजा पृथक हो गया। क्योंकि चला जाएगा वह मैं नहीं हो सकता हूं। मैं तो बच रहूंगा। दुख आया और राजा ने पढ़ा, यह भी चला जाएगा, और राजा अलग हो गया। क्योंकि जो चला जाएगा वह तो मैं नहीं हूं। मुझ पर चीजें आती हैं--जाती हैं। मैं तो अलग हूं। इस पृथकता का खोजना ही साक्षी भाव है। तो यह मत पूछे कि हम विचार को कैसे रोकें। रोकने की कोई जरूरत नहीं है। विचारों को आने दें, आने दें। आप पृथक हो जाए। आप भिन्न हो जाएं। आप जान सकें कि मैं अलग हूं, तो विचार धीरे-धीरे आप विसर्जित हो जाते है। उन पर पकड़ छूट जाती है। फिर वही रह जाता है जो है, और जो अकेला है। उस अकेले में जो अनुभव होते हैं, निर्विचार के वे ध्यान के अनुभव है।
लेकिन हम क्या करते हैं--विचार से लड़ते हैं। लड़कर तो आप कभी विचार को अलग नहीं कर सकते। ध्यान रहे--लड़ना तो बुलाने का उपाय है। अगर किसी विचार से आप लड़े और आपने कहा, इससे में अलग करके रहूंगा। तब फिर आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। फिर उस विचार से कभी आप मुक्त न हो सकेंगे। आप जितना लड़ेंगे उतना ही आएगा। क्योंकि जितना आप लड़ेंगे उतना ही आप मान रहे हैं कि मैं उससे एक हूं। नहीं तो लड़ेंगे क्यों, लड़ने की क्या जरूरत है? वह अलग है। मैं अलग हूं। वह आया है--चला जाएगा। मुझे क्या प्रयोजन है? लेकिन हम लड़ते हैं।
मैंने सुना है, तिब्बत में एक फकीर था। उसके पास एक आदमी आया। और उसने कहा, मुझे एक मंत्र दे दें। मैं कोई सिद्धि करना चाहता हूं। फकीर ने कहा। मेरे पास कोई मंत्र नहीं। लेकिन नहीं माना वह व्यक्ति पैर पकड़ लिए, हाथ जोड़ने लगा। दे ही दें। फकीर ने एक कागज पर मंत्र दे दिया और कहा, उसे पांच बार पढ़ लेना। फिर तो वह आदमी भागा। उसने लौटकर धन्यवाद भी न दिया। वह मंदिर की सीढ़ियां उतरता था, तब फकीर चिल्लाया कि ठहरो, एक बात भूल गया, एक शर्त बताना भूल गया। ध्यान रहे, बंदर का स्मरण न आए जब तुम यह मंत्र पढ़ो। अगर बंदर का स्मरण आया, मंत्र बेकार हो जाएगा। बंदर दुश्मन है इस मंत्र का। उस आदमी ने कहा, मुझे कभी बंदर का स्मरण जिंदगी हो गयी नहीं आया। इसकी फिकर मत करो। लेकिन डुल हो गयी। पूरी सीढ़ियां उतरना भी मुश्किल हो गया। बंदर का स्मरण शुरू हो गया। रास्ते पर घर की तरह चला और बंदर चारों तरफ मन में घूमने लगे। वह आंख बंद करता है और बंदरों को भगाता है। लेकिन बंदर जोर से आते है। घर पहुंचा। स्नान करता है--लेकिन बंदर तो घिरते चले जाते हैं। रात हो गई। मंत्र लेकर बैठता है--लेकिन भीतर बंदर है। वह घबड़ा गया। उसने कहा, इन बंदरों से कोई संबंध कभी नहीं रहा। आज क्या हो गया है? क्या ये बंदर पांच मिनिट के लिए भी न रुकेंगे? रात भर मुश्किल हो गयी। लेकिन पांच मिनिट के लिए बंदर से छुटकारा नहीं। सुबह तो पागल हो गया। जाकर मंत्र वापस लौटा दिया उस फकीर को। कहा--क्षमा करो--अगले जन्म में हो सकती है अब यह सिद्धि। फकीर ने कहा--क्यों, क्या बात है? उसने कहा, वह बंदर जान लिए ले रहे हैं। अब उनसे छुटकारा इस जन्म में नहीं हो सकता। और तुम्हें अगर मालूम था कि बंदर की याद आए, तो एक दिन रुक जाते। बात में बता देते। तो यह सिद्ध हो जाता मंत्र। अब यह नहीं हो सकेगी। उस फकीर ने कहा, मैं क्या कर सकता हूं, यही शर्त है। यह शर्त पूरी करनी जरूरी है।
