ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
संन्यास, सत्य और
पाखंड-(प्रवचन-चौथा)
चौथा प्रवचन; दिनांक १४ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान, जीवन की शुरुआत से सभी को यही
शिक्षा मिलती रहती है कि सच बोलो। अच्छे काम करो। हिंसा न करो। पाप न करो। लेकिन
हम संन्यासी तो इसी रास्ते पर जाने की कोशिश करते हैं, फिर
हमारा विरोध क्यों? इस विरोधाभास को समझाने की कृपा करें।
रजनीकांत!
मनुष्यजाति
आज तक विरोधाभास में ही जी रही है। इस विरोधाभास को ठीक से समझो, तो मुक्त
भी हो सकते हो।
विरोधाभास
यह है कि जो तुम से कहते हैं--सत्य बोलो, वे भी सत्य नहीं बोल रहे हैं। उनका
जीवन कुछ और कहता है। उनकी वाणी कुछ और कहती है। उनके व्यक्तित्व में पाखंड है। और
बच्चों की नजरें बड़ी साफ होती हैं। बच्चों के पास दृष्टि बड़ी निखरी होती है। होगी
ही? ताजी होती है। बच्चे शीघ्र ही देख लेते हैं कि कहना
कुछ--करना कुछ!
बच्चों
से कहा जाता है: ईश्वर में विश्वास करो। एक तरफ कहा जाता है, सत्य से
डिगो मत। दूसरी तरफ कहा जाता है, विश्वास करो। विश्वास का
अर्थ ही होता है--असत्य। ईश्वर को जाना नहीं--और विश्वास करो! यह तो असत्य का आधार
हो गया। यह तो स्रोत हो गया, जहां से बहुत असत्य जन्मेंगे।
कौन
मां-बाप अपने बच्चों से कहता है, ईश्वर को जानना--तब मानना। हर मां-बाप अपने
बच्चों को कहता है, मानो--तो जानोगे। और मानने का अर्थ झूठ
होता है। मानने का अर्थ होता है--जिसे जाना नहीं उसे मान लेना। जिसे देखा नहीं,
उसे मान लेना। जिसकी कोई प्रतीति नहीं--उसे मान लेना।
अंधा
आदमी प्रकाश को मानता है--जानता नहीं। आंख वाला जानता है; मानने की
जरूरत नहीं।
आंखें
तो नहीं दी जातीं--विश्वास दिया जाता है। और साथ ही शिक्षा चल रही है कि सत्य का
अनुसरण करो। सत्य ही परमात्मा है। यह भी वे ही लोग कह रहे हैं, जो कहते
हैं कि परमात्मा में विश्वास करो। और विश्वास अर्थात झूठ।
श्रद्धा
तो अनुभव से पैदा होती है। विश्वास अज्ञान को छिपाने की चेष्टा है। विश्वास बहुत
सस्ता है, उधार है, बासा है। ये विश्वासियों की जमातों से तो
जमीन भरी है। कोई हिंदू, कोई मुसलमान, कोई
ईसाई, कोई जैन--ये सब विश्वासी हैं। सब अंधे। किसी ने देखा
नहीं। किसी ने जाना नहीं।
जो
तुम्हें समझा रहे हैं,
उन्होंने भी नहीं देखा, उन्होंने भी नहीं जाना,
वे भी झूठ बोल रहे हैं। मगर इस ढंग से बोल रहे हैं कि जैसे जाना हो।
इस बल से बोल रहे हैं, जैसे यह उनका आत्म-साक्षात्कार हो।
बेझिझक बोल रहे हैं!
बाप
बेटे से कहता है,
सच बोलो। लेकिन बेटा देखता है कि बाप जीता तो झूठ है! कभी इसी बेटे
को कह कर भेज देता है; द्वार पर कोई खड़ा है--कि कह दो कि
पिताजी घर में नहीं हैं? बेटा देखता है कि मामला क्या है?
सच बोलूं, कि पिता जो कहते हैं, वह मानूं?
यह
भी सिखाया जा रहा है--आज्ञाकारी रहो। आज्ञा मानो। और यह भी सिखाया जा रहा है--सच
बोलो। पर सवाल यह है कि कभी आज्ञा और सत्य विपरीत हो सकते हैं। फिर क्या करें? कभी आज्ञा
ऐसी हो सकती है कि अगर मानें, तो झूठ होता है; सत्य का खंडन होता है। और अगर सत्य बोलें, तो
आज्ञाकारिता नष्ट होती है। दुविधा खड़ी हो जाती है।
बच्चे
को तुम उलझा रहे हो,
सुलझा नहीं रहे हो। कहते तो हो: हिंसा न करो। और बच्चा देखता
है--तुम्हारे जीवन में हिंसा ही हिंसा है! तुम्हारी सारी कठोरता--उससे छिपाई नहीं
जा सकती। माना कि तुम पानी छान कर पीते होओगे। पानी छान कर पीने में क्या हर्जा
है! लाभ ही लाभ है। स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है। हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए! पानी छान कर पी लिया--और खून बिना छाने पी जाते हो!
जैनों
की शिक्षा है--अहिंसा परमोधर्मः। और जितना शोषण जैन कर सकते हैं, कोई दूसरा
नहीं कर सकता। तुमने जैन भिखारी देखा? और सब तरह के भिखारी
देखे होंगे--हिंदू, मुसलमान। लेकिन तुमने जैन भिखारी देखा?
जैन भिखारी होता ही नहीं।
जैनों
की संख्या कितनी है भारत में? कुल पैंतीस लाख। सत्तर करोड़ लोगों में पैंतीस
लाख कोई संख्या है! सागर में बूंद। लेकिन फिर भी जैन दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि धन
है। धन कहां से आता है? धन कैसे आता है? कोई जैसे उत्पादन तो करते नहीं। ब्याज खा सकते हैं। पानी छान कर पी लेते
हैं। खूब बिना छाने पी जाते हैं! बेटा यह देखता है।...
तुमने
नचिकेता की कथा तो जानी। कठोपनिषद उसी कथा से शुरू होता है। बूढ़ा बाप यज्ञ किया है
और दान कर रहा है। नचिकेता,
छोटा-सा बच्चा, उसके पास ही बैठा है। बूढ़ा बाप
समृद्ध है, सम्राट है, और दान क्या कर
रहा है! जिन गायों ने दूध देना बंद कर दिया, वे दान कर रहा
है; उन गायों को दान कर रहा है! तो बेटा देखता है कि यह क्या
धोखा हो रहा है! यह कैसा दान? गाएं जो दूध देती ही नहीं--यह
दान हुआ, कि जिसको दे रहे हो, उसकी
फांसी लगा रहे हो?
तो
वह पूछता है बाप को कि आप यह क्या कर रहे हैं? ये गाएं दूध तो देती नहीं, इनको दान देने से क्या फायदा?
बाप
तिलमिला जाता है। बाप कभी बर्दाश्त नहीं करता। बेटे की स्वच्छ दृष्टि देख पा रही
है कि मामला क्या है यह! यह कैसा दान? क्रोध में बाप कहता है, ज्यादा बकवास मत कर, नहीं तो तुझे भी दान कर दूंगा!
नचिकेता
सीधा-सा बच्चा,
वह यही पूछने लगा बार-बार कि मुझे कब दान करिएगा? अब तो यज्ञ भी समाप्त हुआ जा रहा है, मुझे कब दान
करिएगा? मुझे किसको दान करिएगा? बाप ने
क्रोध में कहा, तुझे मृत्यु को दान कर दूंगा।
अब
यह क्रोधी आदमी--यह दान कर रहा है; यज्ञ कर रहा है! और इसके खरीदे हुए
ब्राह्मण, पंडित-पुरोहित यशगान कर रहे हैं! स्तुतियां गा रहे
हैं--कि तुम महादानी हो!
वह
बेटा देखता है--यह कैसा दान! उसकी समझ के बाहर है। क्योंकि अभी उसके पास देखने
वाली दृष्टि है। बड़ों को जो नहीं दिखाई पड़ता, वह बच्चों को दिखाई पड़ जाता है।
बाप
का क्रोध--ऐसा क्रोध कि बेटे को कहता है कि मृत्यु को दे दूंगा।
प्रसिद्ध
कथा है कि एक बहुत चालबाज आदमी ने एक सम्राट को कहा कि आपके पास सब है। सारी
दुनिया की दौलत है। जो भी इस पृथ्वी पर सुंदरतम है, आप उसके मालिक हैं। लेकिन
एक चीज की कमी रह गई। कहें तो पूरी कर दूं।
सम्राट
उत्सुक हुआ। उसने कहा,
किस चीज की कमी रह गई? वह हमेशा उत्सुक था इस
बात में कि किसी चीज की कमी न रह जाए। कौन उत्सुक नहीं है! फिर वह तो सम्राट
था--चक्रवर्ती सम्राट था। सारी पृथ्वी जीत चुका था। उसके भंडारों में हीरे-जवाहरात
भरे थे। दुनिया में किसी के पास इतनी संपदा न थी। तो कोई चीज की कमी रह गई--यह बात
उसे अखरी। उसके अहंकार को चोट पड़ी। उसने कहा, बोल, कौन-सी चीज की कमी है? जो भी मूल्य हो, मैं चुकाने को राजी हूं।
उसने
कहा, मूल्य तो बहुत लगेगा।
उसने
कहा, उसकी फिक्र ही मत कर। तू बोल, चीज कौन-सी है,
जिसकी कमी है?
उस
चालबाज आदमी ने कहा...। रहा होगा कोई राजनीतिज्ञ, कोई कूटनीतिज्ञ कोई बिलकुल
छंटा हुआ बदमाश--उसने कहा कि महाराज, यह शोभा नहीं देता कि
आप साधारण मनुष्यों जैसे वस्त्र पहनें। ये वस्त्र तो कोई भी पहन रहा है। आपके लिए
तो स्वर्ग से वस्त्र ला सकता हूं देवताओं के। वही आपके योग्य है।
सम्राट
को थोड़ा तो शक हुआ। वह भी कुछ कम चालबाज तो न था। देवताओं के वस्त्र!
उस
आदमी ने कहा कि आप सोचते होंगे कि यह बात सच नहीं। कर के दिखा दे सकता हूं। ला
सकता हूं। लेकिन खर्च बहुत है!
सम्राट
ने कहा कि खर्च की कोई फिक्र नहीं। लेकिन अगर धोखा देने की कोशिश की, तो गर्दन
उतार लूंगा। तो यह पड़ोस का महल है मेरा, इसमें चला जा। क्या
करना है? कितना खर्च है?
उसने
कहा, खर्च काही लगेगा। क्योंकि वहां भी रिश्वत चलती है। द्वारपाल से लेकर
पहुंचते-पहुंचते देवताओं के वस्त्रों तक बहुत खर्च हो जाएगा। करोड़ों का खर्च है।
खर्च की बात करते हों, तो यह बात ही छोड़ दें। खर्च की तो
पूछें मत। जितना मांगूंगा, उतना देना पड़ेगा।
सम्राट
ने कहा, ठीक है। लेकिन ध्यान रखना: भागने की कोशिश मत करना। इसी महल के भीतर रहना
पड़ेगा। बाहर पहने लगवा दिए, फौजों के घेरे डलवा दिए कि यह
आदमी भाग न सके। और रोज वह आदमी कभी करोड़ मांगे, कभी दो करोड़
मांगे। पता नहीं अंदर क्या करता था--द्वार-दरवाजे बंद कर के। पर सम्राट ने कहा
जाएगा कहां भाग कर! धन भी कहां ले जाएगा!
और
पंद्रह दिन बाद उसने खबर भेजी कि वस्त्र ले आया हूं। दरबार भर गया। वह आदमी एक बड़ी
सुंदर मंजूषा में वस्त्र ले कर आया। उसने आ कर मंजुषा रखी और सम्राट से कहा, वस्त्र तो
ले आया। लेकिन देवताओं ने कहा कि एक शर्त है। ये साधारण वस्त्र नहीं--देवताओं के
वस्त्र हैं। ये उन्हीं को दिखाई पड़ेंगे, जो अपने ही बाप से
पैदा हुए हैं!
सम्राट
ने कहा, इसमें क्या अड़चन है। यह शर्त स्वीकार है।
उसने
पेटी खोली। सम्राट को उसमें कुछ दिखाई न पड़ा। पेटी बिलकुल खाली थी; दिखाई
पड़ता भी कैसे? उसने कहा, महाराज,
आपकी पगड़ी दें और यह देवताओं की पगड़ी लें। खाली हाथ! अब सम्राट अगर
यह कहे कि मुझे दिखाई नहीं पड़ता कि इसमें कहां पगड़ी है--तो सिद्ध होगा कि अपने बाप
से पैदा नहीं हुआ। बड़ा हैरान हुआ। और दरबारी एकदम से प्रशंसा करने लगे कि अहा!
क्या पगड़ी हैं! किरणों का जाल! चांदत्तारे जड़े हैं! ऐसी पगड़ी नहीं देखी। धन्य हो
गए देख कर।
सब
दरबारियों को दिखाई पड़ रही है! सम्राट ने कहा, अब अगर मुझे दिखाई न पड़े, तो जाहिर है कि मैं अपने बाप से पैदा नहीं हुआ! सो देखनी पड़ी पगड़ी! जो
पगड़ी दिखाई पड़ती थी, उसे बेईमान को दे दी। उसने उसे तो पेटी
में डाल दिया। और जो पगड़ी थी ही नहीं, वह सम्राट के सिर पर
रख दी और कहा कि महाराज, अब शोभा देखते बनती है! वर्णन नहीं
हो सकता इस शोभा का!
तालियां
पिट गईं, क्योंकि दरबारियों ने भी एक दूसरे से होड़ बांधी। किसी को दिखाई नहीं पड़
रही थी पगड़ी। और जो थोड़ा झिझके--झिझकने ही से साबित हो जाए। तो तालियां जोर से
पिटीं और एक दूसरे से होड़ लग गई प्रशंसा में, क्योंकि जो जरा
चुप रह जाए, कहीं शक हो जाए कि यह आदमी चुप क्यों खड़ा है! और
सबको यह लगा--सबको भीतर यह लगा--कि मुझे ही भर नहीं दिखाई पड़ रहा है! अब बेहतर यही
है कि चुप रहो। इस संबंध में कि कहना कि मुझे नहीं दिखाई पड़ रही, क्यों अपनी बदनामी करनी! क्यों मरे बाप को बदनाम करना! मरी मां को बदनाम
करना! सारी प्रतिष्ठा खो जाएगी। दरबार भी खो जाएगा। दरबार से निकाल बाहर किया
जाऊंगा।
फिर
कमीज भी उतर गई। बनियान भी उतर गई। धोती भी उतर गई। अब सम्राट खड़ा है--सिर्फ अपने
लंगोटी बांधे हुए! और क्या प्रशंसा हो रही है वस्त्रों की! और जब उसने कहा कि
महाराज, लंगोटी भी दे दें! तब तो उसे बहुत घबड़ाहट हुई। पसीना भी आने लगा। मगर अब
करे क्या! अब मजबूरी थी। लंगोटी भी गई!
