शुक्रवार, 5 मई 2017

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-07



ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रश्नोत्तर)-ओशो

दुख से जागो-(प्रवचन-सातवां)
सातवां प्रवचन; दिनांक १७ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, श्रीमदभागवत में यह श्लोक है:
यश्च मूढ़तमो लोके यश्च बुद्धे: परं गतः।
तावुभौ सुखमेघेते क्लिश्यत्यंतरितो जनः।।
संसार में जो अत्यंत मूढ़ है और जो परमज्ञानी है, वे दोनों सुख में रहते हैं। परंतु जो दोनों की बीच की स्थिति में है, वह क्लेश को प्राप्त होता है।
क्या ऐसा ही है भगवान?

आनंद मैत्रेय!
निश्चय ही ऐसा ही है। मूढ़ का अर्थ है--सोया हुआ, जिसे होश नहीं। जी रहा है, लेकिन पता नहीं क्यों! चलता भी है, उठता भी है, बैठता भी है--यंत्रवत! जिंदगी कैसे गुजर जाती है, जन्म कब मौत में बदल जाता है, दिन कब रात में ढल जाता है--कुछ पता ही नहीं चलता। जो इतना बेहोश है, उसे दुख का बोध नहीं हो सकता। बेहोशी में दुख का बोध कहां! झेलता है दुख, पर बोध नहीं है, इसलिए मानता है कि सुखी हूं।

करीब-करीब प्रत्येक व्यक्ति इसी भ्रांति में है कि सब ठीक है। जिससे पूछो--कैसे हो--वही कहता है--ठीक हूं। और ठीक कुछ भी नहीं। सब गैर-ठीक है। जिससे पूछो, वही कहता है, मजा है! आनंद है! परमात्मा की बड़ी कृपा है! शायद उसे यह भी बोध नहीं कि वह क्या कह रहा है।
न सुनने वाले को पड़ी है, न बोलने वाले को पड़ी है कुछ सोचने की। कहने वाला कह रहा है, सुनने वाला सुन रहा है। न कहने वाले को प्रयोजन है--क्यों कह रहा है। न सुनने वाले को चिंता है कि क्या कहा जा रहा है! ऐसी बेहोशी में सुख की भ्रांति होती है। पशु ऐसी ही बेहोशी में जीते हैं--और निन्यानबे प्रतिशत मनुष्य भी।
पशु शब्द बड़ा प्यारा है। पशु का अर्थ है--जो पाश में बंधा हो। पशु का अर्थ सिर्फ जानवर नहीं; पशु का बड़ा वैज्ञानिक अर्थ है--बंधा हुआ; मोह के पाश में बंधा हुआ; मूर्च्छा के बंधनों में जकड़ा हुआ; आसक्तियों में; खोया हुआ सपनों में।
पशुओं को तुमने दुखी न देखा होगा, रोते न देखा होगा, पीड़ित न देखा होगा। इसलिए तो पशुओं में कोई बुद्ध नहीं होता। जब पीड़ा का ही पता न चलेगा, तो पीड़ा से मुक्त होने की बात ही कहां उठती है! प्रश्न ही नहीं उठता।
मनुष्यों में कभी कोई एकाध व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है; कभी। अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं ऐसे लोग; करोड़ों में कोई एक। कौन बुद्धत्व को उपलब्ध होता है? वही जिसे जीवन की पीड़ा ठीक-ठीक दिखाई पड़ती है, जिसे इतना होश आ जाता है कि जीवन दुख ही दुख है। आशा है सुख की, मगर मिलता कहां? दौड़ते हैं पाने के लिए, मगर पहुंचता कौन है? हाथ खाली के खाली रह जाते हैं।
धन भी इकट्ठा हो जाता है, पद पर भी बैठ जाते हैं, मगर भीतर की रिक्तता नहीं भरती, सो नहीं भरती। भीतर का दीया नहीं जलता, सो नहीं जलता। धन से जलेगा भी कैसे? पद से भीतर रोशनी भी कैसे होगी? कोई संबंध नहीं दोनों का। धन बाहर है, भीतर निर्धनता है। बाहर के धन से भीतर की निर्धनता कैसे मिटे? महल में रहो कि झोपड़े में, रहोगे तो तुम ही! तुम अगर झोपड़े में दुखी हो, तो महल में भी दुखी रहोगे! तुम अगर झोपड़े में सोए हो, तो महल में सोओगे। लेकिन झोपड़े में जो है, वह भी सोच रहा है, सुखी हूं। राह के किनारे जो भिखमंगा बैठा है--लंगड़ा, लूला, अंधा, बहरा, कुष्ट से गला जा रहा है, हाथ-पैर गिर रहे हैं टूट-टूटकर--वह भी जीए जा रहा है! पता नहीं किस आशा में! किस भ्रांति में।
कल सब ठीक हो जाएगा। कल कभी आता है? जो नहीं आता, उसी का नाम कल है। तुम किसी भिखमंगे से भी कहोगे--किसलिए जी रहे हो? तो नाराज हो जाएगा। तुम्हें नहीं दिखाई पड़ेगा कोई कारण जीने का। लेकिन जीवेषणा ऐसी है कि हर हाल आदमी जीए जाता है!
गहन अकाल के दिनों में माताएं अपने बच्चों को काट कर खा गईं! बापों ने अपनी बेटियां बेच दीं। टूट गए सब नाते; छूट गए सब रिश्ते। अपने जीवन की आकांक्षा इतनी है कि आदमी कुछ भी कर सकता है! जिसके लिए जीते थे, उसी को मार भी सकता है। ऐसी अवस्था में पता नहीं चलता। कांटों में बिंधे पड़े रहते हैं, और फूलों के सपने देखते रहते हैं!
यह श्लोक ठीक कहता है कि जो संसार में अत्यंत मूढ़ हैं, वे सुखी हैं। सुखी इसलिए कि उनकी मूढ़ता इतनी सघन है कि उन्हें मूढ़ता का भी पता नहीं। मूढ़ता का पता जिसे चल गया, वह तो मूढ़ न रहा।
कल ही मैंने देखा श्री मोरारजी देसाई का एक वक्तव्य। एक पत्रकार परिषद में उनसे पूछ गया कि आप आचार्य रजनीश का गुजरात में आगमन हो रहा है--कच्छ में--उसका विरोध करेंगे या नहीं? आप विरोध की अगवानी क्यों नहीं करते? कच्छ में प्रवेश न हो, इस विरोध में आप नेतृत्व क्यों हाथ में नहीं लेते?
तो उन्होंने कहा कि कच्छ की जनता ही विरोध करेगी। और आचार्य रजनीश का वे ही लोग समर्थन करते हैं, जो मूर्ख हैं, मूढ़ हैं!
मैंने वक्तव्य पढ़ा, तो सोचा या तो मोरारजी देसाई को अपना वक्तव्य वापस लेना चाहिए या फिर मेरा समर्थन करना चाहिए। दो में से कुछ एक करना चाहिए। अगर वक्तव्य सही है, तो मेरा समर्थन करना चाहिए, क्योंकि वे तो मूढ़ता में सर्वोच्च हैं! अरे, प्रधानमंत्री का पद तो आया-गया! अब तो भूतपूर्व हो गए; भूत हो गए! लेकिन मूढ़ता तो निज की संपदा है; उसमें कभी भूतपूर्व होने की संभावना नहीं दिखती। मगर परम मूढ़ता यह है कि दूसरों को मूढ़ समझते हैं। खुद की मूढ़ता का खयाल नहीं होता।
एक से एक मूर्खतापूर्ण बातें वे रोज कहते हैं! और खयाल में भी नहीं कि क्या कह रहे हैं!
कच्छ की जनता को मुझसे कोई विरोध नहीं है। अगर विरोध है, तो मोरारजी देसाई को और उनके साथ हार गए राजनीतिज्ञों को--इने-गिने थोड़े से लोग। कच्छ की जनता तो स्वागत के लिए तैयार है। रोज कच्छ से लोग यहां आ रहे हैं।
अभी परसों ही मांडवी का एक प्रतिनिधि मंडल आठ व्यक्तियों का यह निवेदन करने आया था कि आप जो कच्छ के, मोरारजी देसाई के जो संगी-साथी हैं, वे जो शोरगुल मचा रहे हैं, उस भ्रांति में आप जरा भी न पड़ना। हम आपके स्वागत के लिए आंखें बिछाए बैठे हैं।
कच्छ के लोगों को कोई विरोध नहीं है। विरोध है तो ये कुछ कछुओं को--जिनकी चमड़ी इतनी मोटी है कि जिसमें कुछ घुसता ही नहीं!
मूढ़ सुखी अनुभव करता है अपने को, इसलिए कि उसे दुख का बोध नहीं होता। इसीलिए तो जब किसी का आपरेशन करते हैं, तो पहले उसे बेहोश कर देते हैं। बेहोश हो गया, तो फिर दुख का पता नहीं चलता। फिर उसके हाथ काटो, पैर काटो, एपेंडिक्स निकाल लो। जो करना हो करो, उसे कुछ पता नहीं। होश में किसी की अपेंडिक्स निकाल लो। जो करना हो करो, उसे कुछ पता नहीं। होश में किसी की अपेंडिक्स निकालोगे, तो आसान नहीं मामला। डाक्टर की गर्दन दबा देगा--लड़ने को, मरने को, मारने को राजी हो जाएगा--कि यह क्या कर रहे--मेरा पेट काट रहे! मेरे प्राण निकल रहे हैं! भागने लगेगा। पहले उसे बेहोश कर देते हैं।
और यही प्रक्रिया मृत्यु की है। मरने के पहले अधिकतम लोग बेहोश हो जाते हैं--क्षण भर पहले, क्योंकि मृत्यु तो बड़े से बड़ा आपरेशन है। आत्मा शरीर से अलग की जाएगी। अपेंडिक्स क्या है! आत्मा का शरीर से अलग होना इससे बड़ी और पीड़ा की कोई बात क्या होगी! सत्तर-अस्सी-नब्बे साल दोनों का संग-साथ रहा। जुड़ गए, एक दूसरे में मिल गए, तादात्म्य हो गया। उस सारे तादात्म्य को छिन्न-भिन्न करना है। तो प्रकृति बेहोश कर देती है; सिर्फ कुछ बुद्धों को छोड़ कर। क्योंकि उनको बेहोश नहीं किया जा सकता। वे जागे ही जीते हैं, जागे ही सोते हैं, जागे ही मरते हैं। इसलिए मरते ही नहीं। क्योंकि जाग कर वे देखते रहे हैं--शरीर मर रहा है, मैं नहीं मर रहा हूं। मुस्कुराते रहते हैं। देखते रहते हैं कि शरीर छूट रहा है। लेकिन मैं शरीर नहीं हूं। मन विदा हो रहा है, लेकिन मैं मन नहीं हूं। वस्तुतः तो वे बहुत पहले ही शरीर और मन से मुक्त हो चुके। मौत आई उसके पहले मर चुके। उसके पहले उन्होंने शाश्वत जीवन को जान लिया।
बुद्ध की जब मृत्यु हुई, तो उनके शिष्य रोने लगे। बुद्ध ने कहा, चुप हो जाओ नासमझो। मुझे मरे तो लंबा अरसा हो गया। मैं बयालीस साल पहले उस रात मर गया, जिस दिन बुद्ध हुआ। अब क्या रो रहे हो! बयालीस साल बाद! आज कुछ नया नहीं हो रहा है। यह तो घटना घट चुकी। बयालीस साल पहले उस राम पूर्णिमा की--मैंने देख लिया कि मैं शरीर नहीं, मन नहीं। बात खतम हो गई। मौत तो उसी दिन हो गई। रोओ मत। रोने का कुछ भी नहीं है। क्योंकि जो है, वह रहेगा। और जो नहीं है, वह नहीं ही है। वह जाता है, तो जाने दो। सपने ही टूटते हैं--सत्य नहीं टूटते हैं।
तो जो परम ज्ञान को उपलब्ध है, वह भी सुखी। महासुख बुद्ध ने उसे कहा है--भेद करने को।
अज्ञानी सुखी होता है। धन मिल जाता है, लाटरी मिल जाती है--सुखी हो जाता है। पद मिल जाता है--सुखी हो जाता है। खिलौनों में--माटी के खिलौनों में भरम जाता है! एक भ्रम टूटता नहीं कि दूसरे भ्रमों में उलझ जाता है। नए-नए भ्रम खड़े करता रहता है। झमेले में लगा रहता है। यह कर लूं--वह कर लूं--आपाधापी! इसमें इतना उलझाव होता है, इतना व्यस्त कि पता ही नहीं चलता कि कब जिंदगी आई, कब जिंदगी गुजर गई! कब सुबह हुई, कब सांझ हो गई! कब सूरज उगा, कब डूब गया!