क्या हो गया उस आदमी को, बंदर से छुटकारा नहीं होता। जिस विचार से हम लड़ते हैं, उस विचार पर हम केंद्रित हो जाते हैं। जिस विचार से हम लड़ते हैं उस विचार से हम हिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं। जिस विचार से हम हटना चाहते हैं, सारा चित्त उसी पर केंद्रित हो जाता है। किसी को भुलाने की कोशिश करो, फिर मुश्किल हो जाएगी। वह नहीं भूलेगा। प्रेमियों से पूछो, प्रमिकाओं को भुलाने की कोशिश बहुत मुश्किल हो जाती है। जिनको नहीं भुलाना, वे भूल जाते हैं। जिनको भुलाना है, वे कभी नहीं भूलते। चित्त की आदत है। जिससे लड़ोगे, चित्त वहीं केंद्रित हो जाएगा। एक नया-नया आदमी साइकिल सीखता है। रास्ते पर एक पत्थर पड़ा है। इतना बड़ा रास्ता है, सात फीट चौड़ा, लेकिन वह पत्थरों से, दिखा, कि वह डरता है। कहीं पत्थरों से न टकरा जाऊं। अब कोई निशानेबाज भी सात फीट रास्ते पर पत्थर से टकराना चाहे तो चूकने की संभावना ज्यादा है। लेकिन ये सज्जन टकराएंगे। ये नहीं बच सकते। सात फीट रास्ता अब इनको दिखायी न पड़ेगा। अब इनको वह पत्थर ही दिखायी पड़ेगा। अब इनका चाक घूमा, इनके प्राण घबड़ाए और ये हिप्नोटाइज्ड हुए उस पत्थर से। अब इनकी साइकिल चली उस तरह। ये उससे टकराएंगे।
आदमी जिससे बचना चाहता है उसी से टकरा जाता है। आदमी जिससे भागता है उसी से घिर जाता है। पूछो ब्रह्मचारियों से--सिवाय स्त्रियों के और किसी का दर्शन नहीं होता। हो ही नहीं सकता। अगर भगवान भी प्रकट होंगे तो स्त्री की ही शक्ल में प्रकट होंगे। और किसी शक्ल में वे प्रकट नहीं हो सकते। ब्रह्मचारी का कपट है बेचारे का, वह सेक्स से लड़ रहा है इसलिए सेक्स घिर गया है। इसीलिए तो ऋषि-मुनि स्त्रियों के लिए इतनी नाराजगी जाहिर करते हैं। यह नाराजगी किसके लिए है? वह स्त्रियां उनको घेर लेती हैं, उनके लिए है। असली स्त्रियों के लिए नहीं। असली स्त्रियों से क्या मतलब है? ऋषि-मुनि कहते हैं। स्त्रियां नर्क का द्वार है। स्त्री से बचो। यह किससे बचने के लिए कह रहे हो? वह जो भीतर स्त्री उनको घेरती हैं। घेरती क्यों है? स्त्री से भागते हैं इसलिए स्त्री घेरती है। जिससे भागोगे, वह घेर लेगा। जिससे बचोगे, वह पकड़ लेगा। जिसको हटाओगे, वह आ जाएगा। जिसको कहोगे मत आओ। वह समझ जाएगा कि डर गए हो। आना जरूरी है। वह आ जाएगा। चित्त से लड़ना, चित्त के विचार से लड़ना आत्मघातक है। फिर वही उलझन हो जाएगी। इससे बचना जरूरी है। बचेंगे कैसे? बचने के लिए आवश्यक है कि विचार से