उसने
पेटी में सब बंद कर लिया और कहा कि कुछ भेंट मिल जाए।...और देवताओं ने कहा कि पहली
बार पृथ्वी पर ये वस्त्र जा रहे हैं। ऐसा कभी हुआ नहीं। फिर कभी होगा नहीं। यह
अभूतपूर्व घटना है। इसलिए जुलूस निकलना चाहिए। रथ तैयार किया जाए!
और
जनता बाहर इकट्ठी है और गांव भर में राजधानी में खबर पहुंच गई। दूर-दूर से लोग आ
गए थे। राजधानी के राजपथ के दोनों तरफ करोड़ों लोग खड़े थे प्रतीक्षा में कि सम्राट
बाहर आएं। आवाजें आ रही थीं कि सम्राट के दर्शन करने हैं! कौन नहीं देखना चाहता
देवताओं के वस्त्र!
और
वह चालबाज आदमी रथ पर चढ़ कर डुंडी पीटता गया कि ये वस्त्र उन्हीं को दिखाई पड़ेंगे, जो अपने
बाप से पैदा हुए हैं। निश्चित ही सभी अपने बाप से पैदा हुए हैं। सबको वस्त्र दिखाई
पड़े। और क्या तालियां पिटीं! और सब देख रहे कि सम्राट बिलकुल नंगा बैठा है। ठंड के
दिन हैं; ठिठुर रहा है। दांत बज रहे हैं! मगर यह शोभा-यात्रा
चल रही है!
मगर
सब प्रशंसा कर रहे हैं। सिर्फ एक छोटा-सा बच्चा अपने बाप के कंधे पर बैठ कर आ गया
था देखने। उसने अपने बाप से कहा कि दद्दू! सम्राट बिलकुल नंगा है! उसके बाप ने कहा, चुप
नालायक! उल्लू के पट्ठे! बिलकुल चुप।
मगर
बेटा बोला, चुप कैसे रहूं? और हैरानी मुझे इससे भी हो रही है कि
सब लोग वस्त्रों की प्रशंसा कर रहे हैं। वस्त्र तो मुझे दिखाई नहीं पड़ते। आपको
दिखाई पड़ते हैं? उसने कहा, हां,
दिखाई पड़ते हैं? क्या सुंदर वस्त्र हैं। तुझको
भी दिखाई पड़ेंगे, जरा उम्र बड़ी होनी चाहिए। अभी तू नालायक है,
इसलिए नहीं दिखाई पड़ते। अभी तू बच्चा है!
सिर्फ
एक बच्चे ने कहा था उस भीड़ में कि सम्राट नंगा है। बच्चों के पास आंख होती है, क्योंकि
अभी धोखाधड़ी नहीं सीखे; राजनीति नहीं सीखे; चालबाजी नहीं सीखे; गणित नहीं सीखे जिंदगी का। जिंदगी
का गणित धोखे का गणित है।
रात
तारों से बच के चलता हूं
गुमगुसारों
से बच के चलता हूं
मुझको
धोखा दिया सहारों ने
अब
सहारों से बच के चलता हूं
ये
जो तुम्हें शिक्षा दे रहे हैं, ये जो तुम्हारे सहारे हैं, इनसे जरा सावधान! जरा सजग! इनकी शिक्षा में ही भ्रांति है। ये खुद पाखंडी
हैं, और तुम्हें भी पाखंड में घसीट रहे हैं।
जरूर
तुम्हें कहा गया है,
सच बोलो। क्यों? क्यों सच बोलो? इसलिए सच बोलो कि सच बोलने से स्वर्ग मिलता है; पुण्य
मिलता है! सत्य भी साधन है! वह भी लाभ के लिए है। सत्य भी अंत नहीं, साध्य नहीं--साधन है! और जब सत्य साधन होता है, तो
अड़चन हो जाती है।
वहां
तक तो आदमी सत्य बोलेगा,
जहां तक लाभ होने की संभावना है। और जहां हानि होने लगेगी, वहां क्या करेगा? लाभ के लिए सत्य बोलता था। अब लाभ
होता नहीं। अब झूठ से लाभ हो रहा है, तब आदमी क्या करे?
और
यही मां-बाप,
यही शिक्षक, यही गुरु, यही
महात्मा--हमेशा सिखा रहे हैं कि हमेशा लाभ पर दृष्टि रखो। चाहे लौकिक लाभ हो,
चाहे पारलौकिक लाभ हो--लाभ में फर्क नहीं। लाभ यानी लोभ का विस्तार।
क्या
तुम सोचते हो: तुम सत्य बोलोगे, अगर सत्य बोलने का परिणाम नर्क में पड़ना हो?
नहीं। तुम सत्य बोलते हो, क्योंकि सत्य बोलने
से स्वर्ग मिलता है। स्वर्ग में क्या मिलेगा? अप्सराएं
मिलेंगी। उर्वशियां मिलेंगी। मेनकाएं मिलेंगी।
क्या
मजा है! यहां स्त्रियों से भागो, क्योंकि स्त्री नरक का द्वार है। और स्त्री से
भाग कर स्वर्ग में और सुंदर स्त्रियां पाओगे! यह कैसा उलटा गणित है? यहां त्यागो इच्छाओं को--और स्वर्ग में क्या होगा? कल्पवृक्ष
मिलेंगे? जिनके नीचे बैठकर इच्छा करते ही पूरी हो जाती। यह
क्या बेईमानी है?
मुसलमानों
का स्वर्ग, हिंदुओं का स्वर्ग, ईसाइयों का स्वर्ग--विचारणीय
है--बड़ा विचारणीय है। सारे धर्मों का स्वर्ग विचारणीय है। क्योंकि उससे पता चलता
है कि तुम्हारे संतों, महात्माओं की असली इच्छा क्या है।
स्वर्ग का पता नहीं चलता; सिर्फ तुम्हारे महात्माओं के भीतर
दबी हुई वासनाओं का पता चलता है।
कल्पवृक्ष
हिंदुओं का! यहां तपश्चर्या कर रहे हैं। सिर के बल खड़े हैं? शरीर को
गला रहे हैं। किस आशा में? इस आशा में कि आज नहीं कल सभी
इच्छाओं की तृप्ति हो जाएगी। अरे, जिंदगी तो चार दिन की है;
गुजर ही जाएगी। भूखे भी रहना पड़ा; नंगे भी
रहना पड़ा; तप भी करना पड़ा--गुजर ही जाएगी। कोई बहुत लंबी
नहीं है। और फिर अनंत काल तक--अनंत काल तक--खयाल रखना--कल्पवृक्ष के नीचे मजा ही
मजा है! जो इच्छा करोगे, तत्क्षण पूरी हो जाएगी!
मुसलमानों
के स्वर्ग में शराब के चश्मे बह रहे हैं। यहां शराब पर पाबंदी है और वहां शराब के
झरने बह रहे हैं। डुबकी लो! तैरो! पीयो-पिलाओ। कुछ खर्च नहीं लगता। यहां स्त्रियों
से तुम्हारा साधु-संन्यासी बच-बच कर चलता है और वहां पाएगा क्या? कांचन-देह,
स्वर्ण जैसी देह जिनकी--ऐसी सुंदर अप्सराएं, जो
सदा युवा रहती हैं, जो कभी बूढ़ी नहीं होतीं। जिनके शरीर से
पसीना नहीं निकलता। उस अभीप्सा से भरा है।
स्वर्ग
यानी क्या? स्वर्ग शब्द तो कंबल की तरह है। उसके भीतर जरा झांककर देखो, क्या-क्या छिपा है। स्वर्ग तो पोटली है। पोटली खोलो, तब तुम समझोगे। स्वर्ग शब्द के धोखे में मत पड़ जाना। उसके भीतर क्या-क्या
छिपा है!
मुसलमानों
के स्वर्ग में,
चूंकि मुसलमान देशों में समलैंगिकता, होमोसेक्सुअलिटी
बहुत प्रचलित रही है, तो वहां सुंदर लड़कियां ही नहीं मिलेंगी,
सुंदर लड़के भी मिलेंगे! हूरें ही नहीं--गिल्में भी! क्या गजब है!
यहां जो समलैंगिकता में पड़ा है, उस जैसा पापी नहीं--गिल्में
भी! क्या गजब है! यहां जो समलैंगिकता में पड़ा है, उस जैसा
पापी नहीं--विकृत। और स्वर्ग में देवता क्या कर रहे हैं? लड़कियां
ही नहीं, लड़कों को भी भोग रहे हैं! शर्म भी नहीं आती!
पूछो
ईसाइयों से कि उनके स्वर्ग में क्या है? सारे स्वर्गों को छान डालो और तुम
वही पाओगे, जो तुम्हारे संतों-महात्माओं ने यहां दबाया है,
उसको ही वहां उभारा है। जो यहां छोड़ा है, उसको
हजार-करोड़ गुना कर के वहां पा लेना चाहा है।
हिंदू
कहते हैं, यहां एक पैसे का दान करो; एक रुपए का दान करो--करोड़
गुना मिलेगा स्वर्ग में। यह सस्ता सौदा है। करने जैसा है। यह किसी भी व्यवसायी को
जंचेगा। किस धंधे में ऐसा मिलता है--एक रुपया लगाओ और करोड़ रुपए! सिर्फ लाटरी में
मिलते हैं। स्वर्ग न हुई--लाटरी हो गई! और तुम्हारे महात्मा लाटरी में लगे हुए
हैं।
ये
कहते तो हैं,
सच बोलो, मगर सत्य से इन्हें प्रयोजन नहीं।
इनसे पूछो, नर्क देखा है? स्वर्ग देखा
है? ईश्वर देखा है? छोड़ो--ईश्वर,
स्वर्ग, नर्क--बहुत दूरी की बातें हो गईं।
आत्मा देखी है? जो भीतर ही है; जो तुम
स्वयं हो--उसको पहचाना है? और सत्य बोलो! और ये आत्मा का
उपदेश दे रहे हैं लोगों को। और ईश्वर का उपदेश दे रहे हैं। और स्वर्ग-नर्कों की
बातें बता रहे हैं लोगों को।
मंदिरों
में नक्शे टंगे हैं! जो जमीन का नक्शा नहीं बना सके, उन्होंने स्वर्ग-नर्क के
नक्शे बना लिए हैं! स्वर्ग-नर्क का नक्शा बनाना आसान है। जमीन का नक्शा बनाना
मुश्किल बाती थी। यह क्या मजा है!
जैनों
के पास नक्शे हैं स्वर्ग और नर्क के। लेकिन पृथ्वी का कोई नक्शा नहीं था। क्योंकि
पृथ्वी का नक्शा बनाने के लिए तो विज्ञान को आना पड़ा, तब पृथ्वी
का नक्शा बना। पृथ्वी के नक्शे में झूठ नहीं चल सकता था। पकड़ जाते। स्वर्ग-नर्क
में तो मौज है। जिसका दिल आए, जिसका जी चाहे, जैसा चाहे!
एक
छोटा-सा बच्चा बड़ी तल्लीनता से तसवीर बना रहा था। फर्श पर फैलाए हुए सारे कागजात।
रंग बिखेरे हुए। और बड़ा तल्लीन था। उसके पिता ने पूछा, बड़े
तल्लीन हो। क्या कर रहे हो? उसने कहा, ईश्वर
की तसवीर बना रहा हूं! बाप ने कहा, हद्द हो गई! आज तक कोई
ईश्वर की तसवीर नहीं बना पाया। ईश्वर कैसा है--यह भी पता नहीं। बेटे ने कहा,
ठहरो। मेरी तसवीर पूरी हो जाए; पता चल जाएगा
कि ईश्वर कैसा है। जरा तसवीर पूरी हो जाने दो; रंग भर लेने
दो, फिर तुम देख लेना कि ईश्वर कैसा है!
ईश्वर
की तसवीर कोई भी बना सकता है और विवाद हो नहीं सकता। क्या विवाद करोगे! मूल का ही
पता नहीं है,
तो तसवीर को कैसे जांचोगे कि सही कि गलत?
जैन
कहते हैं--सात नर्क हैं। हिंदू तो एक ही नर्क से राजी हैं। जैन कहते हैं--सात नर्क
हैं! उस समय जब महावीर ने जन्म लिया, संजय वेलट्ठिपुत्त नाम का एक बहुत
अदभुत विचारक था। जब उससे किसी ने जा कर कहा कि जैन कहते हैं कि सात नर्क हैं!
उसने कहा कि गलत। सात सौ नर्क हैं। कैसे तय करोगे कि एक हैं कि सात हैं कि सात सौ
नर्क हैं।
राधा
स्वामी संप्रदाय के मानने वाले एक व्यक्ति ने मुझे आ कर पूछा कि आपका क्या खयाल
है! हमारे गुरुओं का वचन है कि स्वर्ग चौदह खंडों में बंटा है। चौदह खंड हैं।
अंतिम खंड--सत्य खंड--सच्च खंड--चौदहवां। और सिर्फ हमारे गुरु चौदहवें तक पहुंचे
हैं। बाकी अच्छे लोग हुए। लेकिन कृष्ण भी बस सातवें तक पहुंचे। राम भी बस छठवें तक
पहुंचे। महावीर और बुद्ध पांचवें तक पहुंचे। मोहम्मद और जीसस तो चौथे ही तक
पहुंचे।
सिर्फ
इनके गुरु, जिनका नाम भी किसी को पता नहीं, वे भर चौदहवें तक
पहुंचे!
मैंने
कहा कि तुम्हारे गुरु बिलकुल ठीक कहते हैं। वे चौदहवें ही में हैं। उन्होंने कहा, मतलब!
मैंने
कहा कि पंद्रह हैं। मैं पंद्रहवें में बैठा हुआ हूं। उनको देख रहा हूं लटका
हुआ--चौदहवें में! वे मुझसे पूछते हैं बार-बार कि पंद्रहवें तक कैसे आऊं?
उन्होंने
कहा, आप भी क्या बात कर रहे हैं! अरे, किसी ने पंद्रह
पहले बताए नहीं नहीं!
मैंने
कहा, बताते ही वे कैसे? जब पंद्रह तक कोई पहुंचेगा,
तभी बताएगा न। जैसे तुम्हारे गुरु ने चौदह बताए--जब चौदहवें तक
पहुंचे। अब बेचारे महावीर कैसे बताएं! वे अगर पांचवें ही में अटके हैं...। कोई
छठवें में अटका है। कोई सातवें में अटका है। कृष्ण से पूछोगे चौदहवें की, तो वे कैसे बताएंगे! सातवें की बता सकते हैं बहुत से बहुत। अब मैं
पंद्रहवें तक पहुंचा, तो पंद्रहवें की बता रहा हूं। और
तुम्हारे गुरु चौदहवें में ही अटके हैं। वे मुझसे पूछते हैं बार-बार कि पंद्रहवें
तक कैसे आएं!
