शुक्रवार, 5 मई 2017

ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-08



ज्यूं था त्यूं ठहराया-(प्रश्नोत्तर)-ओशो

इक साधे सब सधै-(प्रवचन-आठवां)
आठवां प्रवचन; दिनांक १८ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, योगवासिष्ठ में यह श्लोक है:
न यथा यतने नित्यं यदभावयति यन्मयः।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति नान्यथा।।
मनुष्य नित्य जैसा यत्न करता है, तन्मय हो कर जैसी भावना करता है, और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है; अन्यथा नहीं।
भगवान, क्या ऐसा ही है?

सहजानंद!
ऐसा जरा भी नहीं है। यह सूत्र आत्मसम्मोहन का सूत्र है--आत्मजागरण का नहीं। कुछ होना नहीं है। जो तुम हो उसे आविष्कृत करना है। कोहिनूर को कोहिनूर नहीं होना है, सिर्फ उघड़ना है। कोहिनूर तो है। जौहरी की सारी चेष्टा कोहिनूर को निखारने की है--बनाने की नहीं। कोहिनूर पर परतें जम गई होंगी--मिट्टी की उन्हें धोना है। कोहिनूर को चमक देनी है, पहलू देने हैं।

जब कोहिनूर पाया गया था, तो आज जितना वजन है, उससे तीन गुना ज्यादा था। फिर उस पर पहलू देने में, काटने-छांटने में, जो व्यर्थ था उसे अलग करने में, और जो सार्थक था, उसे बचाने में, केवल एक तिहाई बचा है। लेकिन जब पाया गया था, उसका जो मूल्य था, उससे आज करोड़ों गुना ज्यादा मूल्य है। वजन तो कम हुआ--मूल्य बढ़ा।
तुम जो हो, उसका आविष्कार करना है। और यह सूत्र कुछ और ही बात कह रहा है। यह सूत्र आत्मसम्मोहन का, आटोहिप्नोसिस का सूत्र है। यह सूत्र कह रहा है, मनुष्य नित्य जैसा यत्न करता है, तन्मय हो कर जैसी भावना करता है, और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है अन्यथा नहीं।
तुम अगर भाव करोगे कुछ होने का, सतत करोगे भाव, तो उस भाव से तुम आच्छादित हो जाओगे। आच्छादन इतना महान हो सकता है कि भ्रांति होने लगे कि मैं यही हो गया।
एक सूफी फकीर को मेरे पास लाया गया था। तीस वर्ष की सतत साधना! फकीर के शिष्यों ने मुझे कहा कि उन्हें प्रत्येक जगह ईश्वर दिखाई पड़ता है। वृक्षों में, पत्थरों में, चट्टानों में--सब तरफ ईश्वर का ही दर्शन होता है।
मैंने कहा, उन्हें ले आओ। तीन दिन मेरे पास छोड़ दो।
जब वे मेरे पास तीन दिन रहे, तो मैंने उनसे कहा, क्या मैं पूछूं कि यह जो ईश्वर तुम्हें दिखाई पड़ता है--दिखाई पड़ता है या तुमने इसकी भावना की है?
उन्होंने कहा, इसमें क्या भेद है?
मैंने कहा, भेद कुछ बहुत बड़ा है। सूरज उगता है, तो दिखाई पड़ता है--तुम्हें भावना नहीं करनी पड़ती कि यह सूरज है! चांद निकलता है, तो तुम्हें दिखाई पड़ता है। तुम्हें भावना नहीं करनी पड़ती कि यह चांद है। सौंदर्य हो, तो दिखाई पड़ता है; तुम्हें भावना नहीं करनी पड़ती कि सौंदर्य है। भावना तो तब करनी पड़ती है, जब दिखाई न पड़ता हो।
भावना से भ्रांति होती है। सतत कोई भावना करे और तीस साल निरंतर भावना की हो, तो स्वभावतः भावना आच्छादित हो जाएगी।
तो मैंने उनसे कहा, एक काम करो, भेद साफ हो जाएगा। तीन दिन भावना करना बंद कर दो।
उनको बात समझ में पड़ी। तीन दिन उन्होंने भावना नहीं की। चौथे दिन मुझ पर बहुत नाराज हो गए। उन्होंने कहा, मेरी तीस वर्ष की साधना नष्ट कर दी।
मैंने कहा, जो तीस वर्ष में साधा हो, अगर तीन दिन में नष्ट होता हो, उसका मूल्य क्या है? तो तुम कहीं पहुंचे नहीं। कल्पना में जी रहे थे। एक स्वप्न निर्मित कर लिया था अपने चारों तरफ। अब तुम्हें वृक्ष दिखाई पड़ते हैं--परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। क्या हुआ उस परमात्मा का? अगर दिखाई पड़ गया था, तो तीन दिन में खो गया!
मैंने कहा, कुछ सीखो। नाराज न होओ। सीखने का यह है कि तीस साल व्यर्थ गए; नाहक तुमने गंवाए। अभी भी देर नहीं हुई। अभी भी जिंदगी शेष है। भावना करना बंद करो।
आंखों को निखारो--भावना से लादो मत। भावना के चश्मे मत पहनो। भावना चश्मे दे सकती है। कोई लाल रंग का चश्मा पहन ले--सारा जगत लाल दिखाई पड़ने लगा! लाल हुआ नहीं; न लाल है, मगर भावना का चश्मा चढ़ गया! उतारो चश्मा और जगत जैसा है, वैसा प्रकट हो जाएगा। सब लाली खो जाएगी।
यह सूत्र व्यक्ति को झूठ करने का सूत्र है। मगर इसी सूत्र पर दुनिया के सारे धर्म आरोपित हैं। यह योगवासिष्ट की ही भ्रांति नहीं है; यह भ्रांति सारे धर्मों के आधार में पड़ी हुई है।
तुम जाते हो मंदिर में। तुम्हें दिखाई तो पत्थर की मूर्ति पड़ती है, लेकिन भावना करते हो कि राम हैं, कृष्ण हैं, बुद्ध हैं, महावीर हैं। अपनी भावना के सामने झुकते हो तुम। तुम्हें कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है।
जैन के मंदिर में बौद्ध को ले जाओ, उसे झुकने का कोई मन नहीं होता। उसे महावीर बिलकुल दिखाई नहीं पड़ते; पत्थर दिखाई पड़ता है। मुसलमान को ले जाओ। तुम जब झुकते हो, तो वह हंसता है कि कैसी मूढ़ता है! पत्थर के बुत के सामने--यह कैसी बुत-परस्ती! यह कैसा अंधापन! पत्थर के सामने झुक रहे हो! मगर तुम पत्थर के सामने नहीं झुक रहे हो। तुमने तो अपनी भावना आरोपित कर रखी है। तुम्हारे लिए तो तीर्थंकर हैं, महावीर हैं!
जैन को मसजिद में ले जाओ, उसे कोई अहोभाव अनुभव नहीं होता। लेकिन मुसलमान गदगद हो जाता है। यह सत्य किस बात की ओर इंगित करता है?
गणेश जी को देख कर जो हिंदू नहीं, वह हंसेगा। जो हिंदू है, वह एकदम समादर से भर जाएगा। हनुमान जी को देख कर जो हिंदू नहीं है, वह सोचेगा, यह भी क्या पागलपन है! एक बंदर की पूजा हो रही है! और आदमी बंदर की पूजा कर रहे हैं! शर्म नहीं, संकोच नहीं, लाज नहीं! लेकिन जो हिंदू है, उसने एक भावना आरोपित की है। उसने एक चश्मा चढ़ा रखा है। तुम दुनिया के विभिन्न धर्मों पर विचार करो, तुम्हें बात समझ में आ जाएगी।
जीसस को सूली हुई। एक जैन मुनि ने मुझसे कहा कि आप महावीर के साथ जीसस का नाम न लें, क्योंकि कहां महावीर और कहां जीसस! क्या तुलना! जीसस को सूली लगी! जैन हिसाब से तीर्थंकर को तो कांटा भी नहीं गड़ता है; सूली लगना तो बहुत दूर। जैन हिसाब से तीर्थंकर जब चलते हैं रास्ते पर, तो सीधे जो कांटे पड़े होते हैं, वे तत्क्षण उलटे हो जाते हैं कि कहीं तीर्थंकर के पैर में गड़ न जाएं। क्योंकि कोई पाप तो बचा नहीं, तो कांटा गड़ कैसे सकता है? पाप के कारण दुख होता है। पाप के कारण कांटा गड़ता है। अकारण नहीं कुछ होता। यही तो पूरा कर्म का सिद्धांत है।
और जीसस को सूली लगी, तो जरूर पिछले जन्मों में कोई महापाप किया होगा अन्यथा सूली कैसे लगे!
जैन को अड़चन होती है कि जीसस को महावीर के साथ रखो। इस आदमी को सूली लगी, जाहिर है, कि अकारण सूली नहीं लग सकती, तो जरूर कोई पिछला महापाप इसके पीछे होना चाहिए।
और ईसाई उसी सूली को अपने गले में लटकाए हुए है। उसी सूली के सामने झुकता है। उसके लिए सूली से ज्यादा पवित्र और कुछ भी नहीं है। सूली उसके लिए प्रतीक है जीसस का।
अगर तुम ईसाई से पूछो, महावीर के संबंध में, तो वह कहेगा कि जीसस के साथ तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि जीसस ने तो मनुष्य जाति के हित के लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया। महावीर ने क्या किया? महावीर तो निपट स्वार्थी हैं। कोई अस्पताल खोला? कोई गरीबों के लिए भोजन जुटाया? बीमारों की सेवा की? कोढ़ियों के पैर दबाए? अंधों को आंखें दीं? लंगड़ों को पैर दिए? क्या किया?
तुम देखते ही हो कि मदर टेरेसा को नोबल प्राइज मिली। महावीर अगर जिंदा हो, तो नोबल प्राइज मिल सकती है? किस कारण? न तो अनाथालय खोलते हैं। न विधवा आश्रम खोलते हैं! निपट स्वार्थी हैं! अपने ध्यान और अपने आनंद में लगे हैं! इस स्वार्थी व्यक्ति की पूजा करने का प्रयोजन क्या है? इसने त्याग क्या किया है? और अगर धन-दौलत भी छोड़ी है, तो स्वार्थ के लिए छोड़ी है, क्योंकि धन-दौलत के कारण आत्मानंद में बाधा पड़ती है, ब्रह्मानंद में बाधा पड़ती है। मगर आनंद तो अपना है। इसने किसी दूसरे की चिंता की है इस व्यक्ति ने?
