नीम के उस पेड़ को अपनी विशालता, भव्यता और सौंदर्य पर बहुत गर्व था। गर्व हो भी क्यों न प्रत्येक प्राणी उसके रंग रूप और आकार को देख कर कैसा गद-गद हो जाता था। पक्षी उस पर आकर बैठते और अठखेलिया करते। आपस में लड़ते झगड़ते कूद-फुांदक कर कैसे मधुर गीतों की किलकारीयाँ गाते थे। मानों आपके कानों में कहीं दूर से घंटियों को मधुर नाद आ रहा है। कोई अपनी चोंच टहनियों पर रगड़-रगड़ कर उसे साफ़ कर रहा होता। कोई चोंच मार कर आपस में प्रेम प्रदर्शित कर रहा होता। आप बस यूं कह लीजिए की उस नीम के पेड़ के चारों और रौनक मेला लगा रहता था। उस सब को देख कर नीम भी मारे खुशी के पागल हुआ रहता था। उस नीम का तना हमारे आंगन में जरूर था पर उसकी शाखा-प्रशाखाओं दूर पड़ोसियों के छत और आंगन तक पसरी फैली हुई थी। वो इतना ऊँचा और विशाल था कि ये बटवारे की छोटी-छोटी चार दीवारी उसकी महानता के आगे बहुत ही नीची थी, इन दीवारों की उँचाई का कोई महत्व नहीं था उसकी विशालता के आगे। या यूं कह लीजिए कि नीम कि उँचाई के आगे वह बोनी महसूस होती थी। जड़ें और तना भले ही हमारे आंगन में हो, परन्तु उसकी छत्र छाया का आशीर्वाद दुर दराज के घरों को भी उतना ही मिलता था। ये शायद उसकी बुजुर्गता और महानता का ही वरदान था।
मैने जब भी मॉं से पूछता ‘’मां ये नीम कितना पुराना होगा।‘’ तब मां केवल इतना कहती, ‘’जब में शादी होकर बाद इस घर में आई थी। मैने इसे ऐसा ही देखा था। और मैंने अपनी सासु मॉं से भी जब पूछा था तब उसने भी यही कहां की उसने भी इसे इतना बड़ा और विशाल ही देखा था।‘’ सौ मैने गिनती का अन्त करते हुए उसे अति ‘’प्राचीन’’ होने के खिताब से नवाज दिया।
नीम
शब्द संस्कृत से आया है, नम:
से, कैसे उसकी टहनियों को गुच्छों में झूमती सिहरती, आनन्द तर झुकी हुई तुम पाओगे।
परन्तु पूर्ण नीम को जब तुम देखोगें सीधा खड़ा अपनी पूर्णता में इठलाता, प्रसन्न
मुद्रा में लीन ही खड़ा देखोगें। उसकी पुर्ण
शाखा-प्रशाखा, पृथ्वी तक नवी कैसी देव तुल्य सी प्रतीत होती थी। और दूसरी और
शीशम (शीशा+नम:) टहनियों
को जब भी आप झुके हुऐ देखेंगे वह कैसे साधू भाव से खड़ा होगा। इतना झुके होने पर
भी आपके मन में शीशम के प्रति श्रद्धा भाव ही होगा। दूसरी और लहराती झूमती नीम की
टहनीयों को जब आप देखोगें तो आपको उसमें उसका होना कहीं वैभव पूर्ण लगेगा, वह खड़ा अपने में पूर्ण
रूप लिए महसूस होगा। और इस तरह से खड़ा देख कर आपका अंतस अनायास ही उसे देख कर झुक जायेगा। उसकी गौरव मई
विशालता उसकी झूमती टहनीयों को देख कर आप पल भर के लिए किसी और ही लोक में चले
जायेगे। यही है उसके होने कि सत्यता। उसकी सीतल कड़वी छांव जब आपके गले में कस्साया
पन और नथुनों में सौंधा पन भर देंगे तब आप आपने को कैसा हल्का और निर्भार महसूस
करते हुए रह जाओगे।
नीम अपने आस पास के सभी घरों में छांव देता, पतझड़ में उनके घरों
में पीले पत्ते बिखेर कैसे मुस्कराता
सा दिखता, उस हरसित
बेला के समय जब आप उसे देख रहे होगें तो वह एक नटखट बालक जैसा आपको दिखलाई देगा।
पत्तों के साथ जब उनकी पतली-पतली सीखें (डालियां) जमीन पर गिरती, तब लड़कियाँ-बच्चे
उन्हें इक्कठा कर के खेलने का झाडू बनाते मिल जायेगे। सावन से पहले जब उसमे बुग्गर
(फूल) आता तो कैसी तेज गन्ध बिखर जाती। और आपके नथुनों के अंतस तक एक सोंधी
ख़ुमारी सी भर जाती। नीम अपनी सूगंध में एक औषदीय समये रहता है। देखते ही देखते वह
बुगर कैसे निमोलियो बन कर कैसे टहनियाँ पर लद जाती, पक कर जब वे निमोलियो पीली हो जाती तब बच्चे, पक्षी, कीड़े मकोड़ों को कैसे अपनी और खींच कर सार दिन पागल बनाए रहती थी। दूर कहीं जब
सूरज थक मांद कर अपने घर लोट रहा होता तब पक्षी दिन भर के थके मांदे उसकी टहनियों
पर आकर अपना रेन बसेरा करते। चिडियाओं का चहकना कैसा मेला लगने लग जाता था। उस समय
नीम मानों अपने सारे दिन की धूल
धमास और थकावट
को भूला जाता था। दूर दराज केवल पक्षियों का कलरव धूंधरूओं का भाष देता सूनाई
देता। सब पक्षी सोने से पहले कैसे एक दूसरे के साथ मोज मस्ति करते होते। इस सब को
देख नीम गद्दगद्द हो कर अपने को धन्य समझता।
रात
होते तक आस पास के सब पक्षी अपने अहं को भूल उस पर रैन बसेरा करते थे। कैसे रात की कालिमा आपके
रंग रूप को अपने में समेट लेती है। आप बस है वहां यहीं तो होने का भास है। आप का
आकार पर्णता में विलिन हो गया है। दिन के उजाले में फिर अपने स्वरुप के अनुरूप मोर, तोते, कौवे, चिड़ियों, गिलहरी
बन अपना संसार रच लते थे। रात के अंधेरे में नीम अपनी गोद और नींद में उनका होने