वे
तो बड़े नाराज हो गए। मैंने कहा, तुम थोड़ा सोचो, ये बच्चों
जैसी बातों में उलझे हुए हो। बचकानी बातों में उलझे हुए हो। और इसको ज्ञान समझे
हो! और बच्चों को समझा रहे हो कि सच बोलो। अच्छे काम करो।
कौन-सा
काम अच्छा है?
किस काम को तुम अच्छा कहते हो? किस कसौटी पर
कसते हो? गऊ-माता की सेवा करना अच्छा है? तो गऊ-भक्त हैं इस देश में! आदमी को जीना मुश्किल हो रहा है--गऊ की चिंता
पड़ी है! और गऊएं मर रही हैं, सड़ रही हैं। जैसा इस देश में सड़
रही हैं--दुनिया में कहीं नहीं सड़ रही हैं!
दुनिया
भर में गाएं स्वस्थ हैं,
सुंदर हैं। कितना दूध देती हैं दुनिया में गाएं! और ये गऊ-माता के
भक्त--पुरी के शंकराचार्य से लेकर गुजरात के शंभू महाराज तक--ये सारे के सारे
गऊ-माता के भक्त। और दूध गाय देती है आधार सेर! स्वीडन में देती है चालीस सेर। और
कोई गऊ-भक्त नहीं। गऊएं भी खूब हैं! बेटों पर नाराज होती हैं। भक्तों पर बिलकुल
प्रसन्न ही नहीं हैं।
भक्ति
से क्या खाक कुछ होगा?
लेकिन किसी की दृष्टि में जीवन भर गऊ सेवा--यह अच्छा कार्य है।
कैसे-कैसे
लोग हैं! किस बात को अच्छा कहते हो! इस दुनिया में ऐसी कोई बात नहीं, जिसको
कहीं न कहीं अच्छा न माना जाता हो--और उसी बात को कहीं न कहीं बुरा न माना जाता
हो।
अब
जैसे जैन रात्रि को भोजन नहीं करते। वह महापाप है। और मुसलमान--जब वे उपवास करते
हैं, तो रात्रि को भोजन करते हैं। वह महापुण्य है। दिन भर भोजन न करेंगे। दिन
भर उपवास--रोजा; रात भोजन करेंगे। तब रोजा तोड़ा जाता है,
तब उपवास तोड़ा जाता है। और जैनों के लिए महापाप! रात्रि भोजन
महापाप! सूरज डूबा कि बात खतम। फिर भोजन नहीं कर सकते।
किसको
अच्छा कहते हो?
क्या कसौटी है? अब तक कोई मानवीय कसौटी
तुम्हारे सामने है?
कृष्ण
अर्जुन से कहते हैं कि जी भर कर मार, क्योंकि आत्मा न मरती है, न मारी जा सकती है। तू कहां भागा जा रहा है?
अर्जुन
पर लगता है--जैन शास्त्रों का प्रभाव पड़ गया था! उस समय जैनों के बड़े तीर्थंकर
नेमिनाथ मौजूद थे--उस काल में। वे कृष्ण के चचेरे भाई थे। लगता है नेमिनाथ की छाया
पड़ गई अर्जुन पर भी। अर्जुन बड़ी ज्ञान की बातें बोलने लगा! उसने कहा, मैं जाता
हूं। क्या करना मार कर इन सबको? क्या मिलेगा इतने लोगों को
मार कर?
और
थोड़े लोग नहीं मरे। अगर हम उनके हिसाब को मान कर चलें, तो कोई
सवा अरब लोग मरे। हालांकि इतने लोग मर नहीं सकते। यह बात झूठ है। सवा अरब आदमी उस
समय सारी दुनिया में नहीं थे। बुद्ध के समय में भारत की कुल आबादी दो करोड़ थी। तो
कृष्ण के समय में तो एक करोड़ से ज्यादा नहीं हो सकती--पूरी आबादी।
और
जरा सोचो भी: कुरुक्षेत्र के मैदान में कितने आदमी खड़े कर सकते हो? फुटबाल या
हाकी का मैच करना हो, तो मुश्किल पड़ जाए, कि अगर एक लाख आदमी देखने इकट्ठे हो जाएं, तो मुसीबत
हो जाए। वहां एक अरब नहीं, सवा अरब आदमी मारे गए! जहां सवा
अरब आदमी मारे गए हों, वहां कम से कम दस अरब आदमी लड़े
होंगे--नहीं तो मारेगा कौन! कि उन्होंने खुद ही छाती में छुरा मार लिया और मर गए?
आखिर हाथी-घोड़ों को भी खड़ा करने की जगह चाहिए। जहां सवा अरब आदमी
मरे हों, वहां कितने रथ और कितने हाथी और कितने घोड़े रहे
होंगे! ये कुरुक्षेत्र में बनेंगे? पूरा भारत भी अगर
युद्ध-क्षेत्र बन जाए तो।...
अभी
भी भारत की आबादी कुल सत्तर करोड़ है। एक अरब होगी इस सदी के पूरे होते-होते। यह
पूरे भारत को अगर हम युद्ध का मैदान बना लें, तो शायद सवा अरब आदमियों को मारा
जा सके। तब भी बड़ी भीड़भाड़ हो जाएगी।
मगर
अगर मान लो कि सवा अरब आदमी मारे गए, तो अर्जुन ठीक ही कह रहा है कि
इतने आदमी मारना और राज्य के लिए, पद-प्रतिष्ठा के
लिए!...चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात! इसके लिए क्या इतना उपद्रव करना?
और इन सबको मार कर फायदा क्या होगा? राज्य ही
मिलेगा! न और मौत आएगी--सब छिन जाएगा!
और
अपनों को मार कर...। ये सब अपने ही है क्योंकि परिवार का ही झगड़ा था। उस तरफ भी
अपने लोग हैं,
इस तरफ भी अपने लोग हैं। दोनों तरफ रिश्तेदार ही खड़े हैं। कोई भाई
है। कोई चचेरा भाई है। कोई ममेरा भाई है। कोई बहिन के रिश्तेदार हैं। कोई किसी और
तरफ से रिश्तेदार हैं। एक ही गुरु के शिष्य हैं ये सब, द्रोणाचार्य
के। शिष्य इस तरफ लड़ रहे हैं, द्रोणाचार्य उस तरफ लड़ रहे
हैं। कृष्ण इस तरफ खड़े हैं, उनकी फौजें उस तरफ खड़ी हैं!
किसको मार रहे हो? क्या फायदा है?
लेकिन
कृष्ण ने कहा कि अर्जुन,
अज्ञान की बातें न कर। आत्मा न तो मरती है, न
मारी जा सकती है। न हन्यते हन्यमाने शरीरे। शरीर मरता है--आत्मा तो मरती नहीं।
नैनं दहति पावकः नैनं छिंदंति शस्त्राणि--त तो शस्त्र छेद सकते हैं और न आग जला
सकती है। तू कैसी अज्ञान की बातें कर रहा है? जी भर कर मार।
कोई पाप नहीं है।
किसको
मानें सच? महावीर कहते हैं--कदम भी सम्हाल-सम्हालकर रखो। कहीं चींटी न मर जाए। आदमी
की तो बात छोड़ दो, महावीर के संबंध में कहा जाता है, वे रात करवट नहीं बदलते थे कि रात अंधेरे में करवट बदलें--नंगधड़ंग तो थे
ही, जमीन पर सोते थे, कोई बिस्तर वगैरह
तो था नहीं; पलंग वगैरह का उपयोग तो कर नहीं सकते थे--यह सब
तो पाप है!
ध्यान
रखना, पलंग पर मरे तो नर्क जाओगे। और अकसर लोग पलंग पर ही मरते हैं। कुछ
सौभाग्यशाली लोगों को छोड़ कर--जो हवाई जहाज में मर जाते हैं; कि कोई रेलगाड़ी में मर जाते हैं; कोई कार के
एक्सिडेंट में मर जाते हैं। कुछ थोड़े से सौभाग्यशाली लोगों को छोड़ दो...। जिसको
तुम दुर्घटना कहते हो। और जिसको तुम कहते हो ठीक-ठीक मरना, वह
तो खाट पर ही होता है। निन्यानबे प्रतिशत आदमी तो खाट पर ही मरते हैं! खाट से जरा
सावधान रहना।
मैं
जबलपुर बीस साल रहा। वहां एक गाली चलती है, जो और मुल्क में कहीं नहीं चलती।
वह गाली है--तेरी खाट खड़ी कर दूंगा! मैं भी बहुत चौंका, जब
पहली दफा सुनी--कि खाट खड़ी कर दूंगा--इसका मतलब! उन्होंने कहा, इसका मतलब कि खाट की अर्थी बना देंगे। खाट खड़ी कर देंगे!
खाट
पर ही लोग मरते हैं। वह मरने की गाली है। वे मरने का अभिशाप दे रहे हैं कि खाट को
तेरी अर्थी बना देंगे! जब कोई मरता है, तो कहते हैं, उसकी खाट खड़ी हो गई! वे तो लेट गए; उनकी खाट खड़ी हो
गई! वे क्या लेटे--अर्थी उठ गई!
महावीर
कोई खाट पर नहीं सोते थे। होशियार आदमी रहे होंगे! अरे, खाट पर
मरना हो जाता है! ऐसी झंझट ही क्यों लेना। जमीन पर ही सोते। और जमीन पर
चींटे-मकोड़े-कीड़ा...! और भारत में क्या-क्या जीव-जंतु पलते हैं! जब तो चौरासी करोड़
योनियों का खयाल आया। किसी को नहीं आया दुनिया में यह खयाल। हमको आया खयाल!
क्या-क्या मच्छड़! क्या-क्या खटमल! अरे, खाट भी छोड़ दोगे,
तो भी खटमल नहीं छूटेंगे।
तो
महावीर बेचारे करवट नहीं बदलते रात में, कि कहीं करवट बदलने में कोई खटमल
दब जाए; कि कोई मच्छड़ दब जाए! और नंग-धड़ंग महावीर को खटमल और
मच्छड़ सताते तो बहुत होंगे, इसमें कोई शक नहीं। महावीर ने
कहा भी है अपने शिष्यों को कि ध्यान में मच्छड़ बाधा डालेंगे। फिक्र न करना। यह
परीक्षा है। मच्छड़ सदा से दुश्मन हैं ध्यानियों के!
मैंने
तो एक मच्छड़ को अपने बच्चों से कहते सुना है कि बेटा, अगर आज
ठीक से व्यवहार किया, तो सुबह ही बुद्धा-हॉल में ले चलेंगे
प्रवचन सुनवाने! मगर अगर ठीक से व्यवहार किया तो! अगर गड़बड़झाला किए, फिर नहीं ले जाएंगे!
मच्छड़
पुराने दुश्मन हैं। महावीर ने कहा है कि मच्छड़ सताएंगे, ये
व्यवधान खड़ा करेंगे ध्यान में। तपस्वी इन पर ध्यान नहीं देता। तपस्वी तो अपने
ध्यान में ही लगा रहता है। काटे जाओ--कोई फिक्र नहीं। हिलता ही नहीं; डुलता ही नहीं।
और
महावीर को तो और भी मच्छड़ सताते रहे होंगे, क्योंकि जैनी कहते हैं कि जब सांप
ने उनको काटा, तो खून नहीं--दूध निकला! अब मच्छड़ छोड़ेंगे दूध
पीना! ऐसा सस्ता मिलता हो दूध--बिना डेरी गए--कि महावीर को चूसा--और दूध पीया!
पी-पी कर फूले न समाते होंगे!
तो
वह तो महावीर कहते हैं,
करवट भी सम्हल कर लेना। रात लेना ही मत। एक ही करवट सोते रहे
बेचारे। और इधर एक कृष्ण हैं, जो कहते हैं कि जी भर कर मार।
कोई हर्जा नहीं। कौन-सा अच्छा काम है?
जीसस
शराब पीते थे। शराब पीना अच्छा काम है या बुरा? मोरारजी भाई स्वमूत्र पीते हैं। अब
स्वमूत्र पीना अच्छा काम है या बुरा? किसको कहोगे? किसको तय करोगे? कैसे तय करोगे?
रामकृष्ण
परमहंस मछली खाते थे। बंगाली और मछली न खाएं बहुत मुश्किल! मछली और चावल--इसके
बिना बंगाली बनता नहीं! इसलिए तो बिलकुल फुसफुसा होता है! इसलिए कहते हैं--बंगाली
बाबू। बाबू तो बंगाली ही होता है। पंजाबी को बाबू नहीं कह सकते तुम। वह बाबू होता
ही नहीं। वह बिलकुल ठोस होता है।
बंगाली
बाबू होता है। बंगाल की हवा में थोड़ा--बिहारी बाबू होता है। मगर थोड़ा। पचास
प्रतिशत। फिर वहीं खतम हो जाते हैं। असली बाबू वहीं खतम हो जाते हैं।
पंजाबी
को बाबू कहोगे?
ये विनोद बैठे हैं--इनको बाबू कहोगे! ये हमारे संत महाराज बैठे
हैं--इनको बाबू कहोगे! ये लट्ठ ले कर खड़े हो जाएंगे। ये समझेंगे--गाली दे रहे हो।
बाबू का मतलब भी गाली ही होता है। बाबू का मतलब होता है: बू-सहित; जिसमें बास आती हो।
असल
में अंग्रेजों ने बंगालियों के लिए यह गाली खोजी थी। क्योंकि बंगालियों में मछली
की बास आती है।
पहली
राजधानी अंग्रेजों ने कलकत्ता में बनाई और बंगालियों से पाला पड़ा। और बंगालियों
में बास आती है--आएगी ही। मछली खाओगे, तो बास नहीं आएगी, तो क्या होगा! झर-झर के रोएं-रोएं से मछली की गंध उठेगी।
तो
अंग्रेजों को बास आने के कारण उन्होंने यह शब्द खोजवाया कि इनको नाम क्या
देना--बा-बू--बू-सहित! और क्या मजा है! जो गाली की तरह उपयोग किया, वह सम्मान
बन गया! जब सत्ताधिकारी गाली भी देते हैं, तो वह सम्मानजनक
हो जाता है। क्योंकि बाबू वे उन्हीं को कहते थे, जो उनके पास
थे। पास थे मतलब--ऊंचे पदों पर थे। गवर्नर के पास जो था, वह
गवर्नर की कौंसिल का सदस्य था।
तो
बाबू सम्मानित शब्द हो गया। बाबू कोई ही हो सकता था; सभी नहीं हो सकते थे।
कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर--ये बाबू थे। तो फिर सम्मान का शब्द
हो गया। फिर हम जिनको भी सम्मान देना चाहते हैं, उनको कहते
हैं--बाबू--बाबू जगजीवन राम! उनको भी शरम नहीं आती कि कह दें कि क्या गाली दे रहे
हो! शायद पता भी न हो। जग्गू भैया--बेहतर! बाबू राजेंद्रप्रसाद! नाम के पहले ही
गाली लगी है!
