ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
जागो-डूबो-(प्रवचन-पांचवां)
पांचवां प्रवचन; दिनांक १५ सितंबर, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान, अहमक अहमदाबाद मिल गया। वही मारवाड़ी चंदूलाल का पिता और ढब्बूजी का चाचा!
लेकिन है बहुरूपी। देखती हूं--अदृश्य हो जाता है। अचानक दूसरे रूप में प्रकट होता
है। इसकी लीला विचित्र है। जन्मों-जन्मों से स्वामी बन कर बैठा है। अब तो मैं थकी।
बूढ़ा, कुरूप, गंदा--पीछा नहीं छोड़ता।
आपके सामने होते हुए भी आपसे मिलने नहीं देता। आपके प्रेम-सागर में डूबने नहीं
देता। जीवन सौंदर्य की उड़ान नहीं लेने देता। इसी के कारण मैं विरह अग्नि में जली
जा रही हूं। मैं असहाय, असमर्थ हूं।
भगवान! मेरे भगवान!
मेहर करो मेहरबान
जुगत करो जोगेश्वर
चरण पड़ी दासी तोरी
भाव-भक्ति दो अविनाशी
ताकि मैं--
आपके स्तुति गान जन्मों-जन्मों तक
गाती रहूं, गाती रहूं, गाती रहूं!
योग मंजु!
अहमक अहमदाबादी यानी अहंकार। अहंकार एक भ्रांति है, इसलिए छूटना एक अर्थ में कठिन, दूसरे अर्थ में बड़ा सरल।
जरा-सी समझने की बात है। अगर अहंकार से छूटने की कोशिश की, तो
फिर मुश्किल हो जाएगी, क्योंकि जो नहीं है, उसे कैसे छोड़ोगी? जो नहीं है, उससे
कैसे लड़ोगी? जो नहीं है, उससे कैसे
भागोगी?
जो है ही नहीं, उसे छोड़ने के प्रयास में ही भ्रांति हो जाएगी,
भूल हो जाएगी। जो नहीं है, उसे जानना ही
पर्याप्त है कि नहीं है। छोड़ने की जरूरत नहीं उठती। छोड़ने का तो अर्थ हुआ--मान
लिया कि है।
अहंकार से बहुत लोग छूटने की चेष्टा करते हैं; उसी चेष्टा में अटक जाते हैं। अहंकार नहीं अटका रहा--छूटने की चेष्टा अटका
रही है। जैसे कोई अंधकार से लड़े--जीतेगा क्या? लाख करे उपाय।
और कितना ही बलवान हो--हारेगा--सुनिश्चित हारेगा। और जब बार-बार हारेगा, तो स्वभावतः सोचेगा--कितना असहाय हूं! कितना बेवश! कितना शक्तिहीन!
तर्क कहेगा: हारते हो, क्योंकि अंधकार सबल
है। और हारते इसलिए नहीं हो कि अंधकार सबल है। हारते इसलिए हो कि अंधकार है नहीं।
जो नहीं है, उससे लड़ोगे, तो हारोगे
ही--मिटोगे ही--टूटोगे ही। अहंकार होता, तो जीत भी संभव थी।
अहंकार स्वामी बना बैठा है--ऐसा तुझे समझ आया मंजु! यह समझ न हुई। अगर
अहंकार स्वामी बना बैठा है--ऐसा समझ में आया, तो फिर एक चेष्टा उठेगी
कि कैसे मैं अहंकार को दबा कर उसकी मालकिन बन जाऊं। संघर्ष शुरू होगा। और संघर्ष
में पराजय है।
और यह बहुत आधारभूत बात है, जो खयाल में रखना।
कभी अभाव से मत लड़ना, नहीं तो जिंदगी यूं ही व्यर्थ हो
जाएगी। और इसलिए फिर लीला विचित्र मालूम होगी। क्योंकि इधर से हटाया--हटा भी नहीं
पाए कि वह दूसरे द्वार से प्रवेश कर जाएगा। फिर लगेगा कि बड़ी सूक्ष्म है यह
प्रक्रिया! जितना छूटने की चेष्टा--उतना उलझाव सघन होता जाएगा।
जो नहीं है उसे जानना काफी है। इसलिए मेरा त्याग पर जोर नहीं है।
त्याग का अर्थ है--छोड़ना। मेरा जोर है--बोध पर। जागना--भागना नहीं। जो भागा, वह मुश्किल में पड़ेगा। जिससे भागा--वही उसका पीछा करेगा! छाया तुम्हारे
पीछे ही जाएगी। कुछ होती--तुम भागते, तो छूट जाती। मगर कुछ
है नहीं; तुम जितनी तेजी से भागोगे, छाया
भी उतनी ही तेजी से भागेगी। और तब घबड़ाहट व्याप्त हो जाएगी--कि हे प्रभु, अब क्या होगा! कितना ही तेज दौडूं, यह छाया है कि
पीछा नहीं छोड़ती! फिर जन्मों-जन्मों दौड़ो, तो भी यह पीछा
नहीं छोड़ेगी।
रुको--और गौर से देखो। जाग कर देखो: इस अहमक अहमदाबादी का कोई
अस्तित्व नहीं है। न तो यह चंदूलाल का पिता है--और न ढब्बूजी का चाचा।
यह है ही नहीं। बहुरूपी कैसे होगा? हम लड़ते हैं, तो बहुरूपी हो जाता है। एक रूप हराते हैं, तो
भ्रांति दूसरे रूप में खड़ी हो जाती है। भ्रांति के स्रोत को नहीं पहचानते। तो
पत्ते काटते रहो, जड़ तो बनी है।
और मजा ऐसा है कि जड़ को हम पानी देते हैं--और पत्तों को हम काटते हैं!
एक हाथ से पानी देते हैं, एक हाथ से काटते हैं। इधर पत्ते कटते जाते हैं,
नए पत्ते निकलते आते हैं। एक पत्ता तोड़ते हो, तीन
पत्ते निकल आते हैं! ऐसे आदमी तीन से तेरह हो जाता है। टूटता ही जाता है। खंड-खंड
हो जाता है। फिर स्वभावतः निर्बलता लगेगी। निर्बलता लगेगी--और संताप होगा। एक हार,
हताशा जीवन को घेर लेगी। विजय की संभावना मिट जाएगी।
तू कहती है मंजु, बहुरूपी है। देखती हूं, अदृश्य हो जाता है। देखने से जो चीज अदृश्य हो जाए, वह
है ही नहीं। न एकरूपी--न बहुरूपी। जो नजर के सामने न टिके, जो
अदृश्य हो जाए--जैसे ही देखो वैसे ही अदृश्य हो जाए, और जैसे
ही पीठ मोड़ो, फिर खड़ी हो जाए--तो समझना कि भ्रांति है,
अज्ञान है, बोध का अभाव है। जलाओ दीया ध्यान
का और क्रांति अपने से हो जाती है।
इसलिए मेरे संन्यासी को मैं ध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दे रहा
हूं। न तो कहता हूं छोड़ो। न कहता हूं त्याग करो। न कहता हूं तपश्चर्या। न कहता हूं
विनम्र बनो। क्योंकि विनम्रता अहंकार का ही रूप है। इतना ही कहता हूं--होश। बेहोशी
तोड़ो। यह नींद तोड़ो। ये सपने हैं--इनसे जागो। जाग कर सपनों का कोई अस्तित्व नहीं
रह जाता। जागते ही सपने समाप्त हो जाते हैं।
सेठ चंदूलाल मारवाड़ी का मुनीम पोपटलाल वर्षों से आकांक्षा करता था कि
कुछ तो तनख्वाह में बढ़ती हो जाए! मगर चंदूलाल मारवाड़ी को देखता कि हिम्मत ही न
उठती मांग करने की। चंदूलाल की कंजूसी ऐसी कि उससे मांग करना खतरनाक। नौकरी खतम हो
सकती है। जो मिलता है, वह भी बंद हो सकता है। सो पोपटलाल चुप रहा, चुप रहा--मौके की तलाश में रहा। मौका चंदूलाल मिलने ही न दे। चंदूलाल कभी
मुस्कुराए भी न। चंदूलाल कभी पोपटलाल की तरफ ठीक से देखे भी न। कहो--तो कैसे कहो
ऐसे आदमी से। पत्थर की दीवाल बना है। फिर उसने एक तरकीब खोज निकाली।
एक सुबह आकर कहा कि सेठ जी, रात एक सपना देखा कि
आपने मेरी तनख्वाह पच्चीस रुपए महीना बढ़ा दी है! चंदूलाल ने कहा, अकड़ मत। अगले महीने काट लूंगा। सपने में भूल हो गई होगी। सपने में बढ़ी
तनख्वाह असली में काटने की तैयारी है!
सपना तो जागे कि नष्ट हुआ।
चंदूलाल की पत्नी गुलाबो अपनी एक सहेली से कह रही थी कि मुझे तो इस
चंदूलाल पर शक होता है--बहुत होता है। यह बेईमान जरूर किसी स्त्री के चक्कर में
फंसा है। अब कल की ही बात: मैंने सपना देखा कि एक स्त्री की तरफ बड़ी गौर से देख
रहा था और पास ही सरकता जा रहा था!
उस सहेली ने कहा, तू भी पागल हुई! अरे, यह तो सपना था!
गुलाबो ने कहा, जब मेरे सपने में ऐसी हरकतें कर रहा है, तो अपने सपने में क्या नहीं करता होगा! जब मेरे सपने तक में इतनी हिम्मत
कर रहा है, तो जरा सोच तो कि अपने सपने में क्या नहीं करता
होगा! मैं मौजूद--और मेरे सामने सरकता था उसकी तरफ! मुझे तो शक होता है। मुझे तो
इस पर भरोसा नहीं आता। यह जरूर किसी के पीछे पड़ा है। इसकी चाल-ढाल! जब से यह सपना
देखा है, तब से हर बात में मुझे शक होता है। चोर की तरह घर
में घुसता है। चारों तरफ देखता है!
शादीशुदा आदमी घुसता ही चोर की तरह है। इसमें कोई करेगा क्या!
एक बच्चा अपने साथी को कह रहा था, मेरे पिता सिंह की
तरह दहाड़ते हैं। हाथी की तरह मस्त चाल से चलते हैं। हिरणों की तरह दौड़ सकते हैं!
उस दूसरे लड़के ने कहा, अरे, छोड़ो भी। और जब पत्नी के साथ चलते हैं--तेरी मम्मी के साथ--तो बिलकुल भीगी
बिल्ली की भांति! यह सब हाथी की चाल, और शेर की तरह दहाड़ना,
और हिरण की तरह दौड़ना--असलियत नहीं है। असलियत तो वह है जो पत्नी के
सामने...!
एक बेटे ने अपने बाप से आकर पूछा कि हमारी भाषा को मातृभाषा क्यों कहा
जाता है?
बाप ने चारों तरफ देखा। बेटे ने कहा, क्या देख रहे हैं?
कहा कि तेरी मम्मी को देख रहा हूं! फिर कान में फुसफुसा कर कहा!...
हालांकि मम्मी दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रही थी। कान में फुसफुसा कर
कहा कि बेटा, सुन। भाषा को मातृभाषा इसलिए कहा जाता है कि पिता को
तो बोलने का अवसर ही कहां मिलता है! माता के रहते पिता बोल सकता है? इसलिए मातृभाषा! पितृभाषा तो कह ही नहीं सकते!
तो चंदूलाल बेचारा अगर डरा-डरा घर में घुसता हो, चारों तरफ देख-देख कर घर में घुसता हो--इससे सिर्फ शादीशुदा है, इतना ही पता चलता है। मगर पत्नी ने जब से सपना देखा, तब से उसे शक हो रहा है।
हम सपनों पर भरोसा कर लेते हैं! हम सपनों में जीने लगते हैं। और यूं
मत समझना कि गुलाबो की ही यह गलती है। मंजु! यह सबकी गलती है। जाग कर भी हम सपनों
में जी रहे हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि मैं लोबसांग राम्पा की किताबें पढ़ रहा हूं।
बड़ी प्रभावित करती है। लेकिन आपको सुनता हूं, तो कभी-कभी शक होता
है कि पता नहीं ये बातें सच्ची हैं या नहीं!
लोबसांग राम्पा की जो किताबें हैं, वे उपन्यास हैं। इससे
ज्यादा कुछ भी नहीं। सिर्फ बुद्धू उनसे प्रभावित हो सकते हैं। उपन्यास का मजा लेना
हो, तो बात और। और उपन्यास की दृष्टि से भी तृतीय कोटि के
उपन्यास हैं। उपन्यास की दृष्टि से बिलकुल आखिरी श्रेणी के हैं। मगर अध्यात्म की
तरह समझोगे, तो समझोगे कि बड़ी राज की बातें लोबसांग राम्पा
कह रहा है!