का भाव अपने में कैसे पूर्णता से समा कर लीन कर लेता था। मानों सब की स्वांसे भी
एक हो गई है। वहां अब केलव है तो मात्र नीम....ने कोई पक्षी न कोई आकार..... दिन
में ऊपर की टहनियों पर पक्षियों का डेरा जमा होता, नीचे गॉव की बहुँ-बेटियॉं सीने, पिरोने, चूटने के साथ
बात-बात पर हंसते-हंसते लोट-पोट हो रही होती। उस समय वातावरण में कैसी मधुर ताजगी
और एक सुहावना एहसास भर जाता था। नीम भी उसे देख कर कैसा पुलकित और अल्हादित होता
था पर अपने बुर्जग होने के अंदाज में थोड़ा
झिझकता भी जरूर था।
नीम
की छांव में दिन भर गांव की बहु बेटियों की चुहल-चपलता चारों तरफ बिखरी फैली होती,
पास में ही बड़ी बुढ़ियों अपना दांत
रहित पोपला मुहँ लिए गहन
मंत्रणाओ के साथ, बहु-बेटियों को डाटती डपटती रहती थी। ‘’कि क्या खि-खि करती रहती हो सार दिन दाँत निकाल कर बेशर्म की तरह मुहँ
फाड़ती रहती हो।‘’ ये सब सुन कुछ बहु बेटियाँ पल्लू में मुहँ
दबा कर हंसती। तब नीम उन पर अपना बूगुर फेंक कर सावधान करता। पर उस बेचारे की सुनता
कोई नहीं था। आस पड़ोस की सब लड़कियाँ अपने आँगनों में फैली टहनियों में झूला डालती थी, परन्तु रौनक मेला तने के आस-पास की झूल पर ही
अधिक जमता था। पत्ते शाखाओं पे कहीं पर भी लगे सिंचना तो पड़ेगा उन्हें तने ने ही, उन अंधेरी छुपी जड़ों को अपना माध्यम बना कर। सावन के दिनों में नीम पर झूला
डालना भी वीरता
पदक पा लेने का जैसा
काम था। सब लड़की
उस समय कैसे प्यार से मेरी लल्लो चप्पों कर मुझे मनाती थी। तू कितना अच्छा है, बहादुर है, तू मेरा सबसे राजा भैया है। तू सब की
बात ठुकरा सकता है पर मेरी नहीं...भैया मेरा झूला डाल दे ना....ना-ना कर के भी
मुझे सब का ही झूला डालना ही पड़ता था। ये दो काम मैंने उन दिनों इतने किये कि में
आपको बता नहीं सकता। एक तो उनके कपड़ों पर फूल-पत्ते छापना। और दूसरा झूला डालना।
एक तो नीम का तना एक दम सीधा
खड़ा था, और उपर वह मोटा भी इतना था की तीन चार बच्चे हाथ
पकड़ कर उसका गोल घेरा भी
मुश्किल से बनाकर
हाथों को पकड़ पाते थे।
इसके अलावा चींटों की पहरेदारी एक दम अडिग
क्या मजाल कोई तने को छू भी ले, पेड़ पौधे भी कैसे शांत खड़े होकर भी अपनी रक्षा और उत्पती के लिए फूल-फलों
से लुभाने का सहारा लेते है। कैसे अपने
फलों-फूलों से उन्हें अपनी और खिचते है। पर मैं इन चींटियों की बाधाओं को बड़ी
सरलता से पार कर बड़े चाव से उसे नीम पर चढ़ जाता। सच कहूं तो झूल डालना तो एक
बहाना था। ताकि मां को पता चल जाये तो वो डांटने न लग जाये,
मैं तो खुद ही उस नीम के साथ रह कर अपने को बहुत खुश महसूस करता था। और झूला डालने
के इस बहाने से उसके उपर चढ़ कर घंटो बैठा रहता। और न मिले तब भी कोई न कोई बहाना
बना लेता की देखना कहीं तुम्हारे झूले का कपड़ा ठीक से तो है कहीं अगर कपड़ा खिसक गया है तो तुम्हारी झूल कट जायेगी। अगर
तुम गिर गई या तुम्हारी पींग टूट जायेगी तो आफत आ जायेगी । फिर उस पर मुझे बार-बार
फिर नहीं चढने को कहना।
मैं नीम
के तने पर बैठ कर नीम के पत्तों से खेलता,
वो पत्ते जब मुझे छूते तो मुझे लगता की वो मुझे गुदगुदा रहा है। उसकी टहनियों का
मेरी पीठ से टेकरा मुझे बहुत अपने पन का अहसास दिलाता था। मैं उपर बैठ कर उसे एक
टक निहारता रहता, उस समय उसका अपूर्व सौंदर्य का में बांया नहीं कर सकता। मेरे पास
ही कोई पक्षी बैठा अपना मधुर गान गा रहा होता। वह मुझसे जरा भी नहीं डरता। मुझे इस
समय अपने पर बड़ा गर्व होता। कितना अच्छा लगता था में आपको शब्दों में वो सब बता
नहीं सकता। कभी-कभी कोई पक्षी जरूर डर कर मुझे देखते, मेरी मोजूदगी
उसे कुछ अटपटी भी लगती। पर पल भर के लिए ही चुप होता और फिर निश्चिन्त हो अपना
मधुर गान गाने लग जाता। उसकी मधुर गान को
सून मैं उस समय अपनी आंखे बंद कर थिर हो जाता तब वह मधुर गान गाने मुझे किसी और ही
लोक में ले जाता। समय और स्थान पल भर के लिए मिट जाता। शायद वो भी समझ जाते की हम
सुरक्षित है। पर एक बात जरूर है वहां बैठ कर पक्षियों सुनना,
जितना अच्छा लगता इतना नीचे या और कही से नहीं लगाता था। पर ऐसा क्यों? ये बे बुझा सा रहस्य में कभी नहीं समझ पाया। पर कुछ चीजें समझ में न आने
पर भी कितनी अच्छी लगती है ये मैंने पहली बार जाना।
घर की छत पर बैठ कर जब मैं पढ़ता होता तब
मेरा ध्यान पढ़ने में कम ही लगाता। और बार-बार में केवल उस नीम को ही निहारता
रहता। वो देखना धीरे-धीरे मात्र देखना भर रह जाता। न वहां मैं होता और न कोई
