रविवार, 28 मई 2017

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-10



प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

प्रार्थना की कला—(दसवां प्रवचन)
दिनांक २० मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—हे अनंत! अपने में ले ले,
तुम में मिल जाऊंगा अनजान
मिलकर तेरे साथ हृदय का,
पूरा कर लूंगा अरमान।
प्रभु, यही प्रार्थना है!
2—मैं युवा था तो कभी मृत्यु का विचार भी नहीं करता था और अब जब वृद्ध हो गया हूं तो मृत्यु सदा ही भयभीत करती है। मैं क्या करूं? क्या मृत्यु से छुटकारा संभव है?
3—मैं शांति चाहता हूं, पर घर में रह कर शांति कहां, और आप कहते हैं कि घर में रह कर ही सच्ची शांति पानी है। मेरी कुछ समझ में नहीं आता। सात बच्चे हैं, एक से एक बढ़ कर उपद्रवी, कर्कशा पत्नी है, सास अक्सर सिर पर सवार रहती है। ऐसे में क्या शांत होना संभव है?
4—पिछले दिनों जैन मुनि विद्यानंद मेरे गांव पधारे थे, चूंकि वे विश्व धर्म की जय बोलते हैं, मैंने निम्नलिखित प्रश्न उन्हें भेजे:
पहला--कल आपने कृष्ण को नारायण संबोधन दिया, पर जैन शास्त्रों के अनुसार वे सातवें नरक में है।
दूसरा--यहां कुछ लोग रजनीश के विधि-प्रयोग से ध्यान करते हैं पर संप्रदाय विशेष में जन्मे होने के कारण उस संप्रदाय के लोग विरोध करते हैं। कुछ कहें।
मेरा छोटा सा पर्चा पढ़ कर उत्तर देना तो दूर, उन्होंने कागज को ऐसे फेंका जैसे अंगारा उनके हाथ में आ गया हो और क्रोधित हो गए। बाद में प्रश्नकर्ता के बारे में उन्होंने पूछताछ की।
5आप हमें इतना हंसाते हैं मगर स्वयं कभी क्यों नहीं हंसते?


पहला प्रश्न: भगवान,
हे अनंत अपने में ले ले
तुममें मिल जाऊंगा अनजान
मिल कर तेरे साथ हृदय का
पूरा कर लूंगा अरमान!
प्रभु, यही प्रार्थना है।
चितरंजन,
प्रार्थना है तो खाली नहीं जाएगी--बस प्रार्थना होनी चाहिए। लोग कहते तो हैं कि प्रार्थना है, प्रार्थना होती नहीं। शब्द में ही होती है। इसीलिए चूकती है। प्रार्थना हृदय से आविर्भूत हो तो प्रकट होते ही, या कि प्रकट होने के पूर्व ही पूरी हो जाती है। प्रार्थना में उसकी पूर्णता छिपी है। प्रार्थना के अतिरिक्त कोई और प्रार्थना की पूर्णता नहीं है।
प्रार्थना शब्द को थोड़ा समझना। यह शब्द उन थोड़े से शब्दों में से एक है, जिनकी कीमत नहीं आंकी जा सकती। क्योंकि प्रार्थना के ऊपर बस फिर परमात्मा है, और कुछ भी नहीं। प्रार्थना जैसे उसके द्वार की कुंजी है। प्रार्थना हाथ लग गई तो परमात्मा लगा ही लगा। प्रार्थना हाथ लगी, फिर कोई परमात्मा से चूका नहीं। जो चूके हैं परमात्मा से, वे प्रार्थना से चूकने के कारण चूके हैं।
प्रार्थना का अर्थ मांगना नहीं होता। मांगा कि प्रार्थना झूठी हो गई। लेकिन हमने तो प्रार्थना का यही अर्थ मान रखा है; मांगने वाले को हम प्रार्थी कहते हैं और प्रार्थना का प्रयोजन ही मांगना होता है। लोगों को जब कुछ मांगना होता है तभी प्रार्थना करते हैं। इसलिए उनकी प्रार्थना का न तो कुछ अर्थ है, न कोई सार है। उनकी प्रार्थना निस्सार है। और बार-बार प्रार्थना करके जब व्यर्थ जाए तो स्वभावतः शंकाएं उठती हैं, संदेह उठते हैं। प्रार्थना जब पूरी न हो तो परमात्मा का प्रमाण भी कैसे मिले! प्रार्थना की पूर्णता में ही तो उसका प्रमाण है। कोई तर्क तो उसे सिद्ध कर सकता नहीं। बस प्रार्थना में जो अनुभव होता है, उसके अतिरिक्त उसे सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं। तो फिर धीरे-धीरे प्रार्थना टूटती है, खंडित होती है; नहीं सुनी जाती तो परमात्मा पर से आस्था उठ जाती है।
इस सदी में परमात्मा से आस्था उठ जाने का कारण यही है: लोग प्रार्थना की कला भूल गए हैं। उस कला का पहला सूत्र है: मांगना मत, देना। परमात्मा से क्या मांगना है? उसने इतना दिया है! जीवन दिया है, और क्या चाहिए? चैतन्य दिया है, और क्या चाहिए? प्रेम दिया है, प्रेम की क्षमता दी है, और क्या चाहिए? इतना सौंदर्य दिया है, इतना सुंदर विश्व दिया है!
प्रार्थना अगर मांग बनी तो उसका अर्थ हुआ: शिकायत; इतना काफी नहीं है, कुछ और चाहिए। प्रार्थना होनी चाहिए धन्यवाद, कि जो दिया है वह मेरी पात्रता से ज्यादा है। कोई मेरी पात्रता तो नहीं थी कि मुझे जीवन मिले। कोई मेरी पात्रता तो नहीं थी कि इतने फूल मेरे जीवन में झरें, इतने गीत मेरे जीवन में लगें! यह मेरी कमाई तो नहीं थी, कि चांदत्तारों से भरा हुआ यह आकाश मुझे उपलब्ध हो! यह हृदय प्रेम-पगा! यह प्राणों का संगीत! यह ध्यान की अनाहत ध्वनि! ये चैतन्य के कमल, ये मेरे भीतर खिलें--ऐसी मेरी कोई कमाई तो न थी। न मालूम किन अनजान हाथों का प्रसाद है!
कृतज्ञता में झुक जाने का नाम प्रार्थना है। धन्यवाद में झुक जाने का नाम प्रार्थना है। और चितरंजन, ऐसी प्रार्थना तुम्हारे भीतर उमग रही है। पहले-पहले अंकुर आने शुरू हुए हैं। जैसे हरी-हरी दूब अभी-अभी वर्षा के नये-नये झोंकों से पृथ्वी से झांकने लगी हो! जल्दी ही पृथ्वी हरियाली से भर जाएगी। ऐसी ही नई-नई दूब प्रार्थना की तुम्हारे भीतर उगनी शुरू हुई है। जरूर पूरी होगी। तुम हरे होकर रहोगे। तुम्हारे भीतर नये जीवन का सूत्रपात हो चुका, उसे रोकने की अब कोई शक्ति में क्षमता नहीं है।
प्रार्थना इतनी ऊर्जापूर्ण घटना है कि शुरू भर हो जाए, उसकी चिनगारी भर पड़ जाए कि फिर तो पूरे जंगल में आग लग जाती है। चिनगारी पड़ गई है। तुम्हारे भीतर धन्यवाद का भाव उठना शुरू हुआ है। तुम मांग नहीं रहे हो। तुम अपने को समर्पित करना चाहते हो।
तुम कहते हो--
हे अनंत अपने में ले ले!
बस प्रार्थना यही हो सकती है कि जैसे नदी अपने को सागर में खो दे। कितनी दूर से यात्रा करके नदी आती है! पहाड़ों की ऊंचाइयों से उतरती है। न मालूम कितने पत्थरों को काट कर, मार्ग के रोड़ों को हटाकर, सागर की तलाश करती हुई नाचती है, गाती है! पैरों में घूंघर बांधे, दुल्हन की भांति अज्ञात पिया से मिलने! कहीं गहरे में प्रीतम छबि नैनन बसी! ठीक-ठीक साफ भी नहीं है शायद, कहां जा रही है, क्यों जा रही है, कोई अनजान आकर्षण--अज्ञात का, सागर का निमंत्रण सुनाई पड़ रहा है। भागी जाती है और जब तक सागर में न मिल जाए तब तक रुकती नहीं, ठहरती नहीं।
धार्मिक व्यक्ति का जीवन सरिता का जीवन है, सरोवर का नहीं। सरोवर तो सड़ता है, क्योंकि अपने में ही बंद है, अपने अहंकार की सीमाओं में आबद्ध। सरोवर तो बड़ा कंजूस है, बड़ा कृपण है। कुछ देता नहीं। लेकिन सूखता है। जो देगा नहीं वह सूखेगा, धूप में उड़ेगा। कीचड़ ही रह जाएगी जल्दी। कीचड़ से बदबू उठेगी और कुछ भी पीछे न छूट जाएगा। सरोवर भयभीत है तो अपने को बांध कर जी रहा है।
सरोवर, गृहस्थ के जीने का ढंग है और सरिता, संन्यासी के जीवन का ढंग है। और कुछ फर्क नहीं, फर्क भीतरी हैं। संन्यासी में बहाव होता है, प्रवाह होता है। वह अपने को अनंत में मिला देने को आतुर होता है। वह मूलस्रोत के उदगम में चलता है, कि हम उसी में लीन हो जाएं जिससे हमारा आना हुआ है। यह लहर उसी सागर में डूब जाए जिससे उठी है। बस प्रार्थना यही हो सकती है।
पूरी होगी, जरूर पूरी होगी। अन्यथा नहीं हुआ है कभी। निरपवाद रूप से प्रार्थना पूरी होती है--बस होनी चाहिए।
दूसरी बात खयाल में रहे कि लोग अक्सर प्रार्थना में रटे-रटाए सूत्रों को दोहराते हैं। कोई गायत्री मंत्र पढ़ रहा है, कोई नमोकार मंत्र पढ़ रहा है, कोई जपुजी पढ़ रहा है, कोई कुछ, कोई कुछ! प्रार्थना हार्दिक होनी चाहिए, उधार नहीं, बासी नहीं। किन्हीं और के शब्दों को दोहराने की जरूरत नहीं है। प्रेम क्या इतना नपुंसक है कि अपने शब्द भी न खोज सके? और अगर अपने शब्द न हों तो कम से कम अपना मौन तो है ही! पर अपना होना चाहिए। वह शर्त भूले न। कितने ही सुंदर शब्द हों, अगर वे पराए हैं, तो थोथे हैं। और निःशब्द मौन भी बहुत अर्थपूर्ण है, अगर अपना है। अर्थ आता है अपने से! निजता से अर्थ का जन्म होता है।
तो कभी बंधी-बंधाई प्रार्थनाएं मत दोहराना। वही लोग कर रहे हैं--मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजों में, गुरुद्वारे में। बंधी-बंधाई प्रार्थनाएं दोहराई जा रही हैं। कम से कम प्रार्थना को तो झूठा मत स्वीकार करो। तुम दूसरों के जूते भी पहनने को राजी नहीं होते। तुम दूसरों के वस्त्र भी पहनने को राजी नहीं होओगे। और तुम दूसरों की प्रार्थना ओढ़ने को राजी हो जाते हो! न लाज, न शर्म, न संकोच! शरीर पर भी दूसरों के वस्त्र ओढ़ने में तुम्हें लगता है अपमानजनक! किसी के जूते पहनने में भी तुम्हें पीड़ा होगी। क्या तुमने अपना आत्मगौरव इतना खो दिया है कि आत्मा को वस्त्र पहनाओगे औरों के? फिर वे चाहे कितने ही सुंदर हों।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन को उसके एक मित्र ने कहा कि क्यों तुम अपने बाप को बदनाम कर रहे हो? एक तुम्हारे बाप थे, कपड़ों के ऐसे शौकीन थे, सुंदर से सुंदर वस्त्र पहनते थे, कीमती से कीमती वस्त्र लाते थे। तुम्हारे पास आज धन भी ज्यादा है, इतना तुम्हारे बाप के पास कभी था भी नहीं, सुविधा भी ज्यादा है--और तुम कहां के चीथड़े पहने फिरते हो! तुम्हें शर्म नहीं आती?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, क्या बात कर रहे हो! अरे यह वही कोट है जो मेरे पिताजी पहना करते थे। चीथड़े कहते तुम्हें शर्म नहीं आती?
पिताजी को मरे भी तीस साल हो गए, वही कोट पहना हुआ है। लेकिन तुम गायत्री मंत्र जब दोहरा रहे हो तो तुम्हें पता है कि जब यह पहली बार किसी के हृदय से आविर्भूत हुआ होगा, उस घड़ी को बीते कितने हजार साल हो गए! तब यह स्वस्फूर्त था। तब इसमें ताजगी थी सुबह की ओस की। तब इसमें नये-नये खिले फूल की गंध थी। जब यह किसी ऋषि के हृदय में जागा था, तो यह ऋचा थी। और अब? अब सिर्फ तोतारटंत है।
अपनी गायत्री को जगने दो। परमात्मा तुम्हारे भीतर भी गाने को उतना ही राजी है जितना किसी और के भीतर गाया है। तुम्हारी गायत्री को पैदा होने दो।
इसलिए ध्यान रखना, जब भी प्रार्थना में झुको तो चाहे कितने ही साधारण शब्द हों, लेकिन अपने हों। और अपने शब्दों को भी रोज-रोज मत दोहराना, क्योंकि वे भी बासे हो जाते हैं। कल के शब्द कल गए, कल बीता सो बीता। आज सुबह जब सूरज को देखो तो कल के शब्दों को बीच में मत लाना। क्या तुम मर गए हो? क्या कल का उत्तर आज किसी भी अर्थ में जीवंत हो सकता है? तुम अभी स्वयं जी रहे हो, आज फिर गीत उठने दो, आज फिर प्रार्थना जगने दो! जब झुको तब उस क्षण की अनुभूति को ही प्रकट होने दो। तब तुम्हारी प्रार्थना में भी प्रवाह होगा। तब तुम्हारी प्रार्थना भी रोज-रोज बदलेगी।
एक होशियार वकील रोज रात को सोने के पहले आकाश की तरफ देखता और कहता प्रभु से कि पढ़ लो। उसने अपने बिस्तर के पीछे, जिस धर्म को मानता था उसकी प्रार्थना छपवा कर टांग रखी थी। रोज-रोज क्या कहना! अरे तुम खुद ही पढ़े-लिखे हो, पढ़ लो!
मगर मैंने इससे भी ज्यादा होशियार वकील की घटना सुनी है कि उसने इतना भी महंगा काम नहीं किया था कि छपवा कर प्रार्थना टांगे; वह तो रोज बिस्तर में घुसने के पहले कहता था: डिट्टो! और कंबल के नीचे हो जाता था। क्या जरूरत रोज-रोज वही कहने की! जो कल कहा था--वही।
मगर वही तुम कर रहे हो। तुम चाहे डिट्टो न कहो, मगर अगर गायत्री तुमने वही पढ़ी जो कल पढ़ी थी और परसों भी पढ़ी थी, और तुम्हारे पिता ने भी पढ़ी थी और उसके पिता ने भी, और पांच हजार साल से पढ़ी जा रही है--तो तुम डिट्टो ही कह रहे हो। वकील कुछ गलती नहीं कर रहा था। वकील था, होशियार था। तुम नासमझ हो, नाहक पूरा दोहरा रहे हो।
प्रार्थना तुम्हारी हो, तुम्हारी निजता से उठे। कुछ तुम्हारी निजता का रंग उस पर होना चाहिए। अद्वितीयता होनी चाहिए।
परमात्मा ने प्रत्येक व्यक्ति को अद्वितीय बनाया है। वह दोहराता नहीं। दोबारा दो एक जैसे व्यक्ति नहीं बनाता। बस एक को एक ही बार बनाता है। न तुम्हारे जैसा व्यक्ति पहले कभी हुआ, न आज है, न कभी आगे होगा। परमात्मा को पुनरुक्ति भाती ही नहीं--बहुत मौलिक सर्जक है। उस मौलिक सर्जक के साथ अगर संबंध जोड़ना हो तो थोड़ी मौलिकता सीखनी जरूरी है।
इसलिए बंधे-बंधाए सूत्रों से प्रार्थना नहीं होती। उनसे गंदे डबरे पैदा होते हैं। उनसे हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध पैदा होते हैं--गंदे डबरे! उनसे धार्मिक व्यक्ति पैदा नहीं होता।
और क्या मंदिरों में जाना है, क्या मस्जिदों में जाना है! अगर यह सारा अस्तित्व उसका मंदिर नहीं, उसकी मस्जिद नहीं, तो आदमी के बनाए हुए मंदिर उसके मंदिर हो सकते हैं? क्या काबा, क्या काशी, क्या गिरनार? जहां तुम झुके, जहां हृदय से आविर्भूत भाव उठा, जहां तुम्हारा गीत गुनगुनाया, जहां तुम नाचे मस्त हो कर, चितरंजन--वहीं काशी है, वहीं काबा है। जहां भक्त है वहां भगवान है। भक्ति में भगवान है। जहां प्रार्थना है वहां परमात्मा है। प्रार्थना ही परमात्मा के आगमन की खबर है, उसकी पगध्वनि है।
और तीसरी बात: जरूरी नहीं है कि परमात्मा से तुम कुछ कहो ही। क्या जरूरी है कि कुछ कहो? ज्यादा जरूरी है कि कुछ सुनो। इस बात को खयाल में लेना। यह प्रार्थना का प्राण है। लोग सोचते हैं कि कुछ कहेंगे तब प्रार्थना होगी। मैं तुम्हें कहना चाहता हूं कि सुनोगे तब प्रार्थना होगी। चुप हो जाओ, सुनो। परमात्मा बोल रहा है। तुम्हारे भीतर भी बोल रहा है। तुम्हारे हृदय की किसी अतल गहराई से उसकी आवाज आ रही है। मगर तुम इतने खोए हो अपने विचारों में, इतना कोलाहल तुमने पैदा कर रखा है कि कहां सुनाई पड़े! नक्कारखाने में तूती की आवाज हो गई है। तुम इतने बैंड-बाजे बजा रहे हो! परमात्मा तुम्हें पुकार रहा है, तुम्हीं उसे नहीं खोज रहे हो। परमात्मा भी तुम्हें खोज रहा है, मगर तुम मौजूद ही नहीं हो। तुम कभी अपने घर पाए ही नहीं जाते, तुम हमेशा कहीं और हो। तुम जहां हो वहां नहीं हो, और कहीं भी हो सकते हो।
चुप हो जाओ। चुप्पी से बड़ी और क्या प्रार्थना है! इसलिए इस तीसरे सूत्र में ध्यान और प्रार्थना एक ही हो जाते हैं। ध्यान का अर्थ है मौन हो जाना। और प्रार्थना भी अपनी परम अर्थवत्ता में मौन हो जाती है। प्रार्थना शुरू होती है परमात्मा से बोलने से और अंत होता है उसका: परमात्मा बोले और मैं सुनूं। तुम कुछ कहो, इतना निवेदन प्रार्थना करती है और फिर चुप होकर सुनती है।
चितरंजन, तुम कहते हो--
हे अनंत अपने में ले ले!
तुममें मिल जाऊंगा अनजान
मिल कर तेरे साथ हृदय का
पूरा कर लूंगा अरमान।
उससे बिना मिले हृदय की अभीप्सा पूरी होती भी नहीं। उससे मिलन में ही, मिटना भी है और पाना भी है। उससे मिलना मृत्यु भी है और नव जीवन भी। तुम जैसे हो ऐसे तो मिट जाओगे। तुम्हारी सीमाएं खो जाएंगी, तुम्हारा रूप-रंग रेखा तुम्हारी परिभाषा खो जाएगी। तुम भी उसी जैसे अपरिभाष्य हो जाओगे, उसी जैसे अनिर्वचनीय हो जाओगे, उसी जैसे अथाह-अगम हो जाओगे। बूंद मिट जाएगी, तभी तो सागर हो सकेगी। और सागर हो जाएगी तो फिर बूंद कहां!
तुम मिटने की तैयारी करो। परमात्मा तो कभी भी उतर आने को राजी है। हम खाली करें सिंहासन। हम सिंहासन पर विराजमान हैं। हम अपने भीतर स्वयं से इतने भरे हैं कि अगर परमात्मा अभी आना भी चाहे तो वहां कहीं कोई जगह नहीं है। न मालूम क्या-क्या कचरा-कूड़ा भर रखा है! उससे अपने को खाली करना है।
जो व्यक्ति शून्य होने को राजी है, वह पूर्ण को पाने का अधिकारी हो जाता है। यही प्रार्थना, यही पूजा, यही आराधना, यही ध्यान, यही समाधि--सिर्फ नामों के भेद हैं।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
मैं युवा था तो कभी मृत्यु का विचार भी नहीं करता था और अब जब वृद्ध हो गया हूं तो मृत्यु सदा ही भयभीत करती रहती है। मैं क्या करूं? क्या मृत्यु से छुटकारा संभव है?