सब कपोल-कल्पनाएं हैं। सब सपने हैं। मगर कई लोगों को प्रभावित करता
है। क्योंकि सपनों से भरे लोग सपनों से ही प्रभावित होते हैं। सपने की ही भाषा
जानते हैं। और तो कोई दूसरी भाषा आती नहीं।
उपन्यास का मजा लेना हो, तो टालस्टाय को पढ़ो,
तो दोस्तोवस्की को पढ़ो। चेखोव को पढ़ो। गोर्की को पढ़ो। उपन्यास का
मजा लेना हो, तो महान कलाकार हुए हैं--क्या सड़े-सड़ाए लोबसांग
राम्पा को पढ़ रहे हो! जिसमें कुछ भी नहीं--कचरा है। मगर अगर अध्यात्म समझो,
तो फिर तुम्हारी मर्जी। फिर प्रभावित हो जाओगे।
अध्यात्म के नाम से जितना कूड़ा-करकट दुनिया में चलता है, किसी और चीज के नाम से नहीं चलता। लेकिन चलता क्यों है? क्योंकि लोग उसी भाषा को समझते हैं। लोग मूढ़ हैं और जो उनकी मूढ़ता को प्रभावित
करता है, उन्हें जान लेना चाहिए कि उस बात में भी कुछ छिपी
हुई मूढ़ता होगी, तभी तो तालमेल बैठ रहा है।
बुद्धपुरुषों की भाषा तो चौंकाती है, झकझोरती है।
बुद्धपुरुष तो यूं आते हैं, जैसे कि तलवार आए! यूं कि जैसे
कोई गर्दन काट जाए। बुद्धपुरुष तो अग्नि की तरह हैं--आग्नेय होते हैं। भस्मीभूत कर
देंगे। निश्चित ही उसको, जो नहीं है। जो है--वह तो निखर कर
उभर आएगा। बुद्धपुरुष तो यूं आते हैं, जैसे हवा का झोंका आए।
राख को उड़ा ले जाते हैं। मगर तुम राख को पकड़ते हो। तुम समझते हो--यह तुम्हारी
संपदा है!
दिल को संवार गई
जीवन निखार गई
जाने कहूं वो क्या है
खुशियां बौछार गई!
मैं खुद रहा न अपना
टूट गया सब सपना
कोई हवा इस मन का
दरपन बुहार गई!
जीवन भया उजयारा
खो ही गया अंधियारा
प्रेम अग्नि मंदिर में
दियरा-सा बार गई!
हाथों में उसके छोड़ा
तैरा न भागा-दौड़ा
नदिया ही देखो मेरी
नैया को तार गई!
हाथों में उसके छोड़ा! संन्यास का अर्थ है--समर्पण। मंजु! छोड़! अब लड़ने
की जरूरत नहीं। यह नदी जा ही रही है सागर की तरफ। यह जो गैरिक सरिता है, यह सागर की तरफ जा ही रही है। अब तैरने की भी जरूरत नहीं। भागने-दौड़ने की
भी जरूरत नहीं।
हाथों में उसके छोड़ा
तैरा न भागा-दौड़ा
नदिया ही देखो मेरी
नैया को तार गई!
जीवन भया उजयारा
खो ही गया अंधियारा
प्रेम अग्नि मंदिर में
दियरा-सा बार गई!
मैं खुद रहा न अपना
टूट गया सब सपना
कोई हवा इस मन का
दरपन बुहार गई!
दिल को संवार गई
जीवन निखार गई
जाने कहूं वो क्या है
खुशियां बौछार गई!
सिर्फ जाग कर देख लेना। कुछ करना नहीं है। अहमक अहमदाबादी विदा हो
जाता है। और तुम जागे रहो--फिर लौटकर नहीं आ सकता। सोए, तो फिर लौट आएगा। सोए--तो फिर सपने।
संन्यास की परम अवस्था है: जागे, तो जागे। सोए भी
जागे।
कृष्ण ने योगी की परिभाषा जो की है, वही संन्यासी की मेरी
परिभाषा है। कृष्ण ने कहा है--वह जो नींद में भी जागता है। या सर्व भूतायाम तस्याम
जाग्रति संयमी। जो सबके लिए रात है--या निशा सर्व भूतायाम--संयमी के लिए, योगी के लिए वह भी नींद नहीं; वह तब भी जागा है।
तस्याम जाग्रति संयमी। शरीर सो जाता है, मन सो जाता है--और
भीतर चैतन्य जागा रहता है; साक्षी जागा रहता है। दिन में तो
जागा ही रहता; रात में भी जागा रहता। जागे में भी जागा--सोए
में भी जागा।
अभी हालत उलटी है! अभी सोए में भी सोया--और जागे में भी सोया। बस, इसको ही जरा सीधा कर लेना। अभी तुम शीर्षासन कर रही हो। मैं कहता हूं: पैर
के बल खड़े हो जाओ। यह बंद करो शीर्षासन।
लड़ना मत, नहीं तो लगेगा कि मैं असहाय हूं, असमर्थ हूं। त्यागना मत--नहीं तो लगेगा, आपके समाने
होते हुए भी आपसे मिलने नहीं देता। आपके प्रेम-सागर में डूबने नहीं देता।
यह तो यूं हुई बात मंजु! जैसे कोई कहे: अंधेरा है; दीए को जलने नहीं देता। ऐसा हो सकता है?
अंधेरा कितना ही प्राचीन हो, कितना ही पुराना हो,
सदियों-सदियों, सहस्रों वर्षों से हो--तो भी
क्या दीए को जलने से रोक सकेगा? दीया अभी जलता--ताजा,
नया, सद्यःस्नात--अभी-अभी नहाई-नहाई ज्योति
आती। अभी-अभी जन्मा। जैसे छोटा-सा नवजात शिशु। मगर उसको भी पुराने से पुराना
अंधकार रोक नहीं सकता।
नहीं। ऐसा मत सोच कि अहंकार तुझे प्रेम में नहीं डूबने देता। प्रेम
में डूब--तो अहंकार विदा हो जाता है। दीया जला, तो अंधकार विदा हो
जाता है। लेकिन हम तर्क खोज लेते हैं। और वही मन तर्क खोज रहा है, जो मन अहंकार को निर्मित करता है। इसलिए हमारा तर्क हमारे अहंकार को बल
देता जाता है।
हम अपने को छिपाते चले जाते हैं! इससे एक पाखंड पैदा होता है। तो
ज्यादा से ज्यादा आदमी विनम्र हो सकता है। लेकिन विनम्र आदमी सिर्फ पाखंडी होता
है। भीतर तो अहंकारी है। यही अकड़ कि मुझसे विनम्र कोई भी नहीं। और मनुष्य का मन
जरूर ही बहुत चतुर है। वह हर चीज के लिए तर्क खोज लेता है, तर्क का सहारा खोज लेता है!
यूनुस ने एक किताब लिखी है--पर्शन्स, पैशंस एंड पालिटिक्स।
मुहम्मद यूनुस ने इस किताब में कुछ बड़ी महत्वपूर्ण बातें उदघाटित की हैं। लिखा है
कि उन्नीस सौ इक्कीस में मोरारजी देसाई को ब्रिटिश सरकार ने सांप्रदायिकता के कारण,
हिंदू मतांधता के कारण नौकरी से अलग किया। हालांकि मोरारजी यह
प्रचार करते रहे हैं कि मैंने ब्रिटिश नौकरी को लात मार दी थी!
ऐसा मन चालबाज है! निकाले गए नौकरी से, लेकिन कहते हैं कि
मैंने लात मार दी थी। और निकाले गए जिस कारण से, वह कारण समझ
में आता है, क्योंकि अभी भी हिंदू-मतांधता छूटी नहीं है।
दिखाते हैं अपने को गांधी का अनुयायी, लेकिन गांधी से ज्यादा
अनुयायी हैं गोडसे के।
मोरारजी देसाई और वल्लभ भाई पटेल दोनों को यह पता था कि महात्मा गांधी
की हत्या की योजना की जा रही है। मोरारजी देसाई तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे, और उनको खबर थी। लेकिन उस खबर पर कोई भी व्यवस्था नहीं की गई।
सरदार वल्लभभाई पटेल को भी खबर थी और वे भारत के गृहमंत्री थे। उनके
हाथ में सारी व्यवस्था थी। और उन्होंने जा कर महात्मा गांधी को पूछा! अब
होशियारियां देखना। उन्होंने महात्मा गांधी को पूछा कि क्या हम आपकी सुरक्षा की
व्यवस्था करें? निश्चित वे जानते थे कि महात्मा गांधी क्या कहेंगे।
महात्मा गांधी ने कहा कि जब परमात्मा मुझे उठाना चाहेगा, तो कोई व्यवस्था मुझे रोक न सकेगी। और जब तक नहीं उठाना चाहता, तब तक कोई मुझे उठा नहीं सकता है। इसलिए व्यवस्था की कोई जरूरत नहीं है।
तुम्हें लगेगा कि यह बात तो बड़ी कीमत की महात्मा गांधी ने कही। मुझे
नहीं लगता कि इसमें कुछ कीमत की बात है। जरा भी कीमत की बात नहीं है। क्योंकि अगर
गोडसे के द्वारा परमात्मा तुम्हें मारना चाहता है, तो सरदार वल्लभ भाई
पटेल के द्वारा सुरक्षा करवाना चाहता है! तुम बीच में आने वाले कौन हो?
अगर सच्चा धार्मिक व्यक्ति हो, तो वह कहेगा कि
तुम्हारी जो मर्जी। मारने वाले को मारने से मैं नहीं रोक सकता। बचाने वाले को मैं
रोकने वाला कौन हूं!
लेकिन बेईमानी देखते हैं! इसमें कुछ धार्मिकता नहीं है। कोई ध्यान का
बोध नहीं है। हालांकि तुम्हें यह बात बहुत प्रभावित करेगी। बहुतों को प्रभावित
करती है कि अहा! यह है धार्मिक व्यक्ति! कहता है, ईश्वर उठाना चाहता है,
तो कोई रोक नहीं सकता। और ईश्वर रोकना चाहता है, तो तुम क्यों रोक रहे हो? आखिर किसी के द्वारा ही
उठाएगा ईश्वर भी। नाथूराम गोडसे के द्वारा उठवाया। तो किसी के द्वारा ही बचाएगा!
मुझसे लोग पूछते हैं कि आप सुरक्षा का इंतजाम बंद क्यों नहीं करवा
देते? मैं कौन हूं बंद करवाने वाला! जब मैं छुरे फेंकने
वाले को नहीं रोक सकता, तो संत महाराज को कैसे रोकूं?
जो जिसकी मर्जी हो--करो। छुरा फेंकने वाला छुरा फेंके, रोकने वाला रोके। मैं खेल देख रहा हूं। इससे ज्यादा मेरा प्रयोजन नहीं है।
संत को तो रोकूं--और छुरा फेंकने वाले को तो रोक नहीं सकता--तो यह तो
छुरा फेंकने वाले को मेरा साथ हुआ। यह तो किसी न किसी रूप में आत्महत्या की वृत्ति
हुई! मगर आत्महत्या की वृत्ति भी आदमी बहुत अच्छे आवरण में रख सकता है।
महात्मा गांधी को लगने लगा था कि वे खोटे सिक्के हो गए हैं। क्योंकि
जैसे ही सत्ता उनके शिष्यों के हाथ में गई, उन्होंने महात्मा
गांधी की सुनना बंद कर दिया था। उन्होंने कहा, जब तक देश को
आजादी नहीं मिली थी, वे मेरी सुनते थे। अब मेरी कोई नहीं
सुनता। मैं खोटा सिक्का हो गया हूं!
और मरने के कुछ दिन पहले उन्होंने यह कहा था कि पहले मैं एक सौ पच्चीस
वर्ष जीना चाहता था, अब नहीं। अब मेरी कोई जरूरत ही नहीं है। मेरी कोई
सुनता नहीं। मेरी कोई मानता नहीं। मैं बिलकुल व्यर्थ हूं।
ये आत्मघात की सूचनाएं हैं। उन्हें भी पता नहीं कि वे क्या कह रहे
हैं। मैं एक सौ पच्चीस वर्ष जीना चाहता हूं--यह भी वासना थी। अगर परमात्मा पहले
उठाना चाहता है--फिर क्या करोगे? जिद्द करोगे कि मैं एक सौ पच्चीस
वर्ष जीऊंगा ही जीऊंगा?