विचार। बस वहां होता केवल देखना। वो देखना भी कितना अभुतपूर्व सौंदर्य अपने में
समेटे होता है। हम जब वस्तुओ को देखते है तो सोचते भी रहते है। तब देखना देखना
नहीं होता। देखने को भाष तो मुझे नीम ने दिया। जब मैं उसे देख रहा होता तो न वहां
विचार होते न नीम होता ओर न मैं ही वहां होता। सब अपनी पूर्णता में विलिन हो जाती।
मेरे सामने वो अभूतपूर्व नीम उस समय अपने अपूर्व सौंदर्य की बुलंदियों के पास चला
जाता था। उसका सुबह-सुबह ओस की बुंदों में कैसी ताजगी को अपने ऊपर लिए उठना। उसकी
पूर्णता में कैसा अलसाया पन होता था। फिर
दिन की घुप में कैसे
कसमसाते हुए अँगड़ाई लेता था। उस समय तो ऐसा लगता, मानों वह तेज गर्मी में लम्बी-लम्बी ऊसांसे
भर रहा है। ठिठुरती शारदी में सुबह जब ओस उसके पत्तों पर जमा हो चमक रही होती तब
वह कैसे सि...सि..कर
ठिठुरता सा दिखता था, बरसात में मदमस्त हो उसका झूमना मुझे गद्द गद कर जाता था। ये सब दृश्य मुझे पारलौकिक या यू कहो
आपने साथ कुछ क्षणों के लिए किसी और ही लोक में ले जाते थे। और ये सब बातें जो
मेरे साथ घटती वह में जब इन्हें मां को बताता। तो वह हंस कर मुझे पागल कह भर देती
थी। पर में तो उस समय इतना मंत्र मुग्ध हो जाता की मेरे लिये और सारी दुनिया पल भर
के लिए खो ही जाती थी।
नीम को निहारते समय मेरा मन अवचेतन तक अभिभूत हो
उठता था। पतझड़ के आने पर उसके पके पीले पत्ते टहनी से टूट कर गिरते हुए कैसे गोल-गोल झूमते, नाचते, इठलाते, आनन्द विभोर और गौरव गर्वित हो गिरते से लगते
थे। वही पत्ते जब जमीन पर सोये पड़े होते तो कैसे अपने अन्दर शान्ति लिये मौन
मुखर दिखाई देते थे। जैसे उन्होंने कोई परिपूर्णता पा ली हो। क्या यहीं मृत्यु
है? इतनी शांति अपने में समेटे हुए। फिर इससे कैसा भय, क्यों
हम भयभीत होते है मृत्यु से? जब दुसरी और हम देखें है और
प्राणियों की और तो वह कैसे निशचित है मृत्यु के प्रति, वह केवल जी रहा है। उसे
मृत्यु का मानों पता ही नहीं है। और एक तरफ इस मनुष्य को देखो वह मृत्यु से
कैसे भयभीत और सहमा दिखाई देता है हर वक्त। और पल भी पूर्णता से जी नहीं पाता।
ऐसा क्यों शायद हम सोचते है की मौत हम बड़ी पीड़ा देगी। हमें मिटा देगी। सब खत्म
हो जायेगा.... क्यों नहीं हम उसे सहजता से सविकार कर लेते। क्या हमने जीवन के साथ
मृत्यु को भी विक्रीत अपूर्ण तो नहीं बना लिया है?
बसन्त
से पहले उसका पत्ते विहीन
चेहरा, एक साधु भाव
लिए हुए कैसा देव तुल्य प्रतीत
होता था। उस समय कैसे एक छोटे नग्न
बच्चे की झिझकन और मासूमियत फली हुए उसके चारो ओर मानों उसे आपकी आंखों की दृष्टि
चिर रही है। ये सब मुझे उसमें साफ़ दिखाई
देता। जब उसके लाल महरून कोमल पत्ते आते, वह कैसे नये चीवर पहन भिक्षु बन खड़ा हो पूजनीय सा दिखाई देने लग जाता
था। तब वो मुझे ऐसे गर्व से देखते हुए कहता प्रतीत होता ओर कहता सा देखता देखों मेरे
रूप मेरा उत्सव मेरा गोरव गरिमा। उन्हीं लाल महरून पत्तों पर धूप की किरणें कैसे छिटक कर आंखों को
चुन्धियाँ देती थी, मानो कोई दिव्य पुरूष साक्षात तुम्हारी नजरों के सामने आ खड़ा हुआ हो।
बरसात की तेज हवाओं में भी वह कैसे अडिग खड़ा रहता था। मानो तूफान से भी टकर लेने
का साहस उसने पा लिया था। डरा देने वाली बिजली की भयक्रान्त गड़गड़ाहट उसकी निर्भीकता को छू तक नहीं पाती
थी। लेकिन एक बात पक्की थी, वह धीरे-धीर अब बूढ़ा होने लगा था। बसन्त में नये
कोमल पत्तों के साथ, उसमें बुगर भी आ जाता था। उम्र बढ़ने से जैसे मनुष्य का मस्तक के स्नायु
सुप्त होने लग जाते है, उसकी याददाश्त
और दैनिक कार्या पर असर दिखाई देने लगा है। शायद ऐसा
ही उस नीम के साथ हो रहा था। और तो क्या कारण हो
सकता है, कि वो बे मौसमी बसन्त में पत्तों के साथ बूगुर (फूल)
भी अपने उपर लगा लेता था। जब उस बूगुर से निबोलियां बनकर पकती तब वे कैसी बेस्वाद और कड़वी होती थी।
बेमौसम होने के कारण फलों में रस नहीं आता। वहीं दूसरी और सावन के मौसम में उनका माधुर्य वो रसीला पन अंदर तक एक शीतलता
और तृप्ति दे जाता था। और दूसरी और इस
समय वह एक दम बे स्वाद और रूखी-सूखी निर्जीव सी होती थी। प्रकृति समय ओर स्थान पर
जो फल ओर उसका मर्धुय बनता है वह अनमोल है। यह उस वृक्ष का प्रेम है उसका लवन्य है
उसका मधुर्य है।
मैं
छत पर बैठ जब पढ़ता होता, तब भी किताबों
में लिखें काले अक्षरों
से उसके पत्तों पर लिखी कविता
मुझे ज्यादा लुभावनी लगती थी। मैं उसे जब
भी देखता वो केवल
प्रसन्न ही दिखाई देता, मैने उसे कभी उदास नहीं देखा। कितना बड़ा तपस्वी है, कभी