लड़ो ही मत। सेक्स से मुक्त होना हो, तो सेक्स से लड़ो मत। साक्षी बनो। क्रोध से मुक्त होना हो, लड़ो मत, साक्षी बनो। जिससे मुक्त होना हो, उसे देखो और जानो कि मैं पृथक हूं--वह पृथक है। दूरी है। फासला है। दोनों के बीच अनंत फासला है। मैं अलग हूं, वह अलग है। और सचाई यही है। और जितनी यह स्पष्ट गहरी होगी कि मैं अलग हूं, उन्हें हंसी आएगी कि मैं किससे लडूं। जिससे कोई झगड़ा ही हनीं, जिससे कोई संबंध नहीं, उससे लड़ने की जरूरत क्या है? और तब जिससे लड़ना बंद हो जाता है--जैसा मैंने कहा--लड़ने से आती है कोई चीज--न लड़ने से जाने लगती है। ब्रह्मचार्यें सेक्स से लड़ने से नहीं आता। सेक्स के प्रति जागने से सेक्स चला जाता है। जो शेष रह जाता है, उसका नाम ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य सेक्स से उल्टा है। ब्रह्मचर्य सेक्स के विदा हो जाने का अभाव है। वह जो शेष रह जाता है सेक्स के चले जाने पर। लेकिन सेक्स से लड़कर कोई ब्रह्मचारी नहीं हो सकता। मुझे साधु-संन्यासी मिलते हैं। जब वे सबके सामने होते है तब वे आत्मा-परमात्मा की बात कहते हैं। फिर वह कहते हैं--अकेले में मिलना है। असली सवाल तो वही है। सबके सामने तो पूछ भी नहीं। सकते। क्योंकि सब को तो वे सांझ से सुबह तक यही बातें सिखा रहे हैं जो उनको भी नहीं हो सकती है। और होगी भी नहीं। क्योंकि विधि हो गलत है। मैथड ही गलत है। अज्ञानपूर्ण है। अमनोवैज्ञानिक है। खतरनाक है। असंगत है। उसकी कोई संगति नहीं है जीवन के परिवर्तन से और रूपांतरण से। लड़ने की संगति है, झगड़े की संगति है।
गांधीजी के आश्रम में रामायण पढ़ी जाती थी। तो एक प्रसंग आता है--वह सबको पता है प्रसंग कि सीता को रावण लेकर भाग गया है। भागते में सीता ने अपने गहरे फेंक दिए मार्ग पर। राम खोजते निकलेंगे। गहनों से पता चल सकेगा कि सीता किस रास्ते से चुराकर ले जाए गए है। मिलन गए हैं। राम-लक्ष्मण खोजते गए हैं। गहन मिल गए हैं। लेकिन राम इतने दुःख में हैं, शोक में हैं। उनकी आंखें इतनी आंसुओं से भरी हैं कि वह गहनों को पहचान नहीं पाते। और सच तो यह है कि कोई पति अपनी पत्नी के गहने नहीं पहचान पाएगा। पत्नी के गहने पहचानना बहुत मुश्किल है। पत्नी को कोई देखता नहीं है इतना और से कि उसके गहने पहचानने जा सकें। पड़ोस की पत्नी ने क्या गहने है, यह पहचाने जा सकते हैं। राम को भी नहीं समझ में आते, कि ये गहने सीता के हैं। तो लक्ष्मण से पूछते हैं कि ये कहने तू पहचानता है? लक्ष्मण कहता है गहने! मैं सिर्फ पैर के गहने पहचानता हूं, क्योंकि रोज-रोज पैर पड़ता हूं तो पैर के गहने पहचानता हूं। बाकी गहनों का मुझे कुछ पता नहीं। गांधीजी कहते हैं, यह कैसे हुआ होगा कि लक्ष्मण इतने दिनों से साथ हैं। वह सीता के गहने नहीं पहचानता। तो विनोबा ने कहा--इसका कारण है--लक्ष्मण ब्रह्मचर्य धारण किए हुए हैं। वह सीता का मुंह नहीं