बचपन खिलौनों में निकल जाता है, जवानी भी खिलौने में निकल जाती है। बदल जाते हैं खिलौने। बच्चों के खिलौने छोटे हैं, स्वभावतः, जवानों के खिलौने जरा बड़े हैं! मगर आश्चर्य तो यह है कि बुढ़ापा भी खिलौनों में ही निकलता है। कम से कम बुढ़ापे में आते-आते तो जाग जाना चाहिए। मरने के पहले तो जाग जाना चाहिए। मरने के पहले तो सारे व्यर्थ के जाल-जंजाल से छुटकारा कर लेना चाहिए। मरने के पहले जीवन क्या है--इसकी पहचान हो जानी चाहिए। जिसको हो जाती है--उसे महासुख।
यह श्लोक कीमती है। यह कहता है--यश्च मूढ़तमो लोके यश्च बुद्धे: परंगतः। वे जो मूढ़ हैं, वे भी सुखी हैं नकारात्मक अर्थों में। क्योंकि उनको दुख का पता नहीं। और वे जो बुद्धपुरुष हैं, बुद्धजन हैं, जो परम गति को उपलब्ध हुए, वे भी सुखी हैं--विधायक अर्थों में। उन्हें पता है कि सुख क्या है। वे महासुखी हैं। भेद को समझ लेना। दोनों का सुख अलग-अलग है।
मूढ़ का सुख वैसा ही, जैसा बेहोश आदमी का आपरेशन हो रहा है, और उसे पता नहीं।
काशी के नरेश का आपरेशन हुआ उन्नीस सौ आठ में। अपेंडिक्स का आपरेशन था। लेकिन काशी के नरेश ने क्लोरोफार्म लेने से इनकार कर दिया। और कहा कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। मैं जानता हूं कि मैं शरीर नहीं। आपरेशन करो।
अंग्रेज डाक्टर बड़ी मुश्किल में पड़े। आपरेशन करना तत्क्षण जरूरी है, नहीं तो मौत हो सकती है। एपेंडिक्स फूट सकती है। संघातिक स्थिति है। ठहरा नहीं जा सकता। और काशी के नरेश को जबर्दस्ती भी नहीं की जा सकती। वे कहते हैं कि बेहोश करने की कोई जरूरत नहीं है। मैं ध्यान करता रहूंगा, तुम आपरेशन कर देना!
कभी यह घटना घटी न थी इसके पहले। डाक्टरों ने बहुत झिझकते हुए समझाने की कोशिश की। लेकिन समझाने के लिए समय भी न था। तब मजबूरी में उन्होंने कहा कि ठीक है। थोड़ी-सी चीरफाड़ कर के देखी कि क्या परिणाम होता है। लेकिन काशी-नरेश तो आंख बंद किए मस्त ही रहे। आंखों से आनंद के आंसू झरते रहे। फिर उन्होंने अपेंडिक्स भी निकाल ली। वे आनंद के आंसू झरते ही रहे। चेहरे पर एक आभा--जैसे पता ही न चला! जैसे उन्होंने कुछ इस बात का हिसाब ही न लिया।
अपेंडिक्स पहली दफा मनुष्य जाति के इतिहास में बिना बेहोश किए निकाली गई। चिकित्सक चकित थे। भरोसा न आता था अपनी आंखों पर--कि इतना बड़ा आपरेशन हो और कोई व्यक्ति हिले-डुले भी नहीं! पूछा उन्होंने काशी नरेश को कि इसका राज क्या है?
उन्होंने कहा, राज कुछ भी नहीं। राज इतना ही है कि मैं जानता हूं--मैं शरीर नहीं हूं। मैं साक्षी हूं। मैं अपने साक्षी-भाव में रहा। मैं देखता रहा कि अपेंडिक्स निकाली जा रही है। पेट फाड़ा जा रहा है। औजार चलाए जा रहे हैं। मैं द्रष्टा हूं। शरीर अलग है। मैं यूं देखता रहा, जैसे कोई किसी और के शरीर की शल्यक्रिया देखता हो। मैं शरीर नहीं हूं; और ही है शरीर।
ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति के लिए कोई दुख नहीं है, क्योंकि दुख शरीर और मन के ही होते हैं; आत्मा का कोई दुख नहीं होता। आत्मा का स्वभाव आनंद है।
हमने शरीर के साथ अपने को एक मान रखा है, तो हम दुखी हैं। मन के साथ अपने को जोड़ रखा है, तो हम दुखी हैं। मन यानी माया। मन यानी मोह। मन यानी सारा संसार; यह सारा विस्तार। मन और शरीर से अलग जिसने अपने को जान लिया, वह परम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है। फिर वहां कोई दुख नहीं है। फिर वहां महासुख है, परम शांति है। आनंद ही आनंद। अमृत ही अमृत!
और यह बात भी सच है कि इन दोनों के बीच में जो है, वह दुखी है। मूढ़--उसे पता नहीं, बेहोश है। प्रबुद्ध--उसे पता है, परिपूर्ण होश है। इन दोनों के मध्य में जो है, वह दुखी है। वह बड़े झमेले में है। न यहां का, न वहां का। न घर का न घाट का--धोबी का गधा है! इधर शरीर खींचता है, उधर आत्मा पुकारती है। इधर बाहर की दुनिया आकर्षित करती है, उधर भीतर का लोक निमंत्रण देता है। यहां धन खींचता है, वहां ध्यान पुकारता है। एंचातानी! कोई टांग खींच रहा है! कोई हाथ खींच रहा है!
जरा जरा-सा होश भी है, मगर धुंधला-धुंधला; इतना नहीं कि महासुख दिखाई पड़ जाए। मगर इतना होश है कि दुख दिखाई पड़ता है। इतनी रोशनी नहीं कि अंधेरा मिट जाए। मगर इतनी रोशनी है कि अंधेरा दिखाई पड़ता है। जैसे सुबह-सुबह, भोर में, भी सूरज नहीं निकला; अभी रात के आखिरी तारे नहीं डूबे। कुछ-कुछ हल्की-सी रोशनी है। और गहन अंधकार भी--साथ-साथ! मध्य में जो है, वह संध्या काल में है। उसकी बड़ी विडंबना है। न यहां का, न वहां का! वह त्रिशंकु की भांति लटक जाता है। न इस लोक का, न परलोक का।
कुछ लोगों की यह गति है। खास कर उन लोगों की, जिनके जीवन में थोड़ी-सी धार्मिकता है। जिनके जीवन में थोड़ा-सा प्रार्थना का स्वर सुनाई पड़ा है। जिनके जीवन में क्रांति की थोड़ी-सी चिनगारी पड़ी है। वे बड़े दुखी हो जाते हैं। और वे तब तक दुखी रहेंगे, तब तक वे परम सत्य को न पा लें।
बुद्ध बहुत दुखी हो गए थे, तभी तो राजमहल छोड़ा। और जिन घटनाओं को देख कर दुखी हुए थे, उन्हीं घटनाओं को तुम रोज देखते हो, और तुम्हें कुछ भी नहीं होता! चार घटनाओं का उल्लेख है।
बुद्ध जब पैदा हुए, तो ज्योतिषियों ने कहा कि सम्राट, हम बड़े संकोच से भरे हैं। आपके बेटे का भविष्य बड़ा अनिश्चित है। या तो यह चक्रवर्ती सम्राट होगा। अगर रुक रहा संसार में, तो यह सारे जगत का विजेता होगा। लेकिन पक्का नहीं कह सकते। एक संभावना यह भी है कि सब त्याग कर संन्यासी होगा। तब यह बुद्धत्व को उपलब्ध होगा। या तो चक्रवर्ती सम्राट या बुद्ध।
सिर्फ एक युवक ज्योतिषी भी मौजूद था। कोदन्ना उसका नाम था। वह भर चुप रहा। सम्राट ने पूछा कि तुम कुछ नहीं कहते? उसने एक अंगुली उठाई। सम्राट ने कहा, इशारे मत करो। साफ-साफ कहो। क्या कहना चाहते हो एक अंगुली उठा कर?
कोदन्ना ने कहा कि मैं सुनिश्चित रूप से कहता हूं कि यह व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होगा।
सम्राट को बहुत धक्का लगा कि एक ही बेटा था। वह भी बुढ़ापे में पैदा हुआ था! यह संन्यस्त हो जाएगा। फिर मेरे साम्राज्य का क्या होगा! इसे कैसे रोका जाए कि यह सन्यस्त न हो।
हर मां-बाप बच्चों को रोकते हैं--कहीं संन्यस्त न हो जाएं! बड़ी हैरानी की दुनिया है। और मजा यह कि अगर किसी और का बेटा संन्यासी हो जाए, तो यही मां-बाप उसके चरण छूने जाते हैं! इनका खुद का बेटा संन्यासी होने लगे, तो इनको अड़चन आती है। अड़चन इसलिए आती है कि इनके न्यस्त स्वार्थ को धक्का लगता है। अड़चन इसलिए आती है कि बेटा हमसे आगे जा रहा है! इससे इंकार को भी पीड़ा होती है। हम जो न कर पाए, वह बेटा कर रहा है, कि बेटी कर रही है!
और फिर बुद्ध के पिता ने जो बड़ा विस्तार कर रखा था धन का, साम्राज्य का, उसका क्या होगा! जीवन उसी में गंवाया था। बड़ी आशा थी इस बेटे की कि बेटा मिल जाएगा, तो सम्हालने वाला कोई होगा। हम तो न रहेंगे, लेकिन अपना कोई खून का हिस्सा सम्हालेगा!
क्या-क्या मोह हैं दुनिया में! हम न होंगे तो कम से कम हमारा बेटा सम्हालेगा। खुद के बेटे नहीं होते, लोग दूसरे के बेटे गोद ले लेते हैं और भ्रांतियां बना लेते हैं कि अपना है।
कोई अपना सम्हालेगा, तो भी भरोसा है कि चलो, हमारा श्रम व्यर्थ नहीं गया। श्रम तो व्यर्थ ही गया। जब तुम ही चले गए, तो तुम्हारे श्रम का क्या मूल्य है!
बुद्ध के पिता बड़े चिंतित हुए। पूछने लगे कि कोई रास्ता बताओ--कैसे इसको रोकें?