उफ्फ तक नहीं करता, न वो कभी मेरे की तरह बीमार ही पड़ता है। कभी-कभी उसके तने पर
काले-काले मोटे तिलच्ट्टा जरूर दिखाई देते थे, जब मैं मां से पूछता मां इसके तने
पर ये क्या चल रहे है, मां कहती इसके शरीर पर जुए हो गई है। मैं सोचता इसकी तो
मां भी नहीं है जो इसकी जुए निकाल दे, मेरे सर में जब भी जरा सी खुजली हो जाती थी,
तब मां को कैसा शक हो जात कि कही जुए तो नहीं हो गई है। तब वह किस तत्परता से मुझे
पकड़ कर घंटो मेरे सर से जुए ढ़ूँढ़ कर निकालने की कोशिश करती रहती थी। मैं लाख छटपटाता और छुड़ा कर भागने की कोशिश
करता। पर सब नाकामयाब हो जाती थी। इस बीच मेरी गर्दन भी दु:ख ने लग जाती थी। परन्तु
उस समय कौन सुनने बाला था, डांट डपट कर बिठा दिया जाता।
मुझे
उसके तने के पास बैठना इतना अच्छा लगता कि आपको बता नहीं सकता, उस पर चलते तिल
चट्टों का भी मुझ जरा डर नहीं लगता उसके संग होने पर में भूल ही जाता इस सारी
दुनियां को। मैं बाल वत एक बच्चे की भाति उससे ऐसे चिपट जाता जैसे कोई मां के
आँचल को सुस्वाद सुख ले रहा हूं। उस का खुरदरा पन, उस पर रेंगते कीड़े-मकोड़े
मेरे उपर भी चढ़ जाते, मुझे उन से भय के साथ घृणा का भाव भी खत्म हो गया। में उस
सब को ग्रहण कर लेता था अपने होने के साथ। उस के पास केवल बैठना इतना अच्छा लगने
लगा कि घर के लोग ने मुझे ‘नीम पागल’ की उपाधि से नवाज दिया। मैं नहीं जानता था कि
नीम पागल क्या होता है, शायद मेरा दोस्त नीम और मैं..पागल,
शायद ये लोग यही कहना चाहत हो। मुझे ये गाली जैसा न लग कर ऐसा लगता कोई मुझे किसी
उपाधि से सुशोभित कर रहा हो। क्योंकि इसके साथ मेरे दोस्त का नाम जो जूड़ा था। दोस्त शब्द सच ही महान है जहां दो अस्त हो
जाये, दो मिट जाये। शब्दों की यात्रा भी अपना पूरा इतिहास
अपने में पिरोये हुए साथ चलती है। और में इतना गदगद हो जाता आपने उस दोस्त के साथ
समय मेरे लिए ठहर जाता था।
उसके
अन्दर की बहती जीवंतता, मुझे इतना अलाहदा और आनंदित करने लगती थी कि मेरे आस
पास क्या हो रहा है। इस सब का मुझे कोई भी पता नहीं होता, न
मेरे पास शब्द होते न होती परिभाषा कुछ क्षणों के लिए सब गायब हो जाता था। और
चाहे मैं कितना भी क्यों न थका होता या मेरे मन में कैसी भी उदासी, परेशानी क्यों न होती, मैं कुछ देर उस नीम के तने
से सट कर बैठा नहीं की मेरी आंखें अचानक बंद हो जाती थी। जब मेरी आंखें खुलती में
किसी और लोक से इस लोक में अपने आप को आया हुआ पाता था। उसे मैं नींद भी नहीं कहा
सकता, ओर जागरण भी नहीं कह सकता। न वह प्रकाश है न अंधकार।
मात्र वहां होना ही पूर्णता का भास देता है। तब न आपके उपर किसा शरीर या विचारो का
बोझ ही होता है। आप पूर्ण निर्भार...किसी मुक्त उडान होती है उस बाता का पता तो मुझे
सालो बाद चला जब मैं ध्यान करने लगा ओर उसे समझने लगा की मुझे क्या होता है।
मेरी
सारा तनाव और थकान न जाने कहां गायब हो जाती थी। और में एक नई ऊर्जा से अपने को
सराबोर पाता था। मुझे अपने अन्दर एक नई उर्जा का संचार बहता साफ़ महसूस होता रहता
था। उसके पास बैठने भर से कुछ ऐसा हो गया कि जो पहले मैं घंटो बैठ कर भी याद नहीं
कर पाता था उसको में मात्र एक बार पढ़ने से याद कर लेता था। उन दिनों मैरा मन इतना
शांत रहता की मेरा किसी के साथ बात करने के जी नहीं भी चाहता था। उन्हीं दिनों
मैंने पहली बार जीवन के वह गहरे तल जो अनछुए अनजाने निर्दोषता से भरे क्षणों को
छुआ था। उन आयामों में घण्टों गोते मारे
थे। उनमें खोया उनमें जिया उनको जाना। कैसा
सुरमई अँधेरें क्षण थे वो वही चींजे अब मुझे ध्यान करते हुए सालों बाद महसूस होती
है। और मुझे वह मील के पत्थर परिचित से लगते है। और तब मुझे लगता है मैं सही
मार्ग और धरातल चल रहा हूं। मुझे मेरा प्यार नीम गुरु तुल्य बन कर वो सब निर्दोष
भाव से दिया उस से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता।
कभी-कभी
अचानक पढ़ते-पढ़ते जब नीम शब्द मेरी पुस्तक में आ जाता तब में नीम के पास जा कर
उसके कानों में थिसारस का पाठ भी पढ़ाने की कोशिश करता था। कि देख मैं कोई बुद्धू नहीं हुं,
एक ज्ञानी हूं।( यानि में उससे कहता की देख तेरे इतने नाम है क्या तुझे मालूम
है—चीर्णपर्ण, अरिष्ट, रविप्रिय, मदार, सर्वतोभद्रक, महातिक्त, पीतसार.....आदि
..आदि) तब वह मेरी और देख कर मुस्कराता हुआ
मालूम पड़ता, और कहता सा लगता कि ये सब उल जलूल बातें तुम मनुष्यों
को ही शोभा देती है, हमे शब्दों की क्या जरूरत है, हम तो केवल महसूस कर हर बात को