देखता। सीता के ऊपर नहीं देखता। वह सिर्फ पैर पर ही नजर रखता है। वह ब्रह्मचारी है। गांधीजी को यह व्याख्या जंच गयी। तो उन्होंने कहा। विनोबा बड़ी ठीक व्याख्या करते हैं। मैं बहुत हैरान हुआ यह व्याख्या पढ़कर। अगर विनोबा की व्याख्या ठीक है तो लक्ष्मण ब्रह्मचारी नहीं--व्यभिचारी सिद्ध होता है। क्योंकि जो लक्ष्मण सीता के चेहरे की तरफ देखने से डरता हो, ब्रह्मचारी है? सीता के भी चेहरे को देखने से जो डरता हो वह ब्रह्मचारी है? यह ब्रह्मचर्य का अर्थ हुआ? यह ब्रह्मचर्य का अर्थ नहीं हुआ। यह तो अत्यंत कामुक चित्त का अर्थ हुआ। सीता के चेहरे पर भी देखने में जहां भय--भय का अर्थ क्या है? भीतर कहीं कोई वासना है। तो भय है। तो भय क्या है सीता के चेहरे में? नहीं--लक्ष्मण इसलिए नहीं पहचान पाया दूसरे गहनों को, कि उसने सीता का चेहरा नहीं देखा। पैर के गहने पहचान सकता है। निश्चित रोज पैर पड़े होंगे, वह परिचित रहे होंगे। यह दूसरी बात है। लेकिन यह कहना कि वह इसलिए नहीं पहचान पाया कि उसने ऊपर कभी देखा नहीं सीता को, क्योंकि वह ब्रह्मचर्य की साधना कर रहा था। तो वह बड़े गलत ब्रह्मचर्य की साधना करता था लक्ष्मण। अगर विनोबा ठीक कहते हैं, तो वह बड़ी ब्रह्मचर्य की साधना कर रहा था। बिनोबा ठीक कहते हैं, तो वह बड़ी ब्रह्मचर्य की साधना बड़ी मुश्किल में पड़ा होगा। जैसे ब्रह्मचारी पड़ते हैं। और जो सीता के चेहरे को देखने से डरा होगा वह सपने में सिवाय सीता के चेहरे के और कुछ भी नहीं देखता होगा। नहीं--लेकिन, लक्ष्मण पर यह बात, व्याख्या थोपनी ही गलत है। यह व्याख्या ही गलत है। लक्ष्मण पैर के गहने पहचान गए होंगे क्योंकि रोज पैर पड़ें होंगे। वे गहने परिचित थे। इसका यह मतलब नहीं कि उसने और गहने न देखें होंगे, चेहरे की तरफ न देखा होगा। लेकिन हमारा तथाकथित ब्रह्मचर्य इसी तरह एस्केपिस्ट है। भागने वाला है। वह कहता है। भाग जाओ। देखो मत। वह डराने वाला है। फियर है वहां। और जहां भय है--जहां भागना है--जहां पलायन है--जहां आंख बंद करना है। ध्यान रहे--जिससे आंख बंद होगी वही आंख के भीतर खड़ा हो जाता है। फिर उससे छुटकारा बहुत मुश्किल है। इसलिए मैं कहता हूं, चित्त के किसी भी विकारों से, चित्त की किसी भी विवृति से, चित्त के किसी भी विचार से, चित्त की किसी भी प्रवृत्ति से कभी मत लड़ना। भूलकर मत पड़ना। लड़े कि हारे। हारना हो तो लड़ना। जो लड़ेगा वह हारेगा। उसकी हार सुनिश्चित है। आपने चित्त से लड़कर कोई कभी जीत नहीं सकता। हां, अगर जीतना हो तो लड़ना मत। देखना--जानना--साक्षी बनना। और जैसे ही साक्षी बनोगे, पाओगे कि मैं तो बाहर हूं। मैं तो बियांड हूं। मैं तो जो दिखाई पड़ रहा है उससे अलग और दूर हूं। वह जो चारों तरफ घिरा है धुआं। वह अलग है, मैं अलग हूं। सूरज के चारों तरफ अंधेरा घिर जाए तो भी सूरज अंधेरा नहीं है। लेकिन अगर सूरज अंधेरे से लड़ने