रामकृष्ण
तो मछली खाते थे। अब मछली खाने को अच्छा काम कहोगे कि बुरा? विवेकानंद
भी मछली खाते थे। कश्मीर के ब्राह्मण भी मांसाहारी हैं। इसलिए तो नेहरू मांसाहारी
हैं। क्योंकि वे कश्मीरी ब्राह्मण।
किसको
अच्छा कहते हो। क्या कसौटी है अच्छे की? बाहर के जगत में कोई कसौटी नहीं
है। कसौटी तो सिर्फ एक है और वह ध्यान है।
तुम
जब ध्यान को उपलब्ध होओ,
तो तुम्हें पता चलता है: क्या मेरे लिए ठीक है, और क्या मेरे लिए गलत। और जो तुम्हारे लिए ठीक है, जरूरी
नहीं सबके लिए ठीक हो। और जो तुम्हारे लिए गलत है--जरूरी नहीं, सबके लिए गलत हो। जो तुम्हारे लिए अमृत है, वह किसी
के लिए जहर हो सकता है। और जो तुम्हारे लिए जहर है, वह किसी
के लिए औषधि हो सकती है। लेकिन यह व्यक्तिगत निर्णय होगा। इसकी कोई सामूहिक धारणा
नहीं हो सकती।
मगर
हर मां-बाप अपने बच्चों के ऊपर, रजनीकांत! थोप देता है कि यह अच्छा काम है।
इसको करो। जो उसकी धारणा है अच्छे काम की। इसका कुल परिणाम इतना होता है कि वह
अच्छे काम करे या न करे...। क्योंकि हो सकता है, वह अच्छा
काम उसको रुचे ही न। वह उसको प्रीतिकर ही न पड़े। लेकिन इसका एक परिणाम जरूर
होगा--और वह यह होगा कि वह पाखंडी हो जाएगा। ऊपर-ऊपर से दिखाएगा अच्छा काम कर रहा
है, और भीतर-भीतर से जो उसे करना है, वह
करेगा। इसलिए उसके दोहरे चेहरे हो जाएंगे। उसकी जिंदगी दो खंडों में बंट जाएगी।
मैं
एक जैन ब्रह्मचारी के साथ यात्रा को निकला। बड़ी इंपाला कार! और जब जैन ब्रह्मचारी
उसमें आ कर बैठे,
तो उनके पहले उनके शिष्य ने इंपाला गाड़ी की गद्दी पर चटाई ला कर रख
दी! फिर उस पर चटाई पर ब्रह्मचारी जी विराजमान हो गए।
मैं
तो बड़ा हैरान हुआ। मैंने कहा कि मैं कुछ समझा नहीं--यह चटाई का राज। गद्दी काफी
सुखद है, अब और इस पर चटाई किसलिए रखनी?
उन्होंने
कहा, हम तो चटाई पर ही बैठते हैं। हमें गद्दी से क्या लेना-देना!
इंपाला
कार की गद्दी पर बैठे हुए हैं, मगर बीच में चटाई! वे अपनी चटाई पर बैठे हुए
हैं!
मैंने
कहा, तुम्हारी चटाई आकाश में उड़ रही है? यह इंपाला कार चल
रही है कि तुम्हारी चटाई चल रही है?
उन्होंने
कहा, हमें क्या मतलब!
मैं
आचार्य तुलसी के एक अणुव्रत सम्मेलन में बोला, तो उनको बड़ी अड़चन हुई। अड़चन यह हुई
कि कोई बीस हजार लोग इकट्ठे हुए थे। वे सब मेरी बात सुन सके, समझ सके। वे खुद बोले, तो बिना माइक के बोले। तो
कितने लोग समझें! सौ दो सौ लोग सुन पाए। इसका कोई परिणाम नहीं हुआ। दूसरे दिन देखा
कि माइक लग गया! मैंने उनसे पूछा कि जैन मुनि तो माइक का उपयोग नहीं करते, क्योंकि जैन शास्त्रों में उल्लेख नहीं है। हो भी कैसे? माइक था भी नहीं उन दिनों। तो आप माइक का उपयोग कैसे कर रहे हैं?
उन्होंने
कहा, मैं उपयोग नहीं कर रहा। मैं तो बोल रहा हूं। अब किसी ने माइक ला कर रख
दिया, तो मैं क्या करूं!
और
तब से बीस साल हो गए,
कोई न कोई माइक ला कर रख देता है--रोज! अब बेचारे आचार्य तुलसी क्या
करें। वे तो अपना बोल रहे हैं; उनको तो अपना बोलना है। वे
नहीं कहते किसी से कि माइक रखो, कि न रखो।
अब
क्या दोहरे झूठ चलते हैं! यह उनके ही इशारे पर माइक रखा गया है। इसके पहले क्यों
नहीं रखा गया था?
उस दिन जो उन्होंने देखा कि उनकी बात का कोई परिणाम नहीं हुआ,
तो उनको धक्का लगा। अहंकार को चोट लग गई। तो उस दिन से माइक रखा
जाने लगा। इशारा उन्होंने ही किया होगा--मगर पीछे के दरवाजे से।
तो
मैंने कहा, ठीक है। अगर कोई माइक उठा ले--फिर? उन्होंने कहा,
मतलब!
मैंने
कहा, कल मैं माइक उठा कर बता दूंगा।
उस
दिन से जो मेरी उनसे खटपट हो गई, वह चलती है। मैंने माइक उठाया नहीं; सिर्फ कहा था कि कल मैं उठा कर बता दूंगा। मगर तब से उनके मन में एक
दुश्मनी छिड़ गई।
दूसरे
दिन तो मेरा जो प्रवचन होना था, वह उन्होंने रद्द ही कर दिया। क्योंकि उनका ही
सम्मेलन था। प्रवचन ही रद्द नहीं किया कि कहीं मैं माइक न उठा लूं, मुझे लेने जो आने वाले थे, जहां मुझे ठहराया गया
था--वे लेने ही नहीं आए वक्त पर। अब यह भी इशारा किया होगा क्योंकि यह मैंने निजी
तौर से कहा था, किसी और से तो कहा नहीं था। यह कैसे प्रवचन
रद्द हुआ? मुझे कोई लेने नहीं आया--यह कैसे हुआ?
और
मैंने उनसे कहा कि कोई आ कर, आप खाना खा रहे हैं और गौ-माता का गोबर रख दे,
तो आप खा लेंगे--कि मैं क्या करूं अब; इसने
थाली में परोस दिया? तो वे कहने लगे, क्या
बातें करते हैं!
मैंने
कहा कि मैं सिर्फ यह पूछे रहा हूं कि यह माइक जो रखा गया है, साफ-साफ
क्यों नहीं कहते कि माइक से बोलना है! बोलो माइक से, मुझे
कोई एतराज नहीं। मैं तो कहता हूं कि बोलना ही चाहिए।
एक
जैन साध्वी मुझे मिलने आई। देखा, उसने पैर पर कपड़े की पट्टियां बांध रखी हैं।
मैंने पूछा, क्या हुआ! तो वह बोली कि अब धूप है और पैर में
छाले हो गए हैं।
तो
मैंने कहा, कपड़े का जूता मिलता है। नाहक ये चिंदियां बांधना! इससे जूता क्यों नहीं
पहन लेती?
जूते
का शास्त्रों में विरोध है!
तो
चप्पल पहन ले। चप्पल तो थी नहीं उस समय, तो चप्पल का कोई विरोध है भी नहीं।
मैंने कहा, शास्त्र में तो मैं रास्ता निकाल सकता हूं। चप्पल
का उल्लेख ही नहीं है। चप्पल पहन ले। देख, मैं चप्पल पहनता
हूं कि नहीं! शास्त्र सम्मत एक ही बात करता हूं बस। कि जूता नहीं पहनता। जूता मुझे
रास नहीं आता। तू चप्पल पहन ले।
और
चप्पल तो अब प्लास्टिक की बन सकती है; रबर की बन सकती है। चमड़े का जूता
बनता था उन दिनों, इसलिए महावीर ने कहा कि चमड़े का जूता मत
पहनना। कपड़े का जूता बनता नहीं था। रबर का जूता बनता नहीं था। नहीं तो मना नहीं
करते। क्योंकि चमड़े का मतलब है कि हिंसा होगी। किसी न किसी जानवर को मारा जाएगा।
उसकी खाल उधेड़ी जाएगी। मत करना इतनी हिंसा। मगर अब तो कोई सवाल नहीं है। अब तो
प्लास्टिक की भी चप्पलें हैं, जिसमें किसी की कोई मृत्यु
नहीं होती। और फिर ये इतनी पट्टियां बांधना और गंदी पट्टियां, क्योंकि वह रास्ते पर चलेगी पट्टियां बांध कर। सारा पैर बंधा हुआ है कपड़े
से!...
तो
उसने कहा कि वह ठीक है। लेकिन मैंने अपने गुरुदेव को पूछा। तो गुरु ने कहा कि इतना
कर सकती है कि पट्टियां बांध सकती है। वे भी बांधते हैं पट्टियां--गर्मी के दिन
में।
स्वभावतः
महावीर चलते थे,
तो मिट्टी थी रास्ते पर; अब सीमेंट है। सीमेंट
ही नहीं, कोलतार की सड़कें हैं। और गर्मी में कोलतार पिघलता
है, उस पर जैन मुनि और साध्वियों को चलवाना! नर्क होगा कहीं
आगे--इनको नाहक यहीं नर्क में डाल दिया! कोलतार गर्म हो जाता है, पिघल जाता है--उस पर इनके पैर जले जाते हैं। अब ये न पहनें जूते, तो कपड़े बांध लेते हैं।
मगर
कपड़ा बांधना--यह बेहूदा ढंग हुआ! जूता है क्या आखिर? कपड़ा बांधने का ही ठीक-ठीक,
समुचित, वैज्ञानिक रास्ता है। लेकिन इस तरह का
पाखंड पैदा हो जाता है।
अच्छे
काम की धारणा तुम अगर दूसरे से लोगे रजनीकांत, तो इससे पाखंड पैदा होने वाला है।
हिंसा न करो--समझाया जाता है। मगर तुम्हें कुछ बोध नहीं है, आत्मबोध
नहीं है। तुम जो भी करो, उसमें हिंसा हो जाएगी। कैसे बचोगे
हिंसा से?
जैनों
के हिसाब से तो फल भी खाना हिंसा है--क्योंकि उसमें भी जीवन है--वृक्ष में। फल में
भी जीवन है। फल तोड़ना हिंसा है; जब तक कि फल पक कर अपने आप न गिर जाए। और तब तक
तोते, और कौए, और जमाने भर के
पशु-पक्षी, वे नहीं छोड़ेंगे। वे तुम्हारे पहले खा जाएंगे।
पकने के पहले उनको पता चल जाता है। तुम तक बचने देंगे वे! गिरने के पहले खा
जाएंगे।
पका
फल जब गिरे अपने आप,
तो हिंसा नहीं है। तुमने तोड़ा तो हिंसा है। सब्जी खाओगे--हिंसा है।
इसलिए जैनों ने खेतीबाड़ी बंद कर दी। क्योंकि खेतीबाड़ी में तो वृक्ष काटने पड़ेंगे,
पौधे काटने पड़ेंगे; और हिंसा होगी--महान हिंसा
होगी! मगर गेहूं तुम खा रहे हो। कोई दूसरा काट रहा है। लेकिन काट तुम्हारे लिए रहा
है।
तुमने
किसी को पैसे दे कर किसी की हत्या करवा दी। क्या तुम सोचते हो, तुम हत्या
के भागीदार नहीं? क्या तुम सोचते हो, जिसने
हत्या की, वही भागीदार है? ज्यादा तो
तुम्हीं भागीदार हो। तुमने ही पैसा दे कर हत्या करवा दी।
तो
माली बगीचे में काम कर रहा है पैसे ले कर। खेत में किसान काम कर रहा है, क्योंकि
पैसा मिलेगा। करवा तो तुम रहे हो। कटवा तुम रहे हो। मगर तुम निश्चिंत हो कि हिंसा
मैं नहीं कर रहा; हिंसा कोई और कर रहा है! हमें क्या
लेना-देना! हम तो अलग खड़े हैं। हम तो दूर खड़े हैं।
हिंसा
तो श्वास लेने में भी हो रही है। एक बार जब तुम श्वास लेते हो, तो कम से
कम एक लाख जीवाणु मरते हैं। कैसे बचोगे हिंसा से?
आत्मबोध
हो, तो तुम जो भी करोगे, उसमें प्रेम होगा।
मैं
हिंसा से बचने को नहीं कहता। नहीं कह सकता। क्योंकि जीवन ही हिंसा है। मैं तो इतना
ही कह सकता हूं कि कितना तुम्हारा प्रेम प्रगाढ़ हो जाए, उतनी कम
हिंसा। और प्रेम अगर परिपूर्ण हो जाए, तो अभी वैज्ञानिकों ने
खोज की है कि अगर वृक्षों को भी प्रेम से काटा जाए, तो हिंसा
नहीं है। इसके अब तो वैज्ञानिक सबूत उपलब्ध हैं। क्योंकि इस तरह के यंत्र बन गए
हैं, जैसे तुमने कार्डियोग्राम देखा, जिसमें
तुम्हारे हृदय की धड़कनों की जांच-परख की जाती है। जैसे नब्ज तुम्हारी देखता है
चिकित्सक, या तुम्हारा रक्तचाप देखता है, वैसे ही सूक्ष्म यंत्र बन गए हैं, जो वृक्षों की
संवेदनशीलता को आंकते हैं।
जब
वृक्ष दुखी होता है,
तो यंत्रवत में से चीख की आवाज आती है। और जब वृक्ष आनंदित होता है,
तो यंत्र में से दूसरी आवाज आती है--सुमधुर--जैसे गीत गा रहा हो!