तो महावीर और बुद्ध ईसाइयों के लिए आदरणीय नहीं मालूम होते।
कृष्ण को हिंदू पूर्णावतार कहते हैं और जैन उनको नर्क में डाल देते हैं! क्योंकि कृष्ण ने ही युद्ध करवा दिया; महाहिंसा करवा दी। अर्जुन तो बिलकुल मुनि होने के करीब ही था! वह तो सब छोड़ कर भाग रहा था, त्याग रहा था। कृष्ण उसे घसीट लाए। एक व्यक्ति को जो जैन होने के करीब था--भ्रष्ट कर दिया! कृष्ण को दंड देना जरूरी है।
अब तुम जरा देखो! हिंदू कहते हैं पूर्णावतार। और उनका कहना, उनके चश्मे की बात है। पूर्णावतार इसलिए कि कृष्ण में जीवन की समग्रता प्रकट हुई है। राम को भी पूर्णावतार नहीं कहते हिंदू। क्योंकि राम की मर्यादा है। मर्यादा यानी सीमा। कृष्ण अमर्याद हैं। उनकी कोई सीमा नहीं है।
महावीर त्यागी-व्रती, मगर इनका त्याग-व्रत संसार से भयभीत है। ये संसार को छोड़ कर त्याग को उपलब्ध हुए हैं, ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं। कृष्ण तो संसार में रह कर ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं। यह असली कसौटी है। आग में बैठ रहे और परम शांति को अनुभव किया।
आग से भाग गए! भगोड़े हो! जो कृष्ण को मानने वाला है, वह महावीर और बुद्ध को भगोड़ा कहेगा। जिंदगी में जूझो; जिंदगी चुनौती है। इस चुनौती से भागते हो--अवसर गंवाते हो। यह कायरता है। यह पीठ दिखा देना है।
कृष्ण ने जिंदगी से पीठ नहीं दिखाई। इसीलिए अर्जुन को भी रोका कि क्या भगता है! क्या कायरपन की बातें करता है! क्या नपुंसकता की बातें करता है! क्या तू क्लीव हो गया! उठा गांडीव। छोड़ यह अहंकार--कि मेरे द्वारा हिंसा हो रही है। अपने को बीच से हटा ले; परमात्मा का माध्यम भर हो जा। अपने अहंकार को बीच में न लगा।
तो हिंदू के लिए कृष्ण पूर्णावतार हैं। उसका अपना चश्मा है। जैन के लिए कृष्ण नर्क में डालने योग्य हैं। अवतार की तो बात ही छोड़ो! आदमियों से भी गए-बीते हैं! सभी आदमी भी नर्क में नहीं जाते। महापापी ही नर्क में जाते हैं। कृष्ण ने महापाप करवा दिया। क्योंकि जैन के हिसाब के लिए तो चींटी भी मारना पाप है। और इस व्यक्ति ने तो कोई एक अरब, सवा अरब आदमियों की हत्या करवा दी! इसी के कारण हत्या हुई। तो इतनी बड़ी महाहिंसा का कौन जिम्मेवार होगा? अपने-अपे चश्मे हैं।
और मैं कहता हूं: सत्य उसको दिखाई पड़ता है, जो सारे चश्मे उतार कर रख देता है। जो न हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न जैन है, न बौद्ध है। ये तो सब भावना की बात है। तुम अपनी भावना को आरोपित कर लेते हो। तो जो तुमने आरोपित कर लिया है, जरूर दिखाई पड़ने लगता है। मगर दिखाई पड़ता है वैसा ही, जैसा सपना दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ता है वैसा ही, जैसे शराब के नशे में कुछ-कुछ दिखाई पड़ने लगता है।
मुल्ला नसरुद्दीन रोज शराबघर जाता। चकित थे लोग कि हमेशा जब भी शराब पीने बैठता, तो अपनी जेब से एक मेंढक निकाल कर टेबिल पर रख लेता! उसने मेंढक पाला हुआ था। कई बार लोगों ने पूछा कि इसका राज क्या है?
पीता रहता शराब। पीता रहता। फिर एकदम से शराब पीना बंद कर देता। मेंढक खीसे में रखता। घर चला जाता।
एक दिन शराब की दुकान के मालिक ने कहा कि आज मेरी तरफ से पीयो। मगर यह राज अब बता दो। अब हमारी उत्सुकता बहुत बढ़ती जा रही है। माजरा क्या है? यह मेंढक को बार-बार लाते हो। इसको बिठा लेते हो!
मुल्ला ने कहा, मामला कुछ भी नहीं है। राज छोटा-सा है। यह गणित है। जब यह मेंढक मुझे दो दिखाई पड़ने लगता है, तब मैं समझ जाता हूं कि बस, अब रुक जाना चाहिए। अब खतरे की सीमा आ गई! जल्दी से इसको--दोनों को उठा कर खीसे में रखता हूं और अपने घर की तरफ चला जाता हूं, क्योंकि अब जल्दी घर पहुंच जाना चाहिए, नहीं तो कहीं रास्ते में गिरूंगा। जब तक एक दिखाई पड़ता रहता है, तब तक पीता हूं। जब दो दिखाई पड़ता है, तो बस!
मुल्ला अपने बेटे को भी शराब पीने के ढंग सिखा रहा था। बाप वही सिखाए, जो जाने। और तो क्या सिखाए! शराबी शराब पीना सिखाए। हिंदू हिंदू बनाए। जैन जैन बनाए। बौद्ध बौद्ध बनाए। जो जिसकी भावना! तो अपने बेटे को लेकर शराबघर गया। कहा कि एक बात हमेशा खयाल रखना। देखो--शराब पीना शुरू करो। और कहा कि वे जो उस टेबिल पर आदमी बैठे हैं दो, जब चार दिखाई पड़ने लगे तब रुक जाना! उसके बेटे ने कहा कि पिताजी, वहां सिर्फ एक ही आदमी बैठा हुआ है! आपको अभी दो दिखाई पड़ रहे हैं!
यह मुल्ला तो पीए ही हुए है। इसको तो दो दिखाई पड़ ही रहे हैं! अब यह कह रहा है, जब चार दिखाई पड़ने लगें, तो बस, पीना बंद कर देना! यह तो नशे में है ही।
नशे में जो दिखाई पड़ता है, वह सत्य नहीं है। हां, सतत यत्न से तुम नशा पैदा कर सकते हो। सतत भावना से तुम अपने भीतर की रासायनिक प्रक्रिया बदल सकते हो। ये मनोविज्ञान के सीधे-सादे सूत्र हैं।
अगर बार-बार तुम सोचते ही रहो, सोचते ही रहो, तो स्वभावतः उस सोचने का परिणाम यह होगा कि तुम्हारे भीतर भावना की एक पर्त बनती जाएगी।
एक बहुत बड़ा सम्मोहनविद फ्रांस में हुआ। वह अपने मरीजों को...उसने बहुत मरीजों को सहायता पहुंचायी। वह उनको कहता, बस, एक ही बात सोचते रहो कि रोज, दिन-ब-दिन ठीक हो रहा हूं। सुबह से बस यही सोचो, पहली बात यही सोचो उठते वक्त। और रात सोते समय तक आखिरी बात यही सोचते रहो कि मैं ठीक हो रहा हूं। दिन-ब-दिन ठीक हो रहा हूं।
तीन महीने बाद मरीज आया। उस चिकित्सक ने पूछा कि कुछ लाभ हुआ? उसने कहा, लाभ तो हुआ। दिन तो बिलकुल ठीक हो गया, मगर रात बड़ी मुश्किल है! अब दिन-ब-दिन ठीक हो रहा हूं--सो उसने बेचारे ने दिन का ही हिसाब रखा।
सो दिन तो, उसने कहा कि बिलकुल ठीक गुजर जाते हैं, क्योंकि भावना बिलकुल मजबूत कर ली है। चौबीस घंटे एक ही भावना करता हूं कि दिन बिलकुल ठीक। मगर रात! रात बड़ी बेचैनी आ जाती है। वह जो दिन भर की बीमारी है, वह भी इकट्ठी हो कर रात फूटती है।
सोना खराब हो गया। नींद हराम कर दी है। क्या सूत्र तुमने दिया!
यह मनोवैज्ञानिक ने सोचा ही न था कि दिन में यह सिर्फ दिन को ही गिनेगा--रात छोड़ देगा!
मेरे पास एक दफा एक युवक लाया गया। उसके पिता, उसके मां रो रहे थे। उन्होंने कहा कि हम थक गए! विश्वविद्यालय से इसको हटाना पड़ा। इसको एक भ्रांति हो गई है। एक मक्खी इसके भीतर घुस गई है--यह इसको भ्रांति हो गई है। यह मुंह खोल कर सोता है, तो इसको भ्रांति हो गई कि मुंह खुला था और मक्खी अंदर चली गई। शायद मक्खी चली गई भी हो। वह तो निकल भी गई। एक्स-रे करवा चुके। डाक्टरों से चिकित्सा करवा चुके। मगर यह मानता ही नहीं। यह कहता है, वह भनभना रही है। भीतर चल रही है। बस, ये चौबीस घंटे यही राग लगाए रखता है कि यह इधर पैर में घुस गई अंदर! इधर हाथ में आ गई! यह देखो, इधर आ गई--इधर चली गई। इसको कोई दूसरा काम ही नहीं बचा है; न सोता है, न सोने देता है। न खाता है, न खाने देता है! मक्खी भनभना रही है! सिर में घुस जाती है! सिर से पैर तक चलती रहती है! चिकित्सकों ने कह दिया, भई, यह सब भ्रांति है। हम कुछ भी नहीं कर सकते। किसी ने आपका नाम लिया, तो आपके पास ले आए। मैंने कहा, कोशिश कर के देखें।
मैंने कहा, यह कहता है, तो ठीक ही कहता होगा। जरूर मक्खी घुस गई होगी।
उस युवक की आंखों में एकदम चमक आ गई। उसने कहा, आप पहले आदमी हैं, जो समझे। कोई मानता ही नहीं मेरी। जिसको कहता हूं, वही कहता है--पागल हो गए हो! अरे, पागल हो गया हूं--कैसे पागल हो गया हूं! मुझे बराबर भन-भनाहट सुनाई पड़ती है। चलती है। कभी छाती में घुस जाती है। कभी पैर में चली जाती है। कभी सिर में! मेरी मुसीबत कोई नहीं समझता। अब नहीं आती तुम्हारे एक्स-रे में, तो मैं क्या करूं! मगर मुझे अपना अनुभव हो रहा है। अपना अनुभव मैं कैसे झुठला दूं। लाख समझाओ मुझे!
मेरा सिर खा गए समझा-समझा कर! एक मक्खी मुझे सता रही है। और बाहर के समझाने वाले मुझे सता रहे हैं। ये मां-बाप समझाते हैं। मुहल्ले भर में जो देखो वही समझाता है। डाक्टर समझाते हैं। जहां ले जाते हैं, वहीं लोग समझाते हैं--भई, छोड़ो यह बात। कहां की मक्खी! अगर घुस भी गई होगी, तो मर-मरा गई होगी। कोई ऐसे भनभना सकती है अंदर! मगर मैं क्या करूं! भनभनाती है। मक्खी मानती नहीं--मैं मान भी लूं, तो क्या होता है!
मैंने कहा, तुम बिलकुल ठीक कहते हो। मक्खी अंदर घुसी है। जब तक निकाली न जाए, कुछ हो नहीं सकता। तो तुम लेट जाओ।
आंख पर मैंने उसकी पट्टी बांध दी। और मैं भागा पूरे घर में खोजबीन की कि किसी तरह एक मक्खी पकड़ लूं। बामुश्किल एक मक्खी पकड़ पाया। उसकी पट्टी खुलवाई। उसको मक्खी दिखाई। उसने कहा, अब यह कोई बात हुई! अपने बाप से बोला, देखो, अब यह मक्खी कहां से निकली? कहां गए वे एक्स-रे!
मैंने उनके बाप को, मां को कहा था कि तुम बिलकुल चुप रहना। यह मत कहना कि मैंने मक्खी पकड़ी। इसके भीतर से निकाली है। उन्होंने कहा, भई हमें माफ करो। हमसे गलती हुई। तुम ठीक थे; हम गलत थे।
उसने कहा, लाइए मक्खी; मुझे दीजिए। मैं अपने उन सबको दिखाने जाऊंगा। अब बिलकुल सन्नाटा है। न कोई भनभनाहट। अब है ही नहीं मक्खी भीतर, वह खुद ही कहने लगा कि जब मक्खी भीतर है ही नहीं, निकल गई...। यह रही मक्खी, तो बात खतम हो गई।
तब से वह ठीक हो गा। तब से वह स्वस्थ हो गया।
एक भावना गहन हो जाए, तो जरूर उसके परिणाम होने शुरू होंगे। परिणाम सच्चे हो सकते हैं। यह रुग्ण हुआ जा रहा था; दीन हुआ जा रहा था, हीन हुआ जा रहा था। बात झूठी थी, मगर परिणाम तो सच हो रहे थे।
जैसे कि कोई रस्सी में सांप को देख कर भाग खड़ा हो। गिर पड़े। पैर फिसल जाए, तो हड्डी टूट जाए। हड्डी टूटना तो सच है, मगर रस्सी में सांप झूठ था। और यह भी हो सकता है कि हार्ट अटैक हो जाए। भाग खड़ा हो जोर से; वजनी शरीर हो; गिर पड़े। हार्ट अटैक हो जाए। घबड़ा जाए। मर भी सकता है आदमी--उस सांप को देख कर, जो था ही नहीं!