रामनाथ,
मृत्यु से तो छुटकारा संभव नहीं है। लेकिन यह तुमसे कहा किसने कि तुम मरोगे? तुम न तो पहले कभी मरे हो, न अब मर सकते हो। जो मरता है वह तुम नहीं हो, कोई और है। देह मरती है, वह तो आवरण है। मन मरता है, वह सूक्ष्म आवरण है। इन दोनों परिधियों के भीतर जो बैठा है, जो मालिक है, वह न तो जन्मता है, न मरता है।
बहुत बार यह जीवन घटा है। कुछ तुम नये नहीं हो। बहुत बार आए और बहुत बार गए हो। लेकिन भीतर जो बैठा है, वह शाश्वत है। न उसे जन्म छूता है, न मृत्यु उसे छूती है। जब तक तुम उस भीतर के अंतर्यामी को न जान लोगे, न पहचान लोगे, तब तक यह भय सताएगा।
और, जब व्यक्ति युवा होता है तो स्वभावतः मृत्यु की चिंता नहीं पकड़ती। क्यों पकड़े! आदमी इतना दूरदृष्टि नहीं है। आदमी की दृष्टि बड़ी ओछी है, बड़ी छोटी है। बस जरा सा देखता है दो-चार कदम आगे। दीये की रोशनी है उसके पास, चार कदम देखता है। मृत्यु इतनी दूर मालूम पड़ती है कि भरोसा भी नहीं आता, कि होगी।
और मन बड़ा चालबाज है। मन यह भी कहता है कि और दूसरे लोग मरते हैं, तुम नहीं मरोगे। और मन कहता है: देखो, एक व्यक्ति परसों मरा था, एक व्यक्ति कल मरा, एक व्यक्ति आज मरा, तुम तो नहीं मरे! लोग रोज मरते हैं, तुम तो नहीं मरते। तुम तो सदा न मालूम कितनों को मरघट पहुंचा कर हमेशा घर वापस आ जाते हो। तुम तो जीओ, बेफिक्री से जीओ। मन कहता है: इन व्यर्थ की चिंताओं में न पड़ो।
फिर जवानी के नशे होते हैं, मूर्च्छाएं होती हैं, दौड़ होती है--धन पाना है, पद पाना है, प्रतिष्ठा पानी है। फुरसत कहां है, समय कहां है कि कोई बैठ कर विचार करे! जो जवानी में विचार कर ले, समझना अति बुद्धिमान है, समझना कि महामेधावी है। क्योंकि आमतौर से जवानी में मूर्च्छा इतनी सघन होती है, क्योंकि वासनाएं इतनी प्रगाढ़ होती हैं कि आदमी लगता है जागा-जागा, मगर जागा नहीं होता, सपनों में डूबा होता है। महत्वाकांक्षाएं सपने ही हैं। तुम्हारे भीतर सपनों पर सपने तुम बुने जाते हो। कौन सोचता है मृत्यु की! और फिर जब आएगी तब देख लेंगे जल्दी क्या है। कभी-कभी फुरसत के किसी क्षण में अगर मृत्यु का खयाल भी आ जाए तो तुम जल्दी से अपने को छिटका लेते हो, किसी दूसरे काम में लगा देते हो; अपने को उलझा लेते हो कि यह कैसी निराशा की बात मेरे मन में आ रही है! अभी तो मैं जवान हूं!
हम मृत्यु को सब तरह से ढांकते हैं, छिपाते हैं। इसलिए मरघट को गांव के बाहर बनाते हैं। बनाना चाहिए गांव के ठीक बीच में, कि दिन में पच्चीस बार गुजरो तो पच्चीस बार मरघट तुम्हें याद दिलाए कि यही होने वाला है अंतिम निवास स्थान। चौंकाए, जगाए, स्मरण दिलाए।
बुद्ध जब भी किसी व्यक्ति को संन्यास देते थे तो भेजते थे मरघट, कि तीन महीने मरघट पर रह, जलती हुई चिताओं को देख, राख होते हुए शरीरों को देख। एक ही ध्यान कर कि यह है परिणति जीवन की। यह है निष्पत्ति सब आपाधापी की, सब दौड़-धूप की। सब पड़ा रह जाता है और क्षण भर में आदमी राख हो जाता है। तीन महीने तक मरघट पर बैठ कर रोज सुबह से सांझ दिन रात मुर्दों को जलते देखना, तुम कैसे बचा सकोगे? स्मरण आ ही जाएगा कि यही अवस्था मेरी भी होनी है आज नहीं कल।
और जिसको मृत्यु का स्मरण आ गया वह सौभाग्यशाली है, क्योंकि मृत्यु के स्मरण के साथ ही जीवन में क्रांति घटती है। जब यह याद आ जाती है कि यह देह तो जाएगी तभी हमारा देह से तादात्म्य छूटता है, तभी हम देह से अपना मोह छोड़ते हैं। जो मिटना ही है उससे क्या मोह बांधना! जो छूट ही जाना है, जो छूटा ही है, अब गया तब गया--उसे क्या पकड़ो, क्यों पकड़ो! क्यों न हम उसकी तलाश कर लें जो कभी नहीं छूटता! क्यों न हम शाश्वत को खोजें! क्यों न हम शाश्वत पर अपनी निगाहें टिकाएं! शाश्वत पर निगाह टिकाने का नाम ही तो संन्यास है। समय के पार आंखें उठाने का नाम ही तो संन्यास है।
जवानी में तो बहुत मुश्किल होता है कि किसी को होश आए। मगर यह दुनिया बड़ी अजीब है। लोग बूढ़े भी हो जाते हैं तब भी कहां होश आता है!
रामनाथ, तुम तो सौभाग्यशाली हो, कम से कम बुढ़ापे में भी तो होश तो आ गया। मरते दम तक भी लोगों को होश नहीं आता।
मैंने सुना, एक मारवाड़ी मर रहा था। ध्यान रखना, मारवाड़ी को भी मरना पड़ता है! मौत किसी को भी नहीं छोड़ती--मारवाड़ी तक को नहीं छोड़ती! सारे बेटे और रिश्तेदार चिंतित थे। उसकी आवाज बंद हो गई थी। सब उसे घेर कर खड़े थे। बड़ी मुश्किल से वह बार-बार कह रहा था--ब ब...झ झ। एक बेटे ने कहा लगता है, ये कहना चाह रहे हैं कि बक्सा झाड़ के नीचे मैंने दबा रखा है। कुछ करो और इनसे पूरी बात बुलवाओ, कौन सा झाड़! क्योंकि घर के आस-पास बहुत झाड़ थे। डाक्टर ने कहा कि एक बड़ा ही मूल्यवान इंजेक्शन है, उसे लगाने पर ये एक-दो वाक्य बोल सकेंगे। उनकी मृत्यु निश्चित होने पर भी इंजेक्शन लगवाने को सब राजी हो गए। डाक्टर ने इंजेक्शन लगा दिया, तब सब उत्सुक होकर सुनने के लिए मरते मारवाड़ी के पास झुके। उस बूढ़े ने क्या कहा मालूम है! उसने कहा, अरे सब मुझे क्या देख रहे हो, वह बछड़ा झाडू चबाए जा रहा है!
रामनाथ, चलो अच्छा हुआ बुढ़ापे में भी कम से कम याद तो आने लगी कि मृत्यु है! इस याद को झुठलाना मत। इस याद को भुलाने की कोशिश मत करना। यह याद उपयोगी है। इसका उपयोग कर लो। बुद्धिमान तो वही है जो हर चीज का उपयोग कर ले। इसको भी सीढ़ी बना लो।
मृत्यु कीमती चीज है। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो संन्यास न होता। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो धर्म न होता। अगर दुनिया में मृत्यु न होती तो परमात्मा का कोई स्मरण न होता, प्रार्थना न होती, पूजा न होती, आराधना न होती; न होते बुद्ध, न महावीर, न कृष्ण, न क्राइस्ट, न मोहम्मद। यह पृथ्वी दिव्य पुरुषों को तो जन्म ही न दे पाती, मनुष्यों को भी जन्म न दे पाती। यह पृथ्वी पशुओं से भरी होती है। यह तो मृत्यु ने ही झकझोरा। मृत्यु की बड़ी कृपा है, उसका बड़ा अनुग्रह है। मृत्यु ने झकझोरा, याद दिलाई। बुद्ध को भी स्मरण आया था, मृत्यु को ही देखकर। एक मरे हुए आदमी की लाश को देख कर पूछा था अपने सारथी से, इसे क्या हो गया? उस सारथी ने कहा कि यह आदमी मर गया। बुद्ध ने कहा, क्या मुझे भी मरना होगा? सारथी झिझका, कैसे कहे? बुद्ध ने कहा, झिझको मत। सच-सच कहो, झूठ न बोलना। क्या मुझे भी मरना होगा? मजबूरी में सारथी को कहना पड़ा कि कैसे छिपाऊं आपसे! आज्ञा तो यही है आपके पिता की कि आपको मौत की खबर न होने दी जाए, क्योंकि बचपन में आपके ज्योतिषियों ने कहा था कि जिस दिन इसको मौत का स्मरण आएगा, उसी दिन यह संन्यस्त हो जाएगा। मगर झूठ भी कैसे बोलूं! मृत्यु तो सबको आएगी। आपको भी आएगी, मालिक! मृत्यु से कोई कभी बच नहीं सका है। मृत्यु अपरिहार्य है।
बुद्ध ने उसी रात घर छोड़ दिया, क्रांति घट गई। जब मृत्यु होने ही वाली है तो हो ही गई; तो जितने दिन हाथ में हैं इतने दिनों में हम उसको खोज लें जो अमृत है।
रामनाथ, अगर मृत्यु से भय लग रहा है तो अशुभ नहीं है, शुभ हो रहा है। पूछते हो: मैं क्या करूं? मृत्यु से भय लगे तो ध्यान के अतिरिक्त करने को और कुछ है ही नहीं। अब ध्यान में डूबो। अब संन्यास में रंगो। अब जीवन को समाधि में रूपांतरित करो, ताकि तुम्हारा शाश्वत से संबंध हो सके; ताकि तुम अपने भीतर उसको देख सको जो कभी नहीं मरता। उसको देखोगे तो ही भय जाएगा। उसको पहचानोगे तो ही भय जाएगा।
अच्छा हुआ, बूढ़े हो गए।
अभी न होगा मेरा अंत!
जवानी तो इसी तरह की बातों में जीती है।
अभी न होगा मेरा अंत।
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसंत--
अभी न होगा मेरा अंत।
हरे-हरे ये पात,
डालियां, कलियां कोमल गात!

मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूंगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर।

पुष्प-पुष्प से तंद्रालस लालसा खींच लूंगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूंगा मैं,

द्वार दिखा दूंगा फिर उनको
हैं मेरे वे जहां अनंत--
अभी न होगा मेरा अंत।

मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इसमें कहां मृत्यु?
है जीवन ही जीवन।

अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक मन,

मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बंधु, दिगंत;
अभी न होगा मेरा अंत।
जवानी तो झूठी बातें कहने में बड़ी कुशल है। बुढ़ापा नहीं छिपा पाता। कैसे छिपाए! पैर डगमगाने लगते हैं, शरीर अस्थिपंजर होने लगता है, श्वास लड़खड़ाने लगती है। मौत की पहली पगध्वनियां सुनाई पड़ने लगती हैं।
स्नेह-निर्झर बह गया है;
रेत ज्यों तन रह गया है।

आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है--अब यहां पिक या शिखी

नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूं लिखी
नहीं जिसका अर्थ--
जीवन दह गया है।

दिए हैं मैंने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल--
ठाठ जीवन का वही
जो ढह गया है।

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा।
बस रही है हृदय पर केवल अमा;
मैं अलक्षित हूं; यही
कवि कह गया है।
स्नेह-निर्झर बह गया है;
रेत ज्यों तन रह गया है।
जीवन दह गया है।
ठाठ जीवन का वही
जो ढह गया है।
मैं अलक्षित हूं; यही
कवि कह गया है।
जिन्होंने जाना है, उन्होंने तुम्हें सदा ही जगाने की चेष्टा की है कि जागो, मौत द्वार पर खड़ी है, दस्तक दे रही है। और कितने ही भागो, कितने ही बचो, बच न पाओगे। लेकिन जो अपने भीतर जाता है, वह पार हो जाता है।
तुम पूछते हो रामनाथ: "क्या मृत्यु से छुटकारा संभव है?'
मृत्यु से छुटकारा तो संभव नहीं है, लेकिन मृत्यु का अतिक्रमण संभव है। मृत्यु तो घटेगी, बुद्ध को भी मरना होता है, महावीर को भी मरना होता है--राम को भी और कृष्ण को भी। मृत्यु से तो छुटकारा संभव नहीं है। लेकिन मरने की भी एक कला है, जैसे जीने की कला है। मरने की कला है: शांत, मौन, ध्यान में मरना। जीने की भी वही कला है: ध्यान से जीओ। जितने दिन शेष हैं, ध्यान में जीओ। शांत, मौन, जागे हुए! ताकि शांत मौन जागे हुए मर भी सको। जो शांत मौन मरने में समर्थ हो जाता है, वह जानता हुआ मरता है कि मैं नहीं मर रहा हूं। वह जागा हुआ मरता है कि देह छूटी, मन छूटा; मगर मैं तो वही का वही हूं। चैतन्य तो वैसा का वैसा है--अछूता! चैतन्य की इस शाश्वतता को जिसने देख लिया, उसके जीवन में आनंद की बरखा हो जाती है। फूल ही फूल झर जाते हैं अमृत के! वैसे ही फूल तुम्हारे जीवन में भी झर सकते हैं।
मृत्यु के इस भय का उपयोग कर लो। इसे शत्रु मत मानना; यह मित्र है। मृत्यु भी मित्र है अगर समझ हो; और नासमझी हो तो जीवन भी शत्रु हो जाता है।
महावीर ने कहा है: व्यक्ति अपना ही मित्र है, अपना ही शत्रु। मगर हम जाग कर उपयोग करना सीख जाएं जीवन की सारी संभावनाओं का, जिनमें मृत्यु की संभावना भी सम्मिलित है, तो हम अपने मित्र हैं; नहीं तो हम अपने शत्रु हैं। इस दुनिया से बहुत लोग, अधिक लोग गंवा कर ही लौटते हैं। रामनाथ, कोई जरूरत नहीं कि तुम भी गंवा कर लौटो। कमा कर लौट सकते हो। जागो! समय रहते जागो!

