ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
गुरु कुम्हार, शिष्य कुंभ है-(प्रवचन-छट्ठवां)
छठवां प्रवचन; दिनांक १६ सितंबर, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान, मैं ध्यान क्यों करूं?
दिवाकर भारती!
जीवन में कुछ चीजें हैं, जो साधन नहीं--साध्य
हैं। और बहुत चीजें हैं, जो साधन हैं--साध्य नहीं। पूछा जा
सकता है कि मैं धन क्यों अर्जित करूं। नहीं पूछा जा सकता कि मैं ध्यान क्यों करूं।
क्योंकि धन साधन है--क्यों का उत्तर हो सकता है।
धन की कोई उपयोगिता है; ध्यान की कोई
उपयोगिता नहीं है। ध्यान अपने आप में साध्य है--जैसे प्रेम। कोई पूछे कि मैं प्रेम
क्यों करूं! क्या उत्तर होगा? प्रेम! क्यों का प्रश्न ही
नहीं; हेतु की बात ही नहीं; अंतरभाव
है। जैसे फूल में सुगंध है; क्यों की कोई बात नहीं। ऐसे हृदय
का फूल खिलता है, तो प्रेम की सुगंध उठती है।
नहीं पूछा जा सकता कि जीवन क्यों...
सरल होगा सोचना यूं: जब दुख होता है, तो तुम पूछ सकते हो
क्यों; क्या कारण है? लेकिन जब आनंद
होता है, तो न तुम पूछते हो, न तुम पूछ
सकते हो कि आनंद क्यों? कारण क्या? जब
तुम बीमार होते हो, जरूर चिकित्सक के पास जाते हो। पूछते हो,
बीमारी का कारण क्या? लेकिन जब तुम स्वस्थ
होते हो, तब कभी गए चिकित्सक के पास पूछने--कि मेरे
स्वास्थ्य का कारण क्या? क्यों? नहीं;
स्वास्थ्य का कोई कारण नहीं है।
स्वास्थ्य बड़ा प्यार शब्द है। इसका अर्थ है--स्वयं में स्थित हो जाना।
स्वयं में ठहर गए। ज्यूं था त्यूं ठहराया! इसके पार कुछ भी नहीं है; कोई मंजिल नहीं है।
मुहब्बत की कोई मंजिल नहीं है
मुहब्बत मौज है साहिल नहीं है।
जो पूछे कि मुहब्बत की मंजिल क्या है, उसने मुहब्बत को समझा
ही नहीं। और ध्यान परमात्मा से प्रेम का नाम है। ध्यान अर्थात प्रेम का अंतिम
शिखर। किसी व्यक्ति से प्रेम हो जाए--तो प्रेम। और इस विराट अस्तित्व से प्रेम हो
जाए--तो ध्यान। चाहे उसे प्रार्थना कहो। चाहे उसे पूजा कहो। चाहे उसे प्रेम कहो।
चाहे उसे ध्यान कहो। शब्दों का ही भेद है।
प्रेम में अहंकार खो जाता है। दो व्यक्तियों में भी प्रेम हो जाए, तो उनके बीच कोई अहंकार का टकराव नहीं रह जाता। और जब व्यक्ति का अनंत से
प्रेम होता है, समस्त से प्रेम होता है, समग्र से, तो फिर कहां अहंकार! जैसे बूंद खो जाती है
सागर में ऐसा व्यक्ति खो जाता है।
मुहब्बत की कोई मंजिल नहीं है
मुहब्बत मौज है साहिल नहीं है।
तुम पूछते हो, ध्यान क्यों? तुम ध्यान का अर्थ
ही न समझे। ध्यान कोई वस्तु नहीं है; ध्यान तुम्हारा
स्वास्थ्य है--ध्यान कोई बीमारी नहीं है।
कोई भी बहाना हो...ये सब बहाने हैं--ध्यान, प्रार्थना, पूजा, अर्चना--सब
बहाने हैं--निमित्त। डूबना है। डुबकी मारनी है। और ऐसी कि फिर लौटने की कोई जगह
बाकी न रह जाए। डुबकी ऐसी कि डूबने वाला तिरोहित ही हो जाए।
रामकृष्ण कहते थे: समुद्र के तट पर मेला लगा था। किनारे पर खड़े लोगों
में यह विवाद हो गया...। बड़े पंडित, बड़े पुरोहित, बड़े ज्ञानी मेले में इकट्ठे थे।
अजीब है दुनिया! मेले के झमेले में पंडित-पुरोहित, साधु-संत, किसलिए पहुंच जाते हैं?
कुंभ का मेला देखा! साधुओं की कतारें चली आती हैं। संतों के अखाड़े!
पहली तो बात--संतों का अखाड़ा? पहलवानों का अखाड़ा हो, तो समझ में आता है। संतों का अखाड़ा! जैसे कुछ मारकाट होनी है। और मारकाट
हो भी जाती है। अखाड़े अखाड़े से जूझ जाते हैं। इसी बात पर जूझ जाते हैं कि कौन पहले
स्नान करे! भाले उठ जाते हैं। ये लोग इकट्ठे हो रहे हैं, ये
साधु-संत नहीं हैं; नहीं तो साधु-संत को मेले और झमेले से
क्या लेना! वे तो जहां हैं, वहीं परमात्मा है। वह कुंभ का
मेला जाएगा। किसलिए? किस कारण?
लेकिन मेले में पाखंडी, धोखेबाज, थोथे लोगों की भीड़ हो जाती है। उस मेले में भी रही होगी। रामकृष्ण कहते कि
उनमें बड़ा विवाद छिड़ा पंडितों में, कि सागर की गहराई कितनी
है?
पंडितों में जिस चीज पर विवाद न छिड़ जाए...। मुश्किल है ऐसी चीज पाना, जिस पर विवाद न छिड़ जाए! हर किसी चीज पर विवाद छिड़ जाता है।
पंडित तो विवाद को आतुर है। विवाद भी लड़ने का एक ढंग है। अब तलवारें
नहीं उठतीं, तो तर्क उठ जाते हैं! बात वही है--काटनी है गर्दन
दूसरे की। तलवार से काटो कि तर्क से काटो--हिंसा ही है--नए ढंग में निकली, सूक्ष्म रूप में निकली।
और मजा ऐसा कि जिस सागर में तुम उतरे ही नहीं--किनारे खड़े हो--उसकी
गहराई का पता कैसे पा सकोगे? क्या उपाय होगा पता पाने का?
रामकृष्ण यह कहानी बहुत बार दोहराए हैं कि दो नमक के पुतले भी भीड़भाड़
देख कर आ गए थे मेले में। उन्होंने यह विवाद सुना। उन्होंने कहा, रुको! हम अभी पता लगा कर आते हैं। यूं कैसे तय होगा! तट पर बैठे-बैठे सागर
की गहराई कैसे मापोगे? हम जाते हैं; डुबकी
मारते हैं; अभी लौट कर आते हैं!
दोनों नमक के पुतलों ने डुबकी मार दी। प्रतीक्षा करते रहे--प्रतीक्षा
करते रहे लोग। मेला चला महीनों--उजड़ा--लोग विदा भी हो गए। पुतले नहीं लौटे, सो नहीं लौटे। लौट भी नहीं सकते। नमक के पुतले थे, सागर
में लीन हो गए। सागर से ही बने थे; नमक के थे, सो सागर से ही बने थे, सागर का ही अंग थे, सागर में ही विलीन हो गए।
थाह तो मिली, मगर जो लेने चला था, वह खो गया।
लौट कर कोई आया नहीं कहने। कुछ थे जो किनारे पर खड़े रहे, वे
तो बचे, लेकिन उन्हें थाह न मिली। विवाद तो बहुत चला। शब्दों
के जाल रचे गए, लेकिन गहराई का कोई पता कैसे चले! जिसको
गहराई का पता चला, वह खुद ही खो गया।
बहाना है खो जाने का। बहाना है उस परम प्यारे को पाने का। एक ओंकार
सतनाम--वह जो एक है, नाम कुछ भी दे दो--ओंकार कहो, अल्लाह
कहो, राम कहो, रहीम कहो, रहमान कहो--जो मौज हो, सो हो। लेकिन उस एक के साथ एक
हो जाना है, तल्लीन हो जाना है। और इस तल्लीनता के सिवाय
मरीज को आराम नहीं आ सकता।
दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए
आए जिस तरहा से बीमार को आराम आए
आए जिस तरहा से बीमार को आराम आए
दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए।
अब्र छाया है, हवा मस्त है, गुलशन खामोश
काश! इस वक्त वह हाथों में लिए जाम आए
काश! इस वक्त वह हाथों में लिए जाम आए
दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए।
शान है ये भी तेरी बज्मे तरब की साकी
कोई बदमस्त हो पीकर, कोई नाकाम आए
कोई बदमस्त हो पीकर, कोई नाकाम आए
दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए।
वो भी दिन थे कि मेरी शाम थी सुबहे-उम्मीद
अब तो ये हाल है, रो देता हूं जब शाम आए
अब तो ये हाल है कि रो देता हूं जब शाम आए
दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए।
हाय वो वक्त, पता पूछ रहा हो कसिद
और यहां रस्क से लब पर न तेरा नाम आए
दोस्त आए कि दोस्त का कोई पैगाम आए।
आए जिस तरहा से बीमार को आराम आए।
बहाने हैं! आए जिस तरह से बीमार को आराम आए!
मत पूछो कि ध्यान क्यों करूं? यह भाषा बाजार की,
दुकान की। यह चीज क्यों खरीदूं? यह भाषा प्रेम
की नहीं। यह भाषा संन्यास की नहीं। ध्यान तो अपने आप में साध्य है। डूबो, तो जान पाओगे क्यों। मगर अगर पहले से पूछा क्यों, तो
डूब ही न पाओगे।
इस सारे अस्तित्व में क्यों का कोई उत्तर ही नहीं है। गुलाब के फूल
सुंदर हैं--क्यों? और जुही से गंध झर रही है--क्यों? और तारों के साथ रातरानी महक उठी है--क्यों? और सुबह
सूरज उगा है और पक्षियों ने गीत गाए हैं--क्यों? और सरिताएं
भाग रही हैं हिमालय से सागर की तरफ--क्यों?
अस्तित्व कोई पहेली नहीं है कि सुलझा लो। अस्तित्व एक रहस्य है, जिसे जीना है। और जिसने प्रश्न उठाए, वह
दर्शन-शास्त्र की व्यर्थ की पहेलियों में खो जाता है।
प्रश्न छोड़ो--निष्प्रश्न हो जाओ। निष्प्रश्न होना ही ध्यान है। न कोई
विचार रहेगा, तो प्रश्न कहां रह जाएंगे!
जहां विचार नहीं, जहां प्रश्न नहीं, जहां ऊहापोह नहीं, जहां वासना नहीं, जहां कहीं जाने की कोई आकांक्षा-अभीप्सा नहीं, कोई
महत्वाकांक्षा नहीं--वहीं स्वास्थ्य है, परम स्वास्थ्य है।
ज्यूं का त्यूं ठहराया। ज्यूं था त्यूं ठहराया! बस, उस जगह
ठहरे कि आनंद है, महोत्सव है।
दूसरा प्रश्न: भगवान, आपका तीर ठीक निशाने पर लगा। प्रत्युत्तर सुनते ही कबीर का पद याद आया:
गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है घड़ि-घड़ि काढ़ै खोट
भीतर हाथ संवार दे बाहर मारै चोट!
आपके प्रति धन्यवाद के भाव से भर गया हूं। अनंत
अनंत धन्यवाद!
योगतीर्थ!