मैं तो एक सौ पच्चीस वर्ष जीना चाहता हूं! यह भी वासना थी। और अब यह
वासना है कि जल्दी उठा ले, क्योंकि अब मैं किसी काम का नहीं रहा। अब मेरी कोई
मानता नहीं।
मनवाने की इतनी आकांक्षा कि जीवन को भी कोई मूल्य नहीं रहा। मानें
लोगे। मैं जो कहूं, वह मानें--तो ठीक। तो एक सौ पच्चीस वर्ष जीना है। और
मानते ही नहीं कोई मेरी, तो अब जीने में भी क्या सार है!
मतलब जीने का इतना ही अर्थ था कि अनुयायी आज्ञाकारी रहें। मजा अनुयायी के आज्ञाकारी
होने में था। ऐसा जाल चलता है!
अभी कल मैंने मोरारजी देसाई का एक वक्तव्य देखा, जिसमें उन्होंने भी ईश्वर पर थोप दिया सब--कि मैं तो ईश्वर की मर्जी से जी
रहा हूं। यहां तक उन्होंने कहा कि मैंने डिप्टी कलेक्टर होने के लिए जो दरख्वास्त
दी थी, वह मैंने नहीं लिखी थी। मेरे प्रोफेसर ने लिखी थी।
मैंने सिर्फ दस्तखत किए थे।
अब मैं जानता हूं कि क्यों नहीं लिखी होगी! लिखते बनती नहीं होगी!
नहीं तो कोई प्रोफेसर से दरख्वास्त लिखवाने जाता है? गए ही काहे को थे
प्रोफेसर से दरख्वास्त लिखवाने? और जब दरख्वास्त नहीं देनी
थी, तो दस्तखत किस लिए किए? फाड़ कर
फेंक देते। कोई मजबूरी थी कि प्रोफेसर ने दरख्वास्त लिख दी और तुम्हें दस्तखत करने
ही पड़ेंगे? अरे, जब तुम्हें नौकरी नहीं
करनी थी, तो दरख्वास्त फाड़ देते। जैसे दस्तखत किए, ऐसे फाड़ कर जयराम जी करके घर आ जाते!
पहले तो गए क्यों? फिर उसने दरख्वास्त कैसे लिख दी
तुम्हारे बिना कहे? किसने उसे बता दिया कि कौन-सी नौकरी के
लिए दरख्वास्त लिखे? और दस्तखत तुमने किए! तो दस्तखत भी उसी
को करने देने थे, कि जब परमात्मा को दिलवानी ही होगी नौकरी,
तो दस्तखत कोई भी करे, वह तो दिलवा कर रहेगा।
अरे, परमात्मा के खिलाफ कोई काम हो सकता है दुनिया में!
पत्ता नहीं हिलता, तो डिप्टी कलेक्टर जैसी बड़ी नौकरी कोई
परमात्मा के बिना आज्ञा के हो सकती है? तो कह देते कि करेगा
तो परमात्मा दस्तखत करेगा या तू कर। मैं कौन दस्तखत करने वाला!
लेकिन सचाई यह होगी कि दरख्वास्त लिखते नहीं बनती होगी। लेकिन उसको
छिपा लेने के लिए हम क्या-क्या आयोजन कर लेते हैं!
मुहम्मद यूनुस ने अपनी किताब में यह भी उल्लेख किया है कि मोरारजी
देसाई इस बात की घोषणा करते फिरते हैं कि मैं पचास वर्ष से ब्रह्मचारी हूं। यह झूठ
है--सरासर झूठ है। उनका एक मुसलमान स्त्री से प्रेम था। उससे एक अवैद्य संतान भी
हुई। वह संतान भी अभी जिंदा है। लेकिन उन दोनों को, स्त्री को और बच्चे
को उन्होंने जबर्दस्ती पाकिस्तान भिजवा दिया--कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! वे पाकिस्तान में हैं। वह बेगम अभी जिंदा है, जिससे उनका प्रेम था।
हां, पत्नी से ब्रह्मचर्य रहा होगा। पत्नी से ब्रह्मचारी
कौन नहीं होना चाहता। ऐसा तुम पति देखोगे, जो पत्नी से
ब्रह्मचर्य का व्रत न लेना चाहे! यह सच होगा। लेकिन यह जो बेगम थी, इससे प्रेम का चला सिलसिला। इससे बच्चा भी पैदा हुआ। बच्चा भी जिंदा है।
बेगम भी अभी जिंदा है। उसको पाकिस्तान भिजवा दिया। व्यवस्था की पाकिस्तान भिजवाने
की। क्योंकि जब मोरारजी देसाई फिर से भारत के प्रधानमंत्री बन बैठे, सत्ता में आ गए, तो वह बेगम भारत-यात्रा के लिए आई।
पाकिस्तानियों को सामान्यतया खुला वीसा दिया ही नहीं जाता। उनको तो
जिस जगह जाना हो, उस एक जगह का वीसा दिया जाता है। अगर बंबई--तो बंबई।
वह बंबई छोड़ कर हर कहीं नहीं जा सकते। लेकिन इस बेगम को खुला वीसा दिया गया। वह
भारत भर में भ्रमण कर सकी। सरकारी विश्राम स्थान में ठहरी। इतना ही नहीं, दिल्ली में वेस्टर्न कोर्ट में उसके ठहरे की व्यवस्था की गई। वह दिल्ली गई,
भोपाल गई, हैदराबाद गई, बंबई
गई। कहीं कोई रुकावट उस पर न थी। हो भी कैसे सकती थी।
लेकिन ब्रह्मचर्य का थोथा पाखंड फैलाए फिरते हैं। मन बड़ा पाखंडी है।
यह क्या-क्या तरकीबें निकाल लेता है!
महात्मा गांधी की हत्या में मोरारजी देसाई का भी हाथ है। क्योंकि जब
पता था, तो रुकावट डाली जा सकती थी। और सरदार वल्लभ भाई पटेल
का भी हाथ है।
महात्मा गांधी से पूछने का सवाल ही नहीं उठता। यह तो गृहमंत्री को
स्वयं आयोजन करना चाहिए। क्या तुम एक-एक आदमी से पूछते फिरोगे कि तुम्हें कोई
मारने आने वाला है, तो सरकार इंतजाम करे कि छुट्टी दे! अगर कोई मारने
वाला आ रहा है, तो चाहे कोई कितना ही सामान्य नागरिक हो,
दुनिया उसे जानती हो कि न जानती हो--यह सरकार का कर्तव्य है कि उसके
मार्ग में बाधा डाले। पूछने जाना उस आदमी से, वह भी गांधी
जैसे आदमी से पूछने जाना कि हम सुरक्षा का इंतजाम करें या नहीं! यह तो हद्द हो गई!
किसी के घर में चोरी पड़ने वाली है, यह पुलिस को पता चल
जाए, तो पुलिस पूछने जाती है कि तुम्हारे घर में चोरी पड़ने
वाली है; हम इंतजाम करें कि नहीं? हिंदू-मुस्लिम
दंगा होने वाला है, तो पुलिस पूछने जाती है कि हम इंतजाम
करें या नहीं?
महात्मा गांधी से पूछने जाने का मतलब क्या है? कहीं भीतरी आकांक्षा होगी कि छुटकारा हो जाए--इस बूढ़े से छुटकारा हो जाए!
महात्मा गांधी की हत्या के सात दिन पहले ही सरदार वल्लभ भाई पटेल ने
लखनऊ में आर.एस.एस. की एक विशाल रैली को संबोधन किया था। और वहां उनकी बड़ी प्रशंसा
की थी--कि इस तरह के राष्ट्रसेवक चाहिए!
यह कुछ आकस्मिक नहीं है कि भारत में जो जनता पार्टी बनी, जिसने मोरारजी देसाई को सत्ता में पहुंचा दिया, वह
मूलतः राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बल पर ही खड़ी थी। वह इन मतांध हिंदुओं का ही
संगठन था, जिसकी ताकत पर वे सत्ता में पहुंच गए थे। और उनको
सत्ता में बिठालने का राज यह था कि भीतर से बुनियादी रूप से हिंदूवाद के समर्थक
हैं।
तो गांधी को हटाना चाहा होगा। कह नहीं सकते सीधा-साधा। नाथूराम गोडसे
ने छुटकारा दिला दिया, तो राहत की सांस ली थी भारत के इन तथाकथित नेताओं
ने--कि झंझट मिटी! अब हम निश्चिंतता से जो करना है करें! अब कोई बाधा न रही,
कोई कांटा न रहा!
आदमी बहुत चालबाज है। फिर रोएंगे--और भाषण देंगे--और हर तरह का शोरगुल
मचाएंगे कि बड़ा इनके ऊपर, छाती पर दुख आ पड़ा है। टूटे जा रहे हैं, मरे जा रहे हैं! और हर साल श्रद्धांजलि चढ़ाए जा रहे हैं! और राजघाट पर
बैठकर चरखा चलाए जा रहे हैं!
मन के इन सारे धोखों से जागना, मन के इस पाखंड से
जागना ध्यान है। लेकिन डर लगता है जागने में, क्योंकि तब
तुम्हें अपनी सारी बेईमानियां देखनी पड़ें--अपने सारे जाल, जो
तुमने ही बिछाए हैं--अपनी सारी गंदगी!
और मंजु तू कहती है कि बूढ़ा, कुरूप, गंदा--पीछा नहीं छोड़ता! बूढ़ा है निश्चित, क्योंकि
बहुत प्राचीन है। सदा-सदा से, जन्मों-जन्मों से पीछे लगा है।
कुरूप भी है, गंदा भी है। लेकिन पीछा नहीं छोड़ता, उसका कारण यह है कि उसकी गंदगी देखने की, उसकी
कुरूपता देखने की क्षमता तू नहीं जुटा पा रही है। अगर उसे पूरी भर आंख ले, तो वह सदा के लिए विदा हो जाए।
और उस पर आंख गड़ा कर ही देखना होगा। आंख गड़ा कर देखने का नाम ही ध्यान
है।
लेबिल मत लगाओ कि गंदा है, कुरूप है, बूढ़ा है। पहचानो--देखो। और निर्णय लेने की जल्दी मत करो। सिर्फ देखो। काफी
है देखना। दर्शन काफी है। बस, रोशनी का जलाना काफी है।
रोशनी के जलते ही एक क्रांति होती है, वह क्रांति समझने
जैसी है। जो है, वह तो प्रगट हो जाता है--रोशनी के जलते ही।
अंधेरे में प्रकट नहीं होता था। जो है, वह अंधेरे में दबा
रहता है। और जो नहीं है, वह प्रकट होता है।
जब तुम एक अंधेरे कमरे में प्रवेश करते हो, तो अंधेरा ही अंधेरा दिखाई पड़ता है। दीवालों पर लटकी हुई सुंदर तस्वीरें
दिखाई नहीं पड़तीं। छप्पर से लटका हुआ फानूस दिखाई नहीं पड़ता। कमरे में जमा हुआ
तरतीब से, सुंदर फर्नीचर, दिखाई नहीं
पड़ता। जो है, वह दिखाई नहीं पड़ता। और जो नहीं है, वह दिखाई पड़ता है। अंधकार!
फिर जलाओ दीया, तो फर्नीचर विदा नहीं हो जाएगा। फर्नीचर छलांग लगा कर
भाग नहीं निकलेगा। और न ही दीवारों से तस्वीरें निकल कर नदारद हो जाएंगी। सिर्फ
अंधेरा मिटेगा। तस्वीरें प्रकट होंगी।
जो है, वह ध्यान में प्रकट होता है; और
जो नहीं है, वह विदा हो जाता है।
अहंकार नहीं है; मन नहीं है। आत्मा है। परमात्मा
है। ध्यान इस अभूतपूर्व घटना को तुम्हारे भीतर घटा देता है।
मंजु! ध्यान में डूब। और ध्यान की ही सुगंध प्रेम है। ध्यान का फूल
खिले, तो प्रेम की सुगंध अपने आप बिखरी है।
मत ऐसा सोच कि यह अहंकार तेरे प्रेम में बाधा बन रहा है। अहंकार क्या
बेचारा बाधा बनेगा। तू नहीं है असहाय-असमर्थ; अहंकार है असहाय और
असमर्थ। लेकिन हमारा उससे तादात्म्य इतना हो गया है कि हम सोचते हैं--हम असहाय,
हम असमर्थ!
तू तो स्वयं परमात्मा है। जिस दिन ध्यान परिपूर्ण होगा, उस दिन यह उदघोष निकलेगा--अहं ब्रह्मास्मि। अनलहक। तत्वमसि!