जान लते है। मानो मेरे ज्ञान के पिटारे को
खुलने से पहले ही वह बंद करा देता। और उस समय वो ऐसा झूमता की में अवाक सा रह जाता।
उसकी टहनियों इस तरह झूमती इठलाती और बल खाती जैसे वो खिल खिला कर हंस-हंस कर
लोटपोट हो रहा हो। और मैं निरुत्तर सा उस
ज्ञान के पिटारे के कारण शर्मिंदा हो जाता।
उस
रात को बहुत तेज आंधी-तूफान आया, पूरे नीम की गूतनी पकड़ कर हवा मरोड़-मरोड दिए जा
रही थी। नीम की ऐसी हालत देख कर मेरा दिल बैठा जा रहा था। इस बेचारे को इस समय हवा किस बुरी तरह से झक-झोर
रही है, मेरे दोस्त नीम को कितना भय लग रहा होगा। कैसे रात भी हवा इसे सोने नहीं
दे रही है, और उपर से हिला-हिला कर झकझोर रही है। मां तो मुझे रात को सोते में कभी
उठाती भी नहीं थी। नहीं कभी मजबूरी में अगर उठाना भी पड़े तब कैसे प्यार से दुलार
कर मेरे बालों में हाथ फेरती तब भी मुझे कैसा बुरा लगता। और उस समय कच्ची नींद उठने
के बाद न खाने में कोई रास आत और न ही कुछ अच्छा लगता था। क्या हमारी बेहोशी
हमें जीवन में पूर्ण रस नहीं लेने देती। क्या हम थोड़े और अधिक जाग्रत जब हो जाते
है, उन्हीं-उन्हीं स्थान उन्हीं-उन्हीं चीजों में हमारा रास अधिक नहीं बढ़
जाता है। मैं सोच रहा था क्या ये हवा दिन में नहीं चल सकती मेरा मन कर रहा था उसे
हवा को बंद कर दूँ। पर मैं असहाय सा केवल देखता रहा कैसे इसकी मदद करूं, लेकिन वो बिना किसी भय के अडिग खड़ा तूफान का सामना करता रहा। उसे झुमते
देख कर ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा था की वह भयभित है। मानों हवा उसे संगीत के झोंको
में नृत्य करा रही हो। इस सहास को देख कर मुझे अपने दोस्त पर कितना गर्व हुआ में
कहा नही सकता। वह मुझे कहा रहा था तुम डरों में ये तो जीवन का एक अंग है इसे ही ता
जीवन का विकास कहते है। थिरता तो मृत्यु तुल्य है।
इतनी
देर में हवा के साथ-साथ बारिश भी आ गई, कितनी सहन शक्ति
होती है, इनमें हम मनुष्य अपने को कितना सुरक्षित कर लिया
है, तभी तो हम इतना बचा पाए, बराना हमारी शारीरक संरचना पूरी पृथ्वी पर सबसे
कमजोर है। मनुष्य का शरीर इतना बर्दाश्त कभी नहीं कर सकता। अचानक टेहनियॉं के बीच
में बड़े जोर से फड़फड़ाहट की आवाज आई, जैसे कुछ गिरा हो।
बीच में बिजली की कड़कड़ाहट जो दिलों को कंपा दिया। उस समय बिजली इतनी जोर से चमकी
की पल भर के लिए तो आंखे भी अंधी हो गई। जब इस तरह से बिजली चमकती है तो मां आँगन में तवे
को उल्टा कर के रख देती थी। ताकि बिजली न गिरे, अब उनका लाजिक
कितना सत्य या केवल एक दिलाने वाला था मैं ने कभी खुद ही समझ पाया और न मां को ही
समझा ही पाया।
दोबारा बिजली कड़-कड़ाई और पूरा आंगन तेज प्रकाश
से नाह गया। मेरी भी आंखें मारे डर के एक दम से बंद हो गई। लेकिन प्रकाश में आँगन
में कुछ गिरा हुआ दिखाई दिया, बिजली की गडगडाहट के साथ ही जो
बुंदा-बाँदी थी वो अचानक बरसात में बदल गई। फिर भी मेरा मन नहीं माना मुझे लगा कोई
चीज ऊपर से गिरी है। और काफ़ी बड़ी दिखाई दी थी जब वह फड़-फड़ा कर गिर रही थी। मां
के मना करने के बावजूद भी में बिना रुके और बरिस की परवाह किए बाहर कि तरफ भाग। मैंने
उस गिरी चीज के पास जा कर देखा तो वह एक मोर था। उसका शरीर अभी तक भी गर्म था, सांसों का चलना भी महसूस हो रहा था। मैंने मां को आवज दी: ‘मां देखो मोर गिर गया है।‘
मां
को यकीन नहीं हुआ कि मोर कैसे गिर सकता है, उसके तो पंख होते है, वो तो गिरने से पहले अपने को संभाल सकता है। शायद हवा के झोंके में, या तेज बारिश में, गीले पर होने के कारण वो अपने को
संभाल न पाया हो, उसका संतुलन बिगड़ गया हो, या शायद वह गहरी नींद में हो पर जो भी हो बेचार इस समय जमीन पर गिरा असहाय
दिखाई दे रहा था। उड़ने का प्रयास तो उसने जरूर किया होगा पर उड़ नहीं पा रहा
होगा। हां अभी भी मेरे हाथ लगाने से पंख फड़-फड़ाने की कोशिश कर रहा था।
इतनी
देर में मानो आसमान टुट कर सर पर गिर गया हो। पुरा आँगन कांप गया। कुछ क्षण के लिए
तो सब ठहर गया। आंख, मन, शरीर,
मस्तिष्क सब निष्क्रय हो गया। पास ही नीम के एक तने के हर-हरा कर गिरने की आवाज
आई, पक्षियों की भयक्रान्त कर्कश करूण पुकार ने वातावरण को
और भी डरावना बना दिया। चारों तरफ भय और हाहाकार हवा में घुल गया। नीम का एक बहुत
बड़ी टहने पर शायद बिजली गरी हो और वो टुट कर नीचे गिर गया। उस पर सोये वो लाचार पक्षी
इस तूफान भरी रात में बेसहारा हो गए। छीन लिया कुदरत ने उन का आशियाना। भय से कि...कि...कि..