मैं आनंदित हूं कि तुम समझे। डर था कि कहीं नासमझी न कर बैठो। क्योंकि
जब मैं तुम्हारी पीठ थपथपाता हूं, तब तो प्यारा लगता हूं। तब
तुम्हारी आंखों से आनंद के आंसू झरते हैं। तुम गदगद हो जाते हो। लेकिन जरा-सी चोट
मारो कि बस, तुम तिलमिला उठते हो। तुम्हारा अहंकार सिर उठा
कर खड़ा हो जाता है। क्रोध से भनभना जाते हो।
मगर मेरी भी मजबूरी है। मुझे तुम्हें सम्हालना भी होगा; और मुझे तुम्हें मारना भी होगा। दोनों ही काम करने पड़ेंगे! तुम धन्यभागी
हो कि तुम चोट को भी स्वागत कर सके; और तुम्हें कबीर का यह
प्यारा पद याद आया।
कबीर के पद अदभुत हैं, बेजोड़ हैं। अब इन दो
छोटी-सी पंक्तियों में गुरु और शिष्य की सारी कथा आ गई। गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ
है!...गुरु तो है कुम्हार, और शिष्य घड़ा--कच्चा; अभी मिट्टी से बनाया जा रहा है। अभी चाक पर चढ़ाया जा रहा है।
गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, घड़ि-घड़ि काढ़ै खोट!
अभी बहुत-सी खोट निकालनी है। कंकड़-पत्थर होंगे मिट्टी में--अलग करने हैं। घास-पात
आ मिला होगा--अलग करना है। नहीं तो घड़ा पानी भरने योग्य नहीं बन सकेगा। घड़ा तो बन
जाएगा, मगर खाली का खाली रह जाएगा। घड़े को भरना है अमृत से।
अमृत-घट बनाना है।
गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, घड़ि-घड़ि काढ़ै खोट। तो
जितनी खोट है, निकाल-निकाल अलग करनी होगी। और जब खोट निकाली
जाती है, तो पीड़ा होती है। जैसे कि कोई तुम्हारे नासूर से
मवाद निकाले, तो पीड़ा तो होती है, दर्द
तो होता है। लेकिन और कोई उपाय ही नहीं है।
और इसलिए भी बहुत पीड़ा होती है कि जिसे गुरु खोट समझता है, तुम उसे खरा सोना समझते हो! तुमने जिस अज्ञान को छाती से लगा रखा है,
उसे तुमसे छीनना है। मगर तुम उसे संपदा समझे हो! तुमने जिस अहंकार
को सिर पर बिठा रखा है, उसे नीचे गिराना है। मगर वह तुम्हारी
पगड़ी बना बैठा है! वह तुम्हारी इज्जत! वह तुम्हारी आबरू!
तुम्हारे अंध-विश्वास छीनने हैं। मगर तुम्हारे अंधविश्वास, तुम्हारे रिवाज, तुम्हारे रस्म, तुम्हारी परंपराएं--बाप-दादों के जमानों से चली आती--वही तो तुम्हारी कुल
जमा पूंजी है।
एक धनपति बड़ा कंजूस। उसके पास सोने की ईंटें थीं। लेकिन खाता था
रूखी-सूखी। कपड़े पहनता था पुराने, जराजीर्ण। रहता था एक झोपड़े में।
सोने की ईंटें उसने अपनी बगिया में गड़ा रखी थीं। रोज खोद कर देख लेता था कि हैं
अपनी जगह या नहीं! फिर मिट्टी से ढांक देता था।
पड़ोसी को थोड़ा शक हुआ कि बात क्या है--यह रोज-रोज वहीं जाता है। सुबह
जाता है। शाम जाता है। कभी-कभी आधी रात भी जाता है। खोद कर कुछ देखता है! तो पड़ोसी
की उत्सुकता जगनी स्वाभाविक थी। एक दिन छिप रहा पड़ोसी। देखा, तो दंग रह गया। सोने की ईंटें थीं!
यह कंजूस तो लौटा ईंटें दबा कर, उस पड़ोसी ने सोने की
ईंटें तो निकाल लीं और उनकी जगह साधारण मिट्टी की ईंटें रख दीं।
दूसरे दिन सुबह जब उसने मिट्टी हटाई और देखा कि सोने की ईंटें नदारद
हैं! एकदम छाती पीट कर चिल्लाने लगा, लुट गया। मर गया!
पड़ोसी ने कहा, क्या लुट गए, क्या मर गए। क्या
हो गया? तो कहा कि मेरी सोने की ईंटें थीं, वह कोई चुरा ले गया। और ये साधारण मिट्टी की ईंटें रख गया!
पड़ोसी ने कहा कि तुम्हें फर्क ही क्या पड़ता है! इन्हीं को खोद कर रोज
देख लिया करना। अरे, तुम्हें देखना ही है न खोद कर! जिंदगी मुझे हो गई
तुम्हें देखते। बस, तुम इतना ही तो काम करते हो--उन ईंटों का
इतना ही तो मूल्य है--कि रोज खोद कर देखना है। अब तुम्हें क्या फर्क पड़ता है कि
सोने की हैं कि मिट्टी की। खोद कर देख लीं; दबा दीं! तुम्हें
कुछ उपयोग तो करना नहीं। खानी तो रूखी-सूखी है, सो तुम खाते
रहोगे। पहनने तो पुराने जराजीर्ण कपड़े हैं, सो तुम पहनते
रहोगे।
कंजूस भी अपने लिए तर्क खोज लेते हैं। वे कहते हैं--सादा जीवन--ऊंचे
विचार! हैं कृपण, लेकिन कृपणता को भी ओट में कर लेते हैं। उस पर भी
घूंघट डाल देते हैं! हैं कुरूप, लेकिन घूंघट डाल देते हैं।
तुमने खयाल किया: कुरूप से कुरूप स्त्री भी घूंघट डाल कर निकल जाए, तो लोग झांक-झांक कर देखने लगते हैं! बुरके में छुपा कर किसी स्त्री को ले
जाओ...स्त्री को क्या, अगर पुरुष को भी ले जाओ, तो भी लोग झांक-झांककर देखने लगते हैं। रुक-रुक कर! ठहर-ठहर कर! लौट-लौट
कर!
जिस चीज को भी छुपा दो, उसमें रस पैदा हो
जाता है। रस फिर बढ़ता चला जाता है! और हमने अपनी सब कुरूपताओं को छिपा लिया है।
दूसरे ही नहीं उसमें रस ले रहे हैं; धीरे-धीरे हम भी उसमें
रस लेने लगे हैं।
हम अपने अंधविश्वासों की भी यूं सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि जैसे
उनमें परम सत्य छिपे हुए हैं।
हिंदुओं के एक बहुत बड़े महात्मा ने एक किताब लिखी है--हिंदू-धर्म
क्यों? उसमें हिंदू-धर्म के संबंध में वैज्ञानिक आधार दिए
हैं। और क्या-क्या बातें कहीं हैं कि हैरानी होती है कि बीसवीं सदी में भी ऐसी
किताबें छप जाती हैं! और छोटी-मोटी किताब नहीं है। साढ़े सात सौ पन्नों की किताब
है! और लिखने वाला भारी महात्मा है। और कैसे-कैसे मूढ़ महात्मा बन बैठे हैं!
उसने लिखा है कि हिंदू इसलिए चोटी रखते हैं, जैसे कि बड़े-बड़े मकानों पर, चर्चों पर, मंदिरों पर लोहे की सलाख लगा देते हैं, ताकि बिजली
गिरे, तो सलाख के द्वारा सीधी जमीन में चली जाए। चर्च के
मकान को या मंदिर को या इमारत को कोई चोट न पहुंचे! इसीलिए हिंदू चोटी रखते हैं!
और चोटी में गांठ बांध कर उसको खड़ी रखते हैं, ताकि बिजली
वगैरह न गिरे! बिजली गिरे भी तो चोटी के सहारे एकदम जमीन में चली जाए!
क्या गजब के लोग हैं! कैसे-कैसे मूढ़, कैसे-कैसे मंदबुद्धि!
मगर हिंदू प्रसन्न होंगे इस बात से, कि क्या गजब की बात कह
दी!
खड़ाऊं इसलिए पहनते हैं हिंदू कि ये खड़ाऊं को पकड़ने में अंगूठा दबा
रहता है। और अंगूठे में वह नस है, जिससे ब्रह्मचर्य सधता है!
अंगूठा दबा रहेगा--ब्रह्मचर्य सध जाएगा। अगर इतना आसान हो ब्रह्मचर्य का साधना--कि
अंगूठा भर दबा रहे, तब तो बड़ी आसान बात होगी! नसबंदी करने की
जरूरत नहीं। सिर्फ अंगूठे में नसबंदी कर दो। अंगूठे का ही आपरेशन कर देना चाहिए
डाक्टरों को। वह नस बांध ही वहां; खड़ाऊं भी पहनने की जरूरत न
रही। बांध ही दी नस भीतर से, कि तुम फिर बाहर से खोलना भी
चाहो, तो खोल न सको।
लेकिन हमारी मूर्खताओं को भी अगर कोई सोने की पर्त चढ़ाने की कोशिश करे, तो हम प्रसन्न होते हैं। अहा! धन्यभाग हमारे कि हम हिंदू घर में पैदा हुए।
कैसे-कैसे ऋषि-मुनि हो गए! कैसी-कैसी चीजें खोज गए!
हिंदू साधु-संत समझाते फिरते हैं कि हवाई जहाज और एटम, बम, सब...। वेद चुरा कर ले गए और वेदों में से ही सब
खोज निकाला विज्ञान! वेदों में तो हर चीज है!
मैं वेद को इस कोने से ले कर उस कोने तक छान गया। हवाई जहाज और एटम बम
तो दूर--साइकिल बनाने की भी कोई विधि नहीं है! और साइकिल का पंक्चर हो जाए, तो उसको जोड़ने का भी कोई उपाय नहीं है। और बड़ा मजा यह है कि ये पश्चिम के
लोग चुरा कर ले गए, जो न संस्कृत जानें, न वेद पहचानें। इन्होंने खोज लिया। और तुम पांच हजार साल से मूढ़ो, क्या कर रहे हो? बैलगाड़ी में ही चले जा रहे हो! और
तुम्हारे पास हवाई जहाज बनाने की तरकीब वेद में लिखी है! तुमसे न बना हवाई जहाज?
क्या गजब के ऋषि-मुनि की संतान हो तुम भी! जिन्होंने हवाई जहाज बना
लिए थे, पुष्पक विमान उड़ाते थे जो! कहानियों का भरोसा कर लेते
हो--पुष्पक विमान! तो फिर कहना ही क्या है! तो फिर बंदर भी पहाड़ ले कर चलते थे।
हनुमान जी पहाड़ ही ले कर उड़ रहे थे।
कल्पनाओं का भी कोई हिसाब है! कपोल-कल्पित बातों को...। मगर अगर हमारे
बाप-दादों के साथ जुड़ी हैं, तो हमारा अहंकार जुड़ा होता है। हम अपने अहंकार के
पोषण के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी कह सकते हैं।
एक मछलीमार मछली पकड़ रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन उसके पीछे खड़ा देख रहा
था। पूछा कि भई, अब तक बड़ी से बड़ी कोई मछली--तुमने कितनी बड़ी मछली
पकड़ी? तुम तो जिंदगी भर से मछली मारते हो।
उस आदमी ने कहा, अब उसका हिसाब बताना बहुत
मुश्किल है। उसकी नापजोख भी होना बहुत मुश्किल है। जब मैंने बड़ी से बड़ी मछली पकड़ी
थी, इतना ही कह सकता हूं कि पूरी झील एक फुट नीचे उतर गई थी।
और यह वही मछलीमार है, जिसको मुल्ला अच्छी
तरह से जानता है। तीन घंटे से देख रहा है। अभी छोटी-सी भी मछली पकड़ में आई नहीं
है। तीन घंटे से बंसी लटकाए बैठा है!