लगे और अंधेरे पर ही ध्यान केंद्रित करने लगे, और कहने लगे, मरा, गया, यह अंधेरा मुझे घेर रहा है। मरा हुआ जा रहा हूं मैं। तो सूरज मुश्किल में पड़ जाएगा। लेकिन अगर सूरज जाने कि ठीक है। अंधेरा वह है। मैं तो सूरज हूं। मैं तो अलग हूं। घिरने दो अंधेरे को। कितना ही अंधेरा निकट आ जाए--फिर भी मैं सूरज हूं। कितना ही अंधेरा पास आ जाए। फिर भी मैं अलग हूं। फिर भी प्रकाश और अंधेरे के बीच फासला अनंत है।
यह प्रत्येक के भीतर जो साक्षी है। जो चेतना है--क्रांसेसनेस है, उसे सजग करने से--जागने, साक्षी बनने से विचार विसर्जित होते हैं। वृत्तियां विसर्जित होती हैं। सन विसर्जित होता है। और धीरे-धीरे वह जगह आती है, जहां चित्त का आकाश खाली हो जाता है। और सिर्फ चेतना रह जाती है। वह साक्षी भाव के लिए सुबह मैंने कहा है। यह मत पूछे कि कैसे लड़ें, यह मत पूछें कि कैसे विचारों को निकालें--यह मत पूछें कि कैसे विचारों को बंद करें? यह पूछें ही मत। यह पूछना ही गलत है। यह पूछें कि कैसे जागे, कैसे देखें, कैसे पहचाने,कैसे साक्षी बनें? वह मैंने सुबह कहा, कल सुबह हम और बात करेंगे।

एक दो छोटे प्रश्न और हैं। एक मित्र ने पूछा है कि आप पहले, तो बहुत सौम्य मृदु भाषा में बोलते थे। अब आप बहुत अग्रेसिव बहुत आक्रामक क्यों हो गए हैं?

वह मेरी गलती थी सौम्य और मृदु भाषा में बोलना। और सौम्य और मृदु भाषा में मैंने बोलकर देखा, वह गलती थी। गलती इसलिए थी कि यह समाज सौम्य और मृदु भाषा पसंद करता है, क्योंकि सौम्य और मृदु भाषा किसी को कोई चोट नहीं पहुंचाती। कोई परिवर्तन नहीं लाती। सौम्य और मृदु भाषा सुखद है, मनोरंजक है, लेकिन जीवन को कही बदलती नहीं। अब तो दुनिया में ऐसे लोग चाहिए जो भीतर चाहे कितने ही सौम्य और मृदु हों--जो बाहर आक्रामक हो सकें, बाहर अग्रेसिव हो सकें। तो इस जिंदगी की कुरूपता को बदला जा सकेगा। अन्यथा बदला जा सकता है। दुनिया मग बहुत अच्छे आदमी हुए। और कठिनाई यही रही कि अच्छा आदमी सौम्य और मृदु था। इसलिए यह दुनिया बुरी है। अच्छा आदमी सौम्य और मृदु रहेगा तो दुनिया बुरी रहेगी। अच्छे आदमी को भी हिम्मत जुटानी पड़ेगी।
जीसस चर्च में गए। जीसस के मित्र उन्हें जानते थे। बहुत सौम्य और मृदु हैं। लेकिन गांव में उन्होंने देखा, चर्च के बाहर ब्याजखोर बैठे हुए हैं और जन्मों से चल रहा है व्याज लोगों का और नहीं चुकता। जीवन बीत गए हैं बूढ़ों के और जितना कर्ज उन्होंने लिया था उससे कई गुना वे चुका चुके हैं, और वह नहीं चुकता है। और मंदिर के सामने ही ब्याजखोर बैठे हैं। वे सब ब्याजखोर पुरोहितों के एजेंट हैं। जीसस ने कोड़ा उठा लिया। उठाकर कोड़ा उन्होंने दुकानें उलट दीं, कोड़े मारने शुरू कर दिए। जीसस के मित्रों ने कहा होगा, क्या करते हैं आप? आप, जो कहते है, कि एक गाल पर जो चांटा मारे, उसके सामने दूसरा गाल कर देना। इतने मृदु, इतने सौम्य