तो उन ज्योतिषियों ने कहा, अगर इसे रोकना हो, तो चार चीजों का पता मत चलने देना। बीमारी होती है--यह पता मत चले देना। क्योंकि बीमारी में इसे दुख होगा। दुख होगा, तो फिर बचना मुश्किल होगा। बुढ़ापा आता है, यह पता मत चलने देना, क्योंकि बुढ़ापे का अगर इसको खयाल आ जाएगा, तो मौत ज्यादा दूर नहीं है फिर। और मौत होती है--यह इसे पता मत चलने देना। और चौथी बात कि संन्यास की भी संभावना है--यह इसे पता मत चलने देना। बस, ये चार बातों से बचाए रखना। और इसे पिलाओ शराब और रंगरेलियां मनाने दो। सम्राट हो तुम, सुंदरतम स्त्रियां इकट्ठी कर दो, उन्हीं में भूला रहे, भटका रहे। संगीत चले। नाच चले। शराब चले। दौर पर दौर चलें। इसको बेहोश रखो। अगर इसे बेहोश रखने में समर्थ हो गए, तो यह चक्रवर्ती सम्राट हो जाएगा। सम्राट ने कहा, फिर ठीक है।
उसने बुद्ध के लिए अलग-अलग ऋतुओं के लिए अलग-अलग महल बनवाए। गर्मी के लिए अलग महल। ऐसे स्थान में, ऐसे मौसम में, ऐसे वातावरण में, जहां सब ठंडा था, शीतल था। उसे गर्मी का पता न चले। सर्दी में और जगह--जहां सब गर्म था, उसे सर्दी का पता न चले। वर्षा में ऐसी जगह जहां थोड़ी बूंदाबांदी हो। वर्षा का मजा भी हो, लेकिन वर्षा की पीड़ा न हो।
सम्राट ने सारी सुंदर स्त्रियां, जितनी सुंदर युवतियां राज्य में मिल सकती थीं, सब को उठा लिया। वह उसके हाथ की बात थी। बुद्ध को सिर्फ लड़कियों से घेर दिया। खिलौने ही खिलौने दे दिए। और सारी सुविधाएं जुटा दीं।
श्रेष्ठतम चिकित्सक बुद्ध के पीछे लगा दिए कि बीमारी आने के पहले ही इलाज करें। बीमारी आए--फिर इलाज नहीं। बीमारी आने के पहले इलाज। बुद्ध को पता ही न चले कि बीमारी आने वाली थी।
और किसी बूढ़े को बुद्ध के महलों में जाने की आज्ञा न थी। यहां तक कि कोई सूखा हुआ पत्ता बुद्ध के बगीचे में नहीं टिकने दिया जाता था। सूखे पत्ते को देख कर शायद उन्हें याद आ जाए कि कभी हमें भी तो नहीं सूख जाना पड़ेगा। आज हरे हैं, कल कहीं सूख कर वृक्ष से गिर तो न जाएंगे! कुम्हलाए हुए फूल रात में अलग कर देते थे। बुद्ध के बगीचे में माली रात भर काम करते थे। कुम्हलाए फूल, सूखे पत्ते, पीले पड़ गए पत्ते--सब अलग कर दिए जाते थे।
बुद्ध को ऐसे धोखे में रखा गया। लेकिन कब तक धोखे में रखोगे! जिंदगी से कैसे किसी को छिपाया जा सकता है!
एक महोत्सव में--युवक महोत्सव में बुद्ध भाग लेने जा रहे थे--उसका उदघाटन करने। राजकुमार ही उसका उदघाटन करता था। रास्ते पर डुंडियां पीट दी गई थीं कि कोई बूढ़ा न निकले, कोई बीमार न निकले, कोई मुर्दे की लाश न गुजरे, कोई संन्यासी न निकले। मगर दुनिया बड़ी है। किसी बहरे ने सुना ही नहीं कि डुंडी पिटी। किसी बीमार को पता ही न चला कि डुंडी पिटी। बड़ी राजधानी थी।
और जब बुद्ध का रथ जा रहा था राजधानी में से, तो उन्होंने देखा एक आदमी को: कमर झुक गई। रुग्ण! खांस रहा, खखार रहा! पूछा कि क्या हो गया इसको?
सारथी ने कहा कि मुझे आज्ञा नहीं है कि मैं आपको इस तरह की बातों के संबंध में कहूं!
बुद्ध ने कहा, मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं कि बोलो। क्या हो गया इसे?
बुद्ध को इनकार भी नहीं किया जा सकता। राजकुमार है। तो उसने कहा, मजबूरी है। लेकिन आपके पिता की आज्ञा नहीं है।
बुद्ध ने कहा, जब मैं तुमसे कहता हूं, जवाब दो अन्यथा नौकरी से तुम अलग किए जाते हो!
उस सारथी ने कहा, मालिक नाराज न हों। यह आदमी बीमार है। इसको क्षय रोग हो गया है। यह तपेदिक से बीमार है। यह खांस रहा है, खखार रहा है।
बुद्ध ने कहा, क्या मैं भी कभी बीमार हो सकता हूं?
इसको कहते हैं प्रतिभा। इसको कहते हैं बुद्धिमत्ता। इसको कहते हैं प्रखर तेजस्विता--मेधा! उस आदमी का प्रश्न तत्क्षण अपने पर लागू हो गया। क्या मैं कभी बीमार हो सकता हूं?
उस सारथी ने कहा कि मैं क्या कहूं आपसे! लेकिन देह है, तो बीमारी है। देह तो बीमारियों का घर है। इसमें सब बीमारियां छिपी हैं। आज नहीं कल...अभी आप जवान हैं। अभी सब स्वस्थ है। सब सुंदर है। मगर कब टूट जाएगा स्वास्थ्य, कहा नहीं जा सकता। टूट ही जाता है। मगर खयाल रखें, अपने पिता को मत कहना कि मैंने ये बातें आपसे कहीं। नहीं तो मेरा अस्तित्व खतरे में है।
बुद्ध ने कहा, तुम चिंता मत करो।
और तभी एक बूढ़ा आदमी गुजरा; बहुत जराजीर्ण। और बुद्ध ने पूछा, इसे क्या हो गया? इसे कौन-सी बीमारी है?
सारथी ने कहा, इसे कोई बीमारी नहीं है। यह बुढ़ापा है। यह सबको होता है। यह बीमारी नहीं है, यह सहज जीवन का अंतिम चरण है।
बुद्ध ने कहा, क्या ऐसी ही झुर्रियां मेरे चेहरे पर पड़ जाएंगी! ऐसी ही शिकन! ऐसा ही कमजोर मैं हो जाऊंगा! आंखें मेरी ऐसी ही धुंधली हो जाएंगी? ऐसे ही बहरा मैं हो जाऊंगा?
सारथी ने कहा, मजबूरी है। मगर प्रत्येक को एक दिन इसी तरह हो जाता पड़ता है। सब चीजें आखिर थक जाती है। इंद्रियां थक जाती हैं, टूटने लगती हैं, बिखरने लगती हैं। बुढ़ापे से कौन बच सका है!
और तभी एक मुर्दे की लाश निकली और बुद्ध ने पूछा, अब इसे क्या हो गया है? ये किस आदमी को बांध कर लिए जा रहे हैं?
सारथी ने कहा, यह बुढ़ापे के बाद की घटना है। यह आदमी मर गया।
और तब उसी लाश के पीछे एक संन्यासी--गैरिक वस्त्रों में! बुद्ध ने कहा, यह आदमी गैरिक वस्त्र क्यों पहने हुए है? इसके हाथ में भिक्षा का पात्र क्यों है? इस आदमी की हय शैली क्या है?
तो पता चला कि यह संन्यासी है। उसने सारे संसार को छोड़ दिया है। क्यों छोड़ दिया है? इसलिए कि जीवन में दुख है, बीमारी है, बुढ़ापा है, मृत्यु है। यह आदमी अमृत की तलाश में चला है।
बुद्ध ने कहा, लौटा लो; रथ को वापस लौटा लो। मैं बीमार हो गया। मैं बूढ़ा हो गया। मैं मर गया--यूं समझो। मुझे भी सत्य की तलाश करनी होगी।
वे महोत्सव में भाग लेने नहीं गए। लौट आए। और उसी रात उन्होंने गृह-त्याग कर दिया।
ये चार सत्य तुम्हें रोज दिखाई पड़ते हैं--बीमार भी दिखाई पड़ता है, तुम भी बीमार पड़ते हो। बूढ़ा भी दिखाई पड़ता है, तुम भी बूढ़े हो रहे हो। रोज हो रहे हो। प्रतिपल हो रहे हो।
जिसको तुम जन्मदिन कहते हो, वह जन्मदिन थोड़े ही है; मौत और करीब आ गई! उसको जन्मदिन कह रहे हो!
लोग जन्मदिन मनाते हैं! लेकिन मौत करीब आ रही है। एक साल और बीत गया। एक बरस और बीत गया। जिंदगी और छोटी हो गई। तुम सोचते हो, जिंदगी बड़ी हो रही है। जिंदगी छोटी हो रही है।
जन्मने के बाद आदमी मरता ही जाता है। पहले ही क्षण से मरना शुरू हो जाता है। यह मरने की प्रक्रिया सत्तर-अस्सी साल लेगी, यह और बात। धीरे-धीरे क्रमशः आदमी मरता जाता है।
लेकिन तुम देखकर भी कहां देखते हो। तुम बेहोश हो। इसलिए तुम सुखी हो। बुद्ध बहुत दुखी हो गए। मध्य में आ गए। मूढ़ न रहे। अभी परम ज्ञान नहीं हुआ है। मगर बीच की हालत आ गई। बहुत दुखी हो गए। तलाश में निकल गए।
जब आदमी बहुत दुखी होता है, तभी तलाश में निकलता है। मगर दुख को अनुभव करने के लिए भी बुद्धिमत्ता चाहिए। धन्यभागी हैं वे, जो दुख को अनुभव कर सकते हैं, क्योंकि जिन्होंने दुख को अनुभव किया, उन्होंने फिर दुख से मुक्त होने की चेष्टा भी की। करनी ही पड़ेगी।
बुद्ध छह वर्ष अथक तपश्चर्या किए, ध्यान किए। और एक दिन परम बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, तब महासुख के झरने फूटे। तब अमृत-रस बरसा। तब जीवन का राज खुला, रहस्य खुला। तब भीतर का सूरज उगा। ध्यान मिला, तो भीतर का धन मिला। समाधि मिली, तो सब समस्याओं का समाधान मिला। फिर कोई दुख न रहा। फिर कोई संताप न रहा।
यह सूत्र बिलकुल ठीक है--यश्च मूढ़तमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः।
बड़ा विरोधाभासी सूत्र है कि मूढ़ों की गति और परम बुद्धों की गति एक अर्थ में समान है। मूढ़ भी सुखी, बुद्ध भी सुखी। मगर उनका सुख बड़ा अलग-अलग। मूढ़ बेहोशी के कारण सुखी; बुद्ध होश के कारण सुखी। जमीन आसमान का भेद है।
ताबुभौ सुखमेघेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः। लेकिन जो बीच में हैं, मध्य में हैं, उनको बड़ा क्लेश है। लेकिन मध्य में आना ही होगा। पशुता छोड़नी होगी; मनुष्य होना होगा। मनुष्य ही होगा; मनुष्य मध्य में होगा। लेकिन उस दुख से गुजरे बिना कोई बुद्धत्व तक नहीं जा सकता। वह कीमत चुकानी पड़ती है। जो उस कीमत को चुकाने से बचेगा, वह पशुता के जगत में ही, मूढ़ता के जगत में ही उलझा रह जाता है।
और तुम यही कर रहे हो। अधिकतम लोग यही कर रहे हैं। किसी तरह अपने को भुलाए रखो; उलझाए रखो। जाल बुनते रहे उलझाव के। और कल पर टालते रहो--मनुष्य होने की संभावना को। कल मौत आएगी।
तुम बहुत बार जन्मे हो और बहुत बार ऐसे ही मर गए! अवसर तुमने कितना गंवाया है--हिसाब लगाना मुश्किल है! अब और न गंवाओ। यह कीमत चुका दो। यह दुख से थोड़ा गुजरना पड़ेगा। और जितने जल्दी चुका दो, उतना बेहतर है। यह दुख ही तपश्चर्या है। यह दुख ही साधना है। इस दुख की सीढ़ी से चढ़ कर ही कोई परम सुख को उपलब्ध हुआ है। और कोई उपाय नहीं है। बच कर नहीं जा सकते।
इसलिए शास्त्र कहते हैं कि देवता भी देवलोक से निर्वाण को नहीं पा सकते। पहले उन्हें मनुष्य होना पड़ेगा। मनुष्य हुए बिना कोई बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि मनुष्य चौरस्ता है।
देवता सुखी हैं। शराब पी रहे हैं। अप्सराओं को नचा रहे हैं। और उसी तरह के उपद्रव में लगे हैं, जिसमें तुम लगे हो। कुछ फर्क नहीं है! थोड़ा बड़े पैमाने पर हैं उनका जरा। उनकी उम्र लंबी होगी। उनकी देह सुंदर होगी। मगर सब यही जाल है, जो तुम्हारा है। यहीर् ईष्या। यही वैमनस्य।
तुमने कहानियां तो पढ़ी हैं कि इंद्र का सिंहासन बड़े जल्दी डोल जाता है। कोई तपश्चर्या करता है, इंद्र का सिंहासन डोला! घबड़ाहट चढ़ती है कि यह आदमी कहीं इंद्र न हो जाए! वही राजनीति, वही दांव-पेंच! और इंद्र करते क्या हैं? भेज देते हैं अप्सराओं को--मेनका को, उर्वशी को कि भ्रष्ट करो इस तपस्वी को। यह भ्रष्ट हो जाए, तो मैं निश्चिंत सोऊं। मगर क्या खाक निश्चिंत सो पाओगे! इतनी बड़ी पृथ्वी है, कोई न कोई तपश्चर्या करेगा, कोई न कोई ध्यान करेगा। नींद कहां?