मुल्ला भलीभांति जानता है इस मछलीमार को। क्योंकि एक दिन मुल्ला आ रहा
था और यह मछलीमार, जहां बाजार में मछलियां बिकती हैं, वहां एक दुकानदार से कह रहा था, भैया, जरा मछलियां फेंक दो। चार मछलियां फेंक दो। जो पैसे हों, ले लेना!
दुकानदार ने कहा, फेंक क्यों दूं! अरे, हाथ में ले लो न!
इसने कहा कि मैं चाहे कितना ही बदनसीब मछलीमार क्यों न होऊं, लेकिन झूठ नहीं बोल सकता। पत्नी से जाकर कह सकूंगा--मैंने पकड़ीं। तुम
फेंको, मैं पकडूं। झूठ मैं नहीं बोल सकता हूं। मछली चाहे न
पकड़ में आती हो, मगर बोलूंगा तो सच ही। तुम फेंक दो, मैं पकड़ लूं! कहने को बात रह जाएगी! इसने इतनी बड़ी मछली पकड़ी थी कि पूरी
झील में एक फुट नीचे उतर गया था पानी! नापजोख तो बेचारा बताए भी कैसे!
लोग जब झूठ ही बोलने पर उतारू हो जाते हैं--वह अपना झूठ होना चाहिए, अहंकार को भरने वाला--तो फिर कोई उसमें हिसाब नहीं करते।
तुम धर्म के नाम पर अंधविश्वासों का पोषण करते फिरते हो। और गुरु को
ये सारे अंधविश्वास छीनने होंगे, तभी तुम्हारे जीवन में पहली बार
श्रद्धा की ज्योति जगेगी।
झूठी आंखें छोड़ो, तो असली आंखें खोजी जा सकती हैं।
जब तक झूठी आंखों को ही लगाए बैठे रहोगे, तब तक असली आंखों
का अन्वेषण भी कैसे होगा! आविष्कार भी कैसे होगा?
गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, घड़ि-घड़ि काढ़ै खोट!
प्रति पल, घड़ी-घड़ी खोट पर खोट निकालता जाता है। जितना शिष्य
राजी होता है, उतनी खोटें निकालता है, भीतर
हाथ संवाद दे...। लेकिन भीतर से सम्हालता जाता है।
कुम्हार को तुमने घड़ा बनाते देखा! एक हाथ घड़े के भीतर रखता है। भीतर
से घड़े को सम्हालता है। और बाहर से ठोकर मारता है--दूसरे हाथ से। दोनों काम एक साथ
करता है। जो समझदार है, वह दोनों बातों को समझ लेता है। जो नासमझ है, वह बाहर की चोट देख कर ही भाग खड़ा होता है। वह कहता है, इतनी चोटें मैं सहने को राजी नहीं। क्यों सहूं! इन चोटों से क्या होगा?
योगतीर्थ पर मैंने बड़ी चोट की थी। मैंने तो उनसे यही कहा था कि तुम
छोड़ ही दो संन्यास! वह बड़ी से बड़ी चोट है। लेकिन उसको भी उन्होंने प्यारे ढंग से
लिया। समझे।
छोड़ ही दो संन्यास--यूं है, जैसे तीर छाती में
चुभ जाए। कोई और होता तो भाग ही खड़ा होता। लेकिन उन्होंने बात को विधायक ढंग से
लिया। कोई और होता तो क्रुद्ध ही हो जाता। नाराज ही हो जाता सदा के लिए।
चूंकि इस चोट को भी प्रेम से लिया है, यह चोट उनके ऊपर फूल
बन जाएगी। भीतर हाथ संवार दे, बाहर मारे चोट!
आपके प्रति धन्यवाद के भाव से भर गया हूं। अनंत अनंत धन्यवाद! शिष्य
ऐसे ही लेता है। शिष्य चोट को चोट नहीं मानता। शिष्य चोट को आशीष ही मानता है। वही
तो भेद है--विद्यार्थी और शिष्य में।
विद्यार्थी को चोट नहीं की जा सकती। उसको चोट की कि वह भाग ही जाएगा।
शिष्य को चोट की जा सकती है। और जितना ही शिष्य गहन हो, उतनी ही गहरी चोट की जा सकती है। इसलिए यह बेबूझ घटना घटेगी कि गुरु उस
शिष्य को सबसे ज्यादा मारेगा--पीटेगा, जिसमें सबसे ज्यादा
संभावना है।
रवींद्रनाथ ने अपनी जीवन-कथा में एक उल्लेख किया है। उनके चाचा थे
अवनींद्रनाथ ठाकुर। वे भारत के महानतम चित्रकारों में एक थे। पूरे भारत के इतिहास
में जो थोड़े से महान चित्रकार हुए हैं, उनमें अवनींद्रनाथ
ठाकुर का नाम भी जोड़ना पड़ेगा। अवनींद्रनाथ ठाकुर के शिष्य थे--नंदलाल बसु। वे भी
बाद में, अवनींद्रनाथ ठाकुर से भी बड़े चित्रकार साबित हुए।
एक दिन रवींद्रनाथ अपने चाचा के पास बैठे गपशप कर रहे थे। सुबह-सुबह
चाय पीकर दोनों बैठे गपशप कर रहे थे। तभी नंदलाल, युवा थे, कृष्ण का एक चित्र बना कर लाए। रवींद्रनाथ ने लिखा है, मैंने इतना सुंदर चित्र कृष्ण का कभी देखा नहीं! रवींद्रनाथ खुद भी
चित्रकार थे। कवि के साथ-साथ उतने ही बड़े चित्रकार भी थे। और अवनींद्रनाथ तो कहना
ही क्या!...
रवींद्रनाथ का हृदय धक से रह गया। इतना प्यारा चित्र था कृष्ण का, जैसे अब बांसुरी बजी--अब बांसुरी बजी! जैसे अब कृष्ण नाचे--अब कृष्ण नाचे!
इतना सजीव था। विस्मय विमुग्ध होकर देखते रह गए।
और अवनींद्रनाथ ने चित्र को देखा, लिया हाथ में और
दरवाजे के बाहर फेंक दिया। और नंदलाल से कहा, यह कुछ मुझे
दिखाने योग्य चित्र है? कुछ सोच-समझकर लाया कर। जब कोई चीज
बताने योग्य हो, तो लाया कर। इससे अच्छे चित्र तो बंगाल के
पटिये बना लेते हैं!
बंगाल में पटिये होते हैं, जो कृष्णपट बनाते
हैं--कृष्णाष्टमी के, जन्माष्टमी के अवसर पर। दो-दो पैसे में
बेचते हैं। वे सबसे गरीब चित्रकार होते हैं। उनका काम ही कुल इतना होता है कि
कृष्ण का किसी भी तरह चित्र बना देना, ताकि गांव के गरीब
दो-दो पैसे में खरीद कर उसकी पूजा कर लें! उससे बड़ी कोई निंदा की बात नहीं हो
सकती।
अवनींद्रनाथ ठाकुर का यह कहना नंदलाल को कि तुझसे तो बंगाल के पटिये
अच्छे। वे भी चित्र अच्छा बना लेते हैं कृष्ण का! यह क्या चित्र तू लेकर आया है।
भाग यहां से।
रवींद्रनाथ को तो बहुत धक्का लगा। भूल ही गए कि मेरे चाचा हैं। वृद्ध
हैं। और मुझे इस तरह की बात उनसे नहीं कहनी चाहिए। नंदलाल तो चला गया, रवींद्रनाथ टूट पड़े चाचा पर कि यह हद्द हो गई! मैंने बहुत चित्र देखे हैं।
आपके भी चित्र देखे हैं, जो आपने कृष्ण के बनाए हैं। वे भी
इसके मुकाबले नहीं हैं।
अवनींद्रनाथ ने कहा, शांत हो। और मेरी आंखों की तरफ
देख। आंख से आंसू गिर रहे थे अवनींद्रनाथ के!
रवींद्रनाथ तो और भी भौचक्के हुए कि मामला क्या है! माजरा क्या है!
कहा कि बात क्या है? आप रो क्यों रहे हैं?
कहा, रो इसलिए रहा हूं कि नंदलाल के साथ मुझे बहुत कठोर
होना पड़ रहा है। इसकी संभावना मुझसे बड़े चित्रकार होने की है। तू ठीक कहता है।
मेरे चित्रों से उसका चित्र ज्यादा बेहतर है। लेकिन अभी इसमें और भी पड़ा है। अगर
मैं इस पर चोट किए जाऊं, तो अभी इसमें और भी संभावना है। अभी
इसकी पूरी संभावना वास्तविक नहीं बनी है। जिस दिन मैं कह दूंगा--प्रशंसा के दो
शब्द--वहीं ठहर जाएगा यह। उससे आगे न बढ़ सकेगा। सोचेगा--बात पूरी हो गई। जब गुरु
ने प्रशंसा कर दी, तो अब और क्या बचा! जब अवनींद्रनाथ ने कह
दिया, तो अब और क्या बचा!
अवनींद्रनाथ उठे। जो चित्र फेंक दिया था, वह उठाकर वापस लाए। और कहा कि चित्र अदभुत है। मगर अभी और भी नंदलाल में
पड़ा है। अभी मैं न कहूंगा कि अदभुत है। उसके सामने तो न कहूंगा। अभी तो उस पर और
चोटें करनी हैं। अभी इसका जल और भी निखर सकता है। अभी इसमें और गहराई आएगी! अभी
इसमें और ऊंचाई आएगी।
और अजीब बात यह हुई कि नंदलाल अपने दरवाजे पर ताला लगा कर, जिस छोटे से झोपड़े में रहते थे, तीन साल के लिए
नदारद हो गए! रवींद्रनाथ ने बार-बार अवनींद्रनाथ को कहा कि अब कहो! क्या यह चोट
मारने जैसी थी? उसका दिल ही तोड़ दिया!
अवनींद्रनाथ ने कहा, तुम ठहरो। वह लौटेगा। वह शिष्य
है--विद्यार्थी नहीं। लौटेगा। निश्चित लौटेगा!
और तीन साल बाद नंदलाल लौटे। उनकी हालत बंगाल के पटियों जैसी हो रही
थी--बिलकुल गरीब! कपड़े फट गए थे। वे ही कपड़े थे जो वे तीन साल पहले पहने थे। और
आकर अवनींद्रनाथ के चरणों पर गिर पड़े और कहा कि आपने बड़ी कृपा की, जो उस दिन मेरे चित्र को उठा कर फेंक दिया। बंगाल के गांव-गांव में गया।
जहां भी किसी पटिये की खबर सुनी, उससे जा कर सीखा, कि जब गुरु ने कहा है कि पटिये भी तुमसे अच्छा चित्र बना लेते हैं--तो
जरूर बना लेते होंगे। और इन तीन सालों में इतना जना, इतना
जीया, इतने अनुभव हुए! आपने क्या चोट मारी कि गदगद हो गया
हूं!