मगर इसको दिखाई पड़ा। इसको दिखाई पड़ा, बस, उतना पर्याप्त है इसके लिए। हालांकि इसने भ्रांति कर ली थी। कल्पना कर ली थी। इसके भीतर से ही आरोपित हुआ था।
यह सूत्र सारे धर्मों को भ्रष्ट किया है। इस तरह के सूत्रों ने ही आदमी को गलत रास्ते पर लगा दिया है। बस, भावना करो!
भावना से तुम जरूर परिणाम लाने शुरू कर दोगे। अगर तुमने भावना की मजबूती से तो परिणाम आने शुरू हो जाएंगे। लेकिन भावना चूंकि झूठ है इसलिए कभी भी खिसल सकती है। तुम जो मकान बना रहे हो, उसकी कोई बुनियाद नहीं है। तुम रेत पर महल खड़ा कर रहे हो, जो गिरेगा--बुरी तरह गिरेगा। और ऐसा गिरेगा कि तुम्हें भी चकनाचूर कर जाएगा।
मैं तुम्हें भावना करने को नहीं कहता सहजानंद! मैं तो कहता हूं: निर्विचार हो जाओ, निर्भाव हो जाओ, निर्विकल्प हो जाओ। सब भावना को जाने दो। सब विचार को जाने दो। शून्य हो जाओ। शून्य ही ध्यान है। निर्विचार ही ध्यान है। और तब जो है, वह दिखाई पड़ेगा। जब तक विचार है, तब तक कुछ का कुछ दिखाई पड़ता रहेगा। विचार विकृत करता है। विचार बीच में आ-आ जाता है।
विचार के कारण तुम्हें कुछ का कुछ दिखाई पड़ने लगता है। जो  नहीं है, वह दिखाई पड़ने लगता है। जो है, वह नहीं दिखाई पड़ता। तुम खयाल करो, उपवास कर लो दो दिन का, और फिर बाजार में चले जाओ। उपवास के बाद तुमको बाजार में सिर्फ होटलें, रेस्टारेंट, चाय की दुकानें, भजिए की गंध--इसी तरह की चीजें एकदम दिखाई पड़ेंगी, जो कभी नहीं दिखाई पड़ती थीं। क्योंकि दो दिन का उपवास तुम्हारे भीतर की मनोदशा बदल देगा। अब भोजन ही भोजन दिखाई पड़ेगा।
जर्मनी के प्रसिद्ध कवि हाइन ने लिखा है कि मैं एक दफा जंगल में तीन दिन के लिए भटक गया। गया था शिकार को, रास्ता भूल गया। साथियों से छूट गया। तीन दिन भूखा रहा। और जब तीसरे दिन रात पूर्णिमा का चांद निकला, तो मैं चकित हुआ कि जिस चांद में मुझे हमेशा अपनी प्रेयसी का चेहरा दिखाई पड़ता था, वह बिलकुल दिखाई नहीं पड़ा। मुझे दिखाई पड़ी एक सफेद रोटी आकाश में तैर रही है! चांद में रोटी दिखाई पड़ी! किसी को चांद में रोटी दिखाई पड़ी! भूखे को दिखाई पड़ सकती है। तीन दिन से जो भूखा है, उसको चांद एक सफेद रोटी की तरह तैरता हुआ मालूम होगा। अब कहां की सुंदर स्त्री वगैरह! भूखे आदमी को क्या करना है सुंदर स्त्री से! इसीलिए तो उपवास का इतना प्रभाव बढ़ गया। उपवास तरकीब है वासना को दबाने की। जब तुम भूखे रहोगे--इक्कीस दिन अगर भूखे रहोगे स्त्री वगैरह सब भूल जाएंगी। स्त्री को देखने के लिए स्वस्थ शरीर चाहिए। पुरुष को देखने के लिए स्वस्थ शरीर चाहिए।
यह तरकीब हाथ में लग गई धार्मिकों के, कि अपने को बिलकुल भूखा रखो, अपनी ऊर्जा को क्षीण कर लो--इतनी क्षीण कर लो कि बस, जीने योग्य रह जाए। जरा भी ज्यादा न हो पाए। जरा ज्यादा हुई कि तो फिर खतरा है। फिर वासना उभर सकती है। मगर इससे कोई वासना से मुक्त नहीं होता। यह सिर्फ दमन है। यह भयंकर दमन है।
उपवास तरकीब है दमन की। भूखा आदमी भूल ही जाएगा। भूखे को सिर्फ रोटी दिखाई पड़ती है--और कुछ नहीं दिखाई पड़ता। भरे पेट आदमी को बहुत कुछ दिखाई पड़ने लगता है--जो भूखे को नहीं दिखाई पड़ता। और जब तुम्हारे जीवन की सब जरूरतें पूरी हो जाती हैं, तब तुम्हें कुछ और दिखाई पड़ना शुरू होता है--जो जरूरतों के रहते नहीं दिखाई पड़ सकता।
जरूरतें जब तक हैं, तब तक जरूरतें बीच में आती हैं। इस बात को खयाल में लो सहजानंद! तुम्हें नाम मैंने दिया सहजानंद! सहज का अर्थ होता है, जो है ही, उसको जानना है। उसे भावित नहीं करना है। उसे कल्पित नहीं करना है। उसके लिए यत्न भी नहीं करना है। सहज है।
धर्म सहज है, क्योंकि धर्म स्वभाव है। है ही हमारे भीतर। परमात्मा तुम्हारे भीतर विराजमान है। तुम जरा अपने विचार एक तरफ हटा कर रख दो।
तुमसे कहा गया है--विश्वास करो। मैं तुमसे कहता हूं--विश्वास छोड़ो। क्योंकि विश्वास एक विचार है। और विचार अगर सतत करोगे, तो वैसा दिखाई पड़ने लगेगा। मगर वैसा होता नहीं। सिर्फ तुम्हें दिखाई पड़ता है। तुम्हारी भ्रांति है। तुम्हारी कल्पना है।
और कल्पना सुंदर हो सकती है, प्यारी हो सकती है, मधुर हो सकती है। तुमने मीठे सपने देखे होंगे। सुस्वादु सपने देखे होंगे। लेकिन सपना सपना है। जागोगे--टूट जाएगा।
सपने देखने के लिए ही लोग जंगलों में भागे; उपवास किया। क्योंकि यह मनोवैज्ञानिक सत्य है आज--वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित--कि आदमी को अकेला छोड़ दो, तीन सप्ताह में, उसकी कल्पना बहुत प्रखर हो जाती है। क्यों? क्योंकि जब दूसरों के साथ रहता है, तो दूसरों की मौजूदगी उसे कल्पनाशील नहीं होने देती। उसे बिठा दो हिमालय की एक गुफा में। क्या करेगा बैठा-बैठा! सिर्फ कल्पना करेगा। और तो कुछ करने को बचा नहीं। और यथार्थ से उसके सारे संबंध छूट जाएंगे। यथार्थ से तो भाग आया वह। अब एकांत में बैठा-बैठा कल्पना करता रहेगा। अपने से ही बातें करने लगेगा धीरे-धीरे।
तुमने देखा होगा पागलखानों में जा कर, पागल अपने से ही बातें करते रहते हैं! तुम उनको पागल कहते हो। और उसको तुम धार्मिक कहते हो, जो ईश्वर से बातें कर रहा है! कहां का ईश्वर? कल्पित! लेकिन वह ईश्वर से बातें कर रहा है! खुद ही वह बोलता है, खुद ही जवाब देता है। यह एकांत में संभव है।
एकांत हो--और भूखा हो--ये दो चीजें अगर तुम पूरी कर लो, तो तुम्हारी कोई भी कल्पना सच मालूम होने लगेगी। लेकिन यह अपने को धोखा देने का उपाय है। धर्म नहीं है--आत्मवंचना है।
यह सूत्र इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि इस सूत्र में सारे धर्म का धोखा आ गया है।
ना यथा यतने नित्यं यदभावयति यन्मयः। मनुष्य नित्य जैसा यत्न करता है, तन्मय हो कर जैसी भावना करता है, वैसा ही हो जाता है।
यदृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति नान्यथा।। वैसा ही हो जाता है अन्यथा नहीं।
और मन की भावना का बड़ा प्रभाव है कुछ चीजों पर। शरीर पर तो बहुत प्रभाव है। तुम एक छोटा-सा प्रयोग कर के देखो। अपने हाथों को बांध कर बैठ जाओ। अंगुलियों को अंगुलियों में फंसा लो। दस आदमी बैठ जाओ। अंगुलियों में अंगुलियां फंसा कर और दसों दोहराओ कि अब हम कितना ही उपाय करें, तो भी हम हाथ को खोल न सकेंगे। यह छोटा-सा प्रयोग है, जो कोई भी कभी भी कर सकता है। हम कितनी भी कोशिश करें, हाथ को हम खोल न सकेंगे। लाख कोशिश करें, हाथ को हम खोल न सकेंगे। दस मिनट तक यह बात दोहराते रहो, दोहराते रहो, दोहराते रहो। और दस मिनट के बाद पूरी ताकत लगा कर हाथ को खोलने की कोशिश करना। और तुम हैरान हो जाओगे। दस में से कम से कम तीन आदमियों के हाथ बंधे रह जाएंगे। वे जितना खींचेंगे, उतनी ही मुश्किल में पड़ जाएंगे। पसीना-पसीना हो जाएंगे, हाथ नहीं खुलेंगे।
तीस प्रतिशत, तेतीस प्रतिशत व्यक्ति सम्मोहन के लिए बहुत ही सुविधा पूर्ण होते हैं। तेतीस प्रतिशत व्यक्ति बड़े जल्दी सम्मोहित हो जाते हैं। और यही सम्मोहित व्यक्ति तुम्हारे तथाकथित धार्मिक व्यक्ति बन जाते हैं। ये ही तुम्हारे संत! ये ही तुम्हारे फकीर! इनके लिए कुछ भी करना आसान है। जब अपना ही हाथ बांध लिया खुद ही भावना करके और अब खुद ही खोलना चाहते हैं, नहीं खुलता। और एक मजा है: जितनी वे कोशिश करेंगे और नहीं खुलेगा, उतनी ही यह बात गहरी होती जाएगी कि अब मुश्किल हो गई। हाथ तो बंध गए, अब नहीं खुलने वाले। घबड़ा जाएंगे। हाथ को खोलने के लिए अब इनके पास कोई उपाय नहीं है। अब हाथ को खोलने के लिए इनको पूरी प्रक्रिया को दोहराना पड़ेगा।
अब इनको खींचातानी बंद करनी चाहिए। अब इनको फिर दस मिनट तक सोचना चाहिए कि जब मैं हाथ खोलूंगा, तो खुल जाएंगे। खुल जाएंगे--जरूर खुल जाएंगे। दस मिनट तक ये पुनः भाव करें। खींचे नहीं। खींचेंगे, तो मुश्किल हो जाएगी, क्योंकि खींचने से सिद्ध होगा नहीं खुलते हैं। नहीं खुलते हैं--तो नहीं खुलने की बात और मजबूत होती चली जाएगी कि नहीं खुल सकते हैं। अब मैं कुछ भी करूं, नहीं खुल सकते हैं।
खींचें न। अब तो बैठ कर सोचें वही, जो पहले सोचा था उससे उलटा, कि अब मैं जब खोलूंगा दस मिनट के बाद, तो बराबर खुल जाएंगे; निश्चित खुल जाएंगे। कोई संदेह नहीं; खुल जाएंगे। तब इनके दस मिनट के बाद हाथ खुलेंगे। तुम प्रयोग करके देख सकते हो। दस मित्रों को इकट्ठा कर के बैठ जाओ। तुमने शायद कभी सोचा न हो कि तुम भी उन तेतीस प्रतिशत में एक हो सकते हो।
इस तरह का आदमी किसी भी तरह की बीमारियों के जाल में फंस सकता है।
मेडिकल कालेजेज में यह अनुभव की बात है कि विद्यार्थी जिस बीमारी के संबंध में पढ़ते हैं, बहुत से विद्यार्थियों को वही बीमारी होनी शुरू हो जाती है। जब वे पेट-दर्द के संबंध में पढ़ेंगे और उनको मरीजों के पेट-दर्द दिखाए जाएंगे, और उनसे पेट की जांच करवाई जाएगी--अनेक विद्यार्थियों के पेट गड़बड़ हो जाएंगे। वे कल्पित करने लगते हैं कि अरे, कहीं वैसा ही दर्द मुझे तो नहीं हो रहा है! अपना ही पेट दबा-दबा कर देखने लगते हैं! और जब पेट को दबाएंगे, तो कहीं न कहीं दर्द हो जाएगा। अहसास होगा कि दर्द हो रहा है। घबड़ाहट शुरू हो जाएगी।
मेडिकल कालेज में यह आम अनुभव की बात है कि जो बीमारी पढ़ाई जाती है, वही बीमारी फैलनी शुरू हो जाती है विद्यार्थियों में।
सूफियों में एक कहानी है: जुन्नैद नाम का फकीर...। जुन्नैद प्रसिद्ध फकीर मंसूर का गुरु था गांव के बाहर एक झोपड़े में रहता था, बगदाद के बाहर। कहानी बड़ी प्यारी है। कहानी ही है, ऐतिहासिक तो हो नहीं सकती, मगर बड़ी मनोवैज्ञानिक है।
एक दिन उसने देखा कि एक काली छाया बड़ी तेजी से बगदाद में जा रही है। दरवाजे के बाहर ही उसका झोपड़ा था नगर के। उसने कहा, रुक! कौन है तू? तो उस काली छाया ने कहा, मैं मौत हूं। और क्षमा करें, बगदाद में मुझे पांच सौ व्यक्ति मारने हैं। फकीर ने कहा, जो उसकी मर्जी। मौत अंदर चली गई।
पंद्रह दिन के भीतर पांच सौ नहीं, पांच हजार आदमी मर गए! फकीर बड़ा हैरान हुआ कि पांच सौ कहे थे और पांच हजार मर चुके!