इशारे यंत्र में आ जाते हैं। ग्राफ बन जाता है, कि वृक्ष
दुखी है या सुखी है।
जब
कोई आ कर वृक्ष को क्रूरता से काटने लगता है, तो चीख उठ आती है यंत्र में। ग्राफ
एकदम बिगड़ जाता है; एकदम अस्तव्यस्त हो जाता है। लेकिन अगर
तुम प्रेम से वृक्ष को कहो कि एक फल मुझे चाहिए। तुम चकित होओगे। वृक्ष यूं बोलते
नहीं, लेकिन तुम्हारे प्रेम को समझेंगे, तुम्हारी भाषा को समझते हैं। तुम अगर प्रेम से कहो, मुझे
एक फल चाहिए; मैं भूखा हूं। तुम्हारी बड़ी कृपा होगी--मुझे एक
फल दे दो। और तुम एक फल प्रेम से तोड़ लो, तो यंत्र में ग्राफ
बनता है, जिसमें कोई चीख-पुकार नहीं--कोई चीख-पुकार नहीं! ग्राफ
संगीतपूर्ण बना रहता है। अस्तव्यस्त नहीं होता; असंगत नहीं
होता; विसंगत नहीं होता। रेखाएं एकदम अराजक नहीं हो जातीं।
वही पूर्ण लयबद्धता बनी हरती है।
और
चकित होओगे तुम यह जान कर कि एक वृक्ष को तुम जब काटते हो, तो आसपास
के खड़े वृक्ष भी दुखी होते हैं। वही वृक्ष दुखी नहीं होता। उन वृक्षों की
संवेदनशीलता भी जांची गई है। पाया गया है कि वे सब दुखी हो जाते हैं। और यूं ही
नहीं कि एक वृक्ष को काटने पर दुखी होते हैं। तुम एक पक्षी को मारो, तो भी वृक्ष दुखी होते हैं।
तो
महावीर ने ठीक कहा कि वृक्षों में जीवन है। महावीर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने
कहा कि वृक्षों में परिपूर्ण जीवन है--उतना ही, जितना तुम
में।
बात
तो सही कही। ध्यान के अनुभव से कही। लेकिन परिणाम जैनों में क्या हुआ! कुल इतना
हुआ कि इन्होंने खेतीबाड़ी बंद कर दी। परिणाम यह होना चाहिए था कि उन्हें खेतीबाड़ी
का कोई नया सृजनात्मक,
प्रेमपूर्ण मार्ग खोजना था।
केनेडा
के एक विश्वविद्यालय में उन्होंने एक ही तरह के पौधे लगाए--दो पंक्तियों में, थोड़े से
फासले पर। उनको एक-सी खाद दी। एक-सा पानी दिया। कोई और भेद नहीं। बराबर उम्र के
पौधे लगाए। लेकिन एक पंक्ति में पौधों को माली ने प्रेम दिया। थपथपाए। दो बात करे।
उनसे कहे कि जल्दी बड़े हो जाओ! प्रतीक्षा कर रहा हूं। खिलो। फूल बने। और दूसरों की
बिलकुल उपेक्षा करे। उसे कोई बात नहीं। उनकी तरफ से पीठ कर के चला आए। उनको सुविधा
उतनी ही दे, जितनी पहले को, लेकिन
प्रेम बिलकुल नहीं।
और
चकित हुए वैज्ञानिक यह जान कर कि जिन पौधों को प्रेम दिया गया, वे दुगुने
बड़े हुए। उनके फूल दुगुने बड़े हुए। उनके फूलों की शान और। उनकी गंध और। और जिन
पौधों को कोई प्रेम नहीं दिया गया, वे अधूरे ही बढ़े। उनके
फूल भी छोटे आए। उनकी गंध भी वैसी प्रगाढ़ न थी। उनका सौंदर्य और निखार भी वैसा न
था।
अगर
मैं तुमसे कहूंगा,
तो यह नहीं कहूंगा कि खेतीबाड़ी बंद कर दो। मैं तुम्हें खेतीबाड़ी का
नया ढंग सिखाऊंगा। क्योंकि खेतीबाड़ी कैसे बंद हो सकती है? कोई
तो करेगा। तुम बिना भोजन के तो नहीं रह सकते। महावीर भी नहीं रह सकते। कोई जैन
नहीं रस सकता। तो कोई खेतीबाड़ी करेगा।
तो
फिर खेतीबाड़ी करने का कोई प्रेमपूर्ण ढंग खोजना चाहिए। जब खेतीबाड़ी करनी ही है, जब बगीचा
लगाना ही होगा, तो कोई नया ढंग खोजना ही होगा। ऐसे भगोड़ेपन
से काम नहीं चलेगा। हिंसा मत करो--इतने से काम नहीं चलेगा। प्रेम करो। विधायकता
देनी होगी। हिंसा मत करो--यह नकारात्मक बात है। नकार से जीवन नहीं जीया जाता।
विधेय से जीवन जीया जाता है। लेकिन विधेय पैदा होता है ध्यान से। और नकार पैदा
होता है विचार से।
तुम
सिर्फ विचार के अनुसार चल रहे हो। कोई सिखाता है उधार, तुम सीख
लेते हो और चल पड़ते हो। तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति नहीं होती।
तुमसे
कहा जाता है,
पाप न करो। यह ऐसे ही है, जैसे कोई अंधे से
कहे कि देखो, फर्नीचर से मत टकराना। अब अंधा निकलेगा,
तो टकराएगा। दीवाल से टकराएगा, फर्नीचर से
टकराएगा। उसकी लकड़ी खट-खट कर के चारों तरफ ठोंक-पीट कर जांच करेगा, तब चलेगा। नहीं तो वह हाथ-पैर तोड़ लेगा अपने। लेकिन जिसके पास आंख हैं,
उससे तुम नहीं कहते कि फर्नीचर से मत टकराना। तुम जानते हो, उसके पास आंख हैं; उसे दरवाजा दिखाई पड़ता है,
वह दरवाजे से निकल जाएगा।
ध्यान
भीतर की आंख को खोल देता है। बाहर की शिक्षा, अंधे को दी गई शिक्षा है।
पाप
न करो। अभी तुम्हें पता ही नहीं कि पाप क्या है। पाप जानोगे कैसे? आंख कहां?
अभी पुण्य क्या है? पाप क्या है? इसलिए बड़ा उलटा काम चलता रहता है।
पुण्य
के नाम से तीर्थयात्रा कर आते हो। गंगा नहा आए। हज यात्रा कर आए। सौ-सौ चूहे खाय
के बिल्ली चली हज को! और फिर लौटती है, तो हाजी हो जाती है! हाजी मस्तान!
छोटी-मोटी हाजी नहीं। मुंह में राम बगल में छुरी! दोनों साथ-साथ चलेंगे। राम-राम
भी करते रहोगे, और जेबें भी काटते रहोगे। क्योंकि खुद की कोई
दृष्टि तो नहीं है।
और
मजा यह कि खुद की दृष्टि न हो, तो एक अदभुत घटना घटती है। तुम थोथा पाखंड जीते
हो; उसको समझते हो पुण्य। और हर-एक आदमी का पाप तुम्हें
दिखाई पड़ता है--हर-एक पापी! इससे अहंकार और मजबूत होता है।
यहां
दूसरे की भूलें देखना बहुत आसान है। दूसरे की छोटी-सी भूल पहाड़ जैसी मालूम पड़ती
है। तिल का ताड़ हो जाता है। अपनी भूल दिखाई ही नहीं पड़ती। क्योंकि अपने भूल देखने
के लिए जागरूकता चाहिए,
ध्यान चाहिए।
मैंने
सुना: एक सेनापति अपनी फौज का निरीक्षण कर रहा था। सारे फौजी सज-बज कर आए थे। बड़ा
सेनापति आ रहा था। और फौजियों का अधिकतम काम सजना ही बजना है। और तो काम कभी-कभी
आता है। तो कपड़े--लोहा--कलफ! जूतों पर पालिश रगड़-रगड़ कर--घंटों उस पर मेहनत करते
हैं। संगीनों पर मालिश। संगीनों को चमकाना। तलवारों को चमकाना। सजे-बजे खड़े थे सब।
और सेनापति बड़ा प्रसन्न था। तभी उसने देखा कि एक जनाब के पैंट के बटन ही खुले हैं!
भनभना गया।
फिर
फौजी भाषा तो तुम जानते ही हो! एकदम चिल्लाया, अरे कुत्ते के पिल्ले! अरे उल्लू
के पट्ठे! पैंट के बटन बंद कर। शर्म नहीं आती! इसी वक्त बंद कर।
वह
जवान बोला...। घबड़ा गया। सकपका गया। उसने कहा, हुजूर, अभी
यहीं!
उसने
कहा, अभी--यहीं। पूछता क्या है! बंद कर।
और
उस जवान ने सेनापति के पैंट के बटन बंद कर दिए। खुले हुए थे। मगर कौन कहे। वह तो
जब उसने बंद किए,
तब सेनापति को पता चला!
जिंदगी
बड़ी अजीब है यहां। यहां दूसरे के दोष दिखाई पड़ जाते हैं; अपने दोष
दिखाई नहीं पड़ते। दिखाई भी कैसे पड़ें। अपने दोष को देखने के लिए भीतर की आंख
चाहिए।
पाप
न करो। हिंसा न करो। अच्छे काम करो। सच बोलो। तुम कहते हो रजनीकांत, हम
संन्यासी इसी रास्ते पर जाने की कोशिश करते हैं, तो हमारा
विरोध क्यों? विरोध इसीलिए कि तुम सच में ही इस रास्ते पर जा
रहे हो। कोई नहीं चाहता कि सच में ही तुम इस रास्ते पर जाओ। बस, बातें अच्छी-अच्छी करो। करते रहो बेईमानी--और ईमानदारी की तख्ती लगाए रखो।
राम-राम जपते रहो; माला फेरते रहो--और जब मौका लग जाए,
तो चूको मत; अवसर चूको मत। जब हाथ लग जाए कोई
मौका, मत चूक चौहान! मार दो हाथ। फिर राम-राम जप लेना। फिर
गंगाजल पी लेना। क्या बिगड़ता है!
यहां
जिंदगी पाखंड सिखा रही है।
जो
तुमसे कहते हैं,
अच्छे काम करो। सच बोलो। हिंसा न करो। पाप न करो। वे ही तुमसे कह
रहे हैं कि बेटा, संसार में कुछ कर के दिखा जाना। नाम छोड़
जाना। प्रधानमंत्री हो जाना कम से कम। राष्ट्रपति हो जाना। अरे, कुछ तो हो जाना!
वे
ही सिखा रहे हैं--महत्वाकांक्षा। वे कहते हैं, कक्षा में प्रथम आना। आगे खड़े होना
दुनिया में। धन कमाना। नाम कमाना। यश कमाना। समय की रेत पर कोई चिह्न छोड़ जाना।
इतिहास में स्वर्ण-अक्षरों में तुम्हारा नाम लिखा जाए। कुल की मर्यादा रखना! अब ये
दोनों बातें साथ-साथ नहीं हो सकतीं। अगर महत्वाकांक्षी होओगे, तो झूठ भी बोलना पड़ेगा। राजनीतिज्ञ और झूठ न बोले--असंभव।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक कब्रिस्तान से निकल रहा था। उसने एक कब्र पर देखा कि लिखा है, यहां एक
ईमानदार राजनीतिज्ञ विश्राम कर रहा है! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, एक-एक कब्र में दो-दो आदमी कैसे हो सकते हैं?
ईमानदार
और राजनीतिज्ञ?
ईमानदार हो, तो उसकी कब्र ही न बनेगी। बेईमान
हो, तो शिखर पर चढ़ सकता है यहां दुनिया के। जितना कुशल हो,
जितना बेईमान हो, जितना चालबाज हो, जितना चतुर हो, जितना कपटी हो--कहे कुछ, बोले कुछ, करे कुछ! जिसको पहचान ही न पाओ कि आ रहा
है कि जा रहा है।...
मुल्ला
नसरुद्दीन का एक मित्र है राजनेता। एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन ने उससे कहा कि मैं
बड़ा परेशान रहता हूं। लोग आ जाते हैं, बैठ जाते हैं मुहल्ले के। और घंटों
सिर खाते हैं। जाते ही नहीं।
राजनेता
ने कहा, इसकी भी तरकीब है। मुझको देखो, मैं क्या करता हूं!
तुम्हारे पास इतने लोग नहीं आते, जितने मेरे पास आते हैं।
मगर जैसे ही कोई आता है, मैं तत्क्षण उठ कर खड़ा हो जाता हूं।
जूते पहन लेता हूं। छतरी उठा लेता हूं। टोपी लगा लेता हूं। वह आदमी पूछता है कि आप
आ रहे हैं कहीं से कि कहीं जा रहे हैं? तो जैसा आदमी होता
है...। अगर कोई आदमी जिसको मुझे खिसकाना है, तो मैं कहता
हूं--मैं जरा बाहर जा रहा हूं भाई! अगर बिठालना है; काम का
आदमी है, जिससे कुछ मतलब है, तो कहता
हूं--अभी-अभी आया। बड़े मौके पर आ गए!
अब
देखते हो इस आदमी की होशियारी! छाता उठा लिया। टोपी लगा ली। जूते पहन लिए। एकदम
खड़ा हो गया। जो भी आदमी आएगा पूछेगा कि आप आ रहे हैं कि जा रहे हैं! राजनेता का
कुछ पक्का नहीं कि आ रहा है कि जा रहा है!
एक
मां अपने बेटे को समझा रही थी कि बेटा, आदमी तो मिट्टी है। मिट्टी से
आया--मिट्टी में जाता।
दूसरे
दिन बेटा भागा हुआ आया। उसने कहा कि मां, जल्दी आओ।
उसने
कहा, क्या काम ऐसा जल्दी आ पड़ा?
उसने
कहा, जल्दी आ। बिस्तर के नीचे या तो कोई आ रहा है या कोई जा रहा है!
मिट्टी
पड़ी थी। और मां ने कहा था कि मिट्टी में से ही हम आते हैं, और मिट्टी
में ही जाते हैं! तो बेटा बेचारा समझा कि ठीक है। या तो कोई आ रहा है या कोई जा
रहा है! कुछ गड़बड़ हो रही है--बिस्तर के नीचे--मेरे ही बिस्तर के नीचे हो रही है।
अपनी आंखों से देखा!
राजनेता
भी यूं चलता है कि तुम पहचान न पाओ--उत्तर जा रहा कि दक्षिण जा रहा, कि पूरब
जा रहा कि पश्चिम जा रहा!
जिन
लोगों ने भगवान के चतुर्मुखी होने की कल्पना की है, बड़े होशियार रहे होंगे।
चारों मुख! राजनेता के इतने ही होते हैं। चारों दिशाओं में! तुम पहचान ही नहीं
सकते कि पूरब जा रहे हो, कि पश्चिम जा रहे, कि दक्षिण जा रहे कि उत्तर जा रहे! कहीं से आ रहे कि जा रहे--कुछ पक्का
नहीं। देख लेता है कि जो काम की बात हो; जो जिस समय काम आ
जाए--वही बोलने लगता है, वही कहने लगता है, वैसा ही करने लगता है!
मैं
ढेर राजनेताओं को जानता हूं, जो चरखा रखे बैठे रहते हैं! कभी कातते-वातते
नहीं। बस, कोई मिलने आया--कि जल्दी से चरखा कातने लगे!
एक
राजनेता के घर मैं मेहमान था। मैं बड़ा हैरान हुआ, क्योंकि अब मुझसे कब तक
धोखा देते! मैं घर में ही था। सो चरखा चले ही नहीं उनका! और जब भी कोई बाहर से आए,
तत्क्षण वे अपना चरखा ठीक करने लगें। धागा निकालने लगें!
मैंने
उनसे पूछा, यह मामला क्या है? ऐसे कब तक आप कात पाओगे सूत!
क्योंकि वह आदमी आ जाता है, तो आप फिर रख देते हो कि अब वह
आदमी आ गया। और आदमी जब दरवाजे के भीतर आता है, तभी आप धागा
उठाते हो। ऐसे कब तक सूत कतेगा?