अवनींद्रनाथ ने छाती से लगा लिया और कहा कि अब तुझसे सच बात कह सकता
हूं। वह चित्र सुंदर था। देख! भीतर देख! तेरा चित्र मेरी दीवाल पर टंगा है। जहां
मेरा चित्र कृष्ण का टंगा था, वह मैंने अलग कर दिया है। वहां
तेरा चित्र टांग दिया है। तेरा चित्र मेरे चित्रों से ज्यादा सुंदर है। लेकिन एक
बार आखिरी चोट मारनी थी। अब मैं देख सकता हूं तेरी आंखों में; अब मैं देख सकता हूं तेरे आसपास की आभा में--वह घटना घट गई, जिसकी मैं प्रतीक्षा कर रहा था। अब मैं निश्चिंत मर सकता हूं कि मैंने कम
से कम एक चित्रकार को जन्म दे दिया है। इतना बहुत। तू मेरी धारा को आगे बढ़ा सकेगा।
तू मेरा भविष्य है। तेरे ऊपर सब निर्भर है। यह जो मैंने कला को एक नया मोड़ दिया है,
तू उसका वसीयतदार हुआ।
तब रवींद्रनाथ समझे कि गुरु चोट करता है, तो किसलिए चोट करता है।
योगतीर्थ! तुम धन्यभागी हो। ऐसे ही समझते चले, तो निखार आएगा--बहुत निखार आएगा। नहीं तो हम तिलमिला जाते हैं। हम बड़े
जल्दी तिलमिला जाते हैं।
संत ने कल ही मुझे खबर की कि परसों आप बोले, तो मेरे पिता गदगद हो गए। उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे। और कल आप बोले,
तो वे बड़े गुस्से में आ गए। बड़े क्रोधित हो गए। एकदम तिलमिला गए!
मैं जानता था, यह होने वाला है। परसों भीतर से सहारा दिया था। कल
बाहर से चोट मारी।
गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है घड़ि-घड़ि काढ़ै खोट
भीतर हाथ संवार दे बाहर मारै चोट!
मगर वे नए-नए हैं। उनको क्या पता कि यहां क्या चल रहा है। रुक जाएंगे
थोड़े दिन, तो साफ हो जाएगी बात कि क्या चल रहा है। वही चल रहा
है, जो नानक के पास चल रहा था। वही चल रहा है, जो कबीर के पास चल रहा था।
जीवित गुरु के पास होना आग के पास होना है। जलाएगी भी, जगाएगी भी। जो-जो व्यर्थ है, जल जाएगा। जो-जो असार
है, राख हो जाएगा। और जो-जो सार है, निखर
कर प्रकट होगा। सोना जब तक आग से न गुजरे, कुंदन नहीं बनता
है।
तीसरा प्रश्न: भगवान, आपके आश्रम में सूफी नृत्य में श्री राम, जय राम,
जय जय राम की धुन गाई जाती है। यह कैसा सूफी नृत्य है?
मेलाराम असरानी!
मैं समझा तुम्हारी अड़चन, तुम्हारी उलझन। तुम
सोचते होओगे कि सूफी नृत्य का कोई संबंध है इसलाम से; सूफी
नृत्य का कोई संबंध है मुसलमान से। वहां तुम्हारी भ्रांति है।
सूफी मुसलमानों में हुए, हिंदुओं में हुए,
ईसाइयों में हुए, सिक्खों में हुए, बौद्धों में हुए। सूफी एक खास रंग का नाम है। सूफी तो एक खास ढंग का नाम
है। सूफी का इसलाम से कोई गठबंधन नहीं।
सूफी शब्द बनता है सफा से। उसी सफा से जिससे सफाई शब्द बनता है। सूफी
होने का अर्थ है--साफ-सुथरा हो जाना। सफा! नहाए हुए, धोए हुए! सद्यःस्नात।
ताजे। स्वच्छ। शुभ्र। स्वस्थ। ज्यूं था त्यूं ठहराया!
सूफी मुसलमानों में हुए, लेकिन इससे यह मत समझ
लेना कि सूफियों की सीमा मुसलमान की सीमा है। सूफियों की कोई सीमा नहीं है। मैं तो
महावीर को भी सूफी कहूंगा। और नानक को भी सूफी कहूंगा। और तुम चकित होओगे कि मैं
तो मुहम्मद को सूफी कहता हूं। मुहम्मद तो बाद में आए; सूफी
होना तो सदा से रहा।
सूफियों की परंपरा तो अनंत है। अलग-अलग रंगों में, अलग-अलग ढंगों में, अलग-अलग देशों में, अलग-अलग शब्दों में वह परंपरा उघड़ती रही। जीसस भी सूफी हैं--और मूसा भी।
सूफी होने का अर्थ स्वच्छ होना है। लेकिन हम तो धर्मों में बांधने के
आदी हो जाते हैं। जैसे कोई योग साधता है, तो हम सोचते
हैं--हिंदू होना चाहिए। अब योग का हिंदू होने से क्या संबंध? मुसलमान योग साध सकता है। ईसाई योग साध सकता है। जैन योग साध सकता है।
बौद्ध योग साध सकता है।
योग का कोई संबंध हिंदुओं से नहीं है। यह केवल आकस्मिक है कि योग की
परंपरा का सूत्रपात हिंदुओं में हुआ। और यह भी आकस्मिक है कि सूफियों की बड़ी धारा
इसलाम में बही। मगर छींटे तो सारे जगत में फैल गए।
लेकिन हमारी आदतें दायरों में सोचने की हैं। और हम हर चीज का दायरा
बना देते हैं, इससे मुश्किल खड़ी हो जाती है। इससे हमने धर्म को भी
भ्रष्ट कर लिया है। कुछ तो बचने दो, जिसकी कोई सीमा न हो।
यह मेरा कम्यून, न तो हिंदू है, न मुसलमान है; न ईसाई है, न
सिक्ख है; न जैन है, न बौद्ध है। और एक
अर्थ में यह सभी है--एक साथ है। यहां एक समन्वय घटित हो रहा है। इसलिए यहां सूफी
नृत्य में कोई अड़चन नहीं है--श्री राम, जय राम, जय जय राम की धुन गाई जा सकती है; कोई अड़चन नहीं है।
फर्क ही क्या पड़ता है--तुम अल्लाह कहो कि राम कहो।
सूफी का अर्थ है: तुम स्वच्छ हो जाओ। अब गंगा में नहा कर स्वच्छ हुए, कि नर्मदा में नहा कर स्वच्छ हुए, कि अमेजान में नहा
कर स्वच्छ हुए--क्या फर्क पड़ता है! कौन नदी थी, कौन घाट
थी--स्वच्छ हो जाओ--तुम सूफी हो गए। ये मेरे सारे संन्यासी सूफी हैं। हालांकि सूफी
फकीर जो मुसलमान की धारा में पैदा हुए हैं, हरे वस्त्र पहनते
हैं। मेरे संन्यासी गैरिक वस्त्र पहनते हैं। मगर इससे क्या फर्क पड़ जाएगा! क्या
हृदय का कुछ भेद हो जाएगा! कुछ अंतर नहीं पड़ता। लेकिन हम खिलौने में उलझ गए हैं।
हम छोटी-छोटी बातों में उलझ गए हैं।
देखते-ही-देखते कितने बदल जाते हैं लोग,
हर कदम पर इक नए सांचे में ढल जाते हैं लोग,
कीजिए किस के लिए गुम गुश्ता जन्नत की तलाश?
जब कि माटी के खिलौने से बहल जाते हैं लोग।
माटी के खिलौनों से! कोई मूर्ति को पूज रहा है--फंस गया। पूजा मूल्यवान
न रही; मूर्ति मूल्यवान हो गई। और जब मूर्ति मूल्यवान हो
जाती है, तो स्वभावतः मसजिद मंदिर नहीं हो सकती। और अगर पूजा
मूल्यवान हो, तो फिर मसजिद में भी हो सकती है, मंदिर में भी हो सकती है। फिर कोई अड़चन नहीं है। झुकना मूल्यवान है।
अमूर्त के सामने झुको मूर्त के सामने झुको--कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर हमारे जाल
बहुत हैं!
मैं अमृतसर में मेहमान था। स्वर्ण-मंदिर के ट्रस्टियों ने मुझे
निमंत्रण दिया कि मैं अमृतसर आया हूं, तो स्वर्ण-मंदिर जरूर
आऊं। मैं गया। जब मंदिर में प्रवेश कर रहा था, तो मैंने देखा
कि सारे ट्रस्टी मुझे बड़े प्रेम से स्वागत करने आए थे; वे
जरा बेचैन हैं। कुछ मेरी समझ में न आया। मैंने पूछा, बेचैनी
का कारण क्या है?
उन्होंने कहा, आपसे कहें, अच्छा नहीं मालूम
होता। न कहें, तो भी मुश्किल है!
मैंने कहा, तुम कह ही दो। अच्छे-बुरे की फिक्र छोड़ो। मैं फिक्र
ही नहीं करता--अच्छे बुरे की। तुम कह दो। मगर बेचैनी नहीं रखनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि मजबूरी है। क्षमा करें। लेकिन आप नंगे सिर
स्वर्ण-मंदिर में न जा सकेंगे। हमने आप को निमंत्रण दिया, अब मेहमान को हम क्या कहें! कम से कम टोपी लगा लें। टोपी न लगाएं, तो...एक मित्र ने जल्दी से रूमाल निकाल कर कहा कि रूमाल ही बांध लें।
मैंने कहा, जैसी तुम्हारी मर्जी। रूमाल बांध दो। अब मैं आ गया
हूं, तो लौट कर जाऊं, तो तुम दुखी
होओगे। बांध दो तुम रूमाल। मैं रूमाल बांध कर ही मंदिर में आ जाता हूं। अब आ ही
गया हूं, तो तुम्हारी यह शर्त भी मान लूंगा। लेकिन क्या तुम
सोचते हो--सिर पर पगड़ी रख लेने से या रूमाल बांध लेने से सम्मान हो जाएगा! क्या
सम्मान और अपमान इतनी थोथी बातें हैं? इतनी सरलता से हल हो
सकती हैं? लेकिन माटी के खिलौने से बहल जाते हैं लोग!
मैंने रूमाल रख लिया सिर पर, वे बड़े प्रसन्न हो गए,
बड़े आनंदित हो गए। बड़े परेशान थे। अपमान हुआ जा रहा है!
फिर जब मुझे अंदर ले चले, तो उनमें से एक ने
कहा कि आप जानकर खुश होंगे कि हमारे यहां हिंदू-मुसलमान का कोई भेद नहीं। हिंदू भी
आ सकते हैं मुसलमान भी आ सकते हैं।
मैंने कहा, तुम छोड़ो यह बकवास। बिना टोपी लगाए नहीं आ सकता है
तुम हिंदू-मुसलमान की बातें कर रहे हो! और जब तुम कहते हो कि--हमारे यहां
हिंदू-मुसलमान का कोई भेद नहीं--तो यह बात ही क्यों कर रहे हो कि हिंदू भी आ सकते
हैं; मुसलमान भी आ सकते हैं! भेद तो हो गया। नहीं तो कौन
हिंदू! कौन मुसलमान! कैसा हिंदू--कैसा मुसलमान! तुमने भेद तो कर ही लिया।
नानक को भेद नहीं था। तो वे मक्का भी चले गए थे। काबा भी चले गए थे।
और जरा सोचो, नानक को और उनकी परंपरा में आए हुए स्वर्ण-मंदिर के
इन रक्षकों को--कितना भेद है!