जब मौत वापस लौटी पंद्रह दिन के बाद, तो उसने कहा, रुक। बेईमान! मुझसे झूठ बोलने की क्या जरूरत थी! कहां पांच सौ, और मार डाले पांच हजार!
उसने कहा, क्षमा करें। मैंने पांच सौ ही मारे। बाकी साढ़े चार हजार अपने आप मर गए। मैंने नहीं मारे। वे तो दूसरों को मरते देख कर मर गए!
जब महामारी फैलती है, तो सभी लोग महामारी से नहीं मरते। कुछ तो देख कर ही मर जाते हैं! इतने लोग मर रहे हैं, मैं कैसे बच सकता हूं! इतने लोग बीमार पड़ रहे हैं, मैं कैसे बच सकता हूं!
तुमने एक मजे की बात देखी कि डाक्टर दिन भर लगा रहता है मरीजों की दुनिया में और नहीं मरता। बीमारी--और बीमारी के बीच पड़ा रहता है और इसको बीमारी नहीं पकड़ती। और तुमको जरा में बीमारी पकड़ जाती है! छूत की बीमारी! एकदम तुम्हें छू जाती है। और डाक्टर दिन भर न मालूम किस-किस तरह के मरीजों का पेट दबा रहा है; हाथ देख रहा है। नब्ज पकड़ रहा है। इंजेक्शन लगा रहा है। और बीमारी नहीं पकड़ती! और तुम्हें बीमारी पकड़ जाती है। तुम्हारा भाव, बस तुम्हें पकड़ा देता है।
यह देख कर भी तुम्हें खयाल में आता होगा कि डाक्टरों में तुम एक तरह की सख्ती पाओगे। तुम लाख रोओ-धोओ; तुम्हारी पत्नी बीमार पड़ी है, तुम लाख रोओ-धोओ और तुम्हें लगेगा कि डाक्टर बिलकुल उदासीन है। उसको उदासीन होना पड़ता है, नहीं तो वह कभी का मर चुके। उसको उदासीनता रखनी पड़ती है, सीखनी पड़ती है। वह उसके व्यवसाय का अंग है, अनिवार्य अंग है। उसको एक उदासीनता की पर्त ओढ़नी पड़ती है।
अब यहां तो रोज ही कोई मर रहा है। कोई तुम्हारी अकेली पत्नी मर रही है! रोज कोई मरता है। न मालूम कितने बीमार आते हैं! यहां अगर एक की बीमारी से वह आंदोलित होने लगे, तो वह खुद ही मर जाए। कभी का मर जाए! तो वह धीरे-धीरे कठोर हो जाता है। सख्त हो जाता है। उसके चारों तरफ एक पर्त गहरी हो जाती है, जिस पर्त को पार कर के कीटाणु भी प्रवेश नहीं कर सकते।
डाक्टर तुम्हें कठोर मालूम होगा। नर्सें तुम्हें कठोर मालूम होंगी। और तुम्हें लगता है कि यह बात तो ठीक नहीं! डाक्टर को तो दयावान होना चाहिए। नर्सों को तो दयावान होना चाहिए। होना तो चाहिए, मगर वे बचेंगे नहीं। उनके बचने का एक ही उपाय है कि वे थोड़ी-सी कठोरता रखें। वे अप्रभावित रहें। कौन मरा, कौन जीया...यूं समझें कि जैसे फिल्म में कहानी देख रहे हैं। कुछ लेना-देना नहीं। साक्षीभाव रखें, तो ही जिंदा रह सकते हैं। नहीं तो जिंदा रहना असंभव है। उनको भी जीना है, और उनके जीने के लिए यह अनिवार्य है कि वे एक कठोरता का कवच ओढ़ लें।
यह सूत्र अर्थपूर्ण है इस दृष्टि से कि इसी सूत्र के कारण सारे धर्म गलत हो गए हैं। मेरा यहां प्रयास यही है कि तुम्हें इस सूत्र से ऊपर उठाऊं। मेरी घोषणा समझो।
मैं कह रहा हूं कि तुम्हारा स्वभाव पर्याप्त है। तुम्हें कुछ और होना नहीं है। इसलिए यत्न क्या करना है! भावना क्या करनी है! तुम हो। तुम्हें जो होना चाहिए वह तुम हो ही। तुम्हें अपने भीतर जाग कर देखना है कि मैं कौन हूं। कुछ होना नहीं है। जो हो, उसको ही पहचानना है। आत्म-परिचय करना है। आत्मज्ञान करना है।
आत्मज्ञान के लिए भावना की जरूरत नहीं, विचारणा की जरूरत नहीं; यत्न की जरूरत नहीं। आत्मज्ञान के लिए निर्विचार होना है; प्रयत्न-शून्य होना है। दौड़ना नहीं, बैठना है। भागना नहीं ठहरना है। न शरीर में कोई क्रिया रह जाए, न मन में कोई क्रिया रह जाए। दोनों निष्क्रिय हो जाएं। बस, ध्यान का सरगम बज उठेगा।
चित्त में विचार नहीं, देह में क्रिया नहीं--उसी अक्रिया की अवस्था में तुम्हारे भीतर जो पड़ा है हीरा--दमक उठेगा। जो सूरज छिपा है--उघड़ आएगा। बदलियों में छिपा है, प्रकट हो जाएगा; क्षितिज के ऊपर उठ आएगा। तुम आलोक से भर जाओगे। और यह कोई बाह्य उपलब्धि नहीं है। यह तुम्हारी निजता है, तुम्हारा स्वभाव है, तुम्हारी सहजता है। इस सहजता में ही आनंद है सहजानंद!

दूसरा प्रश्न: भगवान, यह जीवन क्या है? इस जीवन का सत्य क्या है? कहां-कहां नहीं खोजा, लेकिन हाथ खाली के खाली हैं।

पुरुषोत्तम!
खोजोगे, तो हाथ खाली ही रहेंगे। और कहां-कहां खोजोगे तो खाली ही रहेंगे। कहां-कहां खोजने का मतलब--बाहर-बाहर खोजना। काशी में, कि काबा में, कि कैलाश में। गीता में, कि कुरान में, कि बाइबिल में।
कहते हो--कहां-कहां नहीं खोजा! इसीलिए तो खाली हो। झांकना है अपने भीतर--कहां-कहां नहीं खोजना है। सब खोज छोड़ दो। बैठ रहो। अपने भीतर ठहर जाओ। ज्यूं था त्यूं ठहराया! उस स्थिरता में, उस स्थितप्रज्ञ की अवस्था में, उस परम स्वास्थ्य में...।
स्वास्थ्य का अर्थ है--स्वयं में ठहर जाना। स्वस्थ। स्व में स्थित हो जाना। तुम पाओगे।
और मजा यह है--उसे ही पाना है, जिसे पाया ही हुआ है। उसे ही खोजना है, जो मिला ही हुआ है। तुम उसे ले कर ही आए हो। वह तुम्हारे जन्म के साथ आया है। जन्म के पहले भी तुम्हारा था; अब भी तुम्हारा है; मृत्यु के बाद भी तुम्हारा होगा। मगर तुम भागते फिरो सारी दुनिया में, तो स्वभावतः चूकोगे। क्योंकि भीतर तो झांकने का अवसर न मिलेगा।
अब तुम पूछते हो, यह जीवन क्या है? यह प्रश्न इसलिए उठ रहा है कि तुमने जीवन को भीतर से जी कर नहीं देखा। बुद्धि में बस, सोच रहे हो कि जीवन क्या है? जैसे कि कोई उत्तर मिल जाएगा!
जीवन कोई ऐसी चीज नहीं है कि बुद्धि उत्तर दे दे। जीवन तो जीने में है। जीवन कोई वस्तु नहीं है; इसका विश्लेषण नहीं हो सकता--कि टेबिल पर रख कर और इसका तुम विश्लेषण कर डालो, कि परखनली में रख कर और इसकी जांच-पड़ताल कर लो; कि तराजू पर तौल लो, कि गजों से नाप लो!