दूसरा प्रश्न: भगवान
प्रीतम द्वार खड़ी हूं मौन
यहां भला कब सोचा आना
मेरा आपका दर्शन पाना!
खींच मुझे इतनी दूरी से लाया बरबस कौन?
मौन खड़ी खटखटाऊं द्वार--
अरे! हाथ खाली ही आई!
देने को उपहार न लाई!
अरी! करेगी किससे प्रियतम की पूजा-सत्कार?
क्षमा करना--
यहीं कहीं बैठूंगी छिपकर
आएंगे देखूंगी पल-भर
बस, लौटूंगी उस पल का
हृदय-पट पर चित्र उतार!
वीणा भारती!
मौन में ही द्वार खुलता है। मौन से ही द्वार खुलता है। मौन आया--कि
द्वार खुला। खटखटाना भी नहीं पड़ता।
तू कहती है--प्रीतम द्वार खड़ी हूं मौन! यही तो कुंजी है--प्यारे के
द्वार पर चुपचाप खड़े हो जाना। पुकार भी नहीं देने की जरूरत है। अजान भी करने की
जरूरत नहीं।
कबीर ने एक मस्जिद से गुजरते समय देखा कि मुल्ला चढ़कर मीनार पर, अजान दे रहा है। तो कबीर ने चिल्ला कर कहा, उतर नीचे
पागल! क्या बहरा हुआ खुदाय? क्या तेरा खुदा बहरा हो गया--जो
इतनी ऊंची मीनार पर चढ़ कर, इतना शोरगुल मचा रहा है? मौन हो। चुप हो।
चुप्पी की भाषा ही बस परमात्मा जानता है। मौन ही एकमात्र सेतु है।
बोले कि दूर हुए। पुकारा कि भिन्न हुए। चुप हुए कि अभिन्न। चुप हुए कि एक।
तू कहती है, प्रीतम द्वार खड़ी हूं मौन! कुंजी तेरे हाथ लग गई।
यहां भला कब सोचा आना!...सोच-विचार कर यहां कोई आता? और सोच-विचार कर जो आता है, वह खाली हाथ ही चला जाता
है। सोच-विचार कर भी कभी कोई आता है? कभी कोई आया है?
आए भी तो आ नहीं पाता।
दूर से आए थे साकी, सुन के मयखाने को हम।
बस तरसते ही चले, अफसोस पैमाने को हम।।
मय भी है, मीना भी है, सागर भी है,
साकी नहीं।
दिल में आता है, लगा दें आग मयखाने को हम।।
हमको फंसना था कफस में, क्या गिला सैयाद का।
बस तरसते ही रहे हैं आब और दाने को हम।।
बाग में लगता नहीं, सहरा में घबराता है दिल।
अब कहां ले जाके बैठें, ऐसे दीवाने को हम।।
क्या हुई तकसीर हमसे, तू बता दे ऐ नजीर।
ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।।
दूर से आए थे साकी, सुन के मयखाने को हम।
बस तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम।।
जो सोच-विचार कर आया है, वह तो जैसा आया वैसा
ही लौट जाएगा। खाली आया, खाली लौट जाएगा। उसका पैमाना न
भरेगा। साकी से उसका मिलन न हो सकेगा। सब है, लेकिन वह चूक
जाएगा।
मय भी है, मीना भी है, सागर भी है,
साकी नहीं।
दिल में आता है, लगा दें आग मयखाने को हम।।
सब होगा--साकी से मिलन न हो पाएगा।
साकी सूफियों का प्रतीक है परमात्मा के लिए। और तब जरूर क्रोध आएगा कि
हम इतने दूर से आए; बहुत सुन कर आए, बहुत आशा से आए,
बहुत आकांक्षा से आए और खाली हाथ लौटना पड़ रहा है। क्यों न आग लगा
दें मयखाने को हम!
जो सोच कर आया, वह आता ही नहीं; आ ही नहीं पाता।
सब होता: मय भी, मयखाना भी, साकी नहीं।
सब उसे दिखाई पड़ता है।
यहां जो सोच-विचार कर आ गए हैं, उन्हें सब दिखाई
पड़ेगा। कौन पुरुष किस स्त्री का हाथ पकड़कर बैठा है, उन्हें
दिखाई पड़ेगा। कौन किसको आलिंगन में आबद्ध किए है--उनको दिखाई पड़ेगा। मैं भर उन्हें
दिखाई नहीं पडूंगा। और जो बिन सोचे आए हैं, उन्हें सिर्फ मैं
दिखाई पडूंगा--और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। आलिंगनबद्ध कोई जोड़ा भी खड़ा होगा,
तो भी उन्हें मैं ही दिखाई पडूंगा; और कुछ भी
नहीं दिखाई पड़ेगा। उन्हें वृक्षों की हरियाली में, और फूलों
के रंगों में, और संन्यासियों में मैं ही दिखाई पडूंगा;
और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ेगा।
तू ठीक ढंग से आई है। तू कहती है:
यहां भला कब सोचा आना
मेरा आपका दर्शन पाना!
जो बिना सोचे आया है, उसका तो दीदार निश्चित है। उसने
तो दर्शन पा ही लिया। निर्विचार में ही तो दर्शन है।
खींच मुझे इतनी दूरी से लाया बरबस कौन! यही तो आने का ढंग है कि पता
भी नहीं चलता कि क्यों हम आए; किसलिए हम आए; कौन खींच लाया! कोई अदम्य आकर्षण, कोई भीतर की डोर,
जो दिखाई नहीं पड़ती--अदृश्य--कोई किरण छू ली है--और तू चल पड़ी। कोई
धुन उठी और तू चल पड़ी। यहां तो मतवाले ही पहुंच पाते हैं, दीवाने
ही पहुंच पाते हैं।
जिस तरफ देखा दीवानगी में तेरे दीवाने गए
लाख अपने को छुपाया फिर भी पहचाने गए
अल्ला अल्ला कितनी पेचीदा हैं राहें इश्क की
खुद को खो बैठे वो रहरौ जो भी थे पाने गए
बज्म में नीची नजर ने राजे उल्फत कह दिया
हम तो रुसबा हो रहे थे तुम भी पहचाने गए
दर हकीकत अपना इल्फां है तुम्हारी मारफत
खुद को जब पहचाना हमने तुम भी पहचाने गए
इससे बढ़कर और क्या हो कम निगाही की दलील
उम्र भर पर तुम साथ रह कर भी न पहचाने गए
आशिकी उनकी है वाकफ हौसलेवालों का काम
अरे आप उस कूचे में नाहक ठोकरें खाने गए
जिस तरफ देखा दीवानगी में तेरे दीवाने गए
लाख अपने को छुपाया फिर भी पहचाने गए
तू कहती है, यहीं कहीं बैठूंगी छिपकर! कितना ही छुपकर बैठ...।
जिस तरफ देखा दीवानगी में तेरे दीवाने गए
लाख अपने को छुपाया फिर भी पहचाने गए
अल्ला अल्ला कितनी पेचीदा हैं राहें इश्क की
खुद को खो बैठे वो रहरो जो भी थे पाने गए
पाने का ढंग एक ही है--खुद को खो बैठना। खुद को खो बैठे--तो फिर पाने
में देर नहीं। उतना साहस! और वीणा तुझमें उतना साहस मैं देखता हूं।
तू कहती है:
यहीं कहीं बैठूंगी छिप पर
आएंगे देखूंगी पल-भर
बस लौटूंगी उस पल का हृदय-पट पर चित्र उतार!
बज्म में नीची नजर ने राजे उल्फत कह दिया
हम तो रुसबा हो रहे थे तुम भी पहचाने गए
दर हकीकत अपना इल्फां है तुम्हारी मारफत
खुद को जब पहचाना हमने तुम भी पहचाने गए
जो यहां मौन हो कर बैठेगा, वह मुझे भी पहचान
लेगा; खुद को भी पहचान लेगा। यह घटना एक साथ घटती है। ये एक
ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह राज अलग-अलग नहीं खुलता; एक ही
साथ खुल जाता है।
तू कहती है:
अरे हाथ खाली ही आई!
देने को उपहार न लाई!
खाली हाथ, मौन, शून्य--बस, यही उपहार है। इससे बड़ा कोई उपहार नहीं। मेरे पास आओ--शून्य आओ, खाली आओ, मौन आओ--तो मिलन; तो
दर्शन; तो मैं जो कह रहा हूं, उसे
समझने में पल भर की देर न लगेगी। इधर मैंने कहा, इधर तुमने
समझा। या यूं कहो, इधर मैं पूरा कह भी नहीं पाया, और उधर तुमने समझ भी लिया। इधर मैं कहने को ही था कि उधर तुमने समझ ही
लिया।
इसलिए जो यहां चुप हो कर बैठे हैं, मौन हो कर बैठे हैं,
उन्हें कुछ भेद नहीं पड़ता कि मैं क्या कह रहा हूं। वे वही समझते हैं,
जो मैं कहना चाहता हूं। क्योंकि जो मैं कहना चाहता हूं, वह तो कह नहीं पाता। वह तो कोई भी नहीं कह पाया है। उसे तो कहने का कोई
उपाय नहीं।
कल एक दंपति का पत्र अमरीका से मुझे मिला। पति प्रसिद्ध डाक्टर हैं।
तीन वर्षों में जो भी संभव था अमरीका में मेरे संबंध में, वह सब उन्होंने किया। सारी किताबें पढ़ डालीं। सारे टेप सुन डाले। वीडिओ
देख डाले। फिल्में देख डालीं। सारे अमरीका के आश्रमों में हो आए। सैकड़ों
संन्यासियों से मिले। ध्यान करना शुरू कर दिया। लेकिन व्यस्त डाक्टर हैं--आने का
समय नहीं मिल पाया।
लेकिन अभी पंद्रह दिन पहले हृदय का दौरा आ गया। तो चौंके। और सोचा कि
यूं तो जिंदगी किसी भी दिन खतम हो सकती है। तो तत्क्षण मुझे पत्र लिखा कि अब देर
नहीं कर सकता। अब आ रहा हूं। अब मुझे इसकी भी फिक्र नहीं कि आप हिंदी में बोलेंगे, कि स्वाहिली में बोलेंगे, कि अंग्रेजी में
बोलेंगे--बोलेंगे कि नहीं बोलेंगे, इसकी भी फिक्र नहीं। बस,
आ रहा हूं। चुपचाप आपके पास बैठ रहना है। कुछ बोलें--तो ठीक। न
बोलें--तो ठीक। किसी भाषा में बोलें; समझ में आए, तो ठीक। न समझ में आए, तो ठीक। बस, चुपचाप आपके पास बैठ रहना है। मौत ने द्वार पर दस्तक दे दी, अब और देर नहीं कर सकता। सब काम-धाम छोड़कर आ रहा हूं; जैसा का तैसा छोड़ कर आ रहा हूं।
पत्नी ने भी लिखा है कि मैं पति की वजह से अटकी थी। वे कहते थे: मैं
चलता हूं, मैं चलता हूं, और थोड़ी देर रुक
जा। अगले महीने चलता हूं। एक चार सप्ताह और प्रतीक्षा कर ले। ऐसे उन्होंने तीन साल
गुजार दिए। मगर सौभाग्य ही समझो कि उनको हृदय का दौरा पड़ गया। अब वे एकदम आ रहे
हैं। तो मैं भी आ पा रही हूं। बस, चुपचाप बैठना है आपके पास।
यह अवसर न चूक जाए।
मौन ही एकमात्र भाषा है, जिसमें सत्य प्रवाहित
होता है। ये शब्द तो मैं इसलिए उपयोग कर रहा हूं कि तुम मौन के लिए धीरे-धीरे
तैयार हो जाओ।
जो तैयार हो गए हैं, उन्हें मेरे इन शब्दों में शून्य
का ही संगीत सुनाई पड़ता है। जो नहीं अभी तैयार हुए हैं, वे
इन शब्दों में तर्क देखते हैं, शास्त्र देखते हैं, विचार देखते हैं--और न मालूम क्या-क्या देखते हैं! वे अपने को ही इन
शब्दों पर थोपते चले जाते हैं।
खाली हाथ आई, तो अच्छी आई। भरे हाथ आता है जो, वह फिर मुझे नहीं पहचान पाएगा।
इससे बढ़ कर और क्या हो कमनिगाही की दलील
उम्र भर तुम साथ रह कर भी न पहचाने गए
फिर वह उम्र भर भी साथ रहे, तो भी कमनिगाह है,
अंधा है; वह देख नहीं पाएगा। और मौन होने के
लिए साहस चाहिए। खाली हाथ आने के लिए साहस चाहिए।
आशिकी उनकी है वाकफ हौसलेवालों का काम
अरे आप उस कूचे में नाहक ठोकरें खाने गए
जो खाली हाथ आने को तैयार है, जो आंखों में आंसू
लिए हुए आने को तैयार है और जो स्वीकार करने को तैयार है कि मेरे पास लाने को कुछ
भी नहीं; कोई संपदा नहीं--न बाहर की, न
भीतर की--ऐसी स्वीकृति हौसले वाले का काम है। और जो इस हौसले के बिना आ गए
हैं--अरे, आप उस कूचे में नाहक ठोकरें खाने गए!