नानक पैर कर के सो गए थे काबा के पत्थर की तरफ। स्वभावतः इसी तरह के
पुजारी रहे होंगे, जिस तरह के ये पुजारी थे। उनको बड़ी बेचैनी हो गई।
काबा के पुजारी! और कोई आदमी आकर काबा के पत्थर की तरफ पैर कर के सो जाए! अपमान
हुआ जा रहा है! जैसा कि मेरा बिना टोपी लगाए प्रवेश करने से अपमान होता है,
तो पैर रखने से तो हो ही जाएगा। पैर अगर तुम मूर्ति की तरफ कर के
लेटोगे या मंदिर की तरफ कर के लेटोगे या काबा के पत्थर की तरफ कर के लेटोगे,
तो स्वभावतः...।
मैंने उनसे कहा, तुम थोड़ा सोचो, तुम नानक को मानने वाले लोग हो। मैंने सिर्फ टोपी नहीं लगाई है। और सच यह
है कि कोई बच्चा टोपी लगाए पैदा होता नहीं। अब तक सुना नहीं। सो परमात्मा बिना ही
टोपी लगाए भेजता है। टोपी वगैरह लगाना सब हमारे खिलौने हैं। तुम महावीर को तो अंदर
ही न घुसने देते। वे तो नंगधड़ंग आते। मैं तो कम से कम कपड़े पहने हूं! और महावीर
रूमाल भी नहीं बांधते--यह भी मैं तुमसे कहे दे रहा हूं। क्योंकि जो आदमी नंगा खड़ा
हो, वह रूमाल बांधे--जंचेगा नहीं। वह तो ऐसा हुआ, जैसे नंगा आदमी टाई बांधे! यह बिलकुल ही बेहूदी बात हो जाएगी--कि जब नंगे
ही खड़े हो, तो टोपी किसलिए लगाए हो! वह तो यूं बात हो
जाएगी--
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन के घर कोई मिलने आ गया, एक दंपति। दरवाजा खटखटाया, तो मुल्ला ने जरा-सा
दरवाजा खोल कर देखा। मगर उतने में उन लोगों ने भी देख लिया--बिलकुल नंग-धड़ंग! मगर
टोपी लगाए हुए! अब एकदम लौट भी नहीं सकते थे वे लोग। और मुल्ला को भी तो कहना ही
पड़ा कि आइए-आइए; पधारिए-पधारिए! तो बेचारे अंदर आ गए।
पत्नी किसी तरह अपने पति के पीछे छिपी हुई खड़ी, कि अब यह करना क्या है! मुल्ला बोला, बैठिए-बैठिए!
अब एक ही कुर्सी पर पति-पत्नी कैसे बैठें! और पत्नी को लग रहा बड़ा संकोच कि यह
अपनी नंगा खड़ा है। आखिर पति से भी न रहा गया। पति ने कहा कि आप नंगे क्यों हैं?
क्या बात है?
तो मुल्ला ने कहा, सच बात यह है कि इस समय मुझसे
कोई मिलने कभी आता ही नहीं। गरमी के दिन हैं और पसीने से तरबतर होने में सार क्या!
और अपना घर। अपने ही घर में नंगा न हो सकूं, तो फिर अपना घर
क्या! कोई बाजार में तो नंगा नहीं हूं। दरवाजा बंद कर के नंगा हूं।
तब फिर पत्नी से न रहा गया। पत्नी ने भी जरा मुंह बगल से निकाल कर
पूछा, और सब तो ठीक है। चलो नंगे हो, क्योंकि
गर्मी है। मगर टोपी किसलिए लगाए हो?
तो मुल्ला ने कहा, अरे, कभी
कोई भूलचूक से आ जाए, जैसे आप आ गए, तो
कम कम टोपी तो लगाए रहूं!
अब महावीर पर तुम टोपी रख देते, या रूमाल बांध देते,
तो ऐसा ही लगता! बिलकुल गड़बड़ लगता मामला! और महावीर तो रखने भी नहीं
देते।
मैं तो इस अर्थ में सरल आदमी हूं। चलो, टोपी, तो टोपी रख ली। कोई बात नहीं। चलो, रूमाल बांधा,
तो रूमाल बांध लिया। मगर अगर तुम बिना रूमाल के मुझे स्वर्ण-मंदिर
में नहीं जाने दे सकते, तो तुम फिर उन पुजारियों के संबंध
में क्या कहोगे, जिन्होंने नानक से कहा कि आप पैर कर के सो
रहे हैं काबा के पवित्र पत्थर की तरफ। शर्म नहीं आती! संत होकर, साधु होकर, फकीर होकर...!
तुम भी वही कर रहे हो। और मैंने कोई इतना बड़ा कसूर नहीं किया। नानक का
कसूर बड़ा था।
लेकिन नानक ने क्या कहा उन पुजारियों से कि फिर तुम मेरे पैर उस तरफ
कर दो, जहां परमात्मा न हो। मैं तो सभी जगह परमात्मा को
देखता हूं। कहीं तो पैर कर के सोऊंगा! चूंकि वह सभी जगह है, इसलिए
अब उसका अपमान-सम्मान क्या! और पैर में भी वही है; चारों तरफ
भी वही है। मुझमें भी वही है, और तुममें भी वही है। तो कहीं
तो पैर कर के सोऊंगा! जमीन पर भी पैर रख कर चलूंगा, तो वह भी
परमात्मा ही है। उस पर भी पैर रखना परमात्मा पर ही पैर रखना है।
उनसे उत्तर न देते बन पड़ा। चुपचाप खड़े रह गए।
मैंने कहा, थोड़ा सोचना। मैं नानक के साथ हूं या तुम नानक के साथ
हो। अगर मैं अंदर जा कर तुम्हारे गुरु-ग्रंथ साहब के प्रति पैर कर के लेट जाऊं,
तो तुम क्या करोगे? तुम तो बिलकुल पागल हो
जाओगे। तुम तो एकदम दीवाने हो उठोगे कि अपमान हो गया। तुम तो सिर पर भी रूमाल रख
कर प्रसन्न हो रहे हो! माटी के खिलौने से बहल जाते हैं लोग!
मेलाराम असरानी! यही तुम्हारी तकलीफ है। तुम पूछते हो, सूफी नृत्य में श्री राम, जय राम, जय जय राम की धुन गाई जाती है। यह कैसा सूफी नृत्य है?
यहां जोर नृत्य पर है। अगर नृत्य में नर्तक खो जाए, तो नृत्य सूफी नृत्य हो जाता है। फिर से दोहरा दूं: अगर नृत्य में नर्तक
खो जो, डूब जाए, तल्लीन हो जाए--नृत्य
ही बचे, नर्तक न बचे; गीत में गायक खो
जाए, गायक न बचे--गीत ही बचे। बस, स्वच्छता
आ गई। एकदम बरस जाती है स्वच्छता। अमृत की धार बरस उठती है।
इसलिए उसको सूफी नृत्य कहते हैं, क्योंकि यह सफा कर देता
है, सफाई कर देता है। एकदम कचरे को धो देता है।
अब किस बहाने तुम करते हो--चाहो, अल्लाहू का उदघोष करो;
और चाहे जय राम श्री राम को। यह हिंदी अनुवाद है और कुछ भी नहीं। यह
अल्लाह का हिंदी अनुवाद है।
थोड़ा आंखें ऊपर उठाओ और आकाश की तरफ देखो। जमीन को खंड-खंड में बांट
लिया हमने। आदमी को खंड-खंड में बांट लिया हमने। आदमी को खंड-खंड में बांट लिया।
जरा अखंड आकाश को देखो।
सितारों से आगे जहां और भी हैं।
अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं।।
अभी तुमने प्रेम जाना है, मगर बड़ा सीमा में
बंधा हुआ, डबरे की तरह। और जहां डबरा है, वहां सड़ांध है। हिंदू का डबरा हो कि मुसलमान का डबरा हो; सिख का कि जैन का--जहां डबरा है, वहां सड़ांध है।
जहां सीमा है, वहां सड़ांध है।
सीमा से थोड़ा ऊपर उठो। यहां सब सीमाएं तोड़ी जा रही हैं। यहां सीमाओं
को विसर्जित किया जा रहा है। यहां हम गणेश जी वगैरह को विसर्जित नहीं करते; सीमाओं को विसर्जित करते हैं!
सितारों से आगे जहां और भी हैं।
अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं।।
तही जिंदगी से नहीं ये फिजाएं।
यहां सैकड़ों कारवां और भी हैं।।
कनाअत न कर आलमे-रंगो-बू पर।
चमन और भी आशियां और भी हैं।।
अगर खो गया इक निशेमन तो क्या गम।
मकामाते-आहो-फुगां और भी हैं।।
तू शाहीं है परवाज है काम तेरा।
तिरे सामने आस्मां और भी हैं।।
इसी रोज-ओ-शब में उलझ कर न रह जा।
कि तेरे जमान-ओ-मकां और भी हैं।।
गए दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में।
यहां अब मिरे राजदां और भी हैं।।
थोड़ा सीमाओं के पार देखो--सितारों के पार--वहां सब एक है।
जब पहला अमरीकी चांद पर पहुंचा तो तुम्हें पता है, उसे क्या भाव उठा! जब उसने पृथ्वी की तरफ देखा, तो
चांद से पृथ्वी जैसी ही चमकती है, जैसा पृथ्वी से चांद चमकता
है। चमकती हुई पृथ्वी देखी! और उसके मन में एक ही भाव उठा--मेरी पृथ्वी! यह भाव न
उठा--मेरा अमेरिका! उस फासले से कहां अमेरिका। मेरी पृथ्वी--उस पृथ्वी में रूस भी
सम्मिलित था; चीन भी सम्मिलित था। उस पृथ्वी में भारत भी
सम्मिलित था। वहां कोई नक्शा नहीं था बंटा हुआ। पृथ्वी वहां एक थी। और इतनी प्यारी
थी! सोचा भी न था कि चांद जैसी चमकती होगी।
पृथ्वी भी उतनी ही चमकती है, जितना चांद चमकता है।
चांद पर पहुंच गए, तो चांद नहीं चमकता फिर। फिर चांद पृथ्वी
जैसा मालूम होता है। क्योंकि चांद की कोई अपनी किरणें नहीं हैं। सूरज की किरणें
चांद पर पड़ कर लौटती हैं, प्रतिफलित होती हैं, इसलिए चमक आती है। जैसे दर्पण में से किरणें लौट जाती हैं। दर्पण की नहीं
होतीं, आती तो दीए से हैं। लेकिन दीए से पकड़कर फिर लौट जाती
हैं। दर्पण उन्हें लौटा देता है। ऐसी ही किरणें पृथ्वी से भी लौटती हैं।
चांद पर खड़े होओगे, तो पृथ्वी भी इतनी जाज्वल्यमान,
जैसे एक बड़ा हीरा चमकता हो! चांद से बड़ी है पृथ्वी--बहुत बड़ी है। तो
बहुत बड़ा चांद! और उसके मन में एक ही भाव उठा--मेरी पृथ्वी! मेरी प्यारी पृथ्वी!
अगर धार्मिक व्यक्ति को इतना भी बोध न हो, तो क्या उसे खाक धार्मिक कहो! चांद पर जाने की जरूरत नहीं है।
इसलाम भी मेरा है। ईसाइयत भी मेरी है। हिंदू भी मेरा है। जैन भी मेरा
है। सिक्ख भी मेरा है। सब मेरे हैं। मेरा धर्म! एक धम्मो सनंतनो--बुद्ध कहते
हैं--यह जो सनातन धर्म है--ये सब उसकी शाखाएं समझो। उसी के पत्ते समझो।,
राम कहो कि रहीम कहो--सवाल यह नहीं कि तुमने क्या कहा। सवाल यह है कि
कहते वक्त तुम किस लोक में प्रवेश कर गए! अगर यह राम, यह अल्लाह तुम्हें सितारों के आगे ले जाए, तो सूफी
हो गए।
सितारों से आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं।
मेलाराम असरानी! अभी प्रेम की कुछ और परीक्षाएं देनी होंगी। तुम तो
सुन कर ही चिंता में पड़ गए कि यह कैसा सूफी नृत्य! यही सूफी नृत्य है। ऐसा ही होता
है सूफी नृत्य। तुम शब्द में ही उलझ गए। तुमने ये नाचते हुए लोग न देखे, जो मस्त थे, लीन थे। तुमने उनकी मस्ती न देखी,
उनकी बेखुदी न देखी। तुम इसी चिंता में पड़ गए कि सूफी नृत्य--और
श्री राम, जय राम, जय जय राम का उदघोष!