उसने
कहा, सूत कातना किसको है! अरे, इन मूर्खों को दिखलाना
पड़ता है। और सूत कातना क्या मुझे आता है--टूट टूट जाता है।
मगर
होशियार राजनेता छोटे-छोटे चर्खे बनाकर रखे हुए हैं! हवाई जहाज में भी ले कर चलते
हैं। काम के कुछ नहीं हैं वे चरखे। खादी तो वे खरीदते हैं--महीन से महीन कि ढाका
की मलमल मात हो। वह कुछ खुद की काती हुई खादी नहीं है। शुद्ध हो, यह भी
जरूरी नहीं है। जहां-जहां तुम देखो कि यह शुद्ध खादी भंडार--समझ लेना कि अशुद्ध
खादी बिकती है। नहीं तो शुद्ध किसलिए लिखा है?
तुम
जानते हो कि जहां-जहां लिखा होता है शुद्ध घी की मिठाई बिकती है, पक्का समझ
लेना कि अशुद्ध घी की बिकती है। जब शुद्ध ही घी की बिकती थी, तो कहीं कोई तख्ती नहीं लगी होती थी: शुद्ध घी की मिठाई बिकती है! वह तो
अशुद्ध जब शुरू होता है, तो शुद्ध की भाषा शुरू हो जाती है।
तुम्हारे
समझाने वाले,
सिखाने वाले, रजनीकांत, चाहते
नहीं कि तुम सच में ही सच बोलो। वे भी यही चाहते हैं कि तुम भी अपने बेटों को सिखा
जाना कि सच बोलो बेटा। अच्छे काम करो बेटा। हिंसा न करो। पाप न करो। और जी भर कर
यही सब करना, क्योंकि इसके बिना कहीं पहुंच न सकोगे। दो कौड़ी
के हो जाओगे।
मेरी
यही झंझट रही अपने अध्यापकों से, अपने परिवार में। क्योंकि अगर मुझसे उन्होंने
कहा, सच बोलो। तो मैं सच ही बोला। फिर उन्हें ही मुझे समझाना
पड़ा कि ऐसा सच नहीं बोलते! तुम बिलकुल ही सच बोल देते हो!
तो
मैंने कहा, आपने कहा कि सच बोलो। तो सच बोल दिया। आप कहते हैं कि घर में नहीं हैं। तो
मैंने जा कर कह दिया कि वे हैं तो घर में ही, लेकिन कहते हैं
कि कह दो घर में नहीं हैं! आप ही कहते हैं, सच बोलो। अब मैं
क्या करूं? या तो साफ-साफ कहो कि झूठ बोलो। या साफ-साफ कहो
कि सच बोलो। या यूं कहो कि जब जैसा मौका हो, तब तैसा बोलो।
मगर कुछ स्पष्ट तो करो बात।
पति
पत्नी झगड़ते रहेंगे और जैसे ही कोई मेहमान आया कि देखो मुस्कुरा रहे हैं एक दूसरे
की तरफ देखकर। सुखी दांपत्य जीवन! और ऐसे एक दूसरे की जान खा रहे हैं!
चंदूलाल
एक होटल में गए और बेयरा से कहा कि भैया, जली-भुंजी रोटी ले आ। सब्जी में या
तो नमक ज्यादा डाल या बिलकुल न डाल। सूप ऐसा बना कि जैसे जीवन-जल का स्वाद!
बेयरा
भी बहुत हैरान हुआ कि आप कह क्या रहे हैं!
तू
मेरी मान, चंदूलाल ने कहा, और फिर सामने बैठ कर मेरी खोपड़ी खा।
उसने कहा, क्यों? उसने कहा, मुझे घर की बहुत याद आ रही है। पत्नी से बिछुड़े तीन महीने हो गए। गुलाबो
की बहुत याद आ रही है। सामने बैठ जा और खोपड़ी खा। पचा, जितनी
पचा सकता हो। सुखी दांपत्य जीवन चल रहा है सब जगह! वह सब धोखा है।
मैंने
सब तरह के दंपति देखे--सुख वगैरह कहीं भी नहीं। इसलिए हर कहानी खतम हो जाती है
विवाह पर। फिल्में भी खतम हो जाती हैं। शहनाई बजने लगती है बिसमिल्ला खान की। और
भांवर पड़ रही है। और फूल फेंके जा रहे हैं। और खेल खतम! क्योंकि फिर! फिर जो होता
है, वह कहना ठीक नहीं। फिर तो दोनों सुख से रहने लगे! अब कहने को क्या बचा। जब
दोनों सुख से ही रहने लगे, तो कहानी कहां बची! फिर तो
दांपत्य जीवन का स्वर्गीय सुख लूटते हैं लोग। और बच्चे देखते हैं कि कैसा दांपत्य
जीवन! क्योंकि बच्चों से कैसे छिपाओगे? देखते हैं कि मां बाप
के पीछे पड़ी है चौबीस घंटे! बाप पिटाई कर रहा है मां की। मां पिटाई कर रही है,
बाप की। यह सब चल रहा है!
चंदूलाल
अपने बेटे झुम्मन के साथ फिल्म देखने गया था। फिल्म में चुंबन लेने की तो मनाही
है। मगर और चीजों की मनाही नहीं है। असली चीजों की मनाही नहीं है। एक पत्नी ने
अपने पति को चांटा रसीद कर दिया। इसकी मनाही नहीं है। यह बड़ा मजा है!
जब
पत्नी ने पति को चांटा रसीद कर दिया, तो पति बिलकुल खड़ा ही रह गया।
झुम्मन अपने बाप से बोला, पिताजी, बिलकुल
आप जैसा है! चंदूलाल ने कहा, चुप रह बे। बेवक्त बातें नहीं
करते। खेल देख। घर में यही चल रहा है!
एक
सेल्समेन दरवाजा खटखटा रहा था। कोई दरवाजा नहीं खोल रहा था। तभी खिड़की से एक आदमी
बाहर आ कर गिरा--धड़ाम से! खिड़की से ही आया था। सो उसने पूछा कि भैया, क्या बता
सकते हो कि घर में घर का मालिक है या नहीं? आपको तो पता ही
होगा, भीतर से ही आ रहे हो!
उसने
कहा कि है घर का मालिक भीतर ही है। अभी यही तो तय हुआ कि घर का मालिक कौन है। हम
नहीं हैं, इतना तो पक्का हो गया। घर का मालिक भीतर है। इसलिए तो हिंदुस्तान में
पत्नी को घरवाली कहते हैं। पति को घरवाला नहीं कहते। घर खरीदे पति--और घरवाली
पत्नी। पति तो खिड़की से फेंक दिए जाते हैं!
मुल्ला
नसरुद्दीन से मैंने पूछा कि घर के हालात कैसे चल रहे हैं? सब
ठीक-ठाक?
उन्होंने
कहा, बिलकुल ठीक-ठीक। फिफ्टी-फिफ्टी!
मैंने
कहा, मतलब!
उन्होंने
कहा कि पत्नी चीजें फेंक-फेंक कर मारती है। जब मुझे चोट लग जाती है, तो वह खुश
होती है। यानी फिफ्टी! जब नहीं लगती, तो मैं खुश होता
हूं--यानी फिफ्टी। फिफ्टी-फिफ्टी चल रहा है। और अभी कल ही निपटारा हो गया है,
फिफ्टी-फिफ्टी वह भी। उसने घर का भीतरी हिस्सा सम्हाल लिया है;
मैंने घर का बाहरी। अब हम बाहर ही रह रहे हैं! मगर शांति बड़ी चीज
है!
ये
मां-बाप तुम्हें क्या सिखाएंगे! कैसे सिखाएंगे? इनका जीवन कुछ और है; ये बातें कुछ और कर रहे हैं! ये शिक्षक तुम्हें कैसे सिखाएंगे? ये पंडित-पुरोहित तुम्हें क्या सिखाएंगे?
मनुष्य
जाति पाखंड में जीई है। और इसलिए चूंकि मेरा संन्यासी प्रामाणिक रूप से जीना चाहता
है--और प्रामाणिक का मेरे लिए अर्थ शास्त्र-सम्मत रूप से नहीं। प्रामाणिक का अर्थ
है--अपने बोध से। और यह बोध उसका निजी होगा, स्वतंत्र होगा; यह किसी के द्वारा आरोपित नहीं होगा। इसलिए मेरे संन्यासी का विरोध होने
ही वाला है। इसमें कुछ आश्चर्यचकित करने वाली बात नहीं है।
अगर
तुम प्रामाणिक होकर जीओगे,
तो पाखंडी समाज में तुम्हारा विरोध होगा ही। क्योंकि तुम उन सबके
पाखंड के लिए एक प्रश्नचिह्न बन जाओगे।
मैं
कहता हूं कि जैसा सत्य तुम्हारे भीतर हो, वैसा ही जीना है। उससे अन्यथा जीने
की कोई जरूरत नहीं है। मुखौटे लगाने की कोई जरूरत नहीं है। फिर चाहे अपमान
मिले--तो अपमान। फिर चाहे नर्क भी जाना पड़े, तो तैयार रहना;
कोई फिक्र मत करना।
मेरी
अपनी प्रतीति यह है कि जो प्रामाणिक रूप से जीता है, वह नर्क को भी स्वर्ग बना
लेगा। और जो पाखंडी है, वह अगर स्वर्ग भी चला गया, तो वह भी नर्क हो जाएगा।
एक
यहूदी धर्मगुरु मरा। स्वर्ग पहुंचा। देख कर बहुत हैरान हुआ कि वहां कुल-जमा तीन
आदमी हैं! कुछ तीन! बड़ा चकित हुआ। वे भी तीन क्या कर रहे हैं--बड़ा हैरान हुआ! एक
तो हैं मगरूर जी भाई मोरारजी भाई देसाई। वे मेरी किताब संभोग से समाधि की ओर पढ़
रहे हैं! दूसरे हैं अयातुल्ला खोमैनियाक, वे प्ले बॉय पढ़ रहे हैं! तीसरा है
पोप वेटिकन का, पोलक; वे प्ले गर्ल पढ़
रहे हैं। और वे भी पुराने न मालूम कब के संस्करण, जो किसी
तरह स्मगल कर लाए होंगे स्वर्ग में। क्योंकि स्वर्ग में ये सब पत्रिकाएं नहीं
मिलतीं। और न किताबें मिलतीं!
उस
यहूदी फकीर ने परमात्मा से जा कर कहा कि यह मैं क्या देख रहा हूं! कुल तीन आदमी!
और वे भी गजब की चीजें पढ़ रहे हैं। और बड़े धार्मिक भाव से पढ़ रहे हैं! तो मैं एक
बार इसके पहले कि तय करूं कि मुझे कहां बसना है--नर्क भी देख लेना चाहता हूं।
परमात्मा
ने कहा, तुम्हारी मर्जी। नर्क भी देख आओ।
तो
चौबीस घंटे वह नर्क गया। देखा तो बड़ा दंग हुआ। वहां न तो कोई आग के कड़ाहे जल रहे
हैं; न कोई आग के कड़ाहों में भूना जा रहा है। न किन्हीं की गर्दनें काटी जा रही
हैं; न कोई सूली पर लटकाया जा रहा है! न कोई कोड़े चल रहे
हैं। वहां तो बड़ा सन्नाटा है; बड़ी शांति है। संगीत बज रहा
है। बांसुरी बज रही है। कृष्ण वहां बांसुरी बजा रहे हैं। महावीर वहां ध्यान कर रहे
हैं। बुद्ध वहां मौन से बैठे हैं। लोग नाच रहे हैं! लोग समारोह मना रहे हैं। उसने
सोचा--हद्द हो गई! और बड़े बैंड-बाजे हैं।
वह
लौट कर आया। उसने कहा कि यह मामला क्या है? यह सब उलट हालत हो गई है! यह
स्वर्ग है आपका! सब उदास पड़ा है। धूल जमी है। और ये तीन खूसट--ये बैठे हैं यहां!
इनको देख कर आदमी को घबड़ाहट लगे। इनका कौन सत्संग करे! और नर्क में बड़ी मौज चल रही
है। आनंद ही आनंद है। कम से कम आप एक बैंड-बाजा तो खरीद लो।
तो
ईश्वर ने गुर्रा कर कहा कि इन तीन खूसटों के लिए बैंड-बाजा खरीदने के लिए पैसा
कहां!
तो
उस यहूदी फकीर ने कहा,
मैं तो नरक चला। आप क्षमा करें। नाराज न हों। मैं नरक चला।
ईश्वर
ने का, ठहरो। मैं भी आता हूं। ये तीन मेरी भी जान खोए जा रहे हैं!
जहां
बुद्ध होंगे,
वहां स्वर्ग होगा। स्वर्ग में बुद्ध नहीं जाते; जहां जाते हैं, वहां स्वर्ग बन जाता है।
तुमसे
कहा गया है कि बुद्धपुरुष स्वर्ग जाते हैं। मैं तुमसे कहता हूं--बुद्धपुरुष जहां
जाते हैं, वहां स्वर्ग बन जाता है। तुमसे कहा गया है कि जो अबुद्ध हैं, वे नर्क जाते हैं। नहीं। वे जहां जाएं--स्वर्ग में भी चले जाएं--वहां नर्क
बन जाएगा। आदमी अपने साथ अपना स्वर्ग और नर्क ले कर चलता है। पाखंडियों की जमात
जहां इकट्ठी हो जाएगी, वहां नर्क होगा।
मत
फिक्र करना अपमान की। प्रामाणिक रूप से जी कर अपमान मिले, तो भी
जीवन में एक सुगंध होती है, एक रस होता है, एक अहोभाव होता है। गर्दन भी कट जाए...। जीसस की कटी, मगर ओठों पर प्रार्थना री। मंसूर की कटी, मगर ओठों
पर मुस्कुराहट रही। सुकरात की कटी, मगर चारों तरफ धन्यता बरस
रही थी।
प्रामाणिक
व्यक्ति को दुख दिया नहीं जा सकता। हालांकि दुख देने की बहुत कोशिश की जाएगी।
जिसने भीतर अपने को खंडों में नहीं तोड़ा है, उसने स्वर्ग बसा ही लिया है। अखंड
जो हो गया, वह स्वर्ग हो गया। और जां खंडों में बंटा है,
वह नर्क है नर्क और स्वर्ग भौगोलिक नहीं हैं; आंतरिक
अवस्थाएं हैं।
मेरी
एक ही शिक्षा है--अखंड बनो;
सहज बनो--और अपनी सहजता को समग्रता से जीओ। इसकी फिक्र ही मत करो कि
किसी शास्त्र के अनुकूल बैठती है कि नहीं। क्योंकि जिसने शास्त्र रचा, वह और ढंग का आदमी रहा होगा। उसने शास्त्र अपने हिसाब से रचा है। लेकिन
लोग उलटी स्थिति में पड़े हुए हैं।
कोई
मनु के हिसाब से जी रहा है। कोई महावीर के हिसाब से जी रहा है। कोई बुद्ध के हिसाब
से जी रहा है। कोई कृष्ण के हिसाब से जी रहा है। लेकिन ध्यान रखो, तुम्हें
अगर कृष्ण के कपड़े नहीं बनते हैं, तो फिर क्या करोगे!