वे इस मेरी दुनिया में नाहक ही ठोकरें खाने आ गए। वे थोड़े
कुटेंगे-पिटेंगे और अपने घर लौट जाएंगे। और खाली हाथ ही जाएंगे। लाख इरादे
उन्होंने किए हों, इससे फर्क नहीं पड़ता।
दूर से आए थे साकी, सुन के मयखाने को हम
बस तरसते ही चले, अफसोस पैमाने को हम।।
मय भी है, मीना भी है, सागर भी है,
साकी नहीं।
दिल में आता है, लगा दें आग मयखाने को हम।।
गुस्सा आएगा उन्हें। क्रोध आएगा। मुझ पर बहुत लोग नाराज हैं। आग लगा
देना चाहेंगे मेरे इस कम्यून को। बहुत लोगों की यह इच्छा है! कारण क्या है उनकी
नाराजगी का?
वे गलत ढंग से आते हैं, तो पहचान नहीं पाते;
तो गुस्सा आता है कि आना-जाना बेकार हुआ। जो ठीक ढंग से आते हैं,
शून्य आते हैं, मौन आते हैं--जो आने के लिए
आते हैं; जिन्हें यह भी पता नहीं किसलिए--क्यों--अहेतुक,
बिना किसी कारण के आते हैं, अकारण आते हैं।
दीवानगी चाहिए। और तू पागल है वीणा! तू दीवानी है।
जिस तरफ देखा दीवानगी में तेरे दीवाने गए
लाख अपने को छुपाया फिर भी पहचाने गए!
तीसरा प्रश्न: भगवान, मेरे नमस्कार स्वीकार करें। निवेदन है कि मैं आपके संन्यासियों में गुम हो
जाना चाहती हूं। उसके लिए आप मुझे शक्ति दें। मैं संत की बहन हूं--पिंकी!
पिंकी!
चल तू तो रंगी! संत की थोड़ी इच्छा तो पूरी हुई। पिंकी को तो पंख लगे।
देखा संत महाराज! और अंगुली पकड़ ली मैंने, तो पहुंचा बहुत दूर
नहीं। और पहुंचा पकड़ लिया तो फिर...!
अब यह पिंकी से शुरुआत हो गई। मैंने कल ही तुमसे कहा था कि मेरे अपने
ढंग हैं। तुम घबड़ाओ न। पिंकी तो पकड़ में आ गई। अब तुम्हारे माता-पिता भी पकड़ में
आएंगे। संत की बहन है, तो बचेगी भी कितनी देर!
तू कहती है, आपके संन्यासियों में गुम हो जाना चाहती हूं। इसके
लिए आप मुझे शक्ति दें। जरूर गुम हो जाएगी। गुम हो जाने के लिए शक्ति की कोई जरूरत
नहीं। गुम हो जाने के लिए सिर्फ अहंकार को हटा देने की जरूरत है। और अहंकार कोई
बड़ी चट्टान नहीं; सिर्फ एक भ्रांति है; सिर्फ एक भ्रम है। जैसे दो और दो को कोई पांच जोड़ रहा हो--और फिर कोई बता
दे कि देखो, दो और दो पांच नहीं--दो और दो चार होते हैं! तो
कुछ भी तो नहीं करना होता। दो और दो चार हो जाते हैं। बस, ऐसा
ही। गणित की भूल हो रही है।
हमने अपने को समझा है, हम अलग हैं परमात्मा
से--और हम अलग नहीं हैं। लाख समझो कि अलग हो, अलग नहीं हो।
लहर समझे कि मैं अलग हूं सागर से; अलग नहीं है। और लहर कहे
कि मैं सागर में गुम हो जाना चाहती हूं, तो सागर क्या कहे!
सागर हंसेगा। सागर कहेगा, पागल! तू अलग है ही नहीं। बस,
अलग होने की भ्रांति छोड़ दे। तू गुम ही है। तू सागर में ही है। जब
तू सोच रही है कि अलग है, तब भी सागर में है।
कोई उपाय नहीं परमात्मा से दूर होने का। न कभी कोई दूर हुआ है, न कोई कभी दूर हो सकता है। परमात्मा वही है, जिससे
हम दूर नहीं हो सकते; जो हमारा स्वभाव है। मगर भ्रांति पाल
लेते हैं हम।
अगर लहर को भी बुद्धि हो, तो वह भी भ्रांति में
पड़ जाएगी। लहर भी सोचने लगेगी कि मैं अलग-थलग। और वह भी तर्क खोज लेगी। क्योंकि और
भी तो बहुत लहरें हैं। कोई बड़ी है, कोई छोटी है। हम सब एक
कैसे हो सकते हैं? कोई सुंदर, कोई
असुंदर; कोई स्त्री, कोई पुरुष। कोई
देखो दहाड़ रही, आकाश में उठी हुई--और कोई बिलकुल छोटी-सी लहर
है। और कोई गिर रही लहर, और कोई उठ रही लहर--दोनों एक कैसे
हो सकती हैं! एक गिर रही, एक उठ रही; एक
मर रही, एक जनम रही--दोनों एक कैसे हो सकती हैं! अलग-अलग
हैं। साफ है। तर्क के लिए बिलकुल साफ है।
लेकिन सागर कोई तर्क मानता है? वहां एक लहर उठ रही,
दूसरी गिर रही है। ये जुड़ी हैं। असल में एक का गिरना दूसरे का उठना
है। दूसरे के उठने में उस गिरने वाली लहर का हाथ है। वह गिर रही है, इसीलिए दूसरी उठ रही है। दोनों जुड़े हैं। और एक ही सागर में हैं। एक ही
सागर की छाती पर नृत्य चल रहा है अनंत लहरों का।
मेरे पास बैठ कर इतना ही समझ में आ जाए, तो गुम हो जाना कोई
कठिन मामला ही नहीं है। हम गुम हैं। लेकिन पिंकी पहले पकड़ में आई।
कल मैंने कहा था न कि बूढ़े व्यक्ति थोड़ी देर लगाते हैं; थोड़ा सोचते हैं, विचारते हैं। स्वभावतः। बिलकुल
नैसर्गिक है। जीवन भर का अनुभव बीच में दीवाल बन कर खड़ा होता है।
और संत महाराज ने पिंकी के लिए प्रार्थना ही नहीं की थी। पिंकी की
इन्होंने गिनती ही नहीं की थी। मां-बाप की ही बात कही थी। वे भूल ही गए पिंकी की
गिनती करना। सोचा होगा: इसकी क्या गिनती करना! अभी सतरह-अठारह साल की है! गिनती के
बाहर ही रखा! संत ने सोचा होगा, बच्ची है। लेकिन बच्चों के पास
ज्यादा दृष्टि होती है। ज्यादा साफ, निर्मल दृष्टि होती है।
बच्चे जल्दी मेरी बात समझ पाते हैं। उन्हें बिलकुल ठीक-ठीक दिखाई पड़
जाता है। बूढ़ों की आंख पर बहुत जाले छा गए होते हैं। जिंदगी बहुत धूल जमा गई होती
है उनके दर्पण पर। इसलिए थोड़ी देर लगती है।
मगर शुरुआत हो गई संत महाराज! पिंकी डूबेगी।
और शक्ति की फिक्र मत कर। शक्ति का कोई सवाल नहीं--सिर्फ समझ का सवाल
है। शक्ति तो सब में छिपी है; सबके भीतर है। न देने की जरूरत
है, न मांगने की जरूरत है। परमात्मा सबको बराबर शक्ति दे कर
भेजता है।
अंतर्यात्रा की शक्ति तो सबके भीतर समान है। सिर्फ अंतर्यात्रा शुरू
करने की बात है।
तेरे मन में भाव उठा--बात शुरू हो गई। अड़चनें आएंगी। बाधाएं आएंगी।
लेकिन अगर भाव सघन है, तो सारी अड़चनों से और भी सघन हो जाता है। हर अड़चन
चुनौती बन जाती है।
मां-बाप तुझे रोकेंगे कि पागल, एक तो बेटा पागल हो
गया। अब बेटी भी पागल होने लगी!
उन्होंने तो मुझे लिखा है कि आप संत को आदेश करें कि कम से कम साल में
चार बार मिलने हमसे घर पर आना चाहिए! अब उनको मालूम नहीं कि मैं आदेश तो किसी को
करता ही नहीं। संत को बिलकुल स्वतंत्रता है। वे जब चाहें, तब जा सकते हैं। सच तो यह है कि मुझे बाहर जाना हो, तो
संत से पूछना पड़ता है कि भई, निकलने दोगे दरवाजे से कि नहीं?
छह साल में सिर्फ तीन बार निकलने दिया है। अगर वह कह दें कि नहीं,
दरवाजा ही नहीं खोलते, तो बात खतम! मैं हूं
बिलकुल अलाल; में उतर कर दरवाजा भी नहीं खोल सकता। वह तो बड़ा
दरवाजा है, मैं कार का दरवाजा भी नहीं खोलता! न लगाता न
खोलता--दरवाजा वगैरह की बात ही नहीं। संत खोल दें तो ठीक, नहीं
तो बात खतम! छह साल में सिर्फ तीन बार खोला उन्होंने!
और आदेश तो मैं किसी को देता नहीं। मैं नहीं कह सकता कि जाओ। और जाना
चाहें, तो मैं नहीं कह सकता कि मत जाओ। यहां तो प्रत्येक
संन्यासी स्वतंत्र है। जब तक उसकी मौज--रहे; जब मौज हो,
जाए; जब मौज हो तो वापस आ जाए। न कोई रोकने
वाला है, न कोई भेजने वाला है।
अब पिंकी, तेरे माता-पिता तो आदेश की भाषा में सोचते
हैं--पंजाबी हैं! तो पंजाब में तो आदेश की भाषा चलती है। अब तू रंग में डूबेगी
मेरे, तो झंझटें आएंगी, क्योंकि तेरे
माता-पिता तो आदेश की भाषा समझते हैं। उन्हें तेरा विवाह करना है; और मेरे रंग में डूबी, कि फिर यह विवाह वगैरह की
झंझट खतम! उनको बड़ी चिंता होगी उससे। एक तो ये संत सपूत निकल गए...!
अभी कल ही तो मैंने तुमसे कहा था न कि कबीर ने अपने बेटे को देख कर
कहा कि बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल! ये कमाल पूत पैदा हो गए। वंश ही उजाड़
दिया। शादी ही नहीं की। फिर आगे बात ही न चली। अब ये संत तो सपूत हैं। इन ने तो
वंश उजाड़ा! अब पिंकी, तू भी रंग गई इस रंग में। तो उनको चिंता होगी।
वे विवाह की फिक्र में लगे हुए हैं। वे लड़का खोज रहे हैं। वे जल्दी में
हैं कि इसके पहले कि यह बिगड़े, इसका विवाह कर देना है। तो जरा
सावधान रहना। विवाह से सावधान रहना! और सब भूलचूक कर लेना--विवाह की भूलचूक मत
करना। क्योंकि वह एक लंबी झंझट है। उसमें फंसना आसान है--निकलना बहुत मुश्किल है।
इसलिए तो सात चक्कर खिलवा देते हैं, उसमें आदमी घनचक्कर हो
जाता है! चकरा जाता है! समझ में ही नहीं आता, अब क्या
करना--क्या नहीं करना! फिर निकलने का रास्ता नहीं है। ऐसी भूलभुलैया है कि उसमें
भीतर तो घुस जाते हैं, फिर बाहर निकलते नहीं बनता।
तुमने कभी देखा--कभी पक्षी कोई कमरे में घुस आता है। अभी दरवाजे से ही
घुसा है, और दरवाजे से ही निकल सकता है। मगर तुमने पक्षी को
देखा कि वह क्या करता है! बंद खिड़कियों पर चोंच मारता है। दीवाल से टकराता है।
छप्पर से सिर फोड़ लेता है। लहूलुहान हो जाएगा। और घबड़ाने लगेगा। जितना लहूलुहान
होगा--दरवाजा मिलना मुश्किल हो जाएगा। आंख के सामने अंधेरा छा जाएगा। खोपड़ी छप्पर
से टकरा गई। चोंच लहूलुहान हो गई--खिड़की से। घबड़ा गया! और अभी-अभी यह आया है।
एक मित्र मेरे--वे कहते हैं कि विवाह से कैसे बाहर निकलना? सात फेरे पड़ें चुके हैं! अरे, तो, मैंने कहा, तुम सात उलटे फेरे मार दो। खतम करो बात।
जिस दरवाजे से आए, उसी से बाहर निकल जाओ!