तालमेल नहीं बैठता! मंदिर में जैसे कोई कुरान की आयत उठ रही हो! मगर सौभाग्य होगा
वह दिन, जिस दिन मंदिरों में कुरान की आयतें उठेंगी, और मस्जिदों में गीता का उदघोष होगा। उस दिन पृथ्वी सच में ही धन्यभागी
होगी।
अभी तो मंदिर मसजिद की गर्दन काटने को तैयार है। मसजिद मंदिर को राख
करने को तैयार है। ये धार्मिक लोग हैं! अभी गीता कुरान को जलाने में उत्सुक है।
कुरान गीता को मिटाने में उत्सुक हैं! ये धार्मिक लोग हैं?
धर्म तो एक है, और एक ही हो सकता है। क्योंकि सत्य एक है। लेकिन ये
राजनीतियां हैं, जिन ने तुम्हें बांट रखा है।
ये सारे कारवां उसी की तरफ जा रहे हैं--उसी एक की तरफ। रास्ते थोड़े
अलग भी हों, वाहन अलग भी हों, मंजिल एक है।
तही जिंदगी से नहीं ये फिजाएं।
यहां सैकड़ों कारवां और भी हैं।।
कनायत न कर आलमे-रंगा-बू पर।
चमन और भी आशियां और भी हैं।।
थोड़े आंखें खोल कर देखो। यह बगिया--तुम्हारी ही बगिया अकेली बगिया
नहीं है। और भी बगियाएं हैं, जहां और भी फूल खिले हैं। अंधे
मत हो जाओ।
जिसने गीता को समझा, अगर कुरान को न समझ पाए, तो समझना--उसने गीता को नहीं समझा। वह परीक्षा में असफल हो गया। वह प्रेम
की परीक्षा में उत्तीर्ण न हुआ। और जिसने कुरान को समझा, अगर
वह उपनिषद को न समझे, तो समझना कि कुरान को भी नहीं समझा।
क्या खाक कुरान को समझा!
भाषाएं अलग थीं, इशारे अलग थे, अंगुलियां अलग थीं। चांद तो एक ही है--जिसकी तरफ अंगुलियां उठी हैं।
हजारों अंगुलियां उठी हैं। बुद्ध की, महावीर की, कबीर की, नानक की, मोहम्मद की,
जीसस की, जरथुस्त्र की।
अगर खो गया इक, निशेमन तो क्या गम
मुकामाते-आहो-फुगा और भी हैं!
जिस दिन ये सारे घर तुम्हारे होंगे, ये सारे
मंदिर-मस्जिदें, गिरजे-गुरुद्वारे तुम्हारे होंगे--क्या फर्क
पड़ता है, एक मंदिर गिर भी गया, तो
मसजिद में नमाज पढ़ लेना। मंदिर में पूजा कर लेना। क्या फर्क पड़ता है--मसजिद जल भी
गई, तो मंदिर में नमाज पढ़ लेना, तो
मंदिर में पूजा कर लेना।
धार्मिक व्यक्ति भी अगर संकीर्ण हो, तो फिर धार्मिक
अधार्मिक में भेद क्या है? एक ही भेद हो सकता है: संकीर्णता
गिर जाए, भेदभाव गिर जाए।
तू शाहीं है परवाज है काम तेरा। तुम बाज पक्षी हो, उड़ानें भरना ऊंचे आकाश में तुम्हारा काम है। बाज पक्षी होकर और जमीन पर
घसिट रहे हो--कीड़े-मकोड़ों की तरह!
तू शाहीं है परवाज है काम तेरा।
तिरे सामने आस्मां और भी हैं।।
उड़ो। और जितने ऊंचे जाओगे, उतनी और नई ऊंचाइयों
के द्वार खुल जाएंगे।
इसी रोज-ओ-शब में उलझ कर न रह जा।
कि तेरे जमान-ओ-मकां और भी हैं।।
इन्हीं छोटी-छोटी बातों में मत उलझाओ अपने को। ये दिन और रात, और यह रोज का क्रियाकांड--इसी में मत भूल रहो।
इसी रोज-ओ-शब में उलझ कर न रह जा।
कि तेरे जमान-ओ-मकां और भी हैं।।
और भी समय है, और भी स्थान हैं, और भी आकाश
हैं, और भी बहुत कुछ शेष है। खोजो--तो खोज अंतहीन है।
गए दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में।
यहां अब मिरे राजदां और भी हैं।।
यहां मित्र ही मित्र हैं; यहां शत्रु कोई भी
नहीं है।
यहां मिरे राजदां और भी हैं। यहां औरों ने भी भेद पाया है। किसी ने
ठेका नहीं ले लिया है परमात्मा का। किसी नाम में, किसी शास्त्र में
परमात्मा समाप्त नहीं हो गया है। धर्म आते रहे, जाते रहे।
धर्म और भी आएंगे जाएंगे। मगर जो शाश्वत सत्य है, वह तो सदा
थिर है। कितने धर्म आए और गए। वे सिर्फ छायाएं थीं, प्रतिबिंब
थे। शब्दों में शून्य की बनाई गई आकृतियां थीं, इशारे थे।
अंगुलियां उठती रहीं, गिरती रहीं--चांद अपनी जगह है।
महावीर आए, बुद्ध आए, जरथुस्त्र आए,
लाओत्सू आए, मीरा आई, सहजो
आई, चैतन्य आए। आते रहे लोग, जगाते रहे
लोग, मगर जिसकी तरफ जगाते हैं--वह एक है। और उस एक के प्रति
जाग जाओ, तो फिर चाहो अपने को योगी कहना..। योग का मतलब होता
है--जुड़ जाना। योग का अर्थ होता है--जोड़। जो परमात्मा से जुड़ गया, वह योगी।
फिर चाहे सूफी कहो। सूफी का अर्थ होता है--जो स्वच्छ हो गया, जिसके मन का सारा मैल धुल गया--वह सूफी। फिर तुम्हारी जो मौज हो, नाम दे लेना। नाम से कुछ फर्क नहीं पड़ता। कब तक बच्चों जैसे उलझे
रहोगे--माटी के खिलौनों से!
माटी के खिलौनों से बहल जाते हैं लोग!
जागो। थोड़ा देखो विस्तार। संकीर्णताओं के रोज-रोज तोड़ते चलो। कितनी ही
पीड़ा हो, मगर संकीर्णताएं तोड़नी हैं, तभी
तुम जान सकोगे जीवन का परम सत्य। उसे जाने बिना कोई मुक्ति नहीं है, कोई मोक्ष नहीं है।
सुना है कि एक पैगंबर इस्माइल-अलैहि-सलाम भोजन करते समय किसी न किसी
को अपने साथ बिठा कर भोजन करवाते थे। कभी अकेले नहीं खाते थे। एक दिन वे खाना खाने
बैठे। दस्तरखान सजाया। लेकिन साथ खाने के लिए कोई न था। इंतजार करते रहे। और तभी
उनकी नजर एक सत्तर वर्ष के बूढ़े पर पड़ी। खुशी से दौड़े। उसे बुलाया। वजू करवाया।
वजू कर के जब खाना खाने बैठे, तो उस बूढ़े ने बिस्मिल्लाह कहे
बिना ही खाना शुरू कर दिया।
इन पैगंबर ने उसके हाथ को रोक दिया, मुंह में कौर जाने से
पहले ही। कहने लगे, बिस्मिल्लाह किए बगैर खाने नहीं दूंगा।
अल्लाह का नाम ले कर शुरू करो।
लेकिन उस बूढ़े ने इनकार कर दिया बिस्मिल्लाह करने से। वह बोला, मैं तो आतिश परस्त, अग्नि-पूजक पारसी हूं। मैं नहीं
मानता इसलाम को। इसलिए आप चाहें, तो खिलाएं, न खिलाएं। मैं बिस्मिल्लाह नहीं बोलूंगा!
तभी आकाश से एक आयत (वहय) नाजिल हुई कि ऐ पैगंबर, इस आदमी को हम सत्तर वर्ष से खाना दे रहे हैं। हमने इसे कभी नहीं कहा कि
हमारा नाम लो। न कभी इसने बिस्मिल्लाह ही की। फिर तुम क्यों इसको खाने से रोक रहे
हो? सिर्फ एक दिन खिलाने में भी तुम शर्त लगा रहे हो!
यह आवाज सुनी, तो पैगंबर रोने लगे और उस व्यक्ति से बोले, मुझे क्षमा कर दो और खाना खाओ।
धर्म की कोई शर्त नहीं, कोई सीमा नहीं। राम
कहो, रहीम कहो, अल्लाह कहो, ओंकार कहो; कुछ न कहना हो, कुछ
न कहो--मौन रहो। अग्नि को पूजो--वह भी उसका प्रतीक है। जल को पूजो--वह भी उसका
प्रतीक है। सब उसके प्रतीक हैं, क्योंकि वही है--और तो कुछ
भी नहीं है।
चौथा प्रश्न: भगवान, क्या मैं भी कभी उस ज्योति को पा सकूंगा, जिसके
दर्शन आप में मुझे होते हैं?
सत्यप्रेम!
क्यों नहीं! मैं तो केवल दर्पण हूं। मेरा तो इतना ही उपयोग है कि
तुम्हें तुम्हारी याद दिला दूं। वह ज्योति जो तुम्हें मुझमें दिखाई पड़ रही है, तुम्हारी भी ज्योति है। तुम्हें उसका होश नहीं; मुझे
उसका होश है। जरा-सा भेद है। तुम सोए हो, मैं जागा हूं। तुम
भी वही हो, मैं भी वही हूं। तुम अपनी तरफ पीठ किए हो,
मैंने अपनी तरफ मुंह कर लिया। तुम विमुख हो, मैं
सन्मुख हो गया हूं। मगर बात तो वही की वही है।
अब तुम दीए की तरफ पीठ करके खड़े हो जाओ, तो दीया दिखाई नहीं
पड़ेगा। स्वभावतः। जरा मुड़ आओ--और दीया दिखाई पड़ने लगेगा। तुम्हारे भीतर भी ज्योति
छिपी है। जीवन ही तो ज्योति है। जीवन ही तो परमात्मा है।
तुम पूछते हो, क्या मैं कभी उस ज्योति को पा सकूंगा? कभी क्यों--अभी पाप सकते हो--यहीं पा सकते हो। जरा-सा मुड़ने की बात है।
दिल के आईने में है तसवीरे यार
जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।
बस, जरा-सी गर्दन झुकाने की बात है!