तीसरा प्रश्न: भगवान,
मैं शांति चाहता हूं, पर घर में रह कर शांति कहां! और आप कहते हैं कि घर में रह कर ही सच्ची शांति पानी है। मेरी कुछ समझ में नहीं आता। सात बच्चे हैं, एक से एक बढ़ कर उपद्रवी हैं। कर्कशा पत्नी है। सास भी अक्सर सिर पर सवार रहती है। क्या ऐसे में शांत होना संभव है?

दयाराम,
सच तुम पर दया आती है, रोना आता है। दया योग्य ही हो। ये सात उपद्रवी बच्चे कोई छप्पर से उतर आए हैं? तुम्हारी ही कृपा है। मैंने देखे तो नहीं तुम्हारे बच्चे, लेकिन बाप को ही गए होंगे।
लोग जिंदगी को ऐसा उलझाए चले जाते हैं, अपने हाथ से उलझाए चले जाते हैं! फिर रोते हैं। खुद मकड़ी की तरह जाला बुनते हो, फिर खुद ही उसमें फंस जाते हो। किसने तुमसे कहा था? दीवाल-दीवाल, जगह-जगह लिखा है: दो या तीन बस। कुछ पढ़ते-लिखते हो कि नहीं? दीवालों पर जो लिखा है, उस पर कुछ अध्ययन मनन करो।
मंत्र पढ़वाए जो पंडित ने वे हम पढ़ने लगे,
यानी मैरिज की कुतुब मीनार पर चढ़ने लगे।
आए दिन चिंता के फिर दौरे हमें पढ़ने लगे,
इनकम उतनी ही रही, बच्चे मगर बढ़ने लगे।
क्या करें हम, सर से अब पानी गुजर जाने को है,
सात दुमछल्ले हैं घर में, आठवां आने को है।

घर के अंदर मचती रहती है सदा चीखो-पुकार,
आज है पप्पू को पेचिश, कल था बंटी को बुखार।
जान कर भी ठोकरें खाई हैं हमने बार-बार,
शादी होते ही शनीचर हो गया हम पर सवार।
अब तो राहू की दशा भी हम पे चढ़ जाने को है,
सात दुमछल्ले हैं घर में, आठवां आने को है।

घर में बस खाली कनस्तर के सिवा कुछ भी नहीं,
जा-ब-जा उखड़े पलस्तर के सिवा कुछ भी नहीं।
खिड़की-दरवाजे कहां, दर के सिवा कुछ भी नहीं,
अपने घर में, दोस्तो, घर के सिवा कुछ भी नहीं।
एक तीली आपका सिगरेट सुलगाने को है,
सात दुमछल्ले हैं घर में, आठवां आने को है।

देखिए किस्मत का चक्कर, देखिए कुदरत की मार,
दिल में है पतझड़ का डेरा, घर में बच्चों की बहार।
मुंह को तकिए में छुपाकर, क्यों न रोएं जार-जार,
रोटियों के वास्ते क्यू, चाय की खातिर कतार।
अपना नंबर और भी पीछे खिसक जाने को है,
सात दुमछल्ले हैं घर में, आठवां आने को है।