कहें, गांठ बंध चुकी!
अरे, तो खोल दो। गांठ बांधी, तो कोई
बड़ी भारी बात है! उठाओ कैंची काट दो, न खुलती हो तो! फिर से
अपनी असली स्थिति में वापस आ जाओ। छोड़ो यह चक्कर!
वे कहते हैं, आप बात तो ठीक कहते हैं। मगर बड़ी मुश्किल है! बहुत
झंझटें पाल ली हैं!
आदमी एक झंझट जब पालता है, तो सिलसिला शुरू होता
है। झंझट अकेली नहीं आती। एक झंझट अकेली नहीं आती। साथ में भीड़भाड़ लाती है! झंझट
के पीछे झंझटें आती चली आती हैं!
तो जरा सावधान रहना। विवाह की झंझट में मत पड़ना। तेरे मां-बाप तो
कोशिश करेंगे। क्योंकि वे बेचारे क्या करें! वे तो एक ही जीवन का ढंग जानते
हैं--जिस ढंग से वे जीए। हालांकि उन्होंने भी जीवन में उस ढंग से जी कर कुछ पाया
नहीं।
जब मैं विश्वविद्यालय से घर लौटा, तो स्वभावतः मेरे
मां-बाप भी उत्सुक थे कि मेरा विवाह हो जाए। मैंने सिर्फ इतना ही पूछा कि मुझे तुम
सोच-समझ कर कहो कि तुमने कुछ पाया? तुम्हें कुछ मिला
हो--ईमानदारी से मुझे कह दो।
फिर वे कुछ बोले ही नहीं। क्योंकि अब ईमानदारी से क्या कहते! ईमानदारी
तो यही थी कि विवाह से क्या मिलना-जुलना है! किसको कब मिला है?
मेरे पिता के एक मित्र थे वकील, फिर उन्होंने मुझसे
सीधी बात करनी बंद कर दी। सोचा कि वकील है आदमी यह, यह समझा
सकेगा। वकील को मेरे पास भेजा। और वकील ने कहा, अरे, बड़े-बड़े मुकदमे जीत चुका। यह कोई मुकदमा है! इस छोकरे को मैं ठीक करूंगा।
वे वकील मुझे समझाने आए। मैंने उनकी बात सुनी। मैंने कहा, बात तो मैं करने को राजी हूं। लेकिन एक बात पक्की कर लें--न्यायाधीश भी
चुन लें। उन्होंने कहा, मतलब!
मैंने कहा कि गांव में इतने मजिस्ट्रेट हैं। आपके भी पहचान के हैं, मेरी भी पहचान के हैं। एक मजिस्ट्रेट को अपन बिठा लें। आप दलीलें दें
विवाह के पक्ष में। मैं दलीलें दूंगा विपक्ष में। अगर आप जीत गए, तो मैं विवाह करूंगा। अगर मैं जीत गया, फिर--आपको
विवाह छोड़ना पड़ेगा!
उन्होंने कहा, तू तो बड़ा उपद्रवी है! हमारी बसी-बसाई उजड़वा देगा!
मैंने कहा, एकत्तरफा कैसे सौदा हो सकता है कि तुम मुझे समझाओ और
मैं विवाह करूं। इसका दूसरा पहलू भी तो समझो! मैंने कहा, मैं
तुम्हारा एक-एक तर्क काटने को तैयार हूं। क्योंकि मैं तुम्हारी जिंदगी को बचपन से
जानता हूं। तुम्हारी पत्नी को जानता हूं। तुमको जानता हूं। तुम्हारे घर में क्या
चलता है--वह जानता हूं। एक-एक पोल खोल कर रख दूंगा।
वे जो वहां से भागे, तो लौटे ही नहीं! दो-चार दिन बाद
मैं उनके घर जाने लगा--कि वकील साहब कहां हैं!
वे कहीं स्नान-गृह में छिप जाएं। कभी उनकी पत्नी कहे कि बाहर गए हैं।
दफ्तर गए हैं! फलाना-ढिकाना!
एक दिन उनकी पत्नी बोली, क्यों मेरे पति के
पीछे पड़े हो? वे तुम्हें देख कर छिपते क्यों हैं? बात क्या है, आखिर मैं भी तो समझूं!
मैंने कहा, बात यह है कि यह विवाद होना है। और यह तय होना है कि
कौन जीतता है। अगर मैं जीता, तो तुम्हारा खात्मा समझो। अगर
वे जीते, तो मेरा खात्मा। मगर अब फैसला होकर रहेगा। मुझसे
उलझे हैं, तो मैं ऐसे ही नहीं छोड़ दूंगा। दफ्तर गए। स्नानगृह
में गए। मैं बैठा हूं। और आज यहीं बैठा रहूंगा। कभी तो लौटेंगे दफ्तर से!
वे गए-करे तो थे नहीं। भीतर के कमरे में ही बैठे थे। एकदम बाहर निकल
कर आ गए--कि अगर दिन भर बैठना है, तो मैं दफ्तर भी नहीं जाने
दूंगा। उनका मुकदमा था अदालत में। वे बोले कि भैया, मैं हाथ
जोड़ता हूं। मैं माफी मांगता हूं। कान पकड़ता हूं--कि कभी अब तुमसे किसी तरह की
बातचीत नहीं छेडूंगा इस संबंध में। अब मैं समझा कि क्यों तुम्हारे पिता मेरे ऊपर
डाल दिए! तुम किसी की बनी-बनाई तुड़वा दो! तुम अपने घर जाओ। मुझे कुछ लेना-देना नहीं।
तुम मुझे बख्शो!
मैंने कहा, तुम यह कहो, तो बात अलग। मगर
याद रखना, कभी भूल कर यह बात मत उठाना। क्योंकि मैंने भी
सारे तर्क खोज निकाले हैं--विवाह के विपरीत। और सच तो यह है कि दुनिया भर का अनुभव
यह है...।
एक मित्र ने पूछा है, भगवान, मैं
जब भी घर पर आपके प्रवचन का टेप सुनता हूं, तो मेरी पत्नी
टेप बंद कर देती है। पुस्तक पढ़ता हूं, तो छीन कर रख देती है।
उसका दावा है कि सिर्फ वही मुझसे सर्वाधिक प्रेम कर रही है। इतने प्रेम को समझने
में मैं असमर्थ हूं। कृपया मार्गदर्शन करें।
चंद्रपाल भारती ने पूछा है। अब क्या मैं मार्गदर्शन करूं! यह तो होना
ही है। यह तो बिलकुल स्वाभाविक है। पत्नी बर्दाश्त नहीं कर सकती। पति बर्दाश्त
नहीं कर सकते। क्योंकि पति अगर मुझसे जुड़ जाता है, तो पत्नी को लगता
है--गया हाथ से! गया काम से! पत्नी मुझसे जुड़ जाती है, तो
पति के अहंकार को चोट पहुंचती है--भारी चोट पहुंचती है! पति के अहंकार को यह चोट
पहुंचती है कि मुझसे भी कोई ऊपर है तेरी दृष्टि में! जब मैं मौजूद हूं!...और पति
यानी परमात्मा। तो फिर अब तू कहां जाती है? जिसका सत्संग
करती है?
यहीं पूना में डाली दीदी है। उसके पति को यही कष्ट है। डाली मुझे कहती
थी कि मेरे पति कहते हैं: तुझे क्या पूछना है, मुझसे पूछ। अरे,
जब मैं मौजूद हूं, तो कहां सत्संग करने जाना!
क्या तुझे जानना है? परमात्मा के संबंध में जानना है?
स्वर्ग के संबंध में जानना है? आत्मा के संबंध
में? मैं तो बताने को मौजूद हूं। जब मैं कहूं कि मैं नहीं
जानता, तब तू कहीं जा।
और डाली मुझसे कह रही थी कि अब इनसे क्या पूछना! इनको मैं जानती हूं!
ये क्या खाक जानते हैं? मगर कौन सिर पचाए!
वे मेरी किताबें फेंक देते हैं। जैसे तुम्हारी पत्नी कर रही है। डाली
के छिप कर मेरी किताब पढ़नी पड़ती है। और ऐसा नहीं कि उनकी मुझसे कोई दुश्मनी है।
मुझसे उनको कुछ लेना-देना नहीं है। मगर अड़चन यह आ रही है कि उनकी पत्नी, उनसे ज्यादा किसी को आदर दे--तो अहंकार को चोट लगती है।
और पत्नी कोर् ईष्या जग जाती है। वह कुछ मुझसे विरोध में नहीं है
चंद्रपाल भारती! मुझसे उसे क्या लेना-देना! उसका तो कुछ इतना ही कहना है कि उसकी
मौजूदगी में--और तुम टेप सुन रहे हो--हद्द हो गई! पत्नी मौजूद है--और तुम किताब पढ़
रहे हो! यह बर्दाश्त के बाहर है। इसका मतलब--पत्नी से ज्यादा कीमती किताब है! फेंक
देगी किताब! आग लगा देगी किताब में। टेप बंद कर देगी। उस पर ध्यान दो!
हर पत्नी की चौबीस घंटे चेष्टा है--मेरी तरफ देखो! कितना सजती-संवरती
है। कितना दर्पण में देखती है अपने चेहरे को। और पति हैं कि देखते ही नहीं। वे
अखबार पढ़ रहे हैं! अखबार वे बेचारे इसीलिए पढ़ रहे हैं! उसी अखबार को छह दफा पढ़
चुके हैं। फिर भी पढ़े जा रहे हैं! वे अखबार सिर्फ आंखों को छिपाने के लिए पढ़ रहे
हैं--कि किसी तरह यह पत्नी न दिखाई पड़े! और पत्नी है कि वह वहीं-वहीं घूंघर करती
है। फिर आ जाएगी। कभी चाय लेकर आ जाएगी। कभी कुछ और बहाने आ जाएगी। फिर अखबार ही
छीन लेगी कि क्या आंखें फोड़ लोगे अपनी बैठे-बैठे! बंद करो यह अखबार! और मेरी
मौजूदगी में--शर्म नहीं आती। संकोच नहीं होता। लाज-लज्जा नहीं। शिष्टाचार भी नहीं!
विवाह
आरंभ जिसका
पद्य में
और उपसंहार
गद्य में
चंदूलाल ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे:
हे ईश्वर
हमें भी दुम देते
मौका आता
दुम दबाकर
भाग तो लेते!
नृत्य-विशारदा पत्नी जी
पति पर इतना तरस खाती हैं
कि उन्हें दिन-रात
अंगुली पर नचाती है!
एक स्त्री की अंगुली कट गई कार में, एक एक्सिडेंट में।
उसने बीस हजार रुपए इंश्योरेंस कंपनी से मांगे। इंश्योरेंस कंपनी भी हैरान हुई कि
एक अंगुली कटने के बीस हजार रुपए! अदालत में मुकदमा चला। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि इस
अंगुली में ऐसा क्या गुण था कि बीस हजार रुपए!
उसने कहा, इसी पर मैं अपने पति को नचाया करती थी। क्या तुम मेरे
पति की कीमत बीस हजार भी नहीं मानते! अब मैं कहां नचाऊंगी?
प्रेम के चक्कर में फंसी बेटी को देखकर मां ने उसे लाख समझाना चाहा, पर वह न मानी। हारकर मां ने अनुभव की बात कह दी, बेटी,
यह नायक से शादी करने का चक्कर ठीक नहीं। खलनायक से ही शादी करनी
चाहिए। उसे पिटने का भी अनुभव होता है--और आदत भी!
यह विवाह तो बड़ा अदभुत चक्कर है; इसमें बड़ा अभ्यास
चाहिए! इसमें कुटाई-पिटाई का बहुत अभ्यास चाहिए।
गुलजान गुस्से से उबलते हुए मुल्ला नसरुद्दीन से बोली, तुम्हें नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी?
मुल्ला नसरुद्दीन ने शांत स्वर में जवाब दिया, अच्छा ही है। वरना सब जगह तुम्हारे साथ रहते-रहते मैं तो पागल ही हो
जाऊंगा!