यह जीवन तो तुम्हारे भीतर है। तुम जीवित हो--और पूछते हो, जीवन क्या है? तुम सुगंधित हो--और पूछते हो सुगंध क्या है! तुम चैतन्य हो--और पूछते हो: जीवन क्या है? यही है जीवन--जो तुम हो।
पूछते हो, जीवन का सत्य क्या है? कहां-कहां नहीं खोजा? खोजते रहो; जनम-जनम से खोज रहे हो। खोज-खोज कर तो खोया है। अब खोज छोड़ो।
मैं यहां खोज छोड़ना सिखाता हूं। बैठ रहो। मौन हो जाओ। शब्दों में मत तलाशो। शास्त्रों में मत तलाशो। वहां शब्द ही पाओगे। और शब्द सब थोथे हैं। अपने शून्य में विराजो। और उसी शून्य में अविर्भाव होगा।
और जिसे कहीं नहीं पाया, उसे अपने घर में पाओगे। वह पहले से ही तुम्हारा अतिथि हुआ बैठा है! अतिथि भी क्यों कहो--अतिथेय है। वही तुम्हारा मालिक है, जिसकी तुम खोज में चले हो। जो खोजने चला है, उसे ही खोजना है।
वो दिल नसीब हुआ, जिसको दाग भी न मिला।
मिला तो गमकदा, जिसमें चिराग भी न मिला।।
गई थी कहके, मैं लाती हूं जुल्फे-यार की बू।
फिरी तो बादे-सबा का दिमाग भी न मिला।।
असीर करके हमें क्यों रिहा किया सैयाद।
वो हम सफीर भी छूटे, वो बाग भी न मिला।।
भर आए महफिले-साकी में क्यों न आंख अपनी।
वो बेनसीब हैं, खाली आयाम भी न मिला।।
चिराग लेकर, इरादा था, बख्त ढूंढेंगे।
शबे-फिराक थी, कोई चिराग भी न मिला।।
खबर को यार की भेजा था, गुम हुआ ऐसा।
हवासे-रफ्ता का अब तक सुराग भी न मिला।।
जलाल बागे-जहां में वो अंदलीब हैं हम।
चमन को फूल मिले, हमको दाग भी न मिला।।
भटकोगे बाहर, तो यही दशा होगी।
भर आए महफिले-साकी में क्यों न आंख अपनी।
वो बेनसीब हैं, खाली अयाग भी न मिला।
खाली प्याला भी नहीं मिलेगा। शराब से भरा हुआ प्याला तो बहुत दूर--खाली प्याला भी न मिलेगा।
चिराग ले के, इरादा था, बख्त ढूंढेंगे।
शबे-फिराक थी, कोई चिराग भी न मिला।।
यह बात कुछ चिराग ले कर ढूंढने की नहीं है पुरुषोत्तम! ढूंढने में ही लोग व्यस्त हैं! ढूंढने में ही लोग परेशान हैं। ढूंढने में ही लोग चूक रहे हैं।
राबिया एक सूफी फकीर स्त्री निकलती थी रास्ते से। जिस रास्ते से रोज निकलती थी, वहां एक दूसरा फकीर हसन मसजिद के समाने हमेशा बैठा रहता था--आकाश की तरफ हाथ उठाए, झोली फैलाए। चिल्लाता था, हे प्रभु, द्वार खोलो! राबिया ने कई बार इस हसन को यूं मसजिद के सामने प्रार्थना करते देखा था। एक दिन उससे न रहा गया। बड़ी हिम्मत की औरत थी। जाकर हसन को झकझोर दिया और कहा कि चुप रह। बंद कर यह बकवास। मैं तुझसे कहती हूं--दरवाजा खुला है। और तू नाहक चिल्ला रहा है कि दरवाजा खोलो। दरवाजा खोलो! तू अपनी धुन में मस्त है। दरवाजा खोलो--दरवाजा खोलो--इसी में लगा है। दरवाजा खुला है! आंख खोल। बकवास बंद कर। दरवाजा कभी बंद नहीं था।
एक सम्राट का वजीर मर गया। उसे एक वजीर की जरूरत थी। कैसे वजीर चुना जाए! सारे देश में खोजबीन की गई। तीन बुद्धिमान व्यक्ति राजधानी लाए गए। अब राजा को चुनना था इन तीन में से कोई एक।
एक अलमस्त फकीर से उसने पूछा कि, आप ही कोई रास्ता बताओ। कैसे चुनूं? तीनों महाबुद्धिमान हैं। बड़े मेधावी हैं। तय करना मुश्किल है कि कौन किससे ज्यादा है! एक से एक बढ़ कर हैं सब। मैं बड़ी उलझन में पड़ गया हूं--किसको चुनूं, किसको छोडूं? तीनों चुनने जैसे लगते हैं। लेकिन आदमी तो एक ही चाहिए!
फकीर ने उसे एक तरकीब बताई। और वह तरकीब काम आ गई।
उन तीनों को एक कमरे में बंद किया गया और उन तीनों से कहा गया...। सम्राट खुद गया कमरे में। उसने कहा कि मैं दरवाजा बंद कर के बाहर जा रहा हूं। इस दरवाजे पर ताला नहीं है। देखो, ताले की जगह गणित के अंक लिखे हुए हैं। यह एक पहेली है। इस पहेली को जो हल कर लेगा, वह इस दरवाजे को खोलने में समर्थ हो जाएगा। सो तुम यह पहेली हल कर लोगे, तो जो पहले निकल आएगा पहेली हल कर के, वही वजीर हो जाएगा।
तीनों को छोड़ कर दरवाजा बंद करके सम्राट बाहर बैठ गया। दो तो एकदम से हिसाब-किताब लगाने में लग गए। आंकड़े लिखे उन्होंने और बड़े गणित के काम में लग गए। और एक कोने में जाकर आंख बंद कर के बैठ गया।
उन दोनों ने उसकी तरफ देखा कि यह पागल क्या कर रहा है! अरे, यह समय आंख बंद कर के बैठने का है। हल कैसे होगी पहेली? पर उन्होंने सोचा, अच्छा ही है कि एक प्रतियोगी खतम हुआ। वह तो अपनी धुन में मस्त...। वह पहेली ऐसी थी कि हल न हो। वह पहेली तो हल होने वाली थी नहीं। वे लगे रहे--पहेली में उलझते गए, उलझते गए! जाल बड़ा होता गया।
और वह आदमी बैठा रहा चुपचाप--बैठा रहा। एकदम से उठा। उन्हें पता ही नहीं चला कि वह आदमी कब बाहर निकल गया। वह दरवाजा बंद था ही नहीं! वह सिर्फ अटका था। वह आदमी शांत बैठा रहा। शांत बैठ रहा। उसने क्या किया? वह तो सिर्फ मौन बैठा। उसने सारे विचार अलग कर दिए। उसने तो ध्यान किया।
और ध्यान की एक अदभुत खूबी है कि दृष्टि निर्मल हो जाती है। दृष्टि पारदर्शी हो जाती है। अंतर्दृष्टि खुल जाती है।
अचानक उसे भीतर से बोध हुआ कि दरवाजा अटका है। पहेली सब शरारत है। पहेली उलझाने का ढंग है। वह उठा। उसने कहा कि सबसे पहले तो यही देख लेना चाहिए कि दरवाजा बंद भी है या नहीं! फिर पहेली हल करने में लगना।
वह उठा। उसने हाथ लगाया कि दरवाजा खुल गया! वह बाहर निकल गया। वे दोनों तो उलझे ही रहे पहेली सुलझाने में, जो सुलझने वाली थी ही नहीं। उनको तो तब नींद टूटी, जब सम्राट उस आदमी को लेकर भीतर आया, और उसने कहा, भाइयो, अब हिसाब-किताब बंद करो। जिसको बाहर निकलना था, वह निकल चुका है। वह वजीर चुन लिया गया है। अब तुम क्या कर रहे हो! अपने घर जाओ!
उन्होंने कहा, वह निकला कैसे! क्योंकि वह तो सिर्फ आंख बंद किए बैठा था! सम्राट ने कहा, वह फकीर ने भी मुझसे कहा था कि उन तीनों में जो ध्यान करने में समर्थ होगा, वह बाहर आ जाएगा। जो गणित बिठालने में बैठेंगे, वे अटक जाएंगे। जो तर्क लगाएंगे, वे भटक जाएंगे। क्योंकि यह दरवाजा यूं है, जैसे जिंदगी।
जिंदगी कोई गणित नहीं; कोई तर्क नहीं। जिंदगी बड़ा खुला राज है। जीओ--मौन से, शांति से, परिपूर्णता से--तो खुला राज है। मगर उलझ सकते हो तुम।
प्रेम को जानने का एक ढंग है--प्रेम में डूबो। लेकिन स्वभावतः जो होशियार आदमी है, चालबाज आदमी है, वह कहेगा, पहले मैं जान तो लूं कि प्रेम क्या है। फिर डूबूंगा! बस, चूकेगा फिर। जिसने सोचा कि पहले जान लूं--प्रेम क्या है...। कैसे जानेगा प्रेम! प्रेम करके ही जाना जाता है। और तो जानने का कोई उपाय नहीं है। या है कोई उपाय?
मिठास का अनुभव तो स्वाद में है--और कोई उपाय नहीं। प्रकाश का अनुभव आंख खोलने में है। आंख बंद कर के कोई बैठा रहे और कहे कि आंख तब खोलूंगा, जब मैं जान लूं कि प्रकाश क्या है? है भी या नहीं! तब आंख खोलूंगा। वह सदा ही आंख बंद किए बैठा रहेगा। वह अंधा ही बना रहेगा।
अरे, आंख खोलो! तुम कहते हो, जीवन क्या है? और जीवित हो तुम! जरा भीतर आंख खोलो। जीवन धड़क रहा है। कौन धड़क रहा है तुम्हारे हृदय में? यह धड़कन किसकी? ये श्वासें किसकी? यह कौन प्रश्न पूछ रहा है? यह कौन खोजता फिरा है?
एक मुअम्मा है, समझने का न समझाने का।
जिंदगी काहे को है, ख्वाब है दीवाने का।।
हुश्न है जात मेरी, इश्क सिफअत है मेरी।
हूं तो मैं शम्अ, मगर भेस है परवाने का।।
जिंदगी भी तो पशीमां है यहां ला के मुझे।
ढूंडती है कोई हीला मेरे मर जाने का।।
अब उसे दार पे ले जा के सुला दे साकी।
यूं बहकना नहीं अच्छा तेरे मस्ताने का।।
हमने छानी हैं बहुत दैरो-हरम की गलियां।
कहीं पाया न ठिकाना तेरे दीवाने का।।
किसकी आंखें दमे-आखिर मुझे याद आती हैं।
दिल मुरक्का है, छलकते हुए पैमाने का।।
हर नफस उम्रे-गुजश्ता की है, मैयत फानी।
जिंदगी नाम है मर-मर के जिए जाने का।।
जिंदगी नाम है मर-मर के जिए जाने का! जिंदगी को जानना है, तो प्रतिपल अतीत के प्रति मरते जाओ। अतीत को मत ढोओ, अतीत के प्रति मर ही जाओ। जो नहीं हो गया--नहीं हो गया। अतीत के प्रति मर जाओ और भविष्य के प्रति बिलकुल ही रस न लो। इन दो चक्कियों के पाट के बीच ही जिंदगी दबी जा रही है--अतीत और भविष्य।
जिंदगी है वर्तमान। जिंदगी है--अभी और यहां। और तुम कहीं-कहीं भटक रहे हो! अतीत की स्मृतियों में--भविष्य की कल्पनाओं में! ऐसी थी जिंदगी; ऐसी होनी चाहिए जिंदगी! और चूक रहे हो उससे--जैसी है जिंदगी।
हमने छानी हैं बहुत दैरो-हरम की गलियां। मंदिरों और मस्जिदों की गलियां छानते रहो, छानते रहो--खाक मिलेगी। कहीं पाया न ठिकाना तेरे दीवाने का। पाओगे नहीं। कुछ भी न पाओगे।
हूं तो मैं शम्अ, मगर भेस है परवाने का।।
हुश्न है जात मेरी, इश्क सिफअत है मेरी।
हूं तो मैं शम्अ, मगर भेस है परवाने का।।
भेष में ही मत भटक जाना। यह शरीर तो सिर्फ वस्त्र है। यह मन भी और भीतर का वस्त्र है। उसके भीतर--शरीर और मन के भीतर जो साक्षी बैठा है, वही!
हूं तो मैं शम्अ--वह ज्योति है अनंत, शाश्वत, कालातीत; मगर भेस है परवाने का! इस भेस को अगर देखोगे, तो भूल हो जाएगी। भेष कुछ है और जो भीतर छिपा है, वह कुछ और। न तुम देह हो, न तुम मन हो। तुम चैतन्य हो। तुम सच्चिदानंद हो।
तुम्हारा नाम प्यारा है पुरुषोत्तम! पुरुषोत्तम का अर्थ समझते हो! पुरुष कहते हैं, पुर कहते हैं नगर को। और पुरुष कहते हैं, उस नगर के भीतर जो बसा है उसको। पुरुष का संबंध स्त्री-पुरुष का नहीं है। स्त्री भी पुरुष है; पुरुष भी पुरुष है। पुरुष का संबंध है, यह जो नगर है मन का...।
और नगर बड़ा है मन का। बड़ा विस्तार है इसका! और यह देह भी कुछ छोटी नहीं। इस देह की भी बड़ी आबादी है। बंबई की आबादी बहुत थोड़ी है। तुम्हारी देह में कोई सात करोड़ जीवाणु हैं। बंबई की आबादी तो अभी एक करोड़ भी पूरी नहीं। टोकियो की आबादी है एक करोड़। टोकियो से सात गुनी आबादी है तुम्हारी।
यह देह सात करोड़ जीवित अणुओं का नगर है, विराट नगर है। इस छोटी-सी देह में बड़ा राज छिपा है।
और मन का तो तुम विस्तार ही न पूछो। जमीन से आकाश के कुलाबे मिलाता रहा है। इसका फैलाव कितना है!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि एक-एक मन की इतनी क्षमता है कि पृथ्वी पर जितने शास्त्र हैं, जितने ग्रंथ हैं, जितनी किताबें हैं, जितने पुस्तकालय हैं--एक आदमी याद कर सकता है--इतनी क्षमता है! और थोड़ी-बहुत किताबें नहीं हैं।
सिर्फ ब्रिटिश म्यूजियम की लायब्रेरी में इतनी किताबें हैं कि अगर हम एक किताब के बाद एक किताब को रखते चले जाएं, तो जमीन के सात चक्कर पूरे हो जाएंगे। इतनी ही किताबें मास्को की लायब्रेरी में हैं। और दुनिया में बहुत बड़ी-बड़ी लायब्रेरियां हैं।
ये सारे पुस्तकालय भी एक आदमी याद कर सकता है, इतनी क्षमता है; इतना तुम्हारे मस्तिष्क का फैलाव हो सकता है। और इस मस्तिष्क और इस देह के भीतर छिपा बैठा है जीवन, चैतन्य।
पुरुष यानी इस पुर के भीतर जो बासा है; वह जो इस पुर के भीतर केंद्र पर बैठा हुआ है। और जब तुम इसे जान लेते हो, तो पुरुषोत्तम हो जाते हो। तब तुम साधारण पुरुष नहीं रह जाते। उत्तम हो जाते हो। तुम शिखर छू लेते हो।
मत खोजो कहीं और। जो भीतर है, उसे बाहर खोजोगे--चूकोगे। वहां है ही नहीं, तो पाओगे कैसे!