देवता भी दुखी हैं, उतने ही जितने तुम। लेकिन न तुम्हें पता है, न उन्हें पता है। वे भी बेहोश हैं। इसलिए शास्त्र ठीक कहते हैं कि मनुष्य हुए बिना...। मनुष्य के चौराहे से तो गुजरना ही होगा। यह चौराहा है। यहां से पशु की तरफ रास्ता जाता है; यहां से मनुष्य की तरफ रास्ता जाता है; यहां से देवत्व की तरफ से रास्ता जाता है; और यहां से बुद्धत्व की तरफ भी रास्ता जाता है।
मनुष्य चौराहा है। चारों रास्ते यहां मिलते हैं। अगर तुम समझो, तो जीवन एक परम सौभाग्य है। अगर तुम जागो, तो मनुष्य होने से बुद्धत्व होने की तरफ मार्ग जा रहा है; तुम उसे चुन सकते हो।
लेकिन लोग शराब पीएंगे! अगर दुखी होंगे, तो शराब पीएंगे। क्यों आदमी शराब पीता है दुखी होता है तो? भुलाने के लिए। पशु हो जाएगा शराब पीकर।
जो समझदार है, वह ध्यान करता है। यह ध्यान की शराब पीता है। वह समाधि की तरफ बढ़ता है। वह कहता है, ऐसे भुलाने से क्या होगा! भुलाने से दुख मिटता तो नहीं। फिर कल सुबह होश आएगा। फिर दुख वहीं के वहीं पाओगे। और बड़ा हो जाएगा।
रात भर में दुख भी बड़ा हो रहा है। जब तुम सो रहे हो, तब दुख भी बड़ा हो रहा है। सुबह चिंताओं के जाल और खड़े हो जाएंगे। कल जब तुमने शराब पी थी, जितनी चिंताएं थीं, सुबह पाओगे--और ज्यादा हो गईं, क्योंकि शराब पीकर भी तुम कुछ उपद्रव करोगे न! किसी को गाली दोगे, किसी को मारोगे, किसी के घर में घुस जाओगे। किसी की स्त्री को पकड़ लोगे। कुछ न कुछ उपद्रव करोगे! सुबह तुम पाओगे--और झंझटें हो गईं!
हो सकता है सुबह हवालात में पाओ अपने को; कि किसी नाली में पड़ा हुआ पाओ। कुत्ता मुंह चाट रहा हो! कि जीवन-जल छिड़का रहा हो। और झंझटें हो गईं! सुबह घर पहुंचोगे, तो पत्नी खड़ी है--मूसल लिए हुए! इससे निपटो! दफ्तर जाओगे, वहां झंझटें खड़ी होंगी। हजार भूल-चूकें होंगी। क्योंकि नशा सरकते-सरकते उतरता है। थोड़ी-सी छाया बनी ही रहती है। कुछ का कुछ हो जाएगा। कुछ का कुछ बोल जाओगे। कुछ का कुछ कर गुजरोगे। और चिंताएं बढ़ जाएंगी और दुख बढ़ जाएंगे। कल मुश्किल थी...। और हो सकता है कि जेब ही कट जाए! बीमारियां थीं और बीमार हो जाओगे!
जिंदगी वैसे ही उलझी हुई थी, शराब से सुलझ नहीं जाएगी। गालियां दे दोगे। झगड़े कर लोगे। कुट जाओगे, पिट जाओगे। किसी को पीट दोगे, छुरा मार दोगे--पता नहीं बेहोशी में क्या कर गुजरोगे! इतना तय है कि चिंताएं कम नहीं होंगी; बढ़ जाएंगी। संताप गहन हो जाएगा। फिर और शराब पीना--इसको भुलाने के लिए! अब तुम पड़े दुष्ट-चक्र में।
एक ही उपाय है--जागो, होश से भरो।
अगर दुख हैं, तो उनका भी उपयोग करो। दुख का एक ही उपयोग किया जा सकता है--और वह यह है कि साक्षी बनो। और जितना साक्षी-भाव बढ़ेगा, उतना दुख क्षीण होता जाएगा। इधर भीतर साक्षी जगा कि रोशनी हुई, दुख कटा, अंधेरा कटा।
जिस दिन तुम परम साक्षी हो जाओगे, द्रष्टा मात्र, उस दिन जीवन में कोई दुख नहीं। उस दिन जीवन परमात्मा है।

दूसरा प्रश्न: भगवान, आपने पिंकी को उत्तर दिया। उसके बाद मेरी मां ने पिंकी के दोनों हाथ पकड़ कर कहा, तूने क्यों प्रश्न भेजा? अब तो यह बात रिकार्ड हो गई; सबको पता चल गया! प्रश्न पूछने से पहले हमसे क्यों नहीं पूछा? यह कहकर उसने पिंकी के दोनों हाथ अपनी गर्दन पर रख लिए और कहा कि मेरी गर्दन दबा दे; मार डाल! पिंकी ने कहा, अगर मैं आपसे पूछती, तो आप मुझे प्रश्न पूछने भी नहीं देतीं!

संत महाराज!
इस तरह का मोह ही तो सारे संसार में छाया हुआ है। मां सोचती होगी कि पिंकी को प्रेम करती है बहुत। वह तो सोचती होगी कि अच्छी भावना से ही वह पिंकी को रोक रही है। लेकिन अज्ञान में अच्छी भावनाएं संभव नहीं हैं। अंग्रेजी में कहावत है कि नर्क का रास्ता शुभाकांक्षाओं से पटा पड़ा है!
हम अपनी बेहोशी में अच्छा भी करने जाते हैं, तो बुरा ही होता है--अच्छा नहीं होता। और हम सब बेहोश हैं। तुम्हारी मां बेहोश है। उसने अच्छे के लिए किया होगा कि यह तूने क्या उपद्रव कर दिया! और सबके सामने प्रश्न पूछ कर बदनामी करवा दी! अब लड़का खोजना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि लड़का कहेगा, इस लड़की को तो शादी करनी नहीं है, तो क्यों झंझट में पडूं! अब तो पता चल जाएगा।
यह बात तुम्हारी मां के अमृतसर पहुंचने के पहले अमृतसर पहुंच जाएगी, क्योंकि अमृतसर में तो मेरा प्रवचन रोज सुनने के लिए लोग इकट्ठे होते हैं। आज यहां बोलता हूं, कल वहां सुनने वाले तैयार हैं। यह रेकार्ड तो वहां पहुंचेगा, इसलिए मां डरी होगी कि बात रेकार्ड हो गई। यह पूरे देश में सुनी जाएगी। लड़का कहीं तो खोजने जाओगे, वहीं यह बात सुनी जाएगी। तो उसको बेचारी को पीड़ा हुई होगी कि यह मुश्किल खड़ी कर दी इसने। पूछा क्यों नहीं मुझसे पहले!
अब पिंकी भी ठीक कहती है कि अगर मैं आपसे पूछती, तो आप मुझे प्रश्न पूछने ही न देतीं। उसकी भी मजबूरी है। इतनी स्वतंत्रता ही कहां देते हैं हम बच्चों को कि वे हमसे ईमानदार व्यवहार कर सकें। हम बड़े अजीब लोग हैं! हम चाहते हैं--बच्चे सब कुछ हमसे पूछ कर करें। बुरी चाह नहीं है। लेकिन जब पूछते हैं, तब हम उन्हें करने नहीं देते। तो हम विरोधाभास खड़ा कर रहे हैं।
बच्चे छोटी-छोटी बातें पूछते हैं, तो भी नहीं करने देते! छोटा-सा बच्चा मां से कहता है, मैं बाहर जरा खेल आऊं? नहीं। नहीं तो हमारी जबान पर रखा है। नहीं का मजा है एक। नहीं में ताकत मालूम पड़ती है, कि देखो, किसका बल है।
नहीं हमसे एकदम निकलता है। हां बड़ी मुश्किल से निकलता है--उन बातों में भी जिनमें हां निकलना ही चाहिए! अब बच्चे को बाहर खेलना है--सूरज की रोशनी में, हवा में, वृक्षों के तले। नहीं कहने की क्या जरूरत है! लेकिन मां अपने नहीं के लिए भी तर्क खोजती है--कि कहीं गिर पड़े! झाड़ पर चढ़ जाए! कुछ चोट खा जाए! ये सब बहाने खोज रही है वह।
नहीं का मजा और है। मजा यह है कि कौन ताकतवर है! मेरी चलती है यहां। लेकिन बच्चे भी इतनी आसानी से तो नहीं छोड़ देंगे। वह बच्चा शोरगुल मचाएगा। पैर पटकेगा। चीजें तोड़ेगा। किताब फाड़ देगा। आखिर में घबड़ा कर मां कहेगी कि जा बाहर खेल! यही बात बेचारा वह पहले से पूछ रहा था। मगर सीधे अंगुली घी निकलता नहीं!
तो हम छोटे-छोटे बच्चों को राजनीति सिखा देते हैं। बच्चा पूछेगा कि मित्र के घर चला जाऊं? नहीं! तो फिर वह उपद्रव खड़े करेगा। फिर वह मौके की तलाश में रहेगा। घर में मेहमान जाएंगे, तब वह भारी उपद्रव मचा देगा। और मेहमान आने के पहले मां समझाएगी कि घर में मेहमान आ रहे हैं, देख, उपद्रव मत मचाना। मगर वही अवसर है उसके लिए निकल भागने का--कि घर में जब मेहमान आए, तो वह इतना उपद्रव मचा दे कि मां को कहना ही पड़े कि जा, पड़ोस में किसी के घर में खेल। हाथ जोड़ती हूं--अभी तू यहां से जा! यह बेचारा वह पहले ही से कह रहा था। मगर पहले जाने न दिया। पहले नहीं का मजा लिया! तो बच्चा भी मजा चखाएगा!
बच्चे भी समझ जाते हैं धीरे-धीरे कि तुम्हारी सहने की सामर्थ्य कितनी है। हर बच्चे को पता है कि मां कितनी दूर तक बर्दाश्त कर सकती है। पिता कितनी दूर तक बर्दाश्त कर सकता है। वह वहीं तक खींचेगा। खींचता जाएगा। एक बर्दाश्त की सीमा आ जाती है। तुम्हें खुद ही कहना पड़ेगा कि बाबा, हाथ जोड़े। जा, जो करना हो कर!