अब चंद्रपाल भारती, मैं क्या तुम्हें मार्गदर्शन
करूं! या तो हिम्मत से जूझो--या पूंछ दबा कर भाग खड़े होओ। अब करोगे क्या और! या तो
हिम्मत से जूझो। साफ पत्नी को स्पष्ट कर दो कि अगर इस तरह की कारगुजारी जारी रही,
तो पृथक हो जाऊंगा। तो शायद उसे समझ में आए। क्योंकि उतनी जोखम वह
भी नहीं लेना चाहेगी।
और यह कुछ प्रेम वगैरह नहीं है। यह तो ठीक अप्रेम है। यह प्रेम का
अभाव है। वह कहती है कि मैं ही तुमसे सर्वाधिक प्रेम कर रही हूं। इतने प्रेम को
तुम समझने में असमर्थ हो, यह भी मैं समझ रहा हूं। इतना प्रेम कौन समझ पाएगा! यह
प्रेम नहीं है। प्रेम तो वही है, जो स्वतंत्रता दे। जो
स्वतंत्रता छीन ले और नष्ट करे, वह प्रेम नहीं है।
लेकिन विवाह से प्रेम पैदा होता नहीं--हो नहीं सकता। विवाह तो धोखा है
प्रेम का। हमने प्रेम से बचने के लिए विवाह ईजाद किया है। क्योंकि प्रेम खतरनाक
है। प्रेम का कोई भरोसा नहीं। आज है--और कल तिरोहित हो जाए! विवाह प्लास्टिक का
बना है; करीब-करीब शाश्वत है। मिटता ही नहीं! मिटाओ--तो नहीं
मिटता। प्लास्टिक को मिटाओ--मिटा न पाओगे! ऐसा प्लास्टिक का फूल है।
और हम सबको सदियों से यह समझाया गया है कि स्थिरता का बड़ा मूल्य है।
जबकि जीवन में सभी चीजें क्षणभंगुर हैं। सुबह फूल खिलता है, सांझ मुरझा जाता है। सुबह पंखुड़ियां खुलती हैं, सांझ
गिर जाती हैं।
तो प्रेम तो फूल जैसा है--असली फूल जैसा। कब खिलेगा, कब मुरझा जाएगा--कोई नहीं कह सकता। कितने दिन टिकेगा--कोई नहीं कह सकता।
लेकिन विवाह के संबंध में सुनिश्चित हुआ जा सकता है--कि टिकेगा; टिकाऊ है! और हम टिकाऊ चीजों पर बड़ी आस्था रखते हैं।
तुम बाजार में जाते हो चीजें खरीदने, तो पूछते हो, टिकाऊ है? न सौंदर्य की फिक्र है, न कला की फिक्र है। बस, एक ही चीज की फिक्र
है--टिकाऊ है! टिकाऊ हो, तो चलेगा।
हर चीज टिकाऊ होनी चाहिए! टिकाऊ का हमें ऐसा आग्रह पकड़ गया है! चार
दिन की जिंदगी! जिंदगी नहीं टिकती--और तुम टिकाऊ चीजों से भरे ले रहे हो! यहां जब
जिंदगी ही नहीं टिकती, तो कौन-सी चीज टिकेगी? पानी का
प्रवाह है। एक क्षण को भी नहीं रुकता।
झूठी चीजें टिक सकती हैं। सच्ची चीजें तो बहाव होंगी। सच्ची चीजों में
तो परिवर्तन होगा।
तो प्रेम तो परिवर्तनशील होगा; लेकिन विवाह थिर है।
लेकिन जो थिर है, उससे बंध गए, तो खंभे
से बंध गए। अब छटपटाओगे। अब स्वतंत्रता के लिए तड़फोगे।
अपनी पत्नी को स्पष्ट करो कि यह प्रेम नहीं है। न कर सको स्पष्ट, उसे यहां लाओ। यह प्रेम नहीं है। यह प्रेम का धोखा है। यह प्रेम के नाम पर
प्रेम के कंधे पर रख कर बंदूक चलाना है। यह दुश्मनी है--दोस्ती नहीं। दोस्ती तो
सुविधा देगी, अवकाश देगी।
अगर सच में किसी से तुम्हारा प्रेम है, तो तुम कभी भी उसकी
सीमा का अतिक्रमण न करोगे। तुम उसे मौका दोगे स्वयं होने का। तुम कभी बाधा न
डालोगे।
अगर पिंकी को उसके मां-बाप प्रेम करते हैं, और वह विवाह नहीं करना चाहती, तो उसके मां-बाप को
प्रेम का सबूत देना होगा, कि ठीक है। अगर वह विवाह नहीं करना
चाहती, तो कोई चिंता नहीं। उन्हें अपना बोझ--अपनी धारणाओं का
बोझ उस पर नहीं थोपना चाहिए। लेकिन आदेश की भाषा अगर समझते हैं वे, तो खतरा है।
और पंजाब में आदेश की भाषा चलती है, इसलिए तो पंजाब भारत
को सबसे अच्छे सैनिक देता है। सैनिक का मतलब यह होता है कि वह आदेश मानेगा। सोचेगा
नहीं, विचारेगा नहीं--आज्ञाकारी होगा। बोले सो निहाल,
सत श्री अकाल! कहीं भी कूद पड़ेगा। कृपाणें खिंच जाएंगी। वाहे गुरु
जी की फतह, वाहे गुरु जी का खालसा!
मैं दिल्ली से मनाली जा रहा था एक शिविर के लिए। जिस इंपाला गाड़ी में
मैं गया, उसका एक सरदार ड्राइवर था। बड़ी गाड़ी और संकरा रास्ता
मनाली का। और वर्षा हुई थी, तो फिसलन भरा। और वह घबड़ाने लगा।
एक जगह जा कर, तो उसने गाड़ी खड़ी ही कर दी। उसने कहा, अब मैं आगे नहीं जाऊंगा। आगे काफी कीचड़ थी और उसने कहा, यह खतरा मैं नहीं ले सकता। गाड़ी बड़ी है। और कीचड़ काफी है। और संकरा रास्ता
है। अगर जरा भी फिसल गई, तो यह नीचे जो गङ्ढ है, इसमें समा जाएंगे!
बहुत समझाया उसको, मगर पंजाबी समझ से तो मानता
नहीं! जितना समझाया, उतना ही वह और ठिठक गया। वह तो बैठ ही
गया! गाड़ी से उतर कर नीचे बैठ गया!
वह तो संयोग की बात कि मेरी गाड़ी के पीछे ही जीप में पंजाब के पुलिस
के आई.जी. वे भी शिविर में भाग लेने आ रहे थे। वे भी आ गए। वे भी सरदार! मैंने
उनसे कहा कि क्या करना! इस आदमी ने तो बहुत झंझट खड़ी कर दी! उन्होंने उस सरदार की
तरफ देखा और कहा कि क्या खालसे की बदनामी करवा रहा है! अरे सरदार होकर और कीचड़ से
डर रहा है! बोले सो निहाल सत श्री अकाल!
और वह सरदार अंदर बैठ गया। और गाड़ी उसने चला दी। मैं उसको लाख
समझा-समझा कर मर गया, वह नीचे उतर कर बैठा था। जैसे ही सत श्री अकाल और
खालसे का नाम आया--कि क्या सरदारों का नाम पानी में डुबा देगा मूरख! उसने जवाब ही
नहीं दिया। जल्दी से उठा।
पंजाबी तो आदेश की भाषा समझता है! आदेश दे दो, तो किरपाण निकल आएं। इधर संत को ही रोकना पड़ता है। कई दफा किरपाण खींचने
लगते हैं। अब जैसे संत का और विनोद का मुकाबला हो जाए; दोनों
पंजाबी! तो कुर्बानी पक्की! खिंच जाएं किरपाणें! फिर देर-दार नहीं। वह तो भला है
कि दोनों की दोस्ती है।
पिंकी, आदेश की भाषा तेरे मां-बाप बोलेंगे, उससे सावधान रहना। अगर मेरे रंग में रंगना है, तो
विवाह से बचना।
अब ये मित्र उलझ गए--चंद्रपाल भारती! अब ये मार्गदर्शन मांग रहे हैं!
गङ्ढे में गिर गए। हड्डी-पसली टूट गई। अब पूछते हैं--मार्गदर्शन दो! अरे, पहले पूछना था! अब आंख पर चश्मा चढ़ गया। अब कहते हैं--मार्गदर्शन दो। अब
दिखाई नहीं देता! अब अंधेरे में टटोल रहे हैं। कहते हैं--मार्गदर्शन दो!
अब मार्गदर्शन मैं तो तुम्हें दे दूं, मगर पत्नी अगर राजी न
हो, तो मार्गदर्शन का क्या होगा!
डाक्टर चंदूलाल से बोला, मैंने आपसे कहा था कि
आपकी जिस अंगुली में दाग पड़ गया है, उसे गर्म पानी में एप्सम
साल्ट डाल कर भिगोए रखिए। दूसरे दिन चंदूलाल ने अंगुली के अच्छे होने की खबर दी।
लेकिन उसने एप्सम साल्ट नहीं, आटे की पुल्टिस बांधी थी!
तो तुमने मेरी सलाह नहीं मानी, डाक्टर बिगड़ा।
इसमें मेरा कोई दोष नहीं डाक्टर साहब, चंदूलाल मिमियाये सुर
में बोले, मैं क्या करूं। मेरी पत्नी मानी ही नहीं! और उसने
जबर्दस्ती आटे की पुल्टिस बांध दी!
अजीब बेवकूफी है, डाक्टर ने कहा, और मेरी पत्नी है; वह तो हमेशा एप्सम साल्ट के ऊपर
ही जोर देती है। मैं ही नहीं, मेरे मरीजों तक को मैं अगर
पुल्टिस बांधना चाहता हूं, बांधने नहीं देती!
तो मैं तो मार्गदर्शन दे दूं, लेकिन पत्नी अगर आटे
की पुल्टिस बांधे, तो फिर क्या करोगे! वह मार्गदर्शन पर चलने
भी नहीं देगी। वह कहेगी, मेरे रहते कहीं और जगह से
मार्गदर्शन तुमने लिया कैसे!
दूसरे शहर से चिड़ियाघर देखने आया एक दल ज्यों ही शेर के पिंजरे के पास
पहुंचा, शेर ने एक खौफनाक दहाड़ लगाई। दहाड़ इतनी जोरदार थी कि
एक व्यक्ति को छोड़ कर सारे लोग बेहोश हो गए। चिड़ियाघर का अधिकारी उस व्यक्ति की और
प्रशंसा भरी दृष्टि से देखता हुआ बोला, लगता है, आप बहुत निडर हैं!
वह व्यक्ति बोला, जी नहीं। दरअसल मैं तो रो-रोज
ऐसी दहाड़े सुनने का अभ्यस्त हो चुका हूं!
क्या आप भी किसी चिड़ियाघर में काम करते हैं?
उसने कहा, जी नहीं। मैं शादीशुदा हूं।
घर का मालिक सच में कौन है--तुम कि तुम्हारी पत्नी? मित्रों ने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा।
नसरुद्दीन ने अपनी मूंछों पर ताव दिया और कहा, मैं ही हूं। निश्चित मैं ही हूं। और ऐसा कहने के लिए गुलजान ने मुझे पूरा
अधिकार दिया है!
मार्गदर्शन तो मैं दे दूं, मगर पत्नी से पूछ कर
आए कि नहीं--कि मार्गदर्शन लेने जा रहा हूं। ले लूं? अगर
उसने अधिकार दिया हो, तो मैं दे दूं। नहीं तो दोबारा जब आओ,
तो पूछ कर आना--कि मार्गदर्शन ले लूं! वह क्या कहती है! क्योंकि
मार्गदर्शन पर चलने कहां देगी! जो किताब नहीं पढ़ने देती; जो
टेप नहीं सुनने देती; जो ध्यान नहीं करने देती--वह
मार्गदर्शन पर चले कैसे देगी!
भैया, बेहतर हो, तुम उसे यहां ले आओ।
किसी भी बहाने ले आओ। महाबलेश्वर घुमाने ले जा रहे हो, शायद
आ जाए! कि पूना में साड़ियों का बहुत अच्छा स्टाक आया हुआ है--शायद आ जाए! उसको
किसी बहाने यहां ले आओ, तो शायद कुछ बात बन सके, तो बन सके।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी की कब्र पर यह इबारत लिखवाई: मेरी
पत्नी गुलजान यहां सुख की नींद सो रही है। मुझे सुखी रखने की उसने पूरी उम्र कोशिश
की, और आखिर मर कर अपनी कोशिश में पूरी तरह कामयाब हो गई!