दैरो हरम की गलियां छानते रहो--खाक मिलेगी। भीतर झांको।
स्वयं को जान लेना सब कुछ जान लेना है। और जो स्वयं को नहीं जानता, वह कुछ भी जान ले, कुछ भी नहीं जानता।
इक साधे सब सधै, सब साधे सब जाए! तुम एक को साध लो, बस। यह जो तुम्हारे भीतर पुरुष है, इसको ही पहचान लो। इतना काफी है। और तुम्हारा जीवन रोशन हो जाएगा। जगमगा उठेगा। दीपावली हो जाएगी। और ऐसे दीए, जो फिर बुझते नहीं। और ऐसी रोशनी जो फिर कभी धीमी नहीं होती। जो प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होती चली जाती है। इसी परम ज्योति का नाम परमात्मा है। आत्मा का ही परम रूप परमात्मा है।

तीसरा प्रश्न: भगवान, श्री कम्मू बाबा एक सूफी फकीर थे, जिनका दो साल पहले देहांत हो गया। वे गोरेगांव बंबई में रहते थे, जहां पर अब उनकी मजार है। मेरी अंतरात्मा मानती है कि वे प्रबुद्ध संत थे, जिन्होंने सत्य को समझा था। दया और करुणा के समुद्र थे। सभी धर्म व समाज के व्यक्ति उनके पास जाते और शांति पाते थे। खूब मस्त फकीर थे। उन्होंने मेरे बहुत प्रयास करने पर मुझे एक सूफी कलाम दिया। उसके सवा साल बाद ही उनका देहांत हो गया। उन्हें कुछ पूछ न पाया। क्योंकि मरने के एक साल पहले वे बिलकुल बच्चे की तरह हो गए थे। कलाम किस ढंग से पढ़ना है, इसका उन्होंने कोई सुनिश्चित तौरत्तरीका व नियम नहीं बताया। जब इच्छा हो, जहां हो, उनका दिया कलाम पढ़ सकते हैं।
मैं कुछ समय से आपसे बहुत अधिक प्रभावित हूं, परंतु सोचता हूं कि यदि मैंने आपसे संन्यास लिया, तो कहीं श्री कम्मू बाबा तथा उनके दिए गए सूफी कलाम का तिरस्कार तो न होगा? कभी यह भी सोचता हूं कि शायद इस कलाम की ही अनुकंपा से और सदगुरु कम्मू बाबा के फजल से ही मेरी आपके प्रति इतनी आसक्ति बढ़ गई हो! इस स्थिति में कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिए। मुझे इस द्वंद्व से मुक्त कीजिए।
अजयकृष्ण लखनपाल!

पहली तो बात यह: सदगुरु बंधन नहीं है--मुक्ति है। सदगुरु से भी बंध जाओगे, तो तुमने मुक्ति को भी जंजीरों में ढाल लिया।
मैं हूं आज। मुझसे जो सीख सको, सीख लो। जो जान सको--जान लो। और अगर तुमने मुझसे कुछ सीखा और जाना--और वह अधूरा रह गया, तो वही रुक तो नहीं जाना है। कल फिर खोजना। जब मैं न रहूं, तो फिर किसी जीवित गुरु को खोजना।
अगर तुमने एक बार जीवित गुरु को पहचाना हो; थोड़ी भी उसकी छाया पाई हो, थोड़ी भी उससे किरण झलकी हो, तो यह द्वंद्व उठेगा ही नहीं। क्योंकि दो सदगुरु भिन्न नहीं होते। हजार सदगुरु भी भिन्न नहीं होते। हजार शून्यों को भी पास ले आओ, तो एक ही शून्य बनता है।
नहीं, तुम उन्हें भी नहीं पहचाने। तुम मुझे भी नहीं पहचानते हो। तुम मानते हो कि तुमने उन्हें पहचाना। अगर पहचाना होता, तो यह द्वंद्व ही खड़ा न होता। तब तुम तत्क्षण मुझे पहचान लेते। तब देर ही न थी।
लेकिन हमारी धारणाएं बड़ी अजीब हैं। हमने तो सदगुरुओं के साथ भी बंधन ही खड़े कर लिए। कोई महावीर से बंध गया। तो पच्चीस सौ साल हो गए, पीढ़ी दर पीढ़ी बंधा हुआ है! अब महावीर का कहीं नामोनिशान न रहा। जो महावीर के पास थे, उन्होंने कुछ पाया--जरूर पाया। लेकिन अब पच्चीस सौ साल में जो परंपरागत रूप से महावीर को मान रहे हैं, उनके पास क्या है?
सत्य की कोई परंपरा नहीं होती।
और सारे सदगुरुओं का संदेश एक है। इसलिए तिरस्कार कभी होता ही नहीं।
जब मैं न रहूं और तुम्हारे लिए कुछ अधूरा रह जाए, तो जरूर किसी सदगुरु को खोजना। वह मेरा तिरस्कार नहीं है। सच तो यह है कि वही मेरा सम्मान होगा। वही मेरा सम्मान होगा। क्योंकि तुमने इतना पाया था कि अब तुम उसे पूरा करने के लिए आतुर हो रहे हो।
लेकिन सदगुरुओं के नाम से बहुत से तो झूठे गुरु चलते हैं। वे यही सिखाते हैं कि गुरु यानी वैसा ही संबंध है, जैसा पति-पत्नी का। कि एक को चुन लिया, तो बस, एक के ही! ये झूठे गुरु तुम्हारा बंधन बन जाते हैं। इनका आग्रह वही है, जो पति-पत्नियों का है। ये तुम्हें अपनी संपत्ति बना लेते हैं। ये तुम्हारे मालिक होकर बैठ जाते हैं।
और इनको डर होता है कि कहीं तुम हट न जाओ। तो ये तुम्हारे भीतर अपराधभाव पैदा करते हैं कि अब किसी और को मत चुनना। किसी और को चुनना अपमान होगा मेरा! और तुम किसी और को चुनोगे, तो तुम्हारे भीतर ये अपराध के भाव को छोड़ जाएंगे। एक भीतर घाव कर जाएंगे।
नहीं; सदगुरु यह नहीं करता। सदगुरु का यह काम ही नहीं है। सदगुरु का काम इतना है कि तुम्हारी मुक्ति होनी चाहिए। तुम्हारे जीवन में सौभाग्य का उदय होना चाहिए। कहां से होता है, किस बहाने होता है--इस पर अटकेगा सदगुरु?
सूफी कलाम से होता है; कि ध्यान से होता है; मेरे पास होता है--कि किसी और के पास होता है--इससे क्या फर्क पड़ता है! अगर मैं तुम्हें चाहता हूं, अगर मैंने तुम्हें प्रेम दिया है, तो मैं यही चाहूंगा कि तुम मुक्त हो जाओ--किसी भी बहाने सही! सब बहाने हैं! उस पार जाना है--किस नाव में बैठते हो, किसकी नाव में बैठते हो, कौन माझी है--इससे क्या फर्क पड़ता है!
उस पार जाना है। और अगर तुम अभी इसी पार हो, और तुम्हारे गुरु उस पार चले गए, तो किसी नाव में बैठना पड़ेगा। अब वह नाव काम नहीं आएगी। अब वह सूफी कलाम तुम्हारे काम नहीं आएगा।
वह सूफी कलाम इतना ही अगर कर गया कि फिर तुम किसी और गुरु को पहचान लो, तो पर्याप्त है। बहुत है। इतना काम हो गया। धन्यवाद दो--कि उसने तुम्हें इतनी दृष्टि दे दी; उसने तुम्हें इतना बोध दे दिया कि तुम अब माझी को पहचान सकते हो; कि तुम नाव पहचान सकते हो। इतनी तुम्हें आंख दे दी।
इसमें द्वंद्व की कोई संभावना नहीं है अजयकृष्ण लखनपाल!
तुम पूछते हो, मैं कुछ समय से आपसे बहुत अधिक प्रभावित हूं। परंतु सोचता हूं कि यदि मैंने आपसे संन्यास लिया...! और संन्यास क्या मुझसे लिया जाता है? या किसी और से लिया जाता है? ये सब तो बहाने हैं।
जैसे हम खूंटी पर कोट को टांग देते हैं। अब किसी खूंटी पर कोट को टांगते हैं--इससे क्या फर्क पड़ता है। कोट टांगना है। खूंटी न मिले, तो खीली पर भी टांग देते हैं। और खीली न मिले, तो दरवाजे पर भी टांग देते हैं। टांगना है। कुछ न मिले, तो कुर्सी पर ही रख देते हैं। कहीं न कहीं टांगना है। सवाल है कोट को टांगना!
संन्यास का इतना ही अर्थ है--अहंकार को समर्पित करना। किसी भी बहाने कर दो।
अहंकार एक झूठ है। लेकिन तुमसे छूटता नहीं। तो सदगुरु कहता है--लाओ, मुझे दे दो। तुमसे छूटते नहीं--मुझे दे दो! चलो यह भेंट मुझे चढ़ा दो। यह बीमारी मुझे दे दो।
तुमसे नहीं छूटता। तुम समझते हो हीरे-जवाहरात हैं। तो चलो, मैं लिए लेता हूं। है तो कुछ भी नहीं; खाली हवा है। हवा से फूला गुब्बारा है।
संन्यास का इतना ही अर्थ होता है--अहंकार का समर्पण। इसमें क्या मेरा--और क्या तेरा! मैं तो सिर्फ एक निमित्त हूं। यहां छोड़ दो या कहीं और छोड़ देना। जहां मौज आ जाए, वहां छोड़ देना। मगर इतना ध्यान रखो...।
तुम कहते जरूर हो कि तुम्हारी अंतरात्मा मानती है कि वे प्रबुद्ध संत थे। मगर जानती नहीं--मानती ही होगी। अगर तुम जानते होते, तो यह द्वंद्व उठता ही नहीं। तुम तत्क्षण मुझे पहचान लेते। जिसने एक दीया देख लिया जलता हुआ, क्या वह दूसरे जलते हुए दीए को देख कर पहचान नहीं पाएगा कि यह जलता हुआ दीया है!
लेकिन जिसने बुझा दीया--माना हो--कि जला हुआ दीया है--उसको अड़चन होगी। वह कैसे तय करे कि यह भी जला है कि नहीं! उसने ज्योति तो देखी नहीं। रही हो--न रही हो; मानी थी। रही हो--तो भी मानी थी। न रही हो, तो भी मानी थी। उसकी मान्यता थी।
तुम्हारे मानने से कम्मू बाबा का सिद्ध-पुरुष होना या न होना कुछ भी संबंधित नहीं है। तुम मानो कि सिद्धपुरुष थे, तो तुम्हारी मान्यता है। तुम मानो कि नहीं सिद्ध-पुरुष थे, तो तुम्हारी मान्यता है। इससे कम्मू बाबा के संबंध में कुछ खबर नहीं मिलती। इससे सिर्फ तुम्हारी धारणा का पता चलता है। और तुम्हारी धारणा के कारण ही अड़चन आ रही है। तुम अपनी अतीत की धारणा को पकड़े हुए बैठे हो। और अड़चन क्या है?