कोई वैकेंसी नहीं, घर हो गया बच्चों से पैक,
खोपड़ी अपनी फिरी, भेजा हुआ बीबी का क्रैक।
खाइयां खोदें, कहीं छुप कर बचाएं अपनी बैक,
होने ही वाला है हम पर आठवां एयर-अटैक।
घर में फिर खतरे का भोंपू भैरवी गाने को है,
सात दुमछल्ले हैं घर में, आठवां आने को है।
दयाराम, ये सात दुमछल्ले कैसे आ गए? शायद सोचते होओगे क्या करें, भगवान की कृपा है? अरे विधाता ने विधि में लिखा है! इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातों से हम अपने को भरमाए रखते हैं और फिर उलझन खड़ी होगी। मगर हम इस तरह चलते हैं, इस तरह जीते हैं इतने बेहोशी में कि बिना सोचे-समझे कुछ भी किए चले जाते हैं! और फिर स्वभावतः समस्याएं तो खड़ी हो जाएंगी।
अब तुम कहते हो: "मैं घर में शांत होना चाहूं तो कैसे होऊं? घर में शांति कहां! और आप कहते हैं कि घर में रह कर ही सच्ची शांति पानी है।'
निश्चित ही मैं कहता हूं, घर में रह कर ही सच्ची शांति पानी है। क्योंकि तुम कहीं और जाओगे तो कुछ और उपद्रव करोगे। आखिर तुम तो तुम ही रहोगे न! यहां तो कम से कम इतना उपद्रव हो गया है कि थोड़ा होश रखना पड़ेगा कि अब और न हो जाए। कहीं इक्के-दुक्के पहुंच गए एकांत में तो कुछ और उपद्रव करोगे। और फिर तुम्हारी उपद्रवों की आदत भी पड़ गई होगी। बिना शोरगुल के तुम्हें चैन भी न पड़ेगा। हर चीज की आदतें पड़ जाती हैं।
मेरे एक मित्र रेलवे में नौकरी करते हैं। वे रिटायर हुए तो बहुत दिन से कहते थे कि रिटायर हो रहा हूं, छह महीने में, चार महीने बचे, दो महीने बचे। बड़े खुश हो रहे थे कि रिटायर एक दफा हो गया...। कहां की नौकरी ले ली, जिंदगी गंवाई! बस दिन-रात शोरगुल, शोरगुल...स्टेशन पर ही जिंदगी बीती। वे जब रिटायर हुए तो मुझसे आकर बोले कि बड़ी मुश्किल हो गई, घर में नींद ही नहीं आती। स्टेशन पर ही सोने की आदत हो गई। सो रिटायर हो गए हैं, मगर सोने स्टेशन जाते हैं, क्योंकि घर में नींद नहीं आती। जब तक कि खटर-पटर न हो, रेलगाड़ियां न चलें, शंटिंग न हो, मालगाड़ी इधर से उधर न जाए, तब तक उनको नींद नहीं आती। यह साज-संगीत चाहिए ही! घर में एकदम सन्नाटा!
मैंने सुना है कि फिलाडेल्फिया के पास से तीन बजे रात को एक ट्रेन गुजरती थी। कभी कोई शिकायत न आई। बीच बस्ती से गुजरती शोरगुल मचाती हुई, मगर कोई शिकायत न आई। फिर अधिकारियों ने यह सोच कर कि यह बस्ती में तीन बजे रात को लोगों की नींद खराब करना ठीक नहीं है, उसका समय बदल दिया, उसको सात बजे सुबह निकालने लगे। शिकायतों पर शिकायतें आईं कि तीन बजे वाली गाड़ी का क्या हुआ! क्योंकि रोज हमारी नींद टूट जाती है तीन बजे। चकित हुए अधिकारी कि तुम्हारी नींद क्यों टूट जाती है, क्योंकि गाड़ी अब सात बजे जाती है। उन्होंने कहा कि इसीलिए तो टूट जाती है। हम आदी हो गए। तीन बजे निकलती थी, वह हमारी व्यवस्था अंग हो गया था। अब वह तीन बजे नहीं निकलती। एकदम तीन बजे झटका लगता है कि हुआ क्या, गड़बड़ हो गई कुछ, मामला क्या है! एकदम खालीपन हो जाता है वहां।
मनुष्य का मन समायोजन कर लेता है।
तुम कहते जरूर हो कि बड़ी अशांति है घर में, मगर इस अशांति को जरूर तुम चाहते होओगे, नहीं तो पैदा क्यों की?
और आठवें का खयाल रखना, क्योंकि सात तक अगर नहीं रुके तो बहुत मुश्किल है अब आगे रुक सको। क्योंकि कुछ लोगों की जिंदगी में ब्रेक होते ही नहीं। सात तक नहीं लगा पाए तुम ब्रेक, अब कब लगाओगे? यह उपद्रव बढ़ता ही चला जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी अपने तीन बेटों को एक से कपड़े पहनाती थी। फिर तीन की जगह धीरे-धीरे होतेऱ्होते तेरह हो गए, फिर भी सबको एक से कपड़े पहनाती। उसकी एक पड़ोसिन ने पूछा कि मेरी कुछ समझ में नहीं आता, जब तुम्हारे तीन थे तो तुम उनको एक से कपड़े पहनाती थी। और मैंने तुमसे पूछा था तो तुमने कहा इसलिए एक से कपड़े पहनाती हूं कि कोई कहीं खो न जाए। अब तो तेरह हो गए, अब क्यों पहनाती हो?
तो उसकी पत्नी ने कहा, मुल्ला की, कि अब इसलिए पहनाती हूं कि कोई दूसरा इनमें न मिल जाए। अब किस-किस को याद रखो!
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, कहीं और जाने से कुछ भी न होगा, तुम तुम ही रहोगे। तुम फिर कुछ उपद्रव खड़ा कर लोगे। एक तरह का उपद्रव नहीं होगा तो दूसरी तरह का कोई उपद्रव होगा, मगर तुम बिना उपद्रव के रह न सकोगे। अब यहां उपद्रव हो ही चुका है, अब नया उपद्रव क्यों खड़ा करना!
मैंने सुना है, एक मुनीम चोरी करता रहा अपने मालिक की, करता रहा, करता रहा। उसने महल भी खड़ा कर लिया, बड़े बगीचे लगा लिए, पहाड़ पर भी मकान बना लिया, समुद्र के तट पर भी मकान बना लिया। करीब-करीब जो भी जरूरी था, सब उसने उपलब्ध कर लिया, तब पकड़ा गया। सेठ ने उससे कहा कि यह बात ठीक नहीं है। तुम इसी वक्त अलग हो जाओ। हालांकि तुमने मेरी इतनी सेवा की, इसलिए मैं तुम्हें कोई और दंड नहीं दूंगा, लेकिन नौकरी पर अब नहीं रख सकता।
उस मुनीम ने कहा कि सुनो, आपने सदा मेरी सुनी, एक विनती मेरी और सुनो। नया आदमी रखोगे, उसको फिर अ ब से शुरू करना पड़ेगा; वह फिर मकान बनाएगा, फिर पहाड़ पर बनाएगा, फिर समुद्र के किनारे बनाएगा। मैं तो सब कर ही चुका, अब क्या झंझट है?
सेठ को भी बात जंची कि बात तो ठीक कह रहा है। नहीं हटाया नौकरी से; कहा कि तेरी बात ठीक है। अब तू तो जो कर चुका सो कर चुका।
यही मैं तुमसे कहता हूं। तुम अगर भाग गए दयाराम तो फिर से अ ब स से शुरू करोगे। यहां तो उपद्रव इतना हो गया है कि शायद उपद्रव तुम्हें अब और करना मुश्किल हो जाए। उपद्रव ही तुम्हें रोके कि बहुत हो चुका, ऐसे ही बहुत हो चुका। फिर पहाड़ पर एक तरह की शांति जरूर मिलती है, मगर वह पहाड़ की होती है, तुम्हारी नहीं। पहाड़ पर धोखा आ जाता है कई लोगों को। एकांत गुफाओं में बैठे हुए योगियों को अक्सर धोखा हो जाता है कि वे शांत हो गए, मौन हो गए, सब ठीक हो गया। उनको जरा ले आओ बाजार में वापस और तुम पाओगे कि सब मौन और सब शांति वहीं पहाड़ पर छूट गई। बाजार में आते ही उपद्रव शुरू हो जाते हैं। तुम्हें कोई गाली न दे तो क्रोध न आएगा, ठीक है। इसका यह अर्थ नहीं कि क्रोध मिट गया। इसका इतना ही अर्थ है कि गाली देने वाला नहीं मिल रहा है कोई। गुफा में बैठे हो, कोई गाली नहीं देता, क्रोध भी क्या करोगे, किस कारण करोगे, किस पर करोगे? लेकिन आओ वापस दुनिया में, यहां गाली देने वाले तैयार बैठे हैं। अपनी-अपनी गाली पर धार रख कर बैठे हैं। कोई न कोई मिल जाएगा। और एक क्षण में तुम्हारी सारी शांति, तुम्हारा सारा मौन, तुम्हारी सारी साधना छितर-बितर हो जाएगी। एकांत में बैठ जाओगे जाकर, कोई स्त्री नहीं दिखाई पड़ती, तो धीरे-धीरे शायद सोचने लगोगे कि ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गए। आओ जगत में और यहां कोई सुंदर स्त्री रास्ते पर दिखाई पड़ जाएगी। और जो पहाड़ से उतरता है बहुत दिनों के बाद, उसे हर स्त्री सुंदर दिखाई पड़ती है, यह खयाल रखना। उसको बदशक्ल से बदशक्ल स्त्री भी सुंदर दिखाई पड़ती है। और बस मुश्किल खड़ी हो जाएगी।
जहां तक मुझे पता है, उर्वशी और मेनका इतनी सुंदर नहीं हैं जितना शास्त्रों में लिखा है। यह ऋषि-मुनियों की भ्रांति है। ऋषि-मुनि देर तक बैठे पहाड़ पर, बैठे हैं, बैठे हैं, बैठे हैं। कोई आता ही नहीं, कोई जाता ही नहीं। कई ऋषि-मुनि तो बीच-बीच में आंख खोल कर देखते रहते होंगे कि मेनका अभी तक नहीं आई, कि अब भेजो इंद्र देवता! अब कब तक ऐसे ही बिठाए रखोगे! और कोई भी स्त्री आ जाए और लगेगी कि मेनका आ रही है।
भूखे आदमी को रूखी रोटी भी बहुत स्वादिष्ट लगती है; यह तो तुम्हें मालूम है। वैसा ही भूखा आदमी हो जाता है जंगल में बैठा हुआ। सब तरह की सुविधाएं छिन गई उससे। भीतर ही भीतर कुढ़ता रहता है और ऊपर-ऊपर से किसी तरह राम-राम की धुन लगाए रखता है, क्योंकि अपने को भुलाए भी तो रखना है। शोरगुल मचाए रखता है राम-राम का, ताकि पता न चले भीतर क्या चल रहा है। मगर इसको तुम शांति कहते हो? यह खो जाती है जरा में, देर नहीं लगती। इसका कोई मूल्य नहीं है।
बाजार के घनेपन में अगर तुम शांत हुए तो तुम्हारी शांति को कोई भी न छीन सकेगा। इंद्र देवता भेजें मेनका, तुम कहोगे कि बाई आगे! घर की बाई ही काफी है। कहीं और जाओ। किसी ऋषि-मुनि को तलाशो! इसलिए तो गृहस्थों के पास कभी मेनका उर्वशी आती नहीं; आकर करेंगी भी क्या! वे ऋषि-मुनियों के पास आती हैं।
और तुम कहते हो दयाराम, कि मेरी कुछ समझ में नहीं आता, सात बच्चे हैं, एक से बढ़ कर उपद्रवी! कर्कशा पत्नी! पत्नी कर्कशा हो, यह जरूरी नहीं है। मगर सभी पतियों को पत्नी कर्कशा मालूम होती है और सभी पत्नियों को पति दुष्ट मालूम होता है, दुर्भाग्य मालूम होता है। ये पति-पत्नी के नाते के बड़े राज हैं। जो पत्नी बिलकुल कोकिल-कंठी मालूम होती थी विवाह के पहले, वह एकदम कर्कशा हो जाती है। वही पत्नी! उसकी आवाज सुन कर एकदम छाती दहल जाती है, कि फिर कोई मुसीबत शुरू हुई, फिर घबड़ाहट फैल जाती है। आदमी घर आता है तो डरा हुआ आता है। बाहर सिंह की तरह दहाड़ता है; घर आता है तो एकदम पूंछ दबा कर कुत्ते की तरह प्रवेश करता है--डरा हुआ! और जल्दी से अखबार उठा कर और कुर्सी पर अपने को अखबार के पीछे छिपा कर बैठ जाता है कि पता नहीं कौन सी मुसीबत! और ऐसा नहीं है कि पत्नी कर्कशा है।
लेकिन ये जो मोह और आसक्ति के नाते-रिश्ते हैं, क्षणभंगुर हैं। यह जो मिठास है, ऊपर-ऊपर है, पीछे सब कड़वा हो जाता है। इसमें किसी की पत्नी और किसी के पति का कोई दोष नहीं है। ये सब नाते-रिश्ते कड़वे हो जाते हैं। यह ऐसे ही समझो कि जैसे एलोपैथी की दवाइयां होती हैं; ऊपर से शक्कर की एक पर्त चढ़ा देते हैं। बस गटक लो जल्दी से, मुंह में रख कर चूसने मत लगना, नहीं तो जल्दी ही शक्कर की पर्त तो गल जाएगी और फिर जहर ही हाथ लगेगा। और लोग यही कर रहे हैं। पति-पत्नियां एक-दूसरे को चूस रहे हैं। तो जल्दी ही शक्कर की पर्त तो उखड़ जाती है और फिर भीतर का जहर प्रकट होने लगता है।
जब तुम किसी स्त्री को जुहू तट पर मिलते हो तो वह भी सजी-संवरी, वह भी रंग-रोगन किए, वह भी इत्र-फुलेल लगाए; तुम भी सजे-संवरे, तुम भी इत्र-फुलेल लगाए, तुम भी कोट में जगह-जगह रुई इत्यादि भरवाए हुए, कि छाती भी दिखे कि दारासिंह की है! मगर यह रुई कब तक धोखा देगी? घर में कभी तो कोट उतारोगे! और तब असली छाती दिखाई पड़ जाएगी। और पत्नी भी यही कर रही है कि वह भी अपने को सजाए-संवारे है, शरीर को बांधे है तरहत्तरह से। स्त्रियां कैसी सरकस में पड़ी हैं, कहना मुश्किल है! कमर कस कर बांधे हुए हैं कि पतली मालूम पड़े, क्योंकि ये दुष्ट कवि न मालूम क्या-क्या कह गए हैं कि सुंदर स्त्री की कमर होती ही नहीं! अब सुंदर स्त्रियां कमरों को मिटाने में पड़ी हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन घर आया, रास्ते में पड़ा एक साइकिल का हैंडल उठा लाया। पत्नी ने कहा कि फेंको बाहर, जब साइकिल ही घर में नहीं तो हैंडल का क्या करोगे? तो मुल्ला ने कहा कि तू न मालूम कहां-कहां की चोलियां खरीद कर लाती है, मैं तो कुछ नहीं कहता। भीतर कुछ है ही नहीं। तो मैं एक साइकिल का हैंडल ले आया बिना साइकिल के तो क्या बिगड़ रहा है, तेरा क्या बिगड़ रहा है? अरे आज हैंडल मिला, कल साइकिल भी मिल जाएगी। खोज करने से आदमी क्या नहीं पा सकता। पहुंचने वाले चांद तक पहुंच गए।
तो इधर स्त्रियां हैं, पुरुष हैं, सजे-बजे मिलते हैं, तो एक बात है। उनके पसीने की बदबू भी नहीं आती, उनके शरीर की बास भी नहीं आती, उनके असली रंग भी नहीं दिखाई पड़ते। और सब मधुर बातें करते हैं, कविताएं दोहराते हैं, फिल्मी गीत गुनगुनाते हैं। वह कहता है, तू चांद का टुकड़ा है! और स्त्री कहती है, तुम जैसा सुंदर कभी कोई कृष्ण कन्हैया हुआ ही नहीं। तुम कृष्ण कन्हैया के अवतार हो!
मगर यह ज्यादा देर नहीं चल सकता। यह विवाह के पहले यह सब ठीक है; विवाह के बाद सब बात बिगड़ने ही वाली है, असलियत उघड़ने ही वाली है। और तब पत्नी कर्कशा मालूम होती है। यह वही पत्नी है जो कोकिल-कंठी थी।
अक्सर जो कवि स्त्रियों के संबंध में सुंदर-सुंदर गीत लिखा करते हैं, अविवाहित होते हैं। अविवाहित ऐसी बातें लिख सकते हैं। कोई विवाहित से तो पूछे, वे एकदम सिर ठोंक लेते हैं।
चंदूलाल विवाह करना चाहते थे, ज्योतिषी को हाथ दिखाया। ज्योतिषी ने कहा कि जरूर करो, सुंदर स्त्री मिलेगी, सुंदर पुत्र होंगे। घर भरा-पूरा होगा। शांति आनंद होगा।
फिर चंदूलाल को यह तो कुछ हुआ नहीं, शादी हो गई; इससे सब कुछ उलटा ही हुआ। एक दिन जाकर ज्योतिषी को पकड़ लिया, एकदम गर्दन पकड़ ली, कि ज्योतिषी के बच्चे, तूने जो कहा था सब उससे उलटा हो रहा है! ज्योतिषी ने कहा, ठहर भाई, क्या उलटा हो रहा है? चंदूलाल ने कहा, घर में शांति बिलकुल नहीं है। उसने कहा, गलत बात है। मेरे घर में देख। मैंने अपनी पत्नी का नाम शांति रख लिया, घर में शांति है। और क्या मतलब होता है शांति का? अरे मेरी देख हालत। मेरे बड़े लड़के का नाम संजय, मेरे छोटे लड़के नाम कांति, फिर भी घर में शांति! तू क्या खाक अपनी रो रहा है! नाम बदलने की बात है।
दयाराम, और तुम कहते हो कि सास भी अक्सर सिर पर सवार रहती है। अच्छे लक्षण हैं! ऐसे ही तो संन्यास का जन्म होता है! ऐसे ही तो आदमी को विराग-भाव पैदा होता है, कि अरे संसार में कुछ भी नहीं, यहां कोई सार नहीं! सासें न हों तो संसार असार है, यह अनुभव कैसे हो?
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन पहुंचा अपने पशु-चिकित्सक के यहां और कहा कि मेरे कुत्ते की पूंछ काट दो। उसने कहा, क्या कह रहे हो! इतना सुंदर कुत्ता, इतना प्यारा कुत्ता, इसकी पूंछ काट कर इसको बरबाद कर रहे हो!
उसने कहा, तुम बात न करो, पूंछ काटो! देर न करो, जल्दी करो! उसने कहा, मगर जरूरत क्या है, इसकी पूंछ में खराबी क्या है? नसरुद्दीन ने कहा, अब तुम्हें यह कुछ सब समझाना पड़ेगा? मेरी सास आ रही है और मैं घर में उसके अभिनंदन का कोई चिह्न नहीं छोड़ना चाहता। और यह कुत्ता मूरख है, इसको आज सात दिन से समझा रहा हूं कि बेटा सास आए, पूंछ मत हिलाना। मैं कहता हूं, यह पूंछ हिलाता है। यह मूरख न मानेगा। और उसको इतना भी पर्याप्त है कि कुत्ते ने पूंछ हिला दी, फिर वह हटने वाली नहीं है।
तुम्हारी मुसीबत, दयाराम, मैं समझता हूं। तुम्हारे मां-बाप ने भी खूब सोच कर तुम्हें नाम दिया! लेकिन अब जो हो गया हो गया। अब जहां हो जैसे हो--भागो मत। अब वहीं स्वीकार करो इस स्थिति को। शायद इस अभिशाप में भी वरदान छिपा हो। अगर सास में भी परमात्मा को देख सको--हालांकि है बहुत कठिन काम! ऐसे लोग कहते हैं सबमें परमात्मा को देखो; वे भी नहीं कहते कि सास में परमात्मा को देखो। किसी शास्त्र में नहीं लिखा है। शास्त्र भी छोड़ गए सास को। सास की बात ही नहीं उठाई। मगर मैं तुमसे कहता हूं, क्योंकि मुझे तो शास्त्रों से उलटी बातें कहने की धुन सवार है, तुम सास में भी परमात्मा देखो। पत्नी में भी परमात्मा देखो। ये सात दुमछल्ले जो हैं, इनमें भी परमात्मा देखो। और यह सब परमात्मा ने जो तुम्हारे चारों तरफ सुविधा-असुविधा जो कुछ भी समझो, रच दी है, इसी में, इसी के भीतर जागरूक होओ।
और मैं जिसको ध्यान कहता हूं, वह कहीं भी साधा जा सकता है। तुम्हारे ध्यान की धारणा एकाग्रता की होगी, उससे तुम्हें अड़चन हो रही है। एकाग्रता साधना मुश्किल होगी, क्योंकि एकाग्रता का अर्थ होता है: एक चीज पर ध्यान को लगाओ। अब तुम बैठे हनुमान जी पर ध्यान लगा रहे हो और वे तुम्हारे सात हनुमान जी, वे बीच-बीच में आ जाएंगे। कोई टांग खींचेगा, कोई हाथ खींचेगा--कि डैडी क्या कर रहे, कि आंख खोलो। अब लोग मुझसे कहे कि हम आंख बंद करके बैठते हैं, हमारा लड़का आंख खोल कर देखता है कि डैडी जिंदा हो कि नहीं, कि बैठे-बैठे आंख बंद हो गई!
एकाग्रता करोगे तो मुश्किल होगी। लेकिन एकाग्रता को मैं ध्यान कहता ही नहीं। ध्यान मैं जागरण को कहता हूं। जागरण बड़ी और बात है। बच्चे शोरगुल कर रहे हैं, तुम जाग कर सुन रहे हो, साक्षी-भाव से। कोई तुम्हारी आंख खोल रहा है, तुम साक्षी-भाव से देख रहे हो कि ठीक, आंख खोली जा रही है। सास पास से गुजर रही--कि ठीक। सिर्फ साक्षी-भाव। बुरे-भले का कोई निर्णय नहीं, कि कौन अच्छा, कौन बुरा। पत्नी चिल्ला रही है तो यह कहने की जरूरत नहीं कि कर्कशा है, क्योंकि उसमें तो निर्णय हो गया, मूल्यांकन हो गया। सिर्फ आवाज आ रही है। निष्पक्ष भाव से, साक्षी धीरे-धीरे सम्हालो। और मैं तुमसे कहता हूं, इसी घर में बात सम्हल जाएगी। और इस घर में सम्हल जाए तो फिर इस दुनिया में कोई तुम्हें डिगा नहीं सकता। फिर तुम्हें नरक में भी कोई भेज दे, तुम्हारा कोई बाल बांका नहीं कर सकता। तुम्हारा अभ्यास ऐसा होगा कि नरक के अधिकारी भी क्या खाक कर लेंगे! वे तुम्हें देख कर ही कह देंगे कि भैया तुम स्वर्ग की तरफ जाओ। दयाराम, तुम नरक काफी देख चुके, तुम स्वर्ग जाओ! अब यहां किसलिए आए हो? अब हमारे पास और दिखाने को क्या है?