आप! आप कोड़ा उठाकर ब्याजखोरों की दुकानें उलटते हैं? तो मैं कहता हूं, जीसस ने ठीक किया। ब्याजखोरों की दुकानें किसी को उलटानी ही पड़ेंगी। अगर ब्याजखोरी की दुकानें कोई नहीं उलटता तो ब्याजखोर तो यह चाहता है कि सौम्य और मृदु भाषा में आप बात करें, ताकि उसकी व्याज की दुकान चलती रहे। और सौम्य और मृदु, भाषा कहीं कोई चोट नहीं पहुंचाती, कहीं कोई नुकसान नहीं करती। दुनिया में अब आने वाले बुद्धों को, आनेवाले महावीरों को, आने वाले कन्फयूशियस की और आने वाले जीसस को आक्रामक होना पड़ेगा। दुनिया बहुत कुरूप रह चुकी है। सौम्य होने से अब नहीं चल सकता है। इसलिए वह आपने जो पूछा, ठीक पूछा।
लेकिन, क्या आप कभी समझते हैं कि आक्रामक होना हिंसा से ही निकलता हो, ऐसा अनिवार्य नहीं है। आक्रामक होना करुणा से भी निकल सकता है। कम्पसेनेट भी हो सकता है। लेकिन हम एक ही तरह के आक्रमण होने को जानते हैं--हिंसा के आक्रमण को। हम एक दूसरे आक्रमण को नहीं जानते--करुणा के आक्रमण को। अब तक हिंसा आक्रामक रही है। अहिंसा सौम्य रही है। करुणा सौम्य रही है। सौम्य करुणा के कारण ही दुनिया में अच्छी बातें तो बहुत हुई लेकिन दुनिया अच्छी नहीं हो सकती है। करुणा को भी आक्रामक होना पड़ेगा। करुणा को भी बदने के लिए क्रांतिकारी होना पड़ेगा। करुणा को भी चोट करनी पड़ेगी। कई बार ऐसा होता है कि हमें दिखाई भी नहीं पड़ता कि चोट हमारे हिम मैं हैं, हमारे मंगल में हैं। कठिनाई तो यह है कि जिनके हित मग चोट हो वे ही आकर कहेंगे--आप--और ऐसी चोट की बात कर रहे हैं? क्योंकि हजारों साल से उन्हें समझाया गया है कि चोट की बात ही नहीं करनी है।
मैंने सुना है कि एक फकीर था। उस फकीर के पास एक आदमी आया। उस आदमी आकर उस फकीर से कहा कि मैं अध्यात्म, योग, ज्ञान-साधना चाहता हूं। मैं आध्यात्मिक होना चाहता हूं। मुझे अपनी शरण में लें। मुझे वह शास्त्र बताएं जिसे पढ़कर मैं आध्यात्मिक हो जाऊं। उस फकीर ने कहा, बंद कर बकवास। अध्यात्म वगैरह की बात मत कर। और यहां से बहार निकल जा। दुबारा इस आश्रम में लौटकर मत आना। बाहर होओ। वह आदमी तो घबड़ा गया। आस-पास दस-पच्चीस लोगों ने कहा कि महाराज हम तो सदा आपको सौम्य समझते थे। और आने यह कैसा दर्ुव्यवहार किया। हम समझे नहीं। आप इतने जोर से क्यों बोले? उस फकीर ने कहा, थोड़ी देर ठहरो। इसके पहले कि मैं तुम्हें भी निकाल कर बाहर करूं, मैं तुम्हें एक दृष्टांत देता हूं। वह फकीर थोड़ी देर चुप बैठा रहा। एक पक्षी खिड़की से घुसा भीतर। सारे कमरे में चक्कर लगाने लगा। अब आप जानते ही है पक्षियों को, आदमियों जैसी ही बुद्धि उनकी भी होती है। अगर पक्षी कमरे के भीतर घूस जाए तो खुली खिड़की को छोड़कर सब जगह चोट मारेगा, निकलने की कोशिश करेगा। खुली खिड़की छोड़ देगा। आदमियों जैसी बुद्धि उसकी भी होती है। खुली खिड़की छोड़ देगा और सब दीवरों पर चोट मारेगा। जहां से