अड़चन यह नहीं है कि कम्मू बाबा का तिरस्कार हो जाएगा। समझने की कोशिश करना अजयकृष्ण लखनपाल! अड़चन यह है कि तुम अपने अतीत में कोई भूल किए हो, यह मानने की तैयारी नहीं है। मेरा अतीत और भूल भरा हो सके? कि मैंने और गलत को पहचाना हो? कभी नहीं। अहंकार कहता है, ऐसा हो नहीं सकता। तुम और गलत को मानो! तुमने जब मानो, तो ठीक ही माना था।
यह सवाल कम्मू बाबा को छोड़ने और नहीं छोड़ने का नहीं है। यह सवाल तुम्हारे अतीत के अहंकार को छोड़ने और नहीं छोड़ने का है। अड़चन वहां आ रही है।
मगर अहंकार बड़ा चालबाज है। वह सीधा-साधा सामने खड़ा नहीं होता। नहीं तो तुम पहचान लोगे। वह पीछे से आता है। वह तुम्हें पीछे से पकड़ता है! वह तरकीब से पकड़ता है। वह बड़ी होशियारी से पकड़ता है। वह दूसरे के कंधे पर रख कर बंदूक चलाता है। अब वह कम्मू बाबा के कंधे पर बंदूक रख कर चला रहा है! कम्मू बाबा तो रहे नहीं, तो वह कह भी नहीं सकते कि भइया, मेरे कंधे पर बंदूक मत रखो। अब तुम्हारी मर्जी, किसी के भी कंधे पर रख लो।
वह कम्मू बाबा के कंधे पर बंदूक रख कर चला रहा है तुम्हारा अहंकार। वह कह रहा है, संन्यास मत लेना। कम्मू बाबा का तिरस्कार हो जाएगा! असल बात यह है कि वह यह कह रहा है कि संन्यास मत लेना, नहीं तो मुझे त्यागना पड़ेगा!
कम्मू बाबा से क्या लेना-देना! और कम्मू बाबा को अगर तुम पहचानते थे, तो संन्यास में क्षण भर की देरी करने की कोई जरूरत नहीं है; कोई आवश्यकता नहीं है। दो ज्योतियां अलग-अलग नहीं होती। हो ही नहीं सकतीं। ज्योति का स्वरूप एक है।
उस बार भी तुम चूक गए; कम्मू बाबा के साथ भी तुम चूक गए। इस बार भी मत चूक जाना। तब तुम चूक गए मान्यता के कारण। जान न पाए और मान लिया।
हमें सदियों से यही सिखाया गया है--मान लो। हम से यह कहा गया है कि मान लो, तो जान सकोगे। इससे बड़ी झूठ कोई बात नहीं हो सकती।
जरा सोचो! मान लो तो जान सकोगे--यह हमारे सारे धर्मों का आधार बन गया है। लेकिन जिसने मान लिया, वह अब क्या खाक जानेगा! अब जानने को क्या बचा? मान ही लिया। निष्कर्ष ही ले लिया।
जानने में तो मुक्त मन चाहिए। कोई निष्कर्ष नहीं चाहिए। कोई धारणा नहीं। कोई विश्वास नहीं, कोई अविश्वास नहीं। जानने के लिए तो खुले मन से यात्रा करनी होती है--कि मुझे कुछ पता नहीं।
जिसको पहले से ही पता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है--वह कभी नहीं जान पाएगा। उसका गलत और ठीक--हमेशा बीच में आ जाएगा। वह वही भूल करेगा, जो योगवशिष्ट के सूत्र की है।
तुमने मान लिया था; तुम चूक गए उनको जानने से। मुझे मत मान लेना--नहीं तो मुझे भी चूक जाओगे। यहां तो जानने की बात है; मानने की बात नहीं है। जानो--फिर मानना। मानना पीछे है--जानना पहले है।
और कम्मू बाबा को आड़ मत बनाओ।
लखनपाल! डर कुछ और हैं। लेकिन हम डरों को भी सुंदर वेश पहनाते हैं। अब तुमने कितना सुंदर वेश पहनाया!
डर होगा कि कहीं मां दुखी न हो। लेकिन वह तुम न कहोगे। भय कुछ और होगा--कि लोग क्या कहेंगे! कि पागल हो गए!
अजयकृष्ण लखनपाल उद्योगपति हैं--बड़े उद्योगपति हैं। मरफी रेडियो को बनाने के कारखाने के मालिक हैं। तो डरते होंगे कि लोग क्या कहेंगे! कि अजय, कृष्ण तुम भी पागल हो गए! तुम भी दीवाने हो गए! ये गैरिक वस्त्र पहन कर चले आ रहे हो!
मां है। मां मुश्किल में डाल देगी। पत्नी से तो तलाक हो गया है। यह अच्छा हुआ! यह बहुत ही अच्छा हुआ! एक अड़चन तो हटी। लेकिन मां! मां दिक्कत देगी। वे तुमने सवाल नहीं उठाए। वे असली सवाल हैं। बेचारे कम्मू बाबा को क्यों घसीट रहे हो! क्यों मुर्दों को बीच में ला रहे हो! मजारों को बीच में खड़ा मत करो। जरा जांच-परख करो भीतर।
और अहंकार है, जो यह कह रहा है कि तुमने कम्मू को माना था। अब बदल रहे हो? बेईमानी कर रहे हो! दगाबाजी कर रहे हो! गद्दारी कर रहे हो! यह भाषा ही राजनीति की है। यह भाषा धर्म की नहीं है।
अगर तुमने कम्मू बाबा को जाना था, और वह ज्योति विदा हो गई--महाज्योति में लीन हो गई--तो मेरी तरफ गौर से देखो। वही ज्योति फिर मौजूद है।
ज्योति तो हमेशा वही  है। बुद्ध की हो। महावीर की हो। कृष्ण की हो। कबीर की हो। नानक की हो। ज्योति तो सदा वही है। क्योंकि सत्य एक है।
इसलिए कैसा तिरस्कार! किसका तिरस्कार! तिरस्कार हो ही नहीं सकता ज्योति के जगत में। लेकिन अहंकार यह बात मानने को राजी नहीं होता कि मैंने जिसको पकड़ा था, वह भ्रांति थी; कि मैं कभी भूल कर सकता हूं; कि मैंने कभी अतीत में भूल की है। अहंकार अतीत पर जीता है; अतीत उसका भोजन है, उसका पोषण है। और मैं कहता हूं--अतीत से बिलकुल छुटकारा पा जाओ। उसमें कम्मू बाबा भी आ जाएंगे।
और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कम्मू बाबा सिद्धपुरुष नहीं थे। इससे कुछ लेना-देना नहीं है तुम्हें। सिद्धपुरुष थे, तो क्या करोगे! सिद्धपुरुष नहीं थे, तो क्या करोगे! जो भी थे--गए उस पार। इस पार अब नाव नहीं है।
अभी मेरी नाव इस पर है। बैठना हो--बैठ जाओ। कल चली जाएगी, फिर पछताओगे, फिर रोओगे! फिर यह द्वंद्व खड़ा होगा कि मैंने यह क्या किया! मैं बैठ क्यों न गया इस नाव में? इतना प्रभावित था! तब फिर तुम किसी से पूछोगे जा कर कि अब और एक मुश्किल से गई। दो आदमियों से प्रभावित था--एक कम्मू बाबा, और एक मैं। और अब तीसरे को कैसे चुनना! दो को चुना नहीं--अब तीसरे को कैसे चुनना? यूं ही तुम जिंदगी भर भटकते रहोगे। माझी अपनी नावें उस पार ले जाते रहेंगे, तुम इसी पार अटके रहोगे।
इतना मैं तुमसे कह सकता हूं कि संन्यास अपूर्व कीमिया है--अहंकार के विसर्जन की, अतीत के विसर्जन की, नव जन्म की। साहस हो, तो डूब जाओ। और कोई बहाने न खोजो।
जरूर कम्मू बाबा ने तुम्हें जो कलाम दिया था, उसकी वजह से ही तुम मेरे पास आ गए होओगे।
प्रत्येक सदगुरु अपने शिष्यों के लिए इंतजाम कर जाता है। अगर न बैठ पाएं उसकी नाव में, चूक जाएं, भटक जाएं, समय पर न पहुंच पाएं, देर-अबेर कर दें--तो यूं न हो कि पीछे उनके लिए कोई उपाय न रह जाए। इतनी सूझ तो दे जाता है, इतना बोध दे जाता है कि वे फिर किसी और को पहचान लेंगे; किसी और माझी को पहचान लेंगे।
द्वंद्व छोड़ो। लेकिन डर कुछ और होगा। डर मेरे हिसाब में यह है कि मां से तुम डरे हुए हो। मां दुखी न हो जाए!...
अब देखा, संत महाराज की तीन दिन से मैं बात कर रहा था। कल उनकी बहन ने, पिंकी ने संन्यास लेने का तय कर लिया। उनके पिता यहां मेरे सामने बैठे रो रहे थे। आंसू की धार लगी हुई थी। और संत से उन्होंने कहा भी कि अब अमृतसर जाने की कोई इच्छा नहीं होती। वहां दुख ही दुख है। अब यहीं रुक जाने का मन होता है।
संत ने कहा, कौन कहता है जाओ। रुक जाओ। जिंदगी तो रह लिए वहां। और अब अमृतसर में है क्या! अमृत यहां है--सर वहां है! अब क्या करोगे अमृतसर में रह कर? रुक जाओ।
तब तक सब ठीक था। तभी उनकी बेटी ने पिंकी ने आकर पूछा कि मैं संन्यास ले लूं! बस, सब तिरोहित हो गया भाव। उसका हाथ पकड़ा। घसीट कर उसको जबर्दस्ती रिक्शे में डाल लिया। भीड़ भी लग गई। लोगों ने समझाया भी कि यह क्या कर रहे हैं! संत ने भी कहा कि वह चौबीस साल की है, यह क्या कर रहे हैं?
मगर वे तो फिर भूल ही गए उस क्रोध में कि यह मेरी चीज है!...लड़की तुम्हारी चीज है? चीज? आदमी को चीज कहते हमें शर्म भी नहीं आती। आत्मा को चीज बना देते हैं! मगर हम सदियों से यह कहते रहे हैं। कन्यादान करते हैं! जैसे चीज हो कोई। कन्यादान! स्त्री-धन कहते हैं हम--कि स्त्री तो धन है।
हमने स्त्रियों का कितना अपमान किया है! चौबीस वर्ष की लड़की--कब इसको मुक्ति दोगे कि अपने ढंग से सोच सके? मगर उसको घसीट लिया।
संत ने कहा भी कि उसको अगर संन्यास लेना है, तो लेने दें। और अभी तो आप ही कहते थे कि जाने का मन नहीं होता। और वह भी यही कह रही है कि मेरा भी जाने का मन नहीं है अब! आपको जाना हो, तो जाएं। मैं यहां रुक जाना चाहती हूं।
आगबबूला हो गए। फिर उन्होंने देर नहीं की। पूना उन्हें खतरनाक मालूम पड़ा, कि कहीं उनकी चीज--उनकी लड़की कहीं हाथ से न छूट जाए! ठीक यहां से जाकर होटल में से सामान निकाल कर वे भाग ही खड़े हुए! संत जब तक होटल में पहुंचा, तो वे अपना सामान टैक्सी में रख रहे थे!
संत ने कहा कि इतनी जल्दी क्या है! उन्होंने कहा, बस, अब बात ही मत करो। मैं एक मिनट यहां नहीं रुक सकता। यह तो खतरनाक मामला है!