मैं बचपन में बड़े बाल रखता था। मुझे बहुत शौक था बड़े बाल का। इतने बड़े बाल कि मेरे पिता को अड़चन होत थी। स्वभावतः होती थी। मैं उनकी अड़चन भी समझता था। मगर मुझे बड़े बाल पसंद थे। अब उनकी अड़चन देखूं कि अपनी पसंद देखूं!
उनकी अड़चन यह थी कि घर में और तो कोई खास जगह थी न, तो उनकी दुकान पर ही मैं बैठा रहता था। उनके ग्राहक आते, वे पूछते, यह लड़की किसकी है? इससे उनको बड़ी अड़चन होती थी, कि लड़का है--और जो देखो, वही कहता है कि लड़की किसकी!
तो वे मुझसे कहते कि तू बाल कटवा ले। एक दिन बहुत गुस्से में आ गए। जिंदगी में एक ही दफा उन्होंने मुझे चांटा मारा। और चांटा मार दिया कि दिन भर की झंझट! किस-किस को समझाऊं कि लड़का है--लड़की नहीं! और जो देखो, वही तुझे लड़की समझता है। ये बालों की वजह से तेरी झंझट नहीं, हमारी झंझट हुई जा रही है!
तो मैंने कहा कि तुम्हें क्या दिक्कत है! लड़की ही सही। मुझे कोई दिक्कत नहीं है। मुझे बड़े बाल पसंद हैं। और लड़की कहते हैं, तो लड़की ही सही। कोई लड़की मैं हुआ नहीं जा रहा हूं उनके कहने से। तुम्हें इतनी क्या परेशानी है मगर! उन्हें परेशानी थी इसकी। लड़के की बात ही और होती है। लड़की की कोई गिनती है? अरे, लड़का होता है, तो लोग बैंड-बाजे बजाते हैं। लड़की होती है--मातम छा जाता है! एकदम उदासी छा जाती है--कि लड़की हो गई! भाग्य फूट गए।
उन्होंने मुझे चांटा मार दिया कि बाल कटाने ही पड़ेंगे। मैंने कहा, ठीक है।
मैं जाकर सिर घुटा आया। करना क्या!
अब एक दूसरी मुसीबत शुरू हो गई। क्योंकि मेरे उस इलाके में बच्चों के सिर तभी घोंटे जाते हैं, जब बाप की मृत्यु हो जाए। सो लोग पूछने लगे, इस बच्चे का बाप मर गया! क्या हुआ? अब वे उन्हीं से पूछें!
उन्होंने कहा, तूने और मेरी मुसीबत कर दी। बाबा तू अपने बाल ही बढ़ा ले! लड़की कम से कम था, ठीक था। इसमें हम तो कम से कम जिंदा थे। अब जो देखो वही पूछता है कि इस लड़के का बाप मर गया बेचारे का--क्या हो गया! अनाथ हो गया अभी से। भोला-भाला छोटा-सा लड़का! इसके बाप का क्या हुआ!
तो उनको समझाना पड़े कि मैं जिंदा हूं! तो वे कहें, इसके बाल कैसे कट गए?
तो अब यह और एक लंबी कथा हो गई। बताना पड़े पूरी कथा कि मामला यह है। पहले तो इतना ही था कि बता देते थे कि लड़का है भई; बाल बड़े हैं। अब यह सारी पूरी कथा बतानी पड़े कि मैंने इसको चांटा मार दिया; इसने बाल पूरे कटवा आया।
नाई भी कोई काटने को राजी नहीं था, क्योंकि नाइयों की दुकान--छोटा गांव--मेरी दुकान के समाने ही सारे नाइयों की दुकान! इस नाई के पास गया, उस नाई के पास गया! कोई नाई काटने को राजी नहीं। मगर एक अफीमची नाई था--नत्थू नाई। वह किसी के भी काट दे। तुम दाढ़ी कटवाने जाओ, वह बाल काट दे। तुम बाल कटवाने जाओ, वह दाढ़ी काट दे!
जब मैं उसके पास गया, उसने कुछ पूछा ही नहीं। उसने जल्दी से कपड़ा बांधा और सिर घोंट दिया! बाद में पूछा कि क्या तेरे पिता चल बसे? मैंने कहा, नहीं, कोई चल बसा नहीं। तो उसने कहा, तूने मुझे झंझट में डाला। पहले क्यों नहीं बताया! मैंने कहा, तुम पहले पूछते।
उसने कहा कि दुनिया जानती है कि मैं अफीमची हूं। मैं अपनी पीनक में रहता हूं। यह तो जब मैंने तेरा सिर घोंट दिया, तब मुझे खयाल आया कि यह है कौन! बात क्या है? अब तू अपने पिता को मेरा नाम मत बताना। इतना हाथ जोड़ता हूं। पैसे वगैरह मुझे चाहिए नहीं। बस, नाम भर मेरा मत बताना। नहीं तो मुझसे झंझट होगी--कि तुमने क्यों इसके बाल काटे?
वे जरूर पीनक में रहते थे। उनके पास कटवाने ही लोग जाते थे, जिनको पैसे वगैरह नहीं देने हों, वे ही उनके पास बाल कटवाने जाते थे।
कभी किसी के आधे बाल काट दें वे--और चले गए! दो घंटे नदारद! वह बैठा ही है आदमी। वे दो घंटे बाद लौटे कि भूल ही गए!
मैंने उनसे कहा कि अगर आप इस तरह मेरे साथ व्यवहार करेंगे, तो फिर मैं भी इसी तरह व्यवहार करूंगा। मैंने कहा, यह झंझट ही मिटाओ। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! अरे, जब बाल बड़े होने से लड़की होने की झंझट है, तो बाल खतम ही कर दो।
बस, उन्होंने फिर कभी मुझे चाटा नहीं मारा। मारा ही नहीं फिर। फिर मुझसे उन्होंने कभी कोई झंझट नहीं की। जो मैं कहूं, हां भर देते थे कि जा, जो तुझे ठीक लगे--कर।
लेकिन अड़चन यह है कि नहीं कहने में एक मजा होता है। अहंकार का मजा!
अब पिंकी की मां कहती है कि मुझसे क्यों नहीं पूछा?
पूछे क्या बेचारी! जानती है जिंदगी भर से कि पूछने से तो हां होने वाला नहीं था। और अगर हां कहना ही था उसके पूछने पर, तो फिर उसके पूछने में एतराज क्या है!
और इतनी स्वतंत्रता भी नहीं है कि कोई प्रश्न पूछ सके! यह कैसा प्रेम? यह प्रेम नहीं है, यह मोह है। यह झूठा प्रेम है।
उसने कुछ गलत बात तो न पूछी थी। हृदय का भाव पूछा था। उसने पूछा था, आपके संन्यासियों में कैसे खो जाऊं? यह रंग मुझ पर भी कैसे छा जाए?
क्या बुरा था! कुछ बुरी बात तो न पूछी थी। कुछ चोर न होना चाहा था। कोई डाका न डालना चाहा था। लेकिन बड़ी अड़चन है।
संन्यास से लोग ज्यादा डरते हैं। लड़का शराबी हो जाए--चलेगा। जुआरी हो जाए--चलेगा। वेश्यागामी हो जाए--चलेगा। संन्यासी भर न हो! संसार में सब चलेगा; संन्यासी भर न हो!
संन्यास से हम ऐसे घबड़ा गए हैं! क्योंकि संन्यास का अर्थ होता है कि यह हम से आगे जाने लगा! हम से ऊपर जाने लगा! जो हम न कर पाए, वह यह करने लगा! इससे अहंकार को बड़ी चोट पड़ती है।
पति शराबी हो, जुआरी हो--पत्नी बर्दाश्त कर लेगी। सच तो यह है कि पत्नियों को मजा आएगा--पति अगर शराबी हो, जुआरी हो। क्यों? क्योंकि पत्नी ऊपर हो जाएगी। पति जब भी आएगा घर में दुम दबा कर आएगा। और पत्नी जब देखो, उसकी छाती पर चढ़ी रहेगी कि देखो, तुम शराब पीना बंद करो। कि देखो, तुम जुआ खेलना बंद करो। कि यह बात गलत है, जो तुम कर रहे हो! इसमें पत्नी धार्मिक हो जाती है, नैतिक हो जाती है। और पति बेचारा एकदम पशु की गति में हो जाता है! स्वभावतः मजा आता है अहंकार को।
पति अगर संन्यस्त हो जाए, तो पत्नी के अहंकार को चोट लगती है--भारी चोट लगती है। उसका मतलब यह है कि तुम मुझसे आगे जाने की हिम्मत कर रहे हो! पत्नी संन्यस्त हो जाए, तो पति को चोट लगती है कि यह मुझसे ऊपर उठी जा रही है!
हम बुरे आदमी को बर्दाश्त कर लेते हैं; अच्छे आदमी को बर्दाश्त करना और क्षमा करना बहुत कठिन है।
अब पिंकी ने कुछ गलत बात तो नहीं पूछी थी। कुछ पाप तो नहीं किया था। और अगर उसने अपने हृदय का सच्चा-सच्चा भाव कहा, तो उचित है कि कह ही देना चाहिए। अगर उसे विवाह नहीं करना है, तो तुम जबर्दस्ती उस पर विवाह थोप दोगे, तो जिंदगी भर तुम्हें कोसेगी। जिंदगी भर पीड़ित रहेगी। हालांकि तुम उसके भले के लिए ही कर रहे हो। मगर भला होगा नहीं। तुम्हारी भली आकांक्षा अनिवार्य नहीं है कि भलापन लाए। तुम अगर जबर्दस्ती उस पर विवाह थोप दो, तो वह जिंदगी भर दुखी रहेगी, और तुम्हें कभी क्षमा न कर पाएगी। मौका दो--प्रत्येक व्यक्ति को हक दो जीने का।
और कोई छोटी नहीं है वह। कोई बच्ची नहीं है। सोच सकती है। विचार सकती है। मेरा तो खयाल था सत्रह अट्ठारह साल की होगी। लेकिन चौबीस साल की है, सत्रह अट्ठारह साल की नहीं। सरल है, इसलिए मुझे लगा कि उम्र कम होगी। चौबीस साल की है। अब चौबीस साल! करीब-करीब जिंदगी का एक तिहाई हिस्सा जी चुकी। अगर पचहत्तर साल की उम्र हो, तो पच्चीस साल एक तिहाई हिस्सा हो गया।
कब तुम उसे मौका दोगे कि कम से कम अपना प्रश्न पूछ सके, अपना भाव प्रकट कर सके! समझने की चेष्टा कर सके! इतनी भी आजादी अगर प्रेम न दे, तो यह कैसा प्रेम है!
तुमने पूछा है संत कि आपने पिंकी को उत्तर दिया। उसके बाद मेरी मां ने पिंकी के दोनों हाथ पकड़ कर कहा--तूने क्यों प्रश्न भेजा? अब तो यह बात रिकार्ड हो गई। सब को पता चल गया। प्रश्न पूछने से पहले हम से क्या नहीं पूछा?