चौथा प्रश्न: भगवान,
पिछले दिनों जैन मुनि विद्यानंद मेरे गांव पधारे थे। चूंकि वे विश्व-धर्म की जय बोलते हैं, मैंने निम्नलिखित प्रश्न उन्हें भेजे--
पहला: कल आपने कृष्ण को नारायण संबोधन दिया, पर जैन शास्त्रों के अनुसार वे सातवें नरक में हैं।
दूसरा: यहां कुछ लोग रजनीश के विधि-प्रयोग से ध्यान करते हैं, पर संप्रदाय विशेष में जन्मे होने के कारण उस संप्रदाय के लोग विरोध करते हैं। कुछ कहें।
मेरा छोटा सा परचा पढ़ कर उत्तर देना तो दूर, उन्होंने कागज को ऐसे फेंका जैसे अंगारा उनके हाथ में आ गया हो और क्रोधित हो गए। बाद में प्रश्नकर्ता के बारे में उन्होंने पूछताछ की।

भगवानदास भारती,
वह अंगारा ही था। साधु-साध्वियों से, मुनियों से, महात्माओं से ऐसे प्रश्न नहीं पूछने चाहिए। ऐसी अड़चनें उनके लिए खड़ी नहीं करनी चाहिए। ये सब बेचारे इतनी समझ और सामर्थ्य के लोग नहीं हैं कि तुम्हारे प्रश्नों का कोई समाधान दे सकें। समाधान इन्हें स्वयं ही नहीं मिले हैं। ये तो बंधी-बंधाई बातें दोहरा सकते हैं। ये तो तोते हैं। इनसे तुम अगर ऐसी कोई बात पूछते, जो शास्त्रों में लिखी है--कि मनुष्य देह कितने तत्वों से बनी है--तो ये बताते, पांच तत्वों से। तो ये बड़े प्रसन्न होते, कि तुमने बिलकुल सम्यक प्रश्न पूछा! कि तुम पूछते अहिंसा क्या है, अपरिग्रह क्या है, रात्रि-भोजन करना पाप क्यों है? तो ये सबका उत्तर दे देते। ये ग्रामोफोन रेकार्ड हैं, हिज मास्टर्स वॉइस! वह देखते हो न चोंगे के समाने जो सज्जन बैठे रहते हैं, वहीं हैं ये सब लोग। ये तो शास्त्रों को दोहरा देते हैं।
अब तुमने जो प्रश्न पूछे, इससे तुमने इन्हें अड़चन खड़ी कर दी। और फिर ये सब लोग न ध्यान को उपलब्ध हैं, न समाधि को। स्वयं का समाधान नहीं मिला, ये तुम्हें क्या समाधान देंगे! इनका सारा का सारा व्यक्तित्व पाखंड है, मुखौटे ओढ़े हुए हैं। इसलिए भूल ही गए। इसी को तो मैं कहता हूं कि हिमालय पर बैठे रहो वर्षों तक और क्रोध न आएगा। अब तुमने तो कोई गाली भी न दी थी, सिर्फ दो प्रश्न लिख कर पूछे थे। निर्दोष से प्रश्न! मगर उनको अंगारा छू गया, एकदम क्रोध आ गया। भूल ही गए होंगे उस क्षण में कि मैं मुनि हूं, मूर्च्छा पकड़ गई होगी। और तुमने बात जरा छू दी, घाव छू दिया। तुमने मुखौटा खिसकाने की कोशिश कर दी। तुमने इस तरह प्रश्न पूछ लिया, जिस तरह तुम मुझसे पूछते हो। इस तरह के प्रश्न कहीं और मत पूछना। मुझसे तो तुम जो चाहे जो पूछो, लेकिन इस तरह के प्रश्न तुम और कहीं मत पूछना। इस तरह के प्रश्नों की तैयारी उनकी होती नहीं। किसी भी भांति अगर तुमने उनके मुखौटे को सरकाने की कोशिश की तो मुश्किल में पड़ोगे। ये सब राजनीतिक के ही दांव-पेंच चल रहे हैं।
कहते हैं: विश्व-धर्म की जय! मगर अगर इनसे पूछो गौर से कि विश्व-धर्म यानी क्या? तो भीतर छिपा है: दिगंबर जैन धर्म! पूरा जैन धर्म भी नहीं--उसमें भी दिगंबर जैन धर्म! श्वेतांबर जैन धर्म भी नहीं आता उस विश्व-धर्म में। विश्व-धर्म तो सिर्फ नाममात्र के लिए है। वह तो राजनीतिक चालबाजी है, क्योंकि विश्व-धर्म की आड़ में ऐसा लगा है: अहा, कितनी उदारता! विश्व-धर्म की जय बोल रहे हैं? अगर विश्व-धर्म की जय बोल रहे हैं तो इनको इन सारे प्रश्नों के उत्तर देने चाहिए थे। और भी प्रश्नों के उत्तर देने चाहिए, क्योंकि जीसस मांसाहार करते रहे और शराब पीते रहे, फिर जीसस ने परमात्मा को पाया या नहीं, पूछना इनसे। और जीसस रात्रि-भोजन करते थे, मजे से करते थे। सच तो यह है, रात्रि में ही करते थे। मोहम्मद दिन में तो उपवास करते थे, रात्रि में भोजन करते थे। रमजान में अब भी मुसलमान यही करते हैं। पूछना कि मोहम्मद का क्या हुआ? मोहम्मद की नौ पत्नियां थीं, नौ पत्नियों वाला व्यक्ति मोक्ष को पा सकता है कि नहीं? तब इनको अड़चनें खड़ी होंगी। रामकृष्ण के संबंध में पूछना कि वे मछली खाते थे, तो वे परमहंस कैसे?
और अगर तुम विश्व-धर्म के संबंध में इनसे बातें पूछोगे, तब अड़चन खड़ी होगी। कुछ न पूछो तो विश्व-धर्म शब्द अच्छा है, प्यारा है। लेकिन विश्व-धर्म से इनका मतलब गहरे में है--दिगंबर जैन धर्म। जब तुम उसकी परिभाषा पूछोगे तो परिभाषा वही निकलेगी जो दिगंबर जैन धर्म की है। मगर विश्व-धर्म शब्द चलता सिक्का हो गया है अब, राजनीति में उपयोगी हो गया है। और धर्मों के लोग भी सुनें, समझें; और धर्मों के लोग भी आएं; और धर्मों के लोग भी इस तरह के लोगों की बातों में उत्सुक हों। इसलिए विश्व धर्म की बात कहने में होशियारी है। ये सारे लोग भी राजनीतिज्ञ हैं।
प्लास्टिक सर्जरी के
कुछ जमा थे विद्वान
और चला रहे थे
अपनी जबान
पहला बोला
कि मैंने एक लंगड़ी को
टांग लगाई थी
इस वर्ष
ओलंपिक दौड़ में
वही पहली आई थी;

दूसरा बोला कि
परसों ही मैंने
एक लूले को
लगाया है नया हाथ
और कल ही
बाक्सिंग में
दारासिंह को
उसने दी है
करारी मात;