आवाज करते अंधेरे और उस तूफान में दूर कहीं नये आशियाने की तलाश में उड़ गये।
मैंने
जल्दी से मोर को उठाया और घर के अंदर
की तरफ भागा। मोर मेरी गोद में कुछ कुल बुलाया और अपने को मेरी पकड़ से छुड़ाने की
कोशिश करने लगा। उस ने मेरे हाथ को काटने कि कोशिश भी की परन्तु उसकी चोंच खुली
भर रह गई दबाब न डाल पाई। मैने एक कपड़े से उसे पोंछा और एक कोने में उसे बिठाने
की कोशिश करने लगा। परन्तु वो बैठ न सका। उसकी गर्दन एक तरफ को मुड़ गई मैने मां
को बताया मां ने हाथ लगा कर देखा और वो कहने लगी शायद इसकी गर्दन टुट गई लगती है।
में फटा-फट अंदर गया। आयोडेक्स की शीशी और एक कपड़ा ले आया। मां ने कहां साथ में
पानी भरने बाले रबर का एक टुकडा काट कर उसके बीच से दो हिस्से कर पहले इसकी गर्दन
के चारों तरफ लपेट दे, मैं मां का मुहँ देखता रह गया। मानों
मां ने कहीं से फस्टऐड का कोर्स किया हो। हम दोनों डाक्टर बन उसकी मरहम पटटी
करेने में व्यस्त हो गये। और एक चारपाई को कोने में आड़ी खड़ी कर के उसे एक कपड़ा ढक
दिया। हमने अपनी तरफ से उसकी सुरक्षा का
घेरा बना दिया ताकि हमारा पालतू कुत्ता या बिल्ली उस पर हमला न कर दे। मैंने उसे
एक कपड़ा भी उढा कर सुलाने की कोशिश की पर वह भीगा हुआ था। तब मां ने कहा की ले
पहले में ईट के टुकड़े को चूल्हे पर गर्म कर के तुझे देती हूं तू उसकी थोड़ी
सिकाई कर दे ताकि उसके बाल सुख जाए और उसे गर्मी भी मिले। उसे बाद में उसे कपड़े
में लपट कर उसके बदन को सुखाने की कोशिश की थोड़ी ही देर में उसने आंखे बंद कर ली
पता नहीं दर्द से या गर्माहट से। बहार बारिश अपना तांडव दिखाती नहीं और बिजली
सहयोगी बन उसे मार्ग दिखाती रही।
सुबह
जब उठे तो आस पड़ोस के घरों में हाहाकार मचा था। जो नीम का बड़ा सा टहना रात को
तूफ़ान में टूट कर गिरा था। उससे एक पडोस का घर छप्पर गिर गया था। इससे तो उन्हें
इतना डर हो गया कि ये नीम किसी दिन हमारी जान भी ले लगा। जो नीम कल तक सब का
दुलारा था आज अचानक एक दम से दुश्मन हो गया। आस पड़ोस की भीड़ बस यहीं रट लगाये
हुई थी कि इस नीम को तो अब काट डालों। ये अब बूढ़ा हो गया है। इसे तो मरना ही है।
पर ये अपने साथ आस पास के लोगों को भी ले कर मरेगा। मां न उन्हें लाख समझाया कि
इस में इस नीम का कोई कसूर नहीं है। ये तो
रात को तूफान ही इतना तेज आया था। मुझे तो लग रहा था कि पेड़ कहीं जड़ से न उखड
जाए। पर इसने कितनी हिम्मत दिखाई तुम देखते तो अचरज कर जाते। और आस पास के टीन
टब्बर और छान तो न जाने कहा गायब हो गई थी। उस भंयकर तूफ़ान के सामने उनकी क्या
बिसात थी। फिर टिकना इस छप्पर को भी नहीं था, ये तो पहले ही नीम के
तने के गिरने के कारण दब कर टूट गया। पर अब उस नीम की शामत आई थी। सब लोग उसके आस्तित्व
के पीछे पड़ गये थे। कोई ये समझने की कोशिश नहीं कर रहा था ऐसा खतरनाक तूफ़ान कोई
रोज-रोज थोड़ ही आते है। फिर बेचारे नीम का एक ही तो टहना गिरा था बाकी चार-पाँच
तो अभी भी अडिग खड़े थे। परन्तु मां की
किसी ने नहीं सुनी।
सब पड़ोसियों ने निर्णय कर लिया था कि उनके आँगन
में जो बड़े-बड़े टहनियों फैली हुए है, उसे काट देंगे। अच्छा
तो यही रहे की इसे जड़ से काट दिया जाए। तने को काटने के लिए मां ने मना कर दिया।
आज नीम के अंग-भंग किए जा रहे है। मैंने उसे छुआ वो बहुत उदास था। मेरी आंखों से
आंसू बहने लगे। और मुझे एक मायूसी ने घेर लिया। शायद यहीं उदासी और हताशा, और पीडा उस नीम को भी घेरे हुए थी। वो जीवत बलि चढ़ाया जा रहा था। मैंने अपने
हाथ पर चूँटी काट कर देखा की कितना दर्द होता है। अगर मेरा ये हाथ ही काट दिया जाए तो क्या में इस पीड़ा को सह सकूंगा। आज
मेरे दोस्त नीम को इतनी पीड़ा मिल रही है। और में उसे बाट भी नहीं सकता हूं। क्या
हो गया मनुष्य को क्या वो संवेदन हीन हो गया, क्या कारण है
इंसान आज इतना मतलबी हो गया है? क्या गांधी जी का वैष्णव जन कभी जीवित नहीं होगा? जो दूसरे की पीर, करूण, पीड़ा
या वेदना को जान सके। ये संवेद हीन होता मनुष्य खुद को काल के गर्त में शुद ही अपने
आप को लिए जा रहा है। उसको पता नहीं है, प्रकृति का एक-एक
साथी उसके लिए जीवन है। चाहे वो जल, वृक्ष, पशु, पक्षी, मिटटी; पहाड़ दृश्य या अदृष्य ही क्यों न
हो.......ये सब उसी के शरीर के अंग है अगर वो इन्हें भंग करेगा तो उसे भी
मरना पड़ेगा। शायद हम आत्म हत्या की तरफ कदम बढा रहे है। और हमारी चाल बाजी तो
देखे हम नारा विकसित करते है ‘’पृथ्वी को बचाए ’’ उसे पता नहीं है पृथ्वी तो करोड़ो सालों से अपने उपर ये विपदाएं, उथल, पुथल झेलती आ रही हे। उसे तो मानो इस सब को
सहने की आदत सी हो गई है, इस लिए अपने का और अधिक मजबूत बना
लिया है। पर जब करोड़ो सा पहले उस पर मानव भी नहीं था, तब भी
उसने अनेकों संहार देखे है, सहे है,
उनके साथ खड़े हो अपना आस्तित्व बचाया है।। और आज भी वह हमारी हजार बाधाओं को
झेलती आ रही है। देखना वह खत्म नहीं होगी खत्म होगा ये मनुष्य ही। इस पृथ्वी का कुछ नहीं होगा वह तो अपना नया
परिधान पहन कर फिर भी आनंद से जीएगी...कड़ावा सच तो ये है हमें अपने आप को बचाना
है इस पृथ्वी को नहीं.......