क्यों पूछे तुमसे? आत्मा उसके भीतर भी है। हृदय उसका भी अपना है। तुमने उसके शरीर को जन्म दिया, इसका यह अर्थ नहीं कि तुम उसकी आत्मा के मालिक हो गए! बच्चों को जन्म दो, लेकिन बच्चे तुम्हारे नहीं हैं; परमात्मा के हैं। इसे कभी भूल मत जाना। बच्चों को प्रेम दो, लेकिन प्रेम बंधन नहीं है; प्रेम स्वतंत्रता देता है।
बच्चों को सम्मान भी दो, अगर चाहते हो कि वे तुम्हें सम्मान दें। लेकिन इस देश में तो बड़ी उलटी धारा है। इस देश में कोई सोचता ही नहीं कि बच्चों का भी कोई सम्मान है। फिर ये बच्चे बड़े होकर बूढ़े मां-बाप को अगर सताते हैं, तो क्या गलत करते हैं! ये उत्तर दे रहे हैं। जो तुमने इनके साथ किया, वही ये तुम्हारे साथ कर रहे हैं। जब ये कमजोर थे, छोटे थे, बच्चे थे, तुमने इन्हें सताया। अब ये बड़े हो गए, तुम बूढ़े हो गए, तुम कमजोर हो गए, अब ये तुम्हें सताएंगे। वही गणित है। जो कमजोर है, वह सताया जाएगा। ताकतवर उसे सताएगा।
फिर मां-बाप रोते हैं कि बेटे सता रहे हैं। बेटियां सता रही हैं। बहुएं सता रही हैं। हमारी सुनते नहीं हैं! हमें बिलकुल यूं कर दिया है एक किनारे, जैसे हम हैं ही नहीं! लेकिन तुमने इनके साथ क्या किया था, जब ये छोटे-छोटे बच्चे थे, जब इनकी कोई ताकत न थी, जब ये असहाय थे, जब ये तुम्हारे ऊपर निर्भर थे, तब तुमने इन्हें प्रश्न भी न पूछने दिया। तब इन्हें तुमने इतनी भी स्वतंत्रता न दी कि अपने मन की बात कह सकें! तो फिर स्वभावतः ये तुम्हें भी इसका बदला चुकाएंगे। और फिर कष्ट होता है।
बच्चों को सम्मान दो, अगर चाहते हो कि बच्चे भी तुम्हें सम्मान दें। सम्मान के उत्तर में ही सम्मान मिल सकता है। लेकिन हर मां-बाप बुढ़ापे में दुखी होते हैं कि बच्चे फिक्र नहीं करते! तुमने जिस ढंग से इनकी फिक्र की थी, उसने सब जहर कर दिया; उसने बात ही खराब कर दी।
लेकिन मनुष्य जाति जब तक ऐसे ही जीती आई है। इसी गलत रवैये से। यह हमारे खून-हड्डी-मांस-मज्जा का हिस्सा हो गया है--यह गलत रवैया।
और यह कह कर पिंकी की मां ने पिंकी के दोनों हाथ अपनी गर्दन पर रख दिए और कहा, मेरी गर्दन दबा दे; मार डाल! यह भी कोई बात हुई! और कौन इतनी जल्दी मरता है!
संत संन्यासी हो गए, तब मां नहीं मरी। कोई मरता है ऐसे! मेरे डेढ़ लाख संन्यासी हैं। एक मां नहीं मरी! एक बाप नहीं मरा! और हालांकि सब यही कहते हैं कि मर जाएंगे! ये धमकियां झूठी हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है। मगर धमकियों से तुम दबा लोगे, तो यह गलत व्यवहार है, अमानवीय व्यवहार है। कौन मरता है! संन्यास की तो बात छोड़ो, अगर बेटी मर भी जाए, कोई मां मरती है?
तुमने सुना कभी कि बेटी मर गई, और मां ने आत्महत्या कर ली हो बेटी के मरने से? सच तो यह है, मां कहेगी, चलो, झंझट छूटी! कहां खोजते लड़का? कहां से दहेज लाते? क्या करते? चलो, झंझट मिटी। कहे न ऊपर से, मगर भीतर जानेगी कि चलो, एक झंझट मिटी।
लड़का मर जाए, तो कौन मरता है! मरने से भी कोई नहीं मरता। और इसने प्रश्न ही पूछ लिया, इसमें गर्दन दबाने की बात आ गई! मगर ये धमकियां हैं।
हम छोटे बच्चों को बहुत धमकाते हैं। यह व्यवहार उचित नहीं। यह व्यवहार बिलकुल ही गलत है। यह हिंसा है। और स्वभावतः इस हिंसा का उत्तर क्या होगा! लड़की के हृदय में क्या भाव उठेगा तुम्हारे प्रति? सम्मान उठेगा? मां के प्रति आदर का भाव पैदा होगा--कि दुश्मनी पैदा होगी?
सोचो जरा। देखो जरा। इसका परिणाम क्या होगा? पिंकी समझेगी कि तुम उसे प्रेम करती हो? समझेगी कि तुम्हारा जरा भी प्रेम नहीं है। धमकी में कहीं प्रेम हो सकता है? भय पैदा हो जाता है। मगर हमारे ये तर्क रहे अब तक।
बाबा तुलसीदास कह गए हैं--भय बिनु होय न प्रीति--भय के बिना प्रीति नहीं होती! यह वचन काफी है सिद्ध करने को कि तुलसीदास को कोई जीवन का अनुभव नहीं है। महाकवि थे, लेकिन कोई बुद्धपुरुष नहीं।
भय से कहीं प्रीति पैदा होती है? असंभव। यह तो जहर से अमृत पैदा करने की बात हो गई! भय से तो अप्रीति पैदा होती है, घृणा पैदा होती है। जिसको भी तुम भयभीत करोगे, वह तुम्हारे प्रति घृणा से भर जाएगा। कहे, न कहे; आज न कहे, तो कल कहेगा। ऐसे नहीं कहे, तो वैसे कहेगा। कोई न कोई तरकीब निकालेगा। और नहीं भी तरकीब निकली, तो भी उसके भीतर तो तुम्हारे प्रति घृणा भर जाएगी।
पिंकी से क्षमा मांगना। यह बात तो गलत है। मगर यही फैलती जाती है। हमारी जिंदगी का तर्क हो गया है। ये बेहोशी में ही करते हैं हम। यह मां ने कुछ जानबूझ कर नहीं किया। यह हमारा हिसाब बैठ गया है कि इस तरह से काम होता है। दबा दो! मगर अपने बच्चों को दबाना, तो फिर किसको तुम प्रेम करोगी? किसको सम्मान दोगी?
अब मैं संत के पिता को देखता हूं, उनकी आंखों को देखता हूं। उनकी गीली आंखों को देखता हूं। और मैं जानता हूं कि वे संन्यास में डूब सकते हैं। लेकिन यह पिंकी की मां! जब पिंकी को स्वतंत्रता नहीं दे रही--और पिंकी से कह रही है--मेरी गर्दन दबा दो--तो यह पति को स्वतंत्रता देगी! असंभव। यह तो बहुत तूफान मचा देगी। बड़ा उपद्रव हो जाएगा। अभी पिंकी तो नई-नई है जगत में, इसलिए पूछ गई। पिता तो बेचारे पूछेंगे भी नहीं, कि कौन झंझट मोल ले! अब इतनी गुजार दी है--और गुजार देंगे! अब बहुत हो गई, थोड़ी बची है।
मगर ये भय के नाते, नाते नहीं हैं--जंगल हैं। प्रेम भय नहीं देता, अभय देता है। प्रेम कहता है--पूछो। जानो। खोजो। जीयो अपने ढंग से। तुम्हें जो सुंदर और सुखद लगे, हमारा उसमें साथ है। हम पर भरोसा रखो कि हम तुम्हारे पीछे हैं। हम तुम्हें साथ देंगे। तुम्हें अपनी जिंदगी अपने ढंग से बनाने का हक है। हमने अपने ढंग से बनाई जिंदगी; तुम्हें अपने ढंग से बनाने का हक है।
किसी बच्चे पर आरोपण न करो। यह दुनिया बड़ी सुंदर हो सकती है; इसमें बहुत फूल खिल सकते हैं; इसमें हर बच्चा बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकता है। हर बच्चा इतनी क्षमता लेकर पैदा होता है। लेकिन हम उसकी क्षमता को काटते जाते हैं। और कैसे-कैसे ढंग से काटते हैं!
अब पिंकी को हमने अपराध भाव पैदा करवा दिया। अब मां ने उसे इतना डरा दिया कि वह सोचेगी कि यह बात ही पूछ कर उसने पाप किया! नहीं पूछना था। क्यों मां को दुखी कर दिया--और इतना दुखी कि मां आत्महत्या करने को उतारू हो रही है--कि मेरी गर्दन दबा दो! हालांकि यह सब बकवास है। कोई न गर्दन दबाता है। न कोई मरता है।
लेकिन बच्चे इतने से डर जाएंगे, घबड़ा जाएंगे। स्वभावतः अपनी मां को कौन मारना चाहता है! और मां को कौन दुखी करना चाहता है! तो इस भय में पिंकी राजी हो जाएगी। तुम जैसा कहोगे, वैसा ही करेगी। लेकिन तुम इसकी जिंदगी भर को विकृत कर दोगी।
मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा डाक्टर जिसकी सर्जरी सारे जगत में विख्यात थी, जब पचहत्तर वर्ष का हुआ और रिटायर होने लगा, क्योंकि अब उसके हाथ थोड़े-थोड़े कंपने लगे थे। और सर्जन के हाथ नहीं कंपने चाहिए। तो उसके सारे शिष्यों ने...उसके बहुत से विद्यार्थी थे। वे खुद भी बहुत प्रख्यात डाक्टर थे--उन सब ने एक समारोह किया।
करीब-करीब अंतर्राष्ट्रीय समारोह था। क्योंकि सारी दुनिया में उसके शिष्य थे। सब इकट्ठे हुए। उन्होंने उत्सव मनाया--नाच-गाना हुआ। शराब बही। भोजन! लेकिन देख कर सब हैरान हुए कि वह वृद्ध डाक्टर बड़ा उदास है! उसके एक विद्यार्थी ने पूछा, जो अब खुद बड़ा डाक्टर हो गया था, कि आप इतने उदास क्यों हैं? हम तो समारोह मना रहे हैं आपके सम्मान में। आपका विदा समारोह! और आप उदास?
उसने कहा, मैं उदास इसलिए हूं कि मैं कभी डाक्टर होना ही नहीं चाहता था। मैं तो चाहता था नर्तक होना। लेकिन मेरे मां-बाप ने मुझे जबर्दस्ती मेडिकल कालेज में भर्ती करवा दिया--मेरी इच्छा के खिलाई। मेरी जिंदगी बेकार गई।
चकित हुए उसके विद्यार्थी। उन्होंने कहा, आप क्या कहते हैं! इतने ख्याति प्राप्त आप हैं! आपकी जिंदगी बेकार गई!
उसने कहा, ख्याति का क्या करूं? नाम का क्या करूं? जो मैं होना ही नहीं चाहता था, वह हो कर मैं क्या करूं? मैं जगत विख्यात चिकित्सक होने की बजाय बिलकुल अज्ञात-नाम नर्तक होना पसंद करता। वह मेरे हृदय का भाव होता। वह मेरी आत्मा की अभिव्यक्ति होती। न कोई मेरी नृत्य देखता--कोई चिंता नहीं। मगर मेरे फूल तो खिलते। मैं खिला ही नहीं। मैं एक उधार जिंदगी जीता रहा। मां-बाप तो कब के मर चुके, मगर मुझे फंसा गए। फिर बात इतनी देर हो गई थी कि अब नर्तक तो हो नहीं सकता हूं। यह जिंदगी तो गई! अगर कोई अगली जिंदगी होगी, तो अब नहीं सुनूंगा।
तुम थोड़ा सोचो, अगर बुद्ध के मां-बाप ने बुद्ध को रोक लिया होता! पता नहीं चला उनको, नहीं तो रोकते ही। बुद्ध भी रात चुपचाप भाग गए थे। जानते थे कि अगर चुपचाप न गए, तो मुश्किल हो जाएगी।
यशोधरा को, अपनी पत्नी को भी कुछ नहीं कहा। गए थे उसके कमरे तक, द्वार तक। द्वार से झांक कर देखा था। क्योंकि नया-नया बेटा पैदा हुआ था। जाने के पहले एक दफा बेटे को देख लेना चाहते थे।
अपने बेटे को बुद्ध ने नाम दिया था--राहुल। राहुल बनता है राहु से! बुद्ध ने नाम राहुल इसीलिए दिया था कि वे संन्यासी की तैयारी कर रहे थे और बेटा पैदा हुआ! तो उन्होंने सोचा कि यह तो ऐसे है, जैसे कि चांद पर राहु लग जाए। अब यह बेटे का मोह मुझे कहीं रोक न ले! इससे अपने को सचेत रखने के लिए उसको राहुल नाम दिया था--कि यह कहीं बेटे का मोह मुझ पर राहु बन कर न छा जाए! कहीं मुझे ग्रहण न लग जाए!