हाथ-पैर काटोगे अपने!
यहूदी
कथा है: एक बिलकुल पागल सम्राट था, उसके पास एक सोने का बिस्तर था;
हीरे-जवाहरात जड़ा। उसके घर जब भी कोई मेहमान होता...। भूल-चूक से ही
लोग होते थे मेहमान। क्योंकि धीरे-धीरे खबर पहुंच गई थी। मगर फिर भी कभी-कभी कोई
मेहमान हो जाता। तो वह उसको बिस्तर पर लिटाता। वह पागल आदमी था। अगर वह बिस्तर से
लंबा साबित होता, तो वह उसके हाथ-पैर कटवा देता। बिस्तर के
बराबर कर के रहता! और अगर छोटा होता, तो उसने पहलवान रख छोड़े
थे, वे उसके हाथ-पैर खींच कर उसको लंबा करते! उसमें हाथ-पैर
उखड़ जाते। मगर बिस्तर के अनुकूल होना चाहिए! आदमी को बिस्तर के अनुकूल होना चाहिए।
आदमी क लिए बिस्तर नहीं है; आदमी बिस्तर के लिए हैं! वह
बिलकुल शास्त्रीय बात कह रहा था। ऐसे धार्मिक आदमी था।
यही
तो सारे धर्म कर रहे हैं--तुम्हें शास्त्रों के अनुसार होना चाहिए! फिर अगर तुम
थोड़े लंबे हो,
तो काटो। अगर थोड़े छोटे हो, तो खींचो।
तुम्हारी जिंदगी मुश्किल में पड़ जाएगी।
तुम्हें
सिर्फ अपने अनुसार होना है। परमात्मा ने तुम जैसा कोई दूसरा नहीं बनाया। तुम्हें
अनूठा बनाया है। इस सौभाग्य को तो समझो। कुछ तो देखो। कुछ तो समझो। कुछ तो पहचानो।
परमात्मा ने तुम जैसा कोई आदमी न पहले बनाया है और न फिर बनाएगा। वह दोहराता नहीं।
वह प्रत्येक व्यक्ति को अनूठा बनाता है। तुम किसी के अनुसार, किसी
ढांचे के अनुसार, जी नहीं सकते हो। जीओगे--मुश्किल में
पड़ोगे। जीओगे--कष्ट पाओगे। अपनी ज्योति से जीयो।
बुद्ध
ने अंतिम क्षण में यही कहा था--अप्प दीपो भव--अपने दीए खुद बनो। मत पूछो...।
तो
मैं किसी को आचरण नहीं देता। मेरे ऊपर यही सबसे बड़ा लांछन है; सबसे बड़ी
आलोचना है--कि मैं अपने संन्यासियों को आचरण नहीं सिखाता।
मैं
उन्हें अपने कपड़े नहीं दे सकता। क्योंकि किसी को छोटे पड़ेंगे, किसी को
लंबे पड़ेंगे। किसी को ढीले पड़ेंगे। किसी को चुस्त पड़ेंगे। मैं उन्हें कैसे आचरण
दूं! मैं सिर्फ उन्हें भीतर का दीया जलाने की कला सिखाता हूं। फिर वे अपने कपड़े
खुद काटें; बनाएं। अपना आचरण खुद निर्मित करें। अपनी रोशनी
में जीएं।
आचरण
नहीं देता मैं--अंतस देता हूं। और तुम अब तक आचरण ही के अनुसार जीए हो। तुम्हारे
सब गुरुओं ने तुम्हें अंतस नहीं दिया--आचरण देने की कोशिश की है। वे तुम्हें एक
ढर्रा दे देते हैं कि बस,
ऐसा करो। चाहे तुम्हें रुचे, चाहे न रुचे।
शास्त्र
लिखते हैं अकसर बूढ़े लोग। स्वभावतः उन दिनों में बुढ़ापे की बड़ी कीमत थी। अब भी
हमारे देश में तो बुढ़ापे की बड़ी कीमत है। बूढ़ा कहे, तो सच ही कहता होगा!
अकसर
यह होता है कि बूढ़ा बहुत बेईमान हो जाता है। बूढ़ा होते-होते--जीवन भर का अनुभव...!
बच्चे
सरल होते हैं;
बूढ़े कपटी हो जाते हैं। शास्त्र बूढ़ों ने रचे; वे कपटपूर्ण हैं। उनमें बेईमानी है। उनमें होशियारी है। और फिर कब रचे!
किसने रचे! जमाने बीत गए। वह वक्त न रहा। वे लोग न रहे। सब बदल गया। अब तुम उनके
अनुसार, जीयोगे, तो कष्ट पाओगे।
मंजिल
का पता मालूम नहीं,
रहबर भी नहीं, साथी भी नहीं
जब
रह गई मंजिल चार कदम,
हम पांव उठाना भूल गए!
तुम
जब तक उधार जीयोगे,
ऐसी ही झंझट में पड़ोगे। ईश्वर भी सामने खड़ा होगा, पहचान न सकोगे। चूंकि तुम एक तसवीर टांगे चल रहे हो। उस तसवीर से मेल खाना
चाहिए। और तुम्हारी बात क्या; तुम्हारे बड़े से बड़े तथाकथित
श्रद्वेय और पूज्य लोगों की भी यह दशा है।
बाबा
तुलसीदास के संबंध में यह कहानी है कि जब उनको कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया
वृंदावन में,
तो उन्होंने झुकने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, मैं तो सिर्फ धुनर्धारी राम के सामने झुकता हूं। मैं और किसी के सामने
नहीं झुक सकता! मैं तो एक राम को ही जानता हूं। उन्होंने कहा कि जब तक धनुष-बाण
नहीं लेऊ हाथ--तुलसी झुके न माथ। मेरा माथा तो तब झुकेगा, जब
धनुष-बाण हाथ में लोगे।
एक
तसवीर टांगे हुए हैं,
जैसे धनुष-बाण की कोई बड़ी खूबी हो! जैसे धनुष-बाण का कोई बड़ा राज
हो! धनुष-बाण तो सिर्फ हिंसा के प्रतीक हैं। यह बांसुरी कहीं ज्यादा प्रेम का
प्रतीक है। और ये बाबा तुलसीदास अंधे मालूम होते हैं! ये बाबा तुलसीदास नहीं
हैं--बाबा सूरदास मालूम होते हैं! आंखें हैं इनके पास?
ये
बांसुरी के सामने नहीं झुक सकते--धनुष-बाण के सामने झुकेंगे। ये कृष्ण को नहीं
पहचान सकते। राम को ही पहचानते हैं! एक बांध ली जकड़।
परमात्मा
अनंत रूपों में प्रकट होता है। और तुम कोई एक रूप पकड़ कर बैठ रहे, तो
चूकोगे--चूकते ही जाओगे। जब रह गई मंजिल चार कदम, हम पांव
उठाना भूल गए! उधार चलोगे, तो यह हालत होगी। मंजिल सामने खड़ी
होगी और तुम पांव उठाना भूल जाओगे। पांव तुमने कभी उठाए नहीं। धक्कम-धुक्की में आ
गए। भीड़भाड़ चल रही थी, तुम भी चले आए।
मंजिल
का पता मालूम नहीं,
रहबर भी नहीं, साथी भी नहीं
जब
रह गई मंजिल चार कदम,
हम पांव उठाना भूल गए!
उधार
जीना पाखंड है। उदघोषणा करो अपनी निजता की। परमात्मा तुम्हारे भीतर भी है उतना, जितना
कृष्ण के भीतर था। तुम्हारे भीतर से भी श्रीमद भगवत गीता पैदा हो सकती है। होनी
चाहिए। वह झरने का स्रोत तुम्हारे भीतर भी है। तुम्हारे भीतर से भी बुद्धत्व की
ज्योति जल सकती है। तुम उतने ही सक्षम हो, जितने सिद्धार्थ
गौतम। तुम्हारी क्षमता कम नहीं।
परमात्मा
किसी को कम और ज्यादा दे कर नहीं भेजता। सबको बराबर संभावना देता है। फिर हमारे
ऊपर है--हम उस संभावना को वास्तविक बनाते हैं या नहीं।
और
जो आदमी और कुछ होने की कोशिश में लगा है, किसी दूसरे की नकल में पड़ा है,
वह कभी स्वयं तो हो नहीं पाएगा; और दूसरा हो
नहीं सकता। विबूचन में पड़ा रह जाएगा। विडंबना में उलझा रह जाएगा। उसका जीवन
सुलझेगा नहीं; उलझन ही उलझन से भर जाएगा। उसका जीवन एक पहेली
हो जाएगा। कांटे ही कांटे--फूल उसमें नहीं खिलेंगे।
जरा
सोचो, अगर गुलाब जुही होना चाहे, तो बस पागल हो जाए! गुलाब
भी न हो सकेगा, जुही भी न हो सकेगा। गुलाब को गुलाब ही होना
है। जुही को जुही होना है। जुही जुही हो कर अर्पित होगी परमात्मा को। गुलाब गुलाब
हो कर अर्पित होगा परमात्मा को। न तो गुलाब का शास्त्र जुही के लिए लागू हो सकता;
और न जुही का आदेश गुलाब के लिए लागू हो सकता।
अपनी
अद्वितीयता पहचानो।
इसलिए
मेरे संन्यासी का रजनीकांत,
विरोध होगा, क्योंकि मैं कुछ बात कह रहा हूं,
जो परंपरा की नहीं है; जो परंपरा-मुक्त है।
मैं
तुम्हें स्वतंत्रता का पाठ दे रहा हूं--और स्वतंत्रता के पक्ष में कोई भी नहीं है।
हम सदियों से गुलाम हैं। हम पहले आध्यात्मिक रूप से गुलाम हुए, इसीलिए हम
राजनीतिक रूप से गुलाम हुए। हमारी राजनीतिक गुलामी हमारी आध्यात्मिक गुलामी का
तार्किक निष्कर्ष थी। और हम अभी भी गुलाम हैं आध्यात्मिक रूप से। इसलिए हम किसी भी
दिन राजनीतिक रूप से गुलाम बनाए जा सकते हैं; इसमें कुछ अड़चन
नहीं है।
हमें
स्वतंत्रता का पाठ ही भूल गया; हम भाषा ही भूल गए। और पंडित-पुरोहितों ने
तुम्हारे जीवन को विषाक्त कर दिया है। मैं चाहता हूं: मुक्त हो जाओ उन सबसे।
छोटी-सी
जिंदगी है, इतना कर लो कि अपने भीतर ध्यान जल जाए, ध्यान की
ज्योति उठ आए, शेष अब अपने आप हो जाएगा। फिर कितना ही कष्ट
झेलना पड़े, हर कष्ट एक चुनौती होगी। और हर कष्ट तुम्हारे लिए
एक विकास का अवसर होगा, एक मौका होगा।
विरोध
होगा। गालियां पड़ेंगी। अपमान होगा। मगर भीतर तुम्हारे शांति होगी, आनंद होगा,
उत्सव होगा। भीतर तुम्हारे परमात्मा के साथ मिलन चलता रहेगा।
परमात्मा
से मिलना है,
तो समाज की चिंता न करना। और समाज की चिंता करना है, तो फिर परमात्मा की बात ही उठाना उचित नहीं है।
दूसरा प्रश्न: भगवान, मेरे माता-पिता तुहाडी शरण आए
हैं--मैंनूं मिलण दे बहाने। सदगुरु साहिब, किरपा करो कि
इर्न्हा नूं वी तुहाडा रंग लग जाए।
संत महाराज!
जल्दी
न करो। लगेगा। मगर जल्दी की, तो गड़बड़ हो सकती है।
संत
की इच्छा तो प्यारी है,
क्योंकि कौन अपने मां-बाप को वह आनंद न देना चाहेगा, जो उसे स्वयं मिल रहा हो! तुम चाहोगे कि तुम्हारे मां-बाप भी इस मस्ती के
आलम में डूब जाएं। अब आ गए हैं इस महफिल में, तो कहीं खाली न
चले जाएं! किसी बहाने आ गए। तुम्हीं को मिलने के बहाने आ गए, क्या फर्क पड़ता है! कोई बहाना चाहिए आने के लिए। आ गए--यह बहुत।
और
तुम्हारे माता-पिता सीधे-सादे आदमी हैं। सरल आदमी हैं। लेकिन सरलता की एक झंझट है, और वह
झंझट यह है कि सरलता अतीत के साथ बंधी होती है; परंपरा के साथ
बंधी होती है। सरलता आज्ञाकारी होती है।
तो
वे भी स्वभावतः एक रंग में ढले हैं। मेरा रंग थोड़ी बगावत चाहता है; थोड़ा
विद्रोह चाहता है। संन्यास है ही विद्रोह समाज से। यह समाज का त्याग नहीं है--यह
समाज से विद्रोह है। यह समाज से भाग जाना नहीं है--समाज में जीना है और क्रांति के
रंग को ले कर जीना है।
लेकिन
सरलता का एक लाभ भी है कि अगर वे यहां आ गए हैं, तो जरूर मेरी बात उन तक
पहुंच जाएगी; उतर जाएगी उनके हृदय में। मगर तुम जल्दी मत
करना। तुम जल्दी किए, तो वे बंद हो जाएंगे। तुमने कोशिश की,
तो कठिनाई हो जाएगी।
कभी
भूल कर भी कोई कोशिश न करे कि संन्यासी बन जाए--मेरा पिता, मेरी मां,
मेरी पत्नी, मेरा बेटा, मेरी
बेटी। कोई कोशिश न करे। क्योंकि तुम्हारी कोशिश जबर्दस्ती मालूम पड़ेगी। तुम तो
प्यार से कर रहे हो। तुम तो बांटना चाहते हो। तुम्हारी नीयत तो ठीक। तुम्हारा भाव
तो सुंदर। लेकिन दूसरे की स्वतंत्रता पर भी खयाल रखना।
मेरा
रंग जबर्दस्ती नहीं थोपा जा सकता। यह तो फिर वही भूल हो जाएगी!
समझ
में आएगी उनके बात। उनके बात, समझ में आनी शुरू हुई है।
और
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है,
वैसे-वैसे दो घटनाएं घटती हैं। एक तो यह कि बदलना मुश्किल हो जाता
है, क्योंकि लगता है आदमी को कि अब इतनी जिंदगी तो एक ढंग से
जी लिए, अब कैसे बदलें! आदतें मजबूत हो गई होती हैं।
लेकिन
एक फायदा भी है। और फायदा यह है कि मौत करीब आ रही होती है। मौत दरवाजे पर दस्तक
देने लगती है। तो यह भी सवाल उठना शुरू हो जाता है कि जिंदगी भर इस ढंग से जीए तो
जरूर, मगर पाया क्या? हाथ क्या लगा? और
मौत करीब आई जा रही है। अब देर करने का समय नहीं है। अब समय गंवाने का मौका नहीं
है। अब कल पर नहीं टाला जा सकता। पता नहीं कल हो या न हो। और एक क्षण में मौत आ
जाती है। और एक क्षण में सब बदल जाता है।
दबा
के कब्र में सब चल दिए,
दुआ न सलाम
जरा-सी
देर में क्या हो गया जमाने का!