न पूछो कौन हैं, क्यों रह में नाचार बैठे हैं।
मुसाफिर हैं, सफर करने की हिम्मत हार बैठे हैं।।
उधर पहलू से तुम उट्ठे, इधर दुनिया से हम
उट्ठे।
चलो हम भी तुम्हारे साथ ही तैयार बैठे हैं।।
किसे फुर्सत, कि फर्जे-खिदमते-उल्फत बजा लाए।
न तुम बेकार बैठे हो, न हम बेकार बैठे हैं।।
मकामे-दस्तगीरी है, कि तेरे राहरोए उल्फत।
हजारों जुस्तुजूएं करके हिम्मत हार बैठे हैं।।
न पूछो कौन हैं, क्या मुद्दआ है, कुछ नहीं बाबा।
गदा हैं और जेरे-सायो-दीवार बैठे हैं।।
थक गए हो। बहुत-सी अभीप्साएं कीं, आकांक्षाएं की। हर
सपना टूटा, तो हताश हो गए हो। इसलिए पूछते हो, क्या मैं भी कभी उस ज्योति के दर्शन पा सकूंगा? डर
गए हो। भयभीत हो गए हो।
मकामे-दस्तगीरी है, कि तेरे राहरोए-उल्फत।
हजारों जुस्तुजूएं करके हिम्मत हार बैठे हैं।।
तुम भी उस प्रेम-पथ के राही हो, लेकिन गलत आकांक्षाएं
करके हार गए हो। गलत आकांक्षाएं पूरी नहीं होतीं। धन पाने चलोगे, पा लोगे, तो भी हारोगे। और न पाया, तो तो हारोगे ही। पद पाने चलोगे। पा लिया, तो भी
हारोगे; न पाया, तो तो हारोगे ही।
क्योंकि जिन्होंने पा लिया, उन्होंने भी कुछ न पाया।
धन पा कर भी क्या मिलता है? भीतर की निर्धनता और
प्रगाढ़ हो जाती है। पद पा कर क्या मिलता है? भीतर की हीनता
और उभर कर दिखाई पड़ने लगती है। जैसे कोई सफेद खड़िया से ब्लैकबोर्ड पर लिखता है।
सफेद दीवाल पर लिखे, तो पता नहीं चलता।
गरीब आदमी को अपनी गरीबी उतनी पता नहीं चलती, जितनी अमीर आदमी को अपनी गरीबी पता चलती है। काली दीवाल पर सफेद खड़िया की
तरह अक्षर उभर आते हैं।
न पूछो कौन हैं, क्या मुद्दआ है, कुछ नहीं बाबा! इतने थक गए हो कि कहते हो, मत पूछो।
पूछो ही मत कि क्या उद्देश्य है।
न पूछो कौन हैं, क्या मुद्दआ है, कुछ नहीं बाबा।
गदा हैं और जेरे-सायाए-दीवार बैठे हैं।।
भिखारी हैं और दीवाल की छाया में बैठे हैं। मत पूछो बाबा कि कौन हैं? क्या हैं? ऐसी थकी हालत है। इसलिए तुम यह कह रहे हो
कि भगवान, क्या मैं भी कभी उस ज्योति को पा सकूंगा?
क्यों नहीं! अभी पा सकते हो। कभी की बात ही मत छेड़ो। कभी में तो हताशा
आ गई, निराशा आ गई।
मेरा तो जोर अभी पर है--यहां और अभी। समझो, तो अभी मुड़ सकते हो। कोई रोक नहीं रहा। सिवाय तुम्हारी हताशा और निराशा के
और कोई बाधा नहीं है। गिर जाने दो इन हताशा को।
शिकवा बेसूद, शिकायत से भला क्या हासिल।
जिंदगी है तो बहरहाल बसर भी होगी।
इसी उम्मीद पे मजलूम जिए जाता है।
पर्देए-शब से नमुदार सहर भी होगी।।
उम्मीद रखो। ऐसे हार नहीं जाते। पर्देए-शब से नमुदार सहर भी होगी। अगर
रात है, तो सुबह भी होगी।
चाहता हूं तेरा दीदार मयस्सर हो जाए।
सोचता हूं कि मुझे ताबे-नजर भी होगी?
फिक्र न करो। अगर उसके दीदार का भाव उठा, अगर उस ज्योति के दर्शन की आकांक्षा उठी है--कोई फिक्र न करो। सोचता हूं
कि मुझे ताबे-नजर भी होगी। देखने की शक्ति भी होगी, तभी तो
यह आकांक्षा जगी है।
प्यास तभी उठती है, जब जल मौजूद हो। अगर दुनिया में
जल न होता, तो प्यास भी न होती। और अगर भोजन न होता, तो भूख भी न होती। भूख के पहले भोजन है। प्यास के पहले पानी है।
तुमने देखा, मां के पेट में बच्चा आता है, और
जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, मां के स्तन धीरे-धीरे
दूध से भरने लगते हैं। जब तक बच्चा नहीं आता, तब तक मां के
स्तन में दूध नहीं आता। लेकिन बच्चे के जन्मे पहले दूध आ जाता है। इधर बच्चा
जन्मा--दूध आ चुका होता है। दूध प्रतीक्षा करता है। भूख के पहले भोजन है!
पर्देए-शब से नमुदार सहर भी होगी।।
चाहता हूं तेरा दीदार मयस्सर हो जाए।
सोचता हूं कि मुझे ताबे-नजर भी होगी?
यादे-एय्यामे-गुलिस्तां को भुला रक्खा था।
क्या खबर थी ये खालिश बारे-जिगर भी होगी।।
हाए इंसान, दरिंदों से हैं बढ़कर वहशी।
क्या किसी दौर में तकमीले-बशर भी होगी।।
मुतमुइन हूं मैं बहुत चश्मेत्तवज्जोह से तेरी।
इक न इक रोज उधर से ये इधर भी होगी।।
मैं जानता हूं कि तेरी नजर में करुणा है। मैं तेरी करुणा को पहचानता
हूं। नहीं तो जीवन कौन देता! इस जीवन को इतने फूलों से कौन भरता! इस जीवन को प्रभु
पाने की आकांक्षा से कौन भरता!
इतनी गहराई से हमारे भीतर प्रभु को पाने की आकांक्षा भरी है। सिवाय
परमात्मा की अनुकंपा के और कोई कारण नहीं है। उसे हम पाना चाहते हैं, क्योंकि उसने बीज रख छोड़ा है हमारे भीतर प्यास का।
मुतमुइन हूं मैं बहुत चश्मेत्तवज्जोह से तेरी! मुझे पक्का भरोसा है कि
तेरी करुणा भरी आंख है। इक न इक रोज उधर से ये इधर भी होगी। मुड़ेगी मेरी तरफ भी।
आज तारीकिए-माहौल से दम घुटता है।
कल खड़ा चाहेगा तालिब तो सहर भी होगी।।
मगर ध्यान रखना--खुदा चाहेगा तालिब तो सहर भी होगी। तुम्हारी चाह से
नहीं होगा। तुम्हारी चाह छोड़ने से होगा।
तुम कहते हो, क्या मैं भी कभी उस ज्योति को पा सकूंगा, जिसके दर्शन आपमें मुझे होते हैं?
सत्यप्रेम! जरूर। लेकिन एक शर्त पूरी करनी होगी। यह चाह भी छोड़ दो।
चाह ही बाधा है। यह चाह आखिरी बाधा है। इसको भी जाने दो।
भरोसा करो। श्रद्धा करो। जिसने जीवन दिया है, और जीवन को परम सत्य पाने की अभीप्सा दी है--उसने जरूर इंतजाम कर रखा
होगा। उसने पहले से ही इंतजाम कर रखा होगा। इस श्रद्धा का ही नाम धर्म है।
धर्म सिद्धांतों में विश्वास का नाम नहीं है; अस्तित्व की परम करुणा में श्रद्धा का नाम है, इसलिए
शिकायतें न करना।
शिकवा बेसूद, शिकायत से भला क्या हासिल।
जिंदगी है तो बहरहाल बसर भी होगी।।
इसी उम्मीद पे मजलूम जिए जाता है।
पर्देए-शब से नमुदार सहर भी होगी।।
चाहता हूं तेरा दीदार मयस्सर हो जाए।
सोचता हूं कि मुझे ताबे-नजर भी होगी?
योद एय्यामे-गुलिस्तां को भुला रक्खा था।
क्या खबर थी ये खालिश बारे-जिगर भी होगी।।
हाए इन्सान, दरिंदों से हैं बढ़ कर वहशी।
क्या किसी दौर में तकमीले-बशर भी होगी।
मुतमुइन हूं मैं बहुत चश्मेत्तवज्जोह से तेरी।
एक न इक रोज उधर से ये इधर भी होगी।।
आज तारीकिए-माहौल से दम घुटता है।
कल खुदा चाहेगा तालिब तो सहर भी होगी।।
आज अंधेरे में प्राण छटपटा रहे हैं--माना। मगर शिकवा बेसूद, शिकायत से भला क्या हासिल। न शिकवा करना, न शिकायत
करना। जिसकी जिंदगी से शिकवा और शिकायत गिर जाती है, उसकी
जिंदगी से प्रार्थना उठती है।
लेकिन अजीब अंधे लोग हैं! मंदिर भी जाते हैं, मसजिद भी जाते हैं, गुरुद्वारा भी जाते हैं, तो वहां भी शिकायत है। प्रार्थना भी उनकी शिकायत का ही एक ढंग है--कि हे
प्रभु, ऐसा कर, वैसा कर। ऐसा क्यों
नहीं किया!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम
नैतिक रूप से जीते हैं। सादगी से जीते हैं। फिर असफलता क्यों? और जो बेईमान हैं, अनैतिक हैं--वे सफल क्यों?
यह शिकायत है, यह शिकवा है।
शिकवा बेसूद शिकायत से भला क्या हासिल। यह सिर्फ इस बात की गवाही है
कि तुम्हें अभी भी श्रद्धा नहीं है। तुम्हारी श्रद्धा भी तुम्हारी वासना का ही रूप
है। और श्रद्धा और वासना का क्या तालमेल!
तुम प्रार्थना भी करते हो, तो कुछ मांगते हो।
वहां भी तुम भिखारी ही हो।
न पूछो कौन हैं, क्या मुद्दआ है, कुछ नहीं बाबा।
गदां हैं और जेरे-सायाए-दीवार बैठे हैं।।
वहां भी तुम भिखारी ही हो। प्रार्थना भिखमंगापन नहीं है। प्रार्थना
आनंद-उल्लास है। प्रार्थना नृत्य है, गीत है, उत्सव है। प्रार्थना महोत्सव है। प्रार्थना धन्यवाद है--अनुग्रह का भाव
है।
श्रद्धा हो, प्रार्थना हो--जरूर सत्यप्रेम, वह
अपूर्व घटना तुम्हारे जीवन में भी घटेगी--जो मेरे जीवन में घटी है।
मेरे जीवन में घट सकती है, तो तुम्हारे जीवन में
घट सकती है। हम सब एक जैसे निर्मित हुए हैं।
इस देश में और इस देश के बाहर भी, धर्म के इतिहास में
जो सबसे बड़े दुर्भाग्य की घटना घटती है, वह यह कि हमने जिन
लोगों के जीवन में ज्योति प्रकट हुई, उनको ही मनुष्य जाति से
तोड़ दिया। हिंदुओं ने कह दिया, वे अवतार हैं। जैनों ने कह
दिया--वे तीर्थंकर हैं। बौद्धों ने कह दिया, वे बुद्धपुरुष
हैं। मुसलमानों ने कह दिया, वे पैगंबर हैं! ईसाइयों ने कह
दिया, वे ईश्वर-पुत्र हैं! हमने आदमी से उनको अलग कर दिया।
इसका एक दुष्परिणाम होना था--हुआ। भयंकर दुष्परिणाम हुआ।
जब तुम तीर्थंकर, अवतार, ईश्वर-पुत्र,
मसीहा, पैगंबर--इस तरह जिनके जीवन में ज्योति
आई, उनको अलग कर देते हो, तो साधारण
आदमी को क्या आशा रह जाए! साधारण आदमी सोचता है: मैं तो साधारण आदमी हूं; ईश्वर-पुत्र नहीं पैगंबर नहीं, तीर्थंकर नहीं,
अवतार नहीं। मेरे जीवन में तो अंधेरा ही बदा है। मेरी तो किस्मत में
अंधेरा ही लिखा है। मेरी रात की तो काई सुबह नहीं होने वाली। और अगर महावीर को हुई,
तो कोई खूबी की बात क्या! वे तीर्थंकर थे। वे कोई साधारण पुरुष न
थे। वे तो आए ही थे--परम सत्य से ही जन्मे थे।
अगर जीसस के जीवन में वह ज्योति जगी, तो वे तो ईश्वर के
बेटे थे! और ईसाई जोर देते हैं कि ईश्वर का एक ही बेटा है--जीसस। इकलौता बेटा है,
ताकि साफ हो जाए तुम्हें कि तुम इस भ्रांति में मत रहना कि तुम भी
ईश्वर के बेटे हो।
मुसलमान कहते हैं, आखिरी पैगंबर हो चुके--मोहम्मद।
अब कोई पैगंबर नहीं होगा। सिक्ख कहते हैं, दस गुरु हो चुके,
अब ग्यारहवां गुरु नहीं होगा। जैन कहते हैं, चौबीस
तीर्थंकर हो चुके, अब पच्चीसवां तीर्थंकर नहीं होगा। यह आदमी
को तोड़ देने की बात है।
आदमी और जागृत पुरुषों के बीच इतना फासला मत खड़ा करो।
मेरा पूरा जोर इस बात पर है कि मैं तुम जैसा हूं। मेरी कोई विशिष्टता
नहीं। न कोई अवतार हूं। न कोई तीर्थंकर हूं। न कोई ईश्वर-पुत्र हूं। तुम जैसा हूं।
और मेरे जीवन में जो घटा है, वह तुम्हारे जीवन में घट सकता
है।
कल मैं तुम जैसा था, आज तुम मेरे जैसे हो सकते हो।
जरा भी भेद नहीं है। इतना ही भेद है कि मैं जाग कर बैठ गया हूं--और तुम अभी सो रहे
हो। और तुम्हें मैं हिलाने की कोशिश कर रहा हूं कि जागो। हालांकि किसी को भी सोते
से जगाने में अड़चन तो होती है। जागने वाला तो जग आता है इसलिए--कि कब तक सपनों में
खोए रहोगे--व्यर्थ सपनों में!