जाते-जाते एक दफा देख लेना चाहते थे कि बेटे का चेहरा तो देख लूं--फिर दोबारा मौका मिले न मिले! मगर बेटा मां की छाती से लगा सोया था। उसका चेहरा नहीं देख पाए। और भीतर जाने की हिम्मत नहीं की कि अगर बेटे का चेहरा देखने की कोशिश की और अगर यशोधरा जाग गई, तो अड़चन हो जाएगी--कि आधी रात तुम कहां जा रहे हो? कहां की तैयारी है? रथ किसलिए तैयार है? तुमने ये वस्त्र घर से बाहर जाने के क्यों पहन रखे हैं? और आधी रात बेटे को देखने क्यों आए हो? सुबह क्यों नहीं आ सकते थे? कहीं कोई झंझट खड़ी न हो जाए! घर जाग न जाए! चुपचाप, बिना बेटे को देखे चले गए।
और बारह साल बाद जब बुद्धत्व को पा कर लौटे, तब भी बाप नाराज थे! पत्नी नाराज थी! बारह साल बाद यह बेटा एक जीता-जागता सूरज होकर लौटा था, लेकिन बाप को नहीं दिखाई पड़ रहा था। बाप तो एकदम गुस्से में थे। एकदम चिल्लाने लगे। नाराज होने लगे। मोह ऐसा है!
बुद्ध खड़े सुनते रहे। घड़ी भर सब सुना। और फिर अपने पिता को कहा कि एक बार मुझे गौर से तो देखें। मैं वही नहीं हूं, जो गया था। कोई और हूं। कुछ और होकर आया हूं। नया होकर आया हूं। कुछ संदेश ले कर आया हूं। कुछ सत्य ले कर आया हूं। कुछ पाया है, वह आपको भी देना चाहता हूं। इसीलिए आया हूं कि कहीं आपकी जिंदगी बेकार न चली जाए। मैंने तो उपलब्ध कर लिया। मैं तो भरा पूरा हो गया। आप अभी भी खाली हैं। इसलिए आया हूं। कहें तो लौट जाऊं। मगर एक बार मुझे आंख खोल कर तो देख लो। आंखों से आंसू हटाओ, क्रोध हटाओ, ताकि मुझे देख सको।
बुद्ध के बाप तो गुस्से में थे। और गुस्से में आ गए कि तू समझता क्या है! हमने ही तुझे पैदा किया; मेरा ही खून है तू, और मुझसे कहता है कि हमें गौर से देखो! क्या मैं तुझे पहचानता नहीं?
बुद्ध ने कहा, आप जरूर पहचानते हैं। लेकिन जिसे आप पहचानते थे, वह अब मैं रहा नहीं। मैं एक क्रांति से गुजर गया।
बाप ने कहा, जा जा। ये बातें किसी और को बताना! ये किन्हीं और को समझाना। तू वही है। मैं तेरे चेहरे को देख रहा हूं। बुद्ध ने कहा, चेहरा वही है, मैं वही नहीं हूं। और आपको मैं इतनी याद दिला दूं कि आप यह भ्रांति छोड़ दें कि मैं आपसे पैदा हुआ। आपसे गुजरा जरूर। आपसे आया जरूर। आप माध्यम थे। लेकिन आप मेरे मालिक नहीं हैं। आप मेरे स्रष्टा नहीं हैं। स्रष्टा तो कोई और! कोई परम अज्ञात शक्ति!
यह बात सुनकर बाप थोड़े चौंके। गौर से देखा! बात सच थी। चेहरा तो वही है, मगर आभा बदल गई है। संन्यस्त हुए।
शायद वह पहली घटना थी--बाप ने बेटे से संन्यास लिया। फिर बुद्ध यशोधरा के पास गए।
आनंद, उनका भिक्षु, उनका शिष्य सदा उनके साथ रहता था--छाया की तरह। बुद्ध ने उससे कहा, आनंद, तू थोड़ा पीछे छूट जा, क्योंकि अगर तू मौजूद रहेगा, तो यशोधरा बड़े कुलीन घर की लड़की है, तेरी मौजूदगी में वह कुछ भी न कहेगी। और बारह वर्षों से उसने कितना क्रोध कर रखा है इकट्ठा, वह मैं जानता हूं। उसका मोह बड़ा था। उतना ही क्रोध भी बड़ा होगा। वह आग में जल रही है बारह वर्षों से। किसी से कहा नहीं है। उसे कह लेने दे। निकल जाने दे। रेचन हो जाने दे। तू जरा पीछे छूट जा। अगर तू साथ ही खड़ा रहा, तो वह कुछ भी नहीं कहेगी। चुपचाप मेरे पैर छुएगी--और गटक जाएगी सारे क्रोध को। भद्र है। कुलीन है। राजघराने की है। यूं तेरे सामने बात कहेगी नहीं। मुंह नहीं उठाएगी घूंघट नहीं उठाएगी; बात कहने की तो बात और है। तू पीछे छूट जा। आनंद पीछे रह गया।
और सच आनंद चकित हुआ यह जान कर कि वह एकदम पागल की तरह टूट पड़ी बुद्ध पर। चीखी! चिल्लायी! रोई! नाराज हुई! और जो पिंकी की मां ने कहा पिंकी को कि तूने मुझसे पूछ कर क्यों नहीं पूछा! वही यशोधरा ने बुद्ध से कहा कि तुम मुझसे पूछ कर क्यों नहीं गए? मैं तुम्हारी पत्नी थी, मुझसे पूछने में क्या एतराज था? बुद्ध ने कहा, तू यह देख कि अगर मैं तुझसे पूछता--तू मुझे जाने देती? बारह वर्षों बाद भी इतनी क्रुद्ध हो रही है तू, उसी रात इतनी क्रुद्ध होती। इतना शोरगुल मचा देती--यही चीख-पुकार--कि सारा घर जाग जाता। पिता आ जाते। परिवार आ जाता। जाना मेरा मुश्किल हो जाता। क्षमा मांगता हूं--कि तुझसे बिना पूछे गया। लेकिन अब शांत हो और मैं तेरे लिए कुछ भेंट लाया हूं, वह स्वीकार कर। अगर घर में ही रह जाता, तो यह भेंट कभी ला नहीं सकता था। यह सत्य लाया हूं तुझे देने। यह आनंद लाया हूं तुझे देने। झोली फैला और मैं जो देने आया हूं, वह ले। खाली हाथ नहीं आया हूं। और अब मैं जो लाया हूं, अगर तू ले सकी, तो तू समझेगी कि मेरा जाना योग्य था।
और यशोधरा ने बाद में क्षमा मांगी। जब समझी--संन्यस्त हो गई। और उसने क्षमा मांगी कि मुझे माफ कर दो। मैंने अपने मोह में, अपने अज्ञान में जो बातें कहीं--एक बुद्धपुरुष से ऐसी बातें कहीं--मुझे क्षमा कर दो! भूल जाओ। विस्मरण कर दो।
बुद्ध ने कहा, मैंने उनको लिया ही नहीं। मैं तो तुझे अवसर दिया था, ताकि तेरा उभार निकल जाए, उफान निकल जाए, तो तू शांत हो सके। आया ही इसलिए, नहीं तो आता ही नहीं--कि जिनको मैंने चाहा है, उनको जब आनंद मुझे मिला है, तो बांटूं। पहले उन को बांटूं, फिर किसी और को बांटूं। तेरी सुध भूला नहीं हूं। तेरा अधिकार पहला है। लेकिन अगर तू कहती है कि पूछ कर जाना था, तो मैं कभी जा ही नहीं सकता था।
यह शाश्वत कथा है। यह सदा की बात है।
पिंकी की मां ने जो किया, वह कोई भी मां करती। हालांकि किसी भी मां को करना नहीं चाहिए। मूर्च्छा में, बेहोशी में!
लेकिन संत, चिंता न लो। जो भी होता है, अच्छा होता है। इससे पिंकी को भी समझ आएगी। पिंकी की मां को भी समझ में आएगी। तुम्हारे पिता को भी कुछ बात समझ में आएगी। कुछ इसमें चिंता लेने की बात नहीं है। यूं ही तो समझ आती है। कंटकाकीर्ण मार्ग है, इसी से चल कर तो मंजिल करीब आती है। हंगामा तो मचेगा...!
हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी-सी जो पी ली है।
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है।।
नात्तजुर्बा-कारी से, वाइज की ये बातें हैं।
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है?
पिंकी की मां भी क्या करे! उसने कभी यह रंग पीया नहीं। उसने कभी यह ढंग जाना नहीं। जो जाना है, जो भाषा उसने सीखी है--गृह की, परिवार की, गृहस्थी की--वही तो अपने बच्चों को सिखाएगी। और तो उपाय भी नहीं हैं!
हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी-सी जो पी ली है।
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है।।
नात्तजुर्बा-कारी से, वाइज की ये बातें हैं।
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है?
उस मय से नहीं मतलब, दिल जिससे है बैगाना।
मकसद है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है।।
वां दिल में, कि सदमे दो, यां जी में, कि सब सह लो।
उनका भी अजब दिल है, मेरा भी अजब जी है।।
हर जर्रा चमकता है, अनवारे-इलाही से।
हर सांस ये कहती है, हम हैं तो खुदा भी है।।
सूरज में लगे धब्बा, फितरत के करिश्मे हैं।
बुत हमको कहें काफिर, अल्लाह की मर्जी है।।
हंगामा है क्यों बरपा, थोड़ी-सी जो पी ली है।
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है।।
पिंकी ने कुछ बुरा तो नहीं किया। कोई डाका नहीं डाला। कोई चोरी नहीं की। थोड़ा अपना पात्र बढ़ाया, कि मैं भी पीऊं; कि मैं कैसे डूब जाऊं। उसके प्रश्न में उसने अपने पात्र को ही बढ़ाया था कि थोड़ा-सा मैं भी पी लूं। लेकिन मां का भी कोई कसूर नहीं।
नात्तजुर्बा-कारी से, वाइज की ये बातें हैं।
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है?
हम तो वही कह सकते हैं, जो हमने जाना है, जो हमने पहचाना है। संभव है इस बहाने, पिंकी के बहाने, उसको भी समझ आए। समझ तो सबको आ सकती है। समझ सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। मगर कोई जिद्द ही बांध कर बैठ जाए, तो बात अलग। अगर कोई अंधे होने की कसम ही खा ले, तो बात अलग। कोई अगर आंख बंद करने के लिए तय ही कर लिया हो, तो बात अलग। अन्यथा यहां तो बातें सीधी-साफ हैं।
किसी से मेरी मंजिल का पता पाया नहीं जाता।
जहां मैं हूं, फरिश्तों से वहां आया नहीं जाता।
मेरे टूटे हुए पाएत्तलब का, मुझ पे एहसां है।
तुम्हारे दर से उठ के अब कहीं जाया नहीं जाता।।
चमन तुमसे इबारत हैं, बहारें तुमसे जिंदा हैं।
तुम्हारे सामने फूलों से मुर्झाया नहीं जाता।।
हर इक दागेत्तमन्ना को कलेजे से लगाता हूं।
कि घर आई हुई दौलत को ठुकराया नहीं जाता।।
मोहब्बत के लिए कुछ खास दिल महसूस होते हैं।
ये वो नग्मा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता।।
यह तो प्रेम का एक अलग ही जगत है। संन्यास जीवन को जीने की एक अलग ही शैली है।
मोहब्बत के लिए कुछ खास दिल महसूस होते हैं।
ये वो नग्मा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता।।
तैयारी चाहिए साज की। साज को पहले बिठालना पड़ता है। तार कसने होते हैं। और जिंदगी सबके साजों को बिगाड़ जाती है। जिंदगी सब के साजों को गलत पाठ पढ़ा जाती है। या तो किसी के तार बहुत कस जाती है कि छुओ, तो टूट जाएं। या किसी के तार बहुत ढीले कर कर जाती है--कि लाख खींचते रहो, संगीत उठे न। लेकिन अगर यहां आ गए हैं तुम्हारे माता-पिता, तुम्हारी बहन किसी बहाने से, तो यूं ही नहीं लौट जाएंगे। चाहे लौट जाएं--मगर यूं ही नहीं लौट जाएंगे।
मेरे टूटे हुए पाएत्तलब का मुझपे अहसां है
तुम्हारे दर से उठ कर अब जाया नहीं जाता
बड़ी मुश्किल से जाना होगा। और जाएंगे, तो भी मैं पीछा करूंगा। मैं याद आता रहूंगा। पिंकी ने अच्छा किया कि पूछा। कुछ हर्जा नहीं कि मां खिन्न हुई, नाराज हुई। यह स्वाभाविक है। यह साधारण है। इसमें कुछ चिंता की बात नहीं। वह भी पछताएगी।
शायदर् ईष्या भी जगी हो। शायद सोचा हो कि पिंकी ने पूछा और मैंने नहीं पूछा! मैं ही पूछ लेती। इसने पात्र बढ़ा लिया और मैं अटकी ही रह गई! शायद उसीर् ईष्या में यह बात निकल आई हो। आदमी का मन बड़े उलझनों से भरा हुआ है, बड़े जालों से। उसे खुद भी पता नहीं होता कि किसलिए क्या बात हो जाती है। इतनी बेहोशी! इतनी गहन बेहोशी है!

तीसरा प्रश्न: भगवान, आप राजनेताओं का इतना मजाक क्यों उड़ाते हैं?

नरेंद्रनाथ!
राजनेता किसी और काम के हैं भी तो नहीं। करो भी तो क्या करो! मैंने कम से कम उनके लिए काम निकाल लिया! एक बहाना निकाल लिया! उनके होने के लिए भी एक सार्थकता खोज ली! नहीं तो यूं तो बिलकुल निकम्मे हैं। किसी मतलब के नहीं। किसी मकसद के नहीं। एकदम थोथे। चलो, मैंने कम से कम कुछ तो अर्थ दिया--उनके निरर्थ जीवन को। इसलिए मजाक उड़ाता हूं।
और इसलिए मजाक उड़ता हूं कि तुम कहीं राजनीति में न पड़ जाना। राजनीति प्रवंचना है।
राजनीति का अर्थ क्या होता है? राजनीति का अर्थ होता है--दूसरों पर कब्जा पाना। पति पत्नी पर कब्जा कर ले। पत्नी पति पर कब्जा कर ले। मां-बाप बच्चों पर कब्जा कर लें। यह सब राजनीति है।
राजनीति से तुम इतना ही मत समझना कि वे जो दिल्ली की तरफ जाते हैं, वे ही राजनेता हैं। जो भी दूसरे पर कब्जा करता है, वह राजनीति कर रहा है। छोटे पैमाने पर, बड़े पैमाने पर--यह बात और है। जिसकी जितनी हैसियत! मगर दूसरे पर कब्जा करने की कोशिश में राजनीति है। और अपने पर कब्जा करने की कोशिश में धर्म है।
अपनी मालकियत धर्म है--और दूसरे का मालिक होना अधर्म है। राजनीति अधर्म है। और अधर्म का मजाक न उड़ाओ, तो क्या करो!
मजाक उड़ाता हूं, क्योंकि ये अधर्म के जो गुब्बारे हैं, इनको अगर जरा सुई चुभा दो, उतने में ही फूट जाते हैं। मजाक ही काफी है। और बड़ी चोट करने की कोई जरूरत नहीं है।
एक नेता भाषण दे रहे थे: आप पिछली सारी बातों को भूल जाइए और नए सिरे से आगे बढ़िए। हमें अब देश को सुनहरे...।
उसी समय पीछे से आवाज आई, भैयाजी, पहले मेरे उधार के सारे रुपए वापस दे दीजिए, तब सब कुछ पुराने भुलाने की बात कीजिए। अभी नहीं। पुराना कैसे भूल जाऊं? पहले पैसे तो लौटा दो!
एक सभा में एक सज्जन अपनी पार्टी के नेता की प्रशंसा करते हुए कह रहे थे: वे सूरज हैं; हम उनकी किरणें हैं। वे समुद्र हैं; हम उनकी लहरें हैं। वे फूल हैं; हम उनकी खुशबू हैं। बीच में खड़े हो कर मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, वे कड़ाही हैं और तुम उनके चमचे हो! बाक सब बकवास है!
एक नेताजी ने एक बार अपनी पत्नी को अपने दोस्त मुल्ला नसरुद्दीन के साथ पलंग पर लेटे हुए रंगे-हाथों पकड़ लिया। दूसरी बार की बात है, नेताजी के छोटे बच्चे ने उन्हें खबर दी कि आपके मित्र नसरुद्दीन के साथ दोपहर को मम्मी बैठक रूम में सोफे पर सोई हुई थीं।
नेताजी को इस बात से काफी क्रोध आया। एक बार गलती माफ की जा सकती है, किंतु दुबारा नहीं। फिर भी वे किसी तरह संयम साध कर चुप रह गए।
फिर तीसरी बार ऐसा हुआ कि नेताजी के आफिस में हड़ताल हो जाने के कारण वे शाम को जल्दी घर लौट आए। घर में जो देखा, तो उनका गुस्सा आसमान पर चढ़ गया। किचन में डाइनिंग टेबिल पर नसरुद्दीन और उनकी पत्नी बिलकुल दिगंबर पड़े हुए थे।
नेताजी ने गरज कर कहा, बेशर्मी की भी हद्द होती है। आखिर में कहां तक बर्दाश्त करूं! आज कुछ निर्णय लेना ही पड़ेगा। पहले पलंग पर रासलीला होती थी। फिर सोफे पर। अब डाइनिंग टेबिल पर हो रही है! कुल-मर्यादा और संस्कृति नाम तो कोई चीज ही नहीं बची। तुम दोनों कान खोलकर अच्छी तरह से सुन लो। यह मेरा आखिरी फैसला है। चौबीस घंटे के अंदर ही मैं सारे उपद्रव की जड़ को ही समाप्त कर के दम लूंगा। ऐसा चिल्लाकर नेताजी गुस्से में भनभनाते हुए घर से निकल कर चले गए।
दूसरे दिन सुबह वापस आए। पता है उन्होंने क्या किया? घर के सभी पलंग, सोफे, टेबिलें, कुर्सियां तथा-अन्य फर्नीचर एक कबाड़ी को रास्ते दामों में बेच दिया। और तब चैन की सांस ली। ऐसे उन्होंने जड़ ही काट डाली। न पलंग, न सोफा, न टेबिल। अब करो रासलीला! नेताओं के अपने गणित हैं!
तुम्हें हो भाषण, तुम्हीं हो ताली, दया करो हे दयालु नेता
तुम्हीं हो बैंगन, तुम्हीं हो थाली, दया करो हे दयालु नेता
तुम्हें हो इंजन, तुम्हीं हो गाड़ी, रहे अनाड़ी के हम अनाड़ी
दिला दो टी.टी. से बर्थ खाली, दया करो, हे दयालु नेता
तुम्हीं पुलिस हो, तुम्हीं हो डाकू, तुम्हीं हो खंजर, तुम्हीं हो चाकू
तुम्हीं हो गोली, तुम्हीं दुनाली, दया करो, हे दयालु नेता
तुम्हीं हो चम्मच, तुम्हीं हो चीनी, तुम्हीं ने ओठों से चाय छीनी
पिला दो काफी की एक प्याली, दया करो हे दयालु नेता
तुम्हीं दल-बदलुओं के हो बप्पा, कभी भजन हो, कभी हो टप्पा
सकल भजन मंडली बुला ली, दया करो, हे दयालु नेता
तुम्हीं बाढ़ हो, तुम्हीं हो सूखा, मरे न क्यों फिर किसान भूखा
तुम्हीं हो ट्रैक्टर, तुम्हीं हो ट्राली, दया करो हे दयालु नेता
पिटे तो तुम हो, उदास हम हैं, तुम्हारी दाढ़ी के दास हम हैं
कभी रखा ली, कभी मुंडा ली, दया करो हे दयालु नेता
और इन नेताओं का करो भी क्या! उपयोग भी क्या है!
नेता जी के पास है
एक बड़ा कमाल
आश्वासन देने और उसे
पूरा न कर पाने के अफसोस के बीच
डालते हैं जेबों में नोट
निकालते हैं खाली रूमाल!
तुमने जादूगर बहुत देखे होंगे; वे खाली रूमाल डालते हैं और नोट निकाल दे हैं। नेता भी जादूगर है। नोट डालता है--खाली रूमाल निकाल देता है!
इन नेताओं से इतना पीड़ित है देश और यही देश नहीं--सारी दुनिया। मगर लोग इतने मूर्च्छित हैं कि उन्हें पता ही नहीं कि किस तरह उनकी जिंदगी को बर्बाद किया जा रहा है! कौन लूट रहा है? कौन उनके जीवन को नष्ट कर रहा है?
और मजा ऐसा है कि ये नेता सब सेवक हैं। ये नेता तुम्हारे ही हित के लिए चौबीस घंटे संलग्न हैं। और हित किसी का होता नहीं है! अहित ही अहित होता है। इतने हितेच्छू हैं। इतने हितैषी हैं। जगह-जगह, जहां देखो वहीं, गांधी टोपी लगाए हुए, शुद्ध खद्दर पहने हुए, नेतागण चले जा रहे हैं। और हित कहीं होता दिखाई पड़ता नहीं।
अगर दुनिया में थोड़ी समझदारी हो, तो राजनीति अपने आप कम हो जाए। अगर दुनिया में थोड़ा-सा ध्यान का विस्तार हो, तो तुम्हें नेताओं की जरूरत न रह जाए। तुम अंधे हो, इसलिए कोई नेता चाहिए। और नेता खुद ही अंधे हैं।
कबीर ने कहा है, अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पडंत! अंधे अंधों को मार्गदर्शन दे रहे हैं! खुद अंधे हैं और ठेल रहे हैं अंधों को--कि चले आओ। बढ़े चलो। आगे बढ़े चलो। और कुओं में गिराएंगे, खड्डों में गिराएंगे। खड्डों में गिरा ही दिया है जगह-जगह!
इनका मजाक न उड़ाओ, तो क्या करो! इनकी प्रशंसा करूं? इनके सम्मान में दो फूल चढ़ाऊं! उनकी कब्र पर चढ़ा दूंगा दो फूल। इनकी तुरबत को न तरसने दूंगा फूलों से।
मगर इन पर तो जितनी चोटें की जा सकें, करनी जरूर है। और मजाक इन पर चोट करने का एक सभ्य ढंग है। शिष्टाचार भी रह जाता है--चोट भी हो जाती है!

आज इतना ही।
सातवां प्रवचन; दिनांक १७ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना


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