दिन
भर उस पर कुल्हाड़ी चलती रही। शाम होते तक उसके सब तने काट दिए गये। श्याम का
कुहासा घिरनें लगा था, उस पर दुर-दुर से जो पक्षी रैन बसेरा करने आते थे,
आज अपना आशियाना न पा कर बड़े बेचैन हो रहे थे। वो बार-बार उड़ कर
उन तनों पर बैठना चाह रहे थे। जो अब वहां पर नही थे। जिन पर वो सालों से सोते आ
रहे थे, न जाने आज अचानक कैसे ओर कहां गायब हो गये। ये सब
कारण उन मूक प्राणियों कि समझ से परे की बात थी। उन्हें एक भ्रम ने घेर लिया। कि
कल तक भी हम जिन तनों पर बैठते थे दिन भर गीत गा कर खेलते थे। एक दूसरे के साथ
लड़ते थे आज अचानक कैसे गायब हो गये। उन्होंने तो सोचा भी नहीं था कि रात जब हम
अपने घर सोने आयेंगे तो वह नदारद मिलेगा। लेकिन उन पक्षियों की बेचैनी और उधेड़
बुन की ओर किसी का ध्यान गया। वो बेचारे निरीह समझ ही नहीं पा रहे थे की हमारा आशियाना
कहां चला गया....... दस बीस कदम दूर तक उड़ते और फिर वापिस आ कर देखते। इसी उधेड़
बुन में रात घिरनें लग गई थी और उन्हें जहां भी ठोर-ठीक ना मिला वो बेचारे मायूस
हो चले गये। शायद वो इस मनुष्य को कभी नहीं समझ सकेगें जिनके संग वो रहते है। मै
ये सब होते नहीं देख सका और अंदर कमरे जा करा दरवाजा बंद कर के अपने बिस्तरे में
लेट गया। में उस समय अपने को बहुत असहाय महसूस कर रहा था मेरे ही सामने मेरे दोस्त
के अंग भग किये जा रहे है और में उसे बचाने में लाचार हूं। मेरी समझ में नहीं आ
रहा था कि में नीम को अंग विहीन कैसे देख पाऊंगा। इसी सब के बीच न जाने कब मेरी
आँख लग गई और मैं सो गया और जब उठा तो श्याम से रात हो गई थी।
बहार
कि अफरातफरी खत्म हो गई थी और उसके बाद एक श्मशान की शांति फैली थी आँगन में। नीम
के अंग काट दिए गये थे। वो असह्य पीड़ा से करहा रहा था। मैं उस से लिपट कर रो पडा मेरा
मन चीत्कार कर उठा उसको इस हालत देख कर। लेकिन में लाचार और असहाय और मजबूर था। आज
मुझे दुःख हो रहा था वह नीम इतना विशाल क्यों हुआ। क्या हमारे ही आँगन में नहीं
समा सकता था। क्यों उसने अपने पराये की सीमाओं को तोड़ा और उसे ये सब भोगना पडा।
आज उसकी विशालता ही उसका अवगुण बन गई। मैं अपने दोस्त को नहीं बचा सकता…..इस का मुझे आज भी दुःख है। मां ने मेरे सर पर हाथ फेरा, मैंने अपना मुहँ उपर उठा कर देखा तो मां भी मेरे साथ रो रही थी। और मैं जोर
से ‘’मां’’ कहा कर उस के सिने से लिपट
गया। हम दोनों की धड़कन एक हो गई। दोनों का दर्द भी एक दूसरे में प्रवाहित हो कर
एक दूसरे में विलीन हो गया। आज में इतना संवेदन शील ओर भावुक हुं तो इसका सारा
श्रेय या तो उस नीम को जाता है, या मां के संग साथ और लाड़
दुलार इसमें बहुत हाथ है। काश मेरी मां जैसी सब की माँएं हो जाती जो पीर पराई को
पी सके उसे दूसरे में प्रवाहित कर सके।
मोर
दो दिन तक जीवित रहा लेकिन उसे हम नहीं बचा सके क्योंकि उसकी गर्दन टुट गई थी। आँखो
में दवाई डालने वाले ड्रोपर में उसे दुध पीता था। पर वह आखिर कार मर ही गया। फिर
में उसे जंगल में जा एक गढ़ा खोद कर उसे दबा आया। ऊपर से दो चार पत्थर रख दिये
ताकी कोई गीदड़ आदि उसे खोद न सके।
मैं
उस दिन जब नीम के पास जाकर बैठा , मेरे अंदर की समस्वरता ही बदल
गई। एक नीरसता, रसहीनता, एक उबाऊपन और
बेचैनी ने मुझे घेर लिया। एक न जीने की चाहा जैसे मुझे लगा की में न जीउ , एक मरने की आकांशा बार-बार मेरे मन में उठ रही थी समुद्र की लहरों की
तरह जो टकराती जीवन के किनारे से ओर फिर नई बन कर तैयार हो
जाती। ऐसा क्यों हुआ उस समय मुझे
बड़ा अजीब सा लग रहा था। क्योंकि ये मरने
का विचार तो मेरे बाल वत मन में उठा तो उठा कैसे? मैं तो
जीवन को भगवान का दिया एक प्रसाद समझता था। इससे पहले ये विचार मेरे मन में कभी
नहीं आया मुझे तो जीने का जितना रस और आनंद था वो करोड़ो में किस एक बच्चे के
जीवन में रहा होगा। मां ने मुझे बचपन से यही तो सिखाया था जीओं पूर्णता से भर कर
लंबा-लब, एक-एक क्षण में खड़े होकर देखो तभी तुम ये जीवन जी
सकोगे। वरण तो तुम बहुत चुक जाओ इस जीवन से.... पर ये विचार अभी तक भी कभी नही उठा
मेरे मन में तो फिर आज क्या? तब अचानक मेरा माथा ठनका अरे
ये विचार उस पागल नीम के अंदर से उठी तरंगें तो नहीं थी, जिन्होंने
मुझे घेर लिया था, उसकी पीड़ा के साथ उसके भाव भी मुझमें प्रवाहित
तो नहीं गये। धीरे-धीरे ये मुझे साफ-साफ दिखाई देने लगा। ये विचार मेरे नहीं अपितु