तुम्हारी पत्नी तुम्हें सुखी रखने की पूरी कोशिश कर रही है। उससे
ज्यादा प्रेम तुम्हें कोई नहीं करता! सर्वाधिक प्रेम वही करती है! वह तुम्हारी गर्दन
को दबाए जाएगी, क्योंकि प्रेम वह करती है, तो
गर्दन किसी और को दबाने देगी! जरा साहस करो--मार्गदर्शन क्या मांगते हो!
किताब पत्नी फेंक सकती है, तुम बैठे देखते रहते
हो! हद्द हो गई! तुमसे कुछ नहीं बनता! अरे, खड़े हो कर कम से
कम कुंडलिनी करो! हू-हू की पुकार मचा दो, कि मोहल्ला इकट्ठा
हो जाए। फिर नहीं फेंकेगी किताब। फिर हाथ जोड़ कर खड़ी हो जाएगी कि कम से कम यह
हू-हू न करो! किताब ही पढ़ो।
कुछ उपद्रव करो। अब मैंने तो कैसे-कैसे तुम्हें ध्यान दिए हैं--हू-हू!
कि एक दफा कर दो कि पूरा मुहल्ला अपने आप इकट्ठा हो जाए! अरे, मुहल्ला ही नहीं...!
मेरे एक मित्र ने खबर की है कि इंदौर में--इंदौर का केंद्र जहां है, उसके पास ही मुसलमानों की मरघट है। और वे हू-हू की आवाज करें। मुसलमानों
में खबर पहुंच गई कि वे लोग जो हैं हू-हू कर के मुरदों को जगा रहे हैं!
बड़ी घबड़ाहट फैल गई। हिंदू-मुस्लिम दंगे होने की नौबत आ गई। उन्होंने
कहा कि हम हू-हू नहीं करने देंगे। और तुम कुछ भी करो! मुसलमानों में बड़ा सन्नाटा
और घबड़ाहट का सिलसिला हो गया। और उन्होंने कहा, या फिर तुम केंद्र
कहीं और ले जाओ।
पर, उन्होंने पूछा, बात क्या है?
तुम्हें हू-हू से तकलीफ क्या है! क्योंकि गांव दूर। इसीलिए तो हमने
गांव के बाहर यह जगह ली है!
अरे, उन्होंने कहा, गांव तो दूर है,
मगर हमारा मरघट करीब है। और मुरदे किसी तरह तो सो गए हैं। तुम उनको
जगा दोगे! और मुरदों को जगाना हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। वे तो जगाए जाएंगे आखिरी
दिन, कयामत के दिन। और तुम अभी जगाए दे रहे हो! और हम किसी
तरह तो उनसे छुटकारा पाए हैं। और भूत-प्रेत उठ आएं--यह नहीं चलेगा!
उनको हटाना पड़ा वहां से केंद्र, क्योंकि मामला अदालत
तक पहुंच गया। मुसलमानों ने कहा कि यह हू-हू मंत्र खतरनाक है। इनको करना हो,
तो कहीं और करें। यह तो अल्लाहू का ही हिस्सा है--हू!
हू है भी अल्लाहू का ही हिस्सा। यह सूफियों का मंत्र है।
अल्लाहू-अल्लाहू करते-करते हू-हू बचता है। तो मैंने कहा--अल्ला क्या करना है। जो
चला ही जाता है, उसको छोड़ ही दो। हू ही बचा लो। जो बचने वाला है,
उसको पहले ही से बचा लो। जो जाने वाला है, उसको
जाने ही दो!
और वे लोग घबड़ाए होंगे कि अल्लाहू-अल्लाहू की आवाज और हू-हू की आवाज
मुरदे अगर सुन लें, तो समझें कि आ गया कयामत का दिन! क्योंकि उस वक्त
आवाज होगी बड़े जोर से--अल्लाहू की! अल्लाहो अकबर--एकदम आवाज उठेगी और मुरदे कब्रों
से उठ आएंगे। और ये दुष्ट अभी उठाए दे रहे हैं! फिर मुर्दे उठ आएं--उनको सुलाओगे
कैसे? और मुर्दे उठ आएंगे, तो मुहल्ले
वालों को, गांव वालों को, अपने
रिश्तेदारों को ही सताएंगे और किसको सताएंगे!
उनका भी कहना जायज है।
तो तुम कम से कम इतना करो। जब मुरदे जग जाते हैं, तो मुहल्ले वाले कितने ही सोए हों, एकदम हू-हू की
पुकार मचा दोगे--एक ही दफे में पत्नी शांत हो जाएगी। एकदम कहेगी कि लल्लू के
पप्पा!...चरणों पर गिरेगी कि अब शांत हो जाओ! सारा मुहल्ला इकट्ठा हो गया! और मेरी
बदनामी न करवाओ। यह लो किताब--पढ़ो। कम से कम चुप तो रहते हो!
जब भी किताब छीने--हू-हू करो। टेप बंद करे--हू-हू करो। यह सौ मंत्रों
का एक मंत्र है! सौ सुनार की एक लुहार की!
आखिरी प्रश्न: भगवान, आप इस बार मारवाड़ियों के संबंध में क्यों कुछ नहीं कह रहे हैं! और मैं ठेठ
मारवाड़ से इसीलिए आया हूं!
सुभाष कोठारी!
तुम भी धन्य हो! मारवाड़ में होकर मारवाड़ियों के दुश्मन हो--क्या बात
है? चलो, अब इतनी दूर से आए हो, तो
मुझे भी तुम्हारी लाज रखनी पड़े अन्यथा इस बार मैं मारवाड़ियों को छोड़ ही रहा था।
कभी-कभी छोड़ देता हूं, तो मारवाड़ी निश्चिंत हो जाते हैं। फिर
आने लगते हैं। फिर उनकी पिटाई कर देता हूं; फिर भाग जाते
हैं। फिर महीने दो महीने शांत रहता हूं, तो फिर आ जाते हैं।
कभी पंजाबियों की पिटाई, कभी बंगालियों की पिटाई! मतलब पिटाई
मुझे करनी है--किसी न किसी की होगी।
सेठ चंदूलाल मारवाड़ी अपने मित्र मुल्ला नसरुद्दीन से कह रहे थे कि
मेरे लड़के ने तो कमाल कर दिया! मैंने उससे कहा कि एक बार में दो सीढ़ियां चढ़ा-उतरा
करो, ताकि जूता कम घिसे। मगर उस नालायक ने कल छह सीढ़ियां
एक बार में साथ उतरीं!
नसरुद्दीन बोला, तब तो जूता और कम घिसेगा!
चंदूलाल रोते स्वरों में बोला, जूता तो कम घिसा। मगर
उस उल्ले के पट्ठे ने अपनी नई पैंट फाड़ ली!
गुरु तो गुड़ रहे, चेला शक्कर हो गए! बेटा बाप से
आगे निकल गया! उसने कहा, जब जूते ही घिसना बचाना है...!
मैंने सुना कि एक रात चंदूलाल पड़ोस के गांव में किसी शादी में
सम्मिलित होने गए। कोई तीन मील जाने के बाद उनको खयाल आया कि दीया जलता हुआ छोड़ आए; पता नहीं यह नालायक लड़का बुझाए कि न बुझाए! ऐसे ही सो जाए! रात भर तेल
जलता रहे। और मुझे लौटते-लौटते सुबह हो जाएगी! सो वे लौट कर आए। दरवाजा खटखटाया;
लड़के ने दरवाजा खोला। उन्होंने कहा कि दीया बुझा दिया कि नहीं रे!
उसने कहा, आप भी क्या बातें कर रहे हैं! आपका बेटा--और मैं दीया
न बुझाऊं! अरे, आप इधर बाहर हुए कि मैंने दीया बुझा दिया। आप
इतनी दूर कैसे आए! और आपको शर्म न लगी--तीन मील गए, तीन मील
आए, जूता घिस जाएगा!
चंदूलाल ने कहा, तूने मुझे क्या समझा है रे! देख,
जूता बगल में दबाए हुए हूं। जूता कैसे घिसेगा? पैर घिस जाएं, मगर जूता नहीं घिस सकता!
मारवाड़ी की अपनी दुनिया है!
डाक्टर साहब, अब मेरा बेटा झुम्मन कैसा है? चंदूलाल
ने उदास आवाज में पूछा।
डाक्टर ने कहा, घबड़ाने की कोई बात नहीं। धीरज रखिए सेठ जी! उसे नकली
सांस दी जा रही है।
सेठ चंदूलाल गरज कर बोले, धीरज कैसे रखूं जी!
सरासर बेईमानी हो रही है। अरे, जब मैंने असली सांस के पैसे
चुकाए हैं, तो फिर नकली सांस क्यों दी जा रही है?
सेठ चंदूलाल को उसके कुछ मित्र दोपहर को मिलने आए। द्वार पर उनके नौकर
पोपटलाल ने उनका स्वागत किया। तो मित्रों ने पूछा, सेठ जी कहां हैं?
पोपटलाल ने उत्तर दिया, सेठ जी डिनर खा रहे
हैं!
डिनर खा रहे हैं! डिनर तो रात का खाना होता है--दिन का नहीं! एक मित्र
ने चौंककर कहा।
वह तो मुझे भी अच्छी तरह मालूम है। लेकिन वे रात का बचा हुआ खाना ही
खा रहे हैं, पोपटलाल ने कहा।
सेठ चंदूलाल मारवाड़ी समुद्रतट पर चहलकदमी कर रहे थे कि अचानक एक जोर
का तूफान आया और चंदूलाल के छोटे बेटे झुम्मन को उठा कर समुद्र में ले गया। दो
सेकेंड में ही सागर की लहरों में उठता-गिरता झुम्मन हवा के वेग के साथ इतनी दूर
निकल गया कि उसका दिखना भी बंद हो गया। चंदूलाल के प्राण सूखने लगे। झट उन्होंने
आकाश की ओर हाथ जोड़ कर कहा, हे परम पिता परमात्मा, मेरे
बेटे को बचा लो। हे करुणा के सागर, मुझ पर कृपा करो। मेरा सब
कुछ लुटा जा रहा है!
उनका इतना कहना ही था कि एक चमत्कार घट गया। समुद्र में एक बड़ी लहर
उठी और वह लहर झुम्मन को किनारे पर पटक गई। चंदूलाल ने अपने बेटे को एक नजर में ऊपर
से नीचे तक देखा, गौर से देखा, फिर से देखा--और
ईश्वर को क्रोध भरे स्वर में कहा, इसीलिए तो मुझे तुझ पर
श्रद्धा नहीं होती। मेरी एक भी प्रार्थना नहीं सुनता। तू खुद सोच, मैं भला नास्तिक न होऊं, तो और क्या होऊं! तुझे मेरी
जरा भी फिक्र नहीं। अब यही उदाहरण देख। मेरा बेटा तो बच गया; खैर कोई बात नहीं। मगर उसकी टोपी कहां गई? हो गया न
सत्यानाश!
मारवाड़ी सबके भीतर छिपा है लेकिन। मारवाड़ में ही नहीं रहता; हर मन में रहता है। मन ही मारवाड़ है। मन बड़ा कृपण है, कुछ छोड़ता ही नहीं। कूड़ा-करकट भी इकट्ठा करता है--धन दौलत ही नहीं। जो पकड़
लेता है, उसी को इकट्ठा करता चला जाता है। मन इकट्ठा करने
में मानता है--बांटने से डरता है। और आत्मा उन्हें उपलब्ध होती है, जो बांटना जानते हैं।
जो है उसे बांटो। मारवाड़ी को आत्मा नहीं मिल सकती। जो है, उसे बांटो। साझीदार बनाओ औरों को। प्रेम है, तो प्रेम।
आनंद है, तो आनंद। ज्ञान है, तो ज्ञान।
ज्योति है, तो ज्योति। ध्यान है, तो
ध्यान। जो है, उसे बांटो। बेशर्त बांटो। और जितना बांटोगे,
उतना ही परमात्मा तुम पर बरसेगा। तुम जितना बांटते चलोगे, उतना बढ़ता जाता है भीतर का धन।
भीतर के धन का अर्थशास्त्र अलग अर्थशास्त्र है। बाहर का धन बांटने से
घटता है। बाहर का धन मारवाड़ी के अर्थशास्त्र का हिस्सा है। भीतर का धन बांटने से
बढ़ता है, रोकने से घटता है।
आज इतना ही।
पांचवां प्रवचन; दिनांक १५ सितंबर, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
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