तीसरा बोला,
कि तब से बहुत हूं परेशान
जब से मैंने
एक भेड़िए के ओंठों पर
चिपकाई है आदमी की मुस्कान
वह हाथ जोड़े
घर-घर जा रहा है
और अगले चुनाव के लिए
अपना वोट पटा रहा है!
तरहत्तरह के चुनाव हैं, तरहत्तरह की वोटें हैं। भीड़ इकट्ठी करनी है। अब जैनों की तो कोई बहुत भीड़ तो है नहीं और दिगंबर जैनों की तो कोई खास भीड़ है नहीं। मुनि विद्यानंद को कौन सुनने आए! हिंदू भी चाहिए, मुसलमान भी चाहिए, ईसाई भी चाहिए--तो बोलो विश्व-धर्म की जय! विश्व-धर्म की जय बोलने से इन सारे लोगों को भ्रांति पैदा होती है, इन सबको लगता है कि शायद ये हमारे धर्म की भी जय बोल रहे हैं।
लेकिन इनसे धर्म की परिभाषा पूछो। ये धर्म की परिभाषा ऐसी करेंगे कि उसमें सिर्फ दिगंबर जैन धर्म ही आएगा। वह परिभाषा की बात है। उसमें जीसस, मोहम्मद और कृष्ण और राम कोई नहीं आने वाले हैं। कृष्ण तो बिलकुल नहीं आ सकते। सोलह हजार पत्नियां! पाप की भी कोई हद होती है! पाप की भी कोई सीमा होती है! और फिर इसी आदमी ने युद्ध करवाया। अर्जुन तो जैन मुनि होना चाहता था, वह तो एलाचार्य विद्यानंद हो गया होता; मगर कृष्ण ने उसको समझा-बुझा कर...वह भाग-भूग रहा था, सब तरह से उपाय कर रहा था, गांडीव छोड़ दिया था और तरहत्तरह के तर्क उसने किए। मगर कृष्ण भी एक ही जिद्दी आदमी थे, कि उसको घोंट कर पिलाए ही गए, पिलाए ही गए! और मुझे नहीं लगता कि अर्जुन राजी हुआ कृष्ण से कभी भी। मगर देख कर कि यह आदमी पीछा छोड़ने वाला नहीं है, तो उसने कहा कि हे महाराज, अब क्षमा करो। मेरे सब संशय मिट गए। तुमसे जूझने से बेहतर है युद्ध में ही उतर जाऊं। बेचारा लड़ा। तो जैन नाराज थे। वे ज्यादा ईमानदार जैन थे। ये मुनि विद्यानंद से कहीं ज्यादा ईमानदार, जिन्होंने कहा कि सातवें नरक में डाला है हमने कृष्ण को। ज्यादा ईमानदार।
ये मुनि विद्यानंद तो बेईमान हैं। तुमने उनकी रग छू दी, जो दुखती है। तुमने पूछ लिया कि कल आपने कृष्ण को नारायण संबोधन दिया, पर जैन शास्त्रों के अनुसार वे सातवें नरक में हैं। तुमने उनको मुश्किल में डाल दिया। अगर वे कहें कि कृष्ण सातवें नरक में हैं तो हिंदुओं से पत्ती कट जाए। और यह देश हिंदुओं का है। और अब जैनों की इतनी हिम्मत नहीं है, न इतना साहस है कि बलपूर्वक कह सकें जो उनकी मान्यता है। और अगर वे कहें कि नहीं, कृष्ण नारायण हैं, जैन शास्त्र गलत हैं, तो जैनियों से पत्ती कट जाए। तुमने उन्हें उपद्रव में डाल दिया। इसलिए तुम्हारा...तुम कहते जरूर हो कि छोटा सा पर्चा दिया था। वह अंगारा था! तुमने विद्यानंद पर मुसीबत खड़ी कर दी--इधर कुआं उधर खाई। देखा होगा पर्चा और उन्होंने कहा कि आ गया कोई खतरनाक आदमी।
और इस तरह से लोगों से क्या पूछने जाते हो! इनकी शक्ल तो देखो! ये रोते हुए लोग, मक्खियां भिनभिना रही हैं। तुम गए किसलिए वहां? क्यों इनको कष्ट देते हो? जीने दो बेचारों को, बोलने दो विश्व-धर्म की जय! क्या बनता-बिगड़ता है? मस्जिद में जाते हैं कभी ये? हिंदू मंदिर में जाकर झुक कर नमस्कार करते हैं कभी ये? हिंदू मंदिर में जाने की तो बात दूसरी; जैन शास्त्र कहते हैं कि अगर पागल हाथी भी आ रहा हो और उसके पैर के नीचे दब जाने की अवस्था हो, तो दब जाना, मर जाना; मगर पास में अगर हिंदू मंदिर हो तो उसमें शरण लेने मत जाना। नमस्कार करने की तो बात दूर। इनसे पूछो कि विश्व-धर्म की जय तुम किसलिए बोल रहे हो?
मगर इनके भीतरी हिसाब और हैं। इनका भीतरी मतलब यह है कि और धर्म तो धर्म हैं ही नहीं; असली धर्म तो एक ही है; वह है दिगंबर जैन धर्म; वही तो विश्व धर्म है। इसलिए कोई अड़चन नहीं है; वह भीतरी हिसाब है इनका। जब ये बोल रहे हैं विश्व-धर्म की जय तो ये भीतर कह रहे हैं: जैन धर्म की जय! और उसमें भी दिगंबर, खयाल रखना।
मैं एक गांव में गया, वहां श्वेतांबरों और दिगंबरों में लकड़ियां चल गई थीं। क्योंकि एक ही मंदिर था गांव में; छोटा गांव, एक ही मंदिर। उसको बांटा हुआ था उन्होंने आधा-आधा। समय में बांटा हुआ था। बारह बजे सुबह तक श्वेतांबर जैन पूजा करते थे और बारह बजे के बाद दिगंबर जैन पूजा करे थे। मगर वह झंझट की बात थी। उपद्रवी तो सब जगह होते हैं। बारह बज गए, कोई श्वेतांबर जैनी ढोंग करे कि हमारी पूजा अभी खतम ही नहीं हुई। मतलब मस्ती में आ गए हैं हम। साढ़े बारह बजा दें। बाहर दिगंबर खड़े हैं, वे कह रहे हैं: हटो, निकलो! समय तुम्हारा खतम हो चुका। और वह है कि अपनी पूजा ही किए जा रहा है। तो दंगा-फसाद हो गया।
और मैंने उनसे पूछा कि एक ही महावीर की प्रतिमा है, अगर श्वेतांबर कर रहा है पूजा, करने दो, तुम भी अपनी शुरू करो। वे कहें, कैसे कर सकते हैं हम शुरू? मैंने कहा, फर्क क्या है? फर्क एक छोटा सा है। वह फर्क यह है कि श्वेतांबर जब पूजा करता है महावीर की तो महावीर की आंख खुली होनी चाहिए, तो वह आंखें लगा कर पूजा करता है। नकली आंखें। वह तो यह कहो कि चश्मा नहीं पहनाते, यही बहुत है। नहीं तो बुढ़ापे में महावीर को चश्मा भी लगाते। नकली आंखें और उस पर और नकली चश्मा! खुद अंधे, उनको भी अंधा बनाते! और दिगंबर, वे बंद आंखों में पूजा करते हैं, क्योंकि महावीर की ध्यानस्थ अवस्था, उसमें आंख बंद होनी चाहिए। मूर्ति जो थी वह आंख बंद वाली थी। सो उस पर श्वेतांबर चिपका लेते हैं अपनी आंख! नकली आंख ऊपर से लगा ली, पूजा कर ली, फिर आंख निकाल कर रख ली। फिर इसके बाद दिगंबर पूजा करते हैं। तो उसी समय तो पूजा हो ही नहीं सकती। एक साथ तो दोनों पूजा कर नहीं सकते। डंडे चल गए। अहिंसक--और डंडे चल गए। महावीर के नाम पर!
मैंने उनसे कहा कि एक गुरु के दो शिष्य थे। दोपहरी थी, गरमी के दिन थे। गुरु विश्राम कर रहा था, दोनों शिष्य पैर दाब रहे थे। झगड़ा न हो, इसलिए पैर बांट लिए थे--एक के हाथ में बायां, एक के हाथ में दायां। और गुरु ने करवट ली। नींद में करवट ले ली होगी। बाएं पैर पर दायां पैर पड़ गया। जिसका बायां पैर था, उसने कहा, हटा ले अपने दाएं पैर को! अरे हटाता है कि नहीं? मेरे पैर पर तेरा पैर चढ़ा जा रहा है, यह बरदाश्त के बाहर है। जिसका दायां पैर था, उसने कहा, है किसकी हिम्मत जो मेरे पैर को हटा दे। है चुनौती, हटा दे! जिसका बायां पैर था उसने दाएं पैर को उठा कर फेंक दिया एक तरफ। और जिसका दायां पैर था, उसने उठा कर डंडा बाएं पैर की पिटाई कर दी। गुरु चीख मार कर उठ पड़ा। हालत सब देखी, समझी और कहा कि सुनो, पैर मेरे हैं!
महावीर से तो पूछो बेचारों से, कि क्या इरादे हैं? अभी आंख लगानी कि आंख नहीं लगानी! इनसे कोई पूछ ही नहीं रहा है। मुकदमा चल रहा है। अब पुलिस का ताला लगा है उस मंदिर पर वर्षों से, क्योंकि अदालत में फैसला नहीं हो पा रहा है कि मंदिर किस को दिया जाए।
ये क्या विश्व-धर्म की जय बोलेंगे? ये ही उपद्रवी तो सब झंझटें, झगड़े की जड़ हैं। और इनसे तुम पूछने जाते हो!
मुल्ला नसरुद्दीन एक डाक्टर के पास गया और कहा कि मैं दस साल से बीमार हूं, कोई मेरा इलाज नहीं कर पा रहा है। सभी डाक्टर थक गए, मैं भी डाक्टरों से थक गया हूं। आप नये-नये गांव में आए हैं, बड़ी प्रशंसा सुनी है। क्या आप मुझे ठीक कर सकते हैं?
उस डाक्टर ने कहा, मैं ही ठीक कर सकता हूं। मैं तीस साल से बीमार हूं, अनुभवी डाक्टर हूं! वे क्या करेंगे तुझे ठीक, बीमारी का अनुभव ही नहीं है कुछ! तू अब ठीक जगह आ गया है।
मुल्ला फिर भी डरा हुआ था। उसने कहा कि देखिए, मैंने सुना है कि कई डाक्टर लोग दवाई तो मोतीझिरा की देते हैं और मरीज मरता निमोनिया से है। उस डाक्टर ने कहा कि तू फिक्र छोड़, मैं जब निमोनिया की दवाई देता हूं तो मरीज हमेशा निमोनिया से ही मरता है।
मुल्ला थोड़ा सा घबड़ाया, लेकिन डाक्टर ने कहा तू फिक्र न कर। न तुझे मोतीझिरा है न निमोनिया। तेरा तो आपरेशन करना पड़ेगा, अपेंडिक्स तेरी निकालनी है।
मुल्ला के तो प्राण कंप गए। मुल्ला ने कहा, क्या कहते हैं डाक्टर साहब! सोच-समझ कर अच्छी तरह आपरेशन करना, मुझे बड़ा भय लगता है। जिंदगी में यह मेरा पहला ही आपरेशन है।
डाक्टर ने कहा, तू मत घबड़ा रे। तू क्या समझता है मेरा दूसरा आपरेशन है? मैं भी पहली बार ही आपरेशन कर रहा हूं।
इनसे तुम सलाह लेने जा रहे हो! मत सताओ इनको। मत इन्हें कष्ट दो। इन्हें बोलने दो विश्व-धर्म की जय। इन्हें जो करना हो करने दो। इस कूड़े-करकट में पड़ने की जरूरत नहीं है।
और तुमने मेरा नाम ले दिया उनके सामने, तो तुमने छाती में उनके छुरा भोंक दिया! मेरा नाम तो लेना ही मत किसी महात्मा के सामने। नहीं तो महात्मा ऐसे भागते हैं मेरा नाम सुन कर कि फिर वे तुम्हारी तरफ लौट कर ही नहीं देखेंगे। एक तो तुमने कृष्ण का नाम लिया--एक खतरनाक नाम; और फिर मेरा नाम ले दिया! तुम जले पर और नमक छिड़क दिए। ऐसा नहीं करते भैया!

अंतिम प्रश्न: भगवान,
आप हमें इतना हंसाते हैं, मगर स्वयं कभी क्यों नहीं हंसते?