एक
क्षण में जो अपने थे--अपने नहीं रह जाते। बेगाने हो जाते हैं। क्षण में जीवन
तिरोहित हो जाता है।
दबा
के कब्र में सब चल दिए,
दुआ न सलाम! और कोई सलाम भी नहीं करता; दुआ भी
नहीं करता। यह भी नहीं कहता कि अलविदा! जल्दी पड़ती है। आदमी मरा कि कैसे छुटकारा
हो अब इस लाश से! क्योंकि पक्षी तो उड़ आया, अब तो पिंजड़ा पड़ा
रह गया। अब इस पिंजड़े को क्या दुआ करो, क्या सलाम करो!
दबा
के कब्र में स चल दिए,
दुआ न सलाम
जरा-सी
देर में क्या हो गया जमाने को!
वही
हैं हम कभी जो रात-दिन फूलों में तुलते थे
वही
हम हैं कि तुरबत चार फूलों को तरसती है।
तो
जैसे मौत करीब आती है,
वैसे एक लाभ भी है कि मौत जगाने लगती है। मौत पूछने लगती है,
कमाया कि गंवाया? तैयार हो चलने को उस अनंत
यात्रा पर कि यूं ही व्यर्थ के उलझनों में उलझे रहे? व्यर्थ
के धोखे खाते रहे? आत्म-वंचनाओं में पड़े रहे?
तो
तुम्हारे माता-पिता संत,
अब बूढ़े हो रहे हैं। तो यूं तो मुश्किल होगा बदलना, क्योंकि पुरानी आदतें। मगर मौत भी दरवाजे पर दस्तक देगी अब। इसलिए बदलना
आसान भी हो सकता है। इस पर निर्भर करता है कि किस बात पर ज्यादा ध्यान देते हैं।
अगर पुरानी आदतों पर ही आंखें गड़ाए रहे, तो मौत को नकारते
रहेंगे। लेकिन तुम जैसा बेटा जिनके घर में पैदा हुआ है, वे
देखेंगे आगे।
संत
से मुझे प्रेम है,
इसलिए तो संत महाराज कहता हूं। ऐसे आदमी संत नहीं हैं--अंटशंट हैं!
मगर उनको मैं संत महाराज कहता हूं। मुझे प्रेम है, लगाव है।
सरल है संत। बहुत सरल है। बहुत सीधा-सादा है। छोटे बच्चे जैसा है। तो जिसमें इतना
सरल फूल खिला हो, उन मां-बाप के भी जीवन में भी क्रांति होनी
की संभावना पूरी है।
जाने
कितना जीवन पीछे
छूट
गया अनजाने में
अब
तो कुछ कतरे हैं बाकी
सांसों
के पैमाने में।
जज्बों
की तिस्मार इमारत
सांसों
की बेजार खंडहर
जाने
क्यों बैठे हैं तन्हा
हम
ऐसे वीराने में।
कया-क्या
रूप लिए रिश्तों ने
जाने
क्या-क्या रंग भरे
अब
तो फर्क नहीं लगता है
अपनों
और बेगानों में।
इस
दुनिया में आकर हमने।
कुछ
ऐसा दस्तूर सुना
अक्ल
की बातें करने वाले
होंगे
पागलखाने में।
यहां
तो बातें अक्ल की हो रही हैं। यहां तो बातें साधारण जीवन की नहीं हैं; परम जीवन
की हैं। सरल चित्त व्यक्ति--साहस कर सकते हैं, हिम्मत कर
सकते हैं, छलांग लगा सकते हैं। इस पर निर्भर करता है सब,
कि पुरानी आदतों को ही तो नजर में नहीं रखेंगे। जो बीत गया वह बीत
गया!
जाने
कितना जीवन पीछे
छूट
गया अनजाने में!
तो
जो भूलें हो गईं--हो गईं। जो गया--गया। और सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए, तो भूला
नहीं कहा जाता।
अब
तो कुछ कतरे हैं बाकी
सांसों
के पैमाने में!
तो
जब कुछ कतरे ही बाकी रह जाते हैं, सांसों के पैमाने में, तो
अगर मौत पर नजर आ जाए, अगर मृत्यु का खयाल आ जाए, तो क्रांति हो जाती है। मगर तुम जल्दी मत करना। तुम्हारी जल्दी बाधा बन
सकती है। आए हैं यहां, अपने आनंद में उन्हें भागीदार बनाओ।
यहां जो नृत्य चल रहा है, उसमें उन्हें निमंत्रित करो। यहां
जो शराब ढल रही है, उसे उन्हें पीने दो। फिर अपने से घट जाती
है बात।
लग
जाएगा रंग। यहां से वही नहीं जाएंगे, जैसे आए थे। अब यह बात और है कि इस
बार डूबें कि अगली बार डूबें। यह उन पर छोड़ दो। जरा भी खींचतान मत करना। क्योंकि
बड़ी कठिनाई है।
नाते-रिश्ते
बड़ी नाजुक बातें हैं। अगर पति कोशिश करे कि पत्नी संन्यासिनी हो जाए, तो वह अकड़
जाती है, क्योंकि उसके अहंकार को चोट लगती है। अगर पत्नी
कोशिश करे कि पति संन्यासी हो जाए--पति अकड़ जाता है; उसके
अहंकार को चोट लगती है। और बेटा अगर कोशिश करे कि बाप और मां संन्यासी हो जाएं,
तब तो और भी अड़चन आ जाती है, क्योंकि
मां-बाप--तुम्हारी कितनी ही उम्र हो, तुम्हारी कितनी ही समझ
हो, कितना ही ध्यान हो--उनके सामने तो तुम बच्चे हो। उनके
अहंकार को बहुत चोट लग जाती है। बहुत चोट लग जाती है--कि मेरा बेटा और अपने ढंग से
मुझे चलाना चाहे! कभी नहीं। बहुत अड़चन आ जाती है।
यहां
मेरी एक संन्यासिनी है अमरीका से--शून्यो। उसकी उम्र होगी कोई सत्तर वर्ष। उसकी
मां की उम्र है नब्बे वर्ष। मां अभी जिंदा है। उसकी मां के पत्र आते हैं। वे देख
कर मैं दंग हुआ। सत्तर वर्ष की लड़की! अब तो खुद भी सत्तर वर्ष की लड़की बूढ़ी हो
गई--शून्यो। शून्यो यहां आकर संन्यस्त हो गई। और फिर उसने अमरीका का खयाल ही
विस्मरण कर दिया। यहां डूब गई पूरी तरह।
उसकी
मां उसे लिखती है कि अरी मूरख, तुझमें अकल न आई! तू बच्ची ही रही! सत्तर साल
की बेटी को लिखती है कि तू बच्ची ही रही। घर वापस आ। किस उलझन में पड़ गई! किस
चक्कर में उलझ गई! किसके सम्मोहन में आ गई!
सत्तर
वर्ष की बेटी भी नब्बे वर्ष की मां को बेटी ही मालूम पड़ती है, क्योंकि
मां और बेटी के बीच जो बीस साल का फासला है, वह तो उतना का
ही उतना है। जब शून्यो पांच साल की थी, तब भी फासला इतना ही
था--बीस साल का। अब सत्तर साल की है, तो भी फासला तो बीस ही
साल का है। इसलिए मां-बाप की नजरों में बच्चे कभी बड़े नहीं होते।
मैं
बीस साल तक यात्रा करता रहा। जितनी यात्रा मैंने की, इस देश में शायद ही किसी
व्यक्ति ने की होगी। महीने में कम से कम चौबीस दिन या तो कार में या हवाई जहाज में
या ट्रेन में चलता ही रहा--चलता ही रहा।
लेकिन
जब भी मैं अपने गांव जाता,
मेरी नानी मुझसे एक बात हमेशा कहती। क्योंकि उनको हमेशा दो बातों की
चिंता लगी रहती थी। तो वह मुझे याद दिला देती थी कि एक तो चलती गाड़ी में कभी मत
चढ़ना!
मैं
उनको कहता कि चलती गाड़ी में मैं चढूंगा ही क्यों!
वे
कहती कि नहीं;
चलती गाड़ी में चढ़ना ही मत। न चलती गाड़ी में उतरना। गिर-गिरा जाओ,
कुछ हो जाए! और यह तुम्हें क्या सनक सवार है कि बस, घूमते ही रहते हो! अब थिर हो कर बैठो--एक जगह बैठो।
और
दूसरी बात कि किसी से विवाद नहीं करना!
इसकी
उन्हें हमेशा चिंता लगी रहती थी। वह जानती थी मुझे बचपन से--कि किसी से भी मेरा
विवाद हो जाता था। घर में कोई मेहमान आए, उससे विवाद हो जाए। कोई पंडित
पूजा-पत्री के लिए आए, उससे विवाद हो जाए। स्कूल में
शिक्षकों से विवाद हो जाए। शिकायतों पर शिकायतें! मुहल्ले में जिससे भी आए शिकायत
ही आए!
तो
उनको हमेशा चिंता बनी रहती कि देखो, किसी से ट्रेन में अनजान अजनबी
आदमियों से कोई विवाद नहीं करना नाहक! तुम्हें क्या मतलब दुनिया से? जाने दो भाड़ में, जिसको जाना है। नाहक झंझट-झगड़ा खड़ा
नहीं करना कहीं!
ये
दो उपदेश वे देती ही रहीं--अंतिम समय तक! उनकी नजरों में स्वभावतः मैं सदा बच्चा
ही रहा। और यह स्वाभाविक भी है। इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं।
तो
तुम्हारे मां-बाप को यहां सुविधा दो। यहां ध्यान में लाओ। यहां धीरे से उनको छोड़
दो। और हट गए छोड़ कर। तुम खड़े रहोगे, तो वे ध्यान भी न करेंगे--कि बेटा
देख रहा है--कैसे नाचें! बेटा देख रहा है--कैसे गाएं! क्या कहेगा यह--कि हमारे
मां-बाप को क्या हुआ! सो ये भी होने लगे! ये भी पगलाने लगे! अब यह तो पगला ही गया
है!
तुम
उनको छोड़ दिए ध्यान में। तुम हट गए--बिलकुल हट गए वहां से, ताकि वे
मुक्त भाव से, सरलता से सम्मिलित हो सकें।
सीधे-सादे
लोग हैं--यह मेरे खयाल में है। और जब यहां आ गए हैं, तो मुझ पर छोड़ दे। यहां रंग
लग ही जाएगा।
यहां
आकर और बच जाना मुश्किल है। यहां होली हो रही है। यहां गुलाल उड़ रही है। यहां दीए
जल रहे हैं। दीवाली है। दिन होली--रात दीवाली! कैसे जाएंगे बच कर!
मगर
अगर तुमने जोर डाला,
तो द्वार बंद हो जाएंगे। तुम द्वार से हट जाओ। मैं निपट लूंगा। मैं
जानता हूं--किस में कैसे प्रवेश करना। डेढ़ लाख संन्यासी ऐसे ही नहीं हो गए हैं!
उसकी भी कला होती है।
कोई
बुद्ध हुआ क्या जैसे,
मुझमें कुछ संबुद्ध हो गया
कोई
मुक्त हुआ क्या जैसे,
मुझमें ही कुछ मुक्त हो गया
जब
किसी बुद्ध के पास बैठोगे,
तुम्हारे भीतर कुछ होने ही लगेगा। कोई घंटियां बजने लगेंगी हृदय
में। कोई गीत उठने लगेगा। कोई गंध फैलने लगेगी।
कोई
बुद्ध हुआ क्या जैसे,
मुझमें कुछ संबुद्ध हो गया
कोई
मुक्त हुआ क्या जैसे,
मुझमें ही कुछ मुक्त हो गया
मैं
अपनी सीमित बाहों में,
बांधे हूं आकाश असीमित
मैं
अपनी नन्हीं चाहों में,
साधे हुए विराट अपरिमित
कोई
शुभ संकल्प जगे तो,
मेरे प्राण चहक उठते हैं
मेरा
अणु व्यक्तित्व,
मगर लगता मुझमें अस्तित्व समाहित
कोई
पंछी उड़े गगन में,
जैसे मैं ही उडूं अबाधित
कहीं
मिले जीवन को उत्सव,
वह मुझसे संयुक्त हो गया
इस
व्यापक संसृति-सागर में,
अलग-थलग है लहर न कोई
इस
फैले चेतन-कानन में पादप कोई नहीं अकेला
सुख-दुख
के ताने-बाने में सब सबसे अंतर्गुम्फित हैं
मुझमें
ही होती सब हलचल,
मुझमें ही लगता सब मेला
हर
पनघट मेरा पनघट है,
हर गागर मेरी गागर है
ले
कोई भी स्वाद अमृत का,
समझो मैं सम्युक्त हो गया
कोई
खुशी नहीं अपनी भर,
कोई पीड़ा नहीं पराई
चाहे
मरघट का मतलब हो,
चाहे कहीं बजे शहनाई
हर
घटना मुझमें घटती है,
सब मेरा मानस-मंथन है
सात
सुरों की बंसुरिया में,
कभी हंसी है कभी रुलाई
मैं
सब भावों का संगम हूं,
मुझमें जग हंसता-गाता है
चाहे
कोई जगे योग में,
समझो मैं ही युक्त हो गया
कोई
मुक्त रहे या बंदी,
कोई सुमिरे या बिसरा दे
कोई
हो जाए संन्यासी,
या कोई संसार बसा दे
चाहे
कोई अलख जगाए,
या कालिख से पुते चदरिया
मुझसे
दूर कहां जाएगा,
चाहे सुप्त रहे या जागे
मेरे
इस चैतन्य-जलधि का,
दिखा न कोई कूल-किनारा
देखो, यह संगीत
उठा तो, मेरे लिए निरुक्त हो गया
कोई
बुद्ध हुआ क्या जैसे,
मुझमें कुछ संबुद्ध हो गया
कोई
मुक्त हुआ क्या जैसे,
मुझमें ही कुछ मुक्त हो गया
उनको
डूबने दो। एक सागर यहां मौजूद है। दिखाई नहीं पड़ता; अदृश्य है। और इसमें जो
डूबा, वह भीगेगा; अनभीगा नहीं जा
सकेगा।
मगर
तुम हट जाओ। संत! तुम किनारे पर मत खड़े रहना। तुम हट ही जाओ। तुम बात ही मत उठाना।
वे कहें भी, तो भी उत्सुकता मत दिखाना। अपनी उत्सुकता भीतर ही भीतर रखना। बोलना भी मत।
कहना भी मत। हां, तुम्हारे आनंद को उन्हें देखने दो।
तुम्हारे भीतर जो रूपांतरण हुआ है, उसे पहचानने दो। बस,
वही उन्हें भी ले आएगा। आ जाएं, तो शुभ है। आ
जाएं, तो मंगल है, क्योंकि कल का कोई
भरोसा नहीं है।
आज इतना ही
चौथा प्रवचन; दिनांक १४ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
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