तत्क्षण अमृतसर चले गए, जहां दुख ही दुख है--उनके ही हिसाब से! और वह लड़की भी नहीं जाना चाहती, और वे भी नहीं जाना चाहते।
लेकिन जब लड़की ने कहा कि मैं संन्यास लेना चाहती हूं, तब उनके अहंकार को चोट लग गई। और जब लड़की ने जिद्द की कि मैं यहीं रुक जाना चाहती हूं, अब आपके साथ मुझे जाना भी नहीं है, तब तो भारी आघात हो गया। यूं खुद भी यहां रहना चाहते थे! और पछताएंगे अमृतसर जा कर कि यह मैंने क्या किया! दुखी होंगे। सरल आदमी थे। मगर कितने ही सरल हों, हैं तो सरदार ही! तो सरलता को भूल गए। एक क्षण में सरदार वापस आ गया! अतीत यूं हमले करता है। इस तरह आता है अंधड़त्तूफान की भांति कि तुम्हें उड़ा ले जाता है।
लड़की को जबर्दस्ती घसीट कर ले गए। अब संत को डर है कि वे शायद श्रीनगर न गए हों! बजाय अमृतसर जाने के। क्योंकि श्रीनगर में उन्होंने लड़का खोज रखा है। वे शायद यहां से सीधे श्रीनगर जाएंगे और तत्क्षण लड़की की शादी कर देंगे, ताकि उनकी झंझट मिट जाए--ताकि चीज किसी और की हो जाए! फिर वे जानें! और मुझे भी लगता है, वे यही करेंगे। और जीवन भर लड़की को दुखी करेंगे और खुद दुखी रहेंगे।
और अब यहां आने की हिम्मत भी नहीं जुटा सकेंगे। क्या मुंह ले कर आएंगे! यह जो दर्ुव्यवहार किया उन्होंने अपनी बेटी के साथ! और संत से कहा कि अगर अपनी बहन को यहां लाना हो, तो अमृतसर आना। वहां तुम्हें मजा चखाऊंगा!
सरदार हैं! और तलवार बेचने का धंधा करते हैं! सो कृपाण निकल लेंगे वे, अगर संत गए वहां। ऐसे संत भी अगर पुराने संत होते, तो यहीं कृपाण निकल जाती!
संत भी जब पहले-पहले यहां आए थे, तो ध्यान कम करते थे, कृपाण ज्यादा चलाते थे! ध्यान में! एकदम तलवार चला देते थे! जब संत पहले-पहले ध्यान करते थे, तो वहां स्थान खाली हो जाता था। आसपास दस-पंद्रह लोग एकदम हट जाते थे। क्योंकि वे इस तरह तलवार चलाते थे! मुझसे कई दफा लोगों ने कहा भी कि यह किस तरह का ध्यान है! यह तो आदमी किसी को मार ही डालेगा! क्या करें--वे भी सरदार थे। अब तो संत हो गए हैं; सरदार वगैरह सब खो गया। नहीं तो कृपाण वे भी चला सकते थे!
मैं बलसाड़ में एक शिविर ले रहा था। कोई पांच सौ लोग शिविर में सम्मिलित थे। और एक सरदार जी भी सम्मिलित थे। जब सक्रिय ध्यान मैंने करवाया और मैंने कहा कि अब जो भी दिल में हो--निकाल डालो! तो उस सरदार ने इस तरह से घूंसेबाजी की कि पांच सौ के पांच सौ ध्यानी छंट कर खड़े हो गए अलग। सरदार अकेला! पांच सौ को हटा दिया! मैदान खाली! क्योंकि कई को चोटें मार दीं! वह घूंसे चलाए!
जब ध्यान खतम हुआ, तो सरदार ने देखा कि बात क्या हुई! अकेले ही रह गए! सब लोग खड़े हो कर देख रहे हैं दूर से कि अब करना क्या! तब उसे शर्म लगी। मेरे पैरों पर गिर पड़ा और कहा, मुझे माफ करें। आपने कहा कि अब दिल खोल कर निकाल दो, तो जो भरा था, मैंने निकाल दिया। अब किसी को चोट वगैरह लगी हो, तो मुझे माफ करना, क्योंकि मैं किसी को मारना नहीं चाहता था। मगर जो दिल में भरा था...। जब आपने कहा--निकाल ही दो--और समग्रता से निकाल दो, तो फिर मैंने कहा--अब क्या कंजूसी करना! यह पहली दफा तो मौका आया। निकाल दो!
अजयकृष्ण लखनपाल, द्वंद्व कहीं और है; वह अहंकार और तुम्हारी चेतना के बीच है; वह अतीत और वर्तमान के बीच है। अब कम्मू बाबा तुम्हारे लिए सिर्फ अतीत के प्रतीक रह गए हैं। मैं वर्तमान हूं। और मैं तुमसे यह कहता हूं कि सदा वर्तमान के प्रति निष्ठा रखना, क्योंकि वर्तमान ही परमात्मा है। अतीत हो गया। सांप तो निकल गया, अब तो सिर्फ रेत पर निशान रह गए! पूजते रहो चाहे तो। तुम्हारी मर्जी--फूल चढ़ाते रहो। लेकिन जो जा चुका--जा चुका। अब तुम कितना ही कम्मू बाबा का कलाम पढ़ते रहो, कुछ भी न होगा।
कलाम में कुछ नहीं होता; जादू होता है सदगुरु में। इसलिए अकसर यह हुआ है--अकसर क्या, हमेशा यह हुआ है कि जो सूत्र महावीर की मौजूदगी में लोगों के जीवन में दीए जला दिए, वही सूत्र पच्चीस सौ साल में किसी की जिंदगी में दीए नहीं जला सके। वही सूत्र! वही के वही सूत्र! जादू था महावीर में, तो जिस सूत्र को कह दिया, उसी में जादू आ गया। वह जादू था महावीर में। वह महावीर के भीतर था जादू। उस जादू में डूब कर जो सूत्र आया, उसमें ही थोड़ा जादू लिपटा आ गया। वह शून्य था भीतर; वह समाधि थी भीतर--उसमें डुबकी मारकर जो भी शब्द आया, वह भी उसी माधुरी से भर कर आया। थोड़ा अमृत उसमें भी बह आया। थोड़ी बूंदा-बांदी उसमें भी हो गई। जिस पर पड़ गईं वे बूंदें, वह जीवित हो उठा। लेकिन अब पच्चीस सौ साल से तोतों की तरह लोग उसी को दोहरा रहे हैं। अब उसमें कुछ भी नहीं है। बात कुछ भी नहीं है।
तुमने इस पर खयाल किया कि दवा कम काम करती है, चिकित्सक ज्यादा काम करता है। दवा में जादू नहीं होता, जादू चिकित्सक में होता है। और अगर कभी ठीक चिकित्सक जिससे तुम्हारी श्रद्धा का तालमेल बैठ जाए, मिट्टी भी थमा दे, तो औषधि हो जाती है। और जिससे तुम्हारी श्रद्धा का तालमेल न बैठा हो, तुम्हें अमृत भी पिलाए, तो जहर हो जाएगा।
अगर तुम सच में ही मुझसे प्रभावित हो, तो अब सोचो मत। अगर सच में ही प्रभावित हो, तो छलांग लो। अब मत पूछो कि फिर सोचता हूं कि मैंने आपसे संन्यास लिया, तो कहीं कम्मू बाबा और उनके दिए सूफी कलाम का तिरस्कार तो न होगा!
यही सम्मान होगा। तिरस्कार कैसे होगा! तिरस्कार होता ही नहीं सदगुरु का। तुम करना भी चाहो, तो नहीं होता। सदगुरु का तिरस्कार किया ही नहीं जा सकता। और यह तो कोई सवाल ही नहीं तिरस्कार का। यह तो सम्मान होगा। यह तो जहां तक यात्रा तुम्हारी रुक गई है, उससे आगे बढ़ना होगा। इससे कम्मू बाबा की आत्मा कहीं भी होगी, तो आनंदित होगी। तुम पर फूल बरसा देगी। इसमें द्वंद्व कुछ भी नहीं है।
लेकिन हां, अगर कोई और द्वंद्व भीतर छिपें हों कि लोग क्या कहेंगे! वह तुम मुझसे भी नहीं कह सकते; पूछ भी नहीं सकते कि लोग क्या कहेंगे; कि मां क्या कहेगी; परिवार क्या कहेगा; साझीदार क्या कहेंगे! लौट कर बड़ौदा जाओगे, तो बड़ौदा के लोग कहेंगे, अरे! यह तुम्हें क्या हो गया!
औरों की तो बात छोड़ दो, मेरे संन्यासी जब अपने घर जाते हैं, तो उनके बच्चे उनसे पूछते हैं कि पापा! आपका भी दिमाग खराब हो गया! यह आपको क्या हो गया!
मेरे एक मित्र संन्यास लेकर वाराणसी गए, वहां उनका घर, पंद्रह दिन बाद उनकी खबर आई कि अस्पताल से लिख रहा हूं, क्योंकि मेरे परिवार के लोगों ने मुझे अस्पताल में भरती करवा दिया है और कारण यह है कि मैं जिंदगी भर का दुखी आदमी, उदास आदमी, जब लौटकर आया, तो नाचता हुआ आया। जब घर उतरा तांगे से, तो नाचता हुआ, गीत गाता हुआ अंदर गया! पत्नी ने कहा कि अरे, क्या पागल हो गए! घर भर के लोग इकट्ठे हो गए। मुहल्ले भर के लोग आ गए कि हो क्या गया तुम्हें! अच्छे-भले गए थे!
तो उनको बहुत हंसी आई। उन्होंने कहा कि मैं अच्छा-भला गया था! अच्छा-भला होता, तो जाता ही क्यों? अरे, रोता हुआ गया था! हंसता हुआ आया हूं। मूर्खो! जब मैं रो रहा था, तब तुम कोई आए न। और अब जब मैं हंस रहा हूं, तो तुम समझ रहे हो, मैं पागल हो गया!
वे तो बिलकुल ही समझ गए कि बिलकुल हो गया पागल! बिलकुल गया काम से! पकड़ कर बिस्तर पर लिटा दिया!
तो उन्होंने मुझे लिखा कि मैं हंसने लगा! खिलखिलाहट छूटने लगी मुझे कि हद्द हो रही है! मजा आ रहा है! यह भी खूब रही! जिंदगी दुख में गई। कोई सहानुभूति को भी न आया। आज हंसता हुआ आया हूं, तो मुझे बिस्तर पर लिटा रहे हैं जबर्दस्ती!
मुहल्ले के लोगों ने कहा, लेटो। डाक्टर को बुलाओ! अरे, मैंने कहा, क्या पागल हो गए हो! मुझे डाक्टर मिल गया!
मगर वे बोले कि तुम चुप रहो। तुम बात ही न करो। तुम तो आंखें बंद कर के विश्राम करो। तुम थोड़ा आराम करो!
डाक्टर को बुला लिया। डाक्टर को देखकर उनको और हंसी आई। डाक्टर नब्ज देख रहा है, स्टेथेस्कोप लगा कर देख रहा है! तो उनको हंसी...। डाक्टर ने कहा, हंसना बंद करो। मुझे पहले जांच करने दो।
उन्होंने कहा कि हंसी इसी बात की आ रही है कि जांच करने को कुछ है नहीं। जब जांच करने को बहुत कुछ था, तब कहां थे? तब कोई न आया!
डाक्टर ने भी कहा पत्नी को कि बात खतरनाक है। शारीरिक कोई मामला नहीं है। मानसिक कोई गड़बड़ है। अस्पताल में ही भरती कर देना ठीक है!
तो उन्होंने अस्पताल से ही लिखा है कि अस्पताल में पड़ा हूं। हंस रहा हूं! दवाइयां ले रहा हूं! अजीब यह दुनिया है। यहां हंसी क्षमा नहीं की जा सकती। यहां आनंद बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। यहां दुख स्वीकार है सभी को, क्योंकि सभी दुखी हैं।
अजयकृष्ण लखनपाल, अवसर है, चूको मत। कहीं फिर पीछे पछताना न हो। फिर पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत!
आज इतना ही।
आठवां प्रवचन; दिनांक १८ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना


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