वीणा,
एकांत में हंसता हूं। इधर तो तुमको देखता हूं तो रोना आता है। आदमी की हालत इतनी बुरी है कि हंसो तो कैसे हंसो! आदमी बड़ी दयनीय अवस्था में है, बड़ी आंतरिक पीड़ा में है। कैसे जिंदा है, यह भी आश्चर्य की बात है।
इसलिए तुम्हें तो हंसा देता हूं, लेकिन खुद नहीं हंस पाता हूं। एकांत में हंस लेता हूं। जब तुम नहीं होते, जब तुम्हारी याद बिलकुल भूल जाती है, तुम्हारे चेहरे नहीं दिखाई पड़ते, तुम्हारी पीड़ा, तुम्हारा दुख विस्मृत हो जाता है--तब हंस लेता हूं। लेकिन तुम्हारे सामने हंसना असंभव है।
जिनकी सांसों में कभी गंध न फूलों की बसी,
शोख कलियों पे जिन्होंने सदा फब्ती ही कसी;
जिनकी पलकों के चमन में कोई तितली न फंसी,
जिनके होंठों पे कभी आई न भूले से हंसी;
ऐसे मनहूसों को जी-भर के हंसा लूं तो हंसूं,
अभी हंसता हूं, जरा मूड में आ लूं तो हंसूं।

बेखुदी में जो कभी पंख लगा कर न उड़े,
होश में जो न महकती हुई जुल्फों से जुड़े;
देख कर काली घटाओं को हमेशा जो कुढ़े,
कभी मयखाने की जानिब न कदम जिनके मुड़े;
उन गुनहगारों को दो घूंट पिला लूं तो हंसूं,
अभी हंसता हूं जरा मूड में आ लूं तो हंसूं।

जन्म लेते ही अभावों की जो चक्की में पिसे,
जान पाए न जो, बचपन यहां कहते हैं किसे;
जिनके हाथों ने जवानी में भी पत्थर ही घिसे,
और पीरी में जो नासूर के मानिंद रिसे;
उन यतीमों को कलेजे से लगा लूं तो हंसूं,
अभी हंसता हूं, जरा मूड में आ लूं तो हंसूं।

जिनकी हर सुबह सुलगती हुई यादों में कटी,
और दोपहरी सिसकते हुए वादों में कटी,
शाम जिनकी नये झगड़ों में फसादों में कटी,
रात बस खुदकुशी करने के इरादों में कटी;
ऐसे कम्बख्तों को मरने से बचा लूं तो हंसूं,
अभी हंसता हूं, जरा मूड में आ लूं तो हंसूं।
वीणा, हंसना मुश्किल है। मनुष्य को देख कर आंसुओं को रोक लेता हूं, यही काफी है। तुम मनुष्य की दुर्दशा तो देखो, उसके भीतर बसे हुए नरक को तो देखो। और कठिनाई बढ़ जाती है, क्योंकि इस नरक को बनाने वाला वही है।
मुल्ला नसरुद्दीन शराब पीकर सड़क से चला जा रहा था। पैर फिसल गया, गिर पड़ा। कई फ्रैक्चर हो गए। एक आदमी उसे उठा कर पास के मकान तक ले जाने लगा। वह भी नशा किए हुए था। उसको उठा कर चलना तो मुश्किल ही था, खुद ही चलना मुश्किल था, वह गिरा। नसरुद्दीन की और कुछ हड्डियां बची थीं तो वे भी टूट गईं। दो-चार और पियक्कड़ चले आ रहे थे मधुशाला से बाहर। यह मधुशाला के बाहर ही हुई होगी घटना। उन्होंने कहा, ऐसे नहीं भाई, ऐसे नहीं। स्ट्रेचर चाहिए। सो जल्दी से उन्होंने दो डंडे कहीं से लाए और कपड़ा वगैरह बांध कर स्ट्रेचर बना लिया। आधी रात, और तो कोई था भी नहीं, मुल्ला को स्ट्रेचर पर रखा कि अस्पताल ले चलें। वह कपड़ा फट गया, वह उसमें से गिरा, सो और कुछ बचे थे तो वे टूट गए। जब दूसरे दिन उसके मित्र उसे देखने गए, तो उसकी हालत देख कर बड़े हैरान हुए। सब पूरा शरीर ही बंधा था। सब जगह पट्टियां ही पट्टियां, पलस्तर ही पलस्तर--खोपड़ी से लेकर पैरों तक। बस जरा आंखें दिखाई पड़ती थीं, नाक दिखाई पड़ती थी, मुंह दिखाई पड़ता था। उन्होंने पूछा नसरुद्दीन को कि बहुत तकलीफ होती होगी।
नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, ऐसे तो तकलीफ नहीं होती; जब हंसता हूं तब होती है।
तो उन्होंने पूछा कि भलेमानुष, हंसते किसलिए हो? इसमें हंसने की क्या बात है?
उसने कहा, हंसता इसलिए हूं कि मैं पीए हुआ था, इसलिए गिरा। मैं मूरख! और फिर एक दूसरा मूरख आ गया, वह भी पीए हुए था, इतना भी होश नहीं कि पीए हुए हो, मुझको उठा कर चलने लगा। सो वह गिरा, उसने और मेरी हड्डियां तोड़ दीं। और फिर चार और मूरख आ गए। उन्होंने तो गजब कर दिया। उन्होंने स्ट्रेचर बना लिया। कैसे बना ली, गमछा वगैरह बांध कर किया पता नहीं। वह गमछा फट गया, वह फट ही जाने वाला था। हंसता हूं यह देख कर कि जिनको अपना होश नहीं, वे दूसरों को सहायता दे रहे हैं, दूसरों की सेवा कर रहे हैं। अपने आप तो मेरी कुछ ही हड्डियां टूटी थीं; ये तो दूसरों की सेवा में टूटीं। यह तो दूसरों ने जो सेवा की मेरी, उसका फल भोग रहा हूं। सेवा उन्होंने की, मेवा मैं खा रहा हूं। सो कभी-कभी हंसी आ जाती है। जब हंसी आ जाती है तो शरीर में थोड़ी हलन-चलन होती है, उससे बहुत तकलीफ होती है।
आदमी बेहोश है--पट्टियां ही पट्टियां बंधी हैं। सब तरफ बेहोशी है। होश का पता ही नहीं। किरण का भी पता नहीं। अंधकार ही अंधकार है, अमावस की रात है।
और वीणा, तुम मुझसे पूछती हो, मैं हंसता क्यों नहीं! चाहता हूं हंसूं, तुम्हारी हंसी में साथ दूं; लेकिन नहीं दे पाता। तुमको भी क्यों हंसाता हूं, उसका कारण है। जब देखता हूं किसी ने जम्हाई ली, जब देखता हूं कि कोई झपकी खाने लगा तो सिवाय इसके कोई और उपाय नहीं कि कुछ कहूं कि तुम्हें हंसी आ जाए। हंसी आ जाए तो थोड़ी नींद टूटे, तो तुम थोड़े जगो, तुम थोड़े होश में आ जाओ। तुम्हारी नींद तोड़ने के लिए बीच-बीच में तुम्हें हंसाता रहता हूं, नहीं तो तुम कभी के सो जाओ।
एक पादरी बोल रहा था। एक आदमी सोया ही नहीं, घुर्राने भी लगा। उस पादरी ने कहा, भाई, धीरे-धीरे, क्योंकि और लोग जो सो गए हैं उनकी नींद न टूट जाए! अगर मैं तुम्हें हंसाऊं न तो तुम सब कभी के सो चुके होओ। धार्मिक सभाओं में लोग सोने का ही काम करते हैं। इसलिए मैं अपनी धार्मिक सभा को जितनी अधार्मिक बना सकता हूं, बनाने की कोशिश करता हूं; नहीं तो लोग सो जाएं। धर्म तो समझो नींद की एक दवा है। डाक्टर हैं, जो भेज देते हैं धर्मसभाओं में लोगों को, जिनको नींद नहीं आती, कि कभी न आए, ट्रैंक्वेलाइजर काम न करे, कोई फिक्र नहीं, धर्मसभा में चले जाओ, वहां नींद जरूर आ जाएगी। आने ही वाली है। वही राम की कथा! वही सीता मैया! वही रावण! वही हनुमान जी! कब तक सुनोगे? सदियां हो गई सुनते-सुनते। सोओगे नहीं तो क्या करोगे! सो ही जाओगे।
और धर्म की बातें--थोथी, सैद्धांतिक, शास्त्रीय। किसको रस है? जीवन ऐसे ही विरस है और ये धर्म की बातें और विरस कर देती हैं।
मैं अपनी सभा को धार्मिक सभा नहीं बनने देना चाहता। यह तो मयखाना है और इसे मैं मयखाना ही रखना चाहता हूं। इसलिए बीच-बीच में जब तुम भूल जाते हो, तुम्हें याद नहीं रहती, तुम समझते हो कि धर्मसभा चल रही है, कि धार्मिक प्रवचन चल रहा है, तब मुझे कुछ न कुछ अधार्मिक करना पड़ता है--तुम्हें याद दिलाने को कि नहीं भैया, यह धर्मसभा नहीं है। गलती से यहां आ गए, अगर धर्मसभा में आए हो तो। यह तो महफिल है। यह तो मस्तों का जमघट है। यह तो रिंदों का सत्संग है, पियक्कड़ों की जमात है। तो तुम्हें हंसा देता हूं, ताकि तुम सो न जाओ।
मगर मैं नहीं हंस सकता। उस दिन हंसूंगा जिस दिन देखूंगा कि तुम सब जाग गए, अब तुम्हें हंसाने की कोई जरूरत नहीं रही। जिस दिन मुझे तुम्हें नहीं हंसाना पड़ेगा, उस दिन यहां बैठूंगा और हंसूंगा। फिर तुमसे कुछ कहने को नहीं रहेगा। अभी तो तुम्हारे साथ मेहनत करनी है।
और जगाना--किसी को भी जगाना--उपद्रव का काम है। क्योंकि सोने वाला हर तरह की कोशिश करता है कि मत मेरी नींद में बाधा डालो, मत मुझे उठाओ; अभी-अभी तो नींद लगी है; अभी-अभी तो सुबह की ठंडी हवा चली है--और आप जगाने आ गए!
मैं तीन बजे रात उठा करता था, विश्वविद्यालय में जब पढ़ता था। तो जिसको भी ट्रेन पकड़नी हो, कुछ करना हो, वह मुझसे कह देता था--कोई प्रोफेसर, कोई डीन, कोई वाइस चांसलर--कि भई उठा देना मुझे पांच बजे। मैं तीन ही बजे उठा देता। वे देखते घड़ी कि अरे अभी तीन ही बजे हैं। तो मैंने कहा, आप थोड़ी देर और सो लो। साढ़े तीन बजे फिर उठा देता।
भई तुम सोने दोगे कि नहीं? पांच बजे मुझे जाना है।
मैंने कहा, थोड़ी देर बाद उठा देंगे। मैं चार बजे फिर उठा देता। वे हाथ जोड़ लेते, वे कहते कि अब तुम कृपा करके हमें पांच बजे भी मत उठाना। तुमने थका मारा। फिर तो यह खबर फैल गई विश्वविद्यालय में कि मुझसे भूल कर कोई न कहे। किसी को जाना होता तो यहां तक हुआ कि एक सज्जन थे डाक्टर रसाल--हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे, बड़े अच्छे आदमी थे। वे मुझसे एक दिन बोले कि भैया कल सुबह मुझे पांच बजे गाड़ी पकड़नी है, तुम खयाल रखना जगाना मत। तुम्हें कहीं से पता चल जाए! कोई तुमसे कह दे कि डाक्टर रसाल को गाड़ी पकड़नी है! मैं तुमसे हाथ जोड़े लेता हूं, जगाना मत। गाड़ी चूके चूक जाए; मगर तुम तीन बजे से जगाना शुरू कर देते हो!
लोग जगना ही नहीं चाहते, चाहे गाड़ी चूक जाए, चाहे जीवन चूक जाए। मगर मैं यहां कस्त किए बैठा हूं कि जगा कर रहूंगा। जो भी फंसा मेरे हाथ में, उसको जगा कर रहूंगा। हिलाऊंगा-डुलाऊंगा, खींचूंगात्तानूंगा, हंसाऊंगा--जो भी बन सकेगा करूंगा। मारूंगा-पीटूंगा, जो भी बन सकेगा करूंगा।
तुम्हारे प्रश्न के उत्तर थोड़े ही देता हूं, तुम्हारी पिटाई करता हूं। अब तुम सोचो दयाराम पर क्या गुजरी होगी! अब दयाराम दोबारा प्रश्न पूछेंगे? समाप्त! अब वह मन ही मन में कह रहे होंगे कि हे प्रभु, मेरे सब संशय समाप्त हो चुके! अब मुझे कुछ नहीं पूछना, अब मैं घर जाता हूं--और वहीं शांत होने का प्रयोग करूंगा।
तुम्हारे प्रश्न तो बहाने हैं कि मैं तुम्हें झकझोर सकूं। इसलिए तुमसे कहता हूं पूछो। उत्तर देने का थोड़े ही सवाल है; कुटाई-पिटाई करने का सवाल है। उत्तरों से थोड़े ही तुम जगने वाले हो। उत्तर तो तुम पी गए सदियों-सदियों में। उत्तर पीने में तो तुम ऐसे कुशल हो कि शास्त्रों को पी जाओ और डकार न लो!
आज इतना ही।


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