न निकल सकेगा वहां और जोर से चोट मारेगा। और जब नहीं निकल सकेगा--घबड़ा जाएगा। घबड़ाहट में पागल की तरह चोट मारेगा। फिर खुली खिड़की देखना मुश्किल हो जाएगी। वह पक्षी जोर से चक्कर काट रहा है। दीवार से टकरा रहा है। फिर वह जाकर घबड़ाकर खुली खिड़की के ऊपर बैठ गया। फकीर ने एक क्षण उसे बैठे देखा और जोर से ताली बजायी। वह ताली का बजना--वह पक्षी फड़फड़ाया--घबड़ा गया और खिड़की के बाहर हो गया। उस फकीर ने उन बैठे हुए मित्रों को कहा, मेरी ताली सुनकर पक्षी ने सोचा होगा--बड़ा दुष्ट है--कैसा दर्ुव्यवहार कर रहा है। लेकिन उसी फड़फड़ाहट मग वह खुले आकाश में चला गया है। अब शायद उसे पता चले कि ताली किसलिए बजायी गयी थी। हो सकता है अब भी उसे पता चले। तो जिसको मैंने जोर से बाहर निकाल दिया है, अगर उसमें थोड़ी भी समझ होगी तो वह खुले आकाश में पहुंच जाएगा। भरा आक्रोश, उस फकीर ने कहा, उसकी स्वतंत्रता के लिए ही है।
मैं भी आपसे कहता हूं, बहुत सी बातें हैं, जो मैं बहुत आक्रोश से कहना चाहता हूं। कहता हूं। वह सिर्फ इसलिए है कि इस देश के प्राण जो न मालूम कितने दिनों से बंद ही हैं। यह भूल ही गए कि बंद ही हैं, वह मुक्त हो सकें। इस देश की आत्मा जो कितने दिनों से गुलाम है, यह भूल ही गयी कि वह गुलाम है। गुलामी को ही स्वतंत्रता समझ रही है और जंजीरों को आभूषण समझ रही है। उसे चोट लग सके। उसे दिखायी पड़ सके। निश्चित ही सोए आदमी को जगाना, सोए आदमी को बहुत अग्रेसिव मालूम पड़ता है। सोए हुए आदमी को जगाएं, बहुत गुस्सा आता है। सपने देखते थे, सब तोड़ दिया। नींद खराब कर दी। लेकिन सोए हुए को जगाना हो तो हिलाना ही पड़ता है। मेरा आक्रोश हिलाने के अतिरिक्त और किसी प्रयोजन से नहीं है। नीचे से जड़ें टूट जाएं। अतीत का पाखंड छूट जाए। गुलामी टूट जाए। जंजीरें टूट जाएं। इस देश की आत्मा मुक्त हो सके। खुले आकाश में उड़ सके। इसके लिए अब शांति की बातें तौर राम धुन करने से नहीं चल सकता है। बहुत हो चुकी राम धुन। बहुत हो चुके भजन कीर्तन। बहुत हो चुकी शांति की वार्ता। किसी न किसी को शांति को क्रांति बनाना ही पड़ेगा। किसी न किसी को शांति को अंगार देना पड़ेगा। और क्रांति की ज्योति देनी पड़ेगी। किसी न किसी को अब शांति को भी धार देनी पड़ेगी। उसमें भी धार आ जाए। और शांति भी शांति रहकर मुर्दा न हो जाए, जीवंत बने और जीवन को बदले।
इसलिए मैं कहता हूं, वह निश्चित मित्र पूछते हैं। वह मेरी गलती थी जो मैं सौम्य था। अब ऐसी गलती नहीं होगी।
और कुछ प्रश्न रह गए हैं, वह कल संध्या हम बात करेंगे। सुबह चौथे सूत्र पर बात करूंगा। कल सांझ आपके उत्तर दूंगा। मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना उसके लिए अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
अहमदाबाद
दिनांक १० जून १९६९, शाम


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