मेरे दोस्त नीम के ही है। मैंने उसे अपने गले लगया और उस प्यार से कहा, उसे मनाने की कोशिश भी की, में उस से लिपट कर खूब
रोया उसे प्यार किया, क्या तू मुझे ऐसे ही छोड़ कर चला
जाएगा फिर मेरा दोस्त कोन बनेगा। पर मैंने ज़िद्द नहीं की,
मुझे उसकी पीड़ा का एहसास था। उसके कटे अंगों के कारण वह कितनी पीड़ा को सह रहा
होगा। माना वो मनुष्य की तरह कह नहीं सकता। पर मैं अपने दोस्त को खोना भी नहीं
चाहता थ। मैं जानता था मेरा दोस्त मुझे छोड़ कर चला गया तो मेरा कोई दोस्त नहीं
रहेगा। और सच ऐसा ही हुआ आज तक भी मैं नीम के बाद अपना कोई दोस्त नहीं बन पाया।
तब मैने मां को बताया। मां की आंखों में आंसू आ गए एक पेड़ को काटना एक आदमी को
मारने के बराबर पाप होता है। शायद हम दोनों को सब लोग नीम पागल समझ कर हंसते हो...पर
हम नीम पागल अनंद से जीतने तृप्त और शांति और प्रेम महसूस करते है, शायद उतने ये ठीक ठाक दिखने वाले समझदार मनुष्य नहीं।
परन्तु
नीम की जीवेशणा शायद उस का साथ छोड़ चूकि थी, उस के पत्ते जो पहले
झूमते इठलाते से महसूस होते थे, अब मायूस, और उदास दिखाई देने लगें। तब में छोटा था फिर भी उसकी वो पीड़ा और हताशा, देखने के साथ-साथ महसूस भी कर सकता था। अब उस के पास एक ही टहना बचा था। केवल
हमारे अंगन बाला, उसे अपना संतुलन करने में भी काफी तकलीफ
होती होगी। परन्तु एक बात जो सबसे ज्यादा मुझे अखरी की उस टहनी पर एक भी पक्षी उस
रात के बाद सोने के लिए नहीं आया। शायद इस पीड़ा के समय में उस पर बैठे ये पक्षी
कुछ मरहम का काम करते। चमत्कार है प्रकृति का रहस्य बे बुझ है। धीरे-धीरे उसकी मायूसी
बढती चली गई। मैने उसे लाख मनाया, प्यार किया, अपनी दोस्ती का वास्ता दिया, क़समें खाई रोया गिड़गिडाना
परन्तु उस की उदासी कम नहीं हुई। और देखते ही देखते वो दो महीने सुख कर ठुंठ रह
गया। उस के प्राण पखेरू उड़ गये। में अंदर तक कांप गया। मेरा दोस्त मुझे छोड़ कर
चला गया। पृथ्वी पर से तो नीम मिट गया पर मेरे ह्रदय में आज भी जीवित है। आज भी
उस पर बसंत आती है। पक्षी गीत गाते है। निमोलियो से लद जाता है.....
सालों
वह ठुंठ वैसे ही हमारे आंगन में खड़ा रहा, मां ने अपने जीते जी
उसे किसी को उसे काटने नहीं दिया। इतने सालों बाद भी इन मनुष्य रूपी जीवों में मुझे
एक भी नीम का पेड़ नजर नहीं आया कि मैं उस के साथ दोस्ती कर लू। फिर उसके बाद
मेरा कोई दोस्त न बन सका या शायद मैं ही खुद बना न सका। पर आज भी उस नीम का वंशज
मेरा साथ है। पहले तो मैने उसे अपने बैठक
खाने के आँगन में निमोलियो के बीजों से उसे उगा दिया। पर समय के साथ हमारे घर का
बटवार भी हो गया। और वो जगह बड़े भाई ने ले ली। मेंने जब भी जिद की थी की ये जगह
हमे दे दो पर हमारी तब भी एक न चली और भाई साहब ने उस दस साल के नन्हें मुन्ने
को काट दिया। लेकिन अब में आपने प्यारे दोस्त को मैंने ऐसी जगह उगा दिया जहां से
उसे अब कोई भी नहीं खत्म कर सकता। मैंने
इस बार उसकी कुछ निमोलियो को एक थैले में
भर लिया ओ आपने पास के अरावली के जंगल में बिखेर आया था। आज मेरा नीम एक नहीं हजार
रूपों में मुझे दिखाई देता है। और धीरे-धीरे उनकी तादाद बढ़ती ही जा रही है। पक्षी
भी उस पर आ-आ कर बसेरा करते है। मैंने उससे कहां तू मूर्ख है इस मनुष्य को तू कभी
नहीं पहचान सकता है। ये पल-पल में गिरगिट की तरह से रंग बदलता है। तू आपने घर
प्रकृति की गोद में अपनी मां के पास ही सुरक्षित है। इस का कोई भरोसा नहीं कब ये तुम्हारा घर कब तुझ
से छीन ले....मेरी इस बात से वह हंसता है। और मैं इधर उधर देखता हूं की कोई और तो
उसकी हंसी को सुन नहीं रहा। उसका इस तरह से मेरे उपर हंसना मुझे कुछ ओर खुशी जाता
है। की पूरी मानवता के बदले का जहर उसके मन में जो जहर है वह मुझे दे जाये। कम से
कम उसे थोड़ी तो खुशी मिलनी ही चाहिए....पर मैं जब भी जंगल में उन नीम के पड़ो के
पास से गुजरता हूं तो सब मुझे देखते ही आनंदित हो कर नाचते से प्रतीत होते है। और
उनमें से किसी भी एक नीम के तने से लिपट कर अपने दोस्ती की यादों में खो जाती
हूं.........
मैं सोचता हूं इस नीम के साथ रह कर कुछ और या
पूरा ही नीम पागल हो गया जाऊँ।
(यह कहानी
जहान्वी विशेषाकं में प्रकासित हुई है)
स्वामी आनंद
प्रसाद ‘मनसा ’
गांव दसघरा—नई
दिल्ली—110012
मो: 9899002125
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