रविवार, 28 मई 2017

1--धूल का कण (कविता)-मनसा आनंद


1--धूल का कण (कविता)
धुल का कण सरक कर परों के तले,
उसका धीरता से यूं सिमटना, सुकड़ना और नाचना।
खिल-खिला कर करना उसका यूं अट्टहास,
क्‍यों नहीं आता उसको अहं से उठना।
क्‍या नहीं जानता वह अपनी ताकत को?
या भूल गया है अपने बल के प्रदर्शन को,
      पर शायद नहीं चाहता वो ये सब करना
      वो कैसा खिलखिलाता सा दिखता है
      हवा के नाजुक पंखों पर बैठ कर,
      बना देता  है  रेत के  ऊंचे-ऊंचे पहाड़।
      गर्म  तपती  हुई  धूप  में,
      रात की सीतलता का करता है इंतजार।।

डूबते सूरज की सपाट,
सिमटती और सरकती स्‍वर्णलिप्‍त धूप में,
वो सोने सा गर्वित दिखता है।
बसन्‍त की सुकोमल शान्ति में वो,
सीने पर कांटे उगा कर हंसता है।।
      अषाढ़, के मेघों की गरजना में,
      तु गुन-गुनाता है वो मेध मल्हार   
      रिम-झिम टपकता बूँदों में भी।।
      कैसी नन्‍हें बच्‍चे की तरह,
      सुबकियां भर-भर कर नहाता है वो।
      कभी रूठता है, कभी इतरता और इठलाता सा लगता है।
      और कभी डरा सहमा सा बनकर छुपना चाहता आंचल में।।
हाएं ! देखो इस मनुष्य को
न जाने क्‍या हो गया है,
कहां खो गई है इसकी हंसी।।
कहां छिन गया है, इसकी आंखों का उल्‍लास,
कहां रह गई है इसकी आस उम्मीदें
कहां छिटक गया इसका उन्माद।।
और कहां बिखर गई तेरी पूर्णता
नहीं दिखती तेरे कदमों में कहीं मदहोश
नहीं खिलता तेरे जीवन में कोई उत्‍सव फूल
केवल एक कली सुकड़ कर कहीं
मिटती सी नजर आ रही है
चारों और मचा है प्रतिषपरदा का हाँ-हाँ कार,
पर ये सब क्‍या है....?
तू कर रहा है अपने ही विनाश का अह्वान
खुद आपने ही हाथों से...
और सोचता है यहीं है मेरी प्रगति, मेरा उत्‍थान....

देख ले फिर से अपने कदम को एक बार,
क्‍या वो चला रहे है तुझे।
या तू घिसट रहा उनके पीछे....।।
ठहर जा, ठिठक जा,
और डूब जा अपने में।
एक पल में सब बदल जाएगा।
बस तुझे रूकना भर है,
परन्‍तु तू शायद रूकना भूल गया है
रूकना और ठहरना,
बस एक कदम और नहीं आगे रखना आगे,
इसके बाद तो पूर्ण इति है।
नहीं देख सकेगा तू पीछे चाह कर भी कुछ,
क्‍या समय देखता है पीछे मुड़कर कभी?
एक काली छाया निगल रही होगी इस धरा को,
इन सुरम्य गर्वित जीवन को,
केवल बचा इक अन्‍धकार,
उस काल के गर्व में
केवल, एक प्रलय, बीज तो बो रहा है
एक विभीषिका समेटे अपने आँचल में.......।।
--स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’

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