जागो। सुबह हो गई। पक्षी गीत गाने लगे। सूरज उगने लगा। आनंद बरस रहा
है। अमृत की झड़ी लगी है। और तुम सो रहे हो! मगर सोने वाला अपने सपनों में खोया है।
हो सकता है, सोने के सिक्के गिन रहा हो! नोटों की गड्डियां बरस
रही हों। बड़ी से बड़ी कुर्सी पर चढ़ा बैठा हो। राष्ट्रपति हो गया हो। प्रधानमंत्री
हो गया हो। और तुम उसको जगा रहे हो।
उसका सपना टूट जाए--तो नाराज तो होगा ही--कि अभी कुर्सी पर बैठ भी
नहीं पाया था कि तुमने हिला दिया! कुर्सी भी खो गई!
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात सपना देखा कि एक फरिश्ता उससे कह रहा है कि
मांग, कुछ मांगना है! आदमी की मूढ़ता तो देखो! मगर तुम्हारे
ही जैसा आदमी है मुल्ला नसरुद्दीन! उसने कहा, एक सौ का नोट
मिल जाए! आदमी मांगे भी तो क्या मांगे! परमात्मा भी मिल जाए--तुम सोचो--तो क्या
मांगोगे? क्या मांगोगे अगर--कभी विचार करो कि परमात्मा मिल
ही जाए...! तुम सुबह-सुबह घूमने निकले। परमात्मा मिल गया रास्ते पर और पूछने लगा
कि क्या मांगते हो? तो क्या करोगे? नोट
की गिड्डियां मांगोगे! कहोगे--इलेक्शन में इस बार जीतना हो जाए; कि फलानी स्त्री से मेरा प्रेम हो गया, वह मुझे मिल
जाए; कि बेटा नहीं हो रहा--बेटा हो जाए। कुछ इसी तरह की
फिजूल की बातें मांगोगे। मांगोगे क्या? ये ही सब बातें
तुम्हारे भीतर उतरेंगी--कि लाटरी खुल जाए! कुछ न कुछ इस तरह की बातें--कि घुड़दौड़
हो रही है पूना में, मेरा घोड़ा जीत जाए!
अब तुम देखते हो कि घोड़े भी इतने नालायक नहीं हैं, जितना आदमी नालायक है! घोड़े आदमियों की दौड़ नहीं करवाते! और आदमी कितने ही
दौड़ें, कोई घोड़ा देखने नहीं आएगा। मैं तुमसे पक्का कहता
हूं--कोई घोड़ा देखने नहीं आएगा। कहेंगे, ये बुद्धू दौड़ रहे
हैं--दौड़ने दो। इसमें अपने को देखना क्या है! मगर घोड़े दौड़ते हैं और आदमियों की
भीड़ इकट्ठी है! अभी सारा बंबई पूना में है। जिनकी भी जेबें जरा गर्म हैं, वे सब पूना में हैं। घुड़दौड़ हो रही है!
घोड़े दौड़ रहे हैं! तुम्हें क्या पड़ी है! मगर आदमी अजीब है! गधे भी
दौड़ें, तो भी आएगा!
मुर्गे लड़ाते हैं लोग। तीतर लड़ाते हैं लोग। और भीड़ इकट्ठी होती है।
तीतर भी सोचते होंगे कि हो क्या गया आदमी को! मुर्गे भी सोचते होंगे कि हम ही भले।
दो आदमी लड़ते हैं, हम तो फिक्र ही नहीं करते। लड़ते रहो। भाड़ में जाओ।
आदमी अजीब पागल है!
तो मुल्ला नसरुद्दीन से फरिश्ते ने पूछा, क्या मांगता है? उसने कहा, सौ
का नगद नोट हो जाए। फरिश्ता भी कंजूस ही रहा होगा, क्योंकि
फरिश्ता कहां सपने में! मुल्ला ही का मन है। इधर से फरिश्ता बना है; इधर से मुल्ला! वही जवाब दे रहे हैं, वही सवाल कर
रहे हैं।
फरिश्ता भी पक्का कंजूस रहा होगा। उसने कहा कि सौ तो नहीं दूंगा।
नब्बे ले लो। मुल्ला ने कहा, सौ से एक पैसा कम नहीं! फरिश्ता
भी इंच-इंच बढ़े। उसने कहा, इक्यानबे ले लो! मुल्ला भी जिद्द
पर अड़ा कि सौ ही लूंगा। नगद बंधा हुआ नोट!
लोग अंधे नोट के बड़े प्रेमी हैं! दूसरों से उधार ले कर खर्चा करते
हैं। कहते हैं कि जरा बंधा नोट है। तुड़वाना नहीं है। जरा एक रुपया हो तो दे दो।
बंधा नोट है। अरे, तो बंधे नोट का क्या करोगे? उस
गरीब का भी एक का बंधा नोट है। उसका तुड़वाए दे रहे हो! आना बंधा बचा रहे हो! बंधे
नोटों को लोग बांधते हैं!
मुल्ला ने कहा, लूंगा तो बंधा नोट। इक्यानबे वगैरह से काम नहीं
चलेगा!
तो फरिश्ते ने कहा, अच्छा, बानबे
ले लो।
होनी लगी बड़ी छीना-झपटी निन्यानबे पर बात बिलकुल अटक गई। फरिश्ता भी
इंच आगे न बढ़े। उसने कहा, निन्यानबे से एक कौड़ी ज्यादा नहीं दूंगा। और मुल्ला
कहे कि अब निन्यानबे तक आ गए, तो अब एक के पीछे क्या कंजूसी
कर रहे हो! दूसरे की कंजूसी दिखाई पड़ती है, अपनी नहीं दिखाई
पड़ती।
मगर फरिश्ता बोला, निन्यानबे से एक कौड़ी ज्यादा
नहीं। लेना हो, ले ले।
बात इतनी बिगड़ी कि मुल्ला चिल्लाया कि देना हो तो सौ। नहीं तो मैं भी
लेने वाला नहीं हूं। बंधा लूंगा। क्योंकि टूटे नोट खतम हो जाते हैं। कहते हैं न
लोग--बंधी मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक की। बंधे नोट का मजा ही और होता है!
जोर से चिल्लाया कि लूंगा तो सौ! तो नींद खुल गई। नींद खुल गई, तो फरिश्ता नदारद! जल्दी से आंख बंद कर ली और कहा, अच्छा
बाबा, निन्यानबे दे दे! मगर अब कहां--फरिश्ता ही नहीं है!
अट्ठानबे ही दे दे। अरे भई, जो देना हो दे दे। इक्यानबे ही
दे दे। नब्बे दे दे! मगर वहां कोई है ही नहीं। फरिश्ता नदारद हो गया।
नींद के सपने तो टूट जाएंगे--नींद के साथ ही। इसलिए जो तुम्हें जगाएगा, वह पहले तो दुश्मन मालूम होगा। जीसस को तभी तो तुमने सूली दी। सुकरात को
जहर पिलाया। यूं ही तो नहीं। अकारण तो नहीं।
तुम्हारी नींद को तोड़ता है जो, उस पर नाराजगी आती
है। हम सपना देख रहे हैं प्यारा-प्यारा और इनको यह धुन सवार है कि नींद तुड़वा दें!
ये नींद तुड़वाने के पीछे पड़े हुए हैं! सोने भी नहीं देते चैन से। ऐसे आदमी को सूली
लगा दो। ऐसे आदमी को जहर पिला दो।
अभी मुझ पर ही कुछ दिन पहले एक आदमी छुरा मार गया--छुरा फेंक कर--कि
इस आदमी को खतम ही करो। अब इस बेचारे की कोई नींद टूट रही होगी। इसको कहीं चोट पड़
रही होगी। इसका सपना कहीं खिसक रहा होगा। कहीं फरिश्ता चला जाए! और बंधा नोट करीब
ही था! निन्यानबे से सौ में दूरी भी क्या थी! अरे, इतनी दूर खींचतान कर
ले आए थे। एक ही रुपए की बात थी। जब निन्यानबे तक खींच लिया, तो एक और खिंच जाता। मगर नींद बेवक्त तोड़ दी! तो गुस्सा तो आ ही जाए!
छुरा फेंकने में वही गुस्सा है। तुमने हमेशा ही सदगुरुओं के साथ असद
व्यवहार किया है। मगर तुम क्षमा योग्य हो।
जीसस ने मरते वक्त अंतिम वचन जो कहे कि हे प्रभु, इन सब को क्षमा कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं,
ये क्या कर रहे हैं। इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं! ये
बिलकुल नींद में हैं। ये बेहोश हैं। मैं जगाने की कोशिश कर कर रहा था। इनको पता ही
नहीं है; नींद के सिवाय इन्होंने कुछ जाना ही नहीं है। सपने
ही इनकी संपदा हैं।
तो जगाने में अड़चन तो है।
तुम पूछते हो सत्यप्रेम, क्या मैं भी कभी उस
ज्योति को पा सकूंगा, जिसके दर्शन आप में मुझे होते हैं?
निश्चित ही। जरा भी संदेह का कारण नहीं है। आश्वस्त होओ। तुम्हारे
भीतर ज्योति मौजूद है। तुम उसे लेकर ही पैदा हुए हो। पाने कहीं बाहर भी नहीं जाना
है--न काबा, न काशी, न कैलाश। जरा भीतर
मुड़कर देखना है--और क्रांति घटित हो जाती है। और चमत्कारों का चमत्कार घटित हो
जाता है।
आज इतना ही।
छठवां प्रवचन; दिनांक १६ सितंबर, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें